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गवती सूत्र - . १४ . ६ देवेन्द्र के भोग
४ उत्तर- जिस प्रकार शक के लिये कहा है, उसी प्रकार ईशान और सनत्कुमार के विषय में भी कहना चाहिये । विशेषता यह है कि प्रासादावतंसक की ऊँचाई छह सौ योजन और विस्तार तीन सौ योजन होता है । मणिपीठिका भी उसी प्रकार साठ योजन की है उसके ऊपर एक महान् सिंहासन, अपने परिवार के योग्य आसनों सहित विकुर्वता है, इत्यादि कहना चाहिये । वहाँ देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार बहत्तर हजार सामानिक देवों के साथ यावत् दो लाख ८८ हजार आत्मरक्षक देवों के साथ और सनत्कुमार कल्पवासी बहुत से देव और देवियों के साथ प्रवृत्त हो कर महान् गोत और वादित्र शब्दों के साथ यावत् भोग भोगता है । सनत्कुमार के समान यावत् प्राणत तथा अच्युत देवलोक तक कहना चाहिये । विशेषता में जिसका जितना परिवार हो उतना कहना चाहिये । अपने-अपने विमानों की ऊँचाई के बराबर प्रासाद को ऊँचाई और उससे आधा विस्तार कहना चाहिये । यावत् अच्युत देवलोक का प्रासादावतंसक नौ सौ योजन ऊँचा है और चार सौ पचास योजन विस्तृत है । उसमें हे गौतम ! देवेन्द्र देव-राज अच्युत, दस हजार सामानिक देवों के साथ यावत् भोग भोगता है । शेष सभी पूर्ववत् कहना चाहिये ।
हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैऐसा कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं ।
विवेचन - यहाँ शक्रेन्द्र से लेकर अच्युतेन्द्र के भोग भोगने की पद्धति का निरूपण किया गया है । सनत्कुमारेन्द्र मात्र सिंहासन की विकुर्वणा करता है, परन्तु शक्र और ईशान की तरह देव शय्या की विकुर्वणा नहीं करता। क्योंकि वह स्पर्शमात्र से विषयोपभोग करता है । इसलिये उनको शय्या का प्रयोजन नहीं है । सनत्कुमारेन्द्र का परिवार ऊपर बतला दिया गया है । माहेन्द्र के सित्तर हजार सामानिक देव और दो लाख अस्सी हजार आत्मरक्षक देव होते हैं । ब्रह्मलोकेन्द्र के साठ हजार, लांतक के पचास हजार, शुक्र के चालीस हजार, सहस्रार के तीस हजार, आनत-प्राणत के वीस हजार और आरण - अच्युत के दस हजार सामानिक देव होते हैं । इनसे चार गुणा आत्मरक्षक देव होते हैं ।
सनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोक के विमान ६०० योजन ऊँचे हैं । इसलिये उनके प्रासादों की ऊंचाई भी छह सौ योजन होती है । ब्रह्म और लांतक में सात सौ योजन शुक्र
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