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भगवती मूत्र-श. १३ उ. ६ अभीचिकुमार का वैरानुबन्ध
कठिन शब्दार्थ-अहं-मैं, अवहाय-छोड़ कर, अप्पत्तिएणं-अप्रीतिकर, मणोमाणसिएणं-मन सम्बन्धी, समणुबद्धवेरे-वैर भाव से बँधे हुए ।
भावार्थ-८ किसी दिन रात्रि के पिछले पहर में कुटुम्ब जागरणा करते हुए अभीचि कुमार को इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ-'मैं उदायन राजा का पुत्र और प्रभावती देवी का आत्मज हूँ, फिर भी उदायन राजा ने मुझे छोड़ कर अपने भाणेज केशी कुमार को राज्य पर स्थापित करके, श्रमण-भगवान् महावीर स्वामी के समीप यावत् प्रव्रज्या ग्रहण की है। इस प्रकार के महान् अप्रीति रूप मनोमानसिक (आन्तरिक) दुःख से पीड़ित बना हुआ, अभीचि कुमार अपने अन्तःपुर के परिवार सहित, अपने भाण्डमात्रोपकरण आदि लेकर वहाँ से निकला और चम्पा नगरी आकर कोणिक राजा के आश्रय में रहने लगा। वहाँ भी उस के पास विपुल भोग-सामग्री थी। उस समय में अभीचि कुमार श्रमणोपासक था और जीवाजीवादि तत्त्वों का ज्ञाता था । श्रमणोपासक होते हुए भी अभीचि कुमार, उदायन राजर्षि के प्रति वैर के अनुबन्ध से युक्त था।
उस काल उस समय में रत्नप्रभा पृथ्वी के नरकावासों के निकट असुरकुमारों के चौसठ लाख आवास कहे गये हैं। वह अभीचि कुमार बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक-पर्याय का पालन कर और अर्द्धमासिक संलेखना से तीस भक्त अनशन का छेदन करके, उस पाप-स्थान की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किये बिना, मरण के समय काल-धर्म को प्राप्त होकर, रत्नप्रभा पृथ्वी के नरकावासों के निकट, असुरकुमार देवों के चौसठ लाख आवासों में से किसी आवास में 'आयाव' रूप असुरकुमार देवपने उत्पन्न हुआ। वहाँ कितने ही आयाव रूप असुरकुमार देवों की स्थिति एक पल्योपम की कही गई है । अभीचि देव की स्थिति भी एक पल्योपम की है।
प्रश्न-हे भगवन् अभीचि देव आयु-क्षय, स्थिति-क्षय और भव-क्षय होने के पश्चात् मर कर कहाँ जाएगा, कहाँ उत्पन्न होगा? ।
उत्तर-हे गौतम ! वहां से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा और
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