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भगवती सूत्र - श. १६ उ. ८ अलोक में देव की भी गति नहीं
कठिन शब्दार्थ - णेव त्थि नहीं ।
भावार्थ - ९ प्रश्न - हे भगवन् ! महद्धिक यावत् महासुख वाला देव, लोकान्त में रह कर अलोक में अपने हाथ यावत् उरु को संकोचने और पसारने में समर्थ है ?
९ उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं ।
प्रश्न - हे भगवन् ! क्या कारण है कि महद्धिक देव लोकान्त में रह कर अलोक में अपने हाथ यावत् उरु को संकोचने और पसारने में समर्थ नहीं है ? उत्तर - हे गौतम! जीवों के अनुगत आहारोपचित, शरीरोपचित और कलेवरोपचित पुद्गल होते हैं। तथा पुद्गलों के आश्रित ही जीवों और अजीवों की गति पर्याय कही गई है। अलोक में जीव नहीं है और पुद्गल भी नहीं है । इसलिये पूर्वोक्त देव यावत् पसारने में समर्थ नहीं ।
हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं ।
विवेचन - जीवों के साथ रहे हुए पुद्गल, आहार रूप में, शरीर रूप में, कलेवर रूप में तथा श्वासोच्छ्वास आदि रूप में उपचित होते हैं अर्थात् पुद्गल सदा जीवानुगामी स्वभाव वाले होते हैं । जिस क्षेत्र में जोव होते हैं, वहीं पुद्गलों की गति होती है । इसी प्रकार पुद्गलों के आश्रित जीवों का और पुद्गलों का गति धम होता है । तात्पर्य यह है कि जिस क्षेत्र में पुद्गल होते हैं, उसी क्षेत्र में जीवों की और पुद्गलों की गति होती है । अलोक में धर्मास्तिकाय नहीं है, इसलिये वहाँ जीव और पुद्गल भी नहीं है और जीवों और पुद्गलों की गति भी नहीं होती ।
|| सोलहवें शतक का आठवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥
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