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-का. १३ 3.४ पंचास्तिकायमय टोक
भावार्थ-१३ प्रश्न-हे भगवन् ! यह लोक किस प्रकार का कहलाता है ?
१३ उत्तर-हे गौतम ! यह लोक पंचास्तिकाय रूप कहलाता है । यथाधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, यावत् (आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय ) पुद्गलास्तिकाय ।
१४ प्रश्न-हे भगवन् ! धर्मास्तिकाय से जीवों को क्या प्रवृत्ति होती है ?
१४ उत्तर-हे गौतम ! धर्मास्तिकाय से जीवों का आगमन, गमन, भाषा उन्मेष (आँखे खोलना) मनोयोग, वचनयोग और काययोग की प्रवृत्ति होती है। इसी प्रकार के दूसरे जितने भी चलभाव (गमनशील-भाव) हैं, वे सब धर्मास्तिकाय के द्वारा प्रवृत्त होते हैं। धर्मास्तिकाय का लक्षण 'गति' रूप है।
१५ प्रश्न-हे भगवन् ! अधर्मास्तिकाय से जीवों की क्या प्रवृत्ति होती है ?
१५ उत्तर-हे गौतम ! अधर्मास्तिकाय से जीवों का स्थान (स्थित रहना) निषीदन (बैठना), त्वग्वर्तन (सोना), मन को एकाग्र करना आदि तथा इसी प्रकार के अन्य जितने भी स्थित भाव हैं, वे सब अधर्मास्तिकाय से प्रवृत्त होते हैं । अधर्मास्तिकाय का लक्ष ग 'स्थिति' रूप है।
१६ प्रश्न-हे भगवन् ! आकाशास्तिकाय से जीवों और अजीवों की क्या प्रवृत्ति होती है ?
१६ उत्तर-हे गौतम ! आकाशास्तिकाय, जीन और अजीव द्रव्यों का भाजन भूत (आश्रय रूप) है अर्थात् आकाश से जीव और अजीव द्रव्यों के 'अवगाह' की प्रवृत्ति होती है । जैसा कि गाथा में कहा है- .
एगेण वि से पुण्णे दोहि, वि पुणे सयं पि माएज्जा।
कोडिसएण वि पुणे, कोडिसहस्सं पि माएज्जा ।
अर्थात्-एक परमाणु से पूर्ण, या दो परमाणु से पूर्ण एक आकाश प्रदेश में सौ परमाणु भी समा सकते हैं। सौ करोड़ परमाणुओं से पूर्ण, एक आकाश प्रदेश में हजार करोड़ परमाणु भी समा सकते हैं । आकाशास्तिकाय का लक्षण "अवगाहना" रूप है।
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