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________________ २५०८ भगवती सूत्र - श. १ उः १६ जीव और अधिकरण यावत् रखता है, तब तक उस पुरुष को कायिकी यावत् प्राणातिपातिकी तक पांच क्रिया लगती है। जिन जीवों के शरीर से लोहा, सण्डासी, घन, हथोड़ा, एरण, एरण का लकड़ा बना है और गर्म लोहे का ठण्डा करने की द्रोणी ( कुण्डी ) तथा अधिकरणशाला (लोहार का कारखाना) बना है, उन जीवों को भी कायिकी यावत् पांच क्रिया लगती है । विवेचन - पांच क्रियाओं के नाम इस प्रकार है -१ काइया ( कायिकी ) २ अहिगरजिया (आधिकरणिकी) ३ पाउसिया ? (प्राद्वेषिकी) ४ परितावणिया ( पारितापनिकी) ५ पाणाइवाइया (प्राणातिपातिकी) । काया से होने वाली क्रिया 'कायिकी क्रिया' कहलाती हैं। जिस अनुष्ठान विशेष से अथवा बाह्य खड्गादि शस्त्र से आत्मा, नरक गति का अधिकारी होता है, वह 'अधिकरण' कहलाता है । उससे होने वाली क्रिया 'आधिकरणिकी' क्रिया कहलाती है । कर्म बन्धन के कारणभूत मत्सर भाव को 'प्रद्वेष' कहते हैं । उससे होने वाली क्रिया 'प्राद्वेषिकं ! ' कहलाती है । ताड़ना आदि से दुःख देना अर्थात् पीड़ा पहुंचाना 'परिताप' है । उससे • होने वाली क्रिया 'पारितापनिकी' क्रिया कहलाती है । इन्द्रिय आदि प्राण हैं, उनके अतिपात अर्थात् विनाश से लगने वाली क्रिया 'प्राणातिपातिकी' कहलाती है । जीव और अधिकरण ५ प्रश्न - जीवे णं भंते! किं अधिकरणी, अधिकरणं ? ५ उत्तर - गोयमा । जीवे अधिकरणी वि अधिकरणं पि । प्रश्न - से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ - 'जीवे अधिकरणी वि अधिकरणं पि' ? उत्तर - गोयमा ! अविरतिं पडुच्च से तेणट्टेणं जाव अधिकरणं पि । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004090
Book TitleBhagvati Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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