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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पद्म पुराण www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लज्जासे तुम्हारे समीप कहनेको नहीं आई इसलिये सखीको पठाई है है पिता इस श्रीकण्ठका अल्प भी अपराध नहीं में कर्मानुभव कर इसके संग आईहूं जो बड़े कुलमें उपजी हैं स्त्री हैं तिनके एकही बर होता है इसलिये इसके सिवाय मेर और पुरुषका त्याग है इस प्रकार सखी ने वीनती करी तब राजा सन्चित हो रहे मनमें विचारी कि मैं सर्व बातों में समर्थहूं युद्धमें लंकाके धनीको जीत श्रीकंटको बांधकर ले जाऊं परन्तु मेरी कन्याही ने इसको बरा तो में इसमें क्या करूं ऐसा जान युद्ध न किया और जो कीर्तिधवलके दूत आये थे उनको सनमान कर विदा किया, और जो पुत्रीकी सखी आई थी उसको भी सन्मानकर विदा करी वे हर्षकर भरेलंका आये और राजा पुष्पोत्तर सर्व अर्थ के बेत्ता पुत्री की वीनती से श्रीकण्ठ से क्रोध तज अपने स्थानक को गए || अथानन्तर मार्गशिर शुदी पडवा के दिन श्रीकण्ठ और पद्माभा का विवाह हुवा और कीर्तिधवल ने श्रीकण्ठ सो कहा कि तुम्हारे बैरी विजयार्धमें बहुत हैं इसलिये तुम यहांही समुद्र के मध्य में जो द्वीप है। वहां तिष्ठो तुम्हारे मनको जो स्थानक रुचें सो लेवों मेरा मन तुमको घोड़ नहीं सके है और तुमभी मेरी प्रीति के बन्धन तुड़ाय कैसे जावोगे ऐसे श्रीकण्ठ सो कहकर अपने आनन्द नामा मन्त्री से कहा कि तुम महाबुद्धिमान हो और हमारे दादे के मुह अगिले हो तुमसे सार असार कुछ छाना नहीं है श्रीकण्ठ योग्य जो स्थानक होय सो बतावो तब आनन्द कहते भए कि महाराज आपके सबही स्थानक मनोहर हैं तथापि आपही देखकर जोदृष्टि में रुचे सो लेवें समुद्र के मध्य में बहुत द्वीपहें कल्पवृश समान वृक्षों से मण्डित जहां नाना प्रकारके रत्नों कर शोभित बडे २ पहाड हैं जहां देव क्रीड़ा करे हैं तिन द्वीपों For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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