Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
पुराण
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लज्जासे तुम्हारे समीप कहनेको नहीं आई इसलिये सखीको पठाई है है पिता इस श्रीकण्ठका अल्प भी अपराध नहीं में कर्मानुभव कर इसके संग आईहूं जो बड़े कुलमें उपजी हैं स्त्री हैं तिनके एकही बर होता है इसलिये इसके सिवाय मेर और पुरुषका त्याग है इस प्रकार सखी ने वीनती करी तब राजा सन्चित हो रहे मनमें विचारी कि मैं सर्व बातों में समर्थहूं युद्धमें लंकाके धनीको जीत श्रीकंटको बांधकर ले जाऊं परन्तु मेरी कन्याही ने इसको बरा तो में इसमें क्या करूं ऐसा जान युद्ध न किया और जो कीर्तिधवलके दूत आये थे उनको सनमान कर विदा किया, और जो पुत्रीकी सखी आई थी उसको भी सन्मानकर विदा करी वे हर्षकर भरेलंका आये और राजा पुष्पोत्तर सर्व अर्थ के बेत्ता पुत्री की वीनती से श्रीकण्ठ से क्रोध तज अपने स्थानक को गए ||
अथानन्तर मार्गशिर शुदी पडवा के दिन श्रीकण्ठ और पद्माभा का विवाह हुवा और कीर्तिधवल ने श्रीकण्ठ सो कहा कि तुम्हारे बैरी विजयार्धमें बहुत हैं इसलिये तुम यहांही समुद्र के मध्य में जो द्वीप है। वहां तिष्ठो तुम्हारे मनको जो स्थानक रुचें सो लेवों मेरा मन तुमको घोड़ नहीं सके है और तुमभी मेरी प्रीति के बन्धन तुड़ाय कैसे जावोगे ऐसे श्रीकण्ठ सो कहकर अपने आनन्द नामा मन्त्री से कहा कि तुम महाबुद्धिमान हो और हमारे दादे के मुह अगिले हो तुमसे सार असार कुछ छाना नहीं है श्रीकण्ठ योग्य जो स्थानक होय सो बतावो तब आनन्द कहते भए कि महाराज आपके सबही स्थानक मनोहर हैं तथापि आपही देखकर जोदृष्टि में रुचे सो लेवें समुद्र के मध्य में बहुत द्वीपहें कल्पवृश समान वृक्षों से मण्डित जहां नाना प्रकारके रत्नों कर शोभित बडे २ पहाड हैं जहां देव क्रीड़ा करे हैं तिन द्वीपों
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