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भगवतो.मूत्र-श १६.उ. ६ स्वप्न के प्रकार
कठिन शब्दार्थ-संवुडे-संवृत, संवुडासंबडे-संवृतासंवृत (श्रावक)।
भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन् ! संवत जीव स्वप्न देखता है, असंवृत जीव स्वप्न देखता है या संवृतासंवृत जीव स्वप्न देखता है ?
६ उत्तर-हे गौतम ! संवृत भी स्वप्न देखता है, असंवृत भी स्वप्न देखता है और संवतासंवृत भी स्वप्न देखता है । संवत जीव यथातथ्य (सत्य ) स्वप्न देखता है । असंवृत जीव जो स्वप्न देखता है, वह सत्य भी होता है और असत्य भी । संवृतासंवृत के स्वप्न असंवृत के समान जानना चाहिये ।
७ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव सवृत हैं, असंवृत हैं या संवृतासंवृत हैं ?
७ उत्तर-हे गौतम ! जीव संवृत भी हैं, असंवृत भी हैं और संवृतासंवत भी है। जिस प्रकार सुप्त जीवों का दण्डक कहा, उसी प्रकार इनका भी कहना चाहिये।
विवेचन-जिसने आश्रव द्वारों का निरोध कर दिया है, वह सर्वविरत मुनि संवृत' कहलाता है । संवृत में और जाग्रत में केवल गाब्दिक भेद है, अर्थ की अपेक्षा कोई भेद नहीं है । सर्वविरति युक्त मुनि बोध का अपेक्षा 'जाग्रत' कहलाता है और तथाविध बोध से युक्त मुनि सर्वविरति की अपेक्षा संवृत कहलाता है । यहाँ संवृत शब्द से विशिष्टतर संवृतत्व युक्त मुनि का ग्रहण किया गया है। वह प्रायः कर्म-मल क्षीण होने से और देव. के अनुग्रह युक्त होने से यथातथ्य स्वप्न देखता है। दूसरे संवृतासंवृत और असंवृत तो यथार्थ और अयथार्थ दोनों प्रकार के स्वप्न देखते हैं।
स्वप्न के प्रकार
८ प्रश्न-कइ णं भंते ! सुविणा पण्णता ? ८ उत्तर-गोयमा ! बायालीसं सुविणा पण्णत्ता । ९ प्रश्न-कइ णं भंते ! महासुविणा पण्णेत्ता ?
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