Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ oo । नित नया उन्मेष जिस मस्तिष्क का संधान है। वाचना के प्रमुख तुलसी का सकल अनुदान है। भाष्य-युग की शृंखला में एक नव्य प्रयोग है। राष्ट्रभाषा में विनिर्मित “भगवती"-अनुयोग है ।। वाचना - प्रमुख गणाधिपति तुलसी विआहपण्णत्ती संपादक: भाष्यकार आचार्य महाप्रज्ञ खण्डational 91 For Private & Personal use only / Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई विआहपण्णत्ती [ खण्ड १] ( शतक १,२ ) (मूलपाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद, भाष्य तथा परिशिष्ट - शब्दानुक्रम आदि, जिनदास महत्तर कृत चूर्णि एवं अभयदेवसूरिकृत वृत्ति सहित ) वाचना- प्रमुख गणाधिपति तुलसी संपादक : भाष्यकार आचार्य महाप्रज्ञ जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) लाडनूं, राजस्थान-३४१३०६ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकः श्रीचन्द रामपुरिया कुलाधिपति जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय), लाडनूं © जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं प्रथम संस्करण : १६६४ पृष्ठ संख्या : ४२ + ४१४ मूल्य : ५६५/ US$40.00 कम्प्यूटर द्वारा टाईप-सेटिंग कम्प्यूटर विभाग, जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं (राजस्थान) कोड - JVBI/CD/BHAGWAI/0001/94 मुद्रण : निओ आफ्सेट प्रेस, नई दिल्ली Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BHAGAWAI VIAHAPANNATTI [Volume - 1] (Shatak 1, 2) (Prakrit Text, Sanskrit Renderings, Hindi Translation and Critical Annotations with Appendices-Indices, Churni of Jinadasa Mahattara and Vitti of Abhayadevasūri) Synod Chief (Vachana-pramukha) GANADHIPATI TULSI Editor and Annotator (Bhashyakara) ACHARYA MAHAPRAJNA JAIN VISHVA BHARATI INSTITUTE (Deemed University) Ladnun, Rajasthan-341306 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Publisher: Srichand Rampuria Chancellor Jain Vishva Bharati Institute (Deemed University), Ladnun (Raj.) Jain Vishva Bharati Institute First Edition 1994 Pages: XLII + 414 Price: Rs. 595/US $40 Typeset by : Computer Department Jain Vishva Bharati Institute Ladnun (Raj.) Code No.: JVBI/CD/BHAGWAI/0001/94 Printed by: Neo Offset, New Delhi, Phones: 6822911, 6823601, 6910427 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण ॥१॥ पुट्ठो वि पण्णा-पुरिसो सुदक्खो, आणा-पहाणो जणि जस्स निच्चं। सच्चप्पओगे पवरासयस्स, भिक्खुस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं ।। जिसका प्रज्ञा-पुरुष पुष्ट पटु, होकर भी आगम-प्रधान था। सत्य-योग में प्रवर चित्त था उसी भिक्षु को विमल भाव से ।। ॥२॥ विलोडियं आगमदुद्धमेव, लद्धं सुलद्धं णवणीय मच्छं। सज्झायसज्झाणरयस्स निच्चं, जयस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं ॥ जिसने आगम-दोहन कर कर, पाया प्रवर प्रचुर नवनीत। श्रुत-सद्ध्यान लीन चिर चिंतन, जयाचार्य को विमल भाव से ।। ॥३॥ पवाहिया जेण सुयस्स धारा, गणे समत्थे मम माणसे वि। जो हेउभूओ स्स पवायणस्स, कालुस्स तस्स प्पणिहाणपूव्वं ।। जिसने श्रुत की धार बहाई, सकल संघ में, मेरे मन में। हेतुभूत श्रुत-सम्पादन में, कालुगणी को विमल भाव से ।। विनयावनत गणाधिपति तुलसी Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती भाष्य वन्दना वाणी-वन्दना सत्य की अभिव्यक्ति में अक्षर सहज अक्षर बना। वन्दना उस आप्त-वाणी की करें पुलकितमना । भारती कैवल्य-पथ से अवतरित अधिगम्य है। सूचिर-संचित तम-विदारक रम्य और प्रणम्य है। वीर-वन्दना पुरुष के पुरुषार्थ का अधिकृत प्रवक्ता जो रहा। चेतना-निष्णात हो जो कुछ हुआ सबको सहा। समन्वय का सूत्र सम्यग् दृष्टि का पहला चरण । वीर प्रभु के चरण-चिह्नों का करें हम अनुसरण ।। भिव-वन्दना अगम आगम के पदों का काव्य था जिसने लिखा। सहज प्रज्ञा से अपथ का पंथ था जिसको दिखा। भिक्ष का वर मार्गदर्शन भाग्य से उपलब्ध है। सूत्र-सम्पादन नियति का वह बना प्रारब्ध है। जय-कालु-वन्दना सुचिर पोषित आप्त वाङ्मय-धेन का दोहन किया। मुनिप जय ने भिक्षु-गण में प्रवर सूर्योदय किया। उदय की इस उर्वरा का बीज हर आलेख है। पूज्य कालू के सुचिन्तन का नया अभिलेख है || वाचना-प्रमुख गणाधिपति तुलसी-वन्दना नित नया उन्मेष जिस मस्तिष्क का संधान है। वाचना के प्रमुख तुलसी का सकल अनुदान है। भाष्य-युग की शृंखला में एक नव्य प्रयोग है। राष्ट्रभाषा में विनिर्मित "भगवती"-अनुयोग है। विनयावनत : आचार्य महाप्रज्ञ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तस्तोष अन्तस्तोष अनिर्वचनीय होता है उस माली का जो अपने हाथों से उप्त और सिञ्चित द्रुम-निकुञ्ज को पल्लवित, पुष्पित और फलित हुआ देखता है, उस कलाकार का जो अपनी तूलिका से निराकार को साकार हुआ देखता है और उस कल्पनाकार का जो अपनी कल्पना को अपने प्रयत्नों से प्राणवान् बना देखता है। चिरकाल से मेरा मन इस कल्पना से भरा था कि जैन-आगमों का शोध-पूर्ण सम्पादन हो और मेरे जीवन के बहुश्रमी क्षण उसमें लगें। संकल्प फलवान् बना और वैसा ही हुआ। मुझे केन्द्र मान मेरा धर्म-परिवार उस कार्य में संलग्न हो गया। अतः मेरे इस अन्तस्तोष में मैं उन सबको समभागी बनाना चाहता हूं, जो इस प्रवृत्ति में संविभागी रहे हैं। संक्षेप में वह संविभाग इस प्रकार संपादक : भाष्यकार छाया, अनुवाद सहयोगी सम्पादन-भाष्य सहयो आचार्य महाप्रज्ञ महाश्रमणी साध्वी प्रमुखा कनकप्रभा महाश्रमण मुदित कुमार मुनि हीरालाल मुनि महेन्द्र कुमार संविभाग हमारा धर्म है। जिन-जिनने इस गुरुतर प्रवृत्ति में उन्मुक्त भाव से अपना संविभाग समर्पित किया है, उन सबको मैं आशीर्वाद देता हूं और कामना करता हूं कि उनका भविष्य इस महान् कार्य का भविष्य बने। गणाधिपति तुलसी Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय मुझे यह लिखते हुए अत्यन्त हर्ष हो रहा है कि 'जैन विश्व भारती' द्वारा आगम-प्रकाशन के क्षेत्र में जो कार्य सम्पन्न हुआ है, वह मूर्धन्य विद्वानों द्वारा स्तुत्य और बहुमूल्य बताया गया है। हम बत्तीस आगमों का पाठान्तर, शब्दसूची तथा 'जाव' की पूर्ति से संयुक्त सुसंपादित मूल पाठ प्रकाशित कर चुके हैं। उसके साथ-साथ आगम-ग्रन्थों का मूलपाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद एवं प्राचीनतम व्याख्या-सामग्री के आधार पर सूक्ष्म ऊहापोह के साथ लिखित विस्तृत मौलिक टिप्पणों से मंडित संस्करण प्रकाशित करने की योजना भी चलती रही है। इस शृंखला में पांच आगम ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं १. दसवेआलियं २. उत्तरज्झयणाणि ३. सूयगडो ४. ठाणं ५. समवाओ प्रस्तुत आगम भगवई विआहपण्णत्ती उसी शृंखला का छठा आगम है। बहुश्रुत वाचना-प्रमुख गणाधिपति श्री तुलसी एवं अप्रतिम विद्वान् संपादक-भाष्यकार आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने जो श्रम किया है, वह ग्रन्थ के अवलोकन से स्वयं स्पष्ट होगा । प्रस्तुत ग्रन्थ में भगवई विआहपण्णत्ती के प्रथम दो शतकों का समावेश है। संपादन-भाष्य-सहयोगी महाश्रमण मुनि श्री मुदित कुमारजी, मुनि श्री महेन्द्र कुमारजी और मुनि श्री हीरालालजी ने इसे सुसज्जित करने में श्रम किया है। संस्कृत छाया और हिन्दी अनुवाद महाश्रमणी साध्वी प्रमुखा श्री कनकप्रभाजी ने सम्पन्न किया है। ग्रन्थ की स्वच्छ प्रति तैयार करने में आदरणीय समणीवृन्द का बहुत सहयोग रहा है। प्रस्तुत आगम का प्रकाशन कम्प्यूटर द्वारा सेटिंग कर किया गया है जिसमें गणाधिपति श्री तुलसी की शिष्या-द्वय समणी शशीप्रज्ञा एवं प्रतिभाप्रज्ञा ने बहुत परिश्रम किया है। जैन विश्व भारती में श्री बजरंगलाल जैन, कम्प्यूटर पोइंट द्वारा स्थापित कम्प्यूटर विभाग के माध्यम से यह कार्य सम्पन्न हुआ है। आर्थिक सहयोग के लिए भी हम उनके ऋणी हैं। ऐसे सुसम्पादित आगम ग्रन्थ को प्रकाशित करने का सौभाग्य जैन विश्व भारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) को प्राप्त हुआ है। आशा है पूर्व प्रकाशनों की तरह यह प्रकाशन भी विद्वानों की दृष्टि में अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा। सुजानगढ़ ३०-१-६४ श्रीचन्द रामपुरिया कुलाधिपति, जैन विश्व भारती संस्थान Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय भगवई विआहपण्णती का प्रथम भाग पाठक के सम्मुख प्रस्तुत हो रहा है। इसके सम्पूर्ण मूलपाठ का सम्पादन अंगसुत्ताणि भाग २ में हो चुका है। हमने जो सम्पादन-शैली स्वीकृत की है, उसमें पाठ-शोधन और अर्थ-बोध दोनों समवेत हैं। अर्थ-बोध के लिए शुद्ध पाठ अपेक्षित है और पाठ-शुद्धि के लिए अर्थ-बोध अनिवार्य है। प्रस्तुत संस्करण अर्थ-बोध कराने वाला है। इसमें मूल पाठ के अतिरिक्त संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद और सूत्रों का हिन्दी भाष्य समवेत है। पाठ-सम्पादन का काम जटिल है। अर्थ-बोध का काम उससे कहीं अधिक जटिल है। कथा-भाग और वर्णन-भाग में तात्पर्य-बोध की जटिलता नहीं है। किन्तु तत्त्व और सिद्धान्त का खण्ड बहुत गम्भीर अर्थ वाला है। उसकी स्पष्टता के लिए हमारे सामने दो आधारभूत ग्रन्थ रहे हैं १. अभयदेव सूरिकृत वृत्ति-इसे अभयदेवसूरि ने स्वयं विवरण ही माना है और उसे पढ़ने पर वह विवरण-ग्रन्थ का बोध ही कराता है, व्याख्या-ग्रन्थ का बोध नहीं देता। २. भगवती-जोड-इसमें श्रीमज्जयाचार्य ने अभयदेवसूरि की वृत्ति का पूरा उपयोग किया है। 'धर्मसी का टबा' का भी अनेक स्थलों पर उपयोग किया है। इनके अतिरिक्त आगम और अपने तत्त्वज्ञान के आधार पर अनेक समीक्षात्मक वार्तिक लिखे हैं। हमने भाष्य के लिए आगम-सूत्रों, श्वेताम्बर दिगम्बर परम्परा का ग्रन्थ-साहित्य, वैदिक और बौद्ध परम्परा के अनेक ग्रन्थों का उपयोग किया है। 'आयारो' का भाष्य संस्कृत भाषा में लिखा गया है। भगवती का भाष्य हिन्दी में लिखा गया है। ठाणं, सूयगडो आदि की सम्पादन-शैली यह रही-मूल पाठ संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद तथा स्थान और अध्ययन की समाप्ति पर टिप्पण अथवा भाष्य। भगवती की सम्पादन-शैली में एक नया प्रयोग किया गया है। प्रत्येक सूत्र अथवा प्रत्येक आलापक (प्रकरण) के साथ भाष्य की समायोजना है। अन्त में छह परिशिष्ट हैं, जैसे १. नामानुक्रम २. भाष्यविषयानुक्रम ३. पारिभाषिक शब्दानुक्रम ४. आधारभूत ग्रन्थ सूची । ५. जिनदास महत्तरकृत चूर्णि-दो शतक । ६. अभयदेवसूरिकृत वृत्ति-दो शतक । प्रत्येक शतक के पहले एक आमुख है। पाद-टिप्पण में सन्दर्भ-वाक्य उद्धृत हैं। उपलब्ध आगम-साहित्य में भगवती सूत्र सबसे बड़ा ग्रन्थ है। तत्त्वज्ञान का अक्षयकोष है। इसके अतिरिक्त इसमें प्राचीन इतिहास पर प्रकाश डालने वाले दूर्लभ सूत्र विद्यमान हैं। इस पर अनेक विद्वानों ने काम किया है। किन्तु जितने श्रम-बिन्दु झलकने चाहिए, उतने नहीं झलक रहे हैं, यह हमारा विनम्र अभिमत है। गुरुदेव की भावना थी कि भगवती पर गहन अध्यवसाय के साथ कार्य होना चाहिए। हमने उस भावना को शिरोधार्य किया है और उसके अनुरूप फलश्रुति भी हुई है। इसका मूल्यांकन गहन अध्ययन करने वाले ही कर पाएगें। हमारा यह निश्चित मत है कि सभी परम्पराओं के ग्रन्थों के व्यापक अध्ययन और व्यापक दृष्टिकोण के बिना प्रस्तुत आगम के आशय को पकड़ना सरल नहीं है। उदाहरण के लिए एक शब्द को प्रस्तुत करना अभीष्ट है। प्रथम शतक के एक सूत्र (३४६) में ‘अवरा' पाठ है। पंडित बेचरदास जी ने उसका अर्थ दूसरी एक नाड़ी (तथा बीजी पण एक नाड़ी छै) किया है।' चरकसंहिता के अनुसार-गर्भस्थ शिशु को रसवाहिनियों से पोषण प्राप्त होता है। गर्भ की नाभि में नाड़ी लगी रहती है, नाड़ी में अपरा (Placenta) लगी रहती है और अपरा का संबंध माता के हृदय के साथ लगा रहता है। माता का हृदय उस अपरा को स्यन्दमान (जिसमें रस-रक्त आदि का वहन होता है) शिराओं द्वारा रस-रक्त से आप्लावित किए रहता है।' १. श्रीमद् भगवती सूत्र बेचरदास जी द्वारा अनुवादित, संपादित, प्रथम खण्ड, पृ. १८२ । २. चरक संहिता, शारीरस्थान, ६।२३। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय भगवई सहयोगानुभूति जैन परम्परा में वाचना का इतिहास बहुत प्राचीन है। आज से १५०० वर्ष पूर्व तक आगम की चार वाचनाएं हो चुकी हैं। देवर्द्धिगणी के बाद कोई सुनियोजित आगम-वाचना नहीं हुई। उनके वाचना-काल में जो आगम लिखे गए थे, वे इस लम्बी अवधि में बहुत ही अव्यवस्थित हो गए। उनकी पुनर्व्यवस्था के लिए आज फिर एक सुनियोजित वाचना की अपेक्षा थी। गणाधिपति पुज्य गुरुदेव श्री तुलसी ने सुनियोजित सामूहिक वाचना के लिए प्रयल भी किया था, परन्तु वह पूर्ण नहीं हो सका । अन्ततः हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचे कि हमारी वाचना अनुसन्धानपूर्ण, तटस्थ दृष्टि-समन्वित तथा सपरिश्रम होगी, तो वह अपने-आप सामूहिक हो जाएगी। इसी निर्णय के आधार पर हमारा यह आगम-वाचना का कार्य प्रारम्भ हुआ। हमारी इस वाचना के प्रमुख गणाधिपति श्री तुलसी हैं। वाचना का अर्थ अध्यापन है। हमारी इस प्रवृत्ति में अध्यापन-कर्म के अनेक अंग हैं—पाठ का अनुसंधान, भाषान्तरण, समीक्षात्मक अध्ययन आदि आदि । इन सभी प्रवृत्तियों में गुरुदेव का हमें सक्रिय योग, मार्ग-दर्शन और प्रोत्साहन प्राप्त है। यही हमारा इस गुरुतर कार्य में प्रवृत्त होने का शक्ति-बीज है। प्रस्तुत ग्रन्थ भगवती का सानुवाद और सभाष्य संस्करण है। इसमें भगवती के प्रथम दो शतक व्याख्यात हैं। मूलपाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद, भाष्य और उसके सन्दर्भ-स्थल-ये सब प्रस्तुत संस्करण के परिकर हैं। अनुवाद-कार्य साध्वी प्रमुखा कनकप्रभाजी ने संपन्न किया है। भाष्य-लेखन और सम्पादन में महाश्रमण मुनि मुदित कुमार, मुनि महेन्द्र कुमार और मुनि हीरालालजी सहयोगी रहे हैं। परिशिष्टों के निर्माण एवं सम्पादन में उक्त मुनियों के अतिरिक्त साध्वियों एवं समणियों का भी योगदान है। प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्पादन में अनेक साधु-साध्वियों का योग है। गुरुदेव के वरद हस्त की छाया में बैठकर कार्य करने वाले हम सब संभागी हैं। फिर भी मैं उन सब साधु-साध्वियों के प्रति सद्भावना व्यक्त करता हूं जिनका इस कार्य में स्पर्श हुआ है। आचार्य महाप्रज्ञ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेत-निर्देशिका अ.चू.-अगस्त्य चूर्णि (दशवैकालिक) अंत.–अंतगडदसाओ अणु.-अणुओगदाराई अनु. चू.-अनुयोगद्वारचूर्णि अनु. मल. वृ.-अनुयोगद्वार मलधारीय वृत्ति अनु. हा.व.-अनुयोगद्वार हारिभद्रीय वृत्ति अभि.-अभिधान चिन्तामणि आ. चू.-आचारांग चूर्णि आ. चूला–आयार चूला आ. वृ.-आचारांग वृत्ति आप्टे.-आप्टे का संस्कृत इंग्लिश कोश आव.-आवस्सयं आव. चू.-आवश्यक चूर्णि आव. नि.-आवश्यक नियुक्ति उत्तर.-उत्तरज्झयणाणि उत्तरा. नि.-उत्तराध्ययन नियुक्ति उत्तरा.बृ. वृ.-उत्तराध्ययन बृहद् वृत्ति उत्तरा.वृ.-उत्तराध्ययन वृत्ति उवा.-उवासदसाओ ओघ.-ओघनियुक्ति ओ/ओवा.-ओवाइयं औप. ७.-औपपातिक वृत्ति क. पा.-कसाय पाहुडं गो. सा.-गोम्मट सार छा. उ.-छान्दोग्य उपनिषद् जंबु.-जंबुद्दीवपण्णत्ती जम्बू. वृ.-जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति वृत्ति जि. चू.-जिनदास चूर्णि जीवा.-जीवाजीवाभिगमे जीवा. वृ.-जीवाजीवाभिगम वृत्ति जै. सि.को. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ज्ञाता. वृ.-ज्ञाताधर्मकथा वृत्ति ज्ञान. प्र.-ज्ञान बिन्दु प्रकरण त. रा. वा.-तत्त्वार्थ वार्तिक (राजवार्तिक) त. सू.-तत्त्वार्थ सूत्र त. सू. भा. वृ-तत्त्वार्थाधिगम-सूत्र-भाष्यानुसारिणी वृत्ति ति. प.-तिलोय पण्णत्ती दशवै. अ. चू.-दशवैकालिक अगस्त्य चूर्णि दशवै. जि. चू.-दशवैकालिक जिनदास चूर्णि दशवै. नि. दशवैकालिक नियुक्ति दशवै. हा. टी.-दशवकालिक हारिभद्रीय टीका दसवे.-दसवेआलियं नंदी चू.-नंदी चूर्णि नन्दी हा. वृ.-नन्दी हारिभद्रीय वृत्ति नन्दी वृ.-नन्दी वृत्ति नाया.-नायाधम्मकहाओ नि. चू.-निशीथ चूर्णि नि. भा. चू. -निशीथभाष्य चूर्णि निरया.-निरयावलियाओ निसीह.-निसीहज्झयणं पं. सं. (श्वे.) पञ्च संग्रह (श्वेताम्बर) पं. सं. दि.-पञ्चसंग्रह (दिगम्बर) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्ण.-पण्णवणा पण्हा.-पण्हावागरणाई पा. यो. द.-पातज्जलयोगदर्शनम् प्र. न. त.-प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार प्र. सा.-प्रवचन सार प्र. सारो. वृ.-प्रवचन सारोद्धार वृत्ति प्रज्ञा. वृ.-प्रज्ञापना वृत्ति बृ. क. भा.-बृहत्कल्प भाष्य भ. चू.-भगवती चूर्णि भ. जो.-भगवतीजोड़ भ.-भगवई विआहपण्णत्ती भ. वृ.-भगवती वृत्ति मनु.-मनुस्मृति राज. वृ.-राजप्रश्नीय वृत्ति राय.-रायपसेणइयं वि. भा.-विशेषावश्यक भाष्य वि. भा. वृ.-विशेषावश्यक भाष्य वृत्ति विजयोदया वृ.-विजयोदया वृत्ति व्य. भा. वृ.-व्यवहार भाष्य वृत्ति व्य. भा. -व्यवहार भाष्य श्वे. उ.-श्वेताश्वतर उपनिषद् ष. खं.-षट्खण्डागम सम.-समवाओ सम. प.-समवाओ, पइण्णग समवाओ सम. वृ.-समवायांग वृत्ति सम्मति-सम्मति प्रकरणम् सूत्र. चू.-सूत्रकृतांग चूर्णि सूत्र. नि.-सूत्रकृतांग नियुक्ति सूत्र. वृ.-सूत्रकृतांग वृत्ति सूय.-सूयगडो सूर.-सूरपण्णत्ती स्था. वृ.-स्थानाङ्ग वृत्ति हा. वृ.-हारिभद्रीय वृत्ति अ.-अध्ययन उ.-उद्देशक खं.-खण्ड गा.-गाथा (पद्य) भा.-भाग प.-पत्र पृ.-पृष्ठ पु.-पुस्तक सू.-सूत्र Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका नाम-भगवान् महावीर की वाणी द्वादशांगी में संकलित है। उस द्वादशांगी के पाँचवे अंग का नाम है-'विआहपण्णत्ती'। इसका संस्कृत रूप है-'व्याख्याप्रज्ञप्ति'। प्रश्नोत्तर की शैली में लिखा जाने वाला ग्रन्थ व्याख्याप्रज्ञप्ति कहलाता है। व्याख्या का अर्थ है विवेचन करना और प्रज्ञप्ति का अर्थ है समझाना। जिसमें विवेचनपूर्वक तत्त्व समझाया जाता है उसे व्याख्याप्रज्ञप्ति कहा जाता है । नंदीसूत्र में चार प्रज्ञप्तियों का उल्लेख है-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति। इनमें प्रथम तीन कालिकश्रुत हैं और सूर्यप्रज्ञप्ति उत्कालिकश्रुत है।' 'कसायपाहुड' में परिकर्म के पांच अधिकार बतलाए गए हैं—चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति। श्वेताम्बर साहित्य में व्याख्याप्रज्ञप्ति का उल्लेख केवल द्वादशांगी के पांचवे अंग के रूप में ही मिलता है। यदि द्वादशांगी के ग्यारह अंगों को बारहवें अंग (दृष्टिवाद) से उद्धृत माना जाए तो दिगम्बर साहित्य के आधार पर व्याख्याप्रज्ञप्ति को परिकर्म के पांचवें अधिकार (व्याख्याप्रज्ञप्ति) से उद्धृत माना जा सकता है। इन दोनों की विषयवस्तु भी समान है। व्याख्याप्रज्ञप्ति नाम का परिकर्म रूपी-अरूपी, जीव-अजीव, भव्य-अभव्य के प्रमाण और लक्षण, मुक्त जीवों तथा अन्य वस्तुओं का वर्णन करता है।" तत्त्वार्थराजवार्तिक तथा नंदी और समवायांग में भी व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग के विषय-प्रतिपादन का उल्लेख मिलता है, वह भी जीव-अजीव आदि द्रव्यों के वर्णन की सूचना देता है।' समवायांग और नंदी में व्याख्याप्रज्ञप्ति और व्याख्या-ये दोनों नाम मिलते है। व्याख्या व्याख्याप्रज्ञप्ति का ही संक्षिप्त रूप है। अभयदेवसूरि ने प्रस्तुत सूत्र के प्रारम्भ में व्याख्याप्रज्ञप्ति पद की व्याख्या की है। उनके अनुसार प्रस्तुत आगम में गौतम आदि शिष्यों द्वारा पूछे गए प्रश्नों के उत्तर में महावीर ने जो प्रतिपादन किया, उसकी प्रज्ञापना है। इसलिए इसका नाम व्याख्याप्रज्ञप्ति है। उन्होंने इसके चार अर्थ और किए हैं १. व्याख्या + प्रज्ञा + आप्ति = व्याख्याप्रज्ञाप्ति । २. व्याख्या + प्रज्ञा + आत्ति = व्याख्याप्रज्ञात्ति। इसमें व्याख्या की प्रज्ञा से अर्थ की प्राप्ति होती है, इसलिए यह व्याख्याप्रज्ञाप्ति अथवा व्याख्याप्रज्ञात्ति है। ३. व्याख्याप्रज्ञ + आप्ति = व्याख्याप्रज्ञाप्ति। ४. व्याख्याप्रज्ञ + आत्ति = व्याख्याप्रज्ञात्ति । व्याख्याप्रज्ञ भगवान् महावीर के द्वारा गणधरों को अर्थ की प्राप्ति हुई है, इसलिए इस आगम का नाम व्याख्याप्रज्ञाप्ति अथवा व्याख्याप्रज्ञात्ति है। ये चारों अर्थ बौद्धिक हैं। प्राकृत व्याकरण की दृष्टि से किए जा सकते हैं, इसलिए किए गए हैं। ये मूलस्पर्शी नहीं हैं। विआहपण्णत्ती का कुछ आदर्शों में विवाहपण्णत्ती पाठ भी मिलता है। यह संभवतः लिपिकारों के प्रमाद से हुआ है। अभयदेवसूरि ने इस पाठ की भी व्याख्या की है १. वि + वाह + प्रज्ञप्ति = विवाहप्रज्ञप्ति। इसमें विविध या विशिष्ट अर्थप्रवाहों का प्रज्ञापन है, इसलिए यह विवाहप्रज्ञप्ति है। २. वि + बाध + प्रज्ञप्ति = विबाधप्रज्ञप्ति । इसमें बाधारहित अर्थात् प्रमाण से अबाधित अर्थ का निरूपण है, इसलिए यह विबाधप्रज्ञप्ति प्रस्तुत आगम का दूसरा नाम 'भगवती' है। व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र की अपनी विशिष्टता थी, इसलिए भगवती इसका एक विशेषण था। समवायांग में वियाहपण्णत्ती के साथ भगवती विशेषण रूप में प्रयुक्त है। आगे चलकर यह विशेषण नाम बन गया। इस सहस्राब्दी में व्याख्याप्रज्ञप्ति की अपेक्षा 'भगवती' नाम अधिक प्रचलित है। १. नंदी,सू.७॥ २. वही,सू.७७। ३. क.पा.प्रथम अधिकार,पृ.१३२–परियम्मं चंद-सूर-जंबूदीव-दीवसायर-वियाहपण्णत्तिभेएण पंच- ५. त.रा.वा.१।२०नंदी,सू. .५;सम.प.सू.६३। ६. सम.प.सू.८८,६३नंदी,सू.८०,८५/ ७. भ.वृ.प.२। । ८. वही,प.२- इयं च भगवतीत्यपि पूज्यत्वेनाभिधीयते । ६. सम.८४।११-वियाहपण्णत्तीए णं भगवतीए चउरासीई पयसहस्सा पदग्गेणं पण्णत्ता। विहं। ४. वही,प्रथम अधिकार,पृ.१३३ जा पुण वियाहपण्णत्ती सा रूवि-अरूवि-जीवाजीवदव्वाणं भवसिद्धिय-अभवसिद्धियाणं। पमाणस्स तल्लक्खणस्स अणंतर-परंपरसिद्धाणं च अण्णेसिं च वत्थूणं वण्णणं कुणइ ।। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका भगवई विषयवस्तु समवायांग और नंदी के अनुसार प्रस्तुत आगम में ३६ हजार प्रश्नों का व्याकरण है।' तत्त्वार्थराजवार्त्तिक, षट्खण्डागम और कसायपाहुड के अनुसार प्रस्तुत आगम में ६० हजार प्रश्नों का व्याकरण है। प्रस्तुत आगम के विषय के सम्बन्ध में अनेक सूचनाएँ मिलती हैं। समवायांग में बताया गया है कि अनेक देवों, राजाओं और राजर्षियों ने भगवान् से विविध प्रकार के प्रश्न पूछे और भगवान् ने विस्तार से उनका उत्तर दिया। इसमें स्वसमय, परसमय, जीव, अजीव, लोक और अलोक व्याख्यात हैं। नंदी में भी यही विषयवस्तु निर्दिष्ट है, किन्तु उसमें समवायांग की भांति प्रश्नकर्ताओं का उल्लेख नहीं है। आश्चर्य है कि समवायांग में सबसे बड़े प्रश्नकार गौतम का उल्लेख नहीं है। आचार्य अकलंक के अनुसार प्रस्तुत आगम में जीव है या नहीं है-इस प्रकार के अनेक प्रश्न निरूपित हैं।' आचार्य वीरसेन के अनुसार प्रस्तुत आगम में प्रश्नोत्तरों के साथ-साथ ६६ हजार छिन्नच्छेद नयों, ज्ञापनीय शुभ और अशुभ का वर्णन है।" उक्त सूचनाओं से प्रस्तुत आगम का महत्त्व जाना जा सकता है। वर्तमान ज्ञान की अनेक शाखाओं ने अनेक नए रहस्यों का उद्घाटन किया है। हम प्रस्तुत आगम की गहराइयों में जाते हैं तो हमें प्रतीत होता है कि इन रहस्यों का उद्घाटन अतीत में भी हो चुका था। प्रस्तुत आगम तत्त्वविद्या का आकरग्रन्थ है। इसमें चेतन और अचेतन-इन दोनों तत्त्वों की विशद जानकारी उपलब्ध है। संभवतः विश्व विद्या की कोई भी ऐसी शाखा नहीं होगी जिसकी इसमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में चर्चा न हो। तत्त्वविद्या का इतना विशाल ग्रंथ अभी तक ज्ञात नहीं है। इसके प्रतिपाद्य विषय का आकलन करना एक जटिल कार्य है। अंगसुत्ताणि भाग दो में इसकी विस्तृत विषयसूचि उपलब्ध है। फिर भी कुछ विषयों की चर्चा करना अपेक्षित है। प्रस्तुत आगम में तत्त्वविद्या का प्रारम्भ 'चलमाणे चलिए' इस प्रश्न से होता है। जैन दर्शन में प्रत्येक तत्त्व का प्रतिपादन अनेकान्त की दृष्टि से होता है। एकान्त दृष्टि के अनुसार चलमान और चलित-दोनों एक क्षण में नहीं हो सकते। अनेकान्त की दृष्टि के अनुसार चलमान और चलित-दोनों एक क्षण में होते हैं। समूचे आगम में अनेकान्त दृष्टि का पूरा उपयोग किया गया है। अनेकान्त का स्वरूप है नयवाद या दृष्टिवाद । मध्ययुग में तर्कप्रधान आचार्यों ने अनेकान्त का प्रमाण के साथ सम्बन्ध स्थापित किया है, वह मौलिक नहीं है। अनेकान्तवाद के अनुसार प्रमाण औपचारिक है, वास्तविक है नय। इस प्रश्न की व्याख्या ऋजुसूत्र नय से होती है। जयधवला में पच्यमान-पक्क की व्याख्या ऋजुसूत्र नय के आधार पर की गई है। इसी प्रकार क्रियमाण कृत, भुज्यमान भुक्त, बद्ध्यमान बद्ध और सिद्ध्यमान सिद्ध आदि की व्याख्या एकसमयवर्ती पर्याय को सूचित करने वाले ऋजुसूत्र नय के द्वारा होती है। अभयदेवसूरि ने इसकी व्याख्या निश्चय नय के अनुसार की है। उनका कहना है कि व्यवहारनय के अनुसार चलित को ही चलित कहा जा सकता है और निश्चय नय के अनुसार चलमान को भी चलित कहा जा सकता।” इसका तात्पर्य यह है कि उत्पत्ति और निष्पत्ति का क्षण एक ही है। जिस क्षण में उत्पत्ति है उसी क्षण में निष्पत्ति हो जाती है। उत्पत्ति और निष्पत्ति की शृंखला चालू रहती है। भगवान् महावीर के अस्तित्व-काल में धर्मदर्शनों का बहुत बड़ा समवाय था। श्रमण और वैदिक दोनों परम्पराओं के सैकड़ो सम्प्रदाय प्रचलित थे। महावीर ने अपनी दीर्घ तपस्या से सूक्ष्म सत्यों का साक्षात्कार और उनका प्रतिपादन किया। षड्जीवनिकाय लोक-अलोकवाद, पञ्चास्तिकाय, परमाणुवाद, तमस्काय, कृष्णराजि—ये जैन दर्शन के सर्वथा स्वतन्त्र अस्तित्व के प्रज्ञापक हैं। कुछ पश्चिमी विचारकों ने लिखा है-जैन दर्शन अन्यान्य दर्शनों के विचारों का संग्रह-मात्र है, उसका स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। उनकी इस स्थापना को हम सर्वथा निराधार नहीं मानते, इसका एक आधार भी है। मध्य युग के आचार्यों ने न्याय या तर्कशास्त्र के जिन ग्रंथों की रचना की उनमें बौद्ध और नैयायिक आदि दर्शनों के विचारों का संग्रह किया गया है। उन ग्रंथों को पढकर जैन दर्शन के बारे में उक्त धारणा होना अस्वाभाविक नहीं है। जैन दर्शन का वास्तविक स्वरूप आगम सूत्रों में निहित है। मध्यकालीन ग्रन्थ खंडन-मंडन के ग्रन्थ हैं। हमारी दृष्टि में वे दर्शन के प्रतिनिधि ग्रन्थ नहीं हैं। पहली भ्रान्ति यह है कि तार्किक ग्रन्थों को दार्शनिक ग्रन्थ माना जा रहा है। दूसरी भ्रान्ति इसी मान्यता के आधार पर पल रही है कि जैन दर्शन दूसरे दर्शनों के विचारों का संग्रह मात्र है। पहली भ्रान्ति टूटे बिना दूसरी भ्रान्ति नहीं टूट सकती। जैन दर्शन के आधारभूत और मौलिक ग्रन्थ आगम-ग्रन्थ हैं। ये दर्शन का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनका गम्भीर अध्येता नहीं कह सकता कि जैन दर्शन दूसरे विचारों का संग्रह मात्र है। आचार्य सिद्धसेन ने लिखा है-भगवान् ! आपकी सर्वज्ञता को सिद्ध करने के लिए मुझे बहुत प्रमाण प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं है। आपके द्वारा प्रतिपादित षड्जीवनिकायवाद आपके सर्वज्ञत्व का प्रबलतम साक्ष्य है।" १. सम.प.सू.६३:नंदी,सू.८५। ७. क.पा.प्रथम अधिकार,पृ.१२५। २. त.रा.वा.१।२०ष.खं.१,पृ.१०१;क.पा.प्रथम अधिकार,पृ.१२५/ ८.११११। ३. सम.प.सू.६३। ६. क.पा.प्रथम अधिकार,पृ.२२३,२२४। ४. नंदी,सू.८५। १०. भ.वृ.प.१६॥ ५.त.रा.वा.१॥२०॥ ११. द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका,११३६. जिस व्याख्यापद्धति में प्रत्येक श्लोक और सूत्र की स्वतन्त्र, दूसरे श्लोकों और य एव षड्जीवनिकायविस्तरः, परैरनालीढपथस्त्वयोदितः। सूत्रों से निरपेक्ष व्याख्या की जाती है उस व्याख्या पद्धति का नाम छिनच्छेद अनेन सर्वज्ञपरीक्षणक्षमास्त्वयि प्रसादोदयसोत्सवाः स्थिताः॥ नरा है। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका भगवान् महावीर ने जीवों के छह निकाय बतलाए । उनमें त्रस निकाय के जीव प्रत्यक्ष सिद्ध हैं। वनस्पति निकाय के जीव अब विज्ञान द्वारा भी सम्मत हैं। पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु—– इन चार निकायों के जीव विज्ञान द्वारा स्वीकृत नहीं हुए। भगवान् महावीर पृथ्वी आदि जीवों का केवल अस्तित्व ही नहीं बतलाया, उनका जीवनमान, आहार, श्वास, चैतन्यविकास, संज्ञाएं आदि पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला है। पृथ्वीकायिक जीवों का न्यूनतम जीवनकाल अन्तर्मुहूर्त्त का और उत्कृष्ट जीवनकाल बाईस हजार वर्ष का होता है। वे श्वास निश्चित क्रम से नहीं लेते- कभी कम समय से और कभी अधिक समय से लेते हैं। उनमें आहार की इच्छा होती है। वे प्रतिक्षण आहार लेते हैं। उनमें स्पर्शनेन्द्रिय का चैतन्य स्पष्ट होता है। चैतन्य की अन्य धारायें अस्पष्ट होती हैं।' मनुष्य जैसे श्वासकाल में प्राणवायु का ग्रहण करता है वैसे पृथ्वीकाय के जीव श्वासकाल में केवल वायु को ही ग्रहण नहीं करते, किन्तु पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति — इन सभी को ग्रहण करते हैं। ' भगवई वर्त्तमान विज्ञान ने वनस्पति जीवों के विविध पक्षों पर्याप्त शोध नहीं की । वनस्पति क्रोध और प्रेम पृथ्वी की भांति पानी आदि के जीव भी श्वास लेते हैं, आहार आदि करते हैं। का अध्ययन कर उनके रहस्यों को अनावृत किया है, किन्तु पृथ्वी आदि के जीवों पर प्रदर्शित करती है। प्रेमपूर्ण व्यवहार से वह प्रफुल्लित होती है और घृणापूर्ण व्यवहार से वह मुरझा जाती है। विज्ञान के ये परीक्षण हमे महावीर के इस सिद्धान्त की ओर ले जाते हैं कि वनस्पति में दस संज्ञाएं होती हैं। वे संज्ञाएं इस प्रकार हैं- आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा, क्रोधसंज्ञा, मानसंज्ञा, मायासंज्ञा, लोभसंज्ञा, ओघसंज्ञा और लोकसंज्ञा। इन संज्ञाओं का अस्तित्व होने पर वनस्पति अस्पष्ट रूप में वही व्यवहार करती है जो स्पष्ट रूप में मनुष्य करता है। १७ प्रस्तुत विषय की चर्चा एक उदाहरण के रूप में की गई है। इसका प्रयोजन इस तथ्य की ओर इंगित करना है कि इस आगम में ऐसे सैकड़ों विषय प्रतिपादित हैं, जो सामान्य बुद्धि द्वारा ग्राह्य नहीं है। उनमें से कुछ विषय विज्ञान की नई शोधों द्वारा अब ग्राह्य हो चुके हैं और अनेक विषयों को परीक्षण के लिए पूर्वमान्यता के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। पंचास्तिकाय १,४ पं. दलसुख मालवणिया ने लिखा है ' - पंचास्तिकाय और षड्द्रव्य की कल्पना नव तत्त्व या सात तत्त्व के बाद ही हुई है। उसका प्रमाण हमें भगवती सूत्र से मिल जाता है। वहां प्रश्न किया गया है कि लोकान्त में खड़ा रहकर देव अलोक में अपना हाथ हिला सकता है या नहीं ? उत्तर दिया गया कि नहीं हिला सकता और उसका कारण बताया है कि "जीवाणं आहारोवचिया पोग्गला, बोंदिचिया पोग्गला, कलेवरचिया पोग्गला, पोग्गलमेव पप्प जीवाण य अजीवाण य गतिपरियाए आहिज्जइ । अलोए णं नेवत्थि जीवा नेवत्थि पोग्गला ।' स्पष्ट है कि जीव और अजीव की गति का कारण पुद्गल को माना गया है। यदि भगवती के इस स्तर की रचना के समय में धर्मास्तिकाय द्रव्य की कल्पना स्थिर हो गई होती तो ऐसा उत्तर नहीं मिलता। धर्मास्तिकाय आदि की प्ररूपणा क्या भगवान् महावीर ने की है ? ऐसे प्रश्न भी अन्य तीर्थिकों के हुए है, यह भी सूचित करता है कि यह कोई नई बात दार्शनिक क्षेत्र में चल पड़ी थी। भगवती में ही धर्मास्तिकाय आदि के जो पर्याय दिए गए हैं वह भी उन्हें द्रव्य मानने के पक्ष में नहीं हैं । ६ पं मालवणियाजी की उक्त स्थापना समीक्षणीय है, मालवणियाजी ने लिखा है -सूत्रकृतांग के काल तक पंचास्तिकाय और षद्रव्य की चर्चा ने तत्त्व - विचारणा में स्थान पाया नहीं है । आचारांग और सूत्रकृतांग में दर्शन के आधारभूत तत्त्वों की खोज एक सुसंगत उपक्रम नहीं है। महावीर ने किसी आगम की रचना नहीं की। उन्होंने जो कहा उसको आधार मानकर गणधरों और स्थविरों ने आगम की रचना की । आचार आदि अंग सूत्रों की रचना एक योजनाबद्ध ढंग से की गई थी। समवायांग और नंदी में उपलब्ध द्वादशांगी के विवरण से इस तथ्य की पुष्टि होती है। आचारांग में निर्ग्रथों के आचार- गोचर, विनय वैनयिक, शिक्षा-भाषा आदि आख्यात हैं। ' सूत्रकृतांग में लोक- अलोक, जीव- अजीव, स्वसमय-परसमय की सूत्र रूप सूचना है। ' स्थानांग में स्वसमय-परसमय, जीव-अजीव, लोक- अलोक की स्थापना या प्रज्ञापना है। में १० १. भ. १ । ३२ । २. वही, ६ । २५३,२५४ । ३. जैन दर्शन का आदिकाल, पृ. ३४,३५ । ४. १६।११६। ५. ७।२१३,२१६ | ६. २०।१४-१८ ७. जैन दर्शन का आदिकाल, पृ. ३५ । ८. नंदी, सू. ८१, सम. प. सू. ८६ । ६. नंदी, सू. ८२, सम. प. सू. ६० । १०. नंदी, सू. ८३, सम. प. सू. ६१ । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका १८ भगवई समवायांग में जीव-अजीव, लोक-अलोक, स्वसमय-परसमय की समस्थिति का निरूपण है अथवा संक्षिप्त विमर्श है। व्याख्याप्रज्ञप्ति में जीव-अजीव, लोक-अलोक, स्वसमय-परसमय की व्याख्या है। आचारांग में आत्मा और जीव की चर्चा आचार के प्रसंग में की गई है। वहां द्रव्यमीमांसा का स्वतन्त्र स्थान नहीं है। यद्यपि आचार-मीमांसा द्रव्यमीमांसा से जुड़ी हुई है। आचार को समझने के लिए द्रव्य को समझना आवश्यक है। दार्शनिक दृष्टि को स्थिर किए बिना आचार का सिद्धान्त प्रस्थापित नहीं हो सकता। प्रत्येक दार्शनिक पहले अपने दर्शन को स्थिर करता है फिर उसके आधार पर आचार का सिद्धान्त प्रस्थापित करता है। सूत्रकृतांग में भी द्रव्यमीमांसा प्रासंगिक है। उसका विस्तृत रूप व्याख्याप्रज्ञप्ति में ही मिलता है। दार्शनिक विकास की रूपरेखा इसके आधार पर निश्चित की जा सकती है। व्याख्याप्रज्ञप्ति में लोक की व्याख्या पंचास्तिकाय के आधार पर की गई है। उत्तरवर्ती साहित्य में धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय को लोक और अलोक का विभाजक माना गया है, वैसा स्पष्ट उल्लेख व्याख्याप्रज्ञप्ति में उपलब्ध नहीं है। फिर भी इस बात को अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि भगवान् महावीर ने जीव और अजीव की प्ररूपणा से पहले लोक और अलोक की प्ररूपणा की है। मालवणियाजी सूत्रकृतांग की जिस सूचि को सात पदार्थ या नव तत्त्व का आधार मानते हैं उस सूची में सबसे पहले लोक और अलोक का, उसके पश्चात् जीव और अजीव का उल्लेख है।' लोक और अलोक के विभाग का आधार धर्मास्तिकाय है। आकाश दो प्रकार का है—लोकाकाश और अलोकाकाश ।' धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय-ये पांचों लोकप्रमाण हैं जितने आकाश में ये व्याप्त हैं उतना ही लोक है, जहाँ ये नहीं हैं वह अलोक है। लोकस्थिति का सिद्धान्त है जहाँ तक लोक है वहाँ तक जीव है और जहाँ तक जीव है वहाँ तक लोक है यह लोकस्थति का आठवां प्रकार है। जहाँ तक जीवों और पुद्गलों का गतिपर्याय है वहाँ तक लोक है और जहाँ तक लोक है वहां तक जीवों और पुद्गलों का गतिपर्याय है-यह लोकस्थिति का नौवां प्रकार है। सभी लोकान्तों के पुद्गल दूसरे रूक्ष पुद्गलों के द्वारा अबद्धपार्श्वस्पृष्ट (अबद्ध और अस्पृष्ट) होने पर भी लोकान्त के स्वभाव से रूक्ष हो जाते हैं। जिससे जीव और पुद्गल लोकान्त से बाहर जाने में समर्थ नहीं होते—यह लोकस्थिति का दसवां प्रकार है।" यह सही है कि अलोक में जीव और पुद्गल नहीं हैं और लोकान्त के सभी भागों में रूक्ष पुद्गल हैं, इसलिए गति नहीं होती। मुक्त आत्मा की गति लोकान्त तक ही क्यों होती है, आगे अलोक में क्यों नहीं होती ? वह गति पुद्गल-परमाणु के योग से नहीं होती, इसलिए अलोक में जीव नहीं है, अजीव नहीं है यह नियम भी बाधक नहीं बन सकता। लोकांत के परमाणु रूक्ष हैं, यह नियम भी उसमें बाधक नहीं बन सकता। मुक्त आत्मा की गति अलोक में नहीं होती, इसका नियामक तत्त्व धर्मास्तिकाय ही हो सकता है। जहाँ तक गति का माध्यम है वहाँ तक अर्थात् लोकान्त तक मुक्त आत्मा चली जाती है, उससे आगे अलोक में धर्मास्तिकाय नहीं है इसलिए वह वहाँ नहीं जा सकती। नव तत्त्व से पूर्व लोक और अलोक का उल्लेख प्राप्त है तथा नवतत्त्व की व्यवस्था में मोक्ष तत्त्व का समावेश है। इन दोनों आधारों पर इस निष्कर्ष पर पहुंचना कठिन नहीं है कि नवतत्त्व की व्यवस्था पंचास्तिकाय की अवधारणा के साथ जुड़ी हुई है। षड् द्रव्य पंचास्तिकाय का विकसित रूप है। पंचास्तिकाय में काल सम्मिलित नहीं है, क्योंकि वह अस्तिकाय नहीं है। वह एक द्रव्य है, इसलिए षड् द्रव्य में परिगणित है। यह बहुत संभव है कि जैनदर्शन में द्रव्य के अर्थ में अस्तिकाय का प्रयोग प्राचीन है और द्रव्य का प्रयोग उसके बाद का है, इसलिए पंचास्तिकाय का सिद्धान्त लोक-अलोक, जीव-अजीव और मोक्ष के सिद्धान्त के साथ ही स्थापित हुआ था। लोक की परिभाषा पंचास्तिकाय के आधार पर की गई है। प्रश्न पूछा गया-लोक क्या है ? इसका उत्तर मिला---पंचास्तिकाय लोक है। पांचों अस्तिकाय क्षेत्र की दृष्टि से लोकप्रमाण मात्र होते हैं। धर्मास्तिकाय में गति होती है, वह गति का प्रेरक नहीं। आगमन-गमन, भाषा, उन्मेष, मनोयोग, वचनयोग, काययोग–ये जितने चल या गतिशील भाव हैं, वे सब धर्मास्तिकाय में गति करते हैं। सूत्र में 'धम्मत्थिकाय' का निर्देश है। इसका अर्थ है-धर्मास्तिकाय में गति होती है, धर्मास्तिकाय के द्वारा गति नहीं होती। जीव शरीर, इन्द्रिय, मनयोग, वचनयोग, काययोग और आनापान के पुद्गलों को ग्रहण करते हैं और उनके द्वारा वे गतिशील बनते हैं। धर्मास्तिकाय के होने पर भी पुद्गल के सहयोग के बिना जीव की गति नहीं होती। अलोक मे पुद्गल नहीं है, इसलिए वहां जीव नहीं जा सकते। अलोक में जीव की गति नहीं होती, इसमें मुख्य कारण वहाँ पुद्गल का अभाव है और गौण कारण है----धर्मास्तिकाय का अभाव । इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि धर्मास्तिकाय की कल्पना स्थिर हो गई होती तो ऐसा उत्तर नहीं मिलता। स्थानांग में बतलाया गया है-चार कारणों से जीव और पुद्गल लोक से बाहर नहीं जा सकते। उनमें धर्मास्तिकाय के अभाव १. नंदी,सू.८४;सम.प.सू.६२। २. नंदी,सू.८५,सम.प.सू.८३। ३. सूय.२१५/१२,१३| ४. भ.२।१३८॥ ५. वही,२/१४१-१४५ ६. ठाणं,१०1१। ७. भ.१३ । ५५ ५. वही,२।१२४-१२६२।१४१-१४५ | ६. वही,१३।५६,६०। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १६ भूमिका का स्पष्ट निर्देश है। चार कारण ये हैं १. गति का अभाव। २. निरुपग्रहता-गतितत्त्व के आलंबन का अभाव । ३. रूक्षता। ४. लोकानुभाव-लोक की सहज सामर्थ्य । तीसरे स्थान में परमाणु के गति-स्खलन के कारण बतलाए गए हैं। वहां गतितत्त्व का उल्लेख नहीं है। सब स्थानों पर एक ही प्रकार के कारण निर्दिष्ट नहीं हैं। भिन्न-भिन्न स्थलों पर भिन्न-भिन्न कारण निर्दिष्ट हैं। अन्ययूथिक पंचास्तिकाय के विषय में संदिग्ध थे। उनका तर्क था जिसे हम नहीं जानते-देखते, उसका अस्तित्व कैसे हो सकता है ? भगवान महावीर के श्रमणोपासक मदुक ने उनसे कहा-इन्द्रियज्ञानी जिसे नहीं जानता, नहीं देखता उसका अस्तित्व नहीं होता, ऐसा नहीं है। इससे पंचास्तिकाय की स्थापना के काल का निर्णय नहीं होता। सूयगडो में क्रियावाद के पन्द्रह अंग बतलाए गए हैं-१. आत्मा २. लोक ३. आगति ४. गति ५. शाश्वत ६. अशाश्वत ७. जाति ८. मरण ६. च्यवन १०. उपपात ११. अधोगमन १२. आश्रव १३. संवर १४. दुःख १५. निर्जरा। प्रस्तुत आगम का बड़ा भाग क्रियावाद के निरूपण से व्याप्त है। क्रियावाद की व्यवस्था तत्त्वदर्शन के आधार पर हुई है, इसलिए उसमें अस्तिकायवाद और नवतत्त्ववाद दोनों परस्पर एक दूसरे के पूरक के रूप में व्याख्यात हुए हैं। भगवान् महावीर ने पांच अस्तिकायों का प्रतिपादन किया। वे पंचास्तिकाय कहलाते हैं। उनमें धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय ये तीनों अमूर्त होने के कारण अदृश्य हैं। जीवास्तिकाय अमूर्त होने के कारण दृश्य नहीं है, फिर भी शरीर के माध्यम से प्रकट होने वाली चैतन्य-क्रिया के द्वारा वह दृश्य है। पुद्गलास्तिकाय (परमाणु और स्कन्ध) मूर्त होने के कारण दृश्य है। हमारे जगत् की विविधता जीव और पुद्गल के संयोग से निष्पन्न होती है। डा. वाल्टर शुब्रिग ने लिखा है—जीव-अजीव और पंचास्तिकाय का सिद्धान्त महावीर की देन है। यह उत्तरकालीन विकास नहीं है।' प्रस्तुत आगम में जीव और पुद्गल का इतना विशद निरूपण है जितना प्राचीन धर्मग्रन्थों या दर्शनग्रन्थों में सुलभ नहीं है। प्रस्तुत आगम का पूर्ण आकार आज उपलब्ध नहीं है, किन्तु जितना उपलब्ध है, उसमें हजारों प्रश्नोत्तर चर्चित हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से आजीवक संघ के आचार्य मंखलिगोशाल, जमालि, शिवराजर्षि, स्कन्दक संन्यासी आदि प्रकरण बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। तत्त्वचर्चा की दृष्टि से जयन्ती, मदुक श्रमणोपासक, रोह अनगार, सोमिल ब्राह्मण, भगवान् पार्श्व के शिष्य कालासवेसियपुत्त, तुंगिया नगरी के श्रावक आदि प्रकरण पठनीय हैं। गणित की दृष्टि से पापित्यीय गांगेय अनगार के प्रश्नोत्तर बहुत मूल्यवान् हैं। १. ठाणं,४।४६५-चउहि ठाणेहिं जीवा य पोग्गला य णो संचाएंति बहिया लोगंता गमणयाए, तं जहा—गतिअभावणं, णिरुवाणहयाए, लुक्खताए, लोगाणु- भावेणं। पाते। २. ठाणं,३।४८६-तिविहे पोग्गलपडिघाते पण्णत्ते, तं जहा-परमाणुपोग्गले परमाणुपोग्गलं पप्प पडिहणिज्जा, लुक्खत्ताए वा पडिहणिज्जा, लोगते वा पडिहणिज्जा। ३. १८।१३४-१४२। ४. सूय.१ । १२/२०,२१ अत्ताण जो जाणइ जो य लोग जो आगतिं जाणइऽणागतिं च । जो सासयं जाण असासयं च जातिं मरणं च चयणोववातं ।। अहो वि सत्ताण विउट्टणे च जो आसवं जाणति संवरं च । दुक्खं च जो जाणइ णिज्जरं च सो भासिउमरिहति किरियवाद ।। ५. The Doctrines of the Jainas,p.126-The five fundamental facts constitute the world, or, rather, the world and the non-world (Viy. 608 a). Their qualities are laid down in Viy. 147 b. They all share in eternity. The space embraces both the world and the non-world, whereas the remaining four are concerned with the expansion of the world. For the dimensions of parts of the world proportional to motion, stop and space sce Viy. 151a ff. and, nearly consonant, 775 a. All atthikāya except the jiva are inanimate (ajiva), and with the single exception of matter, all are immaterial (aruva). The last two sentences explicitly represent Mv.'spersonal conception (Viy.324b).(F.n.-Some of the audience had difficulties in understanding this as we are told in two reports (Viy. 323b,750b). Dissenters led by Kalodāi ask Goyama and the layman Madduya respectively for an interpretation. While Goyama is at a loss for an answer, Madduya declares himself incompetent in the matter, but when pressed he shows by pointing out to the wind, sweet scent particles, fire made by rubbing two sticks, persons living beyond the seas, and gods, all being existent without being visible, that something, even though nothing can be said about it except by a Kevalin, yet may exist. Mahavira commends him for not having taught things he does not understand and for thus having evaded giving offence (asayana) to the sacred law, the Arhats and the Kevalins.) Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका भगवई भगवान् महावीर के युग में अनेक धर्म-सम्प्रदाय थे। साम्प्रदायिक कट्टरता बहुत कम थी। एक धर्मसंघ के मुनि और परिव्राजक दूसरे धर्म संघ के मुनि और परिव्राजकों के पास जाते, तत्त्वचर्चा करते और जो कुछ उपादेय लगता वह मुक्त भाव से स्वीकार करते। प्रस्तुत आगम में ऐसे अनेक प्रसंग प्राप्त होते हैं, जिनसे उस समय की धार्मिक उदारता का यथार्थ परिचय मिलता है। प्रस्तुत आगम भगवान महावीर के दर्शन या तत्त्व-विद्या का प्रतिनिधि सूत्र है। इसमें महावीर का व्यक्तित्व जितना प्रस्फुटित है उतना अन्यत्र नहीं है। डा. वाल्टर शुबिंग ने प्रस्तुत आगम के सन्दर्भ में महावीर को समझने के लिए मार्मिक भाषा प्रस्तुत की है। उन्होंने लिखा है'--"महावीर एक सुव्यवस्थित (निरूपण के) पुरस्कर्ता हैं। उन्होंने अपने निरूपणों में प्रकृति में पाए जाने वाले तत्त्वों को स्थान दिया, जैसा कि विआहपण्णत्ती के कुछ अवतरणों से स्पष्टतया परिलक्षित होता है। उदाहरणार्थ-रायगिह (राजगृह) के समीपस्थ उष्णजल स्रोत, जहां वे स्वयं अवश्य गए होंगे, के सम्बन्ध में उनकी व्याख्या (६६४), वायु सम्बन्धी उनका सिद्धान्त (११०) तथा अग्नि एवं वायु जीवों के सामुदायिक जीवन आदि के विषय में उनकी व्याख्या। आकाश में उड़ने वाले पदार्थ की गति मन्द होती जाती है, विआहपण्णत्ती; १७६ बी; जीवाभिगम, (३७४बी) यह निष्कर्ष महावीर ने सम्भवतः गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव के आधार पर निकाला होगा। इसी प्रकार, एक सरपट चौकड़ी भरते हुए अश्व के हृदय और यकृत के बीच उद्भूत 'कव्वडय' नामक वायु के द्वारा 'खू-खू' की आवाज की उत्पत्ति (विआहपण्णत्ती, ४६६बी.) को भी हम विस्मृत नहीं कर सकते। इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि प्राचीन भारत के जिन मनीषियों के विषय में हमें जानकारी है उन सब में सर्वाधिक ज्ञानवान मनीषी महावीर को संख्या और गणित के प्रति रुचि थी तथा उनके प्रवचनों में इन विषयों का असाधारण वैशिष्ट्य झलकता है। यद्यपि बहुत सारे प्रसंगों में यह सिद्ध करना कठिन है कि उनमें से कितना निरूपण उनका अपना है तथा कितना दूसरों का है, फिर भी कहीं-कहीं वे स्वयं स्पष्ट रूप से अपने आपको अमुक सिद्धान्त के निरूपक के रूप में घोषित करते हैं। वे स्वयं कहतेहैं- "एवं खलु, गोयमा, मए सत्त सेढीओ पण्णत्ताओ।" (विआहपण्णत्ती, ६५४बी.) इस प्रकार मैंने सात श्रेणियों का निरूपण किया है। इन सबके सन्दर्भ में परमाणुओं और आकाश-प्रदेशों के जघन्य एवं उत्कृष्ट अंकों का विवेचन किया है, जो हमें गणनात्मक चिन्तन तक पहुंचाता है। इन सब में हमें एक परिवारगत रुचि दृष्टिगोचर हो रही है। जहां इसके साथ इसको प्रयोग में लाने की रुचि भी जुड़ती है, वहां सम्भवतः हम महावीर के मौलिक विचार से साक्षात्कार करते हैं।" डा. डेल्यू. ने लिखा है-"निष्कर्ष रूप में मैं कहना चाहूंगा कि 'अन्यतीर्थिक आगम-पाठों' में अनेक विविधतापूर्ण विषयों की जो चर्चा की गई है, वे महावीर के व्यक्तित्व को एक चिन्तक एवं एक प्रणेता के रूप में प्ररूपित करते हैं तथा उस अद्भुत युग का चित्रण भी, जब धर्म और दर्शन का सृजनात्मक दौर चल रहा था। ऐसा प्रतीत होता है कि महावीर उस युग के अन्य किसी भी दार्शनिक की 9. The Doctrines of the Jainas,p.p.40,41-Even minimum and maximum numbers of the atoms and individual traits borrowed from nature have been space units are being discussed, and this leads us incorporated into the total conception by Mahavira, up to the calculative reflections. In them a certain the systematizer, as is shown by many paassages of family likeness seems to become apparent, and the Viy. Thus his explanation for a hot spring he must where it goes together with a special liking for have visited near Rāyagiha (94), his theory of the applying it we are probably confronted with an wind (110), and the life-community of fire and wind original idea of Mahavira's. (105). The fact that the movement of a flying object 2. J. Delcu's article on "Lord Mahāvira and the slows down (Viy. 176 b; Jiv. 374 b) was probably Anyatirthikas' in "Mahavira and His Teachings," concluded by Mahavira from the effect of gravitation. p.193_"In conclusion I would like to state, that the Nor should we omit the wind Kavvadaya (Viy. 499b) great diversity of topics discussed in the anyatirthika arising between the heart and the liver and causing texts is illustrative both of Mahavira's personality as a thinker and a teacher, and of that wonderful time of within a galloping horse the sound of khu khu. Above creative ferment in religion and philosophy that was all, however the most versatile thinker we know of his. It would seem that Mahavira, more than anyone in ancient India, had a liking for figures and around him, even more than the Buddha, was inspired arithmetic, that characterizes his speeches most by the spiritual unrest and eagerness of his day. extraordinarily. In most cases we are not able to prove Speaking of the Buddha, and probably comparing him which considerations are his own and which are of with the Jina, Frauwallner, in his History of Indian others, but he calls himself the author of a theory of Philosophy, expressed the opinion that his (the the 7 possible lines (evam khalu, Goyamā, mae satta Buddha's) contribution to the enlargement of the sedhio pannattāo, Viy. 954b). In referring to them the range of philosophical ideas in his time was a rather smallone. A severe verdict indeed, which, however, 1. E. Frauwallner, Geschictite der Indischen Philosophie (Salzburg 1953), vol. I, p.247; cf. also p.253. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई तुलना में, यहां तक कि बुद्ध की तुलना में भी अपने समय के आध्यात्मिक उत्साह एवं उत्कटता से अधिक प्रेरित थे । “फ्राउवालनार ने अपने ग्रन्थ हिस्ट्री आफ इण्डियन फिलासोफी में बुद्ध के विषय में सम्भवतः जिन (महावीर ) से उनकी तुलना करते समय, यह अभिमत व्यक्त किया है कि उनका (बुद्ध का ) दार्शनिक विचारों के क्षेत्र के विकास में अपेक्षाकृत बहुत थोड़ा योगदान मिला । यद्यपि यह फैसला बहुत अधिक कड़ा है, फिर भी यह एक मजबूत आधारभित्ति पर आधारित है कि बुद्ध अपने समकालीन दार्शनिकों के सामने आने वाले प्रश्नों के उत्तर देने से साफ इन्कार कर देते थे। चूंकि महावीर ने इन सभी प्रश्नों के बहुत ही व्यवस्थित रूप से उत्तर दिए; इसलिए उन्हें जो प्राचीन भारत के ज्ञानी चिन्तकों में सर्वाधिक ज्ञानी कहा गया है, वह बिलकुल उचित ही है। " प्रस्तुत आगम में गति-विज्ञान, भावितात्मा द्वारा नाना रूपों का निर्माण,' भोजन और नाना रूपों के निर्माण का सम्बन्ध, चतुर्दशपूर्वी द्वारा एक वस्तु के हजारों प्रतिरूपों का निर्माण, भावितात्मा द्वारा आकाशगमन, पृथ्वी आदि स्थावर जीवों का श्वास- उच्छ्वास, सार्वभौम धर्म का प्रवचन, गतिप्रवाद अध्ययन की प्रज्ञापना, कृष्णराजि, तमस्काय,” परमाणु की गति," दूरसंचार” आदि अनेक महत्त्वपूर्ण प्रकरण हैं। उनका वैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन अपेक्षित है। १२ विभाग और अवान्तर विभाग शतक 9 २ ม समवायांग और नंदीसूत्र के अनुसार प्रस्तुत आगम के सौ से अधिक अध्ययन, दस हजार उद्देशक और दस हजार समुद्देशक हैं। इसका वर्तमान आकार उक्त विवरण से भिन्न है। वर्तमान में इसके एक सौ अड़तीस शत या शतक और उन्नीस सौ पच्चीस उद्देशक मिलते हैं। प्रथम बत्तीस शतक स्वतन्त्र हैं। तेतीस से उनचालीस तक सात शतक बारह-बारह शतकों के समवाय हैं। चालीसवां शतक इक्कीस शतकों का समवाय है। इकतालीसवां शतक स्वतन्त्र है। कुल मिलाकर एक सौ अड़तीस शतक होते हैं। उनमें इकतालीस मुख्य और शेष अवान्तर शतक हैं। शतकों में उद्देशक तथा अक्षर-परिमाण इस प्रकार है ४ ५ ६ ७ ८ ६ १० 99 १२ १३ १४ १५ उद्देशक १० १० १० १० १० १० १० १० ३४ ३४ १२ १० 90 १० ० अक्षर-परिमाण ३८८६७ २३८४४ ३६७३२ ७५३ २५६६१ १८६०२ २४६३५ ४८५३४ ४५८८३ ६६०७ ३२३३८ ३२८६८ २१६१४ १६०३३ ३६८२२ शतक १६ १७ १८ १६ २० २१ (आठ वर्ग) २२ (छह वर्ग ) २३ (पांच वर्ग) २४ २५ २६ २७ २१ २५ २६ ३० is soundly based on the Buddha's well-known stern refusal to consider a great many question that occupied his contemporaries. Because of his systematic approach to all these questions, Mahavira has, I think, rightly been called ,,1 'the most versatile thinker we know of in ancient India." १.३।११७१२६ । उद्देशक १४ १७ १० १० १० ५० ६० ५० २४ १२ ११ 99 ११ 99 २८ २. ३।१८६-१६१३ | १६४-१६६ । ३. ३११६१ । ४. ५1११२,११३ । ५. ३१६७२१८ । ६. २।२६।२५३-२५७ । ७. ६६-३३ । 1. W. Schubring, The Doctrine of the Jainas (Delhi etc., 1962), p. 40. अक्षर-परिमाण १५६३६ ८५१२ २२४५२ ८०२७ १६८७१ १६३० १०६८ ७१५ ३६६२६ ४५१०३ ४४५५ १६० ६६४ १०२७ ४७६४ शतक ३१ ३२ ३३ (१२) ३४ (१२) ३५ (१२) ३६ (१२) ३७ (१२) ३८ (१२) ३६ (१२) ४० (२१) ४१ भूमिका १३८ उद्देशक अक्षर-परिमाण ११ २३४४ २८ ३६३ १२४ ३०८६ १२४ ८६६६ १३२ ४१८१ १३२ ७३१ १३२ ११५ १३२ १३२ २३१ १६६ ८७ १३६ २७३४ ३५१६ ८. ८/२६२,२६३ | ६. ६१८६११८। १०. ६ | ७०-८८ ११. १६।११६ १२.५१०३ । १३. सम. प. सू. ६३, नंदी, सू. ८५ । १४. बीसवें शतक के छुट्टे उद्देशक में पृथ्वी, अप्, और वायु इन तीनों की उत्पत्ति का निरूपण है। एक परम्परा के अनुसार यह एक उद्देशक है, दूसरी परम्परा के मत में ये तीन उद्देशक हैं। इस परम्परा के अनुसार प्रस्तुत आगम के कुल उद्देशक १६२५ हैं । १६२३४ ६१७२१४ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका भगवई प्रस्तुत आगम के अध्ययन को शत कहा जाता है। समवायांग और नन्दी में अध्ययन शब्द का ही प्रयोग मिलता है' – 'एगे साइरेगे अज्झयणसते।' इसका अर्थ है कि व्याख्याप्रज्ञप्ति के सौ से अधिक शतक हैं, किन्तु चूर्णिकार ने शत को अध्ययन के अर्थ में माना है' – 'इह सतं चेव अज्झयणसण्णं ।' इसका अर्थ उक्त पाठ से फलित नहीं होता, किन्तु परम्परा से लिया गया है। भगवती के पाठसंक्षेपीकरण में तथा संग्रहणी गाथाओं में अनेक स्थलों पर शत शब्द का प्रयोग मिलता है। उदाहरण स्वरूप १. जहा सक्कस्य वत्तव्वया तइयसए तहा ईसाणस्स वि । * २. एवं एएणं कमेणं जहेव उववायसए अट्ठावीसं उद्देसगा भणिया तहेव उव्वट्टणासए वि अट्ठावीसं उद्देसगा भाणियव्वा निरवसेसा । ' समवायांग और नंदी में व्याख्याप्रज्ञप्ति के विवरण में अध्ययन शब्द का प्रयोग तथा मूल आगम में शत शब्द का प्रयोग है, इसलिए शत और अध्ययन को पर्यायवाची माना गया है। शत का अर्थ सौ होता है। जिसमें सौ श्लोक या प्रश्न हो उसे शतक कहा जाता है। वर्तमान रूप में इस अर्थ की कोई सार्थकता दृष्ट नहीं है । रचनाशैली प्रस्तुत आगम में ३६ हजार व्याकरणों का उल्लेख है। इससे पता चलता है कि इसकी रचना प्रश्नोत्तर की शैली में की गई थी। नंदी के चूर्णिकार ने बतलाया है कि गौतम आदि के द्वारा पूछे गए प्रश्नों तथा अपृष्ट प्रश्नों का भी भगवान् महावीर ने व्याकरण किया था। वर्तमान आकार में आज भी यह प्रश्नोत्तर शैली का आगम है। प्रश्न की भाषा संक्षिप्त है और उनके उत्तर की भाषा भी संक्षिप्त है । 'से नूणं भंते' – इस भाषा में प्रश्न का और 'हंता गोयमा' - इस भाषा में उत्तर का आरम्भ होता है। ७ २२ कहीं-कहीं उत्तर के प्रारम्भ में केवल संबोधन का प्रयोग होता है, हंता का प्रयोग नहीं होता' - 'गोयमा ! चलमाणे चलिए। उद्देशक के प्रारम्भ में नगर आदि का वर्णन मिलता है— तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्था - वण्णओ । ' ܘܪ, 'से नूणं मंते ! चलमाणे चलिए ।' 'हंता गोयमा ! चलमाणे चलिए । ' उद्देशक की पूर्ति पर भगवान् द्वारा दिए गए उत्तर की स्वीकृति और विनम्र वन्दना का उल्लेख मिलता है 'सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नम॑सति, वंदित्ता नमंसित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति । ११ प्रश्न और उत्तर की भाषा सहज-सरल है। अनेक स्थलों पर गद्यकाव्य जैसी छदा दृष्टिगत होती है— पुव्विं भंते ! अंडए, पच्छा कुक्कुडी ? पुव्विं कुक्कुडी, पच्छा अंडए ? रोहा ! से णं अंडए कओ ? भयवं ! कुक्कुडीओ । साणं कुक्कुडी कओ ? भंते ! अंडयाओ। एवामेव रोहा ! से य अंडए, सा य कुक्कुडी पुब्विं पेते, पच्छा पेते—दो वेते सासया भावा, अणाणुपुव्वी एसा रोहा ! विषय की दृष्टि के अनुसार उत्तर बहुत विस्तार से दिए गए हैं।” कहीं कहीं प्रश्न विस्तृत है और उत्तर संक्षिप्त, इसलिए प्रतिप्रश्न भी मिलता है। 'से केणट्टेणं भंते'-- इस भाषा में प्रतिप्रश्न प्रारम्भ होता है और विषय का निगमन 'से तेणट्टेणं' – इस भाषा में होता १३ १. सम. प. सू. ६३, नंदी, सू. ८५ । २. नंदी चूर्णि, सू. ८६, पृ. ६५ इह सतं चैव अज्झयणसण्णं । ३. देखें – आगम शब्दकोश, अंगसुत्ताणि शब्द सूची | ४. ४ । ४ । ५. ३२।६। ६. नंदी चू. सू. ८६ । पृ. ६५— 'गोतमादिएहिं पुट्ठे अपुढे वा जो पण्हो तव्बागरणं ।' ७. १ ।११,१२ । ८. १।१२,१३ । ६. १।४ । १०. १५१। ११. १।२६५ । १२. ८।२६-३६ । १३. १ । ३१२, ३१३/ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २३ भूमिका अस्थि णं भंते ! जीवा य पोग्गला य अण्णमण्णबद्धा, अण्णमण्णपुट्ठा, अण्णमण्णमोगाढा, अण्णमण्णसिणेहपडिबद्धा, अण्णमण्णघडताए चिटुंति ? हंता अत्थि। से केणतुणं भंते! एवं वुच्चइ–अत्थि णं जीवा य पोग्गला य अण्णमण्णबद्धा, अण्णमण्णपुट्ठा, अण्णमण्णमोगाढा, अण्णमण्णसिणेहपडिबद्धा, अण्णमण्णघडत्ताए चिट्ठति ? गोयमा ! से जहाणामए हरदे सिया पुण्णे पुण्णप्पमाणे वोलट्टमाणे वोसट्टमाणे समभरघडत्ताए चिट्ठइ । अहे णं केइ पुरिसे तंसि हरदंसि एगं महं नावं सयासवं सयछिदं ओगाहेजा। से नृणं गोयमा ! सा नावा तेहिं आसवदारेहिं आपूरमाणी-आपूरमाणी पुण्णा पुण्णप्पमाणा वोलट्टमाणा वोसट्टमाणा समभरघडताए चिट्ठइ ? हंता चिट्ठइ। से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-अस्थि णं जीवा य पोग्गला य अण्णमण्णबद्धा, अण्णमण्णपुट्ठा, अण्णमण्णमोगाढा, अण्णमण्णसिणेहपडिबद्धा, अण्णमण्णघडताए चिट्ठति ? अधिकांशतया प्रश्नोत्तर-पद्धति में प्रत्यक्ष शैली का प्रयोग किया गया है। प्रश्नकर्ता प्रश्न पूछता है और भगवान् उत्तर देते हैं। कहीं-कहीं रचनाकार ने परोक्ष शैली का भी प्रयोग किया है-' अह भंते ! गोनंगूलवसभे, कुक्कडवसभे, मंडुक्कवसभे-एए णं निस्सीला निव्वया निग्गुणा निम्मेरा निप्पच्चक्खाणपोसहोववासा कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसं सागरोवमट्टितीयंसि नरगंसि नेरइयत्ताए उववज्जेज्जा ? समणे भगवं महावीरे वागरेइ-उववजमाणे उववन्ने त्ति वत्तव्वं सिया। इससे अगले दो सूत्रों में भी यही शैली मिलती है। कहीं-कहीं स्फुट प्रश्न हैं, तो कहीं-कहीं एक ही प्रकरण से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर की शृंखला चलती है। शतक के प्रारम्भ में संग्रहणी गाथा होती है। उसमें उस शतक के सभी उद्देशकों की सूची मिल जाती है। गद्य के मध्य में भी संग्रहणी गाथाएं प्रचुरता से मिलती हैं। उदाहरण के लिए चतुर्थ शतक का पांचवां और आठवां तथा छठे शतक का १३२, १३४ वां सूत्र द्रष्टव्य हैं। प्रस्तुत आगम के दो संस्करण मिलते हैं। एक संक्षिप्त संस्करण और दूसरा विस्तृत संस्करण । विस्तृत संस्करण का ग्रन्थमान सवा लाख श्लोकप्रमाण है, इसलिए उसे सवालक्खी भगवती कहा जाता है। उसकी एक प्रति हमारे पुस्तक-संग्रह में है। इन दोनों संस्करणों में कोई मौलिक भेद नहीं है। लघु संस्करण में जो समर्पण सूत्र है—पूरा विवरण देखने के लिए किसी दूसरे आगम को देखने की सूचना दी गई है, उसको पूरा लिख दिया गया है। प्रस्तुत आगम में समर्पण सूत्रों की संख्या बहुत बड़ी है। प्रथम शतक के चौदहवें सूत्र से ही समर्पण सूत्रों का प्रारम्भ हो जाता है और वह इकतालीसवें शतक तक चलता है। समर्पण-सूत्रों की पूरी तालिका इस प्रकार है: प्रथम शतक प्रमाण निर्दिष्ट स्थल १४ पण्ण.पद ७ समर्पण सूत्र १. जहा उस्सासपदे २. जहा पण्णवणाए पढमए आहारुद्देसए ३. ठिती-जहाठितीपदे पण्ण.पद २८३-२४ पण्ण.पद ४ ४. आहारो वि-जहा पण्णवणाए पढमे आहारुदेसए पण्ण.पद २८३-८७ ५. लेस्साणं बीओ उद्देसो माणियबो जाव इड्डी १०२ पण्ण.पद १७।३६-८६ ११२ पण्ण.पद २० ६. अंतकिरियापयं नेवत्वं ७. कम्मपगडीए पढमो उदेसो नेयवो जाद-अणुमायो समतो १७४ पण्ण.पद २३ ॥१-२३ ४४७ पण्ण.पद६ ८. वकंतीपयं माणियत्वं १. १२/१५६। ३.६११२२-१२७१०।२४-३८। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका २४ भगवई द्वितीय शतक समर्पण सूत्र प्रमाण निर्दिष्ट स्थल पण्ण.पद २८/३० पण्ण.पद ३६।१-५२,५८६३ १. आहारगमो नेयलो २. समुग्धायपदं नेयवं ३. जीवाभिगमे नेरइयाणं जो बितिओ उद्देसो सो नेयम्बो ४. पटमिल्लो इंदियउद्देसओ नेयबो जीवा. ३१७६-१२७ पण्ण.पद १५1१-५७ ५. जहा केसिसामिस्स राय.सू. ६६३ ६. एवं भासापदं भाणियत्वं ११५ पण्ण.पद ११ ७. जहा ठाणपदे देवाणं वत्तव्वया ११७ पण्ण.पद २।३०-६७ ११७ जीवा. ३।१०५७-११३० ५.जीवाभिगमे जो वेमाणिउद्देसो सो माणियब्बो ६. एवं जीवाभिगमवत्तव्बया नेयवा १२३ जीवा. ३।२५९.८३४ तृतीय शतक २७ राय.सू. ७-१२० जीवा. ३ १७२३-७६५ १५२ १. जहेव रायप्पसेणइज्जे जाव दिवं २. जहा जीवाभिगमे लवणसमुद्दवत्तव्वया ३. वण्णओ जहा रायपसेणइज्जे ४. जहा सूरियामविमाणस्स वत्तव्बया ५. जीवाभिगमे जोइसियउद्देसओ नेयवो अपरिसेसो २४४ २५० राय.सू. ६६४ राय.सू. १२६-२८० जीवा. ३ १६७६-१०३७ २७६ चतुर्थ शतक पण्ण.पद १७६०-११३ १. पण्णवणाए लेस्सापए तइओ उद्देसओ माणियब्बो जाव नाणाई २. एवं चउत्यो उद्देसो पण्णवणाए चेव लेस्सापदे नेयो जाव पण्ण.पद १७/११४-१४६ पंचम शतक अणु.सू. ५१६-५५१ १. जहा अणुओगदारे २. जहा जीवाभिगमे आलावगो तहा नेयवो जाव दुरहियासं जीवा. ३।११० षष्ठ शतक पण्ण.पद २५ १. आहारुद्देसओ जो पण्णवणाए सो सम्बो निरवसेसो नेयवो २. जहा जीवाभिगमे देवुद्देसए जीवा.३।१०५६,१०६६, १०६८,१०७१ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई भूमिका समर्पण सूत्र प्रमाण निर्दिष्ट स्थल ३. एतो आढत्तं जहा जीवाभिगमे १५६ जीवा. ३ १७८४-७८७ ४. बंधुद्देसो पण्णवणाए नेयवो पण्ण.पद २४ सप्तम शतक पण्ण.पद ३२ १. एवं जहेव पण्णवणाए तहेव माणियवं जाव वेमाणिया २. एवं जहा जीवाभिगमे जाव सम्मत्तकिरियं ३. एवं जहा जीवाभिगमे जाव नो जीवा. ३११५३-२११ जीवा. ३।१४७-१८२ १५८ राय.सू. ७७२ ४. एवं जहा रायपसणइन्जे जाव खडियं वा महालियं वा ५. सुनिउणेहिं एवं जहा ओववाइए जाव ६. मंगलजयसद्दकयालोए एवं जहा उबवाइए १७५ १७६ ओ.सू. ५७ ओ.सू. ६३ ओ.सू. ६५ ७. एवं जहा उववाइए १७७ अष्टम शतक पण्ण.पद १५६ १. एवं जहा पण्णवणाए तहेव निरवसेसं जाव जे संठाणओ २. ओगाहणसंठाणे पण्ण.पद २११५०-५५ ३. ओगाहणसंठाणे पण्ण.पद २११७२ पण्ण.पद २११६४ ४. ओगाहणसंठाणे ५. एवं जहा रायप्पसेणइन्जे नाणाणां भेदो तहेव इह माणियवो १०२ राय.सू. ७४१-७४५ नंदी,सू. ६७ नंदी,सू. २२ नंदी,सू. २५ १८६ १५७ १६३-२०७ पण्ण.पद १८/८०-८४ जीवा. ६३३,३४ पण्ण.पद ३११०१-१०३ ६. जहा नंदीए जाव चत्तारि ७. जहा नंदीए जाव भावओ ८. जहा नंदीए जाव आवओ ६. संचिट्ठणा जहा कापठितीए अंतरं सब्बं जहा जीवाभिगमे अप्पाबहुगाणि तिण्णि जहा बहुवत्तव्वयाए १०. जहा पण्णवणाए जाव नालिएरी ११. जहा पण्णवणापदे जाव फला १२. चरिमपदं निरवसेसं भाणियव्वं १३. किरियापदं निरवसेसं भाणियवं १४. एत्तो आरम पयोगपयं निरवसेसं भाणियवं १५. जहा जीवाभिगमे तहेव निरवसेसं २१७ पण्ण.पद ११४३ २१६ पण्ण.पद ११३५,३६ २२५ पण्ण.पद १० २२८ पण्ण.पद २२ २६३ पण्ण.पद १६/१७५५ ३४० जीवा.३।६४२,८४३ १६. जहा जीवाभिगमे ३४३ जीवा.३१८४५,८४६ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका समर्पण सूत्र १७. जहा ओगाहणसंठाणे १८. जहा ओगाहणसंठाणे १६. जहा ओगाहणसंठाणे २०. जहा ओगाहणसंठाणे १. एवं जंबुद्दीवपण्णत्ती भाणियव्वा जाव एवामेव २. एवं जहा जीवाभिगमे जाव एगं० ३. (क) एवं जहा जीवाभिगमे जाव ताराओ (ख) एवं जहा जीवाभिगमे जाव एग० ४. एवं जहा जीवाभिगमे ५. जहा ओववाइए जाव एगाभिमुहे ६. एवं जहा ओववाइए ७. जहा ओववाइए जाव सत्यवाह० ८. जहा ओववाइए जाव खत्तिय० ६. ओववाइए परिसावण्णओ तहा भाणियव्वं १०. जहा आवस्सए जाव सब्बदुक्खाणं ११. जहा ओववाइए जाव १२. एवं जहा रायप्पसेणइज्जे जाव अट्ठसएणं १३. एवं जहा सूरियामस्स अलंकारो तहेव जाव चित्तं १४. जहा रायप्पसेणइज्जे १५. जहा ओववाइए जाव गगण० १६. एवं जहा ओववाइए तहेव भाणियचं १७. जहा ओववाइए १८. जहा ओववाइए जाव अभिनंदता १६. एवं जहा ओववाइए कूणिओ जाव निग्गच्छइ १. एवं ओगाहणासंठाणं निरवसेसं भाणियव्वं २६ नवम शतक दशम शतक प्रमाण ३६८ ३८७ ४०६ ४१३ १ ३ ४ ४ ७ १५७ १५७ १५८ १५८ १६२ १७७ १५० १८२ १६० १६१ २०४ २०४ २०४ २०८ २०६ ६ निर्दिष्ट स्थल पण्ण. पद २१।२-२० पण पद २१।५०-५५ पण्ण. पद २१।७२ पण्ण. पद २१ । ७६ । ७७ जंबु. वक्ष. १-६ जीवा. ३ । ७०३ जीवा. ३ । ७२२ जीवा. ३ । ८०६,८२०,८३०, ८३४,८३७ जीवा. ३ । २१६-२२६ ओ. सू. ५२ ओ. सू. ५२,५६ ओ. सू. ५२ ओ. सू. ५२ ओ. सू. ५२,६३ आव. ४।६ ओ. सू. ५५ राय. सू. २५० राय. सू. २८५ राय. सू. १७ ओ. सू. ६४ ओ. सू. ६४ ओ. सू. ५२ ओ.सू. ६८ ओ. सू. ६६ भगवई पण्ण. पद २१ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई समर्पण सूत्र २. एवं जोणीपदं निरवसेसं भाणियव्वं ३. एवं वेयाणापदं निरवेससं भाणियव्वं ४. जहा दसाहिं जाव आराहिया ५. जहा सूरियाभस्स ६. एवं जहा जीवाभिगमो जोइसिय उद्देसए ७. जहा रायप्पसेणइजे ८. जह सूरियाभे.....जह सूरियाभस्स ६. एवं जहा जीवाभिगमे तहेव निरवसेसं जाव १. जहा बकंती वणस्सइकाइयाणं जाव ईसाणेति २. एवं जहा आहारुद्देसए ३. एवं जहा वर्कतीए उव्वट्टणाए ४. जहा सूरियकते ५. जहा ओववाइए जाव ६. जहा ओववाइए कूणियस्स ७. एवं जहा जीवाभिगमे जाव सयंमूरमण ८. जहा ओववाइए जाव गहणयाए ६. एवं जहेव ओववाइए तहेव १०. एवं ठिइपदं निरवसेसं भाणियवं ११. जहा ओववाइए तहेब अट्टणसाला तहेव मज्जणघरे १२. एवं जहा दढपइण्णस्स जाव १३. एवं जहा दढप्पइणे जाव अलं० १४. जहा रायप्पसेणइजे जाव पडिरूवे १५. जहा रायप्पसेणइज्जे १६. जहा रायप्पसेणइज्जे जाव अट्ठ १७. जहा ओववाइए जाव १८.. जहा केसिसामिस्स २७ एकादश शतक प्रमाण १५ १६ १८ ७२ ६० ६६ ६६ १०२ २ ३५ ३६ ५८ ५६ ६१ ७७ ८५ ८८ १३० १३८ १५४ १५६ १५७ १५७ १५६ १५६ १६२ निर्दिष्ट स्थल पण्ण. पद ६ पण्ण. पद ३५ दसाओ, ७।५-२५ राय. सू. ७ जीवा. ३।१०२३-१०२६ राय. सू. १२४, १२५ राय.सू. १२६-६६६ जीवा. ३ । २२७ पण्ण. पद ६ । ८६ पण्ण. पद २८ । ३६ पण्ण. पद ६।१०४ राय. सू. ६७३ ओ. सू. ६४ ओ. सू. ६८ जीवा. ३ । २५६ ओ. सू. ५२ ओ. सू. १८५-१६५ पण्ण. पद ४ ओ. सू. ६३ उवंगसुत्ताणि भाग ४ खण्ड १, पृ. ६४ वाचनान्तर; सू. ८०४ ओ. सू. १४६ - १४८, राय. सू. ८०६-८०६ राय. सू. १३७ भूमिका राय. सू. ३२ राय. सू. १६१ ओ. सू. ७० राय. सू. ६८६ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका भगवई समर्पण सूत्र प्रमाण निर्दिष्ट स्थल १६. धम्मकहा जहा केसिसामिस्स राय.सू. ६६३ २०. जहा अम्मडो जाव बंभलोए १६६ ओ.सू. १४० का टिप्पण तथा इसी सूत्र का टिप्पण द्रष्टव्यम् द्वादश शतक १. जहा जीवाभिगमे पढमो नेरइयउद्देसो ६७ जीवा. ३।३-७५ २. भेदो जहा वकंतीए पण्ण.पद ६/१९६२ ३. वकंतीए मेदेणं १७२ पण्ण.पद ६।६२ ४. एवं बहा वकंतीए भवणवासीणं १७७ पण्ण.पद६/१ ५. जहा वकंतीए १६० पण्ण पद ६।१०१, १०२ ६. एवं जहा जीवाभिगमे तिविहे देवपुरिसे अप्पाबहुयं १६५ जीवा. २।६६ त्रयोदश शतक १. एवं परियारणापदं निरवसेसं पण्ण.पद ३४ २. एवं जहा जीवामिगमे बितिए नेरइयउदेसए जीवा. ३११२४,१२५ ३. एवं जहा नेरइयउद्देसए जीवा. ३।१२६ राय.सू. ७५५ ४. जहा रायप्पसेणइजे जाव दुवारवयणाई ५. पढमो नेरइयउद्देसओ जाव निरवसेसो पण्ण.पद २८1१-१०५ ६. जहा रायप्पसेणइज्जे जाव कल्लाण. राय.सू. १८५ ७. जहा कूणिओ ओववाइए १०७ ओ.सु. ५५-६६ १४७ पण्ण.पद २३ ८. एवं बंदिइ-उद्देसो भाणियबो निरवसेसो जहा पण्णवणाए ६. जहा पण्णवणाए जाव आहारसमुग्यायेत्ति १६८ पण्ण.पद ३६१५३-५८ चतुर्दश शतक जीवा. ३।१२८ १. एवं जहा जीवाभिगमे वितिए नेरइयउद्देसए २. एवं परिणामपयं निरवसेसं भाणियवं ३. एवं जहा ओववाइए जाव आराहगा पण्ण.पद १३ १०७ ओ.सू. ११५११७ ओ.सू. ११८१५४ ४. एवं जहा ओववाइए अम्मडस्स वत्तब्बया जाव दढप्पइण्णो अंतं काहिति ११०-११२ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २६ भूमिका पञ्चदश शतक निर्दिष्ट स्थल समर्पण सूत्र १. एवं जहा भावणाए जाव एगं देवदूसमादाय २. जहा ठाणपदे जाव पंच बडेंसगा ३. जहा पओगपदे जाव बोरं आयारचूला, १५।२६-२६ पण्ण.पद २।५४ पण्ण.पद १६१५५. ४. जहा पण्णवणाए जाव जाहगाणं पण्ण.पद ११७६ ५. जहा पण्णवणापदे जाव गोमयकीडाणं पण्ण.पद ११५१ ६. एवं जहा ओववाइए दढप्पइण्णवत्तव्वया ओ.सू. १४१-१५३ ७. एवं जहा ओववाइए ओ.सू. १५४ सोलहवां शतक १. एवं जहा पण्णवणाए वेदावेउद्देसओ पण्ण.पद २७ पण्ण.पद २६ पण्ण.पद २५ पण्ण.पद २४ वेदाबंधो वि तहेव, बंधावेदो वि तहेव, बंधाबंधो वि तहेव २. परियारो जहा सूरियाभस्स ३. एवं जहा सूरियामो ४. एवं जहा उवओग पदं पण्णवणाए तहेव निरवसेसं नेयव्वं, पासणयापदं च नेयवं राय.सू.५८ राय.सू. ६२ पण्ण.पद २६,३० ५. ओहीपदं निरवसेसं भाणियब् पण्ण.पद ३३ सत्तरहवां शतक अणु.सू. २७१-२६७ १. जहा अणुओगदारे छन्नाम...... २. जहा ठाणपदे पण्ण.पद २१५१ अठारहवां शतक १. एवं जहा रायपसेणइज्जे चित्ते जाव चक्खुभूए राय.सू. ६७५ पण्ण.पद १५१४४-४६ २. एवं जहा इंदियउद्देसए पढमे जाव वेमाणिया...... ३. कसायपदं निवसेसं भाणियवं ४. एवं जहा रायपसेणइजे चित्तो पण्ण.पद १४ राय. सू. ६६५ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका समर्पण सूत्र १. एवं जहा पण्णवणाए चउत्यो लेसुदेसओ २. एवं जहा पण्णवणाए गब्भुदेसो ३. एवं जहा पण्णवणाए पढमे आहारुद्देसए ४. एवं जहा वकंतीए ५. एवं उब्वट्टणा जहा वक्कंतीए ६. उबवाओ ठिती उब्बट्टणा य जहा पण्णवणाए ७. जहा पण्णवणाए ८. एवं जहा जीवाभिगमे दीवसमुहुद्देसो १. ठिती जहा पण्णवणाए २. एवं बितिओ इंदिउसओ..... जहा पण्णवणाए १. जहा वकंतीए तहेव उववाओ १. जहा पण्णवणाए गाहाणुसारेणं २. जहा पण्णवणाए पढमे पदे ३. पण्णवणागाहाणुसारेणं १. जहा वर्कतीए २. सरीरोगाहाणा जहा ओगाहणसंठाणे ३. ओगाहणा जहा ओगाहणसंठाणे ४. जहा ठितिपदे १. जहा अजीवपजवा ३० उन्नीसवां शतक बीसवां शतक इक्कीसवां शतक बाईसवां शतक चौबीसवां शतक पच्चीसवां शतक प्रमाण १ ३ ११ १६ २० 2 २२ ६३ ६५ ३ २४ १ ४ ५ १६४ २४३ २६३ २६३ ११-१४ निर्दिष्ट स्थल पण्ण. पद १७।११४-१४६ पण्ण. पद १७।१५६-१७२ पण पद २८।५-२० पण्ण. पद ६।८२-८५ पण्ण. पद ६ । १०३ पण पद ६ | ८६ । ४ । ७२६ | १०४ पण्ण. पद ३५।१७-२३ जीवा. ३ । २५६-६७५ पण्ण. पद ४ । ६८, १०१ पण्ण. पद १५।५८-१४३ पण्ण. पद ६ । ८६ पण्ण. पद १।३७ पण्ण. पद १।३८ पण्ण. पद १।४० पण्ण. पद ६ । ८३-८५ पण्ण. पद २१।६७ पण्ण. पद २१।७०, ७१ पण्ण पद ४ । २१३-२६६ भगवई पण्ण. पद ५ । १२४-१२७ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३१ भूमिका प्रमाण निर्दिष्ट स्थल पण्ण.पद २८।५-१६ समर्पण सूत्र २. एवं जहा पण्णवणाए पढमे आहारुदेसए ३. एवं जहा मासापदे ४. एवं अंगपरूवणा भाणियब्बा जहा नंदीए पण्ण.पद. ११४६-६८ नंदी.सू. ८१-१२७ ५. अप्पाबहुयं जहा बहुवत्तब्बयाए पण्ण.पद.३१३८,३६ ६. जहा बहुवत्तब्बयाए तहेव.....सकाइयअप्पबहुगं तहेव..... पण्ण.पद. ३।४० ७. जहा बहुवत्तव्बयाए १०० पण्ण.पद. ३११२४ १०१ पण्ण.पद. ३ । १७४ ११४ पण्ण.पद.३।११४-१२२ १४० पण्ण.पद.१२ २४६ पण्ण.पद.५ ८. जहा बहुवत्तवयाए ६. अप्पाबहुगं जहा बहुवत्तबयाए १०. सरीरंगपदं निरखसेसं भाणियब्वं जहा पण्णवणाए ११. पजवापदं निरवसेसं माणियवं जहा पण्णवणाए १२. एवं निओदा माणियव्वा जहा जीवाभिगमे १३. जहा ओववाइए जाव सुद्धेसणिए १४. जहा ओववाइए जाव लूहाहारे १५. जहा ओववाइए जाव सबगाय० २७४ जीवा. ५। ३७-६० ओ.सू. ३४ ओ.सू. ३५ ओ.सू. ३६ ५७० ५७१ इकतीसवां शतक १. जहा वकंतीए पण्ण.पद ६।७०-७२ पण्ण.पद६।७३.९० २. जहा वक्तीए ३. जहा वर्कतीए पण्ण.पद.६७०-७२ ४. जहा वकंतीए पण्ण.पद६७७ M ५. जहा वकंतीए पण्ण.पद ६७९.८० बत्तीसवां शतक १. जहा वकंतीए पण्ण.पद. ६/६६,१०० चौतीसवां शतक पण्ण.पद. २१-१५ १. जहा ठाणपदे २. जहा वर्कतीए पण्ण.पद ६।८२-८५ ३. जहा ठाणपदे पण्ण.पद २१ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका भगवई छत्तीसवां शतक प्रमाण निर्दिष्ट स्थल समर्पण सूत्र १. जहा वकंतीए पण्ण.पद६/६६ इकतालीसवां शतक १. जहा वक्तीए पण्ण.पद ६/७०-७२ २. जहा वक्तीए पण्ण.पद ६ १७०-६८ व्याख्याप्रज्ञप्ति अंगप्रविष्ट श्रुत के अन्तर्गत एक महत्त्वपूर्ण अंग है। उसमें अंग बाह्य आगमों के निर्देश क्यों ? यह प्रश्न सहज ही उत्पन्न होता है। इस प्रश्न को पंडित मालवणिया ने बहुत व्यवस्थित ढंग से उभारा है। उन्होंने लिखा है "माथुरीवाचनान्तर्गत अंग आगमों में जैसे कि भगवती-व्याख्याप्रज्ञप्ति जैसे बहुमान्य आगम में भी जहाँ भी विवरण की बात हैवहाँ अंगबाह्य उपांगों का औपपातिक, प्रज्ञापना, जीवाजीवाभिगम आदि का आश्रय लिया गया है। यदि ये विषय मौलिक रूप से अंग के होते तो उन अंगबाह्यों में ही अंगनिर्देश आवश्यक था। ऐसा न करके अंग में उपांग का निर्देश यह सूचित करता है कि तविषयकी मौलिक विचारणा उपांगों में हुई है और उपांगों से ही अंग में जोड़ी गई है। "यह भी कह देना आवश्यक है कि ऐसा क्यों किया गया। जैन-परम्परा में यह एक धारणा पक्की हो गयी है कि भगवान महावीर ने जो कुछ उपदेश दिया वह गणधरों ने अंग में ग्रथित किया। अर्थात् अंगग्रन्थ गणधरकृत हैं और तदितर स्थविरकृत हैं। अत एव प्रामाण्य की दृष्टि से प्रथम स्थान अंग को ही मिला है। अत एव नयी बात को भी यदि प्रामाण्य अर्पित करना हो तो उसे भी गणधरकृत बताना आवश्यक था। इसी कारण से उपांग की चर्चा को भी अंगांतर्गत कर लिया गया है। यह तो प्रथम भूमिका की बात हुई, किन्तु इतने से संतोष नहीं हुआ तो बाद में दूसरी भूमिका में यह परम्परा भी चलाई गई कि अंगबाह्य भी गणधरकृत हैं और उसे पुराण तक बढाया गया। अर्थात् जो कुछ जैन नाम से चर्चा हो उस सबको भगवान् महावीर और उनके गणधर के साथ जोड़ने की यह प्रवृत्ति इसलिए आवश्यक थी कि यदि उसका संबंध भगवान् और उनके गणधरों के साथ जोड़ा जाता है तो फिर उसके प्रामाण्य के विषय में किसी को संदेह करने का अवकाश मिलता नहीं है। इस प्रकार चारों अनुयोगों का मूल भगवान महावीर के उपदेश में ही है, यह एक मान्यता दृढ हुई।'' इस प्रश्न के कुछ पहलुओं पर विमर्श अपेक्षित है। महावीरकालीन साधुओं का अध्ययन ग्यारह अंगों या द्वादशांगी तक सीमित है। उसमें अंगबाह्य श्रुत का कोई उल्लेख नहीं है। महावीर के निर्वाण के पश्चात् उत्तरवर्ती काल में अनेक आगम रचे गए। उन्हें अंगबाह्य श्रुत माना गया। यदि वे आगम स्थविरों द्वारा रचित होते तो उन्हें आगम की कोटि में स्थान नहीं मिलता। आगम के प्रामाण्य की एक निश्चित मर्यादा थी। केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी और दशपूर्वी द्वारा रचित ग्रन्थ ही आगम की कोटि में मान्य हो सकता था। नंदी सूत्र के अनुसार चतुर्दशपूर्वी और अभिन्नदशपूर्वी नियमतः सम्यग् श्रुत होते हैं। उससे नीचे नवपूर्वी आदि के लिए वह नियम नहीं है। इसका तात्पर्य यह है कि चतुर्दशपूर्वी और दशपूर्वी नियमतः सम्यग्दृष्टि सम्पन्न होते हैं। नवपूर्वी आदि सम्यगदृष्टि और मिथ्यादृष्टि-दोनों हो सकते हैं।' अंगबाह्य आगम स्थविरों द्वारा रचित हैं। सभी स्थविर चतुर्दशपूर्वी और दशपूर्वी नहीं थे। प्रामाण्य की कसौटी के आधार पर उन्हें आगम की कोटि में स्वीकार नहीं किया जा सकता। यह एक समस्या थी। इसका समाधान किया गया जो आगमपुरुष नहीं है उसके वचन का प्रामाण्य नहीं हो सकता, किन्तु यदि वह अंग-सूत्रों के आधार पर रचना करता है तो उसका वचन प्रमाण हो सकता है। देवर्धिगणी ने आगम वाचना के समय इसी आधार पर स्थविरकृत ग्रन्थों को आगम की कोटि में परिगणित किया। अंगबाह्य श्रुत उत्तरकालीन रचना है, इसलिए वह व्यवस्थित रूप में उपलब्ध है। उसका कोई भी हिस्सा विच्छिन्न नहीं है, विच्छिन्नता की बात अंगों के साथ जुड़ी हुई है, इसलिए वे अंगबाह्य श्रुत की भांति व्यवस्थित नहीं हैं। प्रस्तुत आगम में 'चलमाणे चलिए' यह पहला प्रश्न है।" इसके बाद ही नैरयिकों की कितनी स्थिति है और वे कितने काल से श्वासोच्छ्वास लेते हैं-ये प्रश्न आते हैं और यहीं से प्रज्ञापना को देखने का १. जैन दर्शन का आदिकाल, पृ.१३ । २. व्यवहारभाष्य और भगवतीवृत्ति में नवपूर्वी को भी आगम माना गया है। विशेष जानकारी के लिए देखें-दशबैकालिकः एक समीक्षात्मक अध्य- यन,पृ.५। ३. नन्दी चू.सू.६६,पृ.४८,४६। ४.११११। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई भूमिका निर्देश शुरू हो जाता है। पहले प्रश्न के साथ इन प्रश्नों का कोई संबन्ध स्थापित नहीं होता। सम्बन्ध स्थापना या व्यवस्था की दृष्टि से ग्यारहवें और बारहवें सूत्र के पश्चात् सोलहवां सूत्र होना चाहिए। इसमें किसी दूसरे आगम को देखने की जरूरत नहीं है और पूर्व प्रश्न के साथ इनका सबंध भी जुड़ता है। इसी प्रकार इकतीसवें सूत्र के पश्चात् तेतीसवां सूत्र होना चाहिए। बत्तीसवें सूत्र में फिर प्रज्ञापना को देखने का निर्देश है। ऐसी कल्पना की जा सकती है कि नैरयिक के प्रसंग में नैरयिक सम्बंधी पूरी जानकारी देने के लिए प्रज्ञापना का कुछ भाग प्रस्तुत सूत्र में साक्षात् लिखा गया और शेष भाग को देखने की सूचना की गई। इसी प्रकार प्रथम शतक के एक सौ एकवें सूत्र में सलेश्य का निरूपण है। प्रसंगवश लेश्या का नाम निरूपण कर उसके विस्तार के लिए प्रज्ञापना के लेश्यापद का निर्देश है। प्रथम शतक के एक सौ पचहत्तरवें सूत्र में मोहनीय कर्म के विषय में चर्चा है। इस प्रसंग मे सभी कर्मों का बोध कराने के लिए प्रज्ञापना के कर्मप्रकृति पद का निर्देश है। जहाँ-जहाँ प्रज्ञापना, जीवाजीवाभिगम आदि का निर्देश है वे सब प्रस्तुत आगम में परिवर्धित विषय हैं। यह कल्पना उन प्रकरणों के अध्ययन से स्पष्ट हो जाती है। इसकी संभावना नहीं की जा सकती कि प्रस्तुत आगम में निर्देशित विषय पहले विस्तृत रूप में थे और संकलन काल में उन्हें संक्षिप्त किया गया और उनका विस्तार जानने के लिए अंगबाह्य सूत्रों का निर्देश किया गया। अंगबाह्य सूत्रों में अंगों का निर्देश किया जा सकता था, किन्तु अंग-सूत्रों में अंगबाह्य सूत्रों का निर्देश कैसे किया जा सकता था? वह किया गया है। इससे स्पष्ट है कि उन निर्देशों से संबंधित विषय प्रस्तुत आगम में जोड़कर उसे व्यवस्थित करने का प्रयल किया गया है। __ अंग सूत्रों में अंगबाह्य सूत्रों का निर्देश उनका (अंगबाह्य सूत्रों का) प्रामाण्य स्थापित करने के लिए किया गया है, इस कल्पना में कोई विशेष अर्थ प्रतीत नहीं होता। दशवैकालिक, उत्तराध्ययन तथा छेदसूत्रों का प्रामाण्य स्थापित करने के लिए भी उनका निर्देश किया जाता। दूसरी बात, अंग-सूत्रों में अंगबाह्य सूत्रों का सर्वाधिक निर्देश व्याख्याप्रज्ञप्ति में ही मिलता है। यदि प्रामाण्य स्थापना की बात होती तो उनका निर्देश प्रत्येक अंग में भी किया जा सकता था। ऐसा नहीं है। इससे वही कल्पना पुष्ट होती है कि संकलन-काल मे प्रस्तुत आगम के रिक्त स्थानों की पूर्ति तथा प्रासंगिक विषय का परिवर्धन किया गया। उक्त स्थापना की पुष्टि के लिए एक तर्क और प्रस्तुत किया जा सकता है। आठवें शतक के एक सौ चार सूत्र से 'क्या जीव ज्ञानी अथवा अज्ञानी'—यह प्रकरण शुरू होता है। इस प्रसंग में इसकी पृष्ठभूमि के रूप में सूत्र ६७ से १०३ तक ज्ञान की चर्चा है। चर्चा का प्रारम्भ कर पूरा विवरण देखने के लिए 'रायपसेणइय' सूत्र का निर्देश किया गया है,' श्रुत अज्ञान की विशेष जानकारी के लिए नंदी का निर्देश किया गया है। इस ऐतिहासिक कालक्रम से भ्रम उत्पन्न हुए हैं। कौटिलीय अर्थशास्त्र, माठर और पुराण आदि ग्रन्थों की रचना व्याख्याप्रज्ञप्ति की रचना के बाद और नंदी की रचना से पूर्व हुई थी। इसलिए व्याख्याप्रज्ञप्ति में उनका निर्देश एक भ्रम उत्पन्न करता है। इससे स्पष्ट होता है कि इस प्रकार के सूत्र प्रसंग की स्पष्टता के लिए जोड़े गए थे। ___ पांचवे शतक में प्रमाण के चार प्रकार बतलाए गए हैं—प्रत्यक्ष, अनुमान, औपम्य और आगम। इनकी विशेष जानकारी के लिए अनुयोगद्वार का निर्देश किया गया है। व्याख्याप्रज्ञप्ति की रचना के समय जैन-ज्ञान-मीमांसा में प्रमाण का विकास नहीं हुआ था। इन चार प्रमाणों का समावेश आर्यरक्षित ने अनुयोगद्वार में किया था। व्याख्याप्रज्ञप्ति में इनका संदर्भ बहुत भ्रम पैदा करता है। नंदी की श्रुतअज्ञान की व्याख्या तथा अनुयोगद्वार का प्रमाण-चतुष्टय-ये सब उत्तरकालीन विकास हैं। दोनों आगमों के पाठों का तुलनात्मक अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है नंदी व्याख्याप्रज्ञप्ति से किं तं मिच्छसुयं ? मिच्छसुयं-जं इमं अण्णाणिएहिं मिच्छदिहिहिं सच्छंद-बुद्धिमइ- से किं तं सुयअण्णाणे ? सुयअण्णाणे-जं विगप्पियं, तं जहा–१. भारह २. रामायणं ३,४ हंभीमासुरुत्तं ५. कोडिल्लयं ६. इमं अण्णाणिएहि मिच्छादिट्टिएहि सच्छंदबुद्धिसगभद्दियाओ ७. घोडमुहं .. कप्पासियं ६. नागसुहमं १०. कणगसत्तरी ११.वइसेसियं मइ-विग्गपियं, तं जहा–भारहं, रामायणं जहा १२. बुद्धवयणं १३. वेसिय १४. काविलं १५. लोगाययं १६. सद्वितंतं १७. माढरं नंदीए जाव चत्तारि वेदा संगोवंगा । १८. पुराणं १६. वागरणं २०. नाडगादि। अहवा-बावत्तरिकलाओ चत्तारि य वेया संगोवंगा। आगमसंकलन के समय कुछ मानदण्ड निश्चित किए गए। उनके अनुसार नगर, राजा, चैत्य, तपस्वी, परिव्राजक आदि का एक जैसा वर्णन किया जाता है। इससे ऐतिहासिक समस्याएं उत्पन्न होती हैं। भगवती के मूल पाठ और संकलनकाल में परिवर्धित पाठ का निर्णय करना यद्यपि सरल कार्य नहीं है, फिर भी सूक्ष्म अध्यवसाय के साथ यह कार्य किया जाए तो असंभव भी नहीं। डा. शुब्रिग आदि विदेशी विद्वानों ने रचना के आधार पर मूल पाठ और परिवर्धित पाठ का निर्धारण किया है। उनका एक अभिमत १.राय.सू.७४१-७५४। २. नंदी,सू.६७। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका भगवई यह है कि बीस शतक प्राचीन हैं और अगले शतक परिवर्धित हैं। यह विषय भाषा, वाक्यरचना आदि की दृष्टि से सूक्ष्मता के साथ अन्वेषणीय है। अन्वेषण के पश्चात् ही उत्तरवर्ती शतकों में परिवर्धित भाग अधिक है,यह स्वीकार किया जा सकता है। चौबीसवां शतक भाषा और वाक्य-रचना की दृष्टि से पूर्ववर्ती शतकों से भिन्न प्रतीत होता है। इसमें प्रस्तुत आगम की सहज सरलता नहीं है, किन्तु प्रज्ञापना जैसी जटिलता है। पच्चीसवें शतक के बारे में यह नहीं कहा जा सकता। फिर भी उसमें कुछ परिवर्धित नहीं है, यह भी नहीं कहा जा सकता। प्रतिसेवना, आलोचना', सामाचारी', प्रायश्चित्त विषयकसूत्र छेदसूत्रों और उत्तराध्ययन से संकलित हैं। डा. डेल्यू. ने इस विषय का स्पर्श इन शब्दों में किया है--"विआहपण्णति में चर्चित विषयों की विविधता और अनेक स्थलों पर इस चर्चा में आने वाले विभिन्न व्यक्तियों तथा परिस्थितियों का विषय में दी गयी जानकारी—यह सारा व्यवस्थित पद्धति से दिए जाने वाले विवरण जैसा नहीं है। इसी कारण से हमारे पास यहां एक ऐसा विवरण उपलब्ध है, जो कि महावीर के सिद्धान्त : उस विषय में निरूपण करता है, न कि उन सिद्धान्तों का जिन्हें उत्तरकाल में व्यवस्थित रूप दिया गया। वस्तुतः तो ऐसा यही एक मात्र यथार्थतः महत्त्वपूर्ण आगमिक विवरण उपलब्ध है। हां, यह अवश्य है कि परम्परा ने बहुत प्रकार से महावीर की यात्रा तथा वे जिन नगरों एवं उद्यानों में गए उनके सम्बन्ध में और वे जिन लोगों से मिले व उनकी उपदेश देने की पद्धति के विषय में एकरूप विवेचन प्रस्तुत कर उक्त विवरण को रूढ-सा बना दिया है। फिर भी यहां जो महत्त्वपूर्ण बिन्दु है वह यह है कि महावीर जिन स्थानों में वस्तुतः रहे थे, जिन लोगों से वस्तुतः मिले थे, अमुक प्रश्नों के बारे में जिन विचारों को उन्होंने निरूपित किया था, जिन अन्य लोगों के अभिप्राय को उन्होंने समर्थन दिया था या असमर्थन दिया था, अपने समय के जिन व्यक्तियों, पदार्थों और घटनाओं के विषय में उन्होंने टिप्पणी की थी, उनके विषय में यहां बताया गया है; तथा संक्षेप में यह कि यहां महावीर अपने काल की स्थितियों और परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में एक सक्रिय व्यक्ति के रूप में अधिक प्रतीत हो रहे हैं। दूसरे शब्दों मे-विआहपण्णत्ती के केन्द्रीय शतकों में एक मात्र वे असली संवादात्मक आगम-पाठ उपलब्ध हैं (जिन्हें पण्णत्ती कहा जाता है) जिनका अनुसरण आगे चलकर प्रज्ञापना जैसे संवादात्मक आगमों में (जिन्हें गौण पण्णत्ती कहा जा सकता है) तथा विआहपण्णत्ती में प्रक्षिप्त पाठों में किया गया है।" पाठ-विमर्श प्रस्तुत आगम के पचीसवें शतक में तप का विस्तृत प्रकरण है। यह औपपातिक में भी उपलब्ध होता है। इसमें चार ध्यानों का निरूपण है। ध्यानचतुष्टयी का निरूपण स्थानांग में भी मिलता है। इनमें कहीं-कहीं क्रम-भेद और कहीं कहीं मौलिक अन्तर है। शुक्लध्यान के लक्षण और आलम्बन के विषय में व्याख्याप्रज्ञप्ति तथा स्थानांग और औपपातिक में पाठ का विपर्यय मिलता है १.२५१५५१ २.२५/५५२-५५४ ३. २५/५५५ ४. २५१५५६ ५. विआहपण्णत्ती की भूमिका,पृष्ठ३४-३५-"On the whole the texts and fragments embodied in the Viy. by way of references and quotations, derive from the systematic enunciation of the doctrine. If they are eliminated from the nucleus sayas, what is left proves to be a rather bewildering amalgam of detached teaching. The diversity of the topics discussed and in many cases that of the persons and the circumstances attending these discussions all but defy methodical description that is because here we have a record, of what Mv.'s teaching actually was like, not of what later systematization has made of it. Of course, tradition has, in many ways, formalized this record by stereotyping the description of Mv.'s peregrination, of the towns and sanctuaries be visited, of the people he met and of bis method of teaching. The important point, however, is that here Mv. is actually said to have stayed at places, to have approved or disapproved of other people's opinions, to bave commented upon persons, things and events of his time, that, in fine, Mv. here appears more as an active personality set against the background of its environmental conditions and circumstances. In other words: the nucleus sayas of the Viy. are, or rather contain, the only genuine dialogue text (pannatti) to be found in the canon, the example imitated by would-be dialogue texts (secondary pannattis) such as pannav." ... Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई भूमिका आर्जव व्युत्सर्ग मार्दव मार्दव शान्ति मुक्ति सूत्ररुचि सूत्ररुचि शुक्ल ध्यान के लाक्षण व्याख्याप्रज्ञप्ति क्षान्ति आर्जव मादेव स्थानांग अव्यव असम्मोह विवेक बुत्सर्ग औपपातिक विवेक व्युत्सर्ग अव्यय असम्मोह शुक्ल ध्यान के आलम्बन व्याख्याप्रज्ञप्ति अव्यय असम्मोह विवेक स्थानांग शान्ति मुक्ति औपपातिक आर्जव ध्यानशतक में स्थानांग और औपपातिक का क्रम मिलता है। अव्यथ, असम्मोह आदि शुक्ल ध्यान के लक्षण हो सकते हैं। ध्यानशतक में इसे विस्तार के साथ समझाया गया है। ' प्रतीत होता है कि स्मृतिदोष अथवा लिपिदोष के कारण यह विपर्यय हो गया। धर्म ध्यान के लक्षण व्याख्याप्रज्ञप्ति आज्ञारुचि निसर्गरुचि अवगाढरुचि स्थानांग आज्ञारुचि निसर्गरुचि अवगाढरुचि औपपातिक आज्ञारुचि निसर्गरुचि उपदेशरुचि धर्म ध्यान के आलम्बन व्याख्याप्रज्ञप्ति वाचना प्रतिप्रच्छना परिवर्तना धर्मकथा स्थानांग वाचना प्रतिप्रच्छना परिवर्तना अनुप्रेक्षा औपपातिक वाचना प्रच्छना परिवर्तना धर्मकथा धर्म ध्यान की अनुप्रेक्षा व्याख्याप्रज्ञप्ति एकत्वानुप्रेक्षा अनित्यानुप्रेक्षा अशरणानुप्रेक्षा संसारानुप्रेक्षा स्थानांग एकानुप्रेक्षा अनित्यानुप्रेक्षा अशरणानुप्रेक्षा संसारानुप्रेक्षा औपपातिक अनित्यानुप्रेक्षा अशरणानुप्रेक्षा एकत्वानुप्रेक्षा संसारानुप्रेक्षा शुक्ल ध्यान के प्रकार १.व्याख्याप्रज्ञप्ति पृथक्त्ववितर्कसविचारी एकत्ववितर्कअविचारी सूक्ष्मनियंअनिवृत्ति समुच्छिन्नक्रियंअप्रतिपाति २.स्थानांग पृथक्त्ववितर्कसविचारी एकत्ववितर्कअविचारी सूक्ष्मनियंअनिवृत्ति समुच्छित्रक्रियंअप्रतिपाति ३.औपपातिक पृथक्त्ववितर्कसविचारी एकत्ववितर्कअविचारी सूक्ष्मक्रियंअप्रतिपाति समुच्छित्रक्रियंअनिवृत्ति देशी शब्दों का प्रयोग सूत्ररुचि प्रस्तुत आगम में यत्र-तत्र देशी शब्दों का भी प्रयोग मिलता है १. भ.२५ । ६१० ठाणं,४ १७०ओ.सू.४३ । २. भ.२५।६११;ठाणं,४ ।७१;ओ.सू.४३ । ३. ध्यान-शतक,६६,६०। ४. वही,६१,६२ चालिज्जइ बीभेइ य धीरो न परीसहोवसग्गेहिं । सुहुमेसु न संमुज्झइ भावेसु न देवमायासु ॥ देहविवित्तं पेच्छइ अप्पाणं तह य सब्बसंजोगे। देहोवहिवोसगं निस्संगो सव्वहा कुणइ ।। ५. भ.२५ । ६०६,ठाणं,४ । ६६,ओ.सू.४३ । ६. भ.२५ । ६०७,ठाणं,४ । ६७;ओ.सू.४३ । ७. भ.२५ । ६०८ ठाणं,४।६८ओ.सू.४३ । ८. भ.२५ । ६०६ ठाणं,४ । ६६:ओ.सू.४३ । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका देशी शब्द गड्ढ बोदि खत्त डोंगर गडूड संकुडित टोल प्रमाण ३।६५ ३ । ११२ ७ ।११७ ७।११७ ७।११७ ७।११६ ७ ।११६ १०. अध्ययन ११. उद्देशक १२. समुद्देशक रचनाकार, रचनाकाल प्रस्तुत आगम द्वादशांगी का पांचवा अंग है। इसमें भगवान् महावीर की वाणी गणधर सुधर्मा के द्वारा संकलित है, इसलिए इसके रचनाकार गणधर सुधर्मा हैं। इसका प्रस्तुत संस्करण देवर्द्धिगणी की वाचना के समय का है। ई. पू. पांच सौ से ईस्वी सन् पांच सौ तक के सूत्र इसमें मिलते हैं। गौतम ने पूछा- भंते ! पूर्वगत श्रुत कब तक चलेगा ? भगवान् ने उत्तर दिया--गौतम ! मेरे निर्वाण के एक हजार वर्ष तक पूर्वगत श्रुत चलेगा' "जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे भारहे वासे इमीसे आसप्पिणीए देवाणुप्पियाणं केवतियं कालं पुव्वगए अणुसज्जिस्सति ? गोयमा ! जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए ममं एगं वाससहस्सं पुव्वगए अणुसज्जिस्सति । " यह सूत्र संकलनाकालीन रचना है। देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमण ने पार्श्वनाथ की परंपरा देवगुप्त से एक पूर्व अर्थ सहित और दूसरे पूर्व का केवल मूल पाठ पढा था। अंतिम पूर्वधारी सत्यमित्र माने जाते हैं। उनके स्वर्गवास के पश्चात् पूर्वश्रुत का सर्वथा विच्छेद हो गया । धर्मसागरगणि लिखित तपागच्छ पट्टावलि में इसका उल्लेख मिलता है - श्रीवीरात् वर्षसहस्त्रे १००० गते सत्यमित्रे पूर्वव्यवच्छेदः पूर्वविच्छेदः । भगवान् महावीर के प्रवचन में कहीं भी भविष्यवाणी नहीं है। यह सामयिक स्थिति का आकलन करने वाला सूत्र देवर्द्धिगणी की वाचना के समय जोड़ा गया प्रतीत होता है। प्रमाण ३६ समर्पण -सूत्रों या निर्देश- सूत्रों के अध्ययन से भी यह तथ्य प्रमाणित होता है कि प्रस्तुत आगम में अनेक शताब्दियों की रचना का संकलन किया गया है। गणिपिटक की जानकारी के लिए नंदी सूत्र का निर्देश किया गया है। उसमें नियुक्ति का उल्लेख है।' यह उत्तरकालीन पाठरचना है। प्रस्तुत आगम में विभिन्न पाठों के रचनाकाल का निर्धारण करना बहुत आवश्यक कार्य है। इससे दार्शनिक विकास के कालक्रम को समझने में पर्याप्त सहायता मिल सकती है। अनेक संख्येय संख्येय संख्येय आकार और वर्तमान आकार प्रस्तुत आगम का ग्रन्थमान अनुष्टुप् श्लोक के अनुपात से १६ हजार श्लोक प्रमाण माना जाता है। हमने अंगसुताणि भाग दो में प्रकाशित प्रस्तुत आगम के संस्करण में अनेक स्थलों पर जाव शब्द की पूर्ति की है। उससे इसका ग्रन्थमान १६२८६ / २ श्लोक प्रमाण हो गया है। इसका सवा लाख प्रमाण वाला भी संस्करण मिलता है, जिसका उल्लेख पहले किया जा चुका है। समवायांग और नंदी में इसका प्राचीन रूप और आकार मिला है। वह इस प्रकार है— सूत्रांग १. वाचना २. अनुयोगद्वार ३. वेढा छन्द ४. श्लोक ६. श्रुतस्कन्ध एक सौ से अधिक दस हजार दस हजार १. २०।७० । २. आत्मप्रबोध, ३३।१। ३. पट्टावली समुच्चय, भा. १, पृ. ५१ । ४. २५/६६,६७ कतिविहे णं भंते ! गणिपिडए पण्णत्ते ? देशी शब्द मग्गओ छाणे चिक्खल मत्या नत्थ छण गोयमा ! दुवालसंगे गणिपिडए पण्णत्ते, तं जहा आयारो जाव दिट्ठिवाओ। ये किं नं आगाशे ? गाणं निशाणं आयार-गोयर- विणय भगवई प्रमाण ७।१५२ ८।२५ सूत्रांग ५. निर्युक्तियां ६. संग्रहणियां ७. प्रतिपत्तियां ८. अंग १३. व्याकरण १४. पद १५. पद ८। ३५७ ६ । ४६ ६।१४१ ६।१८६ ५. नंदी, सू. ८५ के अनुसार। ६. सम. प. स. ६३ के अनुसार है। प्रमाण संख्येय संख्येय संख्येय पांचवां वेणइय-सिक्खा-भासा-अभासा-चरण-करण-जाया- माया-वित्तिओ आघविज्जति, एवं अंगपरूवणा भाणियव्वा जहा नंदीए जाव । सुत्तत्थो खलु पढमो, बीओ निज्जुत्तिमीसओ भणिओ । तइओ य निरवसेसो, एस विही होइ अणुओगे | छत्तीस हजार दो लाख अट्ठासी हजार चौरासी हजार Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई भूमिका जयधवला के अनुसार व्याख्याप्रज्ञप्ति में दो लाख अट्ठाईस हजार पद हैं।' व्याख्याग्रन्थ प्रस्तुत आगम की नियुक्ति वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। इसके विवरण में संख्येय नियुक्तियों का उल्लेख है। ये नियुक्तियां आगम के साथ जुड़ी हुई थी या स्वतन्त्र व्याख्या ग्रन्थ के रूप में थीं, इसका अभी कोई समाधान नहीं हुआ। नंदी सूत्र में उपलब्ध ग्यारह अंगों के विवरण में सभी अंगों में संख्येय नियुक्तियों का उल्लेख है। वर्तमान में केवल दो अंगसूत्रों-आचाराङ्ग और सूत्रकृतांग की नियुक्तियां मिलती हैं, शेष, अंगों की नियुक्तियां उपलब्ध नहीं हैं। प्रस्तुत आगम में कुछ निरुक्त मिलते हैं१. जम्हा आणमइ वा, पाणमइ वा, उस्ससइ वा, नीससइ वा तम्हा पाणे त्ति वत्तव्बं सिया।' २. जम्हा भूते भवति भविस्सति य तम्हा भूए त्ति वत्तव्वं सिया।'' ३. जम्हा जीवे जीवति, जीवत्तं आउयं च कम्मं उवजीवति तम्हा जीवे त्ति वत्तव्यं सिया।' ४. जम्हा सत्ते सुभासुभेहिं कम्मेहिं तम्हा सत्ते त्ति वत्तव्वं सिया। ५. जम्हा तित्तकडुकसायंबिलमहुरे रसे जाणइ तम्हा विष्णु त्ति वत्तवं सिया।" ६. जम्हा वेदेति य सुह-दुक्खं तम्हा वेदे त्ति वत्तव्वं सिया। से तेण?णं पाणे ति बत्तव्यं सिया जाव वेदे त्ति वत्तव्वं सिया।" ७. जे लोकइ से लोए। इन निरुक्तों को भी नियुक्ति कहा जा सकता है। हरिभद्रसूरि ने नियुक्ति का अर्थ निक्षेपनियुक्ति आदि किया है। यहां यह अर्थ घटित हो सकता है। नियुक्ति अनुगम के तीन प्रकार हैं १. निक्षेप नियुक्ति अनुगम २. उपोद्घात नियुक्ति अनुगम ३. सूत्रस्पर्शी नियुक्ति अनुगम प्रस्तुत आगम में निक्षेप-नियुक्ति का स्थान-स्थान पर प्रयोग मिलता है१. दव्यओ लोए सअंते खेत्तओ लोए सअंते कालओ लोए अणंते भावओ लोए अणते। २. दव्वओ जीवे सअंते खेत्तओ जीवे सअंते कालओ जीवे अणंते भावओ जीवे अणंते। इस प्रकार २|१२५-१२६,५।२०५८1१८४-१६१ १११३५, १०८; १४।८१ १६/११; २५/२५, २८-ये स्थल द्रष्टव्य चूर्णि अभी मुद्रित नहीं है। वह हस्तलिखित मिलती है। उसकी पत्र संख्या १० है। उसका ग्रंथमान ३५६० श्लोक परिमाण है। उसके प्रारंभ में मंगलाचरण नहीं है और अन्त में प्रशस्ति नहीं है। रचनाकार और रचनाकाल का कोई उल्लेख नहीं है। चूर्णि की भाषा प्राकृत प्रधान है। इसे प्राकृत प्रधान चूर्णियां—नंदीचूर्णि, अनुयोगद्वारचूर्णि, दशवैकालिकचूर्णि, आचारांगचूर्णि, सूत्रकृतांगचूर्णि, और जीतकल्प चूर्णि की कोटि में रखा जाता है। विद्वानों के अनुसार भगवतीचूर्णि के रचनाकार जिनदास महत्तर हैं। १-.क.पा.प्रथम अधिकार,पृ.६३,६४ । २. नंदी.सू.६१-६१ ३.८.२।१५। ६.५/२५५ १०. नंदी,हा.वृ.पृ.७६ निर्युक्तानां युक्तिर्नियुक्तियुक्तिरिति वाच्ये युक्तशब्दलोपात् नियुक्तिरिति, एताश्च निक्षेपनियुक्त्याद्याः । ११. अणु.सू.७११। १२.२.४५,४६। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई भूमिका ३८ प्रस्तुत आगम पर नवाङ्गीटीकाकार अभयदेवसूरि की वृत्ति उपलब्ध है। सं. ११२८ अणहिलपाटक नगर में इस वृत्ति का निर्माण संपन्न हुआ। इसका ग्रन्थमान अनुष्टुप् श्लोक के अनुपात से १८६१६ है। वृत्ति का प्रारम्भ मंगलाचरण के साथ किया गया है सर्वज्ञमीश्वरमनन्तमसङ्गमा सार्वीयमस्मरमनीशमनीहमिद्धम् । सिद्ध शिवं शिवकरं करणव्यपेतं, श्रीमजिनं जितरिपुं प्रयतः प्रणौमि ॥ १॥ नत्वा श्रीवर्द्धमानाय, श्रीमते च सुधर्मणे । सर्वानुयोगवृद्धेभ्यो, वाण्यै सर्वविदस्तथा ॥ २॥ एतट्टीकाचूर्णी जीवाभिगमादिवृत्तिलेशांश्च । संयोज्य पञ्चमाझं विवृणोमि विशेषतः किञ्चित् ॥ ३॥ वृत्ति की परिसमाप्ति पर प्रशस्ति के सोलह श्लोक हैं। उनमें अपनी परम्परा का परिचय और वृत्ति के शोधनकार द्रोणसूरी के प्रति कृतज्ञता, सहायकों के प्रति आभार, रचनापूर्ति का काल तथा ग्रंथमान का उल्लेख है यदुक्तमादाविह साधुयोधैः श्रीपञ्चमाङ्गोनतकुञ्जरोऽयम् । सुखाधिगम्योऽस्त्विति पूर्वगुर्वी, प्रारभ्यते वृत्तिवरत्रिकेयम् ॥ १॥ समर्थितं तत्पटुबुद्धिसाधुसाहायकात्केवलमत्र सन्तः। सबुद्धिदात्र्याऽपगुणांल्गुनन्तु, सुखग्रहा येन भवत्यथैषा ॥ २॥ चांद्रे कुले सद्वनकक्षकल्पे, महाद्रुमो धर्मफलप्रदानात् । छायान्वितः शस्तविशालशाखः, श्रीवर्द्धमानो मुनिनायकोऽभूत् ॥३॥ तत्पुष्पकल्पी विलसद्विहारसद्गन्धसम्पूर्णदिशौ समन्तात् । बभूवतुः शिष्यवरावनीचवृत्तिश्रुतज्ञानपरागवन्तौ ॥ ४ ॥ एकस्तयोः सूरिवरो जिनेश्वरः, ख्यातस्तथान्यो भुवि बुद्धिसागरः । तयोविनेयेन विबुद्धिनाप्यलं, वृत्तिः कृतैषाऽभयदेवसूरिणा ॥ ५॥ तयोरेव विनेयानां, तत्पदं चानुकुर्वताम् । श्रीमतां जिनचन्द्राख्यसप्रभूणां नियोगतः ॥ ६॥ श्रीमजिनेश्वराचार्यशिष्याणां गुणशालिनाम् । जिनभद्रमुनीन्द्राणामस्माकं चाहिसेविनः॥७॥ यशश्चन्द्रगणेर्गाढसाहाय्यात् सिद्धिमागता । परित्यक्तान्यकृत्यस्य, युक्तायुक्तविवेकिनः ॥ ८॥ युग्मम् । शास्त्रार्थनिर्णयसुसौरभलम्पटस्य, विद्वन्मधुव्रतगणस्य सदैव सेव्यः । श्रीनिवृताख्यकुलसन्नदपद्मकल्पः, श्रीद्रोणसूरिरनवद्ययशःपरागः ॥ ६ ॥ शोधितवान् वृत्तिमिमां युक्तो विदुषां महासमूहेन । शास्त्रार्थनिष्कनिकषणकषपट्टककल्पबुद्धीनाम् ॥ १०॥ विशोधिता तावदियं सुधीभिस्तथापि दोषाः किल संभवन्ति । मन्मोहतस्तांश्च विहाय सद्भिस्तद्ग्राह्यमाप्ताभिमतं यदस्याम् ।। ११ ॥ यदवाप्तं मया पुण्यं, वृत्ताविह शुभाशयात् । मोहाद् वृत्तिजमन्यच्च, तेनागो मे विशुद्ध्यतात् ॥ १२ ॥ प्रथमादर्श लिखिता विमलगणिप्रभृतिभिर्निजविनेयैः । कुर्वद्भिः श्रुतभक्तिं दक्षैरधिकं विनीतैश्च ॥ १३॥ अस्याः करणव्याख्याश्रुतिलेखनपूजनादिषु यथार्हम् । दायिकसुतमाणिक्यः प्रेरितवानस्मदादिजनान् ।। १४ ॥ अष्टाविंशतियुक्ते वर्षसहस्त्रे शतेन चाभ्यधिके । अणहिलपाटकनगरे कृतेयमच्छुप्तधनिवसती ॥१५॥ अष्टादश सहस्त्राणि, षट् शतान्यथ षोडश । इत्येवमानमेतस्याः, श्लोकमानेन निश्चितम् ।। १६ ॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३६ भूमिका वृत्तिकार ने मूल टीका और चूर्णिकार का अनेक बार उल्लेख किया है वृत्तिपत्र वृत्तिपत्र ६४० ६४२ ६४४ ६८ १५० ६५६ ६६८ ६७३ ६८४ १७४ १७८ १८४ १६५ २४१ २६६ ७०१ ७०४ चूर्णिकार मतमुपजीव्य चूर्णिकारः पुनरेवमाह परिपूर्णस्त्ववीचिद्रव्याणीति टीकाकारः, चूर्णिकारस्त्वाहारद्रव्यवर्गणामधिकृत्येदम् वृद्ध व्याख्यातम् पार्श्वस्थीभूता इति टीकाकारः 'पासावचिज' त्ति चूर्णिकारः प्रस्तावाचुलुकमाहुवृद्धाः इह वृद्धव्याख्या वृद्धैरप्यनाख्यातत्वात्, आह च चूर्णिकारः इह टीकाव्याख्या वृद्धाः चूर्णिकारः चूर्णिकारेण तु झूरित इति टीकाकारः वलितोद्धवलितामिति वृद्धाः वक्रामिति वृद्धा इयं चेह वृद्धोक्ता गाया. आह च चूर्णिकारः अत एवोक्तं चूर्णिकारेण इह चैता वृद्धोक्ताः संग्रहगावा चूर्णिकारव्याख्या टीकाकारस्तु साक्षेपपरिहारं चेह पाह ७०५ ७०५ ७०५ २६३ ३५८ मूलटीकाकृता वृद्धस्तु काञ्चिद्वाचनामाश्रित्येदं व्याख्यातम् वृद्धस्यं विशेष उक्तः घटवदिति चूर्णिव्याख्या, टीकाकारस्त्वेवमाह एतब टीकाकारव्याख्यानं वाचनान्तरविषयमिति टीकाकारेण तु.... टीकाकारव्याख्यानं त्विह चूर्णिकारोपि आह वृद्धस्तु व्याख्यातम् अन्योन्यमनुप्रविशन्ते इति वृद्धाः अथालघूनि महान्ति वरिष्ठानीति वृद्धाः आह च चूर्णिकारः वृद्धाः पुनरेवमाहुः चूर्णिकारमतं तु वृद्धोक्तोभिधीयते वृद्धव्याख्या तु वृद्धव्याख्या तु आह च भाष्यकारः, आह च भाष्यकार: वृद्धः पुनः पश्यतीत्यत्रेदमुक्तम् चूर्णिकारव्याख्या, टीकाकारव्याख्या तु इहाल्पबहुत्वाधिकारे वृद्धा गाया एवं प्रपञ्चितवन्तः इत्येतस्य चूर्ण्यनुसारेण व्याख्या इति च वृद्धाः....इति च वृद्धाः आह च भाष्यकारः इह पूज्यव्याख्या अयं च सूत्रार्थोऽभूमिवृद्धोक्तगायाभिर्मावनीयः एतब टीकामुपजीव्य व्याख्यातम, इह कश्चिदाह ननु देवत्वाच्युतस्यानन्तरमेव...इति टीकाकारमतमवसीयते उक्तञ्च चूर्णाम् इह चूर्णिकारव्याख्यानमिदम् वृत्तिकृता त्वेवमुक्तम् इह च प्रकरणे इमे वृद्धोक्तगावे चूर्णिकारेण पुनः कापसूत्राणि इति च वृद्धाः वल्ल्यायाक्रान्तत्वादिति च वृद्धाः ५०४ ३६८ ४१४ VVVVVVVVV Mur mur 9 म वृद्धाः ४५७ ४६२ ५२८ ६०० ६२४ चूर्णिकारः ५८६ केनचित्तिकृतेहान्यत्र च ग्रन्थे व्याख्यानमप्येनमेव चूर्णिकारस्त्वाह एतच टीकाकारव्याख्यानम्, चूर्णिकारव्याख्यानमप्येनमेव चूर्ध्या तूक्तम्-जं वत्थाई.... ६२४ चूां तूक्तम् झंझा.... उक्तं च वृद्धरिह ६२६ प्राक्तनशतभङ्गकाशंचाश्रित्य वृद्धरुक्तम् ६४१ इदं च प्रायोवृत्तिमकीकृत्योक्तं,अन्यथा पञ्चसामयिक्यपि गतिः सम्भवति ६६० व्याख्या शतस्यास्या कृता सकष्टं, टीकाऽल्पिका येन न चास्ति चूर्णिः । __ मन्दैकनेत्रो बत पश्यतारा, दृश्यान्यकष्टं कथमुद्यतोऽपि ।। १।। ६७० ६११ ६११ ६१२ ६२३ निचवदाः ६२८ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . सूत्र प्रथम उद्देशक १-३ मंगल-पद उत्क्षेप-पद ४-१० ११,१२ १३- ३२ ३३- ३८ ३६-४३ ४४, ४७ ४८-५१ १०२ १०३-१११ ११२,११३ ११४- ११७ तृतीय उद्देशक ११८ - १३० चलमान पद नैरयिकों की स्थिति आदि का पद आरंभ- अनारंभ-पद ज्ञानादि का भवान्तर-संक्रमण-पद द्वितीय उद्देशक ५२ ५३-५६ कर्म-वेदन-पद ६०-८५ नैरयिक आदि जीवों का समान आहार, समान शरीर आदि-पद ८६- १०१ मनुष्यों आदि का समान आहार, समान शरीर आदि-पद लेश्या पद जीवों का भव-परिवर्तन-पद अन्तक्रिया-पद असंज्ञी - आयुष्य-पद १३१,१३२ १३३-१३८ असंवृत-संवृत - अनगार-पद असंयत का वानमंतरदेव-पद कांक्षामोहनीय-पद श्रद्धा-पद अस्ति नास्ति-पद भगवान् की समता का पद कांक्षामोहनीय का बंध आदि-पद १३६ १४० - १७३ चतुर्थ उद्देशक १७४ १७५-१८८ १८६,१६० कर्म-मोक्ष-पद कर्म-पद उपस्थान- अपक्रमण-पद विषयानुक्रम प्रथम शतक पृष्ठ ०५-११ ११-२० २१-२३ २३-३१ ३१-३६ ३६-३६ ३६-४२ ४२-४६ ४७ ४७, ४८ ४६-५३ ५३-६२ ६२, ६३ ६३-६६ ६६, ६७ ६७-७१ ७२-७५ ७५-७६ ७६-७६ ७६,८० ८०-६३ ६३,६४ ६४-६७ ६७-६६ सूत्र १६१-१६६ पुद्गल और जीव की कालिकता का पद मोक्ष पद २०० - २१० पांचवां उद्देशक २११,२१२ पृथ्वी-पद २१३-२१५ २१६-२४४ आवास-पद नैरयिकों का नानादशाओं में क्रोधोपयुक्त आदि भंग-पद २४५-२५५ असुरकुमार आदि का नानादशाओं में क्रोधोपयुक्त आदि भङ्ग-पद छट्ठा उद्देशक २५६-२६७ २६८- २७५ सूर्य-पद स्पर्शना-पद २७६-२८७ क्रिया-पद २८८-३०८ रोह के प्रश्न-पद ३०६-३११ लोकस्थिति-पद ३१२,३१३ जीव- पुद्गल-पद ३१४-३१७ स्नेहकाय-पद सातवां उद्देशक ३१८-३३४ देश-सर्व-पद ३३५-३३८ विग्रहगति-पद ३३६ आयु-पद गर्भ-पद ३४०-३४६ ३५० - ३५२ मात्रिक- पैत्रिक -अंग-पद गर्भ का नरक- गमन-पद ३५३, ३५४ ३५५-३५८ गर्भ का देवलोक गमन-पद आठवां उद्देशक ३५६ बाल का आयुष्य-पद ३६०,३६१ पंडित का आयुष्य-पद पृष्ठ ६६-१०१ १०१-१०४ १०५ १०५, १०६ १०६-११७ ११७-१२१ १२२-१२५ १२५-१२७ १२७-१२६ १२६-१३६ १३६-१३८ १३८ - १४० १४०, १४१ १४२-१४६ १४६, १४७ १४८, १४६ १४६-१५४ १५४, १५५ १५५ १५५-१५८ १५६ १५६, १६० Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६०,१६१ १६१-१६६ १६६,१६७ १६७-१६६ ०००-१६४ १८४,१६५ १८६ १८७ ३६२,३६३ बालपंडित का आयुष्य-पद ३६४-३७२ क्रिया-पद ३७३,३७४ जय-पराजय-पद ३७५-३८४ वीर्य-पद नवमां उद्देशक ३८४-४१६ गुरु-लघु-पद ४१७-४१५ प्रशस्त-पद ४१६ कांक्षाप्रदोष-पद ४२०-४२२ इह-पर-भविक-आयु-पद ४२३-४३३ कालासवैश्यपुत्र-पद ४३४-४३५ अप्रत्याख्यानक्रिया-पद ४३६-४३७ आधाकर्म-पद ४३८-४३६ प्रासु-एषणीय-पद ४४०-४४१ शाश्वत-अशाश्वत-पद दसवां उद्देशक ४४२ परसमयवक्तव्यता-पद ४४३ स्वसमय वक्तव्यता-पद ४४४-४४५ ऐपिथिकी-साम्परायिकी-पद ४४६-४४८ उपपात-पद १७१-१७६ १७६-१७७ १७७ १७८-१७६ १७६-१८३ । १८८-१८६ १८६-१६१ १६२,१६३ १६३ द्वितीय शतक सूत्र सातवां उद्देशक ११६,११७ स्थान-पद २८१ प्रथम उद्देशक -०१ उत्क्षेप-पद ०२.०८ श्वासोच्छ्वास-पद ०६-१२ वायुकाय का कायस्थिति-पद १३-१६ मृतादीनिर्ग्रन्थ-पद २०-७३ स्कन्दककथा-पद १६६ १६६-२०२ २०२,२०३ २०४-२०७ २०७-२५१ आठवां उद्देशक ११८-१२१ चमरसभा-पद २८२-२८४ २६४ २५२-२५४ द्वितीय उद्देशक -७४ समुद्घात-पद तृतीय उद्देशक ७५,७६ पृथ्वी-पद चतुर्य उद्देशक ७७,७८ इन्द्रिय-पद नवमां उद्देशक १२२,१२३ समयक्षेत्र-पद दसवां उद्देशक १२४-१३५ अस्तिकाय-पद १३६,१३७ जीवत्व-उपदर्शन-पद १३८-१४० आकाश-पद १४१-१४५ अस्तिकाय-पद १४६-१५३ स्पर्शना-पद २५५,२५६ । २८५-२६१ २६१-२६२ २६२-२६४ २६४-२६५ २६५-२६७ २५७ परिशिष्ट पांचवा उद्देशक ७६,१० परिचारणा-वेद-पद ५१-६१ गर्भ-पद ६२-१११ तुंगियानगरी-श्रमणोपासक-पद ११२-११४ उष्णजलकुण्ड-पद छट्ठा उद्देशक ११५ भाषा-पद २५-२६० २६०-२६३ २६३-२७६ २७६-२८० नामानुक्रम (व्यक्ति और स्थान) ३०३-३०४ भाष्यविषयानुक्रम ३०५-३१० पारिभाषिक शब्दानुक्रम ३११-३२६ आधारभूत ग्रन्थ-सूची ३३०-३३६ जिनदास महत्तरकृत चूर्णि-दो शतक ३३८-३३६ अभयदेवसूरिक्त वृत्ति-दो शतक ३४०-४१२ २८१ । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमं सतं प्रथम शतक Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख प्रस्तुत है भगवती का पहला शतक । इसमें दर्शनशास्त्र, आचारशास्त्र, जीवविद्या, लोकविद्या, सृष्टिविद्या, परामनोविज्ञान आदि अनेक विषयों का गंभीर परामर्श हुआ है। जैन दर्शन के अनुसार सृष्टि का विकास जीव और पुद्गल के योग से हुआ है। मूल तत्त्व दो हैं— जीव और अजीव । उनका अस्तित्व त्रैकालिक है, अनादि है। प्रत्येक अस्तित्व में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य की त्रिपदी का समन्वय है। ध्रौव्यांश अनादि है। उत्पाद और व्यय परिणमन के अंग हैं। यह परिणमन ही सृष्टि का मूल बीज है। रोहक के प्रश्न के उत्तर में भगवान् महावीर ने कहा-रोहक ! जीव और अजीव-ये हैं । उनमें पहले पीछे का क्रम नहीं है। पहले जीव और पश्चाद अजीव-यह नहीं है। पहले अजीव और पश्चाद जीव-यह भी नहीं है। दोनों में पौर्वापर्य नहीं है। यह सिद्धान्त वेदान्त के चैतन्याद्वैत से भिन्न है। उसके अनुसार ब्रह्म या चेतन से जड़ पदार्थ की उत्पत्ति होती है। इस सिद्धान्त में जड़ाद्वैतवाद का भी अस्वीकार है। उसके अनुसार जड़ पदार्थ से चैतन्य की उत्पत्ति होती है। चेतन और अचेतन दोनों का स्वतन्त्र अस्तित्व है, फिर उनमें संबंध स्थापित कैसे हो सकता है ?—यह प्रश्न दर्शन के क्षेत्र में बहुचर्चित रहा है और आज भी है। इस प्रश्न का एक नया समाधान उपलब्ध है। जीव और पुद्गल दोनों में एक स्नेह नाम का तत्त्व होता है। इस तत्त्व के कारण उन दोनों में संबंध स्थापित हो जाता है। रेने देकार्ते ने शरीर और मन की निरपेक्ष सत्ता का प्रतिपादन किया। स्पिनोजा ने शरीर और मन में अद्वैत की स्थापना की। आधुनिक वैज्ञानिक शरीर और मन में अन्तःक्रिया (Interaction) मानते हैं। मनोविज्ञान के क्षेत्र में इस अन्तःक्रिया के सिद्धान्त के आधार पर अनेक समस्याएं सुलझाई गई हैं। शरीर का मन पर और मन का शरीर पर प्रभाव होता है, यह स्पष्ट है। शरीर और मन दोनों भिन्न सत्ताएं हैं; फिर एक दूसरे का प्रभाव एक दूसरे पर कैसे होता है ? देकार्ते ने शरीर और मन की पारस्परिक क्रियाओं का संबंध-सूत्र पाइनियल ग्लैंड को बतलाया है। इससे प्रश्न का सही समाधान नहीं होता। शरीर और जीव दोनों में कोई ऐसा संबंध-सूत्र होना चाहिए जिससे वे एक-दूसरे को परस्पर प्रभावित कर सकें । स्नेह का संबंध जीव और पुद्गल दोनों से है। उसके आधार पर पारस्परिक संबंध की व्याख्या सरल हो जाती है। जीव और पुद्गल का संबंध शरीर-धारण, आहार-ग्रहण, कर्म-बंध, कर्म-विपाक आदि अनेक रूपों में होता है। इस प्रसंग में जीवविद्या और कर्मविद्या के अनेक नए पक्षों पर विमर्श हुआ है।' परामनोविज्ञान (Parapsychology) विज्ञान की नई और दर्शन की बहुत पुरानी शाखा है। उसका एक महत्त्वपूर्ण अंग है-पुनर्जन्म । एक जीव वर्तमान जीवन को समाप्त कर नए जीवन का प्रारंभ करता है | गीता की भाषा में "वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥" १. सूत्र १६१-१६६ २. सूत्र २६१। ३. सूत्र ४४०॥ ४. द्रष्टव्य सूत्र ३१२, ३१३ का भाष्य। ५. जीवविद्या के लिए द्रष्टव्य सूत्र--- जीवन का स्थिति-काल-१३-१५,३२ सम-आहार, समशरीर आदि–६०-१०० संसार-संस्थान काल-१०३-१११ स्थिति-स्थान–२१६-२५४ स्नेहकाय--३१४-३१६ आयुष्य-३५६३६३,४२०,४२१ वीर्य-३७५-३८२, ३६७-३६६ जीव और लेश्या-१०१,१०२,४०८-४१६ गुरुत्व-लघुत्व ३८४-३६१ जीव और पुद्गल–१६,२७। कर्मविद्या के लिए द्रष्टव्य सूत्र चलित-अचलित–२०३१ कर्म-वेदन-५३-५६ उपस्थापन, अवक्रमण-१७५-१८८ कांक्षामोहनीय-११-१३०,१४०-१७२ कर्म-प्रकृति-१७४ कर्म-मोक्ष-१८६,१६० जय-पराजय-३७३,३७४,४०७) ६. भगवद्गीता, २।२२। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श.१:आमुख "मनुष्य जैसे पुराने वस्त्रों को छोड़ नए वस्त्रों को धारण करता है, वैसे ही देही (जीव) पुराने शरीर को छोड़ नए शरीर को धारण करता है।" प्रस्तुत शतक में एक जीवन से दूसरे जीवन के मध्य होनेवाली गति (अंतराल गति) का विवेचन मिलता है।' पुनर्जन्म की आयु का संवेदन कब होता है ? अंतराल गति में जीव इन्द्रिय-ज्ञान और शरीर से युक्त होता है या वियुक्त ? --इन प्रश्नों पर विचार किया गया है। पुनर्जन्म से संबंध रखने वाले अनेक सूत्र हैं।' गर्भ-विद्या के सूत्रों की तुलना आयुर्वेद के मौलिक ग्रन्थ चरक और सुश्रुत से होती है। गर्भस्थ शिशु वैक्रिय लब्धि के द्वारा सेना का निर्माण कर युद्ध करता है और वह मरकर नरक में उत्पन्न हो जाता है। कोई गर्भस्थ शिशु धार्मिक प्रवचन सुन उसमें लीन हो जाता है, गर्भ-अवस्था में उसकी मृत्यु होती है और वह स्वर्ग में उत्पन्न हो जाता है।" जैन दर्शन के विकास में जीवविज्ञान (Biology) का मुख्य आधार रहा है। पुद्गल का विवेचन जीव के सहायक द्रव्य के रूप में हुआ है। जीव-विकास का चरम बिंदु है मोक्ष । जैनों का आचारशास्त्र जीव और मोक्ष के अन्तराल में विकसित हुआ है। प्रस्तुत शतक में आचार के अनेक पक्ष चर्चित हैं। क्रिया से अन्तक्रिया तक उनकी यात्रा करना बहुत महत्त्वपूर्ण है। प्रस्तुत शतक के १० उद्देशक हैं। उनमें विषय की क्रमबद्धता नहीं है। एक विषय से संबंध रखने वाले सूत्र अनेक उद्देशकों में उपलब्ध हैं। इसका हेतु यह है कि भगवती में प्रश्नों और उत्तरों का संग्रह है। कर्म के विषय में एक प्रश्न पहले पूछा गया और दूसरा प्रश्न कुछ समय के अन्तराल से पूछा गया। उनको उसी रूप में रखा गया है। सूत्रकार ने संकलन-काल में विषय के वर्गीकरण को प्रधानता नहीं दी। प्रस्तुत शतक को पढते समय इस तथ्य की स्मृति रखना आवश्यक है। १. सूत्र ३३५३३८। २. सूत्र ३३६ ३. सूत्र ३४०-३४३। ४. सूत्र ३६४३,४८-५०,११३-११६,३१८३३४। ५. द्रष्टव्य सूत्र ३४०-३४६ का भाष्य । ६. सूत्र ३५३,३५४। ७. सूत्र ३३५३५६। ६. द्रष्टव्य सूत्र क्रिया—२७६-२८६,३६४-३७२,४३४, ४३५,४४४, ४४५ आरम्भ अनारम्भ-३३-३८ श्रद्धा-१३१,१३२ लाघक-४१७,४१८ सामायिक-४२३-४३३ साधु और मोक्ष-४४-४७,२००-२०६ अंतकर-४१६ अंतक्रिया–११२। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमं सतं : पहला शतक पढमो उद्देसो : पहला उद्देशक मूल संस्कृत छाया मंगल-पदम् मंगल-पदं १. नमो अरहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो सम्बसाहूणं॥ नमः अर्हद्भ्यः नमः सिद्धेभ्यः नमः आचार्येभ्यः नमः उपाध्यायेभ्यः नमः सर्वसाधुभ्यः। हिन्दी अनुवाद मंगल पद १. अर्हतों को नमस्कार सिद्धों को नमस्कार आचार्यों को नमस्कार उपाध्यायों को नमस्कार सब साधुओं को नमस्कार । २ २. नमो बंभीए लिवीए॥ नमो ब्राह्मयै लिप्यै। २. ब्राह्मी लिपि को नमस्कार ।३ संगहणी गाहा संग्रहणी गाथा रायगिह १ चलण २ दुक्खे, राजगृहे चलनः दुःखः, ३ कंखपओसे य ४ पगइ ५ पुढवीओ। कांक्षाप्रदोषश्च प्रकृतिः पृथिव्यः । ६ जावंते ७ नेरइए, यावान् नैरयिकः, बाले ६गुरुए य१०चलणाओ ॥१॥ बालः गुरुकश्च चलनाः ।। संग्रहणी गाथा प्रथम शतक में दस उद्देशक हैं—राजगृह में प्रश्नोत्तर-१ चलमान चलित २ दुःख ३ कांक्षाप्रदोष ४ कर्म-प्रकृति ५ पृथ्वियां ६ यावान् ७ नैरयिक ८ बाल ६ गुरुक १० चलमान अचलित। ३. नमो सुयस्स ॥ नमः श्रुताय। ३. श्रुत को नमस्कार। भाष्य १.मंगल-पद प्रस्तुत आगम मंगल-पद के साथ प्रारम्भ होता है। इसमें तीन मंगल-सूत्र हैं। प्रथम मंगल में अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और मुनि को नमस्कार किया गया है और दूसरे मंगल में ब्राह्मी लिपि को। इसके बाद संग्रहणी गाथा है और फिर तीसरे मंगल में श्रुत को नमस्कार किया गया है। मंगल का प्रयोजन है-इष्ट अर्थ की प्राप्ति।' निर्विघ्न रूप से शास्त्र या लौकिक कार्यों की परिसमाप्ति तथा वांछित अभिसिद्धि के लिए जो किया जाता है, वह मंगल है; इसीलिए शास्त्र के आदि, मध्य तथा अंत में मंगल करने का विधान किया गया है। आदि मंगल से शत्रुओं के द्वारा आने वाले विघ्नों का विघात, मध्य मंगल से बिना किसी विक्षेप के शास्त्र की सम्पन्नता तथा अंत मंगल से आयुष्मान् श्रोता की उपलब्धि होती है। मुख्य रूप में मंगल दो प्रकार का होता है-द्रव्य मंगल और भाव मंगल। लौकिक कार्यों में अक्षत, कुंकुम, दही, नारियल आदि पदार्थ मंगल माने जाते हैं। लोकोत्तर कार्यों में अपने इष्ट देवता का १.प्रज्ञा.वृ.प.१ मंगलं चैव शास्त्रादौ, वाच्यमिष्टार्थसिद्धये ॥ २. (क) वि.भा.गा. १३,१४ तं मंगलमाईए मज्झे, पजंतए य सत्थस्स | पढम सत्थत्थाऽविग्धपारगमणाय णिद्दिटुं ॥ तस्सेव य थेज्जत्थं, मज्झिमयं अन्तिमं पि तस्सेव । अव्वोच्छित्तिणिमित्तं, सिस्सपसिस्सादिवंसस्स ॥ (ख) प्रमाण-मीमांसा,१1१1१-मंगले च सति परिपन्थिविघ्नविघाताद् अक्षेपेण शास्त्रसिद्धिः आयुष्पच्छोतृकता च भवति । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १: उ.१: सू. १-३ स्मरण ही मंगल है। प्राचीन आगम - साहित्य में ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगल - विन्यास करने की पद्धति नहीं थी । उत्तरकाल में इस पद्धति का विकास हुआ । वृत्तिकार आचार्य अभयदेवसूरि का अभिमत है कि आगम स्वयं एक मंगल है। उसमें दूसरे दूसरे मंगलों का समावेश करने का कोई औचित्य नहीं बनता। इससे अनवस्था दोष की प्राप्ति होती है। फिर भी शिष्य की मति को मंगलमय बनाने तथा शिष्ट परम्परा के निर्वाह के लिए प्रस्तुत सूत्र में ऐसा प्रयत्न किया गया। उन्होंने ऐतिहासिक दृष्टि प्रस्तुत नहीं की, केवल प्राचीन परम्परा की ओर ध्यान अवश्य आकर्षित किया है। उन्होंने लिखा है " पूर्व वृत्तिकार ने पूर्वव्याख्यात नमस्कार आदि ग्रन्थ की व्याख्या नहीं की। उनके सामने इसका कोई कारण रहा है। यह कारण क्या रहा होगा, इस पर उन्होंने कोई प्रकाश नहीं डाला। हमारे अभिमत से इसका कारण यह है कि मंगल सूत्र रचनाकालिक नहीं हैं, वे उत्तरकाल में जुड़े हैं। इसीलिए चूर्णि और मूलवृत्ति में वे व्याख्यात नहीं हैं । , प्रस्तुत सूत्र के पन्द्रहवें शतक के प्रारम्भ में भी मंगल-वाक्य उपलब्ध होता है— नमो सुयदेवयाए भगवईए। अभयदेवसूरि ने इसकी व्याख्या नहीं की है, इससे लगता है कि प्रारम्भ के मंगल-वाक्य, लिपिकारों या अन्य किसी आचार्य ने, वृत्ति की रचना से पूर्व जोड़ दिये थे और मध्यवर्ती-मंगल वृत्ति की रचना के बाद जुड़ा । पन्द्रहवें शतक का पाठ विनकारक माना जाता था, इसलिए इस अध्ययन के साथ मंगलवाक्य जोड़ा गया, यह बहुत संभव है। मंगलवाक्य के प्रक्षिप्त होने की बात अन्य आगमों से भी पुष्ट होती है । दशाश्रुतस्कंध की वृत्ति में मंगल-वाक्य के रूप में नमस्कार मंत्र व्याख्यात है, किन्तु चूर्णि में वह व्याख्यात नहीं है। इससे स्पष्ट है कि चूर्णि के रचनाकाल में वह प्रतियों में उपलब्ध नहीं था और वृत्ति की रचना से पूर्व वह उनमें जुड़ गया था । पजोसणाकप्पो ( कल्पसूत्र ) दसाओ का आठवां अध्ययन है। उसके प्रारम्भ में भी नमस्कार - मन्त्र लिखा हुआ मिलता है । आगम - अनुसंधाता मुनि पुण्यविजयजी ने इसे प्रक्षिप्त माना है । उनके अनुसार प्राचीनतम ताइपत्रीय प्रतियों में यह उपलब्ध नहीं है और वृत्ति में भी व्याख्यात नहीं है । यह अष्टम अध्ययन होने के कारण इसमें मध्य मंगल भी नहीं हो सकता । इसलिए यह प्रक्षिप्त है। पण्णवणा के प्रारंभ में भी नमस्कार मंत्र लिखा हुआ है, किन्तु हरिभद्रसूरि और मलयगिरि – इन दोनों व्याख्याकारों के द्वारा यह व्याख्यात नहीं है। पण्णवणा के रचनाकार श्री श्यामार्य ने मंगल- वाक्य पूर्वक रचना १. भ. वृ. १/२ - ननु अधिकृतशास्त्रस्यैव मङ्गलत्वात् किं मङ्गलेन ? अनवस्थादिदोषप्राप्तेः । सत्यं, किन्तु शिष्यमतिमंगलपरिग्रहार्थं मंगलोपादानं शिष्टसमयपरिपालनाय चेत्युक्तमेवेति । २. वही, १ | ४ – अयं च प्राग् व्याख्यातो नमस्कारादिको ग्रन्थो वृत्तिकृतान व्याख्यातः कुतोऽपि कारणादिति । ३. कल्पसूत्र (मुनि पुण्यविजयजी द्वारा संपादित ) पृ. ३- कल्पसूत्रारम्भे नैतद् नमस्कारसूत्ररूपं सूत्रं भूम्ना प्राचीनतमेषु ताडपत्रीयादर्शेषु दृश्यते, नापि टीकाकृदादिभिरेतदादृतं व्याख्यातं वा, तथा चास्य कल्पसूत्रस्य दशाश्रुतस्कंधस्याष्टमाध्ययनत्वान्न मध्ये मंगलरूपत्वेनापि एतत्सूत्रं संगतमिति भगवई का प्रारम्भ किया है। इससे ज्ञात होता है कि ई. पू. पहली शताब्दी के आसपास आगम-रचना से पूर्व मंगल वाक्य लिखने की पद्धति प्रचलित हो गयी । प्रज्ञापनाकार का मंगल-वाक्य उनके द्वारा रचित है। इसे 'निबद्ध-मंगल' कहा जाता है। दूसरों के द्वारा रचे हुए मंगल-वाक्य उद्धृत करने को 'अनिबद्ध-मंगल' कहा जाता है। प्रति-लेखकों ने अपने प्रति लेखन में कहीं कहीं 'अनिबद्ध - मंगल' का प्रयोग किया है। इसीलिए मंगल-वाक्य लिखने की परम्परा का सही समय खोज निकालना कुछ जटिल हो गया । प्रस्तुत आगम पांचवां अंग है। उपलब्ध आयारो आदि ग्यारह अंगों में प्रस्तुत आगम को छोड़कर किसी भी अंग-सूत्र के प्रारम्भ में नमस्कार - मंगल उपलब्ध नहीं है: सुयं मे आउ ! तेणं भगवया एवमक्खायं - (आयारो, 919) बुझेज तिउटेजा, बंधणं परिजाणिया । (सूयगडो, 91919) सुयं मे आउ ! तेणं भगवया एवमक्खायं ( ठाणं, १19) आउ ! ते भगवया एवमक्खायं - (समबाओ, १1१) ते काले तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्या (नायाधम्मकहाओ, 91919) तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी - ( उवासगदसाओ, १19) तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी (अंतगडदसाओ, 919) काणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे (अणुत्तरोववाइयदसाओ, 919) जंबू ! इणमो अण्हय-संवर-विणिच्छयं पवयणस्स निस्संदं (पण्हावागरणाई, 919) (विवागसुयं, 919) तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्या यारो आदि अंगों के प्रारम्भिक सूत्रों का अध्ययन करने पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि केवल प्रस्तुत अंग के प्रारम्भ में ही नमस्कार -मंगल का विन्यास क्यों ? इसका उत्तर पाना कठिन नहीं है । लगता है, रचनाकाल में प्रस्तुत आगम का प्रारम्भ भी 'तेणं काणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्था' इस वाक्य से ही था, किन्तु लिपिकारों द्वारा लिखित नमस्कार - मंगल-सूत्र मूल के साथ जुड़ गये और उन्हें मौलिक अंग मान लिया गया। २. अर्हतों को नमस्कार.... सब साधुओं को नमस्कार नमस्कार महामंत्र के पाट-भेद नमस्कार महामंत्र का बहुत प्रचलित पाठ यह है—णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए प्रक्षिप्तमेवैतत् सूत्रमिति । ४. पण्ण पद १, गा. १ ववगयजरमरणभए, सिद्धे अभिवंदिऊण तिविहेणं । वंदामि जिणवरिंद, तेलोक्कगुरुं महावीरं ॥ ५. ष. खं. धवला, पु. १, खं. १, भा. १, सू. १, पृ. ४१ - तच्च मंगलं दुविहं णिवद्धमणिबद्धमिदि । तत्थ णिबद्धं णाम, जो सुत्तस्सादीए सुत्तकत्तारेण णिबद्धदेवदाणमोक्कारो तं णिवद्धमंगलं । जो सुत्तस्सादीए सत्तारेण कयदेवदाणमोक्कारो तमणिबद्धमंगलं । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श.१: उ.१: सू.१-३ सब्बसाहूणं। गये हैं और चौथा अर्थ अर्ह धातु के अर्हता पद के आधार पर प्राचीन ग्रन्थों में इसके अनेक पदों एवं वाक्यों के पाठान्तर । किया गया है। मिलते हैं भाषा की दृष्टि से नमो और णमो तथा अरहंताणं और णमो-नमो। अरिहंताणं-इन दो में मात्र रूपभेद है, किन्तु मंत्रशास्त्रीय दृष्टि से 'न' और 'ण' के उच्चारण की भिन्न-भिन्न प्रतिक्रिया होती है।' 'ण' अरहंताणं-अरिहंताणं,अरुहंताणं। मूर्धन्य वर्ण है। उसके उच्चारण से जो घर्षण होता है, जो मस्तिष्कीय आयरियाणं-आइरियाणं। प्राण-विद्युत् का संचार होता है, वह 'न' के उच्चारण से नहीं होता। णमो लोए सब्बसाहूणं णमो सब्बसाहूणं। अरहंताणं के अकार और अरिहंताणं के इकार का भी नमो अरहंतानं, नमो सवसिघानं। मंत्रशास्त्रीय अर्थ एक नहीं है। मंत्रशास्त्र के अनुसार अकार का वर्ण पाटान्तर-विमर्श स्वर्णिम और स्वाद नमकीन होता है तथा इकार का वर्ण स्वर्णिम णमो, नमो-प्राकृत में आदि में 'न' का 'ण' विकल्प से होता। और स्वाद कषैला होता है। अकार पुल्लिंग और इकार नपुंसकलिंग है, इसलिए नमो, णमो-ये दोनों रूप मिलते हैं। होता है। अरहंताणं, अरिहंताणं-प्राकृत में 'अर्ह' धातु के दोनों रूप अरुहंताणं-यह पाठ-भेद भगवती सूत्र की वृत्ति में व्याख्यात बनते हैं—अरहइ, अरिहइ । अरहताणं और अरिहंताणं ये दोनों 'अर्ह' है। वृत्तिकार अभयदेवसूरि ने इसका अर्थ 'अपुनर्भव' किया है। जैसे धात के शत प्रत्ययांत रूप हैं। अरहंत और अरिहंत-इन दोनों में बीज के अत्यन्त दग्ध होने पर इससे अंकूर नहीं फूटता, वैसे ही कोई अर्थ-भेद नहीं है। व्याख्याकारों ने अरिहंत शब्द को संस्कृत की कर्म-बीज के अत्यन्त दग्ध हो जाने पर भवांकुर नहीं फूटता।' दृष्टि से देखकर उसमें अर्थ-भेद किया है। अरिहन्त= शत्रु का हनन आवश्यक नियुक्ति और धवला में अरुहंत पाठ व्याख्यात नहीं करने वाला। यह अर्थ शब्द-साम्य के कारण किया गया है। आवश्यक है। इससे प्रतीत होता है कि यह पाठान्तर उनके उत्तरकाल में बना निर्यक्ति में यह अर्थ उपलब्ध है।' अर्हता का अर्थ इसके बाद किया है। ऐसी अनुश्रुति भी है कि यह पाठान्तर तमिल और कन्नड़ भाषा गया है। इस अर्थभेद के होने पर अरहंत और अरिहंत ये एक ही के प्रभाव से हुआ है। किन्तु इसकी पुष्टि के लिए कोई स्पष्ट प्रमाण धातु के दो रूपों में निष्पन्न दो शब्द नहीं होते, किन्तु भिन्न-भिन्न प्राप्त नहीं है। अर्थ वाले दो शब्द बन जाते हैं। अरुह शब्द का प्रयोग आचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य में मिलता आवश्यक सत्र के नियुक्तिकार ने अरहंत, अरिहंत के तीन अर्थ है। उन्होंने अरुहंत और अरहंत का एक ही अर्थ में प्रयोग किया किये हैं है। वे दक्षिण के थे, इसलिए अरहंत के अर्थ में अरुह का प्रयोग १. पूजा की अर्हता होने के कारण अरहंत ।' दक्षिण के उच्चारण से प्रभावित है, इस उपपत्ति की पुष्टि होती है। २. अरि का हनन करने के कारण अरिहंत । बोधपाहुड में उन्होंने 'अर्हत' का वर्णन किया है। उसमें २८,२६, ३. रज-कर्म का हनन करने के कारण अरिहंत।' ३०,३२-इन चार गाथाओं में अरहंत का प्रयोग है और ३१,३४, वीरसेनाचार्य ने अरिहंताणं पद के चार अर्थ किये हैं ३६,३६,४१-इन पांच गाथाओं में अरुह का प्रयोग है। १. अरि का हनन करने के कारण अरिहंत । आचार्य हेमचन्द्र ने उपलब्ध प्रयोगों के आधार पर अर्हत् शब्द २. रज का हनन करने के कारण अरिहंत । के तीन रूप सिद्ध किये हैं—अहो, अरहो, अरिहो, अरुहन्तो, ३. रहस्य के अभाव से अरिहंत । अरहन्तो, अरिहंतो।' ४. अतिशय पूजा की अर्हता होने के कारण अरिहंत ।' डॉ.पिशेल ने अरहा, अरिहा, अरुहा और अरिहन्त का विभिन्न प्रथम तीन अर्थ अरि+हंता-इन दो पदों के आधार पर किये भाषाओं की दृष्टि से अध्ययन प्रस्तुत किया है - १. आव.नि.गा.६१६,६२० इंदियविसयकसाये परीसहे वेयणाओ उवसग्गे । एए अरिणो हंता, अरिहंता तेण वुचंति ॥ अट्ठविहं वि य कम्मं, अरिभूअं होइ सब्बजीवाणं । तं कम्ममरिं हता, अरिहंता तेण वुच्चति ।। २. वही,गा.६२१,६२२-- अरिहंति वंदणनमंसणाई अरिहंति पूअसक्कारे । सिद्धिगमणं च अरिहा अरहंता तेण वुति ॥ देवासुरमणुएसु अरिहा पूआ सुरुत्तमा जम्हा । ३. वही, गा.६२२---- अरिणो रयं च हंता अरिहंता तेण वुचंति || ४.प.खं.धवला,पु.१,खं.१,भा.१,सू.१,पृ.४२-४४-अरिहननादरिहन्ता ।....... रजोहननाद् वा अरिहंता |.....रहस्याभावाद् वा अरिहंता।....अतिशयपूजाहत्वाद् वार्हन्तः । ५. विद्यानुशासन, योगशास्त्र,पृ.६०,६१। ६. भ.वृ.१।१-अरुहताणमित्यपि पाठान्तरं, तत्र अरोहद्भ्यः अनुपजायमानेभ्यः क्षीणकर्मवीजत्वात्, आह च--- दग्धे वीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नांकुरः । कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति भवांकुरः ।। ७. हेमशब्दानुशासन, ८।२।१११-उच्चाहति । ८. पिशेल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पारा १४० । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.१: सू.१-३ भगवई अरहा, अरहन्त-अर्द्धमागधी अरिहा-शौरसेनी अरुहा-जैन महाराष्ट्री अलिहंताणं-मागधी आयरियाणं, आइरियाणं-आगम साहित्य में यकार के स्थान में इकार के प्रयोग मिलते हैं—वयगुक्त -बइगुत्त। वयर-बइर। इस प्रकार आयरिय और आइरिय में रूपभेद हैं। णमो लोए सब्बसाहणं, णमो सबसाहूर्ण-अभयदेवसूरि के अनुसार भगवती सूत्र के मंगलवाक्य के रूप में उपलब्ध नमस्कार मंत्र का पांचवां पद ‘णमो सव्वसाहूणं' है। 'णमो लोए सब्बसाहूणं' का उन्होंने पाठान्तर के रूप में उल्लेख किया है—णमो लोए सवसाहणं ति कचित्पाठः।' इस पाठान्तर की व्याख्या में उन्होंने बताया है कि 'सर्व' शब्द आंशिक सर्व के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है। अतः परिपूर्ण सर्व का बोध कराने के लिए इस पाठान्तर में 'लोक' शब्द का प्रयोग किया गया है।' 'लोक' और 'सर्व'-इन दोनों शब्दों के होने पर यह प्रश्न होना स्वाभाविक ही है और अभयदेवसूरि ने इसी का समाधान किया है। दशाश्रुतस्कंध के वृत्तिकार ब्रह्मऋषि ने भी णमो लोए सब्बसाहूणं को पाठान्तर के रूप में व्याख्यात किया है। इसकी व्याख्या में वे अभयदेवसूरि का अक्षरशः अनुसरण करते हैं। हमने अभयदेवसूरि की वृत्ति के आधार पर भगवती सूत्र में णमो सबसाहूणं को मूल पाठ और णमो लोए सबसाहूणं को पाठान्तर स्वीकृत किया है। इसका यह अर्थ नहीं है कि णमो लोए सव्वसाहूणं सर्वत्र पाठान्तर है। आवस्सयं में हमने णमो लोए सब्बसाहूणं को ही मूल पाठ माना है। हमने आगम-अनुसंधान की जो पद्धति निर्धारित की है, उसके अनुसार हम प्राचीनतम प्रति या चूर्णि, वृत्ति आदि व्याख्या में उपलब्ध पाठ को प्राथमिकता देते हैं। सबसे अधिक प्राथमिकता आगम में उपलब्ध पाठ को देते हैं। आगम के द्वारा आगम के पाठ-संशोधन में सर्वाधिक प्रामाणिकता प्रतीत होती है। इस पद्धति के अनुसार हमें सर्वत्र 'णमो लोए सबसाहूणं' इसे मूलपाठ के रूप में स्वीकृत करना चाहिए था, किन्तु नमस्कार मन्त्र किस आगम का मूलपाठ है, इसका निर्णय अभी नहीं हो पाया है। यह जहां कहीं उपलब्ध है, वहां ग्रन्थ के अवयव के रूप में उपलब्ध नहीं है, मंगलवाक्य के रूप में उपलब्ध है। आवस्सयं के प्रारंभ में नमस्कार मन्त्र मिलता है। किन्तु वह आवस्सयं का अंग नहीं है। आवस्सयं के मूल अंग सामायिक, चतुर्विंशस्तव आदि हैं। इस दृष्टि से भगवती सूत्र में नमस्कार मंत्र का जो प्राचीन रूप हमें मिला, वही हमने मूलरूप में स्वीकृत किया। अभयदेवसूरि की व्याख्या से प्राचीन या उसके समकालीन कोई भी प्रति प्राप्त नहीं है। यह वृत्ति ही सबसे प्राचीन है। इसलिए वृतिकार द्वारा निर्दिष्ट पाठ और पाठान्तर को स्वीकार करना ही उचित प्रतीत हुआ। नमो अरहंतानं, नमो सव-सिधानं-यह पाठान्तर खारवेल के अंतिम का भी IMEI नहीं है, सिद्ध के साथ सर्व शब्द का योग है और 'सिघानं' में द्वित्व 'ध' प्रयुक्त नहीं है। यह पाठ भी बहुत पुराना है, इसलिए इसे भी उपेक्षित नहीं किया जा सकता । नमस्कार महामन्त्र का मूल स्रोत और कर्ता नमस्कार महामन्त्र आदि-मंगल के रूप में अनेक आगमों और ग्रन्थों में उपलब्ध होता है, किन्तु इससे उसके मूल स्रोत का पता नहीं चलता। महानिशीथ में लिखा है कि पंचमंगल-महाश्रुतस्कंध का व्याख्यान सूत्र की नियुक्ति, भाष्य और चूर्णियों में किया गया था और वह व्याख्यान तीर्थंकरों के द्वारा प्राप्त हुआ था। कालदोष से वे नियुक्ति, भाष्य और चूर्णियां विच्छिन्न हो गयीं। फिर कुछ समय बाद बज्रस्वामी ने नमस्कार महामन्त्र का उद्धार कर उसे मूल सूत्र में स्थापित किया। यह बात वृद्ध सम्प्रदाय के आधार पर लिखी गयी है।' इससे भी नमस्कार मंत्र के मूल स्रोत पर कोई प्रकाश नहीं पड़ता। ___ आवश्यक नियुक्ति में वज्रसूरि के प्रकरण में उक्त घटना का उल्लेख भी नहीं है। वज्रसूरि दस पूर्वधर हुए हैं। उनका अस्तित्वकाल ई.पू.पहली शताब्दी है। शय्यंभवसूरि चतुर्दशपूर्वधर हुए हैं और उनका अस्तित्वकाल ई.पू.५-६ शताब्दी है। उन्होंने कायोत्सर्ग को नमस्कार के द्वारा पूर्ण करने का निर्देश किया है। दशवैकालिक सूत्र की दोनों चूणिया आर हारभद्रीय वृत्ति म नमस्कार की व्याख्या 'णमो अरहताण' मंत्र के रूप में की है। आचार्य वीरसेन ने षडण्डागम के प्रारम्भ में दिये गए नमस्कार मंत्र को निवद्धमंगल बतलाया है। इसका फलित यह होता है कि नमस्कार महामंत्र के कर्ता षटूखण्डागम के रचयिता आचार्य पुष्पदन्त हैं। आचार्य वीरसेन ने यह किस आधार पर लिखा, इसका कोई १. भ.वृ.१191 २. वही,११-तत्र सर्वशब्दस्य देशसर्वतायामपि दर्शनादपरिशेषसर्वतोपदर्शना र्थमुच्यते 'लोके'—मनुष्यलोके न तु गच्छादौ ये सर्वसाधवस्तेभ्यो नमः। ३. हस्तलिखित वृत्ति,पत्र ४ । ४. प्राचीन भारतीय अभिलेख, द्वितीय खण्ड, पृ.२६ । ५. महानिशीथ,अ.५;अभिधानराजेन्द्र,पृ.१८३५–एयं तु जं पंचमंगलमहासुय खंधस्स बक्खाणं, तं महया पबंधेणं अर्णतगयपज्जवेहिं सुत्तस्स य पियभूयाहिं णिजुत्तिभासचुत्रीहिं जहेव अणंतनाणदंसणधरेहिं तित्थयरेहिं वक्खाणियं, तहेव समासओ वक्खाणिज्जतं आसि, अहऽनयाकालपरिहाणिदोसेणं ताओ णिजुत्ति- भासचुन्नीओ वुच्छित्राओ। इओ य बच्चतेणं कालेणं समएणं महड्डिपते पयाणु सारी बइरसामी नाम दुवालसंगसुअहरे समुप्पन्ने। तेण य पंचमंगलमहासुयखंधस्स उद्धारो मूलसुत्तस्स मज्झे लिहिओ....एस वुड्ढसंपयाओ। ६. दसवे.५११६३–णमोक्कारेण पारिता। ७. (क) अ.चू.पृ. १२३---'नमो आहताण' ति एतेण वयणेण काउस्सगं पारेत्ता। (ख) जि.चू.पृ.१८६ । (ग) हा.वृ.प.१८०-नमस्कारेण पारयित्वा 'नमो अरहंताणं' इत्यनेन । . ष.खं.धवला,पु.१,खं.१,भा.१,सू.१,पृ.४२-इदं पुण जीवद्वाणं णिबद्धमंगलं । एत्तो इभेसिं चोद्दसण्हं जीवसमासाणं इदि एदस्स सुत्तस्सादीए णिबद्ध णमो अरहंताण' इच्चादि देवदाणमोक्कारदसणादो । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श.१: उ.१: सू.१-३ अन्य प्रमाण उपलब्ध नहीं होता। जैसे भगवती सूत्र की प्रतियों के सर्वश्रुतान्तर्गत बतलाया। उनके अनुसार पंचनमस्कार करने पर ही प्रारम्भ में नमस्कार महामंत्र लिखा हुआ था और अभयदेवसूरि ने उसे आचार्य सामायिक आदि आवश्यक और क्रमशः शेष श्रुत शिष्यों को सूत्र का अंग मानकर उसकी व्याख्या की, वैसे ही आचार्य पुष्पदन्त । पढ़ाते थे। प्रारम्भ में नमस्कार मंत्र का पाठ देने और उसके बाद को उसका कर्ता बतला दिया। आचार्य पुष्पदन्त का अस्तित्व-काल आवस्सयं का पाठ देने की पद्धति थी।' इस प्रकार अन्य सूत्रों के वीर-निर्वाण की सातवीं शताब्दी (ई.पहली शताब्दी) है। खारवेल का प्रारम्भ में भी नमस्कार मंत्र का पाठ किया जाता था। इस दृष्टि से शिलालेख ई.पू.१५२ का है। उसमें नमो अरहंताणं नमो सवसिपानं-ये उसे सर्वश्रुताभ्यन्तरवर्ती कहा गया। फिर भी नमस्कार मंत्र को जैसे पद मिलते हैं। इससे नमस्कार महामंत्र का अस्तित्व काल आचार्य सामायिक का अंग बतलाया है, वैसे किसी अन्य आगम का अंग पुष्पदन्त से बहुत पहले चला जाता है। शय्यंभवसूरि का दसवेआलियं नहीं बताया गया है। इस दृष्टि से नमस्कार महामंत्र का मूल स्रोत में प्राप्त निर्देश भी इसी ओर संकेत करता है। भगवान् महावीर सामायिक अध्ययन ही सिद्ध होता है। आवस्सयं या सामायिक दीक्षित हुए तब उन्होंने सिद्धों को नमस्कार किया था। उत्तरज्झयणाणि अध्ययन के कर्ता यदि गौतम गणधर को माना जाए, तो पंचमंगल के बीसवें अध्ययन के प्रारम्भ में सिद्धाणं नमो किचा, संजयाण च रूप नमस्कार महामंत्र के कर्ता भी गौतम गणधर ही ठहरते हैं। भावओ-सिद्धों और साधुओं को नमस्कार किया गया है। इन सबसे ३. ब्राह्मी लिपि को नमस्कार यह निष्कर्ष निकलता है कि नमस्कार की परिपाटी बहुत पुरानी है, किन्तु भगवान महावीर के काल में पंच मंगलात्मक नमस्कार मंत्र लिपि का अर्थ है-अक्षर-विन्यास । नंदी में अक्षर के प्रचलित था या नहीं इस प्रश्न का निश्चयात्मक उत्तर देना सरल तीन प्रकार बतलाए गए हैं--१. संज्ञाक्षर २. व्यञ्जनाक्षर और नहीं है। महानिशीय के उक्त प्रसंग के आधार पर कहा जा सकता ३. लब्ध्यक्षर। है कि वर्तमान स्वरूप वाला नमस्कार महामंत्र भगवान् महावीर के पट्टिका या पत्र आदि पर होनेवाली अक्षर की संस्थानाकृति समय में प्रचलित था। किन्तु उसकी पुष्टि के लिए कोई दूसरा प्रमाण (अक्षरों की लिखावट) का नाम संज्ञाक्षर है। संज्ञाक्षर, लिपि और अपेक्षित है। आवश्यक नियुक्ति में एक महत्त्वपूर्ण सूचना मिलती है। वर्णविन्यास-ये सब पर्यायवाची हैं। नियुक्तिकार ने लिखा है---पंच परमेष्ठियों को नमस्कार कर सामायिक मनुष्य के चिंतन, स्मृति और कल्पना का माध्यम है भाषा । करना चाहिए। यह पंचनमस्कार सामायिक का ही एक अंग है। वह अक्षरात्मक होती है। शब्द और अर्थ की पर्यालोचना कर मनुष्य इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि नमस्कार महामंत्र उतना जानता है, वह लब्ध्यक्षर है। अपनी जानी हुई बात का उच्चारण ही पुराना है जितना सामायिक सूत्र। सामायिक आवस्सयं का प्रथम करता है, वह व्यञ्जनाक्षर है। उसे आकार देता है, वह संज्ञाक्षर अध्ययन है। नंदी में आयी हुई आगम की सूची में उसका उल्लेख है। इससे फलित होता है कि मनुष्य ने सबसे पहले जानना सीखा, है। नमस्कार महामंत्र का वहां एक श्रुतस्कन्ध या महाश्रुतस्कन्ध के फिर बोलना और उसके पश्चात् लिखना। मनुष्य के पास अपने भावों रूप में कोई उल्लेख नहीं है। इससे भी अनुमान किया जा सकता को अभिव्यक्ति देने के दो बड़े माध्यम हैं—उच्चारण और है कि यह सामायिक अध्ययन का एक अंगभूत रहा है। सामायिक अक्षर-विन्यास । के प्रारम्भ में और उसके अन्त में पंच परमेष्ठी को नमस्कार किया जैन साहित्य के पाग-ऐतिहासिक मन्दों जैन साहित्य के प्राग-ऐतिहासिक सन्दर्भो के अनुसार ब्राह्मी के 3 जाता था। कायोत्सर्ग के प्रारम्भ और अन्त में भी पंचनमस्कार की लिपि का संबन्ध भगवान ऋषभ के साथ जुड़ता है। भगवान ऋषभ पद्धति प्रचलित थी। आचार्य भद्रबाहु के अनुसार नंदी और । ने दाएं हाथ से ब्राह्मी को अठारह लिपियों का ज्ञान कराया और अणओगदाराई को जानकर तथा पंचमंगल को नमस्कार कर सूत्र का बाएं हाथ से सन्दरी को गणित-विद्या सिखाई। दिगम्बर आचार्य प्रारम्भ किया जाता है। संभव है इसीलिए अनेक आगमसूत्रों के जिनसेन ने भी इसका उल्लेख किया है। माना जाता है कि ब्राह्मी प्रारम्भ में नमस्कार महामंत्र लिखने की पद्धति प्रचलित हुई। को लिपि का ज्ञान कराया, इसलिए उस लिपि का नाम 'ब्राह्मी' हो जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने उसी आधार पर नमस्कार महामंत्र को गया। किन्तु यह मत भी मीमांसनीय है। ब्राह्मी को अठारह लिपि १. आ.चूला,१५ । ३२- तओ णं समणे भगवं महावीरे दाहिणेणं दाहिणं वामेणं वामं पंचमुट्ठियं लोयं करेत्ता सिद्धाणं णमोक्कार करेइ । २. आव.नि.गा.१०२७ कयपंचनमोक्कारो करेइ सामाइयंति सोऽभिहितो । सामाइयंगमेव य जं सो सेसं अतो वोच्छं ॥ ३. वही,गा.१०२६ नंदिमणुओगदारं विहिवदुबग्घाइयं च नाऊणं । काऊण पंचमंगलमारंभो होइ सुत्तस्स || ४. वि.भा.गा.६ सो सव्वसुतक्खंधभन्तरभूतो जओ ततो तस्स । आवासयाणुयोगादिगहणगहितोऽणुयोगोऽवि ॥ ५. वही.गा.. आईय णमोक्कारो जइ पच्छाऽऽवासयं ततो पुव्वं । तस्स भणितेऽणुयोगे जुत्तो आवासयस्स ततो ।। ६. नंदी,सू.५६-से किं तं अक्खरसुयं ? अक्खरसुयं तिविहं पण्णत्तं, तं जहा–१. सण्णक्खरं २. वंजणक्खरं ३. लद्धिअक्खरं । ७. नन्दी वृ.प.१८८ । ८. आव.नि.पा.२०७ का भाष्य लेहं लिवीविहाणं जिणेण बंभीइ दाहिणकरेणं । गणिअं संखाण सुंदरीइ वामेण उवइटें ।। ६. आदिपुराण, १६ ॥१०४-१० विभुः करद्वयेनाभ्यां लिखन्नक्षरमालिकाम् । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १: उ.१: सू.१-५ का ज्ञान कराया गया। उनमें से केवल एक लिपि का नाम ब्राह्मी है, शेष सब के नाम स्वतन्त्र हैं । समवाओ में ब्राह्मी लिपि के अठारह प्रकार बतलाए गए हैं : १. ब्राह्मी २. यवनानी ३. दोसउरिया ४ . खरोष्ट्रका ५. खरशाहिका ६. प्रभाराजिका ७. उच्चतरिका ८. अक्षरिपृष्टिका ६. भोगवतिका १०. वैनतिकी ११. निह्नविका १२. अंकलिप १३. गणितलिपि १४. गंधर्वलिपि १५. आदर्शलिपि १६. माहेश्वरी १७. द्राविडी १८. पोलिंदी।' इसके आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ब्राह्मी प्रथम या प्राचीनतम लिपि है। अन्य लिपियों का उसके आधार पर विकास हुआ है। इसलिए शेष सतरह लिपियों को ब्राह्मी लिपि का परिवार कहा जा सकता है। भगवान ऋषभ ने ब्राह्मी को लिपि सिखाई; इसलिए उसका नाम ब्राह्मी हो गया, यह बात संगत हो सकती है, किन्तु भगवान ने ब्राह्मी को अठारह लिपियां सिखाई; इसलिए लिपि का नाम ब्राह्मी प्रचलित हो गया, यह बात तर्कसंगत नहीं लगती । ब्राह्मी लिपि के नामकरण के विषय में अनेक कल्पनाएं मिलती हैं । किन्तु ऐतिहासिक आधार पर कुछ भी कहा जा सके, यह कठिन है। फिर भी इतना कहा जा सकता है कि प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि परस्पर सम्बन्धित रही हैं। भाषा आर्य वे होते हैं जो अर्धमागधी (प्राकृत) बोलते हैं और जिनकी लिपि ब्राह्मी होती है । " जैन आचार्यों ने जैसे प्राकृत भाषा को माध्यम बनाया, वैसे ही ब्राह्मी लिपि को भी माध्यम बनाया; इसीलिए प्रस्तुत आगम के प्रारम्भ में ब्राह्मी लिपि के नमस्कार का उल्लेख जुड़ा हुआ है। जयाचार्य ने वृत्तिकार के मत की मीमांसा की है। उन्होंने लिखा है - "वृत्तिकार ने लिपि का अर्थ अक्षर विन्यास किया है। अक्षर - विन्यास को नमस्कार कैसे किया जा सकता है ? निक्षेप की दृष्टि से लिपि के दो प्रकार हो जाते हैं- द्रव्यलिपि और भावलिपि । द्रव्यलिपि अक्षरात्मक और भावलिपि अक्षरज्ञानात्मक होती है । " उपादिशल्लिपि संख्यास्थानं चाकैरनुक्रमात् ॥ ततो भगवतो वक्त्रान्निःसृतामक्षरावलीम् सिद्धं नम इति व्यक्तमङ्गलां सिद्धमातृकाम् ॥ अकारादिहकारान्तां शुद्धां मुक्तावलीमिव । स्वरव्यञ्जनभेदेन द्विधा भेदमुपेयुषीम् ॥ अयोगवाहपर्यन्तां सर्वविद्यासु संतताम् । संयोगाक्षरसंभूतिं नैकबीजाक्षरैश्चिताम् || समवादीधरद् ब्राह्मी मेधाविन्यतिसुन्दरी । सुन्दरी गणितं स्थानक्रमैः सम्यगधारयत् ॥ १. सम. १८।५ । २. भ. बृ. १/२ लिपि: पुस्तकादावक्षरविन्यासः सा चाष्टादशप्रकाराऽपि श्रीमनाभेयजिनेन स्वसुताया ब्राह्मीनामिकाया दर्शिता ततो ब्राह्मीत्यभिधीयते । ३. देखें, डा. प्रेमसागर जैन, विश्व की मूल लिपि ब्राह्मी, पृ. ५७-७० | ४. पण १६८ -भासारिया जे णं अद्धमागहाए भासाए भासिंति, जत्थ वि य भी लिवी पवत्तइ । ५. भ.जो. १।१।१६६१७३ नमो भए लिवीए, लिपिकर्ता नाभेय । चरण सहित धुर जिन लिपिक, अर्थ धर्मसी एह ॥ १० भगवई जयाचार्य ने नयदृष्टि से विचार करते हुए लिखा है कि जैसे एवंभूत नय की दृष्टि से प्रस्थक के कर्ता को प्रस्थक कहा जाता है, वैसे ही यहां लिपिकर्ता भगवान ऋषभ को लिपि मानकर उन्हें नमस्कार किया गया है।' ४. श्रुत को नमस्कार जैन दर्शन की ज्ञानमीमांसा में ज्ञान के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं। उनमें दूसरा ज्ञान है श्रुतज्ञान। उसके दो भेद हैं- द्रव्यश्रुत और भावश्रुत । लिपि और उच्चारण ये दोनों द्रव्यश्रुत हैं। उनसे होने वाला अर्थबोध भावश्रुत है । वृत्तिकार ने यहां श्रुत का अर्थ द्वादशांगी या अर्हत्प्रवचन किया है। एक प्रश्न उपस्थित हुआ-मंगल के लिए इष्ट देवता को नमस्कार किया जाता है। श्रुत इष्ट देवता नहीं है, फिर उसे नमस्कार क्यों ? इसके समाधान में वृत्तिकार ने लिखा है - श्रुत इष्ट देवता ही है, क्योंकि अर्हद भी उसे नमस्कार करते हैं । अर्हद जैसे सिद्ध को नमस्कार करते हैं, वैसे श्रुत को भी नमस्कार करते हैं। इसके समर्थन में उन्होंने 'नमस्तीर्थाय' इस वाक्य को उद्धृत किया है । तीर्थ का अर्थ श्रुत है। उसका आधार होने के कारण संघ भी तीर्थ कहलाता है । ७ श्रुत इष्ट देवता ही है । वृत्तिकार के इस अभिमत का समर्थन दिगम्बर-साहित्य में भी मिलता है— आप्त पुरुषों ने जिनवाणी और जिनदेव में किञ्चिद् भी अन्तर नहीं बतलाया है। इसलिए जिनवाणी की सभक्ति पूजा करने वाला परमार्थतः जिनदेव की ही पूजा करता है । ' अर्हत् सिद्धों को नमस्कार करते हैं, इसका समर्थन आयारचूला होता है। अर्ह तीर्थ को नमस्कार करते हैं, यह मत आगम के द्वारा समर्थित नहीं है, यह आगम-युग के बाद की अवधारणा है। पाथा ना कर्ता भणी, पाथौ कहिये ताहि । एवंभूतनय नैं मते. अनुयोगद्वार ₹ मांहि ॥ अथवा लिपि ते भावलिपि, जे मुनि नैं आधार । नमस्कार छै तेहने, एहवूं दीरौ सार ॥ तीर्थ नाम जिम सूत्रों, ते संघ नै आधार । तिण सूं संघ नै तीर्थ कहयुं, तिम भावे लिपि सार ॥ वृत्तिकार द्रव्य लिपि कही, ते लिपि छै गुणशून्य । नमस्कार तेहनें करी, ते तो बात जबून्य ॥ ६. भ.वृ. १/३ - 'नमो सुयस्स' त्ति नमस्कारोऽस्तु 'श्रुताय' द्वादशाङ्गीरूपायाहेठप्रवचनाय । ७. भ. वृ. १1३ - नन्विष्टदेवतानमस्कारो मङ्गलार्थो भवति न च श्रुतमिष्टदेवतेति कथमयं मंगलार्थ इति ? अत्रोच्यते श्रुतमिष्टदेवतैव, अर्हतां नमस्करणीयत्वात् सिद्धवत्, नमस्कुर्वन्ति च श्रुतमर्हन्तो 'नमस्तीर्थाय ' ति भणनात् । ८. पं. आशाधर, सागारधर्मामृत, २।४४--- ये यजन्ते श्रुतं भक्त्या, ते यजन्तेऽज्ञ्जसा जिनम् । न किञ्चिदन्तरं प्राहुराप्ता हि श्रुतदेवयोः ॥ ८. देखें, पीछे पृ. ६ का पा. टि. १ । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई अर्हत् अर्हत्-प्रवचन को नमस्कार करे, इसमें अन्तर्विरोध है । अर्हत्-प्रवचन द्रव्यश्रुत है, ज्ञान का निमित्त है। जयाचार्य ने निमित्त उक्खेव-पदं उत्क्षेप-पदम् ४. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नाम नयरे होत्या वण्णओ ॥ नगरम् आसीत्-वर्णकः । १. उस काल और उस समय यहां काल और समय दो शब्दों का प्रयोग हुआ है। काल प्रलय कालखण्ड का और समय निश्चित कालावधि का सूचक है । वृत्तिकार के अनुसार 'काल' पद के द्वारा वर्तमान अवसर्पिणी के चतुर्थ विभाग का बोध होता है और 'समय' पद के द्वारा उस कालखण्ड का बोध होता है जिसमें भगवान महावीर ने प्रवचन किया था। उक्त दोनों पदों पर नय-दृष्टि से विचार करना उपयुक्त होगा। समभिरूढ नय की दृष्टि से कोई भी दो शब्द एकार्थक नहीं होते । प्रत्येक शब्द का अपना स्वतंत्र अर्थ होता है। एक अर्थ को बताने के लिए अनेक पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग आगम-संरचना की एक शैली है। अनेक देशों के शिष्यों को समझाने के लिए तत्तद्देश- प्रचलित अनेक समानार्थक शब्दों का प्रयोग किया जाता था। शब्दकोश के विकास की दृष्टि से अनेक शब्द प्रयुक्त किये जाते थे। अतः शब्द-नय की दृष्टि से इसका प्रयोग वांछनीय है। २. राजगृह नाम का नगर था 'तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्या' में देश और काल का निर्देश है। आइंस्टीन के सापेक्षवाद के अनुसार देश और काल से निरपेक्ष किसी भी वस्तु को समझा नहीं जा सकता । जर्मन दार्शनिक इम्मेन्युअल काण्ट ने भी देश और काल को बहुत महत्त्व दिया है। आचार्य सिद्धसेन ने अर्थबोध के लिए कम से कम द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पर्याय, देश, संयोग और भेद--इन आठ नयों को अनिवार्य माना है । 'राजगृह का परिवर्तित रूप आज राजगिर है। पांच पर्वतों से घिरा हुआ यह नगर भगवान् महावीर का मुख्य विहार क्षेत्र था। यहां भगवान् ने चौदह चातुर्मास प्रवास किए थे। प्रस्तुत आगम में राजगृह का अनेक बार उल्लेख हुआ है। यहां के ५. तस्स णं रायगिहस्स नगरस्स बहिया १. (क) भ.जो. १1१1१६० नमोत ते भावश्रुत, चरणयुक्त श्रुतवंत । लिपि शब्दे तो देशश्रुत, इहां सर्व श्रुतमंत ॥ ११ (ख) वही, पृ. २०-२२ । २. सम्मति ३। ६० । भाष्य को नमस्कार करने की समीक्षा की है। ' श. १: उ.१: सू.१-५ संवाद और पूछे गये प्रश्नों के उत्तर सर्वाधिक संख्या में संकलित हैं। अतः प्रस्तुत आगम को राजगृह का प्रवचन कहा जा सकता है । वृत्तिकार ने प्रश्न उपस्थित किया है— 'राजगृह' वर्तमान में विद्य मान है, फिर उसके लिए 'होत्या' इस अतीतकालीन क्रिया का प्रयोग क्यों किया गया ? इसके समाधान में उन्होंने लिखा है कि भगवान् महावीर के समय में वह जिस वैभव से सम्पन्न था, वैसा सुधर्मा के काल में नहीं रहा । इसका यह समाधान अधिक स्वाभाविक होगा कि पर्यायार्थिक दृष्टि से महावीर के साथ किए गए संवाद के समय जो राजगृह था, वह रचना-काल के समय परिवर्तित हो चुका था । ३. वर्णनवाची आलापक उत्क्षेप-पद ४. उस काल और उस समय ' राजगृह नाम का नगर थारे नगर का वर्णन । ३ अढाई हजार वर्ष पहले लेखन की प्रणाली बहुत कम प्रचलित थी। मध्यकाल में लेखन की पद्धति चली। किन्तु हस्त-लेखन का कार्य बहुत जटिल था । ग्रन्थ-गौरव से बचने तथा लेखन की सुविधा की दृष्टि से सूत्र- शैली का विकास हुआ। 'वर्णक' उसी का प्रतीक है । इस पद के द्वारा अनपेक्षित वर्णन से बचा जा सकता है। ओवाइयं की रचना इसी उद्देश्य से हुई थी। उसमें नगर, उद्यान, राजा आदि के वर्णन प्राप्त हैं। प्रस्तुत आगम में अनेक स्थानों पर 'वण्णओ' का प्रयोग किया गया है। वर्णन को भी शैलीगत माना जा सकता है। सभी नगर और सभी चैत्य एक जैसे नहीं होते, जैसे- काव्यानुशासन में कवि समय ( काव्य - सिद्धान्त) सत्य होता है। उसके अनुसार जलाशयमात्र में कमल का वर्णन किया जा सकता है । इसी प्रकार नगर आदि का वर्णन रचनाशैलीगत सत्य है। इसलिए प्रत्येक नगर के साथ इस वर्णन की आयोजना की जा सकती है। तस्य राजगृहस्य नगरस्य बहिस्ताद् ५. उस राजगृह नगर के बाहर उत्तरपूर्व दिशाभाग ३. भ. वृ.१1४- नन्विदानीमपि तन्त्र गरमस्त्यतः कथमुक्तमभवदिति ? उच्यते. वर्णक ग्रन्थोक्तविभूतियुक्तं तदैवाभवत् न तु सुधर्म्मस्वामिनो वाचनादानकाले, अवसर्पिणीत्वात्कालस्य तदीयशुभभावानां हानिभावात् । ४. भ .वृ. ५१४ 'वन्नओ' ति इह स्थानक नगरवर्णको वाच्यः ग्रन्थगारवमयादिह तस्यालिखितत्वात् । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.१: सू.५-७ १२ भगवई में गुणशिलक नाम का चैत्य' था। उत्तरपुरथिमे दिसीभागे गुणसिलए नाम चेइए होत्था॥ उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे गुणशिलकं नाम चैत्यम् आसीत्। भाष्य १. चैत्य _ 'चैत्य' शब्द के अनेक अर्थ होते हैं चिता संबंधी, प्रत्येक आत्मा, वल्मीक (चींटी आदि की चाली हुई मिट्टी का ढेर) सीमाचिह्न बनाने वाले पत्थरों का निर्मित ढेर, स्मारक, समाधि-मंदिर, यज्ञशाला, धर्मस्थान, वेदिका, मृगवन, मंदिर, प्रतिबिम्ब, “उदुम्बर, पीपल, वट आदि धार्मिक वृक्ष', सड़क के किनारे उगने वाले कोई भी वृक्ष ।' आगम-साहित्य में यह अनेक स्थानों में प्रयुक्त हुआ है, जिसके विभिन्न अर्थ आगम के व्याख्या-ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं। जैसे- १. व्यन्तर का आयतन—(क) चितेर्लेप्यादिचयनस्य भावः कर्म । वेति चैत्यं-सज्ञाशब्दत्वाद्देवबिम्बं तदाश्रयत्वाद् तद्गृहमपि चैत्यं तचेह व्यन्तरायतनम् । (ख) चैत्यं व्यन्तरायतनम्।' २. इष्ट देवता की प्रतिमा चैत्यं इष्टदेवता प्रतिमा। ३. उद्यान—चैत्यम्-उद्यानम्। ४. चित्त को आह्लादित करने वाला—चैत्याः चित्ताल्हादकाः। ५. इष्ट देवता का आयतन-चैत्यं च इष्टदेवतायतनम् । ६. पण्हावागरणाई में 'चेइयडे' पाठ प्राप्त होता है। श्रीमजयाचार्य ने यहां प्रयुक्त 'चेइय' शब्द के दो अर्थ किये हैं—पहला ज्ञान और दूसरा केवली। उन्होंने चैत्य के 'केवली' अर्थ की पुष्टि के लिए रायपसेणइयं का पाठ उद्धृत किया है, जिसमें भगवान महावीर को चेइय कहा गया है।" इसकी वृत्ति में मलयगिरि ने लिखा है-चैत्यं सुप्रशस्तमनोहेतुत्वात्"-सुप्रशस्तमन का हेतुभूत । भगवती के वृत्तिकार के अनुसार चैत्य शब्द यहां व्यन्तरायतन के अर्थ में प्रयुक्त है। ६. सेणिए राया, चिल्लणा देवी।। श्रेणिको राजा, चिल्लणा देवी। ६. वहां श्रेणिक राजा था और उसकी पटरानी थी चिल्लणा। ७. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान् महावीरे आइगरे तित्थगरे सहसंबुद्धे महावीरः आदिकरः तीर्थकरः स्वसंबुद्धः पुरिसुसमे पुरिससीहे पुरिसवरपोंडरीए पुरुषोत्तमः पुरुषसिंहः पुरुषवरपुण्डरीका परिसवरगंधहत्थी लोगुत्तमे लोगनाहे लोग- पुरुषवरगन्धहस्ती लोकोत्तमः लोकनाथः पदीवे लोगपजोयगरे अभयदए चक्खुदए लोकप्रदीपः लोकप्रद्योतकरः अभयदयः चक्षु- मग्गदए सरणदए धम्मदेसए धम्मसारही दयः मार्गदयः शरणदयः धर्मदेशकः धर्मधम्मवरचाउरंतचक्कवट्टी अप्पडिहयवरनाण- सारथिः धर्मवरचतुरन्तचक्रवर्ती अप्रतिहत- दसणधरे वियदृछउमे जिणे जाणए बुद्धे वरज्ञानदर्शनधरः व्यावृतछद्मा चिनः (जिनः) बोहए मुत्ते मोयए सवण्णू सबदरिसी सिव- चायकः (ज्ञायकः) बुद्धः बोधकः मुक्तः मोच- मयलमरुयमणंतमक्खयमव्वाबाहं सिद्धि- कः सर्वज्ञः सर्वदर्शी शिवमचलमरुजमनंत- ७. उस काल और उस समय प्रवचन के आदिकर्ता, तीर्थकर, स्वयंसंबुद्ध, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, पुरुषों में प्रवर पुण्डरीक, पुरुषों में प्रवर गन्धहस्ती, लोक में उत्तम, लोक के नाथ, लोक में प्रदीप, लोक में प्रद्योतकर, अभयदाता, चक्षुदाता, मार्गदाता, शरणदाता, धर्मदेशक, धर्म के सारथि, धर्म के प्रवर चतुर्दिगजयी चक्रवर्ती, अप्रतिहत प्रवर ज्ञानदर्शन के धारक, निरावरण, ज्ञाता, ज्ञान देने वाले', बुद्ध, बोध देने वाले, मुक्त, मुक्त करने वाले, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, शिव, अचल, अरुज, १. आप्रे.-चैत्य Relating to a pile, the individual soul, the ant-bill, a pile of stones forming a landmark, a monument, tombstone, a sacrilicial shed, a place of religious worship, altar, sanctuary, a temple, a reflection, a religious lig-tree, any tree growing by the side of streets. २. भ.वृ.१५। ३. औप.वृ.पृ.८॥ ४. वही,पृ.१०। ५. उत्तरा.बृ.वृ.प.३०६ । देखें, उत्तर. ६६ का टिप्पण । इसके साथ यह भी मननीय है कि समवाओ में चौबीस तीर्थंकरो के चौबीस चैत्यवृक्षों का उल्लेख है—'एतेसिं णं चउवीसाए तित्थगराणं चउवीसं चेइयरुक्खा होत्था ।' (पइण्णग समवाओ सू. २३१)। इसकी वृत्ति में चैत्यवृक्ष का अर्थ किया है 'बद्धपीठ वृक्ष जिनके नीचे तीर्थंकरों को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ' (चेइयरुस्खे त्ति बद्धपीठवृक्षाः येषामधः केवलान्युत्पन्नानीति वृ.प.१४५) । ६. जम्बू.वृ.प.१६३ । ७. वही,प.१२३ । ८. पण्हा.८।६। ६. प्रश्नोत्तर तत्त्वबोध, ६।३१८ - ३२५ । १०. राय. सू. ६-तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीरं वंदामि....कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जवासामि । ११. राज.वृ.पृ. ५२ । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १३ श.१: उ.१: सू.७ गतिनामधेयं ठाणं संपाविउकामे जाव। मक्षयमव्याबाधं सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं पुव्वाणुपुब्बिं चरमाणे गामाणुगामं दूइजमाणे संप्राप्तुकामः यावत् पूर्वानुपूर्वी चरन् ग्रामा- सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव रायगिहे नगरे नुग्रामं दवन् सुखंसुखेन विहरन् यत्रैव राजगृहं जेणेव गुणसिलए चेइए तेणेव उवागच्छइ, नगरं यत्रैव गुणशिलकं चैत्यं तत्रैव उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगि- उपागच्छति, उपागम्य यथाप्रतिरूपम् अवण्हइ, ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं ग्रहम् अवगृह्णाति, अवगृह्य संयमेन तपसा भावेमाणे विहरइ॥ आत्मानं भावयन् विहरति । अनन्त, अक्षय, अव्याबाध, सिद्धिगति नामक स्थान की संप्राप्ति के इच्छुक यावत् श्रमण भगवान् महावीर क्रमानुसार विचरण, ग्रामानुग्राम में परिव्रजन और सुखपूर्वक विहार करते हुए जहां राजगृह नगर और गुणशिलक चैत्य हैं, वहां आते हैं, वहां आकर वे प्रवास-योग्य स्थान की अनुमति लेते हैं, अनुमति लेकर संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए रह रहे हैं। भाष्य १. ज्ञाता, ज्ञान देने वाले का प्रयोग मिलता है। जिण शब्द का पारम्परिक अर्थ राग-द्वेष को जीतने वाला है। यह अर्थ 'जि' धातु से घटित होता है, किन्तु जिण शब्द का संस्कृत रूप 'चिण' करने पर उसका संबंध चि धातु से हो जाता है। इस आधार पर इसका अर्थ केवली या प्रत्यक्षज्ञानी होता 'राग-द्वेष को जीतने वाला जिन होता है तथा मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यव-इस ज्ञान-चतुष्टयी के द्वारा जो जानता है, वह ज्ञायक है' यह अभयदेवसूरि की व्याख्या है। यहां 'जिन' शब्द विमर्शनीय है। 'जिण' शब्द 'चिण' शब्द का प्राकृत रूप है। जिण के 'च' को 'ज' हुआ है। प्राकृतसर्वस्व में चिण का अर्थ है—प्रत्यक्षज्ञानी। प्रत्यक्ष के अर्थ में चि धातु का प्रयोग वेदकालीन है। प्राकृत में चकार को जकार होता है। आर्ष प्राकृत में ऐसे अनेक प्रयोग मिलते हैं। धर्म ध्यान के चार प्रकार हैं-आणाविजते, अपायविजते, विवागविजते, संटाणविजते। यहां 'विजत' शब्द विचय का प्राकृत रूप है। अभयदेवसूरि ने इसका संस्कृत रूप विचय किया है।' अणुओगदाराई में अधीतग्रन्थ के विषय में 'सिक्खितं ठितं जितं मितं परिजितं' शब्द प्रयुक्त हुए हैं। इनमें चित और परिचित का प्राकृत रूप जित और परिजित है। शिक्षित के बाद वह विषय 'स्थित' अर्थात् अविस्मृत होता है। चित का अर्थ है-तत्काल स्मृति में आने योग्य हो जाना। हरिभद्रसूरि ने दशवकालिक की वृत्ति में 'जित' शब्द का अर्थ 'परिचित' किया है। अन्य स्थानों पर चकार के स्थान पर जकार टाणं में तीन प्रकार के जिन बतलाए गये हैं-तओ जिणा पण्णता, तं जहा-ओहिणाणजिणे, मणपज्जवणाणजिणे, केवलणाणजिणे।" अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी और केवलज्ञानी ये तीनों प्रत्यक्षज्ञानी हैं। व्याख्याकारों ने 'जिन' शब्द की व्युत्पत्ति 'राग-द्वेष-विजेता' की है, किन्तु इसका अर्थ सर्वज्ञ किया है।” स्थानांग के वृत्तिकार यदि जिन शब्द का अर्थ प्रत्यक्षज्ञानी करते, तो उन्हें अवधिज्ञानी और मनःपर्यवज्ञानी को उपचरित जिन और केवलज्ञानी को निरुपचरित जिन मानना आवश्यक नहीं होता, जैसा कि उन्होंने माना है।" ठाणं के अनुसार चतुर्दशपूर्वी मुनि जिन न होते हुए भी जिन ६. (क) आ.चू.पृ.७६ । (ख) वि.भा.गा.८५१ (ग) वि.भा.कोट्याचार्य, वृ.प.२७३–परिचितमेव । (घ) नमस्कार स्वाध्याय, प्राकृत विभाग, पृ.५३; महानिशीथ-थिरं परि चियं । १. भ.वृ.१७जयति-निराकरोति रागद्वेषादिरूपानरातीनिति जिनः। जाना- ति छानस्थिकज्ञानचतुष्टयेनेति ज्ञायकः । २. आप्टे.-चि-(Vedic) to perceive. ३. हेमचन्द्र, प्राकृत व्याकरण,१1१७७–क्वचिच्चस्य जः-पिशाची–पिसाजी । ४. ठाणं,४/६५) ५. स्था.वृ.प.१७६-आ-अभिविधिना ज्ञायन्तेऽर्था यया सा आज्ञा-प्रवचनं सा विचीयते निर्णीयते पर्यालोच्यते वा यस्मिंस्तदाज्ञाविचयं धर्मध्यानमिति प्राकृतत्वेन विजयमिति। ६. अनु.सू.१३;अनु.मल.वृ.प.१३ । ७. (क) अनु.चू.पृ.७-जं परवत्तयतो परेण वा पुच्छितस्स आदिमझते सव्वं वा सिग्घमागच्छति तं जितं । (ख) अनु.हा.वृ.प.६–जितमिति परिपाटी कुर्वतो द्रुतमागच्छति। (ग) अनु.मल.वृ.प.१४–परावर्तनं कुर्वतः परेण वा क्वचित् पृष्टस्य यच्छीघ्रमागच्छति तजितं । ८. हा.वृ.प.२३५-जितां परिचिताम् । (छ) सूय.२।२।३०–अदुत्तरं च णं पुरिसविजयं विभंगमाइक्खिस्सामि । १०. ठाणं,३।५१२ । ११. (क) नि.भा.चू.भाग ४,पृ.३५७–जिणा केवलिणो। (ख) स्था.वृ.प.१६४-जिनाः सर्वज्ञाः। (ग) वि.भा.कोट्याचार्य वृ.प.८६० -जिनाः केवलिनः । १२. स्था.वृ.प.१६४ तओ जिणेत्यादि सुगमा, नवरं रागद्वेषमोहान् जयन्तीति जिनाः-सर्वज्ञाः तथा जिना इव ये वर्तन्ते निश्चयप्रत्यक्षज्ञानतया तेऽपिजिनास्तत्रावधिज्ञानप्रधानो जिनोऽवधिजिनः एवमितरावपि, नवरमाद्यावुपचरितावितरो निरुपचारः उपचारकरणं तु प्रत्यक्षज्ञानित्वमिति । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.१: सू.७-६ १४ भगवई सदृश होते हैं और वे जिन की भांति ही अपना व्याकरण करते हैं।' वृत्तिकार ने लिखा है कि वे सर्वज्ञ नहीं हैं, इसलिए जिन नहीं हैं, किन्तु सकल संशयों का उच्छेद करने में वे जिन के समान हैं। उक्त विवेचन से यह फलित होता है कि 'जिन' का अर्थ प्रत्यक्षज्ञानी अथवा अतीन्द्रिय ज्ञानी है। प्रस्तुत प्रकरण में 'जिणे जाणए' यह एक युगल है। वह ज्ञान से संबंधित है। इसके आगे 'बुद्धे बोहए' 'मुत्ते मोयए'-ये दो युगल उल्लिखित हैं। 'बुद्ध' का अर्थ है ज्ञाता और 'बोधक' का अर्थ है बोध देने वाला। मुक्त का अर्थ है ग्रन्थि से मुक्त और मोचक का अर्थ है दूसरों को ग्रन्थि से मुक्त कराने वाला। इसी प्रकार 'जिन' का अर्थ है ज्ञाता और जाणय का अर्थ है...दूसरों को ज्ञान देने वाला । जैसे उत्तरवर्ती दोनों युगल एकविषयक हैं, वैसे ही जिणे और जाणए एकविषयक हैं। जावय का अर्थ ज्ञापक होता है। जाणय और जावय ८. परिसा निग्गया। धम्मो कहिओ। पडिगया परिसा॥ परिषद्, निर्गता। धर्मः कथितः। प्रतिगता ८. परिषद् ने नगर से निर्गमन किया। भगवान् ने परिषद् । धर्म कहा। परिषद् वापस नगर में चली गई। ६. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतः ६.'उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर भगवओ महावीरस्स जेठे अंतेवासी महावीरस्य ज्येष्ठः अन्तेवासी इन्द्रभूतिः नाम के ज्येष्ठ अन्तेवासी गौतमसगोत्र' सात हाथ की इंदभूती नाम अणगारे गोयमसगोत्ते णं अनगारः गौतमसगोत्रः सप्तोत्सेधः समचतुरस्र- ऊंचाई वाले, समचतुख संस्थान से संस्थित, सत्तस्सेहे समचउरंससंठाणसंठिए बजरिसभ- संस्थानसंस्थितः वज्रर्षभनाराचसंहननः कनक- वज्रऋषभनाराच संहनन-युक्त , कसौटी पर नारायसंघयणे कणगपुलगनिघसपम्हगोरे पुलकनिकषपक्ष्मगौरः उग्रतपाः दीप्ततपाः खचित स्वर्ण-रेखा तथा पद्मकेसर की भांति उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे महातवे ओराले तप्ततपाः महातपाः 'ओराले घोरः घोरगुणः पीताभ गौर वर्ण वाले', उग्रतपस्वी, दीप्ततपस्वी, घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी पोरबंभचेरवासी घोरतपस्वी घोरब्रह्मचर्यवासी उत्क्षिप्तशरीरः तप्ततपस्वी, महातपस्वी, महान्, घोर, घोर गुणों उच्छूढसरीरे संखित्तविउलतेयलेस्से चोद्दस- संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यः चतुर्दशपूर्वी चतु- से युक्त, घोरतपस्वी, घोरब्रह्मचर्यवासी', लधिपुची चउनाणोवगए सव्वक्खरसत्रिवाती ानोपगतः सर्वाक्षरसंनिपाती श्रमणस्य भग- माऋद्धि-सम्पन्न , विपुल तेजोलेश्या को अन्तर्लीन समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते वतो महावीरस्य अदूरसामन्ते ऊर्ध्वजानुः रखने वाले , चतुर्दशपूर्वी , चार ज्ञान से समन्वित उहुंजाणू अहोसिरे झाणकोट्ठोवगए संजमेणं अधःशिराः ध्यानकोष्ठोपगतः संयमेन तपसा और सर्वाक्षरसन्निपाती लब्धि से युक्त इन्द्रभूति तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ ।। आत्मानं भावयन् विहरति । नामक अनगार श्रमण भगवान महावीर के न अति दूर और न अति निकट, ऊर्ध्वजानु अधःसिर (उकडू आसन की मुद्रा में)" और ध्यानकोष्ठ में लीन होकर संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए रह रहे हैं। भाष्य १. सूत्र ६ प्रस्तुत सूत्र में प्रथम गणधर इन्द्रभूति के अंतरंग और बाह्य व्यक्तित्व का समग्रता से निरूपण हुआ है। इसमें आनुवंशिकी (जेनेटिक साइंस), आकृति-विज्ञान, मनोविज्ञान आदि की दृष्टियों से कई नये तथ्य उपलब्ध होते हैं। व्यक्तित्व-निर्माण में अनेक घटक तत्त्वों का योग होता है। यह प्रस्तुत सूत्र के आधार पर स्पष्टता से जाना जा सकता है। २. अन्तेवासी अन्तेवासी का शाब्दिक अर्थ है-निकट रहने वाला। इन्द्रभूति गौतम सदा भगवान् महावीर के सन्निकट रहते थे, इसलिए उन्हें अन्तेवासी कहा गया। बौद्ध साहित्य में अन्तेवासी को 'सद्धिं विहारी'-आचार्य के साथ विहार करने वाला, रहने वाला कहा गया है।' ठाणं में अन्तेवासी के चार प्रकार बतलाए गये हैं"कुछ प्रव्राजना-अन्तेवासी होते हैं, उपस्थापना-अन्तेवासी नहीं होते। कुछ उपस्थापना-अन्तेवासी होते हैं, प्रव्राजना-अन्तेवासी नहीं होते। कुछ प्रव्राजना-अन्तेवासी भी होते हैं, उपस्थापना-अन्तेवासी भी होते हैं। कुछ न प्रव्राजना-अन्तेवासी होते हैं और न उपस्थापना-अन्तेवासी होते हैं, वे धन्तेिवासी होते हैं।" १. ठाणं,३।५३४--समणस्स णं भगवतो महावीरस्स तिण्णि सया चउद्दसपुवीणं अजिणाणं जिणसंकासाणं सव्वक्खरसन्निवातीणं जिणा इव अवितहं वागर- माणाणं उक्कोसिया चउद्दसपुब्बिसंपया हुत्था। २. स्था.वृ.प.२७४–अजिनानामसर्वज्ञत्वात् जिनसंकाशानामविसंवादिवचनत्वात् यथापृष्टनिर्व्वक्तृत्वाच । ३. सम.१।२। ४. सुत्तनिपात, ३।११। ५. ठाणं, ४१४२४ । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श.१: उ.१: सू.६ प्रव्राजना-अन्तेवासी-जो केवल प्रव्रज्या (मुनि-दीक्षा या आगम-साहित्य में आकृति के आधार पर मनुष्य को छह वर्गों में सामायिक चारित्र) की दृष्टि से आचार्य के पास रहे। वर्गीकृत किया गया है-१.समचतुरस्त्र २.न्यग्रोध परिमंडल ३.सादि उपस्थापना-जन्तेवासी जो केवल उपस्थापना (महाव्रत आरो- ४.कुब्ज ५.वामन ६.हुड। पण या छेदोपस्थापनीय चारित्र) की दृष्टि से आचार्य के पास रहे। वृत्तिकार के अनुसार समचतुरस्त्र संस्थान की व्याख्या इस प्रकार धर्मान्तेवासी-जो केवल धर्म-श्रवण के लिए आचार्य के पास है: सम-नाभि के ऊपर और नीचे के अवयव सकल पुरुष-लक्षणों रहे। से युक्त होने के कारण तुल्य; चतुरस्त्र का अर्थ है-प्रधान । जिसके यह जरूरी नहीं कि प्रत्येक प्रकार का अन्तेवासी भिन्न-भिन्न __ अवयव सम और प्रधान हों, उसे समचतुरस्त्र संस्थान कहते हैं। आचार्य के पास रहे। वृत्तिकार ने इसके तीन वैकल्पिक अर्थ किये हैंएक ही व्यक्ति धर्मान्तेवासी, प्रव्राजना-अन्तेवासी और उपस्था- १. शरीर-लक्षण के जो प्रमाण कहे गये हैं, चारों कोण उसीके पना-अन्तेवासी हो सकता है। अविसंवादी हों, उसे समचतुरस्र संस्थान कहा जाता है। कोण का इसी प्रकार उद्देशना-अन्तेवासी, वाचना-अन्तेवासी और धर्मान्ते- अर्थ है--चारों दिशाओं (ऊपर, नीचे, दाएं और बाएं) से उपलक्षित वासी के विकल्प भी ज्ञातव्य हैं।' शरीर के अवयव। ३. गौतमसगोत्र २. शरीर के चारों ही कोण न न्यून और न अधिक हों, उसे समचतुरस्त्र व्यक्तित्व निर्माण का आधारभूत तत्त्व है वंश-परम्परा। आनु कहा जाता है—पर्यंक-आसन में बैठे हुए व्यक्ति के वंशिकी के अनुसार व्यक्ति वैसा ही बनता है, जैसा वह संस्कार-सूत्र (१) दोनों जानुओं का अन्तर (२) आसन और ललाट के उपरी भाग का अन्तर (gene) और गुणसूत्र (chromosome) लेकर आता है। इन्द्रभूति, उस समय के प्रतिष्ठित गौतम नाम के गोत्र में उत्पन्न हुए थे। स्वस्थ (३) दक्षिण स्कन्ध से वाम जानु का अन्तर वंश-परंपरा से उन्हें आभिजात्य संस्कार सहज उपलब्ध थे। (४) वाम स्कन्ध से दक्षिण जानु का अन्तर। ये चार कोण हैं। ३. पर्यंकासन में बैठने पर जिसकी ऊंचाई और विस्तार समान हों उस ४. सात हाथ ऊंचाई वाले, समचतुरस्र संस्थान से संस्थित, संस्थान को समचतुरस्र कहा जाता है। वज्रऋषभनाराच संहनन-युक्त इन तीनों विशेषणों के द्वारा आर्य गौतम की लंबाई, विशिष्ट स्थानांग वृत्ति में समचतुरस्त्र का अर्थ इस प्रकार किया गया है'-शरीर के सभी अवयव जहां अपने-अपने प्रमाण के अनुसार शरीर-रचना (आकृति) और संहनन (अस्थिबन्ध) की सूचना मिलती है। उनके शरीर की ऊंचाई सात हाथ की थी। चौबीस अंगुल का होते हैं, वह समचतुरस्त्र संस्थान है। अत्र का अर्थ है-कोण। जहां शरीर के चारों कोण समान हों, वह समचतुरस्र संस्थान है। एक हाथ होता है। तत्त्वार्थराजवार्तिक में इसकी व्याख्या भिन्न प्रकार से की गई आज मनोविज्ञान के क्षेत्र में उक्त तथ्यों के आधार पर व्यक्ति है--समचतुरस्त्र-जिस शरीर रचना में ऊर्ध्व, अधः और मध्य भाग की मनोवृत्तियों और उसके सम्पूर्ण आंतरिक व्यक्तित्व का विश्लेषण सम होता है, उसे समचतुरस्त्र संस्थान कहा जाता है। एक कुशल किया जाता है। मनोविज्ञान के अनुसार व्यक्तित्व-विकास में तीन शिल्पी के द्वारा निर्मित चक्र की सभी रेखाएं समान होती हैं, इसी शारीरिक तत्त्वों का विशेष प्रभाव पड़ता है। वे ये हैं-१. जैव-रसायन २. शारीरिक गठन और स्वास्थ्य ३. तन्त्रिका तंत्र। आकार, प्रकार इस संस्थान में सब भाग समान होते हैं।' रूप, रंग, वजन, शरीर-परिमाण–ये व्यक्तित्व के प्रत्यक्ष पहलु हैं। धवला के अनुसार समान मान और उन्मान वाला शरीर-संस्थान आगम-साहित्य में उपलब्ध व्यक्तित्व-वर्णन के ये दो पहल-संस्थान समचतुरस्र है। समचतुरस्त्र की अनेक व्याख्याएं उपलब्ध हैं। इनमें और संघात आधुनिक दृष्टि से भी विशेष मूल्यवान हैं। आज वृत्तिकार द्वारा व्याख्यायित दूसरा और तीसरा विकल्प अधिक संगत शरीर-संस्थान के आधार पर व्यक्तित्व-विश्लेषण की पद्धति बहुत विकसित हो चुकी है। किस प्रकार की आंखों वाला, किस प्रकार वज्रऋषमनाराच संहनन की नाक वाला, किस प्रकार के चेहरे वाला व्यक्ति कैसा होता है, संहनन का अर्थ है-अस्थि-संचय। उसका स्वभाव कैसा होता है, वह कौन-से कार्यक्षेत्र में सफल होता है, ठिगने व्यक्ति की मनोवृत्तियां कैसी होती हैं और लम्बे की कैसी अस्थि-कील के लिए 'वज्र', परिवेष्टन अस्थि के लिए 'ऋषभ' होती हैं--इन सबका विशद वर्णन उपलब्ध होता है। और परस्पर गूंथी हुई आकृति के लिए 'नाराच' शब्द का प्रयोग किया गया है। समचतुरस्र संस्थान जिस शरीर में परस्पर गूंथी हुई अस्थियों और परिवेष्टित संस्थान का अर्थ है आकृति, शरीर के अवयवों की रचना। १. ठाणं, ४१४२५/ २. भ.६।१३४---चउवीसं अंगुलाई रयणी। ३. भ.बृ.91६1 ४. स्था.वृ.प.३३८। ५. त.रा.वा.पृ.५७६,५७७। ६. ष.खं.धवला,पु.१३,खं.५,भा.५,सू.१०७,पृ.३६५ । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.१: सू.६ भगवई ग्रन्थियों को अस्थि-कील द्वारा आर-पार कसा हुआ हो, उसको वज्र-ऋषभ-नाराच संहनन कहते हैं - कुछ आचार्य अस्थियों को ही कीलिका मानते हैं।' ५. कसौटी पर खचित स्वर्ण-रेखा तथा पद्म-केसर की भांति पीताम गौरवर्ण वाले इस विशेषण से वर्ण के आधार पर गणधर गौतम के व्यक्तित्व का वर्णन किया गया है। इससे एक बात और ध्वनित होती है कि अच्छे व्यक्तित्व के लिए मात्र गौरवर्ण ही पर्याप्त नहीं हैं, वह दीप्तिमान भी होना चाहिए। महत्त्व मात्र रंग का नहीं, आभा का भी होता है। आर्य गौतम का देह स्वर्णाभ था। वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'कसौटी पर खींची हुई स्वर्ण-रेखा' तथा 'पदम के पक्ष्म की भांति गौर' किया है। यहां पक्ष्म को रेखा से पृथक कर दो अर्थ किए गए हैं। यह संगत नहीं है। वृत्तिकार द्वारा उद्धृत वृद्धव्याख्या का अर्थ संगत है। वृद्धव्याख्या के अनुसार इसका अर्थ है-स्वर्ण-रेखा के पक्ष्म की भांति गौर ।' 'पम्ह' शब्द का संस्कृत रूप 'पद्म' नहीं बनता, किन्तु 'पक्ष्म' बनता है। उसका अर्थ है पद्म-केसर । ६. उग्र तपस्वी...........घोरब्रह्मचर्यवासी उग्गतवे से लेकर सव्वक्खरसत्रिवाती तक चौदह विशेषणों के द्वारा गौतम की योगज विभूतियों-लब्धियों का महत्त्वपूर्ण वर्णन किया गया है। वृत्तिकार ने उग्गतवे आदि पदों का केवल शाब्दिक अर्थ किया है उग्रतपस्वी असाधारण तप करने वाला। दीप्ततपस्वी प्रज्वलित धर्मध्यान रूप तप करने वाला। तप्ततपस्वी-जिसका तप मूर्तिमान् बन जाए। महातपस्वी आशंसा से मुक्त तप करने वाला। ओराल—अल्पसत्त्व के लिए भयंकर अथवा प्रधान तप करने वाला। ओराल देशी शब्द है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ भीम किया है, किन्तु अन्य आचार्यों का मत उद्धत करते हुए उन्होंने इसका अर्थ उदार-प्रधान किया है। पंचसंग्रह में 'ओराल' के अनेक पर्यायवाची शब्द बतलाए गए हैं। उनमें एक है—महान् ।' घोर—परीषहजयी और इन्द्रियजयी तप करने वाला । घोरगुण असाधारण मौलिक गुणों का विकास करने वाला। घोरतपस्वी-घोर तप करने वाला । घोरब्रह्मचर्यवासी-अल्पसत्त्व मनुष्यों के द्वारा दुरनुचर ब्रह्मचर्य की आराधना करने वाला। दिगम्बर परम्परा के साहित्य को देखने से पता चलता है कि उग्गतवे आदि का अर्थाम्नाय श्वेताम्बर परम्परा में विस्मृत हो गया। इसीलिए वृत्तिकार ने उसकी शब्दाश्रयी व्याख्या की। चूर्णि में इसकी व्याख्या उपलब्ध नहीं है। तत्त्वार्थराजवार्तिक में इन में से कुछ पदों की मूलस्पर्शी व्याख्या उपलब्ध होती है। वहां तप के अतिशय की ऋद्धि के सात प्रकार बतलाए गए हैं-उग्रतप, दीप्ततप तप्ततप महातप घोरतप वीरपराक्रम और घोरब्रह्मचर्य। उग्रतपस्वी-जो मुनि एक, दो यावत् मासिक आदि उपवास योग में से किसी एक उपवास-योग की आराधना प्रारंभ कर जीवन पर्यन्त उसका निर्वाह करता है, वह उग्रतपस्वी कहलाता है। आजीवक सम्प्रदाय में भी उग्रतप की परम्परा प्रचलित थी। ठाणं में आजीवकों के चार प्रकार के तप बतलाए गये हैं-उग्रतप, घोरतप, रसनि!हण, जिह्वेन्द्रिय-प्रतिसंलीनता।' दीप्ततपस्वी-दीर्घकालीन उपवास करने पर भी जिसका कायिक, वाचिक और मानसिक बल प्रवर्धमान रहता है, मुंह में १. भ.वृ.१६ २. वही,१६-कनकस्य–सुवर्णस्य 'पुलगं'ति यः पुलको-लवस्तस्य यो निकषः--कषपट्टके रेखालक्षणः तथा 'पम्ह'ति पद्मपक्ष्माणि-काराणितद्वद्गौरो यः स तथा । वृद्धव्याख्या तु-कनकस्य न लोहादेर्यः पुलकः-- सारो वर्णातिशयस्तप्रधानो यो निकषो रेखा तस्य यत्पक्ष्म-बहलत्वं तद्वद्गौरो यः स तथा । अथवा कनकस्य यः पुलको द्रुतत्वे सति विन्दुस्तस्य निकषो -वर्णतः सदृशो यः स तथा 'पम्ह'त्ति पनं तस्य चेह प्रस्तावात्केशराणि गृह्यन्ते ततः पद्मवद्गौरो यः स तथा। ३. हेमचन्द्र, प्राकृतव्याकरण,२।७४---पक्ष्म-श्म-अ-स्म-ह्यां-म्हः । ४. पं.सं.(दि.)१/६३–पुरु महमुदारुरालं एगहूँ। ५. भ.वृ.१।६–'उग्गतवे'ति उग्रम्-अप्रधृष्यं तपः अनशनादि यस्य स उग्रतपाः, यदन्येन प्राकृतपुंसा न शक्यते चिन्तयितुमपि तद्विधेन तपसा युक्त इत्यर्थः। 'दित्ततवे'त्ति दीप्तं-जाज्वल्यमानदहन इव कर्मवनगहनदहन- समर्थतया ज्वलितं तपो-धर्मध्यानादि यस्य स तथा । 'तत्ततवे'त्ति तप्तं तपो येनासौ तप्ततपाः एवं हि तेन तत्तपस्तप्तं येन कर्माणि संताप्य तेन तपसा स्वा माऽपि तपो रूपः संतापितो यतोऽन्यस्यास्यास्पृश्यमिव व जातमिति । महातवे'त्ति आशंसादोषरहितत्वात्प्रशस्ततपाः। 'ओराले'त्ति भीम उग्रादिविशेषणविशिष्टतपःकरणात्पार्श्वस्थानामल्पसत्त्वानां भयानक इत्यर्थः। अन्ये त्वाहुः---'ओराले'त्ति उदारः प्रधानः। 'घोरे'त्ति घोरः अतिनिघृणः परीष हेन्द्रियादिरिपुगणविनाशमाश्रित्य निर्दय इत्यर्थः। अन्ये त्वात्मनिरपेक्ष घोर माहुः। 'घोरगुणे'त्ति घोरा–अन्यैर्दुरनुचरा गुणा—मूलगुणादयो यस्य स तथा । 'घोरतवस्सिति घोरैस्तपोभिस्तपस्वीत्यर्थः । 'घोरबंभचेरवासित्ति घोरं -दारुणमल्पसत्त्चैर्दुरनुचरत्वाद्यद् ब्रह्मचर्यं तत्र वस्तुं शीलं यस्य स तथा । ६.त.रा.वा.३.३६--तपोऽतिशयर्द्धि: सप्तविधा-उग्र-दीप्त-तप्त-महा-घोर-तपो वीरपराक्रम-घोरब्रह्मचर्यभेदात्। ७.वही,३।३६-चतुर्थषष्ठाष्टमदशमद्वादशपक्षमासाद्यनशनयोगेष्वन्यतमयोगमारभ्य आमरणादनिवर्तका उग्रतपसः। ८.ठाणं,४।३५०-आजीवियाणं चउबिहे तवे पण्णत्ते, तं जहा—उग्गतवे, घोर तवे, रसणिजूहणता, जिमिंदियपडिसंलीणता । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श. १: उ.१: सू.६ दुर्गन्ध नहीं होती, निःश्वास में पद्मोत्पल आदि जैसी सुरभि फूटती है। जिसने शरीर के संस्कार का त्याग किया है, वह उज्झित-शरीर अर्थात् और शरीर की दीप्ति प्रच्युत नहीं होती, वह दीप्ततपस्वी कहलाता है । ' शरीर-निरपेक्ष कहलाता है।" तप्ततपस्वी— तपे हुए लोह के तवे पर गिरा हुआ जलकण जैसे तत्काल सूख जाता है, वैसे ही जिस मुनि के द्वारा किया हुआ शुष्क और अल्प आहार तत्काल परिणत हो जाता है, वह मल और रक्त के रूप में परिणत नहीं होता, वह तप्ततपस्वी कहलाता है। महातपस्वी — सिंहनिष्क्रीडित आदि महान् उपवास का अनुष्ठान करने वाला महातपस्वी कहलाता है। घोरतपस्वी वात, पित्त, कफ और सन्निपात से होने वाले नाना प्रकार के रोगों से आक्रान्त होने पर भी जो अनशन एवं कायक्लेश आदि के तप से पराङ्मुख नहीं होता, तथा हिंस्र पशुओं एवं चोर आदि से घिरे हुए प्रदेश में आवास करता है, वह घोरतपस्वी कहलाता है। घोरब्रह्मचर्यवासी जिसका ब्रह्मचर्यवास अस्खलित होता है, चारित्रमोह के प्रकृष्ट विलय ( क्षयोपशम) से जिसके स्वप्न भी नष्ट हो जाते हैं, वह घोरब्रह्मचर्यवासी कहलाता है। ७. लघिमाऋद्धिसम्पन्न उच्छूढशरीर ( उत्क्षिप्त शरीर ) – इस पद के दो अर्थ किये जा सकते हैं 9. शरीर के हल्का होने से ऊपर उठने वाला। जो लघिमाऋद्धि-सम्पन्न होते हैं, वे अपने शरीर को वायु से भी हल्का कर सकते हैं। यह ऋद्धि 'विक्रिया ऋद्धि' का एक प्रकार है। 'विक्रिया ऋद्धि' में अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा आदि ऋद्धियों का समावेश होता है । इन्द्रभूति गौतम प्रसिद्ध रूप से महान् ऋद्धिधर माने जाते हैं। महापुराण के अनुसार वे जब भगवान् महावीर के पास ५०० शिष्यों के साथ दीक्षित हुए, तब उन्हें सातों ऋद्धियां प्राप्त हो गई । " बुद्धि, विक्रिया, तप, बल, औषध, रस और क्षेत्र (अक्षीण ) ये सात ऋद्धियां हैं। ' लघिमाऋद्धि इसी विक्रिया ऋद्धि' के अन्तर्गत समाविष्ट है । १७ २. शरीर - निरपेक्ष-वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है १. त. रा. वा. ३ | ३६ – महोपवासकरणेऽपि प्रवर्धमानकायवाङ्मानसबलाः विगन्धरहितवदनाः पद्मोत्पलादिसुरभिनिश्वासा अप्रच्युतमहादीप्तिशरीरा दीप्ततपसः ! २. वही, ३ | ३७ - वायोरपि लघुतरशरीरता लघिमा । ३. वही, ३ | ३६ - विक्रियागोचरा ऋद्धिरनेकविधा— अणिमा महिमा लघिमा गरिमा....... । ४. महापुराण, ७४ । ३६६-३७० । ५. तिलोयपण्णत्ती, ४ । ६६८ ६. भ. महावीर के अनेक शिष्य विभिन्न प्रकार की ऋद्धियों के धारक थे जिनमें विव्वणि विक्रिया ऋद्धि) का भी उल्लेख है। (ओवा. २४) । ७. भ. वृ. ११६ - उच्छूढशरीरे त्ति उच्छूढम् उज्झितमिवोज्झितं शरीरं येन तत् संस्कारत्यागात्स तथा । मुनित्व का पहला लक्षण है— देहासक्ति से मुक्त होना । जो शारीरिक परिकर्म ( शरीर का संवारना, सजाना) या संस्कार से मुक्त नहीं होता, वह आत्मा या चैतन्य के प्रति समर्पित नहीं हो सकता । भगवान् महावीर ने शरीर-निरपेक्ष साधना को बहुत महत्त्व दिया, इसीलिए उनकी साधना-पद्धति में अभ्यङ्ग, स्नान, अञ्जन, मर्दन आदि की वर्जना की गई है। ८. विपुल तेजोलेश्या को अन्तर्लीन रखने वाला नन्दी चूर्णि में लेश्या का अर्थ रश्मि किया गया है।' रश्मिरस्सी —-लेस्स इस आधार पर उसका संस्कृत रूप 'लेश्या' किया जाता है, वह विमर्शनीय बन जाता है। वृत्तिकार ने तेजोलेश्या का अर्थ तेजो-ज्वाला किया है। यहां तेजोलेश्या का प्रयोग एक ऋद्धि (लब्धि या योगज विभूति) के अर्थ में हुआ है। ठाणं के अनुसार यह ऋद्धि तीन कारणों से उपलब्ध होती है। इसकी तुलना हठयोग की कुण्डलिनी से की जा सकती है । कुण्डलिनी की दो अवस्थाएं होती हैं— सुप्त और जागृत । तेजोलेश्या की भी दो अवस्थाएं होती हैं—संक्षिप्त और विपुल । इसके द्वारा हजारों किलोमीटर में अवस्थित वस्तु को भस्म किया जा सकता है। इसी प्रकार बहुत दूर तक अनुग्रह भी किया जा सकता है। इसके द्वारा अनुग्रह और निग्रह दोनों किये जा सकते हैं। साधारणतया अप्रयोग की स्थिति में वह संक्षिप्त की अवस्था में रहती है । इन्द्रभूति गौतम को यह ऋद्धि उपलब्ध थी। किन्तु वे उस विपुल तेजोलेश्या को संक्षिप्त अवस्था में बनाए रखते थे। ऋद्धिसम्पन्न होते हुए भी उस ऋद्धि का प्रयोग नहीं किया करते थे। " ६. चतुर्दशपूर्वी, चार ज्ञान से समन्वित ज्ञान मीमांसा के अनुसार ज्ञान पांच हैं—मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान, केवलज्ञान ।" इनमें प्रथम दो परोक्ष या इन्द्रियसंबद्ध और अन्तिम तीन प्रत्यक्ष या अतीन्द्रिय ज्ञान हैं। बारहवां अंग दृष्टिवाद है। वह वर्गीकृत रूप में पांच भागों में विभाजित है ।" उसमें तीसरा विभाग पूर्वगत है । उसमें चौदह पूर्वो का समावेश हुआ है।" उनका ज्ञाता चतुर्दशपूर्वी या श्रुत- केवली ८. नन्दी चू. पू. ४ -- ' लेस्स' ति रस्सीयो । विस्तार के लिए देखें भ. १।१०२ का भाष्य । ६. ठाणं, ३।३८६ तिहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे संखित्तविउलतेउलेस्से भवति, तं जहा आयावणताए, खंतिखमाए, अपाणगेणं तवोकम्मेणं । १०. भ.वृ. १ १६ संक्षिप्ता-— शरीरान्तर्लीनत्वेन ह्रस्वतां गता, विपुला - विस्तीर्णा अनेकयोजनप्रमाणक्षेत्राश्रितवस्तुदहनसमर्थत्वात्तेजोलेश्या विशि ष्टतपोजन्यलब्धिविशेषप्रभवा तेजोज्वाला यस्य स तथा । ११. नंदी, २ नाणं पंचविहं पण्णत्तं तं जहा - आभिणिबोहियनाणं, सुयनाणं, ओहिनाणं, मणपजवनाणं, केवलनाणं । १२. वही, ६२ । १३. वही, १०४ । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १: उ.१: सू. ६ कहलाता है। चौदह पूर्वों का श्रुतज्ञान में अन्तर्भाव होता है । किन्तु श्रुतज्ञानी का चतुर्दशपूर्वी होना अनिवार्य नहीं है। चतुर्दशपूर्वी होने का अर्थ है - प्रकृष्ट श्रुतज्ञानी होना । श्रुतकेवली की तुलना केवली से की गई है । केवली सब द्रव्यों और सब पर्यायों को साक्षात् जानता है और श्रुतकेवली उन्हें श्रुत के आधार पर जानता है। इन्द्रभूति गौतम गणधर थे। गणधर द्वादशांगी की रचना करते हैं, यह सर्वसम्मत तथ्य है । उत्तरज्झयणाणि में इन्द्रभूति गौतम को बारह अंगों का ज्ञाता कहा गया है। अध्ययन के विषय में तीन परम्पराएं मिलती हैं ---- १. ग्यारह अंगों का अध्येता । ' २. बारह अंगों का अध्येता। ३. चौदह पूर्वो का अध्येता ।' जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के अनुसार दृष्टिवाद में समस्त शब्दज्ञान का अवतार हो जाता है, फिर भी ग्यारह अंगों की रचना अल्पमेधा पुरुषों और स्त्रियों के लिए की गई ।' यद्यपि बारह अंगों को पढ़ने वाले और चौदह पूर्वो को पढ़ने वाले—ये भिन्न-भिन्न उल्लेख मिलते हैं, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि चौदह पूर्वो के अध्येता बारह अंगों के अध्येता नहीं थे और बारह अंगों के अध्येता चतुर्दशपूर्वी नहीं थे । गौतम स्वामी को 'द्वादशांगवित्' कहा गया है। वे चतुर्दशपूर्वी और अंगधर दोनों थे, यह कहने का प्रकार-भेद रहा है कि श्रुतकेवली को कहीं 'द्वादशांगवित्' और कहीं 'चतुर्दशपूर्वी' कहा गया है। ग्यारह अङ्ग पूर्वो से उद्धृत या संकलित हैं। इसलिए जो चतुदेशपूर्वी होता है, वह स्वाभाविक रूप से ही द्वादशांगवित् होता है। बारहवें अङ्ग में चौदह पूर्व समाविष्ट हैं। इसलिए जो द्वादशांगवित् होता है, वह स्वभावतः ही चतुर्दशपूर्वी होता है। अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि आगम के प्राचीन वर्गीकरण दो ही हैं9. चौदह पूर्व और २. ग्यारह अङ्ग । द्वादशांगी का स्वतन्त्र स्थान नहीं है। यह पूर्वी और अङ्गों का संयुक्त नाम है। वृत्तिकार ने बतलाया है कि इन्द्रभूति गौतम चतुर्दश पूर्वी के रचयिता थे, इसलिए उन्हें 'चतुर्दशपूर्वी' कहा गया है।" १. नंदी, १२७ -- तत्थ दव्वओ णं सुयनाणी उवउत्ते सब्वदव्वाई जाणइ पासइ । ......भावओ णं सुयनाणी उवउत्ते सब्वे भावे जाणइ पासइ | २. आव.नि.गा. ६२ अत्यं भासइ अरहा, सुतं गंथन्ति गणहरा निउणं । सासणस हिट्ठाए, तओ सुत्तं पवत्तए ॥ ३,५. उत्तर.२३ । ७ –– बारसंगविऊ बुद्धे । ४. अंत. ६ । १५/६६ सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ । ६. वही, ३ ६ १११६ – चोद्दस पुव्वाई अहिज्जइ । ७. वि.भा.गा. ५५४ १८ वि य भूतावाए वओगयरस ओयारो । निज्हणा तहावि हु, दुम्मे पप्प इत्थी य ॥ ८. भ.वृ.१।६--- चतुर्दश पूर्वाणि विद्यन्ते यस्य तेनैव तेषां रचितत्वादसौ चतुर्दश पूर्वी । भगवई १०. सर्वाक्षरसन्निपाती लब्धि से युक्त विशेषावश्यकभाष्य में ऋद्धि के अनेक प्रकार बतलाए गये हैं । उनमें 'सर्वाक्षरसन्निपात' की परिगणना नहीं है। तत्त्वार्यराजवार्तिक में बुद्धि ऋद्धि के अठारह प्रकार बतलाए गये हैं । उसमें भी इसका उल्लेख नहीं है। १० वृत्तिकार ने 'सव्वक्खरसन्निवाती' के दो अर्थ किये हैं-- १. सब अक्षरों के संयोग के ज्ञाता, २. श्रव्य अक्षरों के वक्ता । " औपपातिक वृत्ति में 'सव्वक्खरसन्निवाइयाए पाठ तथा वैकल्पिक रूप से 'सव्वत्तक्खरसन्निवाइयाए' पाठ व्याख्यात हैं। ये दोनों वाणी के विशेषण हैं। श्रमण भगवान् महावीर ने सर्वाक्षरसन्निपाती की वाणी के द्वारा धर्म-प्रवचन किया। १२ इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि प्रस्तुत पद का संबंध वाणी से है । 'चोद्दसपुब्बी' और 'चउनाणोवगए' इन दो पदों के द्वारा गौतम के ज्ञानातिशय और 'सव्वक्खरसन्निपाती' इस पद के द्वारा उनके वचनातिशय का निर्देश किया गया है। ११. न अति दूर और न अति निकट ऊर्ध्वजानु अघः सिर (उकडू आसन की मुद्रा में) इन्द्रभूति गौतम भगवान् महावीर के पार्श्ववर्ती स्थल में ठहरे हुए थे, वह स्थल बहुत निकट भी नहीं था और बहुत दूर भी नहीं १३ था। ऊर्ध्वजानु अधः शिरा के दो अर्थ किए जा सकते हैं- उकडू आसन और सर्वांगासन | मुनि के लिए शुद्ध पृथ्वी ( आसन-रहित भूमि) पर बैठना वर्जित था। उसका एक कारण अहिंसा की दृष्टि और दूसरा कारण मानसिक एकाग्रता की सिद्धि के लिए पृथ्वी के आकर्षण से बचाव करना था। मुनि के लिए दो प्रकार के उपकरणों का विधान है— औधिक और औपग्रहिक । अनिवार्य उपकरण औधिक कहलाते हैं और ऋतुविशेष में रखे जाने वाले औपग्रहिक । गौतम के पास औपग्रहिक निषद्या नहीं थी, इसलिए वे उकडू आसन में बैठते थे। घेरण्डसंहिता में उत्कटासन का लक्षण इस प्रकार बतलाया गया है दोनों पैरों के अंगुठों को भूमि पर टिका, दोनों एडियों को ६. वि.भा.गा. ७७५-७६ । १०. त. रा. वा. ३ । ३६ । ११. भ. वृ. ११६- सर्वेषां वाऽक्षराणां सन्निपाताः सर्वाक्षरसन्निपातास्ते यस्य ज्ञेयतया सन्ति स सर्वाक्षरसन्निपाती, श्रव्याणि वा श्रवणसुखकारीणि अक्षराणि साङ्गत्येन नितरां वदितुं शीलमस्येति श्रव्याक्षरसंनिवादी | १२. औप.वृ. पृ.१४७ सव्व (सव्वत्त) क्खरसन्निवाइयाए सुव्यक्तः अक्षरसन्निपातोवर्णसंयोगो यस्यां सा तथा तया..... सव्वक्खरसन्निवाइयाए सर्वाक्षराणां सन्निपातः - अवतारो यस्यामस्ति सर्वे वाक्षरसन्निपाताः संयोगाः सन्ति यस्यां सा सर्वाक्षरसन्निपातिका तया । १३. भ. वृ. ११६-तत्र दूरं च विप्रकृष्टं सामन्तं च संनिकृष्टं तनिषेधाददूरसामन्तं तत्र, नातिदूरे नातिनिकट इत्यर्थः । १४. दसवे. ८।५ सुद्धपुढवीए न निसिए । देखें, दसवे. ८ । ५ का टिप्पण । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १६ श.१: उ.१: सू.६,१० निरालम्ब कर ऊपर को उठा दो। गुह्यस्थान को एडियों पर रखो, यह उत्कटासन है।' हठयोगप्रदीपिका में ऊर्च नाभेरघस्तालुः (३१७६) और अधःशिराश्चोर्ध्वपादः (३।८१)—ऐसे प्रयोग मिलते हैं। सर्वांगासन और शीर्षासन में भी यह मुद्रा बनती है। इसका बहुत संभव अर्थ उकडू। आसन ही है। ठाणं में पांच प्रशस्त स्थान बतलाए गए हैं। उनमें । एक उकडू आसन है।' वहां निषद्या के पांच प्रकार निर्दिष्ट हैं। उनमें । पहली निषद्या उत्कटिका है। निषद्या ध्यान का आसन है। भगवान महावीर स्वयं उकडू-गोदोहिका आदि निषद्याओं में ध्यान किया करते थे। भगवान की ध्यान-मुद्रा के लिए भी 'ऊर्ध्वजानु अधःसिर' की मुद्रा का प्रयोग किया गया है।' १२. ध्यानकोष्ठक में लीन होकर ___ 'ध्यानकोष्ठ' पद एकाग्रता का सूचक है। कोठे में डाला हुआ अनाज इधर-उधर नहीं बिखरता, वैसे ही एकाग्रता की साधना के द्वारा इन्द्रियां, मन और वृत्तियां इधर-उधर नहीं दौड़ती, किन्तु एक ध्येय पर ही स्थिर हो जाती हैं। कोष्ठ का तात्पर्य है ध्येय। जब ध्यान अपने ध्येय में लीन हो जाता है, उस अवस्था में चित्त की 'ध्यान-कोष्ट' अवस्था का निर्माण होता है। पतञ्जलि ने इसे 'देशबन्ध' या 'प्रत्ययैकतानता' कहा है। 'कोष्ठ' का एक अर्थ आन्तरिक अंग या अवयव है। इस आधार पर ध्यानकोष्ठ का अर्थ-ध्यान के लिए उपयुक्त शरीरवर्ती चैतन्य केन्द्र नाभि, कण्ठ, हृदय, फुप्फुस, जीभ आदि किया जा सकता है। यह अर्थ अधिक प्रासंगिक है। व्यास-भाष्य में 'देश-बन्ध' के लिए बाह्यदेश का गौण रूप में और शरीर के अंगों का मुख्य रूप में निर्देश मिलता है। १३. संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए वृत्तिकार ने संयम का अर्थ संवर किया है। ठाणं में संयम और संवर का पृथक निर्देश है। संयम का अर्थ नियमन अथवा उपरति है।” संवर का अर्थ निरोध है।" इन्द्रभूति गौतम के मन, वचन और शरीर का संयम स्वतः सिद्ध था, इनसे उनकी आत्मा सहज भावित थी। जिससे कर्म की निर्जरा होती है, वह तप है। उसके बारह प्रकार हैं। १०. तए णं से भगवं गोयमे जायसडे जाय- ततः स भगवान् गौतमः जातश्रद्धः जात- १०. उस समय भगवान गौतम के मन में एक श्रद्धा संसए जायकोउहल्ले उपपत्रसट्टे उप्पनसंसए संशयः जातकुतूहलः उत्पन्नश्रद्धः उत्पन्न- (इच्छा), एक संशय (जिज्ञासा) और एक कुतूहल उप्पत्रकोउहल्ले संजायसढे संजायसंसए संशयः उत्पत्रकुतूहलः संजातश्रद्धः संजात- जन्मा; एक श्रद्धा, एक संशय और एक कुतूहल संजायकोउहल्ले समुप्पनसड्ढे समुप्पत्रसंसए संशयः संजातकुतूहलः समुत्पन्नश्रद्धः समुत्पन्न- उत्पन्न हुआ; एक श्रद्धा, एक संशय और एक समुप्पन्नकोउहल्ले उडाए उद्देति, उद्वेत्ता संशयः समुत्पन्नकुतूहल: उत्थया उत्तिष्ठति, कुतूहल बढ़ा तथा एक श्रद्धा, एक संशय और जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवा- उत्थाय यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीरः तत्रैव ___एक कुतूहल प्रबलतम बना। वे उठने की मुद्रा गच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं उपागच्छति, उपागम्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं में उठते हैं, उठकर जहां श्रमण भगवान् महावीर तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता त्रिः आदक्षिण-प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वंदते हैं, वहां आते हैं, वहां आकर श्रमण भगवान् १. घेरण्डसंहिता, द्वितीयोपदेश २३ ७. पा.यो.द.व्यास-भाष्य,३।१–नाभिचक्रे ह्रदयपुण्डरीके मूर्ध्नि ज्योतिषि नासिअंगुष्ठाभ्यामवष्टभ्य धरां गुल्फे च खे गतौ । काग्रे जिह्वाग्र इत्येवमादिषु देशेषु, बाह्ये वा विषये चित्तस्य वृत्तिमात्रेण बन्ध इति तत्रोपरि गुदं न्यस्य, विज्ञेयमुत्कटासनम् ।। धारणा। २. ठाणं, ५१४२–पंच ठाणाई समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिगंथाणं, ८.भ.वृ.१16--'संजमेणं'ति संवरेणं । णिचं वण्णिताई, णिचं कित्तिताई, णिच्चं बुइयाई, णिच्चं पसत्थाई, णिच्चं अटभ- ६.(क) ठाणं, २।४५-४६-दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया णो केवलेणं संजमेण गुण्णाताई भवंति, तं जहा-ठाणातिए, उक्कुडुआसणिए, पडिमट्ठाई, संजमेजा, तं जहा–आरंभे चेव, परिगहे चेव । वीरासणिए, णेसज्जिए। दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया णो केवलेणं संवरेणं संवरेजा, तं जहा३. वही, ५।५०-पंच णिसिजाओ पण्णत्ताओ, तं जहा—उक्कु डुया, आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। गोदोहिया, सभपायपुता, पलियंका, अद्धपलियंका । (ख) वही, ३।१६६, १६७ तिहिं जामेहिं आया केवलेणं संजमेणं संजमेजा, ४. आ.चूला,१५।३८ सालरुक्खस्स अदूरसामंते, उक्कुडुयस्स, गोदोहियाए तं जहा—पढमे जामे, मज्झिमे जामे, पच्छिमे जामे। तिहिं जामेहिं आया आयावणाएं आयावेमाणस्स, छठेणं भत्तेणं अपाणएणं, उड्ढंजाणुअहोसिरस्स, केवलेणं संवरेणं संवरेजा, तं जहा.......। धम्मज्झाणोवगयस्स, झाणकोट्टोवगयस्स, सुक्कज्झाणंतरियाए वट्टमाणस्स, १०. जीतकल्प भाष्य,गा.११०७निव्वाणे, कसिणे, पडिपुण्णे, अव्याहए, णिरावरणे, अणते, अणुत्तरे, केवल- सं एगीभावम्मि, जमउवरम एगीभावउवरमणं । वरणाणदंसणे समुप्पण्णे। सम्म जमो वा संजमो, मणवइकायाण जमणं तु ।। ५. पा.यो.द.३ १,२–देशबन्धश्चित्तस्य धारणा। ११. स्था.वृ.प.१७-संव्रियते कर्मकारणं प्राणातिपातादि निरुध्यते येन परिणामेन तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् । स संवरः। ६. आप्टे.-कोष्ठ-Any one of the viscera of the body such १२. देखें,भ.२५ । ५५७६१६ | as the heart, lungs etc. Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.१: सू.१० २० भगवई वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता णचासन्ने नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा न अत्यासन्नः णातिदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे नातिदूरः शुश्रूषमाणः नमस्यन् अभिमुखः विणएणं पंजलियडे पञ्जुवासमाणे एवं विनयेन कृतप्राञ्जलिः पर्युपासीनः एव- वयासी मवादीत् महावीर को दाई ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा करते हैं, वन्दन-नमस्कार करते हैं, वन्दन-नमस्कार कर न अति निकट, न अति दूर शुश्रूषा और नमस्कार की मुद्रा में उनके सम्मुख सविनय बद्धाञ्जलि होकर पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले भाष्य १. गौतम के मन में एक श्रद्धा, एक संशय और एक कुतूहल जन्मा......प्रबलतम बना श्रद्धा का अर्थ है इच्छा, रुचि अथवा उत्सुकता।' पातञ्जल यह क्रम संगत लगता है। अतः इन चारों शब्दों को क्रमिक विकास योग-भाष्य में इसका अर्थ चित्त का संप्रसाद किया है। इसका अर्थ का द्योतक मानना अधिक संगत प्रतीत होता है।" विश्वास भी होता है, पर यहां वह प्रासंगिक नहीं है। संशय का २. दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा अर्थ है जिज्ञासा और कुतूहल का अर्थ है आश्चर्य। यह दर्शन के उद्भव की त्रिपदी है। किसी भी अज्ञात वस्तु के विषय में एक आदक्षिण-प्रदक्षिणा कृतिकर्म का एक प्रकार है। वृत्तिकार ने इच्छा पैदा होती है, फिर उसे 'जानने की इच्छा' पैदा होती है। इसका अर्थ किया है—दक्षिण हस्त से प्रारंभ कर चारों ओर प्रदक्षिणा तीसरी अवस्था में एक आश्चर्य का भाव उत्पन्न होता है। इस प्रक्रिया करना। से दर्शन का विकास हुआ है। प्लेटो और अरस्तु ने भी आश्चर्य प्राचीन काल में अपने इष्ट देव या गुरु के चारों ओर घूमकर की अवस्था में ज्ञान का अभ्युदय माना है। प्रस्तुत आगम में इस प्रदक्षिणा की जाती थी। उसका प्रारंभ गुरु के दाएं हाथ की ओर से त्रिपदी का अनेक बार प्रयोग हुआ है। होता और प्रदक्षिणा करने वाले के शरीर का दायां भाग निरन्तर गुरु जात, उत्पन्न, सज्जात और समुत्पन्न-ये चारों शब्द क्रमिक की ओर रहता। वृत्तिकार ने भी 'प्रदक्षिण' पद की व्याख्या के द्वारा विकास के सूचक प्रतीत होते हैं। जैसे बीज बोया जाता है, अंकुरित इसी बात की ओर संकेत किया है। इस प्रकार आदक्षिण और होता है, पौधा वृद्धिंगत होता है और अन्त में पूर्ण रूप से निष्पन्न । प्रदक्षिण दोनों पद परिक्रमा की विधि के सूचक बन जाते हैं। प्रदक्षिण हो जाता है, वैसे जात अर्थात् अस्तित्व में आना (जन्मा), उत्पन्न का अर्थ नमस्कार या सम्मान-पूर्ण व्यवहार भी है।” षट्खण्डागम में अर्थात् पैदा होना (उत्पन्न हुआ), सजात अर्थात् वृद्धिंगत होना। 'आदाहीणं पदाहीणं' पाठ मिलता है। 'आदाहीणं' का अर्थ आत्माधीनम् (बढ़ा), समुत्पन्न अर्थात् पूर्ण रूप से निष्पन्न होना (प्रबलतम बना)। किया गया है।" इस प्रसंग में इस अर्थ की संगति विमर्शनीय है। दिगम्बर सम्प्रदाय तथा दक्षिण भारत में प्रदक्षिणा की परम्परा आज वृत्तिकार के अनुसार 'जात' का अर्थ है-प्रवृत्त' और 'उत्पन्न' भी प्रचलित है। वर्तमान में श्वेताम्बर जैन परम्परा में इसका प्रचलन का अर्थ है—जो पहले नहीं था उसका होना। नहीं है। अभी वंदना के समय हाथों को बद्धांजलि कर दायीं ओर इस प्रकार यद्यपि 'उत्पन्न' पद को हेतु रूप मानकर अर्थ । से प्रारंभ कर तीन बार घुमाने की परम्परा प्रचलित है। यह आवर्त घटित करने का प्रयल किया गया है, फिर भी क्रम की दृष्टि से है, प्रदक्षिणा नहीं है, कृतिकर्म में बारह आवर्त किये जाते हैं।" १. भ.वृ.१1१०-श्रद्धा-इच्छा वक्ष्यमाणार्थं तत्वज्ञानं प्रति। २. पा.यो.द.व्यास-भाष्य, १।२०- श्रद्धा चेतसः संप्रसादः । ३. आप्टे.-जात-brought into existence; उत्पन्न----emerged (उत्+पत्= to emerge into view); सञ्जात-grown; समुत्पन्न(सम्+उत्+पत्=) spring up, rise. ४. भ.वृ.१।१०-जाता प्रवृत्ता। ५. वही,१1१०-उत्पन्ना-प्रागभूता सती भूता । ६. (क) भ.वृ.१।१०। (ख) भ.जो.प्रथम खण्ड,पृ. ४३ पादटिप्पण। ७. तुलना करें दसवे.७।३५॥ ८. भ.वृ.१।१०–आदक्षिणाद्-दक्षिणहस्तादारभ्य प्रदक्षिणाः---परितो भ्राम्य तो दक्षिण एव आदक्षिण-प्रदक्षिणः । ६. आप्टे.--प्रदक्षिणः, प्रदक्षिणा, प्रदक्षिणम्- Circumambulation from left to right so that the right side is always turned towards the person or object circumambulated, a reverential salutation made by walking in this manner. १०. वही--प्रदक्षिण-respecitul, reverential. ११.प.ख.पु.१३,खं.५,भा.४,सू.२८,पृ.८६-तमादाहीणं पदाहीणं तिक्खुत्तं...। १२. (क) सम. १२।३–दुवालसावत्ते कितिकम्मे पण्णत्ते [तं जहा--- दुओणयं जहाजायं, कितिकम्मं बारसावयं । चउसिरं तिगुत्तं च, दुपवेसं एगनिक्खमणं ॥१॥] (ख) ष.खं.धवला,पु.१३,खं.५,भा.४,सू.२८,पृ.८८-तियोणदं चदुसिरं बारसावत्तं तं सव्वं किरियाकम्मं णाम | Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २१ श.१: उ.१: सू.११-१२ चलमाण-पदं चलतू-पदम् चलमान-पद ११. से नूणं भंते ! चलमाणे चलिए ? उदी- अथ नूनं भदन्त ! चलत् चलितम् ? ११. भन्ते ! क्या चलमान चलित, उदीर्यमाण उदीरिजमाणे उदीरिए ? वेदिजमाणे वेदिए? उदीर्यमाणम् उदीरितम् ? वेद्यमानं वेदितम् ? रित, वेद्यमान वेदित, प्रहीयमाण प्रहीण, छिद्यमान पहिजमाणे पहीणे ? छिन्जमाणे छिण्णे ? प्रहीयमाणं प्रहीणम् ? छिद्यमानं छित्रम् ? छिन, भिद्यमान भित्र, दह्यमान दग्ध, म्रियमाण भिजमाणे भिण्णे ? दज्झमाणे दड्ढे ? भिद्यमानं भिन्नम् ? दह्यमानं दग्धम् ? मृत, निर्जीयमाण निर्जीर्ण होता है ? मिज्जमाणे मए ? निजरिजमाणे निजिण्णे? म्रियमाणं मृतम् ? निर्जीर्यमाणं निर्जीर्णम् ? । हंता गोयमा ! चलमाणे चलिए। उदीरि- हन्त गौतम ! चलत् चलितम्, उदीयमाणम् हां, गौतम ! चलमान चलित, उदीर्यमाण उदीरित, ज्जमाणे उदीरिए। वेदिजमाणे वेदिए। उदीरितम्, वेद्यमानं वेदितम्, प्रहीयमाणं वेद्यमान वेदित, प्रहीयमाण प्रहीण, छिद्यमान छिन्न, पहिजमाणे पहीणे। छिज्जमाणे छिण्णे। प्रहीणम्, छिद्यमानं छिन्नम्, भिद्यमानं भिन्नम्, भिद्यमान भिन्न, दह्यमान दग्ध, म्रियमाण मृत, भिजमाणे भिण्णे। दज्झमाणे दड्ढे । दह्यमानं दग्धम्, म्रियमाणं मृतम्, निर्जीयमाणं निर्जीयमाण निर्जीर्ण होता है। मिजमाणे मए। निजरिजमाणे निजिण्णे | निर्जीर्णम् । १२. एए णं भंते ! नव पदा किं एगट्ठा एते भदन्त ! नव पदाः किम् एकार्थाः १२. भन्ते ! क्या ये नव पद एकार्थक, नानाघोष नाणाघोसा नाणावंजणा ? उदाहु नाणट्ठा नानाघोषाः नानाव्यञ्जनाः ? उताहो नानार्थाः और नानाव्यञ्जन वाले हैं अथवा नाना-अर्थ, नाणाघोसा नाणावंजणा? नानाघोषाः नानाव्यञ्जनाः ? नानाघोष और नानाव्यञ्जन वाले हैं ? । गोयमा ! चलमाणे चलिए, उदीरिजमाणे गौतम ! चलत् चलितम्, उदीयमाणम् उदी- गौतम ! चलमान चलित, उदीयमाण उदीरित, उदीरिए, वेदिजमाणे वेदिए, पहिजमाणे रितम्, वेद्यमानं वेदितम्, प्रहीयमाणं वेद्यमान वेदित और प्रहीयमाण प्रहीण-ये चार पहीणे-एए णं चत्तारि पदा एगट्ठा प्रहीण-एते चत्वारः पदाः एकार्थाः नाना- पद उत्पाद-पक्ष की अपेक्षा से एकार्थक, नानाघोष नाणाघोसा नाणावंजणा उप्पण्णपक्खस्स। घोषाः नानाव्यञ्जनाः उत्पन्नपक्षस्य। और नानाव्यञ्जन वाले हैं। छिज्जमाणे छिण्णे, भिजमाणे भिण्णे, छिद्यमानं छिन्नम्, भिद्यमानं भिन्नम्, दह्यमानं छिद्यमान छिन्न, भिद्यमान भित्र, दह्यमान दग्ध, दज्झमाणे दडे, मिजमाणे मए, दग्धम्, म्रियमाणं मृतम्, निर्जीर्यमाणं निर्जीर्णम् म्रियमाण मृत और निर्जीयमाण निर्जीर्ण-ये पांच निजिरिजमाणे निजिण्णे-एए णं पंच पदा –एते पंच पदाः नानार्थाः नानाघोषाः नाना- पद व्यय-पक्ष की अपेक्षा से नाना-अर्थ, नानाघोष नाणवा नाणाघोसा नाणावंजणा विगय- व्यञ्जनाः विगतपक्षस्य । और नानाव्यञ्जन वाले हैं। पक्खस्स। भाष्य १. सूत्र ११,१२ प्रस्तुत आगम में गौतम के प्रश्न और महावीर के उत्तर की एक शृंखला है। उस शृंखला का यह पहला प्रश्न है। इसके नौ पद हैं। प्रत्येक पद का संबन्ध पुद्गल से है। कार्य की उत्पत्ति के दो प्रकार हैं- नैसर्गिक और प्रायोगिक। नैसर्गिक कार्य की उत्पत्ति का कालमान एक 'समय' (काल का अविभाज्य अंश) है। प्रायोगिक कार्य की उत्पत्ति का कालमान दीर्घ होता है। अस्तित्व (सत्) का लक्षण है उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य। उत्पाद और व्यय ये दोनों अस्थिरांश हैं, परिवर्तनचक्र के प्रतीक हैं। ध्रौव्य स्थिरांश है, वह अपरिवर्तनीय का प्रतिनिधित्व करता है। अस्तित्व परिवर्तनीय और अपरिवर्तनीय दोनों का समन्वय है। उसे प्राचीन शब्दावली में 'अस्तिकाय' और उत्तरकालीन (दार्शनिक युग की) शब्दावली में 'द्रव्य' कहा जाता है। द्रव्य का ध्रौव्यांश सदा अनुत्पन्न रहता है। पर्यायांश की दृष्टि से वह उत्पन्न और नष्ट होता रहता है। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यये तीनों अस्तित्वगत हैं, इसलिए वह त्रैकालिक है। प्रश्न उपस्थित हुआ कि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य-इन तीनों का काल अभिन्न है या भिन्न ? तीनों एक साथ होते हैं या भिन्न-भिन्न क्षणों में ? इस प्रश्न पर जैन दर्शन में नय-दृष्टि से विचार किया गया। आचार्य सिद्धसेन के अनुसार इन तीनों का काल अभिन्न भी है, और भिन्न भी।' १. सम्मति.३1३ तिण्णि वि उप्पायाई अभिण्णकाला य भिण्णकाला य । अत्यंतरं अणत्यंतरं च दवियाहि णायब्बा ॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १: उ.१: सू. ११-१२ क्रमवर्ती दो पर्यायों की दृष्टि से उत्पाद और व्यय समकालीन होते हैं। पूर्व पर्याय का अन्तिम बिन्दु और उत्तर पर्याय का आदि बिन्दु एक है। ठाणं के अनुसार चार अघात्य कर्मों के क्षय और आत्मा के सिद्ध होने का समय एक ही है, क्योंकि ये दोनों क्रमवर्ती पर्याय हैं।' पूर्व पर्याय का व्यय और उत्तर पर्याय का उत्पाद ज समय में होता है, उसी समय में वह वस्तु सामान्य रूप से स्थिर भी होती है । इस दृष्टि से उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य तीनों का एक काल माना जा सकता है। एक पर्याय की दृष्टि से उत्पाद और व्यय का काल भिन्न होता है । एक पर्याय की उत्पत्ति का आदि बिन्दु और अन्तिम बिन्दु भिन्न-भिन्न होते हैं। इसी प्रकार दोनों की काल-सीमाओं में रहने वाला द्रव्य भी भिन्न हो जाता है। इसे हम घट के उदाहरण से समझने का प्रयत्न करेंगे। एक घट बन रहा है। वह एक समग्र घट के रूप में उत्पद्यमान है—बन रहा है। जितने भाग में वह बन चुका है, उतने रूप में वह उत्पन्न है— बन गया है और जो भाग बनना शेष है, उसकी अपेक्षा से वह घट उत्पत्स्यमान है—बनने वाला है। उस उत्पद्यमान घट में जितने पूर्व पर्याय छोड़े जाते हैं, वे विगच्छत् नष्ट हो रहे हैं। जितना भाग बन चुका उतने पर्याय विगत — नष्ट हो चुके हैं। जो भाग बनना शेष हैं, उसके पर्याय विगमिष्यत् - नष्ट होने वाले हैं। इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य त्रैकालिक होता है। जैन दर्शन के अनुसार द्रव्य त्रैकालिक है और पर्याय वर्तमानकालिक है। यह परिणामी नित्यवाद का सिद्धान्त है। इसमें द्रव्य और पर्याय दोनों मान्य हैं। प्रस्तुत सूत्र द्रव्य के सामान्य पक्ष को गौण करके विशेष पक्ष को ग्रहण करने वाली नय-दृष्टि का सूत्र है । तत्त्वार्यराजवार्तिक और धवला में प्रस्तुत सिद्धान्त की व्याख्या ऋजुसूत्र के नय के दृष्टिकोण से है। ऋजुसूत्र वर्तमान पर्याय की सत्ता का प्रतिपादन करता है । 'पच्यमान पक्क' इसमें दो पक्ष हैं। पच्यमान वर्तमान है और पक्क १. ( क ) ठाणं, ४ । १४४ - पढमसमयसिद्धस्स णं चत्तारि कम्मंसा जुगवं खिज्जति, तं जहा वेयणिजं, आउयं, णामं गीतं । (ख) जयाचार्य, झीणी चरचा, ढाल १७, गा. ६ प्रथम समय नां सिद्ध च्यार कर्मा नां अंश खपावै रे । चौथे ठाणै प्रथम उद्देश, बुद्धिवंत न्याय मिलावे रे || २. सम्मति. ३ । ३६,३७ जो आउंचणकालो सो चेव पसारियस्स विण जुत्तो । तेसिं पुण पडिवत्ती — विगमे कालंतरं णत्थि | उप्पजमाणकालं उप्पण्णं ति विगयं विगच्छंतं । दवियं पण्णवयंतो तिकालविसयं विसेसेइ ॥ ३. (क) त. रा. वा. १1३३, पृ. ६७/ (ख) क. पा. प्रथम अधिकार, पृ. २०३,२०४ । ४. भ. वृ. १ 199 -- कथं पुनस्तद्वर्तमानं सदतीतं भवतीति ? अत्रोच्यते-यथा पट उत्पद्यमानकाले प्रथमतन्तुप्रवेशे उत्पद्यमान एवोत्पन्नो भवतीति, उत्पद्यमानत्वं च तस्य प्रथमतन्तुप्रवेशकालादारभ्य पट उत्पद्यते इत्येवं व्यपदेशदर्शनात् प्रसिद्धमेव उत्पन्नत्वं तूपपत्त्या प्रसाध्यते, तथाहि —उत्पत्तिक्रियाकाल एव २२ भगवई अतीत। ये दोनों विरोधी धर्म एक साथ कैसे हो सकते हैं ? आचार्य ने इस प्रश्न के समाधान में बताया है कि पचन-क्रिया के पहले अविभागी समय में वस्तु का कोई अंश पका या नहीं पका ? यदि नहीं पका तो वह दूसरे आदि समयों में भी नहीं पकेगा। इस पक्कअंश की अपेक्षा से यह 'पच्यमान पक्क' सिद्धान्त सही है। जितने अंश में वस्तु पक चुकी है, उसकी अपेक्षा से वह वस्तु पक्क है। उसका पूरा पाक नहीं हुआ है, इस अपेक्षा से वह पच्यमान भी है। ' अभयदेवसूरि ने इस सिद्धान्त को पट के उदाहरण से समझाया है। यदि प्रथम तंतु-प्रवेश के समय पट उत्पन्न नहीं होता है, तो फिर वह कभी उत्पन्न नहीं हो सकता तथा क्रिया की व्यर्थता सिद्ध होगी। आचार्य मलयगिरि ने भी क्रियमाण-कृत, अभ्यवह्रियमाण- अभ्यवहृत ( खाया जा रहा — खाया जा चुका) और परिणम्यमान-परिणत( जिसका परिणमन हो रहा है—परिणमन हो चुका ) इस सिद्धान्त की स्वीकृति ऋजुसूत्र नय द्वारा बतलाई है। ' प्रस्तुत दृष्टिकोण का निष्कर्ष यह है कि उत्पत्ति और विनाश की प्रक्रिया को समझने के लिए द्रव्य और पर्याय के संयुक्त रूप का स्वीकार आवश्यक है । केवल द्रव्य या केवल पर्याय के आधार पर उत्पत्ति या विनाश की व्याख्या नहीं की जा सकती । एक समय में एक द्रव्य में अनेक उत्पाद और विनाश होते हैं और अनेक ध्रौव्य भी होते हैं। 'चलमाणे चलिए' आदि नव पद हैं। इनमें पहले चार पद उत्पाद - पर्याय की अपेक्षा से और शेष पांच पद व्यय- पर्याय की अपेक्षा से बतलाए गए हैं। अभयदेवसूरि ने पहले चार पदों की व्याख्या 'केवलज्ञान' के उत्पाद की अपेक्षा से की है। इस व्याख्या में उन्होंने पूर्ववर्ती टीकाकार के मत का अनुसरण किया है। उनके अनुसार जो कर्म चलित होते हैं, उनकी ही उदीरणा होती है। उदीरित का ही वेदन होता है, और वेदित का ही क्षय होता है; प्रथमतन्तुप्रवेशेऽसावुत्पन्नः, यदि पुनर्नोत्पन्नोऽभविष्यत्तदा तस्याः क्रियाया वैयर्थ्यमभविष्यत् निष्फलत्वाद्, उत्पाद्योत्पादनार्था हि क्रियाः भवन्ति, यथा च प्रथमे क्रियाक्षणे नासावुत्पन्नस्तथोत्तरेष्वपि क्षणेष्वनुत्पन्न एवासौ प्राप्नोति, को ह्युत्तरक्षणक्रियाणामात्मनि रूपविशेषो ? येन प्रथमया नोत्पन्नस्तदुत्तराभिस्तुत्पाद्यते, अतः सर्वदैवानुत्पत्तिप्रसङ्गः, दृष्टा चोत्पत्तिः, अन्त्यतन्तुप्रवेशे पटस्य दर्शनात्, अतः प्रथमतन्तुप्रवेशकाल एव किञ्चिदुत्पन्नं पटस्य यावच्चोत्पन्नं न तदुत्तरक्रिययोत्पाद्यते, यदि पुनरुत्पाद्येत तदा तदेकदेशोत्पादन एव क्रियाणां कालानां च क्षयः स्यात्, यदि हि तदंशोत्पादननिरपेक्षा अन्याः क्रिया भवन्ति तदोत्तरांशानुक्रमणं युज्येत, नान्यथा । ५. प्रज्ञा.वृ. प. ५०६ इह प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनां करोति नयः ऋजुसूत्रो न शेषा नैगमादयः, ऋजुसूत्रश्च क्रियमाणं कृतं अभ्यवहियमाणमभ्यवहृतं परिणम्यमानं परिणतमभ्युपगच्छति । ६. सम्मति. ३ | ४१- एगसमयम्मि एकदवियस्स बहुया वि होंति उप्पाया । उप्पायसमा विगमा ठिईउ उस्सग्गओ नियमा Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २३ श.१: उ.१: सू.११-१३ इसलिए ये चार पद एकार्थक हैं-एक ही उत्पाद-पर्याय को सिद्ध करने वाले हैं।' अन्तिम पांच पद भिन्नार्थक हैं-व्यय-पर्याय के विभिन्न रूपों का प्रतिपादन करने वाले हैं। आचार्य अकलंक ने 'चलमाणे चलिए' सिद्धान्त की व्याख्या । ऋजुसूत्र नय के आधार पर की है। अभयदेवसूरि इसकी व्याख्या निश्चय नय के आधार पर करते हैं। उनका अभिमत यह है कि व्यवहार नय की दृष्टि से जो चलित हो गया, वह चलित कहलाता है। निश्चय नय की दृष्टि से चलत् भी चलित कहलाता है।' इस सिद्धान्त में पर्याय की प्रधानता है; इसलिए ऋजुसूत्र नय के साथ इसकी अधिक संगति है। अभयदेवसूरि ने इन नौ पदों की व्याख्या कर्म के आधार पर की है। उन्होंने मतान्तर का भी उल्लेख किया है। मतान्तर के द्वारा इन पदों की व्याख्या सामान्य रूप से की गई है। इसलिए इन्हें केवल कर्म के साथ नहीं जोड़ना चाहिए। दोनों अभिमतों की जानकारी के लिए निम्नांकित कोष्टक देखें वृत्ति का मत मतान्तर १. चलन २. उदीरण अस्थिर पर्याय स्थिर वस्तु को प्रेरित करना। ३. वेदन ४. प्रहाण ५. छेदन अकर्म-स्कन्धों का विपाक के अभिमुख होना, उदय में आना । आगामी काल में उदय में आने वाले कर्म का प्रयत्न के द्वारा उदय में प्रक्षेपण करना। उदय में आए हुए कर्म-स्कन्धों का वेदन करना। जीव-प्रदेशों से कर्म-स्कन्धों का पृथक् होना। स्थितिबन्ध का छेदन, स्थिति का अल्पीकरण | अनुभाग का भेदन, कर्म के रस का मन्दीकरण। कर्मस्कन्धों का प्रज्वलन। आयुष्य के कर्म-स्कन्धों का समापन | समस्त कर्म-स्कन्धों का जीव-प्रदेशों से पृथक् होना।' ६. भेदन ७. दहन ८. मरण ६. निर्जरा कम्पमान पर्याय। गिरना स्थान से च्युत होना। कुठार आदि से होने वाला छेदन। खण्डखण्ड किया जाने वाला भेदन पर्याय । अग्नि के द्वारा होने वाली ज्वलन-क्रिया। प्राण-त्याग। पृथग्भवन अथवा बहुत पुराना होना। इस क्रियाकाल और निष्ठाकाल (सम्पन्नता-काल) के अभेद के सिद्धान्त का प्रस्तुत आगम में अनेक बार प्रयोग किया गया है११३७१ में यह 'क्रियमाण कृत' के रूप में उल्लिखित है। ११४४२,४३ में यह सिद्धान्त पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष के रूप में निरूपित है। ६२२८ में जमाली ने इस सिद्धान्त के प्रति विप्रतिपत्ति प्रकट की है। १२।१५६-१६१ में यह सिद्धान्त 'उपपद्यमान उत्पन्न' के रूप में प्रतिपादित हुआ है। शब्द-विमर्श एकार्यक-एक अर्थ या प्रयोजन वाले। नानार्थक-भिन्न अर्थ या प्रयोजन वाले। नानाघोष-विभिन्न उदात्त आदि घोषों से युक्त। नानाव्यञ्जन विभिन्न अक्षरों से युक्त । नेरइयाणं ठितिआदि-पदं नैरयिकाणां स्थित्यादि-पदम नैरयिकों की स्थिति आदि का पद १३. नेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता? गोयमा ! जहण्णेणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता॥ नैरयिकाणां भदन्त ! कियन्तं कालं स्थितिः १३. भन्ते ! नरयिक जीवों की स्थिति कितने काल प्रज्ञप्ता ? की प्रज्ञप्त है ? गौतम ! जघन्यतः दश वर्षसहस्राणि, उत्क- गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष, उत्कृष्ट तेतीस र्षतः त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि स्थितिः सागरोपम की स्थिति प्रज्ञप्त है। प्रज्ञप्ता। १. म.वृ.१।१२-एषां च पदानामेकार्थानामपि सतामयमर्थः सामर्थ्यप्रापितक्रमः, ३. वही,११२ न च वक्तव्यं किमेतैश्चलनादिभिरिह निरूपितैः ? अतत्त्व यदुत-पूर्व तचलति-उदेतीत्यर्थः, उदितं च वेधते अनुभूयत इत्यर्थः । तच्च रूपत्वादेषाम् । अतत्त्वरूपत्वस्यासिद्धत्वात् तदसिद्धिश्च निश्चयनयमतेन वस्तुद्विधा–स्थितिक्षयादुदयप्राप्तं उदीरणया चोदयमुपनीतं, ततश्चानुभवानन्तरं तत् स्वरूपस्य प्रज्ञापयितुमारब्धत्वात्, तथाहि-व्यवहारनयश्चलितमेव चलितमिति प्रहीयते, दत्तफलत्वाचीवादपयातीत्यर्थः । एतम टीकाकारमतेन व्याख्यातम् । मन्यते, निश्चयनयस्तु चलदपि चलितमिति । २. वही,१।१२-छिद्यमानपदे हि स्थितिखण्डनं विगम उक्तः, भिधमानपदे ४. वही, १।१२–अन्ये तु कर्मेतिपदस्य सूत्रेऽनभिधानाचलनादिपदानि सामान्येन त्वनुभावभेदो विगमः, दह्यमानपदे त्वकर्मताभवनं विगमः, म्रियमाणपदे पुनरायुः- व्याख्यान्ति, न कम्मपिक्षयैव । कर्माभावो विगमः, निर्जीयमाणपदे त्वशेषकर्माभावो विगम उक्तः । तदेवमेतानि ५. वही, १।११,१२ । विगतपक्षस्य प्रतिपादकानीत्युच्यन्ते। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१ : उ.१: सू.१४,१५ २४ भगवई १४. नेरइया णं भंते ! केवइकालस्स आणमंति वा ? पाणमंति वा ? ऊससंति वा? णीससंति वा ? जहा उस्सासपदे ।। नैरयिकाः भदन्त ! कियत्कालाद् आनन्ति वा? १४. भन्ते ! नैरयिक जीव कितने काल से आन, अपानन्ति वा ? उच्छ्वसन्ति वा ? निःश्व- अपान तथा उच्छ्वास और निःश्वास करते हैं?' सन्ति वा? यथा उच्छ्वासपदे। यह पण्णवणा के 'उच्छ्वास-पद' (७) की भांति वक्तव्य है। भाष्य १. आन, अपान तथा उच्छ्वास और निःश्वास करते हैं व्याकरण की दृष्टि से अन् और श्वस दोनों एकार्थक धातुएं का निर्देश है। हैं-अन-श्वसुक्-प्राणने। इस आधार पर आमंति और ऊससंति को 'पण्णवणा' सूत्र में कहा गया है कि नैरयिक जीव निरन्तर दोहरा प्रयोग कहा जा सकता है। सूत्र-रचनाशैली के अनुसार इस श्वासोच्छ्वास लेते हैं, क्योंकि वे अत्यन्त दुःखी हैं। जो अत्यन्त प्रकार के दोहरे प्रयोग अनेक स्थानों पर मिलते हैं। दुःखी होता है, वह निरन्तर श्वास लेता है और निरन्तर श्वास छोड़ता आन का अर्थ है-श्वास लेना' और अपान का अर्थ है। श्वासोच्छ्वास-प्राण की क्रिया के लिए 'आनमन्ति पाणमन्ति' का है-'श्वास छोड़ना।' वृत्तिकार के अनुसार इन्हीं दोनों पदों को स्पष्ट तथा श्वासोच्छ्वास की क्रिया के लिए 'ऊससंति नीससंति' का प्रयोग करने के लिए उच्छ्वास और निःश्वास पद का प्रयोग हुआ है। किया गया है। वृत्तिकार ने वैकल्पिक रूप में आनमन्ति की णमु धातु से संबंध-योजना प्राण और श्वास दोनों में गहरा सम्बन्ध है। श्वास के साथ प्राण-तत्त्व का आकर्षण होता है। श्वास लेते समय प्राण-शक्ति और कुछ आचार्यों के मतानुसार श्वासोच्छ्वास दो प्रकार का होता श्वास छोड़ते समय अपान-शक्ति सक्रिय रहती है। इसलिए है-आध्यात्मिक (आन्तरिक) श्वासोच्छ्वास और बाह्य श्वासोच्छ्- उच्छ्वास-निःश्वास की आन्तरिक शक्ति को आनापान और बाहरी वास। आध्यात्मिक श्वास, निःश्वास को आन, अपान तथा बाह्य को शक्ति को उच्छ्वास-निःश्वास कहा जाता है। आधुनिक वैज्ञानिक उच्छ्वास, निःश्वास कहा जाता है। अवधारणा में ऑक्सीजन का ग्रहण और कार्बन-डाइऑक्साइड का ___व्यावहारिक भाषा में प्राण और श्वास दोनों एकार्थक माने निष्कासन फुप्फुस में भी होता है और शरीर की कोशिकाओं में भी जाते हैं, किन्तु वास्तव में दोनों एक नहीं हैं। प्राण हमारी जीवनी-शक्ति होता है। फुप्फुस और कोशिकाओं के भीतर होने वाली ये क्रियाएं है और श्वास वायुमण्डल से लिए जाने वाले श्वास-वर्गणा के पदगल क्रमशः बाह्य और आन्तरिक शक्ति की प्रक्रियाएं हैं। इनकी क्रमशः हैं। प्रस्तुत सत्र में श्वासोच्छवास-प्राण और श्वासोच्छवास इन दोनों उच्छ्वास-निःश्वास और आनापान के साथ तुलना की जा सकती है। की है। १५. नेरइया णं भंते ! आहारट्ठी? नैरयिकाः भदन्त ! आहारार्थिनः? हंता गोयमा ! आहारट्ठी। जहा पण्णवणाए पढमए आहारुद्देसए तहा भाणियवं हन्त गौतम ! आहारार्थिनः । यथा प्रज्ञापनायां प्रथमकः आहारोद्देशकः तथा भणितव्यः । १५. भन्ते ! क्या नैरयिक जीव आहार की इच्छा करते हैं ? हां, गौतम ! वे आहार की इच्छा करते हैं। यह पण्णवणा के 'आहार-पद' (२८) के प्रथम उद्देशक की भांति वक्तव्य है। संगहणी गाहा संग्रहणी गाथा संग्रहणी गाथा ठिई उस्सासाहारे, किं वाऽऽहारेंति सवओ वावि, कतिभागं सवाणि व, कीस व भुजो परिणमंति ?॥१॥ स्थितिः उच्छ्वासाहारी, किं वाऽऽहरन्ति सर्वतो वापि। कतिभागं सर्वाणि वा, कीदृशं वा भूयः परिणमन्ति ? ।। नैरयिकों की स्थिति कितनी है ? वे कितने काल से उच्छ्वास लेते हैं ? क्या वे आहार के इच्छुक हैं ? वे किस प्रकार का आहार करते हैं ? वे सब आत्म-प्रदेशों से आहार करते हैं ? वे कितने भाग का आहार करते हैं ? वे आहार-परिणामयोग्य सब पुद्गलों का आहार करते हैं ? वे उसका किस रूप में परिणमन करते हैं ? १. आप्टे.-आन-Inhalation अपान—Breathing out. २. भ.वृ.१।१४ –अथवा आनमन्ति प्राणमन्तीति ‘णमु प्रत्ये' इत्यस्यानेकार्थत्वेन श्वसनार्थत्वात्। ३. पण्ण. ७।१ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श.१: उ.१: सू.१६-२१ १६. नेरइयाणं भंते ! पुवाहारिया पोग्गला नैरयिकाणां भदन्त ! पूर्वाहताः पुद्गलाः १६. 'भन्ते ! क्या नैरयिक जीवों के पूर्वगृहीत परिणया? परिणताः ? पुद्गल परिणत हुए हैं ? आहारिया आहारिजमाणा पोग्गला परि- आहृताः आह्रियमाणाः पुद्गलाः परिणताः ? पूर्वगृहीत और गृह्यमाण पुद्गल परिणत हुए हैं ? णया ? अणाहारिया आहारिजिस्समाणा पोग्गला अनाहताः आहरिष्यमाणाः पुद्गलाः परि- पूर्वअगृहीत और भविष्य में गृह्यमाण पुद्गल परिणया? णता:? परिणत हुए हैं ? अणाहारिया अणाहारिजिस्समाणा पोग्गला अनाहताः अनाहरिष्यमाणाः पुद्गलाः। पूर्वअगृहीत और भविष्य में अगृह्यमाण पुद्गल परिणया ? परिणता? परिणत हुए हैं ? गौतम ! नैरयिकाणां पूर्वाहृताः पुद्गलाः परि- गौतम ! नैरयिक जीवों के पूर्वगृहीत पुद्गल परिणया। णताः। परिणत हुए हैं। आहारिया आहारिजमाणा पोग्गला परिणया आहृताः आह्रियमाणाः पुद्गलाः परिणताः । पूर्वगृहीत और गृह्यमाण पुद्गल परिणत हुए और परिणमंति य। परिणमन्ति च। परिणत हो रहे हैं। अणाहारिया आहारिजिस्समाणा पोग्गला अनाहताः आहरिष्यमाणाः पुद्गलाः नो। पूर्वअगृहीत और भविष्य में गृह्यमाण पुद्गल णो परिणया, परिणमिस्संति। परिणताः, परिणस्यन्ति। परिणत नहीं हुए हैं, किन्तु वे परिणत होंगे। अणाहारिया अणाहारिजिस्समाणा पोग्गला अनाहताः अनाहरिष्यमाणाः पुद्गलाः नो। पूर्वअगृहीत और भविष्य में अगृह्यमाण पुद्गल णो परिणया, णो परिणमिस्संति ।। परिणताः, नो परिणस्यन्ति। परिणत नहीं हुए हैं और परिणत नहीं होंगे। १७. नेरइयाणं भंते ! पुवाहारिया पोग्गला नैरयिकाणां भदन्त ! पूर्वाहृताः पुद्गलाः १७. भन्ते ! क्या नैरयिक जीवों के पूर्वगृहीत पुद्गल चिया? पुच्छाचिताः ? पृच्छा चित हुए हैं ? यह प्रश्न है। जहा परिणया तहा चिया वि।। यथा परिणताः तथा चिताः अपि । जैसे परिणत का सूत्र है, चित का सूत्र भी वैसे ही वक्तव्य है। १५. एवं उवचिया, उदीरिया, वेइया, निजि- प्रणा। एवम् उपचिताः, उदीरिताः, वेदिताः, नि- १८. इसी प्रकार उपचित, उदीरित, वेदित और जीर्णाः। निर्जीर्ण वक्तव्य हैं। संग्रहणी गाथा संगहणी गाहा परिणय चिया उवचिया उदीरिया वेइया य निजिण्णा। एकेक्कम्मि पदम्मि, चउबिहा पोग्गला होति ॥१॥ संग्रहणी गाथा परिणताः चिताः उपचिताः, उदीरिताः वेदिताश्च निर्जीर्णाः। एकैकस्मिन् पदे, चतुर्विधाः पुद्गलाः भवन्ति ॥ परिणत, चित, उपचित, उदीरित, वेदित और निर्जीर्ण- इनमें से प्रत्येक पद में पुद्गल के पूर्वोक्त चार भंग होते हैं। १६. नेरइयाणं भंते ! कइविहा पोग्गला भिजं- नैरयिकाणां भदन्त ! कतिविधाः पुद्गलाः १६. भन्ते ! नैरयिक जीवों के पुदगलों का भेदन भिद्यन्ते ? कितने प्रकार का होता है ? गोयमा ! कम्मदव्ववग्गणमहिकिच दुविहा गौतम ! कर्मद्रव्यवर्गणामधिकृत्य द्विविधाः गौतम ! कर्म-पुद्गल-वर्गणार की अपेक्षा से पोग्गला भिजंति, तं जहा-अणू चेव, पुद्गलाः भिद्यन्ते, तद् यथा-अणवश्चैव, पुद्गलों का भेदन दो प्रकार का होता है, जैसे बादरा चेव ॥ बादराश्चैव। -अणु और बादर। २०. नेरइयाणं भंते ! कइविहा पोग्गला नैरयिकाणां भदन्त ! कतिविधाः पुद्गलाः २०. भन्ते ! नैरयिक जीवों के पुद्गलों का चय चिजंति? चीयन्ते ? कितने प्रकार का होता है ? गोयमा ! आहारदब्बवग्गणमहिकिच्च दुविहा गौतम ! आहारद्रव्यवर्गणामधिकृत्य द्विविधाः गौतम ! आहार-पुद्गल-वर्गणा की अपक्षा से पोग्गला चिजंति, तं जहा–अणू पुद्गलाः चीयन्ते, तद् यथा—अणवश्चैव, पुद्गलों का चय दो प्रकार का होता है, जैसेबादरा चेव ॥ बादराश्चैव। अणु और बादर। २१. एवं उवचिजंति ॥ एवम् उपचीयन्ते। २१. इसी प्रकार उपचय वक्तव्य है। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.१: सू.१६-२४ २६ भगवई २२. नेरइया णं भंते ! कइविहे पोग्गले उदी- नैरयिकाः भदन्त ! कतिविधान् पुद्गलान् २२. भन्ते ! नैरयिक जीव पुद्गलों की उदारणा रेति ? उदीरयन्ति ? कितने प्रकार की करते हैं ? गोयमा ! कम्मदव्ववग्गणमहिकिच दुविहे गौतम ! कर्मद्रव्यवर्गणामधिकृत्य द्विविधान् गौतम ! कर्म-पुद्गल-वर्गणा की अपेक्षा से दो पोग्गले उदीरेंति, तं जहा–अणू चेव, पुद्गलान् उदीरयन्ति, तद् यथा अणूंश्चैव, प्रकार के पुद्गलों की उदीरणा करते हैं, जैसेबादरा चेव ।। वादरांश्चैव। अणु और बादर। २३. सेसा वि एवं चेव भाणियबा-वेदेति, निजरेंति॥ शेषाः अपि एवं चैव भणितव्याः-वेदयन्ति, २३. शेष सूत्र भी इसी प्रकार वक्तव्य हैं—वेदन निर्जीरयन्ति। करते हैं, निर्जरा करते हैं। २४. एवं ओयडेसु, ओयडेति, ओयट्टिस्संति। करेंगे। संकामिंस, संकाति, संकामिस्संति। निहत्तिंसु, निहत्तेंति, निहत्तिस्संति। एवम् अपावर्तिषत, अपवर्तन्ते, अपवर्ति- २४. इसी प्रकार अपवर्तन किया था, करते हैं और ष्यन्ते। समक्रामिषुः, संक्रामन्ति, संक्रमिष्यन्ति। संक्रमण किया था, करते हैं और करेंगे। अनिधत्तयिषुः, निधत्तयन्ति, निधत्तयि- निधत्तन किया था, करते हैं और करेंगे। ष्यन्ति। अनिकाचयिषः, निकाचयन्ति, निकाचयि- निकाचन किया था, करते हैं और करेंगे। ष्यन्ति। संग्रहणी गाथा संग्रहणी गाथा निकाएंसु, निकायंति, निकाइस्संति। संगहणी गाहा भेदिया चिया उवचिया, उदीरिया वेदिया य निजिण्णा। ओयट्टणसंकामणनिहत्तणनिकायणे तिविहकालो॥१॥ भेदिताः चिताः उपचिताः, उदीरिताः वेदिताश्च निर्जीर्णाः । अपवर्तनसंक्रमणनिधत्तननिकाचनानि त्रिविधकालः ।। भेदित, चित, उपचित, उदीरित, वेदित, निजीर्ण, अपवर्तन, संक्रमण, निधत्तन और निकाचन-- इन पदों के साथ अतीत, वर्तमान और अनागत तीनों काल वक्तव्य हैं। भाष्य १. सूत्र १६-२४ सोलहवें सूत्र से चौबीसवें सूत्र तक कुछ विशिष्ट शब्द प्रयुक्त हुए हैं—परिणमन, भेद, चय, उपचय, उदीरणा, वेदना, निर्जरा, अपवर्तना, उद्वर्तना, संक्रमण, निधत्ति और निकाचना। परिणमन अवस्थान्तर होना। भेद-पृथक् होना। चय, उपचय–वृद्धि, अतिवृद्धि । उदीरणा आदि सभी पद कर्न-पुद्गलों से सम्बद्ध हैं उदीरणा—जो कर्म-पुद्गल अनुदित हैं, उनका परिणामविशेष के द्वारा उदय-प्राप्त कर्मदलिकों में प्रक्षेप कर देना। वेदना-उदय-प्राप्त कर्म-पुद्गलों का जब तक उनका अनुभाग। या रसविपाक समाप्त न हो जाए, तब तक अनुभव करना। निर्जरा-वेदना के पश्चात पदगलों का जीव-प्रदेशों से पृथक होना। भोगे हुए पुद्गल वेदित और पृथक् हुए पुद्गल निर्जीर्ण कहलाते हैं। अपवर्तना----वीर्यविशेष के द्वारा कर्म की स्थिति और अनुभाग को कम करना। ___उद्वर्तना–वीर्यविशेष के द्वारा कर्म की स्थिति और अनुभाग को बढ़ा देना। संक्रमण-वीर्यविशेष के द्वारा सजातीय कर्म-प्रकृतियों का एक दूसरे में संक्रान्त होना। इसमें प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशये चारों एक रूप से दूसरे रूप में संक्रान्त हो जाते हैं। जैसे कोई व्यक्ति सातवेदनीय कर्म का अनुभव कर रहा है, उस समय उसके अशुभ कर्म की परिणति प्रबल हो गई; परिणामस्वरूप सातवेदनीय असातवेदनीय में संक्रान्त हो गया।' ___संक्रमण के कुछ अपवाद हैं—आयुष्य कम की चार उत्तर प्रकृतियों का परस्पर संक्रमण नहीं होता। इसी प्रकार मोह कर्म की १.भ.वृ.१।२४-यथा कस्यचित् सद्वेद्यमनुभवतोऽशुभकर्मपरिणतिरेवंविधा जाता येन तदेव सद्वद्यमसद्वेद्यतया संक्रामतीति । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २७ श.१: उ.१: सू.१६-२४ मुख्य दो प्रकृतियां-दर्शनमोह और चारित्रमोह का भी परस्पर संक्रमण नहीं होता। निपत्ति–वीर्यविशेष के द्वारा कर्म को उद्वर्तना और अपवर्तना के अतिरिक्त शेष करणों के अयोग्य बना देना। निकाचना-वीर्यविशेष के द्वारा कर्म को उस अवस्था में व्यवस्थापित करना, जो उद्वर्तना आदि किसी भी करण के द्वारा बदला न जा सके; जो अवश्य भोगा जाए।' कर्मशास्त्र में बन्धन, संक्रमण, उद्वर्तना , अपवर्तना, उदीरणा, उपशामना, निधत्ति और निकाचना ये आठ करण माने जाते हैं।' प्रस्तुत प्रकरण में अपवर्तना, संक्रमण, निधत्ति और निकाचना इन चार करणों का उल्लेख है। वृत्तिकार ने उपलक्षण से उद्वर्तना का ग्रहण किया है। _इस विषय की विशेष जानकारी के लिए ठाणं, ४।२६०-२६६, के टिप्पण ७०-७६ द्रष्टव्य हैं। महावीर का दर्शन आत्मवादी दर्शन है। आत्मवादी दर्शन के तीन मुख्य फलित हैं-१. पुरुषार्थवाद २. कर्मवाद ३. पुनर्जन्मवाद । पुरुषार्थवाद ईश्वर-कर्तृत्व का अस्वीकार है। ईश्वर कर्तृत्व और पुरुषार्थ दोनों की एक-साथ सार्थकता सिद्ध नहीं होती। यदि ईश्वर-कर्तृत्व है तो पुरुषार्थ व्यर्थ होगा और यदि पुरुषार्थ की सार्थकता है, तो ईश्वर-कर्तृत्व अर्थहीन बन जाएगा। ईश्वर-कर्तृत्व के आधार पर प्राणी-जगत में होने वाले परिवर्तनों की व्याख्या नहीं की जा सकती; इसलिए भगवान् महावीर ने पुरुषार्थ के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। यह आत्म-कर्तृत्ववाद है। प्रत्येक आत्मा अपने वीर्य के द्वारा कुछ करता है और उसका परिणाम भुगतता है। आत्मा के द्वारा जो कुछ किया जाता है वह कर्म है। कर्म का एक अर्थ है प्रवृत्ति और उसका दूसरा अर्थ है प्रवृत्ति के द्वारा आत्मा के साथ कर्मप्रायोग्य पुद्गलों का बंध या संबंध। पुरुषार्थवाद और कर्मवाद में विरोध प्रतीत होता है। यदि प्राणी जगत् में होने वाला परिवर्तन कर्म के द्वारा सम्पादित होता है, तो पुरुषार्थ की व्यर्थता सिद्ध होगी और यदि वह पुरुषार्थ के द्वारा सम्पादित होता है, तो कर्म की व्यर्थता हो जायेगी। इस विरोध का भगवान् महावीर ने परिहार किया। उनका दर्शन है कि कर्म पुरुषार्थ के द्वारा किया जाता है। पुरुषार्थ कर्म के द्वारा नहीं किया जाता । इसलिए प्राणी-जगत में होने वाले परिवर्तन का मूल हेतु पुरुषार्थ है। कर्म उसका गौण हेतु है। पुरुषार्थ के द्वारा किये हुए कर्म को भी बदला जा सकता है। प्रस्तुत सूत्र में बदलने के चार नियम निर्दिष्ट हैं-उदीरणा, अपवर्तना, उद्वर्तना और संक्रमण । पुरुषार्थ की भी सीमा है। उसके द्वारा सब कुछ नहीं किया जा सकता। कुछ कर्म अपरिवर्तनीय भी हैं, जैसे—निकाचित कर्म परुषार्थ के द्वारा बदला नहीं जा सकता। इस प्रकार प्रस्तुत सूत्र में पुरुषार्थ और कर्म की सीमा-विषयक एक नया दृष्टिकोण उपलब्ध होता है। वह यह है कि पुरुषार्थ और कर्म दोनों सापेक्ष हैं। कर्म सर्वशक्तिसम्पन्न नहीं है। पुरुषार्थ के द्वारा उसमें परिवर्तन किया जा सकता है। पुरुषार्थ भी सर्वशक्तिसम्पन्न नहीं है। निकाचित कर्म को बदलने के लिए वह अकिञ्चित्कर हो जाता है। इसलिए दोनों की शक्ति सापेक्ष है, कहीं कर्म बलवान् है और कहीं पुरुषार्थ । बौद्ध साहित्य में निर्ग्रन्थों के मुंह से संक्रमण-विरोधी तथा परिवर्तन-विरोधी बातें कहलाई गई हैं, जैसे—“और फिर भिक्षुओ! मैं उन निगंठों को ऐसा कहता हूं तो क्या मानते हो आवुसो ! निगंठो ! जो यह इसी जन्म में वेदनीय (भोगा जाने वाला) कर्म है, वह उपक्रम से (या प्रधान से) संपराय (दूसरे जन्म में) वेदनीय किया जा सकता है ?' 'नहीं, आवुस !' और जो यह जन्मान्तर (संपराय) वेदनीय कर्म है, वह-उपक्रम से (या प्रधान से) इस जन्म में वेदनीय किया जा सकता है ? 'नहीं,आवुस ! 'तो क्या मानते हो, आवुसो ! निगंठो ! जो यह सुख-वेदनीय (सुख भोग करने वाला) कर्म है, क्या वह उपक्रम से (या प्रधान से) दुःखवेदनीय किया जा सकता है ? 'नहीं,आवुस ! 'तो क्या मानते हो, आवुसो निगंठो ! जो यह दुःख वेदनीय कर्म है, क्या वह उपक्रम से (या प्रधान से) सुख-वेदनीय किया जा सकता है ? 'नहीं, आवुस !' 'तो क्या मानते हो आवसो ! निगंठो ! जो यह अवेदनीय कर्म है, क्या उपक्रम से (या प्रधान से) वेदनीय किया जा सकता है?' 'नहीं, आवुस !' 'तो क्या मानते हो आवसो ! निगंठो ! जो यह परिपक्क अवस्था (बुढ़ापा) वेदनीय कर्म है, क्या वह उपक्रम से (या प्रधान से) अपरिपक्व वेदनीय किया जा सकता है ?' 'नहीं,आवुस ! तो क्या मानते हो आवुसो ! निगंठो ! जो यह अपरिपक्क (शैशव,जवानी) वेदनीय कर्म है, क्या वह उपक्रम से (या प्रधान से) परिपक्व-वेदनीय किया जा सकता है ? 'नहीं, आवुस ! 'तो क्या मानते हो आवुसो ! निगंठो ! जो यह बहु-वेदनीय कर्म है. क्या वह उपक्रम से (या प्रधान से) अल्प-वेदनीय किया जा उवसामणा निहत्ती निकायणा चत्ति करणाई ॥ ३. भ.वृ.१।२४-अपवर्तनस्य चोपलक्षणत्वादुद्वर्तनमपीह दृश्य, तच्च स्थित्या देवृद्धिकरण-स्वरूपम्। १. भ.वृ.१1१६ २. कर्मप्रकृति, बंधनकरण, गा.२-- बंधणसंकमणुव्वट्टणा य अवचट्टणा उदीरणया। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.१: सू.१६-२४ २८ भगवई सकता है ? पौद्गलिक वर्गणाओं के मुख्य आठ प्रकार हैं-१. औदारिक 'नहीं, आवुस ! वर्गणा २. वैक्रिय वर्गणा ३. आहारक वर्गणा ४. तैजस वर्गणा ५.भाषा वर्गणा ६. श्वासोच्छ्वास वर्गणा ७. मनोवर्गणा ८. कार्मण 'तो क्या मानते हो आबुसो ! निगठो ! जो यह अल्प-वेदनीय वर्गणा। कर्म है, क्या वह उपक्रम से (या प्रधान से) बहु-वेदनीय किया जा सकता है ? इस प्रकार वर्गणाओं के अनेक प्रकार हैं। 'नहीं, आवुस !' ४. आहार-पुद्गल-वर्गणा 'इस प्रकार आवुसो ! निगंठो ! जो यह वेदनीय कर्म है, क्या औदारिक, वैक्रिय और आहारक इन तीन शरीरों तथा छहों वह उपक्रम से (या प्रधान से ) अवेदनीय किया जा सकता है?' पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों के ग्रहण का नाम आहार है। यह आचार्य "नहीं, आवुस!' अकलंक की परिभाषा है। पञ्चसंग्रह के अनुसार औदारिक आदि तीन शरीरों की वर्गणा तथा भाषावर्गणा और मनोवर्गणा के योग्य 'ऐसा होने पर आयुष्मान् निगंठों का उपक्रम निष्फल हो जाता पुद्गलों को ग्रहण करने वाला आहारक कहलाता है। इस परिभाषा है, प्रधान निष्फल हो जाता है।'' के अनुसार भाषा और मनोवर्गणा के पुद्गलों का ग्रहण करना भी २. सूत्र १६ आहार है। इससे यह फलित होता है कि आहारक की व्याख्या में सूत्र १६ से आगे अनेक सूत्रों में अणु और बादर शब्द का ___ आहार शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में हुआ है। प्रयोग हुआ है। अणु का अर्थ है सूक्ष्म और बादर का अर्थ है 'कर्म प्रकृति' में तीन शरीर की वर्गणा के ग्रहण को आहार स्थूल । कर्म-पुद्गल चतुःस्पर्शी होने के कारण सूक्ष्म होते हैं, उनकी बतलाया गया है। स्थूल परिणति नहीं होती। आहार-द्रव्य के पुद्गल अष्टस्पर्शी होने के ये परिभाषाएं ओज आहार की अपेक्षा से की गई हैं। कारण केवल स्थूल होते हैं,उनकी सूक्ष्म परिणति नहीं होती। इस जो खाया-पिया जाता है, वह आहार है, यह सामान्य धारणा अवस्था में कर्म-पुद्गलों को स्थूल और आहार-पुद्गलों को सूक्ष्म सापेक्ष है। विमर्श करने पर इसका अर्थ बहुत व्यापक है। आहार के चार दृष्टि से कहा गया है। वृत्तिकार ने उस अपेक्षा का स्पष्टीकरण किया प्रकार हैं-ओज आहार, लोम आहार, प्रक्षेप आहार, मनोभक्ष्य है। उसके अनुसार कर्म-द्रव्य की सूक्ष्मता और स्थूलता कर्मपुद्गलों की अपेक्षा से है, किसी अन्य पदार्थ की अपेक्षा से नहीं। इसी आहार।" ओज आहार तैजस और कर्म-शरीर के द्वारा ग्रहण किया प्रकार आहार-पुद्गलों की सूक्ष्मता और स्थूलता भी स्ववर्गणा की जाता है। कोई प्राणी मृत्यु के पश्चात् दूसरे जन्म-स्थल में पहुंचकर अपेक्षा से है, किसी अन्य पदार्थ की अपेक्षा से नहीं। सर्वप्रथम आहार लेता है, वह ओज आहार कहलाता है।" उस समय उस प्राणी के स्थूल शरीर नहीं होता, इसलिए वह तैजस शरीर ३. कर्म-पुद्गल-वर्गणा और उसके सहवर्ती कर्म शरीर के द्वारा ग्रहण किया जाता है। वर्गणा का अर्थ है समान जाति वाले तत्त्वों का वर्गीकरण। औदारिक या वैक्रिय शरीर के निष्पत्तिकाल में औदारिक मिश्र या जीव और पुद्गल दोनों की अपनी-अपनी वर्गणाएं होती हैं। ठाणं । वैक्रिय मिश्र का योग भी उसमें प्राप्त होता है।" औदारिक या वैक्रिय में इसका विशद वर्णन मिलता है। वहां पहले जीवों की अनेक शरीर की पर्याप्ति पूर्ण होने के पश्चात् प्राणियों के लोम आहार होता वर्गणाएं बतलाई गई हैं।' उसके पश्चात परमाण और स्कन्धों की है। यह त्वचा (स्पर्शनेन्द्रिय) के द्वारा जीवनपर्यन्त निरन्तर गृहीत वर्गणाएं निर्दिष्ट हैं।" होता है। प्रक्षेप आहार मुख के द्वारा गृहीत होने वाला आहार है। १. मज्झिम निकाय, देवदत्तसुत्त, ३।१।१। २. भ.वृ.१1१६-ततश्चाणवश्च बादराश्च, सूक्ष्माश्च स्थूलाश्चेत्यर्थः। सूक्ष्मत्वं स्थूलत्वं चैषां कर्मद्रव्यापेक्षयैवावगन्तव्यं, नान्यापेक्षया, यत औदारिकादि द्रव्याणां मध्ये कर्मद्रव्याण्येव सूक्ष्माणीति । ३. ठाणं,१1१४१२२६। ४. वही,१।२३०२४७। ५. वि.भा.गा.६२७–ओराल-विउब्बाहार-तेय-भासाणपाण-मण-कम्मे। ६. कर्मप्रकृति,१६,२० अग्गहणंतरियाओ, तेयगभासामणे य कम्मे च । धुवअधुवअच्चित्ता, सुत्रा चउअंतरेसुप्पिं ।। पत्तेगतणुसु बायर-सुहभनिगोए तहा महाखंधे। गुणनिष्फत्रसनामो, असंखभागंगुलवगाहो ।। ७. त.रा.वा.२।३०।४,पृ.१४० -त्रयाणां शरीराणां षण्णां पर्याप्तीनां योग्य पुद्गलग्रहणमाहारः। . पं.सं.(दि.)१ । १७६ - आहारइ सरीराणं तिण्हं एक्कदरवग्गणाओ य। भासा मणस्स णिययं तम्हा आहारओ भणिओ।। ६. कर्मप्रकृति,गा.१५-~ ......आहारगवग्गणा तितणू॥ १०. पण्ण.२८/१०२-१०५। ११. प्रज्ञा.वृ.प.५१०-ओजः उत्पत्तिदेश आहारयोग्यपुद्गलसमूहः । १२. सूत्र.वृ.प.८७-तैजसेन शरीरेण तत्सहचरितेन च कार्मणेनाभ्यां द्वाभ्यामप्याहारयति यावदपरमौदारिकादिकं शरीरं न निष्पद्यते, तथा चोक्तम् तेएण कम्मएणं आहारेइ अणंतरं जीवो। तेण परं मिस्सेणं जाव सरीरस्स निष्फत्ती ।। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २६ श.१: उ.१: सू.१६-२७ मनोभक्ष्य आहार मानसिक संकल्प के द्वारा सम्पन्न होता है।' आहार शरीर के चय और उपचय का कारण है। यहां उसकी दृष्टि से ही चय और उपचय का विचार किया गया है। अनाहार के समय बहुत कम होते हैं। कोई भी प्राणी अधिक अनाहारक नहीं रह सकता।' २५. नेरइया णं भंते ! जे पोग्गले तेया- कम्मत्ताए गेहंति, ते किं तीतकालसमए गेहंति ? पडुप्पन्नकालसमए गेहंति ? अणागयकालसमए गेहंति ? नैरयिकाः भदन्त ! यान् पुद्गलान् तैजसक- २५.भन्ते ! नैरयिक जीव तैजस और कर्म शरीर मतया गृह्णन्ति, तान् किम् अतीतकालसमये के रूप में जिन पुद्गलों को ग्रहण करते हैं, क्या गृह्णन्ति ? प्रत्युत्पन्नकालसमये गृह्णन्ति ? उन्हें अतीत काल-समय में ग्रहण करते हैं? अनागतकालसमये गृह्णन्ति ? वर्तमान काल-समय में ग्रहण करते हैं ? भविष्य काल-समय में ग्रहण करते हैं ? गौतम ! नो अतीतकालसमये गृह्णन्ति, प्रत्यु- गौतम ! अतीत काल-समय में ग्रहण नहीं करते, त्पन्नकालसमये गृह्णन्ति, नो अनागतकाल- वर्तमान काल-समय में ग्रहण करते हैं, भविष्य समये गृह्णन्ति। काल-समय में ग्रहण नहीं करते । गोयमा ! नो तीयकालसमए गेहंति, पड़प्पनकालसमए गेण्हंति, नो अणागय- कालसमए गेहंति ॥ २६. नेरइया णं भंते ! जे पोग्गले तेया- नैरयिकाः भदन्त ! यान् पुद्गलान् तैजस- २६. भन्ते ! नैरयिक जीव तैजस और कर्म-शरीर कम्मत्ताए गहिए उदीरेति, ते कि तीयकाल- कर्मतया गृहीतान् उदीरयन्ति, तान् किम् के रूप में गृहीत जिन पुद्गलें की उदीरणा करते समयगहिए पोग्गले उदीरति ? पडुप्पत्र- अतीतकालसमयगृहीतान् पुद्गलान् उदीरय- हैं, क्या अतीत काल-समय में गृहीत उन पुद्गलों कालसमए घेप्पमाणे पोग्गले उदीरेंति ? ति ? प्रत्युत्पन्नकालसमये गृह्यमाणान् की उदीरणा करते हैं ? क्या वर्तमान काल-समय गहणसमयपुरक्खडे पोग्गले उदीरेंति ? पुद्गलान् उदीरयन्ति ? ग्रहणसमयपुरस्कृतान् में गृह्यमाण पुद्गलों की उदीरणा करते हैं ? क्या पुद्गलान् उदीरयन्ति ? ग्रहण-समय के पुरोवर्ती (ग्रहीष्यमाण) पुद्गलों की उदीरणा करते हैं ? गोयमा ! तीयकालसमयगहिए पोग्गले गौतम ! अतीतकालसमयगृहीतान् पुद्गलान् गौतम ! अतीत काल-समय में गृहीत- पुद्गलों उदीरेंति, नो पडुप्पत्रकालसमए घेप्पमाणे उदीरयन्ति, नो प्रत्युत्पत्रकालसमये गृह्यमाणान् । की उदीरणा करते हैं, वर्तमान काल-समय में पोग्गले उदीरेंति, नो गहणसमयपुरक्खडे पुद्गलान् उदीरयन्ति, नो ग्रहणसमय- गृह्यमाण पुद्गलों की उदीरणा नहीं करते, पोग्गले उदीरेंति॥ पुरस्कृतान् पुद्गलान् उदीरयन्ति । ग्रहण-समय के पुरोवर्ती (ग्रहीष्यमाण) पुद्गलों की उदीरणा नहीं करते। २७. एवं वेदेति, निजरेति ॥ एवं वेदयन्ति, निर्जीर्यन्ति। २७. इसी प्रकार वेदन और निर्जरण करते हैं। भाष्य १. सूत्र २५-२७ ___ संसारी जीव के साथ दो शरीर-तैजस और कार्मण अनादि काल से जुड़े हुए हैं। शरीर-संरचना की प्रकृति यह है कि पहले ग्रहण किए हुए पुद्गलों का पृथक्करण और नए पुद्गलों का ग्रहण होता रहता है। पचीसवें सूत्र में पुद्गल के ग्रहण का नियम प्रतिपादित है। पुद्गल का ग्रहण केवल वर्तमान काल में होता है, अतीत और भविष्य काल में नहीं होता। उदीरणा, वेदना और निर्जरा के नियम इससे भिन्न हैं। उदीरणा अतीत काल में गृहीत पुद्गलों की ही होती है, गृह्यमाण और ग्रहीष्यमाण पुद्गलों की नहीं होती। वेदना और निर्जरा का भी यही नियम है। २. काल-समय काल एक अखण्ड प्रवाह है। समय उसकी सूक्ष्मतम इकाई १. पण्ण.२८/१०५-देवा सब्वे जाव वेमाणिया ओयाहारा वि मणभक्खी वि। तत्थ णं जेते मणभक्खी देवा तेसि णं इच्छामणे समुप्पज्जइ-इच्छामो णं मणभक्खणं करित्तए। तए णं तेहिं देवेहिं एवं मणसीकते समाणे खिप्पामेव जे पोग्गला इट्ठा कंता पिया सुभा मणुण्णा मणामा ते तेसिं मणभक्खत्ताए परिणमंति, से जहाणामए-सीता पोग्गला सीयं पप्प सीयं चेव अतिवतित्ताणं चिट्ठति, उसिणा वा पोग्गला उसिणं पप्प उसिणं चेव अतिवतित्ताणं चिट्ठति, एवामेव तेहिं देवेहि मणभक्खणे से इच्छामणे खिप्पामेव अवेति । २. भ.वृ.१।२०–आहारदब्बवागणमहिगिच्चेति यदुक्तं तत्रायमभिप्राय:-शरीरमाश्रित्य चयोपचयौ प्राग् व्याख्यातौ, तौ चाहारद्रव्येभ्य एव भवतो नान्यतः, अत आहारद्रव्यवर्गणामधिकृत्येत्युक्तमिति। ३. द्रष्टव्य भ.७।१। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.१: सू.२५-३१ भगवई है। वृत्तिकार ने काल और समय की शाब्दिक मीमांसा की है। काल का अर्थ है कृष्ण और समय का अर्थ है सिद्धान्त या आचार। काल और समय का प्रयोग कर सूत्रकार ने यह सूचित किया है कि यहां समय का सम्बन्ध काल से है, सिद्धान्त या आचार से नहीं और काल का सम्बन्ध समय से है, कृष्ण वर्ण से नहीं।' शब्द-विमर्श प्रत्युत्पत्र-वर्तमान। पुरस्कृत-पुरस्कृत का अर्थ है वर्तमान समय का पुरोवर्ती समय। इसका तात्पर्यार्थ है ग्रहीष्यमाण। २५. नेरइया णं भंते ! जीवाओ किं चलियं कम्मं बंधंति ? अवलियं कम्मं बंधंति? नैरयिकाः भदन्त ! जीवात् किं चलितं कर्म २६.भन्ते ! नैरयिक जीव क्या जीव-प्रदेशों से बध्नन्ति ? अचलितं कर्म बध्नन्ति ? चलित कर्म का बन्ध करते हैं अथवा अचलित कर्म का बंध करते हैं ? गौतम ! नो चलितं कर्म बध्नन्ति, अचलितं गौतम ! वे चलित कर्म का बन्ध नहीं करते, कर्म बध्नन्ति। अचलित कर्म का बन्ध करते हैं। गोयमा ! नो चलियं कम्मं बंधति, अचलियं कम्मं बंधंति॥ २६. नेरइया णं भंते ! जीवाओ किं चलियं कम्मं उदीरेंति ? अचलियं कम्मं उदीरेंति? नैरयिकाः भदन्त ! जीवात् किं चलितं कर्म २६. भन्ते ! नैरयिक जीव क्या जीव-प्रदेशों से उदीरयन्ति ? अचलितं कर्म उदीरयन्ति ? चलित कर्म की उदीरणा करते हैं अथवा अचलित कर्म की उदीरणा करते हैं ? गौतम ! नो चलितं कर्म उदीरयन्ति, अचलितं गौतम ! वे चलित कर्म की उदीरणा नहीं करते, कर्म उदीरयन्ति । अचलित कर्म की उदीरणा करते हैं। गोयमा ! नो चलियं कम्मं उदीरेंति, अचलियं कम्मं उदीरेंति॥ ३०. एवं वेदेति, ओयडेति, सं निहत्तेंति, निकाएंति॥ एवं वेदयन्ति, अपवर्तन्ते, संक्रामन्ति, ३०. इसी प्रकार अचलित कर्म का वेदन, अपवर्तन, निधत्तयन्ति, निकाचयन्ति। संक्रमण, निधत्तन और निकाचन करते हैं। ३१. नेरइया णं भंते ! जीवाओ किं चलियं नैरयिकाः भदन्त ! जीवात् किं चलितं कर्म ३१. भन्ते ! नैरयिक जीव क्या जीव-प्रदेशों से कम्मं निजरेंति? अचलियं कम्मं निजरेंति? निर्जीर्यन्ति ? अचलितं कर्म निर्जीर्यन्ति ? चलित कर्म की निर्जरा करते हैं अथवा अचलित कर्म की निर्जरा करते हैं ? गोयमा ! चलियं कम्मं निजरेंति, नो गौतम ! चलितं कर्म निर्जीयन्ति, नो अचलितं गौतम ! वे चलित कर्म की निर्जरा करते हैं, अचलियं कम्मं निजरेंति ।। कर्म निर्जीर्यन्ति। अचलित कर्म की निर्जरा नहीं करते । संग्रहणी गाथा संग्रहणी गाथा संगहणी गाहा बंधोदयवेदोयट्टसंकमे तह निहत्तणनिकाए। अचलिय-कम्मं तु भवे, चलियं जीवाउ निजरए॥१॥ बन्धोदयवेदापवर्तसंक्रमाः तथा निधत्तननिकाचौ। अचलित-कर्म तु भवेत्, चलितं जीवान् निर्जीर्येत् ॥ बन्ध, उदय, वेदन, अपवर्तन, संक्रमण, निधत्तन और निकाचन जीव-प्रदेशों से अचलित कर्म का होता है तथा निर्जरा जीव-प्रदेशों से चलित कर्म की होती है। भाष्य १. सूत्र २८-३१ यहां 'चलित' और 'अचलित' शब्द का प्रयोग सापेक्ष है। जीव-प्रदेशों के द्वारा गृहीत होकर जो कर्म-पुद्गल स्थित हो जाते हैं, वे अचलित हैं और जो स्थिर अवस्था को छोड़कर प्रकम्पित हो जाते हैं, वे चलित कहलाते हैं।" जीव कर्म-पुद्गलों का ग्रहण करता है, तब वे चलित ही होते हैं। ग्रहण के पश्चात् जीव-प्रदेशों में स्थित होकर वे अचलित हो जाते हैं। इस अपेक्षा से बन्ध-अवस्था को अचलित कहा गया है। उदीरणा, वेदना, अपवर्तन, संक्रमण, निधत्ति और निकाचना ये सब १. भ. वृ. ११२५–कालरूपः समयो न तु समाचाररूपः। कालोऽपि समयरूपो न तु वर्णादिस्वरूप इति परस्परेण विशेषणात् कालसमयः। २. भ. वृ. १।२६ ग्रहणसमयः पुरस्कृतो वर्तमानसमयस्य पुरोवर्ती येषां ते ग्रहणसमयपुरस्कृताः प्राकृतत्वादेवं निर्देशः, अन्यथा पुरस्कृतग्रहणसमया इति स्याद्, ग्रहीष्यमाणा इत्यर्थः । ३.वही.१।२८-जीवप्रदेशेभ्यश्चलितं तेष्वनवस्थानशीलं तम्। तदितरत्त्वचलि | Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई कर्म-पुद्गलों की अचलित अथवा जीव- प्रदेशों से संयुक्त अवस्थाएं हैं। जीव- प्रदेशों से विचलित कर्म-प्रदेशों का निर्जरण होता है, इस अपेक्षा निर्जरा विचलित कर्म-पुद्गलों की ही होती है। ठाणं में पुद्गल जीव- प्रदेशों से अचलित २. उदय बन्ध उदीरणा वेदना अपवर्तन संक्रमण निधत्ति निकाचना निर्जरा ३२. एवं ठिई आहारो य भाणियव्वो । ठिती जहा ठितिपदे तहा भाणियब्वा सव्यजीवाणं । आहारो वि जहा पण्णवणाए पढमे आहारुद्देस तहा भाणियब्बो, एत्तो आढत्तो-नेरइया णं भंते ! आहारट्ठी ? जाव दुक्खत्ताए भुजो भुजो परिणमति ॥ आरंभ - अणारंभ-पदं ३३. जीवा णं भंते! किं आयारंभा ? परारंभा ? तदुभयारंभा ? अणारंभा ? गोयमा ! अत्येगइया जीवा आयारंभा वि, रंभा वि, तदुभारंभा वि, णो अणारंभा । अत्येगइया जीवा नो आया रंभा, नो परारंभा, नो तदुभयारंभा, अणारंभा ॥ ३४. से केणद्वेणं भंते! एवं बुधइ – अत्थे - इया जीवा आयारंभा वि, परारंभा वि, तदुभयारंभा वि, णो अणारंभा ? अत्येगइया है ॥ " " सूत्र-पाठ में 'उदीरण' शब्द का प्रयोग और संग्रहणी गाथा में 'उदय' शब्द का प्रयोग हुआ है। वृत्तिकार के अनुसार 'उदय' शब्द ॥ नहीं ३१ श. १ : उ.१: सू.२८-३४ के चलित होने के दस कारण बतलाए गए हैं। उनमें निर्जरा के समय पुद्गल के चलित होने का उल्लेख मिलता है। ' देखें यन्त्र जीव- प्रदेशों से चलित नहीं १. भ. वृ. १ । ३१ – निर्जरा तु पुद्गलानां निरनुभावीकृतानामात्मप्रदेशेभ्यः सातनम् । सा च नियमाच्चलितस्य कर्म्मणो नाचलितस्येति । २. ठाणं, १० । ६ – दहिं ठाणेहिं अच्छिष्णे पांगले चलेञ्जया...... णिञ्जरिञ्जभाणे एवं स्थितिः आहारश्च भणितव्यौ । स्थितिः --यथा स्थितिपदे तथा भणितव्या सर्वजीवानाम् । आहारोऽपि यथा प्रज्ञापनायां प्रथमः आहारोद्देशकः तथा भणितव्यः, इतः आरब्धः--नैरयिकाः भदन्त ! आहारार्थिनः ? यावद् दुःखत्वेन भूयो भूयः परिणमन्ति । आरम्भ- अनारम्भ-पदम् जीवाः भदन्त ! किम् आत्मारम्भाः ? परारम्भाः ? तदुभयारम्भाः ? अनारम्भाः ? गौतम ! अस्त्येकके जीवाः आत्मारम्भाः अपि, परारम्भाः अपि तदुभयारम्भाः अपि नो अनारम्भाः । अस्त्येकके जीवाः नो आत्मारम्भाः, नो परारम्भाः नो तदुभयारम्भाः अना रम्भाः । तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यतेअस्त्येकके जीवाः आत्मारम्भाः अपि परारम्भाः अपि तदुभयारम्भाः अपि नो अना И 11 के द्वारा 'उदीरणा' का ग्रहण अपने आप हो जाता है। ' || 11 है ३२. इसी प्रकार स्थिति और आहार वक्तव्य हैं। 'स्थिति-पद' में जो स्थिति निर्दिष्ट है, सब जीवों की स्थिति वैसे ही वक्तव्य है। आहार भी प्रज्ञापना के 'आहार पद' के प्रथम उद्देशक की भांति वक्तव्य है-भन्ते ! क्या नैरयिक जीव आहार की इच्छा करते हैं ? यहां से प्रारंभ कर यावत् गृहीत पुद्गलों को दुःख रूप में पुनः-पुनः परिणत करते हैं, यहां तक वक्तव्य है। आरम्भ- अनारम्भ-पद ३३. ' भन्ते ! जीव क्या आत्मारम्भक हैं ? परारम्भक हैं ? उभयारम्भक हैं ? अनारम्भक हैं ? गौतम ! कुछ जीव आत्मारम्भक भी हैं, परारम्भक भी हैं, उभयारम्भक भी हैं, अनारम्भक नहीं हैं। कुछ जीव न आत्मारंभक हैं, न परारम्भक हैं, न उभयारम्भक हैं, अनारम्भक हैं। ३४. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा हैकुछ जीव आत्मारम्भक भी हैं, परारम्भक भी हैं, उभयारम्भक भी हैं, अनारम्भक नहीं हैं ? कुछ वा चलेजा ॥ ३. भ.वृ. १ । ३१ - उदयशब्देनोदीरणा गृहीतेति । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १: उ.१: सू. ३३, ३४ जीवा नो आयारंभा, नो परारंभा, नो तदुभयारंभा, अणारंभा ? गोयमा ! जीवा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - संसारसमावण्णगा य असंसारसमा - वण्णगा य । तत्य णं जेते असंसारसमावण्णगा, ते णं सिद्धा । सिद्धा णं नो आयारंभा नो परारंभा, नो तदुभयारंभा, अणारंभा । तत्थ णं जेते संसारसमावण्णगा, ते दुबिहा पण्णत्ता, तं जहा -संजया य असंजया य । तत्थ णं जेते संजया ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - पमत्तसंजया य अप्पमत्तसंजया य । तत्य णं जेते अप्पमत्तसंजया, ते णं नो आयारंभा, नो परारंभा, नो तदुभयारंभा, अणारंभा । तत्थ णं जेते पमत्तसंजया, ते सुहं जोगं पडुच नो आयारंभा, नो परारंभा, नो तदुभयारंभा, अणारंभा । असुभं जोगं पडुच्च आयारंभा वि, परारंभा वि, तदुभयारंभा वि, नो अणारंभा । तत्थ णं जेते असंजया, ते अविरतिं पडुच्च आयारंभा वि परारंभा वि, तदुभयारंभा वि, नो अणारंभा । से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ - अत्येगइया जीवा आयारंभा बि, परारंभा वि, तदुभयारंभा वि, नो अणारंभा । अत्येगइया जीवा नो आयारंभा, नो परारंभा, नो तदुभयारंभा, अणारंभा ॥ ३२ रम्भाः ? अस्त्येकके जीवाः नो आत्मारम्भाः, नो परारम्भाः, न तदुभयारम्भाः, अनारम्भाः ? गौतम ! जीवाः द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा —संसारसमापन्नकाश्च असंसारसमापन्नकाश्च । यत्र ये एते असंसारसमापन्नकाः, ते सिद्धाः । सिद्धाः नो आत्मारम्भाः, नो परारम्भाः, नो तदुभयारम्भाः, अनारम्भाः । तत्र ये एते संसारसमापन्नकाः, ते द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा संयताश्च असंयताश्च । तत्र ये एते संयतास्ते द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा— प्रमत्तसंयताश्च अप्रमत्तसंयताश्च । तत्र ये एते अप्रमत्तसंयताः, ते नो आत्मारम्भाः, नो परारम्भाः, नो तदुभयारम्भाः, अनारम्भाः । तत्र ये एते प्रमत्तसंयताः, ते शुभं योगं प्रतीत्य नो आत्मारम्भाः, नो परारम्भाः, नो तदुभयारम्भाः, अनारम्भाः। अशुभं योगं प्रतीत्य आत्मारम्भाः अपि परारम्भाः अपि, तदुभयारम्भाः अपि नो अनारम्भाः । तत्र ये एते असंयताः, ते अविरतिं प्रतीत्य आत्मारम्भाः अपि परारम्भाः अपि तदुभयारम्भाः अपि, नो अनारम्भाः । तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते—अस्त्येकके जीवाः आत्मारम्भः अपि परारम्भाः अपि तदुभयारम्भाः अपि, नो अनारम्भाः । अस्त्येकके जीवाः नो आत्मारम्भाः, नो परारम्भाः, नो तदुभयारम्भाः, अनारम्भाः । भाष्य १. सूत्र ३३, ३४ 'आरम्भ' शब्द का सामान्य अर्थ है प्रवृत्ति का प्रारम्भ । शब्दकोष में इसके अनेक अर्थ उपलब्ध होते है— जैसे प्रस्तुति, शुरु, कार्य, प्रयत्न, अभिमान, वध, उत्पत्ति, उपक्रम, तीव्रता आदि । धर्मग्रंथों में इसका अर्थ है— हिंसा । वैदिक काल में 'आलम्भ' का प्रयोग पशुबलि के अर्थ में होता था । 'रलयोरेकत्वम्' इस न्याय के आधार पर उत्तरवर्ती साहित्य में आरम्भ का प्रयोग हिंसा के अर्थ में होने लगा । अभयदेवसूरि ने आरम्भ का अर्थ 'जीवों का उपघात या उपद्रवण' किया है। उनकी दृष्टि में इस शब्द का प्रयोग सामान्यतः १. भ. वृ. १ । ३३ – आरम्भो जीवोपघातः उपद्रवणमित्यर्थः, सामान्येन वाश्रवद्वारप्रवृत्तिः । भगवई जीवन आत्मारम्भक हैं, न परारम्भक हैं, न उभयारम्भक हैं, अनारम्भक हैं? गौतम! जीव दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे—संसारसमापन्न और असंसारसमापन्न । जो असंसारसमापन्न हैं, वे सिद्ध हैं। सिद्ध न आत्मारम्भक हैं, न परारम्भक हैं, न उभयारम्भक हैं, अनारम्भक हैं। जो संसारसमापन्न जीव हैं, वे दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे—संयत और असंयत। जो संयत हैं, वे दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे—प्रमत्त संयत और अप्रमत्त संयत । जो अप्रमत्त संयत हैं, वे न आत्मारम्भक हैं, न परारम्भक हैं, न उभयारम्भक हैं, अनारम्भक हैं। जो प्रमत संयत हैं, वे शुभयोग की अपेक्षा न आत्मारम्भक हैं, न परारम्भक हैं, न उभयारम्भक हैं, अनारम्भक हैं। अशुभ योग की अपेक्षा वे आत्मारम्भक भी हैं, परारम्भक भी हैं, उभयारम्भक भी हैं, अनारम्भक नहीं हैं। जो असंयत हैं, वे अविरति की अपेक्षा आत्मारम्भक भी हैं, परारम्भक भी हैं, उभयारम्भक भी हैं, अनारम्भक नहीं हैं। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है कुछ जीव आत्मारम्भक भी हैं, परारम्भक भी हैं, उभयारम्भक भी हैं, अनारम्भक नहीं हैं। कुछ जीवन आत्मारम्भक हैं, न परारम्भक हैं, न उभयारम्भक हैं, अनारम्भक हैं। प्रत्येक आश्रवद्वार की प्रवृत्ति के लिए किया जा सकता है। ' प्रस्तुत प्रकरण में 'आरम्भ' शब्द का प्रयोग अविरति (अव्रत) और योग आश्रव के संदर्भ में हुआ है - " असुमं जोगं पहुच आयारंभा वि ।” “अविरतिं पडुच्च आयारंभा वि । " तात्पर्य में हिंसा आदि आश्रवों के दो रूप फलित होते हैं— अविरति और अशुभ योग — दुष्प्रवृत्ति । देखें, यन्त्र Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३३ श.१: उ.१: सू.३३,३४ प्राणातिपात अविरति आत्मारम्भ दुष्प्रवृत्ति मृषावाद अविरति दुष्प्रवृत्ति अदत्तादान मैथुन अविरति दुष्प्रवृत्ति अविरति दुष्प्रवृत्ति अविरति दुष्प्रवृत्ति दुष्प्रवृत्ति परिग्रह व्रती की अनारम्भ विरति सत्प्रवृत्ति फलितार्थ की भाषा में अव्रती जीव अनारम्भ या अहिंसक नहीं हो सकता। व्रती शुभयोग की अवस्था में अनारम्भ हो सकता है। वह अशुभ योग की अवस्था में अनारम्भ नहीं हो सकता। ३४वें सूत्र में आध्यात्मिक दृष्टि से जीवों का वर्गीकरण किया गया है जीव सिद्ध संसारी सयत असंयत प्रमत्त संयत अप्रमत्त संयत इसी शतक के ६७वें सूत्र में मनुष्यों का वर्गीकरण मिलता है। वह इससे कुछ विकसित है मनुष्य सम्यग्दृष्टि मिथ्यादृष्टि सम्यग्मिथ्यादृष्टि संयत असयत संयतासंयत सराग संयत वीतराग संयत प्रमत्त संयत अप्रमत्त संयत उपर्युक्त सूत्र में सम्यग्दृष्टि मनुष्य के तीन प्रकार बतलाए गए हैं-संयत, असंयत और संयतासंयत।' इस आधार पर जयाचार्य ने प्रश्न उपस्थित किया—यहां जीवों के संयत और असंयत दो भेद बतलाए गए हैं। संयतासंयत का समावेश किसमें किया जाए-संयत में या असंयत में ? इसके समाधान में उन्होंने लिखा—यहां संयत के दो भेद किए गए हैं--प्रमत्त संयत और अप्रमत्त संयत। इनमें संयतासंयत का समावेश नहीं हो सकता। उसके अविरति आश्रव विद्यमान है, इस अपेक्षा से उसका समावेश असंयत में किया जा सकता है।' पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च में संयतासंयत भी होते हैं। उन्हें अविरति की अपेक्षा से 'सारम्भ' बतलाया गया है। इसी प्रकार संयता १. भ.१।६७-तत्थ णं जेते सम्मदिट्टी ते तिविहा पण्णत्ता, तं जहा संजया, अस्संजया, संजयासंजया। २. भ.जो.91५1१५१ संसारी ना किया दोय भेद, संजती असंजती सुवेद । संजतासंजती कियो नाह्यो, हिवै श्रावक किण माहे आयो ? || संजती ना वे भेद सुतस्थ, प्रमत्त संजती नै अप्रमत्त। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.१: सू.३३-३८ ३४ भगवई संयत मनुष्य का भी अविरति के कारण असंयत में समावेश होता। केवल मायाप्रत्यया क्रिया होती है। प्रमत्तसंयति में छहों लेश्याएं होती हैं। अप्रमत्तसंयति में केवल तीन प्रशस्त लेश्याएं ही होती हैं।' प्रमत्त संयत और अप्रमत्त संयत शुभ-योग और अशुभ योग शरीर, वाणी और मन की प्रवृत्ति आश्रव के पांच प्रकार हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय को योग कहा जाता है। मोहनीय कर्म के उदय से निष्पन्न प्रवृत्तियों और योग। जो संयति प्रमाद आश्रव की विद्यमानता में साधना करता से युक्त होकर वह अशुभ बन जाता है और उससे वियुक्त होकर है, वह प्रमत्तसंयति कहलाता है। इस संयति में अप्रमाद समग्रता से वह शुभ बनता है। नहीं होता, इसलिए वह अशुभ प्रवृत्ति भी कर लेता है। अप्रमत्तसंयति अविरति की साधना सर्वात्मना जागरूकतापूर्ण होती है; इसलिए वह अशुभ जीव के आन्तरिक अध्यवसायों में एक अव्यक्त आकांक्षा प्रवृत्ति नहीं करता। प्रमत्तसंयति के दो क्रियाएं होती हैं---आरम्भिकी विद्यमान रहती है, वह अविरति है। सारी आकांक्षाएं उसी की और मायाप्रत्यया। अप्रमत्तसंयति के आरम्भिकी क्रिया नहीं होती, अभिव्यक्ति हैं। ३५. नेरइया णं भंते ! किं आयारंभा ? परारंभा ? तदभयारंभा? अणारंभा ? गोयमा ! नेरइया आयारंभा वि, परारंभा वि, तदुभयारंभा वि, नो अणारंभा॥ नैरयिकाः भदन्त ! किं आत्मारम्भाः ? ३५. भन्ते ! नैरयिक जीव क्या आत्मारम्भक हैं ? परारम्भाः ? तदुभयारम्भाः ? अनारम्भाः ? परारम्भाः ? तदभयारम्भाः ? अनारम्भाः ? परारम्भक हैं ? उभयारम्भक हैं ? अनारम्भक हैं? परारम्भक हैं गौतम ! नैरयिकाः आत्मारम्भाः अपि, गौतम ! नैरयिक जीव आत्मारम्भक भी हैं, परारम्भाः अपि, तदुभयारम्भाः अपि, नो परारम्भक भी हैं, उभयारम्भक भी हैं, अनारम्भक अनारम्भाः । नहीं है। ३६. से केणटेणं? गोयमा ! अविरतिं पडुच्च। से तेणटेणं गोयमा ! एवं बुचइ–नेरइया आयारंभा वि, परारंभा वि, तभयारंभा वि, नो अणारंभा ॥ तत् केनार्थेन ? गौतम ! अविरतिं प्रतीत्य। तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते नैरयिकाः आत्मारम्भाः अपि, परारम्भाः अपि, तदुभयारम्भाः अपि, नो अनारम्भाः । ३६. यह किस अपेक्षा से है ? गौतम ! अविरति की अपेक्षा से। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है—नैरयिक जीव आत्मारम्भक भी हैं, परारम्भक भी हैं, उभयारम्भक भी हैं, अनारम्भक नहीं हैं। ३७. एवं जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिया। एवं यावत् पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः। ३७. इस प्रकार यावत् पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक मणुस्सा जहा जीवा, नवरं-सिद्धविरहिया मनुष्याः यथा जीवाः, नवरं सिद्धविरहिताः नैरयिक की भांति वक्तव्य हैं। मनुष्य जीव की भाणियबा। वाणमंतरा, जोइसिया, भणितव्याः। वानमन्तराः, ज्योतिषिकाः, भांति वक्तव्य हैं। केवल इतना अन्तर है कि वेमाणिया जहा नेरइया॥ वैमानिकाः यथा नैरयिकाः। मनुष्य के प्रकरण में सिद्ध (असंसारसमापन्न) का सूत्र वक्तव्य नहीं है। वानमंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव नैरयिक की भांति वक्तव्य हैं। ३८. सलेस्सा जहा ओहिया। कण्हलेसस्स, सलेश्याः यथा औधिकाः। कृष्णलेश्यस्य, ३८. लेश्यायुक्त जीव सामान्य जीव' की भांति नीललेसस्स, काउलेसस्स जहा ओहिया नीललेश्यस्य, कापोतलेश्यस्य यथा औधिकाः वक्तव्य हैं। कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतजीवा, नवरं--पमत्ताप्पमत्ता न भाणि- जीवाः, नवरं-प्रमत्ताप्रमत्ताः न भणि- लेश्या से युक्त जीव सामान्य जीव की भांति यवा। तेउलेसस्स, पम्हलेसस्स, सुक्क- तव्याः। तेजोलेश्यस्य, पद्मलेश्यस्य, शुक्ल- वक्तव्य हैं। केवल इतना अन्तर है--(कृष्ण लेसस्स जहा ओहिया जीवा, नवरं-सिद्धा लेश्यस्य यथा औधिकाः जीवाः, नवरं- आदि तीन लेश्याएं अप्रमत्त संयति में नहीं होती, न भाणियवा॥ सिद्धाः न भणितव्याः। इसलिए) यहां प्रमत्त और अप्रमत्त का विभाग वक्तव्य नहीं है। * तेजोलेश्या, पद्यलेश्या और शुक्ललेश्या से युक्त जीव सामान्य जीव की भांति प्रमत्त संजती छठो गुणठाणो, अप्रमत्त सातमां थी जाणो । आत्म, पर, उभयारंभा कहाया, तिर्यंच श्रावक सह इहां आया ।। यां में तो श्रावक नहीं आवै, पंचमे गुण श्रावक पावै । तिम मनुष्य श्रावक में लंभ, अव्रत आश्री आलादि आरंभ । अविरत आश्री असंजती मांय, इणरो जाणै समदृष्टि न्याय ।। अव्रतरी क्रिया देश थी ताहि, अव्रत आश्री असंजती मांहि ।। सर्व संसारी ना सुविचार, दोय भेद किया जगतार । २. भ.१७ तीजो भेद इहां कियो नाही, तिणसूं अविरत आश्री असंजती माहि॥ ३. वही,१।१०१। देखें १।३८ के भाष्य का पा.टि.३ । १. भ.जो.91५२४,२५-- ४. त.सू.६।१–कायवाङ्मनःकर्म योगः। इहां जय जश आखै न्याय, बीसमां दण्डक रै माय । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श.१: उ.१: सू.३५-३८ वक्तव्य हैं। केवल इतना अन्तर है लेश्यासूत्र में सिद्ध का सूत्र वक्तव्य नहीं है। भाष्य १,२. यावत्, सामान्य जीव ___यावत्' और 'औधिक' ये दोनों शब्द रचना शैली से सम्बद्ध हैं। जहां जीव-सामान्य का वर्णन होता है, उसका कोई भेद विवक्षित नहीं होता, उसकी सूचना 'औधिक' पद के द्वारा दी गई है। उदाहरणस्वरूप, ३३ वें और ३४ वें सूत्र का वर्णन औधिक है। ३५ ३, ३६ वें सूत्र में नैरयिक का वर्णन है। ३७ वें सूत्र में 'यावत्' पद के द्वारा पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च तक की वर्गणाओं की सूचना दी गई है। प्रस्तुत आगम की रचना-शैली में चौबीस वर्गणाओं का इसी वर्गणा-पद्धति से निरूपण किया गया है। इसीलिए अनेक विषयों का प्रतिपादन नैरयिक से ही प्रारम्भ होता है। इन चौबीस वर्गणाओं का क्रमबद्ध नामोल्लेख ठाणं में मिलता है।' उन्हें दण्डक भी कहा गया है। इस आधार पर दण्डक और वर्गणा एकार्थक बन जाते हैं। संसार के सभी जीव चौवीस वर्गणाओं में वर्गीकृत होते हैं १. नारकीय जीवों की वर्गणा २. असुरकुमार देवों की वर्गणा ३. नागकुमार देवों की वर्गणा ४. सुपर्णकुमार देवों की वर्गणा ५. विद्युत्कुमार देवों की वर्गणा ६. अग्निकुमार देवों की वर्गणा ७. द्वीपकुमार देवों की वर्गणा ८. उदधिकुमार देवों की वर्गणा ६. दिशाकुमार देवों की वर्गणा १०. वायुकुमार देवों की वर्गणा ११. स्तनितकुमार देवों की वर्गणा १२. पृथ्वीकायिक जीवों की वर्गणा १३. अप्कायिक जीवों की वर्गणा १४. तेजस्कायिक जीवों की वर्गणा १५. वायुकायिक जीवों की वर्गणा १६. वनस्पतिकायिक जीवों की वर्गणा १७. द्वीन्द्रिय जीवों की वर्गणा १८. त्रीन्द्रिय जीवों की वर्गणा १६. चतुरिन्द्रिय जीवों की वर्गणा २०. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिक जीवों की वर्गणा २१. मनुष्यों की वर्गणा २२. वानमंतर देवों की वर्गणा २३. ज्योतिष्क देवों की वर्गणा २४. वैमानिक देवों की वर्गणा प्रस्तुत आगम में 'दण्डक' शब्द का प्रयोग अनेक स्थानों में मिलता है, जैसे--- ११५६-"आउएण वि दो दंडगा-एगत्तपोहत्तिया।" १।१२५ ---"एएणं अभिलावेणं दंडओ भाणियबो जाव वेमाणियाणं।" १११२६-"एवं करेंति । एत्य वि दंडओ जाव वेमाणियाणं।" उक्त सूत्रों में दण्डक का प्रयोग समान वाक्य-पद्धति के अर्थ में हुआ है। चौबीस दण्डक का प्रयोग प्रस्तुत आगम में भी मिलता है। ११२७६-२८० तक प्राणातिपात क्रिया का औधिक वर्णन है। २८१२८६ तक उसका चौबीस दण्डक के रूप में वर्णन है-- "चउवीसं दंडगा भाणियब्बा।" ३. प्रमत्त-अप्रमत्त का विभाग वक्तव्य नहीं है लेश्या का अर्थ है-जीव का परिणाम और परिणामधारा में सहयोगी पुद्गल-द्रव्य। उसके छह प्रकार हैं-कृष्ण, नील, कापोत, तेजः, पद्म और शुक्ल । इनमें प्रथम तीन अप्रशस्त हैं और अन्तिम तीन प्रशस्त। प्रथम लेश्या-त्रिक में संयति के प्रमत्त और अप्रमत्त ये दो भेद वक्तव्य नहीं हैं। यह पाठ विमर्शनीय है। वृत्तिकार ने इसका विमर्श किया है। उनके अनुसार अप्रशस्त लेश्या-त्रिक में संयतत्व नहीं होता, इसलिए यहां प्रमत्त और अप्रमत्त विशेषण की वर्जना की गई है।' जयाचार्य ने वृत्तिकार के विमर्श की समीक्षा की है। उनके अनुसार अप्रशस्त लेश्या वाले जीव असंयति और संयति दोनों होते हैं। किन्तु इनमें संयति को प्रमत्त और अप्रमत्त इन दो भागों में विभक्त करने का कोई प्रयोजन नहीं है। इसका हेतु यह है कि अप्रमत्त संयति में अप्रशस्त लेश्या नहीं होती। १. ठाणं,१११४१-१६४। २. वही, १११६०-चउवीसदंडओ;१।२१३ चउवीसदंडया । ३. वहीं, ३।५१७,५१८॥ ४. भ.वृ.१३. कृष्णादिषु हि अप्रशस्तभावलेश्यासु संयतत्वं नास्ति, यचोच्यते -..-'पुब्बपडिवण्णओ पुण अवयरीए उ लेसाए'त्ति, तद्रव्यलेश्यां प्रतीत्येति मन्तव्यं ततस्तासु प्रमत्ताधभावः। ५. भ.जो.१।५।२८-३२ कृष्ण नील कापोत ने जाणो, आधिक ससारी जेम पिछाणो। णवर प्रमत्त अप्रमत्त वे भेद, नहि करिवा न मणवा वेद ।। संसारी ना किया 'भेद दोय, संजती ने असंजती जाय। संजती ना दोय मेद काधा, प्रमादा ने अंप्रमादा साधा। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.१ः सू.३५-३६ भगवई प्रस्तुत आगम के पच्चीसवें शतक में बतलाया गया है कि के अनुसार मनुष्य के तीन भेद होते हैं-असंयत, संयतासंयत और 'कषायकुशीलनिग्रंथ' के छहों लेश्याएं होती हैं। इसकी वृत्ति में संयत। संयत के दो भेद-सराग संयत और वीतराग संयत तथा अभयदेवसूरि ने लिखा है कि कषायकुशीलनिग्रंथ सकषाय होने के सराग संयत के प्रमत्त संयत और अप्रमत्त संयत ये दो भेद होते हैं। कारण छहों लेश्याओं में प्राप्त होता है। पण्णवणा में बतलाया गया फिर भी कृष्ण और नील लेश्या में यह पाठ अनुसरणीय नहीं है। है कि कृष्ण लेश्या वाला जीव मनःपर्यवज्ञान को उपलब्ध हो सकता। इसका हेतु यह है कि इन लेश्याओं का उदय होने पर संयम उपलब्ध है। केवल संयत जीव ही मनःपर्यवज्ञानी होता है; इससे संयत में नहीं होता। सराग और वीतराग के प्रकरण में वृत्तिकार ने लिखा कृष्ण लेश्या का अस्तित्व सिद्ध होता है। पण्णवणा के वृत्तिकार है-तेजस् और पद्म लेश्या में वीतरागता उपलब्ध नहीं होती; इसलिए मलयगिरि के अनुसार प्रमत्त संयत में कृष्ण लेश्या के मन्द अनुभाव __ इनमें सराग और वीतराग का विशेषण विवक्षित नहीं है। वाले अध्यवसाय-स्थान होते हैं। इन प्रमाणों के आधार पर जयाचार्य वृत्तिकार ने सराग और वीतराग के विशेषण के लिए जिस का विमर्श संगत प्रतीत होता है। युक्ति का प्रयोग किया है, वही युक्ति प्रमत्त और अप्रमत्त के विशेषण सलेश्य के क्रियासूत्र में बतलाया गया है—कृष्ण लेश्या और में घटित होती है। अप्रशस्त लेश्या-त्रिक में अप्रमत्तता प्राप्त नहीं होती; नील लेश्या वाले मनुष्यों में सराग और वीतराग तथा प्रमत्त और । इसलिए कृष्ण आदि तीन लेश्या-संयुक्त संयति में प्रमत्त और अप्रमत्त अप्रमत्त इनका वक्तव्य आवश्यक नहीं है।' वृत्तिकार ने फिर उसी की विवक्षा नहीं की जा सकती। जयाचार्य ने क्रिया-सूत्र के प्रकरण सिद्धांत की पुनरावृत्ति की है। उन्होंने लिखा है कि औधिक दण्डक में फिर अपने पूर्ववर्ती विमर्श का समर्थन किया है। नाणादीणं भवंतर-संकमण-पदं ज्ञानादीनां भवान्तर-संक्रमण-पदम् ज्ञान आदि का भवान्तर-संक्रमण-पद ३६. इहमविए भंते ! नाणे ? परभविए नाणे? तदुभयभविए नाणे? इहभविकं भदन्त ! ज्ञानम् ? परभविकं ज्ञानम्? तदुभयभविकं ज्ञानम् ? ३६. 'भन्ते ! क्या (कोई) ज्ञान इस जन्म तक ही सीमित रहता है ? क्या ज्ञान अगले जन्म में साथ जाता है ? क्या ज्ञान वर्तमान जन्म और भावी जन्म दोनों में विद्यमान रहता है ? गौतम ! (कोई) ज्ञान इस जन्म तक भी सीमित रहता है, अगले जन्म में भी साथ जाता है, वर्तमान जन्म और भावी जन्म दोनों में भी विद्यमान रहता गोयमा ! इहभविए वि नाणे, परभविए वि नाणे, तदुभयभविए वि नाणे॥ गौतम ! इहभविकमपि ज्ञानम्, परभविकमपि ज्ञानम्, तदुभयभविकमपि ज्ञानम् ।। तिम कृष्णादिक त्रिहुं ना भेद दोय, संजती नै असंजती होय । संजती ना वे भेद न थुणवा, प्रमत्त अप्रमत्त भेद न भणवा ।। प्रमादी में कृष्णादिक पावै, अप्रमादी में ए त्रिहुं नावै । तिण सूं संजती ना बे भेद, नहि भणवा इम कह्यं वेद ।। धुर भेद संजत वयॊ नाहि, तिण सूं कृष्णादि साधु रै मांहि । संजत शुभ जोग थी अणारंभ, अशुभ जोग आश्रयी आरंभ । विस्तृत विमर्श के लिए इसी ढाल की ३३-१४६ तक गाथाएं मननीय हैं। १. भ.२५ १३७५,३७६-कसायकुसीले-पुच्छा। गोयमा ! सलेस्से होजा, नो अलेस्से होजा । जइ सलेस्से होजा, से णं भंते ! कतिसु लेस्सासु होजा? गोयमा ! छसु लेस्सासु होजा, तं जहा—कण्हलेस्साए जाव सुक्कलेस्साए। २. भ.बृ. ११३६–कसायकुशीलस्तु षट्ष्वपि सकषायमेव आश्रित्य । ३. पण्ण.१७।११२ कण्हलेस्से णं भंते! जीवे कतिसु णाणेसु होजा? गोयमा ! दोसु वा तिसु वा चउसु वा णाणेसु होजा--दोसु होमाणे आभिणिबोहिय-सुयणाणेसु होज्जा, तिसु होमाणे आभिणिवोहिय-सुयणाण-ओहिणाणेसु होजा, अहवा तिसु होमाणे आभिणिबोहिय-सुयणाण-मणपज्जवणाणेसु होजा, चउसु होमाणे आभिणिबोहियणाण-सुयणाण-ओहिणाण-मणपज्जवणाणेसु होजा। एवं जाव पम्हलेस्से। ४. प्रज्ञा.वृ.प.३५७-इह लेश्यानां प्रत्येकमसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि अध्यवसायस्थानानि, तत्र कानिचिन्मंदानुभावान्यध्यवसायस्थानानि, प्रमत्तसंयतस्यापि लभ्यन्ते, अत एव कृष्ण-नील-कापोतलेश्याः प्रमत्तसंयतस्यापि गीयन्ते। ५. भ.१।१०१। ६. भ.१.१।१०१-मनुष्यपदे क्रियासूत्रे यद्ययौधिक-दण्डके 'तिविहा मणुस्सा पन्नता, तं जहा संजया, असंजया, संजयासंजया। तत्थ णं जेते संजया ते दुविहा पनत्ता, तंजहा-सरागसंजया य वीयरागसंजया य। तत्थ णं जेते सरागसंजया ते दुविहा पत्रता, तं जहा—पमत्तसंजया य अप्पमत्तसंजया यत्ति पठितं, तथाऽपि कृष्णनीललेश्यादण्डकयो ध्येतव्यं, कृष्णनीललेश्योदये संयमस्य निषिद्धत्वात् । ७. वही,१।१०१–केवलमौधिकदण्डके क्रियासूत्रे मनुष्याः सरागवीतरागविशेषणा अधीताः, इह तु तथा न वाच्याः, तेजःपद्मलेश्ययोर्वीतरागत्वासम्भवातू, शुक्ललेश्यायामेव तत्सम्भवात् । प्रमत्ताप्रमत्तास्तूच्यन्त इति । ८. भ.जो.१।७,१७१-१८० । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श.१: उ.१: सू.३६-४३ ४०. इहमविए भंते ! दंसणे ? परमविए दसणे? तदुभयमविए दंसणे? इहभविकं भदन्त ! दर्शनम् ? परभविकं दर्शनम् ? तदुभयभविकं दर्शनम् ? ४०. भन्ते ! क्या दर्शन (सम्यक्त्व) इस जन्म तक ही सीमित रहता है ? क्या दर्शन अगले जन्म में साथ जाता है ? क्या दर्शन वर्तमान जन्म और भावी जन्म दोनों में विद्यमान रहता है ? गौतम ! दर्शन इस जन्म तक भी सीमित रहता है, अगले जन्म में भी साथ जाता है, वर्तमान जन्म और भावी जन्म दोनों में भी विद्यमान रहता गोयमा ! इहमविए वि दंसणे, परमविए वि दंसणे, तदुभयभविए वि दंसणे॥ गौतम ! इहभविकमपि दर्शनम्, परभविकमपि दर्शनम्, तदुभयभविकमपि दर्शनम्। ४१. इहमविए भंते ! चरित्ते ? परमविए चरिते ? तदुभयमविए चरित्ते ? इहभविकं भदन्त ! चरित्रम् ? परभविकं चरित्रम् ? तदुभयभविकं चरित्रम् ? गोयमा ! इहमविए चरित्ते, नो परभविए चरित्ते, नो तदुभयभविए चरित्ते॥ गौतम ! इहभविकं चरित्रम, नो परभविकं चरित्रम्, नो तदुभयभविकं चरित्रम् । ४१. भन्ते ! क्या चारित्र इस जन्म तक ही सीमित रहता है ? क्या चारित्र अगले जन्म में साथ जाता है ? क्या चारित्र वर्तमान और भावी जन्म दोनों में विद्यमान रहता है? गौतम ! चारित्र इस जन्म तक ही सीमित रहता है, वह अगले जन्म में साथ नहीं जाता, वर्तमान जन्म और भावी जन्म दोनों में विद्यमान नहीं रहता। ४२. इहभविए भंते ! तवे ? परभविए तवे? तदुभयभविए तवे? इहभविकं भदन्त ! तपः ? परभविकं तपः? तदुभयभविकं तपः ? ४२. भन्ते ! क्या तपस्या इस जन्म तक ही सीमित रहती है ? क्या तपस्या अगले जन्म में साथ जाती है ? क्या तपस्या वर्तमान जन्म और भावी जन्म दोनों में विद्यमान रहती है ? गौतम ! तपस्या इस जन्म तक ही सीमित रहती है, अगले जन्म में साथ नहीं जाती, वर्तमान जन्म और भावी जन्म दोनों में विद्यमान नहीं रहती। गोयमा ! इहमविए तवे, नो परभविए तवे, नो तदुभयभविए तवे॥ गौतम ! इहभविकं तपः, नो परभविकं तपः, नो तदुभयभविकं तपः। ४३. इहभविए भंते ! संजमे ? परभविए संजमे ? तदुभयभविए संजमे? इहभविकः भदन्त ! संयमः ? परभविकः ४३. भन्ते ! क्या संयम इस जन्म तक ही सीमित संयमः ? तदुभयभविकः संयमः ? रहता है ? क्या संयम अगले जन्म में साथ जाता है ? क्या संयम वर्तमान जन्म और भावी जन्म दोनों में विद्यमान रहता है ? गौतम ! इहभविकः संयमः, नो परभविकः गौतम ! संयम इस जन्म तक ही सीमित रहता संयमः, नो तदुभयभविकः संयमः । है, अगले जन्म में साथ नहीं जाता, वर्तमान जन्म और भावी जन्म दोनों में विद्यमान नहीं रहता। गोयमा ! इहमविए संजमे, नो परमविए संजमे, नो तदुभयभविए संजमे॥ भाष्य १. सूत्र ३६-४३ जैन दर्शन ने पुनर्जन्म को केवल स्वीकार ही नहीं किया है, उसकी अनेक समस्याओं को सुलज्ञाने का प्रयल किया है। प्रस्तुत आगम में पुनर्जन्म की अनेक समस्याओं पर विचार किया गया है। मृत्यु के पश्चात् आत्मा दूसरे जन्म में जाती है, तो वह अकेली ही जाती है या उसके साथ कुछ दूसरे तत्त्व भी जाते हैं ? उसका यात्रा-पथ कितना होता है ? वह कैसे जाती है ? उसका नया जन्म कैसे होता है ?-इन प्रश्नों और इनसे सम्बद्ध अनेक प्रश्नों का समाधान मांगा गया है और भगवान् ने वह दिया है। प्रस्तुत आलापक में पांच प्रश्न पूछे गए हैं—क्या आत्मा पुनर्जन्म की यात्रा में ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और संयम को साथ लेकर जाती है या उन्हें यहीं छोड़कर जाती है ? भगवान् ने इन प्रश्नों के उत्तर में बताया-ज्ञान और दर्शन--ये दोनों आत्मा के साथ जाते हैं। चारित्र, तप और संयम-ये तीनों ऐहभविक ही होते हैं, वे आत्मा के साथ नहीं जाते। इसी प्रकार शरीर के बारे में पूछा गया कि नया जन्म लेते समय आत्मा सशरीर होती है या अशरीर ? भगवान ने कहा-"गौतम ! वह कथञ्चित् सशरीर होती है Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १: उ.१: सू. ३६-४३ और कथञ्चित् अशरीर । " "भन्ते ! यह कैसे ?" भगवान् ने कहा - " स्थूल (औदारिक, वैक्रिय और आहारक) शरीर की अपेक्षा से वह अशरीर होती है और सूक्ष्म (तैजस) और सूक्ष्मतर ( कार्मण) शरीर की अपेक्षा से वह सशरीर होती है।' इससे फलित होता है— आत्मा मृत्यु के पश्चात् और नया जन्म लेने से पूर्व स्थूल शरीर से मुक्त रहती है। फिर प्रश्न होता है—स्थूल शरीर नहीं है, तो ज्ञान कहां रहेगा ? इस जिज्ञासा से प्रेरित होकर फिर पूछा - "भन्ते ! आमा इन्द्रिय- सहित अवस्था में जन्म लेती है या अनिन्द्रिय अवस्था में ?" ३८ " गौतम ! कथञ्चित् वह सइंद्रिय होती है और कथञ्चित् अनिन्द्रिय।” "भन्ते ! यह कैसे ?" भगवान् ने कहा - "गौतम ! इन्द्रिय-संस्थानों (द्रव्येन्द्रिय) की अपेक्षा से वह अनिन्द्रिय होती है और ज्ञानात्मक इंद्रिय (भावेन्द्रिय) की अपेक्षा से सइंद्रिय । " इससे फलित होता है कि एक जन्म से दूसरे जन्म के मध्य में ज्ञान सत्तारूप में रहता है, अभिव्यक्त नहीं होता। वह शरीर रचना के पश्चात्, नाड़ी तंत्र की रचना के बाद अभिव्यक्त होता है। उदाहरण के लिए, जाति-स्मृति (पूर्व जन्म की स्मृति) को लिया जा सकता है । इद्रिय और मन से होने वाले ज्ञान का आधारभूत कोश कर्म-शरीर है । स्थूल शरीर के नाड़ी तंत्र या मस्तिष्क में उनके संवादी कोशों की रचना होती है। जिस आत्मा में दो इंद्रियों के विकास की सत्ता है, उसके दो इंद्रियों की रचना होगी। इसी प्रकार तीन, चार और पांच इन्द्रियों की रचना भी सूक्ष्म शरीर के कोशों के आधार पर ही होगी। नाड़ी तंत्र या मस्तिष्क में ज्ञान कोशों की रचना की तरतमता का आधार भी कर्म-शरीरगत कोश ही बनते हैं। इसे सूत्ररूप में इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है-जिस आत्मा ज्ञानावरण कर्म का जितना क्षयोपशम होता है, उसके उतने ही कोश कर्म-शरीर में निर्मित हो जाते हैं और उसके संवादी कोश नाड़ी तंत्र या मस्तिष्क में निर्मित होते हैं। इस सारे दार्शनिक चिन्तन को ध्यान में रखते हुए भगवान् ने १. भ. १ ३४२, ३४३ । २. वही, १ । ३४०, ३४१ । ३. भ. वृ. १ । ३६ वर्त्तमानजन्मनि यद्वर्त्तते न तु भवान्तरे तदैहभविकम् । काकुपाठाच्चेह प्रश्नताऽवसेया, तेन किमैहभविकं ज्ञानमुत 'परभविए 'त्ति परभवे - वर्तमानानन्तरभाविन्यनुगामितयां यद्वर्त्तते तत्पारभविकम् । आहोस्वित् 'तदुभयभविए'त्ति तदुभयरूपयोः इहपरलक्षणयोर्भवयोर्यदनुगामितया वर्त्तते तत्तदुभयभविकम्, इदं चैवं न पारभविकाद् भिद्यत इति परतरभवेऽपि यदनुयाति तद् ग्राह्यम् । इहभवव्यतिरिक्तत्वेन परतरभवस्यापि परभवत्वात् । ह्रस्वतानिर्देशश्चेह सर्वत्र प्राकृतत्वादिति प्रश्नः निर्वचनमपि सुगमं । नवरम् 'इहभविए 'त्ति ऐहभविकं यदिहाधीतं नान्तरभवेऽनुयाति, पारभविकं भगवई कहा - " ज्ञान पारभविक भी होता है। " जैसे हमारे मस्तिष्क में वर्तमान जन्म के स्मृति-कोश होते हैं, वैसे ही पूर्वजन्म के स्मृति-कोश होते हैं या नहीं, यह एक जटिल प्रश्न है। आज के शरीर - शास्त्री और मनोवैज्ञानिक उन कोशों को खोज नहीं पाए हैं, किंतु कर्मशास्त्रीय दृष्टि से जिसमें पूर्वजन्म की स्मृति की संभावना है, उसमें उन कोशों की विद्यमानता की सम्भावना भी की जा सकती है। मस्तिष्क का बहुत बड़ा भाग मौन क्षेत्र (silent area ) या अन्धकार क्षेत्र (dark area) है। हो सकता है, उस क्षेत्र में वे स्मृतिकोश उपलब्ध हो जाएं। वृत्तिकार के अनुसार ऐहभविक का अर्थ है— केवल वर्तमानभववर्ती । वह भवान्तर में साथ नहीं जाता। पारभविक का अर्थ है— दूसरे जन्म में साथ जाने वाला । तदुभयभविक का शाब्दिक अर्थ होता हैं— जो वर्तमान जन्म में होता है और भावी जन्म में भी साथ जाता है। यह अर्थ पारभविक से भिन्न नहीं होता; इसलिए तदुभयभविक का अर्थ 'जन्म-जन्मान्तर तक साथ जाने वाला' होना चाहिए। वृत्तिकार ने तदुभयभविक के अन्तर्गत पारभविक का 'परतर भव' अर्थ कर इस विकल्प की सार्थकता बतलाई है, किंतु परतर भव का ग्रहण पारभविक में ही हो सकता है; इसलिए इस तीसरे भंग को केवल भंगरचना का प्रकार ही माना जा सकता है। इसमें कोई नई बात प्रतिपादित की गई है, ऐसा नहीं लगता। ज्ञान और दर्शन दोनों का अनुगमन होता है; इसलिए इसके तीनों विकल्प सम्मत हैं। यहां दर्शन का अर्थ सम्यक्त्व है। चारित्र, तप और संयम का अनुगमन नहीं होता; इसलिए इनका केवल ऐहभविक विकल्प ही सम्मत है, शेष दो विकल्पों का निषेध किया गया है । वृत्तिकार के अनुसार चारित्र अनुष्ठान रूप होता है और अनुष्ठान शरीर में ही सम्भव है । ' चारित्र, तप और संयम — तीनों आचरण-पक्ष के तत्त्व हैं। सामायिक आदि की आराधना को चारित्र और संयम दोनों कहा गया है। समवाओ में संयम के सतरह प्रकार बतलाए गए हैं । — चारित्र का ही एक प्रकार है। तप यदनन्तरभवेऽनुयाति, तदुभयभविकं तु यदिहाधीतं परभवे परतरभवे चानुवर्त्तत इति । ४. वही, १/४० – दर्शनमिह सम्यक्त्वमवसेयं, मोक्षमार्गाधिकारात् । ५. वही, १ | ४१ – अनुष्ठानरूपत्वात् चारित्रस्य शरीराभावे च तदयोगात् । ६. उत्तर. २८ । ३२,३३ / ७. ठाणं ५ ।१३६ - पंचविधे संजमे पण्णत्ते, तं जहा सामाइयसंजमे, छेदोबावणियसंजमे, परिहारविसुद्धिसंजमे, सुहुमसंपरागसंजमे, अहक्खायचरितसंजमे । ८. सम. १७।२। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३६ श.१: उ.१: सू.४४-४७ असंवुड-संवुड-अणगार-पदं असंवृत-संवृत-अनगार-पदम् । असंवृत-संवृत-अनगार-पद ४४. असंवडे णं भंते ! अणगारे सिज्झइ, असंवृतः भदन्त ! अनगारः सिद्ध्यति, ४४.'भन्ते ! क्या असंवृत अनगार सिद्ध, प्रशान्त, बुज्झइ, मुच्चइ, परिनिब्वाइ, सबदुक्खाणं 'बुज्झइ', मुञ्चति, परिनिर्वाति, सर्वदुःखा- मुक्त और परिनिर्वृत होता है, सब दुःखों का अन्त अंतं करेइ ? नामन्तं करोति ? करता है ? गोयमा ! णो इणढे समढे॥ गौतम ! नो अयमर्थः समर्थः ? गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। ४५. से केणडेणं भंते ! एवं बुच्चइ-असंवुडे तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-असंवृतः ४५. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है णं अणगारे नो सिज्झइ, नो बुज्झइ, नो अनगारः नो सिद्ध्यति, नो 'बुज्झइ', नो असंवृत अनगार सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त और मुचइ, नो परिनिब्बाइ, नो सब्वदुक्खाणं परिनिर्वाति, नो सर्वदुःखानामन्तं करोति ? परिनिर्वृत नहीं होता, सब दुःखों का अन्त नहीं अंतं करेइ ? करता? गोयमा ! असंखुडे अणगारे आउयवजाओ गौतम ! असंवृतः अनगारः आयुर्वर्जाः सप्त गौतम ! असंवृत अनगार आयुष्य कर्म को छोड़कर सत्त कम्मपगडीओ सिढिलबंधणबद्धाओ कर्मप्रकतीः शिथिलबन्धनबद्धाः 'धणिय'- शेष सात कर्मों की शिथिल बन्धनबद्ध प्रकृतियों धणियबंधणबद्धाओ पकरेइ, हस्सकालठिइ- बंधनबद्धाः प्रकरोति, ह्रस्वकालस्थितिकाः को गाढ बन्धनबद्ध करता है, अल्पकालिक याओ दीहकालठिइयाओ पकरेइ, मंदाणु- दीर्घकालस्थितिकाः प्रकरोति, मन्दानुभावाः स्थितिवाली प्रकृतियों को दीर्घकालिक स्थितिवाली भावाओ तिव्वाणुभावाओ पकरेइ, अप्प तीव्रानुभावाः प्रकरोति, अल्पप्रदेशाग्राः बहु- करता है, मन्द अनुभाव वाली प्रकृतियों को तीव्र पएसग्गाओ बहुप्पएसग्गाओ पकरेइ प्रदेशाग्नाः प्रकरोति, आयुश्च कर्म स्यात् अनुभाव वाली करता है, अल्पप्रदेश-परिमाण आउयं च णं कम्मं सिय बंधइ, सिय नो बनाति, स्यान् नो बध्नाति, असातवेदनीयं वाली प्रकृतियों को बहुप्रदेश-परिमाण वाली करता बंधइ, अस्सायावेयणिज्जं च णं कम्म भुजा- च कर्म भयो-भयः उपचिनोति, अनादिकं च है; आयुष्य कर्म का बन्ध कदाचित् करता है और भुजो उवचिणाइ, अणाइयं च णं अणवदम्गं 'अणवदग्गं' दीर्घाध्वानं चतुरन्तं संसार- कदाचित् नहीं करता, वह असातवेदनीय कर्म का दीहमद्धं चाउरतं संसारकतारं अणु कान्तारम् अनुपर्यटति । तत् तेनार्थेन गौतम! बहुत-बहुत उपचय करता है और आदि-अन्तपरियट्टइ। से तेणटेणं गोयमा ! असवुड असंवतः अनगारः नो सिध्यति, नो हीन दीर्घपथवाले चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार अणगारे नो सिज्झइ, नो बुज्झइ, नो मुचइ, 'बुज्झइ', नो मुञ्चति, नो परिनिर्वाति, नो में पर्यटन करता है। गौतम ! इस अपेक्षा से नो परिनिव्बाइ, नो सम्बदुक्खाणं अंतं सर्वदुःखानामन्तं करोति। असंवृत अनगार सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त और करेइ॥ परिनिर्वृत नहीं होता, सब दुःखों का अन्त नहीं करता। ४६. संवुडे णं भंते ! अणगारे सिज्झइ, बुज्झइ, संवृतः भदन्त ! अनगारः सिद्ध्यति, 'बुज्झ- ४६. भन्ते ! क्या संवृत अनगार सिद्ध, प्रशान्त, मुचइ, परिनिवाइ, सम्बदुक्खाणं अंतं इ', मुञ्चति, परिनिर्वाति, सर्वदुःखानामन्तं मुक्त और परिनिवृत होता है, सब दुःखों का अन्त करेइ? करोति? हंता! सिज्झइ, बुज्झइ, मुचइ, परिनिवाइ, हन्त ! सिद्ध्यति, 'बुज्झइ', मुञ्चति, परि- हां ! वह सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त और परिनिर्वृत सवदुक्खाणं अंतं करेइ ॥ निर्वाति, सर्वदुःखानामन्तं करोति। | होता है, सब दुःखों का अन्त करता है। करता है? ४७. से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचइ-संवुडे णं तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-संवृतः ४७. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-- अणगारे सिज्झइ, बुज्झइ, मुच्चइ, परि- अनगारः सिद्ध्यति, 'बुन्झइ', मुञ्चति, परि- संवृत अनगार सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त और परिनिर्वृत निव्वाइ, सव्वदुक्खाणं अंतं करेइ ? निर्वाति, सर्वदुःखानामन्तं करोति ? होता है, सब दुःखों का अन्त करता है ? गोयमा ! संबडे अणगारे आउयवजाओ सत्त गौतम ! संवृतः अनगारः आयुर्वर्जाः सप्त कर्म- गौतम ! संवृत अनगार आयुष्य कर्म को छोड़कर कम्मपगडीओ धणियबंधणबद्धाओ सिढिल- प्रकृतीः 'धणिय'बन्धनबद्धाः शिथिलबन्धन- शेष सात कर्मों की गाढ बन्धनबद्ध प्रकृतियों को बंधणबद्धाओ पकरेइ, दीहकालविइयाओ __ बद्धाः प्रकरोति, दीर्घकालस्थितिकाः ह्रस्व- शिथिल बन्धनबद्ध करता है, दीर्घकालिक स्थिति हस्सकालविइयाओ पकरेइ, तिवाणु- कालस्थितिकाः प्रकरोति, तीव्रानुभावाः मन्दा- वाली प्रकृतियों को अल्पकालिक स्थिति वाली भावाओ मंदाणुभावाओ पकरेइ, बहुप्पएस- नुभावाः प्रकरोति, बहुप्रदेशाग्राः अल्प- करता है, तीव्र अनुभाव वाली प्रकृतियों को मन्द ग्गाओ अप्पपएसग्गाओ पकरेइ आउयं च प्रदेशाग्राः प्रकरोति; आयुश्च कर्म न बध्नाति, अनुभाव वाली करता है, बहुप्रदेश-परिमाण वाली णं कम्मं न बंधइ, अस्सायावेयणिजं च णं असातवेदनीयं च कर्म न भूयो-भूयः उप- प्रकृतियों को अल्पप्रदेश-परिमाण वाली करता है; कम्मं नो भुजो-भुजो उवचिणाइ, अणादीयं चिनोति, अनादिकं च 'अणवदग्गं' दीर्घाध्वानं वह आयुष्य कर्म का बन्ध नहीं करता, असातच णं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरन्तं संसार- चतुरन्तं संसारकान्तारं व्यतिव्रजति । तत् ते- वेदनीय कर्म का बहुत-बहुत उपचय नहीं करता कंतारं वीईवयइ । से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं नार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-संवृतः अनगारः और आदि-अन्तहीन दीर्घपथवाले चतुर्गत्यात्मक Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.१: सू.४४-४७ ४० भगवई वुचइ-संवुडे अणगारे सिज्झइ, बुज्झइ, सिद्ध्यति 'बुज्झइ', मुञ्चति, परिनिर्वाति, मुच्चइ, परिनिव्वाइ, सन्दुक्खाणं अंतं सर्वदुःखानामन्तं करोति । करेइ॥ संसार-कान्तार का व्यतिक्रमण करता है। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-संवृत अनगार सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त और परिनिर्वृत होता है, सब दुःखों का अन्त करता है। भाष्य १. सूत्र ४४-४७ असंवृत-संवृत 'असंवृत' शब्द का प्रयोग दो अर्थों में मिलता है। इसका एक अर्थ है-मन, वाणी और काय का संवर नहीं करने वाला' अथवा उत्तरगुण में दोष की प्रतिसेवना करने वाला। इसका दूसरा अर्थ है-संयम से च्युत हो जाने वाला। प्रस्तुत आगम में इन दोनों अर्थों में असंवृत का प्रयोग मिलता है। 'बक्कस निर्ग्रन्थ' के पांच प्रकारों में दो प्रकार हैं-असंवृत बक्कस और संवृत बक्कस । बक्स निर्ग्रन्थ मूलगुण की विराधना नहीं करता, केवल उत्तरगुण की विराधना करता है। यहां 'असंवृत' का प्रयोग मुनि-धर्म से च्युत होने वाले के लिए किया गया है। इसीलिए उसे अनादि-अनन्त संसार में परिभ्रमण करने वाला बतलाया गया है। वृत्तिकार ने भी इसकी यही व्याख्या की है। यह विमर्शनीय है कि प्रत्येक संवृत अनगार भी सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त नहीं होता, फिर असंवृत अनगार के लिए यह प्रश्न क्यों उपस्थित किया गया है? इसका समाधान यह है—प्रस्तुत आलापक में चरम कोटि के असंवृत और संवृत को ध्यान में रखकर प्रश्न पूछा गया है; उसी के आधार पर भगवान् ने उसका समाधान दिया है। मध्यम कोटि के असंवृत अनगार अनादि-अनन्त संसार में भ्रमण नहीं करते और मध्यम कोटि के संवृत अनगार भी सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त नहीं होते। इसी प्रकार 'संवृत' शब्द का भी दो अर्थों में प्रयोग किया गया है। पहला अर्थ है-अचरम शरीरी संवृत अनगार और दूसरा-चरम शरीरी संवृत अनगार । प्रस्तुत संवृत अनगार का सूत्र चरम शरीरी संवृत अनगार की अपेक्षा से प्रतिपादित है। अचरमशरीरी संवृत अनगार परम्पर रूप में सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त हो सकता है। इस अपेक्षा से उसके लिए भी प्रस्तुत सूत्र घटित हो सकता है। वृत्तिकार ने प्रश्न उपस्थित किया है कि परम्पर रूप में असंवृत का भी सिद्ध, प्रशांत, मुक्त होना अवश्यंभावी है, फिर दोनों में अन्तर क्या है। उन्होंने समाधान की भाषा में कहा---संवृत परम्पर रूप में अधिकतम सात-आठ भव में मुक्त हो जाता है। असंवृत परम्पर रूप में अधिकतम अपार्ध पुद्गल तक संसार में परिभ्रमण कर सकता है; इसलिए संवृत और असंवृत की श्रृंखला में अधिक अन्तर है, उन्हें एक कोटि में नहीं गिना जा सकता। कर्म-परिवर्तन का सिद्धांत जैन दर्शन में कर्म का परिवर्तन मान्य है। कुछ दार्शनिक कर्म के परिवर्तन को मान्य नहीं करते थे। उनके द्वारा कर्म को ईश्वर का स्थान प्राप्त हो चुका था। भगवान् महावीर ने जीव के पारिणामिक भाव को कम से मुक्त बतलाया। उससे जीव को निरन्तर कर्म-मुक्त होने की शक्ति प्राप्त होती रहती है और जीव का पुरुषार्थ कर्म के परिवर्तन में भी सक्षम बना रहता है। प्रस्तुत आलापक में कर्म-परिवर्तन की जिन चार अवस्थाओं का उल्लेख किया गया है, वे कर्म-बन्ध की इन चार अवस्थाओं से संबन्धित हैं---१. प्रकृति-बंध, २. स्थिति-बन्ध, ३. अनुभाग-बन्ध, ४. प्रदेश बन्ध। अशुभ और शुभ दोनों प्रकार की भावधारा के साथ कर्म की अवस्था में परिवर्तन होता रहता है। परिवर्तन के ये रूप बनते हैं-१. शिथिल बन्धन गाढ बन्धन में बदल जाता है। २. गाढ बन्धन शिथिल बन्धन में बदल जाता यह प्रकृति-बन्ध का परिवर्तन है। अशुभ परिणामधारा के कारण अशुभ प्रकृति का शिथिल बन्धन तीद्र बन्धन में बदल जाता है और शुभ परिणामधारा के कारण अशुभ प्रकृति का तात्र बन्धन शिथिल बन्धन बन जाता है। स्वादपक्षया बायोपवयः। नन पारणासयत- बा. १. दसवे.२०१७ ---- मणवयकायसुसंवुड़े जे स भिक्खु । २ भ.जो ११६।३४ -- असंवुडो चरण-भ्रष्ट, सूत्रे फल विराक लगा सौ काल उत्कृट, टेसूण आई-मुगल कहा। ३. भ.२५/३०६.३५०१ ४. वहीं, 901991 १. भ.व.१४६---संवृतः अनगार: प्रमताप्रमत्तस्यतादि..सच चरमशरीरः स्याद- चरमशरीरो चातर यश्वरमशरोरस्तदपेक्षयेद सूत्र, यस्वचरमशरीर ७. सग Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श.१: उ.१: सू.४४-४७ वृत्तिकार ने शिथिल बन्धन के तीन अर्थ किए हैं-स्पृष्टता, तीसरी अवस्था है-कर्म-बन्धन से मुक्त होना। बद्धता और निधत्तता। गाढ बन्धन के बद्धावस्था, निधत्तावस्था और चौथी अवस्था है—परिनिर्वृत—निःस्पन्द—गतिरहित हो निकाचितावस्था—ये तीन अर्थ किए हैं, किंतु ये विमर्श मांगते हैं। जाना। पांचवीं अवस्था है-सब दुःखों का अन्त कर देना। 'बन्धन' प्रकृति-बन्ध की एक सामान्य अवस्था है। उसकी वृत्तिकार ने पूर्ववर्ती चार अवस्थाओं के अर्थ भिन्न प्रकार से विशेष अवस्थाएं सात हैं। उनमें निधत्त छठी अवस्था है। उसमें किए हैं। उन्होंने सिज्मइ बुज्झइ मुबइ और परिनिवाइ इन पदों की उद्वर्तन और अपवर्तन हो सकते हैं; संक्रमण, उदीरणा और अन्तिम क्षण से पूर्व की अवस्था मानकर व्याख्या की है। केवल उपशामना-ये करण नहीं होते। निकाचना सातवीं अवस्था है। सब्बदुक्खाणं अंतं करेइ को अन्तिम क्षण की अवस्था माना है।' उसमें उद्वर्तन और अपवर्तन भी नहीं होते, कोई भी करण नहीं होता। इसलिए यदि गाढ बन्धन का अर्थ निकाचना किया जाए, तो वृत्तिकार के अनुसार सिज्झइ का अर्थ है-'चरमशरीरी जीव स्थिति और रस का परिवर्तन नहीं हो सकता।' सिद्धिगमन के योग्य हो जाता है', किन्तु यह अर्थ चिन्तनीय है। सिद्ध-अवस्था शरीर-मुक्ति के पश्चात् प्राप्त होती है। प्रश्न पूछा गयाप्रस्तुत शतक के ३५७ वें सूत्र में 'बद्ध, पुटु, निहत्त, कड, पविय, अभिनिविदु, अभिसमण्णागय, उदिण्ण' इतनी कर्म की अवस्थाएं "कहिं पडिहया सिद्धा, कहिं सिद्धा पइदिया। मिलती हैं। इनमें बद्ध और पुट्ठ (स्पृष्ट) इन दो अवस्थाओं को कहिं बोदिं चइत्ताणं, कत्य गंतूण सिज्झई ?" शिथिल-बद्ध माना जा सकता है और निघत्त को गाढ अवस्था माना "सिद्ध कहां रुकते हैं ? कहां स्थित होते हैं ? कहां शरीर जा सकता है। इस अर्थ को स्वीकार करने पर स्थिति-परिवर्तन, को छोड़ते हैं ? और कहां जाकर सिद्ध होते हैं ?" इसके समाधान रस-परिवर्तन और प्रदेश-परिमाण के परिवर्तन में बाधा नहीं आती। में कहा गयाआयुष्य कर्म का बन्ध एक जन्म में एक बार ही होता है; इसलिए “अलोए पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पइडिया । उसका विकल्प है-उसका बन्ध हो भी सकता है, नहीं भी हो इहं बौदिं चइत्ताणं, तत्य गंतूण सिज्झई ॥" सकता।' "सिद्ध अलोक में रुकते हैं। लोक के अग्रभाग में स्थित होते असातवेदनीय कर्म सप्त कर्म-प्रकृतियों के अन्तर्गत प्राप्त है, हैं। मनुष्य-लोक में शरीर को छोड़ते हैं और लोक के अग्रभाग में फिर उसका पृथक् उल्लेख क्यों ? इसका समाधान यह है कि असंवृत जाकर सिद्ध होते हैं।" अनगार के अशुभ भावधारा के कारण असात वेदनीय का अधिकतम इस आधार पर सिज्झइ का अर्थ वृत्तिगत अर्थ से भिन्न पड़ता बन्ध होता है-ऐसा बतलाने के लिए इसका स्वतन्त्र रूप में निर्देश किया गया है। वृत्तिकार ने बुज्झइ का अर्थ इस प्रकार किया है--सिद्धिगमन २. सिद्ध.......सब दुःखों का अन्त करता है। योग्य जीव जब केवली होकर समस्त जीव आदि पदार्थों को जानता प्रस्तुत आलापक में पांच क्रियापद हैं। इन पांच पदों द्वारा है, उस समय वह बुद्ध कहलाता है। मुक्त होने की पांच अवस्थाओं का प्रतिपादन किया गया है। किन्तु 'मोक्षपद' के अनुसार जो कोई जीव सब दुःखों का पहली अवस्था है-सिद्ध होना। जिसका प्रयोजन सिद्ध हो अन्त करता है, वह पहले उत्पन्न-ज्ञान-दर्शनधर अर्हत, जिन और जाता है, वह सिद्ध अवस्था है। केवली होता है। उसके पश्चात् वह सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त, परिनिर्वृत दूसरी अवस्था है-प्रशान्त होना या बुझ जाना। होता है, सब दुःखों का अन्त करता है। इस दृष्टि से वृत्तिकार १. भ.वृ.१।४५ श्लथबन्धनं स्पृष्टता वा बद्धता वा निधत्तता वा, तेन बद्धाः मिदमित्यदुष्टमिति । -आत्मप्रदेशेषु संबन्धिताः पूर्वावस्थायामशुभतरपरिणामस्य कथञ्चिदभावा- ४. वही,११४४-सिध्यन्ति स्म-निष्ठितार्था भवन्ति स्म । दिति शिथिलबन्धनबद्धाः, एताश्चाशुभा एव द्रष्टव्याः । असंवृतभावस्य निंदा- ५. वही,११४४–'सिज्झइति सिध्यति अवाप्तचरमभवतया सिद्धिगमनयोग्यो प्रस्तावात् ताः किमित्याह-'धणियबंधणबद्धाओ पकरेंतित्ति गाढतरवन्धना भवति । 'बुज्झइत्ति स एव यदा समुत्पन्नकेवलज्ञानतया स्वपरपर्यायोपेताबद्धावस्था वा निधत्तावस्था वा निकाचिता वा 'प्रकरोति'। त्रिखिलान् जीवादिपदार्थान् जानाति तदा बुध्यत इति व्यपदिश्यते। 'मुच्चइत्ति २. वही,१४-आयुः पुनः कर्म स्यात्-कदाचिद् बध्नाति, स्यात् न बध्नाति । स एव संजातकेवलबोधो भवोपग्राहिकर्मभिः प्रतिसमयं विमुच्यमानो मुच्यत यस्मात्रिभागाधवशेषायुषः परभवायुः प्रकुर्वन्ति, तेन यदा विभागादिस्तदा इत्युच्यते । 'परिनिव्वाइ'त्ति स एव तेषां कर्मपुद्गलानामनुसमयं यथा यथा बध्नाति । अन्यदा न बजातीति । क्षयमाप्नोति तथा तथा शीतीभवन् परिनिर्वातीति प्रोच्यते। 'सव्वदुक्खाणमंतं ३. वही,११४५-असातवेदनीयं च-दुःखवेदनीयं कर्म पुनः भूयो भूयः' पुनः करेइत्ति स एव चरमभवायुषोऽन्तिमसमये क्षपिताशेषकर्माशः सर्वदुःखानामन्तं पुनः 'उपचिनोति' उपचितं करोति । ननु कर्मसप्तकान्तर्वर्तित्वादसातवेदनीयस्य करोतीति। पूर्वोक्तविशेषणेभ्यः एव तदुपचयप्रतिपत्तेः किमेतद्ग्रहणेन ? अत्रोच्यते- ६. उत्तर.३६ । ५५,५६। असंवृतोऽत्यन्तदुःखितो भवतीति प्रतिपादनेन भयजननादसंवृतत्वपरिहारार्थ- ७. भ.१४२०८ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.१: सू.४४-४६ ४२ भगवई द्वारा कृत बुज्झइ की व्याख्या विमर्शनीय है। प्रस्तुत प्रकरण में बुज्झइ वृत्तिकार के अनुसार चरम भव के आयुष्य के अन्तिम समय यह देशी धातु होनी चाहिए। इसका अर्थ है-बुझ जाना, शान्त हो में सिद्ध होने वाला जीव अशेष कर्मों को क्षीण कर सब दुःखों का जाना। यह मुक्त होने की दूसरी अवस्था है। इसमें जन्म-मरण की अन्त कर देता है। इसका संवादी पाठ ठाणं में उपलब्ध होता है।' आग बुझ जाती है।' जयाचार्य ने भगवती की जोड़ में इन पांच पदों के वृत्तिसम्मत अर्थ वृत्तिकार ने मुच्चइ का अर्थ "भवोपनाही कर्मों से प्रति समय । का अनुसरण नहीं किया है। मुक्त होना' किया है। किन्तु यह भी उपर्युक्त तर्क से विमर्शनीय है। मुक्त होना सिद्ध होने से प्रथम समय में ही होता है। ३. बहुत-बहुत वृत्तिकार के अनुसार परिनिवाइ का अर्थ है--'जैसे-जैसे कर्म वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'पुनः पुनः' किया है। किन्तु प्रसंगवश क्षय होते जाते हैं, वैसे-वैसे आत्मा शीतीभूत, शान्त या परिनिर्वृत हो। इसका 'बहुत-बहुत' अर्थ संगत है। जाती है।' यह अर्थ भी विमर्शनीय है। 'वा' धातु का एक अर्थ गति भी है (वांक-गतिबन्धनयोः) । इस आधार पर परिनिर्वाण का अर्थ 'गतिरहित' या निःस्पन्द' किया जाना चाहिए। मुक्त होने वाला 'अवदग्ग' अन्तवाचक देशीशब्द है। 'अणवदग्ग' का अर्थ है जीव मुक्तिस्थान में पहुंचकर गति-शून्य हो जाता है। अनन्त।" असंजयस्स वाणमंतरदेव-पदं असंयतस्य वानमन्तरदेव-पदम् असंयत का वानमंतरदेव-पद ४. अन्तहीन ४८. जीवे णं भंते ! अस्संजए अविरए अप्पडिहयपचक्खायपावकम्मे इओ चुए पेचा देवे सिया? जीवः भदन्त ! असंयतः अविरतः अप्रतिहत- ४६.'भन्ते ! असंयत, अविरत और अतीत पापकर्म प्रत्याख्यातपापकर्मा इतः च्युतः प्रेत्य देवः का प्रतिक्रमण तथा अनागत पापकर्म का प्रत्याख्यान न करने वाला जीव इस तिर्यंच या मनुष्य जन्म से मरकर क्या अगले जन्म में देव स्यात् ? होता है? गोयमा ! अत्थेगइए देवे सिया, अत्येगइए णो देवे सिया॥ गौतम ! अस्त्येककः देवः स्यात्, अस्त्येककः । गौतम ! कोई जीव देव होता है और कोई जीव नो देवः स्यात् । देव नहीं होता। ४६. सेकेणडेणं भंते ! एवं बुचइ-जीवेणं तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-जीवः ४६. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा अस्संजए अविरए अप्पडिहयपच्चक्खायपाव- असंयतः अविरतः अप्रतिहतप्रत्याख्यात- है—असंयत, अविरत और अतीत पापकर्म का कम्मे इओ चुए पेचा अत्थेगइए देवे सिया, पापकर्मा इतः च्युतः प्रेत्य अस्त्येककः देवः प्रतिक्रमण तथा अनागत पापकर्म का प्रत्याख्यान अत्थेगइए नो देवे सिया? स्यात्, अस्येककः नो देवः स्यात् ? न करने वाला कोई जीव इस तिर्यंच या मनुष्य जन्म से मरकर अगले जन्म में देव होता है और कोई जीव देव नहीं होता? | गोयमा ! जे इमे जीवा गामागर- गौतम ! ये इमे जीवाः ग्राम-आकर-नगर- गौतम ! ग्राम, आकर, नगर, निगम, राजधानी, नगर-रायहाणि-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह- निगम-राजधानी-खेट-कर्बट-मडम्ब-द्रोणमुख- खेट, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमुख, पत्तन, आश्रम और पट्टणासम-सण्णिवेसेसु अकामतण्हाए, अ- पत्तनाश्रम-सन्निवेशेषु अकामतृष्णया, अकाम- सनिवेश में रहने वाले जो ये जीव निर्जरा की कामछुहाए, अकामबंभचेरखासेणं, अकाम- क्षुधया, अकामब्रह्मचर्यवासेन, अकामशीता- अभिलाषा के बिना प्यास और भूख सहन करते सीतातव-दंस-मसग-अण्हाणग-सेय-जल्ल- तप-दंश-मशक-अनानक-स्वेद-जल्ल' मल- हैं, ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, सर्दी, गर्मी, मल-पंक-परिदाहेणं अप्पतरं वा भुजतरं वा पंक-परिदाहेन अल्पतरं वा भूयस्तरं वा कालंदंश-मशक, अस्नान, स्वेद, रज, मैल, पंक (गीला कालं अप्पाणं परिकिलेसंति, परिकिले- आत्मानं परिक्लेशयन्ति, परिक्लेश्य कालमासे मैल) के परिताप द्वारा थोड़े समय या अधिक लं किचा अण्णयरेसु कालं कृत्वा अन्यतरेषु देवलोकेषु देवतया समय तक अपने आपको परितप्त करते हैं, अपने वाणमंतरेसु देवलोगेसु देवत्ताए उववत्तारो उपपत्तारो भवंति। आपको परितप्त कर मृत्यु-काल में मृत्यु का वरण भवंति॥ कर किसी एक वानमंतर देवलोक में देवरूप में उपपन्न होते हैं। १. भ.वृ.२१५२। २. ठाणं,४१४४–पढमसमयसिद्धस्स णं चत्तारि कम्मंसा जुगवं खिजंति, तं जहा—वेयणिज्नं, आउयं, णाम, गोतं । ३. भ.७.११४५-'अवयगं'ति देशी वचनोऽन्तवाचकस्ततस्तनिषेधाद् अण वयग्गं, अनन्तमित्यर्थः । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श.१: उ.१: सू.४५-५० ५०. केरिसा गं मंते ! तेसिं वाणमंतराणं कीदृशाः भदन्त ! तेषां वानमन्तराणां देवानां ५०. भन्ते ! उन वानमंतर देवों के देवलोक किस देवाणं देवलोगा पण्णत्ता ? देवलोकाः प्रज्ञप्ताः ? प्रकार के प्रज्ञप्त हैं ? गोयमा ! से जहानामए इहं असोगवणे इ गौतम ! यथानामकम् इह अशोकवनं वा, गौतम ! जैसे इस मनुष्य लोक में सदा पुष्पित वा, सत्तवण्णवणे इ वा, चंपयवणे इ वा, सप्तपर्णवनं वा, चम्पकवनं वा, चूतवनं वा, (कुसुमिय), बौराया हुआ (माइय), नए पल्लवों चूयवणे इ वा, तिलगवणे इ वा, लउयवणे तिलकवनं वा, लकुचवनं वा, न्यग्रोधवनं वा, (लवइय) और फूलों के गुच्छों से लदा हुआ इवा, नग्गोहवणे इ वा, छत्तोहवणे इ वा, छत्रौघवनं वा, असनवनं वा, शणवनं वा, (थवइय), शाखाओं से घिरा हुआ (गुलुइय), असणवणे इवा, सणवणे इवा, अयसिवणे अतसीवनं वा, कुसुम्भवनं वा, सिद्धार्थवनं वा, पत्र-गुच्छों से लदा हुआ (गोच्छिय), समश्रेणि में इवा, कुसुंभवणे इ वा, सिद्धत्थवणे इ वा, बन्धुजीवकवनं वा, नित्यं कुसुमित-मयूरित- स्थित वृक्षों वाला (जमलिय), युग्म रूप में स्थित बंधुजीवगवणे इ वा, णिचं कुसुमिय-माइय- लवकित-स्तवकित-गुल्मकित-गुच्छित-यमलि- वृक्षों वाला (जुवलिय), फूलों और फलों के भार लवइय-थवइय-गुलुइय-गोच्छिय-जमलिय- त-युगलित-विनमित-प्रणमित-सुविभक्त से विनत, प्रणत, सुव्यवस्थित लुम्बी (पिण्डी) और जुवलिय-विणमिय-पणमिय-सुविभत्तपिडि- पिण्डीमञ्जर्यवतंसकधरं श्रिया अतीव-अतीव मञ्जरी-रूप मुकुट से युक्त, अशोक-वन, सप्तपर्ण मंजरि-वडेंसगघरे सिरीए अतीव-अतीव उपशोभमानं-उपशोभमानं तिष्ठति । (सतौना)-वन, चम्पक-वन, आम्र-बन, तिलकवन, उक्सोमेमाणे-उवसोभेमाणे चिठ्इ । लकुच (वहड़ल)-वन, न्यग्रोध (वट)-वन, छत्रौघवन, असन (बीजक, विजयसार)-बन, शण-वन, अलसी-वन, कुसुम्भ-वन, श्वेत सर्षप का वन और बन्धुजीवक (दुपहरिया के वृक्ष) का वन कान्ति से अतीव-अतीव उपशोभित-उपशोभित रहता न्ति। एवामेव तेसिं वाणमंतराणं देवाणं देवलोगा एवमेव तेषां वानमन्तराणां देवानां देवलोकाः इसी प्रकार उन वानमंतर देवों के देवलोक जहण्णेणं दसवाससहस्सद्वितीएहिं, उक्कोसेणं जघन्येन दससहस्रवर्षस्थितिकैः उत्कर्षेण जघन्यतः दस हजार वर्ष की स्थितिवाले और पलिओवमद्वितीएहिं, बहूहि वाणमंतरेहिं पल्योपमस्थितिकैः बहुभिः वानमन्तरैः देवैश्च उत्कर्षतः एक पल्योपम की स्थितिवाले अनेक देवेहि य देवीहि य आइण्णा वितिकिण्णा देवीभिश्च आकीर्णाः व्यतिकीर्णाः उपस्तृताः वानमंतर देवों और देवियों से आकीर्ण, व्यतिउक्त्थडा संथडा फुडा अवगाढा सिरीए संस्तृताः स्पृष्टाः गाढावगाढाः श्रिया अतीव- कीर्ण, उनके ऊपर और नीचे आने से ढके हुए, अतीव-अतीव उवसोभेमाणा-उवसोभेमा- अतीव उपशोभमाना-उपशोभमानाः तिष्ठ- आच्छादित, स्पृष्ट' (आसन, शयन आदि द्वारा णा चिट्ठति। परिभुक्त) और अत्यधिक अवगाढ़ अतीव-अतीव उपशोभित-उपशोभित हो रहे हैं। एरिसगा गं गोयमा ! तेसिं वाणमंतराणं ईदृशकाः गौतम ! तेषां वानमन्तराणां देवानां गौतम ! वानमंतर देवों के देवलोक इस प्रकार के देवाणं देवलोगा पण्णता। से तेणद्वेणं देवलोकाः प्रज्ञप्ताः। तत् तेनार्थेन गौतम ! प्रज्ञप्त हैं। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा गोयमा ! एवं बुचइ-जीवे णं अस्संजए एवमुच्यते—जीवः असंयतः अविरतः रहा है-असंयत, अविरत, अतीत पापकर्म का अविरए अप्पडिहयपचक्खायपावकम्मे इओ अप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा इतः च्युतः प्रेत्य प्रतिक्रमण और अनागत पापकर्म का प्रत्याख्यान चुए पेचा अत्थेगइए देवे सिया, अत्यंगइए अस्त्येककः देवः स्यात्, अस्त्येककः नो देवः। न करनेवाला कोई जीव इस तिर्यंच या मनुष्य नो देवे सिया ॥ स्यात्। जन्म से मरकर अगले जन्म में देव होता है और कोई जीव देव नहीं होता। भाष्य १. सूत्र ४८-५० पुनर्जन्म के सिद्धान्त का एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि मनुष्य ४२५-४२८ में किया गया है। देव गति के नियामक तत्त्व चार मृत्यु के पश्चात् फिर मनुष्य ही नहीं होता, वह नरक, तिर्यञ्च या बतलाए गए हैं-१. सराग संयम २. संयमासंयम ३. बाल तप देव किसी भी गति में उत्पन्न हो सकता है। इन सब गतियों में ४.अकाम निर्जरा।' उत्पन्न होने के कुछ नियामक तत्त्व हैं। उनका निर्देश भगवती, प्रस्तुत सूत्र अकाम निर्जरा का एक उदाहरण है। एक ऐसा उयकम्मा सरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं देवाउयकम्मासरीरप्पयोगबंधे। १. भ.५४४२५-देवाउयकम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं? गोयमा ! सरागसंजमेणं, संजमासजमेणं, बालतवोकम्मेणं, अकामनिज्जराए देवा Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.१: सू.४८-५० ४४ भगवई ३. जिसके चारों ओर कांटे की बाड़ हो अथवा मिट्टी का परकोटा जीव जिसके कोई संयम नहीं है, कोई व्रत नहीं है, जिसने पापकर्म का कोई प्रत्याख्यान नहीं किया है, वह जीव भी मृत्यु के पश्चात् देव बन सकता है। इसका हेतु है-अकाम निर्जरा। जो व्यक्ति निर्जरा का अभिलाषी नहीं है, जिसका कर्म-निर्जरण का अभिप्राय भी नहीं है, फिर भी निर्जरा की हेतुभत क्रिया होने पर उसके निर्जरा हो जाती है। उसे अकाम निर्जरा कहा जाता है।' भूख और प्यास सहना, ब्रह्मचारी रहना, सर्दी-गर्मी आदि सहना-ये सब निर्जरा के हेतु हैं। केवल एक ही शर्त है कि इनको सहन करने में परिणाम संक्लिष्ट नहीं होने चाहिए। तत्त्वार्थराजवार्तिक में दीर्घकाल-रोगी आदि का भी उल्लेख किया गया है। यह सूत्र मिथ्यादृष्टि असंयमी के लिए प्रतिपादित है। सम्यग्दृष्टि असंयमी 'व्यन्तर देव' का आयुष्य-बन्ध नहीं करता । वह केवल 'वैमानिक देव' का ही आयुष्य-बन्ध करता ४. कृषक आदि लोगों का निवास स्थान । ५. जनपद का एक हिस्सा। २. आकर १. सोना, लोहे आदि की खान ।' २. खान आदि का समीपवर्ती गांव, मजदूर-बस्ती। " ३. नगर १. जिसमें कर नहीं लगता हो।" यह व्युत्पत्तिपरक अर्थ है। २. जो राजधानी हो।" ३. जो पण्यक्रिया आदि में निपुण चारों वर्गों के लोगों से सहित है, जो अनेक जातियों से सम्बन्ध है, जहां विभिन्न शिल्पवाले लोग रहते हैं और जिसमें सभी देवताओं से सम्बन्धित स्थान होते हैं।" अर्थशास्त्र" में राजधानी के लिए 'नगर' या 'दुर्ग' और साधारण कस्बों के लिए 'ग्राम' शब्द प्रयुक्त हुआ है। प्रस्तुत प्रकरण में नगर और राजधानी दोनों का उल्लेख है। इससे जान पड़ता है कि नगर बड़ी बस्तियों का नाम है, भले फिर वे राजधानी हों या न हों। राजधानी वह होती है, जहां से राज्य का संचालन होता शब्द-विमर्श २. ग्राम.......सनिवेश ग्राम, आकर, नगर, निगम, राजधानी, खेट, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमुख, पत्तन, आश्रम और सनिवेश-ये शब्द बारह बस्ती के प्रकार हैं: १. ग्राम १. जो बुद्धि आदि गुणों को ग्रसित करे। यह व्युत्पत्तिपरक अर्थ है। अथवा जहां १८ प्रकार के कर लगते हों।' २. जहां कर लगते हैं। ४. निगम १. व्यापारियों की बस्ती।" १. भ.वृ.११४९-अकामानां निर्जराधनभिलाषिणां सताम् अकामो वा- ६.(क) वही.१ । ४६ । निरभिप्रायः। (ख) नि.चू.भाग ३, पृ.३४६ सुवण्णादि आगरो। २. त.रा.वा.६।२०-दीर्घकालरोगिणः असंक्लिष्टाः तरुगिरिशिखरपातिनः अन- (ग) स्था.वृ.प.८३-लोहाद्युत्पत्तिभूमयः । शनज्वलनजलप्रवेशनविषभक्षणधर्मबुद्धयः व्यन्तरमानुषतिर्यक्षु । १०. उत्तरा.बृ.वृ.प.६०५। ३. (क) म.३०/१०,११। ११. (क) भ.वृ.११ ४६। (ख) त.रा.वा.६।२१-सम्यक्त्व ञ्च । (ख) स्था.वृ.प.८२–नैतेषु करोऽस्तीति नकराणि। सम्यक्त्वं देवस्यायुष आश्रव इत्यविशेषाभिधानेऽपि सौधर्मादिविशेष- (ग) दशवै.हा.टी,प.१७४---नास्मिन् करो विद्यते इति नकरम् । गतिर्भवति। कुतः पृथक्करणात् यद्यविशेषगतिरेवेष्टा स्यात् पृथक्करणमनर्थक (घ) नि.चू.भाग ३,पृ.३४७–ण करा जत्थ तं णगरं । स्यात् पूर्वसूत्रे एवोच्यते। यद्येवं पूर्वसूत्र उक्त आश्रवविधिः अविशेषेण प्रसक्तः (ङ) उत्तरा.बृ.वृ.प. ६०५। तेन सरागसंयमसंयमासंयमावपि भवनवास्याद्यायुष आश्रवौ प्रसक्तौ ? १२. विनयविजय कृत लोक-प्रकाश, सर्ग ३१, श्लोक ६-नगरे राजधानी न, अतस्तदसिद्धे नैष दोषः। कुतः ? अतस्तत्सिद्धे यत एव सम्यक्त्वं स्यात् । सौधर्मादिष्विति नियम्यते तत एव तयोरपि नियमसिद्धिः, नासति सम्यक्त्वे १३. आप्टे, नगरसरागसंयमसंयमासंयमव्यपदेश इति । पण्यक्रियादिनिपुणैश्चातुर्वर्ण्यजनैर्युतम् । ४. (क) उत्तरा.बृ.वृ.प.६०५ --ग्रसति गुणान् गम्यो वाऽष्टादशानां कराणामिति नेकजातिसम्बद्धं, नैकशिल्पीसमाकुलम् । ग्रामः। सर्वदैवतसम्बद्धं, नगरत्वभिधीयते ॥ (ख) दशवै.हा.टी.प.१७४---प्रसति बुद्ध्यादीन् गुणानिति ग्रामः । १४. उत्तर.३०।१६ का टिप्पण। ५. नि.चू.भाग ३, पृ.३४६-करादियाण गम्मो गामो । १५. (क) भ.बृ.११४६ वणिग्जनप्रधानं स्थानम् । ६. दशवैकालिकः एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृ.२२० । (ख) स्था.वृ.प.८२. निगमाः वणिग्-निवासाः । ७. उत्तरा.बृ.वृ.प.६०५ । (ग) नि.चू.भाग.३,पृ.३४६-वणियवग्गो जत्थ वसति ते णेगमं । ८. भ.वृ.१।४६। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४५ श.१: उ.१: सू.४८-५० २. जहां से अनेक प्रकार के भाण्ड निर्यात किए जाते हैं।' ५. राजधानी १. वह बस्ती जहां राजा रहता हो।' २. जहां राजा का अभिषेक हुआ हो।' ३. जनपद का मुख्य नगर । ६. खेट १. जिसके चारों ओर धूलि का प्राकार हो।' ७. कर्बट १. पर्वत की ढलान। २. कुनगर । चूर्णिकार जिनदास ने 'कुनगर' का अर्थ किया है--जहां क्रय-विक्रय न होता हो।' ३. बहुत छोटा सन्निवेश। ४. जिले का प्रमुख नगर।" ५. वह नगर जहां बाजार हो।" ६. जहां माया, कूटसाक्षी आदि अप्रामाणिक या अनैतिक व्यवसाय होता है।" ६. द्रोणमुख १. जहां जल और स्थल दोनों निर्गम और प्रवेश के मार्ग हों।" उत्तराध्ययन के वृत्तिकार ने इसके लिए भृगकच्छ (भरौंच, गुजरात) और ताम्रलिप्ति (तामलुक, बंगाल) का उदाहरण दिया है। २. समुद्र के किनारे बसा हुआ गांव, ऐसा गांव जिसमें जल और स्थल से पहुंचने का मार्ग हो। ३. ४०० गांवों की राजधानी।" १०. पत्तन १. (क) जलपत्तन—जलमध्यवर्ती द्वीप। (ख) स्थलपत्तन-निर्जल भूभाग में होने वाला। उत्तराध्ययन के वृत्तिकार ने जलपत्तन के प्रसंग में काननद्वीप और स्थलपत्तन के प्रसंग में मथुरा का उदाहरण प्रस्तुत किया है।" २. जहां विविध देशों से सामान का आयात- निर्यात होता हो, वह व्यापारिक क्षेत्र ।" (आज की भाषा में जिसे बन्दरगाह कहा जाता है-जैसै बम्बई, कलकत्ता आदि।) ११. आश्रम १. तापसों का निवास स्थान । ८. मडम्ब २. तीर्थस्थान । १. जिसके एक योजन तक कोई दूसरा गांव न हो।" २. जिसके ढाई योजन तक कोई दूसरा गांव न हो।" ३. जिसके चारों ओर आधे योजन तक गांव न हो।" ४. जिसके चारों ओर दूर तक कोई सनिवेश न हो।" १२. सन्निवेश १. यात्रा से आए हुए मनुष्यों के रहने का स्थान।" २. सार्थ (यात्रीदल) और कटक (सेना) का निवास स्थान । १. उत्तरा.बृ.बृ.प. ६०५-निगमयन्ति तस्मिन्ननेकविधभाण्डानीति निगमः । २. नि.चू.भाग ३,पृ.३४६-जत्थ राया वसति सा रायहाणी। ३. स्था.वृ.प.८२,८३-राजधान्यो—यासु राजानोऽभिषिच्यन्ते । ४. उत्तरा.बृ.वृ.प.६०५। ५. (क) भ.वृ. १४६ (ख) नि.चू.भाग३,पृ.३४६-खेडं णाम धूलीपागारपरिक्खितं । ६.A Sanskrit English Dictionary by Sir Monier Williams, p.259. ७. (क) भ.वृ. ११४६। (ख) नि.चू.भाग३, पृ.३४६ कुणगरो कब्बडं। ८. दशवै.जि.चू.पृ.३६०। ६. (क) उत्तरा.बृ.वृ.प. ६०५/ (ख) दशवै.हा.टी.प.२७५ १०. A Sanskrit English Dictionary by Sir Monier Williams, p. 259. ११. दशवैकालिकः एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृ. २२० । १२. दशवै.जि.चू.पृ.३६०,अ.चू.पृ.२५५ । १३. नि.चू.भाग३,पृ.३४६--जोयणमंतरे जस्स गामादी णस्थि तं पडदं । १४. उत्तरा.वृ.वृ.प.६०५। १५. स्था.वृ.प.८३-मडम्बानि सर्वतोऽर्द्धयोजनात परतोऽवस्थितग्रामाणि। १६. भ.वृ.१।४६–सर्वतो दूरवर्ती सन्निवेशान्तरम् । १७. (क) नि.चू.भाग३,पृ.३४६-दोण्णि मुहा जस्स तं दोण्णमुहं जलेण वि भंडमागच्छति। (ख) स्था.वृ.प.८३। (ग) भ.वृ.११४६ १८. उत्तरा.बृ.वृ.प.६०५। १६. कौटिल्य अर्थशास्त्र,२२–चतुःशतग्राम्यो द्रोणमुखम् । २०. (क) नि.चू.भाग ३,पृ. ३४६। (ख) उत्तरा.बृ.वृ.प.६०५। (ग) स्था.वृ.प.८३। २१. उत्तरा.दृ.वृ.प.६०५। २२. भ.वृ.१।४६। २३. (क) नि.चू.भाग३, पृ.३४६ । (ख) उत्तरा.बृ.वृ.प.६०५। (ग) भ.वृ.११४६ २४. स्था.वृ.प.८३। २५. (क) उत्तरा.बृ.वृ.प.६०५। (ख) नि.चू.भाग३,पृ.३४६,३४७। २६. स्था.वृ.प.८३ सार्थकटकादेः। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४६ श.१: उ.१: सू.४८-५१ ३. आकीर्ण.......स्पृष्ट आकीर्ण-व्याप्त' (spread)।' व्यतिकीर्ण-मिश्रित, एकीभूत (mixed, united) | ढके हुए उनके ऊपर और नीचे आने से ढके हुए। संस्कृतइंग्लिश शब्दकोश में 'उपस्तु' का एक अर्थ 'to strew or cover with' किया गया है।' आच्छादित ऊपर से फैलाकर ढक देना' (to overspread) | स्पृट-वृत्तिकार ने इसके दो संस्कृत रूप किए हैं 'स्पृष्ट' और ५१. सेवं भंते ! सेवं मंते ! ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति, वंदित्ता नमंसित्ता संजमेणं तवसा अपाणं भावेमाणे विहरति॥ तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरति। ५१. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है। इस प्रकार भगवान् गौतम श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करते हैं, वन्दननमस्कार कर वे संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए विहरण कर रहे हैं। १. भंते ! वह ऐसा ही है, भंते ! वह ऐसा ही है। भाष्य भारतीय संस्कृति विनम्रता की संस्कृति है। उसके आधार पर गुरु और शिष्य के सम्बन्धों की परम्परा स्थापित हुई है। उसमें एक सम्बन्ध है-जिज्ञासा और समाधान। शिष्य जिज्ञासा करता है और गुरु उसका समाधान देता है। समाधान के समय गुरु के मन में शिष्य के ज्ञान-वृद्धि की भावना रहती है। समाधान के पश्चात् शिष्य का मन आनन्द-पुलकित और भाव-विभोर हो उठता है। वह सहज ही कृतज्ञता के स्वर में बोल उठता है-"भन्ते ! आपने मुझे नया आलोक दिया है, नई दृष्टि दी है। आपने जो कहा वह बिलकुल सही है।" यह कृतज्ञता की अभिव्यक्ति एक नई प्रेरणा को संजीवित करती है। गुरु के मन में शिष्य को और अधिक ज्ञान देने की भावना पल्लवित हो जाती है। इस प्रकार यह अहोभाव ज्ञान की परम्परा के चिरजीवी होने का सूत्र बन जाता है। शिष्य भावना पल्लवित होका और अधिक ज्ञान देने की पुलकित और भाव-विभोर हो १. भ.वृ.१/५० २. आप्टे. ३. वही। ४. वही। ५. भ.वृ.१।५० तैरेवाक्रीडमानैरन्योन्यस्पर्धया समन्ततश्चरद्भिराच्छादिता इति । ६. आटे. Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ उद्देसो : दूसरा उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद ५२. रायगिहे नगरे समोसरणं। परिसा णिग्गया जाव एवं वयासी राजगृहे नगरे समवसरणम् । परिषद् निर्गता ५२. राजगृह नगर में भगवान् का समवसरण। यावद् एवमवादीत् परिषद् ने नगर से निर्गमन किया। भगवान् ने धर्म कहा। परिषद् वापस नगर में चली गई, यावत् गौतम स्वामी बोले कम्म-वेयण-पदं कर्म-वेदन-पद कर्म-वेदन-पदम् जीवः भदन्त ! स्वयंकृतं दुःखं वेदयति ? ५३. जीवे णं भंते ! सयंकडं दुक्खं वेदेइ ? ५३. 'भन्ते ! क्या जीव स्वयंकृत दुःख का वेदन करता है? गौतम ! जीव किसी दःख का वेदन करता है. किसी दुःख का वेदन नहीं करता। गोयमा ! अत्येगइयं वेदेइ, अत्यंगइयं नो वेदेइ॥ गौतम ! अस्त्येककं वेदयति, अस्त्येककं नो वेदयति । ५४. से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचइ- अत्थेगइयं वेदेइ ? अत्येगइयं नो वेदेइ ? गोयमा ! उदिण्णं वेदेइ, नो अणुदिण्णं वेदेइ । से तेणटेणं गोयमा! एवं बुच्चइ- अत्येगइयं वेदेइ, अत्थेगइयं नो वेदेइ॥ तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-अस्त्ये- ५४. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है ककं वेदयति ? अस्त्येककं नो वेदयति? -जीव किसी दुःख का वेदन करता है, किसी दुःख का वेदन नहीं करता? गौतम ! उदीर्णं वेदयति, नो अनुदीर्णं गौतम ! जीव उदीर्ण (उदय-प्राप्त) दुःख का वेदन वेदयति । तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते- करता है, अनुदीर्ण (अनुदय-प्राप्त) दुःख का वेदन अस्त्येककं वेदयति, अस्त्येककं नो वेदयति। नहीं करता। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-जीव किसी दुःख का वेदन करता है, किसी दुःख का वेदन नहीं करता। ५५. एवं जाव वेमाणिए॥ एवं यावद् वैमानिकः। ५५. (नैरयिक से लेकर) वैमानिक तक इसी प्रकार वक्तव्य है। ५६. जीवा णं भंते ! सर्यकडं दुक्खं वेदेति ? जीवाः भदन्त ! स्वयंकृतं दुःखं वेदयन्ति ? ५६. भन्ते ! क्या जीव स्वयंकृत दुःख का वेदन करते हैं ? गौतम ! जीव किसी दुःख का वेदन करते हैं, किसी दुःख का वेदन नहीं करते। गोयमा ! अत्थेगइयं वेदेति ? अत्यंगइयं नो वेदेति ॥ गौतम ! अस्त्येककं वेदयन्ति, अस्त्येककं नो वेदयन्ति। ५७. से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ- अत्थेगइयं वेदेति ? अत्थेगइयं नो वेदेति? गोयमा ! उदिण्णं वेदेति, नो अणुदिण्णं वेदेति। से तेणडेणं गोयमा ! एवं वुचइ -अत्यंगइयं वेदेति, अत्थेगइयं नो वेदेति। तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-अस्त्ये- ५७. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा ककं वेदयन्ति ? अस्त्येककं नो वेदयन्ति ? है—जीव किसी दुःख का वेदन करते हैं, किसी दुःख का वेदन नहीं करते? गौतम ! उदीर्णं वेदयन्ति, नो अनुदीर्णं गौतम ! जीव उदीर्ण दुःख का वेदन करते हैं, वेदयन्ति । तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते अनुदीर्ण दुःख का वेदन नहीं करते। गौतम ! -अस्त्येककं वेदयन्ति, अस्त्येककं नो इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-जीव किसी वेदयन्ति। दुःख का वेदन करते हैं, किसी दुःख का वेदन नहीं करते । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.२ः सू.५३-५६ ४८ भगवई ५८. एवं जाव वेमाणिया॥ एवं यावद् वैमानिकाः। ५५. (नैरयिकों से लेकर) वैमानिकों तक इसी प्रकार वक्तव्य है। ५६.जीवे णं भंते ! सयंकडं आउयं वेदेइ ? जीवः भदन्त ! स्वयंकृतं आयुः वेदयति ? गोयमा ! अत्थेगइयं वेदेड, अत्थेगइयं नो वेदेइ । जहा दुक्खेणं दो दंडगा तहा आउ- एण वि दो दंडगा एगत्त-पोहत्तिया ॥ गौतम ! अस्त्येककं वेदयति, अस्त्येककं नो वेदयति । यथा दुःखेन द्वौ दण्डको तथा आयुषाऽपि द्वौ दण्डकी-एकत्वपृथक्त्वको। ५६. भन्ते ! क्या जीव स्वयंकृत आयुष्य का वेदन करता है ? गौतम ! जीव किसी आयुष्य का वेदन करता है, किसी आयुष्य का वेदन नहीं करता। जैसेदुःख के दो दण्डक (वाक्य-रचना विकल्प) बतलाए गए हैं, वैसे ही आयुष्य के भी दो दण्डक वक्तव्य हैं-एकवचन वाला और बहुवचन वाला। भाष्य १. सूत्र ५३-५६ दार्शनिक क्षेत्र में कर्मवेदन के विषय में तीन धारणाएं प्रचलित दूसरा प्रश्न आयुष्य से सम्बन्धित है। आयुष्य का बन्ध हैं-ईश्वरकर्तृत्ववाद, अज्ञेयवाद और कर्मवाद । कुछ दार्शनिक मानते पूर्वजन्म में हो जाता है, किन्तु उसका वेदन नए जन्म के साथ ही हैं कि प्राणी को सुख-दुःख का फल ईश्वर के द्वारा प्राप्त होता है, प्रारम्भ होता है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि सुख-दुःख यह ईश्वरकर्तृत्ववाद है। कुछ दार्शनिक मानते हैं कि सुख-दुःख के और आयु के वेदन में नया जन्म नियामक की भूमिका निभाता है। फल-भोग का हेतु अज्ञात है, यह अज्ञेयवाद है। सुख दुःख का फल पातञ्जल योगदर्शन के 'सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्मोगाः' सूत्र के अपने किए हुए कर्मों के द्वारा प्राप्त होता है, यह कर्मवाद है। जैन साथ इसकी तुलना की जा सकती है। वृत्तिकार ने आयुष्य के विषय दर्शन कर्मवादी दर्शन है। वह प्रत्येक वेदन को अपने किए हुए कर्म में वृद्धोक्तभावना का उल्लेख किया है। उसके अनुसार कोई जीव का फल मानता है। इसीलिए स्वयंकृत कर्म का प्रश्न उपस्थित किया सातवीं नारकी के योग्य आयु कर्म का बन्ध कर लेता है और गया है। इसी से जुड़ा प्रश्न चेदन का, कर्म के भोग का है। क्या कालान्तर में परिणामधारा के परिवर्तन के साथ तीसरे नरक के योग्य कोई जीव एक जन्म में अपने किए हुए सारे कर्मों का वेदन कर कर्म का निर्वर्तन कर लेता है। इस प्रकार की घटना के आधार पर लेता है? यदि कर लेता है तो पहले किसका करेगा और बाद में कहा जाता है कि कोई जीव अनुदीर्ण, पूर्वबद्ध आयु का वेदन नहीं किसका? इस पौर्वापर्य का निर्धारण कौन करेगा ? इस प्रश्न के करता। जिस स्थान का आयु-बन्ध करता है, वहीं पैदा होता है, उत्तर में भगवान् ने कहा कि कर्म के वेदन की एक व्यवस्था है, तब वह उदीर्ण आयु का वेदन करता है। वह स्वयंकृत है, उस व्यवस्था का नाम है काल-मर्यादा। कर्म-बन्ध वृत्तिकार ने प्रश्न उपस्थित किया है कि प्रस्तुत आलापक में के समय उसकी स्थिति और फल देने की क्षमता का निर्धारण हो एकवचन और बहुवचन का प्रयोग क्यों ? इसके उत्तर में उन्होंने लिखा जाता है। जैसे ही स्थिति का परिपाक होता है, वैसे ही कर्म है कि कुछ स्थलों में एकवचन और बहुवचन का विषय बदल जाता विपाकाभिमुखी होकर उदय में आता है। जिसका उदय होता है, है। उदाहरणस्वरूप–क्षायोपशमिक सम्यकत्व की स्थिति एक जीव की उसी का वेदन होता है। जिसका उदय नहीं होता, उसका वेदन नहीं अपेक्षा साधिक ६६ सागर की है और नाना जीवों की अपेक्षा उसकी होता। इसी कर्मवाद के रहस्य को अभिव्यक्ति देने के लिए भगवान् ने कहा-किसी कर्म का वेदन होता है, किसी का नहीं होता। स्थिति सर्वकालिक है।' किन्तु यहां ऐसा भेद नहीं है। दुःख और आयुष्य के वेदन का नियम जो एक जीव के लिए है, वही सब जीवों वृत्तिकार ने दुःख का अर्थ कर्म किया है। उन्होंने लिखा है के लिए है। सांख्यिकी (statistics) के अनुसार समष्टि और व्यष्टि में कि सांसारिक सुख भी वस्तुतः दुःख होता है, दुःख का हेतु कर्म सर्वथा समान नियम लागू हो, यह आवश्यक नहीं है। पर यहां समानता होता है। इसलिए वहां दुःख का अर्थ कर्म है।' किन्तु यहां दुःख का नियम लाग हो रहा है. यह उसका उदाहरण है। और वेदन दो पदों का योग है; इसलिए यहां दुःख का अर्थ वेदनीय कर्म तक सीमित रखना संगत लगता है। १. भ.वृ.११५३ २. पा.यो.द.२।१३। ३. भ.वृ.११५६। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई नेरइयादीणं समाहार-समसरीरादि-पदं ४६ श.१: उ.२: सू.६०-६४ नैरयिकादीनां समाहार-समशरीरादि-पदम् नैरयिक आदि जीवों का समान आहार, समान शरीर आदि-पद ६०. नेरइया णं मंते ! सबे समाहारा ? सव्वे समसरीरा ? सब्बे समुस्सासनीसासा? गोयमा ! नो इणद्वे समझे ॥ नैरयिकाः भदन्त ! सर्वे समाहाराः ? सर्वे ६०. 'भन्ते ! क्या सब नैरयिक समान आहार, समशरीराः ? सर्वे समोच्छ्वासनिःश्वासाः? समान शरीर और समान उच्छ्वास-निःश्वास वाले गौतम ! नो अयमर्थः समर्थः । गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। ६१. से केणटेणं भंते ! एवं बुचइ-नेरइया तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-नो सर्वे ६१. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा हैं नो सब्बे समाहारा ? नो सम्बे समसरीरा? समाहाराः ? नो सर्वे समशरीराः ? नो सर्वे -सब नैरयिक समान आहार, समान शरीर और नो सब्वे समुस्सासनीसासा ? समोच्छ्वासनिःश्वासाः ? समान उच्छ्वास-निःश्वास वाले नहीं होते ? गोयमा ! नेरइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा गौतम ! नैरयिकाः द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा गौतम ! नैरयिक दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे -महासरीरा य, अप्पसरीरा य । तत्य -महाशरीराः च, अल्पशरीराः च, तत्र ये महाशरीरी और अल्पशरीरी। इनमें जो महाशरीरी णं जेते महासरीरा ते बहुतराए पोग्गले एते महाशरीराः ते बहुतरान् पुद्गलान् हैं, वे बहुतर पुद्गलों का आहार करते हैं, बहुतर आहारेंति, बहुतराए पोग्गले परिणामेंति, आहरन्ति, बहुतरान् पुद्गलान् परिणमयन्ति, पुद्गलों का परिणमन करते हैं और बहुतर पुद्गलों बहुतराए पोम्गले उस्ससंति, बहुतराए बहुतरान् पुग्लान् उच्छ्वसन्ति, बहुतरान् का उच्छ्वास करते हैं, बहुतर पुद्गलों का पोग्गले नीससंति; अभिक्खणं आहारेंति, पुद्गलान् निःश्वसन्ति; अभीक्ष्णम् आहरन्ति, निःश्वास करते हैं; बार-वार आहार करते हैं, अभिक्खणं परिणामेति, अभिक्खणं अभीक्ष्णं परिणमयन्ति, अभीक्ष्णम् उच्छ्व- बार-बार परिणमन करते हैं, बार-बार उच्छ्वास ऊससंति, अभिक्खणं नीससंति। सन्ति, अभीक्ष्णं निःश्वसन्ति। करते हैं और बार-बार निःश्वास करते हैं। तत्य णं जेते अप्पसरीरा ते णं अपतराए तत्र ये एते अल्पशरीराः ते अल्पतरान् इनमें जो अल्पशरीरी हैं, वे अल्पतर पुद्गलों का पोग्गले आहारेंति, अप्पतराए पोग्गले पुद्गलान् आहरन्ति, अल्पतरान् पुद्गलान् आहार करते हैं, अल्पतर पुद्गलों का परिणमन परिणामेति, अप्पतराए पोग्गले उस्ससंति, परिणमयन्ति, अल्पतरान् पुद्गलान् उच्छ्- करते हैं, अल्पतर पुद्गलों का उच्छ्वास करते हैं अप्पतराए पोग्गले नीससंति; आहच वसन्ति, अल्पतरान् पुद्गलान् निःश्वसन्ति; और अल्पतर पुद्गलों का निःश्वास करते हैं; वे आहारेंति, आहच परिणामेति, आहच आहत्य आहरन्ति, आहत्य परिणमयन्ति, कदाचित् (नियमित समय में) आहार करते हैं, उस्ससंति, आहच्च नीससंति। से तेणटेणं आहत्य उच्छ्वसन्ति, आहत्य निःश्वसन्ति। कदाचित परिणमन करते हैं, कदाचित् उच्छ्वास करते है और कदाचित् निःश्वास करते हैं। गोयमा ! एवं बुचइ-नेरइया नो सब्बे तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-नैरयिकाः गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-सब समाहारा, नो सब्बे समसरीरा, नो सव्वे नो सर्वे समाहाराः, नो सर्वे समशरीराः, नो नैरयिक समान आहार, समान शरीर और समान समुस्सासनीसासा ॥ सर्वे समोच्छ्वासनिःश्वासाः । उच्छ्वास-निःश्वास वाले नहीं होते। ६२. नेरइया णं भंते ! सब्बे समकम्मा ? गोयमा ! नो इणद्वे समटे ॥ नैरयिकाः भदन्त ! सर्वे समकर्माणः ? गौतम ! नो अयमर्थः समर्थः । ६२. भन्ते ! क्या सब नैरयिक समान कर्म वाले हैं ? गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। ६३. से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ-नेरइया नो सव्वे समकम्मा ? गोयमा ! नेरइया दुविहा पण्णता, तं जहा -पुब्बोववनगा य, पच्छोववनगा य। तत्थ णं जेते पुचोववनगा ते णं अप्पकम्म- तरागा। तत्थ णं जेते पच्छोववनगा ते णं महाकम्मतरागा। से तेणटेणं गोयमा ! एवं बुचइ-नेरइया नो सब्बे समकम्मा॥ तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते-नैरयिकाः ६३. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है नो सर्वे समकर्माणः ? -सब नैरयिक समान कर्म वाले नहीं हैं ? गौतम ! नैरयिकाः द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् गौतम ! नैरयिक दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-पूर्व यथा-पूर्वोपपन्नकाः च, पश्चादुपपत्रकाः उपपन्न और पश्चाद् उपपन्न। इनमें जो पूर्व च। तत्र ये एते पूर्वोपपत्रकाः ते अल्पतरक- उपपन्न हैं, वे अल्पतरकर्म वाले है। इनमें जो कर्माणः। तत्र ये एते पश्चादुपपन्नकाः ते पश्चाद् उपपन्न हैं, वे महत्तरकर्म वाले हैं। गौतम! महत्तरककर्माणः । तत् तेनार्थेन गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-सब नैरयिक एवमुच्यते-नैरयिकाः नो सर्वे समकर्माणः। समान कर्म वाले नहीं हैं। ६४. नेरइया णं मंते ! सब्बे समवण्णा ? गोयमा ! नो इणद्वे समढे । नैरयिकाः भदन्त ! सर्वे समवर्णाः ? गौतम ! नो अयमर्थः समर्थः। ६४. भन्ते ! क्या सब नैरयिक समान वर्ण वाले हैं? गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.२ः सू.६५-७१ ५० भगवई ६५. सेकेणद्वेणं भंते ! एवं बुचइ-नेरइया नो सब्बे समवण्णा ? गोयमा ! नेरइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा -पनोवववगाय, पच्छोववनगा य । तत्थ णं जेते पुब्बोववनगा ते णं विसुद्धवण्ण- तरागा। तत्थ णं जेते पच्छोववत्रगा ते णं अविसुद्धवण्णतरागा। से तेणद्वेणं गोयमा! एवं बुचइ-नेरइया नो सब्बे समवण्णा॥ तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-नैरयिकाः ६५. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है नो सर्वे समवर्णाः ? -सब नैरयिक समान वर्ण वाले नहीं हैं ? गौतम ! नैरयिकाः द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा गौतम ! नैरयिक दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-पूर्वोपपत्रकाः च, पश्चादुपपन्नकाः च, तत्र । पूर्व उपपन्न और पश्चाद् उपपन्न। इनमें जो पूर्व ये एते पूर्वोपपन्नकाः ते विशुद्धतरकवर्णाः। उपपन्न हैं, वे विशुद्धतर वर्ण वाले हैं । इनमें जो तत्र ये एते पश्चादुपपत्रकाः ते अविशुद्धतर- पश्चाद् उपपन्न हैं, वे अविशुद्धतर वर्ण वाले हैं। कवर्णाः । तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते- गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा हैनैरयिकाः नो सर्वे समवर्णाः । सब नैरयिक समान वर्ण वाले नहीं हैं। ६६. नेरड्या णं भंते ! सब्बे समलेस्सा? नैरयिकाः भदन्त ! सर्वे समलेश्याः ? ६६. भन्ते ! क्या सब नैरयिक समान लेश्या वाले गोयमा ! नो इणद्वे समढे ॥ गौतम ! नो अयमर्थः समर्थः । गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। ६७. से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचइ-नेरइया तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-नैरयिकाः ६७. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है नो सब्वे समलेस्सा ? नो सर्वे समलेश्याः ? -सब नैरयिक समान लेश्या वाले नहीं हैं ? गोयमा ! नेरइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा गौतम! नैरयिकाः द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् गौतम ! नैरयिक दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे -पव्वोववनगा य, पच्छोववनगा य । तत्थ यथा-पूर्वोपपन्नकाः च, पश्चादुपपन्नकाः । पूर्व उपपन्न और पश्चाद् उपपन्न । इनमें जो पूर्व णं जेते पुब्बोववन्नगा ते गं विसुद्धलेस्स- च। तत्र ये एते पूर्वोपपन्नकाः ते विशुद्धतरक- उपपन्न हैं, वे विशुद्धतर लेश्या वाले हैं। इनमें तरागा। तत्थ णं जेते पच्छोववनगा ते णं लेश्याः। तत्र ये एते पश्चादुपपन्नकाः ते जो पश्चाद् उपपन्न हैं, वे अविशुद्धतर लेश्या वाले अविसुद्धलेस्सतरागा। से तेणटेणं गोयमा! अविशुद्धतरकलेश्याः । तत् तेनार्थेन गौतम! हैं। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा एवं बुचइ-नेरइया नो सव्वे समलेस्सा॥ एवमुच्यते-नैरयिकाः नो सर्वे समलेश्याः । है-सब नैरयिक समान लेश्या वाले नहीं हैं। ६८. नेरइया णं भंते ! सब्बे समवेयणा? नैरयिकाः भदन्त ! सर्वे समवेदनाः ? ६५. भन्ते ! क्या सब नैरयिक समान वेदना वाले गोयमा ! नो इणद्वे समढे ॥ गौतम ! नो अयमर्थः समर्थः। गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। ६६.से केणटेणं भंते ! एवं बुचइ-नेरइया तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-नैरयिकाः ६६. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है नो सव्वे समवेयणा ? नो सर्वे समवेदनाः ? -सब नैरयिक समान वेदना वाले नहीं हैं ? गोयमा ! नेरइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा गोतम ! नैरयिकाः द्विविधाः प्रज्ञप्ताः तद् यथा गौतम ! नैरयिक दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे - -सण्णिभूया य, असण्णिभूया य । तत्थ -संज्ञिभूताश्च, असंज्ञिभूताश्च। तत्र ये संज्ञिभूत और असंज्ञिभूत । इनमें जो संज्ञिभूत हैं, णं जेते सण्णिभूया ते णं महावेयणा। तत्थ एते संज्ञिभूताः ते महावेदनाः। तत्र ये एते वे महान् वेदना वाले हैं । इनमें जो असंज्ञिभूत णं जेते असण्णिभूया ते णं अप्पवेयण- असंज्ञिभूताः ते अल्पतरकवेदनाः। तत् हैं, वे अल्पतर वेदना वाले हैं। गौतम ! इस तरागा। से तेजडेणं गोयमा एवं बुचइ- तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-नैरयिकाः नो अपेक्षा से यह कहा जा रहा है–सब नैरयिक नेरइया नो सब्बे समवेयणा ॥ सर्वे समवेदनाः। समान वेदना वाले नहीं हैं। ७०. नेरडया णं भंते ! सव्वे समकिरिया ? नैरयिकाः भदन्त ! सर्वे समक्रियाः ? ७०. भन्ते ! क्या सब नैरयिक समान क्रिया वाले गोयमा ! नो इणद्वे समढे ॥ गौतम ! नो अयमर्थः समर्थः । गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं हैं। ७१. से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचइ-नेरइया तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-नैरयिकाः ७१. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है नो सव्वे समकिरिया ? नो सर्वे समक्रियाः ? -सब नैरयिक समान क्रिया वाले नहीं हैं? गोयमा ! नेरइया तिविहा पण्णत्ता, तं जहा गौतम! नैरयिकाः त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा गौतम ! नैरयिक तीन प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे -सम्मदिट्टी, मिच्छदिट्ठी, सम्मामिच्छ- सम्यग्दृष्टयः मिथ्यादृष्टयः सम्यगमिथ्या- -सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि । दिटूठी । तत्थ णं जेते सम्मदिट्ठी तेसि णं दृष्टयः । तत्र ये एते सम्यग्दृष्टयः तेषां चतस्रः इनमें जो सम्यग्दृष्टि हैं, उनके चार क्रियाएं प्रज्ञप्त चत्तारि किरियाओ पण्णत्ताओ, तं जहा- क्रियाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा-आरम्भिकी, हैं, जैसे—आरंभिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श.१: उ.२: सू.७१-७६ आरंभिया, पारिग्गहिया, मायावत्तिया, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया, अप्रत्याख्यान- अप्पचक्खाणकिरिया । तत्थ णं जेते क्रिया। तत्र ये एते मिथ्यादृष्टयः तेषां पञ्च मिच्छादिट्ठी तेसि णं पंच किरियाओ क्रियाः क्रियन्ते, तद् यथा-आरम्भिकी, कजंति, तं जहा-आरंभिया, पारिग्ग- पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया, अप्रत्या- हिया, मायावत्तिया, अप्पचक्खाण- ख्यानक्रिया, मिथ्यादर्शनप्रत्यया । एवं सम्यग्- किरिया, मिच्छादसणवत्तिया। एवं सम्मा- मिथ्यादृष्टयोऽपि । तत् तेनार्थेन गौतम ! एव- मिच्छदिट्ठीणं पि। से तेणद्वेणं गोयमा ! मुच्यते-नैरयिकाः नो सर्वे समक्रियाः। एवं वुच्चइ–नेरइया नो सब्बे समकिरिया ॥ और अप्रत्याख्यानक्रिया। इनमें जो मिथ्यादृष्टि हैं, उनके पांच क्रियाएं होती है, जैसे—आरंभिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया, अप्रत्याख्यानक्रिया और मिथ्यादर्शनप्रत्यया। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों के भी पांच क्रियाएं होती हैं। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-सब नैरयिक समान क्रिया वाले नहीं हैं। ७२. नेरइया णं भंते ! सब्बे समाउया ? समोववनगा? गोयमा ! णो इणद्वे समढे ॥ नैरयिकाः भदन्त ! सर्वे समायुषः ? सर्वे ७२. भन्ते ! क्या सब नैरयिक समान आयु वाले समोपपन्नकाः? हैं? क्या वे एक साथ उपपन्न हैं ? गौतम ! नो अयमर्थः समर्थः। गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। ७३. से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचइ–नेरइया तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-नैरयिकाः ७३. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है नो सब्वे समाउया ? नो सब्बे समोववन्नगा? नो सर्वे समायुषः ? नो सर्वे समोपपत्रकाः? -सब नैरयिक समान आयु वाले नहीं हैं और एक साथ उपपन्न नहीं हैं ? गोयमा ! नेरइया चउब्विहा पण्णत्ता, तं गौतम ! नैरयिकाः चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, तद् गौतम ! नैरयिक चार प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे--- जहा-१. अत्थेगइया समाउया समो- यथा-१.अस्त्येकके समायुषः समोपपत्र- १.कुछ नैरयिक समान आयु वाले और एक साथ ववत्रगा २. अत्यंगइया समाउया विसमो- काः २.अस्त्येकके समायुषः विषमोपपन्नकाः उपपन्न हैं, २.कुछ नैरयिक समान आयु वाले और ववनगा ३. अत्यंगइया विसमाउया समो- ३.अस्त्येकके विषमायुषः समोपपन्नकाः भिन्न काल में उपपन्न हैं, ३.कुछ नैरयिक विषम ववनगा ४. अत्थेगइया विसमाउया ४.अस्त्येकके विषमापुषः विषमोपपन्नकाः। आयु वाले और एक साथ उपपन्न हैं, ४.कुछ विसमोववनगा। से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं तत तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते-नैरयिकाः नैरयिक विषम आयु वाले और भिन्न काल में बुचइ–नेरइया नो सव्वे समाउया, नो नो सर्वे समायुषः, नो सर्वे समोपपत्रकाः। उपपन्न हैं। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा सब्बे समोववनगा ॥ रहा है-सब नैरयिक समान आयु वाले नहीं हैं और एक साथ उपपन्न नहीं हैं। ७४. असुरकुमारा णं भंते ! सब्वे समाहारा? असुरकुमाराः भदन्त ! सर्वे समाहाराः ? सर्वे ७४. भन्ते ! क्या सब असुरकुमार देव समान आहार सब्बे समसरीरा? समशरीराः? और समान शरीर वाले हैं ? जहा नेरइया तहा भाणियब्वा, नवरं- यथा नैरयिकाः तथा भणितव्याः, नवरं- यह पूरा प्रकरण नैरयिक जीवों की भांति वक्तव्य कम्म-वण्ण-लेस्साओ परिवत्तेयवाओ कर्म-वर्ण-लेश्याः परिवर्तितव्याः (पूर्वोपपन्नाः है । केवल इतना अन्तर है—कर्म, वर्ण और (पुब्बोववना महाकम्मतरा, अविसुद्ध- महत्तरकर्माणः अविशुद्धतरवर्णाः अविशुद्ध- लेश्याओं का विषय परिवर्तनीय है-नारकीय वण्णतरा, अविसुद्धलेसतरा। पच्छोववत्रा तरलेश्याः। पश्चादुपपन्नाः प्रशस्ताः। शेषं जीवों के वर्णन से विपरीत रूप में वक्तव्य है। पसत्था। सेसं तहेव)॥ तथैव)। (पूर्व उपपन्न होने वाले असुरकुमार देव महत्तर कर्मवाले, अविशुद्धतर वर्ण और अविशुद्धतर लेश्या वाले हैं । पश्चाद् उपपन्न असुरकुमार देव अल्पतर कर्म वाले, विशुद्धतर वर्ण और विशुद्धतर लेश्या वाले हैं। शेष नैरयिक की भांति वक्तव्य ७५. एवं जाव थणियकुमारा॥ एवं यावत् स्तनितकुमाराः । ७५. इसी प्रकार नागकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक के देवों के विषय में वक्तव्य हैं। ७६. पुटविकाइयाणं आहार-कम्म-वण्ण- लेस्सा जहा णेरइयाणं॥ पृथिवीकायिकानां आहार-कर्म-वर्ण लेश्याः यथा नैरयिकाणाम् । ७६. पृथ्वीकायिक जीवों के आहार, कर्म, वर्ण और लेश्या नैरयिक जीवों की भांति वक्तव्य हैं। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.२ः सू.७७-८४ ५२ भगवई ७७. पुटविकाइया णं भंते ! सब्बे समवेदणा? पृथिवीकायिकाः भदन्त! सर्वे समवेदनाः? ७७. भन्ते ! क्या सब पृथ्वीकायिक जीव समान वेदना वाले हैं ? हां, गौतम ! सब पृथ्वीकायिक जीव समान वेदना वाले हैं। हंता गोयमा ! पुढविकाइया सब्बे सम- हन्त गौतम ! पृथिवीकायिकाः सर्वे सम- वेदणा॥ वेदनाः। ७८. से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-पुढवि- तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते-पृथिवी- ७८. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है काइया सन्चे समवेदणा ? कायिकाः सर्वे समवेदनाः ? सब पृथ्वीकायिक जीव समान वेदना वाले हैं ? गोयमा ! पुढविकाइया सब्बे असण्णी गौतम ! पृथिवीकायिकाः सर्वे असंज्ञिनः गौतम ! सब पृथ्वीकायिक जीव असंज्ञी (अमनअसण्णिभूतं अणिदाए वेदणं वेदेति । से असंज्ञिभूतां अनिदया वेदनां वेदयन्ति । तत् स्क) हैं। वे असंज्ञी के होने वाली वेदना को तेणद्वेणं गोयमा ! एवं युचइ-पुढवि- तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-पृथिवी- अव्यक्त रूप में (मूर्छित की भांति) अनुभव करते काइया सब्वे समवेदणा ॥ कायिकाः सर्वे समवेदनाः। हैं। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-सव पृथ्वीकायिक जीव समान वेदना वाले ७६. पुढविकाइया णं भंते ! सबे पृथिवीकायिकाः भदन्त ! सर्वे समक्रियाः ? ७६, भन्ते ! क्या सब पृथ्वीकायिक जीव समान समकिरिया? क्रिया वाले हैं ? हंता गोयमा ! पुटविकाइया सब्चे सम- हन्त गौतम ! पृथिवीकायिकाः सर्वे सम- हां, गौतम ! सब पृथ्वीकायिक जीव समान क्रिया किरिया। क्रियाः। वाले हैं। ८०.से केणटेणं भंते ! एवं बुचइ-पुढवि- तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-पृथिवी- ८०. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है काइया सव्वे समकिरिया ? कायिकाः सर्वे समक्रियाः ? -सब पृथ्वीकायिक जीव समान क्रिया वाले हैं? गोयमा ! पढविकाइया सब्बे मायीमिछा- गौतम ! पृथिवीकायिकाः सर्वे मायिमिथ्या- गौतम ! सब पृथ्वीकायिक जीव मायामिथ्यादृष्टि दिट्ठी। ताणं यतियाओ पंच किरियाओ दृष्टयः । तेषां नैयतिक्यः पंच क्रियाः क्रियन्ते, हैं। उनके निश्चित रूप से पांचों क्रियाएं होती कजंति, तं जहा-आरंभिया, पारिग्गहि- तद् यथा-आरंभिकी, पारिग्रहिकी, माया- हैं, जैसे-आरम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया, मायावत्तिया, अप्पचक्खाणकिरिया, प्रत्यया, अप्रत्यख्यानक्रिया, मिथ्यादर्शन- या, अप्रत्याख्यानक्रिया और मिथ्यादर्शनप्रत्यमिच्छादसणवत्तिया। से तेणडेणं गोयमा! प्रत्यया। तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते या। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा एवं बुचइ-पुटविकाइया सब्बे सम- -पृथिवीकायिकाः सर्वे समक्रियाः । है-सब पृथ्वीकायिक जीव समान क्रिया वाले किरिया॥ ५१. समाउया, समोववनगा जहा नेरइया तहा भाणियव्वा ॥ समायुषः, समोपपत्रकाः यथा नैरयिकाः तथा ८१. पृथ्वीकायिक जीवों के समान आयु और एक भणितव्याः । साथ उपपन्न होने का प्रकरण नैरयिक जीवों की भांति वक्तव्य है। ६२. जहा पुढविकाइया तहा जाव चउरिदिया।॥ यथा पृथिवीकायिकाः तथा यावच् चतु- ८२. अप्कायिक जीवों से लेकर चतुरिन्द्रिय जीवों रिन्द्रियाः। तक पूरा प्रकरण पृथ्वीकायिक जीवों की भांति वक्तव्य है। ६३. पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा णेरड्या, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः यथा नैरयिकाः, ३. पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव नैरयिक जीवों नाणत्तं किरियासु ॥ नानात्वं क्रियासु। की भांति वक्तव्य हैं, केवल क्रिया का विषय भिन्न ५४. पंचिंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! सब्बे पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः भदन्त ! सर्वे सम- १४. भन्ते ! क्या सब पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव समकिरिया ? क्रियाः ? समान क्रिया वाले हैं ? गोयमा ! णो इणद्वे समटे ।। गौतम ! नो अयमर्थः समर्थः । गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं हैं। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ५३ श.१: उ.२ः सू.८५-८८ ५५. से केणटेणं भंते ! एवं बुचइ- तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-पञ्चे- ८५. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा हैपंचिंदियतिरिक्खजोणिया नो सव्वे सम- न्द्रियतिर्यग्योनिकाः नो सर्वे समक्रियाः? सब पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव समान क्रिया वाले किरिया ? नहीं हैं ? गोयमा! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया तिविहा गौतम ! पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः त्रिविधाः गौतम ! पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव तीन प्रकार पण्णत्ता, तं जहा सम्मदिट्ठी, मिच्छ- प्रज्ञप्ताः, तद् यथा-सम्यग्दृष्टयः मिथ्यादृष्टयः के प्रज्ञप्त हैं, जैसे—सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और दिडी, सम्मामिच्छदिट्ठी। सम्यग्मिथ्यादृष्टयः। सम्यग्मिथ्यादृष्टि । तत्य णं जेते सम्मदिट्ठी ते दुविहा पण्णत्ता, तत्र ये एते सम्यग्दृष्टयः ते द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, इनमें जो सम्यग्दृष्टि हैं, वे दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, तं जहा असंजया य, संजयासंजया य । तद् यथा-असंयताः च, संयतासंयतः च । जैसे—असंयत और संयतासंयत । तत्थ णं जेते संजयासंजया, तेसि णं तिण्णि तत्र ये एते संयतासंयताः, तेषां तिस्रः क्रियाः इनमें जो संयतासंयत हैं, उनके तीन क्रियाएं होती किरियाओ कजंति, तं जहा-आरंभिया, क्रियन्ते, तद् यथा-आरंभिकी, पारिग्रहि- हैं, जैसे-आरम्भिकी, पारिग्राहिकी, मायाप्रत्यपारिग्गहिया, मायावत्तिया। की, मायाप्रत्यया। असंजयाणं चत्तारि। मिच्छादिट्ठीणं पंच। असंयतानां चतस्रः। मिथ्यादृष्टीनां पञ्च । असंयत जीवों के चार, मिथ्यादृष्टि और सम्यगसम्मामिच्छदिट्ठीणं पंच॥ सम्यमिथ्यादृष्टीनां पञ्च । मिथ्यादृष्टि जीवों के पांच क्रियाएं होती हैं। या। मणुस्सादीणं समाहार-समसरीरादि-पदं मनुष्यादीनां समाहार-समशरीरादि-पदम् मनुष्यों आदि का समान आहार, समान शरीर आदि-पद ८६. मणुस्सा णं भंते ! सवे समाहारा ? सव्वे समसरीरा ? सब्बे समुस्सासनीसासा? गोयमा ! नो इणटे समढे ॥ मनुष्याः भदन्त ! सर्वे समाहाराः ? सर्वे सम- ८६. भन्ते ! क्या सब मनुष्य समान आहार, समान शरीराः ? सर्वे समोच्छ्वासनिःश्वासाः ? शरीर और समान उच्छ्वास-निःश्वास वाले हैं ? गौतम ! नो अयमर्थः समर्थः। गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। ६७. सेकेणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-मणुस्सा तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-मनुष्याः १७. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा नो सव्वे समाहारा ? नो सब्बे समशरीरा? नो सर्वे समाहाराः ? नो सर्वे समशरीराः ? है-सब मनुष्य समान आहार, समान शरीर और नो सब्वे समुस्सासनीसासा ? नो सर्वे समोच्छ्वासनिःश्वासाः ? समान उच्छ्वास-निःश्वास वाले नहीं हैं? गोयमा ! मणुस्सा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा गौतम ! मनुष्याः द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा गौतम ! मनुष्य दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे–महासरीरा य, अप्पसरीरा य। -महाशरीराः च, अल्पशरीराः च । महाशरीरी और अल्पशरीरी। तत्य णं जेते महासरीरा ते बहुतराए पोग्गले तत्र ये एते महाशरीराः ते बहुतरान् पुद्गलान् इनमें जो महाशरीरी हैं, वे बहुतर पुद्गलों का आहारेंति, बहुतराए पोग्गले परिणामेति, आहरंति, बहुतरान् पुद्ग्लान् परिणमयन्ति, आहार करते हैं, बहुतर पुद्गलों का परिणमन बहुतराए पोग्गले उस्ससंति, बहुतराए बहुतरान् पुद्गलान् उच्छ्वसन्ति, बहुतरान् करते हैं, बहुतर पुद्गलों का उच्छ्वास करते हैं पोग्गले नीससंति; आहच आहारेंति, पुद्गलान् निःश्वसन्ति; आहत्य आहरन्ति, और बहुतर पुद्गलों का निःश्वास करते हैं। वे आहच परिणामेति, आहच उस्ससंति आहत्य परिणमयन्ति, आहत्य उच्छ्वसन्ति, कदाचित् आहार करते हैं, कदाचित् परिणमन आहच नीससंति ॥ आहत्य निःश्वसन्ति। करते हैं, कदाचित् उच्छ्वास करते हैं जो कदाचित् निःश्वास करते हैं। तत्य णं जेते अप्पसरीरा ते णं अप्पतराए तत्र ये एते अल्पशरीराः ते अल्पतरान् पुद्- इनमें जो अल्पशरीरी हैं, वे अल्पतर पुदगलों का पोग्गले आहारैति, अप्पतराए पोग्गले परि- गलान् आहरन्ति, अल्पतरान् पुद्गलान् परि- आहार करते हैं, अल्पतर पुद्गलों का परिणामन णामेति, अप्पतराए पोग्गले उस्ससंति, णमयन्ति, अल्पतरान् पुद्गलान् उच्छ्वसन्ति, करते हैं, अल्पतर पुद्गलों का उच्छ्वास करते हैं अपतराए पोग्गले नीससंति; अभिक्खणं अल्पतरान् पुद्गलान निःश्वसन्ति; अभीक्ष्णम् और अल्पतर पुद्गलों का नि:श्वास करते हैं। आहरेंति, अमिरवणं परिणाति, जमि- आइरन्ति, अभीण परिणभयन्ति, अभीक्ष्णम् वे बार-बार आहार करते हैं, बार-बार परिणभन अखण उत्ससंति, अभिवरवणं नीससंति । उच्छवसन्ति, अभी निवसन्ति । तत करते हैं, बार-बार उच्छ्वास करते हैं और बारसे तेणदेणं गोचमा : एवं बुच्चइ-मणुस्सा तनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते---मनाया: ना -बार निःश्वास करते हैं। गौतम ! इस अपेक्षा मे नो सन्दे समाहारा, नोसले समपारा, न म समाहाराः, नो सर्वे एमागः नो मर्वे यह कहा जा रहा है-सव मनुष्य समान आहार, सोच्छवासनिःश्वासाः। समान शरीर और समान उच्छवास-नि:श्वास वाले नहीं हैं। ५८. पणुस्सा भते! सव्वे सनकम्मा ? गोधमा : नो इणडे समटे ।। मनुष्याः भदन्त ! सर्वे समकर्माणः । गौतम ! नो अयमर्थः समर्थः । ५८. भन्ते ! क्या सब मनुष्य समान कर्म वाले हैं? गौतम ! यह अर्थ मंगत नहीं है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.२ः सू.८६-६५ ८६. से केणणं भंते! एवं बुच्चइ मणुस्सा नो सव्वे समकम्मा ? गोमा ! मस्सा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - पुव्वोववत्रगाय, पच्छोववन्त्रगा य । तत्थ णं जेते पुब्बोववन्नगा ते णं अप्पकम्मतरागा । तत्थ णं जेते पच्छोववन्त्रगा ते णं महाकम्मतरागा । से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुचइ - मणुस्सा नो सव्वे समकम्मा ॥ ६०. मणुस्सा णं भंते ! सव्वे समवण्णा ? गोयमा ! नो इणट्टे समद्वे ॥ ६१. से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ - मणुस्सा नो सव्वे समवण्णा ? गोयमा ! मणुस्सा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - पुब्वोववन्त्रगाय, पच्छोववत्रगाय । तत्थ णं जेते पुव्योववन्नगा ते णं विसुद्धवण्णतरागा । तत्थ णं जेते पच्छोववत्रगा ते णं अविसुद्धवण्णतरागा । से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुधइ - मणुस्सा नो सव्वे समवण्णा ॥ ६२. मणुस्सा णं भंते! सब्वे समलेस्सा ? गोयमा ! नो इण समद्वे ॥ ६३. से केणद्वेणं भंते ! एवं बुधइ — मणुस्सा नो सब्बे समलेस्सा ? गोमा ! मस्सा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - पुव्वोववनगा य, पच्छोववन्नगा य । तत्य णं जेते पुव्योववन्नगा ते णं विसुद्ध - लेस्सतरागा । तत्थ णं जेते पच्छोवयन्त्रगा ते णं अविसुद्धलेस्सतरागा । से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ मणुस्सा नो सब्बे समलेस्सा ॥ ६४. मणुस्सा णं भंते! सब्बे समवेयणा ? गोयमा ! नो इणट्ठे समद्वे ॥ ५४ भगवई तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते — मनुष्याः ८६. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है नो सर्वे समकर्माणः ? - सब मनुष्य समान कर्म वाले नहीं है ? गौतम ! मनुष्य दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-पूर्व उपपन्न और पश्चाद् उपपन्न । इनमें जो पूर्व उपपन्न हैं, वे अल्पतर कर्म वाले हैं। जो पश्चाद् उपपत्र हैं, वे बहुतर कर्म वाले हैं। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है सब मनुष्य समान कर्म वाले नहीं हैं। गौतम ! मनुष्याः द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा — पूर्वोपपन्नकाः च पश्चादुपपन्नकाः च । तत्र ये एते पूर्वोपपत्रकाः ते अल्पतरककर्माणः । तत्र ये एते पश्चादुपपत्रकाः ते महत्तरककर्माणः । तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते—–— मनुष्याः नो सर्वे समकर्माणः । मनुष्याः भदन्त ! सर्वे समवर्णाः ? गौतम ! नो अयमर्थः समर्थः । तत् केनार्थेन् भदन्त ! एवमुच्यते मनुष्याः ६१. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है - नो सर्वे समवर्णाः ? सब मनुष्य समान वर्ण वाले नहीं हैं? गौतम ! मनुष्य दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे— पूर्व उपपन्न और पश्चाद् उपपत्र । इनमें जो पूर्व उपपन्न हैं, वे विशुद्धतर वर्ण वाले हैं। जो पश्चाद् उपपत्र हैं, वे अविशुद्धतर वर्ण वाले हैं। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा हैं—सब मनुष्य समान वर्ण वाले नहीं हैं। गौतम ! मनुष्याः द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा -- पूर्वोपपन्नकाः च पश्चादुपपन्नकाः च । तत्र ये एते पूर्वोपपन्नकाः ते विशुद्धतरकवर्णाः । तत्र ये एते पश्चादुपपन्नकाः ते अविशुद्धतरकवर्णाः । तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते - मनुष्याः नो सर्वे समवर्णाः । मनुष्याः भदन्त ! सर्वे समलेश्याः ? गौतम ! नो अयमर्थः समर्थः । गौतम ! मनुष्याः द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा - पूर्वोपपन्नकाः च पश्चादुपपन्नकाः च । तत्र ये एते पूर्वोपपत्रकाः ते विशुद्धतरक लेश्याः । तत्र ये एते पश्चादुपपन्नकाः ते अविशुद्धतरकलेश्याः । तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते - मनुष्याः नो सर्वे समलेश्याः । तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते— मनुष्याः ६३. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है नो सर्वे समलेश्याः ? --सब मनुष्य समान लेश्या वाले नहीं हैं ? गौतम ! मनुष्य दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे—पूर्व उपपन्न और पश्चाद् उपपन्न । इनमें जो पूर्व उपपत्र हैं, वे विशुद्धतर लेश्या वाले हैं। जो पश्चाद् उपपत्र हैं, वे अविशुद्धतर लेश्या वाले हैं। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है— सब मनुष्य समान लेश्या वाले नहीं हैं । मनुष्याः भदन्त ! सर्वे समवेदना: ? गौतम ! नो अयमर्थः समर्थः । ६०. भन्ते ! क्या सब मनुष्य समान वर्ण वाले हैं? गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। गौतम ! मनुष्याः द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा ---संज्ञिभूताश्च, असंज्ञिभूताश्च । तत्र ये एते संज्ञिभूताः ते महावेदनाः । तत्र येते असंज्ञिभूताः ते अल्पतरकवेदनाः । तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते—मनुष्याः नो सर्वे समवेदनाः । ६२. भन्ते ! क्या सब मनुष्य समान लेश्या वाले हैं? गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। ६५. से कणट्टेणं भंते ! एवं बुचइ — मणुस्सा तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते - मनुष्याः ६५. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है नो सर्वे समवेदनाः ? - सब मनुष्य समान वेदना वाले नहीं हैं? गौतम ! मनुष्य दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसेसंज्ञिभूत और असंज्ञिभूत | नो सव्वे समवेयणा ? गोयमा ! मणुस्सा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा —सणिभूयाय, असणिभूयाय । तत्थ णं जेते सण्णिभूया ते णं महावेयणा । तत्य णं जेते असणिभूया ते णं अप्पवेयणतरागा । से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ - मणुस्सा नो सब्बे समवेयणा ॥ इनमें जो संज्ञिभूत हैं, वे महा वेदना वाले हैं । जो असंज्ञिभूत हैं, वे अल्पतर वेदना वाले हैं। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-सब मनुष्य समान वेदना वाले नहीं हैं। ६४. भन्ते ! क्या सब मनुष्य समान वेदना वाले हैं? गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श.१: उ.२ः सू.६५-६६ ६६. मणुस्सा णं भंते ! सब्बे समकिरिया ? गोयमा ! नो इणद्वे समढे । मनुष्याः भदन्त ! सर्वे समक्रियाः ? गौतम ! नो अयमर्थः समर्थः। ६६. भन्ते ! क्या सब मनुष्य समान क्रिया वाले हैं? गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं हैं। ६७. से केणडेणं भंते ! एवं बुच्चइ-मणुस्सा तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-मनुष्याः ६७. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है नो सब्बे समकिरिया? नो सर्वे समक्रिया:? -सब मनुष्य समान क्रिया वाले नहीं हैं? गोयमा ! मणुस्सा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा गौतम ! मनुष्या त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा गौतम ! मनुष्य तीन प्रकार के प्रज्ञाप्त हैं, जैसे -सम्मदिट्ठी, मिच्छदिट्ठी, सम्मामिच्छ- -सम्यग्दृष्टयः, मिथ्यादृष्टयः, सम्यग्मिथ्या- सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, सम्यगमिथ्यादृष्टि । दिट्ठी । दृष्टयः । तत्थ गंजेते सम्मदिट्ठी, ते तिविहा पण्णत्ता, इनमें जो सम्यग्दृष्टि हैं, वे तीन प्रकार के प्रज्ञप्त तंजहा-संजया, असंजया, संजयासंजया। तद् यथा-संयताः, असंयताः, संयता- _हैं, जैसे-संयत, असंयत और संयतासंयत । संयताः । तत्थ णं जेते संजया ते दुविहा पण्णत्ता, तं तत्र ये एते संयताः ते द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् जो संयत हैं, वे दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसेजहा सरागसंजया य, वीतरागसंजया यथा-सरागसंयताःच, वीतरागसंयताःच। सरागसंयत और वीतरागसंयत। जो वीतरागसंयत हैं, वे अक्रिय हैं उनके ये पांचों क्रियाएं नहीं होती। जो सरागसंयत हैं, वे दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे -प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत । जो अप्रमत्तसंयत हैं, उनके एक मायाप्रत्यया क्रिया होती है। जो प्रमत्तसंयत हैं, उनके दो क्रियाएं होती हैं, जैसे -आरंभिकी और मायाप्रत्यया। तत्य णं जेते वीतरागसंजया, ते णं तत्र ये एते वीतरागसंयताः ते अक्रियाः।। अकिरिया। तत्य णं जेते सरागसंजया ते दुविहा तत्र ये एते सरागसंयताः ते द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, पण्णत्ता, तं जहा—पमत्तसंजया य, तद् यथा-प्रमत्तसंयताः च, अप्रमत्तसंयताः अप्पमत्तसंजया य। च। तत्थ णं जेते अप्पमत्तसंजया, तेसि णं एगा तत्र ये एते अप्रमत्तसंयताः, तेषाम् एका मायावत्तिया किरिया कजइ। मायाप्रत्यया क्रिया क्रियते । तत्थ णं जेते पमत्तसंजया, तेसि णं दो तत्र ये एते प्रमत्तसंयताः, तेषां द्वे क्रिये किरियाओ कजंति, तं जहा-आरंभिया क्रियेते, तद् यथा-आरंभिकी च, माया- य, मायावत्तिया य । प्रत्यया च। तत्थ णं जेते संजयासंजया, तेसि णं आइ- तत्र ये एते संयतासंयताः, तेषाम् आदिमाः ल्लाओ तिण्णि किरियाओ कजंति, तं जहा तिस्रः क्रियाः क्रियन्ते, तद् यथा-आरम्भि- -आरंभिया, पारिग्गहिया, माया- की, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया । वत्तिया। असंजयाणं चत्तारि किरियाओ असंयतानां चततः क्रियाः क्रियन्तेकजंति-आरंभिया, पारिग्गहिया, माया- आरम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया, वत्तिया, अप्पचक्खाणकिरिया । अप्रत्याख्यानक्रिया । मिच्छदिट्ठीणं पंच-आरंभिया, पारिग्ग- मिथ्यादृष्टीनां पञ्च–आरम्भिकी, पारिहिया, मायावत्तिया, अपचक्खाणकिरिया, ग्रहिकी, मायाप्रत्यया, अप्रत्याख्यानक्रिया, मिच्छादंसंणवत्तिया। सम्मामिच्छदिट्ठीणं मिथ्यादर्शनप्रत्यया । सम्यगमिथ्यादृष्टीनां पंच॥ पञ्च। जो संयतासंयत हैं, उनके प्रथम तीन क्रियाएं होती हैं, जैसे-आरंभिकी, पारिग्रहिकी और मायाप्रत्यया। असंयत जीवों के चार क्रियाएं होती हैं—आरंभिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया और अप्रत्याख्यानक्रिया । मिथ्यादृष्टि जीवों के पांच क्रियाएं होती हैंआरम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया, अप्रत्याख्यानक्रिया और मिथ्यादर्शनप्रत्यया। सम्यगमिथ्यादृष्टि जीवों के भी पांच क्रियाएं होती हैं। ६८. मणुस्सा णं भंते ! सव्वे समाउया? सब्बे समोववत्रगा? गोयमा ! नो इणद्वे समदु । मनुष्याः भदन्त ! सर्वे समायुषः ? सर्वे समो- ६.. भन्ते ! क्या सब मनुष्य समान आयु वाले हैं? पपन्नकाः ? क्या वे एक साथ उपपन्न हैं ? गौतम ! नो अयमर्थः समर्थः । गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। ६६. से केणटेणं भंते ! एवं वुचइ-मणुस्सा नो सबे समाउया? नो सब्वे समोववनगा? तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते--मनुष्याः ६६. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा नो सर्वे समायुषः ? नो सर्वे समोपपन्नकाः ? है-सब मनुष्य समान आयु वाले नहीं हैं और एक साथ उपपन्न नहीं हैं ? गौतम ! मनुष्याः चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा गौतम ! मनुष्य चार प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-१.अस्त्येकके समायुषः समोपपन्नकाः। कुछ मनुष्य समान आयु वाले और एक साथ गोयमा ! मणुस्सा चउब्बिहा पण्णत्ता, तं जहा -१.अत्थेगइया समाउया समो Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १: उ.२: सू.६०-१०० ववन्त्रगा । २. अत्येगइया समाउयाविसमोववन्नगा । ३. अत्येगइया विसमाउया समोववत्रगा । ४. अत्येगइया विसमाउया विसमोववन्त्रगा । से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुधइ - मणुस्सा नो सव्वे समाउया, नो सव्वे समोववन्नगा ॥ १००. वाणमंतर - जोतिस - वेमाणिया जहा असुरकुमारा, नवरं वेणा णाणत्तंमायिमिच्छदिट्ठीउववन्त्रगा य अप्पवेयणतरा, अमायिसम्मदिद्विजववन्नगा य महावेयणतरा भाणियन्वा जोतिसवेमाणिया ।। १. सूत्र ६०-१०० ५६ २. अस्त्येकके समायुषः विषमोपपन्नकाः । ३. अस्त्येकके विषमायुषः समोपपन्नकाः । ४. अस्त्येकके विषमायुषः विषमोपपन्नकाः । तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते—मनुष्याः नो सर्वे समायुषः, नो सर्वे समोपपन्नकाः । वानमन्तर - ज्यौतिष - वैमानिकाः यथा असुरकुमाराः, नवरंवेदनायां नानात्वं - मायिमिथ्यादृष्ट्युपपन्नकाः च अल्पतरवेदनाः अमायिसम्यग्दृष्ट्युपपन्नकाः च महत्तरवेदना: भणितव्याः ज्यौतिषवैमानिकाः । भाष्य प्रस्तुत आलापक में नैरयिक के विषय में नौ प्रश्नों की मार्गणा की गई है - प्रथम तीन प्रश्नों का एक वर्ग है। ये तीनों प्रश्न जीवन के साथ जुड़े हुए हैं। आहार, शरीर और उच्छ्वास- निःश्वास — ये तीनों जीवन के अनिवार्य अंग हैं; इसलिए आहार की मात्रा, शरीर-परिमाण और उच्छ्वास - निःश्वास के परिमाण के विषय में जिज्ञासा की गई है। उसके उत्तर में भगवान् ने कहा— सबका शरीर एक जैसा नहीं होता, किसी का शरीर बड़ा होता है और किसी का छोटा ।' शरीर-भेद के आधार पर आहार और श्वास की मात्रा में भी अन्तर आ जाता है। बड़े शरीर वाला अधिक आहार करता है। और छोटे शरीर वाला अल्प आहार करता है, यह प्राकृतिक नियम है । वृत्तिकार ने इस प्रसंग को हाथी और खरगोश के उदाहरण द्वारा समझाया है। नैरयिक के रोम-आहार होता है।' वृत्तिकार ने इस नियम को बाहुल्यापेक्ष बतलाया है। किन्तु शरीर के परिमाण-भेद को देखते हुए यह स्वाभाविक नियम प्रतीत होता है। दुःख (मानसिक सन्ताप या तनाव ) की मात्रा के आधार पर श्वास की संख्या में भी परिवर्तन हो जाता है। अल्प दुःख - श्वास-उच्छ्वास की संख्या अल्प, अधिक दुःख श्वास- उच्छ्वास की संख्या अधिक। अल्प शरीर वालों १. पण्ण. २१ । ६६६७ । २. भ. वृ. १ । ६१ – दृश्यते हि लोके बृहच्छरीरो बह्वाशी स्वल्प-शरीरश्चाल्पभोजी, हस्तिशशकवत् । ३. पण्ण. २८ । १०२, भ.जो. १ । ७ । ४४ । ४. भ. वृ. १ ६१- बाहुल्यापेक्षं चेदमुच्यते, अन्यथा बृहच्छरीरोऽपि कश्चि भगवई उपपन्न हैं, कुछ मनुष्य समान आयु वाले और भिन्न काल में उपपन्न हैं, कुछ मनुष्य विषम आयु वाले और समकाल में उपपन्न हैं, कुछ मनुष्य विषम आयु वाले और भिन्न काल में उपपन्न हैं । गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है सब मनुष्य समान आयु वाले और एक साथ उपपन्न नहीं हैं। १०० वानमंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव असुरकुमार देवों की तरह वक्तव्य हैं। केवल वेदना में भिन्नता है - ( व्यंतर देवों का वेदनाप्रकरण असुरकुमार की भांति ज्ञातव्य है) — ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में (असंज्ञी जीव उत्पन्न नहीं होते)। जो मायी मिथ्यादृष्टि उपपन्न हैं, वे अल्पतर वेदना वाले और अमायी सम्यग्दृष्टि उपपन्न हैं, वे महत्तर वेदना वाले हैं। के लिए इसका नियम विपरीत है। पृथ्वीकाय आदि जीवों के आहार, शरीर और उच्छ्वास- निःश्वास आदि नैरयिक की भांति बतलाए गए हैं। पृथ्वीकायिक आदि जीवों के शरीर की जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग की होती है। फिर अल्प शरीर पर महाशरीर का नियम कैसे लागू होगा ? यह प्रश्न अत्यन्त जटिल है । किन्तु सूक्ष्मता का जगत् बहुत बड़ा है। इतनी सूक्ष्मतम अवगाहना में भी बहुत बड़ा तारतम्य है। पण्णवणा में उस तारतम्य को चतुःस्थानपतित (असंख्येयभाग हीन, संख्येयभाग हीन, संख्येयगुण हीन, असंख्येयगुण हीन; असंख्येयभाग अधिक संख्येयभाग अधिक, संख्येयगुण अधिक, असंख्येयगुण अधिक ) बतलाया गया है। इस आधार पर पृथ्वीकायिक जीवों के शरीर को अल्प और महान् दो भागों में विभक्त किया गया है। उनमें महाशरीर वाले लोम-आहार के द्वारा बहुतर पुद्गलों का आहार करते हैं और बार-बार उच्छ्वास - निःश्वास करते हैं। अल्प शरीर वालों का व्यवहार इसके विपरीत होता है । " आहार और उच्छ्वास निःश्वास के विषय में मनुष्य का नियम दल्पमश्नाति अल्पशरीरोऽपि कश्चिद् भूरि भुङ्क्ते, तथाविध-मनुष्यवत् । न पुनरेवमिह, बाहुल्यपक्षस्यैवाश्रयणात् । ५. पण्ण. २१ । ४० । ६. वही, ५।१५६ । ७. भ. वृ. १ / ७६ – केवलमाहारसूत्रे भावनैवं पृथिवीकायिकानामङ्गुलासंख्येय Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ५७ शेष प्राणियों से भिन्न है। महाशरीर वाले मनुष्य बहुतर पुद्गलों का आहार और उच्छ्वास - निःश्वास लेते हैं, किन्तु वे बार-बार आहार आदि नहीं लेते। अल्प शरीर वाले बार-बार आहार और उच्छ्वासनिःश्वास लेते हैं। यौगलिक महाशरीर वाले होते हैं। उनका आहार मात्रा की दृष्टि से अल्प होता है, किन्तु सघनता ( density) की दृष्टि से बहुत होता है, इसलिए महाशरीर वालों को बहुतर पुद्गलों का आहार करने वाला कहा गया है।' कर्म, वर्ण, लेश्या कर्म, वर्ण और लेश्या ये तीनों जीवन के आन्तरिक पक्ष से सम्बन्धित हैं। पूर्वोपपन्न नैरयिक आयुष्य तथा अन्य कर्मों का अधिक वेदन कर लेता है, इसलिए वह अल्प कर्म वाला हो जाता है । पश्चाद् उपपन्न होने वाला उनका अधिक वेदन नहीं कर पाता, इसलिए वह पूर्वोपपन्न की अपेक्षा महाकर्म वाला रहता है। वर्ण-सूत्र का भी यही नियम है। पूर्वोपपन्न के कर्म अल्प होते हैं, इसलिए उसका वर्ण विशुद्ध हो जाता है। पश्चाद् उपपत्र में कर्म की बहुलता होती है, इसलिए उनका वर्ण पूर्वोपपन्न की अपेक्षा अविशुद्धतर होता है। श्या- सूत्र का नियम भी यही है । वृत्तिकार ने 'वर्ण' को बाह्य द्रव्य लेश्या और लेश्या को भाव लेश्या बतलाया है। इन दोनों सूत्रों से आन्तरिक आभामण्डल और बाह्य आभामण्डल दोनों फलित होते हैं। असुरकुमार देव के विषय में कर्म, वर्ण और लेश्या का नैरयिक से विपर्यय प्रतिपादित है । उसका रहस्य यह है—पूर्वोपपन्न देवों के भोग के कारण कर्म का बन्ध अधिक होता जाता है। इस अपेक्षा से पूर्वोपपन्न देव महाकर्म वाले और पश्चाद् उपपन्न देव अल्प कर्म भागमात्रशरीरत्वेऽप्यल्पशरीरत्वम्, इतरच इत आगमवाचनादवसेयम्-'पुढविकायस्स ओगाहणट्ठायाए चउट्ठाणवडिए 'त्ति, ते च महाशरीरा लोमाहारतो बहुतरान् पुद्गलानाहारयन्तीति उच्छ्वसन्ति च अभीक्ष्णं महाशरीरत्वादेव । अल्पशरीराणामल्पाहारोच्छ्वासत्वमल्पशरीरत्वादेव । कादाचित्कत्वं च तयोः पर्याप्तकेतरावस्थापेक्षमवसेयम् । १. भ.वृ. १ । ८७ – इह स्थाने नारकसूत्रे 'अभिक्खणं आहारेती 'त्यधीतम् इह तु 'आहच्चे' त्यधीयते महाशरीरा हि देवकुर्व्वादिमिथुनकाः, ते च कदाचिदेवाहारयन्ति कावलिकाहारेण, 'अट्ठमभत्तस्स आहारो'त्ति वचनात्। अल्पशरीरस्त्वभीक्ष्णमल्पं च, बालानां तथैव दर्शनात् संमूर्च्छिममनुष्याणामल्पशरीराणामनवरतमाहारसंभवाच्च । २. ठाणं, ४ । ५८३ चउब्विहा कामा पण्णत्ता, तं जहा सिंगारा, कलुणा, भच्छा, रोहा । सिंगारा कामा देवाणं, कलुणा कामा मणुयाणं, बीभच्छा कामा तिरिक्खजोणियाणं, रोद्दा कामा णेरइयाणं । ३. भ. ६।१५, १६ । ४. वही, ६ । १३२ । ५. वही, १४.८४-८८ । ६. भ. वृ. १1७४ - कर्मादीनि नारकापेक्षया विपर्ययेण वाच्यानि, तथाहि नारका ये पूर्वोत्पन्नास्तेऽल्पकर्मकशुद्धतरवर्णशुभतरलेश्या उक्ताः, असुरास्तु ये पूर्वो श. १: उ.२: सू.६०-१०० वाले होते हैं। उनके निर्जरा के कारण कम और कर्म-बन्ध के कारण अधिक होते हैं। अनुत्तरौपपातिक देवों के भी निर्जरा अल्प बतलाई गई है।' इसके समर्थन में 'लवसत्तम' और अनुत्तरीपपातिक देवों को उद्धृत किया जा सकता है। लवसत्तम देवों का यदि सात लव ( लगभग ४ मिनिट २१ सैकिण्ड का ) आयु शेष होता तो वे मुक्त हो जाते । अनुत्तरौपपातिक देवों के यदि बेला (दो उपवास ) जितना आयुष्य और होता तो वे मुक्त हो जाते। वे नए कर्मों का अर्जन करते हैं, इसलिए लम्बी अवधि तक देव-आयु में रहकर फिर मनुष्य जीवन में आते हैं। वर्ण और लेश्या कर्म से जुड़े हुए हैं, इसलिए उनका परिवर्तन स्वाभाविक है । वृत्तिकार ने कर्म आदि के परिवर्तन के लिए जो तर्क प्रस्तुत किए हैं, वे पूर्णतः व्याप्त नहीं हैं। वेदनावाद यहां 'वेदना' शब्द से सात और असात दोनों गृहीत हैं। नैरयिकों के प्रसंग में असात वेदना मुख्य और सात वेदना गौण तथा देवों के प्रसंग में सात वेदना मुख्य और असात वेदना गौण रूप में ग्राह्य है। सभी तिर्यग्योनिक एवं मनुष्यों के प्रसंग में विमात्रा (अनियत परिमाण) में सात - असात वेदना होती है। यहां नैरयिकों को दो भागों में विभक्त किया गया है—संज्ञिभूत और असंज्ञिभूत। जो जीव अमनस्क भव से मरकर समनस्क भव में उत्पन्न होता है, उसे असंज्ञिभूत कहा गया है। जो जीव समनस्क भव से मरकर समनस्क भव में उत्पन्न होता है, उसे संज्ञिभूत कहा गया है। वृत्तिकार अभयदेवसूरि ने तथा प्रज्ञापना वृत्ति में आचार्य मलयगिरि ने असंज्ञिभूत के कई अर्थ किए हैं, किन्तु अल्पवेदन त्पन्नास्ते महाकर्माणोऽशुद्धवर्णा अशुभतरलेश्याश्चेति कथम् ? ये हि पूर्वोत्पन्ना असुरास्तेऽतिकन्दर्पदर्पाध्मातचित्तत्वान्नारकाननेकप्रकारतया यातनया यातयन्तः प्रभूतमशुभं कर्म संचिन्वन्तीत्यतोऽभिधीयन्ते ते महाकर्माणः । अथवा ये बद्धायुषस्ते तिर्यगादिप्रायोग्यकर्म्मप्रकृतिबन्धनान्महाकर्माणः तथाऽशुद्धवर्णा अशुभलेश्याश्च ते । पूर्वोत्पन्नानां हि क्षीणत्वात् शुभकर्मणः शुभो वर्णो लेश्या च हसतीति । पश्चादुत्पन्नास्त्ववद्धायुषोऽल्पकर्माणो बहुतरकर्मणामबन्धनादशुभकर्म्मणामक्षीणत्वाच्च शुभवर्णादयः स्युरिति । ७. भ. ७।१०३-१०५ । ८. (क) भ.वृ. १ । ६८-सञ्ज्ञा — सम्यग्दर्शनं तद्वन्तः सञ्ज्ञिनः सञ्ज्ञिनो भूताः सञ्ज्ञित्वं गताः सञ्ज्ञिभूताः । अथवाऽ सञ्ज्ञिनः सञ्ज्ञिनो भूताः सञ्ज्ञिभूताः, च्चिप्रत्यययोगात्, मिथ्यादर्शनमपहाय सम्यगदर्शनजन्मना समुत्पन्ना इति यावत् । तेषां च पूर्वकृतकर्मविपाकमनुस्मरतामहो महद्दुः खसङ्कटमिदमकस्मादस्माकमापतितं, न कृतो भगवदर्हाणीतः सकलदुःखक्षयकरो विषयविषमविषपरिभोगविप्रलब्धचेतोभिर्धर्म इत्यतो महदुःखं मानसमुपजायतेऽतो महावेदनास्ते । असञ्ज्ञिभूतास्तु मिथ्यादृष्टयः ते तु स्वकृतकर्मफलमिदमित्येवमजानन्तोऽनुपतप्तमानसा अल्पवेदनाः स्युरित्येके । अन्ये त्वाहुः सञ्ज्ञिनः सञ्ज्ञिपञ्चेन्द्रियाः सन्तो भूताः -- नारकत्वं गता सञ्ज्ञिभूताः, ते महावेदनाः । तीव्राशुभाध्यवसायेनाशुभतरकर्मबन्धनेन महानरकेषूत्पादात् । असञ्ज्ञिभूतास्त्वनुभूतपूर्वा Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१ : उ.२. सू.६०-१०० भगवई और अनिदा-इन दो नियमों के आधार पर असंज्ञिभूत का उक्त का बन्ध तीव्र अध्यवसाय के साथ कर सकता है और वह वेदना अर्थ ही घटित होता है। ___ के मौलिक कारणों का विवेक भी कर सकता है। अमनस्क जीव में पुण्य या पाप का बन्ध तीव्र अध्यवसाय अमनस्क जीवों की वेदना को अल्प या महान् नहीं कहा जा के साथ नहीं होता, इसलिए वह अगले समनस्क जीवन में भी पुण्य सकता; उनकी वेदना अनिदा ही होती है, इसलिए वे समवेदना वाले या पाप का अल्प वेदन करता है। दूसरी बात यह है कि अमनस्क होते हैं। जीव समनस्क भव में उत्पन्न होकर भी अविकसित मस्तिष्क वाला ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में अमनस्क जीव उत्पन्न नहीं या मूर्छित चेतना वाला अथवा वेदना के मूल कारणों का सम्यग् होते। इसलिए उनके असंज्ञिभूत और संज्ञिभूत भेद नहीं किए जा निर्धारण न करने वाला होता है, इसलिए उसकी वेदना को अल्प सकते। उनमें मायी मिथ्यादृष्टि उपपन्नक देवों के सात वेदना अल्प वेदना और अनिदावेदना कहा गया है।' यह पुनर्जन्म के सिद्धान्त होती है और अमायी सम्यग्दृष्टि उपपन्नक देवों के सात वेदना अधिक का भी महत्त्वपूर्ण सूत्र है। होती है। मायी मिथ्यादृष्टि उपपन्नक देवों के अनिदा वेदना होती है समनस्क जीव समनस्क भव से मरकर फिर समनस्क भव में और अमायी सम्यग्दृष्टि उपपत्रक देवों के निदा वेदना होती है।' जन्म लेता है, उस संज्ञिभूत जीव के निदा और महावेदना होती है। देखें यन्त्रइसका कारण स्पष्ट है-वह समनस्क होने के कारण पुण्य या पाप संज्ञिभूत असंज्ञिभूत | सातवेदना असातवेदना मायी मिथ्यादृष्टि अमायी सम्यग्दृष्टि नैरयिक | गौण महावेदना | अल्पवेदना (निदा) (अनिदा) मुख्य असुरकुमार मुख्य | गौण महावेदना (निदा) अल्पवेदना (अनिदा) विमात्रा (अनियत परिमाण) पृथ्वीकाय समवेदना से चतुरिन्द्रिय पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च | महावेदना | अल्पवेदना (अनिदा) विमात्रा (अनियत परिमाण) (निदा) मनुष्य विमात्रा (अनियत परिमाण) महावेदना | अल्पवेदना (निदा) (अनिदा) वानमंतर महावेदना (निदा) गौण अल्पवेदना (अनिदा) | मुख्य | ज्योतिष, वैमानिक मुख्य गौण अल्पवेदना (अनिदा) महावेदना | (निदा) क्रियावाद क्रिया का अर्थ है-कर्मबन्ध की हेतभत प्रवृत्ति। यहां क्रिया के पांच प्रकारों की मार्गणा की गई है। ठाणं में इनका विस्तृत वर्णन है।' वेदना और क्रिया में कार्यकारणभाव सम्बन्ध है। मंडितपत्र ने सञ्जिभवाः, ते चासज्ञित्वादेवात्यन्ताशुभाध्यवसायाभावाद्रलप्रभायामनति- तीव्रवेदननरकेषूत्पादादल्पवेदनाः अथवा सचिभूताः पर्याप्तकीभूताः, असज्ञिनस्तु-अपर्याप्तकाः, ते च क्रमेण महावेदना इतरे च भवन्तीति प्रतीयत एवेति। (ख) प्रज्ञा.वृ.प.५५७,५८ १. (क) प्रज्ञा.वृ.प.५५७-तत्र नितरां निश्चितं वा सम्यग् दीयते चित्तमस्यामिति निदा। (ख) भ.वृ.१७'अणिदाए' ति अनिर्धारणया वेदनां वेदयन्ति । वेदना- मनुभवन्तोऽपि न पूर्वोपात्ताशुभकर्मपरिणतिरियमिति मिथ्यादृष्टित्वादवगच्छ- ति। विमनस्कत्वाद् वा मत्तमूर्छितादिति भावना । २. (क) पण्ण.३५ /२२,२३। (ख) भ.वृ.१।१०० यत्तु प्रागुक्तं सज्ञिनः सम्यग्दृष्टयोऽसज्ञिनस्त्वितरे इति तवृद्धव्याख्यानुसारेणैवेति । ज्योतिष्कवैमानिकेषु त्वसझिनो नोत्पधन्तेऽतो वेदनापदे तेष्वधीयते 'दुविहा जोतिसिया–मायिमिच्छदिट्ठी उववनगा येत्यादि, तत्र मायिमिथ्यादृष्टयोऽल्पवेदना इतरे च महावेदनाः शुभवेदनामाश्रि त्येति। ३. (क) ठाणं,५।११२-१२२, देखें ठाणं,२।३७ का टिप्पण। (ख) भ.३।१३४-१३६ । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ५६ श.१: उ.२ः सू.६०-१०० पूछा-भंते ! पहले क्रिया होती है और बाद में वेदना ? अथवा प्राणी को मारने का त्याग करने वाले को भी एकान्त बाल नहीं कहा पहले वेदना और बाद में क्रिया ? जा सकता। श्रमणोपासक (संयतासंयत) के प्रत्याख्यान और भगवान्-मंडितपुत्र ! पहले क्रिया और बाद में वेदना होती अप्रत्याख्यान दोनों होते हैं। इस अपेक्षा से उसे बाल-पण्डित कहा गया है। आगम-साहित्य में संयतासंयत के प्रत्याख्यान और है। पहले वेदना और बाद में क्रिया-ऐसा नहीं होता।' अप्रत्याख्यान के अनेक प्रमाण मिलते हैं। प्रमत्तसंयत के आरम्भिकी वृत्तिकार ने प्रश्न उपस्थित किया है कि कर्म-बन्ध के हेतु क्रिया निरन्तर नहीं होती, फिर भी इसकी विवक्षा की गई है। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग-ये आश्रव माने जाते हैं, संयतासंयत के अप्रत्याख्यानक्रिया निरन्तर होती है, फिर भी उसकी फिर आरम्भ आदि को कर्मबन्ध का हेतु मानने पर क्या परस्पर विवक्षा नहीं की गई है। अतः विवक्षा-भेद को समझना बहुत विरोध नहीं होगा ? इसके समाधान में उन्होंने लिखा है कि आरम्भ आवश्यक है। पञ्चसंग्रह में संयतासंयत के देशविरति गुणस्थान में और परिग्रह योग के भेद हैं। ये सारी क्रियाएं आश्रव से ही संबद्ध कर्म-बन्ध की चर्चा की है। वहां अविरति को कर्म-वन्ध का मिश्र हैं, इसलिए इनमें परस्पर विरोध नहीं है।' या आधा हेतु बतलाया गया है। इससे भी अपूर्ण अप्रत्याख्यान क्रिया की पुष्टि होती है। तत्त्वार्थराजवार्तिक में भी यही मत प्राप्त चौबीस दण्डकों में क्रिया की प्राप्ति का क्रम इस प्रकार है-मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव में पांच क्रियाएं, असंयत सम्यगदृष्टि जीव में चार क्रियाएं, संयतासंयत में तीन क्रियाएं, प्रमत्तसंयत में आरम्भिकी क्रिया का स्वीकार किया गया है, प्रमत्तसंयत में दो क्रियाएं, अप्रमत्तसंयत में एक क्रिया और वीतराग फिर पारिग्रहिकी क्रिया का स्वीकार क्यों नही ? जैसे मुनि से कदाचित् इन क्रियाओं की अपेक्षा से अक्रिय होता है। इस प्रसंग में पण्णवणा पृथ्वी आदि जीवों का आरम्भ या उपमर्द हो जाता है, वैसे कदाचित् का सक्रिय-अक्रिय प्रकरण द्रष्टव्य है। वह धर्मोपकरण पर मूर्छा भी कर सकता है। वृत्तिकार ने परिग्रह के दो अर्थ किए हैं-धर्मोपकरण के अतिरिक्त वस्तु का स्वीकरण संयतासंयत के तीन क्रियाएं बतलाई गई हैं। इनमें और धर्मोपकरण पर मूर्छा।" मुनि के भी धर्मोपकरण पर मूर्छा अप्रत्याख्यानक्रिया का उल्लेख नहीं है। 'संयतासंयत' शब्द से यह होना असम्भव नहीं है। फिर उसमें पारिग्रहिकी क्रिया का ग्रहण क्यों स्पष्ट है कि वह संयत है और साथ-साथ असंयत भी है। जब वह नहीं ? असंयत है, तो अप्रत्याख्यानक्रिया का उल्लेख क्यों नहीं किया गया? यह प्रश्न सहज ही उठता है। वृत्तिकार इस विषय में मौन है। प्रमत्तसंयत मुनि अनारम्भ भी होता है और अपरिग्रही भी जयाचार्य ने इस प्रश्न पर विमर्श किया है। उनके अनुसार संयतासंयत होता है। फिर भी वह अशुभ योग की अपेक्षा से आरम्भ करने में अप्रत्याख्यान क्रिया का स्कन्ध (पूर्णरूप) नहीं होता, इस अपेक्षा वाला हो जाता है। इसलिए उसमें आरम्भिकी क्रिया का ग्रहण से सूत्रकार ने उसकी यहां विवक्षा नहीं की। इसके समर्थन में उन्होंने किया गया है। पारिग्रहिकी क्रिया का सम्बन्ध अविरति या दो तर्क प्रस्तुत किए हैं—(१) गौतम के प्रश्न के उत्तर में भगवान् अप्रत्याख्यान से है। प्रमत्तसंयत्त अविरति का प्रत्याख्यान कर देता ने कहा--पूर्व दिशा में धर्मास्तिकाय नहीं है, उसका देश और प्रदेश है। इस अपेक्षा से उसमें पारिग्राहिकी क्रिया का ग्रहण नहीं किया हैं।' (२) आग्नेय कोण में जीव नहीं हैं, किन्तु जीव के देश हैं, गया है। पण्णवणा में प्रमत्तसंयत के आरम्भिकी क्रिया बतलाई गई प्रदेश हैं।' धर्मास्तिकाय और जीव का निषेध स्कन्ध की अपेक्षा से है। पारिग्राहिकी क्रिया संयतासंयत के होती है। इन दोनों की व्याप्ति किया गया है। इसी प्रकार संयतासंयत में स्कन्ध की अपेक्षा से का नियम इस प्रकार है-जिसके पारिग्राहिकी क्रिया होती है, उसके अप्रत्याख्यान क्रिया का अग्रहण किया गया है। संयतासंयत में आरम्भिकी क्रिया नियमतः होती है। जिसके आरम्भिकी क्रिया होती अप्रत्याख्यान क्रिया के देश का अस्वीकार नहीं किया जा सकता। है, उसके पारिग्राहिकी क्रिया विकल्पतः होती है।५ पण्णवणा एक प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने बतलाया-गौतम ! किसी एक २२/६१-६४ में भी इसका संवादी प्रकरण विद्यमान है। १. भ.३।१४०। २. भ.वृ.१७७ ननु मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगाः कर्मबन्धहेतव इति प्रसिद्धिः, इह तु आरम्भादयस्तेऽभिहिता इति कथं न विरोधः? उच्यते—आरम्भपरिग्रहशब्दाभ्यां योगपरिग्रहो, योगानां तद्रूपत्वात् शेषवन्धहेतुपरिग्रहः प्रतीयत एवेति। ३. पण्ण.२२।७,८ ४. भ.जो.१।७।१३४-१३६॥ ५. भ.१०॥५६॥ ६. वही,१०।६। ७. सूय.२१२१७१-विरयाविरइं पडुच बालपंडिए आहिज्जइ । ८. (क) वही,२।२।७१, २१७।२३। (ख) ओवा.सू.१६१। ६. पं.सं.(दि.),पृ.१०५,गा.७४ चउपच्चइओ बंधो पढमे आणंतरतिए तिपच्चइओ। मिस्सय विदिओ उवरिमदुगं च देसेक्कदेसम्मि ।। १०. त.रा.वा.भा.२,पृ.५६४,८/२ संयतासंयतस्याविरतिमिश्राः प्रमादकषाय योगाश्च। ११. भ.वृ.११७७–परिग्रहो-धर्मोपकरणवर्जवस्तुस्वीकारो धर्मोपकरणमूर्छा च, स प्रयोजनं यस्याः सा पारिग्रहिकी। १२. द्रष्टव्य,म.१३४। १३. पण्ण.२२ ॥३८॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १: उ.२ः सू.६०-१०१ यह क्रिया का सिद्धान्त मानसिक चेतना से परे का सिद्धान्त है। पृथ्वीकाय से लेकर अमनस्क पञ्चेन्द्रिय तक के जीवों में पांचों क्रियाएं होती हैं। इससे स्पष्ट फलित होता है कि आत्मा का अस्तित्व मन से बहुत गहरे में है। मन केवल उसका सतही स्तर है। " मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः " - यह एक स्थूल सिद्धान्त है। कर्मबन्ध के कारण उसके भीतर चेतना के सूक्ष्म स्तर तक विद्यमान हैं। जन्म और आयुष्यवाद जन्म और आयु दोनों परस्पर संबद्ध हैं। उत्पत्ति का नाम जन्म १०१. सलेस्सा णं भंते ! नेरइया सव्वे सलेश्याः भदन्त ! नैरयिकाः सर्वे समासमाहारगा ? हारका: ? ओहियाणं, सलेस्साणं, सुक्कलेस्साणंएतेसिं णं तिण्डं एको गमो । कण्हलेस - नीललेस्साणं पि एगो गमो, नवरं - वेदणाए मायिमिच्छदिट्ठीउववनगा य, अमायिसम्मदिट्ठीउववत्रगा य भाणि यन्ना । मणुस्सा किरिया सु सराग - वीयरागा पत्तापमत्ता न भाणियव्वा । काउलेस्साण वि एसेव गमो, नवरं— नेरइया जहा ओहिए दंडए तहा भाणि यव्वा । तेउलेस्सा, पम्हलेस्सा जस्स अपि जहा ओहिओ दंडओ तहा भाणियब्बा, नवरं मस्सा सराग - वीयरागा न भाणियव्वा । संगहणी गाहा दुखाउए उदि आहारे कम्म-वण-लेस्सा य । समवेयण - समकिरिया, समाउए चेव बोधव्या ॥१ ॥ ६० भगवई और उसके कालमान का नाम आयु है। इनके चार विकल्प बनते हैं— जो एक साथ उत्पन्न होते हैं और जिनकी आयु समान होती है, उनका समावेश प्रथम विकल्प में होता है। जिनकी आयु समान होती है, किन्तु जन्म का काल भिन्न होता है, उनका समावेश दूसरे विकल्प में होता है। जो एक साथ उत्पन्न होते हैं और जिनकी आयु समान नहीं होती, उनका समावेश तीसरे विकल्प में होता है। जिनका जन्मकाल भी भिन्न होता है और आयु भी समान नहीं होती, उनका समावेश चौथे विकल्प में होता है। औधिकानां, सलेश्यानां, शुक्ललेश्यानांएतेषां त्रयाणां एको गमः । कृष्णलेश्य - नीललेश्यानामपि एको गमो । नवरं—वेदनायां मायिमिथ्यादृष्ट्युपपन्नकाः च, अमायिसम्यग्दृष्ट्युपपन्नकाः च भणि तव्याः । मनुष्याः क्रियासु सराग- वीतरागाः प्रमत्ताप्रमत्ताः न भणितव्याः । कापोतलेश्यानामपि एष एव गमो, नवरंनैरयिकाः यथा औधिकः दण्डकः तथा भणि तव्याः । तेजोलेश्या पद्मलेश्या यस्य अस्ति यथा अधिकः दण्डकः तथा भणितव्याः, नवरंमनुष्याः सराग- वीतरागाः न भणितव्याः । संग्रहणी गाथा दुःखायुष उदीर्णम्, आहारः कर्म-वर्ण-लेश्याश्च । समवेदना समक्रिया, समायुः चैव बोद्धव्याः ॥ १०१. 'भन्ते ! क्या सब सलेश्य नैरयिक (आदि चौबीस दण्डक) समान आहार, शरीर, उच्छ्वास- निःश्वास, कर्म, वर्ण, लेश्या, वेदना, क्रिया, और उपपात वाले हैं? औधिक (निर्विशेषण नैरयिक सू. १।६०-७३), सलेश्य (लेश्या - विशेषण युक्त चौबीस दण्डक ) और शुक्ल लेश्यायुक्त (बीस, इक्कीस और चौबीसवें दण्डक वाले) इन तीनों की वक्तव्यता एक समान है। (तात्पर्य की भाषा में सलेश्य औधिक के समान हैं)। कृष्णलेश्या और नीललेश्या -युक्त नैरयिक आदि दण्डक की वक्तव्यता एक समान है, केवल वेदना में भिन्नता है— मायी मिध्यादृष्टि उपपन्नक (नैरयिक) महत्तर वेदना वाले, अमायी सम्यग्दृष्टि उपपत्रक (नैरयिक) अल्पतर वेदना वाले होते हैं । क्रिया- सूत्र में मनुष्य के सराग और वीतराग, प्रमत्त और अप्रमत्त—ये भेद वक्तव्य नहीं हैं। कापोतलेश्या-युक्त नैरयिक आदि के लिये भी यही (कृष्णलेश्या के समान) वक्तव्यता है। केवल वेदना -सूत्र में नैरयिक की वक्तव्यता औधिकसूत्र के समान है। जिन जीवों के तेजोलेश्या और पद्मलेश्या होती हैं, वे औधिक सूत्र की भांति वक्तव्य हैं। केवल क्रिया- सूत्र में मनुष्य के सराग और वीतराग ये भेद वक्तव्य नहीं हैं। संग्रहणी गाथा [पूर्व आलापक में] उदीर्णदुःख और आयु का वेदन, समान आहार, कर्म, वर्ण, लेश्या, वेदना, क्रिया और आयु—ये इतने विषय ज्ञातव्य हैं। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १. सूत्र १०१ प्रस्तुत सूत्र की रचना संक्षिप्त है। इसलिए यह जटिल-सा बन गया है। पण्णवणा में इस विषय का पाठ विस्तृत है। उसके सन्दर्भ में प्रस्तुत पाठ का अध्ययन बहुत स्पष्ट हो सकता है, इसलिए पण्णवणा का वह पाठ अविकल रूप से यहां प्रस्तुत किया जा रहा हैः भाष्य सलेस्सा णं भंते ! णेरइया सब्बे समाहारा समसरीरा समुस्सासपिस्सासा ? स चैव पुच्छा एवं जहा ओहिओ गमओ तहा सलेस्सगमओ वि णिरवसेसो भाणियव्वो जाव वेमाणिया || कण्हलेस्सा णं भंते । णेरइया सव्वे समाहारा समसरीरा समुस्सासणिस्सासा पुच्छा । गोयमा ! जहा ओहिया, णवरं णेरइया वेदणाए माइमिच्छद्दिविवण्णगाय अमाइसम्मदिट्टिउववण्णगा य भाणियव्वा । सेसं तहेव जहा ओहियाणं । असुरकुमारा जाव वाणमंतरा एते जहा ओहिया, नवरं— मणूसाणं किरियाहिं विसेसो जाव तत्थ णं जेते सम्मद्दिट्टी ते तिविहा पण्णत्ता, तं जहा संजया असंजया संजयासंजया य, जहा ओहि याणं । जोइसिय-वेमाणिया आइल्लिगासु तिसु लेस्सासु ण पुच्छिति । एवं जहा किण्हलेस्सा चारिया तहा णीललेस्सा वि चारियव्या । काउलेस्सा रइएहिंतो आरब्भ जाव वाणमंतरा, नवरं— काउलेस्सा णेरइया वेदणाए जहा ओहिया । तेउलेस्साणं भंते । असुरकुमाराणं ताओ चैव पुच्छाओ। गोयमा ! जहेव ओहिया तहेव, णवरं वेदणाए जहा जोतिसिया । पुढविआउ-वणस्सइ-पंचेंदियतिरिक्ख-मणूसा जहा ओहिया तहेव भाणियव्वा, वरं मणूसा किरियाहिं जे संजया ते पमत्ता य अपमत्ता य भाणियव्वा, सरागा वीयरागा णत्थि । वाणमंतरा तेउलेस्साए जहा असुरकुमारा एवं जोतिसियवेमाणिया वि सेसं तं चैव । एवं पहलेस्सा विभाणियचा, गवरं जेसिं अत्थि । सुक्कलेस्सा वि तहेव जेसिं अस्थि । सव्वं तहेव जहा ओहियाणं गमओ, णवरंपम्हलेस्सा- सुक्कलेस्साओ पंचेदिय - तिरिक्खजोणिय - मणूस-वेमाणियाणं चेव, ण सेसाणं ति । समाहारगा इस पद के द्वारा आहार, शरीर और उच्छ्वास निःश्वास आदि नौ पदों का ग्रहण किया गया है। ६१ १. पण १७ । २८३५ । २. भ. वृ. १ । १०१ - अनेनाहारशरीरोच्छ्वासकर्म्मवर्णलेश्यावेदनाक्रियोपपाताख्य पूर्वोक्तनवपदोपेतनारकादिचतुर्विंशतिपददण्डको लेश्यापदविशेषितः सूचितः । ३. वही, १ ।१०१ - 'जस्सत्थि' इत्येतस्य वक्ष्यमाणपदस्येह सम्बन्धाद्यस्य शुक्ललेश्याऽस्ति स एव तद्दण्डकेऽध्येतव्यः, तेनेह पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो मनुष्या वैमानिकाश्च वाच्याः, नारकादीनां शुक्ललेश्याया अभावादिति । श.१: उ.२ः सू.१०१ सुकलेस्साणं शुक्ल लेश्या का सम्बन्ध नारकीय जीवों से नहीं हैं, वह पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य और वैमानिक देवों में ही पायी जाती है।' प्रथम नरक में कृष्ण और नील लेश्या नहीं होती, इसलिए वेदना- सूत्र औधिक नरकसूत्र की भांति वक्तव्य नहीं है; इसलिए वहां मायी मिथ्यादृष्टि उपपन्नक और अमायी सम्यग्दृष्टि उपपन्नग ये दो भेद किये गये हैं। सराग, वीतराग, प्रमत्त और अप्रमत्त वक्तव्य नहीं हैं। इसके विमर्श के लिए १३८ का भाष्य द्रष्टव्य है । वरं रइया प्रथम नरक में कापोत लेश्या पायी जाती है, इसलिए कापोत लेश्या वाले नैरयिक का सूत्र औधिक सूत्र की भांति वक्तव्य है। उसमें संज्ञिभूत और असंज्ञिभूत ये दो भेद प्राप्त होते हैं । णवरं मणुस्सा तेजोलेश्या और पद्मलेश्या में वीतरागता नहीं होती, इसलिए उन लेश्याओं में सराग और वीतराग के भेद वक्तव्य नहीं हैं। मायी मिथ्यादृष्टि और अमायी सम्यग्दृष्टि आगम- साहित्य में मिथ्यादृष्टि के साथ मायी और सम्यग्दृष्टि के साथ अमायी विशेषण अनेक स्थानों पर मिलता है। इस विशेषण के आधार पर मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि के दो-दो प्रकार हो जाते हैं - १. मिथ्यादृष्टि और मायी मिथ्यादृष्टि २. सम्यग्दृष्टि और अमायी सम्यग्दृष्टि। सविशेषण मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि का विशेष अर्थ क्या है, यह विमर्शनीय है । ठाणं में क्रिया के बारह युगल हैं । उनमें मायाप्रत्यया क्रिया का उल्लेख दो स्थानों पर हुआ है। छठे युगल में मायाप्रत्यया क्रिया और मिथ्यादर्शनप्रत्यया इन दो क्रियाओं का एक साथ प्रयोग हुआ है। वहां मायाप्रत्यया क्रिया के दो अर्थ बतलाये गये हैं— आत्मभाववञ्चना और परभाववञ्चना । तत्त्वार्थराजवार्तिक में मायाप्रत्यया क्रिया का अर्थ है-ज्ञान, दर्शन आदि के विषय में प्रबंधना करना । बारहवें युगल में प्रेयः प्रत्यया और दोषप्रत्यया इन दो क्रियाओं का उल्लेख है। प्रेयः प्रत्यया क्रिया के दो प्रकार हैं- मायाप्रत्यया ४. वही, १ ।१०१ –— केवलमौघिकदण्डके क्रियासूत्रे मनुष्याः सरागवीतरागविशेषणा अधीताः इह तु तथा न वाच्याः, तेजः पद्मलेश्ययोर्वीतरागत्वासम्भवात्, शुक्ललेश्यायामेव तत्सम्भवात् । प्रमत्ताप्रमत्तास्तूच्यन्त इति । ५. ठाणं, २।१७-१८ । ६. त. रा. वा. ६ । ५ ज्ञानदर्शनादिषु विकृतिर्वञ्चनं मायाक्रिया । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.२ः सू.१०१,१०२ भगवई और लोभप्रत्यया।' और असत्य भी अभिन्न हैं। सत्य का अर्थ है-ऋजुता और वृत्तिकार ने माया का अर्थ ऋजुता का अभाव किया है। अविसंवादन योग। असत्य का अर्थ है माया और विसंवादन योग। उपलक्षण से उन्होंने क्रोध आदि के ग्रहण का संकेत भी किया है। विसंवाद का एक अर्थ है-धोखा देने वाली प्रवृत्ति। इस आधार किन्तु क्रोध और मान-ये द्वेषप्रत्यया क्रिया के भेद हैं। इसलिए पर मायाप्रत्यया के दो भेदों (आलभाववञ्चन और परभाववञ्चन) उनका ग्रहण यहां अपेक्षित नहीं है। उक्त आधार-सूत्रों की मीमांसा और विसंवादनयोग को समानार्थक कहा जा सकता है। अमाया और माताआशिकी आदि पांच कियाओं अविसंवादनयोग ये भी समानार्थक हो जाते हैं। के समूह में जो मायाप्रत्यया क्रिया है, उसका सम्बन्ध प्रेयःप्रत्यया शैव दर्शन में पांच प्रकार के पाश निर्दिष्ट हैं-१. मल पाश क्रिया से है। इसका क्षय नवें गुणस्थान में होता है। एक अवधारणा २. कर्म पाश ३. माया पाश ४. महामाया पाश ५. रोधक शक्ति । से माया को पूरे कषाय का वाचक माना गया है, उसी अर्थ के माया पाश के कारण मनुष्य का शरीर और इन्द्रियां निर्मित होती आधार पर जयाचार्य ने मायाप्रत्यया क्रिया की प्राप्ति दसवें गुणस्थान है। उसकी बाह्य परिस्थिति भी माया पाश से बनती है। यह माया तक बतलाई है।'मायी मिथ्यादृष्टि के साथ जो मायी शब्द है, उसका अनादि है। सम्बन्ध छठे युगल की मायाप्रत्यया क्रिया से होना चाहिए। मायाप्रत्यया मिथ्यादृष्टि के शरीर-निर्माण और जन्म-मरण की परम्परा और मिथ्यादर्शनप्रत्यया का युगल किसी सापेक्ष दृष्टि से होना चाहिए। अनादिकाल से अबाधगति से चली आ रही होती है। उसमें कोई शल्य के प्रकरण में भी मिथ्यादर्शन के साथ माया का उल्लेख है।' अवरोध पैदा नहीं होता। इस दृष्टि से मिथ्यादृष्टि को मायी अथवा इस आधार पर मायी मिथ्यादृष्टि का अर्थ माया-शल्य-युक्त मिथ्यादृष्टि माया पाश-युक्त कहा जा सकता है। सम्यग्दर्शन जन्म-मरण की परम्परा और अमायी सम्यग्दृष्टि का माया-शल्य-रहित सम्यग्दृष्टि किया जा का पहला अवरोध है। इस अपेक्षा से सम्यग्दृष्टि को अमायी अथवा सकता है। इसका तात्पर्य सत्य और असत्य की भाषा में खोजा जा । माया पाश से मुक्त कहा जा सकता है। सकता है। सत्य और ऋजुता दोनों अभित्र हैं, इसी प्रकार माया लेस्सा -पदं लेश्या-पदम् लेश्या-पद १०२.कडणं भंते । लेस्साओ पण्णताओ? कति भदन्त ! लेश्याः प्रज्ञप्ताः? १०२. भन्ते ! लेश्याएं कितनी प्रज्ञप्त हैं ? गोयमा! लेस्साओ पण्णताओ, तं जहा गौतम! षट् लेश्याः प्रज्ञाप्ताः, तद् यथा- गौतम ! लेश्याएं छह प्रज्ञप्त हैं, जैसे—कृष्णलेश्या, -कण्डलेस्सा, नीललेस्सा, काउलेस्सा, कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजो- नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या तेउलेस्सा, पम्हलेसा, सुकलेस्सा । लेस्सा लेश्या, पालेश्या, शुक्ललेश्या। लेश्यानां ___ और शुक्ललेश्या। यहां (पण्णवणा के) लेश्या-पद णं बीओ उद्देसो भाणियब्बो जाव इही॥ द्वितीयः उद्देशः भणितव्यः यावद् ऋद्धिः। का दूसरा उद्देशक ऋद्धि (सूत्र ३६-८६) तक वक्तव्य है। भाष्य १. लेश्या लेश्या का अर्थ है परिणामधारा या भावधारा। अधिकांश व्याख्याकारों ने लेश्या को श्लेष या लेश के रूप में व्याख्यात किया अभयदेवसूरि के अनुसार लेश्या के द्वारा कर्म-पगलों का संश्लेष होता है, इसलिए इसका नाम लेश्या है। पञ्चसंग्रह में लेश्या का अर्थ 'पुण्य-पाप का लेप' या 'आत्मीकरण करने वाली क्रिया है। ये १. ठाणं,२।३५.३६। २. म.वृ.१७१-माया-अनार्जवं उपलक्षणत्वाक्रोधादिरपि च । ३. ठाणं,२।३७। ४. श्री.च.६।६ अष्टम नवमां दशमां रै मांय, पांच आसव तेहिज पाय । किरिया मायावतिया संपराय॥ ५. ठाणं,३३८५। ६. वही,४।१०२,१०३। ७. प्रज्ञा.वृ.प.३३०-लिष्यते-श्लिष्यते आत्मा कर्मणा सहानयेति लेश्या, कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यादात्मनः परिणामविशेषः, उक्तं च कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात् परिणामोऽयमात्मनः । स्फटिकस्येव तवायं, लेश्याशब्दः प्रवर्तते ॥ ८. भ.वृ.१।१०२-तत्रालनि कर्मपुद्गलानां लेशनात्-संश्लेषणाल्लेश्या, योग परिणामश्चैताः, योगनिरोधे लेश्यानामभावात्। योगश्च शरीरनामकर्मपरिगतिविशेषः । ६. पं.सं.(दि.)जीवसमास,गा.१४२ - लिप्पइ अप्पीकीरइ एयाए णियय पुण्ण पावं च । जीवो ति होइ लेसा लेसागुणजाणयक्खाया॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई निर्वचन लेश्या को 'लिश्' धातु से निष्पन्न मानकर किये गये हैं। नंदी चूर्णि में लेश्या का अर्थ रश्मि किया गया है।' 'रस्सी' का संस्कृत रूप बनता है-रश्मि। रस्सी देशी शब्द भी है। उसका अर्थ है रज्जु । भावधारा को रश्मि और रज्जु दोनों रूपों में अंकित किया जा सकता है, रश्मि और रस्सी का प्राकृत लस्सी हो सकता है। उच्चारण के संक्रमण से 'लेस्स' होना भी असंभव नहीं है। हमारे परिणाम तैजस शरीर से प्रभावित होकर विद्युतीकरण को प्राप्त कर इस स्थूल शरीर-औदारिक और वैक्रिय-शरीर में संक्रान्त होते हैं। अभयदेवसूरि ने लेश्या को योग-परिणाम और मलयगिरि ने आत्म-परिणाम बतलाया है। अभयदेवसरि ने योग का अर्थ शरीर नामकर्म का एक प्रकार का परिणमन किया है। __नाम कर्म की एक प्रकृति है शरीर नामकर्म। लेश्या या । भावधारा की संरचना में तीन तत्वों का योग है-१. शरीर २. वीर्य-लब्धि ३. कषाय का उदय या विलय। लेश्या के सहकारी द्रव्य (द्रव्य लेश्या) योगवर्गणा में समाविष्ट होते हैं। आठ वर्गणाओं में लेश्याओं की कोई स्वतंत्र वर्गणा नहीं है। वह शरीर-योग-वर्गणा की श.१: उ.२ः सू.१०२ एक अवान्तर वर्गणा है। योगपरिणाम- या आत्मपरिणाम-रूप लेश्या (भाव लेश्या) कषाय के उदय या विलय से सम्बद्ध हैं। वीर्य-लब्धि का भावधारा की प्रकृति में सहयोग हैं। शिवशर्माचार्य के अनुसार प्रकृति- और प्रदेश बन्ध का हेतु योग तथा स्थिति- और अनुभागबन्ध का हेतु कषाय है।' इसका तात्पर्य है कि स्थिति की तरतमता का निर्धारण कषाय तथा अनुभाग की तरतमता का निर्धारण लेश्या से होता है।' जाति-स्मृति, अवधि, मनःपर्याय और केवल इन सब ज्ञानों की उत्पत्ति में शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम और लेश्या की विशुद्धि की अनिवार्यता मानी गई है। इससे भी प्रतीत होता है कि अनुभाग की तरतमता में लेश्या एक हेतु है। इस प्रकार योग और लेश्या का स्वरूपभेद और कार्यभेद स्पष्ट हो जाता है। जयाचार्य ने रहस्य की भाषा में लिखा है-" जहां योग है वहां लेश्या है और जहां लेश्या है वहां योग है। योग और लेश्या में क्या अन्तर हैइसका रहस्य गूढ है।" निम्नदर्शित कोष्ठक में इन दोनों का अन्तर दर्शाया गया है १.आत्मिक स्वरूप २. पौगलिक स्वरूप ३. प्रवर्तक शक्ति ४. घटक शक्ति १. कार्य मन, वचन, शरीर की प्रवृत्ति औवारिक, वैक्रिय, आहारक, कार्मण वर्गणा, भाषा वर्गणा, मनोवर्गणा वीर्य-लब्धि शरीर नाम-कर्म १ सभी वर्गणाओं का ग्रहण २. गति ३. क्रिया ४. वाणी ५. चिंतन प्रकृति-, प्रदेश-बन्ध का हेतुत्व जीव का परिणाम (भावधारा) तैजस वर्गणा वीर्य-लब्धि शरीर नाम-कर्म १. भावों का निष्पादन २. आभामडंल या वर्ण का हेतुत्व ६. कर्म-बन्ध अनुभाग-बन्ध की तरतमता का हेतुत्व १. नन्दी चू.पृ.४–'लेसत्ति रस्सीयो। २. पण्ण, २३।३८४१। ३. पं.सं.दि. शतक अधिकार, गा. ५१३ (मूलगाया, ६८) जोगा पयडिपदेसा, ठिदि अणुमागं कसायदो कुणइ । कालभववेत्तपेही, उदओ सविवाग अविवागो॥ ४. प्रज्ञा.ब.प.३३०,३३१-यः स्थितिपाकविशेषो लेश्यावशादुपगीयते शास्त्रान्तरे स सम्यगुपपन्नः, यतः स्थितिपाको नामानुभाग उच्यते, तस्य निमित्तं कषायोदयान्तर्गत कृष्णादिलेश्यापरिणामाः, ते च परमार्थतः कषायस्वरूपा एव, तदन्तर्गतत्वात, केवलं योगान्तर्गतद्रव्यसहकारिकारणभेदवैचित्र्याभ्यां ते कृष्णादिभेदै भिन्नाः तारतम्यभेदेन विचित्राश्चोपजायन्ते, तेन यद् भगवता कर्म- प्रकृतिकृता शिवशर्माचार्येण शतकाख्ये ग्रन्येऽभिहितं 'ठिई अणुभागं कसायओ कुणइ' इति तदपि समीचीनमेव, कृष्णादिलेश्यापरिणामानामपि कषायोदयान्तर्गतानां कषायरूपत्वात्, तेन यदुच्यते कैश्चिद्-योगपरिणामत्वे लेश्यानां 'जोगा पयडिपएसं ठिई अणुमागं कसायओ कुणइ' इति वचनात् प्रकृतिप्रदेशबन्धहेतुत्वमेव स्यात्र कर्मस्थितिहेतुत्वमिति, तदपि न समीचीनं, यथोक्त भावार्यापरिझानात्, अपि न लेश्याः स्थितिहेतवः, किन्तु कषायाः, लेश्यास्तु कषायोदयान्तर्गताः अनुभाग-हेतवः, अत एव च 'स्थितिपाक विशेषस्तस्य भवति लेश्याविशेषेण' इत्यत्रानुभागप्रतिप्रत्ययं पाकग्रहणं, एतच्च सुनिश्चितं कर्मप्रकृतिटीकादिषु, ततः सिद्धान्तपरिज्ञानमपि न सम्यक् तेषामस्ति, यदप्युक्तम् –'कर्मनिस्यन्दो लेश्या, निस्यन्दरूपत्वे हि यावत् कषायोदयः तावन्निस्यन्दस्यापि सभावात् कर्मस्थितिहेतुत्वमपि युज्यते एवेत्यादि, तदप्य श्लीलं, लेश्यानामनुभागवन्धहेतुतया स्थितिबंधहेतुत्वायोगात, ...। ५. श्री.च.१६ जिहां सलेसी तिहां सजोगी, जोग तिहां कही लेस । जोग लेस्या में कांयक फेर है, जाण रह्या जिण रेस || ६. भाव के विस्तार के लिए देखें, उत्तर. अ.३४ | Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.२ः सू.१०३-११० ६४ भगवई जीवाणं भवपरिवट्टण-पदं जीवानां भव-परिवर्तन-पदम् जीवों का भव-परिवर्तन-पद १०३.जीवस्सणं भंते ! तीतद्धाए आदिदुस्स जीवस्य भदन्त ! अतीताध्वनः आदिष्टस्य १०३. 'भन्ते ! आदिष्ट (विशेषणो से विशिष्ट) जीव कइविहे संसारसंचिट्ठणकाले पण्णत्ते ? कतिविधः संसारसंस्थानकालः प्रज्ञप्तः ? का अतीत काल में संसार में अवस्थान-काल कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है ? गोयमा ! चउबिहे संसारसंचिगुणकाले गौतम ! चतुर्विधः संसारसंस्थानकालः प्रज्ञप्तः, गौतम ! उसका संसार में अवस्थान-काल चार पण्णत्ते, तं जहा–नेरइयसंसारसंचिट्ठण- तद् यथा नैरयिकसंसारसंस्थानकालः, तिर्य- प्रकार का प्रज्ञाप्त है, जैसे-नैरयिक-संसारकाले, तिरिक्खजोणियसंसारसंचिगुण- ग्योनिकसंसारसंस्थानकालः, मनुष्यसंसार- अवस्थान-काल, तिर्यग्योनिक-संसार-अबस्थानकाले, मणुस्ससंसारसंचिट्ठणकाले, देव- संस्थानकालः, देवसंसारसंस्थानकालः । काल, मनुष्य-संसार-अवस्थान-काल और देवसंसारसंचिट्ठणकाले॥ -संसार-अवस्थान-काल। १०४. नेरइयसंसारसंचिगुणकाले णं भंते ! कतिविहे पण्णते? गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-सुत्र- काले, असुन्नकाले, मिस्सकाले। नैरयिकसंसारसंस्थानकालः भदन्त ! कतिविधः १०४. भन्ते ! नैरयिकों का संसार-अवस्थान-काल प्रज्ञप्तः ? कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है? गौतम ! त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद् यथा- गौतम ! वह तीन प्रकार का प्रज्ञाप्त है, जैसेशून्यकालः, अशून्यकालः मिश्रकालः। शून्यकाल, अशून्यकाल और मिश्रकाल। १०५. तिरिक्खजोणियसंसारसंचिट्ठणकाले णं तिर्यग्योनिकसंसारसंस्थानकालः भदन्त ! १०५. भन्ते ! तिर्यग्योनिक जीवों का संसारभंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? कतिविधः प्रज्ञप्तः ? अवस्थान-काल कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा–असुन- गौतम ! द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद् यथा-अशून्य- गौतम ! वह दो प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसेकाले य, मिस्सकाले य ॥ कालः, मिश्रकालः। अशून्यकाल और मिश्रकाल | १०६. मणुस्ससंसारसंचिट्ठणकाले णं भंते ! मनुष्यसंसारसंस्थानकालः भदन्त ! कतिविधः १०६. भन्ते ! मनुष्यों का संसार-अवस्थान-काल कतिविहे पण्णत्ते ? प्रज्ञप्तः ? कितने प्रकार का प्रज्ञाप्त है? गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-सुत्र- गौतम ! त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद् यथा-शून्य- गौतम ! वह तीन प्रकार का प्रज्ञाप्त है, जैसेकाले, असुत्रकाले, मिस्सकाले कालः अशून्यकालः, मिश्रकालः। शून्यकाल, अशून्यकाल और मिश्रकाल | १०७. देवसंसारसंचिटणकाले णं भंते ! देवसंसारसंस्थानकालः भदन्त ! कतिविधः १०७. भन्ते ! देवों का संसार-अवस्थान-काल कितने कतिविहे पण्णत्ते ? प्रज्ञप्तः ? प्रकार का प्रज्ञप्त है ? गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-सुत्र- गौतम ! त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद् यथा-शून्य- गौतम ! वह तीन प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसेकाले, असुन्नकाले , मिस्सकाले । कालः अशून्यकालः, मिश्रकालः । शून्यकाल, अशून्यकाल और मिश्रकाल | १०८. एतस्स णं भंते ! नेरइयसंसारसंचिट्ठण- एतस्य भदन्त ! नैरयिकसंसारसंस्थानकालस्य १०८. भन्ते ! नैरयिक जीवों के संसार-अवस्थानकालस्स-सुत्रकालस्स, असुत्रकालस्स, -शून्यकालस्य, अशून्यकालस्य मिश्र- काल के शून्यकाल, अशून्यकाल और मिश्रकाल मीसकालस्स य कयरे कयरेहितो अप्पे वा? कालस्य च कतरः कतरेभ्यः अल्पो वा ? में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा बहुए वा ? तुल्ले वा ? विसेसाहिए वा? बहुर्वा ? तुल्यो वा ? विशेषाधिको वा ? विशेषाधिक है? गोयमा ! सब्बत्थोवे असुत्रकाले, मिस्सकाले गौतम ! सर्वस्तोकः अशून्यकालः, मिश्रकालः । गौतम ! सबसे अल्प अशून्यकाल है, मिश्रकाल अणंतगुणे, सुत्रकाले अणंतगुणे॥ अनन्तगुणः, शून्यकालः अनन्तगुणः। उससे अनन्तगुना अधिक है और शून्यकाल मिश्रकाल से अनन्तगुना अधिक है। १०६. तिरिक्खजोणियाणं सव्वत्थोवे असुन- तिर्यग्योनिकानां सर्वस्तोकः अशून्यकालः, १०६. तिर्यग्योनिक जीवों के संसार-अवस्थान-काल काले, मिस्सकाले अणंतगुणे ॥ मिश्रकालः अनन्तगुणः । में सबसे अल्प अशून्यकाल है और मिश्रकाल उससे अनन्तगुना अधिक है। ११०. मणुस्स-देवाण य सबत्योवे असुत्र- मनुष्य-देवानां च सर्वस्तोकः अशून्यकालः, ११०. मनुष्य और देवों के संसार-अवस्थान-काल काले, मिस्सकाले अणंतगुणे, सुत्रकाले मिश्रकालः अनन्तगुणः, शून्यकालः अनन्त- में सबसे अल्प अशून्यकाल है, मिश्रकाल उससे अणंतगुणे॥ गुणः। अनन्तगुना अधिक है और शून्यकाल मिश्रकाल से अनन्तगुना अधिक है। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ६५ श.१: उ.२: सू.१०३-१११ १११. एयस्स णं भंते ! नेरइयसंसार- एतस्य भदन्त! नैरयिकसंसारसंस्थानकालस्य १११. भन्ते ! नैरयिक, तिर्यग्योनिक, मनुष्य और संचिट्ठणकालस्स, तिरिक्खजोणियसंसार- तिर्यग्योनिकसंसारसंस्थानकालस्य, मनुष्य- देव-इनके संसार-अवस्थान-काल में कौन किनसे संचिट्ठणकालस्स, मणुस्ससंसारसंचिट्ठण- संसारसंस्थानकालस्य, देवसंसारसंस्थानकाल- अल्प, अधिक, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? कालस्स, देवसंसारसंचिट्ठणकालस्स, कयरे स्य, कतरः कतरेभ्यः अल्पो वा ? बहुर्वा ? कयरेहितो अप्पे वा ? बहुए वा ? तुल्ले तुल्यो वा ? विशेषाधिको वा ? या ? विसेसाहिए वा ? गोयमा । सव्वत्योवे मणुस्ससंसारसंचिगुण- गौतम ! सर्वस्तोकः मनुष्यसंसारसंस्थानकालः, गौतम ! मनुष्यों का संसार-अवस्थान-काल सबसे काले, नेरइयसंसारसंचिगुणकाले असंखेज- नैरयिकसंसारसंस्थानकालः असंख्येयगुणः, अल्प है, नैरयिक जीवों का संसार-अवस्थान-काल गणे, देव संसारसंचिगुणकाले असंखेज- देवसंसारसंस्थानकालः असंख्येयगुणः । तिर्य- उससे असंख्येयगुना अधिक है, देवों का संसारगणे, तिरिक्खजोणियसंसारसंचिटुणकाले गयोनिकसंसारसंस्थानकालः अनन्तगुणः। अवस्थान-काल उससे असंख्येयगुना अधिक है अणंतगुणे ॥ और तिर्यग्योनिक जीवों का संसार-अवस्थानकाल उससे अनन्तगुना अधिक है। भाष्य १. सूत्र १०३-१११ जीव एक भव से दूसरे भव में जन्म लेता है। यह जन्म मरण का चक्र अनादिकालीन है। इस चक्र में वह अनेक गतियों में जन्म लेता है। जिस गति में जितने समय तक अवस्थिति होती है, उस कालांश को संसार-अवस्थान-काल या संस्थान-काल कहा जाता है। यह प्रश्न सष्टिवाद की अनुचिन्तना में बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इसके पीछे एक दार्शनिक पृष्ठभूमि रही है। भगवान महावीर के समय में एक दार्शनिक मान्यता प्रचलित थी जो जीव जैसा है, वह जन्मान्तर में भी वैसा ही रहता है। इस मान्यता को जन्मान्तर- सादृश्यवाद कहा जा सकता है। गणधरवाद के अनुसार आर्य सुधर्मा इस सिद्धान्त के समर्थक थे। उनकी धारणा का आधार वह दर्शनसूत्र था-"पुरुषो मृतः सन् पुरुषत्वमेवाश्नुते पशवः पशुत्वम् ।'' जन्मान्तर-सादृश्यवादी मानते थे-'मनुष्य सदा मनुष्य रहता है और पशु सदा पशु ही रहता है और स्त्री सदा स्त्री। किसी भी जीव का गति या योनि की दृष्टि से कोई परिवर्तन नहीं होता।' प्रस्तुत आलापक में इस मान्यता पर अनेकान्त-दृष्टि से विचार किया गया है। उसका फलित है कि अपरिवर्तनीयता अमुक कालांश तक हो सकती है, किन्तु वह सार्वत्रिक और सार्वकालिक नहीं है। ठाणं में जीवों के जन्म-मरण के चक्र को कायस्थिति और भवस्थिति इन दो भागों में विभक्त किया गया है। एक ही काय (जाति) में निरंतर जन्म लेना कायस्थिति है और एक जन्म की आयुःस्थिति का नाम भवस्थिति है।' देव और नैरयिक मृत्यु के अनन्तर फिर देवगति और नरकगति में लेने दमलिन केवल अवस्थिति होती है कायस्थिति नहीं होती। मनुष्य लगातार सात-आठ जन्मों तक फिर मनुष्य शिति नहीं होती लगा और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च फिर पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च का जन्म ले सकता है। इस अनेकांत दृष्टि के आधार पर 'मनुष्य मरकर मनुष्य होता है और पशु मरकर पशु होता है' इसे मान्य किया जा सकता है। शल-विमर्श आदिए-नैरयिक आदि विशेषणों से विशेषित। संसार-एक भव से दूसरे भव में संचरण । संस्थान-अवस्थिति या अवस्थान । संस्थान-काल-एक ही गति में जीव के अवस्थान की अवधि । अशून्य-काल-शून्य, अशुन्य और मिश्रकाल एक ही गति में रहे सभी जीवों की अपेक्षा से है। किसी भी विवक्षित वर्तमान काल में जिस गति में जितने जीव हैं, उतने ही रहते हैं। उनमें से न कोई मरता है और न कोई नया जन्म लेता है, वह कालांश अशून्यकाल है।' मित्रकाल-किसी भी विवक्षित वर्तमान काल में जिस गति १. गणधरवाद,पृ.६४॥ २. ठाणं,२।२५६-२६१। ३. जीवा.६/२१२। ४. भ.बृ.१।१०६-तत्राशून्यकालस्तावदुच्यते-अशून्यकालस्वरूपपरिज्ञाने हि सति इतरौ सुज्ञानौ भविष्यत इति। तत्र वर्तमानकाले सप्तसु पृथिवीसु ये नारका वर्तन्ते तेषां मध्याद्यावन्न कश्चिदुद्वर्तते, न चान्य उत्पद्यते, तावन्मात्रा एव ते आसते, स कालस्ताचारकानङ्गीकृत्याशून्य इति भण्यते । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श.१: उ.२ः सू.१०३-११३ में जितने जीव हैं, उनमें से कुछ निकलकर दूसरी गति में जन्म लेकर फिर वहीं उत्पन्न होते हैं और कुछ वहीं रहते हैं; जब तक कि उनमें से एक जीव भी शेष रहता है, वह कालांश मिश्रकाल कहलाता शून्यकाल किसी भी विवक्षित वर्तमान काल में जिस गति में जितने जीव होते हैं, उनमें से सबके सब वहां से निकल जाते हैं, एक भी शेष नहीं रहता, वह कालांश शून्यकाल कहलाता है।' अशून्य-काल में आदिष्ट गति में जीवों का आगमन और निर्गमन दोनों रुक जाते हैं। यह स्थिति नरक, मनुष्य और देव गति में उत्कृष्टतः बारह मुहूर्त तक रहती है। विकलेन्द्रिय और सम्मूर्छिम तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय में यह स्थिति अन्तर्मुहर्त तक रहती है। मिश्रकाल में आगमन और निगमन दोनों चालू रहते हैं। शून्यकाल में पुरानी अंतकिरिया-पदं अन्तक्रिया-पदम् पीढी समाप्त हो जाती है, नई पीढी जन्म लेती है। अशून्य-काल की अपेक्षा मिश्रकाल को अनंतगुना बतलाया गया है, वह उन जीवों की अपेक्षा से है, जो वर्तमान में नैरयिक हैं और दूसरी गति में जन्म लेने के पश्चात् पुनः नरकगति में उत्पन्न होने वाले हैं। यह प्रतिपादन अगर वर्तमान नरकभव की अपेक्षा से होता तो अशून्यकाल की अपेक्षा मिश्रकाल अनंतगुना नहीं होता। कारण स्पष्ट है कि एक जन्म की आयु असंख्येयकाल से अधिक नहीं होती। नरक आदि गति से निकलने वाला जीव वनस्पति में अनन्त-अनन्त काल तक रह जाता है, इस अपेक्षा से शून्य-काल मिश्रकाल से अनन्तगुना बतलाया गया है। अन्तक्रिया-पद ११२. जीवे णं भंते ! अंतकिरियं करेजा? गोयमा ! अत्येगइए करेजा, अत्येगइए नो करेजा। अंतकिरियापयं नेयव्वं ॥ जीवः भदन्त ! अन्तक्रियां कुर्यात्? गौतम ! अस्त्येककः कुर्यात्, अस्त्येककः नो कुर्यात् । अन्तक्रियापदं ज्ञातव्यम् । ११२. भन्ते ! क्या जीव अन्तक्रिया करता है ? गौतम ! कोई जीव करता है, कोई जीव नहीं करता। यहां पण्णवणा का अंतक्रियापद (पद-२०) ज्ञातव्य है। भाष्य १. अन्तक्रिया ___ अन्तक्रिया सब दःखों के अन्त करने की प्रक्रिया का नाम शरीर से मुक्त हो जाती है। वृत्तिकार के अनुसार कर्म-क्षय की यह अन्तिम क्रिया है।' विशेष जानकारी के लिए देखें-पण्णवणा का जन्म आर मृत्यु का पर्यवसान हा जाता ह। आत्मा तजस आर कामण बीसवां पद तथा ठाणं,४।१ और उसका टिप्पण। असण्णि -आउय-पदं असंज्ञि-आयुष्य-पदम् असंज्ञी-आयु-पद ११३. अह भंते ! असंजयभवियदबदेवाणं, अथ भदन्त ! असंयतभव्यद्रव्यदेवानाम् अवि- ११३. 'भन्ते ! देवत्व प्राप्त करने योग्य असंयमी अविराहियसंजमाणं, विराहियसंजमाणं, राधितसंयमानां, विराधितसंयमानाम्, अविरा- संयम की आराधना करने वाले, संयम की विराअविराहियसंजमासंजमाणं, विराहियसंज- धितसंयमासंयमानां, विराधितसंयमासंयमा- धना करने वाले, संयमासंयम की आराधना करने मासंजमाणं, असण्णीणं, तावसाणं, कंद- नाम्, असंज्ञिनां, तापसानां, कान्दर्पिकानां, वाले, संयमासंयम की विराधना करने वाले असंप्पियाणं, चरग-परिवायगाणं, किबिसिया- चरक-परिव्राजकानां, किल्विषिकानां, तैर- ज्ञी, तापस, कान्दर्पिक, चरकपरिव्राजक, णं, तेरिच्छियाणं, आजीवियाणं, आभि- __श्चिकानाम्, आजीविकानाम्, आभियोगि- किल्चिषिक, तिर्यञ्च, आजीविक," आभिओगियाणं, सलिंगीणं दंसणवावण्णगाणं कानां, स्वलिङ्गिनां, दर्शनव्यापन्नकानाम् १. भ.वृ. ११०६-मिश्रकालस्तु तेषामेव नारकाणां मध्यादेकादय उद्धृत्ताः एकेन्द्रियाणां तूद्वर्तनोपपातविरहाभावेनाशून्यकालाभाव एव, आह चयावदेकोऽपि शेषस्तावन्मिश्रकालः। एगो असंखभागो वट्टइ उब्वट्टणोववामि । २. वही,१।१०६-शून्यकालस्तु यदा त एवादिष्टसामयिका नारकाः साम- एकनिगोए निच्चं एवं सेसेसु वि स एव ॥ स्त्येनोद्वृत्ता भवन्ति, नैकोऽपि तेषां शेषोस्ति स शून्यकाल इति। पृथिव्यादिषु पुनः 'अणुसमयमसंखेज'त्ति वचनाद्विरहाभाव इति । ३. (क) वही,१११०६ चान्तर्मुहूर्तमात्रः अयं च यद्यपि सामान्येन तिरश्चा- (ख) भ.जो.१1८1७३१ । मुक्तस्ताऽपि विकलेन्द्रियसंमूर्छिमानामेवावसेयः, तेषामेवान्तर्मुहूर्तमानस्य विरह- ४. भ.६.१।११२ --अन्त्या च सा पर्यन्तवर्तिनी क्रिया चान्त्यक्रिया, अन्तस्य वा कालस्योक्तत्वात्, यदाह -कर्मान्तस्य क्रिया अन्तक्रिया, तां कृत्स्नकर्मक्षयलक्षणां मोक्षप्राप्तिमित्यर्थः। "भिन्त्रमुहुत्तो विगलिदिएसु सम्मुच्छिमेसुवि स एव ।" Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवर्ड ६७ श.१: उ.२ः सू.११३ -एतेर्सि णं देवलोगेसु उववजमाणाणं एतेषां देवलोकेषु उपपद्यमानानां कस्य क वेषधारी१२-ये देवलोक में उपपन्न हों तो कस्स कहिं उववाए पण्णत्ते ? उपपातः प्रज्ञप्तः? किसका कहां उपपात प्रज्ञप्त है ? गोयमा! असंजयभवियदबदेवाणं जहण्णेणं गौतम ! असंयतभव्यद्रव्यदेवानां जघन्येन गौतम ! देवत्व प्राप्त करने योग्य असंयमी जघन्यतः भवणवासीसु, उक्कोसेणं उवरिमगेवेजएसु। भवनवासिषु, उत्कर्षेण उपरिमप्रैवेयकेषु। भवनवासी, उत्कर्षतः उपरिवर्ती ग्रैवेयकों में, संयम अविराहियसंजमाणं जहण्णेणं सोहम्मे कप्पे, अविराधितसंयमानां जघन्येन सौधर्मे कल्पे, की आराधना करने वाले जघन्यतः सौधर्म कल्प, उक्कोसेणं सबढसिद्धे विमाणे। विराहिय- उत्कर्षेण सर्वार्थसिद्धे विमाने। विराधि- उत्कर्षतः सर्वार्थसिद्ध विमान में, संयम की संजमाणं जहण्णेणं भवणवासीसु, उक्कोसेणं तसंयमानां जघन्येन भवनवासिषु, उत्कर्षेण विराधना करने वाले जघन्यतः भवनवासी, सोहम्मे कप्पे। अविराहियसंजमासंजमाणं सौधर्मे कल्पे। अविराधितसंयमासंयमानां उत्कर्षतः सौधर्म कल्प में, संयमासंयम की जहण्णेणं सोहम्मे कप्पे, उक्कोसेणं अच्चुए जघन्येन सौधर्मे कल्पे, उत्कर्षेण अच्युते आराधना करने वाले जघन्यतः सौधर्म कल्प, कप्पे। विराहियसंजमासंजमाणं जहण्णेणं कल्पे। विराधितसंयमासंयमानां जघन्येन। उत्कर्षतः अच्युतकल्प में, संयमासंयम की भवणवासीसु, उक्कोसेणं जोइसिएसु। भवनवासिषु, उत्कर्षेण ज्यौतिषिकेषु। विराधना करने वाले जघन्यतः भवनवासी, असण्णीणं जहण्णेणं भवणवासीसु, असंज्ञिनां जघन्येन भवनवासिषु, उत्कर्षेण उत्कर्षतः ज्योतिष्क देवो में, असंज्ञी जीव उक्कोसेणं वाणमंतरेस। वानमन्तरेषु। जघन्यतः भवनवासी, उत्कर्षतः वानमंतरों में उप पन्न होते हैं। अवसेसा सचे जहण्णेणं भवणवासीसु, अवशेषाः सर्वे जघन्येन भवनवासिसु, अवशेष सब जघन्यतः भवनवासी में उपपन्न होते उक्कोसेणं बोच्छामि-तावसाणं जोति- उत्कर्षेण वक्ष्यामि तापसानां ज्योतिषिकेषु, । हैं। उनका उत्कर्षतः उपपात इस प्रकार होगासिएसु, कंदप्पियाणं सोहम्मे कप्पे, चरग- कांदर्पिकानां सौधर्मे कल्पे, चरक-परि- तापस ज्योतिष्क देवों में, कान्दर्पिक सौधर्म कल्प परिवायगाणं बंभलोए कप्पे, किनिसियाणं । व्राजकानां ब्रह्मलोके कल्पे, किल्विषिकानां में, चरक-परिव्राजक ब्रह्मलोक कल्प में, किल्विलंतगे कप्पे, तेरिच्छियाणं सहस्सारे कप्पे, लान्तके कल्पे, तैरश्चिकानां सहस्रारे कल्पे, षिक लान्तक कल्प में, तिर्यञ्च सहस्रार कल्प में, आजीवियाणं अचुए कप्पे, आभिओगियाणं आजीविकानाम् अच्युते कल्पे, आभियोगि- आजीविक अच्युत कल्प में, आभियोगिक अच्युत अचए कप्पे, सलिंगीणं दसणवावनगाणं कानाम् अच्युते कल्पे, स्वलिङ्गिनां दर्शनव्या- कल्प में, दर्शनभ्रष्ट स्वतीर्थिक-जैन मुनि उवरिमगेविजेसु॥ पन्नकानाम् उपरितनग्रैवेयकेषु । वेषधारी उपरिवर्ती प्रैवेयकों में उपपन्न होते हैं। भाष्य १. सूत्र ११३ प्रस्तुत सूत्र में देवगति में उत्पन्न होने योग्य जीवों का संकलन । में उनमें श्रामण्य का स्पर्श नहीं हुआ है। उनकी मिथ्या दृष्टि छूटी किया गया है। किस प्रकार की निर्जरा और संयम-साधना से देवों नहीं है। इसमें भव्य और अभव्य दोनों प्रकार के मनुष्य हो सकते के विभिन्न स्तरों पर तिर्यञ्च और मनुष्य जन्म लेते हैं। उनका एक हैं। वे द्रव्य क्रिया के कारण उच्च प्रैवेयक तक जा सकते हैं। श्रमण वर्गीकरण किया गया है। यह वर्गीकरण पण्णवणा में भी मिलता का अनुष्ठान होने पर भी वे चारित्र के परिणाम से शून्य होते हैं है। ओवाइयं में भी इस विषय का एक लंबा प्रकरण है। उसमें इसलिए उन्हें असंयत कहा गया है।' कुछ विशद चर्चा उपलब्ध है। ____ भव्य-द्रव्य-देव'-यह पारिभाषिक शब्द है। जिसमें देव होने २. देवत्व प्राप्त करने योग्य असंयमी की योग्यता प्राप्त हो जाती है उसे भव्य-द्रव्य-देव कहा जाता है।' वृत्तिकार ने बतलाया है कि मिथ्यादृष्टि व्यक्ति भी साधु की पूजा-प्रतिष्ठा प्रस्तुत वर्गीकरण का पहला सूत्र है-असंयत भव्य द्रव्य देव। देखकर साधुत्व के प्रति आकर्षित हो जाता है और साधु-जीवन की इसमें उन श्रमणों का संग्रह किया गया है जो श्रमण का जीवन जी । क्रिया का अनुपालन कर सकता है।' रहे हैं, श्रमण की सामाचारी का अनुपालन कर रहे हैं, किन्तु वास्तव १. पण्ण.२०१६ २. ओवा.सू.८८.१६०१ ३. भ.वृ.१।११३-असंयता-चरणपरिणामशून्याः भव्याः देवत्वयोग्या अत एव द्रव्यदेवाः, समासश्चैवं-असंयताश्च ते भव्यद्रव्यदेवाश्चेति असंयतभव्य- द्रव्यदेवाः। ४. भ.१२/१६४। ५. भ.वृ.१।११३–असंयताश्च ते सत्यप्यनुष्ठाने चारित्रपरिणामशून्यत्वात् । ननु कथं तेऽभव्या भव्या वा श्रमणगुणधारिणो भवन्ति ? इति, अत्रोच्यते-तेषां हि महामिथ्यादर्शनमोहप्रादुर्भावे सत्यपि. चक्रवर्तिप्रभृत्यनेकभूपतिप्रवरपूजासत्कारसन्मानदानान् साधून समवलोक्य तदर्थं प्रव्रज्याक्रियाकलापानुष्ठानं प्रति श्रद्धा जायते। ततश्च ते यथोक्तक्रियाकारिण इति । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.२ः सू.११३ ६८ भगवई वृत्तिकार ने एक प्राचीन मत का उल्लेख किया है। उस मत के अनुसार यहां असंयत सम्यग्दृष्टि का ग्रहण होता है । वृत्तिकार ने इस मत को अमान्य ठहराया है और उसकी समीक्षा की है। उनके अनुसार सम्यग्दृष्टि देशविरत होने पर भी अच्युत (बारहवें स्वर्ग) से ऊपर उत्पन्न नहीं होता । प्रस्तुत सूत्र में निह्नवों का ग्रहण भी नहीं किया जा सकता। उनका प्रतिपादन अंतिम सूत्र में किया गया है, इसलिए असंयत भव्य - द्रव्य-देव मिथ्यादृष्टि ही होता है । ' निर्जरा के कारण वे उच्च गति में उत्पन्न हो जाते हैं।' यहां 'असंज्ञी' पद अमनस्क तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय का सूचक है । चतुरिन्द्रिय तक के जीव देवगति में उत्पन्न नहीं होते। इसलिए यहां 'असंज्ञी' पद के द्वारा अमनस्क तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय का ही ग्रहण किया गया है। ६. तापस ३. संयम की आराधना करने वाले प्रव्रज्याकाल से लेकर जीवन के अंत तक जिसके चरित्र का परिणाम खण्डित नहीं होता वह विराधनारहित संयम का अधिकारी माना जाता है। संयम की प्रारम्भिक साधना मे संज्वलन कषाय का और प्रमत्त गुणस्थान का अस्तित्व रहता है, इस स्थिति में स्वल्प माया आदि दोष का संभव होने पर भी चारित्र का उपघात नहीं किया जाता; इसलिए उस जागरूक मुनि का संयम अविराधित माना गया है। ४. संयम की विराधना करने वाले वृत्तिकार ने इस विषय की समीक्षा में लिखा है कि आर्या सुकुमालिका ने संयम की विराधना की थी और वह दूसरे स्वर्ग ( ईशान कल्प) में उत्पन्न हुई, इसलिए उत्कर्षतः सौधर्म कल्प में उत्पन्न होने का नियम कैसे घटित हो सकता है ? इसका समाधान उन्होंने इस प्रकार किया है कि आर्या सुकुमालिका ने संयम के 'उत्तरगुण की विराधना की थी, उसने मूल गुण की विराधना नहीं की थी । विराधित संयम की कोटि में संयम की अधिकतम विराधना करने वालों का ग्रहण किया गया है। कुछ अंशों में विराधना करने वाले मुनि अच्युत तक के स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं। वृत्तिकार के समाधान की पुष्टि नायाधम्मकहाओ और भगवई से भी होती है। ५. असंज्ञी अमनस्क जीवों के मन का विकास नहीं होता, फिर भी अकाम १. भ. वृ. १1११३ – तत्रैतेऽसंयतसम्यग्दृष्टयः किलेत्येके, यतः किलोक्तम्अणुव्वयमहव्वयेहिय बालतवोऽकामनिज्जराए य । देवाउयं निबंधइ सम्मद्दिट्ठि य जो जीवो || एतच्चायुक्तं यतोऽमीषामुत्कृष्टत उपरिमग्रैवेयकेषूपपात उक्तः । सम्यग्दृष्टीनां तु देशविरतानामपि न तत्रासौ विद्यते, देशविरतश्रावकाणामच्युतादूर्ध्वमगमनात् । नाप्येते निह्नवाः तेषामिहैव भेदेनाभिधानात् । तस्मान्मिथ्यादृष्टय एव अभव्या भव्या वा असंयतभव्यद्रव्यदेवाः श्रमणगुणधारिणो निखिलसामाचार्यनुष्ठानयुक्ता द्रव्यलिंगधारिणो गृह्यन्ते । ते ह्यखिलकेवलक्रियाप्रभावत एवोपरिमग्रैवेयकेषूत्पद्यन्त इति । २. वही, १1११३ प्रव्रज्याकालादारभ्याभग्नचारित्रपरिणामानां संज्चलनकषायसामर्थ्यात् प्रमत्तगुणस्थानकसामर्थ्याद्वा स्वल्पमायादिदोषसम्भवेऽप्यनाचरितचरणोपघातानामित्यर्थः । ३. वही, १ ।११३ – इह कश्चिदाह - विराधितसंयमानामुत्कर्षेण सौधर्मे कल्पे इति यदुक्तं, तत्कथं घटते ? द्रौपद्याः सुकुमालिकाभवे विराधितसंयमाया ईशाने उत्पादश्रवणात् इति । अत्रोच्यते तस्याः संयमविराधना उत्तरगुणविषया हैं— दशवैकालिक नियुक्ति में पांच प्रकार के श्रमण बतलाए गए निर्ग्रन्थ जैन मुनि शाक्य - बौद्ध भिक्षु तापस—जटाधारी वनवासी मुनि गेरुक - त्रिदण्डी परिव्राजक आजीवक— गोशालक के शिष्य । इसके आधार पर कहा जा सकता है कि तापस श्रमणों का एक सम्प्रदाय था। ओवाइयं में तापसों के अनेक प्रकार बतलाए गए हैं। ७. कान्दर्पिक, किल्विषिक और आभियोगिक उक्त तीनों पद तीन भावनाओं से संबद्ध हैं। कन्दर्पी भावना से भावित साधु कान्दर्पिक, किल्विषी भावना से भावित साधु किल्चिषिक और अभियोगी भावना से भावित साधु आभियोगक कहलाते हैं । ये व्यवहारदृष्टि से चारित्रवान होते हैं। यह वृत्तिकार की व्याख्या है। ओवाइयं में इनके लिए 'श्रमण' शब्द का प्रयोग किया गया है। यहां किल्विषिक का जघन्यतः उत्पाद भवनवासी में बतलाया गया है । पण्णवणा में उनका जघन्यतः उत्पाद सौधर्म देवलोक में बतलाया गया है। भवनवासी में उत्पन्न होना विमर्शनीय है । किल्विषिक देव तीन प्रकार के होते हैं और वे तीनों वैमानिक देवों के स्तर हैं।" कन्दर्पी भावना वाले हास्य कुतूहलप्रधान प्रवृत्ति करतें हैं। ओवाइयं में कन्दर्पी भावना वालों का सौधर्म देवलोक में कान्दर्पिक के रूप में उत्पन्न होना बतलाया गया है। वहां उनके कुशत्वमात्रकारिणी न मूलगुणविराधनेति । सौधर्मोत्पादाश्च विशिष्टतरसंयमविराधनायां स्यात् । यदि पुनर्विराधनामात्रमपि सौधर्मोत्पत्तिकारकं स्यात्तदा बकुशादीनामुत्तरगुणादिप्रतिसेवावतां कथमच्युतादिषूत्पत्तिः स्यात् ? कथञ्चिद्विराधकत्वात्तेषामिति । ४. (क) नाया. १।१६ ११६२ (ख) भ.२५ । ३३७ । ५. भ. वृ. १ ।११३ – मनोलब्धिरहितानामकामनिर्जरावताम् । ६. पण्ण. ६ । १०३, १०४ । ७. ओवा. सू. ६४ । ८. वही, सू. ६५ से जे इमे गामागर-णयर-निगम-रायहाणि खेड-कब्बड - दोणमुह मडंब - पट्टणासम-संबाह-सण्णिवेसेसु पव्वइया समणा भवंति, तं जहा- कंदपिया कुक्कुइया मोहरिया गीयरइप्पिया नच्चणसीला । ६. पण्ण. २० । ६१ । १०. भ. ६।२३७२३६ । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ६६ जघन्य उत्पाद की कोई चर्चा नहीं है।' किल्विषी भावना वाले ज्ञान और ज्ञानी की अवहेलना नहीं करते हैं। ओवाइयं के अनुसार वे आचार्य, उपाध्याय आदि के प्रतिकूल प्रवृत्ति करने वाले होते हैं। ' प्रस्तुत आगम में भी इसका संवादी पाठ मिलता है।' अभियोगी भावना वाले विद्या और मन्त्र का प्रयोग करते हैं। उत्तरज्झयणाणि में पांच भावनाएं बतलाई गई हैं, उनमें ये तीनों उल्लिखित हैं। ८. चरक और परिव्राजक * ये दोनों श्रमण-सम्पदाय के अंगभूत हैं । आगम के व्याख्या- साहित्य में चरक और परिव्राजक का बार-बार उल्लेख मिलता है। दशवैकालिक नियुक्ति में श्रमण के बीस पर्यायवाची नाम बतलाए गए हैं। उनमें चरक और परिव्राजक इन दोनों का समावेश है। ओवाइयं में परिव्राजकों के नौ सम्प्रदायों का उल्लेख मिलता है— सांख्य, योगी, कापिल, भार्गव, हंस, परमहंस, बहुउदक, कुटिव्रत और कृष्ण-परिव्राजक । वहां आठ ब्राह्मण परिव्राजक और आठ क्षत्रिय परिव्राजकों का उल्लेख भी मिलता है। प्रारम्भ में परिव्राजक तथा चरक का सांख्य दर्शन से सम्बन्ध रहा। उत्तरकाल में उनका विस्तार हो गया। ६. तिर्यञ्च यहां गाय, अश्व आदि उन तिर्यञ्चों का ग्रहण किया गया हैं जो देशव्रत का पालन करते हैं।' ओवाइयं में इसका विशद विवेचन मिलता है। उसके अनुसार संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जलचर, स्थलचर और खेचर जीव जातिस्मरण ज्ञान को प्राप्त कर पांच अणुव्रतों को स्वीकार करते हैं, बहुत सारे शील व्रत आदि के द्वारा अपने आपको भावित कर अनशनपूर्वक मरकर उत्कर्षतः सहस्रारकल्प तक जाते हैं। इस विषय में प्रस्तुत आगम २४ । ३५२ तथा उत्पन्न १. ओवा. सू. ६५ । २. वही, सू. १५५ । ३. म. ६३२४० । ४. ( क ) भ.वृ. १ ।११३ – किल्विषं पापं तदस्ति येषां ते किल्विषिकाः, ते च व्यवहारतश्चरणवन्तोऽपि ज्ञानाद्यवर्णवादिन:, यथोक्तम्— णाणस्स केवली, धम्मायरियस्स संघसाहूणं । माई अवन्नवाई, किव्विसियं भावणं कुणई || अतस्तेषां अभियोजनं विद्यामन्त्रादिभिः परेषां वशीकरणाद्यभियोगः, स द्विधा, यदाह- दुविहो खलु अभिओगो, दव्वे भावे य होइ नायव्वो । दव्वंमि होंति जोगा, विज्जा मंता य भावंमि ॥ इति । सोऽस्ति येषां तेन वा चरन्ति ये ते आभियोगिक वा । ते च व्यवहारतश्चरणवन्त एव मन्त्रादिप्रयोक्तारः, यदाह कोउयभूइकम्मे परिणापसिणे निमित्तमाजीवी । इरिससायगरुओ अहिओगं भावणं कुणइ ॥ इति । (ख) ओवा. सू. १५६ । ५. उत्तर. ३६ । २५६ । ६. दशवै.नि.गा. १५८, १५६ पण्णवणा ६।१०५-१०६ द्रष्टव्य है। १०. आजीविक श. १: उ. २: सू. ११३ यह एक श्रमण-सम्प्रदाय था। भगवान् महावीर के समय में यह बहुत प्रसिद्ध और शक्तिशाली संघ था। मंखलिपुत्र गोशालक इसी सम्प्रदाय के आचार्य बने थे। इस सम्प्रदाय के बारे में आगम-साहित्य तथा आगम के व्याख्या- साहित्य में पर्याप्त जानकारी मिलती हैं । बौद्ध साहित्य में वर्णित छह तीर्थंकरों में मक्खली गोशालक का आजीवकों के तीर्थंकर के रूप में उल्लेख है।" इस विषय में प्रस्तुत आगम का पन्द्रहवां शतक द्रष्टव्य है। डॉ. ए. एल. बाशम ने 'आजीवक' पर एक महत्तवपूर्ण पुस्तक लिखी है। ओवाइयं में आजीवकों के द्विगृहान्तरिक त्रिगृहान्तरिक आदि सात प्रकार बतलाए गए हैं। १२ ११. दर्शनभ्रष्ट स्वतीर्थिक—जैन मुनि वेषधारी 13 इन दो पदों के द्वारा निह्नवों की सूचना दी गई हैं । ठा में सात निह्नवों के बारे में जानकारी मिलती है। " ओवाइयं के अनुसार चर्या और लिंग की दृष्टि से ये प्रारम्भ में श्रमण होते हैं, किंतु किसी कारणवश उनका दृष्टिकोण मिथ्या हो जाता है और वे मिथ्याभिनिवेश के कारण तीर्थंकर द्वारा प्ररूपित सिद्धान्तों का अपलाप करते हैं।" विस्तृत विवरण के लिए देखें ठाणं ७।१४० का टिप्पण | वृत्तिकार ने 'आजीवक' शब्द का अर्थ 'नग्न रहने वाले श्रमणों का एक प्रकार' किया हैं। कुछ व्याख्याकार इसका अर्थ 'गोशालक-सम्प्रदाय' मानते हैं। यह मतान्तर का उल्लेख हैं । वृत्तिकार ने इसका तीसरा अर्थ किया है— पूजा-प्रतिष्ठा के लिए तपश्चरण करने वाले । 91 पव्वइए अणगारे, पासंडे चरग तावसे भिक्खू । परिवाइए य समणे, निग्गंथे संजए मुत्ते ॥ तिने ताई दविए, मुणी य खंते दंत विरए य । हे तिरऽविय, हवंति समणस्स नामाई || ७. ओवा.सु. ६६ । ८. भ. वृ. १ ।११३ - 'तिरश्चां' गवाश्वादीनां देशविरतिभाजाम् । ६. ओवा. सू. १५६,१५७। १०. दीघनिकाय, खण्ड १, पृ. ४१,२1१1३ अयं देव, मक्खलि गोसालो सङ्घी चैव गणी च गणाचरियो च, आतो, यसस्सी, तित्थकरो, साधुसम्मतो बहुजनस्स, रतनू, चिरपव्वजितो, अद्धगतो, वयोअनुप्पत्तो । ११. History and Doctrines of Ajivakas. १२. ओवा.सू.१५८ । १३. ठाणं, ७।१४०-१४२ । १४. ओवा.सू.१६० । १५.भ.बृ.१ ।११३ – पाषण्डिविशेषाणां नाग्न्यधारिणां गोशालक शिष्याणामित्यन्ये । आजीवन्ति वा येऽविवेकिलोकतो लब्धिपूजाख्यात्यादिभिस्तपश्चरणादीनि ते आजीविकाऽस्तित्वेनाजीविका अतस्तेषाम् । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श.१: उ.२ः सू.११४,११५ ७० ११४. कतिविहे णं भंते ! असण्णिआउए कतिविधं भदन्त ! असंइयायुः प्रज्ञप्तम्? पण्णते? गोयमा ! चउबिहे असण्णिआउए पण्णत्ते, __ गौतम ! चतुर्विधं असंइयायुः प्रज्ञप्तम्, तद् तं जहा–नेरइयअसण्णिआउए, तिरिक्ख- यथा-नैरयिकासंघ्यायुः तिर्यग्योनिकाजोणियअसण्णिआउए, मणुस्सअसण्णि- संजयायुः, मनुष्यासंइयायुः, देवासंघ्यायुः । आउए, देवअसण्णिआउए॥ ११४. भन्ते ! असंज्ञी-आयु कितने प्रकार की प्रज्ञप्त है? गौतम ! असंज्ञी-आयु चार प्रकार की प्रज्ञप्त है, जैसे-नैरयिक असंज्ञी-आयु,२ तिर्यग्योनिक असंज्ञी-आयु, मनुष्य असंज्ञी-आयु, देव असंज्ञी-आयु। भाष्य १. असंज्ञी-आयु असंज्ञी का अर्थ है अमनस्क। जिस जीव के मन का विकास नहीं होता, वह असंज्ञी कहलाता है। जो जीव असंज्ञी अवस्था में अगले जन्म के योग्य आयु का बन्ध करता है उसका नाम असंज्ञी-आयु है।' यह भावी नैगम नय की अपेक्षा से व्याख्या की गई है। भावी नैगम नय, नैगम नय का एक भेद है जिसका विषय हैभविष्य में वर्तमान का आरोपण करना। जैसे-जब जीव असंज्ञी कोनी ती तिर्यञ्च' अवस्था में नरक या देव गति का आयुष्य-बन्ध करता है, उस आयु बन्ध को असंज्ञी-आयुष्य-बन्ध कहा जाता है, जबकि देव और नारक असंज्ञी होते ही नहीं। यहां भविष्य में वर्तमान का आरोपण किया गया है। २. नैरयिक असंज्ञी-आयु नैरयिक असंज्ञी-आयु का तात्पर्य है-नैरयिक-प्रायोग्य असंज्ञी-आयु यानि असंज्ञी जीव जब नरक का आयुष्य-बन्ध करता है। शेष तीनों इसी प्रकार व्याख्येय हैं। ११५. असण्णी णं भंते ! जीवे किं नेरइयाउयं असंज्ञी भदन्त ! जीवः किं नैरयिकायुः ११५. भन्ते ! क्या असंज्ञी जीव नैरयिक-आयु का पकरेइ ? तिरिक्खजोणियाउयं पकरेइ ? प्रकरोति ? तिर्यग्योनिकायुः प्रकरोति ? मनु- बन्ध करता है ?' तिर्यग्योनिक- आयु का बन्ध मणुस्साउयं पकरेइ ? देवाउयं पकरेइ ? प्यायुः प्रकरोति ? देवायुः प्रकरोति ? करता है ? मनुष्य-आयु का बन्ध करता है ? देव-आयु का बन्ध करता है ? हंता गोयमा ! नेरइयाउयं पि पकरेइ, तिरि- हन्त गौतम ! नैरयिकायुरपि प्रकरोति, तिर्यग्- हां, गौतम ! वह नैरयिक-आयु का भी बन्ध करता क्खजोणियाउयं पि पकरेइ, मणुस्साउयं पि योनिकायुरपि प्रकरोति, मनुष्यायुरपि प्रकरो- है। तिर्यग्योनिक-आयु का भी बन्ध करता है। पकरेइ, देवाउयं पि पकरेइ। ति, देवायुरपि प्रकरोति । मनुष्य-आयु का भी बन्ध करता है और देव -आयु का भी बन्ध करता है। नेरइयाउयं पकरेमाणे जहण्णेणं दसवास- नैरयिकायुः प्रकुर्वन् जघन्येन दशसहस्र- नैरयिक-आयु का बन्ध करने वाला जघन्यतः दस सहस्साई, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असं- वर्षाणि, उत्कर्षेण पल्योपमस्य असंख्येयभागं हजार वर्ष और उत्कर्षतः पल्योपम के असंख्येय खेजइमागं पकरेइ। प्रकरोति । भाग का बन्ध करता है। तिरिक्खजोणियाउयं पकरेमाणे जहण्णेणं तिर्यग्योनिकायुः प्रकुर्वन् जघन्येन अन्त- तिर्यगयोनिक-आयु का बन्ध करने वाला जघन्यतः अंतोमहत्तं, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असं- मुहूर्तम्, उत्कर्षेण पल्योपमस्य असंख्येयभागं अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षतः पल्योपम के असंख्येय खेजइभागं पकरे। प्रकरोति । भाग का बन्ध करता है। मणुस्साउयं पकरेमाणे जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, मनुष्यायुः प्रकुर्वन् जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, मनुष्य-आयु का बन्ध करने वाला जघन्यतः अन्तउक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेजइभागं उत्कर्षेण पल्योपमस्य असंख्येयभागं प्रकरो- मुहूर्त और उत्कर्षतः पल्योपम के असंख्येय भाग पकरे। का बन्ध करता है। देवाउयं पकरेमाणे जहण्णेणं दसवास- देवायुः प्रकुर्वन् जघन्येन दश सहस्रवर्षाणि, देव-आयु का बन्ध करने वाला जघन्यतः दश सहस्साई, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखे- उत्कर्षेण पल्योपमस्य असंख्येयभागं प्रकरो- हजार वर्ष और उत्कर्षतः पल्योपम के असंख्येय अइमागं पकरेइ ॥ ति। भाग का बन्ध करता है। ति। ३. भ.वृ.१।११४-नैरयिकप्रायोग्यमसङ्ग्यायुनॆरयिकासङ्ग्यायुः, एवमन्यापि । १. भ.वृ.१।११४-असञी सन् यत्परभवयोग्यमायुर्बध्नाति तदसङ्ग्यायुः। २. असंज्ञी मनुष्य नरक और देवगति का आयुष्य-बंध नहीं करता। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ११६. एयस्स णं भंते ! नेरइयअसण्णी - आउयस्स, तिरिक्खजोणियअसण्णी आउयस्स, मणुस्सअसण्णी आउयस्स, देवअस आउयस्स करे करेहिंतो अप्पे वा ? बहुए वा ? तुल्ले वा ? विसेसाहिए वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवे देवअसण्णिआउए, १. बन्ध करता है यहां ‘प्रकरोति' का अर्थ 'बंध करना' है।' पकरेइ – इस धातु का कुछ विशिष्ट अर्थ भी है। इस विषय में भ. ११४३६-४३६ का आलापक द्रष्टव्य है। वहां बंघइ और पकरेइ दोनों धातु-पदों का प्रयोग असणआए असंखेज्जगुणे, तिरिक्खजोणिय असणिआउए असंखेज्जगुणे, नेरइय असणिआउए असंखेजगुणे ॥ १. सूत्र ११६ आयुष्य का अल्पबहुत्व ७१ भाष्य एतस्य भदन्त ! नैरयिकासंज्ञ्यायुषः, तिर्यगूयोनिकासंज्ञयायुषः, मनुष्यासंज्ञयायुषः, देवासंज्ञ्यायुषः, कतरः कतरेभ्यः अल्पो वा ? बहुर्वा ? तुल्यो वा ? विशेषाधिको वा ? गौतम ! सर्वस्तोकः देवासंज्ञ्यायुः, मनुष्यासंज्ञ्यायुः अख्येयगुणः, तिर्यग्योनिकासंज्ञ्यायुः असंख्येयगुणः, नैरयिकासंज्ञ्यायुः असंख्येयगुणः । जयाचार्य ने आयुष्य के अल्पबहुत्व का विमर्श किया है। उन्होंने लिखा है कि प्रस्तुत आगम के चौबीसवें शतक के द्वितीय उद्देशक की टीका में यह निर्दिष्ट है - "संमूर्च्छिम की उत्कृष्ट आयु एक करोड़ पूर्व-प्रमाण होती है।" इसका हेतु यह है कि संमूर्च्छिम जीव अपनी आयु के प्रमाण में ही देव-आयु का बंध कर सकता है, उससे अधिक नहीं कर सकता। इसी अपेक्षा से देव - आयु को ११७. सेवं भंते! सेवं भंते ! है। बंघइ का अर्थ सामान्य है— बांधना । पकरेइ का अर्थ कर्म की प्रकृति आदि में परिवर्तन करना है। भाष्य १. भ. बृ. 9 19१५ – पकरेइ' त्ति बध्नाति । २. वही, २।११७ – इह पल्योपमासंख्येयभागग्रहणेन पूर्वकोटी ग्राह्या, यतः संमूर्च्छिमस्योत्कर्षतः पूर्वकोटिप्रमाणमायुर्भवति, स चोत्कर्षतः स्वायुष्कतुल्यमेव देवायुर्बध्नाति नातिरिक्तं, अत एवोक्तं चूर्णिकारेण -- "उक्कोसेणं स तुल्ल तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! श.१: उ.२ः सू.११५-११७ ११६. ' भन्ते! नैरयिक- असंज्ञी-आयु, तिर्यग्योनिक- असंज्ञी-आयु, मनुष्य-असंज्ञी - आयु और देव- असंज्ञी आयु, इनमें कौन किससे अल्प, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक है ? सबसे अल्प माना गया है।' यौगलिक मनुष्य की अपेक्षा से मनुष्य – आयु को उससे असंख्यातगुना तथा तिर्यञ्च यौगलिक की अपेक्षा से उससे असंख्यात - गुना माना गया है। रत्नप्रभा के चौथे प्रस्तर में मध्यम आयु में उत्पन्न होता है, इस अपेक्षा से नरक का आयु तिर्यञ्च से असंख्यातगुना होता है। गौतम ! देव की असंज्ञी-आयु सबसे अल्प हैं । मनुष्य असंज्ञी आयु उससे असंख्येयगुना है, तिर्यग्योनिक - असंज्ञी-आयु उससे असंख्येयगुना है। और नैरयिक-असंज्ञी-आयु उससे असंख्येयगुना है । ११७. भन्ते वह ऐसा ही है, भन्ते वह ऐसा ही है। पुव्वकोडी आयुयत्तं निव्वत्ते, न य संमुच्छिमो पुव्वकोडीआयुयत्ताओ परो अस्थि "त्ति । ३. भ.जो. १ । १० । २२ का वार्तिक । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल कंखामोहणिज-पदं ११५.जीवाणं भंते ! कंखामोहणिजे कम्मे तइओ उद्देसो : तीसरा उद्देशक संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद काङ्क्षामोहनीय-पदम् कांक्षामोहनीय-पद जीवानां भदन्त ! कांक्षामोहनीयं कर्म कृतम्? ११५.'भन्ते ! क्या जीवों के कांक्षामोहनीय कर्म कृत' होता है ? हन्त कृतम्। हां, कृत होता है। कडे ? हंता कडे॥ ११६. से भंते ! किं १. देसेणं देसे कडे ? २. देसेणं सब्वे कडे ? ३. सवेणं देसे कडे ? ४. सब्वेणं सब्वे कडे ? गोयमा ! १. नो देसेणं देसे कडे २. नो देसेणं सव्वे कडे ३. नो सब्वेणं देसे कडे ४. सवेणं सब्वे कडे॥ तस्य भदन्त ! किं १. देशेन देशः कृतः ? ११६. भन्ते ! क्या १. देश के द्वारा देश कृत होता २. देशेन सर्वं कृतम् ? ३. सर्वेण देशः कृतः? है? २. देश के द्वारा सर्व कृत होता है? ३. सर्व ४. सर्वेण सर्वं कृतम् ? के द्वारा देश कृत होता है? ४. सर्व के द्वारा सर्व कृत होता है? गौतम ! १. नो देशेन देशः कृतः २. नो । गौतम ! १. देश के द्वारा देश कृत नहीं होता। देशेन सर्वं कृतम् ३. नो सर्वेण देशः कृतः । २. देश के द्वारा सर्व कृत नहीं होता। ३. सर्व ४. सर्वेण सर्वं कृतम् । के द्वारा देश कृत नहीं होता। ४. सर्व के द्वारा सर्व कृत होता है। १२०. नेरइयाणं भंते ! कंखामोहणिजे कम्मे कडे ? हंता कडे॥ नैरयिकाणां भदन्त ! कांक्षामोहनीयं कर्म १२०. भन्ते ! क्या नैरयिक जीवों के कांक्षामोहनीय कृतम् ? कर्म कृत होता है ? हन्त कृतम्। हां, कृत होता है। १२१. से भंते ! किं १. देसेणं देसे कडे ? २. देसेणं सब्बे कडे ? ३. सबेणं देसे कडे? ४. सवेणं सब्वे कडे ? तस्य भदन्त ! किं १. देशेन देशः कृतः ? १२१. भन्ते! क्या १. देश के द्वारा देश कृत होता २. देशेन सर्वं कृतम् ?३. सर्वेण देशः कृतः? है? २. देश के द्वारा सर्व कृत होता है ? ३. सर्व ४. सर्वेण सर्वं कृतम् ? के द्वारा देश कृत होता है ? ४. सर्व के द्वारा सर्व कृत होता है ? गौतम ! १. नो देशेन देशः कृतः २. नो गौतम ! १. देश के द्वारा देश कृत नहीं होता। देशेन सर्वं कृतम् ३. नो सर्वेण देशः कृतः । २. देश के द्वारा सर्व कृत नहीं होता। ३. सर्व ४. सर्वेण सर्वं कृतम्। के द्वारा देश कृत नहीं होता। ४. सर्व के द्वारा सर्व कृत होता है। गोयमा ! १. नो देसेणं देसे कडे २. नो देसेणं सब्बे कडे ३. नो सब्वेणं देसे कडे ४. सवेणं सब्वे कडे ॥ १२२. एवं जाव वेमाणियाणं दंडओ भाणियब्बो॥ एवं यावद् वैमानिकानां दण्डकः भणितव्यः। १२२. (असुरकुमारों से लेकर) वैमानिकों तक सभी दण्डक इसी प्रकार वक्तव्य हैं। १२३. जीवा णं भंते ! कंखामोहणिजं कम्मं करिंसु ? हंता करिसु॥ जीवा भदन्त ! काङ्क्षामोहनीयं कर्म अका- १२३. भन्ते ! क्या जीवों ने कांक्षामोहनीय कर्म किये थे? हन्त अकार्षः। हां, किये थे। १२४.तं भंते ! किं १. देसेणं देसंकरिंसु? २. देसेणं सबं करिंसु ? ३. सव्वेणं देसं करिंसु ? ४. सब्वेणं सव्वं करिसु? तस्य भदन्त ! किं १. देशेन देशम् अकार्षः? १२४. भन्ते ! क्या उन्होंने १. देश के द्वारा देश २. देशेन सर्वम् अकार्षः ? ३. सर्वेण देशम् किया था ? २. देश के द्वारा सर्व किया था? अकार्षुः ? ४. सर्वेण सर्वम् अकार्षुः ? ३. सर्व के द्वारा देश किया था ? ४. सर्व के द्वारा सर्व किया था? Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ७३ श.१: उ.३: सू.११८-१२८ गोयमा !१. नो देसेणं देसं करिंसु २. नो देसेणं सबंकरिंसु ३. नो सवेणं देसंकरिंसु ४. सवेणं सबं करिंसु ॥ गौतम ! १. नो देशेन देशम् अकार्षुः २. नो गौतम ! उन्होंने १. देश के द्वारा देश नहीं किया। देशेन सर्वम् अकार्षुः ३. नो सर्वेण देशम् । २. देश के द्वारा सर्व नहीं किया। ३. सर्व के अकार्षुः ४. सर्वेण सर्वम् अकार्षुः । द्वारा देश नहीं किया। ४. सर्व के द्वारा सर्व किया था। १२५. एएणं अभिलावेणं दंडओ भाणियबो जाव वेमाणियाणं॥ एतेन अभिलापेन दण्डकः भणितव्यः यावद् १२५. इस अभिलाप (पाठ-पद्धति) द्वारा वैमानिकों वैमानिकानाम् । तक सभी दण्डक वक्तव्य हैं। १२६. एवं करेंति। एत्थ वि दंडओ जाव वेमाणियाणं॥ एवं कुर्वन्ति। अत्रापि दण्डकः यावद् १२६. इसी प्रकार (वर्तमान में जीव कांक्षामोहनीय वैमानिकानाम्। कर्म) करते हैं । यहां भी वैमानिकों तक सभी दण्डक वक्तव्य हैं। १२७. एवं करिस्संति । एत्य वि दंडओ जाव वेभाणियाणं॥ एवं करिष्यन्ति । अत्रापि दण्डकः यावद् १२७. इसी प्रकार (भविष्य में जीव कांक्षामोहनीय वैमानिकानाम्। कर्म) करेंगे। यहां भी वैमानिकों तक सभी दण्डक वक्तव्य हैं। १२८. एवं चिए, चिणिंसु, चिणंति, चिणि- स्संति । उवचिए, उवचिणिंसु, उवचिणंति, उवचिणिस्संति। उदीरेंसु, उदीरेंति, उदी- रिस्संति। वेदेंस, वेदेति, वेदिस्संति। निञ्जरेंसु, निजरेंति, निजरिस्संति। एवं चितः, अचैषुः, चिन्वन्ति, चेष्यन्ति। १२८. इसी प्रकार चित है, चय किया था, चय उपचितः, उपाचैषुः, उपचिन्वन्ति, उप- करते हैं और चय करेंगे। उपचित्र है , उपचय चेष्यन्ति। उदैरिरन्, उदीरयन्ति, उदीर- किया था, उपचय करते हैं और उपचय करेंगे। यिष्यन्ति। अवेदयिषुः, वेदयन्ति, वेद- उदीरणा की थी, उदीरणा करते हैं और उदीरणा यिष्यन्ति । निरजारिषः, निर्जीयन्ति, निर्जरि- करेंगे। वेदन किया था, वेदन करते हैं और ष्यन्ति। वेदन करेंगे। निर्जरण किया था, निर्जरण करते हैं और निर्जरण करेंगे। संगहणी गाहा संग्रहणी गाथा कड-चिय-उवचियउदीरिया वेदिया य निजिण्णा। आदितिए चउभेदा, तिसभेदा पच्छिमा तिण्णि ॥१॥ कृत-चित-उपचितउदीरिता वेदिताः च निर्जीर्णाः। आदित्रिके चतुर्भेदाः, त्रिकभेदाः पश्चिमाः त्रयः॥ संग्रहणी गाथा कृत, चित, उपचित, उदीरित, वेदित और निर्जीर्ण-ये छह प्रकार हैं। इनमें प्रथम तीन के चार-चार भेद हैं और शेष तीन के तीन-तीन भेद भाष्य १. सूत्र ११८-१२८ _प्रस्तुत आलापक में एक कर्मशास्त्रीय समस्या का समाधान किया गया है। जीव उन्हीं कर्म-पुद्गलों को ग्रहण करता है, जो उसके प्रदेशों (आत्म-प्रदेशों) में अवगाढ होते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि जिन आकाश-प्रदेशों पर आत्मा के प्रदेश व्याप्त होते हैं, उन्हीं आकाश-प्रदेशों पर रहे हुए कर्म-पुद्गल जीव द्वारा ग्रहण किए जाते हैं, किन्तु उन आकाश-प्रदेशों के अनन्तर और परम्पर प्रदेशों में अवगाढ कर्म-पुद्गलों का वह ग्रहण नहीं करता। कर्म-ग्रहण की प्रक्रिया इस प्रकार है-कभी जीव एक-दो से लेकर अनेक आस-प्रदेशों पर अवगाढ कर्म-पुद्गलों को ग्रहण करता है और कभी सभी आत्म-प्रदेशों पर अवगाढ कर्म-पुद्गलों को ग्रहण करता है। ये दोनों प्रकार के पुद्गल जीव के सभी प्रदेशों द्वारा ग्रहण किए जाते हैं। कर्म-प्रकृति में इसी सव्वेणं (सर्वात्मना) के नियम का निरूपण मिलता है। प्रस्तुत आगम तथा पण्णवणा में आहार के विषय में यही नियम मिलता है। 'वृत्तिकार ने भी इस नियम को १. कर्म प्रकृति,२१ एगमवि गहणदव्वं, सव्वप्पणयाए जीवदेसम्म । सव्वप्पणया सव्वत्थ वावि सब्वे गहणखन्थे । २. (क) भ.६।१८६। (ख) पण्ण.२८/२० आयसरीरखेत्तोगाढे पोग्गले सब्बप्पणयाए आहारमाहरेंति। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.३. सू.११८-१२८ ७४ भगवई जीव का स्वभाव मानकर उसकी व्याख्या की है।' मलयगिरि ने चित का अर्थ 'उत्तरोत्तर स्थितियों में प्रदेश-हानि और इस नियम का दूसरा खण्ड है सवं। इसका तात्पर्य है कि रस-वृद्धि के द्वारा अवस्थापित करना' किया है। एक काल में जितने कर्म-पुद्गलों का ग्रहण करना है उनका एक भगवती, प्रथम शतक के नौवें उद्देशक की वृत्ति में अभयदेवसूरि साथ ग्रहण किया जाएगा, उनका आंशिक ग्रहण नहीं होगा। इस ने चिणाइ का सम्बन्ध अनुभाग-बन्ध अथवा 'निधत्तावस्था' से बतलाया प्रकार सम्वेणं सव्वे का नियम ग्राहक और ग्रहणीय द्रव्य दोनों से है। पण्णवणा में भी बन्ध की छह अवस्थाएं प्रतिपादित हैं-१.बद्ध सम्बन्धित है। प्रस्तुत सूत्र के चार विकल्पों में यह चौथा विकल्प २. स्पृष्ट ३. बद्धस्पर्शस्पृष्ट ४. संचित ५. चित ६. उपचित। इसी सम्मत है, शेष तीनों विकल्प कर्म-बन्ध के सम्बन्ध में मान्य नहीं हैं। प्रकार उपचित पद के भी भिन्न-भिन्न अर्थ मिलते हैं-अभयदेवसरि २. कांक्षामोहनीय के अनुसार 'प्रदेश और अनुभाग आदि की बार-बार वृद्धि करना' उपचय है। मतान्तर के अनुसार चित के अबाधाकाल को छोड़कर कांक्षा का अर्थ है अभिलाषा। विभिन्न दृष्टिकोणों या मतवादों वेदन के योग्य निषेक की रचना करना उपचय है।" के सामने आने पर कांक्षामोह की स्थिति बनती है। यह सही है' या 'वह सही है' इस प्रकार का विकल्प 'शंका' है। इसके पश्चात् प्रथम शतक के नौवें उद्देशक की वृत्ति में अभयदेवसूरि ने 'इसे स्वीकार करूं' या 'उसे स्वीकार करूं' इस प्रकार की अभि उवचिणाइ का संबन्ध प्रदेश-बन्ध अथवा 'निकाचना' से बतलाया लाषात्मक मनोदशा ‘कांक्षा' है। कांक्षा के साथ 'मोहनीय' शब्द का योग है। कांक्षा के द्वारा आचार्य मलयगिरि ने उपचित का अर्थ 'संक्रमण के द्वारा चेतना में एक प्रकार का मोह पैदा हो जाता है। इसलिए इसे मोहनीय उपचय करना' किया है।" कर्म कहा गया है। "चित' और 'उपचित' इन दोनों पदों की व्याख्याओं का वृत्तिकार ने कांक्षामोहनीय का अर्थ मिथ्यात्व मोहनीय किया तुलनात्मक अध्ययन करने पर पता चलता है कि सब व्याख्याकार है। किन्तु इसी शतक के १७० - सूत्र के सन्दर्भ में विमर्श करने इस विषय में एकमत नहीं हैं। 'चित' का 'अनुभाग-वृद्धि' अर्थ संगत पर प्रतीत होता है कि कांक्षामोहनीय का सम्बन्ध ज्ञानावरणीय कर्म लगता है। इस विषय में आचार्य मलयगिरि और अभयदेवसूरि दोनों से है, मोहनीय कर्म के अवान्तर भेद दर्शन-मोहनीय से नहीं है। सहमत हैं। 'उपचित' का अर्थ 'कर्म-पुद्गलों की निषेक-रचना' संगत प्रतीत होता है। अभयदेवसूरि ने मतान्तर के सन्दर्भ में जो गाथा द्रष्टव्य १११६६-१७२ का भाष्य। उद्धृत की है, वह कर्म-प्रकृति की है३. कृत मोतूण सगमबाहे, पढमाए ठिइए बहुतरं दव्वं । इसका अर्थ है कर्म रूप में बद्ध । एत्तो विसेसहीणं, जावुकोसं ति सब्वेसि ।।" ४. चित, उपचित निषेक-रचना का अर्थ 'बध्यमान कर्म-प्रकृतियों के अपने-अपने चित और उपचित का सामान्य अर्थ है-संचित होना और अबाधाकाल को छोड़कर कर्म-दलिकों और उनके स्थिति-काल में पुष्ट होना। कर्म-शास्त्र के प्रसंग में इनकी विशेष व्याख्या सामञ्जस्य स्थापित करना है। इससे फलित होता है कि 'उपचय' है-कर्म-पुद्गलों का जीव-प्रदेशों के साथ सम्बन्ध होते रहना, यह का सम्बन्ध 'स्थिति-बन्ध' के साथ है। चय-अवस्था है। अभयदेवसूरि के अनुसार प्रदेश और अनुभाग आदि यह आश्चर्य है कि प्रस्तुत आगम में उवचिणाइ धातु का प्रयोग की वृद्धि का नाम चय है। उन्होंने मतान्तर का उल्लेख किया है। सात-वेदनीय और असात-वेदनीय के साथ मिलता है। उसके अनुसार कर्म-पुद्गलों के ग्रहण-मात्र का नाम चय है। आचार्य १. भ.वृ.१1११६-जीवस्वाभाव्यात् सर्वस्वप्रदेशावगाढतदेकसमयबन्धनीय- ६. भ.वृ.१।१२८ उपचयस्तदेव पौनःपुन्येन | ___ कर्मपुद्गलबन्धने सर्वजीवप्रदेशानां व्यापार इत्यत उच्यते सर्वात्मना। १०. वही,१।१२८-उपचयनं तु चितस्यावाधाकालं मुक्त्वा वेदनार्थं निषेकः, स २. वही,१1११६-'सर्व' तदेककालकरणीयं कांक्षामोहनीयं कर्म। चैवम्-प्रथमस्थितौ बहुतरं कर्मदलिकं निषिञ्चति ततो द्वितीयायां विशेषहीनं ३. बही,१११५-मोहयतीति मोहनीयं कर्म तच्च चारित्रमोहनीयमपि भवतीति एवं यावदुत्कृष्टायां विशेषहीनं निषिञ्चति, उक्तं चविशिष्यते--कांक्षा-अन्यान्यदर्शनग्रहः, उपलक्षणत्वाचास्य शंकादिपरि- "मोत्तूण सगमवाह, पढमाइ ठिईए बहुतरं दव्वं । ग्रहः । ततः कांक्षाया मोहनीयं कांक्षामोहनीयं मिथ्यात्वमोहनीयमित्यर्थः । सेसं विशेषहीणं, जावुक्कोसंति सव्वासिं ॥" ४. वही,१११२५चयः-प्रदेशानुभागादेर्वर्धनम् । ११. वही, १/४३६-'किं उवचिणाइत्ति प्रदेशबन्धाऽपेक्षया निकाचनाऽपेक्षया ५. वही,१११२५-अन्ये त्याहुः-चयनं-कर्मपुद्रलोपादानमात्रम् । वेति। ६. प्रज्ञा.वृ.प.४५६-चितस्य उत्तरोत्तरस्थितिषु प्रदेशहान्या रसवृद्धया अवस्था- १२. प्रज्ञा.व.प.४५६-उपचितस्य समानजातीय-प्रकृत्यन्तरदलिक-संक्रमेणोपचयं पितस्य। नीतस्य। ७. भ.वृ.११४३६ किं चिणाइ'त्ति अनुभागबन्धाऽपेक्षया निधत्तावस्थाऽपेक्षया । १३. कर्मप्रकृति,८३। १४. भ.११४३६ - ४३६ ..पण्ण.२३/१३। वा। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श.१: उ.३: सू.११८-१३१ ५. उदीरणा अनुदित कर्म को 'अपवर्तना' करण के द्वारा उदय में लाना। ६. वेदन कर्म का अनुभव करना। ७. निर्जरण जीव-प्रदेशों से कर्म-प्रदेशों का पृथक्करण । ८. संग्रहणी गाथा कृत, चित और उपचित में चार-चार विकल्पों का निर्देश किया गया है। कृत, चित और उपचित कर्म चिरस्थायी होता है; इसलिए तीन काल की क्रिया के अतिरिक्त एक सामान्य क्रिया का प्रयोग किया गया है। उदीरणा, वेदना और निर्जरा-ये चिरस्थायी नहीं होते; इसलिए इनके लिए केवल त्रिकालवर्ती क्रिया का ही प्रयोग किया गया है।' १२६. जीवा णं भंते ! कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदेति ? हंता वेदेति॥ जीवाः भदन्त ! कांक्षामोहनीयं कर्म वेद- १२६. 'भन्ते ! क्या जीव कांक्षामोहनीय कर्म का यन्ति ? वेदन करते हैं? हन्त वेदयन्ति। हां, करते हैं। १३०. कहणं मंते ! जीवा कंखामोहणिलं कम्मं वेदेति ? गोयमा ! तेहिं तेहिं कारणेहिं संकिया, कंखिया, वितिगिछिया, भेदसमावना, कलुससमावना-एवं खलु जीवा कंखामोहणिजं कम्मं वेदेति ।। कथं भदन्त ! जीवाः कांक्षामोहनीयं कर्म १३०. भन्ते ! जीव कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन वेदयन्ति? कैसे करते हैं ? गौतम ! तैः तैः कारणैः शङ्किताः, काक्षि- गौतम ! उन-उन कारणों से जीव शंकित, कांक्षित, ताः, विचिकित्सिताः, भेदसमापन्नाः, कलुष- विचिकित्सित, भेद-समापन्न, कलुष-समापन्न हो समापनाः–एवं खलु जीवाः कांक्षामोहनीयं जाते हैं। इस प्रकार जीव कांक्षामोहनीय कर्म का कर्म वेदयन्ति। वेदन करते हैं। भाष्य १. सूत्र १२६,१३० प्रस्तुत आलापक में कांक्षामोहनीय कर्म-वेदन के पांच हेतु बत- लाए गए हैं: १. शंका-तत्त्व के विषय में सन्देह । २. कांक्षा-कुतत्त्व की आकांक्षा । ३. विचिकित्सा-धार्मिक आराधना के फल के विषय में सन्देह। ४. भेद-तत्त्व या सत्य के प्रति मति का द्वैध-अनिर्णायक स्थिति। का होना। ५. कलुष-तत्त्व के प्रति निर्मल बुद्धि का अभाव । प्रस्तुत आगम के दूसरे शतक के प्रथम उद्देशक में 'शंकिता' । आदि पांच पदों के अर्थ वृत्तिकार ने भित्र प्रकार से किए हैं। वहां सन्दर्भ भिन्न है; इसलिए अर्थ-परिवर्तन होना स्वाभाविक है। वृत्तिकार ने प्रस्तुत प्रकरण में भेद का अर्थ मति का द्वैधभाव और कलुष का अर्थ 'यह ऐसा नहीं है' इस प्रकार का मति-विपर्यास किया है।' वृत्तिकार ने प्रश्न उपस्थित किया है—जीव कांक्षामोहनीय का वेदन करता है इसका प्रतिपादन पूर्व सूत्र में हो चुका, पुनः इसका प्रतिपादन क्यों ? इसके समाधान में उन्होंने एक गाथा उद्धृत की है। इसका अर्थ है कि पूर्वप्रतिपादित तथ्य का पुनः प्रतिपादन किया जाता है, उसके तीन कारण हैं-प्रतिषेध, अनुज्ञा और हेतु-विशेष की उपलब्धि। इस 'वेदन-सूत्र' में वेदन के हेतुओं का विशेष उल्लेख किया गया है; इसलिए यह सार्थक है। सद्धा-पदं श्रद्धा-पदम् श्रद्धा-पद १३१. से नणं भंते ! तमेव सचं णीसंकं, जं जिणेहिं पवेइयं? अथ नूनं भदन्त ! तदेव सत्यं निःशङ्क, यज् १३१. 'भन्ते ! क्या वही सत्य और निःशंक है, जिनैः प्रवेदितम् ? जो जिनों (अर्हतों) द्वारा प्रवेदित है ? १. भ.वृ.१1१२८ नवाचे सूत्रत्रये कृतचितोपचितान्युक्तानि उत्तरेषु कस्मानो- जिनशासनस्वरूपं प्रति मतेद्वैधीभावं गताः, अनध्यवसायरूपं वा मतिभङ्ग दीरितवेदितनिर्जीर्णानि ? इति, उच्यते-कृतं चितमुपचितं च कर्म चिरमप्य- गताः, अथवा यत एव शङ्कितादिविशेषणा अत एव मतेद्वैधीभावं गताः, वतिष्ठत इति करणादीनां त्रिकालक्रियामात्रातिरिक्तं चिरावस्थानलक्षणकृतत्वा- _ 'कलुषसमापन्नाः' नैतदेवमित्येवं मतिविपर्यासं गताः। द्याश्रित्य कृतादीन्युक्तानि । उदीरणानां तु न चिरावस्थानमस्तीति त्रिकालवर्तिना ४. वही,१।१२६-- क्रियामात्रेणैव तान्यभिहितानीति। पुव्वभणियं पि पच्छा जं भण्णइ तत्थ कारणं अत्थि। २. वही,२२७। पडिसेहो य अणुना, हेउविसेसोवलंभो त्ति ।। ३. वही,१।१३०-भेदसमापना इति-किमिदं जिनशासनमाहोस्विदिदम् इत्येवं Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श.१: उ.३ः सू.१३१,१३२ हंता गोयमा ! तमेव सचं णीसंकं, जं जिणेहिं पवेइयं॥ हन्त गौतम ! तदेव सत्यं निःशङ्क, यज जिनैः प्रवेदितम् । हां, गौतम ! वही सत्य और निःशंक है, जो जिनों द्वारा प्रवेदित है। १३२. से नृणं भंते ! एवं मणं घारेमाणे, एवं अथ नूनं भदन्त ! एवं मनः धारयन्, एवं प्रकुर्वन्, एवं चेष्टमानः, एवं संवृण्वानः आज्ञायाः आराधको भवति? आणाए आराहए भवति ? १३२. भन्ते ! क्या (जिनों द्वारा प्रवेदित है, वही सत्य और निःशंक है) इस प्रकार के मन को धारण करता हुआ, उत्पन्न करता हुआ, इस प्रकार की चेष्टा करता हुआ, इस प्रकार मन का संवर करता हुआ आज्ञा का आराधक होता है ? हां, गौतम ! इस प्रकार के मन को धारण करता हुआ, उत्पन्न करता हुआ, इस प्रकार की चेष्टा करता हुआ, इस प्रकार मन का संवर करता हुआ आज्ञा का आराधक होता है। हंता गोयमा ! एवं मणं घारेमाणे, एवं पकरेमाणे, एवं चिद्वेमाणे, एवं संवरेमाणे आणाए आराहए भवति ।। हन्त गौतम ! एवं मनः धारयन्, एवं प्रकुर्वन, एवं चेष्टमानः, एवं संवृण्वानः आज्ञायाः आराधको भवति। भाष्य और अहेतुगम्य। इन्द्रिय-ज्ञान की सीमा में विषय बनने वाले पदार्थ हेतुगम्य हैं। इन्द्रिय-ज्ञान की सीमा से परे जो सूक्ष्म और अमर्त हैं, वे अहेतुगम्य हैं। इसीलिए उन्होंने लिखा है कि आगम या अतीन्द्रिय के विषय में अहेतुवाद का और स्थूल पदार्थों के विषय में हेतुवाद का प्रयोग करना चाहिए।' उक्त सूत्र अहेतुवाद का आधारभूत सूत्र १. सूत्र १३१,१३२ तमेव सचं णीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं—यह कांक्षामोहनीय का आलम्बन-सूत्र है। अध्यात्म की अनेक भूमिकाएं हैं। उसकी पहली भूमिका है सम्यग् श्रद्धा। ज्ञेय तीन प्रकार का होता है१. सुखाधिगम---जो सरलता से जाना जा सके। २. दुरधिगम-जो कठिनाई से जाना जा सके। ३. अनधिगम-जो परोक्ष ज्ञान से न जाना जा सके। सुखाधिगम के विषय में शंका का अवकाश विशेष नहीं होता। दुरधिगम के विषय में शंका का कुछ अवकाश रहता है। अनधिगम परोक्ष ज्ञान का विषय नहीं होता, इसलिए वह शंका का मुख्य क्षेत्र बनता है। विभिन्न मान्यताएं हैं और विभिन्न विचार। इस अवस्था में ज्ञाता यह निर्णय नहीं कर पाता कि सम्यक् क्या है और मिथ्या क्या है ? सम्यक् और मिथ्या की कसौटी क्या है ? यह अनिर्णय की अवस्था कांक्षामोहनीय के वेदन का निमित्त बन जाती है। उस स्थिति में उक्त सूत्र आलम्बन बनता है। 'जो जिन द्वारा प्रवेदित है, वही सत्य है' इस वाक्य से यह अर्थ ध्वनित होता है जो जिन द्वारा प्रवेदित है, वही सत्य है, शेष नहीं। इसलिए 'एव' शब्द की व्याख्या सत्य के साथ करना अधिक संगत प्रतीत होता है। 'जो जिन द्वारा प्रवेदित है वह सत्य ही है'-इस वाक्य में दूसरों द्वारा प्रवेदित सत्य भी सुरक्षित है। आचार्य सिद्धसेन ने दो प्रकार के पदार्थ बतलाए हैं–हेतुगम्य ___आचार्य सिद्धसेन का ससमय-पण्णवओ यह वचन आणाए आराहए का अनुवाद जैसा लगता है। उपाध्याय यशोविजयजी ने प्रस्तुत सूत्र को द्रव्य सम्यक्त्व का प्रतिपादक बतलाया है। किन्तु वह विमर्शनीय है। वास्तव में प्रस्तुत सूत्र अतीन्द्रिय ज्ञान या अतीन्द्रिय ज्ञानी द्वारा प्रतिपादित सत्य की स्वीकृति का सूचक है।' शब्द-विमर्श २. मन को धारण करता हुआ....संवर करता हुआ मन को धारण करता हुआ—आस्थायुक्त मन को धारण करता हुआ। मन को उत्पन्न करता हुआ---उस सत्य की ओर मन को गतिशील करता हुआ। चेष्टा करता हुआ उस दिशा में मन की निरन्तरता बनाता हुआ ___ अथवा चेष्टा करता हुआ। संवर करता हुआ—असत्य से अपने आपको निवृत्त करता हुआ।' १. सम्मति.३।४३-४ दुविहो धम्मावाओ अहेउवाओ य हेउवाओ य । तत्थ उ अहेउवाओ भवियाऽभवियादओ भावा ॥ भविओ सम्मइंसण-णाण-चरित्तपडिवत्तिसंपन्नो। णियमा दुक्खंतकडो ति लक्खणं हेउवायस्स ।। जो हेउवायपखंमि हेउओ आगमे य आगमिओ। सो ससमयपण्णवओ सिद्धतविराहओ अन्नो ।। २. तुलना-आयारो, ५/६५ तथा उसका भाष्य । ३. ज्ञान.प्र.४०-अत एव चरणकरणप्रधानानामपि स्वसमयपरसमयमुक्तव्यापाराणां द्रव्यसम्यक्त्वेन चारित्रव्यवस्थितावपि भावसम्यक्त्वाभावः प्रतिपादितः संमती महावादिना । द्रव्यसम्यक्त्वं च तदेव सत्यं निःशंकं यजिनेन्द्रः प्रवेदितम्' इति ज्ञानाहितवासनारूपम्, माषतुषाद्यनुरोधाद् गुरुपारतंत्र्यरूपं वा इत्यन्यदेतत्। ४. भ.वृ.१।१३२ तदेव सत्यं निःशङ्कं यजिनैः प्रवेदित'मित्यनेन प्रकारेण . Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ भगवई अत्यि-नस्थि-पदं श.१: उ.३: सू.१३३-१३५ अस्ति-नास्ति-पद अस्ति-नास्ति-पदम् १३३. से नणं मंते ! अत्थितं अत्थित्ते परि- णमइ ? नत्थित्तं नत्यित्ते परिणमइ? अथ नूनं भदन्त ! अस्तित्वम् अस्तित्वे परि- १३३. 'भन्ते ! क्या अस्तित्व अस्तित्व में (उत्पादणमति ? नास्तित्वं नास्तित्वे परिणमति ? पर्याय उत्पाद-पर्याय में) परिणत होता है ? नास्तित्व नास्तित्व में (व्यय-पर्याय व्यय-पर्याय में) परिणत होता है ? हन्त गौतम ! अस्तित्वम् अस्तित्वे परिणमति।। हां, गौतम ! अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता नास्तित्वं नास्तित्वे परिणमति । है और नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है। हंता गोयमा अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ। नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ॥ १३४. जणं भंते ! अत्यित्तं अत्यित्ते परि- णमइ, नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ, तं किं पयोगसा? वीससा? गोयमा ! पयोगसा वि तं (अत्यित्तं अत्थित्ते परिणमइ, नत्थितं नत्थित्ते परिणमइ)। यद् भदन्त ! अस्तित्वम् अस्तित्वे परिणमति, १३४. भन्ते !जो अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता नास्तित्वं नास्तित्वे परिणमति, तत् किं है और नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है, प्रयोगेण ? विस्रसा? वह किसी प्रयोग से होता है अथवा स्वभाव गौतम ! प्रयोगेण अपि तद् (अस्तित्वम् अस्ति- से?गौतम ! वह प्रयोग से भी होता है (अस्तित्व त्वे परिणमति, नास्तित्वं नास्तित्वे परि- अस्तित्व में परिणत होता है और नास्तित्व णमति)। नास्तित्व में परिणत होता है)। विनसा अपि तद् (अस्तित्वम् अस्तित्वे परि- वह स्वभाव से भी होता है (अस्तित्व अस्तित्व में णमति, नास्तित्वं नास्तित्वे परिणमति। परिणत होता है और नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है)। वीससा वि तं (अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ, नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ)॥ १३५. जहा ते भंते ! अत्यित्तं अत्थित्ते परिण- मइ, तहा ते नत्यित्तं नत्थित्ते परिणमइ? जहा ते नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ, तहा ते अत्थितं अत्थित्ते परिणमइ ? यथा तव भदन्त ! अस्तित्वम् अस्तित्वे परि- १३५. भन्ते ! जैसे तुम्हारा अस्तित्व अस्तित्व में णमति, तथा तव नास्तित्वं नास्तित्वे परिण- परिणत होता है, वैसे ही क्या तुम्हारा नास्तित्व मति ? नास्तित्व में परिणत होता है ? यथा तव नास्तित्वं नास्तित्वे परिणमति, तथा जैसे तुम्हारा नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है, तव अस्तित्वम् अस्तित्वे परिणमति ? वैसे ही क्या तुम्हारा अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है ? हन्त गौतम ! यथा मम अस्तित्वम् अस्तित्वे हां, गौतम ! जैसे मेरा अस्तित्व अस्तित्व में परिणत परिणमति, तथा मम नास्तित्वं नास्तित्वे परि- होता है, वैसे ही मेरा नास्तित्व नास्तित्व में परिणत णमति। होता है। यथा मम नास्तित्वं नास्तित्वे परिणमति, तथा । जैसे मेरा नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है, वैसे 'मम अस्तित्वम् अस्तित्वे परिणमति । ही मेराअस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है। हंता गोयमा ! जहा मे अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ, तहा मे नत्थितं नत्थित्ते परिणमइ। जहा मे नत्यित्तं नत्थित्ते परिणमइ, तहा मे अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ॥ भाष्य १. सूत्र १३३-१३५ भारतीय दर्शन में ईश्वरवाद और अनीश्वरवाद—ये दो धारणाएं रही हैं। ईश्वरवादी दार्शनिक पदार्थ के उत्पाद और विनाश को ईश्वर-प्रयल-जन्य मानते थे। भगवान् महावीर ने उत्पाद और विनाश के साथ ईश्वर का सम्बन्ध स्वीकार नहीं किया। उनका दर्शन था कि उत्पाद और विनाश दोनों प्राणी के प्रयल से भी होते हैं और उसके प्रयल के बिना (अप्रयलजनित) भी होते हैं। मिट्टी का पिण्ड घड़ा बन रहा है। उसके पीछे प्राणी का प्रयल है। आकाश में बादल मंडरा रहे हैं। उसके पीछे प्राणी का प्रयल नहीं है, वह स्वाभाविक परिणमन है। परमाणुओं के मिलने से स्कन्ध बन रहा है, वह अप्रयत्नजन्य है। इस प्रकार जिस उत्पाद-पर्याय के पीछे प्राणी का प्रयल हो, उसे प्रायोगिक और जिसके पीछे किसी का प्रयल न हो, उसे स्वाभाविक मानना न्यायसंगत है। जैसे वैशेषिक दर्शन प्रत्येक उत्पद्यमान पदार्थ को प्रायोगिक मानता है, वैसे जैन दर्शन प्रत्येक पदार्थ को प्रायोगिक नहीं मानता, वह प्रायोगिक और मनो—मानसम् उत्पनं सत् धारयन्-स्थिरीकुर्वन् ‘एवं पकरेमाणे'त्ति उक्तरूपेणा- नुत्पन्नं सत् प्रकुर्वन्-विक्धानः। ‘एवं चिट्ठमाणे ति उक्तन्यायेन मनश्चेष्टयन् नान्यमतानि सत्यानीत्यादिचिन्तायां व्यापारयन्, चेष्टमानो वा विधेयेषु तपो ध्यानादिषु, ‘एवं संवरेमाणे'त्ति उक्तवदेव मनः संवृण्वन् मतान्तरेभ्यो निवर्तयन् प्राणातिपातादीन् वा प्रत्याचक्षाणो जीव इति गम्यते । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.३: सू.१३३-१३५ ७८ भगवई सीधा होना। उसका वक्र पर्याय में चले जाना अस्तित्व का अस्तित्व में परिणमन है। मिट्टी का नास्तित्व तन्तु में है। तन्तु का मृत्तिका-नास्तित्व-रूप पट में बदलना नास्तित्व का नास्तित्व में परिणमन है। २. सत् का सत् के रूप में परिणमन होना। नास्तित्व अर्थात् अत्यन्ताभाव का अत्यन्ताभाव के रूप में परिणमन होना। ३. अस्तित्व का अस्तित्व में होना-जैसे पट पटत्व में होता है। नास्तित्व का नास्तित्व में होना-जैसे अपट अपटत्व में होता वैनसिक दोनों मानता है। जिस प्रकार उत्पाद-पर्याय प्रायोगिक और वैनसिक दोनों प्रकार का होता है, उसी प्रकार व्यय-पर्याय भी दोनों प्रकार का होता है। पानी की बर्फ जमाई, यह पानी का प्रयत्नजनित विनाश है। ऋतु के प्रभाव से पानी का बर्फ हो जाना पानी का अप्रयत्नजनित विनाश है। अस्तित्व का एक अर्थ है सत या सत्ता। यहां उसका अर्थ उत्पाद-पर्याय है। इसी प्रकार नास्तित्व का अर्थ अभाव नहीं, विनाश-पर्याय है। यह अर्थ 'प्रयोग' और 'विनसा' के आधार पर निष्पन्न होता है। अस्तित्व और नास्तित्व दोनों का परिणमन प्रयोग से हो सकता है और स्वभाव से भी। सत्तात्मक अस्तित्व स्वभाव से परिणत होता है, किसी प्रयोग से नहीं। इसे जैन दर्शन में अनादि पारिणामिक भाव कहा जाता है। छहों द्रव्य अनादि पारिणामिक भाव हैं। वे ईश्वरकृत नहीं हैं। ईश्वरकारणवादी परमाणु और चेतन-द्रव्य को उत्पन्न नहीं मानते। वे केवल अवयवीमात्र को ईश्वरकृत मानते हैं। औपनिषद दर्शन में आकाश को ईश्वरजन्य माना गया है। इस ईश्वरकर्तृत्ववादी धारणा को अस्वीकार करने के साथ-साथ जैन दर्शन ने मूल द्रव्य और पर्याय का विस्तार से विवेचन किया है। उस सारे विस्तार को दो शब्दों में समेटा गया है-अनादि पारिणामिक और सादि पारिणामिक। मूल द्रव्य अनादि पारिणामिक हैं। उनके जो पर्याय हैं वे सादि पारिणामिक हैं। प्रस्तुत आलापक में सादि पारिणामिक की चर्चा की गई है। इसलिए यहां अस्तित्व और नास्तित्व उत्पाद और विनाश-पर्याय से संबद्ध हैं। आचार्य सिद्धसेन और अकलंक ने प्रायोगिक और वैनसिक की सूक्ष्म दृष्टि से चर्चा की है।' अभयदेवसरि ने अस्तित्व और नास्तित्व की व्याख्या तीन विकल्पों के साथ की है१. स्वरूप की अपेक्षा से अस्तित्व-अंगलि का सहज भाव से शब्द-विमर्श २. प्रयोग से (पओगसा) यह मागधी भाषा का प्रयोग है। तृतीया विभक्ति में सकार का प्रयोग मागधी का लक्षण है। वृत्तिकार ने इसे आगमिक प्रयोग माना है। ३. स्वभाव से (वीससा) संस्कृत शब्दकोशों में विलसा का अर्थ बुढापा या व्यय मिलता है। किन्तु यहां इसका प्रयोग स्वभाव के अर्थ में किया गया है।' ४. तुम्हारा (ते) 'ते' पद की वृत्तिकार ने दो दृष्टियों से व्याख्या की है 'ते' अर्थात तुम्हारे मत में अथवा तुम्हारा। पहला प्रश्न प्रमेय के विषय में किया गया है और दूसरा प्रश्न प्रमाता के विषय में किया गया है; इसलिए 'ते' पद का दूसरा अर्थ अधिक संगत लगता १.(क) सम्मति.३१३२३४ उप्पाओ दुवियप्पो पओगजणिओ य वीससा चेव । तत्य उ पओगजणिओ समुदयवायो अपरिसुद्धो॥ साभाविओ वि समुदयकओ ब्व एगतिओ (एगत्तिओ) ब होजाहि । आगासाईआणं तिण्हं परपच्चओऽणियमा ॥ विगमस्स वि एस विही समुदयजणियम्मि सो उ दुवियप्पो । समुदयविभागमेत्तं अत्यंतरभावगमणं च ॥ (ख)त.रा.वा.५।२४। २. भ.पृ.१।१३३-अस्तित्वम्-अगुल्यादेः अशल्यादिभावेन सत्त्वम्, उक्तं नास्तित्वे अगुष्ठादेः पर्यायान्तरेणास्तित्वरूपे परिणमति, यथा मृदो नास्तित्वं तन्वादिरूपं मनास्तित्वरूपे पटे इति । अथवाऽस्तित्वमिति-धर्मधर्मिणोरभेदात् सद्वस्तु अस्तित्वे-सत्त्वे परिणमति, तत्सदेव भवति, नात्यन्तं विनाशि स्याद्, विनाशस्य पर्यायान्तरगमनमात्ररूपत्वाद्, दीपादिविनाशस्यापि तमिस्रादिरूपतया परिणामात्। तथा 'नास्तित्वम्' अत्यन्ताभावरूपं यत् खरविषाणादि तत् 'नास्तित्वे' अत्यन्ताभाव एव वर्तते, नात्यन्तमसतः सत्त्वमस्ति, खरविषाणस्येवेति, उक्तञ्च नासतो जायते भावो, नाभावो जायते सतः। अथवाऽस्तित्वमिति धर्मभेदात् सद् 'अस्तित्वे' सत्त्वे वर्तते, यथा पटः पटत्व एव, नास्तित्वं चासत् 'नास्तित्वे' असत्त्वे वर्तते, यथा अपटोऽपटत्व एवेति। ३. भ.वृ.१।१३४–'पओगस'त्ति सकारस्यागमिकत्वात् । ४. वही,१1१३४-'वीसस'त्ति यद्यपि लोके विश्रसाशब्दो जरापर्यायतया रूढस्त थाऽपीह स्वभावार्थो दृश्यः, इह प्राकृतत्वाद् ‘वीससाए' ति वाच्ये 'वीससा' सर्वमस्ति स्वरूपेण, पररूपेण नास्ति च । अन्यथा सर्वभावानामेकत्वं संप्रसज्यते॥ तोह ऋजुत्वादिपर्यायरूपमवसेयम्, अशल्यादिद्रव्यास्तित्वस्य कथञ्चिदृजुत्वादिपर्याया व्यतिरिक्तत्वाद् अस्तित्वे-अमुल्यादेरेवाङ्गल्यादिभावेन सत्त्वे वक्रत्वादिपर्याये इत्यर्थः । 'परिणमति' तथा भवति, इदमुक्तं भवति-द्रव्यस्य प्रकारान्तरेण सत्ता प्रकारान्तरसत्तायां वर्तते, यथा मृद्रव्यस्य पिण्डप्रकारेण सत्ता घटप्रकारसत्तायामिति। 'नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइति नास्तित्वम् अगुल्यादेरशुष्ठादिभावेनासत्त्वं तचाङ्गुष्ठादिभाव एव । ततश्चाङ्मुल्यादेन स्तित्वमङ्गुष्ठाद्यस्तित्वरूपमङ्गुल्यादे ५. वही, ११३५-'ते' इति तव मतेन अथवा सामान्येनास्तित्वनास्तित्वपरिणामः प्रयोगविश्रसाजन्य उक्तः, सामान्यश्च विधिः क्वचिदतिशयवति वस्तुन्यन्य- . थाऽपि स्याद् अतिशयवांश्च भगवानिति तमाश्रित्य परिणामान्यथा त्वमाशङ्कमान आह-'जहा ते' इत्यादि, 'ते' इति तवं सम्बन्धि अस्तित्वम् । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १३६. से नूणं भंते ! अत्थित्तं अत्थित्ते गमणिज्जं ? नत्थित्तं नत्थित्ते गमणिज्जं ? हंता गोयमा ! अत्थितं अत्थित्ते गमणिज्जं । नत्थित्तं नत्थित्ते गमणिज्जं ॥ १३७. जं णं भंते ! अत्थित्तं अस्थित्ते गमणिज्जं, नत्थित्तं नत्थित्ते गमणिज्जं तं किं पयोगसा बीससा ? ? गोयमा ! पयोगसा वि तं (अत्थित्तं अत्थित्ते गमणिज्जं नत्थित्तं नत्थित्ते गमणिज्जं ) । वीससावितं (अत्थित्तं अत्थित्ते गमणिज्जं, नत्थित्तं नत्थित्ते गमणिनं ) ॥ १३८. जहा ते भंते ! अत्थित्तं अत्थित्ते गमणिज्जं, तहा ते नत्थित्तं नत्थित्ते गमणिज्जं ? १. गमनीय वृत्तिकार ने गमनीय का अर्थ 'प्रज्ञापनीय' किया है।' किन्तु 'प्रयोग' और 'विस्रसा' इन दोनों हेतुओं के सन्दर्भ में इसका अर्थ 'गम्य' या 'ज्ञेय' अधिक संगत लगता है। जहा ते नत्थित्तं नत्यित्ते गमणिज्जं, तहा ते अत्थित्तं अत्थित्ते गमणिज्जं ? हंता गोयमा ! जहा मे अत्थित्तं अत्थित्ते गमणिजं, तहा मे नत्थित्तं नत्थित्ते गमणिज्जं । जहा मे नत्थित्तं नत्थित्ते गमणिज्जं, तहा मे अत्थित्तं अत्थित्ते गमणिज्जं ॥ भगवओ समता-पदं १३६. जहा ते भंते ! एत्थं गमणिज्जं, तहा ते इहं गमणिज्जं ? जहा ते इहं गमणिज्जं, ता ते एत्थं गमणिज्जं ? हंता गोयमा ! जहा मे एत्थं गमणिज्जं, तहा मे इहं गमणिज्जं । जहा मे इहं गमणिज्जं, तहा मे एत्यं गमणिज्जं ॥ ७६ अथ नूनं भदन्त ! अस्तित्वम् अस्तित्वे गमनीयम् ? नास्तित्वं नास्तित्वे गमनीयम् ? हन्त गौतम ! अस्तित्वम् अस्तित्वे गमनीयं । नास्तित्वं नास्तित्वे गमनीयं । भाष्य यद् भदन्त ! अस्तित्वम् अस्तित्वे गमनीयं, नास्तित्वं नास्तित्वे गमनीयं तत् किं प्रयोगेण ? विस्रसा ? गौतम ! प्रयोगेण अपि तद् (अस्तित्वम् अस्तित्वे गमनीयं नास्तित्वं नास्तित्वे गमनीयं) । विस्रसा अपि तद् (अस्तित्वम् अस्तित्वे गमनीयं नास्तित्वं नास्तित्वे गमनीयम्) । यथा तव भदन्त ! अस्तित्वम् अस्तित्वे गमनीयं तथा तव नास्तित्वं नास्तित्वे गमनीयम् ? यथा तव नास्तित्वं नास्तित्वे गमनीयं तथा तव अस्तित्वम् अस्तित्वे गमनीयम् ? हंत गौतम ! यथा मम अस्तित्वम् अस्तित्वे गमनीयं तथा मम नास्तित्वं नास्तित्वे गमनीयम् । यथा मम नास्तित्वं नास्तित्वे गमनीयम्, तथा मम अस्तित्वम् अस्तित्वे गमनीयम् । भगवतः समता-पदम् यथा तव भदन्त ! एतस्मिन् गमनीयं, तथा तब अस्मिन् गमनीयं ? यथा तव अस्मिन् गमनीयं, तथा तव एतस्मिन् गमनीयम् ? १. भ. वृ. १ ।१३६ - अस्तित्वमस्तित्वे गमनीयं सद्वस्तु सत्त्वेनैव प्रज्ञापनीयमित्यर्थः । हन्त गौतम ! यथा मम एतस्मिन् गमनीयं, तथा मम अस्मिन् गमनीयम् । यथा मम अस्मिन् गमनीयं तथा मम एतस्मिन् गमनीयम् । श. १: उ. ३ : सू. १३६-१३६ १३६. भन्ते ! क्या अस्तित्व अस्तित्व में गमनीय ' (ज्ञेय) है ? क्या नास्तित्व नास्तित्व में गमनीय है ? हां, गौतम ! अस्तित्व अस्तित्व में गमनीय है । नास्तित्व नास्तित्व में गमनीय है। १३७. भन्ते ! जो अस्तित्व अस्तित्व में गमनीय है और नास्तित्व नास्तित्व में गमनीय है, वह किसी प्रयोग से गमनीय है अथवा स्वभाव से ? गौतम ! वह प्रयोग से भी ( अस्तित्व अस्तित्व में गमनीय है और नास्तित्व नास्तित्व में गमनीय है) वह स्वभाव से भी (अस्तित्व अस्तित्व में गमनीय है और नास्तित्व नास्तित्व में गमनीय है ) । १३८. भन्ते ! जैसे तुम्हारा अस्तित्व अस्तित्व में गमनीय है, वैसे ही क्या तुम्हारा नास्तित्व नास्तित्व में गमनीय है ? जैसे तुम्हारा नास्तित्व नास्तित्व में गमनीय है, वैसे ही क्या तुम्हारा अस्तित्व अस्तित्व में गमनीय है ? हां, गौतम ! जैसे मेरा अस्तित्व अस्तित्व में गमनीय है, वैसे ही मेरा नास्तित्व नास्तित्व में गमनीय है। जैसे मेरा नास्तित्व नास्तित्व में गमनीय है, वैसे ही मेरा अस्तित्व अस्तित्व में गमनीय है । भगवान् की समता का पद १३६. भन्ते ! जैसे तुम्हारे लिए 'अत्र' (समीपतरवर्ती पर्याय) गमनीय है, वैसे ही क्या तुम्हारे लिए 'इह' (समीपवर्ती पर्याय) गमनीय है ? जैसे तुम्हारे लिए 'इह' गमनीय है, वैसे ही क्या तुम्हारे लिए 'अत्र' गमनीय है ? हां, गौतम ! जैसे मेरे लिए 'अत्र' गमनीय है, वैसे मेरे लिए 'इह' गमनीय है। जैसे मेरे लिए 'इह' गमनीय है, वैसे मेरे लिए 'अत्र' गमनीय है। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.३ः सू.१३६-१४६ भगवई १. सूत्र १३६ एत्यं और इहं दोनों शब्दों का एक साथ प्रयोग हुआ है।। स्पन्दात्मक होता है। इसमें एक धर्म की निवृत्ति होती है और दूसरे साधारणतया दोनों एकार्थक प्रतीत होते हैं, किन्तु वास्तव में ये धर्म की उत्पत्ति, किन्तु अर्थान्तर में गमन नहीं होता। ‘गमनीय' यह एकार्थक नहीं हैं। एत्यं एतत् शब्द का प्रतिरूपक अव्यय है। इसका स्थूल परिवर्तन का सूचक है, इसमें जात्यन्तर या अर्थान्तर में गमन अर्थ है-समीपतरवर्ती। इहं इदं शब्द का प्रतिरूपक अव्यय है। होता है। जल में तरंग होना यह परिणमन है। जल का बर्फ हो इसका अर्थ है समीपवर्ती।' प्रस्तुत प्रकरण (सू. १३३-१३६) में ___जाना यह अर्थान्तर-गमन है। इस प्रकार ‘गमनीय' शब्द के प्रज्ञापनीय, परिणमइ इस क्रिया-पद का तथा गमणिजं इस अर्धक्रियापद का प्रयोग ज्ञय, पारवतनाय आदि अनेक अर्थ किए जा सकते है। मिलता है। 'परिणाम' का अर्थ स्वजातिगत परिवर्तन है। यह अपरिकंखामोहणिजस्स बंधादि-पदं कांक्षामोहनीयस्य बन्धादि-पदम् कांक्षामोहनीय का बंध आदि-पद १४०. जीवा णं भंते ! कंखामोहणिज्जं कम्मं बंधति ? हंता बंधंति॥ जीवाः भदन्त ! काक्षामोहनीयं कर्म बन- १४०. 'भन्ते ! क्या जीव कांक्षामोहनीय कर्म का ति? बंध करते हैं ? हंत बजन्ति। हां, करते हैं। १४१. कहणं भंते ! जीवा कंखामोहणिलं कम्मं बंघति ? गोयमा ! पमादपञ्चया, जोगनिमित्तं च ॥ कथं भदन्त ! जीवाः काङ्क्षामोहनीयं कर्म १४१. भन्ते ! जीव कांक्षामोहनीय कर्म का बंध बध्नन्ति ? किस हेतु से करते हैं ? गौतम ! प्रमादप्रत्ययाद योगनिमित्तं च । गौतम ! उसका प्रत्यय-हेतु (परिणामी कारण) प्रमाद और निमित्त-हेतु योग (मन, वचन और काया की प्रवृत्ति) है। १४२. से णं भंते ! पमादे किंपवहे ? गोयमा ! जोगप्पवहे ॥ अथ भदन्त ! प्रमादः किंप्रवहः ? गौतम ! योगप्रवहः। १४२. भन्ते ! प्रमाद किससे उत्पन्न होता है ? गौतम ! प्रमाद योग से उत्पन्न होता है। १४३. से णं भंते ! जोए किंपवहे ? गोयमा ! वीरियप्पवहे॥ अथ भदन्त ! योगः किंप्रवहः ? गौतम ! वीर्यप्रवहः । १४३. भन्ते ! योग किससे उत्पन्न होता है ? गौतम ! योग वीर्य से उत्पन्न होता है। १४४. से णं भंते ! वीरिए किंपवहे ? गोयमा ! सरीरप्पवहे ॥ अथ भदन्त ! वीर्यं किंप्रवहम् ? गौतम ! शरीरप्रवहम्। १४४. भन्ते ! वीर्य किससे उत्पन्न होता है ? गौतम ! वीर्य शरीर से उत्पन्न होता है। १४५. से णं भंते ! सरीरे किंपवहे ? गोयमा ! जीवप्पवहे॥ अथ भदन्त ! शरीरं किंप्रवहम् ? गौतम ! जीवप्रवहम् । १४५. भन्ते ! शरीर किससे उत्पन्न होता है ? गौतम ! शरीर जीव से उत्पन्न होता है। १४६. एवं सति अस्थि उट्ठाणेइ वा, कम्मेइ वा, बलेइ वा, वीरिएइ वा, पुरिसक्कार- परक्कमेइ वा॥ एवं सति अस्ति उत्थानम् इति वा, कर्म इति १४६. ऐसा होने पर उत्थान', कर्म', बल, वीर्य वा, बलम् इति वा, वीर्यम् इति वा, पुरुष- और पुरुषकार -पराक्रम का अस्तित्व सिद्ध कार-पराक्रम इति वा। होता है। भाष्य १. सूत्र १४०-१४६ प्रस्तुत आलापक में जीव की स्वतन्त्रता और उसके कर्तृत्व के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। जीव अपने पराक्रम से कर्म का १. आप्टे,–'अदस्' शब्द-'इदमस्तु संनिकृष्टं, समीपतरवर्ति चैतदो रूपम् । अदसस्तु विप्रकृष्टं, तदिति परोक्षे विजानीयात् ।।' Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श.१: उ.३ः सू.१४०-१४६ बन्ध करता है। कर्म-बन्ध नियति से जुड़ा हुआ नहीं है। नियतिवादी निर्दिष्ट हैं—मद्य, निद्रा, विषय, कषाय, द्यूत और प्रतिलेखन।" अवधारणा का अस्वीकार ही उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार उन्होंने वैकल्पिक रूप में प्रमाद के अन्तर्गत मिथ्यात्व, अविरति और और पराक्रम का स्वीकार है। नियतिवाद के अनुसार जीव के कषाय का निर्देश किया है और दो गाथाएं उद्धृत कर उसकी पुष्टि कर्म-बन्ध उत्थान आदि से नहीं होता। भगवान् महावीर पुरुषार्थवाद की है। उन गाथाओं में प्रमाद के आठ प्रकार बतलाए गए हैंके प्रतिपादक हैं। वृत्तिकार ने नियतिवाद की चर्चा गोशालक के १. अज्ञान २. संशय ३. मिथ्याज्ञान ४. राग ५. द्वेष ६. मतिभ्रंश नामोल्लेखपूर्वक की है।' ७. धर्म में अनादर ८. योग (मन, वचन और काया) का दुष्प कर्मवाद जैन दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। उसके णिधान ।" ठाणं में प्रमाद को दुःख या कर्म-बन्ध का हेतु कहा गय अन्तर्गत कर्म के बन्ध, उदय, क्षय, क्षयोपशम आदि विषयों पर है।" तत्त्वाराजवार्तिक में प्रमाद के पन्द्रह प्रकार मिलते हैं-विकथाविचार किया गया है। प्रस्तुत आलापक में कांक्षामोहनीय' के बन्ध चतुष्क-१. स्त्रीकथा २. भक्तकथा ३. देशकथा ४. राजकया। के हेतुओं का निर्देश है। बन्ध के दो हेतु बतलाए गए हैं-प्रमाद कषायचतुष्क-५. क्रोध ६. मान ७. माया .. लोभ ६-१३. पांच और योग। पण्णवणा में कर्म-बन्ध के संक्षेप में राग और द्वेष ये दो। इन्द्रियों की राग-द्वेषात्मक परिणति। १४. निद्रा १५. प्रणय कारण बतलाए गए हैं। राग के दो प्रकार है-माया और लोभ (विषय)। तथा द्वेष के दो प्रकार हैं--क्रोध और मान | विस्तार में कर्म-बन्ध प्रमाद के उक्त वर्गीकरणों से उसकी कोई निश्चित परिभाष के ये चार कारण बन जाते हैं। ठाणं में भी इन चार हेतुओं का फलित नहीं होती। जितनी सावध प्रवृत्तियां हैं, उन्हें यदि प्रमाद माना उल्लेख मिलता है।' वहां पांच आस्रवों का भी उल्लेख मिलता है।' जाए, तो योग का कोई उससे भिन्न अर्थ नहीं होगा। उस अवस्था उत्तरवर्ती साहित्य में भी कर्म-बन्ध के पांच कारण बतलाए गए हैं। में अशुभ योग और प्रमाद एकार्थक बन जाएंगे। दो हेतुओं का सबसे पहले कर्म-बन्ध के पांच हेतुओं का प्रयोग उमास्वाति ने किया उल्लेख है; इसलिए दोनों की सीमा स्वतन्त्र होनी चाहिए। इस सीमा है-मिष्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः। उत्तरवर्ती ग्रन्थकार की दृष्टि से विचार करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं कि उसका अनुगमन करते रहे हैं। किन्तु कर्म-शास्त्र में कर्म-बंध के चार कर्म-बन्ध की प्रक्रिया में मुख्यतः दो कर्म हेतुभूत बनते हैं—मोहकर्म कारण बतलाए गए हैं, जिनमें प्रमाद का उल्लेख नहीं है। और नामकर्म।" प्रमाद मोह कर्म की सूचना देने वाला पद है और कालक्रम की दृष्टि से विमर्श करने पर कर्म-बन्ध के हेतओं योग नाम कर्म का सूचक पद है। का प्रस्तुत आलापकवर्ती वर्गीकरण प्राचीन प्रतीत होता है। प्रस्तुत जयाचार्य ने धर्मसी मुनि का मत उद्धत किया है। धर्मसी आगम के आठवें शतक में भी प्रमाद और योग का बन्धहेतु के रूप मुनि ने 'योग' का अर्थ अशुभ योग किया है। किन्तु प्रमाद और में उल्लेख मिलता है। क्रिया के हेतु के रूप में भी इन दोनों का योग के सम्बन्ध पर विचार करने पर यह अर्थ विमर्शनीय लगता उल्लेख मिलता है। है। यदि योग को अशुभ मान लिया जाए, तो फिर प्रमाद का अर्थ वृत्तिकार ने प्रमाद का एक अर्थ मद्य आदि किया है। प्रमाद क्या होगा ? यहां प्रमाद स्वयं सावध योगरूप है, फिर प्रमाद और का यह वर्गीकरण ठाणं में उपलब्ध है। वहां प्रमाद के छह प्रकार योग में कोई भेदरेखा नहीं खींची जा सकती। इसलिए प्रमाद का १.भ.बृ.१।१४६–'एवम्' उक्तन्यायेन जीवस्य काङ्क्षामोहनीयकर्मबन्धकत्वे सति 'अस्ति' विद्यते न तु नास्ति । यथा गोशालकमते नास्ति जीवानामृत्थानादि, पुरुषार्थासाधकत्वात्, नियतित एव पुरुषार्थसिद्धेः, यदाह "प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थः । सोऽवश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा । भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयले । नाभाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः ।।" इति । एवं हि अप्रामाणिकाया नियतेरभ्युपगमः कृतो भवति, अध्यक्षसिद्धपुरुषकारापलापश्च स्यादिति। २. देखें,११११२ का भाष्यांक २। ३. पण्ण.२३।६। ४. ठाणं,४६२६ ५. वही,५1१०६। ६.त.सू.८/१। ७. पं.सं.(दि.) चतुर्थ अधिकार 'शतक', गा.७७, पृ.१०५ - मिच्छासंजम हुँति हु कसाय जोगा य बंधहेऊ ते। पंचदुवालसभेया कमेण पणुवीस पण्णरसं॥ ८. भ.८/३६६ ६. वही,३११४१,१४२ । १०. भ.वृ.१।१४१ -प्रमादश्च मद्यादिः। ११. ठाणं,६।४४। १२. भ.वृ.१1१४१ अथवा प्रमादग्रहणेन मिथ्यात्वाविरतिकषायलक्षणं बन्धहेतु त्रयं गृहीतम् । इष्यते च प्रमादेऽन्तर्भावोऽस्य, यदाह “पमाओ य मुणिंदेहि, भणिओ अट्ठभेयओ। अण्णाणं संसओ चेव, मिच्छानाणं तहेव य ॥ रागो दोसो मइब्भंसो, धम्ममि य अणायरो। जोगाणं दुप्पणीहाणं, अट्ठहा वज्जियव्वओ।" ति । १३. ठाणं, ३।३३६। १४. त.रा.वा.७।१३,पृ.५४०–पञ्चदशप्रमादपरिणतो वा । अथवा चतसृभिः विकथाभिः कषायचतुष्टयेन पञ्चभिरिन्द्रियैः निद्राप्रणयाभ्यां च परिणतो यः स प्रमत्त इति कथ्यते। १५. भ.८४४२०-४३३। १६. भ.जो.१।१२।२४ हां रे सुगुणा ! अर्थ कियो धर्मसीह, मिथ्यात्वी ए परमादी । हां रे सुगुणा ! अशुभ जोगी पिण तेह, समदृष्टि कंख न बांधी।। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.३ः सू.१४०-१४८ भगवई अर्थ मोहनीय कर्म के उदय से होने वाली मूर्छा अथवा अशुभ ३. निमित्त व्यापार और योग का अर्थ नामकर्म के उदय से होने वाली शरीर,वाणी सहकारी कारण। और मन की प्रवृत्ति है। प्राणी की सारी प्रवृत्तियां जीव और शरीर दोनों के संयोग से होती हैं। शरीर का निर्माण जीव के द्वारा होता ४. उत्थान है।' वीर्य दो प्रकार का होता है क्रियात्मक (सकरण) और अक्रिया कार्य की निष्पत्ति के लिए प्रस्तुत होना । त्मक (अकरण)। जीव का अपरिस्पन्दात्मक वीर्य केवल जीव से ५. कर्म संबद्ध होता है। जीव का परिस्पन्दात्मक वीर्य शरीर से उत्पन्न होता प्रवृत्त होना। है। उसी के द्वारा मन, वचन और शरीर की प्रवृत्तियां संचालित ६. बल होती हैं। शारीरिक सामर्थ्य । उमास्वाति ने योग का अर्थ काय, वाक् और मन का कर्म किया है। 'सिद्धसेनगणी ने योग की प्रक्रिया में चार तत्त्वों का उल्लेख ७. वीर्य किया है—आत्मा, शरीर, करण और योग।' उनकी तुलना जीवप्रवह मन, वाणी आदि का सञ्चालन करने वाली शारीरिक ऊर्जा शरीर, शरीरप्रवह वीर्य और वीर्यप्रवह योग से की जा सकती है। या प्राणशक्ति। विशेष जानकारी के लिए द्रष्टव्य भ. ६।५१४ का भाष्य। ८. पुरुषकार शरीर और मन की समस्या दार्शनिक जगत् में एक गुत्थी पौरुषाभिमान,"मैं ऐसा कर सकता हूं"इस प्रकार की अवबनी हुई है। इस प्रकरण से इसका सहज समाधान हो जाता है। धारणा। मन का संचालन शरीर-जनित वीर्य से होता है। इससे शरीर और ६. पराक्रम मन के सम्बन्ध को सहज ही समझा जा सकता है। योग (मन, कार्य-निष्पत्ति में सक्षम प्रयल। वचन और काया की प्रवृत्ति) मोहकर्म के उदय से जुड़कर प्रमाद बन जाता है, इसलिए प्रमाद का उत्पत्तिस्रोत योग माना गया है। वृत्तिकार ने वीर्य का अर्थ 'जीव का उत्साह' किया है।' किन्तु मूल पाठ में वीर्य को शरीर से उत्पन्न बतलाया गया है। वृत्ति २. प्रत्यय में 'पुरुषकार' का वैकल्पिक अर्थ पुरुष-क्रिया किया गया है। इस मूल कारण, उपादान अथवा परिणामी कारण। विषय में ठाणं, १।४४ सूत्र और उसका टिप्पण द्रष्टव्य है। १४७. से नणं भंते ! अप्पणा चेव उदीरेति? अथ भदन्त ! आत्मना चैव उदीरयति ? १४७. 'भन्ते ! क्या जीव अपने आप ही उदीरणा अप्पणा चेव गरहति ? अप्पणा चेव संव- आत्मना चैव गर्हते? आत्मना चैव संवृणोति? करता है ? अपने आप ही गर्दा करता है ? रेति ? अपने आप ही संवरण करता है ? हंता गोयमा ! अप्पणा चेव उदीरेति। हंत गीतम! आत्मना चैव उदीरयति । आत्मना हां, गौतम ! जीव अपने आप ही उदीरणा करता अप्पणा चेव गरहति । अप्पणा चेव संव- चैव गर्हते । आत्मना चैव संवृणोति। है, अपने आप ही गर्दा करता है और अपने आप रेति॥ ही संवरण करता है। १४८. जणं भंते ! अप्पणा चेव उदीरेति, अप्पणा चेव गरहति, अप्पणा चेव संवरेति, तं किं-१. उदिण्णं उदीरेति? २. अणु- दिणं उदीरेति ? ३. अणुदिण्णं उदीरणाभवियं कम्मं उदीरेति ? ४. उदयाणंतर- पच्छाकडं कम्मं उदीरेति ? यद् भदन्त ! आमना चैव उदीरयति, आत्मना १४८. भन्ते ! जीव अपने आप ही जो उदीरणा करता चैव गर्हते, आत्मना चैव संवृणोति, तत् किं है, अपने आप ही जो गर्दा करता है, अपने आप ही -१. उदीर्णम् उदीरयति ? २. अनुदीर्णम् जो संवरण करता है, वह क्या--१. उदीर्ण (उदयउदीरयति ? ३. अनुदीर्णम् उदीरणाभविकं प्राप्त) की उदीरणा करता है ? २. अनुदीर्ण की उदीकर्म उदीरयति ? ४. उदयानन्तरपश्चात्- रणा करता है? ३. अनुदीर्ण किन्तु उदीरणायोग्य कृतं कर्म उदीरयति ? कर्म की उदीरणा करता है? ४. अथवा उदय के अनन्तर पश्चात्कृत (भुक्त) कर्म की उदीरणा करता १. भ.वृ.१।१४५ -इह यधपि शरीरस्य कर्मापि कारणं न केवलं एव जीव- शरीरप्रवहम् । शरीरं विना तदभावादिति। स्तथाऽपि कर्मणो जीवकृतत्वेन जीवप्राधान्यात् जीवप्रवहं शरीरमित्युक्तम्। ३. त.सू.६।१। २. वही,१।१४३,१४४–वीर्य नाम वीर्यान्तरायकर्मक्षयक्षयोपशमसमुत्थो जीव- ४.त.सू.भा.वृ.६।१। परिणामविशेषः। ५. भ.वृ.१।१४६-वीर्यम्-जीवोत्साहः । 'सरीरप्पवहे'त्ति वीर्य द्विधा-सकरणमकरणं च, तत्रालेश्यस्य केवलिनः ६. वही,१।१४६ पुरुषकारश्च पौरुषाभिमानः पराक्रमश्च स एव साधिताभिमतकृत्खयो यदृश्ययोः केवलं ज्ञानं दर्शनं चोपयुजांनस्य योऽसावपरिस्पन्दोऽप्रतिघो प्रयोजनः पुरुषकारपराक्रमः अथवा पुरुषकारः-पुरुषक्रिया सा च प्रायः स्त्रीजीवपरिणामविशेषस्तदकरणं तदिह नाधिक्रियते । यस्तु मनोवाकायकरणसाधनः क्रियातः प्रकर्षवती भवतीति तत्स्वभावत्वादिति विशेषेण तद्ग्रहणम्, पराक्रमसलेश्यजीवकर्तृको जीवप्रदेशपरिस्पन्दात्मको व्यापारोऽसौ सकरणं वीर्य तमस्तु शत्रुनिराकरणमिति । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई गोयमा ! १. नो उदिण्णं उदीरेति । २. नो अणुदिणं उदीरेति । ३. अणुदिष्णं उदीरणाभवियं कम्मं उदीरेति । ४. नो उदयातरपच्छाकडं कम्मं उदीरेति ॥ १४६. जं णं भंते! अणुदिण्णं उदीरणाभवियं कम्मं उदीरेति, तं किं उट्ठाणेणं, कम्मेणं, बलेणं, वीरिएणं, पुरिसक्कार-परक्कमेणं अणुदिणं उदीरणाभवियं कम्मं उदीरेति ? उदहुतं अणुट्ठाणेणं, अकम्मेणं, अवलेणं, अवीरिएणं, अपुरिसक्कारपरक्कमेणं अणुदिण्णं उदीरणाभवियं कम्मं उदीरेति ? गोयमा ! तं उट्ठाणेण वि, कम्मेण वि, बलेण वि, वीरिएण वि, पुरिसक्कार - परक्कमेण वि अणुदिष्णं उदीरणाभवियं कम्पं उदीरेति णो तं अणुट्ठाणेणं, अकम्पेणं, अबलेणं, अवीरिएणं, अपुरिसकारपरक्कमेणं उदीरणाभवियं कम्मं उदीरेति ॥ १५०. एवं सति अत्थि उट्ठाणेइ वा, कम्मेइ बा, बलेइ वा, वीरिएड वा, पुरिसक्कार- परक्कमेइ वा ॥ १५१. से नूणं भंते ! अप्पणा चेव उवसामेइ ? अप्पणा चैव गरहइ ? अप्पणा चेव संवरेइ ? हंता गोयमा ! अप्पणा चेव उवसामेइ । अप्पणा चैव गरहइ । अप्पणा चेव संवरेइ ॥ १५२. जं णं भंते ! अप्पणा चेव उवसामेइ, अप्पणा चैव गरहति, अप्पणा चेव संवरेति, तं किं - १. उदिष्णं उबसामेइ ? २. अणुदिणं उवसामेइ ? ३. अणुदिण्णं उदीरणाभवियं कम्मं उवसामेइ ? ४. उदयानंतरपच्छाकडे कम्मं उवसामेइ ? गोयमा ! १. नो उदिण्णं उवसामेइ । २. अणुदिणं उवसामेइ । ३. नो अणुदिउदीरणाभवियं कम्मं उवसामेइ । ४. नो उदयानंतरपच्छाकडं कम्मं उवसामेइ ॥ ८३ गौतम ! १. नो उदीर्णम् उदीरयति । २. नो अनुदीर्णम् उदीरयति । ३. अनुदीर्णम् उदीरणाभविकं कर्म उदीरयति । ४. नो उदयानन्तरपश्चात्कृतं कर्म उदीरयति । यद् भदन्त ! अनुदीर्णम् उदीरणाभविकं कर्म उदीरयति, तत् किम् उत्थानेन कर्मणा, बलेन, वीर्येण, पुरुषकार-पराक्रमेण अनुदीर्णम् उदीरणाभविकं कर्म उदीरयति ? अथवा तद् अनुत्थानेन, अकर्मणा, अबलेन, अवीर्येण, अपुरुषकारपराक्रमेण अनुदीर्णम् उदीरणाभविकं कर्म उदीरयति ? गौतम ! तद् उत्थानेन अपि कर्मणा अपि, बलेन अपि वीर्येण अपि, पुरुषकार-पराक्रमेण अपि अनुदीर्णम् उदीरणाभविकं कर्म उदीरयति । नो तद् अनुत्थानेन, अकर्मणा, अबलेन, अवीर्येण, अपुरुषकारपराक्रमेण अनुदीर्णम् उदीरणाभविकं कर्म उदीरयति । एवं सति अस्ति उत्थानम् इति वा, कर्म इति वा, बलम् इति वा वीर्यम् इति वा, पुरुषकार- पराक्रम इति वा । अथ नूनं भदन्त ! आत्मना चैव उपशमयति ? आत्मना चैव गर्हते ? आत्मना चैव संवृणोति ? हन्त गौतम ! आत्मना चैव उपशमयति । आत्मना चैव गर्हते । आत्मना चैव संवृणोति । यद् भदन्त ! आत्मना चैव उपशमयति, आत्मना चैव गर्हते, आत्मना चैव संवृणोति, तत् किं - १. उदीर्णम् उपशमयति ? २. अनुदीर्णम् उपशमयति ? ३. अनुदीर्णम् उदीरणाभविकं कर्म उपशमयति ? ४. उदीरणानन्तरपश्चात्कृतं कर्म उपशमयति ? गौतम! १. नो उदीर्णम् उपशमयति । २. अनुदीर्णम् उपशमयति । ३. नो अनुदीर्णम् उदीरणाभविकं कर्म उपशमयति । ४. नो उदयानन्तरपश्चात्कृतं कर्म उपशमयति । श. १ : उ.३: सू.१४८-१५२ गौतम ! जीव १. उदीर्ण की उदीरणा नहीं करता । २. अनुदीर्ण की उदीरणा नहीं करता । ३. अनुदीर्ण किन्तु उदीरणायोग्य कर्म की उदीरणा करता है । ४. उदय के अनन्तर पश्चात्कृत कर्म की उदीरणा नहीं करता । १४६. भन्ते ! जीव अनुदीर्ण किन्तु उदीरणायोग्य कर्म की जो उदीरणा करता है, वह क्या उत्थान, कर्म, बल, बीर्य, पुरुषकार - पराक्रम से करता अथवा अनुत्थान, अकर्म, अवल, अवीर्य, अपुरुषकारपराक्रम से करता है ? गौतम ! जीव अनुदीर्ण किन्तु उदीरणायोग्य कर्म की जो उदीरणा करता है, वह उत्थान से भी, कर्म से भी बल से भी, वीर्य से भी और पुरुष - कार- पराक्रम से भी करता है, किन्तु अनुत्थान, अकर्म, अबल, अवीर्य और अपुरुषकारपराक्रम से नहीं करता । १५०. ऐसा होने पर उत्थान, कर्म, बल, धीर्य और पुरुषकार - पराक्रम का अस्तित्व सिद्ध होता है । १५१. भन्ते ! क्या जीव अपने आप ही उपशमन करता है ? अपने आप ही गर्हा करता है ? अपने आप ही संवरण करता है ? हां, गौतम ! जीव अपने आप ही उपशमन करता है, अपने आप ही गर्हा करता है, अपने आप ही संवरण करता है। १५२. भन्ते ! जीव अपने आप ही जो उपशमन करता है, अपने आप ही जो गर्हा करता है, अपने आप ही जो संवरण करता है, वह क्या१. उदीर्ण का उपशमन करता है ? २. अनुदीर्ण का उपशमन करता है ? ३. अनुदीर्ण किन्तु उदीरणायोग्य कर्म का उपशमन करता है ? ४. अथवा उदय के अनन्तर पश्चात्कृत (भुक्त) कर्म का उपशमन करता है। गौतम ! जीव १. उदीर्ण का उपशमन नहीं करता। २. अनुदीर्ण का उपशमन करता है । ३. अनुदीर्ण किन्तु उदीरणायोग्य कर्म का उपशमन नहीं करता । ४. उदय के अनन्तर पश्चात्कृत कर्म का उपशमन नहीं करता । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.३ः सू.१५३-१५७ ८४ भगवई १५३.जणं मंते ! अणुदिण्णं उवसामेइ, तं यद् भदन्त ! अनुदीर्णम् उपशमयति, तत् किम् १५३. भन्ते ! जीव अनुदीर्ण कर्म का जो उपशमन किं उहाणेणं, कम्मेणं, बलेणं, वीरिएणं, उत्थानेन, कर्मणा, बलेन, वीर्येण, पुरुषकार- करता है, वह क्या उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरिसक्कार-परक्कमेणं अणुदिण्णं उवसामेइ ? पराक्रमेण अनुदीर्णम् उपशमयति ? अथवा पुरुषकार-पराक्रम से करता है ? अथवा अनुउदाहु तं अणुद्वाणेणं, अकम्मेणं, अबलेणं, तद् अनुत्यानेन, अकर्मणा, अबलेन, अवी- त्थान, अकर्म, अबल, अवीर्य और अपुरुषकारअवीरिएणं, अपुरिसक्कारपरक्कमेणं अणु- र्येण, अपुरुषकारपराक्रमेण अनुदीर्णम् उप- पराक्रम से करता है ? दिण्णं उवसामेइ? शमयति ? गोयमा ! तं उदाणेण वि, कम्मेण वि, गौतम ! तद् उत्यानेन अपि, कर्मणा अपि, गौतम ! जीव अनुदीर्ण कर्म का उपशमन उत्थान बलेण वि, वीरिएण वि, पुरिसक्कार-पर- बलेन अपि, वीर्येण अपि, पुरुषकार-परा- से भी, कर्म से भी, बल से भी, वीर्य से भी और दिण्णं उवसामेइ। णोतं क्रमेण अपि अनुदीर्णम् उपशमयति । नो तद् पुरुषकार-पराक्रम से भी करता है, किन्तु अनुअणवाणेणं, अकम्मेणं, अबलेणं, अवीरि- अनुत्थानेन, अकर्मणा, अबलेन, अवीर्येण, त्थान, अकर्म, अबल, अवीर्य और अपुरुषकारएणं अपुरिसक्कारपरक्कमेणं अणुदिण्णं उव- अपुरुषकारपराक्रमेण अनुदीर्णम् उपशम- पराक्रम से नहीं करता। सामेइ॥ यति। १५४. एवं सति अस्थि उटाणेइ वा, कम्मेइ वा, बलेइ वा, वीरिएइ वा, पुरिसक्कार- -परक्कमेइ वा ॥ एवं सति अस्ति उत्थानम् इति वा, कर्म इति १५४. ऐसा होने पर उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और वा, बलम् इति वा, वीर्यम् इति वा, पुरुष- पुरुषकार-पराक्रम का अस्तित्व सिद्ध होता है। कार-पराक्रम इति वा। १५५. से नृणं भंते ! अप्पणा चेव वेदेति ? अप्पणा चेव गरहति ? हंता गोयमा ! अप्पणा चेव वेदेति । अप्पणा चेव गरहति ॥ अथ नूनं भदन्त ! आत्मना चैव वेदयति ? आत्मना चैव गर्हते? हन्त गौतम ! आमना चैव वेदयति । आसना चैव गर्हते। १५५. भन्ते ! क्या जीव अपने आप ही वेदन करता है ? अपने आप ही गर्दा करता है ? हां, गौतम ! जीव अपने आप ही वेदन करता है और अपने आप ही गर्दा करता है। १५६.जणं भंते ! अप्पणा चेव वेदेति, अप्प- णा चेव गरहति, तं किं-१. उदिण्णं वेदे- ति? २. अणुदिण्णं वेदेति ? ३.अणुदिण्णं उदीरणाभवियं कम्मं वेदेति ? ४. उदया- णंतरपच्छाकडं कम्मं वेदेति ? यद् भदन्त ! आत्मना चैव वेदयति, आत्मना १५६. भन्ते ! जीव अपने आप ही जो वेदन करता चैव गर्हते, तत् किम्-१. उदीर्णं वेदयति? चैव गर्हते. तत किम-१. उदीर्णं वेदयति? है है और अपने आप ही जो गर्दा करता है, वह औ २. अनुदीर्णं वेदयति ? ३. अनुदीर्णम् उदी- क्या-१. उदीर्ण का वेदन करता है ? २. अनुरणाभविकं कर्म वेदयति ? ४. उदयानन्तर- दीर्ण का वेदन करता है ? ३. अनुदीर्ण किन्तु पश्चात्कृतं कर्म वेदयति ? उदीरणायोग्य कर्म का वेदन करता है? ४. अथवा उदय के अनन्तर पश्चात्कृत (भुक्त) कर्म का वेदन करता है ? गौतम ! १. उदीर्णं वेदयति । २. नो अनुदीर्णं गौतम ! जीव १. उदीर्ण का वेदन करता है। वेदयति। ३. नो अनुदीर्णम् उदीरणाभविकं २. अनुदीर्ण का वेदन नहीं करता। ३. अनुदीर्ण कर्म वेदयति । ४. नो उदयानन्तरपश्चात्कृतं किन्तु उदीरणायोग्य कर्म का वेदन नहीं करता। कर्म वेदयति। ४. उदय के अनन्तर पश्चात्कृत कर्म का वेदन नहीं करता। गोयमा ! १. उदिण्णं वेदेति । २. नो अणुदिण्णं वेदेति । ३. नो अणुदिण्णं उदी- रणाभवियं कम्मं वेदेति। ४. नो उदया- णंतरपच्छाकडं कम्मं वेदेति ॥ १५७. जंणं भंते ! उदिण्णं वेदेति तं किं उहाणेणं, कम्मेणं, बलेणं, वीरिएणं, पुरिस- कार-परक्कमेणं उदिण्णं वेदेति ? उदाहु तं अणुवाणेणं, अकम्मेणं, अबलेणं, अवीरि- एणं, अपुरिसक्कारपरक्कमेणं उदिण्णं वेदेति? गोयमा ! तं उद्घाणेण वि कम्मेण वि, बलेण वि वीरिएण वि, पुरिसकार-परकमेण वि उदिण्णं वेदेति। नो तं अणुटाणेणं, अकम्मेणं, अबलेणं, अवीरिएणं, अपुरिस- कारपरक्कमेणं उदिण्णं वेदेति॥ यद् भदन्त ! उदीर्णं वेदयति तत् किम् उत्थाने- १५७. भन्ते ! जीव उदीर्ण कर्म का जो वेदन करता न, कर्मणा, बलेन, वीर्येण, पुरुषकार-परा- है, वह क्या उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषक्रमेण उदीर्णं वेदयति ? अथवा तद् अनुत्था- कार-पराक्रम से करता है ? अथवा अनुत्यान, नेन, अकर्मणा, अबलेन, अवीर्येण, अपुरुष- अकर्म, अबल, अवीर्य और अपुरुषकारपराक्रम कारपराक्रमेण उदीर्णं वेदयति ? से करता है ? गौतम ! तद् उत्थानेन अपि, कर्मणा अपि, गौतम ! जीव उदीर्ण कर्म का जो वेदन करता बलेन अपि, वीर्येण अपि, पुरुषकार-परा- है, वह उत्थान से भी, कर्म से भी, बल से भी, क्रमेण अपि उदीर्णं वेदयति । नो तद् अनुत्था- वीर्य से भी और पुरुषकार-पराक्रम से भी करता नेन, अकर्मणा, अबलेन, अवीर्येण, अपुरुष- है, किन्तु अनुत्थान, अकर्म, अबल, अवीर्य और कारपराक्रमेण उदीर्णं वेदयति । अपुरुषकारपराक्रम से नहीं करता। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १५८. एवं सति अत्थि उड्डाणे वा, कम्मेइ वा, बलेइ बा, वीरिएइ वा, पुरिसक्कारपरक्कमेइ वा ॥ १५६. से नूणं भंते ! अप्पणा चैव निजरेति ? अप्पणा चैव गरहति ? हंता गोयमा ! अप्पणा चैव निज्जरेति । अप्पणा चैव गरहति ॥ १६०. जं णं भंते ! अप्पणा चेव निज्जरेति, अप्पणा चैव गरहति, तं किं १. उदिण्णं निज्जरेति ? २. अणुदिण्णं निज्जरेति ? ३. अणुदिण्णं उदीरणाभवियं कम्पं निजरेत ? ४. उदयानंतरपच्छाकडं कम्मं निजरेति ? गोयमा ! १. नो उदिण्णं निजरेति । २. नो अणुदिण्णं निजरेति । ३. नो अणुदिण्णं उदीरणाभवियं कम्मं निजरेति । ४. उदयातरपच्छाकडं कम्मं निज्जरेति ॥ १६१. जं णं भंते ! उदयानंतरपच्छाकडं कम्मं निज्जरेति, तं किं उट्ठाणेणं, कम्मेणं, बलेणं, वीरिएणं, पुरिसक्कार-परक्कमेणं उदयाणंतरपच्छाकडं कम्मं निजरेति ? उदाहु अणुट्ठाणेणं, अकम्मेणं, अबलेणं, अवीरिएणं अपुरिसक्कारपरक्कमेणं उदयानंतरपच्छाकडं कम्मं निजरेति ? गोयमा ! तं उट्ठाणेण वि, कम्मेण वि, बलेण वि, वीरिएण वि, पुरिसक्कार-परकमेण वि उदयाणंतरपच्छाकडं कम्मं निज्जति । णो तं अणुट्ठाणेणं, अकम्मेणं, अबलेणं, अवीरिएणं, अपुरिसक्कारपरक्कमेणं उदयाणंतरपच्छाकडं कम्मं निखरेति ॥ १६२. एवं सति अत्थि उट्ठाणेइ वा कम्मे वा, बलेइ वा, वीरिएड वा, पुरिसक्कार- परक्कमेइ वा ॥ ८५ एवं सति अस्ति उत्थानम् इति वा, कर्म वा, बलम् इति वा, वीर्यम् इति वा, पुरुषकार- पराक्रम इति वा । अथ नूनं भदन्त ! आत्मना चैव निर्जरयति ? आत्मना चैव गर्हते ? हन्त गौतम ! आत्मना चैव निर्जरयति । आत्मना चैव गर्हते । यद् भदन्त ! आत्मना चैव निर्जरयति, आत्मना चैव गर्हते, तत् किं १. उदीर्णं निर्जरयति ? २. अनुदीर्णं निर्जरयति ? ३. अनुदीर्णम् उदीरणाभविकं कर्म निर्जरयति ? ४. उदयानन्तरपश्चात्कृतं कर्म निर्जरयति ? गौतम ! १. नो उदीर्णं निर्जरयति । २. नो अनुदीर्णं निर्जरयति । ३. नो अनुदीर्णम् उदीरणाभविकं कर्म निर्जरयति ? ४. उदयानन्तरपश्चात्कृतं कर्म निर्जरयति । यद् भदन्त ! उदयानन्तरपश्चात्कृतं कर्म निर्जरयति, तत् किं उत्थानेन, कर्मणा, बलेन, वीर्येण, पुरुषकार-पराक्रमेण उदयानन्तरपश्चात्कृतं कर्म निर्जरयति ? अथवा तद् अनुत्थानेन, अकर्मणा, अबलेन, अवीर्येण, अपुरुषकारपराक्रमेण उदयानन्तरपश्चात्कृतं कर्म निर्जरयति ? गौतम ! तद् उत्थानेन अपि कर्मणा अपि, बलेन अपि वीर्येण अपि पुरुषकार- पराक्रमेण अपि उदयानन्तरपश्चात्कृतं कर्म निर्जरयति । नो तद् अनुत्थानेन, अकर्मणा, अबलेन, अवीर्येण, अपुरुषकारपराक्रमेण उदयानन्तरपश्चात्कृतं कर्म निर्जरयति । एवं सति अस्ति उत्थानम् इति वा, कर्म इति वा, बलम् इति वा वीर्यम् इति वा, पुरुषकार- पराक्रम इति वा । भाष्य श. १: उ.३: सू. १४७-१६२ ऐसा होने पर उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार - पराक्रम का अस्तित्व सिद्ध होता है। १५६. भन्ते ! क्या जीव अपने आप ही निर्जरा करता है ? अपने आप ही गर्हा करता है ? हां, गौतम ! जीव अपने आप ही निर्जरा करता है, अपने आप ही गर्हा करता है। १६०. भन्ते ! जीव अपने आप ही जो निर्जरा करता है, अपने आप ही जो गर्हा करता है, वह क्या १. उदीर्ण की निर्जरा करता है ? २. अनुदीर्ण की निर्जरा करता है ? ३. अनुदीर्ण किन्तु उदीरणायोग्य कर्म की निर्जरा करता है ? ४. अथवा उदय के अनन्तर पश्चात्कृत (भुक्त) कर्म की निर्जरा करता है ? गौतम ! १. जीव उदीर्ण की निर्जरा नहीं करता । २. अनुदीर्ण की निर्जरा नहीं करता। ३. अनुदीर्ण किन्तु उदीरणायोग्य कर्म की निर्जरा नहीं करता । ४. उदय के अनन्तर पश्चात्कृत कर्म की निर्जरा करता है। १६१. भन्ते ! जीव उदय के अनन्तर पश्चात्कृत कर्म की जो निर्जरा करता है, वह क्या उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, और पुरुषकार- पराक्रम से करता है अथवा अनुत्थान, अकर्म, अवल, अवीर्य और अपुरुपकारपराक्रम से करता है ? गौतम ! जीव उदय के अनन्तर पश्चात्कृत कर्म की जो निर्जरा करता है, वह उत्थान से भी, कर्म सेभी, बल से भी, वीर्य से भी और पुरुषकार- पराक्रम से भी करता है, किन्तु अनुत्थान, अकर्म, अबल, अवीर्य और अपुरुषकारपराक्रम से नहीं करता । १. सूत्र १४७ १६२ इन सभी सूत्रों में आत्मकर्तृत्व या पुरुषार्थवाद के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है। उदीरणा, गर्हा, संवर, उपशामना, वेदना और निर्जरा—ये सब जीव के द्वारा अपने उत्थान आदि से कृत होते हैं। १६२. ऐसा होने पर उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार - पराक्रम का अस्तित्व सिद्ध होता है। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.३ः सू.१४७-१६२ ९६ भगवई उदीरणा उदीरणा कर्म के आठ करणों में पांचवां करण है।' इसका अर्थ है अपक्व कर्म को समय से पूर्व पकाना। कर्म का उदय दो प्रकार का होता है-१.उदय २.उदीरणा-उदय। काल-परिपाक होने पर कर्म का जो सहज उदय होता है वह उदय है। प्रयल के द्वारा कर्म का जो अकाल-प्राप्त उदय होता है वह उदीरणा-उदय है। पञ्चसंग्रह में सहज उदय को 'संप्राप्ति उदय' और उदीरणा-उदय को 'असंप्राप्ति उदय' कहा गया है। तत्त्वार्थराजवार्तिक में अयथाकाल-विपाक को उदीरणा-उदय बताया गया है। उदीर्ण फल देने में परिणत कर्म-पुद्ग्ल का स्कन्ध उदीर्ण कहलाता है।' उदीर्ण की उदीरणा नहीं होती, यह स्पष्ट है। वृत्तिकार ने तर्क की भाषा में लिखा है यदि उदीर्ण की उदीरणा की जाए, तो उदीरणा का कहीं अंत ही नहीं होगा।' अनुदीर्ण कर्म-पुद्गल का जो स्कन्ध अभी फल देने में परिणत नहीं है, वह अनुदीर्ण कहलाता है । वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किये हैं-१. चिर भविष्य में जिसकी उदीरणा होने वाली है। २. भविष्य में जिसकी उदीरणा नहीं होने वाली है। चिर भविष्य में की जाने वाली उदीरणा वर्तमान काल में नहीं हो सकती। जो कर्म उदीरणा के योग्य नहीं होता, उसकी उदीरणा भविष्य में भी नहीं हो सकती। उदीरणा के अयोग्य तीन अवस्थाएं होती हैं-उपशम, निधत्ति और निकाचना।' अनुदीर्ण उदीरणाभव्य कर्म प्रस्तुत प्रकरण में 'उदीरणा-भव्य' (उदीरणायोग्य) कर्म का प्रसंग है। प्रत्येक कर्म की उदीरणा नहीं होती, किन्तु उसी कर्म की उदीरणा होती है, जो उदीरणा-योग्य बन जाता है। योग्यता की कसौटी उसके भेद द्वारा निर्धारित है। उसके चार भेद होते हैं १. प्रकृति-उदीरणा, २. स्थिति-उदीरणा, ३. अनुभाग-उदीरणा, ४.प्रदेश-उदीरणा।" प्रकृति-उदीरणा की योग्यता पण्णवणा के अनुसार कर्म की १४८ प्रकृतियां हैं।' कर्म-ग्रन्य में १५८ कर्म प्रकृतियों का भी उल्लेख मिलता है। दिगम्बर साहित्य में भी १४८ प्रकृतियां विवक्षित हैं। पञ्चसंग्रह के अनुसार ११० प्रकृतियां उदीरणा के योग्य होती हैं। दिगम्बर परम्परा के अनुसार १२२ प्रकृतियां उदीरणा के योग्य होती हैं।" स्थिति-उदीरणा की योग्यता स्थिति-उदीरणा के दो भेद निर्दिष्ट हैं-उदीरणा-प्रायोग्य और उदीरणा-अप्रायोग्य। बन्धावलिका, संक्रमावलिका और उदयावलिका -ये तीनों स्थितियां उदीरणा के अप्रायोग्य होती हैं। शेष सारी प्रायोग्य होती हैं। अनुभाग और प्रदेश-उदीरणा के जघन्य, उत्कृष्ट आदि भेदों की जानकारी के लिए पञ्चसंग्रह द्रष्टव्य है। उदयानन्तर-पश्चात्कृत (भुक्त)कर्म उदय के अनन्तर समय में कर्म का वेदन होता है। वेदन के पश्चात् वह अकर्म बन जाता है। इसलिए उसे उदय के अनन्तर पश्चात्कृत---अतीत अवस्था को प्राप्त कर्म कहा गया है।" उक्त चार विकल्पों में उदीरणा के लिए तीसरा विकल्प सम्मत है। उपशमन में दूसरा विकल्प सम्मत है। उपशम-अवस्था में उदीर्ण कर्म का क्षय और अनुदीर्ण कर्म के विपाकोदय और प्रदेशोदय का सर्वथा स्थगन हो जाता है। इसलिए उपशमन अनुदीर्ण कर्म का ही होता है।" वेदना में प्रथम विकल्प सम्मत है। निर्जरा में चतुर्थ विकल्प सम्मत है। गौतम ने पूछा-भंते ! जो वेदना है वह निर्जरा है? जो निर्जरा है वह वेदना है ? भगवान ने कहा-गौतम ! यह १. कर्म प्रकृति,गा.२ बंधणसंकमणुव्वट्टणा य अववट्टणा उदीरणया। उवसामणा निहत्ती निकायणा चत्ति करणाई॥ २. पं.सं.(श्वे.)गा.२५३ संपत्तिए य उदये पओगओ दिस्सए उईरणा सा । सेचिका ठिईहिं जाही दुविहा मूलोत्तराए य॥ ३. त.रा.वा.६।३६,पृ.६३१-अयथाकाल-विपाक उदीरणोदयः। ४. प.खं.धवला,पु.१३,खं.४,मा.२,सू.२.१.३०३-फलदातृत्वेन परिणतः कर्म पुद्गलस्कन्धः उदीर्णः। ५. भ.वृ.१।१४-उदीर्णस्याप्युदीरणे उदीरणाऽविरामप्रसंगात्। ६. कर्म प्रकृति,गा.२ की टीका, पृ.४८,४६/ ७.(क)पं.सं.(श्वे.)गा.२२५ जं करणे णो कट्टिय, उदए दिज्जइ उदीरणा एसा । पगइटिइअणुमागप्पएसमूलुत्तरविभागा॥ (ख) ष.खं.धवला,पु.१५,पृ.४३–उदीरणा चउबिहा पयडीहिदीअणुभागपदेसउदीरणा चेदि। ८. पण्ण.२३।२४-५६। ६. पं.सं.(श्वे.)गा.२२६ मूलप्पगईसु पंचण्हं, तिहा दोण्हं चउबिहा होइ । आउस्ससाइ अधुवा, दसुत्तरसय उत्तरासिपि ॥ उत्तरासामपि-उत्तरप्रकृतीनामपि। दशोत्तरशतसंख्यानां पञ्चविधज्ञानावरण-दर्शनावरण-चतुष्टय-मिथ्यात्व-तैजस-सप्तक-वर्णादिविंशति-स्थिरास्थिर-शुभाशुभ-गुरुलघु-निर्माणान्तरायपञ्चकरूपाष्टचत्वारिंशद्-वर्जानां सर्वशेषप्रकृतीनामित्यर्थः। १०.पं.सं.(दि.)३।४४-४८/ ११. भ.वृ.१।१४८-उदयेनान्तरसमये पश्चात्कृतम् –अतीततां नीतं यत्तत्तथा तदपि नोदीरयति, तस्यातीतत्वाद् अतीतस्य चासत्त्वाद् असतश्चानुदीरणीयत्वादिति। १२. वही, ११५१-उपशमश्चोदीर्णस्य क्षयः अनुदीर्णस्य च विपाकतः प्रदेशतश्चानुभवन, सर्वथैव विष्कम्भितोदयत्वमित्यर्थः। अयं चानादिमिथ्याद्रष्टेरोपशमिकसम्यक्त्वलाभे उपशमश्रेणिगतस्य चेति। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ८७ श. १: उ. ३: सू. १४७ - १६८ अर्थ संगत नही है । वेदना कर्म की होती है, निर्जरा नोकर्म की होती है।' इसका तात्पर्य है कि जब तक कर्म कर्म रहता है, तब तक वह आत्म-प्रदेशों से पृथक् नहीं होता। वह नोकर्म बनकर ही उनसे पृथक होता है। दो पदों का प्रयोग किया गया है। गर्हा अतीत कालीन कर्म की होती है। संवर वर्तमानकालीन कर्म का होता है। जयाचार्य के अनुसार उदीरणा और उपशमन के साथ इनकी अनिवार्यता नहीं हैं। ये बहुलता होते हैं, इसलिए इनका निर्देश किया गया है। ' वेदन और निर्जरा के साथ केवल गर्हा का प्रयोग किया गया है। वहां संवर संभव नहीं है। 'उदीरणा' और 'उपशमन' के साथ 'गर्हा' और 'संवर' इन १६३. नेरइया णं भंते! कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदेंति ? जहा ओहिया जीवा तहा नेरइया जाव धणियकुमारा ॥ १६४. पुढविक्काइया णं भंते ! कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदेति ? हंता वेदेति ॥ १६५. कहण्णं भंते ! पुढविक्काइया कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदेंति ? गोयमा ! तेसि णं जीवाणं णो एवं तक्का इवा, सण्णा इवा, पण्णा इवा, मणे इ बा, वई ति वा — अम्हे णं कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदेमो, वेदेति पुण ते ॥ १६६. से नूणं भंते ! तमेव सचं नीसंकं, जं जिणेहिं पवेइयं ? हंता गोयमा ! तमेव सच्चं नीसंकं, जं जिहिं पवेइयं । सं तं चैव जाव अस्थि उट्ठाणेइ वा, कम्मेइ वा, बलेइ वा, वीरिएइ वा पुरिसक्कार- परक्कमेइ वा ॥ १६७. एवं जाव चउरिदिया ॥ १६८. पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जाव वेमाणिया जहा ओहिया जीवा ॥ १. भ.७।७५। २. भ.जो. १।१२ । ४४ । नैरयिकाः भदन्त ! काङ्क्षामोहनीयं कर्म १६३. भन्ते ! क्या नैरयिक जीव कांक्षामोहनीय कर्म वेदयन्ति ? का वेदन करते हैं। यथा औधिकाः जीवाः तथा नैरयिकाः यावत् स्तनितकुमाराः । पृथ्वीकायिकाः भदन्त काङ्क्षामोहनीयं कर्म १६४ . ' भन्ते ! क्या पृथ्वीकायिक जीव कांक्षावेदयन्ति ? मोहनीय कर्म का वेदन करते हैं ? हां, वेदन करते हैं। हन्त वेदयन्ति । कथं भदन्त ! पृथ्वीकायिकाः काङ्क्षामोहनीयं १६५. भन्ते ! पृथ्वीकायिक जीव कांक्षामोहनीय कर्म कर्म वेदयन्ति ? का वेदन कैसे करते हैं ? गौतम ! तेषां जीवानां नो एवं तर्क इति वा, संज्ञा इति वा, प्रज्ञा इति वा, मन इति वा, वाग् इति वा वयं काङ्क्षामोहनीयं कर्म वेदयामः वेदयन्ति पुनः ते । जैसे समुच्चय में जीव की वक्तव्यता है, वैसे ही नैरयिक जीवों से स्तनितकुमार तक वक्तव्य हैं। अथ नूनं भदन्त ! तदेव सत्यं निःशङ्कं यज् १६६. भन्ते ! क्या वही सत्य और निःशंक है, जो जिनैः प्रवेदितम् ? जिनों (अर्हतों) द्वारा प्रवेदित है ? हन्त गौतम ! तदेव सत्यं निःशङ्कं यज् जिनैः प्रवेदितम् । हां, गौतम ! वही सत्य और निःशंक है, जो जिनों द्वारा प्रवेदित है। शेषं तचैव यावद् अस्ति उत्थानम् इति वा, कर्म इति वा, बलम् इति वा वीर्यम् इति वा, पुरुषकार - पराक्रम इति वा । शेष आलापक – इससे उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार - पराक्रम का अस्तित्व सिद्ध होता है वहां तक वक्तव्य है । एवं यावच् चतुरिन्द्रियाः । भाष्य गौतम ! उन जीवों के तर्क, संज्ञा, प्रज्ञा, मन और वचन नहीं होते। हम कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं—– ऐसा उन्हें बोध नहीं होता, फिर भी वे वेदन करते हैं । पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः यावद् वैमानिकाः १६८. तिर्यक् पञ्चेन्द्रिय जीवों से वैमानिक देवों तक यथा औधिकाः जीवाः । का आलापक समुच्चय जीव की भांति वक्तव्य है । १. सूत्र १६४-१६८ पृथ्वी के जीवों की चेतना अविकसित होती है। उनमें बौद्धिक, मानसिक और वाचिक विकास नहीं होता। इस अवस्था में उनमें १६७. अप्काय आदि एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय का आलापक पृथ्वीकायिक जीवों की भांति वक्तव्य है। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.३: सू.१६४-१७१ ६८ भगवई कांक्षामोहनीय का वेदन कैसे संभव हो सकता है ? यह प्रश्न स्वा- भाविक है। सूत्रकार ने स्वयं इस प्रश्न को उपस्थित किया है। इसके समाधान में उन्होंने लिखा है-पृथ्वीकाय के जीवों में बौद्धिक, मानसिक और वाचिक विकास नहीं होता। वे नहीं जानते कि हम कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन कर रहे हैं, फिर भी उसका वेदन करते हैं। इस समाधान से यह फलित होता है कि वेदन के दो प्रकार हैं व्यक्त और अव्यक्त। अविकसित जीवों में कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन अव्यक्त होता है। वह इन्द्रिय-गम्य नहीं है। इसलिए इस सन्दर्भ में तमेव सचं णीसंकं यह साक्ष्य उद्धृत किया गया है। २. तर्क वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'विमर्श किया है। स्थानांग वृत्ति में अभयदेवसरि ने विस्तार से इसका अर्थ किया है। इन्द्रिय-प्रत्यक्ष ज्ञान के क्रम में चार मुख्य तत्त्व हैं-अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। इस क्रम में ईहा के पश्चात् और अवाय के पूर्व एक प्रकार का विशेष विमर्श होता है, जैसे—'जो दिखाई दे रहा है वह सिर खुजला रहा है। इसलिए वह खम्भा नहीं है, वह पुरुष की चेष्टा है।' इस प्रकार का विमर्श तर्क कहलाता है।' ३. संज्ञा इसके अनेक अर्थ होते हैं-ज्ञान, प्रत्यभिज्ञा, विवेक, संवेदन आदि आदि। यहां 'संज्ञा' का अर्थ प्रत्यभिज्ञा किया जा सकता है। नन्दी में आमिनिबोधिक ज्ञान के अनेक प्रकार बतलाए गए हैं। उनमें एक प्रकार संज्ञा है।' मलयगिरि ने संज्ञा का अर्थ व्यञ्जनावग्रह के उत्तर काल में होने वाला एक प्रकार का मतिज्ञान किया है।' अभयदेवसूरि ने इसका यही अर्थ किया है।' उमास्वाति ने मति, स्मृति, संज्ञा, चिंता और अभिनिबोध-इनको एकार्थक माना है।' प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार में परोक्ष के पांच प्रकार बतलाए गए हैं। उनमें स्मृति के बाद प्रत्यभिज्ञा का उल्लेख है। सिद्धसेन गणी ने संज्ञा का अर्थ प्रत्यभिज्ञा (यह वही है, जिसे मैंने पूर्वाह्न में देखा था) किया है। इस आधार पर संज्ञा की प्रत्यभिज्ञा से तुलना की जा सकती है। ४. प्रज्ञा वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'संपूर्ण विषयों का ज्ञान' किया है। यह एक विशिष्ट ज्ञान है। इसे प्रातिभ ज्ञान अथवा औत्पत्तिकी बुद्धि भी कहा जा सकता है। १६६. अत्थि णं भंते ! समणा वि निग्गंथा कंखामोहणिजं कम्मं वेएंति ? हंता अत्थि॥ अस्ति भदन्त ! श्रमणाः अपि निर्ग्रन्थाः १६६. भन्ते ! क्या श्रमण निर्ग्रन्थ भी कांक्षामोहनीय काङ्क्षामोहनीयं कर्म वेदयन्ति ? कर्म का वेदन करते हैं ? हन्त अस्ति। हां, करते हैं। १७०. कहण्णं भंते ! समणा निग्गंथा कंखामोहणिजं कम्मं वेदेति ? कथं भदन्त ! श्रमणाः निर्ग्रन्थाः काङ्क्षा- १७०. भन्ते ! श्रमण निर्ग्रन्थ कांक्षामोहनीय कर्म का मोहनीयं कर्म वेदयन्ति ? वेदन कैसे करते हैं ? गोयमा! तेहिं तेहिं नाणंतरेहि, सणंतरेहि, गौतम ! तैः तैः ज्ञानान्तरैः, दर्शनान्तरः, चरि- गौतम ! उन-उन ज्ञानान्तर, दर्शनान्तर, चरित्राचरितंतरेहि, लिंगंतरेहि, पवयणंतरेहि, त्रान्तरैः, लिङ्गान्तरैः, प्रवचनान्तरैः, प्रवच- तर, लिंगांतर, प्रवचनान्तर, प्रवचनी-अन्तर, पावयणंतरेहि, कप्पंतरेहि, मम्गंतरेहि, मतं- न्यन्तरैः, कल्पान्तरः, मार्गान्तरैः, मतान्तरैः, कल्पान्तर, मार्गान्तर, मतान्तर, भंगान्तर, नयातरेहि, मंगतरेहि, णयंतरेहि, नियमंतरेहि, भङ्गान्तरैः, नयान्तरः, नियमान्तरैः, प्रमाणा- न्तर, नियमान्तर और प्रमाणान्तर से वे शंकित, पमाणंतरेहिं संकिता कंखिता विति- तरैः शङ्किताः काक्षिताः विचिकित्सिताः । कांक्षित, विचिकित्सित, भेद-समापन्न और कलुषकिच्छिता भेदसमावन्ना कलुससमावना- भेदसमापत्राः कलुषसमापत्राःएवं खलु -समापन्न हो जाते हैं। इस प्रकार श्रमण निर्ग्रन्थ एवं खलु समणा निग्गंथा कंखामोहणिजं श्रमणाः निर्ग्रन्थाः काडूक्षामोहनीय कर्म वेद- कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं। कम्मं वेदेति ॥ यन्ति। १७१. से नणं भंते ! तमेव सचं नीसंकं, जं अथ नूनं भदन्त ! तदेव सत्यं निशङ्ख, यज् १७१. भन्ते ! क्या वही सत्य और निःशंक है, जो जिणेहिं पवेदितं? जिनैः प्रवेदितम् ? जिनों द्वारा प्रवेदित है ? हंता गोयमा ! तमेव सचं नीसंकं, जं हन्त गौतम ! तदेव सत्यं निशङ्ख, यज् जिनैः हां, गौतम ! वही सत्य और निःशंक है, जो जिनों जिणेहिं पवेदितं ॥ प्रवेदितम् । द्वारा प्रवेदित है। १. (क) स्था.वृ.प.१६-तर्कणं तर्को-विमर्शः अवायात् पूर्वा ईहाया उत्तरा ६.प्र.न.त.३।२-स्मरणप्रत्यभिज्ञानतर्कानुमानागमभेदात् तत्तु पञ्चप्रकारम् । प्रायः शिरः कण्डूयनादयः पुरुषधर्मा इह घटन्त इति सम्प्रत्ययरूपा। ७. त.सू.भा.वृ.१1१३ संज्ञा ज्ञानं नाम यत्तैरेवेन्द्रियैरनुभूतमर्थं प्राक् पुन(ख) म.वृ.१।१६५ तर्को विमर्शः। विलोक्य स एवाऽयं यमहमद्राक्षम् पूर्वाह्न इति संज्ञा ज्ञानमेतत् । २. नंदी,सू.५४,गा.६। ८. भ.वृ.१1१६५ प्रज्ञा-अशेषविशेषविषयं ज्ञानमेवम् । ३. नंदी,वृ.प.१८७। ६. नंदी,सू.३८,गा.२४. भ.बृ.१।१६५-संज्ञा अर्थावग्रहरूपं ज्ञानम् । पुवमदिट्ठमसुयमवेइय-तक्खण विसुद्धगहियत्था । ५. त.सू.१।१३ मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनन्तरम् । अव्वाहय-फलजोगा, बुद्धि उप्पत्तिया नाम ।। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १७२. एवं जाव अत्थि उट्ठाणेइ वा, कम्मेइ वा, बलेइ बा, वीरिएइ वा, पुरिसक्कार- परक्कमेइ वा ॥ १. सूत्र १६६-१७२ प्रस्तुत आलापक में निर्ग्रन्थ शब्द व्यवच्छेदक है। 'श्रमण' शब्द जैन, आजीवक और बौद्ध आदि सभी श्रमणों का वाचक है। श्रमण के साथ निर्ग्रन्थ शब्द का प्रयोग जैन श्रमणों का वाचक हो जाता है। श्रमण-निर्ग्रन्थ अर्थात् महावीर के मुनि । जैन मुनि भी कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं। वेदन के पांच कारण बतलाए गए हैं— शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, भेद और कलुष । एक ही विषय में अनेक निरूपण, वितर्क और विकल्प सामने आते हैं, तब कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन शुरू हो जाता है। τε एवं यावद् अस्ति उत्थानम् इति वा, कर्म इति वा, बलम् इति वा वीर्यम् इति वा, पुरुषकार- पराक्रम इति वा । जयाचार्य ने कांक्षामोहनीय कर्म के वेदन का अर्थ मिथ्यात्व - -मोहनीय का वेदन किया है। उनका तर्क है— जिस समय कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन होता है, तब मिथ्यात्व आ जाता है।' यह अर्थ वृत्तिकार द्वारा सम्मत मिथ्यात्व - मोहनीय के आधार पर किया गया है। जयाचार्य ने १४ वें शतक की जोड़ में मिथ्यात्व का अर्थ दस बोलों (संज्ञा') में से किसी एक बोल में विपरीत श्रद्धा करना किया है। प्रस्तुत तेरह 'अंतरों' में तत्त्व श्रद्धा का प्रश्न नहीं है । यह विभिन्न विचारों के प्रति होने वाली आकांक्षा है। आचार्य भिक्षु के अनुसार तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित तत्त्वों मे विपरीत श्रद्धा करने से मिथ्यात्व आ जाता है, किंतु अन्य विषयों में विपरीत श्रद्धा करने से असत्य का दोष लगता है, पर सम्यक्त्व का नाश नहीं होता "साची सरघा भाषी जगनाय, ते ऊंघो सरध्यां आवै मिष्यात । और उंघो सरपणी आवे, तो झूठ लागे पिण सरघा न जावे ॥ " V भाष्य आचार्य भिक्षु ने 'ज्ञान- मोह' शब्द की मीमांसा में लिखा है— ज्ञानमोह से ज्ञान में व्यामोह उत्पन्न होता है, वह ज्ञानावरणीय कर्म का उदय है, वह निश्चित ही मोहनीय कर्म का उदय नहीं है— " नाण मोह चाल्यो सूतर मझे, ते ज्ञान में उपजे व्यामोह । ते ज्ञानावरणी रा उदा बकी, ते मोह निश्चै नहीं होय ॥ १. भ.जो. १ । १३ । १२० का वार्त्तिक । २. ठाणं १०१७४ | ३. , भ.जो. ढाल २६२, गाथा ३ मोहनीं उन्माद ना, वे भेद इक मिथ्यात्व ही । तसुं उदय थी सर ज ऊंघी, दस बोलां मैं एक ही ॥ ४. इन्द्रियवादी चौपाई, ढा. ७, गा. ६ । ५. वही, ढा. १०, गा. ३३ । ६. क. पा. प्रथम अधिकार, गा. १, पृ. १२६ – संसयविवज्जासाणज्झवसायभावगय श. १: उ. ३: सू. १६६-१७२ १७२. इस प्रकार यावत् उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार - पराक्रम का अस्तित्व सिद्ध होता है । इस आधार पर कांक्षामोहनीय का सम्बन्ध भी ज्ञानमोह की भांति ज्ञानावरण से माना जा सकता है। कसायपाहुड में बतलाया गया है कि गणधर के संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय होने पर उनके संशय को दूर करना दिव्यध्वनि का स्वभाव है। आनन्द श्रमणोपासक के अवधिज्ञान के विषय में गौतम गणधर को शंका, कांक्षा और विचिकित्सा उत्पन्न हुई थी। आनन्द ने कहा --- "भंते ! यथार्थ भाव के लिए जिनप्रवचन में आलोचना नहीं की जाती, वह अयथार्थ भाव के लिए की जाती है। मैं जो यह कह रहा हूं, वह यथार्थ है । आपने जो कहा, वह यथार्थ नहीं है; इसलिए आप ही आलोचना करें ।" आनन्द द्वारा ऐसा कहने पर गौतम गणधर शंका, कांक्षा और विचिकित्सा से समापन्न हो गए। तायस्त्रिँश देवों के विषय में भी गौतम शंकित, कांक्षित और विचिकित्सित हुए । ' इन दोनों सन्दर्भों से यह स्पष्ट फलित होता है। कि शंका, कांक्षा और विचिकित्सा का संबन्ध ज्ञानावरण के उदय से भी है । उत्तरज्झयणाणि में ब्रह्मचर्य - गुप्ति के प्रसंग में शंका, कांक्षा, विचिकित्सा और भेद-इन चारों का उल्लेख मिलता है। " १० सम्यक्त्व के पांच अतिचार हैं। उनमें प्रथम तीन हैं - शंका, कांक्षा और विचिकित्सा ।" इनका सम्बन्ध दर्शनमोह से है। निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है कि जहां शंका, कांक्षा और विचिकित्सा मूल तत्त्व से सम्बद्ध होते हैं, वहां दर्शनमोह का वेदन होता है और जहां वे अन्य विषयों से सम्बद्ध होते हैं, वहां ज्ञानमोह का वेदन होता है। तेरह अंतरों के प्रसंग में कांक्षामोहनीय कर्म के वेदन का सम्बन्ध ज्ञानमोह से प्रतीत होता है। प्रस्तुत आलापक में ज्ञानमोह - विषयक तेरह अन्तरों का उल्लेख किया गया है। यह एक ऐतिहासिक प्रकरण है। इससे जैन शासन में प्रचलित अनेक मतों, विचारभेदों की जानकारी मिलती है। जैन धर्म ग्रन्थ-प्रधान नहीं, पुरुष-प्रधान रहा है। इसमें अनेक गणहरदेवं पडि वट्टमाणसहावा । ७. उवा. १७६८० ८. भ. १०१४६ । ६. उत्तर. १६ । ३ – बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा समुपाि भेयं वा लभेजा । १०. उवा. १ । ३१ – सम्मत्तस्स पंच अतियारा पेयाला जाणियव्वा, न समायरिब्वा, तं जहा -- १. संका २. कंखा ३. वितिगिच्छा..... । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.३: सू.१६६-१७२ ६० भगवई पुरुषों का प्रामाण्य स्वीकार किया गया है। प्रामाण्य की पांच श्रेणियां बतलाई गई हैं केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दश इन्द्रिय-प्रत्यक्ष नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष पूर्वधर और दशपूर्वधर।' इन श्रेणियों से भिन्न विशिष्ट आचार्य भी श्रोत्रेन्द्रिय-प्रत्यक्ष अवधि सापेक्ष दृष्टि से अनेक तत्त्वों का प्रतिपादन करते हैं। ये सापेक्ष चक्षुरिन्द्रिय-प्रत्यक्ष मनःपर्यव प्रतिपादन एक सामान्य मुनि के लिए कांक्षामोहनीय-वेदन के हेतु बन जाते हैं। भगवान् महावीर के निर्वाण की दसवीं शताब्दी तक जैन घ्राणेन्द्रिय-प्रत्यक्ष केवल शासन में जो मत-मतान्तर स्थापित हुए, उन सबका लेखा-जोखा रसनेन्द्रिय-प्रत्यक्ष प्रस्तुत आलापक में विद्यमान है। एक हजार वर्ष तक की पूरी स्पर्शनेन्द्रिय-प्रत्यक्ष परम्परा का विशद अध्ययन करने पर पूरा एक ग्रन्थ बन जाता है। यहां हम इस विषय पर संक्षेप में विचार करेंगे: भगवती में प्रत्यक्ष और परोक्ष का विभाग नहीं है। ठाणं में ज्ञानान्तर प्रत्यक्ष के अन्तर्गत इन्द्रिय-प्रत्यक्ष का विभाग नहीं हैं। वह केवल ज्ञान के विषय में अनेक भूमिकाएं उपलब्ध थीं। प्रथम भमिका नंदी में ही प्राप्त है। इस प्रकार आगम-साहित्य में ज्ञान के तीन वर्गी करण उपलब्ध हैं। सिद्धसेन दिवाकर ज्ञान के तीन प्रकारों को ही पांच ज्ञान की है। रायपसेणइयं में वह उपलब्ध है। प्रस्तुत आगम मान्य करते हैं। उनके अनुसार श्रुतज्ञान मतिज्ञान से भिन्न नहीं है में ज्ञान के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं-१. आभिनिबोधिकज्ञान २. श्रुतज्ञान ३. अवधिज्ञान ४. मनःपर्यवज्ञान ५. केवलज्ञान। और मनःपर्यवज्ञान अवधिज्ञान से भिन्न नहीं है। इस प्रकार देवर्धिगणी के समय तक ज्ञान की पृथक्-पृथक भूमिकाएं बन गई थीं। इसीविवरण के लिए रायपसेणइयं देखने का निर्देश है।' ज्ञान। लिए ज्ञानान्तर को कांक्षामोहनीय के वेदन का एक हेतु माना गया। की दूसरी भूमिका दो ज्ञान की है। वह ठाणं में उपलब्ध है। उसमें ज्ञान के दो भेद किए गए हैं—प्रत्यक्ष और परोक्ष। अवधि, मनःपर्यव वृत्तिकार ने अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान के उदाहरण के और केवलज्ञान को प्रत्यक्ष के अवान्तर भेद के रूप में प्रतिपादन द्वारा इस विषय की चर्चा की है।' है। आभिनिबोधिक और श्रुतज्ञान परोक्ष के अवान्तर भेद बतलाए। दर्शनान्तर गरा है। भगवती में आभिनिबोधिकज्ञान के चार भेद प्रज्ञप्त हैं। ठाणं दर्शन के चार प्रकार हैं-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन में आभिनिबोधिकज्ञान के दो भेद प्रज्ञप्त हैं-श्रुतनिश्रित और अश्रुत- और केवलदर्शन। इस विषय में एक मत यह रहा है कि दर्शन के निश्रित | इनके दो अवान्तर भेद प्रतिपादित हैं—व्यञ्जनावग्र ह और तीन प्रकार ही पर्याप्त हैं। चक्षदर्शन और अचक्षुदर्शन-इन दोनों में अर्थावग्रह ।' यहां ईहा, अवाय और धारणा का उल्लेख नहीं है। भेदरेखा खींचने का कोई स्पष्ट आधार नहीं मिलता । यह चिन्तन-भेद तीसरी भूमिका नंदी में उपलब्ध है। उसमें ज्ञान के पांच प्रकारों का कांक्षामोहनीय के वेदन का हेतु बना है। वृत्तिकार ने चक्षुदर्शन और निर्देश कर फिर उनका प्रत्यक्ष और परोक्ष इन दो भागों में समाहार अचक्षुदर्शन की चर्चा के साथ क्षायोपशमिक और औपशमिक दर्शन किया गया है। प्रत्यक्ष के दो प्रकार निर्दिष्ट है.' की चर्चा भी की है। १. प्रश्नोत्तर तत्त्वबोध,१६।१२। इस विषय में कुछ आचार्यों का मतभेद है। इसकी विस्तृत चर्चा के लिए देखें, दशवैकालिकः एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृ.४,५॥ २. राय.सू.७४०-७४५/ ३.भ.८७६ ४. ठाणं,२।१०१-१०३। ५. नंदी,सू.२-६। ६. द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका,१६/१२– वैयर्थ्यातिप्रसङ्गाभ्यां, न मत्यभ्यधिकं श्रुतम् । ७. ज्ञान. प्र.५५। ८. भ.वृ.१।१७-यदि नाम परमाण्वादिसकलरूपिद्रव्यावसानविषयग्राहकत्वेन संख्यातीतरूपाण्यवधिज्ञानानि सन्ति तत्किमपरेण मनःपर्यायज्ञानेन ? तद्विषय- भूतानां मनोद्रव्याणामवधिनैव दृष्टत्वात्, उच्यते चागमे मनःपर्यायज्ञानमिति। ६. वही,१।१०-दर्शनम् - सामान्यबोधः, तत्र यदि नामेन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तः सामान्यार्थविषयो बोधो दर्शनं तदा किमेकश्चक्षुर्दर्शनमन्यस्त्वचक्षुर्दर्शनम् ? अथेन्द्रियानिन्द्रियभेदाद् भेदस्तदा चक्षुष इव श्रोत्रादीनामपि दर्शनभावात् । षडिन्द्रियनोइन्द्रियजानि दर्शनानि स्यु न द्वे एवेति । अत्र समाधिः-- सामान्यविशेषात्मकत्वाद्वस्तुनः क्वचिद्विशेषतस्तन्निर्देशः क्वचिञ्च सामान्यतः । तत्र चक्षुदर्शनमिति विशेषतः अचक्षुर्दर्शनमिति च सामान्यतः । यच्च प्रकारान्तरेणापि निर्देशस्य सम्भवे चक्षुर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनं चेत्युक्तं तदिन्द्रियाणामप्राप्तकारित्वप्राप्तकारित्वविभागात् । मनसस्त्वप्राप्तकारित्वेऽपि प्राप्तकारीन्द्रियवर्गस्य तदनुसरणीयस्य बहुत्वात्तद्दर्शनस्याचक्षुर्दर्शनशब्देन ग्रहणमिति । अथवा दर्शनम् सम्यक्त्वं, तत्र च शंका "मिच्छत्तं जमुदिन्नं तं खीणं अणुदियं च उवसंतं।" इत्येवं लक्षणं क्षायोपशमिकम् । औपशमिकमप्येवं लक्षणमेव यदाह--- "खीणम्मि उदिन्नम्मी अणुदिजंते य सेसमिच्छत्ते। अंतोमुहुत्तमेतं उवसमसम्म लहइ जीवो।" ततोऽनयो न विशेषः उक्तश्चासाविति, समाधिश्च-क्षयोपशमो हि उदीर्णस्य क्षयोऽनुदीर्णस्य च विपाकानुभवापेक्षयोपशमः, प्रदेशानुभवस्तूदयोऽस्त्येव, उपशमे तु प्रदेशानुभवोऽपि नास्तीति, उक्तं च___ "वेएइ संतकम् खओवसमिएसु नाणुभावं सो । उवसंतकसाओ पुण वेदेइ ण संतकम्मं ति॥" Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ६१ श.१: उ.३: सू.१६६-१७२ चारित्रान्तर का उल्लेख किया है, वह भी मननीय है। भगवान् पार्श्व के शासन काल में चारित्र के तीन प्रकार कल्पान्तर थे-सामायिक, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात । भगवान महावीर के शासन-काल में चारित्र के पांच प्रकारों की निरूपणा की कल्पस्थिति या कल्प की व्यवस्था छह प्रकार की बतलाई गई गई-सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय और है सामायिक कल्पस्थिति, छेदोपस्थापनीय कल्पस्थिति, निविश्यमान यथाख्यात ।' यह अन्तर भी कांक्षामोहनीय कर्म के वेदन का हेतु कल्पस्थिति, निर्विष्ट कल्पस्थिति, जिनकल्पस्थिति, स्थविरकल्पस्थिति। बना है। वृत्तिकार ने सामायिक और छेदोपस्थापनीय चारित्र के अन्तर इसका सम्बन्ध मुख्यतः पार्श्वनाथ और महावीर के भेद से रहा है। की चर्चा की है। भगवान् पार्श्व के शासनकाल में आचार की व्यवस्था सामायिक के आधार पर निर्धारित थी और भगवान् महावीर के शासनकाल में लिङ्गान्तर छेदोपस्थापनीय आदि कल्पों का विकास हुआ था। यह शासनभेद भगवान पार्श्व के शिष्यों का लिंग–वेश वस्त्र-प्रधान था। कांक्षामोहनीय कर्म के वेदन का हेतु बना था। जयाचार्य ने इस भगवान् महावीर के शिष्यों का लिंग अवस्त्र अथवा साधारण वस्त्र । प्रसंग में कांक्षा-विषयक एक दूसरा दृष्टिकोण भी प्रस्तुत कियावाला था। चातुर्याम और पञ्चयाम तथा लिंगभेद के आधार पर । जिनकल्प की अवस्था में भी केवलज्ञान उत्पन्न नहीं होता। फिर केशी और गौतम के शिष्यों में एक चिंता उत्पन्न हुई थी। इस इतना कष्ट क्यों सहा जाए ? क्या इससे स्थविरकल्प अच्छा नहीं विप्रत्यय के बारे में केशी और गौतम में एक संवाद भी हुआ। वृत्तिकार ने भी यही चर्चा की है।'' मार्गान्तर प्रवचनान्तर और प्रवचनी-अंतर आगम-साहित्य में 'मार्ग' शब्द का अनेक सन्दर्भो में प्रयोग प्रवचन का अर्थ है आगम अथवा द्वादशांगी और प्रवचनी हुआ है। उदाहरणस्वरूप-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप-इस का अर्थ है प्रवचनकार।' ऐसा प्रतीत होता है कि श्वेताम्बर और चतुष्टयी का नाम मार्ग है।" उमास्वाति ने सम्यग दर्शन, ज्ञान और दिगम्बर दोनों परम्पराओं के भेद-काल में प्रवचन और प्रवचनियों के चारित्र को मोक्षमार्ग बतलाया है।" सूपगडो का ग्यारहवां अध्ययन विषय में भिन्न-भिन्न अवधारणाएं रही हैं। वे अवधारणाएं ही ___'मार्ग' का प्रतिपादन करता है। उसमें ज्ञान का फलित अर्थ है कांक्षामोहनीय कर्म के वेदन का हेत बनी हैं। वृत्तिकार ने प्रवचनान्तर अहिंसा । ठाणं में 'मार्ग में उन्मार्ग की संज्ञा और उन्मार्ग में मार्ग की के विषय में चतुर्याम और पंचयाम के प्रतिपादक आगमों की चर्चा संज्ञा करने को' मिथ्यात्व कहा गया है। प्रस्तुत प्रकरण में सूत्रकार की है। किन्तु यह विषय चारित्रान्तर की व्याख्या में आ सकता है; मार्ग शब्द के द्वारा क्या बोध कराना चाहते हैं, यह ऐतिहासिक इसलिए यह विमर्शनीय है। वृत्तिकार ने पावयणी शब्द के दो संस्कृत सन्दर्भ में ही खोजा जा सकता है। रूप दिए हैं—प्रावचन और प्रावचनिक। उनके अनुसार दीर्घकाल में वृत्तिकार ने 'मार्ग' का अर्थ 'परम्परागत सामाचारी' किया प्रावचनिकों की पृथक्-पृथक् सामाचारी रही। इससे शंका और कांक्षा है। यह अर्थ प्रासंगिक हो सकता है, किन्तु इतिहास इससे भी आगे का जन्म हुआ। जयाचार्य ने प्रवचनी द्वारा किए गए निरूपण-भेद जाने को बाध्य करता है। भगवान् पार्श्व के शासनकाल में प्रतिक्रमण १. भ.२५/४५८ संग्रहणी गाथा १-५। २. भ.वृ.१।१७०–चारित्रम्-चरणं तत्र च यदि सामायिक सर्वसावधविरति- लक्षणं छेदोपस्थापनीयमपि तल्लक्षणमेव, महाव्रतानामवद्यविरतिरूपत्वात्, तत् कोऽनयोर्भेदः ? उक्तश्चासाविति, अत्र समाधिः-ऋजुजडवक्रजडानां प्रथमचरमजिनसाधूनामाश्वासनाय छेदोपस्थापनीयमुक्तं। व्रतारोपणे हि मनाक् सामायिकाशुद्धावपि व्रताखण्डनाचारित्रिणो वयं चारित्रस्य व्रतरूपत्वादिति बुद्धिः स्यात्, सामायिकमात्रे तु तदशुद्धौ भग्नं नश्चारित्रं, चारित्रस्य सामायिक- मात्रत्वादित्येवमनाश्वासस्तेषां स्यादिति, आह च "रिउवक्कजडा पुरिमेयराण सामाइए वयारुहणं। मणयमसुद्धेवि जओ सामाइए हुंति हु बयाई ।।' इति । ३. उत्तर.२३।१०-३३। ४. भ.वृ.१।१७० ---लिंगम् साधुवेशः। तत्र च यदि मध्यमजिनैर्यथालब्धवस्त्र- रूपं लिंगं साधूनामुपदिष्टं, तदा किमिति प्रथमचरमजिनाभ्याम् सप्रमाणधवल- वसनरूपं तदेवोक्तं ? सर्वज्ञानामविरोधिवचनत्वादिति । अत्रापि ऋजुजडवक्रजड ऋजुप्रज्ञशिष्यानाश्रित्य भगवतां तस्योपदेशः, तथैव तेषामुपकारसम्भवादिति समाधिः। ५. भ.२०१७॥ ६. भ.वृ.१1१0 तथा प्रवचनमधीते वेत्ति वा प्रावचनः-कालापेक्षया बह्वा गमः पुरुषः । तत्रैकः प्रावचनिक एवं कुरुते अन्यस्त्वेवमिति किमत्र तत्त्वमिति? समाधिश्चेह-चारित्रमोहनीयक्षयोपशमविशेषेण उत्सर्गापवादादि भावितत्वेन च प्राववनिकानां विचित्रा प्रवृत्तिरिति नासौ सर्वथाऽपि प्रमाणम्, आगमाविरुद्धप्रवृत्तेरेव प्रमाणत्वादिति । ७. भ.जो.१।१३।४८ - ५०। ८. ठाणं,६१०३। ६. भ.जो.१।१३।५६-५८ १०. उत्तर.२८।२। ११. त.सू.१।१-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः। १२. ठाणं,१०।७४ । १३.भ.पू.१।१७०-मार्गः-पूर्वपुरुषक्रमागता सामाचारी । तत्र केषांचिद् द्विश् चैत्यवंदनानेकविधकायोत्सर्गकरणादिकाऽऽवश्यकसामाचारी तदन्येषां तु न तथेति किमत्र तत्त्वमिति ? समाधिश्च-गीतार्थाशठप्रवर्तिताऽसौ सर्वाऽपि न विरुद्धा, आचरितलक्षणोपेतत्वात्। आचरितलक्षणं चेदम् Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई का उल्लेख किया है। उन्होंने सिद्धसेन को ज्ञान-दर्शन के युगपद्वाद का समर्थक और जिनभद्रगणी को ज्ञान-दर्शन के क्रमोपयोगवाद का समर्थक बतलाया है। आचार्य कुन्दकुन्द युगपद् उपयोगवाद के प्रवक्ता थे। श्वेताम्बर परम्पराओं में मल्लवादी युगपद् उपयोगवाद के प्रवक्ता, सिद्धसेन अभेदोपयोग या एकोपयोगवाद के प्रवक्ता तथा जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण क्रमोपयोगवाद के प्रवक्ता थे। उपाध्याय यशोविजय जी ने इन तीनों का नयदृष्टि से समन्वय भी किया है। जयाचार्य ने प्रवचनान्तर की व्याख्या में कुछ मतभेदों का उल्लेख किया है।" प्रस्तुत प्रकरण में उन्होंने आगम के वाचना-भेद और पाठ-भेद की श.१: उ.३ः सू.१६६-१७२ एक अनिवार्य आवश्यक कर्म नहीं था। भगवान् महावीर के शासनकाल में प्रतिक्रमण एक अनिवार्य आवश्यक कर्म था। मार्ग का एक अर्थ 'सामायिक आदि षड् आवश्यक कर्म' भी होता है।' जयाचार्य ने साधु-साध्वी-विषयक सामाचारी भेद की चर्चा की है। यह मार्गान्तर मुनियों में कांक्षा और शंका का हेतु बनता है। जयाचार्य ने कल्पान्तर के प्रकरण में आवश्यक की चर्चा की है। उनके अनुसार स्थितकल्पी मुनि के लिए आवश्यक नियत होता है और अस्थितकल्पी मुनि के लिए वह अनियत होता है।' मतान्तर यहां मत का अर्थ दृष्टिभेद है। केवली और श्रुतकेवली की परम्परा का विच्छेद होने के पश्चात् मतान्तर का सूत्रपात होता है। आगम-साहित्य में अनेक मतान्तर उपलब्ध हैं। उपाध्याय समयसुन्दर । ने आगम-साहित्य में सौ दृष्टि-भेदों का संकलन किया है। दिगम्बर साहित्य में भी दृष्टिभेदों की एक लंबी तालिका है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में ऐसे ८६ दृष्टिभेदों की तालिका दी गई हैं।' जिनेन्द्र वर्णी ने दृष्टिभेद की पृष्ठभूमि समझाते हुए लिखा है-"यद्यपि अनुभवगम्य आध्यात्मिक विषय में आगम में कहीं भी पूर्वापर-विरोध या दृष्टिभेद होना संभव नहीं है, परन्तु सूक्ष्म, दूरस्थ और अंतरित पदार्थों के सम्बन्ध में कहीं-कहीं आचार्यों का मतभेद पाया जाता है। प्रत्यक्षज्ञानियों के अभाव में उनका निर्णय दुरन्त । होने के कारण धवलाकार श्री वीरसेन स्वामी का सर्वत्र यही आदेश है कि दोनों दृष्टियों का यथायोग्य रूप में ग्रहण कर लेना योग्य भङ्गान्तर भंग का अर्थ है-एक वस्तु में प्रकृति-भेद अथवा संख्या-भेद से होने वाला विकल्प। वृत्तिकार ने हिंसा की चतुर्भंगी का उल्लेख कर भङ्गान्तर को समझाने का प्रयल किया है।" नयान्तर ग्य का अर्थ है अनंतधर्मात्मक वस्तु के एक विषय में होने वाला ज्ञाता का सापेक्ष दृष्टिकोण अथवा अभिप्राय । नय के अनेक वर्गीकरण हैं। मूल नय दो हैं---द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । टाणं में मूलनय सात बतलाए गए हैं-गम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत ।" तत्त्वार्यसूत्र के स्वोपज्ञ भाष्य के अनुसार उमास्वाति ने पांच नय स्वीकार किए हैं।" तत्त्वार्थराजवार्तिक के अनुसार नय सात हैं।" सिद्धसेन दिवाकर ने नैगम नय का वत्तिकार ने इस प्रसंग में सिद्धसेन और जिनभद्रगणी के मतों असढेण समाइनं जं कत्थइ केणइ असावजं । न निवारियमन्नेहिं बहुमणुमयमेयमायरियं ॥ १. अणु.२८ आवस्सयं अवस्सकरणिज्ज, धुवनिग्गहो विसोही य । अज्झयणछक्कवग्गो, नाओ आराहणा मग्गो । २. भ.जो.१।१३।६०-६५ ३. वही,१।१३।५२५५ ४. विसंवादशतक। ५. जै.सि.को.भा.२,पृ.४३६,दृष्टिभेद । ६. वही,पृ.४३६,दृष्टिभेद। ७. भ.वृ.१११७०-मतम् –समान एवागमे आचार्याणामभिप्रायः तत्र च सिद्धसेनदिवाकरो मन्यते-केवलिनो युगपद् ज्ञानं दर्शनं च, अन्यथा तदावरणक्षयस्य निरर्थकता स्यात् । जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणस्तु भिन्नसमये ज्ञानदर्शने, जीवस्वरूपत्वात्। तथा तदावरणक्षयोपशमे समानेऽपि क्रमेणैव मतिश्रुतो. पयोगौ, न चैकतरोपयोगे इतरक्षयोपशमाभावः । तक्षयोपशमस्योत्कृष्टतः षट्षष्टिसागरोपमप्रमाणत्वादतः किं तत्त्वमिति ? इह च समाधिः-यदेव मतमागमानुपाति तदेव सत्यमिति मन्तव्यमितरत्पुनरुपेक्षणीयम् । अथ चाबहुश्रुतेन नैतदवसातुं शक्यते तदैवं भावनीयम्-आचार्याणां संप्रदायादिदोषादयं मत- भेदः। जिनानां तु मतमेकमेवाविरुद्धं च, रागादिविरहितत्वात् । आह च अणुवकयपराणुग्गहपरायणा जं जिणा जुगप्पवरा । जियरागदोसमोहा य णण्णहावाइणो तेण ॥ति । ८.प्र.सार-११५१-- तिक्कालणिचं विसमं सयलं सब्वत्थ संभवं चित्तं । जुगवं जाणदि जोण्हं अहो हि णाणस्स माहप्पं ।। ६. ज्ञान.प्र.१०२-१७३ तथा उपसंहार के श्लोक १-७-उपाध्याय यशोविजयजी ने यह स्पष्ट किया है कि नन्दी वृत्ति में आचार्य सिद्धसेन को जो युगपद् उपयोगवादी बतलाया गया है, वह 'अभ्युपगमवाद' के अभिप्राय से है, स्वतन्त्र सिद्धान्त के अभिप्राय से नहीं। १०. भ.जो.१।१३।३६४६। ११. वही,१।१३।६७७२। १२. भ.वृ.१।१७०–भङ्गाः द्व्यादिसंयोगभङ्गकाः। तत्र च द्रव्यतो नाम एका हिंसा, न भावत इत्यादि चतुभंगयुक्ता। न च तत्र प्रथमोऽपि भङ्गो युज्यते, यतः किल द्रव्यतो हिंसा-ईसिमित्या गच्छतः पिपीलिकादिव्यापादनं, न चेयं हिंसा, तल्लक्षणायोगात्, तथाहि "जो उ पमत्तो पुरिसो तस्स उ जोगं पडुच्च जे सत्ता । बावजंती नियमा तेसि सो हिंसओ होइ ॥" त्ति | उक्ता चेयमतः शंका, न चेयं युक्ता, एतद् गाथोक्तहिंसालक्षणस्य द्रव्यभावहिंसाश्रयत्वात्, द्रव्यहिंसायास्तु मरणमात्रतया रूढत्वादिति । १३. ठाणं,७।३। १४. त.सू.(स्वोपज्ञभाष्य सहित),१।३४–नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दा नयाः। १५. त.रा.वा.१।३३-नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरुद्वैः। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं माना है। इस प्रकार नयों के अनेक वर्गीकरण कांक्षामोहनीय कर्म के वेदन में निमित्त बने हैं। नियमान्तर वृत्तिकार ने नियम का अर्थ 'अभिग्रह' किया है। इससे पौरुषी आदि तप-विधियों का बोध होता है। सामायिक के द्वारा सर्व पापकारी प्रवृत्तियों का प्रत्याख्यान होता है। फिर नियम क्यों? इस प्रश्न के द्वारा वृत्तिकार ने नियमान्तर की व्याख्या की है। प्रकरण से प्रतीत होता है कि पार्श्व और महावीर की परम्परा में महाव्रतों की भांति नियमों का भी भेद था और वह कांक्षा-उत्पत्ति का हेतु बनता था। श.१ : उ.३: सू.१६६-१७३ वहां ज्ञान के दो प्रकार बतलाए गए हैं—प्रत्यक्ष और परोक्ष तथा हेतु के चार प्रकार प्रतिपादित हैं--प्रत्यक्ष, अनुमान, औपम्य और आगम।। अणुओगदाराई में ज्ञानगुणप्रमाण के प्रत्यक्ष, अनुमान, औपम्य और आगम-ये चार भेद उपलब्ध हैं। नंदी में ज्ञान के प्रत्यक्ष और परोक्ष-ये दो प्रकार मिलते हैं। इस प्रकार विभिन्न नामों के माध्यम से प्रमाण के अनेक वर्गीकरण बन गए। जैन परम्परा में प्रमाण का आधुनिक वर्गीकरण अकलंक और हरिभद्र के समय से हुआ है। सिद्धसेन दिवाकर ने न्यायावतार में प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन प्रमाणों की स्वीकृति दी थी। आगम-संकलन-काल से पूर्ववर्ती प्रमाण के ये अनेक वर्गीकरण शंका और कांक्षा के हेतु बने थे। शंकित आदि पांचों पदों की व्याख्या के लिए भगवती १।१२६,१३० का भाष्य द्रष्टव्य है। प्रमाणान्तर प्रमाण का अर्थ है निर्णायक ज्ञान । ठाणं में व्यवसाय के तीन प्रकार प्रतिपादित हैं-प्रत्यक्ष, प्रात्ययिक (इन्द्रिय और मन से होने वाला अथवा आप्तवचन से होने वाला) और आनुगामिक (अनुमान)। १७३. सेवं भंते ! सेवं भंते ! तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! १७३. भन्ते ! वह ऐसा ही है । भन्ते ! वह ऐसा ही है। १. सम्मति. ११४,५ दव्ववियनयपयडी सुद्धा संगहपरूवणाविसओ। पडिलवे पुण वयणथनिच्छओ तस्स ववहारो॥ मूलणिमेणं पज्जवणयस्स उजुसुयवयणविच्छेदो । तस्स उ सद्दाईआ साहपसाहा सुहुमभेया ।। २. भ.वृ.१।१७ नियमः-अभिग्रहः। तत्र यदि नाम सर्वविरतिः सामायिक तदा किमन्येन पौरुष्यादिनियमेन ? सामायिकेनैव सर्वगुणावाप्तेः, उक्तश्चासौ इति शङ्का, इयं चायुक्ता। यतः सत्यपि सामायिके युक्तः पौरुष्यादिनियमः, अप्रमादवृद्धिहेतुत्वादिति आह च "सामाइए वि हु सावजचागरूवे उ गुणकर एयं । अपमायवुहिजणगत्तणेण आणाओ वित्रेयं ।।" ति | ३. ठाणं,३।३६-तिविधे ववसाये पण्णते, तं जहा–पञ्चक्खे, पञ्चइए, आणु गामिए। ४. वही,२।६६ दुविहे णाणे पण्णत्ते, तं जहा—पच्चक्खे चेव, परोक्खे चेव । ५. वही,४ । ५०४-हेऊ चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा—पचखे, अणुमाणे, ओवम्मे, आगमे। ६.अणु.सू.५१५–नाणगुणप्पमाणे चउबिहे पण्णत्ते, तं जहा—पच्चस्खे, अणु माणे, ओवम्मे, आगमे। ७. नंदी,सू.३–तं समासओ दुविहं पण्णतं, तं जहा—पच्चस्खं च परोक्खं च । ८. न्यायावतार, कारिका ४,५,८। AAAAAMSANSARIA 3888888888888888888899990000000000 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल कम्म-पदं १७४ कति णं भंते ! कम्मष्पगडीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! अट्ठ कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ, कम्मपगडी पढमो उद्देसो नेयव्वो जावअणुभागो समत्तो । संग्रहणी गाहा कति पगडी ? कहं बंधति ? कतिहि व ठाणेहिं बंधती पगडी ? कति वेदेति व पगडी ? अणुभागो कतिविहो कस्स ? ॥ १ ॥ उवद्वावण-अवक्कमण-पदं १७५. जीवे णं भंते! मोहणिजेणं कडेणं कम्मेणं उदिण्णेणं उवट्ठाएञ्जा ? चउत्थो उद्देसो : चौथा उद्देशक संस्कृत छाया कर्म-पदम् कति भदन्त ! कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! अष्ट कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः कर्मप्रकृत्याः प्रथमः उद्देशः नेतव्यः यावत्-अनु भागः समाप्तः । संग्रहणी गाथा कति प्रकृतयः ? कथं बध्नाति ? कतिभिः वा स्थानैः बध्नाति प्रकृतीः ? कति वेदयति वा प्रकृतीः ? अनुभागः कतिविधः कस्य ॥ भाष्य १. सूत्र १७४ कर्म की प्रकृतियां आठ हैं— ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र, अन्तराय । १७७. जइ वीरियत्ताए उवट्ठाएजा, किंबालवीरत्ताए उवडाएजा ? पंडियवीरियत्ताए उवडाएजा ? बालपंडियवीरित्ताए उवट्टाएजा ? कर्म - पद १७४. 'भन्ते ! कर्मप्रकृतियां कितनी प्रज्ञप्त हैं ? हिन्दी अनुवाद गौतम ! कर्मप्रकृतियां आठ प्रज्ञप्त हैं। कर्मप्रकृति (पण्णवणा पद २३) के प्रथम उद्देशक का अनुभाग समाप्त हुआ है - इस अंश तक यह ज्ञातव्य हंता उबट्टाएजा ॥ १७६. से भंते ! किं वीरियत्ताए उवट्ठाएजा ? अवीरियत्ताए उवट्टाएजा ? गोयमा ! वीरियत्ताए उबट्टाएज्जा । णो गौतम ! वीर्यतया उपतिष्ठेत। नो अवीर्यतया अवीरित्ताए उवट्टाएजा || उपतिष्ठेत । संग्रहणी गाथा कर्मप्रकृतियां कितनी हैं ? उनका बन्ध कैसे करता है ? उनका बन्ध कितने स्थानों (कारणों) से होता है ? कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन होता है ? किस कर्म का कितने प्रकार का अनुभाग ( रसविपाक) होता है ? उपस्थापन - अपक्रमण-पदम् उपस्थापन - अपक्रमण-पद जीवः भदन्त ! मोहनीयेन कृतेन कर्मणा १७५. ' भन्ते ! क्या पूर्वकृत मोहनीय कर्म के उदयउदीर्णेन उपतिष्ठेत ? काल में जीव उपस्थान (आध्यात्मिक विकास) करता है ? हो, उपस्थान करता है। हन्त उपतिष्ठेत । स भदन्त ! किं वीर्यतया उपतिष्ठेत ? १७६. भन्ते ! क्या वह वीर्य-भाव में उपस्थान करता अवीर्यतया उपतिष्ठेत ? है ? अवीर्य-भाव में उपस्थान करता है ? गौतम ! वह वीर्य-भाव में उपस्थान करता है, अवीर्य भाव में उपस्थान नहीं करता । यदि वीर्यतया उपतिष्ठेत, किं बालवीर्यतया उपतिष्ठेत ? पण्डितवीर्यतया उपतिष्ठेत ? बालपण्डितवीर्यतया उपतिष्ठेत ? १७७ यदि वह वीर्य भाव में उपस्थान करता है, तो क्या — वालवीर्य भाव में उपस्थान करता है ? पंडितवीर्य-भाव में उपस्थान करता है ? बालपंडितवीर्य-भाव में उपस्थान करता है ? Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ६५ श.१: उ.४ः सू.१७७-१८५ गोयमा ! बालवीरियत्ताए उवद्वाएजा। नो पंडियवीरियत्ताए उवट्ठाइजा। नो बाल- पंडियवीरियत्ताए उवद्वाएजा ॥ गौतम ! बालवीर्यतया उपतिष्ठेत । नो पण्डि- तवीर्यतया उपतिष्ठेत । नो बालपण्डितवीर्य- तया उपतिष्ठेत। गौतम ! वह बालवीर्य-भाव में उपस्थान करता है, पंडितवीर्य-भाव में उपस्थान नहीं करता, बालपंडितवीर्य-भाव में उपस्थान नहीं करता। १७८. जीवे णं भंते ! मोहणिजेणं कडेणं कम्मेणं उदिण्णेणं अवक्कमेजा ? जीवः भदन्त ! मोहनीयेन कृतेन कर्मणा उदी- १७८. भंते ! क्या पूर्वकृत मोहनीय कर्म के उदयऐन अपक्रामेत् ? काल में जीव अपक्रमण (आध्यात्मिक हास) करता है ? हन्त अपक्रामेत् । हां, अपक्रमण करता है। हंता अवक्कमेजा। १७६. से भंते ! किं वीरियत्ताए अवक्कमेजा? अवीरियत्ताए अवक्कमेजा ? गोयमा ! वीरियत्ताए अवकमेजा। नो अवीरियत्ताए अवक्कमेजा। स भदन्त ! किं वीर्यतया अपक्रामेत् ? १७६. भन्ते ! क्या वह वीर्य-भाव में अपक्रमण करता अवीर्यतया अपक्रामेत् ? है ? अवीर्य-भाव में अपक्रमण करता है ? गौतम ! वीर्यतया अपक्रामेत् । नो अवीर्यतया गौतम ! वह वीर्य-भाव में अपक्रमण करता है, अपक्रामेत् ॥ अवीर्य-भाव में अपक्रमण नहीं करता । १९० जइ वीरियत्ताए अवक्कमेजा, किं- यदि वीर्यतया अपक्रामेत्, किं-बाल- १८०. यदि वह वीर्य-भाव में अपक्रमण करता है, तो बालवीरियत्ताए अवक्कमेजा ? पंडियवीरिय- वीर्यतया अपक्रामेत् ? पण्डितवीर्यतया अप- क्या-बालवीर्य-भाव में अपक्रमण करता है? ताए अवक्कमेजा ? बालपंडियवीरियत्ताए कामेत् ? बालपण्डितवीर्यतया अपक्रामेत् ? पंडितवीर्य-भाव में अपक्रमण करता है ? बालअवक्कमेजा ? पंडितवीर्य-भाव में अपक्रमण करता है ? गोयमा ! बालवीरियत्ताए अवक्कमेजा। नो गौतम ! बालवीर्यतया अपक्रामेत्। नो गौतम ! वह बालवीर्य-भाव में अपक्रमण करता है, पंडियवीरियत्ताए अवकमेजा। सिय बाल- पण्डितवीर्यतया अपक्रामेत्। स्यात् बाल- पंडितवीर्य-भाव में अपक्रमण नहीं करता, कदाचित् पंडियवीरियत्ताए अवक्कमेजा। पण्डितवीर्यतया अपक्रामेत्। वालपंडितवीर्य-भाव में अपक्रमण करता है। १५१. जीवे णं भंते ! मोहणिज्जेणं कडेणं कम्मेणं उवसंतेण उवद्वाएजा ? हंता उववाएजा॥ जीवः भदन्त ! मोहनीयेन कृतेन कर्मणा १८१. भन्ते ! क्या पूर्वकृत मोहनीय कर्म के उपउपशान्तेन उपतिष्ठेत? शमन-काल में जीव उपस्थान करता है ? हंत उपतिष्ठेत। हां, उपस्थान करता है। १६२. से भंते ! किं वीरियत्ताए उवट्ठाएजा ? अवीरियत्ताए उवढाएजा? गोयमा! वीरियत्ताए उवटाएज्जा । नो अवीरियत्ताए उवट्ठाएजा ॥ स भदन्त ! किं वीर्यतया उपतिष्ठेत ? १८२. भन्ते ! क्या वह वीर्य-भाव में उपस्थान करता अवीर्यतया उपतिछेत ? है ? अवीय-भाव में उपस्थान करता है ? गौतम ! वीर्यतया उपतिष्ठेत | नो अवीर्यतया । गौतम ! वह वीर्य-भाव में उपस्थान करता है, उपतिष्ठेत। अवीर्य-भाव में उपस्थान नहीं करता। १८३. जइ वीरियत्ताए उवहाएजा, किं- यदि वीर्यतया उपतिष्ठेत, किं-बालवीर्यतया १८३. यदि वह वीर्य-भाव में उपस्थान करता है, तो बालवीरियत्ताए उवट्ठाएजा ? पंडियवीरिय- उपतिष्ठेत ? पण्डितवीर्यतया उपतिष्ठेत ? क्या-बालवीर्य-भाव में उपस्थान करता है ? ताए उववाएजा ? बालपंडियवीरियत्ताए बालपण्डितवीर्यतया उपतिष्ठेत ? पंडितवीर्य-भाव में उपस्थान करता है ? बालउवट्ठाएजा? पण्डितवीर्य-भाव में उपस्थान करता है ? गोयमा ! नो बालवीरियत्ताए उवट्ठाएजा। गौतम ! नो बालवीर्यतया उपतिष्ठेत। गौतम ! वह बालवीर्य-भाव में उपस्थान नहीं पंडियवीरियत्ताए उववाएजा। नो बाल- पण्डितवीर्यतया उपतिष्ठेत । नो बाल- करता, पंडितवीर्य-भाव में उपस्थान करता है, पंडियवीरियत्ताए उवट्टाएजा॥ पण्डितवीर्यतया उपतिष्ठेत। बालपंडितवीर्य-भाव में उपस्थान नहीं करता। १८४. जीवे णं भंते ! मोहिणिज्जेणं कडेणं कम्मेणं उवसंतेणं अवक्कमेजा ? हंता अवक्कमेजा ॥ जीवः भदन्त ! मोहनीयेन कृतेन कर्मणा १८४. भन्ते ! क्या वह पूर्वकृत मोहनीय कर्म के उपशान्तेन अपक्रामेत् ? उपशमन-काल में अपक्रमण करता है ? हन्त अपक्रामत्। हां, अपक्रमण करता है। १५५. से भंते ! किं वीरियत्ताए अवक्कमेजा? अवीरियत्ताए अवक्कमेजा? स भदन्त ! किं वीर्यतया अपक्रामेत् ? १५५. भन्ते ! क्या वह वीर्य-भाव में अपक्रमण अवीर्यतया अपक्रामेत् ? करता है ? अवीर्य-भाव में अपक्रमण करता है ? Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १ः उ. ४ः सू.१७५-१८८ गोयमा ! वीरियत्ताए अवक्कमेज्जा । नो अवीरित्ताए अवक्कमेजा ॥ १८६. जइ वीरियत्ताए अवक्कमेज्जा, किं बालवीरयत्ताए अवकमेज्जा ? पंडियवीरियत्ताए अवक्कमेज्जा ? बालपंडियवीरियताए अवकमेजा ? गोयमा ! नो बालवीरित्ताए अवक्कमेज्जा । नो पंडियवीरित्ताए अवक्कमेजा । बालपंडियवीरित्ताए अवक्कमेजा || १८७. से भंते ! किं आयाए अवक्कमइ ? अणायाए अवक्कमइ ? गोयमा ! आयाए अवक्कमइ, नो अणायाए अवक्कम — मोहणिजं कम्मं वेदेमाणे ॥ १८८. से कहमेयं भंते ! एवं ? गोमा ! पुब्बिं से एवं एवं रोयइ । इयाणि से एवं एवं नो रोयइ एवं खलु एवं एवं ॥ १. भ. ८ । १४५ । २. सूय. २।२।७५। ६६ गौतम ! वीर्यतया अपक्रामेत् । नो अवीर्यतया अपक्रामेत् । यदि वीर्यतया अपक्रामेत् किं - बालवीर्यतया अपक्रामेत् ? पण्डितवीर्यतया अपक्रामेत् ? बालपण्डितवीर्यतया अपक्रामेत् ? गौतम ! नो बालवीर्यतया अपक्रामेत् । नो पण्डितवीर्यतया अपक्रामेत् । बालपण्डितवीर्यतया अपक्रामेत्। स भदन्त ! किं आत्मना अपक्रामति ? अनात्मना अपक्रामति ? गौतम ! आत्मना अपक्रामति, नो अनात्मना अपक्रामति मोहनीयं कर्म वेदयन् । अथ कथमेतत् भदन्त ! एवं ? गौतम ! पूर्वं तस्मै एतद् एवं रोचते । इदानीं तस्मै एतद् एवं नो रोचते – एवं खलु एतद् एवम् । १. सूत्र १७५-१८८ प्रस्तुत आगम में वीर्यलब्धि के तीन प्रकार बतलाए गए हैं—बालवीर्यलब्धि, पण्डितवीर्यलब्धि, बालपण्डितवीर्यलब्धि ।' सूयगडो पूर्ण अविरति वाले व्यक्ति को बाल, विरति वाले व्यक्ति को पण्डित तथा विरति और अविरति दोनों से युक्त व्यक्ति को बालपण्डित कहा गया है। इस आलापक में मोह के उदय और उपशम के आधार पर उपस्थान और अपक्रमण की व्याख्या की गई है। सम्यग्दर्शन, देशव्रत और सर्वव्रत - अध्यात्म-विकास की क्रमिक भूमिकाएं हैं। मिथ्यादृष्टि जीव में भी यत्किञ्चित् मात्रा में अध्यात्म का विकास होता है । उपस्थान का अर्थ है— आध्यात्मिक विकास। अपक्रमण का अर्थ हैआध्यात्मिक विकास से ह्रास की ओर जाना। मिथ्यादर्शन विकास का न्यूनतम बिन्दु है । इस दृष्टि से सम्यग्दृष्टि का मिथ्यादृष्टि होना अपक्रमण है । सर्वव्रती का देशव्रती होना अपक्रमण है। मोह के उदयकाल में भाष्य भगवई गौतम ! वह वीर्य भाव में अपक्रमण करता है, अवीर्य भाव में अपक्रमण नहीं करता। १८६. यदि वह वीर्य भाव में अपक्रमण करता है, तो क्या बालवीर्य-भाव में अपक्रमण करता है ? पंडितवीर्य-भाव में अपक्रमण करता है ? बालपंडितवीर्य-भाव में अपक्रमण करता है ? गौतम ! वह बालवीर्य भाव में अपक्रमण नहीं करता, पंडितवीर्य-भाव में अपक्रमण नहीं करता, बालपंडितवीर्य-भाव में अपक्रमण करता है। १८७. भन्ते ! क्या वह अपक्रमण आत्मना (अपने आप) करता है ? अनात्मना (परनिमित्त से) करता है ? गौतम ! वह आत्मना अपक्रमण करता है, अनात्मना अपक्रमण नहीं करता। मोहनीय कर्म का वेदन करता हुआ अपक्रमण करता है। १८८. भन्ते ! वह मोहनीय कर्म का वेदन करता हुआ अपक्रमण कैसे करता है ? गौतम ! अपक्रमण से पूर्व वह जो तत्त्व जैसा है, उस पर वैसी ही रुचि करता है। अब (मोहनीय कर्म के उदय-काल में) वह जो तत्त्व जैसा है, उस पर वैसी रुचि नहीं करता इस प्रकार वह मोहनीय कर्म का वेदन करता हुआ अपक्रमण करता है। उपस्थान बालवीर्य की भूमिका से आगे नहीं होता। मिथ्यादृष्टि के दर्शनमोह और चारित्रमोह दोनों का उदय रहता है; इसलिए वह सम्यग्दर्शन को उपलब्ध नहीं होता । सम्यग्दृष्टि के चारित्रमोह का उदय रहता है; इसलिए उसे व्रत उपलब्ध नहीं होता। दर्शनमोह के उदयकाल में सम्यग्दर्शन का ह्रास होने पर सम्यक्त्व, देशव्रत और सर्वव्रत - इन तीनों की हानि हो जाती है। चारित्रमोह के उदयकाल में व्रत का हास होता है; इसलिए व्रती सम्यग्दृष्टि बन जाता है अथवा देशव्रती । जब मोहकर्म उपशान्त होता है, उस काल में केवल पण्डितवीर्य काही उपस्थान होता है । उपशम की अवस्था में अपक्रमण करने वाला जीव देशव्रती बनता है। वह उपशम की अवस्था में मिध्यादृष्टि नहीं बनता। जयाचार्य ने वृत्तिकार की व्याख्या के साथ-साथ धर्मसी - कृत ३. भ. वृ. १ । १७५-१८३ – 'उवट्ठाएजत्ति 'उपतिष्ठेत' उपस्थानं परलोकक्रियास्वभ्युपगमं कुर्यादित्यर्थः, 'वीरियत्ताए'त्ति वीर्ययोगाद्वीर्यः प्राणी तद्भावो वीर्यता । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श.१: उ.४. सू.१७५-१६० व्याख्या भी प्रस्तुत की है।' अपक्रमण मोहकर्म (दर्शनमोह और चारित्रमोह) के वेदन काल में होता है। वह आत्मना (स्वतः) होता है, अनात्मना (परतः) नहीं होता। अपक्रमणकारी जीव पहले सम्यगुरुचि वाला होता है; पश्चात् वह मिथ्यारुचि हो जाता है। पहले वह तत्त्व के प्रति सम्यगुरुचि करता है, दर्शनमोहनीय का उदय होने पर उसकी तत्त्वरुचि मिथ्या हो जाती है। कम्भमोक्ख-पदं कर्ममोक्ष-पदम् कर्ममोक्ष-पद १५६. से नणं भंते ! नेरइयस्स वा, तिरिक्ख- अथ नूनं भदन्त ! नैरयिकस्य वा, १८९. 'भन्ते ! नैरयिक, तिर्यग्योनिक, मनुष्य जोणियस्स वा, मणुस्सस्स वा, देवस्स वा तिर्यग्योनिकस्य वा, मनुष्यस्य वा, देवस्य वा अथवा देव के जो किया हुआ पाप कर्म है, क्या जे कडे पावे कम्मे, नत्थि णं तस्स अवेदइत्ता यत् कृतं पापं कर्म, नास्ति तस्य अवेदयित्वा उसका वेदन किए बिना मोक्ष (छुटकारा) नहीं मोक्खो? मोक्षः ? होता? हंता गोयमा ! नेरइयस्स वा, तिरिक्ख- हन्त गौतम ! नैरयिकस्य वा, तिर्यग्योनिकस्य हां, गौतम ! नैरयिक, तिर्यग्योनिक, मनुष्य जोणियस्स वा, मणुस्सस्स वा, देवस्स वा वा, मनुष्यस्य वा, देवस्य वा यत् कृतं पापं अथवा देव के जो किया हुआ पाप कर्म है, उसका जे कडे पावे कम्मे, नत्थि णं तस्स अवेदइत्ता कर्म, नास्ति तस्य अवेदयित्वा मोक्षः। वेदन किए बिना मोक्ष नहीं होता। मोक्खो॥ १६०. से केणद्वेणं भंते ! एवं वुचइ–नेरइय- तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-नैरयिक १६०. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा स्स वा, तिरिक्खजोणियस्स वा, मणुस्स- स्य वा, तिर्यग्योनिकस्य वा, मनुष्यस्य वा, है-नैरयिक, तिर्यग्योनिक, मनुष्य अथवा देव देवस्य वा यत् कृतं पापं कर्म, नास्ति तस्य के जो किया हुआ पाप कर्म है, उसका वेदन नत्थि णं तस्स अवेदइत्ता मोक्खो ? अवेदयित्वा मोक्षः ? किए बिना मोक्ष नहीं होता? एवं खलु मए गोयमा! दुविहे कम्मे पण्णत्ते, एवं खलु मया गौतम ! द्विविधं कर्म प्रज्ञातम्, गौतम ! मैंने दो प्रकार के कर्म बतलाए हैं, तं जहा-पदेसकम्मे य, अणुभागकम्मे तद् यथा प्रदेशकर्म च, अनुभागकर्म च। जैसे—प्रदेश-कर्म और अनुभाग-कर्म । य। " शावरतः। अथवा वीर्यमेव स्वार्थिकप्रत्ययाद्वीर्यता वीर्याणां वा भावो वीर्यता, तया। 'अवीरियत्ताए'त्ति अविद्यमानवीर्यतया वीर्याभावे नेत्यर्थः, 'नो अवीरियत्ताए' ति वीर्यहतुकत्वादुपस्थानस्येति। 'बालवीरियत्ताए"त्ति बालः सम्यगर्थानवबोधात् सद्बोधकार्यविरत्यभावाच मिथ्यादृष्टिस्तस्य या वीर्यता—परिणतिविशेषः सा तथा तया। 'पंडियवीरियत्ताए'त्ति पण्डितः-सकलावद्यवर्जकस्तदन्यस्य परमार्थती निर्ज्ञानत्वेनापण्डितत्वाद्, यदाह "तज्ज्ञानमेव न भवति यस्मिन्नुदिते विभाति रागगणः । तमसः कुतोऽस्ति शक्तिर्दिनकरकिरणाग्रतः स्थातुम् ? ॥" इति । सर्वविरत इत्यर्थः। 'बालपंडियवीरियत्ताए'त्ति बालो देशे विरत्यभावात् पण्डितो देश एव विरतिसद्भावादिति बालपण्डितो-देशविरतः। इह च मिथ्यात्वे उदिते मिथ्यादृष्टित्वाज्जीवस्य बालवीर्येणैवोपस्थानं स्यान्नेतरा- भ्याम् । एतदेवाह-'गोयमे'!त्यादि। उपस्थानविपक्षोऽपक्रमणमतस्तदाश्रित्याह 'जीवे णमित्यादि 'अवक्कमेञ्ज'त्ति 'अपक्रामेत्' अपसपेत्, उत्तमगुणस्थान-काद् हीनतरं गच्छेदित्यर्थः। 'बालवीरियताए अवक्कमेजति मिथ्यात्वमोहोदये सम्यक्त्वात् संयमाद्देशसंयमाद्वा 'अपक्रामेत्' मिथ्यादृष्टिर्भवेदिति । 'णो पंडियवीरियत्ताए अवक्कमेन' ति, नहि पण्डितत्वाधानतरं गुणस्थानकमस्ति यतः पण्डितवीर्येणाप- सपेत् । 'सिय वालपंडियवीरियत्ताए अवक्कमेजत्ति स्यात्-कदाचिञ्चारित्रमोहनीयोदयेन संयमादपगत्य बालपंडितवीर्येण देशविरतो भवेदिति। वाचनान्तरे त्वेवम् –'बालवीरियत्ताए नो पंडियवीरियत्ताए नो बालपंडियवीरियत्ताए'त्ति तत्र च मिथ्यात्वमोहोदये बालवीर्यस्यैव भावादितरवीर्यद्वयनिषेध उदीर्णविपक्षत्वादुपशान्तस्येत्युपशान्तसूत्रद्वयं तथैव, नवरम् ‘उवहाएजा पंडियवीरियत्ताए'त्ति उदीर्णालापकापेक्षयोपशान्तालापकयोरयं विशेषः प्रथमालापके सर्वथा मोहनीयेनोपशान्तेन सतोपतिष्ठेत क्रियासु पण्डितवीर्येण, उपशान्तमोहावस्थायां पण्डितवीर्यस्यैव भावादितरयोश्चाभावात्। वृद्धस्तु काञ्चिद्वाचनामाश्रित्येदं व्याख्यातं—मोहनीयेनोपशान्तेन सत्ता न मिथ्यादृष्टिर्जायते, साधुः श्रावको वा भवतीति। द्वितीयालापक तु 'अबक्कमेज बालपंडियवीरियत्ताए'त्ति मोहनीयेन हि उपशान्तेन संयतत्वाद् बालपण्डितवीर्येणापक्रामन् देशसंयतो भवति । देशस्तस्य मोहोपशमसद्भावात्, न तु मिध्यादृष्टिः, मोहोदय एव तस्य भावात्, मोहोपशमस्य चेहाधिकृतत्वादिति । १. भ.जो.१।१४।२२३४। २. भ.वृ.१।१८७,१८५–'से भंते ! कि' मित्याह-'से'ति असी जीवः, अशाथों वा से शब्दः, 'आयाए'त्ति आत्मना 'अणायाए'त्ति अनात्सना, परत इत्यर्थः । 'अपक्रामति' अपसर्पति। पूर्व पण्डितत्वरुचिर्भूत्वा पश्चान्मिश्ररुचिर्मिथ्यारुचिर्वा भवतीति, कोऽसौ ? इत्याह-मोहनीयं कर्म मिथ्यात्वमोहनीयं चारित्रमोहनीयं वा वेदयन्, उदीर्णमोह इत्यर्थः । से कहमेयं भंते !'त्ति अथ 'कथं' केन प्रकारेण 'एतद्' अपक्रमणम् ‘एवं' ति मोहनीयं वेदभानस्येति इहोत्तर--'गोयमे' त्यादि, 'पूर्वम्' अपक्रमणात् प्राग् 'असौ' अपक्रमणकारी जीवः 'एतद्'जीवादि अहिंसादि वा वस्तु एवं' यथा जिनरुक्तं रोचते' श्रद्धत्ते करोति वा। 'इदानीं' मोहनीयोदयकाले 'सः' जीवः "एतत्'जीवादि अहिंसादि वा 'एवं' यथा जिनैरुक्तं 'नो रोचते' न श्रद्धत्ते न करोति वा। ‘एवं खलु' उक्तप्रकारेण 'एतद्' अपक्रमणम्, 'एवं' मोहनीयवेदने इत्यर्थः। इति। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ भगवई श.१: उ.४. सू.१८६,१६० तत्थ णं जंणं पदेसकम्मं तं नियमा वेदेइ। तत्र यत् प्रदेशकर्म तत् नियमाद् वेदयति। तत्थ णंजणं अणुभागकम्मं तं अत्थेगइयं तत्र यद् अनुभागकर्म तद् अस्त्येककं वेदयति, वेदेइ, अत्थेगइयं णो वेदेइ । अस्त्येककं नो वेदयति। णायमेयं अरहया, सुयमेयं अरहया, विण्णा- ज्ञातमेतद् अर्हता, श्रुतमेतद् अर्हता, विज्ञात- यमेयं अरहया इमं कम्मं अयं जीवे मेतद् अर्हता-इदं कर्म अयं जीवः आभ्यु- अब्भोवगमियाए वेदणाए वेदेस्सइ, इमं पगमिक्या वेदनया वेदयिष्यति, इदं कर्म अयं कम्मं अयं जीवे उवक्कमियाए वेदणाए जीवः औपक्रमिक्या वेदनया वेदयिष्यति। वेदेस्सइ । अहाकम्म, अहानिकरणं जहा जहा तं यथाकर्म, यथानिकरणं यथा यथा तद् भगवया दिटुं तहा तहा तं विष्परिणमि- भगवता दृष्टं तथा तथा विपरिणंस्यति । तत् स्सतीति । से तेणटेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते नैरयिकस्य वा, -नेरइयस्स वा, तिरिक्खजोणियस्स वा, तिर्यग्योनिकस्य वा, मनुष्यस्य वा, देवस्य वा मणुस्सस्स वा, देवस्स वा जे कडे पावे कम्मे, यत् कृतं पापं कर्म, नास्ति तस्य अवेदयित्वा नत्थि णं तस्स अवेदइत्ता मोक्खो ॥ मोक्षः। जो प्रदेश-कर्म है, उसका नियमतः वेदन होता है। जो अनुभाग-कर्म है, उसमें से किसी का वेदन होता है, किसी का वेदन नहीं होता। यह अर्हत् के द्वारा ज्ञात है, श्रुत है और विज्ञात है-यह जीव इस कर्म का आभ्युपगमिकी (स्वीकृत) वेदना द्वारा वेदन करेगा और यह जीव इस कर्म का औपक्रमिकी (प्रयत्नकृत) वेदना द्वारा वेदन करेगा। यथाकर्म (बद्ध कर्मों के अनुसार) और यथानिकरण (विपरिणमन के नियत हेतु के अनुसार) जैसे-जैसे वह कर्म भगवान् ने देखा, वैसे-वैसे उसका विपरिणमन होगा। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-नैरयिक, तिर्यगयोनिक, मनुष्य अथवा देव के जो किया हुआ पाप-कर्म है, उसका वेदन किए बिना मोक्ष नहीं होता। भाष्य १. सूत्र १८६,१६० प्रस्तुत आलापक में कर्मवाद के कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का विमर्श उपलब्ध है। कर्मवाद का सामान्य नियम है-अपने किए हुए कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं होता।' यदि यह नियम सार्वभौम अथवा निरपेक्ष हो, तो धार्मिक पुरुषार्थ की सार्थकता कम हो जाती है। उसकी सार्थकता तभी फलित होती है कि मनुष्य अतीत के बन्धन को बदल डाले, पूर्वकृत कर्म को निर्वीर्य बना दे। भगवान् महावीर पुरुषार्थवाद के प्रवक्ता थे। उनका सिद्धान्त था कि मनुष्य अपने पुरुषार्थ के द्वारा कर्म का बन्ध करता है और पुरुषार्थ के द्वारा उसमें परिवर्तन भी कर सकता है। इस अवधारणा के सन्दर्भ में कर्मवाद का वह नियम सार्वभौम और निरपेक्ष नहीं है। सापेक्षता की व्याख्या के दो सूत्र हैं—प्रदेश कर्म और अनुभाग-कर्म। प्रदेश-कर्म का अर्थ है—जीव के प्रदेशों में ओत-प्रोत कर्म-पुद्गल । अनुभाग-कर्म । का अर्थ है-कर्म-पुद्गलों का रस जो जीव के द्वारा संवेद्यमान होता से उन कर्म-प्रदेशों का क्षपण या वियोजन नियमतः करता है। सामान्य स्थिति में अनुभाग-कर्म का वेदन होता है, किन्तु पुरुषार्थ के द्वारा तीव्र अनुभाव को मन्द अनुभाव में बदल देने अथवा अनुभाव या रस को निष्क्रिय बना देने पर उसका वेदन नहीं भी होता।' इस निरूपण के आधार पर दो सिद्धान्त फलित होते हैं—कृत कर्म भुगतना ही होता है यह सिद्धान्त प्रदेश-कर्म की अपेक्षा से संगत है। कृत कर्म को भोगे बिना निर्जीर्ण किया जा सकता है यह सिद्धान्त अनुभाग-कर्म की अपेक्षा से है। तपस्या के द्वारा कर्म की निर्जरा करो-इसका आधार अनुभाग-कर्म के वेदन का विकल्प ही है। वेदना दो प्रकार की होती है-आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी।' आभ्युपगमिकी वेदना का सम्बन्ध धार्मिक साधना या तपस्या से है। यह संकल्पपूर्वक स्वीकृत होती है। उपवास आदि के द्वारा जो वेदना होती है, वह आभ्युपगमिकी है। औपक्रमिकी वेदना कर्म के स्वयं उदय अथवा उदीरणाकरण के द्वारा होने वाले कर्म के उदय से होती है। औपक्रमिकी वेदना सभी प्राणियों के होती है। आभ्युपगमिकी वेदना पञ्चेन्द्रिय तिर्यगयोनिक और मनुष्य इन दो के ही होती है।' प्रदेश-कर्म का वेदन अवश्यंभावी है। जीव अपने आत्म-प्रदेशों १. उत्तर.४॥३ कडाण कम्माण न मोक्ख अस्थि ॥ २. भ.वृ.१1१६०-प्रदेशाः कर्मपुद्गला जीवप्रदेशेष्वोतप्रोतास्तद्रूपं कर्म प्रदेश कर्म। 'अणुभागकम्मे यति अनुभागः तेषामेव कर्मप्रदेशानां संवेद्यमानताविषयो रसस्तद्रूपं कर्म अनुभागकर्म । तत्र यप्रदेशकर्म तन्नियमाद्वेदयति, विपाकस्याननुभवनेऽपि कर्मप्रदेशानामवश्यं क्षपणात्, प्रदेशेभ्यः प्रदेशानियमाच्छातयतीत्यर्थः। अनुभागकर्म च तथाभावं वेदयति वा न वा, यथा मिथ्यात्वं तत्क्षयोपशमकालेऽनुभागकर्मतया न वेदयति प्रदेशकर्मतया तु वेदयत्येवेति। ३. (क)दसवे.पढमा चूलिया, सू.१५-पावाणं च खलु भो ! कडाणं कम्माणं पुब्बिं दुचिण्णाणं दुष्पडिक्कत्ताणं वेयइत्ता मोक्खो नत्थि अवेयइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता । अट्ठारसमं पयं भवइ। (ख)आयारो,२ । १६३-धुणे कम्मसरीरंग। (ग) दसवे.६।६७ खति अप्पाणममोहदंसिणो, तवे रया संजम अञ्जवे गुणे । धुणंति पावाई पुरे कडाई, नवाइ पावाई न ते करेंति ॥ ४. पण्ण.३५।१२-गोयमा ! दुविहा वेदणा पण्णत्ता, तं जहा—अमोवगमिया य ओवक्कमिया य | ५. वही,३५।१३-१५॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ६६ श.१: उ.४ः सू.१८६-१६२ सूत्रकार ने इस विषय में एक नया तथ्य उद्घाटित किया पुरुषार्थवाद के बिना सम्भव नहीं है। प्रत्येक पर्याय अपने नियत समय है-अमुक कर्म आभ्युपगमिकी वेदना द्वारा भोगा जाएगा और अमुक __में प्रगट होता है। जो पर्याय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इस चतुष्टयी कर्म औपक्रमिकी वेदना द्वारा भोगा जाएगा, यह अर्हत् को ज्ञात होता के साथ नियत होता है, वह नियति है। अमुक द्रव्य में अमुक क्षेत्र और है। कर्म-विपाक की पृष्ठभूमि में दो नियम कार्य करते हैं-१. किस अमुक काल में अमुक निमित्त के द्वारा अमुक प्रकार से अमुक पर्याय अध्यवसाय-काल में कर्म का बन्ध हुआ है ? २. उसके साथ देश, काल प्रकट होगा—यह नियति है। जो कर्म अर्हत् ने जैसे-जैसे देखा है, वह आदि निश्चित कारणों से कर्म के विपाक का सम्बंध होता है। कर्म-विपाक वैसे-वैसे ही परिणत होगा, यह नियतिवाद का सूत्र है। की यह पृष्ठभूमि अर्हत् के द्वारा जैसे ज्ञात होती है, वैसे ही उसका विपाक _ 'यथानिकरण' के द्वारा इस नियतिवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन होता है। इस सिद्धान्त के प्रतिपादन के आधार पर दो धारणाएं बनती किया गया है। वृत्तिकार ने बतलाया है कि कर्म अपने देश, काल आदि नियत करणों का अतिक्रमण नहीं करता; इसलिए अर्हत द्वारा जिस रूप १. तपस्या आदि के द्वारा कर्म के विपाक में परिवर्तन किया जा में दृष्ट है, उसी रूप में उसका विपरिणमन होता है। जिस रूप में कर्म सकता है। का बन्ध हुआ, उसी रूप में कर्म का विपाक होगा—यह नियत नहीं यह धारणा पुरुषार्थवाद के अनुकूल है । है, किन्तु अमुक कर्म अमुक पुरुषार्थ के द्वारा अमुक रूप में बदला जाएगा यह नियत होता है। अर्हत् के ज्ञान में होने वाला परिवर्तन' २. अर्हत् ने जैसा देखा, वैसे कर्म का विपाक होगा। नियत होता है। परिवर्तन होना नियति है, किन्तु परिवर्तन करना नियति यह धारणा पुरुषार्थवाद के अनुकूल नहीं है। का काम नहीं है। वह पुरुषार्थ का काम है। इस प्रकार नियति और इन दो धारणाओं के आधार पर एक प्रश्न उपस्थित होता पुरुषार्थ दोनों का समन्वय इस प्रकरण से फलित होता है। है-भगवान् महावीर पुरुषार्थवादी थे या नियतिवादी ? इसका उत्तर योग-दर्शन के भाष्य में 'एकभविक कर्माशय' के दो विकल्प स्पष्ट है-महावीर अनेकान्तवादी थे। पुरुषार्थवाद एकान्तवाद है। किए हैं—नियत विपाक और अनियत विपाक । भाष्यकार ने बतलाया नियतिवाद भी एकान्तवाद है। महावीर को कोई भी एकान्तवाद मान्य है कि विपाक के देश, काल और गति का अवधारण न होने के कारण नहीं था। उन्हें पुरुषार्थवाद और नियतिवाद का समन्वय मान्य था। कर्म-गति विचित्र और दुर्विज्ञेय होती है। इस सन्दर्भ में एवंभूत वेदना, प्रस्तत प्रकरण में वही समन्वय का स्वर मुखरित है। कर्म के वेदन का अनेवंभूत वेदना' का प्रकरण द्रष्टव्य है। विकल्प पुरुषार्थवाद का स्वयम्भू प्रमाण है। अनुभाग में परिवर्तन होना पोग्गल-जीवाणं तेकालियत्त-पदं १६१. एस णं भंते ! पोग्गले तीतं अणंतं सासयं समयं भुवीति वत्तवं सिया ? हंता गोयमा ! एस णं पोग्गले तीतं अणंतं सासयं समयं भुवीति वत्तव्वं सिया ॥ पुद्गल-जीवानां त्रैकालिकत्व-पदम् पुद्गल और जीव की त्रैकालिकता का पद एष भदन्त ! पुद्गलः अतीतम् अनन्तं शाश्वतं १६१. 'भन्ते ! यह परमाणु अनन्त अतीतकाल में समयम् अभूद् इति वक्तव्यं स्यात् ? शाश्वत था, क्या ऐसा कहा जा सकता है ? हन्त गौतम ! एष पुद्गलः अतीतम् अनन्तं हां, गौतम ! यह परमाणु अनन्त अतीतकाल में शाश्वतं समयम् अभूदु इति वक्तव्यं स्यात् । शाश्वत था, ऐसा कहा जा सकता है। १६२. एस णं भंते ! पोग्गले पडुप्पण्णं सासयं एष भदन्त ! पुद्गलः प्रत्युत्पन्नं शाश्वतं समयं १६२. भन्ते ! यह परमाणु वर्तमान काल में शाश्वत समयं भवतीति वत्तवं सिया ? भवतीति वक्तव्यं स्यात् ? रहता है, क्या ऐसा कहा जा सकता है ? हंता गोयमा ! एस णं पोग्गले पडुप्पण्णं __ हन्त गौतम ! एष पुद्गलः प्रत्युत्पन्नं शाश्वतं हां, गौतम ! यह परमाणु वर्तमान काल में शाश्वत सासयं समयं भवतीति वत्तवं सिया ॥ समयं भवतीति वक्तव्यं स्यात् । रहता है, ऐसा कहा जा सकता है। १. भ.१.१।१६०-यथाकर्म-बद्धकर्मानतिक्रमेण 'अहानिगरणं'ति निकरणानां —नियतानां देशकालादीनां करणानां विपरिणामहेतूनामनतिक्रमेण यथा-यथा तत्कर्म भगवता दृष्टं तथा तथा विपरिणस्यतीति । २. पा.यो.द.२।१३ भाष्य यस्त्वसावेकभविकः कर्माशयः स नियतविपाकश्चा- नियतविपाकश्च । तत्र दृष्टजन्मवेदनीयस्य नियतविपाकस्यैवायं नियमो, न त्व- दृष्टजन्मवेदनीयस्यानियतविपाकस्य; कस्मात्, यो ह्यदृष्टजन्मवेदनीयोऽनियतविपाकस्तस्य त्रयी गतिः कृतस्याविपक्वस्य नाशः, प्रधानकर्मण्यावापगमनं वा, नियतविपाकप्रधानकर्मणाऽभिभूतस्य वा चिरमवस्थानमिति । तत्र कृतस्याऽविपक्वस्य नाशो यथा शुक्लकर्मोदयादिहैव नाशः कृष्णस्य, यत्रेमुक्तम् ---"द्वे द्वे ह वै कर्मणी वेदितव्ये पापकस्यैको राशिः पुण्यकृतोऽपहन्ति । तदिच्छस्व कर्माणि सुकृतानि कर्तुमिहैव ते कर्म कवयो वेदयन्ते।" प्रधानकर्मण्यावापगमनम् यत्रेदमुक्तम्- "स्यात्स्वल्परसंकरः सपरिहारस्सप्रत्यवमर्षः, कुशलस्य नापकर्षायालम्; कस्मात् ? कुशलं हि मे बह्वन्यदस्ति यत्रायमावापङ्गतस्स्वर्गेऽप्यपकर्षमल्पं करिष्यति" इति । नियतविपाकप्रधानकर्मणाभिभूतस्य वा चिरमवस्थानम्; कथमिति ? अदृष्टजन्मवेदनीयस्यैव नियतविपाकस्य कर्मणः समानं मरणमभिव्यक्तिकारणमुक्तम्, नत्वदृष्टजन्मवेदनीयस्यानियतविपाकस्य । यत्त्वदृष्टजन्मवेदनीयं कर्मानियतविपाकं तन्नश्येदावापं वा गच्छेदभिभूतं वा चिरमप्युपासीत यावत्समानं कर्माभिव्यञ्जक निमित्तमस्य न विपाकाभिमुखं करोतीति। तद्विपाकस्यैव देशकालनिमित्ता नवधारणादियं कर्मगतिविचित्रा दुर्विज्ञाना चेति । न चोत्सर्गस्यापवादान् निवृत्तिरिति एकभविकः कर्माशयोऽनुज्ञायत इति । ३. भ.५1११६-१२६॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.४: सू.१६१-१६६ १०० भगवई १६३. एस णं भंते ! पोग्गले अणागयं अणंतं सासयं समयं भविस्सतीति वत्तव्वं सिया? हंता गोयमा ! एस णं पोग्गले अणागयं अणंतं सासयं समयं भविस्सतीति वत्तव्वं सिया॥ एष भदन्त ! पुद्गलः अनागतम् अनन्तं १६३. भन्ते ! यह परमाणु अनन्त अनागत काल में शाश्वतं समयं भविष्यतीति वक्तव्यं स्यात् ? शाश्वत रहेगा, क्या ऐसा कहा जा सकता है ? हन्त गौतम ! एष पुद्गलः अनागतम् अनन्तं हां, गौतम ! यह परमाणु अनन्त अनागत काल में शाश्वतं समयं भविष्यतीति वक्तव्यं स्यात्। शाश्वत रहेगा, ऐसा कहा जा सकता है। १६४. एस णं भंते ! खंघे तीतं अणंतं सासयं समयं भुवीति वत्त सिया ? हंता गोयमा ! एस णं खंघे तीतं अणंतं सासयं समयं भुवीति वत्तव्बं सिया ॥ एष भदन्त ! स्कन्धः अतीतम् अनन्तं शाश्वतं १६४. भन्ते ! यह स्कन्ध अनन्त अतीतकाल में शाश्वत था, क्या ऐसा कहा जा सकता है ? हन्त गौतम ! एष स्कन्धः अतीतम् अनन्तं हां, गौतम ! यह स्कन्ध अनन्त अतीत काल में शाश्वतं समयम् अभूद् इति वक्तव्यं स्यात्। शाश्चत था, ऐसा कहा जा सकता है। १६५. एस णं भते ! खंघे पडुप्पण्णं सासर्य एष भदन्त ! स्कन्धः प्रत्युत्पत्रं शाश्वतं समयं १६५. भन्ते ! यह स्कन्ध वर्तमान काल में शाश्वत समयं भवतीति वत्तव्बं सिया ? भवतीति वक्तव्यं स्यात् ? रहता है, क्या ऐसा कहा जा सकता है ? हंता गोयमा ! एस णं खंघे पडुप्पण्णं सासयं । हन्त गौतम ! एष स्कन्धः प्रत्युत्पन्न शाश्वतं हां, गौतम ! यह स्कन्ध वर्तमान काल में शाश्वत समयं भवतीति वत्तव्बं सिया॥ समयं भवतीति वक्तव्यं स्यात् । रहता है, ऐसा कहा जा सकता है। १६६. एस णं भंते ! खंघे अणागयं अणंतं एष भदन्त ! स्कन्धः अनागतम् अनन्तं १६६. भन्ते ! यह स्कन्ध अनन्त अनागत काल में सासयं समयं भविस्सतीति वत्तव्वं सिया ? शाश्वतं समयं भविष्यतीति वक्तव्यं स्यात् ? शाश्वत रहेगा, क्या ऐसा कहा जा सकता है ? हंता गोयमा ! एस णं खंधे अणागयं अणंतं हन्त गौतम ! एष स्कन्धः अनागतम् अनन्तं हां, गौतम ! यह स्कन्ध अनन्त अनागत काल में सासयं समयं भविस्सतीति वत्तव्वं सिया || शाश्वतं समयं भविष्यतीति वक्तव्यं स्यात्। शाश्वत रहेगा, ऐसा कहा जा सकता है। १६७. एस णं भंते ! जीवे तीतं अणंतं सासयं समयं भुवीति वत्तवं सिया ? हंता गोयमा ! एस णं जीवे तीतं अणंतं सासयं समयं भुवीति वत्तव्वं सिया॥ एष भदन्त ! जीवः अतीतम् अनन्तं शाश्वतं १६७. भन्ते ! यह जीव अनन्त अतीतकाल में समयम् अभूद् इति वक्तव्यं स्यात् ? शाश्वत था, क्या ऐसा कहा जा सकता है ? हन्त गौतम ! एष जीवः अतीतम् अनन्तं हां, गौतम ! यह जीव अनन्त अतीत काल में शाश्वतं समयम् अभूद् इति वक्तव्यं स्यात्। शाश्वत था, ऐसा कहा जा सकता है। १६८. एस णं मंते ! जीवे पडुप्पण्णं सासयं समयं भवतीति क्त्तवं सिया ? हंता गोयमा ! एस णं जीवे पुडुप्पण्णं सासयं समयं भवतीति वत्तबं सिया।। एष भदन्त ! जीवः 'प्रत्युत्पन्न शाश्वतं समयं १६. भन्ते ! यह जीव वर्तमान काल में शाश्वत भवतीति वक्तव्यं स्यात् ? रहता है, क्या ऐसा कहा जा सकता है ? हन्त गौतम ! एष जीवः प्रत्युत्पन्नं शाश्वतं हां, गौतम ! यह जीव वर्तमान काल में शाश्वत समयं भवतीति वक्तव्यं स्यात्। रहता है, ऐसा कहा जा सकता है। १६६. एस णं भंते ! जीवे अणागयं अणंतं एष भदन्त ! जीवः अनागतम् अनन्तं शाश्वतं सासयं समयं भविस्सतीति वत्तव्वं सिया ? समयं भविष्यतीति वक्तव्यं स्यात् ? हंता गोयमा! एसणं जीवे अणागयं अणंतं हन्त गौतम ! एष जीवः अनागतम् अनन्तं सासयं समयं भविस्सतीति वत्तवं सिया ॥ शाश्वतं समयम् भविष्यतीति वक्तव्यं स्यात्। १६६. भन्ते ! यह जीव अनन्त अनागत काल में शाश्वत रहेगा, क्या ऐसा कहा जा सकता है ? हां, गौतम ! यह जीव अनन्त अनागत काल में शाश्वत रहेगा, ऐसा कहा जा सकता है। भाष्य १. सूत्र १६१-१६६ प्रस्तुत आलापक में पुद्गल और जीव की त्रैकालिकता का प्रतिपादन किया गया है। यह त्रैकालिकता अनन्त अतीत और अनन्त भविष्य से जुड़ी हुई त्रैकालिकता है। 'वह प्रातःकाल था, मध्याह्न में है और शाम को होगा'-यह भी त्रैकालिकता है। यहां यह विवक्षित नहीं है। इसलिए यहां अतीत और अनागत के साथ 'अनन्त' शब्द का प्रयोग किया गया है। द्रव्य त्रैकालिक होता है। पर्याय अल्पकालिक और दीर्घकालिक हो सकता है, किन्तु अनन्तकालिक नहीं होता; इसीलिए द्रव्य निरपेक्ष सत्य और पर्याय सापेक्ष सत्य हैं। सत्य के दो अर्थ हैं-१. अस्तित्व २. वार्तमानिक अभिव्यक्ति। यहां अस्तित्व-सत्य प्रतिपादित है। सत्य वह है, जो अनन्त अतीत में था, वर्तमान में है और अनन्त अनागत में रहेगा। उमास्वाति के अनुसार जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक है, वह Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ सत् पाक है और 'धौव्य' यह वाक्यांश II ने पञ्चास्तिकाय तथा भगवई सत् या सत्य है।' इस सूत्र में उत्पाद और व्यय' यह वाक्यांश सापेक्ष सत्य का प्रतिपादक है और 'ध्रौव्य' यह वाक्यांश निरपेक्ष सत्य का। अस्तिकाय के प्रकरण में पांच अस्तिकायों की त्रैकालिकता का प्रतिपादन किया गया है। प्रस्तुत आलापक में केवल जीव और पुद्गल इन दो द्रव्यों की त्रैकालिकता का प्रतिपादन है। धर्म, अधर्म और आकाश इन तीनों द्रव्यों का अस्तित्व है, पर स्थूल सृष्टि से इनका संबन्ध नहीं है। जीव और पुद्गल इन दो द्रव्यों का सृष्टिगत परिवर्तन के साथ सीधा सम्बन्ध है। ये दोनों सृष्टि के मूल घटक माने जा सकते हैं; इसलिए इन दो का ही उल्लेख किया गया है। अनुसन्धान की दृष्टि से प्रश्न कर लिया गया हो । श.१: उ.४: सू.१६१-२०१ उपस्थित किया जा सकता है-जीव और पुद्गल इन दो द्रव्यों को मानने की कोई प्राचीन परम्परा रही हो, उसके पश्चात् भगवान् महावीर ने पञ्चास्तिकाय तथा छह द्रव्यों का प्रतिपादन किया हो। प्रस्तुत आगम में उन दोनों परम्पराओं का समावेश कर लिया गया हो । शब्द-विमर्श पुद्गल -परमाणु स्कन्ध परमाणु-समूह शाश्वत -सदा विद्यमान समय-काल मोक्ख-पदं २००. छउमत्येणं मंते ! मणूसे तीतं अणंतं सासयं समयं केवलेणं संजमेणं, केवलेणं संवरेणं, केवलेणं बंभचेरवासेणं, केवलाहिं पवयणमायाहिं सिझिंसु ? बुझिंसु ? मुचिंसु ? परिनिबाइंसु ? सव्वदुक्खाणं अतं करिंसु ? गोयमा ! णो इणद्वे समढे ॥ मोक्ष-पदम् मोक्ष-पद छदमस्थः भदन्त ! मनुष्यः अतीतम् अनन्तं २००. 'भन्ते ! क्या छद्मस्थ मनुष्य इस अनन्त शाश्वतं समयं केवलेन संयमेन, केवलेन अतीत शाश्वत काल में केवल संयम, केवल संवरेण, केवलेन ब्रह्मचर्यवासेन, केवलाभिः संवर, केवल ब्रह्मचर्यवास और केवल प्रवचनमाता प्रवचनमातृभिः असिधत् ? 'बुझिंसु' ? अमु- के द्वारा सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त, परिनिर्वृत हुआ था, चत् ? परिनिरवासीत् ? सर्वदुःखानाम् अन्तम् उसने सब दुःखों का अन्त किया था ? अकार्षीत् ? गौतम ! नो अयमर्थः समर्थः। गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। २०१. से केणटेणं भंते ! एवं बुधइ- तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-छद्मस्थः २०१. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा छउमत्थे णं मणुस्से तीतं अणंतं सासयं मनुष्यः अतीतम् अनन्तं शाश्वतं समयं- है-छद्मस्थ मनुष्य अनन्त अतीत शाश्वत काल समयं केवलेणं संजमेणं, केवलेणं संव- केवलेन संयमेन, केवलेन संवरेण, केवलेन में केवल संयम, केवल संवर, केवल ब्रह्मचर्यवास रेणं, केवलेणं बंभचेरवासेणं, केवलाहिं पव- ब्रह्मचर्यवासेन, केवलाभिः प्रवचनमातृभिः नो और केवल प्रवचन-माता के द्वारा सिद्ध, प्रशान्त, यणमायाहिं नो सिज्झिंसु ? नो बुझिंसु? असिधत् ? नो 'बुझिंसु' ? नो अमुचत् ? मुक्त, परिनिर्वृत नहीं हुआ था, उसने सब दुःखों नो मुचिंसु ? नो परिनिव्वाइंस? नो सब्ब- नो परिनिरवासीत् ? नो सर्वदुःखानाम् अन्तम् का अन्त नहीं किया था ? दुक्खाणं अंतं करिसु? अकार्षीत् ? गोयमा ! जे केइ अंतकरा वा अंतिम- गौतम ! ये केचिद् अन्तकराः वा अन्तिम- गौतम ! जो भी अन्तकर अथवा अन्तिमशरीरी सरीरिया वा-सव्वदुक्खाणं अंतं करेंसुवा, शरीरिकाः वा–सर्वदुःखानाम् अन्तम् अका- हैं, जिन्होंने सब दुःखों का अन्त किया था, करते करेंति वा, करिस्संति वा-सवे ते उप्प- र्षुः वा, कुर्वन्ति वा, करिष्यन्ति वा सर्वे ते हैं और करेंगे वे सब उत्पन्नज्ञानदर्शनधर अर्हत्, ण्णणाणदसणधरा अरहा जिणा केवली उत्पत्रज्ञानदर्शनधराः अर्हाः जिनाः केवलिनः जिन और केवली होकर उसके पश्चात् सिद्ध, भवित्ता तओ पच्छा सिझंति, बुझंति, भूत्वा, ततः पश्चात् सिध्यन्ति, 'बुझंति', प्रशान्त, मुक्त, परिनिवृत्त हुए, उन्होंने सब दुःखों मुचंति, परिनिव्वायंति, सब्बदुक्खाणं अंतं मुञ्चन्ति, परिनिर्वान्ति, सर्वदुःखानाम् अन्तम् का अन्त किया, करते हैं और करेंगे। गौतम ! करेंसु वा, करेंति वा, करिस्संति वा। से अकार्षुः वा, कुर्वन्ति वा, करिष्यन्ति वा। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-छद्मस्थ तेणद्वेणं गोयमा ! एवं युचइ-छउमत्थे णं तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-छद्मस्थः मनुष्य अनन्त अतीत शाश्वत काल में केवल मणुस्से तीतं अणं सासयं समयं- मनुष्यः अतीतम् अनन्तं शाश्वतं समय- संयम, केवल संवर, केवल ब्रह्मचर्यवास, केवल केवलेणं संजमेणं, केवलेणं संवरेणं, केवलेणं केवलेन संयमेन, केवलेन संवरेण, केवलेन प्रवचन-माता के द्वारा सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त, बंभचेरवासेणं, केवलाहिं पवयणमायाहि नो ब्रह्मचर्यवासेन, केवलाभिः प्रवचनमातृभिः नो परिनिर्वत नहीं हुए थे,उन्होंने सब दुःखों का अंत सिझिंसु, नो बुझिंसु, नो मुचिंसु, नो असिधत्, नो 'बुझिंसु', नो अमुचत्, नो परि- नहीं किया था। परिनिव्वाइंसु, नो सबदुक्खाणं अंतं करि- निरवासीत्, नो सर्वदुःखानाम् अन्तम् अका सु॥ र्षीत् । ३. भ.वृ.११६१-परमाणुरुत्तरत्रस्कन्धग्रहणात् । १. त.सू.५.३०-उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकं सत् । २. भ.२/१२४-१२) Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.४: सू.२०२-२०८ १०२ भगवई २०२. पड़प्पण्णे वि एवं चेव, नवरं-सिझं- ति भाणियब्वं ॥ प्रत्युत्पन्नेऽपि एवं चैव, नवरं-सिध्यति २०२. वर्तमान काल में भी इसी प्रकार ज्ञातव्य है। भणितव्यम्। केवल सिद्ध होता है-यह वर्तमानकालीन क्रिया-पद वक्तव्य है। २०३. अणागए वि एवं चेव, नवरंसिज्झिस्संति भाणियत्वं ॥ अनागतेपि एवं चैव, नवरं-सेत्स्यति २०३. भविष्यकाल में भी इसी प्रकार ज्ञातव्य है । भणितव्यम्। केवल सिद्ध होगा—यह भविष्यकालीन क्रिया-पद वक्तव्य है। २०४. जहा छउमत्थो तहा आहोहिओ वि, यथा छद्मस्थः तथा आधोऽवधिकः अपि, २०४. छद्मस्थ मनुष्य की भांति आधोवधिक (देशातहा परमाहोहिओ वि। तिण्णि तिण्णि तथा परमाधोवधिकोऽपि । त्रयस्त्रयः आला- वधि-युक्त) और परमाधोवधिक (सर्व-अवधिआलावगा भाणियव्वा ॥ पकाः भणितव्याः। -युक्त) के भी तीन-तीन आलापक वक्तव्य हैं। २०५. केवली णं भंते ! मणसे तीतं अणंतं केवली भदन्त ! मनुष्यः अतीतम् अनन्तं २०५. भन्ते ! क्या केवली मनुष्य इस अनन्त अतीत सासयं समयं सिझिंसु ? बुजिंसु ? मुचिं- शाश्वतं समयम् असिधत् ? 'बुझिंसु' ? शाश्वत काल में सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त, परिनिर्वृत सु? परिनिव्वाइंसु ? सब्बदुक्खाणं अंतं अमुचत् ? परिनिरवासीत् ? सर्वदुःखानाम् हुआ था, उसने सब दुःखों का अन्त किया था? करिंसु? अन्तम् अकार्षीत् ? हंता गोयमा ! केवली णं मणूसे तीतं अणंतं हन्त गौतम ! केवली मनुष्यः अतीतम् अनन्तं हां, गौतम ! केवली मनुष्य अनन्त अतीत शाश्वत सासयं समयं सिज्झिंसु, बुझिंसु, मुचिंसु, शाश्वतं समयम् असिधत्, 'बुझिंसु' अमुचत्, काल में सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त, परिनिर्वृत हुआ था, परिनिव्वाइंसु, सबदुक्खाणं अंतं करिसु॥ परिनिरवासीत्, सर्वदुःखानाम् अन्तम् अका- उसने सब दुःखों का अन्त किया था। र्षीत्। २०६. केवली णं भंते ! मणूसे पडुप्पण्णं केवली भदन्त ! मनुष्यः प्रत्युत्पन्नं शाश्वतं २०६. भन्ते ! क्या केवली मनुष्य वर्तमान शाश्वत सासयं समयं सिझंति ? बुझंति ? मुचं- समयं सिध्यति ? 'बुझंति' ? मुञ्चति ? काल में सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त, परिनिर्वृत होता है, ति ? परिनिव्वायंति ? सब्बदुक्खाणं अंतं परिनिर्वाति ? सर्व दुःखानाम् अन्तं करोति? सब दुःखों का अन्त करता है ? करेंति ? हंता गोयमा ! केवली णं मणूसे पडुप्पण्णं हन्त गौतम ! केवली मनुष्यः प्रत्युत्पन्नं शाश्वतं सासयं समयं सिझंति, बुझंति, मुचंति, समयं सिध्यति, 'बुझंति', मुञ्चति, परि- परिनिव्वायंति, सबदुक्खाणं अंतं करेति ॥ निर्वाति, सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति। हां, गौतम ! केवली मनुष्य वर्तमान शाश्वत काल में सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त, परिनिर्वृत होता है, सब दुःखों का अन्त करता है। २०७. केवली णं भंते ! मणूसे अणागयं केवली भदन्त ! मनुष्यः अनागतम् अनन्तं २०७. भन्ते ! क्या केवली मनुष्य अनन्त अनागत अणंतं सासयं समयं सिज्झिस्संति ? बुज्झि- शाश्वतं समयं सेत्स्यति ? 'बुझिस्संति' ? शाश्वत काल में सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त, परिनिर्वृत स्सति? मुचिस्सति ? परिनिव्वाइस्संति? मोक्ष्यति ? परिनिर्वास्यति ? सर्वदुःखानाम् होगा, सब दुःखों का अन्त करेगा ! सबदुक्खाणं अंतं करिस्संति ? अन्तं करिष्यति ? हंता गोयमा ! केवली णं मणूसे अणागयं हन्त गौतम ! केवली मनुष्यः अनागतम् हां, गौतम ! केवली मनुष्य अनन्त अनागत अणंतं सासयं समयं सिज्झिस्संति, अनन्तं शाश्वतं समयं सेत्स्यति, 'बुज्झिस्संति', शाश्वत काल में सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त, परिनिर्वृत बुझिस्संति, मुचिस्संति, परिनिव्वाइस्संति, मोक्ष्यति, परिनिर्वास्यति, सर्वदुःखानाम् अन्तं होगा, सब दुःखों का अन्त करेगा। सबदुक्खाणं अंतं करिस्संति ॥ करिष्यति । २०८. से नूणं भंते ! तीतं अणंतं सासयं अथ नूनं भदन्त ! अतीतम् अनन्तं शाश्वतं २०८. भन्ते ! इस अनन्त अतीत शाश्वत काल में, समयं, पडुप्पण्णं वा सासयं समयं, अणागयं समय, प्रत्युत्पन्नं वा शाश्वतं समय, अनागतम् वर्तमान शाश्वत काल में और अनन्त अनागत अणंतं वा सासयं समयं जे केइ अंतकरा अनन्तं वा शाश्वतं समयं ये केचिद् अन्तकराः शाश्वत काल में जो भी अन्तकर अथवा अन्तिमवा अंतिमसरीरिया वा सबदुक्खाणं अंतं वा अन्तिमशरीरिकाः वा सर्वदुःखानाम् अन्तम् शरीरी हैं, जिन्होंने सब दुःखों का अन्त किया करेंसु वा, करेंति वा, करिस्संति वा, सब्वे अकार्षः वा, कुर्वन्ति वा, करिष्यन्ति वा, सर्वे था, करते हैं अथवा करेंगे, क्या वे सब ते उप्पण्णणाणदंसणधरा अरहा जिणा ते उत्पन्नज्ञानदर्शनधराः अर्हाः जिनाः केवलि- उत्पन्नज्ञानदर्शन के धारक अर्हत्, जिन और केवली भक्त्तिा तओ पच्छा सिझंति ? नः भूत्वा ततः पश्चात् सिध्यन्ति? 'बुझंति'? केवली होकर उसके पश्चात् सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त, Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १०३ श.१: उ.४: सू.२००-२०६ बुझंति ? मुचंति ? परिनिव्वायंति ? सव्व- मुञ्चन्ति ? परिनिर्वान्ति ? सर्वदुःखानाम् परिनिर्वृत होते हैं ? उन्होंने सब दुःखों का अन्त दुक्खाणं अंतं करेंसु वा, करेंति वा, करि- अन्तम् अकार्षुः वा ? कुर्वन्ति वा ? करि- किया था, करते हैं अथवा करेंगे? स्संति वा ? ष्यन्ति वा? हंता गोयमा ! तीतं अणंतं सासयं समयं, हन्त गौतम ! अतीतम् अनन्तं शाश्वतं समयं, हां, गौतम ! इस अनन्त अतीत शाश्वत काल में, पडुप्पण्णं वा सासयं समयं, अणागयं अणंतं प्रत्युत्पन्न वा शाश्वतं समयं, अनागतम् अनन्तं वर्तमान शाश्वत काल में और अनन्त अनागत वा सासयं समयं जे केइ अंतकरा वा वा शाश्वतं समयं ये केचिद् अन्तकराः वा शाश्वत काल में जो भी अन्तकर अथवा अन्तिमअंतिमसरीरिया वा सब्बदुक्खाणं अंतं करेंसु अन्तिमशरीरिकाः वा सर्वदुःखानाम् अन्तम् शरीरी हैं, जिन्होंने सब दुःखों का अन्त किया वा, करेंति वा, करिस्संति वा, सब्बे ते अकार्षः वा, कुर्वन्ति वा, करिष्यन्ति वा, सर्वे था, करते हैं अथवा करेंगे, वे सब उत्पन्नज्ञानउप्पण्णणाणदंसणधरा अरहा जिणा केवली ते उत्पन्नज्ञानदर्शनधराः अर्हाः जिनाः केव- दर्शन के धारक अर्हत्, जिन और केवली होकर भवित्ता तओ पच्छा सिझंति, बुझंति, लिनः भूत्वा ततः पश्चात् सिध्यन्ति, 'बुज्झंति', उसके पश्चात् सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त, परिनिर्वृत होते मुचंति, परिनिव्वायंति, सबदुक्खाणं अंतं मुञ्चन्ति, परिनिर्वान्ति, सर्वदुःखानाम् अन्तम् । हैं, उन्होंने सब दुःखों का अन्त किया था, करते करेंसु वा, करेंति वा, करिस्संति वा ॥ अकार्षः वा, कुर्वन्ति वा, करिष्यन्ति वा। हैं अथवा करेंगे। २०६. से नूणं भंते ! उप्पण्णणाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली, अलमत्यु त्ति क्त्तव्यं सिया? हंता गोयमा ! उप्पण्णणाणसणघरे अरहा जिणे केवली, अलमत्थुत्ति वत्तव्वं सिया ॥ अथ नूनं ! भदन्त ! उत्पत्रज्ञानदर्शनधराः २०६. भन्ते ! उत्पन्नज्ञानदर्शन के धारक अर्हत्, अर्हाः जिनाः केवलिनः, अलमस्तु इति वक्तव्यं जिन और केवली को 'अलमस्तु' ऐसा कहा जा स्यात् ? सकता है ? हन्त गौतम ! उत्पन्नज्ञानदर्शनधराः अर्हाः हां, गौतम ! उत्पन्नज्ञानदर्शन के धारक अर्हत्, जिनाः केवलिनः, अलमस्तु इति वक्तव्यं जिन और केवली को 'अलमस्तु' ऐसा कहा जा स्यात्। सकता है। भाष्य १. सूत्र २००-२०६ प्रस्तुत आलापक में मुक्त होने की अर्हता पर विचार किया गया है। मनुष्य दो प्रकार के होते हैं-छद्मस्थ और केवली। जिसके ज्ञान का आवरण विद्यमान रहता है, वह छद्मस्थ है और जिसके ज्ञान का आवरण क्षीण हो जाता है, वह केवली है। छद्मस्थ मुक्त नहीं हो सकता, केवली ही मुक्त हो सकता है—यह भगवान् महावीर का सिद्धान्त है। सांख्य दर्शन' और बौद्ध दर्शन में मुक्त होने के लिए ज्ञान की अर्हता का नियम नहीं है। जिसके क्लेश या आसव क्षीण हो जाते हैं, वह केवली हुए बिना भी मुक्त हो सकता है। इस दार्शनिक अवधारणा के सन्दर्भ में गौतम ने प्रश्न पूछा और महावीर ने उसका उत्तर दिया। भगवान् महावीर के अनुसार आस्रव या क्लेश के क्षीण हो जाने पर व्यक्ति वीतराग हो सकता है, मुक्त नहीं हो सकता। संयम, संवर, ब्रह्मचर्यवास और प्रवचन-माता की आराधना ये मुक्त होने के परम्पर कारण हैं, किन्तु कोई भी जीव केवली हुए बिना मुक्त नहीं हो सकता। सामान्य ज्ञानी की बात ही क्या, परम अवधिज्ञान वाला व्यक्ति भी मुक्त नहीं हो सकता। शब्द-विमर्श केवल-वृत्तिकार ने यहां 'केवल' शब्द के चार अर्थों की सम्भावना की है-असहाय, शुद्ध, परिपूर्ण, असाधारण । 'विशेषावश्यक भाष्य में इसका पांचवां अर्थ मिलता है-अनन्त । १. (क) पा.यो.द.४ ॥३२-विज्ञानभिक्षुविरचित योगवार्त्तिकम् - इदमत्रावधे- यम्-यदेताभ्यां सूत्राभ्यां ज्ञानस्यानन्यात् सार्वझ्याख्यान् मोक्ष उच्यत इदं मुख्यकल्पाभिप्रायेणोक्तम्, वैराग्यादेव सुखेन मोक्षसिद्धेः, न तु सार्वझ्यादिकं विना मोक्षो न भवतीत्याशयेन, यतः सत्वपुरुषयोः शुद्धिसाम्ये कैवल्यमिति सूत्रे भाष्यकृता-ईश्वरस्यानीश्वरस्य प्राप्तविवेकज्ञानस्येतरस्य वेत्यनेनासर्वज्ञस्याप्यभिमाननिवृत्तिमात्रादेव मोक्ष उक्त इति। संसारबीजं ह्यनात्मन्यात्म- रूपाऽविद्या, रागद्वेषधर्माधर्मतद्विपाकादिहेतुत्वात्, सा चेद्विवेकख्यात्या नाशिता तर्हि तत एव संसारोच्छेदे सार्वइयाद्यपेक्षा नास्तीति । (ख) सूत्र.चू.प.२६-तच्चण्णियाणं उवासगा वि सिझंति, आरोप्यगा वि अणागमणधम्मिणो य देवा ततो चेव णिव्वंति। सांख्यानामपि गृहस्थाः अप- वर्गमाप्नुवन्ति। २. अभिधर्मकोश, प्रथम कोशस्थान १ का वसुबन्धुकृत स्वोपज्ञभाष्य, पृ.१ अज्ञानं हि भूतार्थदर्शनप्रतिबन्धादन्धकारम् । तच्च भगवतो बुद्धस्य प्रतिपक्षलाभेनात्यन्तं सर्वथा सर्वत्र ज्ञेये पुनरनुत्पत्तिधर्मत्वाद्धतम् । अतोऽसौ सर्वथा सर्वहतान्धकारः। प्रत्येकबुद्धश्रावका अपि कामं सर्वत्र हतान्धकाराः। क्लिष्टसम्मोहात्यन्तविगमात् । न तु सर्वथा। तथा ह्येषां बुद्धधर्मेष्वतिविप्रकृष्ट देशकालेषु अर्थेषु चानन्तप्रभेदेषु च भवत्येवक्लिष्टमज्ञानम् । ३. भ.वृ.१।२००–'केवलेणं' ति असहायेन शुद्धेन वा परिपूर्णेन वाऽसाधारणेन वा। ४. वि.भा.ज्ञानपंचकम्,गा.८४(भा.१,पृ.२२)- केवलमेगं सुद्धं सगलमसाहारणं अणंतं च । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.४ः सू.२००-२१० १०४ भगवई संयम-इन्द्रियमनोनिग्रह अथवा सतरह प्रकार का संयम ।' मन के माध्यम से होते हैं। इसलिए उन्हें परोक्ष ज्ञान, सहायसापेक्ष ज्ञान, संवर-इन्द्रिय और कषाय का निरोध ।' अविशदज्ञान और व्यवहित ज्ञान कहा जाता है। अवधि, मनःपर्यव और केवल ये तीनों प्रत्यक्ष ज्ञान हैं। ये सहायनिरपेक्ष होते हैं। इसलिए ब्रह्मचर्यवास-इसका एक अर्थ है गुरुकुलवास अथवा प्रव्रजित इन्हें विशद, अव्यवहित और आत्मसमुत्थ कहा जाता है। ठाणं में जीवन में रहना। ठाणं में मुनि-प्रव्रज्या के पश्चात् ब्रह्मचर्यवास का उल्लेख अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी और केवलज्ञानी इन तीनों को जिन, केवली मिलता है। इससे इसका अर्थ मुनि-जीवन की साधना फलित होता है।" और अर्हत् बतलाया गया है। ये तीनों ही उत्पन्नज्ञानदर्शनधर होते दस प्रकार के यतिधर्म में भी ब्रह्मचर्यवास का उल्लेख है। इसका अर्थ हैं, किन्तु यहां 'केवली' 'छद्मस्थ' का प्रतिपक्ष है तथा अवधिज्ञानी का 'कामभोगविरति, कामोद्दीपक वस्तुओं तथा दृश्यों का वर्जन और गुरु छमस्थ की भांति वर्णन भी किया गया है; इसलिए केवलज्ञानी ही की आज्ञा का पालन' किया गया है।' विवक्षित है। प्रवचनमाता-पांच समितियां और तीन गुप्तियां, इन्हें प्रवचनमाता आपोवधिक दैशिक अवधिज्ञानी, परिमित क्षेत्र-विषयक कहा जाता है। अवधिज्ञान-सम्पन्न ।" अन्तकर-जन्म-मरण की परम्परा का अन्त करने वाला। परमापोवधिक उत्कृष्ट अवधिज्ञानी. सर्व रूपी द्रव्यों को जानने अंतिमशरीरी जिस शरीर से जीव मुक्त होता है अथवा जिसके । वाला अवधिज्ञानी।" पश्चात् अन्य शरीर का निर्माण नहीं होता, उस शरीर को अंतिम शरीर' ___ अलमस्तु-जो ज्ञान की परमकोटि तक पहुंच चुका है, जिसके और उस शरीरधारी को 'अन्तिमशरीरी' कहा जाता है।' लिए कोई ज्ञान पाना शेष न हो, उसे अलमस्तु कहा जाता है। प्रस्तुत उत्पन्नज्ञानदर्शनघर–'उत्पन्न' का अर्थ 'आत्मसमुत्थ है । मतिज्ञान आलापक भ.५।११५ तथा ७।१५६,१५७ में भी उपलब्ध है। और श्रुतज्ञान का सम्बन्ध सीधा आत्मा से नहीं होता, वे इन्द्रिय और २१०. सेवं मंते ! सेवं भंते ! तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! २१०.भन्ते! वह ऐसा ही है, भन्ते! वह ऐसा ही है। १. सम.१७/२। २. ठाणं,५११३७,६१५८1११% १०1१०। ३. (क) सूय.१११४११___ गंथं विहाय इह सिक्खमाणो उहाय सुबंभचेर बसेज्जा । (ख) सूय.२।१।५४ एतेसिं चेव णिस्साए बंभचेरवासं वसिस्सामो। ४. ठाणं,२।४३, ४४। ५. द्रष्टव्य, ठाणं,१०1१६ का टिप्पण; त.रा.वा.६/६,पृ.६००। ६. उत्तर.अ.२४। ७. भ.वृ.१।२०१–'अन्तकरे'ति भवान्तकारिणः । १. वही,१।२०१–'अंतिमसरीरिया वत्ति अन्तिमं शरीरं येषामस्ति तेऽन्तिम शरीरिकाः चरमदेहा इत्यर्थः। ६. आव.चू.पृ.२२१-पच्चक्खनाणाणि आयसमुत्थाणि पसत्थेहिं अज्झवसाणेहि लेस्साहिं विसुज्झमाणाहिं उप्पजन्ति। १०. ठाणं,३।१२५१४। ११. भ.बृ.१।२०४-तत्राधः-परमावधेरधस्ताद् योऽवधिः सोऽधोऽवधिस्तेन यो व्यवहरत्यसी आधोऽवधिकः परिमितक्षेत्रविषयावधिकः । १२. वही,१।२०४परम आधोऽवधिकाद् यः स परमाधोऽवधिकः, प्राकृतत्वाम्च व्यत्ययनिर्देशः । 'परमोहिओ'त्ति क्वचित्पाठो व्यक्तश्च । स च समस्तरूपिद्रव्यासंख्यातलोकमात्रा लोकखण्डासंख्यातावसर्पिणीविषयावधिज्ञानः । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुढवि-पदं पंचमो उद्देसो : पांचवां उद्देशक संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद पृथिवी-पदम् पृथ्वी-पद २११. कति णं भंते ! पुढवीओ पण्ण- कति भदन्त ! पृथिव्यः प्रज्ञप्ताः ? २११. भन्ते ! पृथ्वियां कितनी प्रज्ञप्त हैं ? त्ताओ? गोयमा ! सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ, तं गौतम ! सप्त पृथिव्यः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा- गौतम ! पृथ्वियां सात प्रज्ञप्त हैं, जैसे-रलप्रभा, जहा–रयणप्पभा, सकरप्पभा, बालुय- रलप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पङ्क- शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, प्पभा, पंकप्पभा, धूमप्पमा, तमप्पभा, प्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा, तमस्तमाः। तमःप्रभा, तमस्तमाः। तमतमा॥ भाष्य १. पृथ्वियां क्षेत्र की दृष्टि से लोक तीन भागों में विभक्त है-ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक । अधोलोक में सात पृथ्वियां बतलाई गई हैं। २१२. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुटवीए अस्यां भदन्त ! रलप्रभायां पृथिव्यां कति २१२. 'भन्ते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कितने लाख कति निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता? निरयावासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि ? नरकावास प्रज्ञप्त हैं ? गोयमा ! तीसं निरयावाससयसहस्सा गौतम ! त्रिंशन् निरयावासशतसहस्राणि गौतम ! रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावास पण्णत्ता । प्रज्ञप्तानि । प्रज्ञप्त हैं। संगहणी गाहा संग्रहणी गाथा संग्रहणी गाथा तीसा य पत्रवीसा, पत्ररस दसेव या सयसहस्सा। तिनेगं पंचूर्ण, पंचेच अणुत्तरा निरया ॥१॥ त्रिंशच् च पञ्चविंशतिः, पञ्चदश दश एव च शतसहस्राणि । त्रीण्येकं पञ्चोनं, पञ्चैव अनुत्तराः निरयाः॥ सातों पृथ्वियों के नरकावास क्रमशः इस प्रकार हैं-१. तीस लाख २. पच्चीस लाख ३. पंद्रह लाख ४. दस लाख ५. तीन लाख ६. निनानवें हजार नौ सौ पिचानवे ७. पांच अनुत्तर नरकावास। आवास-पदं आवास-पदम् आवास-पद २१३. केवइया णं भंते ! असुरकुमारा- वाससयसहस्सा पण्णता ? गोयमा ! चोयट्ठी असुरकुमारावाससय- सहस्सा पण्णत्ता। कियन्ति भदन्त ! असुरकुमारावास शत- २१३. भन्ते ! असुरकुमारों के कितने लाख आवास सहस्राणि प्रज्ञप्तानि ? प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! चतुःषष्टिः असुरकुमारावास शत- गौतम ! असुरकुमारों के चौसठ लाख आवास सहस्राणि प्रज्ञप्तानि। प्रज्ञाप्त हैं। संगहणी गाहा संग्रहणी गाथा संग्रहणी गाथा एवंचोयही असुराणं, चउरासीई य होइ नागाणं। बावत्तरि सुवण्णाणं, वाउकुमाराण छनउई ॥१॥ एवंचतुःषष्टिः असुराणां, चतुरशीतिः च भवति नागानाम् । द्विसप्ततिः सुपर्णानां, वायुकुमाराणां षण्णवतिः ॥ इस प्रकार---- असुरकुमारों के चौसठ लाख, नागकुमारों के चौरासी लाख, सुपर्णकुमारों के बहत्तर लाख, वायुकुमारों के छियानवें लाख। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ भगवई श.१: उ.५: सू.२१३-२१५ दीव-दिसा-उदहीण विज्ञकमारिंद-थणियमग्गीणं। छण्हं पि जुयलयाणं, छावत्तरिमो सयसहस्सा ॥२॥ द्वीप-दिशा-उदधीनाम्, विद्युत्कुमारेन्द्र-स्तनितानीनाम् । षण्णामपि युगलकानाम्, षट्सप्ततिः शतसहस्राणि॥ द्वीपकुमार, दिशाकुमार, उदधिकुमार, विद्युत्कुमार, स्तनितकुमार और अग्निकुमार--इन छहों युगलों के छिहत्तर लाख आवास हैं। २१४. केवइया णं मंते ! पुढविक्काइया- कियन्ति भदन्त ! पृथिवीकायिकावासशत- २१४. भन्ते ! पृथ्वीकायिक जीवों के कितने लाख वाससयसहस्सा पण्णत्ता ? सहस्राणि प्रज्ञप्तानि? आवास प्रज्ञप्त हैं ? गोयमा ! असंखेजा पुटविक्काइयावाससय- गौतम ! असंख्येयानि पृथिवीकायिकावास- गौतम ! पृथ्वीकायिक जीवों के असंख्येय लाख सहस्सा पण्णत्ता जाव असंखिजा जोइसिय- शतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि यावद् असंख्येयानि आवास प्रज्ञप्त हैं यावत् ज्योतिष्क देवों के विमाणा वाससयसहस्सा पण्णत्ता। ज्योतिषिकविमानावासशतसहस्राणि प्रज्ञ- असंख्येय लाख विमानावास प्रज्ञप्त हैं। प्तानि। २१५. सोहम्मे णं भंते ! कप्पे कति विमा- सौधर्मे भदन्त ! कल्पे कति विमाना- २१५. भन्ते ! सौधर्म कल्प में कितने लाख विमानाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता? वासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि ? वास प्रज्ञाप्त हैं ? गोयमा ! बत्तीसं विमाणावाससयसहस्सा गौतम ! द्वात्रिंशद् विमानावासशतसहस्राणि गौतम ! उसमें बत्तीस लाख विमानावास प्रज्ञप्त पण्णत्ता॥ प्रज्ञप्तानि। संगहणी गाहा संग्रहणी गाया संग्रहणी गाथा एकबत्तीसट्ठावीसा, बारस-अट्ठ-चउरो सयसहस्सा। पन्ना-चत्तालीसा, छच सहस्सा सहस्सारे ॥१॥ एवम्द्वात्रिंशदष्टविंशतिः, द्वादश-अष्ट-चतुः शतसहस्राणि। पञ्चाशत् चत्वारिंशत्, षट् च सहस्राणि सहवारे ॥ इस प्रकारसौधर्म में बत्तीस लाख, ईशान में अट्ठाईस लाख, सनत्कुमार में बारह लाख, माहेन्द्र में आठ लाख, ब्रह्म में चार लाख, लान्तक में पचास हजार, शुक्र में चालीस हजार, सहस्रार में छह हजार विमान आणय-पाणयकप्पे, चत्तारि सयारणचुए तिण्णि। सत्त विमाणसयाई, चउसु वि एएसु कप्पेसु ॥२॥ आनत-प्राणत कल्पे, चत्वारि शतानि आरणाच्युते त्रीणि। सप्त विमानशतानि, चतुर्वपि एतेषु कल्पेषु ॥ आनत और प्राणत कल्प में चार सौ तथा आरण और अच्युत कल्प में तीन सौ विमान हैं। इन चार कल्पों में सात सौ विमान हैं। एकारसुत्तरं हेट्ठिमए, सत्तुत्तरं सयं च मज्झमए। सयमेगं उवरिमए, पंचेव अणुत्तरविमाणा॥३॥ एकादशोत्तरं अधस्तने सप्तोत्तरं शतं च मध्यमके। शतमेकं उपरितने, पञ्चैव अनुत्तरविमानानि॥ अधस्तन ग्रैवेयक-त्रिक में एक सौ ग्यारह विमान हैं, मध्यम ग्रेवेयक-त्रिक में एक सौ सात विमान हैं और ऊपर के ग्रैवेयक-त्रिक में सौ विमान हैं। अनुत्तर विमान पांच ही हैं। नेरइयाणं नाणादसासु कोहोवउत्तादि-भंग-पदं नैरयिकाणां नानादशासु क्रोधोपयुक्तादि- नैरपिकों का नानादशाओं में क्रोधोपयुक्त -आदि-भंग-पद -भंग-पदम् पुढवी द्विति-ओगाहणसरीर-संघयणमेव संठाणे। लेस्सा दिट्ठी णाणे, जोगुवओगे य दस ठाणा ॥४॥ पृथिवीषु स्थिति-अवगाहनाशरीर-संहननमेव संस्थानम् । लेश्या दृष्टिः ज्ञानम्, योगोपयोगी च दश स्थानानि ॥ रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों में स्थिति-स्थान, अव गाहन, शरीर, संहनन, संस्थान, लेश्या, दृष्टि, ज्ञान, योग और उपयोग–ये दश स्थान इस उद्देशक में वर्णित हैं। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १. सूत्र २१२-२१५ प्रस्तुत आलापक में आवासों की संख्या का निरूपण है । आवास एक प्रकार की वसति या नगर है। इन आवासों के पीछे कुछ विशेषण भी लगते हैं। व्यन्तर देवों के आवास 'नगरावास' भवनपति देवों के आवास 'भवनावास', ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के आवास 'विमानावास' कहलाते हैं। तिलोयपण्णत्ती में नरक के आवासों को 'बिल' कहा गया है।' वृत्तिकार ने रहने योग्य स्थान भवनपतिदेव १. असुरकुमार २. नागकुमार ३. सुपर्णकुमार ४. वायुकुमार ५. द्वीपकुमार ६. दिशाकुमार ७. उदधिकुमार ८. विद्युत्कुमार ६. स्तनितकुमार १०. अग्रिकुमार २१६. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयस हस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि नेरइयाणं केवइया ठितिट्ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जा ठितिट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा जहण्णिया ठिती, समयाहिया जहण्णिया ठिती, दुसमयाहिया जहणिया ठिती जाव असंखेजसमयाहिया जहण्णिया ठिती । तप्पाउग्गुक्कोसिया ठिती ॥ संयुक्त १०७ ६४ लाख ८४ लाख ७२ लाख ६६ लाख ७६ लाख ७६ लाख ७६ लाख ७६ लाख ७६ लाख ७६ लाख भाष्य को आवास बतलाया है।' २. युगलों १. स्थिति - स्थान स्थिति-स्थान का अर्थ है - आयुष्य का विभाग । प्रत्येक नरकावास में असंख्येय स्थिति-स्थान बतलाए गए हैं। प्रथम पृथ्वी १. ति.प.२ । २८,३६ । २. भ. वृ. १ । २१२ - आवसन्ति येषु ते आवासाः नरकाश्च ते आवासाश्चेति नरकावासाः । ३. वही, २१ । २१३ - दक्षिणोत्तर - दिग्भेदेनासुरादिनिकायो द्विभेदो भवतीति भवनपति देवों के आवास उत्तर और दक्षिण दोनों दिशाओं में विभक्त हैं। 'युगल' शब्द उन दोनों के लिए प्रयुक्त हुआ है। सभी भवनपति देवों के आवासों की संयुक्त और पृथक्-पृथक् संख्या इस प्रकार है दक्षिण अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां त्रिंशत्षु निरयावासशतसहस्रेषु एकैकस्मिन् निरयावासे नैरयिकाणां कियन्ति स्थितिस्थानानि प्रज्ञतानि ? गौतम ! असंख्येयानि स्थितिस्थानानि प्रज्ञप्तानि तद् यथा— जघन्यिका स्थितिः, समयाधिका जघन्यिका स्थितिः, द्विसमयाधिका जघन्यिका स्थितिः यावत् असंख्येयसमयाधिका जघन्यिका स्थितिः । तत्प्रायोग्योत्कर्षका स्थितिः । भाष्य ३४ लाख ४४ लाख ३८ लाख ५० लाख ४० लाख ४० लाख ४० लाख ४० लाख ४० लाख ४० लाख ३. पृथ्वियों में यहां 'पुढवी' शब्द विभक्ति-रहित है। यह सप्तमी विभक्ति के बहुवचन के अर्थ में प्रयुक्त है। इसका तात्पर्यार्थ है— पृथ्वी आदि जीवावासों में । " श.१: उ.५ः सू.२१२-२१६ उत्तर ३० लाख ४० लाख ३४ लाख ४६ लाख ३६ लाख ३६ लाख ३६ लाख ३६ लाख ३६ लाख ३६ लाख २१६. भन्ते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से प्रत्येक नरकावास में रहने वाले 'नैरयिकों के कितने स्थिति-स्थान' ( आयु-विभाग) प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! उनके स्थिति-स्थान असंख्येय प्रज्ञप्त हैं, जैसे—जघन्य स्थिति, एक समय अधिक जघन्य स्थिति, दो समय अधिक जघन्य स्थिति यावत् असंख्येय समय अधिक जघन्य स्थिति । विवक्षित नरकावास के प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थिति । की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की है। 'दस हजार वर्ष की स्थिति' – यह प्रथम स्थिति-स्थान है। युगलान्युक्तानि । ४. वही, १ । २१५ -- तत्र पुढवीति लुप्तविभक्तिकत्वान् निर्देशस्य पृथिवीषु, उपलक्षणत्वाच्चास्य पृथिव्यादिषु जीवावासेष्विति द्रष्टव्यमिति ! Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.५: सू.२१६,२१७ १०८ भगवई 'एक सागरोपम की स्थिति'-यह अन्तिम स्थिति-स्थान है। एक-एक समय की वृद्धि करने पर मध्यवर्ती स्थिति-स्थान असंख्येय बन जाते हैं। प्रथम पृथ्वी के नरकावासों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अनेक प्रकार की है।' l २१७. इमीसे णं भंते ! रयणपभाए पुटवीए अस्यां भदन्त ! रलप्रभायां पृथिव्यां त्रिंशत्षु २१७. 'भन्ते ! इस रलप्रभा पृथ्वी के तीस लाख तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगसि निरयावासशतसहस्त्रेषु एकैकस्मिन् निरयावासे नरकावासों में प्रत्येक नरकावास में जघन्य स्थिति निरयावासंसि जहणियाए ठितीए बट्टमाणा जघन्यिकायां स्थितौ वर्तमानाः नैरयिकाः में वर्तमान नैरयिक जीव क्या क्रोधोपयुक्त होते नेरइया किं-कोहोवउत्ता? माणोवउत्ता? किं-क्रोधोपयुक्ताः ? मानोपयुक्ताः ? मायो- हैं ? मानोपयुक्त होते हैं ? मायोपयुक्त होते हैं ? मायोवउत्ता? लोभोवउत्ता? पयुक्ताः ? लोभोपयुक्ताः? लोभोपयुक्त होते हैं ? गोयमा ! सब्वे वि ताव होजा १.कोहो- गौतम ! सर्वेपि तावत् भवेयुः १.क्रोधो- गौतम ! वे सब नैरयिक होते हैं १.क्रोधोपयुक्त। वउत्ता। २.अहवा कोहोवउत्ता य, पयुक्ताः । २.अथवा क्रोधोपयुक्ताश्च मानो- २.अथवा क्रोधोपयुक्त, एक मानोपयुक्त। ३. माणोवउत्ते य। ३.अहवा कोहोवउत्ता य, पयुक्तश्च ३.अथवा क्रोधोपयुक्ताश्च मानो- अथवा क्रोधोपयुक्त, मानोपयुक्त । ४.अथवा माणोवउत्ता य। ४.अहवा कोहोवउत्ता य, पयुक्ताश्च । ४.अथवा क्रोधोपयुक्ताश्च क्रोधोपयुक्त, एक मायोपयुक्त। ५.अथवा क्रोधोमायोवउत्ते य। ५.अहवा कोहोवउत्ता य, मायोपयुक्तश्च। ५.अथवा क्रोधोपयुक्ताश्च पयुक्त, मायोपयुक्त। ६.अथवा क्रोधोपयुक्त, एक मायोवउत्ता य। ६.अहवा कोहोवउत्ता य, मायोपयुक्ताश्च । ६.अथवा क्रोधोपयुक्ताश्च लोभोपयुक्त। ७.अथवा क्रोधोपयुक्त, लोभोलोभोवउत्ते य। ७.अहवा कोहोवउत्ता य, ___ लोभोपयुक्तश्च। ७.अथवा क्रोधोपयुक्ताश्च पयुक्त। ८.अथवा क्रोधोपयुक्त, एक मानोपयुक्त, लोभोवउत्ता य। ८.अहवा कोहोवउत्ता य, लोभोपयुक्ताश्च । ८.अथवा क्रोधोपयुक्ताश्च, एक मायोपयुक्त। ६.क्रोधोपयुक्त, एक माणोवउत्ते य, मायोक्उत्ते य। ६.कोहो- मानोपयुक्तश्च, मायोपयुक्तश्च । ६.क्रोधो- ___मानोपयुक्त, मायोपयुक्त। १०.क्रोधोपयुक्त, मानोवउत्ता य, माणोवउत्ते य, मायोवउत्ता य। पयुक्ताश्च, मानोपयुक्तश्च, मायोपयुक्ताश्च। पयुक्त, एक मायोपयुक्त। ११.क्रोधोपयुक्त, १०.कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ता य, मायो- १०.क्रोधोपयुक्ताश्च, मानोपयुक्ताश्च, मायो- मानोपयुक्त, मायोपयुक्त। १२.क्रोधोपयुक्त, एक वउत्ते य। ११.कोहोवउत्ता य, माणोव- पयुक्तश्च । ११.क्रोधोपयुक्ताश्च, मानोपयु- मानोपयुक्त, एक लोभोपयुक्त। १३.क्रोधोपयुक्त, उत्ता य, मायोवउत्ता य। १२.कोहो- क्ताश्च, मायोपयुक्ताश्च । १२.क्रोधोपयुक्ता- एक मानोपयुक्त, लोभोपयुक्त। १४.क्रोधोपयुक्त, वउत्ता य, माणोवउत्ते य, लोभोवउत्ते य। श्च, मानोपयुक्तश्च, लोभोपयुक्तश्च। मानोपयुक्त, एक लोभोपयुक्त। १५.क्रोधोपयुक्त, १३.कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ते य, लोभो- १३.क्रोधोपयुक्ताश्च, मानोपयुक्तश्च, लोभो- मानोपयुक्त, लोभोपयुक्त। १६.क्रोधोपयुक्त, एक वउत्ता य। १४.कोहोवउत्ता य, माणो- पयुक्ताश्च । १४.क्रोधोपयुक्ताश्च, मानोपयु- मायोपयुक्त, एक लोभोपयुक्त । १७.क्रोधोपयुक्त, वउत्ता य, लोभोवउत्ते य । १५.कोहोवउत्ता ताश्च, लोभोपयुक्तश्च । १५.क्रोधोपयु- एक मायोपयुक्त, लोभोपयुक्त । १८.क्रोधोपयुक्त, य, माणोवउत्ता य, लोभोवउत्ता य। क्ताश्च, मानोपयुक्ताश्च, लोभोपयुक्ताश्च । मायोपयुक्त, एक लोभोपयुक्त । १६.क्रोधोपयुक्त, १६.कोहोवउत्ता य, मायोवउत्ते य, लोभो- १६.क्रोधोपयुक्ताश्च, मायोपयुक्तश्च, लोभो- मायोपयुक्त, लोभोपयुक्त। २०.क्रोधोपयुक्त, एक वउत्ते य । १७.कोहोवउत्ता य, मायोवउत्ते पयुक्तश्च। १७.क्रोधोपयुक्ताश्च, मायोपय, लोभोक्उत्ता य। १८.कोहोवउत्ता य, युक्तश्च, लोभोपयुक्ताश्च। १८.क्रोधोप- २१.क्रोधोपयुक्त, एक मानोपयुक्त, एक मायोमायोवउत्ता य, लोभोवउत्ते य। १६.को- युक्ताश्च, मायोपयुक्ताश्च, लोभोपयुक्तश्च पयुक्त, लोभोपयुक्त। २२.क्रोधोपयुक्त, एक होवउत्ता य, मायोवउत्ता य, लोभोवउत्ता १६.क्रोधोपयुक्ताश्च मायोपयुक्ताश्च, लोभो- मानोपयुक्त, मायोपयुक्त, एक लोभोपयुक्त । य। २०.कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ते य, पयुक्ताश्च । २०.क्रोधोपयुक्ताश्च, मानोप- २३.क्रोधोपयुक्त, एक मानोपयुक्त, मायोपयुक्त, मायोवउत्ते य, लोभोवउत्ते य । २१.कोहो- युक्तश्च, मायोपयुक्तश्च, लोभोपयुक्तश्च।। लोभोपयुक्त । २४.क्रोधोपयुक्त, मानोपयुक्त, एक वउत्ता य, माणोवउत्ते य, मायावउत्ते य, २१.कोधोपयुक्ताश्च, मानोपयुक्तश्च, मायोप- मायोपयुक्त, एक लोभोपयुक्त। २५.क्रोधोपयुक्त, लोभोवउत्ता य। २२.कोहोवउत्ता य, युक्तश्च, लोभोपयुक्ताश्च । २२.क्रोधोपयु- मानोपयुक्त, एक मायोपयुक्त, लोभोपयुक्त। १. भ.बृ.१४२१६-'ठितिवाण'ति आयुषो विभागाः 'असंखेज'त्ति संख्या तीतानि, कयं ? प्रथमपृथिव्यपेक्षया जघन्या स्थितिर्दशवर्षसहस्राणि उत्कृष्टा तु सागरोपमम्, एतस्यां चैकैकसमयवृद्धयाऽसंख्येयानि स्थितिस्थानानि भवन्ति, असंख्येयत्वात्सागरोपमसमयानामिति। एवं नरकावासापेक्षयाऽप्यसंख्येयान्येव तानि केवलं तेषु जघन्योत्कृष्टविभागो ग्रन्थान्तरादवसेयो, यथा प्रथमप्रस्तटनरकेषु जघन्या स्थितिर्दशवर्षसहस्राणि उत्कृष्टा तु नवतिरिति, एतदेव दर्शयत्राह-'जहणिया ठिती' त्यादि, जघन्या स्थितिर्दशवर्षसहस्रादिका इत्येकं स्थितिस्थानं, तच्च प्रतिनरकं भिन्नरूपं, सैव समयाधिकेति द्वितीयम् इदमपि विचित्रम्, एवं यावदसवयेयसमयाधिका सा, सर्वान्तिमस्थितिस्थानदर्शनायाह--'तप्पाउग्गुक्कोसिय' त्ति, उत्कृष्टा असावनेकविधेति विशेष्यते तस्य विवक्षितनरकावासस्य प्रायोग्या-उचिता उत्कर्षिका तत्प्रायोग्योत्कर्षिका इत्यपरं स्थितिस्थानम्, इदमपि चित्रं, विचित्रत्वादुत्कर्षस्थितेरिति । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ श.१: उ.५: सू.२१७ २६.क्रोधोपयुक्त, मानोपयुक्त, मायोपयुक्त, एक लोभोपयुक्त। २७.क्रोधोपयुक्त, मानोपयुक्त, मायोपयुक्त, लोभोपयुक्त। भगवई माणोवउत्ते य, मायोवउत्ता य, लोभोवउत्ते ताश्च, मानोपयुक्तश्च, मायोपयुक्ताश्च, य। २३.कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ते य, लोभोपयुक्तश्च । २३.क्रोधोपयुक्ताश्च, मानो- मायोक्उत्ता य, लोभोवउत्ता या पयुक्तश्च, मायोपयुक्ताश्च, लोभोपयुक्ताश्च। २४.कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ता य, मायो- २४.क्रोधोपयुक्ताश्च, मानोपयुक्ताश्च, मायोवउत्ते य, लोभोवउत्ते य । २५.कोहोवउत्ता पयुक्तश्च, लोभोपयुक्तश्च। २५.क्रोधोपय, माणोवउत्ता य, मायोवउत्ते य, लोभो- युक्ताश्च, मानोपयुक्ताश्च, मायोपयुक्तश्च, वउत्ता य। २६.कोहोवउत्ता य, माणो- लोभोपयुक्ताश्च। २६.क्रोधोपयुक्ताश्च, वउत्ता य, मायोवउत्ता य, लोभोवउत्ते य। मानोपयुक्ताश्च, मायोपयुक्ताश्च, लोभोप२७.कोहोवउत्ताय, माणोवउत्ताय, मायो- युक्तश्च। २७.क्रोधोपयुक्ताश्च, मानोपवउत्ता य, लोमोवउत्ता य॥ युक्ताश्च, मायोपयुक्ताश्च, लोभोपयुक्ताश्च । भाष्य गया है। १. सूत्र २१७ नैरयिक जीवों में क्रोध-संज्ञा की प्रबलता होती है, इसलिए विरह की संभावना हो, वहां अस्सी भंग और जहां विरह न हो, उनमें क्रोधोपयुक्त अधिक संख्या में मिलते हैं। उनकी आयुस्थिति वहां सत्ताईस भंग होंगे अथवा अभंग होगा। यह विरह और अविरह और क्रोध, मान, माया, लोभ की संज्ञा के आधार पर उनके अनेक का निरूपण सत्ता की अपेक्षा से किया गया है, उत्पत्ति की अपेक्षा वर्गीकरण बन जाते हैं। प्रस्तुत आलापक में उनका दिग्दर्शन कराया से नहीं। रलप्रभा के नैरयिकों में उत्पत्ति का विरह-काल चौबीस मुहूर्त है। यदि इसे आधार माना जाए तो जहां सत्ताईस भंगों का __जघन्य स्थिति वाले नैरयिक सदा उपलब्ध होते हैं। उनकी निर्देश है, वहां विरह होने के कारण अस्सी भंग बन जाएंगे। अतः संख्या अधिक होती है। उनमें क्रोधोपयुक्त जीवों की बहलता होती भंग-व्यवस्था का निरूपण सत्ता की अपेक्षा से किया गया है।' है। इसलिए उनके सत्ताईस विकल्प बनते हैं। एक, दो, तीन, यावत् क्रोध, मान, माया और लोभ-इनके सत्ताईस और अस्सी संख्येय समय अधिक जघन्य स्थिति वाले नैरयिक कभी होते हैं और भंग बनते हैं। इनके अंतर का मुख्य कारण है-क्रोध का बहुवचन कभी नहीं भी होते। इसलिए उनके विकल्प अधिक बन जाते हैं और एकवचन । विकल्पों में मान, माया और लोभ-ये एकवचन -अस्सी बन जाते हैं। असंख्येय समय अधिक जघन्य स्थिति वाले और बहुवचन दोनों में ही ग्रहण किए जाते हैं। जहां इन तीनों के तथा विवक्षित नरकावास के प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थिति वाले के सत्ताईस ____ साथ 'क्रोधोपयुक्त' बहुवचन में होता है, वहां सत्ताईस भंग बनते हैं। भंग होते हैं। जहां क्रोध का एकवचन और बहुवचन दोनों ग्रहण किए जाते हैं, वृत्तिकार ने एक गाथा उद्धृत कर भंग-विषयक दो नियमों वहां अस्सी भंग बनते हैं। एकवचन को '१' की संख्या से और का निर्देश किया है जहां एक समय से लेकर संख्यात समय पर्यन्त बहुवचन को '३' की संख्या से दिखाया गया है—देखें भंग-सचक यन्त्र २७ भंग द्विक संजोगिया ६ इक जोगिया १ क्रोध मान सर्व क्रोध ० । मान माया लोभ माया ० लोभ ० क्रोध ३ १ १ २ १ १ ० ० १. भ.वृ.१।२१७ -- संभवइ जहिं विरहो असीई भंगा तहिं करेजाहि । जहियं न होइ विरहो, अभंगयं सत्तवीसा वा ॥१॥ अयं च तत्सत्तापेक्षो विरहो द्रष्टव्यो न तूत्पादापेक्षया, यतो रत्नप्रभायां चतुर्विंशतिर्मुहूर्ता उत्पादविरहकाल उक्तः, ततश्च यत्र सप्तविंशतिभङ्गका उच्यन्ते तत्रापि विरहभावादशीतिः प्रापोति, सप्तविंशतेश्चाभाव एवेति । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ ३ १५ १० १५ GK ॐ:4Grown. २ २० १६ १८ १२ ११ १० १७ ६१ ३ ३ १ ८ GmKan. m< and श.१: उ.५: सू.२१७ سه سه م १२ ४ १३ ५ १० ३ ३ م م १ م ० سه | س س س س س س س ३ क्रोध ३ द्विक संजोगिया २४ इक संजोगिया ८ त्रिक संजोगिया १२ ० ० ० ० ० ० ० . ० ० ० ० ० ० १ ० سه سه | ی له سه م م م ० ० ० ० ३ मान ० ० ० ० ० ० ० . ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० m - ० माया mo ० ० ० ० ० ० ० ० ० | ० ० ० ० ० ० ० ० | an .. . ० ० ० ० at 0 ० ० ० लोभ ५० भंग ११० २३ २२ २० ४ ३ २५६ ३ ३७ ५ ३६ ४१ ३ १ - WWW.०० ० ० سه سه سه سه سه سه سه سه ४२ १० ११० त्रिक संजोगिया ३२ २६ २८ २५ २४ २२ २१ २१ २० १७ २६ १५० १४ १३ २४० १६० १६० ० ० . . . ३१२३.०३ ३० २२ ० ०१३ २३ १५ ०३१० चउक संजोगिया ८ १८ १७ १६ ६ ११ १० ३ ३ ३ क्रोध १६ १२ ३०३३ ० . . मान १ ३ १ माया १ ३ लोभ . . . . . 000w. سه له سه سه م १ م १ ३ ० . . . . aman ० ० ० ० . سه سه سه سه هه م م ه १ 40 . ० ० ० ० ० ० ० ० and- a000 ० ० ० ० 20000000 0 भगवई Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई N 6 M N α N N Y O AN CAN 2 w i s ४३ ४४ १२ ११ ४५ ४६ १४ ४७ १५ १३ १६ ४८ ४६ १७ १ २० ५० १८ १ २२ क्रोध १ ५१ १६ 9 ५२ 9 ५३ २१ ३ ५४ ३ ५५ २३ ३ ५६ ५७ १ ३ ३ ३ ३ २४ ३ ५६ २७ २५ ० ६० २८ ५८ २६ ० ० ० ६१ २६ ० ६२ ३० ० मान ३ ३ 9 9 ३ ३ ० ० ० ० ० ० ० ० 9 9 9 १ ३ ३ २१८. इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि समयाहियाए जहण्णद्वितीए वट्टमाणा नेरइया किं कोहोवउत्ता ? माणोवउत्ता ? मायोवउत्ता ? लोभोव - उत्ता ? गोयमा ! कोहोवउत्ते य, माणोवउत्ते य, मायोवउत्ते य, लोभोवउत्ते य । कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ता य, मायोवउत्ता य, लोभोवउत्ता य अहवा कोहोवउत्ते य, माणोवउत्ते य । अहवा कोहोवउत्ते य माणवत्ताय । एवं असीतिभंगा नेयव्वा । एवं जाव संखेजसमयाहियाए ठितीए । असंखेज्जसमयाहियाए ठितीए तप्पाउग्गुकोसिया ठिती सत्तावीसं भंगा भाणि - यव्वा ॥ २१६. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि नेरइयाणं केवइया ओगाहणाठाणा पण्णत्ता ? माया ० ० ० ० ० ० १ 9 ३ ३ 9 9 ३ ३ १ 9 ३ ३ 9 9 लोभ १ ३ १ ३ 9 ३ १ ३ १ ३ १ ३ ३ १ ३ १ ३ 9 ३ १११ ६३ ६४ Sy w 2 N ६५ ६६ ६७ ६८ ६६ ७० ७१ ७२ ७३ ७४ ७५ ७६ ७७ ७८ ७६ το ३१ ३२ 9 २ ३ ४ ५ ६ ७ प t १० 22 x 2 or u ११ १२ १३ १४ १५ १६ अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां त्रिंशत् निरयावास शतसहस्रेषु एकैकस्मिन् निरयावासे समयाधिकायां जघन्यस्थित्यां वर्तमानाः नैरयिकाः किं क्रोधोपयुक्ताः ? मानोपयुक्ताः मायोपयुक्ताः ? लोभोपयुक्ताः ? गौतम ! क्रोधोपयुक्तश्च, मानोपयुक्तश्च, मायोपयुक्तश्च, लोभोपयुक्तश्च । क्रोधोपयुक्ताश्च, मानोपयुक्ताश्च, मायोपयुक्ताश्च, लोभोपयुक्ताश्च । अथवा क्रोधोपयुक्तश्च, मानोपयुक्तश्च । अथवा क्रोधोपयुक्तश्च, मानोपयुक्ताश्च। एवम् अशीतिभङ्गाः नेतव्याः । एवं यावत् संख्येयसमयाधिकायां स्थित्यां असंख्येयसमयाधिकायां स्थित्यां तत्प्रायोग्योत्कर्षिकायां स्थित्यां सप्तविंशतिः भङ्गाः भणितव्याः । अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां त्रिंशत् निरयावासशतसहस्रेषु एकैकस्मिन् निरयावासे नैरयिकाणां कियन्ति अवगाहनास्थानानि प्रज्ञप्तानि ? क्रोध ० ० 9 9 १ 9 9 9 चक संजोगिया १६ १ श. १: उ.५: सू.२१७-२१६ लोभ 9 9 ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ मान ३ ३ 9 9 १ १ ३ ३ ३ ३ 9 १ १ १ ३ ३ ३ ३ माया ३ ३ १ 9 ३ ३ 9 9 ३ ३ 9 9 ३ ३ 9 १ ३ ३ ३ १ ३ १ ३ १ ३ १ ३ 9 ३ १ ३ १ ३ १ ३ २१८. भन्ते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से प्रत्येक नरकावास में 'एक समय अधिक जघन्य स्थिति' में वर्तमान नैरयिक क्या क्रोधोपयुक्त होते हैं ? मानोपयुक्त होते हैं ? मायोपयुक्त होते हैं ? लोभोपयुक्त होते हैं ? गौतम ! एक क्रोधोपयुक्त, एक मानोपयुक्त, एक मायोपयुक्त अथवा एक लोभोपयुक्त होता है। क्रोधोपयुक्त, मानोपयुक्त, मायोपयुक्त अथवा लोभोपयुक्त होते हैं। अथवा एक क्रोधोपयुक्त, एक मानोपयुक्त । अथवा एक क्रोधोपयुक्त, मानोपयुक्त होते हैं। इस प्रकार अस्सी भंग ज्ञातव्य हैं। इस प्रकार यावत् ' संख्येय समय अधिक जघन्य स्थिति' वाले नैरयिकों के अस्सी भंग होते हैं। 'असंख्येय समय अधिक जघन्य स्थिति' वाले तथा 'विवक्षित नरकावास के प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थिति' वाले नैरयिकों के सत्ताईस भंग वक्तव्य हैं। २१६. भन्ते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से प्रत्येक नरकावास में रहने वाले नैरयिक जीवों के कितने अवगाहना-स्थान प्रज्ञप्त हैं ? Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.५: सू.२१६-२२१ ११२ भगवई गोयमा ! असंखेज्जा ओगाहणाठाणा गौतम ! असंख्येयानि अवगाहनास्थानानि पण्णत्ता, तं जहाजहण्णिया ओगाहणा, प्रज्ञप्तानि, तद् यथा-जघन्यिका अवगाहना, पदेसाहिया जहणिया ओगाहणा, दुपदे- प्रदेशाधिका जघन्यिका अवगाहना, द्विप्रदेसाहिया जहणिया ओगाहणा जाव असं- शाधिका जघन्यिका अवगाहना यावद् खेजपएसाहिया जहणिया ओगाहणा। असंख्येयप्रदेशाधिका जघन्यिका अवगा- तप्पाउग्गुक्कोसिया ओगाहणा।। हना। तत्प्रायोग्योत्कर्षिका अवगाहना। गौतम ! उनके असंख्येय अवगाहना-स्थान प्रज्ञप्त हैं, जैसे-जघन्य अवगाहना, एक प्रदेश अधिक जघन्य अवगाहना, दो प्रदेश अधिक जघन्य अवगाहना यावत् असंख्येय प्रदेश अधिक जघन्य अवगाहना। विवक्षित नरकावास के प्रायोग्य उत्कृष्ट अवगाहना। २२०. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए अस्यां भदन्त ! रलप्रभायां पृथिव्यां त्रिंशत् २२०. भन्ते ! इस रलप्रभा पृथ्वी के तीस लाख तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासशतसहस्रेषु एकैकस्मिन् निरयावासे नरकावासों में से प्रयेक नरकावास की जघन्य निरयावासंसि जहणियाए ओगाहणाए जघन्यिकायाम् अवगाहनायां वर्तमानाः अवगाहना में वर्तमान नैरयिक क्या क्रोधोपयुक्त वट्टमाणा नेरइया किं कोहोवउत्ता? नैरयिकाः किं क्रोधोपयुक्ताः ? होते हैं ? असीइभंगा भाणियवा जाव संखेज- अशीतिभङ्गाः भणितव्याः यावत् संख्येय- इनके अस्सी भंग वक्तव्य हैं यावत संख्येय प्रदेश पदेसाहिया जहणिया ओगाहणा। प्रदेशाधिका जघन्यिका अवगाहना । अधिक जघन्य अवगाहना में वर्तमान नैरयिकों के भी अस्सी भंग वक्तव्य हैं। असंखेजपदेसाहियाए जहणियाए ओगा- असंख्येयप्रदेशाधिकायां जघन्यिकायाम् अव- असंख्येय प्रदेश अधिक जघन्य अवगाहना में हणाए वट्टमाणाणं, तप्पाउग्गुक्कोसियाए गाहनायां वर्तमानानां तत्प्रायोग्योत्कर्षि- वर्तमान और विवक्षित नरकावास के प्रायोग्य ओगाहणाए वट्टमाणाणं सत्तावीसं भंगा । कायाम् अवगाहनायां वर्तमानानां सप्तविंशतिः । उत्कृष्ट अवगाहना में वर्तमान नैरयिकों के सत्ताईस भंग होते हैं। भाष्य १. सूत्र २१६,२२० प्रस्तुत आलापक में जघन्य अवगाहना वाले नैरयिकों के अस्सी भंग निर्दिष्ट हैं। इस प्रसंग में वृत्तिकार ने एक विरोधाभास की चर्चा । और उसका समाधान प्रस्तुत किया है। जघन्य स्थिति और जघन्य अवगाहना वाले नैरयिकों के जघन्य स्थिति के कारण सत्ताईस और जघन्य अवगाहना के कारण अस्सी भंग प्राप्त होते हैं। यह अन्तर्विरोध है। इसके समाधान में वृत्तिकार ने लिखा है कि जघन्य अवगाहना-काल में जघन्य स्थिति वालों के भी अस्सी भंग प्राप्त होते हैं। जघन्य अवगाहना केवल उत्पत्ति-काल में ही होती है; इसलिए जघन्य अवगाहना वाले नैरयिक कम होते हैं। जो नैरयिक जघन्य अवगाहना का अतिक्रमण कर जाते हैं, उन्हीं जघन्य स्थिति वाले नैरयिकों के सत्ताईस भंग होते हैं।' शब्द-विमर्श अवगाहना शरीर अथवा उसका आधारभूत क्षेत्र । स्थान प्रदेश-वृद्धि से होने वाले विभाग।' २२१. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए अस्यां भदन्त ! रलप्रभायां पृथिव्यां त्रिंशत् २२१. भन्ते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासशतसहस्रेषु एककैस्मिन् निरयावासे नरकावासों में से प्रयेक नरकावास मे रहने वाले निरयावासंसि नेरइयाणं कइ सरीरया नैरयिकाणां कति शरीरकाणि प्रज्ञप्तानि ? नैरयिकों के कितने शरीर प्रज्ञप्त हैं ? पण्णता? गोयमा ! तिण्णि सरीरया पण्णत्ता, तं गौतम ! त्रीणि शरीरकाणि प्रज्ञप्तानि, तद् गौतम ! उनके तीन शरीर प्रज्ञप्त हैं, जैसेजहा उब्बिए, तेयए, कम्मए ।। यथा—वैक्रियं, तैजसं, कर्मकम् । वैक्रिय, तैजस और कार्मण। १. भ.वृ. ११२२०-ननु ये जघन्यस्थितयो, जघन्यावगाहनाश्च भवन्ति तेषां । नीयम् । जघन्यस्थितिकत्वेन सप्तविंशतिर्भड़काः प्रागुवन्ति जघन्यावगाहनत्वेन चाशी- द्रष्टव्य भ.जो.१।१६।६ का वार्तिक । तिरिति विरोधः ? अत्रोच्यते, जघन्यस्थितिकानामपि जघन्यावगाहनाकाले- २. भ.वृ.१।२१६–अवगाहन्ते-आसते यस्यां साऽवगाहना-तनुस्तदाधारऽशीतिरेव, उत्पत्तिकालभावित्वेन जघन्यावगाहनानामल्पत्वादिति, या च भूतं वा क्षेत्रम् । तस्याः स्थानानि–प्रदेशवृद्ध्या विभागाः अवगाहनाजधन्यस्थितिकानां सप्तविंशतिः सा जघन्यावगाहनत्वमतिक्रान्तानामिति भाव- स्थानानि । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ११३ श.१: उ.५: सू.२२२-२२४ २२२. इमीसे णं मंते ! स्यणप्पभाए जाव वेउब्बियसरीरे वट्टमाणा नेरइया कि कोहो- वउत्ता? सत्तावीसं भंगा ॥ अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां यावत् वैक्रियशरीरे २२२. भन्ते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी यावत् वैक्रिय वर्तमानाः नैरयिकाः किं क्रोधोपयुक्ताः ? सप्त- शरीर में वर्तमान नैरयिक क्या क्रोधोपयुक्त होते विंशतिः भङ्गाः। हैं ? सत्ताईस भंग वक्तव्य हैं। २२३. एएणं गमेणं तिण्णि सरीरया भाणि- यव्वा॥ अनेन गमेन त्रीणि शरीरकाणि भणितव्यानि। २२३. इसी गमक (सदृश पाठ-पद्धति) के अनुसार तीनों (वैक्रिय, तैजस और कार्मण) शरीर वक्तव्य भाष्य १. सूत्र २२२,२२३ वृत्तिकार ने एक प्रश्न उपस्थित किया है-विग्रह गति में केवल तैजस और कार्मण शरीर होते हैं और वे दोनों अल्पकालिक हैं, इसलिए अस्सी भंग होने चाहिए। फिर उन दोनों के लिए सत्ताईस भंगों का निर्देश क्यों ? इसके समाधान में वृत्तिकार ने लिखा है"यहां केवल तैजस और कार्मण के भंग विवक्षित नहीं हैं। यहां वैक्रिय के सहवर्ती तैजस और कार्मण के सत्ताईस भंग निर्दिष्ट हैं।" २२४. इमीसे णं भंते ! स्यणप्पभाए जाव अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां यावत् नैरयिकाणां २२४. 'भन्ते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी यावत् नैरयिकों नेरइयाणं सरीरया किंसंघयणा पण्णत्ता? शरीरकाणि किंसंहननानि प्रज्ञप्तानि ? के शरीर किस संहनन (अस्थि-संरचना) वाले प्रज्ञप्त हैं ? गोयमा ! छहं संघयणाणं असंघयणी गौतम ! षण्णां संहननानाम् असंहननाः । गौतम ! छह संहननों में से उनके कोई संहनन नेवडी, नेव छिरा, नेव पारूणि। जे नैवास्थीनि, नैव शिराः, नैव स्नायवः । ये पुद्- नहीं होता। उनके शरीर में न अस्थियां हैं, न पोग्गला अणिवा अकंता अप्पिया असुहा गलाः अनिष्टाः अकान्ताः अप्रियाः अशुभाः शिराएं हैं और न स्नायु हैं। जो पुद्गल अनिष्ट, अमणुण्णा अमणामा एतेसिं सरीर- अमनोज्ञाः ‘अमणामा' एतेषां शरीरसंघाततया अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ और अमनोरम संघायत्ताए परिणमंति॥ परिणमन्ति। होते हैं, वे इनके शरीर-संघात रूप में परिणत होते हैं। भाष्य १. सूत्र २२४ शरीर जीव एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय संहनन का अर्थ है—अस्थि-संरचना। यह अर्थ श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में सम्मत है, किन्तु यह विमर्शनीय है। एकेन्द्रिय जीवों के अस्थि-रचना नहीं होती, फिर भी श्वेताम्बर परम्परा में उनके 'शेवात' तथा दिगम्बर परम्परा में 'असंप्राप्त सृपाटिका संहनन' माना गया है। इस आधार पर संहनन की व्याख्या अस्थि-रचना से हटकर करने की अपेक्षा है। एकेन्द्रिय के सन्दर्भ को ध्यान में रखकर इसकी व्याख्या यह की जा सकती है-औदारिक शरीर-वर्गणा के पुद्गलों से होने वाली शरीर-संरचना का नाम है संहनन । ठाणं में औदारिक शरीर-रचना के अनेक प्रकार बतलाए औदारिक अस्थि, मांस, शोणितबद्ध औदारिक शरीर। अस्थि, मांस, शोणित, स्नायु और शिराबद्ध औदारिक शरीर।' पंचेन्द्रिय संहनन के छह प्रकार हैं-१. वज्रऋषभनाराच २. ऋषभनाराच ३. नाराच ४. अर्धनाराच ५. कीलिका ६. शेवात। वैक्रिय शरीर में अस्थि, शिरा और स्नायु नहीं होते, इसलिए उसे संहनन-शून्य कहा गया है। समवाओ में भी इसका संवादी पाठ प्राप्त होता है।' १. भ.वृ.११२२३–ननु विग्रहगती केवले ये तैजसकार्मणशरीरे स्यातां तयोरल्पत्वेनाशीतिरपि भङ्गकानां संभवतीति कथमुच्यते तयोः सप्तविंशतिरेवेति। अत्रोच्यते सत्यमेतत्, केवलं वैक्रियशरीरानुगतयोस्तयोरिहाश्रयणं केवलयो- श्चानाश्रयणमिति सप्तविंशतिरेवेति। २. (क) भ.बृ.११२२४ –अस्थिसञ्चयरूपं च संहननमुच्यते । (ख) ष.ख.धवला,पु.६,खं.१,भा.६-१,सू.३६,पृ.७३-संहननमस्थि संचयः। ३. सम.प.सू.१९०। ४. द्रष्टव्य,जै.सि.को.भा.४,पृ.१५६ । ५. ठाणं, २११५५-१६०। ६. वही, ६।३०। ७. सम.प.सू. १८७-१८६। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १: उ.५: सू.२२५-२३३ २२५. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए जाव छहं संघयणाणं असंघयणे वट्टमाणा नेरइया किं कोहोवउत्ता ? सत्तावीसं भंगा ॥ २२६. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए जाव नेरइयाणं सरीरया किंसंठिया पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा भवधारणिज्जा य, उत्तरवेउब्विया य । तत्थ णं जेते भवधारणिजाते हुंडसंठिया पण्णत्ता, तत्य णं जेते उत्तरखेउब्विया ते वि हुंडसंठिया पण्णता ॥ १. भवधारणीय जीवन पर्यन्त रहने वाला शरीर । २२७. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए जाव हुंडसंठाणे वट्टमाणा नेरइया किं कोहोवउत्ता ? सत्तावीसं भंगा ॥ २. उत्तरखैक्रिय पूर्व वैक्रिय शरीर की अपेक्षा उत्तरकाल में निर्मित वैक्रिय शरीर । २२८. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए जाव नेरइयाणं कति लेस्साओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! एगा काउलेस्सा पण्णत्ता ॥ २२६. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए जाव काउलेस्साए वट्टमाणा नेरइया किं कोहोवत्ता ? सत्तावीसं भंगा ॥ २३०. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए जाव नेरइया किं सम्मदिट्ठी ? मिच्छदिट्ठी ? सम्मामिच्छदिट्ठी ? तिण्णि वि। २३१. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए जाव सम्मदंसणे वट्टमाणा नेरइया किं कोहोबत्ता ? सत्तावीसं भंगा ॥ २३२. एवं मिच्छदंसणे वि ।। २३३. सम्मामिच्छदंसणे असीतिभंगा ॥ ११४ अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां यावत् षण्णां संहननानाम् असंहनने वर्तमानाः नैरयिकाः किं क्रोधोपयुक्ताः ? सप्तविंशतिः भङ्गाः । अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां यावत् नैरयिकाणां शरीरकाणि किंसंस्थितानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! द्विविधानि प्रज्ञप्तानि तद् यथाभवधारणीयानि च, उत्तरवैक्रियाणि च । तत्र यानि एतानि भवधारणीयानि तानि हुण्डसंस्थितानि प्रज्ञप्तानि । तत्र यानि एतानि उत्तरवैक्रियाणि तानि अपि हुण्डसंस्थितानि प्रज्ञप्तानि । भाष्य अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां यावत् हुण्डसंस्थाने वर्तमानाः नैरयिकाः किं क्रोधोपयुक्ताः ? सप्तविंशतिः भङ्गाः । ३. हुण्ड संस्थान कुत्सित संस्थान अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां यावत् कापोतलेश्यायां वर्तमानाः नैरयिकाः किं क्रोधोपयुक्ताः ? सप्तविंशतिः भङ्गाः । अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां यावत् नैरयिकाः किं सम्यग्दृष्टयः ? मिथ्यादृष्टयः ? सम्यग् - मिथ्यादृष्टयः ? योऽपि । अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां यावत् नैरयिकाणां २२८. भन्ते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी यावत् नैरयिकों कति लेश्याः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! एका कापोतलेश्या प्रज्ञप्ता । के कितनी लेश्याएं प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! एक कापोत लेश्या प्रज्ञप्त है। अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां यावत् सम्यग्दर्शने वर्तमानाः नैरयिकाः किं क्रोधोपयुक्ताः ? सप्तविंशतिः भङ्गाः । एवं मिथ्यादर्शनेऽपि । भगवई २२५. भन्ते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी यावत् छह संहननों में से असंहनन - अवस्था में वर्तमान नैरयिक क्या क्रोधोपयुक्त होते हैं ? सत्ताईस भंग वक्तव्य हैं। सम्यगमिथ्यादर्शने अशीतिः भङ्गाः । २२६. भन्ते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी यावत् नैरयिकों के शरीर किस संस्थान वाले प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! उनके शरीर दो प्रकार वाले प्रज्ञप्त हैं, जैसे—– १ . भवधारणीय' २. उत्तर- वैक्रिय' । जो भवधारणीय शरीर हैं, वे हुंड संस्था हैं। जो उत्तरवैक्रिय शरीर हैं, वे भी हुंड संस्थान वाले प्रज्ञप्त हैं। २२७. भन्ते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी यावत् हुण्ड संस्थान में वर्तमान नैरयिक क्या क्रोधोपयुक्त होते हैं ? सत्ताईस भंग वक्तव्य हैं। २२६. भन्ते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी यावत् कापोत श्या में वर्तमान नैरयिक क्या क्रोधोपयुक्त होते है ? सत्ताईस भंग वक्तव्य हैं। २३०. भन्ते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी यावत् नैरयिक क्या सम्यदृष्टि होते हैं ? मिथ्यादृष्टि होते हैं ? सम्यग्मिथ्यादृष्टि होते हैं ? वे तीनों ही होते हैं। २३१. भन्ते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी यावत् सम्यग्दर्शन में वर्तमान नैरयिक क्या क्रोधोपयुक्त होते हैं ? सत्ताईस भंग वक्तव्य हैं। २३२. इसी प्रकार मिथ्यादर्शन में वर्तमान नैरयिकों के भी सत्ताईस भंग वक्तव्य हैं। २३३. सम्यगमिथ्यादर्शन में वर्तमान नैरयिकों के अस्सी भंग वक्तव्य हैं। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श.१: उ.५: सू.२३३-२३६ भाष्य १. सूत्र २३३ सम्यग्मिथ्यादृष्टि वाले नैरयिक अल्प होते हैं और उनका कालमान भी अल्प होता है; इसलिए सम्यग्मिथ्यादृष्टि के अस्सी भंग बनते हैं।' २३४. इमीसे णं भंते ! स्यणप्पभाए जाव ___ अस्यां भदन्त ! रलप्रभायां यावत् नैरयिकाः २३४. भन्ते ! इस रलप्रभा पृथ्वी में यावत् नैरयिक नेरइया किं नाणी, अण्णाणी? किं ज्ञानिनः, अज्ञानिनः ? क्या ज्ञानी होते हैं अथवा अज्ञानी? गोयमा! नाणी वि, अण्णाणी वि। तिणि गौतम ! ज्ञानिनोऽपि, अज्ञानिनोऽपि। त्रीणि गौतम ! वे ज्ञानी भी होते हैं और अज्ञानी भी नाणाई नियमा। तिणि अण्णाणाई ज्ञानानि नियमात्। त्रीणि अज्ञानानि भज- होते हैं। सम्यग दृष्टि में तीन ज्ञान का नियम है, भयणाए॥ नया। मिथ्यादृष्टि में तीन अज्ञान की भजना (विकल्प)है।' भाष्य १. सम्यग्दृष्टि में तीन ज्ञान का नियम है, मिथ्यादृष्टि में तीन अज्ञान की भजना (विकल्प) है। है। अमनस्क मिथ्यादृष्टि नरक में उत्पन्न होता है। उसके जन्मकाल नरक में उत्पन्न होने के समय जो जीव सम्यक्त्वी होते हैं, उनमें तीन ज्ञान प्रारम्भ से ही होते हैं, इसलिए सम्यग्दर्शन के साथ के प्रथम अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् विभंग अज्ञान उत्पन्न होता है, इसलिए उसमें तीन अज्ञान का नियम नहीं होता। प्रथम अन्तर्मुहूर्त में उसमें तीन ज्ञान का नियम है, व्याप्ति है, अनिवार्यता है। मति और श्रुत ये दो अज्ञान होते हैं। अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् तीन नरक में उत्पन्न होने वाले मिथ्यादृष्टि जीव कुछ समनस्क होते अज्ञान हो जाते हैं, इसलिए तीन अज्ञान भाज्य हैं—विकल्प के साथ हैं और कुछ अमनस्क होते हैं। समनस्क मिथ्यादृष्टि में विभंगज्ञान जन्म कभी होते हैं, कभी नहीं भी होते इस रूप में वक्तव्य है।' के पहले समय से ही होता है, इसलिए इसमें तीन अज्ञान का नियम २३५. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए जाव आभिनिबोहियनाणे वट्टमाणा नेरइया कि कोहोवउत्ता ? सत्तावीसं भंगा॥ अस्यां भदन्त ! रलप्रभायां यावद् आभि- २३५. भन्ते ! इस रलप्रभा पृथ्वी यावत् आभिनिबोधिकज्ञाने वर्तमानाः नैरयिकाः किं क्रोधो- निबोधिक ज्ञान में वर्तमान नैरयिक क्या क्रोधोपयुक्ताः ? सप्तविंशतिः भङ्गाः। पयुक्त होते हैं ? सत्ताईस भंग वक्तव्य हैं। २३६. एवं तिणि नाणाई, तिणि अण्णाणाई माणियब्वाइं॥ २३६. एवं त्रीणि ज्ञानानि, त्रीणि अज्ञानानि भणितव्यानि। २३६. 'इसी प्रकार तीन ज्ञान और तीन अज्ञान में वर्तमान नैरयिकों के भी सत्ताईस सत्ताईस भंग वक्तव्य हैं। भाष्य १. सूत्र २३६ प्रस्तुत सूत्र में तीन अज्ञानों के लिए सत्ताईस भंग विवक्षित हैं। वृत्तिकार ने एक रहस्य की ओर ध्यान आकर्षित किया है। विभंग अज्ञान से पूर्ववर्ती मति और श्रुत अज्ञान की विवक्षा हो, तो उससे अस्सी भंग प्राप्त होते हैं। यह अवस्था अन्तर्मुहूर्त्तकालिक होती है। इस अवस्था में अवगाहना भी जघन्य होती है। जघन्य अवगाहना के कारण ही उनके अस्सी भंग बनते हैं।' १. भ.वृ.११२३३-मिश्रदृष्टीनामल्पत्वात्तद्भावस्यापि च कालतोऽल्पत्वादेकोऽपि लभ्यते इत्यशीतिर्भङ्गाः। २. भ.वृ.१।२३४-ये ससम्यक्त्वा नरकेषूत्पद्यन्ते तेषां प्रथमसमयादारभ्य भव प्रत्ययस्यावधिज्ञानस्य भावात् त्रिज्ञानिन एव ते । ये तु मिथ्यादृष्टयस्ते सज्ञिभ्योऽसज्ज्ञिभ्यश्चोत्पधन्ते, तत्र ये सज्ञिभ्यस्ते भवप्रत्ययादेव विभङ्गस्य भावात् त्र्यज्ञानिनः, ये त्वसंज्ञिभ्यस्तेषामाधादन्तर्मुहूर्तात्परतो विभङ्गस्योत्पत्तिरिति तेषां पूर्वमज्ञानद्वयं पश्चाद्विभङ्गोत्पत्तावज्ञानत्रयमित्यत उच्यते-'तिन्नि अण्णाणाई भयणाए'त्ति भजनया' विकल्पनया कदाचिद् द्वे कदाचित्रीणीत्यर्थः । अत्रार्थे गाथे स्याताम् सन्नी नेरइएसुं उरल परिचायणंतरे समए। बिब्मंग ओहिं वा अविग्गहे विग्गहे लहइ ।। अस्सन्नी नरएसुं पज्जत्तो जेण लहइ विमंग। नाणा तित्रेव तओ अन्नाणा दोनि तिन्नेव ॥ ३. भ.वृ.१।२३६ यदि मत्यज्ञानश्रुताज्ञाने विभङ्गात्पूर्वकालभाविनी विवक्ष्यते तदाऽशीतिर्भमा लभ्यन्ते, अल्पत्वात्तेषां, किन्तु जघन्यावगाहनास्ते ततो जघन्यावगाहनाश्रयेणैवाशीतिभङ्गकास्तेषामवसेया इति । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.५: सू.२३७-२४४ ११६ भगवई २३७. इमीसे णं भंते ! स्यणप्पभाए जाव अस्यां भदन्त ! रलप्रभायां यावत् नैरयिकाः २३७. भन्ते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में यावत् नैरयिक नेरइया किंमणजोगी? वइजोगी? काय- किं मनोयोगिनः ? वाग्योगिनः ? काय- क्या मनयोगी होते हैं ? वचनयोगी होते हैं ? जोगी? योगिनः ? काययोगी होते हैं ? तिण्णि वि॥ त्रयोऽपि। वे तीनों ही होते हैं। २३८. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए जाव मणजोए वट्टमाणा नेरइया किं कोहोवउत्ता? सत्तावीसं भंगा॥ अस्यां भदन्त ! रलप्रभायां यावत् मनोयोगे २३८. 'भन्ते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में यावत् मनयोग वर्तमानाः नैरयिकाः किं क्रोधोपयुक्ताः ? में वर्तमान नैरयिक क्या क्रोधोपयुक्त होते हैं ? सप्तविंशतिः भङ्गाः। सत्ताईस भंग वक्तव्य हैं। २३६. एवं वइजोए॥ एवं वाग्योगे। २३६. इसी प्रकार वचनयोग में वर्तमान नैरयिकों के भी सत्ताईस भंग वक्तव्य हैं। २४०. एवं कायजोए॥ एवं काययोगे। २४०. इसी प्रकार काययोग में वर्तमान नैरयिकों के भी सत्ताईस भंग वक्तव्य हैं। भाष्य १. सूत्र २३८-२४० सामान्य काययोग में सत्ताईस भंगों का निर्देश है, किन्तु केवल कार्मण काययोग में अस्सी भंग प्राप्त होते हैं। यहां सामान्य काययोग विवक्षित है; इसलिए उनका निर्देश नहीं है।' २४१. इमीसे णं भंते ! स्यणप्पभाए जाव अस्यां भदन्त ! रलप्रभायां यावत् नैरयिकाः २४१. भन्ते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में यावत् नैरयिक नेरइया किं सागारोवउत्ता ? अणागारो- किं साकारोपयुक्ताः ? अनाकारोपयुक्ताः ? साकारोपयुक्त होते हैं ? अथवा अनाकारोपयुक्त वउत्ता? होते हैं ? गोयमा ! सागारोवउत्ता वि, अणागारो- गौतम ! साकारोपयुक्ताः अपि, अनाकारो- गौतम ! वे साकारोपयुक्त भी होते हैं, अनाकारोवउत्ता वि॥ पयुक्ताः अपि। पयुक्त भी होते हैं। २४२. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए जाव अस्यां भदन्त ! रलप्रभायां यावत् २४२. भन्ते ! इस रलप्रभा पृथ्वी में यावत् सागारोवओगे वट्टमाणा नेरइया किं कोहो- साकारोपयोगे वर्तमानाः नैरयिकाः किं क्रोधो- साकारोपयोग में वर्तमान नैरयिक क्या क्रोधोपयुक्त वउत्ता? सत्तावीसं भंगा॥ पयुक्ताः ? सप्तविंशतिः भङ्गाः। होते हैं ? सत्ताईस भंग वक्तव्य हैं। २४३. एवं अणागारोवउत्ते वि सत्तावीसं भंगा॥ एवं अनाकारोपयुक्तेऽपि सप्तविंशतिः भङ्गाः। २४३. इसी प्रकार अनाकारोपयोग में वर्तमान नैरियकों के भी सत्ताईस भंग वक्तव्य हैं। २४४. एवं सत्त वि पुढवीओ नेयवाओ, नाणत्तं लेसासु॥ एवं सप्त अपि पृथिव्यः ज्ञातव्याः, नानात्वं २४४. इस प्रकार सातों ही पृथ्वियां ज्ञातव्य हैं, लेश्यासु। केवल लेश्या में नानात्व है। संग्रहणी गाथा संग्रहणी गाथा संगहणी गाहा काऊ य दोसु, तइयाए मीसिया, नीलिया चउत्थीए। पंचमियाए मीसा, कण्हा तत्तो परमकण्हा ॥१॥ कापोती च द्वयोः, तृतीयायां मिश्रिता, नीलिका चतुर्थ्याम् । पञ्चम्यां मिश्रा, कृष्णा ततः परमकृष्णा ॥ प्रथम और द्वितीय पृथ्वी में कापोत लेश्या, तीसरी पृथ्वी में मिश्र कापोत और नीललेश्या, चौथी पृथ्वी में नीललेश्या, पांचवीं पृथ्वी में मिश्रनील और कृष्णलेश्या, छठी पृथ्वी में कृष्णलेश्या और सातवीं पृथ्वी में परमकृष्ण लेश्या होती है। १. भ.बृ.१।२३८-इह यद्यपि केवलकार्मणकाययोगेऽशीतिर्भङ्गाः संभवन्ति- तथाऽपि तस्याविवक्षणात् सामान्यकाययोगाश्रयणाच सप्तविंशतिरुक्तेति । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ११७ श.१: उ.५: सू.२४४,२४५ भाष्य १. मिश्र तीसरी और पांचवी पृथ्वी में मिश्र लेश्या का निर्देश है। लेश्या और कुछ भागों में नील लेश्या होती है। पांचवी पृथ्वी के उसका स्पष्ट अर्थ यह है-तीसरी पृथ्वी के कुछ भागों में कापोत कुछ भागों में नील और कुछ भागों में कृष्ण लेश्या होती है। असुरकुमारादीणं नाणादसासु असुरकुमारादीनां नानादशासु असुरकुमार आदि का नाना दशाओं में कोहोवउत्तादि भंग-पदं क्रोधोपयुक्तादि भङ्ग-पदम् क्रोधोपयुक्त आदि भड़-पद २४५. चउसट्ठीए णं भंते ! असुरकुमारा चतुष्षष्टिषु भदन्त ! असुरकुमारावासशत- २४५. भन्ते ! चौसठ लाख असुरकुमार-आवासों में वाससयसहस्सेसु एगमेगंसि असुरकुमारा- सहस्रेषु एकैकस्मिन् असुरकुमारावासे असुर- से प्रत्येक असुरकुमारावास में रहने वाले असुरवासंसि असुरकुमाराणं केवइया ठितिवाणा कुमाराणां कियन्ति स्थितिस्थानानि प्रज्ञप्तानि? कुमारों के कितने स्थिति-स्थान (आयु- विभाग) पण्णत्ता ? प्रज्ञप्त हैं ? गोयमा ! असंखेजा ठितिहाणा पण्णत्ता। गौतम ! असंख्येयानि स्थितिस्थानानि प्रज्ञ- गौतम ! उनके असंख्येय स्थिति-स्थान प्रज्ञप्त हैं। जहणिया ठिई जहा नेरइया तहा, नवरं तानि । जघन्यिका स्थितिः यथा नैरयिकाः उनकी जघन्य स्थिति नैरयिकों के समान हैं। -पडिलोमा भंगा माणियव्वा। तथा, नवरं-प्रतिलोमाः भनाः भणितव्याः। विशेष ज्ञातव्य यह है कि प्रतिलोम भंग (लोभो पयुक्त आदि) वक्तव्य हैं।' सब्वे वि ताव होज लोभोवउत्ता। सर्वेऽपि तावद् भवेयुः लोभोपयुक्ताः । वे सब असुरकुमार लोभोपयुक्त होते हैं। अहवा लोभोवउत्ता य, मायोवउत्ते य। अथवा लोभोपयुक्ताश्च मायोपयुक्तश्च।। अथवा लोभोपयुक्त और एक मायोपयुक्त । अथवा अहवा लोभोवउत्ता य, मायोवउत्ता य। अथवा लोभोपयुक्ताश्च, मायोपयुक्ताश्च।। लोभोपयुक्त और मायोपयुक्त। इस गमक (सदृश एएणं गमेणं नेयध्वं जाव थणियकुमारा, एतेन गमेन नेतव्यं यावत् स्तनितकुमाराः, । पाठ-पद्धति) के अनुसार यावत् स्तनितकुमार देवों नवरं-नाणतं जाणियवं॥ नवरं-नानात्वं ज्ञातव्यम् ॥ की वक्तव्यता,केवल इनका नानात्व ज्ञातव्य है। भाष्य १. प्रतिलोम भंग वक्तव्य हैं नरयिक के प्रकरण में क्रोध, मान, माया और लोभ इस क्रम से भंगों का निर्देश किया गया है। असुरकुमार लोभ प्रधान होते हैं, इसलिए उनके भंग लोभ, माया, मान और क्रोध-इस क्रम रिकाध इस क्रम से बनते हैं। भंग-रचना की प्रक्रिया पूर्ववत् ज्ञातव्य है।' २. केवल इनका नानात्व ज्ञातव्य है नरयिक और असरकमार में संहनन. संस्थान और लेश्या का नानात्व होता है। देखें यंत्र नारक भवनपति संहनन संहनन-रहित अनिष्ट आदि पुद्गलों का परिणमन संस्थान हुण्डक संहनम-रहित इष्ट आदि पुद्गलों का परिणमन भवधारणीय में समचतुरस्त्र उत्तर वैक्रिय में अन्यतर कृष्ण, नील, कापोत, तेजस् लेश्या कृष्ण, नील, कापोत १. भ.वृ.१।२४५-नारकप्रकरणे क्रोधमानादिना क्रमेण भङ्गक निर्देशः कृतः, असुरकुमारादिप्रकरणेषु लोभमायादिनाऽसौ कार्य इत्यर्थः अत एवाह--- 'सब्वेवि ताव होज लोहोवउत्त'ति देवा हि प्रायो लोभवन्तो भवन्ति, तेन सर्वेऽप्यसुरकुमारा लोभोपयुक्ताः स्युः। द्विकसंयोगे तु लोभोपयुक्तत्वे बहुवचनमेव मायोपयोगे त्वेकत्वबहुत्वाभ्यां द्वौ भङ्गको। एवं सप्तविंशतिर्भङ्गाः कार्याः। २. भ.वृ.१।२४५ नारकाणामसुरकुमारादीनां च परस्परं नानात्वं ज्ञात्वा प्रश्न सूत्राणि उत्तरसूत्राणि चाध्येयानीति हृदयं, तच्च नारकाणामसुरकुमारादीनां च संहननसंस्थानलेश्यासूत्रेषु भवति, तच्चैवम् –'चउसट्ठीए णं भंते ! असुरकुमारावाससयसहस्सेषु एगमेगंसि असुरकुमारावासंसि असुरकुमाराणं सरीरगा किंसंघयणी ? गोयमा ! असंघयणी, जे पोग्गला इट्ठा कंता ते तेसिं संघायत्ताए परिणमंति, एवं संठाणेवि, नवरं भवधारणिजा समचउरंससंठिया उत्तरवेउविया अन्नयरसंठिया एवं लेसासु वि, नवरं कइ लेसाओ पन्नत्ताओ? गोयमा ! चत्तारि, तंजहा किण्हा नीला काऊ तेऊलेसा, 'चउसट्ठीए णं जाव, कण्हलेसाए बट्ट Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.५: सू.२४६,२४७ ११८ भगवई २४६. असंखेजेसु णं भंते ! पुढविक्काइया- असंख्येयेषु भदन्त ! पृथिवीकायिका- २४६. भन्ते ! असंख्येय लाख पृथ्वीकायिक आवासों वाससयसहस्सेसु एगमेगंसि पुढविक्काइया- वासशतसहस्रेषु एकैकस्मिन् पृथ्वीकायिका- में से प्रत्येक पृथ्वीकायिक आवास में रहने वाले वासंसि पुटविक्काइयाणं केवइया ठितिद्वाणा वासे पृथ्वीकायिकानां कियन्ति स्थिति-पृथ्वीकायिक जीवों के कितने स्थितिस्थान प्रज्ञप्त पण्णता? स्थानानि प्रज्ञप्तानि ? गोयमा ! असंखेजा ठितिद्वाणा पण्णत्ता, तं गौतम ! असंख्येयानि स्थितिस्थानानि प्रज्ञ- गौतम ! उनके असंख्येय स्थितिस्थान प्रज्ञप्त हैं, जहा जहणिया ठिई जाव तप्पाउम्गु- तानि, तद् यथा-जघन्यिका स्थितिः यावत् जैसे-जघन्य स्थिति से लेकर यावत् विवक्षित कोसिया ठिई॥ तत्प्रायोग्योत्कर्षिका स्थितिः। पृथ्वीकायिक आवास के प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थिति। २४७. असंखेजेसु णं भन्ते ! पुढविक्काइया- असंख्येयेषु भदन्त ! पृथिवीकायिकावासशत- २४७. 'भन्ते ! असंख्येय लाख पृथ्वीकायिक वाससयसहस्सेस एगमेगंसि पुढविकाइया- सहस्त्रेषु एकैकस्मिन् पृथिवीकायिकावासे जघ- आवासों में से प्रत्येक पृथ्वीकायिक आवास में वासंसि जहणियाए ठितीए वट्टमाणा न्यिकायां स्थित्यां वर्तमानाः पृथिवीकायिकाः जघन्य स्थिति में वर्तमान पृथ्वीकायिक जीव क्या पुढविक्काइया किं कोहोवउत्ता ? माणो- किं क्रोधोपयुक्ताः ? मानोपयुक्ताः ? मायो- क्रोधोपयुक्त होते हैं ? मानोपयुक्त होते हैं ? वउत्ता? मायोवउत्ता? लोभोवउत्ता? पयुक्ताः ? लोभोपयुक्ताः ? मायोपयुक्त होते हैं ? लोभोपयुक्त होते हैं ? गोयमा ! कोहोवउत्ता वि, माणोवउत्ता वि, गौतम ! क्रोधापयुक्ताः अपि, मानोपयुक्ताः । गौतम ! क्रोधोपयुक्त भी होते हैं, मानोपयुक्त भी मायोवउत्ता वि, लोभोवउत्ता वि। अपि, मायोपयुक्ताः अपि, लोभोपयुक्ताः होते हैं, मायोपयुक्त भी होते है, लोभोपयुक्त भी अपि। होते हैं। एवं पुटविकाइयाणं सब्बेसु वि ठाणेसु एवं पृथ्वीकायिकानां सर्वेषु अपि स्थानेषु । इस प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों के सभी स्थान अभंगयं, नवरं तेउलेस्साए असीति- अभङ्गक, नवरं तेजोलेश्यायाः अशीति- भंग-शून्य होते हैं, केवल तेजोलेश्या में वर्तमान भंगा।। भङ्गाः। पृथ्वीकायिक जीवों के अस्सी भंग वक्तव्य हैं। भाष्य १. सूत्र २४७ क्रोध, मान, माया और लोभ-इन सभी कषायों में उपयुक्त पृथ्वीकायिक जीव बहुत संख्या में उपलब्ध होते हैं। इसलिए इनका । कोई भंग नहीं बनता। लेश्याद्वार में तेजोलेश्या वाले जीवों के अस्सी भंग बनते हैं। देवलोक से च्युत देव पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होते हैं। उनकी संख्या एक, दो, तीन आदि होती है, इसलिए उनके अस्सी भंग बन जाते हैं। सूत्र २४५ में नानात्व आया है। उसी की अनुवृत्ति मानकर वृत्तिकार ने नैरयिक और पृथ्वीकायिक जीवों का अंतर बतलाया है। देखें यंत्र नैरयिक पृथ्वीकायिक वैक्रिय, तेजस, कार्मण शरीर संहनन संस्थान लेश्या औदारिक, तैजस, कार्मण शेवात हुण्डक-मसूरय कृष्ण, नील, कापोत, तेजस् मिथ्यादृष्टि हुण्डक (भवधारणीय, उत्तरवैक्रिय) कृष्ण, नील, कापोत तीन तीन नियमा' तीन (भजना) मन, वचन, काय ज्ञान अज्ञान दो मति, श्रुत योग काय माणा किं कोहोवउत्ता? गोयमा ! सब्वेवि ताव होज लोहोवउत्ता' इत्यादि। एवं 'नीलकाऊतेऊवि' नागकुमारादिप्रकरणेषु तु 'धुलसीए नागकुमारा- वाससयसहस्सेसु' इत्येवं "चउसट्ठी असुराणं नागकुमाराण होइ चुलसीइ" इत्यादेवचनात् प्रश्नसूत्रेषु भवनसंख्यानानात्वमवगम्य सूत्राभिलाषः कार्य इति। १. भ.वृ.११२४७–पृथ्वीकायिकेषु लेश्याद्वारे तेजोलेश्या वाच्या, सा च तदा देवलोकाच्युतो देव एकोऽनेको वा पृथ्वीकायिकेषूत्पद्यते तदा भवति,ततश्च तदैकत्वादिभवनादसीतिर्भङ्गका भवन्तीति । २. देखें १।२३४ का भाष्य । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई पृथ्वीकाय, अप्काय एवं वनस्पतिकाय में कर्मग्रन्थ के अनुसार सास्वादन सम्यक्त्व माना जाता है; इसलिए ज्ञानद्वार में उनमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का अस्तित्व होता है। इस ज्ञानद्वय के अधिकारी जीव अल्प संख्या में होते हैं; इसलिए इनके अस्सी भंग प्राप्त होते हैं। वृत्तिकार ने इस विषय में लिखा है कि पृथ्वीकायिक, अप्कायिक एवं वनस्पतिकायिक जीवों में सास्वादन सम्यक्त्व अत्यन्त अल्प होता है; इसलिए उनके अस्सी भंग यहां विवक्षित नहीं हैं। सास्वादन सम्यक्त्व के विषय में दो परम्पराएं उपलब्ध हैं—आगमिक परम्परा और कर्मग्रन्थ परम्परा । आगमिक परम्परा के अनुसार विकलेन्द्रिय में २५१. बेइंदिय- तेइंदिय - चउरिदियाणं जेहिं ठाणेहिं नेरइयाणं असीइभंगा तेहिं ठाणेहिं असीइं चेव, नवरं— अब्महिया सम्मत्ते, आभिणिबोहियनाणे, सुयनाणे य एएहिं असी भंगा। जेहिं ठाणेहिं नेरइयाणं सत्तागाते ठाणे सव्वे अभंगयं ॥ २४८. एवं आउकाइया वि ॥ एवं अपकायिकाः अपि । २४८. इसी प्रकार अपकायिक जीव ज्ञातव्य हैं। २४६. तेउक्काइय-वाउक्काइयाणं सव्वेसु वि तेजस्कायिक-वायुकायिकानां सर्वेषु अपि २४६. तैजसकायिक और वायुकायिक जीवों के ठाणे अभंग ॥ स्थानेषु अभङ्गकम् । सभी स्थान भंग-शून्य होते हैं। २५०. वणप्फइकाइया जहा पुढविकाइया ॥ वनस्पतिकायिकाः यथा पृथिवीकायिकाः । ११६ १. कर्मग्रन्थ-चतुर्थकर्मग्रन्थ (षडशीति), गा. १६,१६थीनरपणिंदी चरमा चउ अणहारे दु सन्नि छ अपज्जा । सुम अपन विणा सासणि इत्तो गुणे वुच्छं || पणतिरिचउसुरनरएन र सन्निपणिदि भव्व तसि सव्वे । इग विगल भू दग वणे दुदु एगं गइतस अभव्वे ॥ श. १: उ.५: सू.२४७-२५१ सास्वादन सम्यक्त्व की संभावना स्वीकृत है। प्रस्तुत प्रकरण के सूत्र २५१ में यह स्पष्ट है । कर्मग्रन्थ की परम्परा में उक्त तीन स्थावर-कायों में भी सास्वादन सम्यक्त्व की संभावना मान्य है । १. जिन स्थानों में नैरयिकों में अस्सी भंग के तीन स्थान प्रतिपादित हैं - १. एक समयादि - अधिक जघन्य स्थिति । २. जघन्य अवगाहना । ३ . मिश्र दृष्टि । विकलेन्द्रिय में अस्सी भंग के प्रथम दो स्थान प्राप्त हैं। उनमें मिश्र दृष्टि नहीं होती, इसलिए तीसरे स्थान की वर्जना की गई है। द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियाणां येषु स्थानेषु नैरयिकाणाम् अशीतिर्भङ्गाः तेषु स्थानेषु अशीतिश्चैव, नवरं - अभ्यधिकाः सम्यक् - त्वे, आभिनिबोधिकज्ञाने, श्रुतज्ञाने च एतेषु अशीतिर्भङ्गाः । यैः स्थानैः नैरयिकाणां सप्तविंशतिर्भङ्गाः तेषु स्थानेषु सर्वेषु अभङ्गकम् । वृत्तिकार ने पृथ्वी आदि में सास्वादन सम्यक्त्व की अत्यन्त विरलता का स्वीकार किया है, किन्तु पण्णवणा में उनके सम्यग् दृष्टि का सर्वथा अस्वीकार है। विकलेन्द्रिय में उसका स्वीकार है। भगवई में भी पृथ्वीकायिक जीवों में सम्यक्त्व का स्वीकार नहीं है । अतः वृत्तिकार का मत कर्मग्रन्थानुसारी हो सकता है। २. भ. वृ. १ । २५० ननु पृथिव्यप्वनस्पतीनां दृष्टिद्वारे सास्वादनभावेन सम्यक्त्वं कर्मग्रन्थेष्वभ्युपगम्यते। तत एव च ज्ञानद्वारे मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं च अल्पाश्चैते इत्येवमशीतिर्भङ्गाः सम्यग्दर्शनाभिनिबोधिक श्रुतज्ञानेषु भवन्तु ? नैवं, पृथिव्यादिषु सास्वादनभावस्यात्यन्तविरलत्वेनाविवक्षितत्वात्, तत एवोच्यते भाष्य २५०. वनस्पतिकायिक जीवों की वक्तव्यता पृथ्वीकायिक जीवों के समान है। वृत्तिकार ने वृद्धों के मत का उल्लेख किया है। वृद्धमत के अनुसार विकलेन्द्रिय के अस्सी भंगों के स्थान पर भी अभंग सम्मत है। चूर्णि में अस्सी भंगों का स्वीकार है।" वृत्तिकार ने यहां 'वृद्ध' शब्द के द्वारा किन्हीं अन्य प्राचीन व्याख्याकारों की ओर इंगित किया है । ३. पण्ण. १६ । २०३ । २५१. जिन स्थानों में' नैरयिकों के अस्सी भंग हैं, उन स्थानों में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के भी अस्सी भंग होते हैं। विशेष ज्ञातव्य है कि सम्यक्त्व, आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान इनमें अधिक भंग -अस्सी भंग होते हैं। जिन स्थानों में नैरयिकों के सत्ताईस भंग होते हैं, विकलेन्द्रिय जीवों के वे सब स्थान भंग-शून्य होते हैं। “उभयाभावो पुढवाइएसु विगलेसु होज्ज उववण्णो । "त्ति 'उभय' प्रतिपद्यमानपूर्वप्रतिपन्नरूपमिति । ४. भ. २४।१६७ । ५. भ. वृ. १ । २५१ - वृद्धैस्त्विह सूत्रे कुतोऽपि वाचनाविशेषाद् यत्राशीतिस्तत्राप्यभङ्गकमिति व्याख्यातमिति । ६. भ. चू.पू. २ बितिचउरिंदियाणं सत्तावीस ठाणे अभंगगं बहुत्ताओ। असीति ठाणे असीति चेव - सासातणसम्मदिट्ठी विरहं संभवो य यातं बहुत्व आभिणिबोहि सुत्तणाण समत्वेषु असीति । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.५: सू.२५१-२५३ १२० भगवई २. अधिक भंग नैरयिकों के दृष्टि-द्वार और ज्ञान-द्वार में सत्ताईस भंग होते हैं। विकलेन्द्रियों के सास्वादन सम्यकृत्व, आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान में अस्सी भंग होते हैं। इस निर्देश के लिए 'अभ्यधिक' शब्द का प्रयोग किया गया है।' ३. भंग-शून्य विकलेन्द्रिय में एक साथ क्रोध-आदि-उपयुक्त जीव बहुत संख्या में उपलब्ध होते हैं. इसलिये इनका कोई भंग नहीं बनता। २५२. पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा नेरइया पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः यथा नैरयिकाः तथा २५२. पञ्चेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक जीव नैरयिकों की तहा भाणियव्वा, नवरं-जेहिं सत्तावीसं भणितव्याः, नवरं-यैः सप्तविंशतिभङ्गाः तैः भांति वक्तव्य हैं, विशेष ज्ञातव्य है कि जहां भंगा तेहिं अभंगयं कायव्वं ॥ अभङ्गकं कर्तव्यम्। नैरयिकों के सत्ताईस भंग होते हैं, वहां वे भंग -शून्य' होते हैं। भाष्य १. भंग-शून्य तिर्यज्च पञ्चेन्द्रिय में एक साथ क्रोध-आदि-उपयुक्त जीव बहुत संख्या में उपलब्ध होते हैं, इसलिये इनका कोई भंग नहीं बनता। २५३. मणुस्सा वि। जेहिं ठाणेहि नेरइयाणं मनुष्याः अपि। यैः स्थानैः नैरयिकाणाम् २५३. मनुष्य भी दस द्वार से वक्तव्य हैं, जिन स्थानों असीतिभंगा तेहिं ठाणेहिं मणुस्साण वि अशीतिभनाः तैः स्थानैः मनुष्याणाम् अपि में नैरयिकों के अस्सी भंग होते हैं, उन स्थानों में असीतिमंगा भाणियब्वा। जेसु सत्तावीसा अशीतिभङ्गाः भणितव्याः। येषु सप्तविंशति- मनुष्यों के भी अस्सी भंग वक्तव्य है। जिन स्थानों तेसु अभंगयं, नवरं–मणुस्साणं अमहियं स्तेषु अभङ्गकं, नवरं-मनुष्याणाम् अभ्य- में नैरयिकों के सत्ताईस भंग होते है, उनमें मनुष्य जहणियाए ठिईए, आहारए य असीति- धिकं जघन्यिकायां स्थिती आहारके च अशी- भंग-शून्य होते हैं, विशेष ज्ञातव्य है कि मनुष्यों भंगा। तिभङ्गाः। के जघन्य स्थिति और आहारक शरीर में अधिक भंग-अस्सी भंग होते हैं। भाष्य २. अधिक भंग १. भंग-शून्य नैरयिक के जघन्य स्थिति में सत्ताईस भंग होते हैं। वहां नैरयिकों में क्रोधोदय की बहुलता होती है। इसलिए उनके मनुष्य के अस्सी भंग बनते हैं। मनुष्य की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त सत्ताईस भंग बनते हैं। मनुष्य में क्रोध, मान, माया और लोभ-इन की है। इस स्थिति वाले संख्या में अल्प मिलते हैं, इसलिए उनके सभी कषाय वालों की संख्या बहुत होती है, इसलिए इनका कोई अस्सी भंग बनते हैं। आहारक शरीर मनुष्य में ही होता है। आहारक भंग नहीं बनता।' शरीर वाले भी अल्प संख्या में होते हैं, इसलिए आहारक शरीर वालों में भी अस्सी भंग होते हैं। देखें यन्त्र नारक मनुष्य वैक्रिय, तैजस, कार्मण संहनन-रहित शरीर संहनन संस्थान लेश्या ज्ञान कृष्ण, नील, कापोत मति, श्रुत, अवधि (केवलज्ञान में क्रोधादिउपयुक्त नहीं होते।) १. भ.वृ.११२५१-विकलेन्द्रियाणां तु 'अब्भहिय' त्ति अभ्यधिकान्यशीतिर्भङ्ग कानां भवति, क ? इत्याह-सम्यक्त्वे, अल्पीयसां हि विकलेन्द्रियाणां सास्वादनभावेन सम्यक्त्वं भवति। अल्पत्वाच्चैतेषामेकत्वस्यापि सम्भवेना शीतिभङ्गकानां भवति । एवमाभिनिबोधिके श्रुते चेति। २. वही,११२५१-भङ्गकाभावश्च क्रोधाधुपयुक्तानामेकदैव बहूनां भावादिति । ३. वही,१।२५२-यतो नारकाणां बाहुल्येन क्रोधोदय एव भवति, तेन तेषां सप्तविंशतिर्भङ्गका उक्तस्थानेषु युज्यन्ते । मनुष्याणां तु प्रत्येकं क्रोधाधुपयोगवतां बहूनां भावान्न कषायोदये विशेषोऽस्ति । तेन तेषां तेषु स्थानेषु भङ्गकाभाव इति। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १२१ श.१: उ.५: सू.२५४,२५५ २५४. वाणमंतर-जोतिस-वेमाणिया जहा भव- णवासी, नवरं-नाणत्तं जाणियब्वं जंजस्स जाव अणुत्तरा। वानमन्तर-ज्यौतिष-वैमानिकाः यथा भवन- २५४. वानमंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव वासिनः नवरं नानात्वं ज्ञातव्यम् । यद् यस्य भवनवासी देवों की भांति वक्तव्य हैं, केवल यावद् अनुत्तराः । जिसका जो नानात्व है वह ज्ञातव्य है' यावत् अनुत्तर विमान तक। भाष्य १. जिसका जो नानात्व है वह ज्ञातव्य है। ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में भवनपति देवों से कुछ विशेषताएं हैं । देखें यन्त्र भवनपति ज्योतिष्क वैमानिक तेजस लेश्या तेजस्, पद्म, शुक्ल अज्ञान | भजना (असंज्ञी की ३ नियमा (असंज्ञी | ३ नियमा अपेक्षा--विभंग वाद में) उत्पन्न नहीं होते) । (मति, श्रुत, विभंग) २५५. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विह- २३ से मौत से पहले ति जाब विर विति तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति यावद् २५५. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते वह ऐसा ही विहरति । है। इस प्रकार भगवान् गौतम यावत् संयम और तप से अपने आप को भावित करते हुए विहरण कर रहे हैं। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल सूरिय-पदं २५६. जावइयाओ णं भंते ! ओवासंतराओ उदयंते सूरिए चक्खुप्फासं हव्यमागच्छति, अत्थमंते वि य णं सूरिए तावतियाओ चैव ओवासंतराओ चक्खुप्फासं हव्यमागच्छति ? हंता गोयमा ! जावइयाओ णं ओवासंतराओ उदयंते सूरिए चक्खुप्फासं हव्यमागच्छति, अत्थमंते वि य णं सूरिए तावतियाओ चैव ओवासंतराओ चक्खुप्फासं हव्यमागच्छति ॥ २५७. जावइय णं भंते! खेत्तं उदयंते सूरिए आयवेणं सव्वओ समंता ओभासेइ उज्जोएइ तवे पभासेइ, अत्थमंते वि य णं सूरिए तावइयं चैव खेत्तं आयवेणं सव्वओ समंता ओभाइ ? उज्जोइ ? तवेइ ? पभासेइ ? हंता गोयमा ! जावतिय णं खेत्तं उदयंते सूरिए आयवेणं सव्वओ समंता ओभासे उज्जोएइ तवेइ पभासेइ, अत्थमंते वि य णं सूरए तावइयं चैव खेत्तं आयवेणं सव्वओ समंता ओभासेइ उज्जोएइ तवेइ पभासेइ ॥ छट्टो उद्देसो : छठा उद्देशक संस्कृत छाया सूर्य-पदम् यावतः भदन्त ! अवकाशान्तराद् उदयन् सूर्यः चक्षुःस्पर्शं 'हव्वं' आगच्छति, अस्तमयन्नपि च सूर्यः तावतः चैव अवकाशान्तराच् चक्षुःस्पर्शं 'हव्वं' आगच्छति ? हन्त गौतम ! यावतः अवकाशान्तराद् उदयन् सूर्यः चक्षुःस्पर्श 'हव्वं' आगच्छति, अस्तमयन्नपि च सूर्यः तावतः चैव अवकाशान्तराच् चक्षुःस्पर्श 'हव्वं' आगच्छति । यावद् भदन्त ! क्षेत्रम् उदयन् सूर्यः आतपेन सर्वतः समन्ताद् अवभासयति उद्योतयति तापयति प्रभासयति, अस्तमयन्नपि च सूर्य: तावच्चैव क्षेत्रम् आतपेन सर्वतः समन्ताद् अवभासयति ? उद्द्योतयति ? तापयति ? प्रभासयति ? हंत गौतम ! यावत् क्षेत्रम् उदयन् सूर्यः आतपेन सर्वतः समन्ताद् अवभासयति उद्द्योतयति तापयति प्रभासयति, अस्तमयन्नपि च सूर्यः तावच्चैव क्षेत्रम् आतपेन सर्वतः समन्ताद् अवभासयति उद्योतयति तापयति प्रभासयति । भाष्य १. सूत्र २५६, २५७ प्रस्तुत आलापक में सूर्य के उदय और अस्त के समय दृष्टिगोचर होने का उल्लेख है। किन्तु कितने अन्तराल से दृष्टिगोचर होता है, इसका स्पष्ट निर्देश नहीं है। इसी प्रकार अवभासित होने वाले क्षेत्र के परिमाण का भी स्पष्ट निर्देश नहीं है । वृत्तिकार ने १. भ. बृ. १ । २५६ -- स च किल सर्वाभ्यन्तरमण्डले सप्तचत्वारिंशति योजनानां सहस्रेषु द्वयोः शतयोस्त्रिषष्टौ (४७२६३) च साधिकायां वर्तमान उदये दृश्यते । हिन्दी अनुवाद सूर्य-पद २५६ 'भन्ते ! उगता हुआ सूर्य जितने अब - काशान्तर से दृष्टिगोचर होता है, क्या अस्त होता हुआ सूर्य भी उतने ही अवकाशान्तर से दृष्टिगोचर होता है ? हां, गौतम ! उगता हुआ सूर्य जितने अवकाशान्तर से दृष्टिगोचर होता है, अस्त होता हुआ सूर्य भी उतने ही अवकाशान्तर से दृष्टिगोचर होता है। २५७ भन्ते ! उगता हुआ सूर्य अपने आप से सब दिशाओं और विदिशाओं में जितने क्षेत्र को अवभासित, उद्योतित, तप्त और प्रभासित करता है', , क्या अस्त होता हुआ सूर्य भी अपने आतप से सब दिशाओं और विदिशाओं में उतने ही क्षेत्र को अवभासित, उद्घोतित, तप्त और प्रभासित करता है ? हां, गौतम ! उगता हुआ सूर्य अपने आप से सब दिशाओं और विदिशाओं में जितने क्षेत्र को अवभासित, उद्योतित, तप्त और प्रभासित करता है, अस्त होता हुआ सूर्य भी अपने आप से सब दिशाओं और विदिशाओं में उतने ही क्षेत्र को अवभासित, उद्योतित, तप्त और प्रभासित करता है । लिखा है कि सर्वाभ्यन्तरमण्डल में वर्तमान सूर्य उदय और अस्त के समय ४७२६३ साधिक योजन की दूरी से दृष्टिगोचर होता है । यह अन्तर मण्डल - परिवर्तन के साथ बदलता रहता है। इसकी पूरी जानकारी के लिए सूरपण्णत्ती (२ । ३) द्रष्टव्य है । २५७ वां सूत्र वृत्ति अस्तसमयेऽप्येवम् । एवं प्रतिमण्डलं दर्शने विशेषोऽस्ति स च स्थानान्तरादवसेयः । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १२३ श.१: उ.६: सू.२५६-२५६ में व्याख्यात नहीं है। सूरपण्णत्ती के अनुसार एक सूर्य जम्बूद्वीप के डेढ़ पञ्चचक्र भाग को अवभासित, उयोतित, तप्त और प्रभासित करता है। शब्द-विमर्श अवकाशान्तर-वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किये हैं१.आकाशविशेष २.अवकाशरूप अन्तराल । अवकाशान्तर आकाश का एक पर्यायवाची नाम है। इसलिए इसका अर्थ केवल आकाश किया जा सकता है। हवं इसके अनेक अर्थ होते हैं-अर्वाक्, शीघ्र, सहसा ।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'शीघ्र' किया है। इस शब्द का प्रयोग वाक्यालंकार के लिए भी होता है। दृष्टिगोचर-जैन तर्कशास्त्र के अनुसार चक्षु अप्राप्यकारी है, इसलिए वृत्तिकार ने यहां 'स्पर्श' शब्द की मीमांसा की है। उनके अनुसार 'स्पर्श इव' (छूने जैसे) के अर्थ में 'स्पर्श' पद का प्रयोग किया गया है। भगवद्गीता एवं आप्टे-कोश में स्पर्श का अर्थ 'इन्द्रिय-विषय' मिलता है। सब दिशाओं और विदिशाओं में वृत्तिकार ने सवओ का अर्थ 'सब दिशाओं में' तथा समन्तात् का अर्थ 'सब विदिशाओं में किया है और इनको एकार्थक भी माना है।' २. अवभासित.........प्रभासित करता है वृत्तिकार ने ओमासेइ आदि चार क्रिया-पदों की व्याख्या 'प्रकाश की चार अवस्थाओं के रूप में की है अवमासयति—यह प्रथम अवस्था है। इसमें प्रकाश मन्द होता है। इससे स्थूलतर वस्तुएं प्रकाशित होती हैं। उद्योतयति—यह दूसरी अवस्था है। इसमें पहली की अपेक्षा प्रकाश तेज होता है। इससे स्थूल वस्तुएं दिखाई देती हैं। तापयति-इससे शीत का अपनयन होता है तथा सूक्ष्म पिपीलिका आदि जीव प्रकाशित होते हैं। प्रभासयति इसमें अतिताप के योग से शीत का अधिक अपनयन होता है तथा सूक्ष्मतर वस्तुएं दिखाई देती हैं। २५८. तं भंते ! किं पुटुं ओभासेइ ? अपुटुं ओभासेइ ? तद् भदन्त ! किं स्पृष्टम् अवभासयति ? २५८. भन्ते ! क्या सूर्य स्पृष्ट क्षेत्र को अवभासित अस्पृष्टम् अवभासयति ? करता है ? अथवा अस्पृष्ट क्षेत्र को अवभासित करता है ? गौतम ! स्पृष्टम् अवभासयति, नो अस्पृष्टम्।। गौतम ! वह स्पृष्ट क्षेत्र को अवभासित करता है, अस्पृष्ट क्षेत्र को अवभासित नहीं करता। गोयमा ! पुढे ओमासेइ, नो अपुढे ॥ २५६. तं भंते ! किं ओगाढं ओमासेइ ? अणोगाढं ओभासेइ ? तद् भदन्त ! किं अवगाढम् अवभासयति ? अनवगादम् अवभासयति ? २५६. भन्ते ! क्या सूर्य अवगाढ क्षेत्र को अवभासित करता है ? अथवा अनवगाढ क्षेत्र को अवभासित करता है ? गौतम ! वह अबगाढ क्षेत्र को अवभासित करता है, अनवगाढ क्षेत्र को अवभासित नहीं करता। गोयमा ! ओगाढं ओभासेइ, नो अणोगाढं ॥ गौतम ! अवगाढम् अवभासयति, नो अनव- गाढम्। भाष्य १. अवगाढ अवगाढ का अर्थ है वस्तु का व्याप्ति-क्षेत्र; जितने क्षेत्र में वस्तु व्याप्त होती है, उतना क्षेत्र अवगाढ कहलाता है। १. सूर.३।२। २. भ.वृ.१।२५६–'अवकाशान्तरात्' आकाशविशेषादवकाशरूपान्तरालाद्वा । ३. भ.२०१६-अंतलिक्खे इ वा, सामे इ वा, ओवासंतरे इ वा, ....।। ४. देशीशब्दकोश। ५. भ.वृ.१।२५६–'हव्वं' ति शीघ्रम् । ६. वही,११२५६-चक्षुषो-दृष्टेः स्पर्श इव स्पर्शो न तु स्पर्श एव चक्षुषोऽप्राप्त कारित्वादिति चक्षुःस्पर्शस्तम्। ७. (क) गीता,२।१४—मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय ! शीतोष्ण सुखदुःखदाः । (ख) आप्टे.स्पर्श:--Contact (in all senses). ८. भ.वृ.१।२५७–'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु 'समन्तात्' विदिक्षु एकार्थों वैतौ । ६. वही,१।२५७–'अवभासयति' ईषत्प्रकाशयति यथा स्थूलतरमेव वस्तु दृश्यते। 'उद्योतयति' भृशं प्रकाशयति यथा स्थूलमेव दृश्यते । 'तपति' अपनीतशीतं करोति यथा वा सूक्ष्म पिपीलिकादि दृश्यते। 'प्रभासयति' तितापयोगाद्विशेषतोऽपनीतशीतं विधत्ते यथा वा सूक्ष्मतरं वस्तु दृश्यते । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१ : उ.६: सू.२६०-२६७ १२४ भगवई २६०. तं भंते ! किं अणंतरोगाढं ओभासेइ? परंपरोगाढं ओभासेइ ? गोयमा ! अणंतरोगाढं ओभासेइ, नो परंपरोगाढं। तद् भदन्त ! किम् अनन्तरावगाढम् अव- २६०. भन्ते ! क्या सूर्य अनन्तरावगाढ क्षेत्र को भासयति ? परम्परावगाढम् अवभासयति ? अवभासित करता है ? अथवा परम्परावगाढ क्षेत्र को अवभासित करता है ? गौतम ! अनन्तरावगाढम् अवभासयति, नो गौतम ! वह अनन्तरावगाढ क्षेत्र को अवभासित परम्परावगाढम् अवभासयति। करता है, परम्परावगाढ क्षेत्र को अवभासित नहीं करता। २६१.तं भंते ! किं अणुं ओभासेइ ? बायरं ओभासेइ ? तद् भदन्त ! किम् अणुम् अवभासयति ? २६१. भन्ते ! क्या सूर्य अणु (सूक्ष्म) क्षेत्र को बादरम् अवभासयति ? अवभासित करता है ? अथवा बादर (स्थूल) क्षेत्र को अवभासित करता है ? गौतम ! अणुमपि अवभासयति, बादरमपि गौतम ! सूर्य अणु क्षेत्र को भी अवभासित करता अवभासयति। है और बादर क्षेत्र को भी अवभासित करता है। गोयमा ! अणुं पि ओभासेइ, बायरं पि ओभासेइ॥ २६२.तं भंते ! किं उर्ल्ड ओभासेइ ? तिरियं ओभासेइ ? अहे ओमासेइ ? । तद् भदन्त ! किं ऊर्ध्वम् अवभासयति ? २६२. भन्ते ! क्या सूर्य ऊर्ध्व क्षेत्र को अवभासित तिर्यग् अवभासयति ? अधः अवभासयति? करता है ? तिरछे क्षेत्र को अवभासित करता है? अथवा अधः क्षेत्र को अवभासित करता है? गौतम ! ऊर्ध्वमपि अवभासयति, तिर्यगपि । गौतम ! वह ऊर्ध्व क्षेत्र को भी अवभासित करता अवभासयति, अधोऽपि अवभासयति । है, तिरछे क्षेत्र को भी अवभासित करता है और अधः क्षेत्र को भी अवभासित करता है। गोयमा ! उर्ल्ड पि ओभासेइ, तिरियं पि ओमासेइ, अहे पि ओमासेइ ॥ २६३. तं भंते ! किं आई ओभासेइ ? मज्झे ओभासेइ ? अंते ओभासेइ ? तद् भदन्त ! किम् आदिम् अवभासयति ? २६३. भन्ते ! क्या सूर्य क्षेत्र के आदि भाग को मध्यम् अवभासयति ?अन्तम् अवभासयति? अवभासित करता है ? मध्य भाग को अवभासित करता है ? अथवा अन्त भाग को अवभासित करता है? गौतम ! आदिमपि अवभासयति, मध्यमपि गौतम ! वह क्षेत्र के आदि भाग को भी अवभासित अवभासयति, अन्तमपि अवभासयति । करता है, मध्य भाग को भी अवभासित करता है और अन्त भाग को भी अवभासित करता है। गोयमा ! आई पि ओभासेइ, मझे पि ओभासेइ, अंते पि ओभासेइ । २६४. तं भंते ! किं सविसए ओभासेइ ? अविसए ओभासेइ ? तद् भदन्त ! किं स्वविषयम् अवभासयति ? २६४. भन्ते ! क्या सूर्य अपने विषय को अवभासित अविषयम् अवभासयति ? करता है अथवा अविषय को अवभासित करता गोयमा ! सविसए ओभासेइ, नो अविसए॥ गौतम ! स्वविषयम् अवभासयति, नो अवि- षयम्। गौतम ! वह अपने विषय को अवभासित करता है. अविषय को अवभासित नहीं करता। २६५. तं भंते ! किं आणुपुत्विं ओभासेइ ? । तद् भदन्त ! किं आनुपूर्वीम् अवभासयति ? २६५. भन्ते ! क्या सूर्य अपने विषय को क्रम से अणाणुपुत्विं ओभासेइ ? अनानुपूर्वीम् अवभासयति ? अवभासित करता है ? अथवा अक्रम से अव भासित करता है ? गोयमा ! आणुपुब्बिं ओभासेइ, नो गौतम ! आनुपूर्वीम् अवभासयति, नो अना- गौतम ! वह अपने विषय को क्रम से अवभासित अणाणूपुबिं॥ नुपूर्वीम् अवभासयति। करता है, अक्रम से अवभासित नहीं करता। २६६. तं भंते ! कइदिसि ओभासेइ ? तद् भदन्त ! कति दिशः अवभासयति ? २६६. भन्ते ! सूर्य कितनी दिशाओं को अवभासित करता है ? गौतम ! वह नियमतः छहों दिशाओं को अवभासित करता है। गोयमा ! नियमा छहिसिं ओभासेइ ॥ गौतम ! नियमात् षड्दिशः अवभासयति। २६७. एवं-उज्जोवेइ तवेइ पभासेइ ।। एवम्-उद्द्योतयति, तापयति, प्रभासयति। २६७. उयोतित, तप्त और प्रभासित इन Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १२५ श.१: उ.६: सू.२६७-२७३ फुसणा-पदं क्रियापदों के साथ अवभासित की भांति पूर्ण आलापक वक्तव्य है। स्पर्शना-पदम् स्पर्शना-पद २६८. से नृणं भंते ! सव्बंति सवाति अथ नूनं भदन्त ! 'सव्वंति सव्वावंति' स्पृश्य- २६८. 'भन्ते ! स्पृश्यमान काल के समय में कोई फुसमाणकालसमयंसि जावतियं खेत्तं फुसइ मानकालसमये यावत् क्षेत्रं स्पृशति तावत् स्कन्ध सब दिशाओं में सर्वात्मना जितने क्षेत्र का तावतियं फुसमाणे पुढे त्ति वत्तव्बं सिया? स्पृश्यमानं स्पृष्टम् इति वक्तव्यं स्यात् । स्पर्श करता है, क्या उतने स्पृश्यमान क्षेत्र को स्पृष्ट कहा जा सकता है ? हंता गोयमा ! सव्वंति सब्वावंति फुसमाण- हन्त गौतम ! 'सव्वंति सब्वावंति' स्पृश्य- हां, गौतम ! स्पृश्यमान काल के समय में वह सब कालसमयंसि जावतियं खेत्तं फुसइ तावतियं मानकालसमये यावत् क्षेत्रं स्पृशति तावत् दिशाओं में सर्वासना जितने क्षेत्र का स्पर्श करता फुसमाणे पुढे त्ति वत्तवं सिया।। स्पृश्यमानं स्पृष्टम् इति वक्तव्यं स्यात् । है, उतने स्पृश्यमान क्षेत्र को स्पृष्ट कहा जा सकता २६६. तं भंते ! किं पुढे फुसइ ? अपुढे फुसइ ? गोयमा ! पुढे फुसइ, नो अपुढे फुसइ जाव नियमा छद्दिसि फुसइ॥ तद् भदन्त ! किं स्पृष्टं स्पृशति ? अस्पृष्टं २६६. भन्ते ! क्या कोई स्कन्ध स्पृष्ट क्षेत्र का स्पर्श स्पृशति ? करता है ? अथवा अस्पृष्ट क्षेत्र का स्पर्श करता है ? गौतम ! स्पृष्टं स्पृशति, नो अस्पृष्टं यावन् गौतम! वह स्पृष्ट क्षेत्र का स्पर्श करता है, अस्पृष्ट क्षेत्र नियमात् षड्दिशः स्पृशति। का स्पर्श नहीं करता यावत् नियमतः छहों दिशाओं का स्पर्श करता है। २७०. लोयंते भंते ! अलोयंतं फुसइ ? लोकान्तः भदन्त ! अलोकान्तं स्पृशति ? २७०. भन्ते ! क्या लोकान्त अलोकान्त का स्पर्श अलोयंते वि लोयंतं फुसइ ? अलोकान्तोऽपि लोकान्तं स्पृशति ? करता है ? अलोकान्त भी लोकान्त का स्पर्श करता हंता गोयमा ! लोयंते अलोयंतं फुसइ, हन्त गौतम ! लोकान्तः अलोकान्तं स्पृशति, अलोयंते वि लोयंतं फुसइ॥ अलोकान्तोऽपि लोकान्तं स्पृशति । हां, गौतम ! लोकान्त अलोकान्त का स्पर्श करता है और अलोकान्त भी लोकान्त का स्पर्श करता है। २७१. तं भंते ! किं पढें फुस अपुटुं फुसइ ? गोयमा ! पुटुं फुसइ, नो अपुढे जाव नियमा छद्दिसि फुसइ॥ तद् भदन्त ! किं स्पृष्टं स्पृशति ? अस्पृष्टं २७१. भन्ते ! क्या वह स्पृष्ट क्षेत्र का स्पर्श करता स्पृशति ? है ? अथवा अस्पृष्ट क्षेत्र का स्पर्श करता है ? गौतम ! स्पृष्टं स्पृशति, नो अस्पृष्टं यावन् गौतम ! वह स्पृष्ट क्षेत्र का स्पर्श करता है, अस्पृष्ट नियमात् षड्दिशः स्पृशति। क्षेत्र का स्पर्श नहीं करता यावत् नियमतः छहों दिशाओं का स्पर्श करता है। २७२. दीवंते भंते ! सागरंतं फुसइ ? सागरते वि दीवंतं फुसइ ? हंता गोयमा ! दीवंते सागरंतं फुसइ, सागरते वि दीवंतं फुसइ जाव नियमा छद्दिसि फुसइ॥ द्वीपान्तः भदन्त ! सागरान्तं स्पृशति ? साग- २७२. भन्ते ! क्या द्वीप का अन्त सागर के अन्त रान्तोऽपि द्वीपान्तं स्पृशति ? का स्पर्श करता है ? सागर का अन्त भी द्वीप के अन्त का स्पर्श करता है ? हन्त गौतम ! द्वीपान्तः सागरान्तं स्पृशति, हां, गौतम ! द्वीप का अन्त सागर के अन्त का सागरान्तोऽपि द्वीपान्तं स्पृशति यावन् स्पर्श करता है और सागर का अन्त भी द्वीप के नियमात् षड्दिशः स्पृशति । अन्त का स्पर्श करता है यावत् नियमतः छहों दिशाओं का स्पर्श करता है। २७३. उदयंते भंते ! पोयंतं फुसइ ? पोयंते वि उदयंतं फुसइ ? हंता गोयमा! उदयंते पोयंत फुसइ, पोयंते वि उदयंतं फुसइ जाव नियमा छद्दिसि फुसइ॥ उदकान्तः भदन्त ! पोतान्तं स्पृशति ? पोता- २७३. भन्ते ! क्या पानी का अन्त जलयान के न्तोऽपि उदकान्तं स्पृशति ? अन्त का स्पर्श करता है ? जलयान का अन्त भी पानी के अन्त का स्पर्श करता है ? हन्त गौतम ! उदकान्तः पोतान्तं स्पृशति। हां, गौतम ! पानी का अन्त जलयान के अन्त पोतान्तोऽपि उदकान्तं स्पृशति यावन् का स्पर्श करता है और जलयान का अन्त भी नियमात् षड्दिशः स्पृशति। पानी के अन्त का स्पर्श करता है यावत् नियमतः छहों दिशाओं का स्पर्श करता है। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १: उ.६: सू.२६८-२७५ २७४. छिते भंते! दूतं फुसइ ? दूसंते विछितं फुसइ ? हंता गोयमा ! छिद्दंते दूसंतं फुसइ, दूसंते विछितं फुसइ जाव नियमा छद्दिसिं फुसइ ॥ २७५. छायंते भंते ! आयवंतं फुसइ ? आयवि छात फुस ? हंता गोयमा ! छायंते आयवंतं फुसइ, आयवंते वि छायंतं फुसइ जाव नियमा छद्दिसिं फुसइ ॥ १२६ भगवई छिद्रान्तः भदन्त ! दूष्यान्तं स्पृशति ? दूष्या- २७४. भन्ते ! क्या छिद्र का अन्त वस्त्र के अन्त तोऽपि छिद्रान्तं स्पृशति ? का स्पर्श करता है? वस्त्र का अन्त भी छिद्र के अन्त का स्पर्श करता है ? हां, गौतम ! छिद्र का अन्त वस्त्र के अन्त का स्पर्श करता है और वस्त्र का अन्त भी छिद्र के अन्त का स्पर्श करता है यावत् नियमतः छहों दिशाओं का स्पर्श करता है। हन्त गौतम ! छिद्रान्तः दूष्यान्तं स्पृशति, दूष्यान्तोऽपि छिद्रान्तं स्पृशति यावन् नियमात् षड्दिशः स्पृशति । छायान्तः भदन्त ! आतपान्तं स्पृशति ? आतपान्तोऽपि छायान्तं स्पृशति ? हन्त गौतम ! छायान्तः आतपान्तं स्पृशति, आतपान्तोऽपि छायान्तं स्पृशति यावन् नियमात् षड्दिशः स्पृशति । १. सूत्र २६८- २७५ वस्तु को जानने के अनेक कोण होते हैं। जैन तत्त्व - विद्या में वस्तु-विज्ञान के चौदह कोण - मार्गणाएं प्रतिपादित हैं — निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति, विधान, सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व।' १ प्रस्तुत आलापक में स्पर्शना का सिद्धान्त प्रतिपादित है। स्पर्शना अवगाहना से भिन्न है। जितने क्षेत्र में वस्तु की व्याप्ति होती है, अवगाहना उतनी ही होती है; स्पर्शना का क्षेत्र उससे अधिक होता है— उसमें अव्यवहित आकाश-प्रदेश का स्पर्श होता है। सूत्रकार ने कुछ उदाहरणों के द्वारा इस विषय को स्पष्ट किया है। लोकान्त अलोकान्त में अवगाढ नहीं है, फिर भी वह अलोकान्त का स्पर्श करता है। इसी प्रकार द्वीप सागर, जल-जलपोत, वस्त्र-छिद्र, छाया- आतप —- ये सभी निदर्शन उसी विषय को स्पष्ट करते हैं । भाष्य २ स्पर्शना के सिद्धान्त के साथ-साथ स्पृश्यमान और स्पृष्ट का एकत्व भी बतलाया गया है। इसकी 'क्रियमाण-कृत' के सिद्धान्त से तुलना की जा सकती है। जंबुद्दीवपण्णत्ती में एक प्रश्न है-क्या सूर्य अतीत क्षेत्र में जाता है ? क्या प्रत्युत्पन्न क्षेत्र में जाता है ? क्या अनागत क्षेत्र में जाता है ? उत्तर दिया गया वह अतीत क्षेत्र में नहीं जाता, अनागत क्षेत्र में भी नहीं जाता, किन्तु वर्तमान क्षेत्र में जाता है । १. त. सू. १1७,८ निर्देश स्वामित्व-साधनाधिकरण-स्थिति-विधानतः । सत्-संख्या क्षेत्र - स्पर्शन-कालान्तर भावाल्पबहुत्वैश्च । २. भ. १।३७१ । ३. जंबु. ७ । ३६,४० । ४. भ. वृ. १ । २६८ । दूसरा प्रश्न पूछा गया -- भन्ते ! क्या स्पृष्ट क्षेत्र में जाता है या अस्पृष्ट क्षेत्र में जाता है ? जाता । २७५. भन्ते ! क्या छाया का अन्त आतप के अन्त का स्पर्श करता है ? आतप का अन्त भी छाया के अन्त का स्पर्श करता है ? हां, गौतम ! छाया का अन्त आतप के अन्त का स्पर्श करता है और आतप का अन्त भी छाया के अन्त का स्पर्श करता है यावत् नियमतः छहों दिशाओं का स्पर्श करता है। उत्तर दिया गया—स्पृष्ट क्षेत्र में जाता है, अस्पृष्ट क्षेत्र में नहीं ३ प्रस्तुत प्रकरण में भी स्पृष्ट के स्पर्श की बात बतलाई गई है। इसका तात्पर्य है कि वर्तमान क्षण में जो क्षेत्र स्पृश्यमान है, वही स्पृष्ट है। इस अपेक्षा से कहा गया है कि अस्पृष्ट क्षेत्र का स्पर्श नहीं किया जाता, स्पृष्ट क्षेत्र का ही स्पर्श किया जाता है। शब्द-विमर्श सव्वंति सव्वाति-वृत्तिकार ने प्राकृत भाषा के अनुसार सव्वंति का अर्थ 'सर्वतः' और सव्वावंति का 'सर्वात्मना किया है। इसके अतिरिक्त कुछ वैकल्पिक अर्थ भी किए हैं। वे केवल बौद्धिक हैं। आचारांग वृत्ति में सब्बावंति को मागध देशी भाषा का प्रयोग बतलाया है। ' छहों दिशाओं का स्पर्श करता है—१. लोकान्त के पार्श्व में सर्वतः अलोक है। ऊर्ध्वलोक के ऊपर भी अलोक है और अधोलोक के नीचे भी अलोक है। चारों दिशाएं पूरे लोक में फैली हुई हैं। इस आधार पर छहों दिशाओं के स्पर्श की बात घटित होती है। ५. आ.वृ. प. २५ – 'एआवंती सव्वावंती'ति एतौ द्वौ शब्दी मागधदेशीभाषाप्रसिद्ध्या या एतावन्तः सर्वेऽपीत्येतत् पर्यायौ । ६. भ. वृ. १ । २७१ – तं च षट्सु दिक्षु स्पृशति, लोकान्तस्य पार्श्वतः सर्वतोऽलोकातस्य भावात् । इह च विदिक्षु स्पर्शना नास्ति, दिशां लोकविष्कम्भप्रमाणत्वाद् विदिशां च तत्परिहारेण भावादिति । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १२७ श.१: उ.६: सू.२६८-२७६ २. कुछ द्वीप और समुद्र हजार योजन अवगाढ होते हैं। उन अन्त आतप के अन्त का चार दिशाओं में स्पर्श कर रहा है। पक्षी ऊर्ध्ववर्ती और अधोवर्ती द्वीप-समुद्रों की अपेक्षा से ऊंची और नीची की ऊंचाई की अपेक्षा से छायान्त और आतपान्त में ऊंची, नीची दिशा की स्पर्शना घटित होती है।' दिशा की स्पर्शना घटित होती है। ३. जल और जलपोत में पोत की ऊंचाई की अपेक्षा से इसे दूसरे उदाहरण से भी समझाया गया है-प्रासाद की ऊर्ध्व दिशा की स्पर्शना और जलनिमञ्जन की अपेक्षा से नीची दिशावरण्डिका आदि की छाया का दीवार पर अवतरण और आरोहण की स्पर्शना घटित होती है। होता है, उससे भी ऊंची, नीची दिशा की स्पर्शना समझी जा सकती ४. वस्त्र और छिद्र में वस्त्र की ऊंचाई की अपेक्षा से अथवा है। वस्त्र की पोटली में कोई जीव उत्पन्न हुआ और उसके द्वारा उस - इसे समझने का तीसरा विकल्प बहुत सूक्ष्म और महत्त्वपूर्ण पोटली में कोई छेद बन गया, उस अपेक्षा से ऊंची और नीची दिशा है। छाया और आतप के पुद्गल असंख्येय प्रदेशावगाही होते हैं; की स्पर्शना घटित होती है। इसलिए उनमें ऊंचाई का होना स्वाभाविक है। ऊंचाई होने के कारण ५. कोई पक्षी आकाश में उड़ रहा है। उसकी छाया का ऊंची, नीची दिशा की स्पर्शना सहज प्राप्त है।' किरिया-पदं क्रिया-पदम् क्रिया-पद २७६. अत्थि णं भंते ! जीवाणं पाणाइवाए णं किरिया कजइ? हंता अत्थि॥ अस्ति भदन्त ! जीवानां प्राणातिपातः क्रिया २७६. 'भन्ते ! क्या जीवों के प्राणातिपातक्रिया क्रियते ? होती है ? हंत अस्ति। हां, होती है। २७७. सा भंते ! किं पुडा काइ ? अपुट्ठा सा भदन्त ! किं स्पृष्टा क्रियते ? अस्पृष्टा २७७. भन्ते ! क्या वह स्पृष्ट होती है ? अथवा काइ? क्रियते ? अस्पृष्ट होती है ? गोयमा ! पुट्ठा काइ, नो अपुट्ठा कजइ गौतम ! स्पृष्टा क्रियते, नो अस्पृष्टा क्रियते गौतम ! वह स्पृष्ट होती है, अस्पृष्ट नहीं होती जाव निवाघाएणं छदिसि, वाघायं पडुच्च यावन् निर्व्याघातेन षड्दिशः, व्याघातं प्रतीत्य यावत् व्याघात न होने पर प्राणातिपातक्रिया छहों सिया तिदिसि, सिया चउदिसिं, सिया स्यात् त्रिदिशः, स्याच् चतुर्दिशः, स्यात् पञ्च- दिशाओं में होती है, व्याघात होने पर तीन, चार, पंचदिसिं॥ दिशः। अथवा पांच दिशाओं में होती है। २७८. सा भंते ! किं कडा कजइ ? अकडा कजइ? गोयमा ! कडा कजइ, नो अकडा कज- सा भदन्त ! किं कृता क्रियते ? अकृता २७८. भन्ते ! क्या वह कृत होती है ? अथवा क्रियते ? अकृत होती है ? गौतम ! कृता क्रियते, नो अकृता क्रियते। गौतम ! वह कृत होती है, अकृत नहीं होती। २७६. सा भंते ! किं अत्तकडा कजइ ? पर कडा कजइ ? तदुभयकडा कजइ? गोयमा ! अत्तकडा काइ, नो परकडा कजइ, नो तदुभयकडा काइ॥ सा भदन्त ! किम् आत्मकृता क्रियते ? पर- २७६. भन्ते ! क्या वह आत्मकृत होती है ? परकृत कृता क्रियते ? तदुभयकृता क्रियते ? होती है ? अथवा उभयकृत होती है ? गौतम ! आत्मकता क्रियते, नो परकता गौतम! वह आत्मकत होती है, परकत नहीं होती, क्रियते, नो तदुभयकृता क्रियते। उभयकृत भी नहीं होती। १. वही,१।२७२---'छद्दिसिं' इत्यस्यैवं भावना—योजनसहस्रावगाढा द्वीपाश्च समुद्राश्च भवन्ति, ततश्चोपरितनानधस्तनांश्च द्वीपसमुद्रप्रदेशानाश्रित्य ऊर्ध्वा- ऽधोदिग्द्वयस्य स्पर्शना वाच्या पूर्वादिदिशां तु प्रतीतैव, समन्ततस्तेषा- मवस्थानात् । २. वही,१४२७३'उदयंते पोयतं' ति नद्याधुदकान्तः 'पोतान्तं' नौपर्यवसानम्, इहायुच्छ्यापेक्षया ऊर्ध्वदिक्स्पर्शना वाच्या जलनिमज्जनेन वेति । ३. वही,११२७४–'छिदंते दूसंत' न्ति छिद्रान्तः 'दूष्यान्तं' वस्त्रान्तं स्पृशति । इहापि षड्दिक्स्पर्शनाभावना वस्त्रोच्छ्यापेक्षया। अथवा कम्बलरूपवस्त्रपोलिकायां तन्मध्योत्पन्नजीवभक्षणेन तन्मध्यरन्ध्रापेक्षया लोकान्तसूत्रवत् षड्दिक्स्पर्शना भावयितव्या । ४. वही,११२७-'छायंते आयवंतंति इह छायाभेदेन षड्दिग्भावनैवम् – आतपे व्योमवर्तिपक्षिप्रभृतिद्रव्यस्य या छाया तदन्त आतपान्तं चतसृषु दिक्षु स्पृशति तथा तस्या एव छायाया भूमेः सकाशात्तद्र्व्यं यावदुच्छ्योऽस्ति, ततश्च छायान्त आतपान्तमूर्ध्वमधश्च स्पृशति । अथवा प्रासादवरण्डिकादेर्या छाया तस्या भित्तेरवतरन्त्या आरोहन्त्या वाऽन्त आतपान्तमूर्ध्वमधश्च स्पृशतीति भावनीयम् । अथवा तयोरेव छायाऽऽतपयोः पुद्गलानामसंख्येयप्रदेशावगाहित्वादुच्छ्रयसद्भावः, तत्सद्भावाच्चोोऽधोविभागः। ततश्च छायान्त आतपान्तमूर्ध्वमधश्च स्पृशतीति। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १: उ.६ः सू.२७६-२८६ २८०. सामंते ! किं आणुपुब्बिं कडा कजइ ? का ? गोमा ! आणुपु िकडा कजइ, नो अणापुब्बिं कडा कजइ । जा य कडा, जा य कज्जइ, जाय कज्जिस्सइ, सव्वा सा आणुकिडा, नो अापु िकडा ति वत्तब्वं सिया ॥ २८१. अत्थि णं भंते ! नेरइयाणं पाणाइवायकिरिया कज्जइ ? हंता अस्थि ॥ २८२. सा भंते ! किं पुट्ठा कज्जइ ? अपुट्ठा कजइ ? गोयमा ! पुट्ठा कज्जइ, नो अपुट्ठा कज्जइ जाव नियमा छद्दिसिं कज्जइ ॥ २८३. सा भंते! किं कडा कज्जइ ? अकडा कजइ ? गोयमा ! कडा कजइ, नो अकडा कज्जइ ॥ २८४. तं चैव जाव नो अणाणुपुव्विं कडा वत्तव्यं सिया ॥ " २८५. जहा नेरइया तहा एगिंदियवज्जा भाणियव्वा जाव वेमाणिया । एगिंदिया जहा जीवा तहा भाणियव्या ॥ २८६. जहा पाणाइवाए तहा मुसावाए तहा अदिण्णादाणे, मेहुणे, परिग्गहे, कोहे, माणे, माया, लोभे, पेजे, दोसे, कलहे, अब्भक्खाणे, पेसुण्णे, परपरिवाए, अरतिरति, मायामोसे, मिच्छादंसणसल्ले एवं एए अट्ठारस । चउवीसं दंडगा भाणियब्वा ॥ १२८ सा भदन्त ! किम् आनुपूर्वीकृता क्रियते ? अनानुपूर्वीकृता क्रियते ? गौतम ! आनुपूर्वीकृता क्रियते, नो अनानुपूर्वीकृता क्रियते । या च कृता, या च क्रियते, या च करिष्यते, सर्वा सा आनुपूर्वीकृता, नो अनानुपूर्वीकृता इति वक्तव्यं स्यात् । अस्ति भदन्त ! नैरयिकाणां प्राणातिपातक्रिया २८१. भन्ते ! क्या नैरयिक जीवों के प्राणातिक्रियते ? पातक्रिया होती है ? हां, होती है। हन्त अस्ति । सा भदन्त ! किं स्पृष्टा क्रियते ? अस्पृष्टा २८२. भन्ते ! क्या वह स्पृष्ट होती है ? अथवा क्रियते ? अस्पृष्ट होती है ? गौतम ! स्पृष्टा क्रियते, नो अस्पृष्टा क्रियते यावन् नियमात् षड्दिशः क्रियते । सा चैव यावन् नो अनानुपूर्वीकृता इति वक्तव्यं स्यात् । सा भदन्त ! किं कृता क्रियते ? अकृता २८३. भन्ते ! क्या वह कृत होती है ? अथवा क्रियते ? अकृत होती है। गौतम ! कृता क्रियते, नो अकृता क्रियते । गौतम ! वह कृत होती है, अकृत नहीं होती । यथा नैरयिकाः तथा एकेन्द्रियवर्जाः भणितव्याः यावद् वैमानिकाः । एकेन्द्रियाः यथा जीवाः तथा भणितव्याः । यथा प्राणातिपातः तथा मृषावादः तथा अदत्तादानं, मैथुनं परिग्रहः, क्रोधः, मानः, माया, लोभः, प्रेयः, दोषः, कलहः, अभ्याख्यानं, पैशुन्यं, परपरिवादः, अरतिरतिः, मायामृषा, मिथ्यादर्शनशल्यम् — एवं एते अष्टादश । चतुर्विंशतिः दण्डकाः भणि तव्याः । १. सूत्र २७६-२८६ क्रिया का सामान्य अर्थ है परिस्पन्द, हलन चलन । प्रस्तुत प्रकरण में क्रिया का अर्थ है 'कर्म' अथवा 'प्रवृत्ति' । सूत्रकृतांग चूर्णि में क्रिया, कर्म, परिस्पन्द और कर्मबन्ध-ये एकार्थक माने गये १. भ. वृ. १ । २७६ – क्रियत इति क्रिया-कर्म । २. सूत्र. चू. पू. ३१६ क्रिया कर्म परिस्पन्द इत्यनर्थान्तरम् । भगवई २८०. भन्ते ! क्या वह आनुपूर्वी ( क्रम) - कृत होती है ? अथवा अनानुपूर्वीकृत होती है ? गौतम ! वह आनुपूर्वीकृत होती है, अनानुपूर्वी- कृत नहीं होती। जो क्रिया की गई हैं, जो की जा रही है और जो की जायेगी, यह सारी आनुपूर्वी कृत है, अनानुपूर्वीकृत नहीं ----ऐसा कहा जा सकता है। भाष्य गौतम ! वह स्पृष्ट होती है, अस्पृष्ट नहीं होती यावत् नियमतः छहों दिशाओं में होती है। २८४. यहां पूर्व-आलापक वक्तव्य है यावत् वह अनानुपूर्वीकृत नहीं होती ऐसा कहा जा सकता है । २८५. एकेन्द्रिय जीवों को छोड़कर वैमानिक तक के सभी जीव नैरयिक की भांति वक्तव्य हैं। एकेन्द्रिय सामान्य जीव की भांति वक्तव्य हैं। २८६. प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेय, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, अरतिरति मायामृषा और मिथ्यादर्शनशल्य-ये अठारह क्रियाएं हैं। जैसे प्राणातिपात का आलापक चौबीस दण्डक में कहा गया, वैसे सभी आलापक वक्तव्य हैं। मृषावाद आदि हैं।' प्रज्ञापनावृत्ति में 'कर्मबन्ध की हेतुभूत चेष्टा' को क्रिया कहा गया है। प्राणातिपात आदि अठारह क्रियाएं यहां निर्दिष्ट हैं । प्राण का वियोजन करना प्राणातिपात-क्रिया है। इसी प्रकार मृषा वचन ३. प्रज्ञा.वृ. प. ४३५ करणम् – क्रिया — कर्मबन्धनिबन्धनं चेष्टा । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १२६ श.१: उ.६: सू.२७६-२८८ बोलना मृषावाद-क्रिया है। अदत्त वस्तु लेना अदत्तादान-क्रिया है। प्राणातिपात.......मिथ्यादर्शनशल्य-आगम में प्राणातिपात क्रिया के साथ तीन परिणमन जुड़े हुए हैं। प्राणातिपात का आदि अठारह स्थानों के साथ 'पाप' शब्द का प्रयोग नहीं मिलता। अतीतकालीन संस्कार प्राणातिपात पापस्थान कहलाता है। वर्तमान में आयारो में जे णिबुया पावेहि कम्मेहिं (आ.८/१६) पाठ मिलता है। होने वाली प्राणातिपात की प्रवृत्ति प्राणातिपात-क्रिया कहलाती है। चूर्णिकार ने पापकर्म की व्याख्या में प्राणातिपात आदि अठारह स्थानों प्राणातिपात से होने वाला कर्म-बन्धन प्राणातिपात की परिणति का उल्लेख किया है।' पावं कम्मं अकुब्बमाणे (आ.८३३) की कहलाती है। यहां प्राणातिपात-क्रिया के विषय में विशेष जानकारी व्याख्या में भी पाप कर्म का अर्थ हिंसा आदि अठारह पाप कर्म के लिए कुछ पद प्रस्तुत किये गये हैं । उनमें पहला 'स्पर्श' पद किया गया है। 'प्रवचनसारोद्धार की वृत्ति में भी अठारह पापस्थान का है। 'प्राणातिपात-क्रिया स्पृष्ट होती है', इसका तात्पर्य है कि वह उल्लेख मिलता है। प्राणातिपात करने वाले से एकात्म होकर होती है। ‘यावत्' पद के प्रेयः-वृत्तिकार ने प्रेयस् का अर्थ अभिष्वंगमात्र किया है। द्वारा अवगाढ-अनवगाढ, अनन्तरावगाढ-परम्परावगाढ, अणु-बादर, इसमें माया और लोभ अभिव्यक्त नहीं होते। ऊर्ध्व-अधः-तिर्यग, आदि-मध्य-अन्त, स्वविषय-अविषय, आनुपूर्वी दोष—इसका अर्थ अप्रीतिमात्र है। इसमें क्रोध और मान अनानुपूर्वी और दिशा-इतने पदों का निर्देश है। 'दिशा' पद के व्यक्त नहीं होते। विषय में एक विशेष नियम का निर्देश है—लोकान्त के निष्कुटों में अभ्याख्यान-असद् दोष को प्रकट करना, आरोप लगाना। केवल एकेन्द्रिय जीव प्राप्त हैं। उनकी अपेक्षा से तीन, चार, पांच और छह दिशाओं का निर्देश किया गया है। पैशुन्य-छिपे-छिपे असद् दोष को प्रकट करना । क्रिया कृत होती है, अकृत नहीं होती। वह आत्मकृत होती परपरिवाद परनिन्दा, गुण में दोष बतलाना । है, परकृत और तदुभयकृत नहीं होती। यह आत्मकर्तृत्ववादी दर्शन अरतिरति मोहनीय के उदय से होने वाले चित्त के उद्वेग का ध्रुव सिद्धान्त है। आनुपूर्वी का अर्थ है क्रम और अनानुपूर्वी का को 'अरति' कहा जाता है। उस उद्वेग को मिटाने के लिए विषयों अर्थ है अक्रम—एक साथ होना, जिसमें पूर्व और पश्चात् का विभाग में प्रवृत्त होना ‘रति' है। न हो, एक साथ एक ही क्रिया होती है, दो, तीन, चार क्रियाएं मायामृषा-कपटपूर्वक झूठ बोलना। वृत्तिकार के अनुसार नहीं होतीं। प्रत्येक क्रिया का अपना-अपना काल होता है। जहां इसका अर्थ है वेशान्तर और भाषान्तर के द्वारा दूसरों को ठगने काल का क्रम है वहां आनुपूर्वी-कृत होना अवश्यंभावी है। की प्रवृत्ति। शब्द-विमर्श मिथ्यादर्शनशल्य-'मिथ्यादर्शन' शल्य की भांति व्यथा का कजइ (क्रियते) यहां इस धातु का प्रयोग होना' इस अर्थ कारण बनता है; इसलिए उसे शल्य कहा गया है।' में किया गया है।' २६७. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति जाव विहरति ॥ तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति भगवान् २८७. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भंते ! वह ऐसा ही गौतमः श्रमणं भगवंतं महावीरं वन्दते यावत् है-इस प्रकार भगवान् गौतम श्रमण भगवान् विहरति। महावीर को वन्दन करते हैं यावत् संयम और तप से अपने आप को भावित करते हुए विहरण कर रोहस्स पह-पदं रोहस्य प्रश्न-पदम् रोह के प्रश्न-पद २५८. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी रोहे णामं अणगारे पगइभद्दए पगइउवसंते पगइ- तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतः २८८. 'उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीरस्य अन्तेवासी रोहः नाम अणगारः महावीर का एक अन्तेवासी शिष्य था। उसका प्रकृतिभद्रकः प्रकृत्युपशांतः प्रकृतिप्रतनुक्रोध- नाम था अनगार रोह । वह प्रकृति से भद्र और १. भ.वृ.१।२७६ क्रियते भवति । २. आ.चू.पृ.२५८। ३. वही,पृ.२६८---पावं कम्मं हिंसादि । ४. प्र.सारो.वृ.प.३६५-अधुना 'अट्ठारस पावठाणगाइति सप्तत्रिंशदधिक द्विशततमं द्वारमाह। ५. भ.वृ.१।२८६–'पेजे' अनभिव्यक्तमायालोभस्वभावमभिष्वङ्गमात्रं प्रेम । 'दोसे' अनभिव्यक्तक्रोधमानस्वरूपमप्रीतिमात्र द्वेषः। 'अमक्खाणे' असद्दोषाविष्क रणं । 'पेसुन्ने' प्रच्छन्नमसद्दोषाविष्करणं | ‘परपरिवाए' विप्रकीर्णं परेषां गुणदोषवचनम् । 'अरतिरती' अरतिः–मोहनीयोदयाच्चित्तोद्वेगस्तत्फला, रतिःविषयेषु मोहनीयोदयाच्चित्ताभिरतिररतिरतिः। 'मायामोसे' तृतीयकषायद्वितीयाश्रवयोः संयोगः । अनेन च सर्वसंयोगा उपलक्षिताः । अथवा वेषान्तरभाषान्तरकरणेन यत्परवञ्चनं तन्मायामृषेति । मिथ्यादर्शनं शल्यमिव विविधव्यथानिवन्धनत्वान्मिध्यादर्शनशल्यमिति । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.६: सू.२८८-२६४ १३० भगवई पयणुकोहमाणमायालोमे मिउमद्दवसंपन्ने मानमायालोभः मृदुमार्दवसम्पन्नः आलीनः उपशान्त था । उसके क्रोध, मान, माया और लोभ अल्लीणे विणीए समणस्स भगवओ महा- विनीतः श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अदूर- प्रतनु (पतले) थे। वह मृदुमार्दवसम्पत्र, आलीन वीरस्स अदूरसामंते उटुंजाणू अहोसिरे सामन्ते ऊर्ध्वजानुः अधःशिराः ध्यानकोष्ठो- (संयतेन्द्रिय) और विनीत था। वह श्रमण भगवान् झाणकोवोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं पगतः संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् ___ महावीर के न अति दूर और न अति निकट भावेमाणे विहरइ॥ विहरति। ऊर्ध्वजानु अधःसिर–इस मुद्रा में और ध्यानकोष्ठ में लीन होकर संयम और तप से अपने आपको भावित करता हुआ रह रहा है। २६६. तते णं से रोहे अणगारे जायसढे जाव पज्जवासमाणे एवं वदासी ततः स रोहः अनगारः जातश्रद्धः यावत् २८६. उस समय अनगार रोह के मन में एक श्रद्धा पर्युपासीनः एवमवादीत् उत्पन्न हुई यावत् भगवान् महावीर की पर्युपासना करता हुआ वह इस प्रकार बोला २६०. पुदि भंते ! लोए, पच्छा अलोए ? पूर्वं भदन्त ! लोकः, पश्चाद् अलोकः ? पूर्वम् २६०. भन्ते ! क्या पहले लोक और फिर अलोक पुब्बिं अलोए, पच्छा लोए? अलोकः, पश्चाद् लोकः ? बना? क्या पहले अलोक और फिर लोक बना? रोहा ! लोए य अलोए य पुट्विं पेते, पच्छा रोह ! लोकः च अलोकः च पूर्वम् अपि एतौ, रोह! लोक और अलोक पहले भी थे और आगे भी पेते-दो वेते सासया भावा, अणाणुपुब्बी पश्चाद् अपि एतौ-द्वौ वा एतौ शाश्वती होंगे। ये दोनों शाश्वत भाव हैं। रोह ! यह एसा रोहा! भावी, अनानुपूर्वी एषा रोह ! अनानुपूर्वी है-लोक और अलोक में पूर्व-पश्चात् का क्रम नहीं है। २६१. पुदि भंते ! जीवा, पच्छा अजीवा ? पुचिं अजीवा, पच्छा जीवा ? रोहा ! जीवा य अजीवा य पुब्बिं पेते, पच्छा पेते-दो वेते सासया भावा, अणाणुपुब्बी एसा रोहा ! पूर्वं भदन्त ! जीवाः, पश्चाद् अजीवाः ? २६१. भन्ते ! क्या पहले जीव और फिर अजीव पूर्वम् अजीवाः, पश्चाद् जीवाः ? बने ? क्या पहले अजीव और फिर जीव बने ? रोह ! जीवाः च अजीवाः च पूर्वम् अपि एतौ, रोह ! जीव और अजीव पहले भी थे और आगे पश्चादपि एती-द्वौ वा एतौ शाश्वती भावौ, भी होंगे। ये दोनों शाश्वत भाव हैं। रोह ! यह अनानुपूर्वी एषा रोह ! अनानुपूर्वी है—जीव और अजीव में पूर्व-पश्चात् का क्रम नहीं है। २६२. पब्बिं भंते ! भवसिद्धिया, पच्छा अभ- पूर्वं भदन्त ! भवसिद्धिकाः, पश्चाद् अभव- २६२. भन्ते ! क्या पहले भवसिद्धिक और फिर वसिद्धिया ? पुब्बिं अभवसिद्धिया, पच्छा सिद्धिकाः ? पूर्वम् अभवसिद्धिकाः, पश्चाद् अभवसिद्धिक बने ? क्या पहले अभवसिद्धिक भवसिद्धिया ? भवसिद्धिकाः? और फिर भवसिद्धिक बने ? रोहा ! भवसिद्धिया य अभवसिद्धिया य । रोह ! भवसिद्धिकाः च अभवसिद्धिकाः च रोह ! भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक पहले भी पुब्बिं पेते, पच्छा पेते-दो वेते सासया पूर्वम् अपि एतौ, पश्चादपि एतौ द्वौ वा थे और आगे भी होंगे। ये दोनों शाश्वत भाव भावा, अणाणुपुब्बी एसा रोहा ! एतौ शाश्वतौ भावी, अनानुपूर्वी एषा रोह ! हैं। रोह ! यह अनानुपूर्वी है—भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक में पूर्व-पश्चात् का क्रम नहीं है। २६३. पुब्बिं भंते ! सिद्धि, पच्छा असिद्धि? पुबिं असिद्धि, पच्छा सिद्धि ? पूर्वं भदन्त ! सिद्धिः, पश्चाद् असिद्धि: ? २६३. भन्ते ! क्या पहले सिद्धि और फिर असिद्धि पूर्वम् असिद्धिः, पश्चाद् सिद्धिः ? बनी ? क्या पहले असिद्धि और फिर सिद्धि बनी? रोहा ! सिद्धि य असिद्धि य पुब्बिं पेते, पच्छा पेते-दो वेते सासया भावा, अणा- णुपुब्बी एसा रोहा ! रोह ! सिद्धिःच असिद्धिः च पूर्वम् अपि एते, पश्चादपि एते-द्वे वा एते शाश्वतौ भावी, अनानुपूर्वी एषा रोह ! रोह ! सिद्धि और असिद्धि पहले भी थी और आगे भी होगी। ये दोनों शाश्वत भाव है। रोह! यह अनानुपूर्वी है--सिद्धि और असिद्धि में पूर्व-पश्चात् का क्रम नहीं है। २६४. पुदि भंते ! सिद्धा, पच्छा असिद्धा? पूर्वं भदन्त ! सिद्धाः, पश्चाद् असिद्धाः ? २६४. भन्ते ! क्या पहले सिद्ध और फिर असिद्ध पुब्बिं असिद्धा, पच्छा सिद्धा? पूर्वम् असिद्धाः, पश्चाद् सिद्धाः ? बने ? क्या पहले असिद्ध और फिर सिद्ध बने? रोहा ! सिद्धा य असिद्धा य पुब्बिं पेते, रोह ! सिद्धाः च असिद्धाः च पूर्वम् अपि एतौ, रोह ! सिद्ध और असिद्ध पहले भी थे और आगे Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई पच्छा पेते—दो वेते सासया भावा, अणावी एसा रोहा ! २६५. पुब्बिं भंते ! अंडए, पच्छा कुक्कुडी ? कुकडी, पच्छा अंड ? रोहा ! से णं अंडए कओ ? भयवं ! कुक्कुडीओ । साणं कुकुडी कओ ? भंते ! अंडयाओ । एवमेव रोहा ! से य अंडए, साथ कुक्कुडी पुब्बिं पेते, पच्छा पेते—दो वेते सासया भावा, अणाणुपुब्बी एसा रोहा ! २६६. पुबिं भंते! लोयंते, पच्छा अलोयंते ? पुधिं अलोयंते, पच्छा लोयंते ? रोहा ! लोयंते य अलोयंते य पुबिं पेते, पच्छा पेते—दो वेते सासया भावा, अणापुव्वी एसा रोहा ! २६७. पुब्बिं भंते! लोयंते, पच्छा सत्तमे ओवासंतरे ? पुव्विं सत्तमे ओवासंतरे, पच्छा लोयते ? रोहा ! लोयंते य सत्तमे ओवासंतरे य पुब्बिं पेते, पच्छा पेते—दो वेते सासया भावा, अणापुबी एसा रोहा ! २६८. एवं लोयंते य सत्तमे य तणुवाए । एवं घणवाए, घणोदही, सत्तमा पुढवी । एवं लोयंते एक्केकेणं संजोएतव्ये इमेहिं ठाणेहिं, तं जहा संगहणी गाहा ओवास-वात- घणुदहिपुढवि-दीवाय सागरा वासा । नेरइयादि अत्थिय, समया कम्माइ लेस्साओ ||१|| १३१ पश्चादपि एतौ दौ वा एती शाश्वती भावी, अनानुपूर्वी एषा रोह ! पूर्वं भदन्त ! अण्डकः, पश्चात् कुक्कुटी ? पूर्वं कुक्कुटी पश्चाद् अण्डकः ? रोह ! स अण्डकः कुतः ? भगवन्! कुक्कट्याः । साकुक्कुटी कुतः ? भदन्त ! अण्डकात् । एवमेव रोह ! स च अण्डकः, सा च कुक्कुटी, पूर्वम् अपि एतौ पश्चादपि एतौ द्वौ वा एती शाश्वती भावी, अनानुपूर्वी एषा रोह ! पूर्वं भदन्त ! लोकान्तः, पश्चाद् अलोकान्तः ? पूर्वम् अलोकान्तः पश्चाद् लोकान्तः ? रोह ! लोकान्तः च अलोकान्तः च पूर्वम् अपि एतौ पश्चादपि एतौ द्वौ वा एतौ शाश्वती भावी, अनानुपूर्वी एषा रोह ! पूर्वं भदन्त ! लोकान्तः पश्चात् सप्तमम् अवकाशान्तरम् ? पूर्वं सप्तमम् अवकाशान्तरं पश्चाद् लोकान्तः ? रोह ! लोकान्तः च सप्तमम् अवकाशान्तरं च पूर्वम् अपि एते, पश्चादपि एते द्वे वा एते शाश्वती भावी, अनानुपूर्वी एषा रोह ! एवं लोकान्तः च सप्तमः च तनुवातः । एवं घनवातः घनोदधिः सप्तमी पृथिवी । एवं लोकान्तः एकैकेन संयोजयितव्यः एभिः स्थानैः, तद्यथा— संग्रहणी गाथा अवकाश-वात- घनोदधिपृथिवी - द्वीपाश्च सागराः वर्षाणि । नैरयिकादि अस्तिकायः, समयाः कर्माणि लेश्याः ॥ श. १: उ.६ः सू.२६४-२६८ भी होंगे। ये दोनों शाश्वत भाव हैं। रोह ! यह अनानुपूर्वी है— सिद्ध और असिद्ध में पूर्व-पश्चात् का क्रम नहीं है। २६५. भन्ते ! क्या पहले अण्डा और फिर मुर्गी पैदा हुई ? क्या पहले मुर्गी और फिर अण्डा पैदा हुआ? रोह ! वह अण्डा कहां से पैदा हुआ ? भगवन् ! मुर्गी से । वह मुर्गी कहां से पैदा हुई ? ! भन्ते ! अण्डे से । रोह ! इसी प्रकार वही अण्डा है, वही मुर्गी है। ये पहले भी थे और आगे भी होंगे। ये दोनों शाश्वत भाव हैं। रोह ! यह अनानुपूर्वी है-अण्डे और मुर्गी में पूर्व-पश्चात् का क्रम नहीं है। २६६. भन्ते ! क्या पहले लोकान्त और फिर अलोकान्त बना ? क्या पहले अलोकान्त और फिर लोकान्त बना ? रोह ! लोकान्त और अलोकान्त पहले भी थे और आगे भी होंगे। ये दोनों शाश्वत भाव हैं। रोह ! यह अनानुपूर्वी है— लोकान्त और अलोकान्त में पूर्व-पश्चात् का क्रम नहीं है । २६७. भन्ते ! क्या पहले लोकान्त और फिर सातवां अवकाशान्तर बना? क्या पहले सातवां अवका शान्तर और फिर लोकान्त बना ? रोह ! लोकान्त और सातवां अवकाशान्तर पहले भी थे और आगे भी होंगे। ये दोनों शाश्वत भाव हैं। रोह ! यह अनानुपूर्वी है— लोकान्त और सातवें अवकाशान्तर में पूर्व-पश्चात् का क्रम नहीं है। २६८. इस प्रकार लोकान्त के साथ सातवें तनुवात, घनवात, घनोदधि और सातवीं पृथ्वी वक्तव्य हैं। इस प्रकार लोकान्त के साथ आगे बताए जाने वाले प्रत्येक विषय की संयोजना करणीय है, जैसे— संग्रहणी गाथा अवकाशान्तर, वात, (तनुवात और धनवात), धनोदधि, पृथ्वी, द्वीप, समद्र, वर्ष (क्षेत्र), नैरयिक आदि (चौबीस दण्डक) अस्तिकाय, समय (काल-विभाग), कर्म, लेश्या, दृष्टि, दर्शन, ज्ञान, संज्ञा, Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १: उ. ६ः सू. २६८-३०४ दिट्ठी दंसण-नाणे, सण- सरीरा य जोग-उवओगे । दव्व-पएसा पज्जव, अद्धा किं पुब्बिं लोयंते ॥ २ ॥ २६६. पुब्बिं भंते! लोयंते, पच्छा अतीतद्धा ? पुब्बिं अतीतद्धा, पच्छा लोयंते ? रोहा ! लोयंते य अतीतद्धा य पुबिं पेते, पच्छा पेते—दो वेते सासया भावा, अणाणुपुव्वी एसा रोहा ! ३००. पुब्बिं भंते! लोयंते, पच्छा अणागतद्धा ? पुचिं अणागतद्धा, पच्छा लोयंते ? रोहा ! लोयंते य अणागतद्धा य पुळिं पेते, पच्छा पेते—दो वेते सासया भावा, अणापुब्बी एसा रोहा ! रोहा ! लोयंते य सव्वद्धा य पुव्विं पेते, पच्छा पेते—दो वेते सासया भावा, अणापुची एसा रोहा ! ३०२. जहा लोयंतेणं संजोइया सव्वे ठाणा एते, एवं अलोयंतेणं वि संजोएतव्या सव्वे ॥ ३०३. पुल्लिं भंते ! सत्तमे ओवासंतरे, पच्छा सत्तमे तवाए ? पुब्बिं सत्तमे तणुवाए, पच्छा सत्तमे ओवासंतरे ? रोहा ! सत्तमे ओवासंतरे य सत्तमे तणुवाए य पुब्बिं पेते, पच्छा पेते—दो वेते सासया भावा, अणाणुपुबी एसा रोहा ! १३२ दृष्टिः दर्शन-ज्ञाने, संज्ञा शरीराणि च योग-उपयोगी । द्रव्य-प्रदेश- पर्यवा अद्ध्वा किं पूर्वं लोकान्तः ॥ पूर्वं भदन्त ! लोकान्तः पश्चाद् अतीताद्धवा ? पूर्वम् अतीतावा, पश्चाद् लोकान्तः ? रोह ! लोकान्तश्च अतीताद्द्वा च पूर्वम् अपि एतौ पश्चादपि एतौ द्वौ वा एतौ शाश्वतौ भावी, अनानुपूर्वी एषा रोह ! पूर्वं भदन्त ! लोकान्तः पश्चात्, अनागता वा? पूर्वं अनागताद्धवा, पश्चाद् लोकान्तः ? रोह ! लोकान्तश्च अनागताद्ध्वा च पूर्वम् अपि एतौ पश्चादपि एतौ द्वौ वा एतौ शाश्वती भावी, अनानुपूर्वी एषा रोह ! ३०१. पुब्बिं भंते! लोयंते, पच्छा सव्वद्धा ? पूर्वं भदन्त ! लोकान्तः, पश्चात् सर्वावा ? ३०१. भन्ते ! क्या पहले लोकान्त और फिर सर्वपुब्बिं सव्वद्धा, पच्छा लोयंते ? पूर्वं सर्वाद्धवा, पश्चाद् लोकान्तः ? काल बना ? क्या पहले सर्वकाल और फिर लोकान्त बना ? रोह ! लोकान्त और सर्वकाल पहले भी थे और आगे भी होंगे। ये दोनों शाश्वत भाव हैं। रोह ! यह अनानुपूर्वी है— लोकान्त और सर्वकाल में पूर्व-पश्चात् का क्रम नहीं है । रोह ! लोकान्तश्च सर्वाद्ध्वा च पूर्वम् अपि एतौ पश्चादपि एतौ द्वौ वा एती शाश्वती भावी, अनानुपूर्वी एषा रोह ! यथा लोकान्तेन संयोजितानि सर्वाणि स्थानानि एतानि एवम् अलोकान्तेन अपि संयोजयितव्यानि सर्वाणि । पूर्वं भदन्त ! सप्तमम् अवकाशान्तरम्, पश्चात् सप्तमः तनुवातः ? पूर्वं सप्तमः तनुवातः, पश्चात् सप्तमम् अवकाशान्तरम् ? रोह ! सप्तमम् अवकाशान्तरञ्च सप्तमः तनुवातश्च पूर्वम् अपि एतौ पश्चादपि एतौ - द्वौ वा एतौ शाश्वती भावी, अनानुपूर्वी एषा रोह ! भगवई शरीर, योग, उपयोग, द्रव्य, प्रदेश, पर्यव और काल । 'क्या पहले लोकान्त बना' - इस वाक्य में सूत्र-रचना का निर्देश है। २६६. भन्ते ! क्या पहले लोकान्त और फिर अतीतकाल बना ? क्या पहले अतीतकाल और फिर लोकान्त बना ? रोह ! लोकान्त और अतीतकाल पहले भी थे और आगे भी होंगे। ये दोनों शाश्वत भाव हैं। रोह ! यह अनानुपूर्वी है लोकान्त और अतीतकाल में पूर्व-पश्चात् का क्रम नहीं है। ३०० भन्ते ! क्या पहले लोकान्त और फिर अनागतकाल बना ? क्या पहले अनागतकाल और फिर लोकान्त बना ? रोह ! लोकान्त और अनागतकाल पहले भी थे और आगे भी होंगे। ये दोनों शाश्वत भाव हैं। रोह ! यह अनानुपूर्वी है— लोकान्त और अनागतकाल में पूर्व-पश्चात् का क्रम नहीं है । ३०२. जिस प्रकार लोकान्त के साथ इन सब पदों की संयोजना की गई, उसी प्रकार अलोकान्त के साथ भी इन सबकी संयोजना करणीय है। ३०४, एवं सत्तमं ओवासंतरं सब्वेहिं समं एवं सप्तमम् अवकाशान्तरं सर्वैः समं संयो- ३०४. इस प्रकार सातवें अवकाशान्तर की तनुवात संजोएतव्वं जाव सव्वद्धाए ॥ जयितव्यं यावत् सर्वाध्वनः । से लेकर सर्वकाल तक के सब पदों के साथ संयोजना करणीय है। ३०३. भन्ते ! क्या पहले सातवां अवकाशान्तर और फिर सातवां तनुवात बना ? क्या पहले सातवां तनुवात और फिर सातवां अवकाशान्तर बना ? रोह ! सातवां अवकाशान्तर और सातवां तनुवात पहले भी थे और आगे भी होंगे। ये दोनों शाश्वत भाव हैं। रोह ! यह अनानुपूर्वी है— सातवें अव काशान्तर और सातवें तनुवात में पूर्व-पश्चात् का क्रम नहीं है। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३०५. पुब्बिं भंते ! सत्तमे तणुवाए, पच्छा सत्तमे घणवाए ? पुलिं सत्तमे घणवाए, पच्छा सत्तमे तणुवाए ? रोहा ! सत्तमे तणुवाए य सत्तमे घणवाए य पुब्बिं पेते, पच्छा पेते—दो वेते सासया भावा, अणाणुपुबी एसा रोहा ! ३०६. एवं तहेव नेयव्वं जाव सब्बद्धा ॥ ३०७. एवं उवरिल्लं एक्केकं संजोयंतेणं, जो जो हिद्विल्लो तं तं छतेणं नेयव्वं जाव अतीत- अणागतद्धा, पच्छा सब्बद्धा जाव अापुवि एसा रोहा ! १३३ पूर्वं भदन्त ! सप्तमः तनुवातः पश्चात् सप्तमः घनवातः ? पूर्वं सप्तमः घनवातः पश्चात् सप्तमः तनुवातः ? रोह ! सप्तमः तनुवातः च सप्तमः घनवातः च पूर्वमपि एतौ पश्चादपि एतौ द्वौ वा एतौ शाश्वती भावी, अनानुपूर्वी एषा रोह ! एवं तथैव नेतव्यं यावत् सर्वाद्ध्वा । एवम् उपरितनम् एकैकं संयोजयता यद् यद् अधस्तनम् तत् तत् छर्दयता नेतव्यं यावद् अतीत- अनागताध्वा, पश्चाद् सर्वाद्ध्वा यावद् अनानुपूर्वी एषा रोह ! भाष्य १. सूत्र २८८-३०७ मनुष्य ने जब चिन्तन करना प्रारंभ किया तब से ही उसके मन में मूल तत्त्व के प्रति जिज्ञासा बनी हुई है। इस सृष्टि का मूल तत्त्व क्या है ? यह खोज चिर काल से चली आ रही है। उपनिषद् के ऋषि और यूनान के दार्शनिक इस खोज में संलग्न रहे हैं और उन्होंने नाना प्रकार के मत प्रतिपादित किए हैं। तैत्तिरीय उपनिषद् के अनुसार केवल वही तत्त्व इस वस्तु जगत् का चरम सत्य है, जिससे समस्त वस्तुओं की उत्पत्ति हुई हैं, जो समस्त वस्तुओं की सत्ता का आधार है और जिसमें अन्ततः समस्त वस्तुओं का लय होता है ।' तैत्तिरीय का ऋषि कहता है— पहले असत् था, उससे सत् उत्पन्न हुआ है। बृहदारण्यक में भी असत् से सत् की उत्पत्ति का उल्लेख मिलता है। छान्दोग्य उपनिषद् में असत् से सत् की उत्पत्ति का सिद्धान्त प्रतिपादित है । छान्दोग्य का दूसरा ऋषि कहता है कि असत् से सत् की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? पहले एक १. तैत्तिरीय उपनिषद्, भृगुवल्ली प्रकरण, ३1919 तं होवाच यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति, यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति, तद् विजिज्ञासस्व, तद् ब्रह्मेति । २. वही, २७- असद् वा इदं अग्र आसीत्, ततो वै सद् अजायत । ३. बृहदारण्यकोपनिषद्, १1२1१ नैवेह किंचनाग्र आसीत्, मृत्युनैवेदम् आवृतम् आसीत् । ४. छान्दोग्योपनिषद्, ३ । १६/१ – असद् एवेदम् अग्र आसीत्, ततः सद् आसीत् । ५. . वही, ६ । २ कुतस्तु खलु सौम्य एवं स्यादिति होवाच कथमसतः सज्जायेतेति । सत्त्वेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम् । श. १: उ. ६: सू.२८८-३०७ ३०५. भन्ते ! क्या पहले सातवां तनुवात और फिर सातवां घनवात बना? क्या पहले सातवां घनवात और फिर सातवां तनुवात बना ? रोह ! सातवां तनुवात और सातवां घनवात पहले भी थे और आगे भी होंगे। ये दोनों शाश्वत भाव हैं। रोह ! यह अनानुपूर्वी है— सातवें तनुबात और सातवें घनवात में पूर्व-पश्चात् का क्रम नहीं है। ३०६. इस प्रकार तनुवात के साथ सर्वकाल तक के सब पदों की संयोजना ज्ञातव्य है । ३०७ इस प्रकार अगले प्रत्येक पद की संयोजना करते जाएं और जो-जो पहला पद है उसे छोड़ते चले जाएं यावत् अतीत और अनागत काल पश्चात् सर्वकाल यावत् रोह ! अनागत काल और सर्वकाल पहले भी थे और आगे भी होंगे। ये दोनों शाश्वत भाव हैं। रोह ! यह अनानुपूर्वी है । मात्र सत् था और इससे ही सृष्टि का निर्माण हुआ है। ' सत्कारणवादी ऋषि भी एकमत नहीं है। बृहदारण्यक के अनुसार जगत् का मूल स्रोत जल है। ग्रीक दार्शनिक थेलिज (Thales) भी जल को जगत् का मूल स्रोत मानता है। उनके अनुसार सृष्टि के प्रारंभ में केवल जल का ही अस्तित्व था । उपनिषद् का रैक्क नामक ऋषि वायु में समस्त पदार्थों का निलय मानता है। ग्रीक दार्शनिक एनेक्जीमेनस (Anaximenes ) के अनुसार वायु समस्त वस्तुओं का आदि और अन्त है। ग्रीक दार्शनिक एनेक्जीमेण्डर (Anaximander) के अनुसार थिओस (Theos) नामक उपादान रूप भौतिक पदार्थ जो पूरे आकाश में व्याप्त था, सृष्टि का आदि और अन्त है। यह पृथ्वी, पानी आदि से भिन्न है।" उपनिषद् में अग्रि को मूल तत्त्व मानने का सिद्धांत स्पष्ट प्रतिपादित नहीं है।" हेराक्लाइटस (Heraclitus ) अग्नि को ६. बृहदारण्यकोपनिषद्, १२19 सोऽर्चन् अचरत्, तस्यार्चत आपोऽजायन्त । अर्चते वै मे कम् अभूद् इति; तद् एवार्कस्य अर्कत्वम्..... आपो वा अर्कः.... सा पृथिव्य् अभवत् ..... । ७. Greek Thinkers by Theoder Gomperz, vol. 1, p. 48. छान्दोग्योपनिषद्, ४ | ३ | १-४ ८. ६. Greek Thinkers, vol 1. pp. 51-52. १०. Ibid. p.56; The Principal Upanishads by Dr. S. Radhakrishnan, p. 404. ११. बृहदारण्यक उपनिषद्, एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृ. १४२-१४४ । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.६: सू.२८८-३०७ १३४ भगवई मूल पदार्थों का स्रोत मानता है।' प्रवाहण जैवलि ने आकाश को जीव-अजीववाद मूल तत्त्व बतलाया है। प्रवाहण जैवलि से पूछा गया कि पदार्थों भगवान् महावीर के अनुसार जीव अजीव का प्रतिपक्ष है और की चरम गति क्या है ? उन्होंने उत्तर की भाषा में कहा-आकाश। अजीव जीव का प्रतिपक्ष है। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व सिद्ध उनके अनुसार समस्त पदार्थों का उद्भव आकाश से ही होता है। नहीं होता। दोनों का अस्तित्व परस्पर सापेक्ष है; इसलिए न जीव और अन्त में आकाश में ही उनका निलय हो जाता है। अजीव से उत्पन्न होता है और न अजीव जीव से उत्पन्न होता है। यदि उपनिषद् के विभिन्न विषयों के नाना अभिमतों को। संक्षेप में मूल तत्त्व दो हैं-जीव और अजीव । विस्तार में मूल तत्त्व सार-संक्षेप में प्रस्तुत किया जाए तो निष्कर्ष यह होगा छह हैं-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्ति१. जगत् का मूल तत्त्व है असत् । काय, जीवास्तिकाय और काल । इनमें पांच तत्त्व अजीव और एक २. जगत् का मूल तत्त्व है सत् । जीव हैं। ३. जगत् का मूल तत्त्व है अचेतन । जीव-अजीव के पौर्वापर्य का अभाव सृष्टि-रचना के सन्दर्भ में ४. जगत् का मूल तत्त्व है चेतन या आत्मा । एक नयी अवधारणा प्रस्तुत करता है। सृष्टि-रचना के सन्दर्भ में दर्शन वैदिक ऋषि कहते है-उस समय प्रलय-दशा में असत् भी की धाराओं को दो भागों में विभाजित किया जा सकता हैनहीं था और सत् भी नहीं था। पृथ्वी भी नहीं थी। आकाश भी अद्वैतवाद और द्वैतवाद। अद्वैतवादी दार्शनिक चेतन या अचेतन का नहीं था। आकाश में विद्यमान सात भुवन भी नहीं थे। प्रकृत तत्त्व स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार नहीं करते। उनके अनुसार जीव और को कौन जानता है ? कौन उसका वर्णन करता है ? यह सृष्टि अजीव में से किसी एक तत्त्व का वास्तविक अस्तित्व है। इस विषय किन उपादान कारणों से हुई है ? किस निमित्त कारण से ये विविध में अद्वैतवाद की तीन मुख्य शाखाएं हैं-१. जड़ाद्वैतवाद २. चैतन्यासृष्टियां हुई ? कहां से सृष्टि हुई वह कौन जानता है ? ये सब वे द्वैतवाद ३. जड़चैतन्याद्वैतवाद। ही जानें जो इनके स्वामी परमधाम में रहते हैं। हो सकता है, वे जड़ाद्वैत के अनुसार जीव की उत्पत्ति अजीव से हुई है। भी यह सब नहीं जानते हों ?' अनात्मवादी चार्वाक और क्रमविकासवादी दार्शनिक इसी मत के सृष्टिविषयक इन विभिन्न मतवादों के सन्दर्भ में रोह के प्रश्नों समर्थक है। का मूल्यांकन किया जा सकता है। रोह के प्रश्न और महावीर के चैतन्याद्वैत के अनुसार सृष्टि का आदि कारण ब्रह्म है। वैदिक उत्तर के अध्ययन से अनादित्व का सिद्धांत फलित होता है। ऋषि कहते हैं-अप्रत्यक्ष ब्रह्म में ही सद्भाव प्रतिष्ठित है। इसी सत् लोक-अलोकवाद में सृष्टि के उपादानभूत पृथ्वी आदि निहित हैं, इसी से उत्पन्न होते हैं। ब्रह्म तीनों लोकों से अतीत है। उसने यह सोचा कि मैं किस अलोक का अर्थ है केवल आकाश और लोक का अर्थ है प्रकार लोगों में पैलूं ? तब वह नाम और रूप से लोगों में प्रविष्ट चेतन और अचेतन तत्त्व से संयुक्त आकाश । जैन दर्शन के अनुसार हुआ।" लोक और अलोक का विभाग नैसर्गिक है, अनादिकालीन है। वह किसी ईश्वरीय सत्ता द्वारा कृत नहीं है। लोक की स्वीकृति प्रायः जड़चैतन्याद्वैत के अनुसार जगत् की उत्पत्ति जीव और सभी दर्शनों ने की है। जगत् या सृष्टि को सब मानते हैं। किन्तु अजीव-इन दोनों गुणों के मिश्रण से हुई है। जड़ाद्वैतवाद और चैतन्याद्वैतवाद-ये दोनों कारणानुरूप कार्योत्पत्ति के सिद्धान्त को अजगत् या असृष्टि को कोई दार्शनिक स्वीकार नहीं करता। यह भगवान् महावीर की मौलिक देन है। इससे पक्ष और प्रतिपक्ष तथा स्वीकार नहीं करते। विरोधी युगल का सिद्धान्त फलित हुआ है। इसकी व्याख्या का द्वैतवादी दर्शन जड़ और चैतन्य दोनों का स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्धान्त है-अनेकान्तवाद। जगत् विरोधी युगलात्मक है। मानते हैं। इनके अनुसार जड़ से चैतन्य या चैतन्य से जड़ उत्पन्न अनेकान्तवाद या सापेक्षवाद के बिना उसकी व्याख्या नहीं की जा नहीं होता। कारण के अनुरूप ही कार्य का प्रादुर्भाव होता है। जैन सकती। दृष्टि के अनुसार विश्व एक शिल्पगृह है। उसकी व्यवस्था स्वयं उसी १. Greek Thinkers, vol: 1,p.63; The Principal Upnishads, p.33,footnote3. २. छान्दोग्य उपनिषद्, १८,१६१-तंह प्रवाहणोजैवलिर् उवाच-अस्य लोकस्य का गतिर् इत्य् आकाश इति होवाच । सर्वाणि ह वा इमानि भूतान्य आकाशाद् एव समुत्पद्यन्ते, आकाशं प्रत्यस्तम् यान्त्य् आकाशो ह्य् एवैभ्यो ज्यायान्, आकाशः परायणम् । ३. ऋग्वेद, मंडल १०,अनुवाक ११,सूक्त १२६,श्लोक१,६,७ नासदासीनो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत् । किमावरीवः कुह कस्य शर्मत्रम्भः किमासीद् गहनं गभीरम् ॥ को अद्धा वेद न इह प्रवोचत्कृत आजाता कुत इयं विसृष्टिः । अर्वाग्देवा अस्य विसर्जननाथा को वेद यत आवभूव ॥ इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न । यो आस्याध्यक्षः परमे व्योमन्सो अङ्गवेद यदि वा न वेद ॥ ४. अथर्ववेद,१७।१:१६--- असति सत् प्रतिष्ठितं सति भूतं प्रतिष्ठितं । भूतं ह भव्य आहितं भव्यं भूते प्रतिष्ठितम् ।। ५. शतपथ ब्राह्मण,१११।२।३ तद् द्वाभ्यामेव प्रत्यवेद रूपेण चैव नाम्ना च । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १३५ श.१: उ.६: सू.२८५-३०७ में समाविष्ट नियमों द्वारा होती है। ये नियम जीव और अजीव के भवसिद्धिक की व्याख्या दूसरे नयों से की गई हैविविध जातीय संयोग से स्वतः निष्पत्र हैं। १. केवली का सुख सर्वोत्कृष्ट होता है, यह सुनकर जो उसमें श्रद्धा भवसिद्धिक-सिद्धि-और सिद्धवाद करता है, वह भव्य और जो उसमें श्रद्धा नहीं करता, वह अभव्य ___ भवसिद्धिक, सिद्धि और सिद्ध ये तीनों युगल मूल तत्त्व नहीं हैं, फिर भी इनका अस्तित्व अनादिकालीन है। २. जिसमें अनन्त-चतुष्टयी (अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य) के विकास की योग्यता होती है, वह भव्य और जिसमें अनन्त-चतुष्टयी भगवान् महावीर के अनुसार जिस प्रकार यह सृष्टि का चक्र के विकास की योग्यता नहीं होती, वह अभव्य है। पौर्वापर्य-मुक्त चल रहा है, उसी प्रकार सिद्धि का क्रम भी इससे भिन्न अवकाशान्तर—आकाश लोक और अलोक दोनों में विद्यमान नहीं है। सिद्धि और असिद्धि ये दोनों शाश्वत भाव हैं। है। लोक में सात अवकाशान्तर माने गये हैं। तत्त्वार्थसूत्र में महर्षि पतञ्जलि ने भी सिद्धि और असिद्धि दोनों पहलुओं अवकाशान्तर के स्थान पर 'आकाश' शब्द का प्रयोग मिलता है। पर विचार किया है, दोनों को स्वीकार किया है, पर उनकी व्याख्या अवकाशान्तर आकाश का एक पर्यायवाची नाम है। प्रत्येक पदार्थ अर्हदृष्टि से भिन्न है। उनके अनुसार अनादिकालीन सिद्धि का में अवकाश होता है। परमाणु भी अवकाशशून्य नहीं है। अधिकारी केवल ईश्वर है, क्योंकि वह मुक्त पुरुष की तरह पूर्वबद्ध ___अवकाशान्तर का यह सिद्धान्त आधुनिक विज्ञान द्वारा समर्थित है। और प्रकृतिलीन की तरह उत्तरबद्ध नहीं होता। वह सदैव बंधमुक्त परमाणु के दो भाग हैं-इलेक्ट्रोन और प्रोटोन। इन दोनों के बीच होता है। उसकी यह बंधनमुक्ति ही अनादिसिद्धि है।' में एक अवकाश विद्यमान रहता है। दुनियां के समस्त पदार्थों में से सू. २६६ से जगत् की संरचना के घटक तत्त्वों का अनादित्व यदि अवकाश को निकाल लिया जाए, तो उसकी ठोसता आंवले बतलाया गया है। वे घटक तत्त्व छह हैं—अलोक, अवकाशान्तर, के आकार से बृहत् नहीं होती। तनुवात, घनवात, घनोदधि और पृथ्वी। अलोक पोले गोले के समान तनुवात, घनवात, घनोदधि-इनका शाब्दिक अर्थ क्रमशः इस है।' वह लोक के चारों और व्याप्त है। लोक उसमें समाया हुआ प्रकार हैहै। उपमा की भाषा में इसे (लोक को) आगासथिग्गल-आकाशरूपी तनुवात तरलीभूत वायु वस्त्र की एक कारी या थिगली कहा जा सकता है। अलोक की धनवात घनीभूत वायु सीमा से सटा हुआ है सातवां अवकाशान्तर । उसके ऊपर सातवां घनोदधि-जल की घनीभूत तरल अवस्था। तनुवात, फिर क्रमशः सातवां घनवात, सातवां घनोदधि और सातवीं प्रत्येक पृथ्वी इन तीनों वलयों से परिक्षिप्त होती है।" तत्त्वार्थपृथ्वी। अवकाशान्तर, तनुवात, घनवात, घनोदधि और पृथ्वी ये सभी वृत्ति में घनोदधि को भी वातवलय बतलाया गया है।" तत्त्वार्थसात-सात हैं।" राजवार्तिक में घनोदधि का अर्थ सघन जल किया गया है।" वृत्तिकार के अनुसार इन सूत्रों के द्वारा शून्यवाद, विज्ञानवाद अभयदेवसूरि ने घनोदधि की व्याख्या 'हिमशिला की भांति सघन और ईश्वरवाद का निरसन होता है, अनादित्व का सिद्धान्त स्थापित जल-समूह' की है।"अकलंकदेव के अनुसार घनोदधि, घनवात और होता है। तनुवात—ये तीन वलय हैं। रलप्रभा आदि पृथ्वियां घनोदधि-प्रतिष्ठित शब्द-विमर्श हैं, घनोदधि घनवात-प्रतिष्ठित है, घनवात तनुबात-प्रतिष्ठित है, तनुवात भवसिद्धिक-जिसमें मोक्षगमन की योग्यता हो, वह भवसिद्धिक आकाश-प्रतिष्ठित है और आकाश आत्मप्रतिष्ठित है। इन तीनों वलयों कहलाता है। भव्य इसका पर्यायवाची नाम है। दिगम्बर-साहित्य में में प्रत्येक वलय की मोटाई बीस हजार योजन बतलाई गई है।" १. पा.यो.द.१।२४। २. भ.११।६६ अलोए णं भंते ! किंसंठिए पण्णते ? गोयमा ! झुसिरगोलसंठिए पण्णत्ते ।। ३. पण्ण.१५/५३---आगासथिग्गले णं भंते ! किणा फुडे ? कइहिं वा काएहिं फुडे? ४. ठाणं,७।१४-२२। ५. भ.वृ.१।३०१-एतानि च सूत्राणि शून्यज्ञानादिवादनिरासेन विचित्रवाह्या ध्यात्मिकवस्तुसत्ताऽभिधानार्थानि ईश्वरादिकृतत्वनिरासेन चानादित्वाभिधा- नार्थानीति। ६. वही,१।२६२--भविष्यतीति भवा, भवा सिद्धिः--निवृत्तिर्येषां ते भव- सिद्धिकाः, भव्या इत्यर्थः। ७. प्र.सा.गा.६२ णो सद्दहति सोखं, सुहेसु परमंति विगदघादीणं । सुणिदूण ते अभव्वा, भव्या वा तं पडिच्छति ।। ८. नियमसारतात्पर्यवृत्ति,गा.१५६-भाविकाले स्वभावानन्तचतुष्टयात्मसहज___ ज्ञानादिगुणैः भवनयोग्याः भव्याः, एतेषां विपरीताः ह्यभव्याः । ६. त.सू.३।१–घनाम्बु-वाताकाशप्रतिष्ठाः सप्ताधोऽधः । १०. भ.२०।१६। ११. ठाणं,३१२५॥ १२. त.वृ.३।१। १३. त.रा.वा.३।१,पृ.१६० । १४. स्था.वृ.प.१६६---तत्र धनः-स्त्यानो हिमशिलावद् उदधिः- जलनिचयः, स च इति धनोदधिः। १५. त.रा.वा.३ । १,पृ.१६० सर्वा एता भूमयः घनोदधिवलयप्रतिष्ठाः, घनोदधिवलयं धनवातवलयप्रतिष्ठितम्, घनवातवलयं तनुवातवलयप्रतिष्ठितम्, तनुवातवलयमाकाशप्रतिष्ठितम्, आकाशमात्मप्रतिष्ठितं, तस्यैवाधाराधेयत्वात् Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.६: सू.२८८-३१० १३६ १३६ भगवई तिलोयपण्णत्ती में इनके वर्गों का भी उल्लेख मिलता है: तापमान पर हवा तरल हो जाती है तथा शून्य से २६०० कम घनोदधि का वर्ण गोमूत्र के समान है। धनवात का वर्ण मूंग के तापमान पर हवा ठोस हो जाती है। समान और तनुवात अनेक वर्ण वाला है।' तत्त्वार्थराजवार्तिक में वर्ण प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त घनोदधि और धनवात से यदि यह तात्पर्य का निर्देश कुछ व्यत्यय के साथ मिलता है। घनोदधि का वर्ण मूंग लिया जाए कि जब सम्पूर्ण वातवलय तरल रूप धारण कर ले, तब के समान, घनवात का वर्ण गोमूत्र के समान और तनुवात का अव्यक्त । उसे घनोदधि और ठोस रूप धारण कर ले तब उसे धनवात कहा वर्ण है। जाय, तो ऐसा माना जा सकता है कि घनोदधि अवस्था में तापमान घनोदधि, घनवायु, तनुवायु : वैज्ञानिक मीमांसा -१६० सें. ग्रे. तथा घनवात अवस्था में तापमान -२६०० सें. ग्रे. आधुनिक वैज्ञानिक सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक पदार्थ की होता है। तरल अवस्था में हवा (liquid air) का रंग थोड़ा नीला-सा तीन अवस्थाएँ होती हैं-ठोस या घन (solid), तरल (liquid) हा जाता है तथा वह बहुताश में पानी और वायु (gas)| जैसे-पानी सामान्य तापमान पर तरल अवस्था पृथ्वी के चारों और हवा का जो वातावरण है, उसमें भी में होता है। तापमान १००° सेंटीग्रेड होने पर वाष्प (या वायु भिन्न-भिन्न स्तर या वलय हैं। पृथ्वीतल से लगभग ५० मील (८० अवस्था) में परिणत हो जाता है, तथा तापमान ०(शून्य) डिग्री किलोमीटर) ऊपर जाने के पश्चात् जो स्तर है उसे थर्मोस्फीयर कहा सेंटीग्रेट होने पर बर्फ (या ठोस अवस्था) में परिणत हो जाता है। जाता है, जहां हवा बहुत ही पतली हो जाती है। इसकी तुलना यही स्थिति हवा की है। हवा (air) अपने आप में नाइट्रोजन, तनुवात से की जा सकती है। यह वलय लगभग ३०० मील (४५० आक्सीजन, आर्गोन आदि वायुओं का एक मिश्रण है। सामान्य कि. मी.) तक फैला हुआ है। थर्मोस्फीयर के नीचे मेसोस्फीयर है तापमान एवं दबाव की स्थिति में वह सदा वायु अवस्था में रहती जो बहुत ठंडा होता है, जहां का तापमान -६३° सें. ग्रे. तक हो है। सामान्य दबाव की स्थिति में शून्य से १६०° सेंटीग्रेड कम जाता है।' ३०८. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरइ॥ तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति यावद् ३०५. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही विहरति। है-इस प्रकार मुनि रोह यावत् संयम और तप से अपने आप को भावित करता हुआ विहरण कर रहा है। लाोयट्ठिति-पदं लोकस्थिति-पदम् लोकस्थिति-पद ३०६. भंतेति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं जाव एवं वयासी भदन्त ! अयि ! भगवान् गौतमः श्रमणं ३०६. भगवान् गौतम श्रमण भगवान् महावीर को भगवन्तं महावीरं यावद् एवमवादीत- 'भन्ते' इस संबोधन से संबोधित कर इस प्रकार बोले ३१०. कतिविहा णं मंते ! लोयद्विती पण्ण- कतिविधा भदन्त ! लोकस्थितिः प्रज्ञप्ता ? ३१०. 'भन्ते ! लोकस्थिति कितने प्रकार की प्रज्ञाप्त त्ता? गोयमा ! अदुविहा लोयद्विती पण्णत्ता, तं जहा-१.आगासपइट्ठिए वाए। २.वाय- पइदिए उदही। ३. उदहिपइडिया पुढवी। ४. पुढवीपइद्विया तसथावरा पाणा। ५.अजीवा जीवपइट्ठिया। ६. जीवा कम्म- पइडिया। ७. अजीवा जीवसंगहिया। .जीवा कम्मसंगहिया। गौतम ! अष्टविधा लोकस्थितिः प्रज्ञप्ता, तद् यथा—१. आकाशप्रतिष्ठितः वातः २. वात- प्रतिष्ठितः उदधिः ३. उदधिप्रतिष्ठिता पृथिवी ४. पृथिवीप्रतिष्ठिताः त्रसस्थावराः प्राणाः ५.अजीवाः जीवप्रतिष्ठिताः ६. जीवाः कर्म- प्रतिष्ठिताः ७. अजीवाः जीवसंगृहीताः ८.जीवाः कर्मसंगृहीताः। गौतम ! लोकस्थिति आठ प्रकार की प्रज्ञाप्त है, जैसे—१. वायु आकाश पर प्रतिष्ठित है।२. समुद्र वायु पर प्रतिष्ठित है। ३. पृथ्वी समुद्र पर प्रतिष्ठित है। ४. वस और स्थावर प्राणी पृथ्वी पर प्रतिष्ठित हैं। ५. अजीव जीव पर प्रतिष्ठित हैं। ६. जीव कर्म से प्रतिष्ठित हैं। ७. अजीव जीव के द्वारा संगृहीत हैं। ८. जीव कर्म के द्वारा संग्रहीत हैं। त्रीण्यप्येतानि वलयान्यन्वर्थसंज्ञानि प्रत्येकं विंशतियोजनसहस्रबाहुल्यानि। १. ति.प.१।२६८ गोमुत्तमुग्गवण्णा घणोदधी तह घणाणिलो वाऊ । तणुवादो बहुवण्णो रुक्खस्स तयं व वलयतियं ।। २. त.रा.वा.३।१,पृ.१६०--तत्र घनोदधयो मुद्गसन्निभाः, घनवाता गोमूत्र वर्णाः, अव्यक्तवर्णास्तनुवाताः । ३.The World Book Encyclopaedia,vol.1,pp.154-157;vol.12, p.304. Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १३७ श.१: उ.६: सू.३१०,३११ ३११. से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचइ- तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-अष्टविधा ३११. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा अट्ठविहा लोयट्टिती जाव जीवा कम्म- लोकस्थितिः यावज् जीवाः कर्मसंगृहीताः ? है—लोकस्थिति आठ प्रकार की प्रज्ञाप्त है यावत् संगहिया ? जीव कर्म के द्वारा संग्रहीत हैं ? गोयमा ! से जहाणामए केइ पुरिसे वत्थि- गौतम ! स यथानामकः कश्चित् पुरुषः गौतम ! जैसे कोई पुरुष किसी मशक में हवा माडोवेइ, वत्थिमाडोवेत्ता उप्पिं सितं बंधइ, वस्तिम आटोपयति, वस्तिम् आटोप्य उपरि भरता है, उसमें हवा भरकर ऊपर (मुंह के स्थान बंधित्ता मज्झे गठिं बंधइ, बंधित्ता उवरिल्लं सितं बध्नाति, बद्ध्वा मध्ये ग्रन्थिं बध्नाति, पर) गांठ देता है। फिर मशक के मध्य भाग में गठि मयइ, मइत्ता उवरिल्लं देसं वामेइ, बद्ध्या उपरितनं ग्रन्थिं मुञ्चति. मकत्वा गांठ लगाता है, वहां गांठ लगाकर ऊपर की गांठ वामेत्ता उवरिल्लं देसं आउयायस्स पूरेइ, उपरितनं देशम् वमयति, वनयित्वा उपरितनं को खोलता है। उसे खोलकर ऊपर के भाग की पूरेत्ता उप्पिं सितं बंधइ, बंधित्ता मज्झिल्लं देशम् अप्कायेन पूरयति, पूरयित्वा उपरि हवा को बाहर निकाल देता है। उसे निकाल कर गंठिं मुयइ । से नूणं गोयमा ! से आउयाए सितं बध्नाति, बद्ध्वा मध्यमं ग्रन्थिं मुञ्चति। ऊपर के भाग को जल से भरता है। उसे जल तस्स वाउयायस्स उप्पिं उवरिमतले चिट्ठइ? अथ नूनं गौतम ! सः अप्कायः तस्य वायु- से भरकर ऊपर गांठ देता है, वहां गांठ देकर कायस्य उपरि उपरितनतले तिष्ठति ? फिर मध्य भाग की गांठ खोलता है। गौतम ! क्या वह पानी उस वायु के ऊपर-ऊपर ठहरता हंता चिट्ठइ। से तेणडेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-अदुविहा लोयडिती जाव जीवा कम्मसंगहिया। हन्त तिष्ठति। तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-अष्टविधा लोकस्थितिः यावन् जीवाः कर्मसंगृहीताः। से जहा वा केई पुरिसे वत्थिमाडोवेइ, वत्थि- स यथा वा कश्चित् पुरुषः वस्तिम् आटो- माडोवेत्ता कडीए बंधइ, बंधित्ता अत्थाह- पयति, वस्तिम् आटोप्य कट्यां बध्नाति, मतारमपोरुसियंसि उदगंसि ओगाहेजा। से बद्ध्वा अस्ताघातारापौरुषेये उदके अव- नृणं गोयमा ! से पुरिसे तस्स आउयायस्स गाहते। अथ नूनं गौतम ! स पुरुषः तस्य उवरिमतले चिदुइ ? अप्- कायस्य उपरितनतले तिष्ठति ? हां, ठहरता है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा हैलोकस्थिति आठ प्रकार की प्रज्ञाप्त है यावत् जीव कर्म के द्वारा संगृहीत हैं। जैसे कोई पुरुष मशक में हवा भरता है, उसमें हवा भरकर उसे अपने कटि-प्रदेश में बांधता है, वहां बांधकर अथाह, अतर तथा अपौरुषेय जल में अवगाहन करता है । गौतम ! क्या वह पुरुष जल के ऊपर-ऊपर ठहरता है ? हां, ठहरता है। इसी प्रकार लोकस्थिति आठ प्रकार की प्रज्ञप्त है यावत् जीव कर्म के द्वारा संगृहीत हैं । हंता चिट्ठइ। हन्त तिष्ठति। एवं वा अविहा लोयद्विती जाव जीवा एवं वा अष्टविधा लोकस्थितिः यावज् जीवाः कम्मसंगहिया॥ कर्मसंगृहीताः। भाष्य १. सूत्र ३१०,३११ ___आकाश-प्रतिष्ठित आकाश स्व-प्रतिष्ठित है, इसलिए उसका किसी पर प्रतिष्ठित होने का उल्लेख नहीं है।' उदधि-प्रतिष्ठित पृथ्वी है। पृथ्वी उदधि पर प्रतिष्ठित है, यह सापेक्ष वचन है। ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी आकाश पर प्रतिष्ठित है।' पृथ्वी-प्रतिष्ठित त्रस-स्थावर प्राणी हैं। यह भी सापेक्ष वचन है। त्रस-स्थावर प्राणी आकाश, पर्वत और विमान पर प्रतिष्ठित भी होते हैं।' जीव-प्रतिष्ठित अजीव वृत्तिकार ने अजीव का अर्थ 'शरीर आदि पुद्गल' किया है। इसका तात्पर्य यह है कि अजीव-सृष्टि का जो नानात्व है, जितने दृश्य-परिवर्तन और परिणमन हैं, वे जीव के द्वारा कृत हैं। जो कुछ दिखाई दे रहा है, वह या तो जीवच्छरीर है या जीव-मुक्त शरीर है। इस अपेक्षा से अजीव जीव पर प्रतिष्ठित है। कर्म-प्रतिष्ठित जीव-जीव का जितना नानात्व है, उसके जितने परिर्वतन और विविध रूप हैं, वे सब कर्म के द्वारा निष्पन्न हैं। इस १. भ.बृ.१।३१० ----आकाशं तु स्वप्रतिष्ठितमेवेति न तत्प्रतिष्ठाचिन्ता कृतेति। २. वही,१।३१०–वाहुल्यापेक्षया चेदमुक्तम्, अन्यथा ईषत्प्राग्भारा पृथिवी आकाशप्रतिष्ठितैव। ३. वही,१।३१०–तथा पृथिवीप्रतिष्ठितास्त्रसस्थावराः प्राणाः, इदमपि प्रायिकमेव, अन्यथाऽऽकाशपर्वतविमानप्रतिष्ठिता अपि ते सन्तीति । ४. वही,१।३१० तथाऽजीवाः—शरीरादिपुद्गलरूपा जीवप्रतिष्ठिताः, जीवेषु तेषां स्थितत्वात्। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १: उ.६ः सू.३१०-३१३ अपेक्षा से जीव को कर्म-प्रतिष्ठित कहा गया है। इस सन्दर्भ में जीव के विभक्ति-भाव का सूत्र द्रष्टव्य है । ' जीव-संग्रहीत अजीव - अजीव जीव के द्वारा संगृहीत हैं, उनमें कथञ्चित् एकात्मक सम्बन्ध स्थापित होता है; इसलिए उनमें परिवर्तन घटित होता है। कर्म-संगृहीत जीव-कर्म का जीव के साथ संबन्ध स्थापि जीव-पोग्गल - पदं ३१२. अत्थि णं भंते ! जीवा य पोग्गला य अण्णमण्णबद्धा, अण्णमण्णपुट्ठा, अण्णमण्णमोगाढा, अण्णमण्णसिणेहपडिबद्धा, अण्णमण्णघडत्ताए चिट्ठति ? हंता अत्थि ॥ ३१३. से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ — अत्थि णं जीवा य पोग्गला य अण्णमण्णबद्धा, अण्णमण्णपुट्ठा, अण्णमणमोगाढा, अण्णमण्णसिणेहपडिबद्धा, अण्णमण्णघडत्ता चिट्ठति ? गोयमा ! से जहाणामए हरदे सिया पुण्णे पुण्णप्पमाणे बोलट्टमाणे वोसट्टमाणे समभरघडत्ताए चि अहे णं केइ पुरिसे तंसि हरदंसि एगं महं नावं सयासवं सयछिद्दं ओगाहेजा । से नूणं गोयमा ! सा नावा तेहिं आसवदारेहिं आपूरमाणी - आपूरमाणी पुण्णा पुण्णप्प - माणा बोलट्टमाणा वोसट्टमाणा समभरघडत्ताए चिgs ? हंता चिट्ठा । से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुचइ — अस्थि णं जीवा य पोग्गला य अण्णमण्णबद्धा, अण्णमण्णपुट्ठा, अण्णमण्णमोगाटा, अण्णमण्णसिणेहपडिबद्धा, अण्णमण्णघडत्ताए चिट्ठति ॥ १३८ भगवई होता है; इसलिए उनके द्वारा जीव में परिवर्तन घटित होता है। वृत्तिकार ने 'प्रतिष्ठित' की व्याख्या आधाराधेय भाव के साथ तथा 'संगृहीत' की व्याख्या संग्राह्य-संग्राहक भाव के साथ की है । ' सित— ग्रन्थि । ' अपौरुषेय-पुरुष के शरीर मान से अधिक प्रमाण वाला ।' जीव- पुद्गल-पदम् अस्ति भदन्त ! जीवाः च पुद्गलाः च अन्योन्यबद्धाः, अन्योन्यस्पृष्टाः, अन्योन्यावगाढाः, अन्योन्यस्नेहप्रतिबद्धाः, अन्योन्यघटतया तिष्ठन्ति ? हन्त अस्ति । तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-अस्ति जीवाः च पुद्गलाः च अन्योन्यबद्धाः, अन्योन्यस्पृष्टाः, अन्योन्यावगाढाः, अन्योन्यस्नेहप्रतिबद्धाः, अन्योन्यघटतया तिष्ठन्ति ? गौतम ! स यथानामकः हृदः स्यात् पूर्णः पूर्णप्रमाणः व्यपलोटन् विकसन् समभरघटतया तिष्ठति । अथ कश्चिद् पुरुषः तस्मिन् हृदे एकां महतीं नावं शताश्रवां शतच्छिद्रां अवगाहयेत । अथ नूनं गौतम ! सा नौः तैः आश्रवद्वारैः आपूर्यमाणा- आपूर्यमाणा पूर्णा पूर्णप्रमाणा व्यपलोटती विकसती समभरघटतया तिष्ठति ? १. भ. १२ । १२० - कम्पओ णं भंते! जीवे नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ ? कम्मओ णं जए नो अकम्पओ विभत्तिभावं परिणमइ ? हंता गोयमा ! कम्मओ णं जीवे नो अकम्पओ विभत्तिभावं परिणमइ, कम्पओ णं जए नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ । २. भ. वृ. १ । ३१० - अथाजीवाः जीवप्रतिष्ठितास्तथाऽजीवा जीवसंगृहीता इत्येतयोः को भेदः ? उच्यते पूर्वस्मिन् वाक्ये आधाराधेयभाव उक्तः, उत्तरे तु संग्राह्यसंग्राहकभाव इति भेदः । यच्च यस्य संग्राह्यं तत्तस्याधेयमप्यर्थापत्तितः हन्त तिष्ठति । तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते— अस्ति जीवाः च पुद्गलाः च अन्योन्यबद्धाः, अन्योन्यस्पृष्टाः, अन्योन्यावगाढाः, अन्योन्यस्नेहप्रतिबद्धाः, अन्योन्यघटतया तिष्ठन्ति । जीव- पुद्गल-पद ३१२. 'भन्ते ! क्या जीव और पुद्गल अन्योन्य- बद्ध, अन्योन्य-स्पृष्ट, अन्योन्य- अवगाढ, अन्योन्य-स्नेहप्रतिबद्ध और अन्योन्य- एकीभूत बने हुए हैं ? हां, बने हुए हैं। ३१३. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है— जीव और पुद्गल अन्योन्य-बद्ध, अन्योन्य- स्पृष्ट, अन्योन्य- अवगाढ, अन्योन्य-स्नेहप्रतिबद्ध और अन्योन्य- एकीभूत बने हुए हैं ? गौतम ! जैसे कोई द्रह (नद) है। वह जल से पूर्ण, परिपूर्ण प्रमाण वाला, छलकता हुआ, हिलोरें लेता हुआ चारों ओर से जलजलाकार हो रहा है । कोई व्यक्ति उस ग्रह में एक बहुत बड़ी सैकड़ों आश्रवों और सैकड़ों छिद्रों वाली नौका को उतारे। गौतम ! वह नौका उन आश्रव द्वारों के द्वारा जल से भरती हुई-भरती हुई, पूर्ण, परिपूर्ण प्रमाण वाली, छलकती हुई, हिलोरें लेती हुई, चारों ओर से जलजलाकार हो जाती है ? हां, हो जाती है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-जीव और पुद्गल अन्योन्य-बद्ध, अन्योन्य-स्पृष्ट, अन्योन्य - अवगाढ, अन्योन्य-स्नेहप्रतिबद्ध और अन्योएकीभूत बने हुए हैं। स्याद् यथाऽपूपस्य तैलमित्याधाराधेयभावोप्युत्तरवाक्ये दृश्य इति । तथा जीवाः कर्मसंगृहीताः संसारिजीवानामुदयप्राप्तकर्मवशवर्त्तित्वात्, ये च यद्वशास्त्र प्रतिष्ठिताः । यथा घटे रूपादयः इत्येवमिहाप्याधाराधेयता दृश्येति । ३. वही, १1३११ सितं 'षिड् बन्धने' इति वचनात् । क्तप्रत्ययस्य च भावार्थत्वात् कर्मार्थत्वाद्वा बन्धं --- ग्रन्थिमित्यर्थः । ४. वही, १ ३११ पुरुषः प्रमाणमस्येति पौरुषेयं तव्प्रतिषेधाद् अपौरुषेयम् । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श.१: उ.६: सू.३१२,३१३ भाष्य १. सूत्र ३१२,३१३ जीव और पुद्गल का सम्बन्ध और पुद्गल में नेह है आकर्षित होने की अर्हता। इस उभयात्मक स्नेह के द्वारा परस्पर संबंध स्थापित हो जाता है। नौका में छिद्र है जीव और पुद्गल दोनों में अत्यन्ताभाव है। जीव चेतन है तो पानी अपने आप उसमें भर जाएगा। प्रस्तुत सूत्र में इस संबंध और पुद्गल अचेतन है। चेतन कभी अचेतन नहीं बनता, अचेतन को बन्ध, स्पर्श, अवगाह, स्नेह-प्रतिबद्ध और 'घटा' (एकीभूत अवकभी चेतन नहीं बनता। अस्तित्व की त्रैकालिक स्वतन्त्रता होने पर स्था) इन पांच रूपों में प्रतिपादित किया गया है। भी क्या इनमें कोई सम्बन्ध हो सकता है ? प्रस्तुत सूत्र में इस विषय पर विमर्श किया गया है। गौतम ने जिज्ञासा की-भंते ! क्या जीव आचार्य अमृतचन्द्र ने जीव में होने वाले स्निग्ध परिणाम का और पुद्गल परस्पर बद्ध, स्पृष्ट, अवगाढ, नेह-प्रतिबद्ध और एक प्रतिपादन किया है। घटक के रूप में रहते हैं ? शरीर और मनस् का सम्बन्ध भगवान् ने इसका उत्तर 'हां' में दिया। इन दोनों तत्त्वों में जैन दर्शन के अनुसार चित्त चैतन्य स्वरूप और मनस् अचेतन प्रगाढ संबंध है। संबंध और विसंबंध के आधार पर जीव दो भागों होता है। फिर भी व्यावहारिक परिभाषा के अनुसार हम चित्त के में विभक्त हो जाते हैं—संसारी जीव और मुक्त जीव। जो जीव स्थान पर मन का प्रयोग कर रहे हैं। मन चेतन है और शरीर पुद्गल के साथ घुले-मिले होते हैं, वे संसारी या बद्ध कहलाते हैं। अचेतन है, फिर इन दोनों में सम्बन्ध कैसे हो सकता है और ये पुद्गल से अस्पृष्ट जीव मुक्त या सिद्ध कहलाते हैं। एक दूसरे को प्रभावित कैसे कर सकते हैं ? इस विषय में जैन संसारी जीव पुद्गल से इतने घुलेमिले हैं कि पुद्गल को । दर्शन का स्पष्ट अभिमत है कि संसारी जीव स्वरूपतः चेतन होते हुए छोड़कर उनकी व्याख्या नहीं की जा सकती। आचार्य सिद्धसेन ने। भी पुद्गल या शरीर से सर्वथा भिन्न नहीं हैं। इन दोनों में नैसर्गिक जीव और पुद्गल के संबंध पर अनेकान्त दृष्टि से विचार किया है। सम्बन्ध चला आ रहा है। ये दोनों परस्पर संबद्ध हैं; इसलिए इनमें उन्होंने बताया है-जीव और पुद्गल दूध और पानी की तरह परस्पर अन्न क्रिया होती है और इसलिए वे एक दसरे को प्रभावित करते ओत-प्रोत हैं; इसीलिए उनमें 'यह जीव' और 'वह पुद्गल' है-ऐसा विभाग करना उचित नहीं है। यह जीव और पुद्गल का अभेदात्मक पाश्चात्य दर्शन के इतिहास में मन और शरीर के सम्बन्ध की प्रतिपादन है। रूप आदि तथा बाल्य, यौवन आदि पर्याय शरीरगत समस्या बहुत दिनों से चली आ रही है। देकार्ते ने मन की धारणा होते हैं, पर वे जीव से अप्रभावित हैं, ऐसा नहीं माना जा सकता। को नए रूप में प्रस्तुत किया। उससे पहले दार्शनिकों ने मन और जीव में इन्द्रिय-ज्ञान, स्मृति-ज्ञान आदि के पर्याय होते हैं, उन्हें भी शरीर को एक ही तत्त्व के दो पहलुओं के रूप में स्वीकार किया पुद्गल से अप्रभावित नहीं माना जा सकता। इस दृष्टि से जीव और था। परन्तु देकार्ते ने मन को शरीर से भिन्न माना। पहले मन तथा पुद्गल में प्रगाढ संबंध स्थापित होता है। उनका तात्त्विक स्वरूप शरीर सापेक्ष माने जाते थे, परन्तु देकार्ते ने निरपेक्ष रूप से दोनों भिन्न है, इसलिए उनमें स्वरूपगत भेद भी है। यह जीव और पुद्गल की सत्ता स्वीकार की। देकार्ते के अनुसार शरीर भौतिक गुणों का के भेदाभेद की अनेकान्त दृष्टि है।' विस्तार है और मन में चेतन तत्त्व वर्तमान है। अब प्रश्न यह जीव और पुद्गल का संबंध भौतिक होता है या अभौतिक? उपस्थित होता है कि शरीर का मन पर और मन का शरीर पर यह एक प्रश्न है। संसारी अवस्था में जीव सर्वथा अभौतिक नहीं कैसे प्रभाव पड़ता है ? जब हम कोई कार्य अपनी इच्छा से करते होता; इसलिए जीव और पुद्गल के संबंध को भौतिक माना जा हैं तो जान पड़ता है कि मन का शरीर पर प्रभाव है और जब है तो जान पड़ता है कि मन का श सकता है। प्रस्तुत सूत्र के अनुसार यह संबंध केवल जीव या पुद्गल ज्ञानेन्द्रियों से अनुभव करते हैं तो यह ज्ञात होता है कि शरीर का की ओर से ही नहीं होता, किन्तु दोनों ओर से होता है। इसकी मन पर प्रभाव होता है। जानकारी हमें 'स्नेह-प्रतिबद्ध' से मिलती है। जीव में स्नेह है-आश्रव १. सम्मति.१।४७,४८ अण्णोण्णाणुगयाणं 'इमं व तं व' ति विभयणमजुत्तं । जह दुद्ध-पाणियाणं जावंत विसेसपज्जाया ।। रूआइ पज्जवा जे देहे जीवदवियम्मि सुद्धम्मि । ते अण्णोण्णाणुगया पण्णवणिज्जा भवत्थमि ।। २. पञ्चास्तिकाय, गा.१२८-१३० पर तत्त्वप्रदीपिकावृत्ति, पृ.१८५---इह हि संसा रिणो जीवादनादिवंधनोपाधिवशेन बिग्धः परिणामो भवति । ३. भ.१३।१२६–आया भंते ! मणे ? अण्णे मणे ? गोयमा ! नो आया मणे, अण्णे मणे । रूविं भंते ! मणे ? अरूविं मणे? गोयमा ! रूविं मणे, नो अरूविं मणे । सचित्ते भंते ! मणे ? अचिते मणे ? गोयमा ! नो सचित्ते मणे, अचित्ते मणे । जीवे भंते ! मणे ? अजीवे मणे ? गोयमा ! नो जीवे मणे, अजीवे मणे । जीवाणं भंते मणे? अजीवाणं मणे? गोयमा ! जीवाणं मणे, नो अजीवाणं मणे । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.६: सू.३१२-३१६ १४० भगवई स्पिनोज़ा के अनुसार मन और शरीर एक ही द्रव्य के दो परिभोक्ता और परिभोग्य पहलु हैं। दोनों का सम्बन्ध ईश्वर से है। वे इसी सत्ता के चिंतन और विस्तार के रूप हैं। एक ही द्रव्य के गुण के आकार होने के ___ प्रस्तुत सूत्र में जीव को परिभोक्ता और पुद्गलों को परिभोग्य कारण दोनों एक दूसरे से मिले रहते हैं, यद्यपि क्रियात्मक रूप से कहा है। जीव और पुद्गल में परिभोक्ता और परिभोग्य का सम्बन्ध मन और शरीर अलग-अलग जान पड़ते हैं। शरीर पर सदैव बाह्य है। जीव चेतन है, इसलिए वह परिभोक्ता है। अजीव अचेतन है, पदार्थों के प्रभाव पड़ते रहते हैं तथा उसमें निरन्तर नए रूप दिखलाई इसलिए वह परिभोग्य है। चेतन में परिभोक्तत्व नामक पर्याय है और पड़ते रहते हैं। इन परिवर्तनों का बोध मन को होता रहता है। अचेतन में परिभोग्य नामक पर्याय है।' इन पर्यायों के कारण चेतन और अचेतन में सम्बन्ध स्थापित होता है। हम खाते हैं, काम करते बाह्य पदार्थ जिस रूप में शरीर को प्रभावित करते रहते हैं, मन उसको भी उसी रूप में ही जान सकता है, वास्तविक रूप में नहीं। हैं, इन्द्रिय-संवेदन करते हैं, श्वास लेते हैं, बोलते हैं और सोचते हैं, इससे सिद्ध होता है-मन को शरीर प्रभावित नहीं करता और न यह अचेतन का चेतन पर प्रभाव है। मस्तिष्क द्वारा संवेदन और शरीर को मन प्रभावित करता है। ज्ञान हो रहा है। अचेतन शरीर चेतन बना हुआ है, यह चेतन का अचेतन पर प्रभाव है। लाइबनित्स ने शरीर और मन के सम्बन्ध को कार्य-कारणवाद के आधार पर समझाया। उसके अनुसार शरीर और मन स्वतन्त्र सम्बन्ध-प्रक्रिया को जानने का दार्शनिक मूल्य ही नहीं, इसका रूप से अपनी-अपनी क्रियाएं करते हैं। मन और शरीर एक दूसरों आध्यात्मिक मूल्य भी है। सम्बन्धातीत, विचारातीत और प्रभावातीत साधना सम्बन्ध-ज्ञान के बाद ही संभव हो सकती है। को प्रभावित नहीं करते। मनोविज्ञान में भी जिज्ञासा है कि शरीर और मन में क्या निष्कर्ष सम्बन्ध है ? शरीर मन को प्रभावित करता है या मन शरीर को १. अनेकान्त दृष्टि के अनुसार चेतन और अचेतन सर्वथा भिन्न नहीं प्रभावित करता है ? ठीक यही प्रश्न हमारे सामने है कि शरीर चेतना को प्रभावित करता है या चेतना शरीर को प्रभावित करती हैं; इसलिए इनमें सम्बन्ध हो सकता है। है ? इन दोनों में परस्पर क्या सम्बन्ध है ? ये दोनों एक दूसरे को २. इस संसार में जीव का अस्तित्व पुदगल-मुक्त नहीं है; संसारी जीव प्रभावित करते हैं, इन्हें अलग नहीं किया जा सकता। शरीर और शुद्ध नहीं, यौगिक है। चेतना को सर्वथा स्वतन्त्र स्वीकार कर हम व्याख्या नहीं कर सकते, ३. चेतन और अचेतन को सर्वथा भिन्त्र तथा संसारी जीव को सर्वथा किन्तु सापेक्ष स्वतन्त्र स्वीकार कर हम उनके सम्बन्ध और पारस्परिक शुद्ध मानने पर ही सम्बन्ध की समस्या जटिल बनती है। प्रभाव की व्याख्या कर सकते हैं। ४. भेद-विज्ञान की साधना चेतन और अचेतन के सापेक्ष सम्बन्ध के आधार पर ही हो सकती है, आध्यात्मिक दृष्टि से इसका बहुत मूल्य है। सिणेहकाय-पदं नेहकाय-पदम् नेहकाय-पद ३१४. अत्थि णं भंते ! सदा समितं सुहमे अस्ति भदन्त ! सदा समितं सूक्ष्मः स्नेहकायः ३१४. 'भन्ते ! क्या सूक्ष्म स्नेहकाय सदा संगठित सिणेहकाए पवडइ ? पतति ? रूप में गिरता है ? हंता अत्थि॥ हन्त अस्ति। हां, गिरता है। ३१५. से भंते ! किं उडुढे पवडइ ? अहे पवडइ ? तिरिए पवडइ ? तद् भदन्त ! किम् ऊर्ध्वं पतति ? अधः ३१५. भन्ते ! क्या वह ऊंचे लोक में गिरता है ? पतति ? तिर्यक् पतति ? नीचे लोक में गिरता है ? तिरछे लोक में गिरता गोयमा ! उड्ढे वि पवडइ, अहे वि पवडइ, तिरिए वि पवडइ॥ गौतम ! ऊर्ध्वमपि पतति, अधोऽपि पतति, तिर्यगपि पतति। गौतम ! ऊर्ध्वलोक में भी गिरता है, नीचे लोक में भी गिरता है, तिरछे लोक में भी गिरता है। ३१६. जहा से बायरे आउयाए अण्ण- यथा स बादरः अप्कायः अन्योन्यसमायुक्तः ३१६. जैसे वह बादर (स्थूल) जल परस्पर संयुक्त मण्णसमाउत्ते चिरं पि दीहकालं चिदुइ तहा चिरमपि दीर्धकालं तिष्ठति तथा सोऽपि? होकर बहुत लम्बे समय तक रहता है, क्या वैसे ही णं से वि? सूक्ष्म जल भी बहुत लम्बे समय तक रहता है ? णो इणद्वे समटे । सेणं खिप्पामेव विद्धंस- नो अयमर्थः समर्थः। स क्षिप्रमेव विध्वंस- गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। वह शीघ्र ही मागच्छइ। मागच्छति। विध्वंस को प्राप्त हो जाता है। १. (क) भ.२५/१७-जीवदव्वाणं अजीवदव्या परिभोगत्ताए हव्यमागच्छंति। नो अजीवदव्वाणं जीवदव्या परिभोगत्ताए हव्वमागच्छति ॥ (ख) भ.बृ.प.८५६-इह जीवद्रव्याणि परिभोजकानि सचेतनत्वेन ग्राहकत्वाद इतराणि तु परिभोग्यान्यचेतनतया ग्राह्यत्वात् । . Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १. सूत्र ३१४-३१६ हका जल का एक प्रकार है। पण्णवणा में बादर अप्काय के अनेक प्रकार निर्दिष्ट हैं, जैसे—अवश्याय, हिम, कुहासा, ओला आदि-आदि।' अभयदेवसूरि ने स्नेहकाय की व्याख्या नहीं की । मलयगिरि ने बृहत्कल्पभाष्य की वृत्ति में स्नेह का अर्थ अवश्याय, कोहरा, हिम, बर्फ आदि किया है। प्रस्तुत आलापक में 'स्नेह' के साथ 'सूक्ष्म' विशेषण का प्रयोग किया गया है। इससे ज्ञात होता है कि ओस से भी सूक्ष्म जल-द्रव्य के लिए 'सूक्ष्म-स्नेह' शब्द का प्रयोग किया गया है। प्रकरण के अनुसार वह निरन्तर गिरता है। बृहत्कल्पभाष्य में स्निग्घ और रूक्ष काल के अनुसार उसके गिरने के समय का निर्देश किया गया है। शिशिरकाल में प्रथम और अन्तिम प्रहर में वह अधिक मात्रा में गिरता है। ग्रीष्मकाल में प्रथम और अन्तिम प्रहर के आधे-आधे भाग में वह अधिक गिरता है। शेष समय में वह अल्प गिरता है। अभयदेवसूरि का भी यही अभिमत है । ' ३१७ सेवं भंते! सेवं भंते! ति ॥ सूक्ष्म स्नेहकाय की तुलना आर्द्रता (humidity) से की जा सकती है। सूक्ष्म स्नेहकाय ऊंचे, नीचे और तिरछे तीनों लोकों में गिरता १. पण्ण. १ ।२२,२३ । २. बृ.क.भा.गा. ५२१, भाग १, पृ.१५१ १४१ पढम- चरिमाउ सिसिरे, गिम्हे अद्धं तु तासि वञ्जिता । पायं ठवे सिणेहादिरक्खणट्ठा पवेसे वा ॥ भाष्य पढम चरिमाउ सिसिरे, गिम्हे अद्धं तु तासि वज्रेत्ता । पायं ठवे सिणेहाइरक्खणट्ठा पवेसे वा ॥ तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति । ३. भ.बृ.१ । ३१४–'सदा' सर्वदा 'समियं' ति सपरिमाणं न बादराप्कायवदपरिमितमपि, अथवा 'सदा' इति सर्वर्तुषु 'समित' मिति रात्री दिवसस्य च पूर्वापरयोः प्रहरयोः, तत्रापि कालस्य स्निग्धेतरभावमपेक्ष्य बहुत्वमल्पत्वं चावसेयमिति, यदाह है। इस आधार पर यह अनुमान किया जा सकता है कि वह तमस्काय से गिरता है और पूरे वातावरण में व्याप्त होता है। ' वृत्तिकार ने ऊर्ध्व की व्याख्या में वर्तुलवैताढ्य आदि का उल्लेख किया है। 'अधो' की व्याख्या में अधोलोकवर्ती ग्रामों का उल्लेख किया है। शब्द-विमर्श सदा समित-वृत्तिकार ने 'सदा' का अर्थ सर्वदा और 'समित' का अर्थ सपरिमाण किया है। वैकल्पिक रूप में 'सदा' का अर्थ सब ऋतुओं में तथा 'समित' का अर्थ रात और दिन का प्रथम और अन्तिम प्रहर किया है। किन्तु 'समित' शब्द का अर्थ विमर्शनीय है। 'सदा समितं' यह एक वाक्यांश है। प्रस्तुत आगम में विभिन्न सन्दर्भों में इसका अनेक बार प्रयोग हुआ है। 'समित' शब्द समि धातु से निष्पन्न है । उसका अर्थ है इकट्ठा होना, संगठित होना, मिलना आदि।' इसलिए समित का अर्थ एकत्रित अथवा संगठित रूप' किया जा सकता है। श. १: उ.६: सू. ३१४-३१७ ३१७. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है। लपितपात्रं बहिर्न स्थापयेत् स्नेहादिरक्षणार्थायेति । 'सूक्ष्मः स्नेहकायः' इति अपकायविशेष इत्यर्थः । ४. भ. ६ | ७८ अस्थि भंते ! तमुक्काए ओराला बलाहया संसेयंति ? सम्मुच्छंति ? वासं वासंति ? हंता अस्थि ॥ ५. भ.वृ.१ । ३१५— 'उड्डे' त्ति ऊर्ध्वलोके वर्तुलवैताढ्यादिषु, 'अहे' त्ति अधोलोकग्रामेषु । ६. आप्टे – समि- Tocome ormeet together, be united, orjoined with. Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो उद्देसो : सातवां उद्देशक संस्कृत छाया देश सर्व-पदम हिन्दी अनुवाद देश सर्व पद देस-सब-पदं ३१५. नेरइए णं भंते ! नेरइएसु उववजमाणे, किं-१.देसेणं देसं उववनइ ? २. देसेणं सब्बं उववजइ ? ३. सब्वेणं देसं उववजइ? ४. सब्वेणं सव्वं उववजइ ? नैरयिकः भदन्त ! नैरयिकेषु उपपद्यमानः, ३१८. 'भन्ते ! नैरयिकों में उपपद्यमान (उपपन्न किं-१. देशेन देशम् उपपद्यते ? २. देशेन होता हुआ) नैरयिक क्या-१. देश के द्वारा देश सर्वम् उपपद्यते ? ३. सर्वेण देशम् उपपद्यते? में उपपन्न होता है ? २. देश के द्वारा सर्व में ४. सर्वेण सर्वम् उपपद्यते ? उपपन्न होता है ? ३. सर्व के द्वारा देश में उपपन्न होता है ? ४. सर्व के द्वारा सर्व में उपपन्न होता गोयमा ! १. नो देसेणं देसं उववजइ। २. नो देसेणं सव्वं उववजइ। ३. नो सव्वेणं देसं उववजइ। ४. सबेणं सव्वं उववजय॥ गौतम ! १. नो देशेन देशम् उपपद्यते । २.नो देशेन सर्वम् उपपद्यते। ३. नो सर्वेण देशम् उपपद्यते। ४. सर्वेण सर्वम् उपपद्यते। गौतम ! वह १. देश के द्वारा देश में उपपन्न नहीं होता। २. देश के द्वारा सर्व में उपपन्न नहीं होता। ३. सर्व के द्वारा देश में उपपन्न नहीं होता। ४. सर्व के द्वारा सर्व में उपपन्न होता है। ३१६. जहा नेरइए, एवं जाव वेमाणिए। यथा नैरयिकः, एवं यावद् वैमानिकः।। ३१६. नैरयिक की भांति ही वैमानिक तक का उपपाद ज्ञातव्य है। ३२०. नेरइए णं भंते ! नेरइएसु उववजमाणे, किं-१. देसेणं देसं आहारेइ ? २. देसेणं सवं आहारेइ ? ३. सन्चेणं देसं आहारेइ ? ४. सब्वेणं सव्वं आहारेइ ? नैरयिकः भदन्त ! नैरयिकेषु उपपद्यमानः, ३२०. भन्ते ! नैरयिकों में उपपद्यमान नैरयिक किं—१. देशेन देशम् आहरति ?२. देशेन क्या-१. देश के द्वारा देश का आहरण करता सर्वम् आहरति ? ३. सर्वेण देशम् आहरति? है ? २. देश के द्वारा सर्व का आहरण करता ४. सर्वेण सर्वम् आहरति ? है? ३. सर्व के द्वारा देश का आहरण करता है? ४. सर्व के द्वारा सर्व का आहरण करता है ? गौतम ! १. नो देशेन देशम् आहरति । २.नो गौतम ! वह १. देश के द्वारा देश का आहरण देशेन सर्वम आहरति। 3. सर्वेण वा देशम नहीं करता । २. देश के द्वारा सर्व का आहरण नहीं करत आहरति । ४. सर्वेण वा सर्वम् आहरति । नहीं करता । ३. सर्व के द्वारा देश का आहरण करता है। ४. अथवा सर्व के द्वारा सर्व का आहरण करता है। गोयमा ! १. नो देसेणं देसं आहारेइ । २. नो देसेणं सव्वं आहारेड ३. सबेणं वा देसं आहारेइ । ४. सब्वेणं वा सवं आहारेइ॥ ३२१. एवं जाव वेमाणिए । एवं यावद् वैमानिकः। ३२१. इसी प्रकार वैमानिक तक ज्ञातव्य है। ३२२. नेरइए णं भंते ! नेरइएहितो उबट्ट- माणे, किं-१. देसेणं देसं उव्वट्टइ ? २.देसेणं सव्वं उब्वट्टइ ? ३. सव्वेणं देसं उब्बइ ? ४. सबेणं सव् उबट्टइ ? नैरयिकः भदन्त ! नैरयिकेभ्यः उद्वर्तमानः, ३२२. भन्ते ! नैरयिकों से उद्वर्तन करता हुआ किं १. देशेन देशम् उद्वर्तते ? २. देशेन नैरयिक क्या-१. देश के द्वारा देश से उद्वर्तन सर्वम् उद्वर्तते ? ३. सर्वेण देशम् उद्वर्तते? करता है ? २. देश के द्वारा सर्व से उद्वर्तन ४. सर्वेण सर्वम् उद्वर्तते ? करता है ? ३. सर्व के द्वारा देश से उद्वर्तन करता है ? ४. सर्व के द्वारा सर्व से उद्वर्तन करता है ? गौतम ! १. नो देशेन देशम् उद्वर्तते । गौतम ! वह १. देश के द्वारा देश से उद्वर्तन गोयमा ! १. नो देसेणं देसं उबट्टइ। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २. नो देसेणं सव्वं उब्वट्टइ । ३. नो सव्वेणं देसं उव्वट्टइ । ४. सव्वेणं सव्वं उब्वट्टई ॥ ३२३. एवं जाव वेमाणिए । ३२४. नेरइए णं भंते ! नेरइएहिंतो उब्बट्टमाणे, किं- १. देसेणं देसं आहारे २. देसेणं सव्वं आहारेइ ? ३. सव्वेणं देसं आहारे ? ४. सव्वेणं सव्वं आहारेइ ? गोयमा ! १. नो देसेणं देसं आहारेइ । २. नो देसेणं सव्वं आहारेइ । ३. सव्वेणं वा देसं आहारेइ । ४. सव्वेणं वा सव्वं आहारेइ ॥ ३२५. एवं जाव वेमाणिए ॥ ३२६. नेरइए णं भंते ! नेरइएसु उववण्णे, किं - १. देसेणं दे उववण्णे ? २. देसेणं सव्वं उववण्णे ? ३. सव्वेणं देतं उववण्णे ? ४. सव्वेणं सव्वं उववण्णे ? गोयमा ! १. नो देसेणं देसं उववण्णे । २. नो देसेणं सव्वं उववण्णे । ३. नो सव्वेणं देसं उववण्णे । ४. सव्वेणं सव्वं उववण्णे ।। ३२७. एवं जाव वेमाणिए ॥ ३२८. नेरइए णं भंते ! नेरइएसु उववण्णे, किं १. देसेणं देसं आहारेइ ? २. देसेणं सव्वं आहारे ? ३. सव्वेणं देसं आहारेड ? ४. सव्वेणं सव्वं आहारेइ ? गोमा ! नो देसेणं देसं आहारेइ । २. नो देसेणं सव्वं आहारेइ । ३. सव्येणं वा देसं आहारेइ । ४. सव्वेणं वा सव्वं आहारेइ ॥ ३२६. एवं जाव वेमाणिए । १४३ २. नो देशेन सर्वम् उद्वर्तते । ३. नो सर्वेण देशम् उद्वर्तते । ४. सर्वेण सर्वम् उद्वर्तते । एवं यावद् वैमानिकः । नैरयिकः भदन्त ! नैरयिकेभ्यः उद्वर्तमानः किं - १. देशेन देशम् आहरति ? २. देशेन सर्वम् आहरति ? ३. सर्वेण देशम् आहरति ? ४. सर्वेण सर्वम् आहरति ? गौतम ! १. नो देशेन देशम् आहरति । २. नो देशेन सर्वम् आहरति । ३. सर्वेण वा देशम् आहरति । ४. सर्वेण वा सर्वम् आहरति । एवं यावद् वैमानिकः । नैरयिकः भदन्त ! नैरयिकेषु उपपन्नः, किं १. देशेन देशम् उपपन्नः ? २. देशेन सर्वम् उपपन्नः ३. सर्वेण देशम् उपपन्नः । ४. सर्वेण सर्वम् उपपन्नः ? गौतम ! १. नो देशन देशम् उपपन्नः । २. नो देशेन सर्वम् उपपन्नः । ३. नो सर्वेण देशम् उपपन्नः ? ४. सर्वेण सर्वम् उपपन्नः । एवं यावद् वैमानिकः। नैरयिकः भदन्त ! नैरयिकेषु उपपन्नः किं १. देशेन देशम् आहरति ? २. देशेन सर्वम् आहरति ? ३. सर्वेण देशम् आहरति ? ४. सर्वेण सर्वम् आहरति ? गौतम ! १. नो देशेन देशम् आहरति । २. नो देशेन सर्वम् आहरति । ३. सर्वेण वा देशम् आहरति । ४. सर्वेण वा सर्वम् आहरति । एवं यावद् वैमानिकः। श. १: उ.७: सू. ३२२-३२६ नहीं करता। २. देश के द्वारा सर्व से उद्वर्तन नहीं करता । ३. सर्व के द्वारा देश से उद्वर्तन नहीं करता । ४. सर्व के द्वारा सर्व से उद्वर्तन करता है। ३२३. इसी प्रकार वैमानिक तक ज्ञातव्य है । ३२४. भन्ते ! नैरयिकों से उद्वर्तन करता हुआ नैरयिक क्या - १. देश के द्वारा देश का आहरण करता है ? २. देश के द्वारा सर्व का आहरण करता है ? ३. सर्व के द्वारा देश का आहरण करता है ? ४. सर्व के द्वारा सर्व का आहरण करता है ? गौतम ! वह १. देश के द्वारा देश का आहरण नहीं करता । २. देश के द्वारा सर्व का आहरण नहीं करता । ३. सर्व के द्वारा देश का आहरण करता है । ४. अथवा सर्व के द्वारा सर्व का आहरण करता है। ३२५. इसी प्रकार वैमानिक तक ज्ञातव्य है । ३२६. भन्ते ! नैरयिकों में उपपन्न नैरयिक क्या9. देश के द्वारा देश में उपपन्न है ? २. देश के द्वारा सर्व में उपपन्न है ? ३. सर्व के द्वारा देश में उपपन्न है ? ४. सर्व के द्वारा सर्व में उपपन्न है ? गौतम ! १. वह देश के द्वारा देश में उपपन्न नहीं है । २. देश के द्वारा सर्व में उपपन्न नहीं है । ३. सर्व के द्वारा देश में उपपन्न नहीं है । ४. सर्व के द्वारा सर्व में उपपत्र है। ३२७. इसी प्रकार वैमानिक तक ज्ञातव्य है । ३२८. भन्ते ! नैरयिकों में उपपन्न नैरयिक क्या१. देश के द्वारा देश का आहरण करता है ? २. देश के द्वारा सर्व का आहरण करता है ? ३. सर्व के द्वारा देश का आहरण करता है ? ४. सर्व के द्वारा सर्व का आहरण करता है । गौतम ! वह 9. देश के द्वारा देश का आहरण नहीं करता । २. देश के द्वारा सर्व का आहरण नहीं करता । ३. सर्व के द्वारा देश का आहरण करता है । ४. अथवा सर्व के द्वारा सर्व का आहरण करता है। ३२६. इसी प्रकार वैमानिक तक ज्ञातव्य है । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.७: सू.३१८-३३३ १४४ भगवई ३३०. नेरइए णं भंते ! नेरइएहिंतो उबट्टे, नैरयिकः भदन्त ! नैरयिकेभ्यः उद्धृत्तः, किं ३३०. भन्ते ! नैरयिकों से उद्वृत्त (निकला) हुआ किं-१. देसेणं देसं उबट्टे ? २. देसेणं ___-१. देशेन देशम् उद्वृत्तः ? २. देशेन नैरयिक क्या-१. देश के द्वारा देश से उद्वृत्त सव्वं उबट्टे ? ३. सब्वेणं देसं उबट्टे ? सर्वम् उद्वृत्तः ? ३. सर्वेण देशम् उद्वृत्तः? है? २. देश के द्वारा सर्व से उद्वृत्त है ? ३.सर्व ४.सब्वेणं सव्वं उबट्टे ? ४. सर्वेण सर्वम् उद्वृत्तः ? के द्वारा देश से उद्वृत्त है ? ४. सर्व के द्वारा सर्व से उवृत्त है ? गोयमा ! १. नो देसेणं देसं उबट्टे । २.नो गौतम ! १. नो देशेन देशम् उद्वृत्तः। २.नो गौतम ! वह १. देश के द्वारा देश से उद्वृत्त नहीं देसेणं सव्वं उबट्टे । ३. नो सवेणं देसं देशेन सर्वम् उद्धृत्तः। ३. नो सर्वेण देशम् है। २. देश के द्वारा सर्व से उद्वृत्त नहीं है। उबट्टे । ४. सबेणं सब्बं उबट्टे ॥ उद्वृत्तः । ४. सर्वेण सर्वम् उद्वृत्तः। ३. सर्व के द्वारा देश से उदवृत्त नहीं है। ४. सर्व के द्वारा सर्व से उद्वृत्त है। ३३१. एवं जाव वेमाणिए॥ एवं यावद् वैमानिकः। ३३१. इसी प्रकार वैमानिक तक ज्ञातव्य है। ३३२. नेरइए णं भंते ! नेरइएहितो उचट्टे, किं-१.देसेणं देसं आहारेइ ? २. देसेणं सवं आहारेइ ? ३. सब्बेणं देसं आहारेइ ? ४. सवेणं सव्वं आहारेइ ? गोयमा! नो देसेणं देसं आहारेइ । २. नो देसेणं सव्वं आहारेइ । ३. सब्वेणं वा देसं आहारेइ। ४. सब्वेणं वा सबं आहारेइ॥ नैरयिकः भदन्त ! नैरयिकेभ्यः उद्वृत्तः किं ३३२. भन्ते ! नैरयिकों से उबृत्त नैरयिक क्या -१. देशेन देशम् आहरति ? २. देशेन १. देश के द्वारा देश का आहरण करता है? २. सर्वम् आहरति ? ३. सर्वेण देशम् आहरति? देश के द्वारा सर्व का आहरण करता है ? ३. ४. सर्वेण सर्वम् आहरति ? सर्व के द्वारा देश का आहरण करता है ? ४. सर्व के द्वारा सर्व का आहरण करता है ? गौतम ! १. नो देशेन देशम् आहरति । २.नो गौतम ! वह १. देश के द्वारा देश का आहरण देशेन सर्वम् आहरति । ३. सर्वेण वा देशम् नहीं करता। २. देश के द्वारा सर्व का आहरण आहरति । ४. सर्वेण वा सर्वम् आहरति। नहीं करता। ३. सर्व के द्वारा देश का आहरण करता है। ४. अथवा सर्व के द्वारा सर्व का आहरण करता है। ३३३. एवं जाव वेमाणिए॥ एवं यावद् वैमानिकः। ३३३. इसी प्रकार वैमानिक तक ज्ञातव्य है। भाष्य १ सूत्र ३१८-३३३ उपपयमान और उपपत्र जीव पूर्व जीवन को समाप्त कर नए उद्वर्तमान और उद्वृत्तमृत्यु से पूर्व अन्तर्मुहूर्त की अवस्था जन्म-स्थान में जाता है। वह उत्पत्ति के पहले समय में पर्याप्ति के उद्वर्तमान अवस्था है। उपपद्यमान अवस्था और उद्वृत्त अवस्था का योग्य पुद्गलों का ग्रहण कर आहार-पर्याप्ति से पर्याप्त हो जाता है। ___ कालमान एक ही है। उसके पश्चात् शरीर आदि पर्याप्तियों का निर्माण करता है। शरीर प्रस्तुत आलापक में प्रयुक्त देसेणं देस, सवेणं सवं ये शब्द और इन्द्रिय-पर्याप्ति के निर्माण से पूर्ववर्ती अवस्था उपपद्यमान अवस्था सम्बन्ध-सापेक्ष हैंहै। आहार-, शरीर- और इंद्रिय-पर्याप्ति से पर्याप्त अवस्था उपपन्न उपपयमान, उपपत्र के सन्दर्भ मेंअवस्था है।' अनुपपन्न जीव की मृत्यु नहीं होती। उक्त तीन पर्याप्तियों से पर्याप्त जीव की मृत्यु हो सकती है। इसलिए उपपद्यमान और देसेणं-जीव का एक भाग। उपपन्न में यह भेदरेखा खींची जा सकती है। देस–मनुष्य आदि अवयवी का एक भाग। १. त.रा.वा.२।३४, भाग१,पृ.१४५ - देवादिशरीरनिवृत्तौ हि देवादिजन्मेष्टम्, तस्यां चावस्थायामनाहारकत्वान्न देवादिशरीरनिर्वृत्तिरस्ति तत उपपादो जन्म युक्तम्, तच्च देवनारकाणामिति । २. स्था.वृ.प.५०–अपर्याप्तकास्तु उच्छ्वासपर्याप्त्या अपर्याप्त एव म्रियन्ते, न तु शरीरेन्द्रियपर्याप्तिभ्यां, यस्मादागामिभवायुष्कं बध्वा प्रियन्ते, तच्च शरीरेन्द्रियादिपर्याप्त्यां पर्याप्तरेव बध्यत इति । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १४५ श.१: उ.७: सू.३१८-३३४ सवेणं सम्पूर्ण जीव सम्व-सम्पूर्ण मनुष्य आदि अवयवी। उद्धर्तमान, उद्धृत के सन्दर्भ मेंदेसेणं जीव का एक भाग। देसं-शरीर का एक भाग। सब्वेणं सम्पूर्ण जीव। सवं सम्पूर्ण शरीर। आहार के सन्दर्भ मेंदेसेणं-जीव का एक भाग। देसं आहार्य द्रव्य का एक अंश सव्वेणं सम्पूर्ण जीव। सर्व-सम्पूर्ण आहार्य द्रव्य। अभयदेवसूरि ने प्रस्तुत आलापक की व्याख्या में चूर्णि और प्राचीन टीका दोनों के अभिमत का उल्लेख किया है। चूर्णिकार ने देसेणं और सव्वेणं को आत्मप्रदेशों से संबद्ध माना है। देसं और सबं का संबंध उपपद्यमान अवयवी से जोड़ा है। चूर्णिकार के तर्क हैं १. परिणामी कारण के अवयव से कार्य का अवयव निष्पन्न नहीं होता; इसलिए उत्पत्ति के प्रसंग में देसेणं देसं उववजई—यह विकल्प मान्य नहीं हैं। २. अपूर्ण परिणामी कारण से पूर्ण कार्य निष्पन्न नहीं होता; इसलिए देसेणं सव्वं उववजई—यह दूसरा विकल्प भी मान्य नहीं है। ____३. पूर्ण परिणामी कारण से अपूर्ण कार्य निष्पन्न नहीं होता; इसलिए सवेणं देसं उनवजई-यह तीसरा विकल्प भी मान्य नहीं है। ४. पूर्ण परिणामी कारण से पूर्ण कार्यावयवी उत्पन्न होता है। यह भंग सम्मत है।' टीकाकार ने देसेणं और सवेणं को आत्मप्रदेश से संबद्ध माना है। देसं और सव्यं का संबंध उत्पत्तव्य स्थान के साथ जोड़ा है। टीकाकार ने उत्तरवर्ती दो भंग मान्य किये हैं। इलिका गति में उत्पत्तव्य स्थान के देश में उत्पत्ति हो सकती है, इस अपेक्षा से सवेणं देसं यह भंग सम्मत है। कन्दुकगति की अवस्था में सबेणं सवं उववजई यह भंग सम्मत है। यह टीकाकार की व्याख्या किसी दूसरी वाचना पर आधारित आहार के सन्दर्भ में सबेणं देसं और सवेणं सवं-ये दो विकल्प सम्मत हैं। उत्पत्ति के पहले समय में जीव सब आत्म-प्रदेशों से सर्व आहार का ग्रहण करता है; इसलिए सवेणं सव्वं भंग घटित होता है। प्रथम समय के पश्चात् वह आहार्य द्रव्य के देश का ग्रहण करता है; इसलिए सव्वेणं देसं भंग घटित होता है।' उद्वर्तमान अवस्था मृत्यु के पूर्व अन्तर्मुहूर्त की अवस्था है। उसमें सवेणं देसं भंग घटित होता है। मृत्यु के अंतिम समय में सव्वेणं सब भंग घटित हो सकता है। उद्धृत अवस्था में उपपद्यमान अवस्था की भांति ये दोनों भंग घटित किए जा सकते हैं। ३३४. नेरइए णं भंते ! नेरइएसु उववजमाणे, नैरयिकः भदन्त ! नैरयिकेषु उपपद्यमानः ३३४. भन्ते ! नैरयिकों में उपपद्यमान नैरयिक १. भ.वृ.१।३१५-तत्र जीवः किं 'देशेन' स्वकीयावयवेन 'देशेन' नारकावयविनोंऽशतयोत्पद्यते अथवा 'देशेन' देशमाश्रित्योत्पादयित्वेति शेषः, एवमन्यत्रापि । तथा 'देसेणं सव्वं ति देशेन च सर्वेण च यत् प्रवृत्तं तद्देशेन सर्व, तत्र देशेन स्वावयवेन सर्वतः—सर्वात्मना नारकावयवितयोत्पद्यत इत्यर्थः । आहोस्वित् सर्वेण सर्वात्मना देशतो नारकांशतयोत्पद्यते, अथवा 'सर्वेण' सर्वात्मना सर्वतो नारकतयेति प्रश्नः। ___ अत्रोत्तरम्-न देशेन देशतयोत्पद्यते, यतो न परिणामिकारणावयवेन कार्यावयवो निवर्त्यते, तन्तुना पटाप्रतिबद्धपटप्रदेशवत् । यया हि पटदेशभूतेन तन्तुना पटाप्रतिबद्धः पटदेशो न निर्वय॑ते तथा पूर्वावयविप्रतिबद्धेन तद्देशे- नोत्तरावयविदेशो न नियंत इति भावः । ___तथा न देशेन सर्वतयोत्पद्यते, अपरिपूर्णकारणत्वात्, तन्तुना पट इवेति तथा न सर्वेणदेशतयोत्पद्यते, सम्पूर्णपरिणामिकारणत्वात्, समस्तघटकारणैर्घटक- देशवत् । 'सब्बेणं सव्वं उववजई' सर्वेण तु सर्व उत्पद्यते । पूर्णकारणसमवायाद, घटवदिति चूर्णिव्याख्या। २. भ.वृ.१३१ टीकाकारस्त्वेवमाह किमवस्थित एव जीवो देशमपनीय यत्रोत्पत्तव्यं तत्र देशत उत्पद्यते ? अथवा देशेन सर्वत उत्पद्यते ? अथवा सर्वात्मना यत्रोत्पत्तव्यं तस्य देशे उत्पद्यते ? अथवा सर्वात्मना सर्वत्र ? इति एतेषु पाश्चात्यमङ्गौ ग्राह्यौ। यतः सर्वेण सर्वात्मप्रदेशव्यापारेण इलिकागती यत्रोत्पत्तव्यं तस्य देशे उत्पद्यते, तद्देशेनोत्पत्तिस्थानदेशस्यैव व्याप्तत्वात् । कन्दुकगतौ वा सर्वेण सर्वत्रौत्पद्यते विमुच्यैव पूर्वस्थानमिति। एतच्च टीका कारव्याख्यानं वाचनान्तरविषयमिति । ३. (क) वही.१।३२०–'सब्वेण वा सव्वं'ति सर्वात्मप्रदेशैरुत्पत्तिसमये आहार पुद्गलानादत्ते एव प्रथमतः तैलमृततप्ततापिकाप्रथमसमयपतितापूपवदित्युच्यते सर्वमाहारयतीति । (ख) म.जो.१।२०।१२,१४-१६/ ४.(क) म.वृ.१।३२० --उत्पत्त्यनन्तरसमयेषु सर्वात्मप्रदेशैराहारपुद्गलान् कांश्चि दादत्ते कांश्चिद्विमुञ्चति, तप्ततापिकागततैलग्राहकविमोचकापूपवद्, अत उच्यते-देशमाहारयतीति। (ख) म.जो.१।२०।१३,१७,१८॥ . Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.७ :सू.३३४-३३८ १४६ भगवई किं-१. अद्धेणं अद्धं उववजइ ? २.अद्रेणं सब्बं उववजह? ३. सब्वेणं अद्धं उववजइ ? ४ सब्वेणं सब्बं उववजइ ? जहा पढमिल्लेणं अट्ठ दंडगा तहा अरेण वि अटु दंडगा भाणियब्वा, नवरं-जहिं देसेणं देसं उववजइ, तहिं अद्धेणं अद्धं उववजइ इति भाणियब्बं, एवं नाणत्तं । एते सब्बे वि सोलस दंडगा भाणियब्वा। किं-१. अर्धेन अर्धम् उपपद्यते ? २. अर्धेन क्या-१. अर्ध' के द्वारा अर्ध में उपपन्न होता सर्वम् उपपद्यते? ३. सर्वेण अर्धम् उपपद्यते? है? २. अर्ध के द्वारा सर्व में उपपन्न होता है ? ४. सर्वेण सर्वम् उपपद्यते ? ३. सर्व के द्वारा देश में उपपन्न होता है ? ४.सर्व के द्वारा सर्व में उपपन्न होता है ? यथा प्रथमे अष्ट दण्डकाः तथा अर्धेनापि अष्ट जैसे पूर्ववर्ती आलापक के आठ दण्डक बतलाए दण्डकाः भणितव्याः, नवरं यत्र देशेन ___गए हैं, वैसे ही अर्ध के भी आठ दण्डक वक्तव्य देशम् उपपद्यते, तत्र अर्धेन अर्धम् उपपद्यते हैं। विशेष इतना है जहां देश के द्वारा देश में इति भणितव्यम्, एवं नानात्वम् । एते सर्वेऽपि उपपन्न होता है, वहां अर्ध के द्वारा अर्ध में उपपन्न षोडश दण्डकाः भणितव्याः। होता है-यह वक्तव्य है, यह नानात्व है। ये सभी सोलह दण्डक वक्तव्य हैं। भाष्य १. अर्घ का आधा भाग।' देश अनेक प्रकार का होता है, जैसे-तीसरा भाग, चौथा भाग आदि-आदि। अर्ध एक ही प्रकार का होता है, जैसे-वस्तु विग्गहगइ-पदं विग्रहगति-पदम् विग्रहगति-पद ३३५. जीवे णं भंते ! किं विग्गहगइसमा- जीवः भदन्त ! किं विग्रहगतिसमापन्नकः ? ३३५. 'भन्ते ! क्या जीव विग्रहगति (अन्तरालगति) वण्णए ? अविग्गहगइसमावण्णए ? अविग्रहगतिसमापन्नकः? -समापन्न होता है ? अथवा अविग्रहगति (उत्पत्ति स्थान को प्राप्त)-समापन होता है ? गोयमा ! सिय विग्गहगइसमावण्णए, सिय गौतम ! स्यात् विग्रहगतिसमापनकः, स्याद् । गौतम ! वह स्यात् विग्रहगति-समापन्न होता है अविग्गहगइसमावण्णए॥ अविग्रहगतिसमापन्नकाः । और स्यात् अविग्रहगति-समापन्न होता है। ३३६. एवं जाव वेमाणिए। एवं यावद् वैमानिकः। ३३६. इसी प्रकार वैमानिक तक ज्ञातव्य है । ३३७. जीवा णं भंते ! किं विग्गहगइसमा- जीवाः भदन्त ! किं विग्रहगतिसमापनकाः? ३३७. भन्ते ! क्या जीव विग्रहगति-समापन्न होते वण्णया? अविग्गहगइसमावण्णगा? अविग्रहगतिसमापनकाः? हैं ? अथवा अविग्रहगति-समापन्न होते हैं ? गोयमा ! विम्गहगइसमावण्णगा वि, गोतम ! विग्रहगतिसमापनकाः अपि, अवि- गौतम ! जीव विग्रहगति-समापन भी होते हैं, अविग्गहगइसमावण्णगा वि।। ग्रहगतिसमापनकाः अपि। अविग्रहगति-समापन्न भी होते हैं। ३३८. नेरइया णं भंते ! किं विग्गहगइसमा- नैरयिकाः भदन्त ! किं विग्रहगतिसमा- ३३८. भन्ते ! क्या नैरयिक विग्रहगति-समापन्न होते वण्णगा? अविग्गहगइसमावण्णगा? पत्रकाः ? अविग्रहगतिसमापनकाः ? हैं ? अथवा अविग्रहगति-समापन होते हैं ? गोयमा ! सब्बे वि ताव होज अविग्गह- गौतम ! सर्वेऽपि तावद् भवेयुः अविग्रह- गौतम ! सभी नैरयिक अविग्रहगति-समापन्न होते गइसमावण्णगा। अहवा अविग्गहगइ- गतिसमापनकाः। अथवा अविग्रहगतिसमा- हैं। अथवा वे अविग्रहगति-समापन्न होते हैं, कोई समावण्णगा, विग्गहगइसमावण्णगे य। पत्रकाः विग्रहगतिसमापनकः च। अथवा एक विग्रहगति-समापन्न होता है। अथवा कुछ अहवा अविग्गहगइसमावण्णगा य, विग्गह- अविग्रहगतिसमापन्नकः च विग्रहगतिसमा- अविग्रहगति-समापन्न होते हैं, कुछ विग्रहगतिगइसमावण्णगा य। एवं जीवएगिदिय- पन्नकः च । एवं जीव-एकेन्द्रियवर्जः त्रिक- समापन होते हैं। इस प्रकार जीव (निर्विशेषण वजो तियभंगो॥ जीव) और एकेन्द्रिय को छोड़कर सबके तीन भंग होते हैं। १. भ.बृ.१३३४—देशस्त्रिभागादिरनेकधा, अर्द्ध त्वेकधैवेति । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १४७ भाष्य १. सूत्र ३३५-३३८ एक जीव मृत्यु-काल में स्थूल शरीर ( औदारिक अथवा वैक्रिय) को छोड़कर दूसरे जन्म-स्थान में जाता है। एक स्थान से दूसरे जन्मस्थान में जाते समय जो गति होती है, उसे विग्रहगति कहा जाता है ।' गति के साथ 'विग्रह' शब्द का प्रयोग अनेक सन्दर्भों में हुआ है। जहां एकसामयिक अन्तरालगति के अर्थ में विग्रहगति का प्रयोग है, वहां उसका अर्थ 'विशिष्टस्थान प्राप्ति की हेतुभूत गति' होता है । ' तत्त्वार्थराजवार्तिक में अन्तरालगति के सन्दर्भ में विग्रह के दो अर्थ किए गए हैं—शरीर और व्याघात । फलित की भाषा में कहा जा सकता है कि विग्रहगति का अर्थ है- शरीर निर्माण के लिए होने वाली गति अथवा वह गति जिसमें नोकर्म- पुद्गलों का ग्रहण नहीं होता। प्रस्तुत आगम में विग्रहगति के चार प्रकार बतलाए गए हैं — एकसामयिक विग्रह, द्विसामयिक विग्रह, त्रिसामयिक विग्रह, चतुःसामयिक विग्रह ।' दो, तीन और चार समय वाली गति के साथ प्रयुक्त 'विग्रह' का अर्थ चक्र होता है। प्रस्तुत आलापक में वृत्तिकार ने 'विग्रह' का अर्थ वक्र किया है।' यह विमर्शनीय है। यहां उसका अर्थ 'विशिष्ट स्थान - प्राप्ति की हेतुभूत गति' होना चाहिए । ठाणं में विग्रहगति-समापन्न जीव के दो शरीर बतलाए गए हैं - तेजस और कार्मण । वहां वृत्तिकार ने विग्रहगति का अर्थ किया है। किन्तु यह भी विमर्शनीय है। तैजस और कार्मण शरीर ऋजु और वक्र दोनों गतियों में समान रूप से होते हैं; इसलिए 'विग्रहगति' का अर्थ केवल अन्तरालगति है। प्रस्तुत प्रकरण में भी यही घटित होता है। चौदहवें शतक (सू. ५५ ) से इसकी पुष्टि होती है --विग्रहगति - समापत्र नैरयिक अग्रिकाय के मध्य चला जाता है, वह दग्ध नहीं होता। यहां 'विग्रह' शब्द के द्वारा ऋजु और वक्र दोनों गतियां विवक्षित हैं । १. (क) भ. ३४ । २ । (ख) ठाणं, २।१६१ । २. भ. वृ. प. ६५६ – विग्रहे वक्रगतौ च तस्य संभवात् गतिरेव विग्रहः । विशिष्टो वाग्रहो विशिष्टस्थानप्राप्तिहेतुभूता गतिर्विग्रहः । ३. त. रा. वा. २ । २५ विग्रहो देहस्तदर्था गतिर्विग्रहगतिः..... विरुध्दो ग्रहो विग्रहो व्याघात इति वा । .... व्याघातः नोकर्मपुद्गलादाननिरोध इत्यर्थः । विग्रहेण गतिः विग्रहगतिः । आदाननिरोधेन गतिरित्यर्थः । ४. भ. ३४ । २,३,१४,१४ | ३ | ५. भ. वृ. १ । ३३५ विग्रहो वक्रं तप्रधानागतिर्विग्रहगतिः, तत्र यदा वक्रेण गच्छति तदा विग्रहगतिसमापन्न उच्यते । ६. ठाणं, २।१६१ । ७. (क) स्था.वृ. प. ५२ – विग्रहगतिः वक्रगतिर्यदा विश्रेणिव्यवस्थितमुत्पत्तिस्थानं गन्तव्यं भवति तदा या स्यात्तां समापन्ना विग्रहगतिसमापन्नास्तेषां द्वे श. १: उ.७: सू. ३३५-३३८ 'अविग्रह' शब्द का प्रयोग भी दो अर्थों में हुआ है१. ऋजुगति २. उत्पत्ति स्थान की प्राप्ति । अभयदेवसूरि ने चौदहवें शतक की वृत्ति में 'अविग्रहगति समापन्न' का अर्थ ' उत्पत्ति क्षेत्रोपपन्न' किया है तथा 'ऋजुगति समापन्न' अर्थ को वहां अप्रासंगिक बतलाया है। " प्रस्तुत प्रकरण में भी 'अविग्रहगति समापन्न' का अर्थ 'उत्पत्तिस्थान को प्राप्त' होना चाहिए। प्राचीन टीकाकार ने 'अविग्रहगति - समापन्न' का अर्थ 'ऋजुगतिक' किया है। अभयदेवसूरि ने उसमें अपनी असहमति प्रकट की है। उनका तर्क है कि यदि 'अविग्रहगति -समापन्न' का अर्थ 'ऋजुगतिक' किया जाए, तो अविग्रहगति वालों का बहुत्व घटित नहीं होगा । जयाचार्य ने भी नैरयिक के प्रथम भंग की व्याख्या में अविग्रहगति समापन का अर्थ 'उत्पत्ति - स्थान में स्थित ' किया है ।" अविग्रहगति और विग्रहगति के सन्दर्भ में उनके तीन भंग बनते हैं १. सब नैरयिक अविग्रहगति -समापन्न । २. अविग्रहगति समापन बहुत नैरयिक और विग्रहगति - समापन्न एक नैरयिक। ३. अविग्रहगति -समापन्न बहुत नैरयिक और विग्रहगति -समापन्न बहुत नैरयिक। प्रथम भंग में उत्पत्ति स्थान प्राप्त नैरयिक विवक्षित हैं। जिस समय नरक में उत्पत्ति का विरह-काल होता है, उस समय यह भंग घटित होता है। दूसरे भंग की विवक्षा है कि बहुत नैरयिक उत्पत्ति-स्थान को प्राप्त होते हैं और एक नैरयिक अन्तरालगति में होता है। तीसरे भंग की विवक्षा है कि बहुत नैरयिक उत्पत्ति-स्थान को प्राप्त होते हैं और बहुत नैरयिक अन्तरालगति में होते हैं । समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय में बहुत जीव उत्पन्न हैं और बहुत जीव उत्पन्न हो रहे हैं; इसलिए तीसरा भंग ही बनता है । शरीरे, इह तैजसकार्मणयोर्भेदेन विवक्षेति । (ख) ष. खं. धवला, पु. ४,खं. १, भा. ३, सू.२, पृ. २६ - विग्गही वक्को कुटिलो ति एगट्ठा । ८. भ. वृ. प. ६४२ - अविग्रहगतिसमापन्न उत्पत्तिक्षेत्रोपपन्नोऽभिधीयते न तु ऋजुगतिसमापन्नः, तस्येह प्रकरणेऽनधिकृतत्वात् । ६. वही, १ । ३३५ यदि चाविग्रहगतिसमापन्न ऋजुगतिक एवोच्यते तदा नारकादिपदेषु सर्वदैवाविग्रहगतिकानां यद्बहुत्वं वक्ष्यति तन्न स्याद्, एकादीनामपि तेषूत्पादश्रवणात् । टीकाकारेण तु केनाप्यभिप्रायेणाविग्रहगतिसमापत्र ऋजुगतिक एव व्याख्यात इति । १०. भ.जो. १ | २० | ३४ सगलाइ जीव हुवै कदा, अविग्रह - गति समापन | उत्पत्ति विरहे विषै हुवै, नरकै रह्या बहु वचन ॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.७: सू.३३६ १४८ भगवई आयु-पदं आयुः-पदम् आयु-पद ३३६. देवे णं भंते ! महिडिए महजइए देवः भदन्त ! महर्द्धिकः महाद्युतिकः महाबलः ३३६. 'भन्ते ! महान् ऋद्धि और महान् धुति से महब्बले महायसे महेसक्खे महाणुभावे महायशाः महेशाख्यः महानुभावः अव्यु- सम्पत्र, महाबली, महान् यशस्वी, महान् ऐश्वर्यअविउक्कंतियं चयमाणे किंचिकालं हिरि- क्रान्तिकं च्यवमानं किञ्चित्कालं ह्रीप्रत्ययं शाली के रूप में प्रख्यात्, महान् सामर्थ्यवाला देव वत्तियं दुगंछावत्तियं परीसहवत्तियं आहारं जुगुप्साप्रत्ययं परीषहप्रत्ययम् आहारं नो अच्युत किन्तु च्यवमान अवस्था में कुछ समय नो आहारेइ। अहे णं आहारेइ आहा- आहरति । अथ आहरति आह्रियमाणः आहार नहीं लेता। उसके तीन हेतु हैं-लज्जा, रिजमाणे आहारिए, परिणामिजमाणे परि- आहृतः, परिणम्यमानः परिणामितः, प्रहीणं च जुगप्सा और परीषह। कुछ समय पश्चात् वह णामिए, पहीणे य आउए भवइ । जत्थ आयुः भवति । यत्र उपपद्यते तद् आयुष्कं आहार लेता है, तब आह्रियमाण आहृत और उववजइ तं आउयं पडिसंवेदेइ, तं जहा- प्रतिसंवेदयति, तद् यथा-तिर्यग्योनिकायुः परिणम्यमान परिणत होता है। (अंत में) उस देव तिरिक्खजोणियाउयं वा, मणुस्साउयं वा ? वा, मनुष्यायुः वा ? का आयुष्य क्षीण हो जाता है। उसे जहां उत्पन्न होना है, उस आयुष्य का प्रतिसंवेदन प्रारम्भ हो जाता है, जैसे--तिर्यग्योनिक का आयुष्य अथवा मनुष्य का आयुष्य ? हंता गोयमा ! देवे णं महिडिए महजुइए हन्त गौतम ! देवः महर्द्धिकः महाद्युतिकः हां, गौतम ! महान् ऋद्धि और महान् धुति से महब्बले महायसे महेसक्खे महाणुभावे महाबलः महायशाः महेशाख्यः महानुभावः सम्पन्न, महाबली, महान् यशस्वी, महान् ऐश्वर्यअविउक्कंतियं चयमाणे किंचिकालं हिरि- अव्युत्क्रान्तिकः च्यवमानः किञ्चित्कालं ह्री- शाली, महान् सामर्थ्यवाला देव अच्युत किन्तु वत्तियं दुगंछावत्तियं परीसहवत्तियं आहारं प्रत्ययं जुगुप्साप्रत्ययं परीषहप्रत्ययम् आहारं च्यवमान अवस्था में कुछ समय आहार नहीं लेता। नो आहारेइ। अहे णं आहारेइ नो आहरति। अथ आहरति आह्रियमाणः उसके तीन हेतु हैं-लजा, जुगुप्सा और परीषह । आहारिजमाणे आहारिए, परिणामिजमाणे आहृतः, परिणम्यमानः परिणामितः, प्रहीणं च । कुछ समय पश्चात् वह आहार लेता है, तब परिणामिए, पहीणे य आउए, भवइ । जत्थ आयुः भवति । यत्र उपपद्यते तद् आयुष्कं आह्रियमाण आहृत और परिणम्यमान परिणत उववजइ तं आउयं पडिसंवेदेइ, तं जहा- प्रतिसंवेदयति, तद् यथा-तिर्यग्योनिकायुः । होता है। (अन्त में) उस देव का आयुष्य क्षीण तिरिक्खजोणियाउयं वा, मणुस्साउयं वा॥ वा, मनुष्यायुः वा। हो जाता है। उसे जहां उत्पत्र होना है, उस आयुष्य का प्रतिसंवेदन प्रारम्भ हो जाता है, जैसे -तिर्यग्योनिक का आयुष्य अथवा मनुष्य का आयुष्य। भाष्य १. सूत्र ३३६ प्रस्तुत सूत्र में देव के सात विशेषण निरूपित हैं ७. अव्युत्क्रान्तिक व्यवमान–'व्युत्क्रान्ति' का अर्थ है च्युति या मरण। जो देव अच्युत-च्यवमान अवस्था में है, अभी च्युत नहीं हुआ १. महर्द्धिक विमान और परिवार आदि की सम्पन्नता से सहित।। है, किन्तु च्यवमान अवस्था के लक्षण प्रकट हो चुके हैं, उसके लिए २. महायुतिक–महान् दीप्तिमान् । 'अव्युत्क्रान्तिक च्यवमान' विशेषण का प्रयोग किया गया है। वृत्तिकार ३. महाबल-शारीरिक बल से सम्पन्न । ने 'व्युत्क्रान्ति' का अर्थ 'उत्पत्ति' और वैकल्पिक रूप में 'त्यवक्रान्ति' ४. महायश-अतिशय प्रख्याति वाला अथवा जिसकी ख्याति तीनों का अर्थ 'मरण' किया है।' यह विमर्शनीय है। लोकों में फैली हुई है।' इसका तात्पर्य यह है कि व्यवमान अवस्था में महर्द्धिक देवों ५. महेशाख्य-जो महान् ईश्वर या स्वामी के रूप में जाना जाता का मन अपनी भावी स्थिति को देखकर ग्लानि से भर जाता हैहै। वृत्तिकार ने 'आख्या' का अर्थ अभिधान किया है। उनके अनु- मझे इस दिव्य शरीर को छोड़कर मनुष्य या तिर्यञ्च के शरीर में सार 'महेशाख्य' का अर्थ 'महेश्वर नाम वाला' होगा।' उत्पन्न होना होगा। उस आत्म-ग्लानि से पीड़ित होकर वह कुछ समय ६. महानुभाव—'अनुभाव' का अर्थ है सामर्थ्य। जिसमें शाप और के लिए आहार छोड़ देता है। सूत्रकार ने उस मनोदशा के तीन अनुग्रह की सामर्थ्य होती है अथवा जिसमें नानारूपों के निर्माण की कारण बतलाए हैंअचिन्त्य सामर्थ्य होती है, उसे 'महानुभाव' कहा जाता है।' १. वि.भा.गा.१०६४–तिहुयणविक्खाय जसो महाजसो । ४. वही,१।३३६-व्युत्क्रान्तिः-उत्पत्तिस्तन्निषेधादव्युत्क्रान्तिकम् । अथवा २. भ.वृ.१।३३६ महेशो---महेश्वर इत्याख्या-अभिधानं यस्यासी महेशा- व्यवक्रान्तिः-मरणं तनिषेधादव्यवक्रान्तिकम् तद्यथा भवत्येवं च्यवमानो ख्यः। जीवमानो, जीवन्नेव मरणकाल इत्यर्थः । ३. वही, ११३३६—'महानुभावः' विशिष्टवैक्रियादिकरणाचिन्त्यसामर्थ्यः । , Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १४६ श.१: उ.७: सू.३३६-३४३ १. लजा की अनुभूति। २. जुगुप्सा की अनुभूति। ३. कष्ट की अनुभूति। वृत्तिकार ने 'परीषह' शब्द को अरति परीषह का सूचक बतलाया है।' वह किञ्चित् काल के लिए आहार को छोड़ता है। इसका तात्पर्य है कि वह लम्बे समय तक भूख को सहन नहीं कर सकता, इसलिए किञ्चित् काल के लिए ही आहार को छोड़ता है।' फिर वह आहार लेना प्रारम्भ कर देता है। प्रसंगवश सूत्रकार ने 'आहियमाण, आहत' और 'परिणम्यमान, परिणत' की चर्चा की है। वह च्यवमान अवस्था में होता है, इसलिए कुछ समय पश्चात् उसकी आयु क्षीण हो जाती है और तिर्यञ्च या मनुष्य जिस गति में उत्पन्न होता है, उसी की आयु को भोगना प्रारम्भ कर देता है। ठाणं में देव में उद्वेग के तीन कारण बतलाए गए हैं१. अहो ! मुझे इस प्रकार की उपार्जित, प्राप्त तथा अभिसमन्वागत दिव्य देवर्धि, दिव्य देवधुति, दिव्य देवानुभाव को छोड़ना पड़ेगा। २. अहो ! मुझे सर्वप्रथम माता के ओज तथा पिता के शुक्र के घोल का आहार लेना होगा। ३. अहो ! मुझे असुरभि-पंकवाले, अपवित्र, उद्वेजनीय और भयानक गर्भाशय में रहना होगा।' गब्भ-पदं गर्भ-पदम् गर्भ-पद ३४०. जीवे णं भंते ! गन्भं वक्कममाणे किं सइंदिए वक्कमइ ? अणिंदिए वक्कमइ ? जीवः भन्दत ! गर्भम् अवक्रामन् कि सेन्द्रियः ३४०. भन्ते ! गर्भ में उत्पन्न होता हुआ जीव क्या अवक्रामति ? अनिन्द्रियः अवक्रामति ? स-इन्द्रिय उत्पन्न होता है ? अथवा अनिन्द्रिय उत्पन्न होता है ? गौतम ! स्यात् सेन्द्रियः अवक्रामति । स्याद् । गौतम ! वह स्यात् स-इन्द्रिय उत्पन्न होता है। अनिन्द्रियः अवक्रामति । स्यात् अनिन्द्रिय उत्पन्न होता है। गोयमा ! सिय सइंदिए वक्कमइ । सिय अणिदिए वक्कमइ ॥ ३४१. से केणडेणं मंते ! एवं बुचइ-सिय तत् केनार्थेन भदन्त ! एब मुच्यते---स्यात् ३४१. भन्ते ! यह किंस अपेक्षा से कहा जा रहा है सइंदिए वक्कमइ ? सिय अणिदिए वाइ? सेन्द्रियः अवक्रामति ? स्याद् अनिन्द्रियः -वह स्यात् स-इन्द्रिय उत्पन्न होता है ? स्यात् अवक्रामति ? अनिन्द्रिय उत्पन्न होता है ? गोयमा ! दबिंदियाई पडुच्च अणिदिए वक्क- गौतम ! द्रव्येन्द्रियाणि प्रतीत्य अनिन्द्रियः गौतम ! द्रव्येन्द्रिय की अपेक्षा से वह अनिन्द्रिय मइ । भाविंदियाई पडुच्च सइंदिए वक्कमइ। अवक्रामति। भावेन्द्रियाणि प्रतीत्य सेन्द्रियः । उत्पन्न होता है। भावेन्द्रिय की अपेक्षा से स-इन्द्रिय से तेणडेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ--सिय अवक्रामति। तत् तेनार्थेन गौतम ! एव- उत्पन्न होता है, गौतम इस अपेक्षा से यह कहा सइंदिए वक्कमइ। सिय अणिदिए वक्कमइ॥ मुच्यते-स्यात् सेन्द्रियः अवक्रामति । स्याद् जा रहा है---जीव स्यात् स-इन्द्रिय उत्पन्न होता अनिन्द्रियः अवक्रामति। है, स्यात् अनिन्द्रिय उत्पन्न होता है। ३४२. जीवे णं भंते ! गम्भं वक्कममाणे किं ससरीरी वक्कमइ? असरीरी वक्कमइ? गोयमा ! सिय ससरीरी वक्कमइ। सिय असरीरी वक्कमइ ॥ ३४३. से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचइ-सिय ससरीरी वक्कमइ ? सिय असरीरी वक्कमइ? जीवः भदन्त ! गर्भम् अवक्रामन् किं सशरीरी ३४२. भन्ते ! गर्भ में उत्पन्न होता हुआ जीव क्या अवक्रामति ? अशरीरी अवक्रामति ? सशरीर उत्पन्न होता है ? अथवा अशरीर उत्पन्न होता है ? गौतम ! स्यात् सशरीरी अवक्रामति । स्याद् गौतम ! वह स्यात् सशरीर उत्पन्न होता है । स्यात् अशरीरी अवक्रामति। अशरीर उत्पन्न होता है। तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते—स्यात् ३४३. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है सशरीरी अवक्रामति ? स्याद् अशरीरी अव- -वह स्यात् सशरीर उत्पन्न हाता है? स्यात् क्रामति । अशरीर उत्पन्न होता है ? गौतम ! औदारिक-वैक्रिय-आहारकाणि । गौतम ! औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर प्रतीत्य अशरीरी अवक्रामति। तैजस-कर्मणी की अपेक्षा वह अशरीर उत्पन्न होता है। तैजस प्रतीत्य सशरीरी अवक्रामति । तत् तेनार्थेन और कार्मण शरीर की अपेक्षा से वह सशरीर गौतम ! एवमुच्यते-स्यात् सशरीरी अव- उत्पन्न होता है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा क्रामति । स्याद् अशरीरी अवक्रामति । जा रहा है-जीव स्यात सशरीर उत्पन्न होता है, स्यात् अशरीर उत्पन्न होता है। गोयमा ! ओरालिय-वेउब्विय-आहारयाइं पड़च्च असरीरी वक्कमइ । तेया-कम्माई पडुच्च ससरीरी वक्कमइ । से तेणडेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-सिय ससरीरी वक्कमइ। सिय असरीरी वक्कमइ॥ १. भ,वृ.१।३३६-इह प्रक्रमात् परिषहशब्देनारतिपरीषहो ग्राह्यः । २. वही,वृ.११३३६-'अहे णं' ति अथ लजादिक्षणानन्तरमाहारयति बुभुक्षा- वेदनीयस्य चिरं सोढुमशक्यत्वादिति । ३. ठाणं,३।३६६। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१ : उ.७: सू.३४४-३४६ १५० भगवई ३४४. जीवेणं भंते ! गभं वक्कममाणे तप्पट- मयाए किमाहारमाहारेइ ? गोयमा ! माउओयं पिउसुकं तं तदुभयसंसिटुं तप्पढमयाए आहारमाहारेइ ॥ जीवः भदन्त ! गर्भम् अवक्रामन् तत्प्रथमतया ३४४. भन्ते ! जीव गर्भ में उत्पन्न होता हुआ सबसे कम् आहारम् आहरति ? पहले क्या आहार लेता है ? गौतम ! मातुरोजः पितुः शुक्रम् तत् तदु- गौतम ! जीव सबसे पहले माता का ओज और भयसंसृष्टं तत्प्रथमतया आहारम् आहरति ।। पिता का शुक्र-इन दोनों से मिश्रित आहार लेता ३४५. जीवे णं भंते ! गभगए समाणे किं जीवः भदन्त ! गर्भगतः सन् कम् आहारम् ३४५. भन्ते ! गर्भगत जीव क्या आहार लेता है ? आहारमाहारेइ ? आहरति ? गोयमा ! जसे माया नाणाविहाओ रसविग- गौतम ! यत् तस्य माता नानाविधाः रस- गौतम ! गर्भगत जीव की माता जो नाना प्रकार तीओ आहारमाहारेइ, तदेकदेसेणं ओय- विकृतीः आहारम् आहरति, तदेकदेशेन की रस-विकृतियों का आहार लेती है, उसके एक माहारेइ॥ ओजः आहरति। देश के साथ ओज का आहार लेता है। ३४६. जीवस्स णं भंते ! गन्भगयस्स समाण- स्स अस्थि उचारे इ वा पासवणे इ वा खेले इ वा सिंघाणे इ वा वंते इ वा पित्ते इ वा? जीवस्य भदन्त ! गर्भगतस्य सतः अस्ति ३४६. भन्ते ! क्या गर्भगत जीव के मल, मूत्र, उच्चारः इति वा, प्रस्रवणम् इति वा, वेलः श्लेष्म, सिङ्घाण (नाक का मल) वमन और पित्त इति वा, सिंघाणः इति वा, वान्तम् इति वा, होता है ? पित्तम् इति वा? नो अयमर्थः समर्थः। यह अर्थ संगत नहीं है। णो इणडे समडे ॥ ३४७. से केणद्वेणं? तत् केनार्थेन ? गोयमा! जीवेणंगभगए समाणे जमाहारेइ गौतम ! जीवः गर्भगतः सन् यद् आहरति तं चिणाइ, तं जहा सोइंदियत्ताए, तच् चिनोति, तद् यथा--श्रोत्रेन्द्रियतया चक्विंदियत्ताए, पाणिदियत्ताए, रसिंदिय- चक्षुरिन्द्रियतया घ्राणेन्द्रियतया रसेन्द्रियतया ताए, फासिदियत्ताए, अट्ठि-अद्विमिंज- स्पर्शेन्द्रियतया अस्थि-अस्थिमज्जा-केश-श्मश्रुकेस-मंसु-रोम-नहत्ताए। से तेणडेणं रोम-नखत्वेन। तत् तेनार्थेन गौतम ! एव- गोयमा ! एवं बुचइ-जीवस्स णं गब्भ- मुच्यते-जीवस्य गर्भगतस्य सतः नास्ति गयस्स समाणस्स णस्थि उचारे इ वा उच्चारः इति वा, प्रखवणम् इति वा, श्वेलः पासवणे इ वा खेले इ वा सिंघाणे इ वा वंते इति वा, सिंघाणः इति वा, वान्तम् इति वा, इ वा पित्ते इ वा॥ पित्तम् इति वा। ३४७. यह किस अपेक्षा से? गौतम ! गर्भगत जीव जो आहार लेता है, उसका वह श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, स्पर्शनेन्द्रिय, अस्थि, अस्थिमञ्जा, केश, श्मश्रु, रोम और नख के रूप में चय करता है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-गर्भगत जीव के मल, मूत्र, श्लेश्म, सिंघाण, वमन और पित्त नहीं होता। ३४८. जीवेणं भंते ! गभगए समाणे किं पभू जीवः भदन्त ! गर्भगतः सन् प्रभुः मुखेन ३४८. भन्ते ! क्या गर्भगत जीव मुख से कवलमुहेणं कावलियं आहारमाहारित्तए ? कावलिकम् आहारम् आहर्तुम् ? -आहार करने में सक्षम है ? गोयमा ! णो इणद्वे समझे ॥ गौतम ! नो अयमर्थः समर्थः । गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। ३४६. से केणद्वेणं? तत् केनार्थेन ? गोयमा ! जीवे णं गभगए समाणे सचओ गौतम ! जीवः गर्भगतः सन् सर्वतः आहरति, आहारेइ, सचओ परिणामेइ, सबओ सर्वतः परिणमति, सर्वतः उच्छ्वसिति, सर्वतः उस्ससइ, सबओ निस्ससइ; अभिक्खणं निःश्वसिति; अभीक्ष्णम् आहरति, अभीक्ष्णं आहारेइ, अभिक्खणं परिणामेइ, अभि- परिणमति, अभीक्ष्णम् उच्छ्वसिति, अभीक्ष्णं क्खणं उस्ससइ, अभिक्खणं निस्ससह निःश्वसिति; आहत्य आहरति, आहत्य आहच आहारेइ, आहच परिणामेइ, परिणमयति, आहत्य उच्छ्वसिति, आहत्य आहच उस्ससइ, आहच निस्ससइ । निःश्वसिति । ३४६. यह किस अपेक्षा से ? गौतम ! गर्भगत जीव समग्र शरीर से आहार लेता है, समग्र शरीर से परिणत करता है, समग्र शरीर से उच्छ्वास लेता है और समग्र शरीर से निःश्वास करता है; वह बार-बार आहार लेता है, बार-बार परिणत करता है, बार-बार उच्छ्वास लेता है और बार-बार निःश्वास करता है; कदाचित् आहार लेता है, कदाचित् परिणत करता है, कदाचित् उच्छ्वास लेता है और कदाचित् निःश्वास करता है। मातृजीवरसहरणी और पुत्रजीवरसहरणी-ये दो नाड़ियां होती हैं। वे मातृजीव से प्रतिबद्ध माउजीवरसहरणी, पुत्तजीवरसहरणी, माउ- जीवपडिबद्धा पुत्तजीवफुडा–तम्हा आहा- मातृजीवरसहरणी, पुत्रजीवरसहरणी, मातृजीवप्रतिबद्धा, पुत्रजीवस्पृष्टा-तस्माद् आह- Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई रेइ, तम्हा परिणामेइ । अवरा वि य णं पुत्तजीवपडिबद्धा माउ - जीवफुडा तम्हा चिणाइ, तम्हा उवचिणाइ । से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ -- जीवे णं गब्भगए समाणे नो पभू मुहेणं कावलियं आहारमाहारित्तए । १५१ रति, तस्मात् परिणमयति। अपरापि च पुत्रजीवप्रतिबद्धा मातृजीवस्पृष्टा, तस्मात् चिनोति, तस्माद् उपचिनोति । तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते—जीवः गर्भगतः सन् नो प्रभुः मुखेन कावलिकम् आहारम् आहर्तुम् । भाष्य १. सूत्र ३४०-३४६ शरीर का निर्माण कर्म के निमित्त से होता है अथवा भूतमात्र के संयोग से ? यह प्रश्न प्राचीन काल से चर्चित रहा। दर्शन के क्षेत्र में दोनों मतवाद प्रचलित थे। वात्स्यायन ने न्यायसूत्र के भाष्य में इन दोनों मतों की चर्चा कर कर्मनिमित्तक शरीर-सृष्टि का समर्थन किया है। उनके अनुसार पूर्वकृत कर्म के फल से नए शरीर का निर्माण होता है।' विषय के निगमन में भाष्यकार ने लिखा हैअकर्मनिमित्तक शरीर-सृष्टि और अकर्मनिमित्तक सुख-दुःख का योग ——यह मिथ्या दृष्टिकोण है। चरक में भी इन दोनों प्रतिपत्तियों का उल्लेख मिलता है। जैन दर्शन में कर्मनिमित्तक शरीरनिर्माण की प्रतिपत्ति मान्य है। गर्भ का पूरा प्रकरण इसी संदर्भ में पठनीय है। इसके समर्थन में महावीर और गौतम का एक संवाद जानना उपयोगी होगा— गौतम ने पूछा-भन्ते ! जो प्राणी अगले जन्म में उत्पन्न होने वाला है —— क्या वह सायुष्क संक्रमण करता है या निरायुष्क ? भगवान् गौतम ! वह सायुष्क संक्रमण करता है, निरायुष्क संक्रमण नहीं करता । गौतम — भन्ते ! वह आयुष्य का बंध कहां करता है ? भगवान्—वह आयुष्य का बंध पूर्वभव में कर लेता है। ' गर्भ के विषय में गणधर गौतम ने छह प्रश्न पूछे। भगवान् ने उनके उत्तर दिए । अष्टांगहृदय के अनुसार शुद्ध शुक्र और शुद्ध रज से तथा स्वकृत कर्मों के कारण जीव की गर्भ-रूप में उत्पत्ति होती है। जैसे १. न्याय दर्शन, वात्स्यायन भाष्य, ३ । २ । ५६, ६० तत्र खलु विप्रतिपत्तेः संशयः -- किमयं पुरुषकर्मनिमित्तः शरीरसर्गः ? आहोस्विद् भूतमात्रादकर्मनिमित्त इति ? श्रूयते खल्वत्र विप्रतिपत्तिरिति । तत्रेदं तत्त्वम् — पूर्वकृतफलानुबन्धात् तदुत्पत्तिः । पूर्वशरीरे या प्रवृत्तिर्वाग्बुध्द्धिशरीरारम्भलक्षणा तत्पूर्वकृतं कर्मोक्तम् तस्य फलं तज्जनितौ धर्माधर्मी, तत्फलस्यानुबन्ध आत्मसमवेतस्यावस्थानम्, तेन प्रयुक्तेभ्यो भूतेभ्यस्तस्योत्पत्तिः शरीरस्य, न स्वतन्त्रेभ्य इति । २ . वही, ३।२।७२ - सेयं पापिष्ठानां मिथ्यादृष्टिरकर्मनिमित्ता शरीरसृष्टि: अकर्मनिमित्तः सुखदुःखयोग इति । श. १: उ.७: सू.३४०-३४६ और पुत्रजीव से स्पृष्ट होती है। (गर्भ की नाभि में नाड़ी लगी रहती है, नाड़ी में 'अपरा' लगी रहती है।) उससे गर्भगत जीव आहार करता है और उसे परिणत करता है। 'अपरा' पुत्रजीव से प्रतिबद्ध और मातृजीव से स्पृष्ट होती है, उससे गर्भगत जीव चय और उपचय करता है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है—गर्भगत जीव मुख से कवल-आहार करने में सक्षम नहीं है। अरणि को घिसने से अग्नि।' कोई जीव पूर्व जीवन को समाप्त कर नए जन्म में प्रवेश करता है, तब वह पूर्व जीवन से किन-किन वस्तुओं को साथ लेकर जाता है, इसकी चर्चा उपनिषद् और आयुर्वेद के ग्रन्थों में भी उपलब्ध है । चरक के अनुसार जीव चार तन्मात्राओं (स्पर्श तन्मात्रा, रस तन्मात्रा, रूप तन्मात्रा और गंध तन्मात्रा) को साथ लेकर नए जन्म में प्रवेश करता है।' इस सन्दर्भ में गौतम द्वारा प्रस्तुत प्रथम जिज्ञासा बहुत महत्त्वपूर्ण बन जाती है। भगवान् महावीर ने उस जिज्ञासा का सापेक्ष दृष्टि से समाधान किया है। एक जीवन से दूसरे जीवन में प्रवेश करते समय जीव द्रव्येन्द्रिय की अपेक्षा से अनिन्द्रिय होता है। और भावेन्द्रिय की अपेक्षा से स-इन्द्रिय होता है । द्रव्येन्द्रिय का अर्थ है— इन्द्रिय की रचना और इन्द्रिय-ज्ञान की उपकारक शक्ति । ये दोनों स्थूल शरीर से सम्बन्ध रखती हैं; इसलिए नए जन्म में प्रवेश करते समय ये दोनों जीव के साथ नहीं रहतीं। भावेन्द्रिय का अर्थ है— इन्द्रिय-ज्ञान की शक्ति । वह उस अवस्था में भी होती है। प्रत्येक जीव नए जन्म में होने वाले इन्द्रिय-विकास की योग्यता के अनुरूप ही शरीर का निर्माण करता है। गौतम की दूसरी जिज्ञासा है—गर्भ में प्रवेश करते समय जीव सशरीर होता है या अशरीर ? इसका समाधान भी सापेक्ष दृष्टि से किया गया है। मृत्यु का अर्थ है-स्थूल शरीर का परित्याग । गर्भ में प्रवेश का अर्थ है— नए शरीर का निर्माण । स्थूल शरीर तीन हैं - १. औदारिक—यह मनुष्य और तिर्यञ्च के होता है । २. वैक्रिय – यह देव और नारक के होता है। ३. भ. ५/५६, ६० । ४. अष्टांगहृदय, शारीरस्थान, १19 शुद्धे शुक्रार्तवे सत्त्वः स्वकर्मक्लेशचोदितः । गर्भः सम्पद्यते युक्तिवशादग्निरिवारणौ || ५. चरकसंहिता, शारीरस्थान, २।३१ भूतैश्चतुर्भिः सहितः सुसूक्ष्मैर्मनोजवो देहमुपैति देहात् । कर्मात्मकत्वान्न तु तस्य दृश्यं, दिव्यं विना दर्शनमस्तिरूपम् ।। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.७: सू.३४०-३४६ १५२ भगवई ३. आहारक इसका निर्माण योगज शक्ति से किया जाता है। यह ने समाधान की भाषा में कहा-जीव पूर्व शरीर को छोड़कर गर्भ योग-सम्पन्न मुनि के ही होता है। में प्रवेश करता है। वह सर्वप्रथम माता के ओज और पिता के शुक्र तैजस शरीर सूक्ष्म है और कार्मण शरीर सूक्ष्मतर । के मिश्रण का आहार लेता है। वही उसके वर्तमान जीवन की गर्भ में प्रवेश करते समय जीव के साथ केवल दो शरीर होते आधार-शिला बनता है। हैं-तैजस और कार्मण। इस आधार पर कहा गया है कि गर्भ में आहार तीन प्रकार के बतलाए गए हैं—ओज आहार, लोम प्रवेश करते समय जीव स्थूल शरीर की अपेक्षा से अशरीर और आहार और प्रक्षेप अथवा कवल आहार। उत्पत्ति के प्रथम समय तैजस तथा कार्मण शरीर की अपेक्षा से सशरीर होता है। में शरीर आदि पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों का ग्रहण किया जाता सुश्रुत के 'गर्भावक्रान्ति प्रकरण' में सूक्ष्म इन्द्रियों या लिंग है, वह ओज आहार है। यह प्रवचनसारोद्धार के वृत्तिकार सिद्धसेन सूरि का मत है। उन्होंने इसका वैकल्पिक अर्थ किया है-स्वजन्म शरीर के साथ जीव का गर्भ में प्रवेश माना गया है।' स्थानोचित शुक्र, शोणित आदि पुदगलसंघात का आहार। ओजस् चरकसंहिता में भी यही मत उपलब्ध होता है। का अर्थ है तैजस । यह आहार कार्मण शरीर युक्त तैजस शरीर से तीसरी जिज्ञासा प्रथम आहार से सम्बन्धित है-जीव गर्भ लिया जाता है, इसलिए इसका नाम ओज आहार है। अष्टांगसंग्रह में प्रवेश करते समय सर्वप्रथम क्या आहार लेता है ? के अनुसार गर्भ में प्रवेश करने वाला प्राणी पहले ओज ग्रहण करता इस जिज्ञासा की पृष्ठभूमि में दो मत अवस्थित हैं। आयुर्वेद है। उसके पश्चात् शुक्र-शोणित में प्रवेश करता है। उक्त दोनों के आचार्य भरद्वाज का मत था कि गर्भ में ही चेतना अभिव्यक्त अभिमतों के संदर्भ में प्रस्तुत आगम का मत समीक्षणीय है। यहां होती है। वह कहीं बाहर से आकर उसका निर्माण नहीं करती। प्रथम आहार माता का ओज और पिता का शुक्र बतलाया गया है। महर्षि आत्रे इस मत को अस्वीकार करते हैं। उनके अनुसार जीव गर्भ में विद्यमान जीव क्या आहार लेता है ?—यह चौथी दूसरे जीवन से आकर नए गर्भ में प्रवेश करता है।' जिज्ञासा है। इसके उत्तर में बताया गया है कि गर्भगत जीव माता गौतम की जिज्ञासा इन दोनों मतों से जुड़ी हुई है। भगवान के आहार पर निर्भर रहता है। माता जो आहार लेती है, उसका ६. भ.वृ.१।३४४----'माउओय'ति मातुरोजः जनन्या आर्तवं शोणितमित्यर्थः, "पिउसुक्क ति 'पितुः शुक्र' इह यदिति शेषः 'तंति आहारमिति योगः, तदुभयसंसिर्ल्ड'ति तयोरुभयं तदुभयं द्वयं, तच्च तत् संश्लिष्टं च संसृष्टं वा संसर्गवत् तदु १. सुश्रुतसंहिता, शारीरस्थान, ३/४ तत्र स्त्रीपुंसयोः संयोगे तेजः शरीराद्वायु- रुदीरयति । ततस्तेजोऽनिलसन्निपाताच्छुक्र च्युतं योनिमभिप्रतिपद्यते संसृज्यते चातवेन । ततोऽग्रीषोमसंयोगात् संसृज्यमानो गर्भाशयमनुप्रतिपद्यते क्षेत्रज्ञो वेद- यिता स्रष्टा घ्राता द्रष्टा श्रोता रसयिता पुरुषः स्रष्टा गन्ता साक्षी धाता वक्ता यः कोऽसावित्येवमादिभिः पर्यायवाचकै मभिरभिधीयते दैवसंगादक्षयोऽ- व्ययोऽचिन्यो भूतात्मना सहान्वक्षं सत्त्वरजस्तमोभिर्दैवासुरैरपरैश्च भावैर्वायुना ऽभिप्रेर्यमाणो गर्भाशयमनुप्रविश्यावतिष्ठते। २. चरकसंहिता, शारीरस्थान,२।३५ भूतानि चत्वारि तु कर्मजानि, यान्यात्सलीनानि विशन्ति गर्भम् । स बीजधर्मा ह्यपरापराणि, देहान्तराण्यात्मनि याति याति ॥ ३. वही, शारीरस्थान,३।३(६),४-न खल्वपि परलोकादेत्य सत्त्वं गर्भमवक्रामति, यदि ह्येनमवक्रामेत, नास्य किञ्चित् पौर्वदेहिकं स्यादविदितमश्रुतमदृष्टं वा, स च तच्च न किञ्चिदपि स्मरति । तस्मादेतत् ब्रूमहे—अमातृजश्चायं गर्भोऽपितृजश्चानात्मजश्चासाम्यजश्चारसजश्च, न चास्ति सत्त्वमौपपादुकमिति (होवाच भरद्वाजः)। ४. वही, शारीरस्थान,३। नेति भगवानात्रेयः सर्वेभ्य एभ्यो भावेभ्यः समुदि तेभ्यो गर्भोऽभिनिर्वर्तते। ५. वही, शारीरस्थान,३।३–पुरुषस्यानुपहतरेतसः स्त्रियाश्चाप्रदुष्टयोनिशोणितगर्भाशयाया यदा भवति संसर्गः ऋतुकाले, यदा चानयोस्तथायुक्ते संसर्गे शुक्रशोणितसंसर्गमन्तर्गर्भाशयगतं जीवोऽवक्रामति सत्त्वसंप्रयोगात्तदा गर्भोऽभिनिर्वर्तते, स सास्यरसोपयोगादरोगोऽभिवर्धते सम्यगुपचारैश्चोपचर्यमाणः, ततः प्राप्तकालः सर्वेन्द्रियोपपन्नः परिपूर्णशरीरो बलवर्णसत्त्वसंहननसंपदुपेतः सुखेन जायते समुदयादेषां भावानां मातृजश्चायं, पितृजश्चात्मजश्च सास्यजश्च रसजश्च अस्ति च खलु सत्त्वमौपपादुकमिति होवाच भगवानात्रेयः। ७. सूत्र.नि.गा.१७० भावाहारो तिविहो ओए लोमे य पक्खेवे । ८. प्र.सारो.वृ.प.३४२-तैजसेन तत्सहचारिणा कार्मणेन च शरीरेण पूर्वशरीर त्यागे विग्रहेणाविग्रहेण चोत्पत्तिदेशं प्राप्तः सन् जन्तुर्यत् प्रथममौदारिकादिशरीरयोग्यान् पुद्गलानाहारयति यच्च द्वितीयादि समयेष्वप्यौदारिकादिमिश्रेणाहारयति यावच्छरीरनिष्पत्तिः एष सर्वोऽप्योज आहारः ओजसा तैजस शरीरेणाहार ओज आहारः । ६. अष्टांगसंग्रह, इन्दुव्याख्या सहित, सूत्रस्थान,१६।२६-३२ तेजो यत्सर्वधातूनामोजस्तत् परमुच्यते । मृदु सोमात्मकं शुद्धं, रक्तमीषत् सपीतकम् ॥ यत् सारमादौ गर्भस्य यच्च गर्भरसाद्रसः । संवर्तमानं हृदयं, समाश्रयति यत्पुरा || यच्छरीररसः स्नेहः प्राणा यत्र प्रतिष्ठिताः । यस्यानाशान्ननाशोऽस्ति प्रीणिता येन देहिनः ॥ हृदयस्थमपि व्यापि तत् परं जीवितास्पदम् । ओजः क्षीयते कोपाद्ध्यानशोकश्रमादिभिः ।। सर्वधातूनां यत्तेजस्तत् प्रधानं परमोजः शब्देनोच्यते अष्टबिन्दुकमित्यर्थः। तच्च मृद्वतीक्ष्णगुणम्। सोभात्मकं सौम्यस्वरूपम् । शुद्धमनुपहतमीषद्रक्तं स्तोकलोहितं सपीतकं च। यद् गर्भस्यादौ सारं सारमिव सारं न हि तेन विना शुक्रशोणिते जीवानुप्रवेशः । यच्च गर्भरसाद्रसः गर्भस्य योऽसौ रसः प्रथमो धातुः तस्मादपि Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १५३ श.१: उ.७: सू.३४०-३४६ एक देश और ओज वह ग्रहण कर लेता है। सू.३४४ में 'ओज' से आप्लावित किए रहता है।' शब्द का अर्थ रक्त है। सू.३४५ में 'ओज' का अर्थ ओज धातु 'अपरा' नाम होने का कारण भी उपलब्ध होता है। गर्भ की होना चाहिए। तदेकदेश का अर्थ चरकसंहिता से स्पष्ट होता है सभी स्थिति से रजोवाही श्रोतों के मार्गों के अवरुद्ध हो जाने पर अपर रसों से युक्त वह आहार-रस गर्भिणी स्त्री के शरीर में तीन भागों में अपर आर्तव उपचित हो जाता है, उसे अपरा कहते हैं। कुछ आचार्य विभक्त होता है: उसे जरायु भी कहते हैं।' १. गर्भिणी के अपने शरीर की पुष्टि के लिए। सू.३४६ में प्रयुक्त 'अपरा' शब्द पारिभाषिक है-चरकसंहिता २. दूध बनाने के लिए के उक्त उद्धरण से यह स्पष्ट हो जाता है। प. बेचरदासजी ने 'अपरा' ३. गर्भ-शरीर की पुष्टि और वृद्धि के लिए। का अर्थ 'दूसरी' किया है, किन्तु यह समीचीन नहीं लगता। वह गर्भ इस आहार-रस से उपष्टब्ध होकर (संपोषण प्राप्त कर) पांचवीं जिज्ञासा है कि गर्भगत शिशु के उच्चार-प्रस्रवण आदि गर्भाशय के अन्दर अपना जीवन व्यतीत करता है। यहां तदेकदेशं' होते हैं या नहीं ? इसका उत्तर 'नहीं' में दिया गया है। सुश्रुतसंहिता पद के द्वारा गर्भ के लिए जो भाग होता है, वह विवक्षित है। में उच्चार आदि के निषेध की सहेतुक व्याख्या मिलती है। मल के इसकी प्रक्रिया भी निर्दिष्ट है-दो नाड़ियां होती हैं—मातृजीव अत्यन्त अल्प होने से वायु और पक्वाशय का परस्पर संयोग न होने रसहरणी और पुत्रजीव-रसहरणी। उनके द्वारा गर्भस्थ शिशु आहार के कारण गर्भ वायु, मूत्र और मल का त्याग नहीं करता। लेता है। अष्टांगहृदय और सुश्रुतसंहिता में इनके सम्बन्ध में जानकारी मिलती है-गर्भ की नाभि में तथा माता के हृदय में रसवाहिनी नाड़ी छठी जिज्ञासा है कि क्या गर्भगत जीव कवल-आहार करता (नलिका या सिरा) का सम्बध रहता है, जिसके द्वारा गर्भ का पोषण है? इसके उत्तर में कहा गया है कि कवल-आहार नहीं करता, समग्न होता रहता है, जैसे खेत की फसल का पोषण कुल्या (जल-प्रणाली) शरीर से आहार करता है। शरीर-पर्याप्ति से पर्याप्त अथवा सभी द्वारा होता है। पर्याप्तियों से पर्याप्त होने के पश्चात् वह लोम आहार करता है। इसलिए समग्र शरीर से आहार करने की विधि निर्दिष्ट है। ठाणं में चरकसंहिता के अनुसार गर्भस्थ शिशु को रसवाहिनियों से पोषण आहार के दो प्रकार बतलाए गए हैं-देशतः आहार और सर्वतः प्राप्त होता है। गर्भ की नाभि में नाड़ी लगी रहती है, नाड़ी में 'अप आहार। मुख से लिया जाने वाला आहार देशतः आहार है। ओज रा' (placenta) लगी रहती है और अपरा का सम्बन्ध माता के और लोम आहार समग्र शरीर से होता है; इसलिए वह सर्वतः आहार हृदय के साथ लगा रहता है। माता का हृदय उस अपरा को स्यन्दमान है। इसी प्रकार उच्छवास और निःश्वास की क्रिया का निर्देश है। (जिसमें रस, रक्त आदि का वहन होता है) शिराओं द्वारा रस-रक्त सुश्रुतसंहिता में गर्भ के उच्छ्वास-निःश्वास माता के उच्छ्वास-निःश्वास सारः प्रसादभूतम् । संवर्तमानं यच्च पुरा धातोर्देहे प्रवर्तमानं प्रथमहृदयमाश्रयति। पश्चात् क्रमादेहव्याप्तिं च करोति । यच्च शरीररसस्तस्य स बेहो यत्र प्राणो व्यापकोऽपि प्रतिष्ठितः बद्धः यस्य त्वष्टबिन्द्वाख्यस्यानाशाद्देहस्य नाशो नास्ति। येन च हृदयस्थेन देहिनो विविधाः प्राणिनः प्रीणितास्तर्पिताः । यच्च हृदयस्थमपि व्यापि तदोजोऽन्येभ्यो जीवितास्पदेभ्यःशिरःप्रभृतिभ्यः परं प्रधानं जीवितास्पदम्। १. चरकसंहिता, शारीरस्थान,४।२४-अष्टमे मासि गर्भश्च मातृतो गर्भतश्च माता रसहारिणीभिः संवाहिनीभिर्मुहर्मुहुरोजः परस्परत आददाते गर्भस्यासंपूर्णत्वात्। तस्मातदा गर्भिणी मुहुर्मुहर्मुदा युक्ता भवति मुहुर्मुहुश्च म्लाना । २. चरकसंहिता,शारीरस्थान,६ । २३ स्त्रिया ह्यापन्नगर्भायास्त्रिधा रसः प्रतिपद्यते स्वशरीरपुष्टये, स्तन्याय, गर्भवृद्धये च । स तेनाहारेणोपष्टब्धः (परतंत्र वृत्तितिरमाश्रित्य) वर्तयत्यन्तर्गतः। ३. (क) अष्टांगहृदय, शारीरस्थान,११५६ - गर्भस्य नाभौ मातुश्च हृदि नाडी निबध्यते। यया स पुष्टिमाप्नोति, केदार इव कुल्यया ॥ (ख) सुश्रुतसंहिता, शारीरस्थान,३।३१-मातुस्तु खलु रसवहायां नाड्यां गर्भनाभिनाडीप्रतिवद्धा, साऽस्य मातुराहाररसवीर्यमभिवहति। तेनोपस्नेहेनास्याभिवृद्विर्भवति । असंजाताङ्गप्रत्यङ्गप्रविभागमानिषेकात् प्रभृति सर्वशरीरा- वयवानुसारिणीनां रसवहानां तिर्यग्गतानां धमनीनामुपस्नेहो जीवयति। ४. चरकसंहिता, शारीरस्थान,६।२३–नाभ्यां हास्य नाडीप्रसक्ता नाइयां चापरा, अपरा चास्य मातुः प्रसक्ता हृदये, मातृहृदयं ह्यस्य तामपरामभिसंप्लवते सिराभिः स्यन्दमानाभिः । ५. (क) अष्टांगसंग्रह, शारीरस्थान,२। तस्याश्च रजोवाहिनां स्रोतसां वर्मन्युपरुध्यन्ते गर्भेण । तस्मात्ततः परमार्तवं न दृश्यते । ततस्तदधः प्रतिहतमपरमपरं चोपचीयमानमपरेत्याहुः । जरायुरित्यन्ये। (टीका) तस्याश्च व्यक्तगर्भाया रजोवहानि स्रोतांसि यैः स्त्रोतोभिर्मलभूतं रक्तमृतुकाले बहिर्भवति, तेषां वर्लनि मार्गाणि मुखानि गर्भेण नैकाहादाच्छाद्यन्ते; तस्मात् कारणात् ततः गर्भस्य व्यक्तीभावात् परमार्तवं न प्रवर्तते । यत्तु कदाचिद् दृश्यते तद्वैकृतम्। तदेव चार्तवमधोगमने गर्भेण प्रतिहतमाहारपरिणामाच्च प्रतिदिनमुपचीयमानं गर्भस्याशय एवापरागर्भशय्याख्या सम्पद्यत इति केचिदाहुः । अन्ये पुनराचार्यास्तदातवं जरायुभावेन परिणमतीत्याहुः । (ख) सुश्रुतसंहिता, शारीरस्थान,४।२४-गृहीतगर्भाणामार्तववहानां स्रोतसां वर्मन्यवरुध्यन्ते गर्भेण, तस्माद् गृहीतगर्भाणामार्तवं न दृश्यते ततस्तदधः प्रतिहतमूर्ध्वमागतमपरं चोपचीयमानमपरेत्यभिधीयते । ६. भगवती सूत्र, खण्ड१, पृ.१८२। ७. सुश्रुतसंहिता, शारीरस्थान,२१५३ मलाल्पत्वादयोगाच्च, वायोः पक्वाशयस्य च । वातमूत्रपुरीषाणि न गर्भस्थः करोति हि ।। ८. ठाण, २०६ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १: उ. ७: सू. ३४०-३५२ १५४ भगवई पर निर्भर बतलाए गए हैं।' आयुर्विज्ञान के अनुसार माता द्वारा गृहीत आक्सीजन, पोषक तत्त्व 'प्लेसेंटा' (अपरा) के माध्यम से गर्भ तक पहुंचते हैं और कार्बन डाइआक्साइड, यूरिया आदि उत्सर्जनीय पदार्थ गर्भ से पुनः माता तक पहुंचाए जाते हैं। इस प्रकार गर्भ द्वारा आहार और श्वासोच्छ्वास का कार्य स्वतंत्र रूप से नहीं होता । ' माइय-पेय- अंग-पदं ३५०. कइ णं भंते! माइयंगा पण्णत्ता ? गोयमा ! तओ माइयंगा पण्णत्ता, तं जहा — मंसे, सोणिए, मत्थुलुंगे ॥ ३५१. कइ णं भंते! पेतियंगा पण्णत्ता ? गोयमा ! तओ पेतियंगा पण्णत्ता, तं जहा - अट्ठि, अट्ठिमिंजा, केस-मंसु-रोम - नहे ॥ ३५२. अम्मापेइए णं भंते! सरीरए केवइयं कालं संचिइ ? गोयमा ! जावइयं से कालं भवधारणिजे सरीरए अव्वावत्रे भवइ एवतियं कालं संचिट्ठइ, अहे णं समए - समए वोयसिज्ज - माणे- वोयसिज्जमाणे चरिमकालसमयंसि वोच्छिष्णे भवइ ॥ १. सुश्रुतसंहिता, शारीरस्थान, २ ।५५ मात्रिक- पैत्रिक- अंग-पदम् कति भदन्त ! मात्रङ्गानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! त्रीणि मात्रङ्गानि प्रज्ञप्तानि तद् यथा मांसं शोणितं, मस्तुलुङ्गम् । कति भदन्त ! पित्रङ्गानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! त्रीणि पित्रङ्गानि प्रज्ञप्तानि तद् यथा — अस्थि, अस्थिमज्जा, केश श्मश्रु-रोम -नखाः । गौतम ! यावन्तं तस्य कालं भवधारणीयः शरीरकः अव्यापन्नः भवति एतावन्तं कालं सन्तिष्ठते, अथ समये-समये व्यवकृष्यमाणःव्यवकृष्यमाणः चरमकालसमये व्यवच्छिन्नः भवति । १. सूत्र ३५०-३५२ आयुर्वेद के ग्रन्थों में मातृज और पितृज अंगों की विस्तृत जानकारी मिलती है । अष्टांगहृदय में रक्त, मांस, मज्जा और गुद को मातृज तथा शुक्र, धमनी, अस्थि एवं केश को पितृज अंग माना गया अम्बापैतृकः भदन्तः ! शरीरकः कियन्तं कालं ३५२. भन्ते ! मातृ-पैत्रिक शरीर (मातृ-अंग और सन्तिष्ठते ? पितृ - अंग) सन्तान के शरीर में कितने काल तक अवस्थित रहता है ? निःश्वासोच्छ्वास संक्षोभस्वप्नान् गर्भोऽधिगच्छति । मातुर्निश्वसितोच्छ्वाससंक्षोभस्वप्रसंभवान् ॥ भाष्य २. Encyclopaedia Britannica, Embryology, Human---Vol. VIII, p. 326– At the same time it readily passes oxygen, nutritive chemical substances (carbohydrates, nitrogenous foods and mineral salts) from maternal to fetal blood and waste products (carbon dioxide, urea etc.) from fetal to maternal blood to be carried away and disposed of through the mother's lungs and kidneys, the placenta is essentially an apposition of the fetal and maternal circulatory systems for purposes of chemical exchange. It serves the developing fetus as an organ of respiration, मात्रिक- पैत्रिक - अंग-पद ३५०. 'भन्ते! संतान में कितने मातृ-अंग प्रज्ञप्त हैं? गौतम ! तीन मातृ-अंग प्रज्ञप्त हैं, जैसे—मांस, शोणित और मस्तुलुंग (मस्तिष्कीय मज्जा ) | ३५१. भन्ते ! संतान में कितने पितृ-अंग प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! तीन पितृ-अंग प्रज्ञप्त हैं, जैसे—अस्थि, अस्थि - मज्जा, केश, श्मश्रु, रोम और नख । गौतम ! जितने काल तक उसका भवधारणीय शरीर अव्यापन्न (अविनष्ट) बना रहता है, उतने काल तक मातृ-पैत्रिक शरीर सन्तान के शरीर में अवस्थित रहता है। उपचय के अन्तिम समय के अनन्तर मातृ-पैत्रिक शरीर प्रतिक्षण हीयमान होता हुआ अंतिम क्षण में व्यवच्छिन्न हो जाता है। है । ' चरकसंहिता में इसकी विस्तृत तालिका मिलती है। आधुनिक आयुर्विज्ञान के अनुसार गर्भ को माता और पिता से २३-२३ गुणसूत्र (chromosomes ) मिलते हैं । ' nutrition and excretion and serves the mother as an endocrine organ. ३. अष्टांगहृदय, शारीरस्थान, ३ । ४, ५ मृद्वत्र मातृजं रक्त-मांस-मज्ज-गुदादिकम् ।। पैतृकं तु स्थिरं शुक्र-धमन्यस्थि-कचादिकम् । ४. चरकसंहिता, शारीरस्थान, ३ । ६७ त्वक् च लोहितं च मांसं च मेदश्च नाभिश्च हृदयं च क्लोमं च यकृच्च प्लीहा च तुकौ च वस्तिश्च पुरीषाधानं चामाशयश्च पक्काशयश्चोत्तरगुदं चाधरगुदं च क्षुद्रान्त्रं च स्थूलान्त्रं च वपा च वपावहनं चेति (मातृजानि) । केश श्मश्रु-नख-लोम - दंतास्थि- सिरा-स्रायु-धमन्यः शुक्रं चेति (पितृजानि) । ५. Encyclopaedia Britannica ' Heredity', vol. XI, p. 422 A- As stated above, man has 46 chromosomes in his body cells and in the cells (oogonia and supermatogonia) from Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई शब्द-विमर्श भवधारणीय- भवधारण करने का प्रयोजन यानि मनुष्य आदि भवधारण करने में जो उपग्राहक है । ३५४. से केणद्वेणं भंते एवं बुच्चइअत्येगइए उववज्जेज्जा, अत्येगइए नो उववजेजा ? गोयमा ! से णं सण्णी पंचिंदिए सव्वाहि पत्तीहिं पजत्तए वीरियलद्धीए वेउव्वयद्धी पराणीयं आगयं सोचा निसम्म पसे निच्छुभइ, निच्छुभित्ता वेउब्वियसमुग्धाणं समोहण, समोहणित्ता चाउ - रंगिण सेणं विउब्वइ, विउब्वित्ता चाउ - रंगिणीए सेणाए पराणीएणं सद्धिं संगामं संगामेइ । गव्भस्स नरगगमण-पदं ३५३. जीवे णं भंते ! गन्भगए समाणे नेरइएस उववज्जेज्जा ? गोयमा ! अत्थेगइए उवयजेज्जा, अत्येगइए गौतम ! अस्त्येककः उपपद्येत, अस्त्येककः नो उववज्जेज्जा ।। नो उपपद्येत । से णं जीवे अत्यकामए रज्जकामए भोगकामए कामकामए, अत्थकंखिए रज्जकंखिए भोगकखिए कामकंखिए, अत्थपिवासिए रज्जपिवासिए भोगपिवासिए कामपिवासिए, तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे तदज्झवसिए तत्तिव्वझवसाणे तदट्ठोवउत्ते तदप्पियकरणे तब्भावणाभाविए, एयंसि णं अरंसि कालं करेज नेरइएसु उववज्जइ । से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुचइ - अत्येगइए उववज्जेज्जा, अत्येगइए नो उववज्जेजा ॥ १५५ अव्यापन — अविनष्ट, जो नष्ट नहीं हुआ है। अब उपचय के अन्तिम समय के अनन्तर केवल यह अम्बापैतृक शरीर होता है । ' गर्भस्य नरकगमन-पदम् गर्भ का नरकगमन - पद 9 जीवः भदन्त ! गर्भगतः सन् नैरयिकेषु ३५३ 'भन्ते ! क्या गर्भगत जीव नैरयिकों में उपपन्न उपपद्येत ? होता है ? तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते— अस्त्येककः उपपद्येत, अस्त्येककः नो उपपद्येत ? गब्भस्स देवलोगगमण-पदं ३५५. जीवे णं भंते! गभगए समाणे देव which the sex cells arise. Atmaiosis, these 46 chromosomes form 23 pairs, one of the chromosomes of each pair being of maternal and the other of paternal origin. गौतम ! स संज्ञी पंचेन्द्रियः सर्वाभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तकः वीर्यलब्धिकः वैक्रियलब्धिकः परानीकम् आगतं श्रुत्वा निशम्य प्रदेशं निक्षिपति, निक्षिप्य वैक्रियसमुद्घातेन समवहन्ति, समवहत्य चतुरङ्गिणीं सेनां विकुरुते, विकृत्य चतुरङ्गिण्या सेनया परानीकेन सार्द्धं सङ्ग्रामं सङ्ग्रामयति । स जीवः अर्थकामकः राज्यकामकः भोगकामकः कामकामकः, अर्थकाङ्क्षितः राज्यकाङ्क्षितः भोगकाङ्क्षितः कामकाङ्क्षितः, अर्थपिपासितः राज्यपिपासितः भोगपिपासितः कामपिपासितः, तच्चित्तः तन्मनाः तल्लेश्यः तदध्यवसितः तत्तीव्राध्यवसानः तदर्थोपयुक्तः तदर्पितकरणः तद्भावनाभावितः एतस्मिन् अन्तरे कालं कुर्यात् नैरयिकेषु उपपद्येत । तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते—– अस्त्येककः उपपद्येत, अस्त्येककः नो उपपद्येत । श. १: ३.७: सू.३५२-३५५ गर्भस्स देवलोगगमण-पदं जीवः भदन्त ! गर्भगतः सन् देवलोकेषु गौतम ! कोई उपपन्न होता है, कोई उपपन्न नहीं होता । ३५४. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है - कोई उपपन्न होता है, कोई उपपन्न नहीं होता? गौतम ! सब पर्याप्तियों से पर्याप्त, वीर्यलब्धि और वैक्रियलब्धि से सम्पन्न, संज्ञी पंचेन्द्रिय गर्भगत शिशु शत्रु सेना का आगमन सुनकर, अवधारण कर अपने आत्म-प्रदेशों का गर्भ से बाहर प्रक्षेपण करता है, उनका प्रक्षेपण कर वैक्रिय समुद्घात से समवहत होता है, समवहत होकर चतुरङ्गिणी सेना का निर्माण करता है। निर्माण कर उस चतुरङ्गिणी सेना के द्वारा शत्रु सेना के साथ युद्ध करता है। वह जीव (गर्भगतशिशु) अर्थकामी, राज्यकामी, भोगकामी और कामकामी, अर्थकांक्षी राज्यकांक्षी, भोगकांक्षी और कामकांक्षी तथा अर्थपिपासु, राज्यपिपासु, भोगपिपासु और कामपिपासु होकर उस अर्थ आदि में ही अपने चित्त, मन, लेश्या, अध्यवसाय और तीव्र अध्यवसान का नियोजन करता है। वह उसी विषय में उपयुक्त हो जाता है। उसके लिए अपने सारे करणों (इन्द्रियों) का समर्पण कर देता है। वह उसकी भावना से भावित हो जाता है। उस अंतर (युद्धकाल) में यदि वह मरणकाल को प्राप्त होता है, तो नैरयिकों में उपपन्न होता है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है— कोई उपपन्न होता है, कोई उपपन्न नहीं होता । गर्भ का देवलोकगमन-पद ३५५. भन्ते ! क्या गर्भगत जीव देवलोकों में उपपन्न १. भ. वृ. १ । ३५४ - भवधारणीयं भवधारणप्रयोजनं मनुष्यादिभवोपग्राहकमित्यर्थः । 'अब्बावन्ने 'ति अविनष्टम्, 'अहे णं'ति उपचयान्तिमसमयादनन्तरमेतद् अम्वापैतृकं शरीरम् । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ भगवई श.१: उ.७: सू.३५३,३५६ लोगेसु उववजेजा ? गोयमा! अत्येगइए उववजेजा, अत्थेगइए नो उववजेजा। उपपद्येत ? गौतम ! अस्त्येककः उपपधेत, अस्त्येककः । नो उपपद्येत । होता है। गौतम ! कोई उपपन्न होता है, कोई उपपन्न नहीं होता । ३५६. से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचइ- ___तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते- ३५६. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है अत्यंगइए उववजेजा, अत्थेगइए नो उव- अस्त्येककः उपपद्येत, अस्त्येककः नो -कोई उपपन्न होता है, कोई उपपन्न नहीं होता? वजेजा? उपपद्येत। गौतम ! सब पर्याप्तियों से पर्याप्त, संज्ञी पंचेन्द्रिय गोयमा ! से णं सण्णी पंचिदिए सब्बाहि गौतम ! स संज्ञी पंचेन्द्रियः सर्वाभिः पर्याप्ति- गर्भगत शिशु तथारूप श्रमण-माहन के पास एक पजत्तीहिं पजत्तए तहारूवस्स समणस्स या भिः पर्याप्तकः तथारूपस्य श्रमणस्य वा भी आर्य धार्मिक सुवचन सुनता है, अवधारण माहणस्स वा अंतिए एगमवि आरियं माहनस्य वा अन्तिके एकमपि आर्य धार्मिकं करता है। उससे उसके मन में संवेग-जनित श्रद्धा धम्मियं सुवयणं सोचा निसम्म तओ भवइ सुवचनं श्रुत्वा निशम्य ततो भवति संवेगजात- उत्पन्न होती है। वह तीव्र धर्म-अनुराग से अनुरक्त संवेगजायसहे तिव्वधम्माणुरागरते। श्रद्धस्तीव्रधर्मानुरागरक्तः। हो जाता है। से णं जीवे धम्मकामए पुण्णकामए सग्ग- स जीवः धर्मकामकः पुण्यकामकः स्वर्ग- वह जीव (गर्भगत शिशु) धर्मकामी, पुण्यकामी, कामए मोक्खकामए, धम्मकंखिए पुण्ण- कामकः मोक्षकामकः, धर्मकाङ्क्षितः, पुण्य- स्वर्गकामी और मोक्षकामी, धर्मकांक्षी, पुण्यकांक्षी, कंखिए सग्गकंखिए मोक्खकंखिए, काक्षितः स्वर्गकाङ्क्षितः मोक्षकाक्षितः, स्वर्गकांक्षी और मोक्षकांक्षी तथा धर्मपिपासु, धम्मपिवासिए पुण्णपिवासिए सग्गपिवासिए धर्मपिपासितः पुण्यपिपासितः स्वर्गपिपा- पुण्यपिपासु स्वर्गपिपासु और मोक्षपिपासु होकर मोक्खपिवासिए, तचित्ते तम्मणे तल्लेसे सितः मोक्षपिपासितः, तच्चित्तः तन्मनाः उस धर्म, पुण्य आदि में ही अपने चित्त, मन, तदज्झवसिए तत्तिव्वज्झवसाणे तदबोवउत्ते तल्लेश्यः तदध्यवसितः तत्तीव्राध्यवसानः लेश्या, अध्यवसाय तीव्र अध्यवसान का नियोजन तदप्पियकरणे तन्मावणाभाविए, एयंसि णं तदर्थोपयुक्तः तदर्पितकरणः तद्भावना- ___करता है। वह उसी विषय में उपयुक्त हो जाता अंतरंसि कालं करेज देवलोगेसु उववजइ। भावितः, एतस्मिन् अन्तरे कालं कुर्याद् देव- है। उसके लिए अपने सारे करणों (इन्द्रियों) का से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-अत्ये- लोकेषु उपपद्येत । तत् तेनार्थेन गौतम ! एव- समर्पण कर देता है। वह उसकी भावना से भावित गइए उववजेज्जा, अत्थेगइए नो उवव- मुच्यते-अस्त्येककः उपपद्येत, अस्त्येककः हो जाता है। उस अंतर (धर्माराधन-काल) में जेजा। नो उपपघेत। यदि वह मरणकाल को प्राप्त होता है, तो देवलोकों में उपपन्न होता है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है कोई उपपन्न होता है, कोई उपपन्न नहीं होता। भाष्य निर्माण कर युद्ध करना सभी ज्ञात घटनाओं से विलक्षण घटना है। इसी प्रकार धार्मिक प्रवचन सुनकर धर्मानुराग से अनुरक्त १. सूत्र ३५३-३५६ प्रस्तुत आलापक गर्भविज्ञान का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। गर्भस्थ शिशु के विकास, क्षमता और व्यवहार पर आधुनिक विज्ञान के क्षेत्र में अनेक अनुसंधान हो रहे हैं। अनेक आश्चर्यजनक रहस्य भी उद्घाटित हुए हैं। नोर्थ केरोलिना यूनिवर्सिटी के श्री एंथानी डिकेस्पर तथा उनके सहयोगी श्री विलियम फिफर ने अनेक प्रयोग किए हैं। अपने अध्ययन में उन्होंने पाया कि गर्भस्थ शिशु जिन गीतों को सुनता है, जिन आवाजों को सुनता है, जन्म के पश्चात् वह उनको पहचान जाता है। जर्मन वैज्ञानिक प्रो. अनेर्स्ट पोपेल के अनुसार गर्भस्थ शिशु सपने भी देख सकता है। २८ सप्ताह का अजन्मा शिशु संगीत की थाप पर नाचता है। चरकसंहिता में भी गर्भस्थ शिशु के विकास और व्यवहार की चर्चा मिलती है।' प्रस्तुत प्रकरण में जिस वैक्रिय लब्धि का उल्लेख है, वह आश्चर्यकारी रहस्य है। एक गर्भस्थ शिशु के द्वारा वैक्रिय लब्धि के द्वारा सेना का शब्द-विमर्श पर्याप्ति और पर्याप्त-पर्याप्तियां छह हैं-१. आहारपर्याप्ति २.शरीरपर्याप्ति ३. इन्द्रियपर्याप्ति ४. श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति ५. भाषापर्याप्ति ६. मनःपर्याप्ति। नए जन्म में प्रवेश करने वाला प्राणी जन्म के प्रारम्भ में प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूत की अवधि में इन छहों पौद्गलिक शक्तियों का निर्माण करता है। इनका निर्माण पूर्ण होने पर वह पर्याप्त कहलाता है। वीर्यलयिक-शक्तिसम्पन्न । सूत्रकृतांग नियुक्ति में इसका विस्तृत वर्णन उपलब्ध है। १. चरकसंहिता, शारीरस्थान,४१५-तस्य यत्कालमेवेन्द्रियाणि संतिष्ठन्ते, तत्कालमेव चेतसि वेदना निर्बन्धं प्राप्नोति, तस्मात्तदा प्रभृति गर्भः स्पन्दते, प्रार्थयते च जन्मान्तरानुभूतं यत् किंचित् तद् द्वैहृदयमाचक्षते वृद्धाः । २. द्रष्टव्य, सूयगडो, प्रथम श्रुतस्कंध के आठवें अध्ययन का आमुख । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १५७ श.१: उ.७: सू.३५३-३५७ वैक्रियलब्धिक नाना प्रकार के रूपनिर्माण में समर्थ योगजनित परिणाम । 'तत्तीव्राध्यवसान' अर्थात् प्रकृत विषय में तीव्र अध्यवसाय शक्ति से सम्पन्न। वाला। वैक्रियसमुद्रात नाना प्रकार के रूपनिर्माण के लिए होने वाला तदर्थोपयुक्त प्रकृत विषय के लिए व्यापृत चेतना वाला। आत्मप्रदेशों का प्रक्षेपण। तदर्पितकरण प्रकृत विषय के लिए समर्पित इन्द्रिय वाला। तचित्त-चित्त का अर्थ है-स्थूल शरीर के साथ व्याप्त तद्भावनामावित-प्रकृत विषय की भावना से भावित। चेतना अथवा बुद्धि । 'तच्चित्त' अर्थात् प्रकृत विषय में संलग्न चित्त संवेग-भववैराग्य अथवा जन्ममरण-जनित भय । वाला । तथारूप विशिष्ट संज्ञा के अनुरूप आचरण वाला। तन्मना-मन का अर्थ है-सब विषयों का ग्रहण करने वाला श्रमण-माहण–श्रमण और माहण की प्रामाणिक परिभाषा तथा स्मृति, कल्पना और चिंतन में सक्षम और चित्त द्वारा संचालित सूयगडो में उपलब्ध है। वहां माहण को सब पाप कर्म से विरत एक योग। 'तन्मना' अर्थात् प्रकृत विषय में संलग्न मन वाला | बतलाया गया है, इसलिए इसका अर्थ श्रावक या व्रती गृहस्थ नहीं तल्लेश्य लेश्या का अर्थ है-भावधारा । 'तल्लेश्य' अर्थात् किया जा सकता। वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'श्रावक' अथवा 'ब्राह्मण' प्रकृत विषय में संलग्न लेश्या वाला। किया है। वह उक्त संदर्भ में समीचीन प्रतीत नहीं होता। जयाचार्य तदध्यवसित-अध्यवसाय का अर्थ है-कर्मशरीर के साथ ने इस विषय पर विशेष विमर्श प्रस्तुत किया है। सूयगडो में १४ व्याप्त चेतना। अथवा चेतना का सूक्ष्म परिणाम । 'तदध्यवसित' पर्यायवाची नाम बतलाए गए हैं, उनमें भी 'समण' और 'माहण' अर्थात् प्रकृत विषय में संलग्न अध्यवसाय से युक्त। संगृहीत हैं।' तत्तीव्राध्यवसान-अध्यवसान का अर्थ है-चेतना का सूक्ष्म ३५७. जीवे णं भंते ! गभगए समाणे जीवः भदन्त ! गर्भगतः सन् उत्तानकः वा, ३५७. 'भन्ते ! क्या गर्भगत जीव उत्तानशयन, उत्ताणए वा पासल्लए वा अंबखुजए वा पार्श्वकः वा, आम्रकुब्जकः वा आसीत वा? पार्श्वशयन अथवा आम्रकुब्जक (आम्र की भांति अच्छेन्ज वा ? चिट्ठेन्ज वा ? निसीएज वा? तिष्ठेद् वा ? निषीदेद् वा ? त्वग्वर्तेत वा ? कुब्ज) आसन की मुद्रा में रहता है ? खड़ा होता तुयट्टेज वा ? माउए सुयमाणीए सुबइ ? मातरि स्वपन्त्यां स्वपिति ? जाग्रत्यां जागर्ति? है ? बैठता है ? सोता है ? माता के सोने पर जागरमाणीए जागरइ? सुहियाए सुहिए सुखितायां सुखितो भवति? दुःखितायां सोता है ? उसके जागने पर वह जागता है ? भवइ? दुहियाए दुहिए भवइ ? दुःखितो भवति ? उसके सुखी होने पर वह सुखी होता है ? उसके दुःखी होने पर वह दुःखी होता है ? हंता गोयमा ! जीवे णं गभगए समाणे हन्त गौतम ! जीवः गर्भगतः सन् उत्तानकः ___ हां, गौतम ! गर्भगत जीव उत्तानशयन, पार्श्वउत्ताणए वा पासल्लए वा अंबुखुजए वा बा, पार्श्वकः वा आम्रकुब्जकः वा आसीत शयन अथवा आम्रकुब्जक आसन की मुद्रा में अच्छेज व, चिठेज वा, निसीएज वा, वा, तिष्ठेद वा, निषीदेद् वा, त्वगवर्तेत वा, रहता है, खड़ा होता है, बैठता है, सोता है, माता तुयदेज वा। माउए सुयमाणीए सुवइ, मातरि स्वपन्त्यां स्वपिति, जाग्रत्यां जागर्ति, के सोने पर सोता है, उसके जागने पर वह जागता जागरमाणीए जागरइ, सुहियाए सुहिए सुखितायां सुखितो भवति, दुःखितायां है, उसके सुखी होने पर वह सुखी होता है, उसके भवइ, दुहियाए दुहिए भवइ। दुःखितो भवति। दुखी होने पर वह दुःखी होता है। अहे णं पसवणकालसमयंसि सीसेण या । अथ प्रसवनकालसमये शीर्षेण वा पादेन वा वह जीव प्रसवकाल के समय (यदि) सिर या पैरों पाएहिं वा आगच्छति सममागच्छति, तिरि- आगच्छति सममागच्छति तिर्यग आगच्छति, के द्वारा बाहर आता है, सीधा आता है; (यदि) यमागच्छति विणिहायमावज्जति। वण्ण- विनिघातमापद्यते। वर्णबाह्यानि च तस्य वह टेढा होकर आता है, तो मृत्यु को प्राप्त होता वज्झाणि य कम्माइं बद्धाई पुट्ठाई निहत्ताई कर्माणि बद्धानि स्पृष्टानि निधत्तानि कृतानि है। उस नवजात शिशु के (यदि) वर्णबाह्य कडाई पट्टवियाई अभिनिविट्ठाई अभि- प्रस्थापितानि अभिनिविष्टानि अभिसमन्वा- (अप्रशस्त कोटिवाले) कर्म बद्ध, स्पृष्ट निधत्त, समण्णागयाइं उदिण्णाई-नो उवसंताई गतानि उदीर्णानि–नो उपशान्तानि भवन्ति, कृत, प्रस्थापित, अभिनिविष्ट (तीव्र अनुभाव के १. द्रष्टव्य, भ.३।१५४-१६१। दंते दविए बोसट्टकाए 'समणे ति बच्चे। २. सूय.91१६।३,४-इति विरतसव्वपावकम्मे पेज-दोस-कलह-अब्भक्खाण- ३. भ.वृ.१।३५६–'माहणस्स'त्ति मा हन इत्येवमादिशति स्वयं स्थूलप्राणातिपेसुण्ण-परपरिवाद-अरति-रति-मायामोस-मिच्छादसणसल्लविरते समिए सहिए पातादि निवृत्तत्वाधः स माहनः अथवा ब्राह्मणो ब्रह्मचर्यस्य देशतः सद्भावाद् सया जए, णो कुज्झे णो माणी 'माहणे'त्ति बच्चे। ब्राह्मणो देशविरतः। एत्थ वि समणे अणिस्सिए अणिदाणे आदाणं च अतिवायं च मुसावायं च ४. भ.जो.१।२२।२६११७। बहिद्धं च कोहं च माणं च मायं च लोहं च पेजं च दोसं च इच्चेव जतो जतो ५. सूय.२१११७२ । आदाणाओ अप्पणो पद्दोस-हेऊ ततो-ततो आदाणाओ पुव्वं पडिविरतो सिया ना Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १: उ.७: सू.३५७, ३५८ भवंति, तओ भवइ दुरूवे दुवण्णे दुग्गंधे दुरसे फासे अणि अकंते अप्पिए असुमे अमणुणे अमणामे हीणस्सरे दीणस्सरे अणिस्सरे अकंतस्सरे अप्पियस्सरे असुभस्सरे अमणुण्णस्सरे अमणामस्सरे अणाएजवणे पच्चायाए या वि भवइ । वण्णबज्झाणि य से कम्माई नो बद्धाई नो पुट्ठाई नो निहत्ताई नो कडाई नो पट्ठवियाई नो अभिनिविद्वाइं नो अभिसमण्णागयाई नो उदिण्णाई — उवसंता भवति, तओ भवइ सुरूवे सुवणे सुगंधे सुरसे सुफासे इट्टे कंते पिए सुभे मणुण्णे मणामे अहीणस्सरे अदीणस्सरे इट्ठस्सरे कंतस्सरे पियस्सरे सुभस्सरे मणुण्णस्सरे मणामस्सरे आदेजवणे पच्चाया या वि भवइ ॥ १. सूत्र - ३५७ शब्द-विमर्श १५८ ततः भवति दूरूपः दुर्वर्ण: दुर्गन्ध: दूरस: दुःस्पर्शः अनिष्टः अकान्तः अप्रियः अशुभः अमनोज्ञः 'अमणामे' हीनस्वर : दीनस्वरः अशुभस्वरः अमनोज्ञस्वरः 'अमणाम'स्वरः अनादेयवचनः प्रत्याजातश्चापि भवति । वर्णबाह्यानि च तस्य कर्माणि नो बद्धानि नो स्पृष्टानि नो निधत्तानि नो कृतानि नो प्रस्थापितानि नो अभिनिविष्टानि नो अभिसमन्यागतानि नो उदीर्णानि -उपशान्तानि भवन्ति, तस्मात् भवति सुरूपः सुवर्णः सुगन्धः सुरसः सुस्पर्शः इष्टः कान्तः प्रियः शुभः मनोज्ञः 'मणामे' अहीनस्वरः अदीनस्वरः इष्टस्वरः कान्तस्वरः प्रियस्वरः मनोज्ञस्वरः 'मणाम'स्वरः आदेयवचनः प्रत्याजातश्चापि भवति । भाष्य वष्णवज्झ वृतिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-वर्णवध्य और वर्णबाह्य ।' नामकर्म की प्रकृतियों में वर्ण नामकर्म का उल्लेख नहीं है। यहां वर्ण का अर्थ शुक्ल आदि वर्ण से संबद्ध नहीं है, किन्तु इसका अर्थ प्रशस्त होना चाहिए। इस आधार पर वर्णबाह्य का अर्थ 'अप्रशस्त कोटिवाला' किया जा सकता है। बद्ध-कर्म- योग्य पुद्गल जो कर्म रूप में परिणत कर दिये जाते हैं। स्पृष्ट-जिन कर्म- पुद्गलों का आत्मा के साथ संश्लेष हो चुका है। यह प्रज्ञापना के वृत्तिकार आचार्य मलयगिरि का अभिमत है। ' धवला के अनुसार कर्मों का कर्मों के साथ जो स्पर्श होता है कर्म- स्पर्श है। यहां 'स्पृष्ट' शब्द के द्वारा कर्म स्पर्श विविक्षित है। निघत्त- उद्वर्तना और अपवर्तना इन दो करणों को छोडकर शेष करण न हो सके, उस रूप में परिणत कर देना । ३५८. सेव भंते! सेवं भंते! त्ति ।। १. भ. वृ. १ । ३५७ - 'वण्णवज्झाणि 'त्ति वर्णः श्लाघा वध्यो— हन्तव्यो येषां तानि वर्णवध्यानि अथवा वर्णाद्वाह्यानि वर्णवाह्यानि अशुभानीत्यर्थः । २. आप्टे. वर्ण:- A good quality. ३. प्रज्ञा.वृ.प. ४५६ । ४. . खं. धवला, पु. १३, खं. ५, भा. ३, सू. ३०, पृ. ३४ – कम्माणं कम्मेहिं जो फासो सो कम्पफासो । ५. पण्ण. २३ ।१३। ६. भ. १६ । ४१, ४२ । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति । कृत--जीव के द्वारा कृत । पण्णवण्णा में जीवेणं कडस्स' पाठ उपलब्ध है। प्रस्तुत आगम में कर्म को 'चेतकृत' बतलाया गया है।' प्रस्थापित — एक साथ उदय होगा, इस रूप में व्यवस्था, जैसे - मनुष्य गति, पञ्चेन्द्रिय जाति, सकाय आदि । अभिनिविष्ट तीव्र अनुभाव के रूप में निविष्ट । अभिसमन्यागत–—–— उदयाभिमुख । भगवई रूप में स्थापित ) अभिसमन्वागत ( उदय के अभिमुख) और उदीर्ण हैं - वे उपशांत नहीं होते, तो वह कुत्सित रूप, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाला होता है। वह हीन, दीन, अनिष्ट, अकांत, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ, और अमनोहर स्वरवाला तथा अनादेय वचन वाला होता है। उस नवजात शिशु के ( यदि ) वर्णबाह्य (अप्रशस्त कोटिवाले) कर्म बद्ध स्पृष्ट, निधत्त, कृत, प्रस्थापित, अभिनिविष्ट अभिसमन्वागत और उदीर्ण नहीं होते --उपशांत होते हैं, तो वह श्रेष्ठ रूप, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाला होता है, इष्ट, कान्त, प्रिय, शुभ, मनोज्ञ और मनोहर होता है; अहीन, अदीन, इष्ट, कांत, प्रिय, शुभ, मनोज्ञ और मनोहर स्वरवाला तथा आदेय वचन वाला होता है। उदीर्ण- उदय प्राप्त । 'बद्ध' और 'स्पृष्ट' – इन दो पदों की व्याख्या मलयगिरि की वृति के आधार पर की गई है। शेष पदों की व्याख्या प्रस्तुत आगम की वृत्ति के आधार पर की गई है। वृत्तिकार ने 'कृत' का अर्थ 'निकाचित' किया है। यह विमर्शनीय है। इसी प्रकार 'उदीर्ण' के अर्थ में उदीरणा करण को भी जोड़ा है। किन्तु पण्णवण्णा के ३५८. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते वह ऐसा ही है । जीवेन बद्धस्य रागद्वेषपरिणामवशतः कर्मरूपतया परिआत्मप्रदेशैः सह संश्लेषमुपगतस्य । ७. प्रज्ञा.वृ. प. ४५६ मितस्य स्पृष्टस्य, ८. भ. वृ. १ ३५७ निहत्ताई' ति उद्वर्तनापचर्तनकरणवर्जशेषकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थापितानीत्यर्थः, अथवा बद्धानि कथं ? यतः पूर्वं स्पृष्टानीति, 'कडाई 'ति निकाचितानि सर्वकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थापितानीत्यर्थः । 'पट्ठवियाई 'ति मनुष्यगतिपंचेन्द्रियजातित्रसादिनामकर्मसहोदयत्वेन व्यवस्थापितानीत्यर्थः । 'अभिनिविट्ठाई 'ति तीव्रानुभावतया निविष्टानि । 'अभिसमन्नागयाई 'ति उदयाभिमुखीभूतानीति, ततश्च 'उदिन्नाई'ति 'उदीर्णानि स्वतः उदीरणाकरणेन वोदितानि । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल बालस्स आय-पदं ३५६. एगंतबाले णं भंते ! मणुस्से किं नेरइयाउयं पकरेति ? तिरिक्खाउयं पकरेति ? मणुस्सायं पकरेति ? देवाउयं पकरेति ? नेरइयाउयं किच्चा नेरइएस उववंजति ? तिरियाउयं किच्चा तिरिएसु उववजति ? मस्सायं किच्चा मणुस्सेसु उववज्जति ? देवायं किच्चा देवलोगेसु उववज्जति ? गोयमा ! एगंतबाले णं मणुस्से नेरइयाउयं पिपकरेति, तिरियाउयं विपकरेति, मणुसाउयं पिपकरेति, देवाउयं पिपकरेति, नेरइयाउयं किच्चा नेरइएसु उववज्जति, तिरियाज्यं किच्चा तिरिएसु उववज्जति, मणुस्साउयं किचा मणुस्सेसु उववज्जति, देवाउयं किच्चा देवलोगेसु उववञ्जति ॥ पंडियस्स आउय-पदं ३६०. एगंतपंडिए णं भंते! मणुस्से किं नेरइयाजयं पकरेति ? तिरिक्खाउयं पकरेति ? मस्सायं पकरेति ? देवाउयं पकरेति ? नेरइयाउयं किच्चा नेरइएस उववज्जति ? तिरियाउयं किच्चा तिरिएसु उववज्जति ? मणुस्सायं किया मणुस्सेसु उववज्जति ? देवायं किच्चा देवलो उववज्जति ? गोयमा ! एगंतपंडिए णं मणुस्से आउयं सिय पकरेति, सिय णो पकरेति । जइ पकरेति णो नेरइयाउयं पकरेति णो तिरियाउयं पकरेति णो मणुस्साउयं पकरेति, देवाउयं पकरेति णो नेरइयाउयं अट्टमो उद्देसो : आठवां उद्देशक संस्कृत छा बालस्य आयुष्क-पदम् एकान्तबालः भदन्त ! मनुष्यः किं नैरयिकायुः प्रकरोति ? तिर्यगायुः प्रकरोति ? मनुष्यायुः प्रकरोति ? देवायुः प्रकरोति ? नैरयिकायुः कृत्वा नैरयिकेषु उपपद्यते ? तिर्यगायुः कृत्वा तिर्यक्षु उपपद्यते ? मनुष्यायुः कृत्वा मनुष्येषु उपपद्यते ? देवायुः कृत्वा देवलोकेषु उपपद्यते ? गौतम ! एकान्तबालः मनुष्यः नैरयिकायुः अपि प्रकरोति, तिर्यगायुः अपि प्रकरोति, मनुष्यायुः अपि प्रकरोति, देवायुः अपि प्रकरोति, नैरयिकायुः कृत्वा नैरयिकेषु उपपद्यते, तिर्यगायुः कृत्वा तिर्यक्षु उपपद्यते, मनुष्यायुः कृत्वा मनुष्येषु उपपद्यते, देवायुः कृत्वा देवलोकेषु उपपद्यते । पण्डितस्य आयुष्क-पदम् एकान्तपण्डितः भदन्त ! मनुष्यः किं नैरयिकायुः प्रकरोति ? तिर्यगायुः प्रकरोति ? मनुष्यायुः प्रकरोति ? देवायुः प्रकरोति ? नैरयिकायुः कृत्वा नैरयिकेषु उपपद्यते ? तिर्यगायुः कृत्वा तिर्यक्षु उपपद्यते ? मनुष्यायुः कृत्वा मनुष्येषु उपपद्यते ? देवायुः कृत्वा देवलोकेषु उपपद्यते ? गौतम ! एकान्तपण्डितः मनुष्यः आयुः स्यात् प्रकरोति, स्यात् नो प्रकरोति । यदि प्रकरोति नो नैरयिकायुः प्रकरोति, नो तिर्यगायुः प्रकरोति, नो मनुष्यायुः प्रकरोति, देवायुः प्रकरोति, नो नैरयिकायुः कृत्वा नैरयिकेषु हिन्दी अनुवाद बाल का आयुष्य-पद ३५६. ' भन्ते ! एकान्त बाल मनुष्य क्या नरक का आयुष्य बांधता है ? तिर्यञ्च का आयुष्य बांधता है ? मनुष्य का आयुष्य बांधता है ? देव का आयुष्य बांधता है ? नरक का आयुष्य बांधकर नैरयिकों मे उपपन्न होता है ? तिर्यञ्च का आयुष्य बांधकर तिर्यञ्चों में उपपन्न होता है ? मनुष्य का आयुष्य बांधकर मनुष्यों में उपपन्न होता है ? देव का आयुष्य बांधकर देवलोकों में उपपन्न होता है ? गौतम ! एकान्त बाल मनुष्य नरक का आयुष्य बांधता है, तिर्यंच का आयुष्य भी बांधता है, मनुष्य का आयुष्य भी बांधता है, देव का आयुष्य भी बांधता है। वह नरक का आयुष्य बांधकर नैरयिकों में उपपन्न होता है, तिर्यञ्च का आयुष्य बांधकर तिर्यञ्चों में उपपन्न होता है, मनुष्य का आयुष्य बांधकर मनुष्यों में उपपन्न होता है और देव का आयुष्य बांधकर देवलोकों में उपपत्र होता है । पण्डित का आयुष्य-पद ३६०. भन्ते ! एकान्तपण्डित मनुष्य क्या नरक का आयुष्य बांधता है ? तिर्यञ्च का आयुष्य वांधता है ? मनुष्य का आयुष्य बांधता है ? देव का आयुष्य बांधता है ? वह नरक का आयुष्य बांधकर नैरयिकों में उपपन्न होता है ? तिर्यञ्च का आयुष्य वांधकर तिर्यञ्चों में उपपन्न होता है ? मनुष्य का आयुष्य बांधकर मनुष्यों में उपपत्र होता है ? देव का आयुष्य बांधकर देवलोकों में उपपन्न होता है ? गौतम ! एकान्तपण्डित मनुष्य कदाचित् आयुष्य बांधता है, कदाचित् नहीं बांधता । यदि वह आयुष्य बांधता है, तो न नरक का आयुष्य बांधता है, न तिर्यञ्च का आयुष्य बांधता है, न मनुष्य का आयुष्य बांधता है, वह केवल देव का Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० श.१: उ.. सू.३६०-३६३ किचा नेरइएसु उववञ्जति, णो तिरियाउयं उपपद्यते, नो तिर्यगायुः कृत्वा तिर्यक्षु उप- किचा तिरिएसु उववाति, णो मणुस्साउयं पद्यते, नो मनुष्यायुः कृत्वा मनुष्येषु उपपद्यते किचा मणुस्सेसु उववज्जति, देवाउयं किचा देवायुः कृत्वा देवेषु उपपद्यते । देवेसु उववजति ॥ भगवई आयुष्य बांधता है। वह न नरक का आयुष्य बांधकर नैरयिकों में उपपन्न होता है, न तिर्यञ्च का आयुष्य बांधकर तिर्यञ्चों में उपपन्न होता है, न मनुष्य का आयुष्य बांधकर मनुष्यों में उपपन्न होता है, वह केवल देव का आयुष्य बांधकर देवों में उपपन्न होता है। ३६१. से केणद्वेणं जाव देवाउयं किचा देवेसु उववजति? गोयमा ! एगंतपंडियस्स णं मणुस्सस्स केवलमेव दो गतीओ पण्णायंति, तं जहा --अंतकिरिया चेव, कप्पोववत्तिया चेव। से तेणटेणं गोयमा ! जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उववञ्जति ॥ तत् केनार्थेन यावद् देवायुः कृत्वा देवेषु ३६१. यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा हैउपपद्यते ? एकान्त पण्डित मनुष्य यावत् देव का आयुष्य बांधकर देवों में उपपन्न होता है ? गौतम ! एकान्तपण्डितस्य मनुष्यस्य केवलमेव गौतम ! एकान्त पण्डित मनुष्य की केवल दो ही द्वे गती प्रज्ञायेते, तद् यथा—अन्तक्रिया चैव, गतियां प्रज्ञप्त हैं, जैसे—अन्तक्रिया और कल्पोपकल्पोपपत्तिका चैव । तत् तेनार्थेन गौतम! पत्तिका (वैमानिक देवों में उपपत्ति)। गौतम ! यावद् देवायुः कृत्वा देवेषु उपपद्यते । इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है यावत् देव का आयुष्य बांधकर देवों में उपपन्न होता है। बालपंडियस्स आउय-पदं बालपण्डितस्य आयुष्क-पदम् बालपण्डित का आयुष्य-पद ३६२. बालपंडिए णं भंते ! मणुस्से किं नेरइ- बालपण्डितः भदन्त ! मनुष्यः किं नैरयिकायुः ३६२. भन्ते ! बालपण्डित मनुष्य क्या नरक का याउयं पकरेति ? तिरिक्खाउयं पकरेति ? प्रकरोति ? तिर्यगायुः प्रकरोति ? मनुष्यायुः आयुष्य बांधता है ? तिर्यञ्च का आयुष्य बांधता मणुस्साउयं पकरेति ? देवाउयं पकरेति ? प्रकरोति ? देवायुः प्रकरोति ? नैरयिकायुः है ? मनुष्य का आयुष्य बांधता है ? देव का नेरइयाउयं किच्चा नेरइएसु उववजति ? कृत्वा नैरयिकेषु उपपद्यते ? तिर्यगायुः कृत्वा आयुष्य बांधता है ? वह नरक का आयुष्य तिरियाउयं किचा तिरिएस उववजति ? तिर्यक्षु उपपद्यते ? मनुष्यायुः कृत्वा मनुष्येषु बांधकर नैरयिकों में उपपन्न होता है ? तिर्यञ्च मणुस्साउयं किच्चा मणुस्सेसु उववजति ? उपपद्यते ? देवायुः कृत्वा देवेषु उपपद्यते ? का आयुष्य बांधकर तिर्यञ्चों में उपपन्न होता देवाउयं किच्चा देवेसु उववजति ? है? मनुष्य का आयुष्य बांधकर मनुष्यों में उपपन्न होता है ? देव का आयुष्य बांधकर देवों में उपपन्न होता है ? गोयमा ! बालपंडिए णं मणुस्से णो नेर- गौतम ! बालपण्डितः मनुष्यः नो नैरयिकायुः गौतम ! बालपण्डित मनुष्य न नरक का आयुष्य इयाउयं पकरेति, णो तिरिक्खाउयं पकरेति, प्रकरोति, नो तिर्यगायुः प्रकरोति, नो मनुष्या- बांधता है, न तिर्यञ्च का आयुष्य बांधता है, न णो मणुस्साउयं पकरेति, देवाउयं पकरेति, युः प्रकरोति, देवायुः प्रकरोति, नो नैरयि- मनुष्य का आयुष्य बांधता है, वह केवल देव का णो नेरइयाउयं किचा नेरइएसु उववजति, कायुः कृत्वा नैरयिकेषु उपपद्यते, नो तिर्य- आयुष्य बांधता है। वह न नरक का आयुष्य णो तिरियाउयं किचा तिरिएसु उववञ्जति, गायुः कृत्वा तिर्यक्षु उपपद्यते, नो मनुष्यायुः बांधकर नैरयिकों में उपपन्न होता है, न तिर्यञ्च णो मणुस्साउयं किचा मणुस्सेसु उववजति, कृत्वा मनुष्येषु उपपद्यते, देवायुः कृत्वा देवेषु का आयुष्य बांधकर तिर्यञ्चों में उपपन्न होता है, देवाउयं किचा देवेसु उववज्रति । उपपद्यते। न मनुष्य का आयुष्य बांधकर मनुष्यों में उपपन्न होता है, वह केवल देव का आयुष्य बांधकर देवों में उपपन्न होता है। ३६३. से केणडेणं जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उववज्जति ? गोयमा ! बालपंडिए णं मणुस्से तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आरियं धम्मियं सुवयणं सोचा निसम्म देसं उवरमइ, देसं णो उवरमइ, देसं पञ्चक्खाइ, देसंणो पच्चक्खाइ। तत् केनार्थेन यावद् देवायुः कृत्वा देवेषु ३६३. यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा हैउपपद्यते ? बालपण्डित मनुष्य यावत् देव का आयुष्य बांध कर देवों में उपपन्न होता है ? गौतम ! बालपण्डितः मनुष्यः तथारूपस्य गौतम ! बालपण्डित मनुष्य तथारूप श्रमण अथवा श्रमणस्य वा माहनस्य वा अन्तिके एकमपि माहन के पास एक भी आर्य धार्मिक सुवचन सुन आर्य धार्मिकं सुवचनं श्रुत्वा निशम्य देशम्। कर, अवधारण कर आंशिक रूप से उपरत होता उपरमति, देशं नो उपरमति, देशं प्रत्याख्याति, है और आंशिक रूप से उपरत नहीं होता। देशं नो प्रत्याख्याति। आंशिक रूप से प्रत्याख्यान करता है और आंशिक Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १६१ श.१ उ. सू.३५६-३६४ से तेणं देसोवरम-देसपचक्खाणेणं णो नेरइ- याउयं पकरेति जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उववजति । से तेणडेणं जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उववजति ॥ रूप से प्रत्याख्यान नहीं करता। स तेन देशोपरम-देशप्रत्याख्यानेन नो नैरयि- वह उस आंशिक उपरम और आंशिक प्रत्याख्यान कायुः प्रकरोति यावद् देवायुः कृत्वा देवेषु । से नरक का आयुष्य नहीं बांधता यावत् देव का उपपद्यते। तत् तेनार्थेन यावद् देवायुः कृत्वा आयुष्य बांधकर देवों में उपपन्न होता है। इस देवेषु उपपद्यते। अपेक्षा से यह कहा जा रहा है बालपण्डित मनुष्य यावत् देव का आयुष्य बांधकर देवों में उपपन्न होता है। भाष्य किया गया है। यह निश्चय के अर्थ में अथवा मिश्रण का व्यवच्छेद करने के लिए है। तीसरे विकल्प में बाल और पण्डित दोनों का मिश्रण है, किन्तु प्रथम और द्वितीय विकल्प में ये दोनों अमिश्रित १. सूत्र ३५६-३६३ प्रस्तुत प्रकरण में 'बाल' और 'पण्डित' पारिभाषिक शब्द हैं। सूयगडो में अविरत को बाल, विरत को पण्डित और विरताविरत को बालपण्डित गहा गया है।' वृत्तिकार ने एकांत बाल के दो अर्थ किए हैं-मिथ्यादृष्टि और अविरत । अविरत सम्यग्दृष्टि और मिध्यादृष्टि का बालत्व समान होता है, फिर भी अविरत सम्यग्दृष्टि केवल देव के आयुष्य का ही बंध करता है। क्रियावादी मनुष्य के आयुष्य-बंध-सूत्र से भी इसका समर्थन होता है।' एकान्त बाल के लिए चतुर्विध आयुष्य-बंध के निर्देश का हेतु कारण की विविधता है। वृत्तिकार ने चार कारणों का उल्लेख किया है १. महाआरंभ नरकगति के आयुष्य-बंध का कारण । २. उन्मार्ग देशना तिर्यञ्च गति के आयुष्य-बंध का कारण । ३. कषाय की अल्पता मनुष्य गति के आयुष्य-बंध का कारण। ४. अकाम निर्जरा-देवगति के आयुष्य-बंध का कारण। वृत्तिकार ने 'आदि' शब्द के द्वारा शेष कारणों की ओर इंगित किया है।' प्रस्तुत आगम और ठाणं में प्रत्येक गति के चार-चार कारण निर्दिष्ट हैं।' शब्द-विमर्श एकान्त बाल और पण्डित के साथ 'एकान्त' पद का प्रयोग एकान्तबाल असंयती। एकान्तपण्डित-मुनि। अन्तक्रिया - मुक्त होने के पूर्व होने वाली क्रिया। वृत्तिकार ने इसका अर्थ निर्वाण किया है। देखें, १११२ का भाष्य । कल्पोपपत्तिका वैमानिक देवों में होने वाली उपपत्ति। यहां 'कल्प' शब्द वैमानिक देवों का सूचक है।" बालपण्डित श्रावक, व्रतधारी गृहस्थ । देसं उवरमइ, देसं पचक्खाइ-देश का अर्थ अंश है। उवरमइ का अर्थ है-विरत होना और पच्चक्खाइ का अर्थ है-परित्याग करना। कोई व्यक्ति पहले विरत होता है और उसके पश्चात् प्रत्याख्यान करता है। देसं उवरमइ की विशेष जानकारी के लिए सयगडो, २१२/७१ द्रष्टव्य है। किरिया-पदं क्रिया-पदम् क्रिया-पद ३६४. परिसे णं भंते ! कच्छंसि वा दहंसि वा उदगंसि वा दवियंसि वा वलयंसि वा नूमंसि पुरुषः भदन्त ! कच्छे वा द्रहे वा उदके वा 'दवियंसि' वा वलये वा 'नूमंसि' वा गहने वा ३६४.'भन्ते ! कोई मगाजीवी, मृग-वध के संकल्प वाला, मृग-वध में एकाग्रचित्त पुरुष मृग-वध के १. सूय.२।२१७५-अविरई पडुच्च बाले आहिज्जइ, विरई पडुच्च पंडिए आहिजइ, विरयाविरइं पडुच्च बालपंडिए आहिज्जइ । २. भ.बृ.११३५६-एकान्तबालः मिथ्यादृष्टिरविरतो वा, एकान्तग्रहणेन मिश्रतां व्यवच्छिनत्ति ।......बालत्वे समानेऽप्यविरतसम्यग्दृष्टिर्मनुष्यो देवायुरेव प्रक रोति, न शेषाणि। ३. भ.३०।२६। ४. भ.वृ.१।३५६-यच्चैकान्तबालत्वे समानेऽपि नानाविधायुर्वन्धनं तन्महारम्भा- द्युन्मार्गदेशनादि तनुकषायत्वादि अकामनिर्जरादि तद्धेतु विशेषवशादिति। ५. भ.८।४२५-४२८; ठाणं,४।६२८६३१। ६. भ.वृ.११३६१-'अंतकिरिय'त्ति निर्वाणम् । ७. वही, १६३६१–'कप्पोववत्तिय'त्ति कल्पेषु-अनुत्तरविमानान्तदेवलोकेषुपपत्तिः सैव कल्पोपपत्तिका । इह च कल्पशब्दः सामान्येनैव वैमानिकदेवाऽऽ वासाभिधायक इति। ८. वही, ११३६३--'देसं उवरमइत्ति विभक्तिपरिणामाद्देशात् 'उपरमते' विरतो भवति; ततो देसं स्थूलं प्राणातिपातादिकं प्रत्याख्याति वर्जनीयतया प्रतिजानीते। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.८ः सू.३६४-३६७ १६२ भगवई वा गहणंसि वा गहणविदुग्गंसि वा पव्वयंसि गहनविदुर्गे वा पर्वते वा पर्वतविदुर्गे वा वने लिए कच्छ (नदी-तटीय प्रदेश), द्रह, उदग (जलावा पब्बयविदुग्गंसि वा वर्णसि वा वण- वा बनविदुर्गे वा मृगवृत्तिकः मृगसंकल्पः मृग- शय), 'दविय' (घास के जंगल अथवा गोचर विदग्गंसि वा मियवित्तीए मियसंकप्पे मिय- प्रणिधानः मृगवधाय गत्वा एते मृगाः इति भूमि), वलय (वृत्ताकार नदी-प्रदेश), 'नूम' (प्रच्छपणिहाणे मियवहाए गंता एते मिय त्ति काउं कृत्वा अन्यतरस्य मृगस्य वधाय कूटपाशम् । त्र प्रदेश), अरण्य, दुर्गम अरण्य, पर्वत, दुर्गम अण्णयरस्स मियस्स वहाए कूडपासं उद्दा- उद्घति, ततो भदन्त ! स पुरुषः कति- पर्वत, वन, दुर्गम वन में जाकर 'ये मृग हैं' यह ति, ततो णं भंते ! से पुरिसे कतिकिरिए? क्रियः? सोच किसी एक मृग के वधके लिए कूटपाश बांधता है। भन्ते ! उससे वह पुरुष कितनी क्रियाओं से युक्त होता है ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, गौतम ! स्यात् त्रिक्रियः, स्याच् चतुःक्रियः, गौतम ! वह स्यात् (कदाचित्) तीन, स्यात् चार सिय पंचकिरिए। स्यात् पञ्चक्रियः। और स्यात् पांच क्रियाओं से युक्त होता है। ३६५. से केणटेणं भंते ! एवं बुचइ-सिय तिकिरिए ? सिय चउकिरिए ? सिय पंचकिरिए? तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते—स्यात् ३६५. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा त्रिक्रियः ? स्याच् चतुःक्रियः ? स्यात् पञ्च- है-वह पुरुष स्यात् तीन, स्यात् चार और स्यात् क्रियः ? पांच क्रियाओं से युक्त होता है ? गोयमा ! जे भविए उद्दवणयाए–णो बंध- गौतम ! यः भव्यः उद्दानाय-नो बन्धनाय, णयाए, णो मारणयाए-तावं च णं से नो मारणाय-तावच् च स पुरुषः कायिक्या, पुरिसे काइयाए, अहिंगरणियाए, पाओसि- आधिकरणिक्या, प्रादोषिक्या-तिसृभिः याए—तिहिं किरियाहिं पढे। क्रियाभिः स्पृष्टः। जे भविए उद्दवणताए वि, बंधणताए यः भव्यः उद्दानाय अपि, बन्धनाय अपि- वि-णो मारणताए-तावं च णं से पुरिसे नो मारणाय-तावच् च स पुरुषः कायिक्या, काइयाए, अहिगरणियाए, पाओसियाए, आधिकरणिक्या, प्रादोषिक्या, पारितापपारितावणियाए चउहि किरियाहिं पुढे । निक्या-चतसृभिः क्रियाभिः स्पृष्टः । गौतम ! जो भव्य (व्यक्ति) कूट-पाश की रचना करता है, पर न मृगको बांधता है और न उसे मारता है, उस समय वह पुरुष कायिकी, आधिकरणिकी और प्रादोषिकी इन तीन क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। जो भव्य कूटपाश की व्यवस्था कर जो (बंधन आदि करेगा) कूटपाश को बांधता है और मृग को भी बांधता है, पर उसे मारता नहीं, उस समय वह पुरुष कायिकी, आधिकरणिकी, प्रादोषिकी और पारितापनिकी--इन चार क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। जो भव्य कूटपाश को बांधता भी है, मृग को बांधता है और उसे मारता भी है, उस समय वह पुरुष कायिकी, आधिकरणिकी, प्रादोषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपातक्रिया-इन पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-वह स्यात् तीन, स्यात् चार और स्यात् पांच क्रियाओं से युक्त होता है। जे भविए उद्दवणताए वि, बंधणताए वि, यः भव्यः उद्दानाय अपि, बन्धनाय अपि, मारणताए वि, तावं च णं से पुरिसे मारणाय अपि, तावच् च स पुरुषः कायिक्या, काइयाए, अहिगरणियाए, पाओसियाए, आधिकरणिक्या, प्रादोषिक्या, पारितापनि- पारितावणियाए, पाणातिवायकिरियाए- ___ क्या, प्राणातिपातक्रियया–पञ्चभिः क्रि पंचहि किरियाहिं पुढे । से तेणद्वेणं गोयमा! याभिः स्पृष्टः । तत् तेनार्थेन गौतम ! एव- एवं बुच्चइ-सिय तिकिरिए, सिय चउ- मुच्यते-स्यात् त्रिक्रियः, स्याच् चतुःक्रियः, किरिए, सिय पंचकिरिए। स्यात् पञ्चक्रियः। ३६६. पुरिसे णं भंते ! कच्छंसि वा जाव पुरुषः भदन्त ! कच्छे वा यावद् वनविदुर्गे ३६६. भन्ते ! कोई व्यक्ति कच्छ यावत् दुर्गम वन वणविदुग्गंसि वा तणाई ऊसविय-ऊसविय वा तृणानि उड्रित्य-उफ्रित्य अग्निकार्य में घास का ढेर लगा उसमें अग्नि का प्रक्षेप करता अगणिकायं निसिरइ-तावं च णं भंते ! निसृजति–तावच् च भदन्त ! स पुरुषः है। उस समय वह पुरुष कितनी क्रियाओं से से पुरिसे कतिकिरिए ? कतिक्रियः? युक्त होता है ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, गौतम ! स्यात् त्रिक्रियः, स्याच् चतुःक्रियः, गौतम ! स्यात् तीन, स्यात् चार और स्यात् पांच सिय पंचकिरिए॥ स्यात् पञ्चक्रियः। क्रियाओं से युक्त होता है। ३६७. से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचइ-सिय तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-स्यात् त्रि- ३६७. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा तिकिरिए ? सिय चउकिरिए ? सिय पंच- क्रियः ? स्याच् चतुःक्रियः ? स्यात् पञ्च- है-वह पुरुष स्यात् तीन, स्यात् चार और स्यात् किरिए ? क्रियः ? पांच क्रियाओं से युक्त होता है ? गोयमा ! जे भविए उस्सवणयाए–णो गौतम ! यः भव्यः उच्छ्य णाय नो निस- गौतम ! जो भव्य घास का ढेर लगाता है, पर Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १६३ श.१: उ.८ः सू.३६७-३६६ निसिरणयाए, णो दहणयाए-तावं च णं जनाय नो दहनाय-तावच् च सः पुरुषः से परिसे काइयाए, अहिंगरणियाए, पाओ- कायिक्या, आधिकरणिक्या, प्रादोषिक्या सियाए–तिहिं किरियाहिं पुढे । -तिसृभिः क्रियाभिः स्पृष्टः । जे भविए उस्सवणयाए वि, निसिरणयाए यः भव्यः उच्छ्य णाय अपि, निसर्जनाय दि–णो दहणयाए-तावं च णं से पुरिसे अपि-नो दहनायतावच् च सः पुरुषः काइयाए, अहिगरणियाए, पाओसियाए, कायिक्या, आधिकरणिक्या, प्रादोषिक्या, पारितावणियाए चउहि किरियाहिं पुढे । पारितापनिक्या-चतृसृभिः क्रियाभिः स्पृष्टः। जे भविए उस्सवणयाए वि, निसिरणयाए यः भव्यः उच्छ्य णाय अपि, निसर्जनाय वि, दहणयाए वि, तावं च णं से पुरिसे अपि, दहनाय अपि, तावच् च स पुरुषः काइयाए, अहिगरणियाए, पाओसियाए, कायिक्या, आधिकरणिक्या, प्रादोषिक्या, पारितावणियाए,पाणातिवायकिरियाए- पारितापनिक्या, प्राणातिपातक्रियया- पंचहिं किरियाहिं पुढे । से तेणटेणं गोयमा! पञ्चभिः क्रियाभिः स्पृष्टः। तत् तेनार्थेन एवं बुचइ-सिय तिकिरिए, सिय चउ- गौतम ! एवमुच्यते-स्यात् त्रिक्रियः, स्याच् किरिए, सिय पंचकिरिए। चतुःक्रियः, स्यात् पञ्चक्रियः।। न तो उसमें अग्नि का प्रक्षेप करता है और न उसे जलाता है, उस समय वह पुरुष कायिकी, आधिकरणिकी और प्रादोषिकी इन तीन क्रियाओं से स्पष्ट होता है। जो भव्य घास का देर भी लगाता है, उसमें अग्नि का प्रक्षेप भी करता है, पर उसे जलाता नहीं है, उस समय वह पुरुष कायिकी, आधिकरणिकी प्रादोषिकी और पारितापनिकी इन चार क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। जो भव्य घास का ढेर भी लगाता है, उसमें अग्नि का प्रक्षेप भी करता है और उसे जलाता भी है, उस समय वह पुरुष कायिकी, आधिकरणिकी, प्रादोषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपातक्रिया-इन पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है वह स्यात् तीन, स्यात् चार और स्यात् पांच क्रियाओं से युक्त होता है। ३६८. पुरिसे णं भंते ! कच्छंसि वा जाव वण- विदुग्गंसि वा मियवित्तीए मियसंकप्पे मियपणिहाणे मियवहाए गंता एते मिय त्ति काउं अण्णतरस्स मियस्स बहाए उसु निसिरति, ततो णं भंते ! से पुरिसे कतिकिरिए ? पुरुषः भदन्त ! कच्छे वा यावद् वनविदुर्गे ३६५. भन्ते ! कोई मृगाजीवी, मृग-वध के संकल्प वा मृगवृत्तिकः मृगसंकल्पः मृगप्रणिधानः मृग- वाला, मृग-वध में एकाग्रचित्त पुरुष मृग-वध के बधाय गत्वा एते मृगाः इति कृत्वा अन्यतरस्य लिए कच्छ यावत् दुर्गम वन में जाकर 'ये मृग मृगस्य वधाय इधू निसृजति, ततो भदन्त ! हैं'-यह सोच किसी एक मृग के वध के लिए स पुरुषः कतिक्रियः? बाण फेंकता है । भन्ते ! उससे वह पुरुष कितनी क्रियाओं से युक्त होता है ? गौतम ! स्यात् त्रिक्रियः, स्याच् चतुःक्रियः, गौतम ! वह स्यात् तीन, स्यात् चार और स्यात् स्यात् पञ्चक्रियः। पांच क्रियाओं से युक्त होता है। गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए॥ ३६६. से केणगुणं भंते ! एवं बुचइ-सिय तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते स्यात् त्रि- ३६६. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंच- क्रियः, स्याच् चतुःक्रियः, स्यात् पञ्चक्रियः? । किरिए ? पांच क्रियाओं से युक्त होता है ? गोयमा ! जे भविए निसिरणयाए–णो गौतम ! यः भव्यः निसर्जनाय नो विध्वं- गौतम ! जो भव्य बाण फेंकता है, पर न तो मृग विद्धंसणयाए, णो मारणयाए-तावं च णं सनाय, नो मारणाय-तावच् च स पुरुषः । को आहत करता है और न उसका प्राण-हरण से पुरिसे काइयाए, अहिगरणियाए, पाओ- कायिक्या, आधिकरणिक्या, प्रादोषिक्या- करता ह, उस समय वह पुरुष कायिकी, आधिसियाए–तिहिं किरियाहिं पुढे । तिसृभिः क्रियाभिः स्पृष्टः। करणिकी और प्रादोषिकी इन तीन क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। जे भविए निसिरणताए वि, विद्धंसणताए यः भव्यः निसर्जनाय अपि, विध्वंसनाय अपि जो भव्य बाण भी फेंकता है, मृग को आहत भी कि-णो मारणयाए तावं च णं से पुरिसे -नो मारणाय-तावच् च स पुरुषः कायि- करता है, पर उसका प्राण-हरण नहीं करता, उस काइयाए, अहिगरणियाए, पाओसियाए, क्या, आधिकरणिक्या, प्रादोषिक्या, पारि- समय वह पुरुष कायिकी, आधिकरणिकी, प्रादोपारितावणियाए चाहिं किरियाहिं पुढे। तापनिक्या-चतसृभिः क्रियाभिः स्पृष्टः। षिकी और पारितापनिकी—इन चार क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। जे भविए निसिरणयाए वि, विद्धंसणयाए यः भव्यः निसर्जनाय अपि, विध्वंसनाय अपि, जो भव्य बाण भी फेंकता है, मृग को आहत भी वि, मारणताए वि-तावं च णं से पुरिसे मारणाय अपि-तावच् च स पुरुषः कायि- करता है और उसका प्राण-हरण भी करता है, काइयाए, अहिगरणियाए, पाओसियाए, क्या, आधिकरणिक्या प्रादोषिक्या, पारिता- उस समय वह पुरुष कायिकी, आधिकरणिकी, पारितावणियाए, पाणातिवायकिरियाए- पनिक्या, प्राणातिपातक्रियया-पञ्चभिः प्रादोषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपातक्रिया पंचहि किरियाहिं पढे । से तेणद्वेणं गोयमा! क्रियाभिः स्पृष्टः । तत् तेनार्थेन गौतम ! एव- -इन पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। गौतम! Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श.१: उ.. सू.३६६-३७२ १६४ एवं बुबइ–सिप तिकिरिए, सिय चउ- मुच्यते—स्यात् त्रिक्रियः, स्याच् चतुःक्रियः, किरिए, सिय पंचकिरिए॥ स्यात् पञ्चक्रियः। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-वह स्यात् तीन, स्यात् चार और स्यात् पांच क्रियाओं से युक्त होता है। ३७०. परिसे णं भंते ! कच्छंसि वा जाव वण- पुरुषः भदन्त ! कच्छे वा यावत् वनविदुर्गे ३७०. भन्ते ! कोई मृगाजीवी, मृग-वध के संकल्प विदग्गसि वा मियवित्तीए मियसंकप्पे मिय- वा मृगवृत्तिकः मृगसंकल्पः मृगप्रणिधानः पणिहाणे मियवहाए गंता एते मिय त्ति काउं मृगवधाय गत्वा एते मृगाः इति कृत्वा लिए कच्छ यावत् दुर्गम वन में जाकर 'ये मृग अण्णतरस्स मियस्स वहाए आयतकण्णा- अन्यतरस्य मृगस्य वधाय आयत-कायतं हैं' यह सोच किसी एक मृग के वध के लिए यतं उसु आयामेत्ता चिडेजा, अण्णयरे इषु आयम्य तिष्ठेद्, अन्यतरः पुरुषः ‘मग्गतो' बाण को आयत कर्णायत–कान तक खींचकर पुरिसे मग्गतो आगम्म सयपाणिणा असिणा आगम्य स्वकपाणिना असिना शीर्षं छिन्द्यात्, खड़ा हो, उसी समय कोई अन्य व्यक्ति पीछे से सीसं छिंदेजा, से य उसू ताए चेव पुबा- सच इधुं तेन चैव पूर्वायामनेन तं मृगं व्यधेत्, आकर अपने हाथ से तलवार द्वारा उसका सिर यामणयाए तं मियं विधेजा, से णं भंते! स भदन्त ! पुरुषः किं मृगवरेण स्पृष्टः ? पुरु- काट ले और वह बाण पहले से ही खिंचा हुआ पुरिसे किं मियवेरेणं पुढे ? पुरिसवेरेणं पुढे? षवैरेण स्पृष्टः ? होने के कारण उस मृग को वेध डाले, तो भन्ते! वह व्यक्ति क्या मृग-वैर से स्पृष्ट होता है अथवा पुरुष-वैर से स्पृष्ट होता है ? गोयमा ! जे मियं मारेइ, से मियवेरेणं पुढे। गौतम ! यः मृगं मारयति, स मृगवरेण स्पृष्टः। गौतम ! जो मृग को मारता है, वह मृग-वैर से जे पुरिसं मारेइ, से पुरिसवेरेणं पुढे ॥ यः पुरुषं मारयति, स पुरुषवैरेण स्पृष्टः। स्पृष्ट होता है और जो पुरुष को मारता है, वह पुरुष-वैर से स्पृष्ट होता है। ३७१.सेकेणडेणं भंते ! एवं बुचइ-जे मियं मारेइ, से मियवेरेणं पुढे ? जे पुरिसं मारेइ, से पुरिसरेणं पुढे ? तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते—यः मृगं मारयति, स मृगवैरेण स्पृष्टः? यः पुरुषं मार- यति, स पुरुषवैरेण स्पृष्टः ? से नूणं गोयमा ! कजमाणे कडे, संधिज- अथ नूनं गौतम ! क्रियमाणं कृतम्, सन्धीय- माणे संघिते, निव्वत्तिजमाणे निबत्तिते, मान सन्धितम्, निर्वृत्त्यमानं निर्वृत्तितम्, निसृ- निसिरिजमाणे निसिढे त्ति वत्तव्वं सिया ? ज्यमानं निसृष्टम् इति वक्तव्यं स्यात् ? हंता भगवं ! कजमाणे कडे, संघिजमाणे हन्त भगवन् ! क्रियमाणं कृतम्, सन्धीयमानं संघिते, निव्वत्तिजमाणे निव्वत्तिते, निसि- सन्धितम्, निवृत्त्यमानं निर्वृत्तितम्, निसृरिजमाणे निसिढे त्ति वत्तव्वं सिया। ज्यमानं निसृष्टम् इति वक्तव्यं स्यात् । ३७१. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है—जो मृग को मारता है, वह मृग-वैर से स्पृष्ट होता है ? जो पुरुष को मारता है, वह पुरुष-वैर से स्पृष्ट होता है ? गौतम ! क्रियमाण को कृत, संधीयमान (धनुष की प्रत्यञ्चा पर बाण चढ़ाया जा रहा है) को संधित, निर्वृत्त्यमान (प्रत्यञ्चा खींचने से धनुष को वर्तुल किया जा रहा है) को निवृत्तित और निसृज्यमान को निसृष्ट कहा जा सकता है ? हां, भगवन् ! क्रियमाण को कृत, संधीयमान को संधित, निवृत्त्यमान को निर्वृत्तित और निसृज्यमान को निसृष्ट कहा जा सकता है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है जो मृग को मारता है, वह मृग-वैर से स्पृष्ट होता है और जो पुरुष को मारता है, वह पुरुष वैर से स्पृष्ट होता है। वह मृग छह मास के भीतर मरता है, तो कायिकी, आधिकरणिकी, प्रादोषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपातक्रिया-इन पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। यदि वह छह मास के बाद मरता है, तो कायिकी, आधिकरणिकी, प्रादोषिकी और पारितापनिकी इन चार क्रियाओं से स्पृष्ट होता से तेणटेणं गोयमा! एवं बुचइ-जे मियं मारेइ, से मियवेरेणं पुढे । जे पुरिसं मारेइ, से पुरिसवेरेणं पुढे । तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-यः मृगं मारयति, स मृगवैरेण स्पृष्टः । यः पुरुषं मार- यति, स पुरुषवैरेण स्पृष्टः। अंतो छहं मासाणं मरइ-काइयाए, अन्तः षण्णां मासानां म्रियते-कायिक्या, अहिगरणियाए, पाओसियाए, पारिताव- आधिकरणिक्या, प्रादोषिक्या, पारितापनिणियाए, पाणातिवायकिरियाए-पंचहिं क्या, प्राणातिपातक्रियया–पञ्चभिः क्रिया- किरियाहिं पुढे । बाहिं छण्हं मासाणं मरइ भिः स्पृष्टः । बहिः षण्णां मासानां म्रियते- -काइयाए, अहिगरणियाए, पाओसि- कायिक्या, आधिकरणिक्या, प्रादोषिक्या, याए, पारितावणियाए चाहिं किरियाहिं पारितापनिक्या-चतसृभिः क्रियाभिः स्पृष्टः। ३७२. पुरिसे णं भंते पुरिसं सत्तीए समभि- पुरुषः भदन्त ! पुरुषं शक्त्या समभिध्वंसेत्, ३७२. भन्ते ! कोई पुरुष किसी पुरुष को शक्ति धंसेजा, सयपाणिणा वा से असिणा सीसं स्वकपाणिना वा तस्य असिना शीर्षं छिन्द्यात्, नामक प्रहरण से मारे या अपने हाथ से तलवार Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई छिंदेजा, ततो णं भंते! से पुरिसे कतिकिरिए ? गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे तं पुरिसं सत्तीए समभिधंसेति सयपाणिणा वा से असिणा सीसं छिंदति तावं च णं से पुरिसेकाइयाए, अहिगरणियाए, पाओसियाए, पारितावणियाए, पाणातिवातकिरियाए - पंचहि किरियाहिं पुट्ठे । आसण्णवधएण य अणवकंखणवत्तीए णं सवेरे पुढे ॥ १६५ ततः भदन्त ! स पुरुषः कतिक्रियः ? गौतम ! यावच् च स पुरुषः तं पुरुषं शक्त्या समभिध्वंसति स्वकपाणिना वा तस्य असिना शीर्षं छिनत्ति — तावच् च स पुरुषः कायिक्या, आधिकरणिक्या, प्रादोषिक्या, पारितापनिक्या, प्राणातिपातक्रियया -- पञ्चभिः क्रियाभिः स्पृष्टः । आसन्नवधकेन च अनवकाङ्क्षणवृत्त्या पुरुषवैरेण स्पृष्टः । भाष्य १. सूत्र ३६४ ३७२ प्रस्तुत आलापक में हिंसात्मक प्रवृत्ति पर विभज्यवाद की दृष्टि से विचार किया गया है। केवल प्राणवध करना ही हिंसा नहीं है । किसी का प्राणवध करने के लिए कायिक चेष्टा करना भी हिंसा है। आगम की भाषा में वह 'कायिकी क्रिया' है। शस्त्र का प्रयोग करना भी हिंसा है। आगम की भाषा में वह 'आधिकरणिकी क्रिया' है। मन का द्वेषपूर्ण होना भी हिंसा है, आगम की भाषा में वह 'प्रादोषिकी क्रिया' है। परिताप देना भी हिंसा है। आगम की भाषा में वह 'पारितापनिकी क्रिया' है। प्राणवियोजनात्मक हिंसा प्राणातिपात है । यहां हिंसा की कुछ समस्याएं प्रस्तुत कर उनका समाधान दिया गया है। एक व्याध मृग को मारने के लिए कूटपाश की रचना करता है। वह हिंसक है या नहीं ? इस समस्या का समाधान विभज्यवाद के आधार पर किया जा सकता है। वह मारने के लिए चेष्टा कर रहा है; इसलिए उसे अहिंसक नहीं कहा जा सकता और वह न मृग को परिताप दे रहा है, न उसका प्राणवध कर रहा है। इस दृष्टि से उसे मारने वाला भी नहीं कहा जा सकता । हिंसा एक परम्पराबद्ध प्रवृत्ति है। मानसिक द्वेष, कायिक चेष्टा और शस्त्र का प्रयोग — ये सब हिंसा की शृंखला की कड़िया हैं। परिताप और प्राणवध हो या न हो, हिंसा के लिए शारीरिक प्रयत्न करने वाला हिंसक होगा। इस आधार पर सूत्रकार ने इस मर्म का उद्घाटन किया है कि किसी को परितप्त करना या किसी का प्राण- वियोजन करना ही हिंसा नहीं है। किसी को मारने के लिए संकल्प करना, प्रणिधान करना, कायिक परिष्पन्द करना और वध की सामग्री जुटाना भी हिंसा है। १. पा.यो. द. २।१२ क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः । भाष्य-तत्र पुण्यापुण्यकर्माशयः कामलोभमोहक्रोधप्रसवः । स दृष्टजन्मवेदनीयश्चादृष्टजन्मवेदनीयश्च तत्र तीव्रसंवेगेन मन्त्रतपः समाधिभिर्निर्वर्तित ईश्वरदेवतामहर्षिमहानुभावानामाराधनाद्वा यः परिनिष्पन्नः स सद्यः परिपच्यते पुण्यकर्माशय इति । तथा तीव्रक्लेशेन भीत-व्याधित— कृपणेषु विश्वासो - श. १: उ.८ः सू. ३६४-३७२ द्वारा उसका सिर काटे, तो उससे वह पुरुष कितनी क्रियाओं से युक्त होता है ? गौतम ! जब वह पुरुष उस पुरुष को शक्तिबरछा से मारता है या अपने हाथ से तलवार द्वारा उसका सिर काट देता है, उस समय वह पुरुष कायिकी, आधिकरणिकी, प्रादोषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपातक्रिया - इन पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। वह पुरुष आसन्नवधक होने तथा पर-प्राणों के प्रति निरपेक्ष वृत्तिके कारण पुरुष-वैर से स्पृष्ट होता है। हिंसा की एक दूसरी समस्या प्रस्तुत की गई है— एक पुरुष मृग को मारने के लिए बाण चलाने की मुद्रा में है। इस स्थिति में कोई दूसरा मनुष्य आकर उसे मार डालता है। उस म्रियमाण पुरुष के हाथ से बाण छूटता है और मृग मर जाता है। इस अवस्था में मृग का वधक किसे माना जाए ? क्या उस धनुर्धर को माना जाए अथवा उसे मारने वाले को माना जाए ? सूत्रकार ने इस समस्या का समाधन यह दिया है कि धनुर्धर को मारने वाले का मृग को मारने का संकल्प नहीं है; इसलिए वह मृग का वधक नहीं होता । वह धनुर्धर का ही वधक है और धनुर्धर का संकल्प उस बाण के साथ जुड़ा हुआ है; इसलिए मृग का वधक वही होगा । 'क्रियमाण कृत' इस सिद्धान्त के अनुसार उसने प्रत्यञ्चा पर बाण को चढ़ा दिया और प्रत्यञ्चा खींचकर धनुष्य को वर्तुलाकार बना दिया। वह बाण को फेंकने की तैयारी में था। इस प्रकार 'निसृज्यमाण निसृष्ट' होता है । इस दृष्टि से वह धनुर्धर पुरुष ही मृग का वधक होगा। इस समस्या में मुख्यतः वैर के विषय पर विचार किया गया है। गौण रूप में क्रिया पर विचार किया गया है। वैर-बंध के दो कारण हैं- आसन्नवध और अनवकांक्षण-वृत्ति । वधक वध्य को मारता है, तब वैर का बंध होता है। उस बंध के फलस्वरूप वध्य निकट भविष्य में वधक को मार डालता है। आसन्नकाल में कर्मविपाक का सिद्धान्त योग सूत्र में भी मिलता है। महर्षि पतञ्जलि ने कर्माशय को दृष्टजन्मवेदनीय और अदृष्टजन्मवेदनीय बतलाया है। भाष्यकार के अनुसार तीव्र संवेग से किया हुआ पुण्य और तीव्र क्लेश से किया हुआ पाप सद्योविपाकी होता है।' वृत्तिकार अभयदेवसूरि ने आसन्नवध पगतेषु वा महानुभावेषु वा तपस्विषु कृतः पुनः पुनरपकारः स चापि पापकर्माशयः सद्यः एव परिपच्यते । यथा नन्दीश्वरः कुमारो मनुष्यपरिणामं हित्वा देवत्वेन परिणतः, तथा नहुषोऽपि देवानामिन्द्रः स्वकं परिणामं हित्वा तिर्यकत्वेन परिणत इति । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १: उ. ८ः सू. ३६४-३७४ १६६ की व्याख्या में एक गाथा उद्धृत कर वध से होने वाले बंध को जघन्योदयी — शीघ्र उदय में आने वाला बतलाया है। ' प्रस्तुत आगम के नौवें शतक में वैर-स्पर्श की विस्तृत चर्चा उपलब्ध है।' जो व्यक्ति पर-प्राण से निरपेक्ष होकर वैर-बंध में प्रवृत्त होता है, वह अनवकांक्षणवृत्तिक है। यह अनवकांक्षण-वृत्ति भी वैरानुबंधी वैर का हेतु बन जाती है। प्रस्तुत आलापक में हिंसा की समस्या पर व्यवहार नय से विचार किया गया है। किसी व्यक्ति ने किसी व्यक्ति पर शस्त्र का प्रहार किया। उस प्रहार से यदि वह छह मास की अवधि के भीतर मर जाता है, तो प्रहार करने वाला पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। यदि वह छह महीने के पश्चात् मरता है तो प्रहार करने वाला चार क्रियाओं से स्पृष्ट होता है, प्राणातिपातक्रिया या प्राणवध की क्रिया से स्पृष्ट नहीं होता। तात्पर्य की भाषा में छह मास की अवधि में होने वाला मरण प्रहारहेतुक और उसके पश्चात् होने वाला मरण अन्य परिणामकृत माना जाता है।' वृत्तिकार के अनुसार यह नियम व्यवहार नय की अपेक्षा से प्रतिपादित है, निश्चयनय की अपेक्षा से प्रहारहेतुक मरण किसी अवधि में हो, उससे जय-पराजय-पदं ३७३. दो भंते ! पुरिसा सरिसया सरितया सरिव्वया सरिसभंडमत्तोवगरणा अण्णम ३७४. से केणणं भंते! एवं बुधइसवी रिए परायिणति ? अवीरिए परायिजति ? गोयमा ! जस्स णं वीरियवज्झाई कम्माई नो बद्धानो पुट्ठाई नो निहत्ताई नो कडाई नो पट्ठवियाइं नो अभिनिविट्ठाई नो अभिसमण्णागयाइं नोउदिण्णाई उवसंताई भवंति से णं परायिणति । जय-पराजय-पदम् सद्धिं संगामं संगार्मेति तत्थ णं एगे पुरिसे पराइणति, एगे पुरिसे परायिज्जति । से कहमेयं भंते! एवं ? द्वौ भदन्त ! पुरुषौ सदृशकी सदृकत्वची सदृशवयसौ सदृशभाण्डामत्रोपकरणी अन्योन्यं सार्द्धं संग्रामं सङ्ग्रामयन्ति तत्र एकः पुरुषः पराजयते, एकः पुरुषः पराजीयते । तत् कथमेतत् भदन्त ! एवम् ? गोयमा ! सवीरिए परायिणति, अवीरिए गौतम ! सवीर्यः पराजयते, अवीर्यः परापरायिज्जति ॥ जीयते । भगवई प्राणातिपातक्रिया संभव हो जाएगी। डॉ. सिकदर ने भारतीय दण्ड-विधान की धारा २६६, ३०० और ३०२ के साथ इस छ: माह की अवधि वाले नियम का सामञ्जस्य बतलाया है । ' शब्द-विमर्श १. भ. वृ. १ । ३७२ आसन्नो वधो यस्माद्वैरात्तत्तथा तेनासन्नवधकेन, भवति च वैराद्वधो वधकस्य तमेव वध्यमाश्रित्यान्यतो वा तत्रैव जन्मनि जन्मान्तरे वा, यदाह- वहमारणअब्भक्खाणदाणपरधणविलोवणाईणं । सव्वजहन्नो उदओ, दसगुणिओ एक्कसिकयाणं ॥ उद्दाति- इसका अर्थ है— बांधना । ' मृगवृत्तिकार ने मृग का अर्थ हिरण किया है। इसका दूसरा अर्थ जंगली पशु भी होता है।' यहां ये दोनों अर्थ घटित हो सकते हैं। २. भ. ६।२५१,२५२ । ३. भ. बृ. १ । ३७१ – षण्मासान् यावत् प्रहारहेतुकं मरणं परतस्तु परिणामान्तरापादितमिति कृत्वा षण्मासादूर्ध्वं प्राणातिपातक्रिया न स्यादिति हृदयम् । ४. वही, १ । ३७१ - - एतच्च व्यवहारनयापेक्षया प्राणातिपातक्रिया व्यपदेशमात्रोपदेशनार्थमुक्तम्, अन्यथा यदा कदाप्यधिकृतं प्रहारहेतुकं मरणं भवति तदैव भव्य --- यह पारिभाषिक शब्द है। जो पुरुष कूटयन्त्र आदि का प्रयोग करने वाला है, वह भव्य कहलाता है। विषकूट-यंत्र, पिंजरा, कन्दक और पशु को बांधने का जाल तथा इनके करने वाले और इन्हें इच्छित स्थानों में रखने वाले भव्य कहलाते हैं। जो स्पर्शन के योग्य है, किन्तु अभी उनका स्पर्श नहीं किया जाता है, वे सब भव्यस्पर्श हैं। यह धवला का अभिमत है। तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते सवीर्यः पराजयते ? अवीर्यः पराजीयते ? गौतम ! यस्य वीर्यबाह्यानि कर्माणि नो बद्धानि नो स्पृष्टानि नो निधत्तानि नो कृतानि नो प्रस्थापितानि नो अभिनिविष्टानि नो अभिसमन्चा - गतानि नो उदीर्णानि—उपशान्तानि भवन्ति स पराजयते । जय-पराजय-पद ३७३. 'भन्ते ! समान त्वचा वाले, समान बय वाले, समान युद्धोपयोगी साधन-सामग्री वाले दो समान व्यक्ति परस्पर एक दूसरे के साथ युद्ध करते हैं। वहां एक व्यक्ति जीतता है और एक पराजित होता है । भन्ते ! यह ऐसा क्यों होता है ? गौतम ! सवीर्य जीतता है, अवीर्य पराजित होता है । ३७४. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा हैं -सवीर्य जीतता है और अवीर्य पराजित होता है ? गौतम ! जिसके वीर्यवाह्य कर्म बद्ध स्पृष्ट, निधत्त, कृत, प्रस्थापित, अभिनिविष्ट, अभिसमन्वागत और उदीर्ण नहीं होते-उपशान्त होते हैं, वह जीतता है। प्राणातिपातक्रिया इति । 2. Studies in Bhagavati Sutra, p. 595--These ethical principles of fine actions tally with the sections of the India Penal Code No. 299, 300 and 302, dealing with culpable homicide and its charge and punishment. ६. अभिधानचिंतामणि, स्वोपज्ञवृत्ति ३ । १०३ – स्यादुद्दानं तु बन्धनम् । दोंच् छेदने देङ् पालने वा, उद्दीयते —— उद्दानम् । ७. भ. वृ. १ । ३६४ - मृगै हरिणैः । ८. सूत्र. वृ. प. ३३ - मृगा आरण्याः पशवः । ६. ष. खं. धवला, पु. १३, खं. ५, भा. ३. सू. ३०, पृ.३४ । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १६७ श.१: उ.८. सू.३७३-३७६ जस्स णं वीरियवज्झाई कम्माई बद्धाइं पुट्ठाइं यस्य वीर्यबाह्यानि कर्माणि बद्धानि स्पृष्टानि जिसके वीर्यबाह्य कर्म बद्ध, स्पृष्ट, निधत्त, कृत, निहत्ताई कडाई पटुवियाई अभिनिविद्याइं निधत्तानि कृतानि प्रस्थापितानि अभिनि- प्रस्थापित, अभिनिविष्ट, अभिसमन्वागत और अभिसमण्णागयाइं उदिण्णाई–णो उवसं- विष्टानि अभिसमन्वागतानि उदीर्णानि–नो। उदीर्ण होते हैं-उपशान्त नहीं होते, वह पुरुष ताई भवंति से णं पुरिसे परायिजति, से उपशान्तानि भवन्ति स पुरुषः पराजीयते, तत् पराजित होता है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुचति-सवीरिए तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-सवीर्यः परा- कहा जा रहा है—सवीर्य जीतता है और अवीर्य परायिणति, अवीरिए परायिञ्जति ॥ जयते, अवीर्यः पराजीयते। पराजित होता है। भाष्य १. सूत्र ३७३,३७४ भण्डमत्तोवगरण-इसमें तीन पद हैं-भाण्ड, अमत्र और उपकरण । 'भाण्ड' के अनेक अर्थ होते हैं—पात्र, उपकरण, सामग्री आदि-आदि।' इसी प्रकार 'अमत्र' के भी अनेक अर्थ हैं-पात्र, शक्ति, शत्रुओं को परास्त करने वाला आदि ।' उपकरण–साधन, सहायक सामग्री, राजचिह्न, राजा के अनुचर आदि-आदि।' प्रस्तुत प्रकरण में 'भाण्ड' शब्द युद्ध-सामग्री, 'अमत्र' शब्द शक्ति और 'उपकरण' शब्द 'शस्त्र' के अर्थ में विवक्षित है। 'भाण्डामत्रोपकरण' यह एक शब्द-समूह (phrase) के रूप में भी प्रयुक्त होता है। इसका अर्थ है—प्रासंगिक साधन-सामग्री। इसका समर्थन प्रस्तुत आगम के सूत्र ८२२६ से होता है। वह यहां अग्नि जलाने-बुझाने की साधन-सामग्री के अर्थ में प्रयुक्त है। इस प्रसंग में प्रस्तुत आगम के ३६१,१२ ॥१२५ तथा १२११३६ सूत्र द्रष्टव्य हैं। वृत्तिकार ने भण्डमत्त का अर्थ युद्ध-सामग्री-निरपेक्ष सामान्य किया है। वह यहा प्रासगिक नहीं है। वीरियवज्झाई-इस पूरे प्रकरण के लिए वण्णवज्झाई पर ११३५७ का भाष्य द्रष्टव्य है। वीरिय-पदं वीर्य-पदम् वीर्य-पद ३७५. जीवा णं भंते ! किं सीरिया ? जीवाः भदन्त ! किं सवीर्याः ? अवीर्याः ? ३७५. 'भन्ते ! क्या जीव सवीर्य हैं ? अवीर्य हैं? अवीरिया ? गोयमा ! सवीरिया वि, अवीरिया वि॥ गौतम ! सवीर्याः अपि, अवीर्याः अपि। गौतम ! जीव सवीर्य भी हैं और अवीर्य भी हैं। ३७६.से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचइ-जीवा तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-जीवाः ३७६. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा सवीरियावि? अवीरिया वि? सवीर्याः अपि ? अवीर्याः अपि? है—जीव सवीर्य भी हैं और अवीर्य भी हैं ? गोयमा! जीवा दुविहा पण्णता, तं जहा- गौतम ! जीवाः द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा गौतम ! जीव दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसेसंसारसमावण्णगा य, असंसारसमावण्णगा -संसारसमापनकाः च, असंसारसमापनकाः संसारसमापन्न और असंसारसमापन्न । या तत्य णं जेते असंसारसमावण्णगा ते णं तत्र ये एते असंसारसमापनकाः ते सिद्धाः। इनमें जो असंसारसमापन्न हैं, वे सिद्ध हैं। सिद्ध सिद्धा। सिद्धा णं अवीरिया। तत्थ णं जेते सिद्धाः अवीर्याः। तत्र ये एते संसारसमापन्न- अवीर्य होते हैं। इनमें जो संसारसमापन्न हैं, वे संसारसमावण्णगा ते दुविहा पण्णत्ता, तं काः ते द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा शैले- दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-शैलेशीप्रतिपन और जहा सेलेसिपडिवण्णगा य, असेलेसि- शीप्रतिपन्नकाः च अशैलेशीप्रतिपन्नकाः च।। अशैलेशीप्रतिपन्न । इनमें जो शैलेशीप्रतिपन्न हैं, पडिवण्णगा य। तत्थ णं जेते सेलेसि- तत्र ये एते शैलेशीप्रतिपन्नकाः ते लब्धिवीर्येण वे लब्धिवीर्य से सवीर्य और करणवीर्य से अवीर्य पडिवण्णगा ते णं लद्धिवीरिएणं सवीरिया, सवीर्याः, करणवीर्येण अवीर्याः । तत्र ये एते होते हैं। इनमें जो अशैलेशीप्रतिपन्न हैं, वे लब्धिकरणवीरिएणं अवीरिया। तत्थ णं जेते अशैलेशीप्रतिपन्नकाः ते लब्धिवीर्येण सवीर्याः, वीर्य से सवीर्य और करणवीर्य से सवीर्य भी हैं असेलेसिपडिवण्णगा ते णं लद्धिवीरिएणं करणवीर्येण सवीर्याः अपि, अवीर्याः अपि। और अवीर्य भी हैं। गौतम ! इस अपेक्षा से यह सपीरिया, करणवीरिएणं सवीरिया वि, तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-जीवाः कहा जा रहा है-जीव दो प्रकारके प्रज्ञप्त हैं, अवीरिया वि। से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा-सवीर्याः अपि, जैसे-सवीर्य भी और अवीर्य भी। बुचइ-जीवा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- अवीर्याः अपि। सवीरियावि, अवीरिया वि॥ १,२,३.आप्टे. देखें, वह-वह शब्द | ४. भ.वृ.१ । ३७३–भाडं-भाजनं मृन्मयादि मात्रो-मात्रया युक्त उपधिः स च कांस्यभाजनादिभोजनभण्डिका, भाण्डमात्रा वा-गणिमादिद्रव्यरूपः परि च्छदः, उपकरणानि–अनेकधाऽऽवरणप्रहरणादीनि ततः सदृशानि भाण्डमात्रोपकरणानि ययोस्तौ तथा। अनेन च समानविभूतिकत्वं तयोरभिहितम् । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.. सू.३७५-३८२ १६८ भगवई ३७७. नेरइया णं भंते ! किं सवीरिया ? नैरयिकाः भदन्त ! किं सवीर्याः ? अवीर्याः? ३७७. भन्ते ! क्या नैरयिक सवीर्य हैं ? अथवा अवीरिया ? अवीर्य हैं ? गोयमा ! नेरडया लद्धिवीरिएणं सीरिया, गौतम ! नैरयिकाः लब्धिवीर्येण सवीर्याः, गौतम ! नैरयिक लब्धिवीर्य से सवीर्य हैं तथा करणवीरिएणं सवीरिया य, अवीरिया य॥ करणवीर्येण सवीर्याः च, अवीर्याः च । करणवीर्य से सवीर्य और अवीर्य दोनों हैं। ३७८. से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचइ- नेरइया लक्विीरिएणं सवीरिया ? करण- वीरिएणं सवीरिया य अवीरिया य? गोयमा ! जेसि णं नेरइयाणं अत्थि उहाणे कम्मे बले वीरिए परिसकार-परक्कमे, ते णं नेरइया लद्धिवीरिएण वि सवीरिया, करण- वीरिएण वि सवीरिया। जेसि णं नेरइयाणं णत्थि उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कार-परक्कमे, ते णं नेरइया लद्धिवीरिएणं सवीरिया, करणवीरिएणं अवीरिया। से तेणटेणं गोयमा ! एवं बुचइ-नेरइया लद्धिवीरिएणं सवीरिया। करणवीरिएणं सवीरिया य, अवीरिया य॥ तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-नैरयिकाः ३७६. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा लब्धिवीर्येण सवीर्याः ? करणवीर्येण सवी- है-नैरयिक लब्धिवीर्य से सवीर्य तथा करणवीर्य र्याः च अवीर्याः च ? से सवीर्य और अवीर्य दोनों हैं ? गौतम ! येषां नैरयिकाणाम् अस्ति उत्थानं गौतम ! जो नैरयिक उत्थान, कर्म, बल, वीर्य कर्म बलं वीर्यं पुरुषकार-पराक्रमः, ते नैर- और पुरुषकार-पराक्रम से युक्त हैं, वे लब्धिवीर्य यिकाः लब्धिवीर्येण अपि सवीर्याः, करण- से भी सवीर्य हैं और करणवीर्य से भी सवीर्य हैं। वीर्येण अपि सवीर्याः। येषां नैरयिकाणां नास्ति उत्थानं कर्म बलं वीर्यं जो नैरयिक उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषपुरुषकार-पराक्रमः, ते नैरयिकाः लब्धिवीर्येण कार-पराक्रम से हीन हैं, वे लब्धिवीर्य से सवीर्य सवीर्याः, करणवीर्येण अवीर्याः । तत् तेनार्थेन और करणवीर्य से अवीर्य हैं। गौतम ! इस अपेक्षा गौतम ! एवमुच्यते-नैरयिकाः लब्धिवीर्येण से यह कहा जा रहा है-नैरयिक लब्धिवीर्य से सवीर्य हैं तथा करणवीर्य से सवीर्य और अवीर्य च। दोनों हैं। ३७६. जहा नेरइया एवं जाव पंचिंदियतिरि- यथा नैरयिकाः एवं यावत् पञ्चेन्द्रियतिर्यग- ३७६. पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक तक नैरयिक की खजोणिया॥ योनिकाः। भांति ज्ञातव्य हैं। ३६०. मणुस्सा णं भंते ! किं सवीरिया ? अवीरिया ? गोयमा ! सवीरिया वि, अवीरिया वि॥ मनुष्याः भदन्त ! किं सवीर्याः ? अवीर्याः ? ३८०, भन्ते ! क्या मनुष्य सवीर्य हैं ? अथवा अ वीर्य हैं ? गौतम ! सवीर्याः अपि, अवीर्याः अपि। गौतम ! मनुष्य सवीर्य भी हैं और अवीर्य भी हैं। ३८१. से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ- तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते—मनुष्याः ३८१. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है मणुस्सा सवीरिया वि? अवीरिया वि? सवीर्याः अपि ? अवीर्याः अपि? —मनुष्य सवीर्य भी हैं और अवीर्य भी हैं ? गोयमा ! मणुस्सा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा गौतम ! मनुष्याः द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् गौतम ! मनुष्य दो प्रकार के प्रज्ञाप्त हैं-सेलेसिपडिवण्णगा य, असेलेसिपडि- यथा-शैलेशीप्रतिपन्नकाः च अशैलेशीप्रति- शैलेशीप्रतिपन्न और अशैलेशीप्रतिपन्न । वण्णगाय। पत्रकाः च। तत्थ णं जेते सेलेसिपडिवण्णगा ते णं तत्र ये एते शैलेशीप्रतिपन्नकाः ते लब्धिवीर्येण इनमें जो शैलेशीप्रतिपन्न हैं, वे लब्धिवीर्य से सवीर्य लद्धिवीरिएणं सीरिया, करणवीरिएणं सवीर्याः, करणवीर्येण अवीर्याः। तत्र ये एते और करणवीर्य से अवीर्य हैं। इनमें जो अशैलेशीअवीरिया। तत्थ णं जेते असेलेसिपडि- अशैलेशीप्रतिपन्नकाः ते लब्धिवीर्येण स- प्रतिपन्न हैं, वे लब्धिवीर्य से सवीर्य और करणवीर्य वण्णगा ते णं लद्धिवीरिएणं सवीरिया, वीर्याः, करणवीर्येण सवीर्याः अपि, अवीर्याः से सवीर्य भी हैं और अवीर्य भी हैं। गौतम ! करणवीरिएणं सवीरिया वि, अवीरिया वि। अपि। तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है—मनुष्य सवीर्य से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुचइ-मणुस्सा -मनुष्याः सवीर्याः अपि, अवीर्याः अपि। भी हैं और अवीर्य भी हैं। सवीरिया वि, अवीरिया वि॥ ३५२. वाणमंतर-जोतिस-वेमाणिया जहा नेरइया॥ वानमन्तर-ज्यौतिष-वैमानिकाः यथा नैर- ३८२. वानमन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव यिकाः। नैरयिक जीवों की भांति ज्ञातव्य हैं। भाष्य १. सूत्र ३७५-३८२ भ.१११४४ में वीर्य को शरीर से उत्पन्न बतलाया गया है। कर्मशास्त्रीय दृष्टि से अन्तराय कर्म का क्षायोपशमिक या क्षायिकभाव और Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १६६ श.१: उ.८. सू.३७५-३८३ शरीर नाम कर्म का उदय-इनके योग से वीर्य उत्पन्न होता है। वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम होता है, वह करण-वीर्य की दृष्टि से सिद्धों में अंतराय कर्म का क्षायिक भाव है, किंतु उनके शरीर नहीं सवीर्य होता है। जिसमें उत्थान आदि नहीं होते, वह करण-वीर्य की है; इसलिए उन्हें अवीर्य कहा गया है। संसारी जीव के शरीर और दृष्टि से अवीर्य होता है। इससे फलित होता है कि किसी कार्य को अन्तराय कर्म का क्षायोपशमिक अथवा क्षायिक भाव ये दोनों होते सिद्ध करने के लिए एक त्रिपदी का योग आवश्यक है—१. लब्धिहैं; इसलिए उन्हें सवीर्य और अवीर्य दोनों बतलाया गया है। जिस वीर्य २. क्रियात्मक वीर्य ३. उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकारअवस्था में मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति सर्वथा निरुद्ध हो जाती -पराक्रम । इसी आधार पर पुरुषार्थवाद का प्रासाद खड़ा है। इस है, शैलेश-मेरुपर्वत की भांति सर्वथा अप्रकम्प अवस्था प्राप्त हो संदर्भ में भ.१।१४६१६२ सूत्र द्रष्टव्य हैं। जाती है, उस शैलेशी अवस्था में लब्धि-वीर्य होता है, किंतु करण वृत्तिकार ने करण-वीर्य से अवीर्य होने की संगति अपर्याप्त -वीर्य नहीं होता। लब्धि-वीर्य एक क्षमता है, करण-वीर्य क्रियात्मकता अवस्था में बतलाई है। उनके मतानुसार उत्थान आदि की क्रिया से या प्रवृत्ति है। मनुष्य लब्धि-वीर्य से सवीर्य होता है और करण-वीर्य विकल अपर्याप्त अवस्था में ही होता है।' से वह सवीर्य और अवीर्य दोनों होता है। जिसमें उत्थान, कर्म, बल, ३५३. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरइ॥ तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति यावद् विहरति। ३८३. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते वह ऐसा ही है-इस प्रकार भगवान् गौतम यावत् संयम और तप से अपने आप को भावित करते हुए विहरण कर रहे हैं। १. भ.वृ.१।३७६–अवीर्यास्तूत्थानादिक्रियाविकलाः ते चापर्याप्त्यादि कालेऽवगन्तव्या इति । Monsonanewwwnewwwse Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल गुरु-लघु-पदं ३८४. कहण्णं भंते ! जीवा गरुयत्तं हव्यमागच्छंति ? गोयमा ! पाणाइवाएणं मुसावाएणं अदिण्णादाणेणं मेहुणेणं परिग्गहेणं कोह- माण- माया-लोभ-पेज- दोस- कलह - अब्भक्खाण- पेसुन्न - परपरिवाय- अरतिरति मायामोस - - मिच्छादंसणसल्लेणं एवं खलु गोयमा ! जीवा गरुयत्तं हव्यमागच्छंति ॥ ३८५. कहण्णं भंते ! जीवा लहुयत्तं हव्वमागच्छंति ? गोयमा ! पाणाइवायवेरमणेणं मुसावायवेरमणेणं अदिण्णादाणवेरमणेणं मेहुणवेरमणेणं परिग्गहवेरमणेणं कोह- माण- माया-लोभ-पेज-दोस- कलह - अब्भक्खाण- पेसुन्न परपरिवाय- अरतिरति मायामोस- मिच्छादंसणसल्लवेरमणेणं एवं खलु गोयमा ! जीवा लहुयत्तं हव्वमागच्छंति ॥ ३८६. कहण्णं भंते! जीवा संसारं आउलीकरेंति ? गोयमा ! पाणाइवाएणं जाव मिच्छादंसणसल्ले एवं खलु गोयमा ! जीवा संसारं आलीकरेति ॥ ३८७. कहण्णं भंते! जीवा संसारं परित्तीकरेंति ? गोयमा ! पाणाइवायवेरमणेणं जाव मिच्छादंसणसल्लवेरमणेणं एवं खलु गोयमा ! जीवा संसारं परित्तीकरेंति । ३८८. कहण्णं भंते ! जीवा संसारं दीहीकरेंति ? गोयमा ! पाणाइवाएणं जाव मिच्छादंसणसल्ले - एवं खलु गोयमा ! जीवा संसारं दहीकरेंति । नवमो उद्देसो नौवां उद्देशक संस्कृत छाया गुरु-लघु-पदम् कथं भदन्त ! जीवाः गुरुकत्वं 'हव्वं' आगच्छन्ति ? गौतम ! प्राणातिपातेन मृषावादेन अदत्तादानेन मैथुनेन परिग्रहेण क्रोध-मान-माया-लोभ-प्रेयो-दोष-कलह-अभ्याख्यान- पैशुन्य-परपरिवाद- अरतिरति-मायामृषा-मिथ्यादर्शन - शल्येन —— एवं खलु गौतम ! जीवाः गुरुत्वं 'हवं' आगच्छन्ति । गौतम ! प्राणातिपातविरमणेन मृषावाद - विरमणेन अदत्तादानविरमणेन मैथुन-विरमणेन परिग्रहविरमणेन क्रोध - मान-माया-लोभ-प्रेयो- दोष- कलह - अभ्याख्यान - पैशुन्य-परपरिवाद- अरतिरति मायामृषा-मिथ्यादर्शनशल्यविरमन एवं ख गौतम ! जीवाः लघुकत्वं 'हव्यं' आगच्छन्ति । कथं भदन्त ! जीवाः लघुकत्वं 'हव्वं' ३८५. भन्ते ! जीव लघुता को कैसे प्राप्त होते हैं ? आगच्छन्ति ? गौतम ! प्राणातिपातविरमणेन यावन् मिथ्यादर्शनशल्यविरमणेन — एवं खलु गौतम ! जीवाः संसारं परीतीकुर्वन्ति । हिन्दी अनुवाद कथं भदन्त ! जीवाः संसारं दीर्घीकुर्वन्ति ? गुरु-लघु-पद ३८४. ' भन्ते ! जीव गुरुता को कैसे प्राप्त होते हैं ? कथं भदन्त ! जीवाः संसारम् आकुली- ३८६. भन्ते ! जीव संसार को अपरिमित कैसे करते कुर्वन्ति ? हैं ? गौतम ! प्राणातिपातेन यावन् मिथ्यादर्शनशल्येन एवं खलु गौतम ! जीवाः संसारम् गौतम ! प्राणातिपातेन यावन् मिथ्यादर्शनशल्येन — एवं खलु गौतम ! जीवाः संसारं दीर्घीकुर्वन्ति । गौतम ! प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेय, दोष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, अरतिरति, मायामृषा और मिथ्यादर्शनशल्य के द्वारा जीव गुरुता को प्राप्त होते हैं। कथं भदन्त ! जीवाः संसारं परीतीकुर्वन्ति ? ३८७ भन्ते ! जीव संसार को परिमित कैसे करते हैं ? गौतम ! प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेय, दोष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, अरतिरति मायामृषा और मिथ्यादर्शनशल्यइनके विरमण से जीव लघुता को प्राप्त होते हैं। गौतम ! प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य के द्वारा जीव संसार को अपरिमित करते हैं। गौतम ! प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य के विरमण से जीव संसार को परिमित करते हैं। ३८८. भन्ते ! जीव संसार को दीर्घकालिक कैसे करते हैं ? गौतम ! प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य के द्वारा जीव संसार को दीर्घकालिक करते हैं। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३८६. कहण्णं भंते! जीवा संसारं हस्सी - करेंति ? गोयमा ! पाणाइवायवेरमणेणं जाव मिच्छादंसणसल्लेणं एवं खलु गोयमा ! जीवा संसारं हस्सीकरेति । ३६०. कहण्णं भंते ! जीवा संसारं अणुपरियति ? गोयमा ! पाणाइवाएणं जाव मिच्छादंसणसल्ले एवं खलु गोयमा ! जीवा संसारं ॥ ३६१. कहण्णं भंते ! जीवा संसारं वीतिवयंति ? गोयमा ! पाणाइवायवेरमणेणं जाव मिच्छादंसणसल्लवेरमणे --- एवं खलु गोयमा ! जीवा संसारं वीतिवयंति । पसत्या चत्तारि अपसत्या चत्तारि ॥ १. सूत्र ३८४-३६१ प्रस्तुत आलापक में चार युग्म हैं १. गुरुत्व और लघुत्व २. आकुलीकरण और परीतीकरण ३. दीर्घीकरण और ह्रस्वीकरण ४. अनुपरिवर्तन और व्यतिव्रजन । १७१ कथं भदन्त ! जीवाः संसारं ह्रस्वीकुर्वन्ति ? गौतम ! प्राणातिपातविरमणेन यावन् मिथ्यादर्शनशल्यविरमणे-- एवं खलु गौतम ! जीवाः संसारं ह्रस्वीकुर्वन्ति । कथं भदन्त ! जीवाः संसारम् अनुपरिवर्तन्ते ? गौतम ! प्राणातिपातेन यावन् मिथ्यादर्शनशल्येन एवं खलु गौतम ! जीवाः संसारम् अनुपरिवर्तन्ते । कथं भदन्त ! जीवाः संसारं व्यतिव्रजन्ति ? गौतम ! प्राणातिपातविरमणेन यावन् मिथ्यादर्शनशल्यविरमणेन — एवं खलु गौतम ! जीवाः संसारं व्यतिव्रजन्ति । प्रशस्तानि चत्वारि अप्रशस्तानि चत्वारि । भाष्य इन चार युग्मों में सभी प्रथम पक्ष और सभी द्वितीय प्रतिपक्ष हैं। इसी प्रकार सभी प्रथम धर्म से विमुख और सभी द्वितीय धर्म से हैं।' प्रथम युग्म अधोगमन और ऊर्ध्वगमन की अपेक्षा सम्मुख से है। भारी वस्तु नीचे जाती है और हल्की वस्तु ऊपर जाती है। प्राणातिपात आदि के आचरण से जीव भारी बनकर अधोगति में जाता है। प्राणातिपात आदि के विरमण से वह हल्का होकर ऊर्ध्व गति में जाता है। दूसरा युग्म संसारावस्थान की अपेक्षा से है। संसार का अर्थ है-नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव-इन चार गतियों में गमन या पर्यटन करना। संसार के आकुलीकरण का अर्थ है-चतुर्गति-गमन की परम्परा का पर्यवसान न होना अथवा उसका अनन्त - अनन्त होना। संसार के परीतीकरण का अर्थ है-संसार का परिमित होना । यहां परिमित का अर्थ है –— कुछ कम अपार्ध - पुद्गल परिवर्त । इस प्रसंग में जीवाजीवाभिगमे का एक प्रकरण बहुत उपयोगी होगा। - १. भ. वृ. १ । ३६१ – पसत्था चत्तारि 'त्ति लघुत्वपरीतत्वहस्वत्वव्यतिव्रजनदण्डका प्रशस्ताः मोक्षाङ्गत्वात्, ‘अपसत्था चत्तारि 'त्ति गुरुत्वाकुलत्वदीर्घत्वानुपरिवर्तन श. १: उ.६: सू. ३८४-३६१ ३८६. भन्ते ! जीव संसार को अल्पकालिक कैसे करते हैं ? गौतम ! प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य के विरमण से जीव संसार को अल्पकालिक करते हैं । ३६० भन्ते ! जीव संसार में अनुपरिवर्तन कैसे करते हैं ? गौतम ! प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य के द्वारा जीब संसार में अनुपरिवर्तन करते हैं। ३६१. भन्ते ! जीव संसार का व्यतिक्रमण कैसे करते हैं ? गीतम ! प्राणातिपात यावत् मिध्यादर्शनशल्य के विरमण से जीव संसार का व्यतिक्रमण करते हैं। इनमें चार प्रशस्त और चार अप्रशस्त हैं। जीव तीन प्रकार के बतलाए गये हैं १. परीत २. अपरीत ३. नो-परीत-नो- अपरीत | प्र. परीत कितने काल तक परीत रहता है ? उ. परीत दो प्रकार का होता है—कायपरीत और संसारपरीत । प्र. कायपरीत कायपरीत के रूप में कितने काल तक रहता है ? उ. जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः असंख्यकाल तक । प्र. संसारपरीत संसारपरीत के रूप में कितने काल तक रहता है ? उ. जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्त काल - कुछ कम अपार्ध-पुद्गल-परिवर्त । जो जीव कृष्णपक्ष से शुक्लपक्ष में आ जाता है, जो जीव एक बार सम्यक्त्व का स्पर्श कर लेता है, जो जीव संसार को परीत कर लेता है— इन तीनों का उत्कृष्ट संसारावस्थान-काल एक समान होता है। आकुलीकरण का प्रयोग 'अपरीत' के अर्थ में प्रतीत होता है । अपरीत के भी दो प्रकार हैं-काय अपरीत और संसार अपरीत । प्र. कायअपरीत कायअपरीत के रूप में कितने काल तक रहता है ? उ. जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः वनस्पति-काल । प्र. संसार अपरीत संसार अपरीत के रूप में कितने काल तक रहता है ? दण्डका अप्रशस्ताः अमोक्षाङ्गत्त्वादिति । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.६: सू.३८४-३६८ १७२ भगवई उ. इसके दो भंग हैं--प्रथम भंग वाले का संसारावस्थान-काल अनादि विशेषण है। इसमें उक्त अर्थ की संगति खोजी जा सकती है।' अनंत होता है। दूसरे भंग वाले का संसारावस्थान-काल अनादि चौथा युग्म अनुपरिवर्तन और व्यतिव्रजन का है। इनका संबंध सपर्यवसित होता है।' क्रमशः भ्रमण-क्रिया और उसके अन्त से है। तीसरा युग्म क्षेत्र की अपेक्षा से है। दीर्धीकरण का अर्थ है प्राणातिपात आदि अठारह पापस्थानकों के लिए देखें, भगवती, अनपरिवर्तन-मार्ग का लम्बा होना। ह्रस्वीकरण का अर्थ है--- १२७६२८६ का भाष्य । अनुपरिवर्तन मार्ग का छोटा होना । 'दीहमद्धं'—यह संसार-कान्तार का ३६२. सत्तमेणं भंते ! ओवासंतरे किं गरुए? लहुए ? गरुयलहुए ? अगरुयलहुए ? सप्तमं भदन्त ! अवकाशान्तरं किं गुरुकम् ? लघुकम् ? गुरुकलघुकम् ? अगुरुकलघु- ३६२. 'भन्ते ! सातवां अवकाशान्तर क्या गुरु है। लघु है ? गुरुलघु है ? अगुरुलघु है ? कम्? गोयमा ! णो गरुए, णो लहुए, णो गरुय- लहुए, अगरुयलहुए॥ गौतम ! नो गुरुकं, नो लघुकं, नो गुरुक- लघुकम्, अगुरुकलघुकम्। गौतम ! वह न गुरु है, न लघु है, न गुरुलघु है, अगुरुलघु है। ३६३. सत्तमे णं भंते ! तणुवाए किं गरुए? लहुए ? गरुयलहुए ? अगरुयलहुए ? गोयमा! णो गरुए, णो लहुए, गरुयलहुए, णो अगरुयलहुए। सप्तमः भदन्त ! तनुवातः किं गुरुकः ? ३६३. भन्ते ! सातवां तनुवात क्या गुरु है ? लघु लघुकः ? गुरुकलघुकः ? अगुरुकलघुकः? है? गुरुलघु है ? अगुरुलघु है ? गौतम ! नो गुरुकः, नो लघुकः, गुरुकलघुकः, गौतम ! वह न गुरु है, न लघु है, न अगुरुलघु नो अगुरुकलघुकः । है, गुरुलधु है। ३६४. एवं सत्तमे घणवाए, सत्तमे घणोदही, सत्तमा पुढवी॥ एवं सप्तमः घनवातः, सप्तमः घनोदधिः, सप्तमा ३६४. इसी प्रकार सातवां धनवात, सातवां घनोदधि पृथिवी। और सातवीं पृथ्वी ज्ञातव्य हैं। ३६५. ओवासंतराइं सव्वाई जहा सत्तमे ओवासंतरे ॥ अवकाशान्तराणि सर्वाणि यथा सप्तमम् अव- ३६५. सभी अवकाशान्तर सातवें अवकाशान्तर की काशान्तरम्। भांति ज्ञातव्य हैं। ३६६. जहा तणुवाए एवं–ओवास-वाय- घणउदही, पुढवी दीवा य सागरा वासा।। यथा तनुवातः एवम्-अवकाश-वात- ३६६. जैसे तनुवात का निरूपण हुआ है, उसी घनोदधिः, पृथिवी द्वीपाः च सागरा वर्षाणि। प्रकार-अवकाश, घनवात, घनोदधि, पृथ्वी, द्वीप, सागर और वर्ष निरूपणीय हैं। ३६७. नेरइया णं भंते ! किं गरुया ? लहु- या ? गरुयलया? अगरुयलहुया ? गोयमा ! णो गरुया, णो लहुया, गरुय- लहुया वि, अगरुयलहुया वि॥ नैरयिकाः भदन्त ! किं गुरुकाः ? लघुकाः? ३६७. भन्ते ! नैरयिक क्या गुरु हैं ? लघु हैं ? गुरुकलघुकाः ? अगुरुकलघुकाः ? गुरुलघु हैं ? अगुरुलघु हैं ? गौतम ! नो गुरुकाः, नो लघुकाः, गुरुक- गौतम ! वे न गुरु हैं, न लघु हैं. गुरुलघु भी हैं लघुकाः अपि, अगुरुकलधुकाः अपि। और अगुरुलघु भी हैं। ३६८. से केणटेणं भंते ! एवं बुचइ-नेरइया णो गरुया ? णो लहुया ? गरुयलहुया वि? अगरुयल्या वि? गोयमा ! विउब्बिय-तेयाई पडुच्च णो गरुया, णो लहया, गरुयलया, णो अगरुय- लहया। जीवं च कम्मगं च पडूच णो गरुया, णो लहुया, णो गरुयलहुया, अगरुयलहुया। से तेणटेणं गोयमा ! एवं बुचइ-नेरइया णो गरुया, णो लहुया, गरुयलहुया वि, अगरुयलहुया वि॥ तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-नैरयिकाः ३६८. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा नो गुरुकाः ? नो लघुकाः ? गुरुकलघुकाः है—रयिक न गुरु हैं ? न लघु हैं ? गुरुलघु अपि ? अगुरुकलघुकाः अपि ? भी हैं ? अगुरुलघु भी हैं ? गौतम ! वैक्रिय तैजसौ प्रतीत्य नो गुरुकाः, गौतम ! वैक्रिय और तैजस शरीर की अपेक्षा से नो लघुकाः, गुरुकलघुकाः, नो अगुरुक- वे न गुरु हैं, न लघु हैं, न अगुरुलघु हैं, गुरुलघु लघुकाः। जीवं च कर्मकं च प्रतीत्य नो हैं। जीव और कार्मण शरीर की अपेक्षा से वे न गुरुकाः, नो लघुकाः, नो गुरुकलघुकाः, गुरु हैं, न लघु हैं, न गुरुलघु हैं, अगुरुलघु हैं। अगुरुकलघुकाः । तत् तेनार्थेन गौतम ! एव- गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा मुच्यते-नैरयिकाः नो गुरुकाः, नो लघुकाः, है-नैरयिक न गुरु हैं, न लघु हैं, गुरुलघु भी गुरुकलघुकाः अपि, अगुरुकलघुकाः अपि। हैं, अगुरुलघु भी हैं। १. जीवा.६।७५-८१। जीवा.वृ.प.४४६। २. भ.११४५,४७। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३६६. एवं जाव वेमाणिया, नवरं नाणत्तं जाणियव्वं सरीरेहिं || ४००. धम्मत्थिकाए णं भंते ! किं गरुए ? लहुए ? गरुयलहुए ? अगरुयलहुए ? गोयमा ! णो गरुए, णो लहुए, णो गरुयलहुए, अगरुयलहुए ॥ ४०१. अहम्मत्थिकाए णं भंते ! किं गरुए? लहुए ? गरुयलहुए ? अगरुयलहुए ? गोयमा ! णो गरुए, णो लहुए, जो गरुयलहुए, अगरुयलहुए | ४०२. आगासत्थिकाए णं भंते ! किं गरुए? लहुए ? गरुयलहुए ? अगरुयलहुए ? गोयमा ! णो गए, णो लहुए, णो गरुयलहुए, अगरुयल हुए । ४०३. जीवत्थिकाए णं भंते ! किं गरुए ? लहुए ? गरुयलहुए ? अगरुयलहुए ? गोमा ! णो गरुए, जो लहुए, जो गरुयलहुए, अगरुयल हुए । ४०४. पोम्पलत्थिकाए णं भंते! किं गरुए? लहुए ? गरुयलहुए ? अगरुयलहुए ? गोमा ! णो गए, णो लहुए, गरुयल हुए अगरुहुवि ॥ ४०५. से केणणं भंते ! एवं बुच्च —णो गए ? णो लहुए ? गरुयलहुए वि ? अगरुयलहुए वि ? गोयमा ! गरुयलहुयदव्वाई पडुध णो गरुए, णो लहुए, गरुयलहुए, णो अगरुयल हुए । अगरुयलहुयदव्बाई पडुच्च णो गरुए, णो लहुए, णो गरुयलहुए, अगरुलहुए || ४०६. समया णं भंते ! किं गरुया ? लहुया ? गरुयलहुया ? अगरुयलहुया ? गोयमा ! णो गरुया, जो लहुया, ' णो गरुयलहुया, अगरुयलहुया || ४०७. कम्माणि णं भंते ! किं गरुयाई ? लहुयाई ? गरुयलहुयाई ? अगरुयलहुयाई ? गोयमा ! णो गरुयाई, णो लहुयाई, णो १७३ एवं यावद् वैमानिकाः, नवरं नानात्वं ज्ञातव्यं शरीरैः । धर्मास्तिकायः भदन्त ! किं गुरुकः ? लघुकः ? गुरुकलघुकः ? अगुरुकलघुकः ? गौतम ! नो गुरुकः, नो लघुकः, नो गुरुकलघुकः, अगुरुकलघुकः । अधर्मास्तिकायः भदन्त ! किं गुरुकः ? लघु - कः ? गुरुकलघुकः ? अगुरुकलघुकः ? गौतम ! नो गुरुकः, नो लघुकः, नो गुरुक लघुकः, अगुरुकलघुकः । आकाशास्तिकायः भदन्त ! किं गुरुकः ? लघुकः ? गुरुकलघुकः ? अगुरुकलघुकः ? गौतम ! नो गुरुकः, नो लघुकः, नो गुरुकलघुकः, अगुरुकलघुकः । जीवास्तिकायः भदन्त ! किं गुरुकः ? लघुकः ? गुरुकलघुकः ? अगुरुकलघुकः ? गौतम ! नो गुरुकः, नो लघुकः, नो गुरुकलघुकः, अगुरुकलघुकः । पुद्गलास्तिकायः भदन्त ! किं गुरुकः ? लघुकः ? गुरुकलघुकः ? अगुरुकलघुकः ? गौतम ! नो गुरुकः, नो लघुकः, गुरुकलघुकः अप, अगुरुलघुकः अपि । तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते नो गुरुकः ? नो लघुकः ? गुरुकलघुकः अपि ? अगुरुकलघुकः अपि ? गौतम ! गुरुकलघुकद्रव्याणि प्रतीत्य नो गुरुकः, नो लघुकः, गुरुकलघुकः, नो अगुरुकलघुकः । अगुरुकलघुकद्रव्याणि प्रतीत्य नो गुरुकः, नो लघुकः, नो गुरुकलघुकः, अगुरुकलधुकः । ? ? समयाः भदन्त ! किं गुरुका: : लघुकाः गुरुकलघुका: ? अगुरुकलघुकाः ? गौतम ! नो गुरुकाः, नो लघुकाः, नो गुरुकलघुकाः, अगुरुकलघुकाः । कर्माणि भदन्त ! किं गुरुकाणि? लघुकानि ? गुरुकलघुकानि ? अगुरुकलघुकानि ? गौतम ! नो गुरुकाणि, नो लघुकानि, नो गुरु श. १: उ.६ः सू. ३६६-४०७ ३६६. इसी प्रकार वैमानिक देवों तक की वक्तव्यता, केवल शरीर-विषयक नानात्व ज्ञातव्य है । ४००. भन्ते ! धर्मास्तिकाय क्या गुरु है ? लघु है? गुरुलघु है ? अगुरुलघु है ? गौतम ! वह न गुरु है, न लघु हैं, न गुरुलघु है, लघु है। ४०१ भन्ते ! अधर्मास्तिकाय क्या गुरु है ? लघु है ? गुरुलघु है ? अगुरुलघु हैं ? गौतम ! वह न गुरु है, न लघु अगुरुलघु है । हैं, न गुरुलघु है, ४०२. भन्ते ! आकाशास्तिकाय क्या गुरु है ? लघु है ? गुरुलघु है ? अगुरुलघु है ? गौतम ! वह न गुरु है, न लघु है, न गुरुलघु है, अगुरुलघु है । ४०३. भन्ते ! जीवास्तिकाय क्या गुरु है ? लघु है ? गुरुलघु है ? अगुरुलघु है ? गौतम ! वह न गुरु है, न लघु है, न गुरुलघु है. अगुरुलघु है। ४०४. भन्ते ! पुद्गलास्तिकाय क्या गुरु है ? लघु है ? गुरुलघु है ? अगुरुलघु है ? गौतम ! वह न गुरु है, न लघु है, गुरुलघु भी है, अगुरुलघु भी है। ४०५. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है— पुद्गलास्तिकाय न गुरु है, न लघु है, गुरुलघु भी है, अगुरुलघु भी है ? गौतम ! गुरुलघु द्रव्यों की अपेक्षा वह न गुरु है, न लघु है, न अगुरुलघु है, गुरुलघु है। अगुरुलघु द्रव्यों की अपेक्षा से वह न गुरु है, न लघु है, न गुरुलघु है, अगुरुलघु है। ४०६. भन्ते ! समय क्या गुरु हैं ? लघु हैं ? गुरुलघु हैं ? अगुरुलघु हैं ? गौतम ! वे न गुरु हैं, न लघु हैं, न गुरुलघु हैं. अगुरुलघु हैं। ४०७. भन्ते ! कर्म क्या गुरु हैं ? लघु हैं ? गुरुलघु हैं ? अगुरुलघु हैं ? गौतम ! वे न गुरु हैं, न लघु हैं, न गुरुलघु हैं, Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.६: सू.३६२-४१६ १७४ भगवई गरुयलहुयाई, अगरुयलहुयाई ॥ कलघुकानि, अगुरुकलघुकानि। अगुरुलघु हैं। ४०८. कण्हलेस्सा णं भंते ! किं गया ? कृष्णलेश्या भदन्त ! किं गुरुका ? लघुका? ४०८. भन्ते ! कृष्णलेश्या क्या गुरु है ? लघु है? लहुया ? गरुयलहुया ? अगरुयलहुया ? गुरुकलघुका ? अगुरुकलघुका ? गुरुलघु है ? अगुरुलघु है ? गोयमा ! णो गरुया, णो लहुया, गरुय- गौतम ! नो गुरुका, नो लघुका, गुरुकलघुका । गौतम ! वह न गुरु है, न लघु है, गुरुलघु भी लहुया वि, अगरुयलहुया वि॥ अपि, अगुरुकलघुका अपि। है, अगुरुलघु भी है। ४०६. से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचइ-कण्ह- लेस्सा णो गया ? णो लहुया ? गरुय- लहुया वि? अगरुयलहुया वि? गोयमा ! दबलेस्सं पडुच्च ततियपदेणं, भावलेस्सं पुडुच्च चउत्थपदेणं। तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-कृष्ण- ४०६. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है लेश्या नो गुरुका ? नो लघुका ? गुरुक- -कृष्णलेश्या न गुरु है ? न लघु है ? गुरुलघु लघुका अपि ? अगुरुकलघुका अपि ? भी है ? अगुरुलधु भी है ? गौतम ! द्रव्यलेश्यां प्रतीत्य तृतीयपदेन, भाव- गौतम ! द्रव्यलेश्या की अपेक्षा से वह गुरुलघु है, लेश्यां प्रतीत्य चतुर्थपदेन । भावलेश्या की अपेक्षा से अगुरुलघु है। एवं यावत् शुक्ललेश्या। ४१०. शुक्ल लेश्या तक इसी प्रकार ज्ञातव्य है। ४१०. एवं जाव सुक्कलेस्सा॥ ४११. दिवी-दंसण-णाण-अण्णाण-सण्णाओ चउत्थएणं पदेणं नेतवाओ॥ दृष्टि-दर्शन-ज्ञान-अज्ञान-संज्ञाः चतुर्थकन पदेन ४११. दृष्टि, दर्शन, ज्ञान, अज्ञान और संज्ञा अगुरुनेतव्याः । लघु हैं। ४१२. हेदिल्ला चत्तारि सरीरा नेयव्या ततिएणं पदेणं। कम्मयं चउत्थएणं पदेणं॥ अधस्तनानि चत्वारि शरीराणि नेतव्यानि ४१२. प्रथम चार शरीर गुरुलघु और कार्मण शरीर तृतीयपदेन । कर्मकं चतुर्थकन पदेन । अगुरुलघु हैं। हा ४१३. मणजोगो, वइजोगो चउत्थएणं पदेणं, कायजोगो ततिएणं पदेणं॥ मनोयोगः, वागयोगः चतुर्थकन पदेन, काय- ४१३. मनयोग और वचनयोग अगुरुलघु हैं, काययोगः तृतीयेन पदेन । योग गुरुलघु है। ४१४. सागारोवओगो, अणागारोवओगो चउत्थएणं पदेणं॥ साकारोपयोगः, अनाकारोपयोगः चतुर्थकन ४१४. साकार उपयोग और अनाकार उपयोग पदेन । अगुरुलघु हैं। ४१५. सबदबा, सब्बपएसा, सबपञ्जवा जहा पोग्गलत्थिकाओ॥ सर्वद्रव्याणि, सर्वप्रदेशाः, सर्वपर्यवाः यथा ४१५. सब द्रव्य, सब प्रदेश और सब पर्याय पुद्गलापुद्गलास्तिकायः। स्तिकाय की भांति वक्तव्य हैं। ४१६. तीतद्धा, अणागतद्धा, सबद्धा चउत्थ एणं पदेणं॥ अतीताध्वा, अनागताध्वा, सर्वाध्वा चतुर्थकन ४१६. अतीतकाल, अनागतकाल और सर्वकाल अगुरुलघु हैं। पदेन । भाष्य १. सूत्र ३६२-४१६ पदार्थ दो प्रकार के होते हैं—भारयक्त और भारहीन। प्रस्तत आलापक में यह जिज्ञासा की गई है-कौन-सा पदार्थ भारयुक्त होता है और कौन-सा पदार्थ भारहीन है ? भार का संबंध स्पर्श से है। वह पुद्गल द्रव्य का एक गुण है। शेष सब द्रव्य भारहीन अगुरुलघु होते हैं। पुद्गल द्रव्य भारयुक्त और भारहीन दोनों प्रकार का होता है। जिनभद्रगणी के अनुसार गुरु, लघु, गुरुलघु और अगुरुलघुये चार विकल्प व्यवहार नय के अनुसार होते हैं। निश्चय नय के १. भ.वृ.१/३६३-इह चेयं गुरुलघुव्यवस्था निच्छयओ सब्बगुरुं सव्वलहुं वा न विजए दव्वं । ववहारओ उ जुञ्जइ बायरखंधेसु नऽण्णेसु ॥ अनुसार सर्वथा गुरु और सर्वथा लघु कुछ भी नहीं होता। इसमें केवल दो ही विकल्प मान्य है-गुरुलघु और अगुरुलघु। प्रस्तुत आगम से यह निश्चय का मत ही फलित होता है। प्रत्येक प्रश्न के उत्तर में गुरु और लघु का विकल्प मान्य नहीं है। अभयदेवसूरि ने दो गाथाएं उद्धृत कर जिनभद्रगणी के मत का ही अनुसरण किया है।' अगुरुलहू चउफासो अरूविदव्वा य होति नायव्वा । सेसा उ अट्ठफासा गुरुलहुया निच्छयणयस्स ॥ 'चउफास'ति सूक्ष्मपरिणामानि, 'अट्ठफास'ति वादराणि। गुरुलघुद्रव्यं रूपि, Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १७५ श.१: उ.६: सू.३६२-४१६ सब पदार्थों के गुरु और लघु होने का अस्वीकार क्या। समीक्षा की है। उनके मतानुसार गुरुता और लघुता गति के नियामक गति-नियम में बाधक नहीं बनेगा ? सामान्य धारणा है-गुरु वस्तु तत्त्व नहीं हैं। उनके नियामक तत्त्व हैं-गतिपरिणाम और नीचे जाती है और लघु वस्तु ऊपर जाती है। पत्थर नीचे जाता है वीर्यपरिणाम | इसलिए सर्वथा गुरु और सर्वथा लघु होने का अस्वीकार और धुआं ऊपर जाता है। जिनभद्रगणी ने इस प्रश्न की तर्कपर्ण गति-नियम में बाधक नहीं बनता।' यहां तालिका में प्रस्तुत सूत्रों में उल्लिखित सभी द्रव्यों की गुरुत्व-लघुत्व सारणी दी जा रह रही है। गुरु लघु गुरुलघु अगुरुलघु ____ गुरु लघु गुरुलघु अगुरुलघु | | | १. अवकाशान्तर x २१. दर्शन x x x २. तनुवात xx २२. ज्ञान x x xxx x x २३. अज्ञान x x x ३. घनवात ४. घनोदधि ५. पृथ्वी x २४. संज्ञा x x x x २५. औदारिकशरीर x x x x x x x ; x x x x २६. वैक्रियशरीर २७. आहारकशरीर २८. तैजसशरीर |२६. कार्मणशरीर x x x x x x x x x x x ६. वर्ष ६.१०. नैरयिक यावत् x वैमानिक ११. धर्मास्तिकाय ,x १२. अधर्मास्तिकाय १३. आकाशास्तिकाय x x x x x x x x x x x x ३०. मनोयोग३१. वचनयोग ३२. काययोग ३३. साकार उपयोग ३४. अनाकार उपयोग x ३५. सर्वद्रव्य xx x x x x |१४. जीवास्तिकाय x x x x x x x १५. पुद्गलास्तिकाय १६. समय १७. कर्म xx x x x x X x x १८. कृष्ण आदि द्रव्य लेश्या |३६. सर्वप्रदेश ३७. सर्वपर्यव ३८. अतीतकाल ३६. अनागतकाल ४०. सर्वकाल x x x X x x १६. कृष्ण आदि भाव लेश्या २०. दृष्टि xxx x x x X x अगुरुलघुद्रव्यं त्वरूपि रूपि चेति । व्यवहारतस्तु गुर्वादीनि चत्वार्यपि सन्ति, तत्र च निदर्शनानि—गुरुर्लाष्टोऽधोगमनात्, लघुघूमः ऊर्ध्वगमनात्, गुरुलघुर्वायु- स्तिर्यग्गमनात्, अगुरुलघ्वाकाशं तत्स्वभावत्वादिति । १.वि.भा.गा.६५५-६६३-- Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.६: सू.३६२-४१८ १७६ भगवई सब द्रव्य, सब प्रदेश और सब पर्याय पुद्गलास्तिकाय की भांति अगुरुलघु बतलाए गए हैं। यह सापेक्ष वचन है। अगुरुलघु के प्रदेश और पर्याय अगुरुलघु तथा गुरुलघु के प्रदेश और पर्याय गुरुलघु विवक्षित हैं।' शब्द-विमर्श तृतीय पद-तीसरा विकल्प-गुरुलघु चतुर्थक पद-चौथा विकल्प-अगुरुलघु पसत्थ-पदं प्रशस्त-पदम् प्रशस्त-पद ४१७. से नणं भंते ! लाघवियं अप्पिच्छा अथ नूनं भदन्त ! लाघविकम् अल्पेच्छा ४१७. 'भन्ते ! क्या श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए लाघव, अमुच्छा अगेही अपडिबद्धया समणाणं अमूर्छा अगद्धिः अप्रतिबद्धता श्रमणानां अल्पेच्छा, अमूर्छा, अगृद्धि, अप्रतिबद्धता प्रशस्त निग्गंथाणं पसत्थं ? निर्ग्रन्थानां प्रशस्तम् ? हंता गोयमा ! लापवियं अप्पिच्छा अमुच्छा हन्त गौतम ! लाघविकम अल्पेच्छा अमूर्छा हां, गौतम ! श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए लाघव, अगेही अपडिबद्धया समणाणं निगंथाणं अगृद्धिः अप्रतिबद्धता श्रमणानां निम्रन्थानां अल्पेच्छा, अमूर्छा, अगृद्धि, अप्रतिबद्धता प्रशस्त पसत्थं ॥ प्रशस्तम्। ४१८. से नूणं भंते ! अकोहत्तं अमाणत्तं अमायत्तं अलोभत्तं समणाणं निग्गंथाणं पसत्थं ? हंता गोयमा ! अकोहत्तं अमाणत्तं अमायत्तं अलोभत्तं समणाणं निगंथाणं पसत्यं । अथ नूनं भदन्त ! अक्रोधत्वम् अमानत्वम् ४१८. भन्ते ! क्या श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अक्रोध, अमायात्वम् अलोभत्वं श्रमणानां निर्ग्रन्थानां अमान, अमाया और अलोभ का भाव प्रशस्त प्रशस्तम् ? हन्त गौतम ! अक्रोधत्वम् अमानत्वम् अमाया- हां, गौतम ! श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अक्रोध, त्वम् अलोभत्वं श्रमणानां निर्ग्रन्थानां प्रशस्तम् । अमान, अमाया और अलोभ का भाव प्रशस्त है। भाष्य १. सूत्र ४१७,४१८ प्रस्तुत प्रकरण में 'लाघव' शब्द का संबंध अचेल या अल्पचेल प्रशस्त बतलाया। उसके प्रशस्त होने के चार हेतु हैं-१. इच्छा का से है। अचेल मुनि के लाघव गुण का विकास होता है। ठाणं में अभाव २. मूर्छा का अभाव ३. गृद्धि का अभाव ४. प्रतिबद्धता अचेलत्व के प्रशस्त होने के पांच कारण बतलाए गए हैं। उनमें एक का अभाव। लाघव है।' उत्तरायणाणि में प्रतिरूपता का फल लाधव बतलाया वृत्तिकार ने 'लाघविक' का अर्थ अल्पोपधिक तथा 'अल्पेच्छा' गया है। इस प्रकार 'लाघव' शब्द अचेलत्व का सूचक शब्द बन आदि पदों का अर्थ स्वतन्त्र रूप से किया है । वैकल्पिक रूप में गया। भगवान् महावीर ने गौतम के प्रश्न का समर्थन करते हुए उसे । 'अल्पेच्छा' आदि पदों को लाघविक का विशेषण भी माना है।' गुरु लहुअं उभयं, णोभयमिति वावहारियणयस्स । दव्यं लेटुं दीवो, वायू वोमं जधासंखं ।। णिच्छयतो सव्वगुरुं, सव्वलहुं वा ण विज्जते दव्वं । वातरमिह गुरुलहुअं, अगुरुलहुं सेसयं सव्वं । जइ गरुअं लहुअं वा, ण सव्वधा दव्यमस्थि तो कीस । उद्धमधो वि य गमणं जीवाणं पोग्गलाणं च ? | उद्धं लहुकम्माणं, भणितं गुरुकम्मणामधोगमणं । जीवा य पोग्गलावि य, उद्धाधोगामिणो पायं ।। अण्ण चिय गुरुलहुता, अण्णो दव्वाण विरियपरिणामो । अण्णो गतिपरिणामो, णावस्सं गुरुलहुनिमित्तो। परमलहूणमणूणं, जं गमणमधोऽवि तत्थ को हेतू ? उद्धं धूमातीणं, थूलतराणं पि किं कजं ? | किं व विमाणातीणं, णाधोगमणं महागुरूणं पि । तणुतरदेहो देवो, हक्खुवति व किं महासेलं ? | अध तस्स विरियं तं तो, णाधोगमणकारणं गुरुता। उद्धगतिकारणं वा, लहुता एगंततो जुत्ता ।। विरियं गुरुलहुयाणं, जधाधियं गतिविवजयं कुणति । तध गतिठितिपरिणामो, गुरुलहताओ विलंधेति ॥ १. भ.वृ.१।४१५-- 'सर्वद्रव्याणि' धर्मास्तिकायादीनि 'सर्वप्रदेशाः' तेषामेव निविभागा अंशाः सर्वपर्यवाः वर्णोपयोगादयो द्रव्यधर्माः। एते पुद्गलास्तिकायवद् व्यपदेश्याः, गुरुलधुत्वेनागुरुलधुत्वेन चेत्यर्थः । यतः सूक्ष्माण्यमूर्तानि च द्रव्याण्यगुरुलधूनि, इतराणि तु गुरुलधूनि, प्रदेशपर्यवास्तु तत्तद्रव्य सम्बन्धित्वेन तत्तस्वभावा इति । २. आयारो,८।६४,११३। ३. टाणं,५/२०१ ---पंचहि ठाणेहिं अचेलए पसत्थे भवति, तं जहा—अप्पा पडि लेहा, लाघविए पसत्थे, रूवे बेसासिए, तवे अणुण्णाते, विउले इंदियणिगहे। ४. उत्तर.२६।४३–पडिरूवयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? पडिरूवयाए णं लाघवियं जणयइ । लहुभूए णं जीवे अप्पमत्ते पागडलिंगे पसत्थलिंगे विसुद्धसम्मत्ते सत्तसमिइसमत्ते सव्वपाणभूयजीवसत्तेसु वीस- सणिजरूवे अप्पडिलेहे जिइंदिए विउलतवसभिइसमन्नागए यावि भवइ। ५. भ.वृ.११४१७-लाघवियंति लाघवमेव लाधविकम्-अल्पोपधिकं 'अप्पिच्छत्ति अल्पोऽभिलाष आहारादिषु, 'अमुच्छति उपधावसंरक्षणानुबन्धः, Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १७७ श.१: उ.६: सू.४१७-४१६ क्रोध, मान, माया और लोभ का अभाव प्रशस्त है। यह बात अमूर्छा, अगृद्धि और अप्रतिबद्धता का विकास हो नहीं सकता। जैन दर्शन में आबालगोपाल प्रसिद्ध है। फिर गौतम ने यह प्रश्न इसलिए अचेलत्व की प्रशस्तता के साथ अक्रोधत्व का अविनाभावी क्यों पूछा ? यह जिज्ञासा बहुत स्वाभाविक है। किन्तु गौतम ने संबंध है। ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करें, तो उस समय आजीवक जिस सन्दर्भ में पूछा और भगवान् महावीर ने जिस सन्दर्भ में उत्तर आदि अनेक सम्प्रदायों में अचेलत्व प्रचलित था। उनकी दिया, वह प्रसिद्ध नहीं है। कषायमुक्ति-शून्य अचेलत्व की साधना के सन्दर्भ में प्रश्न पूछा गया गौतम के प्रश्न का सन्दर्भ यह है-एक ओर अचेलत्व है, और उस विषय में महावीर ने अपना मत प्रस्तुत किया । दूसरी ओर कषाय की प्रबलता है। क्या इस स्थिति में अचेलत्व को भगवान महावीर की साधना-पद्धति में बाह्य और आंतरिक प्रशस्त कहा जा सकता है ? भगवान् महावीर ने इस जिज्ञासा के दोनों का समन्वय देखा जाता है। द्रव्यअवमोदरिका में जहां उपकरणों उत्तर में कहा-मैं केवल द्रव्यसाधना को महत्त्व नहीं देता । अचेलत्व को कम करने का विधान है, वहां भावअवमोदरिका में क्रोध, मान, द्रव्यसाधना या बाह्य साधना है। अक्रोध आदि होना भावसाधना या माया, लोभ आदि को कम करने का विधान है।' इस सत्र से भी आंतरिक साधना है । अक्रोध आदि की साधना हुए बिना अल्पेच्छा. उक्त सिद्धान्त का समर्थन होता है। कंखापदोस-पदं कांक्षाप्रदोष-पदम् कांक्षाप्रदोष-पद ४१६.से नणं भंते ! कंखापदोसे खीणे समणे अथ नूनं भदन्त ! काङ्क्षाप्रदोषे क्षीणे श्रमणः ४१६. 'भन्ते ! क्या कांक्षाप्रदोष क्षीण होने पर निग्गंये अंतकरे भवति, अंतिमसरीरिए वा? निर्ग्रन्थः अन्तकरो भवति, अन्तिमशरीरिको श्रमण निर्ग्रन्थ अन्तकर या अन्तिमशरीरी होता वा? बहुमोहे वि य णं पुचि विहरित्ता अह पच्छा बहुमोहः अपि च पूर्वं विहृत्य अथ पश्चात् कोई श्रमण पहले मोहबहुल रहकर भी उसके संखुडे कालं करेइ, ततो पच्छा सिज्झति संवृतः कालं करोति, ततः पश्चात् सिध्यति पश्चात् संवृत होकर मृत्यु को प्राप्त होता है, तो बुज्झति मुचति परिनिवाति सब्बदुक्खाणं 'बुज्झति' मुञ्चति परिनिर्वाति सर्वदुःखानाम् । क्या वह मृत्यु के अनन्तर सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त अंतं करेति? अन्तं करोति ? और परिनिर्वृत होता है, सब दुःखों का अन्त करता है? हंता गोयमा ! कंखापदोसे खीणे समणे हन्त गौतम ! काङ्क्षाप्रदोषे क्षीणे श्रमणः हां, गौतम ! कांक्षाप्रदोष क्षीण होने पर श्रमणनिग्गंथे अंतकरे भवति, अंतिमसरीरिए वा। निर्ग्रन्थः अन्तकरो भवति, अन्तिमशरीरिको निर्ग्रन्थ अन्तकर या अन्तिमशरीरी होता है। वा। बहुमोहे वि य णं पुढि विहरित्ता अह पच्छा संवडे कालं करेइ ततो पच्छा सिज्झति बुज्झति मुचति परिनिव्वाति सबदुक्खाणं अंतं करेति॥ बहुमोहः अपि च पूर्वं विहृत्य अथ पश्चात् संवृतः कालं करोति ततः पश्चात् सिध्यति 'बुज्झति' मुञ्चति परिनिर्वाति सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति। पहले मोहबहुल रहकर भी वह उसके पश्चात् संवृत होकर मृत्यु को प्राप्त होता है, तो मृत्यु के अनन्तर सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त और परिनिर्वृत होता है, सब दुःखों का अन्त करता है। भाष्य १. सूत्र ४१६ प्रस्तुत सूत्र में 'कांक्षाप्रदोष,' 'संवत' और 'बहु'-ये तीन शब्द विशेष चर्चनीय हैं। कांक्षा का अर्थ है-अयथार्थवादी दृष्टिकोण को अपनाने की इच्छा । कोई व्यक्ति दर्शनमोह की प्रचुरता के कारण मिथ्या दृष्टिवाला होता है, किन्तु उसी जन्म में वह संवृत अवस्था को प्राप्त हो सकता है और प्राप्त होकर मुक्त भी हो सकता है। मोह और कांक्षा इन शब्दों की तुलना के लिए अभिधर्म कोश द्रष्टव्य है।' कांक्षा की विशेष जानकारी के लिए देखें, भ.91११८,१४०,१६६,१७० का भाष्य। ___संवृत की विशेष जानकारी के लिए देखें, भ.१।४४-४७ का भाष्य। अंतकर और अंतिमशरीरी की विशेष जानकारी के लिए देखें, भ.१.२०१,२०८ का भाष्य । 'अगेहि'त्ति भोजनादिषु परिभोगकालेऽनासक्तिः, अप्रतिवद्धता-स्वजनादिषु से किं तं भावोमोदरिया ? भावोमोदरिया अणेगविहा पण्णता, तं जहास्नेहाभाव इत्येतत्पञ्चकमिति गम्यम् । श्रमणानां निर्ग्रन्थानां 'प्रशस्तं' सुन्दरम् अप्पकोहे, अप्पमाणे, अप्पमाए, अप्पलोभे, अप्पसद्दे, अप्पझंझे, अप्पतुमंतुमे । अथवा लाघविकं प्रशस्तं, कथम्भूतमित्याह—'अप्पिच्छा' अल्पेच्छारूपमित्यर्थः २. अभिधर्म कोश भाष्य,५।३२–मोहाकांक्षा— मूढस्य पक्षद्वयं श्रुत्वा विचिकिएवमितराण्यपि पदानि । सोत्पद्यते। दुखं विदं नत्विदं दुःखमित्येवमादि। १. भ.२५।५६५,५६८-से किं तं दव्योमोदरिया ? दव्योमोदरिया दुविहा पण्णता, ततो मिथ्यादृष्टिः-विचिकित्साया मिथ्यादृष्टिः प्रवर्तते। संशयितस्य तं जहा-उवगरणदव्योमोदरिया य भत्तपाणदव्योमोदरिया य ॥ मिथ्याश्रमणचित्तानां मिथ्यानिश्चयोत्पत्तेः। नास्ति दुःखमित्येवमादि । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १: उ.६ः सू.४२०, ४२१ इह-पर- भवियाउय-पदं इह-पर-भविकाः-पदम् ४२०. अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पण्णवेंति, एवं परूवेंति - एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो आउयाई पकरेति, तं जहा इहभवियाउयं च, परभवियाउयं च । अन्ययूथिकाः भदन्त ! एवमाख्यान्ति, एवं भाषन्ते, एवं प्रज्ञापयन्ति, एवं प्ररूपयन्तिएवं खलु एकः जीवः एकस्मिन् समये द्वे आयुषी प्रकरोति, तद् यथा — इहभविकायुः च, परभविकायुः च । जं समयं इहभवियाउयं पकरेति, तं समयं यस्मिन् समये इहभविकायुः प्रकरोति, तस्मिन् परभवियाउयं पकरेति । समये परभविकायुः प्रकरोति । जं समयं परभवियाउयं पकरेति, तं समयं यस्मिन् समये परभविकायुः प्रकरोति, तस्मिन् इहभवियाउयं पकरेति । समये इहभविकायुः प्रकरोति । १७८ इहभवियाउयस्स पकरणयाए परभवियाउयं इहभविकायुषः प्रकरणेन परभविकायुः प्रकपकरेति । रोति । परभवियाउयस्स पकरणयाए इहभवियाज्यं परभविकायुषः प्रकरणेन इहभविकायुः प्रकपकरेति । रोति । एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो आउयाई पकरेति, तं जहा — इहभवियाउयं च, परभवियाउयं च ॥ ४२१. से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा ! जण्णं ते अण्णउत्थिया एवमाइक्खंति जाव एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो आउयाई पकरेति, तं जहाइहभवियाज्यं च, परभवियाउयं च । जेते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु । अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि, एवं भासेमि, एवं पण्णवेमि, एवं परूवेमि — एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एगं आउयं पकरेति, तं जहा — इह भवियाज्यं वा, परभवियाउयं वा । एवं खलु एकः जीवः एकस्मिन् समये द्वे आयुषी प्रकरोति, तद् यथा — इहभविकायुः च परभविकाः च । तत् कथमेतत् भदन्त ! एवम् ? गौतम ! यत् ते अन्ययूथिकाः एवमाख्यान्ति यावद् एवं खलु एकः जीवः एकस्मिन् समये आयुषी प्रकरोति, तद्यथा — इहभविकायुः च, परभविकायुः च । ये एते एवमाहुः मिथ्या ते एवमाहुः । अहं पुनः गौतम ! एवमाख्यामि, एवं भाषे, एवं प्रज्ञापयामि, एवं प्ररूपयामि –एवं खलु एकः जीवः एकस्मिन् समये एकम् आयुः प्रकरोति, तद्यथा — इहभविकायुः वा, परभविकायुः वा । जं समयं इहभवियाउयं पकरेति णो तं यस्मिन् समये इहभविकायुः प्रकरोति, नो समयं परभवियाज्यं पकरेति । तस्मिन् समये परभविकायुः प्रकरोति । जं समयं परभवियाउयं पकरेति णो तं यस्मिन् समये परभविकायुः प्रकरोति, नो समयं इहभवियाउयं पकरेति । तस्मिन् समये इहभविकायुः प्रकरोति । इहभवियाउयस्स पकरणताए णो पर- इहभविकायुषः प्रकरणेन नो परभविकायुः भवियाउयं पकरेति । प्रकरोति । परभवियाउयस्स पकरणताए णो इह- परभविकायुषः प्रकरणेन नो इहभविकायुः भवियायं करेति । प्रकरोति । एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एगं आउयं पकरेति, तं जहा —— इहभवियाउयं वा, परभवियाउयं वा ॥ एवं खलु एकः जीवः एकस्मिन् समये एकम् आयुः प्रकरोति, तद् यथा - इहभविकायुः वा, परभविकायुः वा । भगवई इह-पर-भविक - आयु-पद ४२०. ' भन्ते ! अन्ययूथिक ऐसा आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन और प्ररूपण करते हैं—एक जीव एक समय में दो आयुष्य का बन्धन करता है, जैसे-इस भव के आयुष्य का और परभव के आयुष्य का । जिस समय वह इस भव के आयुष्य का बन्धन करता है, उसी समय परभव के आयुष्य का बन्धन करता है। जिस समय परभव के आयुष्य का बन्धन करता है, उसी समय इस भव के आयुष्य का बन्धन करता है। इस भव के आयुष्य का बन्धन करने से परभव के आयुष्य का बन्धन करता है । परभव के आयुष्य का बन्धन करने से इस भव के आयुष्य का बन्धन करता है। इस प्रकार एक जीव एक समय में दो आयुष्य का बन्धन करता है--- इस भव के आयुष्य का और परभव के आयुष्य का । ४२१. भन्ते ! वह यह इस प्रकार कैसे होता है ? गौतम ! वे अन्ययूथिक जो ऐसा आख्यान करते हैं यावत् एक जीव एक समय में दो आयुष्य का बन्धन करता है, जैसे—इस भव के आयुष्य का, परभव के आयुष्य का। ऐसा जिन्होंने कहा है, उन्होंने मिथ्या कहा है। गौतम ! मैं इस प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन और प्ररूपण करता हूँ — एक जीव एक समय में एक ही आयु का बन्धन करता है, जैसे—इस भव के आयुष्य का अथवा परभव के आयुष्य का। जिस समय वह इस भव के आयुष्य का बन्धन करता है, उसी समय परभव के आयुष्य का बन्धन नहीं करता । जिस समय परभव के आयुष्य का बन्धन करता है, उसी समय इस भव के आयुष्य का बन्धन नहीं करता । इस भव के आयुष्य का बन्धन करने से परभव के आयुष्य का बन्धन नहीं करता । परभव के आयुष्य का बन्धन करने से इस भव के आयुष्य का बन्धन नहीं करता। इस प्रकार एक जीव एक समय में एक ही आयुष्य का बन्धन करता है, जैसे—इस भव के आयुष्य का अथवा परभव के आयुष्य का। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १७६ १. सूत्र ४२०, ४२१ एक साथ दो आयुष्य के बंध की चर्चा बहुत प्राचीन प्रतीत होती है। एक जन्म में दो आयुष्य के प्रतिसंवेदन की चर्चा भी इसी से जुड़ी हुई है।' आजीवक दर्शन' और पातञ्जल योग भाष्य में इसके बीज खोजे जा सकते हैं। योगभाष्यकार ने कर्माशय को एकभविक बतलाया है । ' भाष्य 'इहभविक आयु' का अर्थ है - वर्तमान भव की आयु और 'परभविक आयु' का अर्थ है—उससे अगले भव की आयु । पूर्व पक्ष का सिद्धान्त है कि आयु का बंध अनेकभविक है । इहभव के आयुबंध के साथ परभव के आयु का भी बंध जाता है। भगवान् महावीर ने इस सिद्धान्त को अस्वीकार किया। उनके अनुसार आयुष्य एकभविक होता है। पूर्व जन्म में आयु का बंध कालासवेसियपुत्त-पदं ४२३. तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावचिजे कालासवेसियपुत्ते णामं अणगारे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते एवं वयासी ४२२. सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति भगवं गोयमे तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति भगवान् ४२२. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भंते! वह ऐसा ही है। जाव विहरति ॥ गौतमः यावद् विहरति । इस प्रकार भगवान् गौतम यावत् संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए विहरण कर रहे १. भ. ५।५७, ५८ । २. बही, १५ १०१ । ३. पा.यो.द.२।१३ – तत्रेदं विचार्यते—किमेकं कर्मैकस्य जन्मनः कारणम्, अथैकं कर्मानिकं जन्माक्षिपतीति । द्वितीया विचारणा-किमनेकं कर्मानेकं जन्म निर्वर्तयति, अथानेकं कर्मैकं जन्म निर्वर्तयतीति। न तावदेकं कर्मैकस्य जन्मनः कारणं, कस्मात् अनादिकालप्रचितस्यासंख्येयस्यावशिष्टकर्मणः साम्प्रतिकस्य च फलक्रमानियमादनाश्वासो लोकस्य प्रसक्तः, स चानिष्ट इति । न चैकं कर्माकस्य जन्मनः कारणं; कस्मात् अनेकेषु कर्मस्वेकैकमेव कर्मानेकस्य जन्मनः कारणमित्यवशिष्टस्य विपाककालाभावः प्रसक्तः, स चाप्यनिष्ट इति । न चानेकं कर्मानेकस्य जन्मनः कारणम्; कस्मात्, तदनेकं जन्म युगपन्न सम्भवतीतिक्रमेण वाच्यम् । ४. भ. वृ. १ । ४२१ – मिथ्यात्वं चास्यैवं -- एकेनाध्यवसायेन विरुद्धयोरायुषोर्बन्धायोगात् । ५. जीवा. ३ । २१०, २११ – अण्णउत्थिया णं भंते! एवमाइक्खति एवं भासेंति एवं पण्णवेंति एवं परूवेंति एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेति, तं जहा समत्तकिरियं च मिच्छत्तकिरियं च । जं समयं समत्तकिरियं पकरेति, तं समयं मिच्छत्तकिरियं पकरेति । होता है और वह केवल उत्तरवर्ती एक ही जन्म के आयुष्य का बंध होता है। श. १: उ. ६ः सू.४२०-४२३ वृत्तिकार ने एक साथ दो आयुष्य के बन्ध के विरोध में एक तर्क प्रस्तुत किया है— एक अध्यवसाय से दो विरोधी आयुष्यों का बंध नहीं हो सकता; इसलिए एक समय में एक आयुष्य का बंध ही संगत है। जीवाजीवामिगमे में अन्ययूथिकों द्वारा सम्मत द्वैक्रियवाद का उल्लेख मिलता है। उसके अनुसार एक व्यक्ति एक समय में सम्यक् और मिथ्या दोनों क्रियाएं करता है। उस सिद्धान्त के आधार पर एक साथ दो आयुष्य के बंध होने में विरोध नहीं आता । यह अनुमान करना अस्वाभाविक नहीं है कि एक साथ दो आयु-बंध की प्रतिपत्ति की पृष्ठभूमि में द्वैक्रियवाद का सिद्धान्त रहा हो। कालासवैश्यपुत्र-पदम् तस्मिन् काले तस्मिन् समये पाश्र्वापत्यीयः कालासवैश्यपुत्रः नाम अनगारः यत्रैव स्थविराः भगवन्तः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य स्थविरान् भगवतः एवमवादीत् कालासवैश्यपुत्र-पद ४२३. उस काल और उस समय भगवान् पावपत्यीय का परम्परित शिष्य वैश्यपुत्र कालास नामक अनगार जहां भगवान् स्थविर रहते थे, वहां आया। वहां आकर भगवान् स्थविरों से उसने इस प्रकार कहा जं समयं मिच्छत्तकिरियं करेति, तं समयं सम्मत्तकिरियं पकरेति । सम्मत्तकिरियापकरणताए मिच्छत्तकिरियं पकरेति । मिच्छत्तकिरियापकरणताए सम्मत्तकिरियं पकरेति । एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेति, तं जहा सम्मत्तकिरियं च मिच्छत्तकिरियं च । सेकहमेयं भंते! एवं ? गोयमा ! जण्णं ते अण्णुउत्थिया एवमाइक्खति एवं भासेति एवं पण्णवेति एवं परूवेंति — एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेति, तहेव जाव सम्मत्तकिरियं च मिच्छत्तकिरियं च । जेते एवमाहंसु, तं णं मिच्छा । अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि — एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एवं किरियं पकरेति, तं जहा --- सम्मत्तकिरियं वा मिच्छत्तकिरियं वा । जं समयं सम्मत्तकिरियं पकरेति णो तं समयं मिच्छत्तकिरियं पकरेति । जं समयं मिच्छत्तकिरियं पकरेति, नो तं समयं सम्मत्तकिरियं पकरेति । सम्मत्तकिरियापकरणाए नो मिच्छत्तकिरियं पकरेति । मिच्छत्तकिरियापकरणाए नो सम्मत्तकिरियं पकरेति । एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एवं किरियं पकरेति, तं जहा सम्मत्तकिरियं वा मिच्छत्तकिरियं वा । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.६: सू.४२३-४२६ १८० भगवई येरा सामाइयं न याणंति, थेरा सामाइयस्स स्थविराः सामायिकं न जानन्ति, स्थविराः स्थविर सामायिक को नहीं जानते, स्थविर अटुं न याणंति। सामायिकस्य अर्थ न जानन्ति । सामायिक का अर्थ नही जानते। येरा पचक्खाणं न याणंति, थेरा पच्च- स्थविराः प्रत्याख्यानं न जानन्ति, स्थविराः स्थविर प्रत्याख्यान को नहीं जानते, स्थविर खाणस्स अटुं न याणंति। प्रत्याख्यानस्य अर्थं न जानन्ति। प्रत्याख्यान का अर्थ नहीं जानते। येरा संजमं न याणंति, थेरा संजमस्स अट्ठ स्थविराः संयमं न जानन्ति, स्थविराः संयमस्य स्थविर संयम को नहीं जानते, स्थविर संयम का नयाणति। अर्थं न जानन्ति । अर्थ नहीं जानते। येरा संवरं न याणंति, येरा संवरस्स अटुं न स्थविराः संवरं न जानन्ति, स्थविराः संवरस्य । स्थविर संवर को नहीं जानते, स्थविर संवर का याणंति। अर्थं न जानन्ति। अर्थ नहीं जानते। येरा विवेगं न याणंति, थेरा विवेगस्स अटुं स्थविराः विवेकं न जानन्ति, स्थविराः विवे- स्थिवर विवेक को नहीं जानते, स्थविर विवेक न याणंति। कस्य अर्थं न जानन्ति। का अर्थ नहीं जानते। येरा विउस्सग्गं न याणंति, थेरा विउ- स्थविराः व्युत्सर्गं न जानन्ति, स्थविराः व्युत्स- स्थविर व्युत्सर्ग को नहीं जानते, स्थविर व्युत्सर्ग स्सग्गस्स अटुं न याणंति॥ गस्य अर्थं न जानन्ति। का अर्थ नहीं जानते। ४२४. तए णं थेरा भगवंतो कालासवेसियपुत्तं ततः स्थविराः भगवन्तः कालासवैश्यपुत्रम् ४२४. उस समय भगवान् स्थविरों ने वैश्यपुत्र अणगारं एवं वदासीअनगारं एवमवादिषुः-- कालास अनगार से इस प्रकार कहाजाणामो णं अजो ! सामाइयं, जाणामोणं जानीमः आर्य ! सामायिक, जानीमः आर्य! आर्य ! हम सामायिक को जानते हैं, आर्य ! हम अजो ! सामाइयस्स अटुं। सामायिकस्य अर्थम् । सामायिक का अर्थ जानते हैं। जाणामो णं अज्जो ! पचक्खाणं, जाणामो जानीमः आर्य ! प्रत्याख्यानं, जानीमः आर्य! आर्य | हम प्रत्याख्यान को जानते हैं, आर्य ! हम णं अजो ! पञ्चक्खाणस्स अट्ठ। प्रत्याख्यानस्य अर्थम् । प्रत्याख्यान का अर्थ जानते हैं। जाणामो णं अजो! सजमं, जाणामो णं जानीमः आर्य! संयम, जानीमः आर्य ! संयम- आर्य ! हम संयम को जानते हैं, आर्य ! हम संयम अजो! संजमस्स अळं। स्य अर्थम् । का अर्थ जानते हैं। जाणामो णं अजो ! संवर, जाणामो णं जानीमः आर्य ! संवर, जानीमः आर्य ! संव- आर्य ! हम संवर को जानते हैं, आर्य ! हम संवर अजो! संवरस्स अटूठं। रस्य अर्थम्। का अर्थ जानते हैं। जाणामो णं अजो ! विवेगं, जाणामो णं जानीमः आर्य ! विवेकं, जानीमः आर्य ! आर्य ! हम विवेक को जानते हैं, आर्य ! हम अजो ! विवेगस्स अट्ठ। विवेकस्य अर्थम् । विवेक का अर्थ जानते हैं। जाणामो णं अजो ! विउस्सग्गं, जाणामो जानीमः आर्य ! व्युत्सर्ग, जानीमः आर्य ! आर्य ! हम व्युत्सर्ग को जानते हैं, आर्य ! हम णं अजो ! विउस्सग्गस्स अट्ठं ॥ व्युत्सर्गस्य अर्थम् । व्युत्सर्ग का अर्थ जानते हैं। ४२५. तते णं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे ततः स कालासवैश्यपुत्रः अनगारः तान् स्थ- ४२५. तब वैश्यपुत्र कालास अनगार ने उन भगवान् ते थेरे भगवंते एवं वयासी-जइणं अजो! विरान् भगवतः एवमवादीत-यदि आर्य! स्थविरों से इस प्रकार कहा-आर्य ! यदि आप तुम्भे जाणह सामाइयं, तुब्भे जाणह सामा- यूयं जानीथ सामायिकं, यूयं जानीथ सामा- सामायिक को जानते हैं, सामायिक का अर्थ जानते इयस्स अटूट जाव जइ णं अजो ! तुन्भे यिकस्य अर्थ यावद् यदि आर्य ! यूयं जानीथ हैं यावत् आर्य ! यदि आप व्युत्सर्ग को जानते जाणह विउस्सग्गं, तुब्भे जाणह विउ- व्युत्सर्ग, यूयं जानीथ व्युत्सर्गस्य अर्थ, किं हैं, व्युत्सर्ग का अर्थ जानते हैं, तो आर्य ! आपका स्सग्गस्स अटुं । के भे अजो ! सामाइए? युष्माकम् आर्य ! सामायिकम् ? कः युष्माकम् सामायिक क्या है ? आर्य ! आपके सामायिक के मे अजो ! सामाइयस्स अट्टे ? जाव आर्य ! सामायिकस्य अर्थः ? यावत् कः का अर्थ क्या है ? यावत् आर्य ! आपका व्युत्सर्ग के मे अजो ! विउस्सग्गे ? के मे अजो! युष्माकम् आर्य ! व्युत्सर्गः ? कः युष्माकम् क्या है ? आर्य ! आपके व्युत्सर्ग का अर्थ क्या विउस्सग्गस्स अट्ठे ? आर्य ! व्युत्सर्गस्य अर्थः ? ४२६. तए णं थेरा भगवंतो कालासवेसियपुत्तं अणगारं एवं वयासीआया णे अजो ! सामाइए, आया णे अजो! सामाइयस्स अटे। आया णे अजो ! पचक्खाणे, आया णे अजो ! पचक्खाणस्स अट्टे । आया णे अजो! संजमे, आया णे अजो ततः स्थविराः भगवन्तः कालासवैश्यपुत्रम् ४२६. तब भगवान् स्थविरों ने वैश्यपुत्र कालास अनगारम् एवमवादिषुः अनगार से इस प्रकार कहाआत्मा नः आर्य ! सामायिकम्, आत्मा नः आर्य ! आत्मा हमारा सामायिक है, आर्य ! आमा आर्य ! सामायिकस्य अर्थः। हमारे सामायिक का अर्थ है। आत्मा नः आर्य ! प्रत्याख्यानम्, आत्मा नः आर्य ! आत्मा हमारा प्रत्याख्यान है, आर्य ! आमा आर्य ! प्रत्याख्यानस्य अर्थः। हमारे प्रत्याख्यान का अर्थ है। आत्मा नः आर्य ! संयमः, आमा नः आर्य! आर्य ! आत्मा हमारा सयम है, आत्मा हमारे संयम Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १८१ श.१: उ.६: सू.४२६-४३० संजमस्स अटे। आया णे अजो ! संवरे, आया णे अजो! संवरस्स अटे। आया णे अजो ! विवेगे, आया णे अजो! विवेगस्स अटे। आया णे अजो ! विउस्सग्गे, आया णे अजो ! विउस्सग्गस्स अटे॥ संयमस्य अर्थः। आत्मा नः आर्य ! संवरः, आत्मा नः आर्य! संवरस्य अर्थः। आत्मा नः आर्य! विवेकः, आत्मा नः आर्य! विवेकस्य अर्थः। आत्मा नः आर्य ! व्युत्सर्गः, आत्मा नः आर्य! व्युत्सर्गस्य अर्थः। का अर्थ है। आर्य ! आत्मा हमारा संवर है, आर्य ! आत्मा हमारे संवर का अर्थ है। आर्य ! आत्मा हमारा विवेक है, आर्य ! आत्मा हमारे विवेक का अर्थ है। आर्य ! आत्मा हमारा व्युत्सर्ग है, आर्य ! आत्मा हमारे व्युत्सर्ग का अर्थ है। ४२७. तए णं कालासवेसियपुत्ते अणगारे थेरे ततः स कालासवैश्यपुत्रः अनगारः स्थविरान् ४२७. तब वैश्यपुत्र कालास अनगार ने भगवान् भगवंते एवं वदासी-जइ मे अजो ! आया भगवतः एवमवादीत् यदि युष्माकम्, स्थविरों से इस प्रकार कहा-आर्य ! यदि आत्मा सामाइए, आया सामाइयस्स अट्टे जाव आर्य! आत्मा सामायिकम्, आत्मा सामा- सामायिक है, आत्मा आपके सामायिक का अर्थ आया विउस्सग्गस्स अटे-अवहटु कोह- यिकस्य अर्थः यावद् आमा ब्युत्सर्गस्य है यावत् आर्य ! आत्मा आपका व्युत्सर्ग है, आत्मा -माण-माया-लोभे किमटुं अज्जो ! गरहह ? अर्थ:-अपहृत्य क्रोध-मान-माया-लोभान् आपके व्युत्सर्ग का अर्थ है, तो क्रोध, मान, माया किमर्थम् आर्य ! गर्हध्ये ? और लोभ का परित्याग कर आर्य ! आप किसलिए गर्दा करते हैं ? कालासा! संजमट्टयाए। कालास ! संयमार्थम्। कालास ! हम संयम के लिए गर्दा करते हैं। ४२८. से भंते ! किं गरहा संजमे ? अगरहा अथ भदन्त ! किं गर्दा संयमः ? अगर्दा ४२८. भन्ते ! क्या गर्दा संयम है ? अगर्दा संयम संजमे ? संयमः? कालासा ! गरहा संजमे, णो अगरहा। कालास ! गर्दा संयमः, नो अगर्दा संयमः। कालास ! गर्दा संयम है, अगर्दा संयम नहीं है। संजमे । गरहा वि यणं सबं दोसं पविणेति, गर्दा अपि च सर्वं दोषं प्रविनयति, सर्वं बाल्यं गर्हा सर्व बाल-भाव का परिज्ञा के द्वारा प्रत्याख्यान सव्वं बालियं परिणाए। एवं खुणे आया परिज्ञाय । एवं खलु नः आत्मा संयमे उपहितो कर सब दोषों का अपनयन करती है। इस प्रकार संजमे उवहिते भवति । एवं खुणे आया भवति । एवं खलु नः आत्मा संयमे उपचितो हमारा आत्मा संयम में उपहित होता है, इस प्रकार संजमे उवचिए भवति । एवं खुणे आया भवति । एवं खलु नः आत्ला संयमे उपस्थितो हमारा आत्मा संयम में उपचित होता है, इस प्रकार संजमे उवद्विते भवति॥ भवति। हमारा आत्मा संयम में उपस्थित होता है। ४२६. एत्थ णं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे अत्र स कालासवैश्यपुत्रः अनगारः संबुद्धः ४२६. इ। बिन्दु पर वह वैश्यपुत्र कालास अनगार संबुद्धे थेरे भगवंते वंदति नमसति, वंदित्ता स्थविरान् भगवतः वन्दते नमस्यति, वन्दित्वासंबुद्ध होकर भगवान् स्थविरों को वंदन-नमस्कार नमंसित्ता एवं वयासी-एएसि णं भंते ! नमस्थित्वा एवमवादीत्-एतेषां भदन्त ! करता है, वन्दन-नमस्कार कर उसने इस प्रकार पयाणं पुदि अण्णाणयाए असवणयाए पदानां पूर्वम् अज्ञानतया अश्रवणतया कहा-भन्ते ! पहले मैंने अज्ञान, अश्रवण, अबोहीए अणभिगमेणं अदिवाणं अस्सुयाणं अबोध्या अनभिगमेन अदृष्टानाम् अश्रुतानाम् अबोधि और अनभिगम के कारण अदृष्ट, अश्रुत, अमुयाणं अविण्णायाणं अब्बोकडाणं अबो- अस्मृतानाम् अविज्ञातानाम् अव्याकृतानाम् अस्मृत, अविज्ञात, अव्याकृत, अव्यवच्छिन्न, छिण्णाणं अणिज्जूढाणं अणुवधारियाणं अव्यवच्छिन्नानाम् अनियूंढानाम् अनुपधारि- अनियूढ और अनुपधारित इन पदों के इस अर्थ एयमद्वे नो सद्दहिए नो पत्तिइए नो रोइए। तानाम् अयमर्थः नो द्धितः नो प्रत्ययितः नो पर श्रद्धा नहीं की, प्रतीति नहीं की, रुचि नहीं रोचितः। की। इदाणिं भंते ! एतेसि पयाणं जाणयाए इदानीं भदन्त ! एतेषां पदानां ज्ञानतया भन्ते ! अब ज्ञान, श्रवण, बोधि और अभिगम सवणयाए बोहीए अभिगमेणं दिवाणं श्रवणतया बोध्या अभिगमेन दृष्टानां श्रुतानां के द्वारा दृष्ट, श्रुत, स्मृत, विज्ञात, व्याकृत, व्यवसुयाणं मुयाणं विण्णायाणं वोगडाणं स्मृतानां विज्ञातानां व्याकृतानां व्यवच्छिन्नानां च्छिन्न, नियूंढ और उपधारित-इन पदों के इस वोच्छिण्णाणं णिजूढाणं उवधारियाणं निर्मूढानाम् उपधारितानाम् अयमर्थः श्रद्दधामि अर्थ पर मैं श्रद्धा करता हूं, प्रतीति करता हूं, एयमठं सद्दहामि पत्तियामि रोएमि। प्रत्येमि रोचयामि । एवमेतत् तत् यथैतद् यूयं रुचि करता हूं । यह वैसा ही है जैसा आप कह एवमेयं से जहेयं तुब्मे वदह ।। वदथ। ४३०. तए णं ते थेरा भगवंतो काला- सवेसियपुत्तं अणगारं एवं वयासी-सद्दहाहि अजो ! पत्तियाहि अजो! रोएहि ततः ते स्थविराः भगवन्तः कालासवैश्यपुत्रम् ४३०. भगवान् स्थविरों ने वैश्यपुत्र कालास अनगार अनगारम् एवमवादिषुः-श्रद्धेहि आर्य ! से इस प्रकार कहा-हम जिस प्रकार यह कह प्रतीहि आर्य ! रोचय आर्य ! तद् यथैतद् रहे हैं उस पर आर्य ! श्रद्धा करो, आर्य ! प्रतीति Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १: उ.६ः सू.४२३-४३३ अजो ! से जहेयं अम्हे बदामो ॥ ४३१. तए णं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे येरे भगवंते वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासी— इच्छामि णं भंते ! तुब्भं अंतिए चाउज्जामाओ धम्माओ पंचमहव्वइयं सपडिक्कमणं धम्मं उवसंपजित्ता णं विहरित्तए । अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं ॥ ४३२. तए णं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे थेरे भगवंते बंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता चाउज्जामाओ धम्माओ पंचमहव्वइयं सपडिकमणं धम्मं उवसंपजित्ता णं विहरति ॥ ४३३. तए णं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउण, पाउणित्ता जस्सट्ठाए कीरइ नग्गभावे मुंडभावे अण्हाणयं अदंतवणयं अच्छत्तयं अणोवाहणयं भूमिसेज्जा फलसेज्जा कट्ठसेजा सलोओ बंभचेरवासो परघरप्पवेसो लद्धावलद्धी उच्चावया गामकंटगा बावीसं परिसहोवसग्गा अहियासिज्जंति, तमट्ठ आराहेइ, आराहेत्ता चरमेहिं उस्सास- नीसासेहिं सिद्धे बुद्धे मुके परिनिबुडे सब्चदुक्खप्पहीणे ॥ सो चेव पज्जवट्ठियनयस्स जीवस्स एस गुणो ॥ १८२ वयं वदामः । ततः सः कालासवैश्यपुत्र अनगारः स्थविरान् भगवतो वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत् इच्छामि भदन्त ! युष्माकम् अन्तिके चतुर्यामाद् धर्मात् पञ्चमहाव्रतिकं सप्रतिक्रमणं धर्मम् उपसंपद्य विहर्तुम् । यथासुखं देवानुप्रिय ! मा प्रतिबन्धम् । ततः स कालासवैश्यपुत्रः अनगारः स्थविरान् भगवतः वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा चतुर्यामाद् धर्मात् पञ्चमहाव्रतिकं सप्रतिक्रमणं धर्मम् उपसंपद्य विहरति । गुण पवित्र, नयस्स दव्वट्ठियस्स सामाइयं । ततः स कालासवैश्यपुत्रः अनगारः बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं प्राप्नोति प्राप्य यस्यार्थाय क्रियते ननभावः मुण्डभावः अस्त्रानकम् 'अदंतवणयं ' अच्छत्रकम् अनुपानत्कं भूमिशय्या फलशय्या काष्ठशय्या केशलोचः ब्रह्मचर्यवासः परघरप्रवेशः लब्धापलब्धी उच्चाबचाः ग्रामकण्टकाः द्वाविंशतिः परिषहोपसर्गाः अध्यास्यते, तमर्थम् आराधयति, आराध्य चरमेषु उच्छ्वास- निःश्वासेषुः सिद्धः 'बुद्धे' मुक्तः परिनिर्वृत्तः सर्वदुःखप्रहीणः । १. सूत्र ४२३- ४३३ प्रस्तुत प्रकरण में छह पद विशेष विमर्श-योग्य हैं - १. सामा यिक २. प्रत्याख्यान ३. संयम ४ संवर ५. विवेक ६. व्युत्सर्ग। प्रतीत होता है कि भगवान् पार्श्व की परम्परा में ये पद प्रचलित थे । पावपत्यीय कालास अनगार ने सोचा- स्थविर इन पदों का अर्थ नहीं जानते; इसलिए उसने आवेशपूर्ण भाषा में कह दिया— स्थविरो! आप इन पदों का अर्थ नहीं जानते । स्थविरों ने सहज शांत भाव से कहा- हम इनका अर्थ जानते हैं। तब अनगार कालास ने जिज्ञासा के स्वर में उनका अर्थ पूछा और स्थविरों ने उनका उत्तर दिया । १. वि.भा.गा. २६४३ भाष्य भगवई करो, आर्य ! रुचि करो । ४३१. अब वह वैश्यपुत्र कालास अनगार भगवान् स्थविरों को वन्दन - नमस्कार करता है, वन्दननमस्कार कर उसने इस प्रकार कहा—भन्ते ! मैं आपके पास चतुर्याम धर्म से (मुक्त होकर) सप्रतिक्रमण पञ्चमहाव्रतात्मक धर्म को स्वीकार कर विहार करना चाहता हूं। देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख हो । प्रतिबंध मत करो । ४३२. वैश्यपुत्र कालास अनगार भगवान् स्थविरों को वन्दन - नमस्कार करता है, वन्दन - नमस्कार कर चतुर्याम धर्म से (मुक्त होकर) सप्रतिक्रमण पञ्चमहाव्रतात्मक धर्म को स्वीकार कर विहार करता है । ४३३. वह वैश्यपुत्र कालास अनगार बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय का पालन करता है, पालन कर जिस प्रयोजन से नग्नभाव, मुण्डभाव, स्नान न करना, दतीन न करना, छत्र धारण न करना, पादुका न पहनना, भूमि- शय्या, फलक-शय्या, काष्ठ- शय्या, केश-लोच, ब्रह्मचर्यवास, भिक्षा के लिए गृहस्थों के घर प्रवेश करना, लाभ-अलाभ, उच्चावच, ग्राम- कण्टक, बाईस परीषहों और उपसर्गों को सहन किया जाता है, उस प्रयोजन की आराधना करता है, उसकी आराधना कर चरम उच्छ्वास- निःश्वास में सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त, परिनिर्वृत्त और सब दुःखों को क्षीण करने वाला हो जाता है। इन सभी पदों का एक ही उत्तर है--आमा सामायिक है और आत्मा ही सामायिक का अर्थ है—यह उत्तर निश्चय नय का उत्तर है। भगवान् महावीर ने द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक अथवा निश्चय और व्यवहार — इन दो नयों से सत्य की प्रज्ञप्ति की थी । द्रव्यार्थिक अथवा निश्चय नय अभेद-प्रधान होता है। पर्यायार्थिक अथवा व्यवहार नय भेद-प्रधान होता है । द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से सामायिक आत्मा है और पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से सामायिक आला का गुण है ।' जिनभद्र क्षमाश्रमण का यह अभिमत है। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १८३ आचार्य कुन्दकुन्द ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि तत्त्वों का व्यवहार और निश्चय दोनों नयों से निरूपण किया है। व्यवहार नय के अनुसार आयारो आदि द्वादशांग श्रुतज्ञान हैं, जीव आदि नव तत्त्वों की श्रद्धा दर्शन है, षड्जीवनिकाय की हिंसा का परिहार चारित्र है । निश्चय नय के अनुसार आत्मा ज्ञान है, आत्मा दर्शन है, आत्मा चारित्र है, आत्मा प्रत्याख्यान है और आत्मा ही संवर योग है। स्थविरों के द्वारा द्रव्यार्थिक नय का निरूपण सुनकर कालास अनगार ने जिज्ञासा की — “यदि आत्मा ही सामायिक यावत् व्युत्सर्ग है तो आपने क्रोध आदि कषाय का व्युत्सर्ग कर दिया, फिर गर्हा क्यों करते हैं ?" स्थविरों ने कहा - "हम संयम के लिए गर्हा का प्रयोग करते हैं।" इस उत्तर से यह फलित होता है कि जहां गुणप्रतिपन्न आत्मा की विवक्षा है वहां आत्मा ही सामायिक है। किन्तु जहां गुण की विवक्षा है, वहां सामायिक का अर्थ है - सावद्य योग की विरति । प्रत्याख्यान का अर्थ है-अनागत सावद्य योग का परित्याग। संयम का अर्थ है-इन्द्रिय और मन का निग्रह। संवर का अर्थ है-अव्रत आदि का निरोध । विवेक का अर्थ है-क्रोध आदि कषाय का पृथक्करण । व्युत्सर्ग का अर्थ है— क्रोध आदि कषाय विमुक्ति । ग के द्वारा संयम की पुष्टि होती है। जब सामायिक आदि आत्मगत या परिपक्क हो जाते हैं, उस अवस्था में आत्मा ही सामायिक है, ऐसा कहा जा सकता है, किन्तु जिस अवस्था में सामायिक आदि का अभ्यास अपरिपक्व अवस्था में है, उस स्थिति में ग के द्वारा उनके अभ्यास को परिपक्क किया जाना आवश्यक है । शरीर के द्वारा पापकर्म का आचरण न करना गर्हा का एक प्रकार है । प्रत्याख्यान का भी यही प्रकार है। ठाणं के इस सिद्धान्त से यह सिद्ध होता है कि गर्दा संयम की साधना का एक महत्त्वपूर्ण अंग है । इसलिए गर्हा के द्वारा संयम उपहित, उपचित और उपस्थित होता है। शब्द-विमर्श स्थविर—स्थविर का अर्थ है-वृद्ध । ठाणं में दस प्रकार के स्थविर निर्दिष्ट हैं - ग्रामस्थविर, नगरस्थविर, राष्ट्रस्थविर, प्रशास्ता - स्थविर - प्रशासक - ज्येष्ठ, कुलस्थविर, गणस्थविर, संघस्थविर, जाति १. समयसार, गा. २७६, २७७ आयारादी गाणं, जीवादी दंसणं च विण्णेयं । छज्जीवणिकं च तहा, भणदि चरितं तु ववहारो ॥ आदा खु मज्झणा आदा मे दंसणं चरितं च । आदा पचक्खाणं, आदा मे संवरो जोगो ॥ २. ठाणं, २।२४४ और उसका टिप्पण। ३. (क) वही, ३ । २६, २७ तिविहा गरहा पण्णत्ता, तं जहा - मणसा वेगे गरहति, वयसा वेगे गरहति, कायसा वेगे गरहति — पावाणं कम्माणं अकरणयाए । अहवा गरहा तिविहा पण्णत्ता, तं जहादीहं पेगे अद्धं गरहति, रहस्सं पेगे अद्धं गरहति, कार्य पेगे पडिसाहरति--पावाणं कम्माणं अकरणयाए । तिविहे पचक्खाणे पण्णत्ते, तं जहा —मणसा वेगे पञ्चक्खाति, वयसा वेगे पच्चक्खाति, कायसा वेगे पच्चक्खाति-पावाणं कम्माणं अकरणयाए। अहवा पच्चक्खाणे तिविहे पण्णत्ते, तं जहादीहं पेगे अद्धं पञ्चक्खाति, रहस्सं पेगे अद्धं श. १: उ. ६ः सू.४२३-४३३ स्थविर, श्रुतस्थविर, पर्यायस्थविर । ' x अभयदेवसूरि ने यहां स्थविर का अर्थ 'श्रुतवृद्ध' किया है। वहारो तथा ठाणं में ठाणं और समवाओ – इन दो आगमों को धारण करने वाले को 'श्रुतस्थविर' कहा गया है।' ओवाइयं के अनुसार स्थविर द्वादशांगधर होता है। वहां स्थविर का विशेष विवरण उपलब्ध बाल्य - मिध्यात्व और अविरति । ' उपहित — सन्निहित प्राप्त । उपस्थित चिरस्थायी | अज्ञान—प्रस्तुत विषय के स्वरूप की जानकारी का अभाव । अबोधि – सम्यक ज्ञान की अनुपलब्धि अथवा सहज ज्ञान का अभाव । अनभिगम—— विस्तृत बोध का अभाव । अदृष्ट — अप्रत्यक्षीकृत | अव्याकृत-अव्याख्यात, गुरु के द्वारा व्याख्यात्मक रूप में अप्राप्त । अव्यवच्छिन्न — जिसका लक्षण या विश्लेषण ज्ञात न हो । अनिर्वृढ — जिसका सार-संक्षेप उद्धृत न किया गया हो । अनुपधारित — जो धारण न किया गया हो, जिसका चिन्तन न किया गया हो। प्रतिक्रमण - आवश्यक का एक अंग, चौथा आवश्यक, अतीत का प्रतिक्रमण | फलक शय्या - लम्बा और सपाट किए हुए फलक की शय्या | काष्ठशय्या-असंस्कृत काष्ठ की शय्या । ब्रह्मचर्यवास देखें भ. १ | २००-२१० का भाष्य । लब्धापलब्धी —- लाभ और अलाभ अथवा अपूर्ण लाभ | उच्चावच असंतुलित । ग्रामकण्टक—कांटे के समान चुभने वाले इन्द्रिय-विषय | विशेष जानकारी के लिए देखें दसवे. १०/११ का टिप्पण । परीषह साधनाकाल में आने वाले कष्ट । उपसर्ग - मनुष्य, पशु आदि द्वारा किया जाने वाला उपद्रव । पञ्चक्खाति, कार्य पेगे पडिसाहरति- पावाणं कम्माणं अकरणयाए । (ख) वही, ४ । २६४ - - चउव्विहा गरहा पण्णत्ता, तं जहा - उवसंपज्जामित्तेगा गरहा, वितिगिच्छामित्तेगा गरहा, जं किंचिमिच्छामित्तेगा गरहा, एवं पि पण्णतेगा गरहा। ४. ठाणं, १०।१३६ । ५. भ. वृ. १ | ४३३ – 'थेरे 'त्ति श्रीमन्महावीरजिनशिष्याः श्रुतवृद्धाः । ६. (क) वबहारो, १० | १६ तओ थेरभूमीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - जातिथेरे सुयथेरे परियायथेरे। सट्टिवास जाए समणे निग्गंथे जातिथेरे, ठाणसमवायधरे समणे निग्गंथे सुयथेरे, वीसवासपरियाए समणे निग्गंथे परियायथेरे । (ख) ठाणं, ३।१८७। ७. ओवा. सू. २५,२६ । ८. भ. वृ. १/४२८ -- बाल्यं-वालतां मिथ्यात्वमविरतिं च । ६. ठाणं ४ । ५६७-६०१ । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.६:४२३-४३७ १८४ भगवई अपचक्खाणकिरिया-पदं ४३४. भंते ! ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासी–से नूणं भंते ! सेडियस्स य तणुयस्स य किवणस्स य खत्तियस्स य समा चेव अपचक्खाणकिरिया कजइ ? हंता गोयमा ! सेट्ठियस्स य तणुयस्स य किवणस्स य खत्तियस्स य समा चेव अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ॥ अप्रत्याख्यानक्रिया-पदम् अप्रत्याख्यानक्रिया-पद भदन्त ! अयि ! भगवान् गौतमः श्रमणं भग- ४३४. भन्ते ! इस सम्बोधन के साथ भगवान् गौतम वन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नम- श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करते स्थित्वा एवमवादीत् अथ नूनं भदन्त ! हैं। वन्दन-नमस्कार कर उन्होंने इस प्रकार कहा श्रेष्ठिकस्य च तनुकस्य च कृपणस्य च क्षत्रिय- –भन्ते ! श्रेष्ठी, निर्धन, रंक और राजा के क्या स्य च समा चैव अप्रत्याख्यानक्रिया क्रियते? अप्रत्याख्यानक्रिया समान होती है ? हन्त गौतम ! श्रेष्ठिकस्य च तनुकस्य च कृपण- हां, गौतम ! श्रेष्ठी, निर्धन, रंक और राजा के स्य च क्षत्रियस्य च समा चैव अप्रत्याख्यान- अप्रत्याख्यानक्रिया समान होती है। क्रिया क्रियते। ४३५. से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ-सेटि- यस्स य तणुयस्स य किवणस्स य खत्तियस्स य समा चेव अपचक्खाणकिरिया कज्जइ? गोयमा ! अविरतिं पुडुच्च। से तेणटेणं गोयमा ! एवं बुचइ–सेट्ठियस्स य तणु- यस्स य किवणस्स य खत्तियरस य समा चेव अपचक्खाणकिरिया कज्जइ। तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते--श्रेष्ठिकस्य ४३५. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है च तनुकस्य च कृपणस्य च क्षत्रियस्य च समा –श्रेष्टी, निर्धन, रंक और राजा के अप्रत्याख्यानचैव अप्रत्याख्यानक्रिया क्रियते ? क्रि या समान होती है ? गौतम ! अविरतिं प्रतीत्य । तत् तेनार्थेन गौतम ! अविरति की अपेक्षा से। गौतम ! इस गौतम ! एवमुच्यते-श्रेष्ठिकस्य च तनुकस्य । अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-श्रेष्ठी, निर्धन, च कृपणस्य च क्षत्रियस्य च समा चैव रंक और राजा के अप्रत्याख्यानक्रिया समान होती अप्रत्याख्यानक्रिया क्रियते । आहाकम्म-पदं आधाकर्म-पदम् आधाकर्म-पद ४३६. आहाकम्मं णं भुजमाणे समणे निग्गंथे आधाकर्म भुजानः श्रमणः निर्गन्थः किं ४३६.'आधाकर्म भोजन करता हुआ श्रमण निग्रन्थ किं बंधइ ? किं पकरेइ ? किं चिणाइ ? बध्नाति ? किं प्रकरोति ? किं चिनोते ? क्या बांधता है ? क्या करता है ? क्या चय किं उवचिणाइ ? किम् उपचिनोते ? करता है ? क्या उपचय करता है ? गोयमा ! आहाकम्मं णं भुंजमाणे आउय- गौतम ! आधाकर्म भुजानः आयुर्वर्जाः सप्त गौतम ! आधाकर्म भोजन करता हुआ श्रमण वजाओ सत्त कम्मप्पगडीओ सिढिलबंधण- कर्मप्रकृतीः शिथिलबन्धनबद्धाः 'धणिय'- निर्ग्रन्थ आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों बद्धाओ धणियबंधणबद्धाओ पकरेइ, हस्स- बन्धनबद्धाः प्रकरोति, ह्रस्वकालस्थितिकाः की शिथिल बन्धनबद्ध प्रकृतियों को गाढ़ कालठिइयाओ दीहकालठिइयाओ पकरेइ, दीर्घकालस्थितिकाः प्रकरोति, मंदानुभावाः बंधनबद्ध करता है, अल्पकालिक स्थिति वाली मंदाणुभावाओ तिव्वाणुभावाओ पकरेइ, तीव्रानुभावाः प्रकरोति, अल्पप्रदेशाग्राः बहु- प्रकृतियों को दीर्घकालिक स्थिति वाली करता है, अप्पएसग्गाओ बहुप्पएसग्गाओ पकरेइ, प्रदेशाग्राः प्रकरोति, आयुः च कर्म स्याद् मन्द अनुभाव वाली प्रकृतियों को तीव्र अनुभाव आउयं च णं कम्मं सिय बंधइ, सिय नो बनाति, स्थान् नो बध्नाति, असातवेदनीयं बाली करता है, अल्प प्रदेश परिमाण वाली बंधइ, अस्सायावेयणिज्जं च णं कम्मं कर्म भूयो भूयः उपचिनुते, अनादिकम् 'अण- प्रकृतियों को बहुप्रदेश-परिमाण वाली करता है; भुजो-भुजो उवचिणाइ, अणाइयं च णं बदग्गं' दीर्घाध्वानं चतुरन्तं संसारकान्तारम् आयुष्य कर्म का वन्ध कदाचित् करता है और अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतं संसारकंतारं अनुपरिवर्तते । कदाचित् नहीं करता, वह असातवेदनीय कर्म का अणुपरियट्टइ॥ बहुत-बहुत उपचय करता है और आदि-अन्तहीन दीर्घ पथ वाले चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार में अनुपरिवर्तन करता है। ४३७. से केणटेणं भंते ! एवं बुचइ-आहा- कम्मंणं भुंजमाणे आउयवजाओ सत्तकम्म- प्पगडीओ सिढिलबंधणबद्धाओ धणियबंधणबद्धाओ पकरेइ जाव चाउरतं संसारकतारं अणुपरियट्टइ ? ४३७. तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते- ४३७, भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा आधाकर्म भुजानः आयुर्वर्जाः सप्त कर्म- है—आधाकर्म भोजन करता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ प्रकृतीः शिथिलबन्धनबद्धाः 'धणिय'बन्धन- आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की बद्धाः प्रकरोति यावच् चतुरन्तं संसारकान्तारं । शिथिल बन्धनबद्ध प्रकृतियों को गाढ़ बंधनबद्ध अनुपरिवर्तते ? करता है यावत् चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार में अनुपरिवर्तन करता है? Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १८५ श.१: उ.६: सू.४३६,४३७ गोयमा ! आहाकम्मं णं भुंजमाणे आयाए गौतम ! आधाकर्म भुञ्जानः आत्मना धर्मम् 'धम्म अइक्कमइ, आयाए धम्म अइक्कममाणे अतिक्रामति, आत्मना धर्मम् अतिक्रामन् पुढविकायं णावकंखइ, आउकायं णाव- पृथ्वीकायं नावकांक्षति, अप्कायं नावकांक्षति, कंखइ, तेउकायं णावकंखइ, वाउकायं तेजस्कायं नावकांक्षति, वायुकायं नाव- णावकंखइ, वणस्सइकायं णावकंखइ, कांक्षति, वनस्पतिकायं नावकांक्षति, त्रसकायं तसकायं णावकंखइ, जेसि पि यणं जीवाणं नायकांक्षति, येषामपि च जीवानां शरीराणि सरीराइं आहारमाहारेइ ते वि जीवे आहारम् आहरति, तानपि जीवान् नाव- णावकंखइ। से तेणगुणं गोयमा ! एवं कांक्षति । तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते- बुचइ-आहाकम् णं मुंजमाणे आउय- आधाकर्म भुजानः आयुर्वर्जाः सप्त कर्मबजाओ सत्त कम्मपगडीओ सिढिल- प्रकृतीः शिथिलबन्धनबद्धाः 'धणिय'बन्धबंधणबद्धाओ धणियबंधणबद्धाओ पकरेइ नबद्धाः प्रकरोति यावच् चतुरन्तं संसारजाव चाउरंतं संसारकंतारं अणुपरियट्टइ॥ कान्तारम् अनुपरिवर्तते । गौतम ! आधाकर्म भोजन करता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ आत्मा से धर्म का अतिक्रमण करता है। आत्मा से धर्म का अतिक्रमण करता हुआ वह पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक जीवों के प्रति निरपेक्ष हो जाता है। वह जिन जीवों के शरीरों का भोजन करता है, उन जीवों के प्रति भी निरपेक्ष हो जाता है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-आधाकर्म भोजन करता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की शिथिल बन्धनबद्ध प्रकृतियों को गाढ़ बन्धनबद्ध करता है यावत् चतुर्गत्यात्मक संसार कान्तार में अनुपरिवर्तन करता है। भाष्य १. सूत्र ४३६,४३७ प्रस्तुत प्रकरण में आधाकर्म आहार से होने वाले दोषों का निरूपण किया गया है। आधाकर्म का अर्थ साधु को मन में रखकर । उसके निमित्त किया जाने वाला आहार है। यह अर्थ आगम के अनेक व्याख्याकरों ने किया है। अभयदेवसूरि ने भी यही अर्थ । किया है। औद्देशिक का अर्थ है-श्रमण, माहण, अतिथि, कृपण आदि सभी भिक्षाचरों के लिए किया गया भोजन।' प्रवचनसारोद्धार में औद्देशिक के ओघ और विभाग—ये दो प्रकार निर्दिष्ट हैं। जो समुच्चय-रूप में देने के लिए बनाया जाता है, वह ओघ-औद्देशिक कहलाता है। जो श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि आदि का विभाग करके भोजन पकाया जाता है, वह विभाग-औद्देशिक है। उसके तीन विभाग हैं उद्दिष्ट, कृत और कर्म। इसके चार अवान्तर प्रकार होते हैं१. उद्देश २. समुद्देश ३. आदेश ४. समादेश। विस्तृत जानकारी के लिए प्रवचनसारोद्धार गा.५६५,७.प.१३७,१३८ द्रष्टव्य हैं। 'मूलाचार' तथा 'भगवती आराधना' में भी इस विषय की विशद चर्चा उपलब्ध है। सूयगडो २1५1८ में केवल 'आहाकम्माणि' शब्द मिलता है। आयारचूला ११२६ तथा उद्गम के सोलह दोषों में 'आहाकम्मियं' और 'उद्देसियं' का एक साथ प्रयोग मिलता है। मूलाचार में भी इन दोनों का प्रयोग एक साथ उपलब्ध है। जर्मन विद्वान डा. लायमान (Leumann) ने आहाकम्म का अर्थ याथाकाम्य किया है। यह अर्थ उपेक्षणीय नहीं है। याथाकाम्य का अर्थ है-व्यक्ति की अपनी इच्छाके अनुसार करना अथवा कराना। प्रस्तुत प्रकरण के अनुसार याथाकाम्य आहार खाने वाला पृथ्वीकाय आदि सभी जीव निकायों के प्रति निरनुकम्प होता है। इससे यह फलित होता है कि याथाकाम्य आहार का अर्थ है-गृहस्थ अपनी इच्छा के अनुसार मुनि के लिए कोई वस्तु बनाना चाहता है और मुनि उसके लिए अपनी स्वीकृति दे देता है अथवा मुनि अपने इच्छानुकूल भोजन के लिए गृहस्थ को प्रेरित करता है। औद्देशिक का पाठ इस पाठ से भिन्न है। वहां गृहस्थ प्राण, भूत, जीव, सत्त्व का वध करता है। 'मुनि षड्जीवनिकाय के प्रति निरनुकम्प होता है' यह औद्देशिक के प्रकरण में नहीं है। शब्द-विमर्श णावकंखइ-निरपेक्ष हो जाता है। वृत्तिकार ने णावकंखइ पद का अर्थ 'अपेक्षा न रखना, अनुकम्पा न करना' किया है। शिथिलबन्धनबद्ध आदि के लिए देखें, भ.११४४-४७ का भाष्य। १. प्र.सारो.प.१३७-आधानमाधा-साधुनिमित्तं चेतसः प्रणिधानं यथा अमुक- स्य साधोः कारणेन मया भक्तादि पचनीयमिति आधया कर्मपाकादिक्रिया आधाकर्म तद्योगाभक्ताद्ययाधाकर्म, इह दोषाभिधानप्रक्रमेऽपि यद्दोषवतो भक्तादेरभिधानं तद्दोषदोषवतोरभेदविवक्षया द्रष्टव्यं, एवमन्यत्राऽपि. यद्वा आधाय साधुं चेतसि प्रणिधाय यत् क्रियते भक्तादि तदाधाकर्म, पृषोदरादि- त्वाद्यलोपः, साधुनिमित्तं सचित्तस्याचित्तीकरणमचित्तस्य वा पाक इति भावः । २. भ.वृ.१।४३६-आधया साधुप्रणिधानेन यत् सचेतनमचेतनं क्रियते, अचे तनं वा पच्यते, चीयते वा गृहादिकं, व्यूयते वा वस्त्रादिकं तदाधाकर्म । ३. आ.चूला, ११६,१७) v ४. (क) मूलाचार, ४२२ । (ख) भगवती आराधना, ४२१ । ५. प्र.सारो.गा.५६५–आहाकम्मुद्देसिय पूईकम्मे । ६. मूलाचार,४२२–आधाकम्मुदेसियं । . . () Zetischrift der Deutschen Morgenlandischen Gesellshaft, Leipzig, Wiesbaden, 37/495; (a) Doctrine of the Jainas, p. 272. ८. आ.चूला१1१६,१७। ६. भ.वृ.११४३६--'नावकंखइति नापेक्षते, नानुकम्पत इत्यर्थः । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.६: सू.४३८,४३६ १८६ भगवई फासु-एसणिज-पदं प्रासु-एषणीय-पदम् प्रासु-एषणीय-पद ४३८. फासु-एसणिणं णं भंते ! भुंजमाणे प्रासु-एषणीयं भदन्त ! भुजानः श्रमणः ४३८. 'भन्ते ! प्रासुक और एषणीय भोजन करता समणे निग्गंथे किं बंघइ ? किं पकरेइ ? निर्ग्रन्थः किं बध्नाति ? किं प्रकरोति? किं हुआश्रमण-निर्ग्रन्थ क्या बांधता है? क्या करता है? किं चिणाइ ? किं उवचिणाइ ? चिनोति ? किम् उपचिनोति ? क्या चय करता है? क्या उपचय करता है ? गोयमा ! फासु-एसणिजंणं भुंजमाणे आउ- गौतम ! प्रासु-एषणीयं भुञ्जानः आयुर्वर्जाः गौतम ! प्रासुक और एषणीय भोजन करता हुआ यवजाओ सत्त कम्मपयडीओ घणिय- सप्तकर्मप्रकृतीः 'धणिय'बन्धनबद्धाः शिथिल- श्रमण निर्ग्रन्थ आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात सिढिलबंधणबद्धाओ पकरेइ, बन्धनबद्धाः प्रकरोति, दीर्घकालस्थितिकाः कर्मों की गाढ बन्धनबद्ध प्रकृतियों को शिथिल दीहकालद्विइयाओ हस्सकालहिइयाओ ह्रस्वकालस्थितिकाः प्रकरोति, तीव्रानुभावाः । बन्धनबद्ध करता है, दीर्घकालिक स्थिति वाली पकरेइ, तिव्वाणुभावाओ मंदाणुभावाओ मन्दानुभावाः प्रकरोति, बहुप्रदेशाग्राः अल्प- प्रकृतियों को अल्पकालिक स्थिति वाली करता है, पकरेइ, बहुप्पएसग्गाओ अप्पपएसग्गाओ प्रदेशाग्राः प्रकरोति, आयुश्च कर्म स्याद् तीव्र अनुभाव वाली प्रकृतियों को मन्द अनुभाव पकरेइ, आउयं च णं कम्मं सिय बंधइ, बध्नाति, स्यान् नो बध्नाति असातवेदनीयञ्च वाली करता है, बहुप्रदेश-परिमाण वाली प्रकृतियों सिय नो बंधइ, अस्सायावेयणिजं च णं कर्म नो भूयो-भूयः उपचिनोति, अनादिकम् को अल्प प्रदेश-परिमाण वाली करता है; आयुष्य कम्मं नो भुजो-भुजो उवचिणाइ, अणादीयं 'अणवदग्गं' दीर्घाध्यानं चतुरन्तं संसारकान्तरं । कर्म का बन्ध कदाचित् करता है और कदाचित् नहीं च णं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतं संसार- व्यतिव्रजति । करता, वह असातवेदनीय कर्म का बहुत-बहुत कंतारं वीईवयइ॥ उपचय नहीं करता और आदि-अन्तहीन दीर्घ पथ वाले चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार का व्यतिक्रमण करता है। कर्म नो भवान् नो बध्नाति अकम स्याद्र वषिणाइ, अण या अणवदा ४३६. से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचइ-फासु- तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-प्रासु- ४३६. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा एसणिचं णं भुंजमाणे आउयवजाओ सत्त -एषणीयं भुजानः आयुर्वर्जाः सप्तकर्म- है—प्रासुक और एषणीय भोजन करता हुआ कम्मपयडीओ धणियबंधणबद्धाओ सिढिल- प्रकृतीः 'धणिय'बन्धनबद्धाः शिथिलबन्धन- श्रमण निर्ग्रन्थ आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात बंधणबद्धाओ पकरेड जाव चाउरंतं संसार- बद्धाः प्रकरोति यावच चतरन्तं संसारकान्तारं कर्मों की गाढ़ बन्धनबद्ध प्रकृतियों को शिथिल कतारं वीईवयइ ? व्यतिव्रजति? बन्धनबद्ध करता है यावत् चतुर्गत्यात्मक संसार -कान्तार का व्यतिक्रमण करता है ? गोयमा ! फासु-एसणिणं णं भुंजमाणे समणे गौतम ! प्रासु-एषणीयं भुञ्जानः श्रमणाः गौतम ! प्रासुक और एषणीय भोजन करता हुआ निग्गंथे आयाए धर्म नाइक्कमइ, आयाए निर्ग्रन्थः आत्माना धर्म नातिक्रामति, आत्मना । श्रमण निर्ग्रन्थ आत्मा से धर्म का अतिक्रमण नहीं धम्म अणइक्कममाणे पुढविकायं अवकंखइ धर्मम् अनतिक्रामन् पृथ्वीकायम् अवकांक्षति करता, आत्मा से धर्म का अतिक्रमण नहीं करता जाव तसकायं अवकंखइ, जेसि पि य णं यावत् त्रसकायम् अवकांक्षति, येषामपि च हुआ वह पृथ्वीकायिक यावत् त्रसकायिक जीवों जीवाणं सरीराइं (आहारं ?) आहारेइ ते जीवानां शरीराणि (आहार) आहरति, तानपि के प्रति अपेक्षावान होता है (निरपेक्ष नहीं होता)। वि जीवे अवकंखइ । से तेणद्वेणं गोयमा! जीवान् अवकांक्षति । तत् तेनार्थेन गौतम! वह जिन जीवों के शरीरों का भोजन करता है, एवं बुच्चइ-फासु-एसणिजं णं भुंजमाणे एवमुच्यते-प्रासु-एषणीयं भुजानः आयु- उन जीवों के प्रति भी अपेक्षावान होता है। आउयवजाओ सत्त कम्मपयडीओ धणिय- वर्जाः सप्त कर्मप्रकृतीः 'धणिय'बन्धनबद्धाः गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा बंधणबद्धाओ सिढिलबंधणवद्धाओ पकरेइ शिथिल-बन्धनबद्धाः प्रकरोति यावच् चतुरन्तं है-प्रासुक और एषणीय भोजन करता हुआ जाव चाउरंतं संसारकतारं बीईवयइ ।। संसारकान्तारम् व्यतिव्रजति ॥ श्रमण निर्ग्रन्थ आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की गाढ़ बन्धनबद्ध प्रकृतियों को शिथिलवन्धनबद्ध करता है यावत् चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार का व्यतिक्रमण करता है। भाष्य १. सूत्र ४३८,४३६ प्रासुक, एषणीय--प्रासुक का अर्थ 'जीव-रहित' किया गया है।' एषणीय का अर्थ है एषणा के दोष से रहित । डा. लायमान (Leumanm) ने प्रासुक का संस्कृत-रूप 'स्पर्शक' किया है।' १. मूलाचार,४८५-पगदा असओ जम्हा तम्हादो दव्वदात्ति तं दव्वं पासुगमिदि। २. Doctrine of the Jainas, p.271,lootnote 3. Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई सासय- असासय-पदं ४४०. से नूणं भंते ! अथिरे पलोट्टई, नो थिरे पलोदृइ ? अथिरे भज्जइ, नो थिरे भन्नइ ? सासए बालए, बालियत्तं असासयं? सासए पंडिए, पंडियत्तं असासयं ? हंता गोयमा ! अथिरे पलोट्टइ, नो थिरे पलोट्टइ । अथिरे भज्जइ, नो थिरे भज्जइ । सासए बालए, बालियत्तं असासयं । सासए पंडिए, पंडियत्तं असासयं ॥ ४४१. सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति जाव विहरइ ॥ १८७ शाश्वत अशाश्वत-पदम् अथ नूनं भदन्त ! अस्थिरः प्रत्यागच्छति, नो स्थिरः प्रत्यागच्छति ? अस्थिरः भज्यते, नो स्थिरः भज्यते ? शाश्वतः बालकः, बालकत्वम् अशाश्वतम् ? शाश्वतः पण्डितः, पण्डितत्वम् अशाश्वतम् ? हन्त गौतम ! अस्थिरः प्रत्यागच्छति, नो स्थिरः प्रत्यागच्छति । अस्थिरः भज्यते, नो स्थिरः । भज्यते ? शाश्वतः बालकः, बालकत्वम् अशाश्वतम् । शाश्वतः पण्डितः पण्डितत्वम् अशाश्वतम् । १. सूत्र ४४० वाचक मुख्य उमास्वाति के अनुसार सत् त्रयात्मक होता है। वे तीन हैं— उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य । ध्रौव्य स्थिर होता है, उत्पाद और व्यय अस्थिर होते हैं । द्रव्य स्थिर और अस्थिर दोनों का समवाय होता है। प्रस्तुत सूत्र में नित्यानित्यवाद की व्याख्या की गई है। द्रव्य का स्थिर अंश नहीं बदलता, इसीलिए वह नित्य है । उसका अस्थिर अंश बदलता है, इसीलिए वह अनित्य है। स्थिर अंश अभग्न होता है। अस्थिर अंश भग्न होता है। भगवान् महावीर ने एकान्त नित्य और एकान्त अनित्य दोनों पक्षों को अमान्य किया था। सूत्रकार ने स्थिर और अस्थिर का उदाहरण भी प्रस्तुत किया है। बालत्व और पण्डितत्व ये दोनों पर्याय हैं। इन दोनों अवस्थाओं का आधारभूत द्रव्य जीव है। वह बाल - पर्याय में भी रहता है और पंडित - पर्याय में भी रहता है । बाल-पर्याय का उदय हुआ, पंडित- पर्याय का व्यय हो गया। पंडित पर्याय का उदय हुआ, बाल-पर्याय भाष्य १. त. सू. ५ । ३० – उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकं सत् । २. भ. वृ. १ । ४४० - ' अथिरे' त्ति अस्थासु द्रव्यं लोप्टादि 'प्रलोटति' परिवर्तते । अध्यात्मचिन्तायामस्थिरं कर्म तस्य जीवप्रदेशेभ्यः प्रतिसमयचलनेनास्थिरत्वात् श.१: उ.६ः सू.४३८-४४० शाश्वत अशाश्वत-पद ४४० 'भन्ते ! क्या अस्थिर द्रव्य परिवर्तित होता है, स्थिर द्रव्य परिवर्तित नहीं होता ? क्या अस्थिर द्रव्य भग्न होता है, स्थिर द्रव्य भग्न नहीं होता ? क्या बालक शाश्वत है, वालकत्व अशाश्वत है? क्या पण्डित शाश्वत है, पण्डितत्व अशाश्वत है ? हां, गौतम ! अस्थिर द्रव्य परिवर्तित होता है, स्थिर द्रव्य परिवर्तित नहीं होता । अस्थिर द्रव्य भग्न होता है, स्थिर द्रव्य भग्न नहीं होता। बालक शाश्वत है, बालकत्व अशाश्वत है। पण्डित शाश्वत है, पण्डितत्व अशाश्वत है। का व्यय हो गया। जीव इन दोनों पर्यायों में स्थिर रहा। प्रस्तुत सूत्र से सत् या द्रव्य की परिभाषा फलित होती है — स्थिरास्थिरात्मकं सत् अथवा स्थिरास्थिरात्मकं द्रव्यम् । वृत्तिकार ने स्थिर और अस्थिर की व्याख्या द्रव्य और अध्यात्म दो नयों से की है। उनके अनुसार शिला स्थिर होती है और ढेला अस्थिर होता है । जीव स्थिर होता है और अजीव अस्थिर होता है । ' शब्द-विमर्श बाल व्यवहार नय की दृष्टि से शिशु । आध्यात्मिक दृष्टि से असंयत जीव । पण्डित-व्यवहार नय की दृष्टि से शास्त्रज्ञ । आध्यात्मिक दृष्टि से संयत जीव । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति यावत् ४४१. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही विहरति । है । इस प्रकार भगवान् गौतम यावत् संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए विहरण कर रहे हैं। 'प्रलोटयति' बंधोदयनिर्जरादिपरिणामैः परिवर्त्तते । 'स्थिर' शिलादि न प्रलोटयति, अध्यात्मचिन्तायां तु स्थिरो जीवः, कर्मक्षयेऽपि तस्यावस्थित्वात्, नासौ 'प्रलोटयति' उपयोगलक्षणस्वभावान्न परिवर्तते । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल परसमयवत्तव्यया-पदं ४४२. अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पण्णवेति, एवं परूवेंति एवं खलु चलमाणे अचलिए । उदीरिजमाणे अणुदीरिए । वेदिज्रमाणे अवेदिए । पहिजमाणे अपहीणे । छिज्जमाणे अच्छिण्णे । भिमाणे अभिण्णे । दज्झमाणे अदडूढे । मिजमाणे अमए । निज्जरिजमाणे अणिजिण्णे | दो परमाणुपोग्गला एगयओ न साहण्णंति, कम्हा दो परमाणुपोग्गला एगयओ न साहण्णंति ? दो परमाणुपोग्गलाणं नत्थि सिणेहकाए, तम्हा दो परमाणुपोग्ला एगयओ न साहण्णंति । तिणि परमाणुपोग्गला एगयओ साहण्णंति, कम्हा तिणि परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति ? तिहं परमाणुपोग्गलाणं अत्थि सिणेहकाए, तम्हा तिण्णि परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति । भिमाणा दुहा वि, तिहा वि कांति । पंच परमाणुपोग्गला एगयओ साहण्णंति, एओ साहणित्ता दुक्खत्ताए कति । दुक्खे वि य णं से सासए सया समितं उवचिज्जइ य, अवचिज्जइ य । दसमो उद्देसो : दसवां उद्देशक संस्कृत छाया परसमयवक्तव्यता-पदम् अन्ययूथिकाः भदन्त ! एवमाख्यान्ति, एवं भाषन्ते, एवं प्रज्ञापयन्ति, एवं प्ररूपयन्ति एवं खलु चलद् अचलितम्, उदीर्यमाणम् अनुदीरीतम्, बेद्यमानम् अवेदितम्, प्रहीयमाणम् अप्रहीणम्, छिद्यमानम् अछिन्नम्, भिद्यमानम् अभिन्नम्, दह्यमानम् अदग्धम्, म्रियमाणम् अमृतम्, निर्जीर्यमाणम् अनिजीर्णम् । द्वौ परमाणुपुद्गलौ एकतः न संहन्येते, कस्माद् द्वौ परमाणुपुद्गली एकत: न संहन्येते ? द्वयोः परमाणुपुद्गलयोः नास्ति स्नेहकायः, तस्माद् द्वौ परमाणुपुद्गली एकतः न संहन्येते । त्रयः परमाणुपुद्गलाः एकतः संहन्यन्ते, कस्मात् त्रयः परमाणुपुद्गलाः एकतः संहन्यन्ते ? त्रयाणां परमाणुपुद्गलानाम् अस्ति स्नेहकायः, तस्मात् त्रयः परमाणुपुद्गलाः एकतः संहन्यन्ते । दुहा कजमाणा एगयओ दिवडूढे परमाणुपोग्गले भवइ - एगयओ वि दिवड्ढे परमाणुपोग्गले भवइ । तिहा कज्रमाणा तिष्णि परमाणुपोग्गला त्रिधा क्रियमाणाः त्रयः परमाणुपुद्गलाः भवंति । एवं चत्तारि । भवन्ति । एवं चत्वारः । ते भिद्यमानाः द्विधा अपि, त्रिधा अपि क्रियन्ते । द्विधा क्रियमाणाः एकतः द्व्यर्ध: परमाणुपुद्गलः भवति — एकतः अपि द्व्यर्ध: परमाणुपुद्गलः भवति । पञ्च परमाणुपुद्गलाः एकतः संहन्यन्ते, एकतः संहत्य दुःखतया क्रियन्ते । दुःखमपि च तत् शाश्वतं सदा समितम् उपचीयते च, अपचीयते च । हिन्दी अनुवाद परसमयवक्तव्यता- पद ४४२. ' भन्ते ! अन्ययूथिक ऐसा आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन और प्ररूपण करते हैं चलमान अचलित, उदीर्यमाण अनुदीरित, वेद्यमान अवेदित, प्रहीयमाण अप्रहीण, छिद्यमान अछित्र, भिद्यमान अभिन्न दह्यमान अदग्ध, म्रियमाण अमृत, निर्जीर्यमाण अनिर्जीर्ण है। दो परमाणुपुद्गलों की एक संहति नहीं होती, दो परमाणुपुद्गलों की एक संहति किस कारण से नहीं होती ? दो परमाणुपुद्गलों में स्नेहकाय नहीं होता, इसलिए दो परमाणुपुद्गलों की एक संहति नहीं होती । तीन परमाणुपुद्गलों की एक संहति होती है, तीन परमाणुपुद्गलों की एक संहति किस कारण से होती है ? तीन परमाणुपुद्गलों में स्नेहकाय होता है; इसलिए तीन परमाणुपुद्गलों की एक संहति होती है। वे टूटने पर दो या तीन भागों में विभक्त होते दो भागों में विभक्त होने पर एक ओर डेढ़ परमाणुपुद्गल होता है, दूसरी ओर भी डेढ़ परमाणुपुद्गल होता है । तीन भागों में विभक्त होने पर वे तीन परमाणुपुद्गल हो जाते हैं। चार परमाणुपुद्गल भी इसी प्रकार वक्तव्य हैं। पांच परमाणुपुद्गलों की एक संहति होती है— एकरूप में संहत होकर दुःख रूप में परिणत होते हैं। वह दुःख भी शाश्वत है और सदा संगठित रूप में उपचित तथा अपचित होता है। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुःखा। भगवई १८६ श.१: उ.१०. सू.४४२,४४३ पबिं भासा भासा। भासिज्जमाणी भासा पूर्वं भाषा भाषा। भाष्यमाणा भाषा बोलने से पहले भाषा भाषा होती है, बोलते समय अभासा। भासासमयवितिकंतं च णं अभाषा। भाषासमयव्यतिक्रान्ते च भाषिता, भाषा अभाषा होती है और बोलने का समय भासिया भासा। भाषा। व्यतिक्रान्त होने पर बोली गई भाषा भाषा है। जा सा पुदि भासा भासा। भासिजमाणी या असौ पूर्वं भाषा भाषा। भाष्यमाणा भाषा बोलने से पहले जो भाषा भाषा है, बोलते समय भासा अभासा। भासासमयवितिक्कतं च णं अभाषा। भाषासमयव्यतिक्रान्ते च भाषिता भाषा अभाषा है और बोलने का समय व्यतिक्रान्त भासिया भासा । सा किं भासओ भासा? भाषा। सा कि भाषमाणस्य भाषा? अभा- हो जाने पर बोली गई भाषा भाषा है। क्या वह अभासओ भासा ? षमाणस्य भाषा? जो बोल रहा है, उसके भाषा है ? जो नहीं बोल रहा है, उसके भाषा है ? अभासओ णं सा भासा। नो खलु सा अभाषमाणस्य सा भाषा। नो खलु सा भाष- वह जो नहीं बोल रहा है, उसके भाषा है। जो भासओ भासा। माणस्य भाषा। बोल रहा है, उसके भाषा नहीं है। पुदि किरिया दुक्खा। कन्जमाणी किरिया पूर्व क्रिया दुःखा। क्रियमाणा क्रिया अ- क्रिया करने से पहले क्रिया दुःखकर होती है, अद्रक्खा। किरियासमयवितिक्कतं च णं दुःखा। क्रियासमयव्यतिक्रान्ते च कृता क्रिया क्रियमाण क्रिया दुःखकर नहीं होती, क्रिया का कडा किरिया दुक्खा। समय व्यतिक्रान्त होने पर कृत क्रिया दुःखकर होती है। जा सा पुब्बिं किरिया दुक्खा। कजमाणी या असी पूर्वं क्रिया दुःखा। क्रियमाणा क्रिया जो यह क्रिया करने से पहले दुःखकर होती है, किरिया अदुक्खा। किरियासमयवितिकतं। अदुःखा। क्रियासमयव्यतिक्रान्ते च कृता । क्रियमाण क्रिया दुःखकर नहीं होती, क्रिया का च णं कडा किरिया दुक्खा। सा किं क्रिया दुःखा। सा किं करणतः दुःखा? अक- समय व्यतिक्रान्त होने पर कृत क्रिया दुःखकर करणओ दुक्खा ? अकरणओ दुक्खा? रणतः दुःखा? होती है। क्या वह करने से दुःखकर होती है ? न करने से दुःखकर होती है ? अकरणओ णं सा दुक्खा। नो खलु सा अकरणतः सा दुःखा । नो खलु सा करणतः न करने से वह दुःखकर होती है। करने से वह करणओ दुक्खा-सेवं वत्तव्वं सिया। दुःखा-अथैवं वक्तव्यं स्यात्। अकृत्यं दुःखकर नहीं होती-ऐसा कहा जा सकता है। अकिचं दुक्खं, अफुसं दुक्खं, अकजमाण- दुःखम्, अस्पृश्यं दुःखम्, अक्रियमाणं कृतं दुःख कृत्य नहीं हैं, दुःख स्पृश्य नहीं है, दुःख कडं दुक्खं, अकटु-अकटु पाण-भूय- दुःखम्, अकृत्वा-अकृत्वा प्राण-भूत-जीव- अक्रियमाण कृत है, प्राण, भूत, जीव और सत्व जीव-सत्ता वेदणं वेदेति इति वत्तव्यं सत्त्वाः वेदनां वेदयन्ति-इति वक्तव्यं बिना किए - बिना किए भी वेदना का अनुभव सिया॥ स्यात् । करते हैं ऐसा कहा जा सकता है। ससमयवत्तव्बया-पदं स्वसमयवक्तव्यता-पदम् स्वसमयवक्तव्यता-पद ४४३. से कहमेयं भंते ! एवं? तत् कथमेतत् भदन्त ! एवम् ? ४४३. भन्ते ! यह इस प्रकार कैसे होता है ? गोयमा ! जण्णं ते अण्णउत्थिया एव- गौतम ! यत् ते अन्ययूथिकाः एवमाख्यान्ति गौतम ! वे अन्ययूधिक जो ऐसा आख्यान करते माइक्खंति जाव वेदणं वेदेति इति वत्तव्यं यावद वेदनां वेदयन्ति-इति वक्तव्यं स्यात्।। हैं यावत् वेदना का अनुभव करते हैं----ऐसा कहा सिया। जा सकता है। जे ते एवमाहंस, मिच्छा ते एवमाहंसु । अहं ये एते एवमाहुः, मिथ्या ते एवमाहुः। अहं । जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। गौतम ! पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि, एवं भासेमि, पुनः गौतम! एवमाख्यामि, एवं भाषे, एवं ____ मैं इस प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन और एवं पण्णवेमि, एवं परूवेमि–एवं खलु प्रज्ञापयामि, एवं प्ररूपयामि एवं खलु प्ररूपण करता हूं-चलमान चलित, उदीर्यमाण चलमाणे चलिए। उदीरिजमाणे उदीरिए। चलच् चलितम् । उदीर्यमाणम् उदीरितम् ।। उदीरित, वेद्यमान वेदित, प्रहीयमाण प्रहीण, छिद्यवेदिजमाणे वेदिए। पहिज्जमाणे पहीणे। वेद्यमानं वेदितम्। प्रहीयमाणं प्रहीणम् । मान छिन्न, भिद्यमान भिन्न, दह्यमान दग्ध, म्रियमाण छिन्जमाणे छिण्णे। मिजमाणे भिण्णे। छिद्यमानं छिन्नम् । भिद्यमानं भिन्नम् । दह्यमानं मृत, निर्जीर्यमाण निर्जीण होता है। दज्झमाणे दड्ढे। मिजमाणे मए। निज दग्धम् । नियमाणं मृतम् । निर्जीयमाणं निर्जीरिजमाणे निजिण्णे। णम् । दो परमाणुपोग्गला एगयओ साहण्णंति, द्वौ परमाणुपुद्गली एकतः संहन्येते, दो परमाणुपुद्गलों की एक संहति होती है, कम्हा दो परमाणुपोग्गला एगयओ साह- कस्मात् द्वौ परमाणुपुद्गलौ एकतः संहन्येते? दो परमाणुपुद्गलों की एक संहति किस कारण पणंति ? से होती है ? दोहं परमाणुपोग्गलाणं अत्थि सिणेहकाए, द्वयोः परमाणुपुद्गलयोः अस्ति स्नेहकायः, दो परमाणुपुद्गलों में स्नेहकाय होता है; इसलिए तम्हा दो परमाणुपोग्गला एगयओ साह- तस्मात् द्वौ परमाणुपुद्गली एकतः संहन्येते। उन दो परमाणुपुद्गलों की एक संहति होती है । पणति। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १: उ.१०: सू.४४३ ते भिमाणा दुहा कजंति । दुहा कजमाणा एगयओ परमाणुपोग्गले—– एगयओ परमाणुोग्गले भवति । तिण्णि परमाणुपोग्गला एगयओ साहण्णंति, कम्हा तिण्णि परमाणुपोग्गला एगयओ साहण्णंति ? तिण्हं परमाणुपोग्गलाणं अत्थि सिणेहकाए, तम्हा तिणि परमाणुपोग्गला एगयओ साहति । भिमाणा हा वि, तिहा वि कति । हा माणा गयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपएसिए खंधे भवति । तिहा जाणा तिणि परमाणुपोग्गला भवंति । एवं चत्तारि । पंच परमाणुपोग्गला एगयओ साहण्णंति । गयओ साहण्णित्ता खंधत्ताए कर्जति । खंधे वि य णं से असासए सया समितं उवचिज्जइ य, अवचिज य । पुव्विं भासा अभासा, भासिजमाणी भासा भासा, भासासमयवितिक्कंतं च णं भासिया भासा अभासा । जसा पु िभासा अभासा । भासिज्रमाणी भासा भासा, भासासमयवितिक्कतं च णं भासिया भासा अभासा । सा किं भासओ भासा ? अभासओ भासा ? भासओ णं भासा, नो खलु सा अभासओ भासा । पुब्बिं किरिया अदुक्खा । कजमाणी किरिया दुक्खा । किरियासमयवितिक्कतं च कडा किरिया अदुक्खा । जा सा पुर्व्विं किरिया अदुक्खा । कजमाणी किरिया दुक्खा । किरियासमयवितिक्कतं च का किरिया अक्खा । सा किं करणओ ? अकरणओ दुक्खा ? 'दुक्खा करणओ णं सा दुक्खा । नो खलु सा अकरणओ दुक्खा सेवं वत्तव्वं सिया । किचं दुक्खं, फुसं दुक्खं, कज्रमाणकडं दुक्खं, कटु-कट्टु पाण-भूय-जीव-सत्ता वेदणं वेदेति इति वत्तव्यं सिया ।। १६० ते भिद्यमानाः द्विधा क्रियन्ते । द्विधा क्रियमाणाः एकतः परमाणुपुद्गलः — एकतः परमाणुपुद्गलः भवति । त्रयः परमाणुपुद्गलाः एकतः संहन्यन्ते, कस्मात् त्रयः परमाणुपुद्गलाः एकतः संहन्यन्ते ? त्रयाणां परमाणुपुद्गलानाम् अस्ति स्नेहकायः, तस्मात् त्रयः परमाणुपुद्गलाः एकतः संहन्यन्ते । ते भिद्यमानाः द्विधा अपि त्रिधा अपि क्रियन्ते । द्विधा क्रियमाणा एकतः परमाणुपुद्गलः एकः द्विप्रदेशिकः स्कन्धः भवति । त्रिधा क्रियमाणाः त्रयः परमाणुपुद्गलाः भवन्ति । एवं चत्वारः । पञ्च परमाणुपुद्गलाः एकतः संहन्यन्ते । एकतः संहत्य स्कन्धतया क्रियन्ते । स्कन्धोऽपि च स अशाश्वतः सदा समितम् उपचीयते च, अपचीयते च । भाषा अभाषा, भाष्यमाणा भाषा भाषा, भाषासमयव्यतिक्रान्ते च भाषिता भाषा अ भाषा । या असी भाषा अभाषा। भाष्यमाणा भाषा भाषा, भाषासमयव्यतिक्रान्ते च भाषिता भाषा अभाषा । सा किं भाषमाणस्य भाषा ? अभाषमाणस्य भाषा ? भाषमाणस्य भाषा, नो खलु सा अभाषमाणस्य भाषा । पूर्वं क्रिया अदुःखा । क्रियमाणा क्रिया दुःखा । क्रियासमयव्यतिक्रान्ते च कृता क्रिया अदुःखा । या असौ पूर्वं क्रिया अदुःखा । क्रियमाणा क्रिया दुःखा । क्रियासमयव्यतिक्रान्ते च कृता क्रिया अदुःखा । सा किं करणतः दुःखा ? अकरणतः दुःखा ? करणतः सा दुःखा । नो खलु सा अकरणतः दुःखा - अथैवं वक्तव्यं स्यात् । कृत्यं दुःखं, स्पृश्यं दुःखं, क्रियमाणकृतं दुःखं, कृत्वा कृत्वा प्राण- भूत- जीव-सत्त्वाः वेदनां वेदयन्ति— इति वक्तव्यं स्यात् । भगवई वे टूटने पर दो भागों में विभक्त होते हैं। दो भागों में विभक्त होने पर एक ओर एक परमाणुपुद्गल होता है, दूसरी ओर भी एक परमाणुपुद्गल होता है। तीन परमाणुपुद्गलों की एक संहति होती है, तीन परमाणुपुद्गलों की एक संहति किस कारण से होती है ? तीन परमाणुपुद्गलों में स्नेहकाय होता है; इसलिए उन तीन परमाणुपुद्गलों की एक संहति होती है । वे टूटने पर दो या तीन भागों में विभक्त होते हैं। दो भागों में विभक्त होने पर एक ओर परमाणुपुद्गल होता है, दूसरी ओर द्विप्रदेशी स्कन्ध होता है। तीन भागों में विभक्त होने पर तीन परमाणुपुद्गल हो जाते हैं। चार परमाणुपुद्गल भी इसी प्रकार वक्तव्य हैं। पांच परमाणुपुद्गलों की एक संहति होती है। वे एकरूप में संहत होकर स्कन्ध के रूप में परिणत होते हैं। वह स्कन्ध भी अशाश्वत है और सदा संगठित रूप में उपचित तथा अपचित होता है। बोलने से पहले भाषा अभाषा है। बोलते समय भाषा भाषा है। बोलने का समय व्यतिक्रान्त होने पर बोली गई भाषा अभाषा है। बोलने से पहले जो भाषा अभाषा है, बोलते समय भाषा भाषा है, बोलने का समय व्यतिक्रान्त होने पर बोली गई भाषा अभाषा है। क्या वह जो बोल रहा है, उसके भाषा है ? जो नहीं बोल रहा है, उसके भाषा है ? वह जो बोल रहा है, उसके भाषा है; जो नहीं बोल रहा है, उसके भाषा नहीं है। क्रिया करने से पहले क्रिया दुःखकर नहीं होती; क्रियमाण क्रिया दुःखकर होती है; क्रिया का समय व्यतिक्रान्त होने पर कृत क्रिया दुःखकर नहीं होती। जो यह क्रिया करने से पहले दुःखकर नहीं होती; क्रियमाण क्रिया दुःखकर होती है; क्रिया का समय व्यतिक्रान्त होने पर कृत क्रिया दुःखकर नहीं होती; क्या वह करने से दुःखकर होती है ? न करने से दुःखकर होती है ? क्रिया करने से दुःखकर होती है। न करने से वह दुःखकर नहीं होती ऐसा कहा जा सकता है । दुःख कृत्य है, दुःख स्पृश्य है, दुःख क्रियमाण कृत है, प्राण, भूत, जीव और सत्व क्रिया कर-करके वेदना का अनुभव करते हैं — ऐसा कहा जा सकता है। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १६१ भाष्य १. सूत्र ४४२,४४३ प्रस्तुत आलापक में चार बाद पूर्वपक्ष के रूप में उल्लिखित हैं-- १. उत्पत्ति-निष्पत्तिवाद २. त्र्यणुकवाद ३. स्फोटवाद ४. अक्रिया वादः १. उत्पत्ति - निष्पत्तिवाद — क्षणिकवाद में द्रव्य की त्रैकालिकता मान्य नहीं है, इसलिए उसके अनुसार चलमान और चलित- ये दो अवस्थाएं एक साथ नहीं हो सकती। चलमान से अतिरिक्त कोई चलित अवस्था संभव नहीं है। बौद्ध दर्शन सम्मत क्षणिकवाद अथवा तत्सदृश किसी क्षणभंगुरवाद का सूत्रकार ने पूर्वपक्ष के रूप में उल्लेख किया है। २. त्र्यणुकवाद - त्र्यणुकवाद वैशेषिक दर्शन के द्रव्योत्पाद की प्रक्रिया का सिद्धान्त है। वैशेषिक दर्शन के अनुसार द्रव्य का उत्पाद संयोग या संघात से होता है। दो परमाणुओं के संयोग से आरब्ध द्रव्य द्व्यणुक कहलाता है। चार या पांच द्व्यणुक द्रव्यों के संयोग से आरब्ध द्रव्य त्र्यणुक कहलाता है। त्र्यणुक को त्रसरेणु और त्रुटि भी कहा जाता है । द्व्यणुकों से द्रव्य की उत्पत्ति नहीं होती । परमाणु और द्व्यणुक दोनों ही अणुत्व-परिमाण वाले होते हैं । सूत्रकार पूर्व पक्ष को उद्धृत करते हुए बतलाया है—दो परमाणु-पुद्गलों में स्नेहकाय नहीं होता, इसलिए दो परमाणु- पुद्गलों की एक संहति नहीं होती । संभवतः यह अभिमत प्राचीन वैशेषिक मत का रहा हो । अथवा इसका तात्पर्य यह हो सकता है कि दो परमाणु-पुद्गलों में अणुत्व-परिमाण की निवृत्ति नहीं होती, सूक्ष्म परिणति बनी रहती है। त्र्यणुक में स्थूल परिणति हो जाती है; इसलिए उससे द्रव्य उत्पन्न हो सकता है। वैशेषिक दर्शन में सृष्टि रचना के सिद्धान्त का नाम 'आरम्भवाद' है। उसके अनुसार — दो परमाणुओं के संयोग से एक नया द्व्यणुक द्रव्य उत्पन्न होता है, जो कारणभूत दो परमाणुओं से भिन्न होने पर भी उनमें व्याप्त होकर रहता है। इसी प्रकार तीन द्व्यणुकों में से एक त्र्यणुक और चार त्र्यणुकों में से एक चतुरणुक — उत्पन्न होता है । इस क्रम से वैशेषिक दर्शन ने पर्वत, नदी, सूर्य आदि स्थूल सृष्टि की रचना की व्यवस्था की । ' १३. स्फोटवाद — बोलने से पूर्व भाषा भाषा है। बोलने के पश्चाद् भी भाषा है। बोलते समय भाषा अभाषा है। इस प्रवाद को 'स्फोटवाद' कहा जा सकता है। स्फोटवाद के अनुसार ध्वनि दो प्रकार की होती है -- प्राकृत और वैकृत। प्राकृत ध्वनि अभिव्यक्त नहीं होती, वैकृत ध्वनि अभिव्यक्त होती है। शब्द के ग्रहण का हेतु प्राकृत ध्वनि है, यही स्फोट है। शब्द के ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत — इस स्थिति-भेद का हेतु वैकृत ध्वनि है। २ 'स्फोट' शब्द एक पद में वर्तमान सभी वर्णों में होता है। १. पं. सुखलाल संघवी, भारतीय तत्त्वविद्या, पृ. ५६ । २. वाक्यपदीय, पृ. १४२ - इह द्विविधो ध्वनिः प्राकृतो वैकृतश्च । तत्र प्राकृतो नाम येन विना स्फोटरूपमनभिव्यक्तं न परिच्छिद्यते । वैकृतस्तु येनाभिव्यक्तं स्फोटरूपं पुनः पुनरविच्छेदेन प्रचिततरं कालमुपलभ्यते । एवं हि संग्रहकारः पठति- फिर भी वह अन्तिम वर्ण में स्पष्ट होता है। एक पद के प्रत्येक वर्ण अर्थ- बोधक नहीं हो सकते। वक्ता द्वारा उच्चारण किये गये वर्ण शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। इसलिए उनका मिलन सम्भव नहीं होता । अतः उन वर्णों से उत्पन्न स्फोट नामक शब्द से ही अर्थ का ज्ञान होता है। प्राकृत शब्द नित्य है। इस अपेक्षा से वह बोलने के पहले भी होता है और बोलने के पश्चात् भी होता है। वैकृत शब्द केवल बोलने के समय ही होता है। अर्थ का बोध प्राकृत शब्द से होता है, वैकृत शब्द से नहीं होता - इस दृष्टिकोण से प्राकृत शब्द को 'भाषा' और वैकृत शब्द को 'अभाषा' माना जा सकता है। श. १: उ.१० : सू.४४२, ४४३ ४. अक्रियावाद - अक्रियावाद पकुध कात्यायन का सिद्धान्त है। बौद्ध पिटकों में छह तीर्थकरों का उल्लेख मिलता है। उनमें एक है— पकुध कात्यायन । उनके अनुसार सुख और दुःख अकृत, अनिर्मित, अकूटस्थ और स्तम्भवत् अचल हैं।" विस्तृत विवरण के लिए सूयगडो १।१।१३-१६ तथा ठाणं ३ | ३३७ के टिप्पण द्रष्टव्य हैं। अकिचं दुक्खं अफुसं दुक्खं आदि पद ठाणं (३ | ३३७) में भी उपलब्ध हैं। उक्त सिद्धान्त जैन- दर्शन सम्मत नहीं है। इनके विषय में जैन दर्शन का जो दृष्टिकोण है वह सूत्र में उल्लिखित है। उसके अनुसार उत्पत्ति और निष्पत्ति के क्षण को विभक्त नहीं किया जा सकता। इस विषय की विस्तृत मीमांसा के लिए १ ।११,१२ का भाष्य द्रष्टव्य है। जैन दर्शन के अनुसार द्रव्य की उत्पत्ति दो परमाणुओं के संयोग से आरब्ध हो जाती है। उसे 'द्विप्रदेशी स्कन्ध' कहा जाता है। तीन परमाणुओं के संयोग से भी द्रव्य (त्रिप्रदेशी स्कन्ध) की उत्पत्ति होती है। इसके भेद से भी द्रव्य की उत्पत्ति होती है। त्रिप्रदेशी स्कन्ध का भेद होने पर एक परमाणु और एक द्विप्रदेशी स्कन्ध उत्पन्न हो सकता है। पाँच प्रदेशी स्कन्ध दुःख अथवा कर्म-रूप में परिणत नहीं होता और वह शाश्वत भी नहीं होता । भाषा वर्गणा के पुद्गल समूचे लोक में व्याप्त रहते हैं। बोलने वाला उन पुद्गल-वर्गणाओं को पहले ग्रहण करता है, फिर भाषा रूप में परिणत करता है। उसके पश्चात् उनका विसर्जन करता हैं। यह विसर्जन-काल ही वर्तमान काल है और विसर्जन-काल में ही भाषा का निर्देश किया जाता है। उसी से अर्थ का प्रत्यय या बोध होता है। दुःख अकृत नहीं होता। वह शाश्वत नहीं है; इसलिए अकृत भी नहीं है। अभयदेवसूरि ने भी इस विषय की पूरी चर्चा की है। शब्दस्य ग्रहणे हेतुः प्राकृतो ध्वनिरिष्यते । स्थितिभेदे निमित्तत्वं वैकृतः प्रतिपद्यते ॥ ३. दीघनिकाय, १/२, पृ. २१ । ४. भ. वृ. १ । ४४२, ४४३ । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.१०. सू.४४४,४४५ १६२ भगवई किरिया खनु एगे जाति, एवं पा इरियावहिया-संपराइया-पदं ऐर्यापथिकी-साम्परायिकी-पदम् ऐर्यापथिकी-साम्परायिकी-पद ४४४. अण्णउत्थियाणं भंते ! एवमाइक्खंति, अन्ययूथिकाः भदन्त ! एवमाख्यान्ति, एवं ४४४. 'भन्ते ! अन्ययूथिक ऐसा आख्यान, भाषण, एवं भासंति, एवं पण्णवेति, एवं परवेति भाषन्ते, एवं प्रज्ञापयन्ति, एवं प्ररूपयन्ति प्रज्ञापन और प्ररूपण करते हैं-एक जीव एक -एवं खलु एगे जीवे एगेणं समेणं दो -एवं खलु एकः जीवः एकस्मिन् समये द्वे समय में दो क्रियाएं करता है, जैसे-ऐपिथिकी किरियाओ पकरेति, तंजहा-इरियावहियं क्रिये प्रकरोति, तद् यथा-ऐर्यापथिकी च और साम्परायिकी। च, संपराइयं च। साम्परायिकी च। जं समयं इरियावहियं पकरेइ, तं समयं यस्मिन् समये ऐपिथिकी प्रकरोति, तस्मिन् । जिस समय ऐर्यापथिकी करता है, उसी समय संपराइयं पकरेइ । समये साम्परायिकी प्रकरोति। साम्परायिकी करता है। जं समयं संपराइयं पकरेइ, तं समयं इरिया- यस्मिन् समये साम्परायिकी प्रकरोति, तस्मिन् । जिस समय साम्परायिकी करता है, उसी समय वहियं पकरेइ। समये ऐयापथिकी प्रकरोति। ऐपिथिकी करता है। इरियावहियाए पकरणयाए संपराइयं पक- ऐपिथिक्याः प्रकरणेन साम्परायिकी प्रक- ऐपिथिकी करने से साम्परायिकी करता है। रोति। संपराइयाए पकरणयाए इरियावहियं पक- । साम्परायिक्याः प्रकरणेन ऐपिथिकी प्रक- साम्परायिकी करने से ऐपिथिकी करता है। रोति। एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरि- एवं खलु एकः जीवः एकस्मिन् समये द्वे क्रिये इस प्रकार एक जीव एक समय में दो क्रियाएं याओ पकरेति, तं जहा-इरियावहियंच, प्रकरोति, तद् यथा-ऐर्यापथिकी च, साम्प- करता है, जैसे-ऐर्यापथिकी और साम्परायिकी। संपराइयं च ॥ रायिकी च। रेइ। ४४५. से कहमेयं भंते ! एवं ? तत् कथमेतत् भदन्त ! एवम् ? ४४५. भन्ते ! यह इस प्रकार कैसे होता है ? गोयमा ! जणं ते अण्णउत्थिया एव- गौतम ! यत् ते अन्ययूथिकाः एवमाख्यान्ति, गौतम ! वे अन्ययूथिक जो इस प्रकार आख्यान, माइक्खंति, एवं भासंति, एवं पण्णवेंति, एवं भाषन्ते, एवं प्रज्ञापयन्ति, एवं प्ररूप- भाषण, प्रज्ञापन और प्ररूपण करते हैं-एक एवं परुति-एवं खलु एगे जीवे एगेणं यन्ति एवं खलु एकः जीवः एकस्मिन् समये जीव एक समय में दो क्रियाएं करता है यावत् समएणं दो किरियाओ पकरेति जाव द्वे क्रिये प्रकरोति यावद् ऐपिथिकी च, ऐपिथिकी और साम्परायिकी। इरियावहियं च, संपराइयं च। साम्परायिकी च।। जे ते एवमाहंसु । मिच्छा ते एवमाहंसु। ये एते एवमाहुः । मिथ्या ते एवमाहुः । अहं जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। गौतम ! अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि, एवं पुनः गौतम ! एवमाख्यामि, एवं भाषे, एवं मैं इस प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन और भासेमि, एवं पण्णवेमि, एवं परूवेमि- प्रज्ञापयामि, एवं प्ररूपयामि--एवं खलु एकः प्ररूपण करता हूं--एक जीव एक समय में एक एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एवं जीवः एकस्मिन् समये एकां क्रियां प्रकरोति, क्रिया करता है, जैसे-ऐर्यापथिकी अथवा किरियं पकरेइ, तं जहा-इरियावहियं वा, तद् यथा-ऐर्यापथिकी वा, साम्परायिकी साम्परायिकी। संपराइयं वा। जं समयं इरियावहियं पकरेइ, नो तं समयं यस्मिन् समये ऐपिथिकी प्रकरोति, नो जिस समय ऐपिथिकी करता है, उस समय साम्पसंपराइयं पकरेइ । तस्मिन् समये साम्परायिकी प्रकरोति। रायिकी नहीं करता। जं समयं संपराइयं पकरेइ, नो तं समयं यस्मिन् समये साम्परायिकी प्रकरोति, नो। जिस समय साम्परायिकी करता है, उस समय इरियावहियं पकरे।। तस्मिन् समये ऐपिथिकी प्रकरोति। ऐपिथिकी नहीं करता। इरियावहियाए पकरणयाए णो संपराइयं ऐर्यापथिक्याः प्रकरणेन नो साम्परायिकी प्रक- ऐपिथिकी करने से साम्परायिकी नहीं करता। पकरेइ। रोति। संपराइयाए पकरणयाए नो इरियावहियं साम्परायिक्याः प्रकरणेन नो ऐपिथिकी प्रक- साम्परायिकी करने से ऐर्यापथिकी नहीं करता। पकरेइ। रोति। एवं खल एगे जीवे एगेणं समएणं एगं एवं खलु एकः जीवः एकस्मिन् समये एकां इस प्रकार एक जीव एक समय में एक क्रिया किरियं पकरेइ, तं जहा–इरियावहियं वा, क्रियां प्रकरोति, तद् यथा-ऐयोपथिकी वा, करता है, जैसे-ऐर्यापथिकी अथवा साम्परासंपराइयं वा॥ साम्परायिकी वा। यिकी। वा। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १६३ श.१: उ.१०. स.४४४-४४६ भाष्य १. सूत्र ४४४,४४५ प्रस्तुत आलापक में कर्मबंध के हेतु की मीमांसा है। केवल का एक साथ होना संभव नहीं है। यह भगवान महावीर का दर्शन काययोग के प्रत्यय (परिणामी कारण) से होने वाले कर्मबंध का नाम है। कुछ दार्शनिक दोनों क्रियाओं का एक साथ होना मानते थे। है-ऐर्यापथिकी क्रिया और कषाय के प्रत्यय से होने वाले कर्मबन्ध सूत्र में उनका नाम-निर्देश नहीं है। किंतु प्रकरण की दृष्टि से यह का नाम है साम्परायिकी क्रिया।' अवीतराग प्राणी के साम्परायिकी ___प्रतीत होता है कि यह किसी श्रमण-सम्प्रदाय का अभिमत है। बौद्ध क्रिया होती है और वीतराग के ऐपिथिकी क्रिया। एक अकषायोदय साहित्य में ईर्यापथ शब्द का प्रयोग मिलता है। आजीवक-सम्प्रदाय से प्रभव है और दूसरी कषायोदय से प्रभव है; इसलिए इन दोनों में इस अभिमत की सम्भावना की जा सकती है। उपपात-पदं उपपात-पदम् उपपात-पद ४४६. निरयगई णं भंते ! केवतियं कालं निरयगतिः भदन्त ! कियन्तं कालं विरहिता ४४६. भन्ते ! नरक गति कितने समय तक उपपात विरहिया उववाएणं पण्णता? उपपातेन प्रज्ञप्ता ? से विरहित प्रज्ञप्त है ? गोयमा ! जहण्णेणं एकं समयं, उक्कोसेणं __गौतम ! जघन्येन एक समयम, उत्कर्षेण गौतम ! जधन्यतः एक समय, उत्कर्षतः बारह बारस मुहत्ता॥ द्वादश मुहूर्तान् । मुहुर्त। ४४७. एवं वकंतीपयं भाणियब्वं निरवसेसं॥ एवम् अवक्रान्तिपदं भणितव्यं निरवशेषम् । ४४७. इस प्रकार अवक्रान्ति-पद (पण्णवणा, ६) अविकल रूप से वक्तव्य है। ४४८. सेवं भंते ! सेवं भंते ति जाव विहरइ॥ तदेवं भदन्त । तदेवं भदन्त ! इति यावद् ४४८. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही विहरति । है। इस प्रकार भगवान् गौतम यावत् संयम और तप से अपने आप को भावित करते हुए विहरण कर रहे हैं। १. भ.वृ.१।४४४-'इरियावहिय'ति ईर्यागमनं तद्विषयः पन्थाः-मार्ग ईर्या- पथस्तत्र भवा ऐपिथिकी, केवलकाययोगप्रत्ययः कर्मबन्ध इत्यर्थः। 'संप राइयं च'त्ति संपरैति—परिभ्रमति प्राणी भवे एभिरिति संपरायाः–कषायास्तत् प्रत्यया या सा साम्परायिकी, कषायहेतुकः कर्मवन्ध इत्यर्थः । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीअंसतं द्वितीय शतक Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख प्रस्तुत शतक तत्त्वविद्या की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। जैन दर्शन को दो काल-खण्डों में विभक्त किया जा सकता है—आगमयुग का दर्शन और आगमोत्तरयुग का दर्शन । आगमोत्तर युग के दर्शन में 'द्रव्य' शब्द बहुत प्रचलित हुआ है। आगम-युग में द्रव्य के लिए अस्तिकाय' का प्रयोग मिलता है। 'द्रव्य' शब्द मुख्यतः वैशेषिक दर्शन में व्यवहृत रहा है। 'अस्तिकाय' अस्तित्व का वाचक एक महत्वपूर्ण शब्द है इसका प्रयोग किसी अन्य दर्शन में प्राप्त नहीं है। प्रस्तुत शतक में अस्तिकाय का निरूपण हुआ है। महावीर के निरूपण की चार मुख्य दृष्टियां रही हैं—द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। इन दृष्टियों के आधार पर कहा जा सकता है कि सापेक्षता के बिना किसी भी अस्तित्व का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता। अस्तिकाय अचेतन और चेतन इन दो भागों में विभक्त है। जीव चेतन है, शेष चार-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय—अचेतन हैं। इनमें पुद्गलास्तिकाय—मूर्त है, शेष चार अमूर्त हैं। यह मूर्त-अमूर्त का विभाग भी जैन दर्शन में बहुत प्राचीन काल से मान्य है।' आकाश का लोकाकाश और अलोकाकाश-इन दो भागों में विभाजन जैन दर्शन की मौलिक स्थापना है। इस स्थापना का अध्ययन महान् वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टीन की आकाशविषयक अवधारणा से किया जा सकता है।' आकाश की भांति काल के भी दो प्रकार मिलते हैं—नैश्चयिक काल और व्यावहारिक काल । नैश्चयिक काल का संबंध प्रत्येक अस्तित्व के साथ है। व्यावहारिक काल का संबंध सूर्य की गति के साथ है। सूर्य केवल मनुष्य-लोक में ही गतिशील है। जहां सूर्य की गति होती है, वह क्षेत्र समय-क्षेत्र कहलाता है। जीव अमूर्त है, उसे इन्द्रियों से देखा नहीं जा सकता। फिर भी वह अपने जीवत्व को उपदर्शित करता है। इस उपदर्शन के दो पथ हैं—१. शक्ति का प्रयोग २. ज्ञान का प्रयोग।' शक्ति का प्रयोग पुद्गल में भी होता है, किन्तु उसमें ज्ञान नहीं होता। जीव और अजीव के बीच भेदरेखा खींचने का सूत्र शक्ति और गति नहीं है, केवल ज्ञान ही है। जीवविज्ञान आगम-युग के दर्शन का मुख्य विषय रहा है। इसकी पुष्टि के अनेक साक्ष्य प्राप्त हैं। आगम-साहित्य में आहार और श्वास से लेकर चेतना के चरम विकास तक का गहन अध्ययन मिलता है। श्वास-विषयक महावीर और गौतम का संवाद बहुत रोचक है: गौतम ने पूछा-भंते ! दो, तीन, चार इन्द्रियवाले जीव श्वास लेते हैं, हम जानते-देखते हैं। क्या एक इन्द्रिय वाले जीव-पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, और वनस्पतिकाय-भी श्वास लेते हैं ? महावीर–हां, वे भी उच्छ्वास-निःश्वास, आन और अपान करते हैं। पेड़-पौधे श्वास लेते हैं—यह सूक्ष्म यन्त्र वाले वैज्ञानिक युग में कहना आश्चर्य की बात नहीं है, किन्तु ढाई हजार वर्ष पहले ऐसा कहना सचमुच आश्चर्य है। यांत्रिक उपकरणों द्वारा जो नहीं जाना जा सकता, वह निरावरण चेतना से जाना जा सकता है, इस स्थापना में कोई कठिनाई नहीं है। कुछ प्राचीन ग्रन्थों में पेड़-पौधों को सजीव बतलाया गया है, किन्तु वे श्वास लेते हैं, किस द्रव्य का श्वास लेते हैं, कितनी दिशाओं से श्वास लेते हैं आदि-आदि विषय कहीं उपलब्ध नहीं हैं। प्रस्तुत शतक में इन विषयों की महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। प्रस्तुत शतक में जीव के छह निरुक्त मिलते हैं। आगम-युग में सांप्रदायिक अभिनिवेश प्रबल नहीं था। उस समय विभिन्न मतवादों और तीर्थों के परिव्राजक और संन्यासी दूसरे सम्प्रदाय के आचार्यों के पास मुक्त भाव से जाते, तत्त्वचर्चा करते और प्रश्न का समाधान पाते। इस सन्दर्भ में परिव्राजक स्कन्दक भगवान महावीर के पास आए, लोक के विषय में अनेक प्रश्न पूछे। भगवान महावीर ने उनका समाधान दिया। मताग्रह प्रबल नहीं था, दृष्टिकोण १. सूत्र १२४-१३५। २. सूत्र १३८-१४०। 3. The Universe and Dr. Einstein by Lincoln Barnett, pp.32,96. ४. सूत्र १२२,१२३ । ५. सूत्र १३६,१३७। ६. सूत्र २-८॥ ७. सूत्र १३-१५॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श.२ः आमुख १६८ बदला और वे महावीर के शिष्य बन गए।' भगवान महावीर के समय भगवान पार्श्व की परम्परा भी विद्यमान थी। इस विषय में पापित्यीय स्थविर और तुंगिया नगरी के श्रावकों के बीच का संवाद उल्लेखनीय है। श्रावकों ने प्रश्न पूछे और स्थविरों ने उनका समाधान दिया। उसकी चर्चा अनेक नगरों में फैल गई। गौतम स्वामी ने राजगृह में उस चर्चा को सुना और भगवान से पूछा-पापित्यीय स्थविरों ने जो उत्तर दिए, क्या वे सही हैं ? क्या वे स्थविर उत्तर देने में समर्थ हैं ? स्थविरों द्वारा दिए गए उत्तरों का भगवान ने समर्थन किया। सत्य की संवादिता का यह एक महत्त्वपूर्ण आलेख है। प्रस्तुत शतक में दार्शनिक, आचारशास्त्रीय, लोकविद्या, ऐतिहासिक आदि अनेक विषय उल्लिखित हैं। इनके गम्भीर अध्ययन से विद्या की अनेक महनीय शाखाओं का उद्घाटन हो सकता है। १. सूत्र २०-७३। २. सूत्र ६२-१११। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहणी गाहा मूल १. ऊसास खंदए वि य, २. समुग्धाय ३,४. पुढविंदिय ५. अण्णउत्थि ६. भासा य । ७. देवाय ८. चमरचंचा, ६,१०. समयक्खित्तत्थिकाय बीयसए ॥ १॥ उक्खेव-पदं १. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णामं नयरे होत्या वण्णओ। सामी समोसढे । परिसा निग्गया । धम्मो कहिओ । पडिगया परिसा ॥ सासुसास-पदं २. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्टे अंतेवासी जाव पवासमाणे एवं वदा जे इमे भंते! बेइंदिया तेइंदिया चउरिदिया पंचिंदिया जीवा, एएसि णं आणामं वा पाणामं वा उस्सा वा निस्सासं वा जाणामो पासामो । जे इमे पुढविकाइयां जाव वणप्फइकाइया — एगिंदिया जीवा, एएसि णं आणावा पाणामं वा उस्सासं वा निस्सासं वा न याणामो न पासामो । एए णं भंते! जीवा आणमंति वा ? पाणमंति वा ? ऊससंति वा ? नीससंति वा? हंता गोयमा ! एए विणं जीवा आणमंति वा, पाणमंति वा, ऊससंति वा, नीससंति वा ॥ बीअं सयं : दूसरा शतक पढमो उद्देसो : पहला उद्देशक कृ संग्रहणी गाथा उच्छ्वासः स्कन्दकोऽपि च, समुद्घातः पृथिवीन्द्रियी अन्ययूथिकः भाषा च । देवाश्च चमरचञ्चा, समयक्षेत्रास्तिकाय द्वितीयशते ॥ उत्क्षेप-पदम् तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहः नाम नगरमासीत् वर्णकः | स्वामी समवसृतः । परिषद् निर्गता । धर्मः कथितः । प्रतिगता परिषद् | श्वासोच्छ्वास-पदम् तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य ज्येष्ठः अन्तेवासी यावत् पर्युपासीनः एवमवादीत्— ये इमे भदन्त ! द्वीन्द्रियाः त्रीन्द्रियाः चतुरिन्द्रियाः पञ्चेन्द्रियाः जीवाः, एतेषाम् आनं ( आनायामं ) वा अपानम् (अपानायामं ) वा उच्छ्वासं वा निःश्वासं वा जानीमः पश्यामः । ये इमे पृथिवीकायिकाः यावद् वनस्पतिकायिकाः एकेन्द्रियाः जीवाः एतेषाम् आनं (आनायामं ) वा अपानम् (अपानायामं ) वा उच्छ्वासं वा निःश्वासं वा न जानीमः न पश्यामः । एते भदन्त ! जीवाः आनन्ति वा ? अपानन्ति वा ? उच्छ्वसन्ति वा? निःश्वसन्ति वा? हंत गौतम । एतेऽपि जीवाः आनन्ति वा अपानन्ति वा, उच्छ्वसन्ति वा निःश्वसन्ति वा । हिन्दी अनुवाद संग्रहणी गाथा दूसरे शतक में दस उद्देशक हैं - १. उच्छ्वासनिःश्वास और स्कन्दक २. समुद्घात ३. पृथ्वी ४. इन्द्रियां ५. अन्ययूधिक ६. भाषा ७. देव ८. चमरचञ्चा ६. समयक्षेत्र १०. अस्तिकाय । उत्क्षेप-पद १. उस काल और उस समय राजगृह नामक नगर था— नगर-वर्णन | वहां भगवान् महावीर आए। परिषद् ने नगर से निगमन किया। भगवान् ने धर्म कहा । परिषद् वापिस नगर में चली गई। श्वासोच्छ्वास-पद २. उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति अनगार यावत् भगवान् की पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले भन्ते ! ये जो द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय जीव हैं, इनके आन, अपान तथा उच्छ्वास और निःश्वास को हम जानते हैं, देखते हैं । ये जो पृथ्वीकायिक अपकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय जीव हैं, इनके आन, अपान तथा उच्छ्वास और निःश्वास को हम न जानते हैं और न देखते हैं। भन्ते ! क्या ये जीव आन, अपान तथा उच्छ्वास और निःश्वास करते हैं ? हां, गौतम ! ये जीव भी आन, अपान तथा उच्छ्वास और निःश्वास करते हैं। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.२: उ.१: सू.३-७ २०० भगवई ३. किण्णं भंते ! एते जीवा आणमंति वा? किं भदन्त ! एते जीवाः आनन्ति वा ? ३. भन्ते ! ये जीव किसका आन, अपान तथा पाणमंति वा ? ऊससंति वा ? नीससंति अपानन्ति वा ? उच्छ्वसन्ति वा ? निःश्व- उच्छ्वास और निःश्वास करते हैं ? वा ? सन्ति वा? गोयमा ! दबओ अणंतपएसियाई दवाई, गौतम ! द्रव्यतः अनन्तप्रदेशिकानि द्रव्याणि, गौतम ! ये जीव द्रव्य की अपेक्षा से अनन्तप्रदेशी, खेत्तओ असंखेजपएसोगाढाई, कालओ क्षेत्रतः असंख्येयप्रदेशावगाढानि, कालतः क्षेत्र की अपेक्षा से असंख्येयप्रदेशावगाढ, काल अण्णयरठितियाई, भावओ वण्णमंताई अन्यतरस्थितिकानि, भावतः वर्णवन्ति गन्ध- की अपेक्षा से किसी भी स्थिति वाले और भाव गंधमंताई रसमंताई फासमंताई आणमंति वन्ति रसवन्ति स्पर्शवन्ति आनन्ति वा, अपा- की अपेक्षा से वर्ण-गन्ध-रस-तथा स्पर्श-युक्त वा, पाणमंति वा, ऊससंति वा, नीससंति नन्ति वा, उच्छ्वसन्ति वा, निःश्वसन्ति वा । पुद्गल-द्रव्यों का आन, अपान तथा उच्छ्वास वा॥ और निःश्वास करते हैं। ४. जाई भावओ वण्णमंताई आणमंति वा, यानि भावतः वर्णवन्ति आनन्ति वा, अपान- ४. वे भाव की अपेक्षा से जिन वर्णयुक्त पुद्गल-द्रव्यों पाणमंति वा, ऊससंति वा, नीससंति या न्ति वा, उच्छ्वसन्ति वा, निःश्वसन्ति वा का आन, अपान तथा उच्छ्वास और निःश्वास ताई किं एगवण्णाई जाव किं पंचवण्णाई तानि किम् एकवर्णानि यावत् किं पञ्चवर्णानि करते हैं, क्या उन एक वर्ण यावत् पांच वर्णयुक्त आणमंति वा ? पाणमंति वा ? ऊससंति आनन्ति वा ? अपानन्ति वा ? उच्छ्वसन्ति पुद्गल-द्रव्यों का आन, अपान तथा उच्छ्वास वा ? नीससंति वा ? वा? निःश्वसन्ति वा? और निःश्वास करते हैं ? गोयमा! ठाणमग्गणं पडुच्च एगवण्णाई पि गौतम ! स्थानमार्गणां प्रतीत्य एकवर्णान्यपि गौतम ! स्थानमार्गणा की अपेक्षा से वे एक वर्ण जाव पंचवण्णाई पि आणमंति वा, पाणमंति यावत् पञ्चवर्णान्यपि आनन्ति वा, अपानन्ति यावत् पांच वर्णयुक्त पुद्गल-द्रव्यों का आन, वा, ऊससंति वा, नीससंति वा। विहाण- वा, उच्छ्वसन्ति वा, निःश्वसन्ति वा। विधा- अपान तथा उच्छ्वास और निःश्वास करते हैं। मग्गणं पडुच कालवण्णाई पि जाव सुक्किला- नमार्गणां प्रतीत्य कालवर्णानि यावत् । विधानमार्गणा की अपेक्षा से वे कृष्ण वर्ण यावत् इं पि आणमंति वा, पाणमंति वा, ऊस- शुक्लान्यपि आनन्ति वा, अपानन्ति वा, शुक्ल वर्ण-युक्त पुद्गल द्रव्यों का आन, अपान संति वा, नीससंति वा । आहारगमो नेयम्बो उच्छ्वसन्ति वा, निःश्वसन्ति वा। आहारगमो तथा उच्छ्वास और निःश्वास करते हैं। यहां जाकनेतव्यो यावत् आहार का गमक (पण्णवणा,२८१७-१८) वक्तव्य है यावत् ५. एए णं भंते ! जीवा कइदिसं आणमंति वा? पाणमति वा ? ऊससंति वा ? नीससंति वा ? गोयमा ! निवाघाएणं छद्दिसि, वाघायं पडुच्च सिय तिदिसिं सिय चउदिसि सिय पंचदिसिं॥ एते भदन्त ! जीवाः कति दिशः आनन्ति ५. भन्ते ! ये जीव कितनी दिशाओं में आन, अपान वा? अपानन्ति वा ? उच्छ्वसन्ति वा ? तथा उच्छ्वास और निःश्वास करते हैं ? निःश्वसन्ति वा? गौतम ! निर्व्याघातेन षड्दिशः, व्याघातं । गौतम ! व्याघात न हो तो छहों दिशाओं में और प्रतीत्य स्यात् त्रिदिशः स्याच् चतुर्दिशः स्यात् व्याघात की अपेक्षा से कदाचित तीन दिशाओं, पञ्चदिशः। कदाचित् चार दिशाओं और कदाचित् पांच दिशाओं में आन, अपान तथा उच्छ्वास और नि:श्वास करते हैं। ६. किणं भंते ! नेरइया आणमंति वा ? पाणमंति वा ? ऊससंति वा ? नीससंति किं भदन्त ! नैरयिकाः आनन्ति वा ? अपा- ६. भन्ते ! नैरयिक जीव किसका आन, अपान तथा नन्ति वा ? उच्छ्वसन्ति वा ? निःश्वसन्ति उच्छ्वास और निःश्वास करते हैं ? वा? वा? तं चेव जाव नियमा छद्दिसिं आणमंति वा, तच्चैव यावन् नियमात् षड्दिशः आनन्ति वा, पाणमंति वा, ऊससंति वा, नीससंति वा॥ अपानन्ति वा, उच्छ्वसन्ति वा, निःश्वसन्ति यह एकेन्द्रिय जीवों की भांति (सू. ३,४) वक्तव्य है, यावत् नैरयिक नियमतः छहों दिशाओं में आन, अपान तथा उच्छ्वास और निःश्वास करते हैं। वा। ७. जीव-एगिदिया वाघाय-निव्वाघाया च जीव-एकेन्द्रियाः व्याघात-निर्व्याघाताः च ७. सामान्य जीव और एकेन्द्रिय जीवों के व्याघात भाणियब्वा। सेसा नियमा छहिसि ॥ भणितव्याः। शेषाः नियमात् षड्दिशः । और निर्व्याघात का विकल्प वक्तव्य है। शेष सब जीव नियमतः छहों दिशाओं में आन, अपान तथा उच्छ्वास और निःश्वास करते हैं। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २०१ श.२: उ.१: सू.२-७ भाष्य १. सूत्र २-७ जैन दर्शन में इन्द्रिय के आधार पर जीवों का वर्गीकरण किया गया है। उनमें एकेन्द्रिय जीव अव्यक्त हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय जीव उनकी अपेक्षा व्यक्त हैं; एकेन्द्रिय जीव के पांच प्रकार हैं-पृथ्वीकायिक अपकायिक, तेजस्कायिक वायुकायिक और वनस्पतिकायिक। जीवन का मुख्य लक्षण है श्वास। जो श्वास लेता है, उसमें जीवन है और जो श्वास नहीं लेता है, उसमें जीवन नहीं है यह एक पहचान बनी हुई है। तब यह प्रश्न उठा-यदि एकेन्द्रिय जीव हैं तो उनमें श्वास होना चाहिए। एकेन्द्रिय जीव श्वास लेते हैं-वह विषय ज्ञात नहीं है। क्या वे सचमुच श्वास लेते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान ने कहा-एकेन्द्रिय जीव भी श्वास लेते हैं। बनस्पति का जीवत्व प्राचीन साहित्य में भी यत्र-तत्र चर्चित है, किन्तु पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु का जीवत्व कहीं भी सम्मत नहीं है। विज्ञान की दृष्टि से भी वनस्पति का जीवत्व प्रमाणित है। पृथ्वी आदि के जीवत्व के विषय में वह मौन है। वनस्पति के जीव श्वास लेते हैं-इसकी स्वीकृति वैज्ञानिक जगत् में भी है। शेष पृथ्वी आदि का जीवत्व भी सम्मत नहीं है, फिर श्वास लेने का प्रश्न ही नहीं उठता। भगवान महावीर ने एकेन्द्रिय जीवों द्वारा श्वास लेने के सिद्धान्त की स्थापना ही नहीं की है, किन्तु उसका पूरा विवरण दिया है। श्वास के पुद्गलों की एक स्वतन्त्र वर्गणा है। उसके पुद्गल ही श्वास के काम में आते हैं। उनका स्वरूप सत्रकार ने निरूपित किया है। शब्द-विमर्श आन, अपान तथा उच्छवास और निःश्वास-द्रष्टव्य भ.१११४ का भाष्य। द्रव्यतः क्षेत्रतः, कालतः भावतः-वस्तु को जानने के लिए अनेक अपेक्षाएं हो सकती हैं। अपेक्षा-चतुष्टयी (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव) उनका न्यूनतम वर्गीकरण है। इनको जाने बिना वस्तु-स्वरूप का सम्यग बोध नहीं होता। क्षेत्र (space) और काल (time)-इन दो आयामों के बिना वस्तु की व्याख्या नहीं हो सकती-यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण है। भगवान् महावीर के अनुसार क्षेत्र और काल की भांति द्रव्य (substance) और भाव (mode)भी वस्तु की व्याख्या के लिए अत्यन्त आवश्यक हैं। प्रस्तुत आगम में इस अपेक्षा-चतुष्टयी का बार-बार उपयोग किया गया है। स्थान-मार्गणा-स्थान का अर्थ है-जाति और मार्गणा का अर्थ है-गवेषणा या जिज्ञासा। विधान-मार्गणा-विधान का अर्थ है प्रकार।' व्याघात और निफ्धात त्रस जीव त्रसनाड़ी के अन्तर्गत होते है; इसलिए वे छहों दिशाओ में श्वासोच्छ्वास लेते हैं। एकेन्द्रिय जीव लोकान्त के कोणों में भी होते है। इसलिए वे तीन, चार अथवा पांच दिशाओं में भी श्वास लेते हैं। यह शेष दिशाओं का व्याघात कोण के कारण होता है। व्याघात और निर्व्याघात-दिशा की स्थापना इस प्रकार है: (3) (1) ५ दिशाओं से ३ दिशाओं से (2) ४ दिशाओं से ६ दिशाओं से १. घन के एक कोण पर होने से नीची, पूर्व और उत्तर दिशाओं में। २. घनकी ऊपर की भुजा के बीच में होने पर नीची, पूर्व पश्चिम और उत्तर दिशाओं में। ३. घन के ऊपर के तल के मध्य में होने पर नीची, पूर्व पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशाओं में। ४. घन के बीच में कहीं भी होने पर छहों दिशाओं में। ३. भ.वृ.२१७। १. त.रा.वा.१७-विधानं प्रकारः। २. भ.वृ.२।७–शेषा नारकादित्रसाः षड्दिशमानमन्ति, तेषां हि त्रसनाड्यन्त भूतत्वात् षड्दिशमुच्छ्वासादिपुद्गलग्रहोऽस्त्येवेति । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.२: उ.१: सू.८,६ २०२ भगवई ८. वाउयाए णं भंते ! वाउयाए चेव आणमंति वा ? पाणमंति वा ? ऊससंति वा ? नीससंति वा? हंता गोयमा ! वाउयाए णं वाउयाए चेव आणमंति वा, पाणमंति वा, ऊससंति वा, नीससंति वा॥ वायुकायः भदन्त ! वायुकायान् चैव आनन्ति वा ? अपानन्ति वा ? उच्छ्वसन्ति वा ? निःश्वसन्ति वा? हन्त गौतम ! वायुकायः वायुकायांश्चैव । आनन्ति वा, अपानन्ति वा, उच्छ्वसन्ति वा, निःश्वसन्ति वा। ८. 'भंते ! वायुकायिक जीव क्या वायुकाय का ही आन, अपान तथा उच्छ्वास और निःश्वास करते हैं ? हां, गौतम ! वायुकायिक जीव वायुकाय का ही आन, अपान तथा उच्छ्वास और निःश्वास करते भाष्य १. सूत्र सहज ही प्रश्न उपस्थित होता है-वे जो श्वास लेते हैं, वह १. स्थावरकाय का चौथा काय, वायु के जीवों का निकाय । वायुकाय है। क्या वायुकाय भी वायुकाय का श्वास लेता है ? यदि २. उच्छ्वास और निःश्वास। वह वायुकाय का श्वास लेता है तो अनवस्था नामक तर्क-दोष आ वृत्तिकार के अनुसार वायुकाय सचेतन है और श्वास-वायु जाएगा। एक वायुकाय का जीव दूसरे वायुकाय का श्वास लेगा, दूसरा तीसरे का, इस श्रृंखला में अन्तिम वायुकाय का जीव किस अचेतन है।' पुद्गल की आठ वर्गणाओं में श्वासोच्छ्वास-वर्गणा का स्वतन्त्र अस्तित्व है। उसका वायुकाय के जीवों से कोई संबंध नहीं का श्वास लेगा? इस प्रकार श्वास लेने की व्यवस्था गड़बड़ा जाएगी। है। वायुकाय के जीव श्वास में श्वास-वर्गणा के पुद्गलों का ग्रहण भगवान ने गौतम के प्रश्न के उत्तर में बतलाया-वायुकाय करते हैं, किसी दूसरे वायुकाय-जीव का ग्रहण नहीं करते; इसलिए वायुकाय का श्वास लेता है। यहां 'अनवस्था' दोष का कोई प्रसंग नहीं है। श्वास-वर्गणा के सूत्र की भाषा से जो प्रश्न उपजा है वह भाषा के स्पष्टीकरण । पुद्गलों के सूक्ष्म होने के कारण उन्हें वायु कहा जाता है, किन्तु से अपने आप समाहित हो जाता है। वास्तव में वे वायुकाय के जीव नहीं हैं। 'वायुकाय' शब्द का प्रयोग दो अर्थों में मिलता हैवाउकायस्स कायद्विइ-पदं वायुकायस्स कायस्थिति-पदम् वायुकाय की कायस्थिति-पद ६. वाउयाए णं भंते ! वाउयाए चेव वायुकायः भदन्त ! वायुकाये चैव अनेक- ६. 'भंते ! क्या वायुकायिक जीव वायुकाय में ही अणेगसयसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता-उद्दाइत्ता शतसहस्रकृत्वः अवद्राय-अवद्राय तत्रैव अनेक लाख बार मर-मर कर वहीं पुनः पुनः उत्पन्न तत्येव भुजो-भुजो पचायाति? भूयो-भूयः प्रत्यायाति ? होता है ? हंता गोयमा ! वाउयाए णं वाउयाए चेव हन्त गौतम ! वायुकायः वायुकाये चैव हां, गौतम ! वायुकायिक जीव वायुकाय में ही अणेगसयसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता-उद्दाइत्ता अनेकशतसहस्रकृत्वः अवद्राय-अवद्राय तत्रैव अनेक लाख बार मर-मर कर वहीं पुनः-पुनः उत्पन्न तत्येव भुजो-भुजो पचायाति ॥ भूयो-भूयः प्रत्यायाति। होता है। भाष्य १. सूत्र ६ प्रस्तत प्रकरण में वायकाय की कायस्थिति निरूपित है। (उसी काय में निरन्तर जन्म लेने की कालावधि) जघन्यतः अन्तर्महत शिति की काला न और उत्कर्षतः असंख्येय काल-असंख्य उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीमुहर्त और उत्कर्षतः तीन हजार वर्ष की है। उसकी कायस्थिति परिमाण है। १. भ.वृ.२१७, अथैकेन्द्रियाणामुच्छ्वासादिभावादुच्छ्वासादेश्च वायुरूपत्वात् संभाव्यौदारिकवैक्रियशरीररूपः तदीयपुद्गलानामानप्राणसज्ञितानामौदारिककिं वायुकायिकानामप्युच्छ्वासादिना वायुनैव भवितव्यमुतान्येन केनापि पृथि- वैक्रियशरीरपुद्गलेभ्योऽनन्तगुणप्रदेशत्वेन सूक्ष्मतर्यंतच्छरीरव्यपदेश्यत्वात्, व्यादीनामिव तद्विलक्षणेन ? इत्याशङ्कायां प्रश्नयनाह–'वाउयाए' णमित्यादि, तथा च प्रत्युच्छ्वासादीनामभाव इति नानवस्था। अथोच्छ्वासस्यापि वायुत्वादन्येनोच्छ्वासवायुना भाव्यं तस्याप्यन्येनैवमन- २. पण्ण.४७६ | वस्था। नैवमचेतनत्वात्तस्य, किं च योऽयमुच्छ्वासवायुः स वायुत्वेपि न वायु- ३. वही,१८०२६ । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ भगवई श.२: उ.१: सू.१०-१२ १०. से भंते ! किं पुढे उद्दाति ? अपुढे स भदन्त ! किं स्पृष्टः अवद्राति ? अस्पृष्टः १०. 'भन्ते ! क्या वायुकायिक जीव स्पृष्ट होकर उद्दाति? अवद्राति ? मरता है ? अथवा अस्पृष्ट रहकर मरता है ? गोयमा ! पुढे उद्दाति, नो अपुढे उद्दाति ॥ गौतम ! स्पृष्टः अवद्राति, नो अस्पृष्टः अव- गौतम ! वह स्पृष्ट होकर मरता है, अस्पृष्ट रहकर नहीं मरता। द्राति। भाष्य १. सूत्र १० आयुष्य दो प्रकार का होता है--सोपक्रम आयु और निरुपक्रम है।' निरुपक्रम आयु वाले वायुकायिक जीव शस्त्र से अस्पृष्ट होकर आयु । 'तत्त्वार्थराजवार्तिक में सोपक्रम और निरुपक्रम के स्थान पर मरते हैं। किन्तु सोपक्रम आयु वाले जीव शस्त्र से स्पृष्ट होकर मरते अपवर्त्य और अनपवर्त्य का निर्देश मिलता है। अपवर्त्य का अर्थ हैं। है-हास। वृत्ति में स्वकाय-शस्त्र और परकाय-शस्त्र दोनों का उल्लेख वृत्तिकार के अनुसार यह सूत्र सोपक्रम आयु की अपेक्षा से किया गया है।' ११. से भंते ! किं ससरीरी निक्खमइ ? स भदन्त ! किं सशरीरी निष्कामति ? ११. 'भन्ते ! क्या वायुकायिक जीव सशरीर असरीरी निक्खमइ? अशरीरी निष्कामति ? निष्कमण करता है ? अथवा अशरीर निष्क्रमण गोयमा ! सिय ससरीरी निक्खमइ, सिय गौतम ! स्यात् सशरीरी निष्कामति, स्याद् करता है? असरीरी निक्खमइ ॥ अशरीरी निष्कामति। गौतम ! वह स्यात् सशरीर निष्क्रमण करता है, स्यात् अशरीर निष्क्रमण करता है। १२. से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचइ–सिय तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते स्यात् १२. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा ससरीरी निक्खमइ, सिय असरीरी सशरीरी निष्कामति, स्याद् अशरीरी है-वायुकायिक जीव स्यात् सशरीर निष्क्रमण निक्खमइ? निष्कामति ? करता है, स्यात् अशरीर निष्क्रमण करता है ? गोयमा ! वाउयायस्स णं चत्तारि सरीरया गौतम ! वायुकायस्य चत्वारि शरीराणि । गौतम ! वायुकायिक जीव के चार शरीर प्रज्ञप्त पण्णता, तं जहा–ओरालिए, वेउबिए, प्रज्ञप्तानि, तद् यथा—औदारिक, वैक्रिय, हैं, जैसे-औदारिक, वैक्रिय, तैजस और तेयए, कम्मए। ओरालिय-वेउब्बियाई तैजसं, कर्मकम् । औदारिक-वैक्रिये विप्रहाय कार्मण। वह औदारिक और वैक्रिय शरीर को विप्पजहाय तेयय-कम्मएहिं निक्खमइ । से तैजस-कर्मकाभ्यां निष्कामति । तत् तेनार्थेन छोड़कर तैजस और कार्मण शरीर के साथ तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुचइ–सिय गौतम ! एवमुच्यते-स्यात् सशरीरी निष्का- निष्क्रमण करता है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह ससरीरी निक्खमइ, सिय असरीरी निक्ख- मति, स्याद अशरीरी निष्कामति। कहा जा रहा है—वह स्यात् सशरीर निष्क्रमण मई॥ करता है, स्यात् अशरीर निष्क्रमण करता है। भाष्य १. सूत्र ११,१२ प्रस्तुत आलापक में शरीर-युक्त और शरीर-मुक्त अवस्थाओं की चर्चा है। संसारी दशा में जीव शरीरमुक्त कभी नहीं होता। औदारिक और वैक्रिय ये दोनों जीवन-पर्यन्त विद्यमान रहने वाले शरीर हैं। मृत्यु के क्षण में ये छूट जाते हैं। जीव नये जन्म-स्थान के लिए प्रस्थान करता है, उस समय अन्तराल-गति में दो शरीर जीव के साथ रहते हैं--तैजस और कार्मण। औदारिक और वैक्रिय शरीर की अपेक्षा से वायुकाय का अशरीर निष्क्रमण होता है। तैजस और कार्मण शरीर की अपेक्षा से उसका सशरीर निष्क्रमण होता है। १. (क) भ. २०१८६ (ख) पण्ण.६/११४-११७। २. त.रा.वा.२१५३–बाह्यप्रत्ययवशादायुषो हासोऽपवर्तः। बाह्यस्योपघात- निमित्तस्य विषशस्त्रादेः सति सविधाने हासोऽपवर्त इत्युच्यते। अपवर्त्य मायुर्वेषां त इमे अपवायुषः नापवायुषोऽनपवायुषः । ३. भ.वृ.२।१०-सोपक्रमापेक्षमिदम्। ४. वही, २११०-स्पृष्टः स्वकायशस्त्रेण परकायशस्त्रेण वा । Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ भगवई श.२: उ.१: सू.१३-१५ मडाइ-नियंठ-पदं मृतादि-निर्ग्रन्थ-पदम् मृतादी-निर्ग्रन्थ-पद १३. मडाई णं भंते ! नियंठे नो निरुद्धभवे, नो मतादी भदन्त ! निर्ग्रन्थः नो निरुद्धभवः, नो १३. 'भन्ते ! याचितभोजी निर्ग्रन्थ, जिसने भव का निरुद्धभवपवंचे, नो पहीणसंसारे, नो पही- निरुद्धभवप्रपञ्चः, नो प्रहीणसंसारः, नो निरोध नहीं किया है और भव के विस्तार का णसंसारखेयणिज्जे, नो वोच्छिण्णसंसारे, नो प्रहीणसंसारवेदनीयः, नो व्यवच्छिन्नसंसारः, निरोध नहीं किया है, जिसने संसार को प्रहीण वोच्छिण्णसंसारवेयणिज्जे, नो निद्वियडे, नो नो व्यवच्छिन्नसंसारवेदनीयः, नो निष्ठितार्थः, नहीं किया है और संसार-वेदनीय कर्म को भी निवियदुकरणिजे पुणरवि इत्थत्थं हव्वमा- नो निष्ठितार्थकरणीयः पुनरपि इत्यंस्थं 'हव्वं' प्रहीण नहीं किया है, जिसने संसार को व्युच्छिन्न गच्छइ? आगच्छति ? नहीं किया है और संसार वेदनीय कर्म को भी व्युच्छिन्न नहीं किया है, जिसने अपना प्रयोजन सिद्ध नहीं किया है और प्रयोजन-पूर्ति के लिए करणीय कार्यों को भी सिद्ध नहीं किया है, क्या फिर इत्थंस्थ (तिर्यञ्च आदि के रूपों) को प्राप्त होता है ? हंता गोयमा ! मडाई णं नियंठे नो हन्त गौतम ! मृतादी निर्ग्रन्थः नो निरुद्धभवः, हां, गौतम ! याचितभोजी निर्ग्रन्थ, जिसने भव निरुद्धभवे, नो निरुद्धभवपवंचे, नो पहीण- नो निरुद्धभवप्रपञ्चः, नो प्रहीणसंसारः, नो का निरोध नहीं किया है और भव के विस्तार संसारे, नो पहीणसंसारवेयणिजे, नो वो- प्रहीणसंसारवेदनीयः, नो व्यवच्छिन्नसंसारः, का निरोध नहीं किया है, जिसने संसार को प्रहीण छिण्णसंसारे, नो वोच्छिण्णसंसारवेयणि- नो व्यवच्छिन्नसंसारवेदनीयः, नो निछितार्थः, नहीं किया है और संसारवेदनीय कर्म को भी जे, नो निवियदे, नो निद्वियद्वकरणिज्जे पुण- नो निष्ठितार्थकरणीयः पुनरपि इत्थंस्थं 'हव्वं' प्रहीण नहीं किया है, जिसने संसार को व्युच्छिन्न रवि इत्थत्यं हब्बमागच्छइ॥ आगच्छति। नहीं किया है और संसार-वेदनीय कर्म को भी व्युच्छिन्न नहीं किया है, जिसने अपना प्रयोजन सिद्ध नहीं किया है और प्रयोजन-पूर्ति के लिए करणीय कार्यों को भी सिद्ध नहीं किया है, फिर से इत्थंस्थ (तिर्यञ्च आदि के रूपों) को प्राप्त होता १४. से णं भंते ! किं ति वत्तव्बं सिया ? स भदन्त ! किमिति वक्तव्यः स्यात् ? १४. भन्ते ! वह किस शब्द के द्वारा वाच्य होता गोयमा ! पाणे त्ति वत्तव्यं सिया। भूए त्ति गौतम ! प्राणः इति वक्तव्यः स्यात् । भूतः वत्तवं सिया। जीवे त्ति वत्तबं सिया। सत्ते इति वक्तव्यः स्यात्। जीवः इति वक्तव्यः त्ति वत्तव्वं सिया। विष्णु त्ति क्त्तव्बं सिया। स्यात् । सत्त्व इति वक्तव्यः स्यात्। विज्ञः वेदे त्ति वत्तव्यं सिया। पाणे भूए जीवे सत्ते इति वक्तव्यः स्यात् । वेदः इति वक्तव्यः विष्णू वेदे त्ति वत्तव्वं सिया॥ स्यात् । प्राणः भूतः जीवः सत्त्वः विज्ञः वेदः इति वक्तव्यः स्यात्। गौतम ! बह प्राण शब्द के द्वारा वाच्य होता है। वह भूत शब्द के द्वारा वाच्य होता है। वह जीव शब्द के द्वारा वाच्य होता है । वह सत्त्व शब्द के द्वारा वाच्य होता है। वह विज्ञ शब्द के द्वारा वाच्य होता है। वह वेद शब्द के द्वारा वाच्य होता है। वह प्राण, भूत, जीव, सत्त्व, विज्ञ और वेद-इस रूप में वाच्य होता है। १५. से केणटेणं पाणे त्ति वत्तबं सिया जाव तत् केनार्थेन प्राणः इति वक्तव्यः स्याद् यावद् १५. भन्ते ! वह किस अपेक्षा से 'प्राण' शब्द के वेदे त्ति वत्तव्वं सिया? वेदः इति वक्तव्यः स्यात् ? द्वारा वाच्य होता है यावत् 'वेद' शब्द के द्वारा वाच्य होता है ? गोयमा! जम्हा आणमइ वा, पाणमइ वा गौतम ! यस्माद् अनिति वा, अपानिति वा, गौतम ! क्योंकि वह आन, अपान तथा उच्छ्वास उस्ससइ वा, नीससइ वा तम्हा पाणे त्ति उच्छ्वसिति वा, निःश्वसिति वा, तस्मात् और निःश्वास करता है, इसलिए वह 'प्राण' शब्द वत्तव्बं सिया। प्राणः इति वक्तव्यः स्यात्। के द्वारा वाच्य होता है। जम्हा भूते भवति भविस्सति य तम्हा भूए यस्माद् भूतः भवति भविष्यति च तस्माद् भूतः क्योंकि वह था, है और होगा, इसलिए वह 'भूत' त्ति वत्तव्यं सिया। इति वक्तव्यः स्यात् । शब्द के द्वारा वाच्य होता है। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २०५ श.२: उ.१: सू.१५-१७ जम्हा जीवे जीवति, जीवत्तं आउयं च कम्मं उवजीवति तम्हा जीवे त्ति वत्तवं सिया। यस्माद जीवः जीवति, जीवत्वं आयुश्च कर्म उपजीवति तस्माज् जीवः इति वक्तव्यः स्यात् । क्योंकि जीव जीता है—प्राण धारण करता है, जीवत्व और आयुष्य कर्म का अनुभव करता है, इसलिए वह 'जीव' शब्द के द्वारा वाच्य होता जम्हा सत्ते सुभासुमेहिं कम्मेहिं तम्हा सत्ते त्ति वत्तवं सिया। जम्हा तित्तकडुकसायंबिलमहुरे रसे जाणइ तम्हा विष्णु त्ति वत्तवं सिया। यस्मात् सत्त्वः शुभाशुभैः कर्मभिः तस्मात् क्योंकि वह शुभ और अशुभ कर्मों के द्वारा सत्त्वः इति वक्तव्यः स्यात् । विषादयुक्त बनता है, इसलिए वह 'सत्त्व' शब्द के द्वारा वाच्य होता है। यस्मात् तिक्तकटुकषायाम्लमधुरान् रसान् क्योंकि वह तिक्त, कटु, कसैले, अम्ल और मधुर जानाति तस्माद् विज्ञः इति वक्तव्यः स्यात्। रसों को जानता है, इसलिए वह 'विज्ञ' शब्द के द्वारा वाच्य होता है। यस्माद् वेदयति च सुख-दुखं तस्माद् वेदः इति । क्योंकि वह सुख-दुःख का वेदन करता है, इसलिए वक्तव्यः स्यात्। तत् तेनार्थेन प्राणः इति वह 'वेद' शब्द के द्वारा वाच्य होता है। इस वक्तव्यः स्याद् यावद् वेदः इति वक्तव्यः अपेक्षा से वह 'प्राण' शब्द के द्वारा वाच्य होता स्यात्। है यावत् 'वेद' शब्द के द्वारा वाच्य होता है। जम्हा वेदेति य सुह-दुक्खं तम्हा वेदे त्ति वत्तवं सिया। से तेणटेणं पाणे त्ति वत्तवं सिया जाब वेदे ति वत्तबं सिया।। १६. मडाई णं भंते ! नियंठे निरुद्धभवे, निरु- मृतादी भदन्त ! निर्ग्रन्थः निरुद्धभवः, निरुद्ध- १६. भंते ! याचितभोजी निर्ग्रन्थ, जिसने भव का दभवपवंचे, पहीणसंसारे, पहीणसंसार- भवप्रपञ्चः, प्रहीणसंसारः, प्रहीणसंसार- निरोध किया है और भव के विस्तार का निरोध वेयणिज्जे, वोच्छिण्णसंसारे, वोच्छिण्ण- वेदनीयः, व्यवच्छिन्नसंसारः, व्यवच्छिन्नसंसार- किया है, जिसने संसार को प्रहीण किया है और संसारवेयणिजे, निद्वियटे, निद्वियटुकरणिज्जे वेदनीयः, निष्ठितार्थः, निष्ठितार्थकरणीयः नो संसारवेदनीय कर्म को भी प्रहीण किया है, जिसने नो पुणरवि इत्थत्थं हब्बमागच्छइ? पुनरपि इत्यंस्थं 'हव्वं' आगच्छति ? संसार को व्युच्छिन्न किया है और संसारवेदनीय कर्म को भी व्युच्छिन्न किया है, जिसने अपना प्रयोजन सिद्ध किया है और प्रयोजन-पूर्ति के लिए करणीय कार्यों को भी सिद्ध किया है, क्या फिर से इत्थंस्थ (तिर्यञ्च आदि के रूपों) को प्राप्त नहीं होता? हंता गोयमा ! मडाई णं नियंठे निरुद्धभवे, हन्त गौतम ! मृतादी निर्ग्रन्थः निरुद्धभवः, हां, गौतम ! याचितभोजी निर्ग्रन्थ, जिसने भव निरुद्धभवपवंचे, पहीणसंसारे, पहीण- निरुद्धभवप्रपञ्चः, प्रहीणसंसारः, प्रहीण- का निरोध किया है और भव के विस्तार का संसारवेयणिजे, वोच्छिण्णसंसारे, वोच्छि- संसारवेदनीयः, व्यवच्छिन्नसंसारः, व्यवच्छिन्न- निरोध किया है, जिसने संसार को प्रहीण किया पणसंसारवेयणिजे, निद्वियटे, निद्वियदु- संसारवेदनीयः, निष्ठितार्थः, निष्ठितार्थकर- है और संसारवेदनीय कर्म को भी प्रहीण किया करणिजे नो पुणरवि इत्थत्यं हव्व- णीयः नो पुनरपि इत्यंस्थं 'हव्वं' आगच्छति। है, जिसने संसार को व्युच्छिन्न किया है और मागच्छइ॥ संसारवेदनीय कर्म को भी व्युच्छिन्न किया है, जिसने अपना प्रयोजन सिद्ध किया है और प्रयोजन-पूर्ति के लिए करणीय कार्यों को भी सिद्ध किया है, फिर से इत्थंस्थ (तिर्यञ्च आदि के रूपों) को प्राप्त नहीं होता। १७. से णं भंते ! किं ति क्त्तवं सिया? स भदन्त ! किमिति वक्तव्यः स्यात् ? १७. भंते ! वह किस शब्द के द्वारा वाच्य होता है। व्यः स्यात् । मुक्तः इति वक्तव्यः पारगए त्ति वत्तवं सिया। प गोयमा ! सिद्धे त्ति वत्तव्वं सिया। बुद्धे ति गौतम ! सिद्धः इति वक्तव्यः स्यात् । बुद्धः गौतम ! वह 'सिद्ध' शब्द के द्वारा वाच्य होता क्त्तव्वं सिया। मत्ते त्ति वत्तव्बं सिया। इति वक्तव्यः स्यात् । मुक्तः इति वक्तव्यः है। वह 'बुद्ध' शब्द के द्वारा वाच्य होता है। पारगए त्ति वत्तवं सिया। परंपरगए त्ति स्यात्। पारगतः इति वक्तव्यः स्यात्।। वह 'मुक्त' शब्द के द्वारा वाच्य होता है। वह वत्तव्यं सिया। सिद्धे बुद्धे मुत्ते परिनिबुडे परंपरगतः इति वक्तव्यः स्यात् । सिद्धः बुद्धः 'पारगत' शब्द के द्वारा वाच्य होता है। वह अंतकडे सव्वदुक्खप्पहीणे त्ति वत्तवं सिया॥ मुक्तः परिनिर्वृतः अन्तकृतः सर्वदुखप्रहीणः 'परंपरगत' शब्द के द्वारा वाच्य होता है। वह इति वक्तव्यः स्यात्। सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत, अन्तकृत, सर्वदुखप्रहीण इस रूप में वाच्य होता है। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.२: उ.१: सू.१३-१७ २०६ भगवई भाष्य १. सूत्र १३-१७ मडाई-चूर्णिकार ने 'मडाई' के दो अर्थ किए हैं-मृतयाची संसार-वेदनीय-व्यवच्छेद का अर्थ है-चतुर्गति-गमन में हेतुभूत और मृताशी। मृत का अर्थ है अचित्त । अचित्त की याचना करने संसारवेदनीय कर्म का व्यवच्छेद होना।। वाला मृतयाची तथा अचित्त का अशन करने वाला मृताशी होता प्रस्तुत विषय की मीमांसा के लिए प्रथम शतक के ३८४ से है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ मृतादी–प्रासुकभोजी किया है। ३६१ तक के सूत्र द्रष्टव्य हैं। चूर्णि और वृत्ति के अर्थ असंगत नहीं हैं। संस्कृत शब्द कोष तात्पर्य की भाषा में कहा जा सकता है कि जिस प्रयोजन के के अनुसार मृत का अर्थ 'याचित' है। मनुस्मृति में भी इसका प्रयोग लिए मुनि बनता है, उस प्रयोजन के सिद्ध न होने पर वह इत्थंस्थ मिलता है। इसके आधार पर मृतादी का अर्थ है-याचितभोजी। अवस्था में चला जाता है और प्रयोजन के सिद्ध हो जाने पर मनि उक्त तीनों अर्थ प्रकरण-संगत हैं। इत्थंस्थ अवस्था को पार कर जाता है। संस्थान दो प्रकार का होता प्रस्तुत आलापक का प्रतिपाद्य यह है-मुनि-जीवन के लिए हैं-इत्थंस्थ और अनित्थंस्थ। संसारी जीव का संस्थान इत्थंस्थकेवल अचितभोजी या याचितभोजी होना ही पर्याप्त नहीं है, उसके नियत आकार वाला, अमुक-अमुक प्रकार का होता हैं ।' वर्गीकृत रूप में उसके छह प्रकार हैं। सिद्ध जीव के अनित्थंस्थ संस्थान होता लिए निरोध, प्रहाण और व्यवच्छेद भी आवश्यक है। है। इत्थंस्थ की विशेष जानकारी के लिए देखें, दसवेआलियं, निरोध-१. भव-निरोध २. भव-प्रपञ्च-निरोध ६।४।७ का टिप्पण। प्रहाण-१. संसार-प्रहाण २. संसारवेदनीय-प्रहाण । संसार-चक्र में पर्यटन करने वाला जीव अवस्था-भेद के अनुसार व्यवच्छेद-१. संसार-व्यवच्छेद २. संसारवेदनीय-व्यवच्छेद। छह नामों से संबोधित होता है। वे नाम सूत्र में निर्दिष्ट हैं। इनमें भव का अर्थ है-जन्म। संसार का अर्थ है-चार गतियों। चौथा नाम 'सत्त' है। में गमन या पर्यटन | भव-निरोध का अर्थ है--चरमदेह, उसके पश्चात् वृत्तिकार ने इसके 'सत्त्व' 'सक्त' और 'शक्त तीन संस्कृत रूप दूसरे जन्म का न होना। दिए हैं। किन्तु इनमें जीव के अर्थ में 'सत्त्व' शब्द अधिक प्रयुक्त भव-प्रपञ्च-निरोध का अर्थ है-देव, मनुष्य आदि जन्मों के और प्रसिद्ध है। 'सत्त्व' का कर्म के साथ संबंध भी विवक्षित है। जीव शुभ-अशुभ कर्म के द्वारा विषाद को प्राप्त होता है, इसलिए विस्तार का निरोध। वह सत्त्व कहलाता है। तत्त्वार्थराजवार्तिक और सर्वार्थसिद्धि में सत्त्व संसार-प्रहाण का अर्थ है-चतुर्गतिगमन का क्षीण होना। की व्याख्या कर्म के सन्दर्भ में मिलती है। संसार-वेदनीय-प्रहाण का अर्थ है-संसार-वेदनीय कर्म का प्रस्तुत आगम के २०११७ में जीव के २३ पर्यायवाची नाम क्षीण होना। निर्दिष्ट हैं। घवला में भी जीव के २० पर्यायवाची नाम बतलाए गए संसार-व्यवच्छेद का अर्थ है-चतुर्गति-गमन के अनुबन्ध का हैं।" प्रस्तुत आलापक (सू. १७) में मुक्त जीव के आठ एकार्थक व्यवच्छेद (विनाश या टूटना) होना। नामों का निर्देश है। १. भ.चू.२।१३-मृतयाजी मडाई मृतासी वा। णेत्थं तद्भाव इत्थत्वं मनुष्यादित्वमिति भावः, अनुस्वारलोपश्च प्राकृतत्वात् । २. म.वृ.२/१३-मृतादी–प्रासुकभोजी,उपलक्षणत्वादेषणीयादी चेति दृश्यम्। ६. ठाणं,६।३१। ३. अभि. ३।५३०-मृतं तु याचितम् । ७. ओवा.सू.१६५,गा.४. मनु. ४।४,५-मृतं स्याद्याचितं भैक्षममृतं स्यादयाचितम् । संठाणमणित्यंत्थं जरामरणविष्पमुकाणं । ५. भ.वृ.२।१३–'नो निरुध्दभवे' ति अनिरुद्धातनजन्मा, चरमभवाप्राप्त ८. भ.वृ.२।१४-यदा तूच्छ्वासादिधर्मंयुगपदसौ विवक्ष्यते तदा प्राणो भूतो इत्यर्थः । अयं च भवद्वयप्राप्तव्यमोक्षोऽपि स्यादित्याह-निरुद्धभवपबंचे त्ति जीवः सत्त्वो विज्ञो वेदयितेत्येतत्तं प्रति वाच्यं स्यात् ।.....सक्तः—आसक्तः प्राप्तव्यभवविस्तार इत्यर्थः । अयं च देवमनुष्यभवप्रपञ्चापेक्षयाऽपि स्यादित्यत शक्तो वा–समर्थः सुन्दरासुन्दरासु चेष्टासु अथवा सक्तः-संवद्धः शुभाशुभैः आह-'णो पहीणसंसारे' ति प्रहीणचतुर्गतिगमन इत्यर्थः। यत एवमत एव कर्मभिरिति। 'नो पहीणसंसारवेयणिज्जे' त्ति अप्रक्षीणसंसारवेद्यकर्मा । अयं च सकृचतुर्गति- ६. (क) त.रा.वा.७।११-अनादिकर्मबन्धवशात् सीदन्तीति सत्त्वाः । अनादिना गमनतोऽपि स्यादित्यत आह–'नो वोच्छिन्नसंसारे' ति अत्रुटितचतु- अष्टविधकर्मबन्धसन्तानेन तीव्रदुःखयोनिषु चतसृषु गतिषु सीदन्तीति सत्त्वाः । गतिगमनानुबन्ध इत्यर्थः । अत एव 'नो वोच्छिन्नसंसारवेयणिजे' त्ति 'नो' नैव (ख) सर्वार्थसिद्धि, ७।११,पृ.३४६-दुष्कर्मविपाकवशान्नानायोनिषु सीदव्यवच्छिन्नम् अनुवन्धव्यवच्छेदेन चतुर्गतिगमनवेद्यं कर्म यस्य स तथा । अतन्तीति सत्त्वाः जीवाः।। एव 'नो निट्ठिय?' ति अनिष्ठितप्रयोजनः। अत एवं 'नो निट्ठियद्वकरणिज्जे'त्ति १०. प.खं.धवला, पु.१, खं.१, भा.१, सू.२, गा.८१,८२-- 'नो' नैव निष्ठितार्थानामिव करणीयानि–कृत्यानि यस्य स तथा । यत एवं जीवो कत्ता य वत्ता य पाणी भोत्ता य पोग्गलो। विधोऽसावतः पुनरपीति, अनादौ संसारे पूर्व प्राप्तमिदानी पुनर्विशुद्धचरणा वेदो विण्हू सयंभूय सरीरी तह माणवो ॥ वाप्तेः सकाशादसम्भवनीयम् 'इत्थंत्थं' ति 'इत्यर्थम् एतमर्थम्-अनेकश सत्ता जन्तू य माणी य माई जोगी य संकडो । असंकडो य खेत्तण्हु अन्तरप्पा तहेब य ॥ स्तिर्यङ्नरनाकिनारकगतिगमनलक्षणम् ‘इत्यत्त'मिति पाठान्तरं तत्रानेन प्रकारे Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई शब्द - विमर्श जीवत्व वृत्तिकार ने जीवत्व का अर्थ 'उपयोग- लक्षण' किया इसका अर्थ प्राणत्व भी किया जा सकता है। जीव प्राण के है।' १८. सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नम॑सति, वंदित्ता नमंसित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति ॥ १६. तए णं समणे भगवं महावीरे रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ चेइआओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ ।। खंदयकहा-पदं २१. तीसे णं कयंगलाए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए छत्तपलासए नामं चेइए होत्या वण्णओ ॥ २२. तए णं समणे भगवं महावीरे उप्पन्ननाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली जेणेव कयंगला नयरी जेणेव छत्तपलासए चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हइ, ओगिहित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ जाव समोसरणं । परिसा निग्गच्छइ । २३. तीसे णं कयंगलाए नयरीए अदूरसामंते सावत्थी नामं नयरी होत्या वण्णओ ॥ स्कन्दककथा-पदम् २० तेणं कालेणं तेणं समएणं कयंगला नामं तस्मिन् काले तस्मिन् समये कयञ्जला नाम नगरी होत्या वण्णओ ॥ नगरी आसीत्-वर्णकः । २४. तत्य णं सावत्थीए नयरीए गद्दभालस्स अंतेवासी खंदए नामं कच्चायणसगोत्ते परिव्वायगे परिवस — रिब्वेद - जजुब्वेद - सामवेद- अहव्वणवेद-इतिहास-पंचमाणं निघंटुछट्ठाणं—चउण्हं वेदाणं संगोवंगाणं सरहस्साणं सारए धारए पारए सडंगवी सद्वितंतविसारए, संखाणे सिक्खाकप्पे वागरणे छंदे निरुत्ते जोतिसामयणे, अण्णेसु १. भ. वृ. २/१५ जीवत्वं उपयोगलक्षणम् । २. प्र. सा. गा. १४७- २०७ द्वारा जीता है, इसलिए यह अर्थ संगत भी है। प्रवचनसार में इस आशय का निरुक्त भी उपलब्ध है। ' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति भगवान् गीतमः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरति । ततः श्रमणः भगवान् महावीर : राजगृहात् नगराद् गुणशिलकाच् चैत्यात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य बहिः जनपदविहारं विहरति । तस्याः कयञ्जलायाः नगर्याः बहिः उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे छत्रपलाशकं नाम चैत्यम् आसीत्-वर्णकः । ततः श्रमणः भगवान् महावीरः उत्पन्नज्ञानदर्शनधरः अर्हत् जिनः केवली यत्रैव कयञ्जला नगरी यत्रैव छत्रपलाशकं चैत्यं तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य यथाप्रतिरूपम् अवग्रहम् अवगृह्णाति, अवगृह्य संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरति यावत् समवसरणम् । परिषद् निर्गच्छति । तस्याः कयञ्जलायाः नगर्याः अदूरसामन्ते श्रावस्ती नाम नगरी आसीत् वर्णकः । तत्र श्रावस्त्यां नगर्यां गर्दभालस्य अन्तेवासी स्कन्दकः नाम कात्यायनसगोत्रः परिव्राजकः परिवसति — ऋग्वेद-यजुर्वेद - सामवेद - अथर्व- वेद- इतिहास - पञ्चमानां निघण्टुषष्ठानांचतुर्णां वेदानां साङ्गोपाङ्गानां सरहस्यानां सारकः धारकः पारगः षडंगविद् षष्टितन्त्रविशारदः संख्याने शिक्षाकल्पे व्याकरणे छन्दसि निरुक्ते ज्यौतिषायणे अन्येषु च बहुषु श.२ः उ.१: सू.१७-२४ १८. भंते ! वह ऐसा ही है, भंते ! वह ऐसा ही है - इस प्रकार भगवान् गौतम श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन - नमस्कार करते हैं, वन्दननमस्कार कर संयम और तप से अपने आप को भावित करते हुए विहरण कर रहे हैं। १६ श्रमण भगवान् महावीर राजगृह नगर और गुणशिलक चैत्य से पुनः निष्क्रमण करते हैं, पुनः निष्क्रमण कर राजगृह के आसपास जनपद में विहरण कर रहे हैं। स्कन्दककथा-पद २०. उस काल और उस समय कयंजला नामक नगरी थी- नगर - वर्णन | २१. उस कयंजला नगरी के बाहर उत्तरपूर्व दिग्भाग (ईशानकोण) में छत्रपलाशक नामक चैत्य थाचैत्य का वर्णन | २२. उत्पन्न ज्ञान-दर्शन के धारक, अर्हत्, जिन, केवली, श्रमण भगवान् महावीर जहां कथंजला नगरी और छत्र पलाशक चैत्य है, वहां आते हैं, वहां आकर वे प्रवास योग्य स्थान की अनुमति लेते हैं, अनुमति लेकर संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए रह रहे हैं यावत् भगवान् का समवसरण । परिषद् का नगर से निष्क्रमण | २३. उस कयंजला नगरी से कुछ दूरी पर श्रावस्ती नामक नगरी थी— नगर - वर्णन । १. २४. उस श्रावस्ती नगरी में गर्दभाल का अन्तेवासी कात्यायनसगोत्र स्कन्दक नाम का परिव्राजक रहता है। वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्वणवेद – ये चार वेद, पांचवाँ इतिहास और छठा निघण्टु इनका सांगोपांग रहस्य- सहित सारक (प्रवर्तक), धारक और पारगामी था। वह छहों अंगों का वेत्ता, षष्टितन्त्र का विशारद, संख्यान, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छन्द, निरुक्त, पाणेहिं चदुहिं जीवदि जीविस्सदि जो हि जीविदो पुब्वं । सो जीवो पाणा पुण पोग्गलदव्वेहिं णिव्वत्ता ॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श.२: उ.१: सू.२४ २०८ य बहूसु बंमण्णएसु परिवायएसु य नयेसु सु- ब्रह्मण्यकेषु परिव्राजकेषु च नयेषु सु- परिनिट्ठिए या वि होत्था॥ परिनिष्ठितश्चापि आसीत् । ज्योतिषशास्त्र, अन्य अनेक ब्राह्मण और परिव्राजक सम्बन्धी नयों में निष्णात था। की कुछ शाओं के आध भाष्य १. सूत्र २४ प्रस्तुत सत्र में स्कन्दक परिव्राजक का शिक्षा-संबंधी जो वर्णन मिश्र के अनुसार षष्टितंत्र के कर्ता वार्षगण्य हैं । उनका समय ईसा किया गया है, वह शैलीगत वर्णन है। देवर्धिगणी के समय में आगमों की तीसरी शताब्दी (ई. स. २३०-३००) माना जाता है। स्कन्दक का संकलन और लिपीकरण हुआ तब वर्णन की कुछ शैलियां सांख्य परिव्राजक था, यह इकतीसवें सूत्र में निर्दिष्ट उपकरणों से स्पष्ट निर्धारित की गई, जैसे-नगरवर्णन, राजवर्णन, चैत्यवर्णन आदि है। “गुणरत्न सूरि ने षड्दर्शनसमुचय की टीका में सांख्य मत के आदि। इसी प्रकार परिव्राजक के वर्णन की भी शैली का मुख्य सूत्र साधुओं के आचार का निम्न प्रकार से वर्णन किया है—'सांख्य मत ओवाइयं है। उसमें परिव्राजक का जो वर्णन है, वही यहां उद्धृत के अनुयायी साधु त्रिदण्डी अथवा एकदण्डी होते हैं, ये कौपीन धारण है।' वहां सांख्य, ब्राह्मण और क्षत्रिय तीनों परम्पराओं के परिव्राजकों करते हैं, गेरुए रंग के वस्त्र पहनते हैं, बहुत से चोटी रखते हैं, का संयुक्त वर्णन है। इसलिए उसमें वैदिक और सांख्य दोनों बहुत से जटा बढ़ाते हैं और बहुत से छुरे से मुण्डन कराते हैं। ये परम्पराओं के साहित्य का उल्लेख है। छान्दोग्य उपनिषद और लोग मृगचर्म का आसन रखते हैं , ब्राह्मणों के घर आहार लेते हैं, महाभारत में केवल वैदिक साहित्य की चर्चा है। वहां षष्टितन्त्र का पांच ग्रास मात्र भोजन करते हैं और बारह अक्षरों का जाप करते उल्लेख नहीं है। परिव्राजक शुक के वर्णन में भी दोनों परम्पराओं हैं । इन लोगों के भक्त नमस्कार करते समय 'ऊँ नमो नारायणाय' का मिश्रण मिलता है। वह सांख्य समय का विद्वान था। उसे वेदों कहते हैं और साधु लोग केवल 'नारायणाय नमः' बोलते हैं। सांख्य का विद्वान् भी बतलाया गया है।' परिव्राजक जीवों की रक्षा के लिए स्वयं जल छानने का वस्त्र रखतें है और अपने भक्तों को पानी छानने के लिये छत्तीस अंगुल लम्बा वैदिक संहिताओं और ब्राह्मणों में 'सांख्य' शब्द का प्रयोग और बीस अंगुल चौड़ा मजबूत वस्त्र रखने का उपदेश देते हैं । ये नहीं मिलता। बृहदारण्यक, छान्दोग्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय और कौषीतकी लोग मीठे पानी में खारा पानी मिलाने से जीवों की हिंसा मानते हैं जैसे प्राचीन उपनिषदों में भी 'सांख्य' शब्द का प्रयोग उपलब्ध नहीं और जल की एक बूंद में अनन्त जीवों का अस्तित्व स्वीकार करते होता। श्वेताश्वतर उपनिषद् में सांख्य और योग का एक साथ प्रयोग हैं । इन लोगों के आचार्यों के साथ 'चैतन्य' शब्द लगाया जाता मिलता है। उसमें अजा (प्रकृति) और अज (पुरुष) का जो निरूपण है ।' सांख्य लोग कर्म-काण्ड को, यज्ञ-याग को और वेद को नहीं है, उससे ज्ञात होता है कि यह उपनिषद् सांख्य दर्शन का ही एक मानते । ये लोग अध्यात्मवादी होते हैं, हिंसा का विरोध करते हैं ग्रंथ रहा है। महाभारत और पुराण-साहित्य में 'सांख्य' का उल्लेख और वेद, पुराण, महाभारत, मनुस्मृति आदि की अपेक्षा सांख्य तत्त्वज्ञान प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है। को श्रेष्ठ समझते हैं । इन लोगों का मत है कि यथेष्ट भोगों का सांख्य दर्शन मूलतः श्रमण-परम्परा का एक दर्शन है। वेद । सेवन करने पर तथा किसी भी आश्रम में रहने पर भी यदि कपिल उसके लिए प्रमाण नहीं रहा। यह ऋषिप्रोक्त दर्शन है। कपिल ऋषि के पच्चीस तत्त्वों का ज्ञान हो गया है. यदि सांख्य मत में भक्ति हो इसके आद्य प्रवर्तक हैं। वे सिद्ध पुरुष थे। श्रीकृष्ण कहते हैं-मैं गई तो बिना क्रिया के भी मक्ति हो सकती है । सांख्यों के मत सिद्धों में कपिल मुनि हूँ। कपिल मुनि ने अपने प्रथम शिष्य आसुरी में पच्चीस तत्त्व और प्रत्यक्ष, अनमान और शब्द ये तीन प्रमाण को सांख्य शास्त्र का उपदेश दिया। उनके शिष्य पंचशिख थे। माने गये हैं । वैदिक ग्रन्थों में कपिल को नास्तिक और श्रुत-विरुद्ध चीनी बौध्द सम्प्रदाय के अनुसार वे षष्टितंत्र के कर्ता माने तंत्र का प्रवर्तक कहकर कपिल-प्रणीत सांख्य और पतञ्जलि के जाते हैं । किंतु यह विवादास्पद है। अहिर्बुध्न्य संहिता और वाचस्पति योग-शास्त्र को अनुपादेय कहा है।" १. ओवा.सू.६७। २. वही,सू.६६,६७। ३. (क) छा.उप.७।१।१,२। (ख) महाभारत, शान्ति पर्व,२०१।७,८६। (२) उत्तराध्ययनः एक समीक्षात्मक अध्ययन,पृ.८१,८२ । ४. नाया,१।५।५२ तेणं कालेणं तेणं समएणं सुए नामं परिब्वायए होत्था रिउव्येय-जजुब्वेय-सामवेय-अथव्वणवेय-सद्वितंतकुसले संखसमए लद्धटे। ५. श्वे.उप.६।१३। ६. गीता,१०।२६ गंधर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः। ७. डा. जगदीशचंद्र जैन, स्याद्वादमंजरी-परिशिष्ट,पृ.३३३-३३५ । ८. (क) वही,पृ.४२२,४२३, (ख) षड्दर्शनसमुच्चय, गुणरत्लसूरि-कृत टीका, तृतीयोऽधिकारः, पृ. १४०--- अथादौ सांख्यमतप्रपन्नानां परिज्ञानाय लिङ्गादिकं निगद्यते। त्रिदण्डा एकदण्डा वा कौपीनवसना धातुरक्ताम्बराः शिखावन्तो जटिनः क्षुरमुण्डाः मृगचर्मासना द्विजगृहाशनाः पञ्चग्रासीपरा वा द्वादशाक्षर-जापिनः परिव्राजकादयः । तद्भक्ताः बन्दमाना ऊँ नमो नारायणायेति वदन्ति, ते तु नारायणाय नम इति प्राहुः । तेषां च महाभारते बीटेति ख्याता दारवी मुखवस्त्रिका मुखनिःश्वासनिरोधिका भूतानां दयानिमित्तं भवति। यदाहुस्ते-- Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २०६ श.२: उ.१: सू.२४ शब्द-विमर्श कात्यायन यह कौशिक गोत्र का एक अवान्तर भेद है।' के लिए उपयुक्त ।” ब्रह्मण्य का अर्थ है-ब्राह्मण के लिए उपयुक्त अथवा ब्राह्मण-संबंधित।" पखिाजक–देखें भ. १। ११३ का भाष्य । निर्ग्रन्थ पिंगल ने स्कन्दक से पाँच प्रश्न पूछे । ये प्रश्न दर्शन निघण्टु नामकोश । इसका दूसरा नाम निघण्ट भी है। यहां विशेषतः वैदिक शब्दों का कोश विवक्षित है। के क्षेत्र में बहुचर्चित रहे हैं। भगवान् महावीर ने इनका समाधान सापेक्ष दृष्टि से किया । इस प्रसंग में भगवान महावीर और गौतम सारक-इसके दो संस्कृत रूप हो सकते हैं-सारक और बुद्ध के दृष्टिभेद का उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा । बुद्ध स्मारक। सारक का अर्थ है-प्रवर्तक और स्मारक का अर्थ है-विस्मृत पाठ की स्मृति कराने वाला ने तात्त्विक प्रश्नों को अव्याकृत (इनकी व्याख्या नहीं की जा सकती) कहकर टाल दिया।" भगवान् महावीर ने तात्त्विक जानकारी को धारक---धारण करने में समर्थ । प्राथमिकता दी । उसे व्याकृत बतलाया और उसका सापेक्ष दृष्टि से पारग-पारगामी। प्रतिपादन किया । प्रस्तुत पाँच प्रश्नों का समाधान मूलसूत्र में स्पष्ट छहों अंगो का वेत्ता-शिक्षादि छह अंग सूत्र में निर्दिष्ट हैं । है। लोकाकाश और एक जीव—दोनों असंख्यप्रदेशात्मक हैं। इस शिक्षा-उच्चारण-शास्त्र । वृत्तिकार ने इसका 'अर्थ अक्षर के अपेक्षा से वे सान्त हैं। काल अनन्त है और भाव (पर्याय) भी स्वरूप का निरूपक शास्त्र' किया है। अनन्त हैं। लोक और जीव त्रैकालिक हैं तथा अनन्त पर्याय वाले कल्प-उत्सव और कर्मकाण्ड का विधान करने वाला शास्त्र । हैं। इस अपेक्षा से उन्हें अनन्त कहा गया है। व्याकरण-शब्द-शास्त्र । सिद्धि का अर्थ सिद्धालय है । यह ईषतप्राग्भारा नाम की छन्द छंद-शास्त्र । आठवीं पृथ्वी है। ओवाइयं में इसके बारह पर्यायवाची नाम निर्दिष्ट हैं।" यह भी काल और भाव की अपेक्षा से अनन्त है। निरुक्त शब्दव्युत्पत्ति-शास्त्र । द्रव्य की अपेक्षा से सिद्ध एक है---यह सिद्धान्त मुक्त आत्मा ज्यौतिषायण-ज्योतिष-शास्त्र । के स्वतंत्र अस्तित्व का प्रतिपादक है। अनन्त जीव मुक्त हो चुके षष्टितंत्र वार्षगण्य द्वारा विरचित सांख्यदर्शन का एक शास्त्र हैं। इस अपेक्षा से सिद्ध अनन्त हैं । यहां 'एक' की विवक्षा विशेष संख्यान वृत्तिकार ने इसका अर्थ गणितस्कन्ध किया है। अर्थ-सूचक है। जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक मुक्त आत्मा का स्वतंत्र नायाघम्मकहाओ में सद्वितंतकुसले के पश्चात् संखसमए लद्धडे पाठ मिलता अस्तित्व होता है। उसका किसी परमात्मा, ईश्वर या ब्रह्म में विलय है। इसके आधार पर सहज ही यह संभावना की जा सकती है नहीं होता। विलय का सिद्धान्त उन दर्शनों के द्वारा स्वीकृत है, जो कि यहां संखाण (संख्यायन) का अर्थ 'सांख्यशास्त्र' होना चाहिए। आत्मा को परमात्मा या ईश्वर का अंश मानते हैं अथवा ब्रह्म का अयन का एक अर्थ है—शास्त्र ।” संख्यायन पद के यकार का लोप प्रपंच मानते हैं । जैन-दर्शन में यह अंशवाद या प्रपंचवाद स्वीकृत करने पर प्राकृत में संखाण शब्द बन जाता है। प्राकृत साहित्य में नहीं है और न ईश्वर या हाहम की स्वतंत्र सत्ता भी स्वीकृत है। अणायणे इस प्रकार के प्रयोग मिलते हैं।" सब आत्माएं समान हैं और सबका स्वतंत्र अस्तित्व है । फिर किसका किसमें विलय हो सकता है ? इस आत्म-स्वातंत्र्य की अपेक्षा से भण्णय बंमण्णय शब्द के संस्कृत रूप दो बनते भगवान महावीर ने स्कन्दक को बतलाया कि सिद्ध द्रव्य की दृष्टि हैं ब्राह्मण्यक और ब्रह्मण्यक । ब्राह्मण्यक का अर्थ है ब्राह्मण से एक है । "घ्राणादितोऽनुयातेन, श्वासेनैकेन जन्तवः। हन्यन्ते शतशो ब्रह्मन्नणुमात्राक्षरवादिनाम् ॥१॥" ते च जलजीवदयार्थं स्वयं गलनकं धारयन्ति, भक्तानां चोपदिशन्ति "षट्विशदङ्मुलायाम, विंशत्यगुलविस्तृतम् । दृढं गलनकं कुर्याद्, भूयो जीवान् विशोधयेत् ।।१।। म्रियन्ते मिष्टतोयेन, पूतराः क्षारसंभवाः । क्षारतोयेन तु परे, न कुर्यात् संकरं ततः ॥२॥ लूतास्यतन्तुगलिते, ये बिन्दौ सन्ति जन्तवः । सूक्ष्मा भ्रमरमानास्ते, नैव मान्ति त्रिविष्टपे ॥३॥" इति गलनकविचारो मीमांसायाम् । .......तेषामाचार्या विष्णुप्रतिष्ठाकारकाश्चैतन्यप्रभृतिशब्दैरभिधीयन्ते । १. ठाणं, ७।३५॥ २. भ.वृ.२१२३ निघण्टो नामकोशः। ३. आप्टे.-निघण्टः, निघण्टुः-Particularly the glossary of Vedic words explained by Yask in bis Nirukta. ४. भ..२१२३–'सारए'त्ति सारकोऽध्यापनद्वारेण प्रवर्तकः स्मारको वाऽन्येषां विस्मृतस्य सूत्रादेः स्मारणात्, ‘वारए'त्ति वारकोऽशुद्धपाठनिषेधात्, 'धारए' क्वचित्पाठः तत्र धारकोऽधीतानामेषां धारणात्, 'पारए'त्ति पारगामी । ५. आप्टे. शिक्षा--The science which teaches the proper pronunciation of words and laws of euphony वर्णस्वराद्युञ्चारप्रकारो यत्रोपदिश्यते सा शिक्षा (Rigveda Bhasya.) ६. भ.वृ.२ । २४-शिक्षा—अक्षरस्वरूपनिरूपकशास्त्रम् । ७. वही,२/२४ कल्पश्च तथाविधसमाचारनिरूपकं शास्त्रमेव । ८. वही,२१२४–'संखाणेति गणितस्कंधे । ६. नाया.१।५।१२सद्वितंतकुसले संखसमए लडे । १०. आप्टे-अयन-sastra, scripture or inspired writing. ११. दसवे.५1१1१०1 १२. आप्टे. ब्राह्मण्य-Befitting a Brahmana. १३. वही, ब्रह्मण्य-Fit for a Brahmana, Relating to Brahmana. १४. मज्झिमनिकाय—चूलमालूक्य सुत्त, ६३। १५.आवा.सू.१६३-१६५ । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. २: उ.१: सू.२४,२५ आत्मा के असंख्य प्रदेश होते हैं और वह लोकाकाश के असंख्य प्रदेशों का अवगाहन कर रहती हैं। सिद्ध की आत्मा अमूर्त होने के कारण स्थान नहीं रोकती; इसलिए जिस स्थान में एक आत्मा के प्रदेश हैं, उस स्थान में अनन्त सिद्ध आत्माओं के प्रदेश भी हैं। इस प्रकार वे अन्योन्य समवगाढ होते हैं ।' उत्तरज्झयणाणि और ओवाइयं में सिद्ध की अवगाहना पूर्वशरीर की अपेक्षा से निर्दिष्ट है। काल की अपेक्षा से सिद्ध को सादि और अपर्यवसित बतलाया गया है । यह एक आत्मा की दृष्टि से प्रतिपादित है । संसारी जीव कर्मबन्ध को क्षीण कर सिद्ध बनता है; इसलिए प्रत्येक सिद्ध सादि होता है, कोई भी सिद्ध अनादि नहीं होता । २ योगसूत्र के व्यास - भाष्य में केवली और ईश्वर में एक भेदरेखा खींची गई है। उसके अनुसार केवली पूर्व अवस्था में बद्ध और फिर मुक्त होता है । ईश्वर सदैव मुक्त होता है । ' जैन दर्शन में सदैव मुक्त आत्मा मान्य नहीं है। फिर भी अनादि सिद्ध का सिद्धान्त स्वीकृत है। पण्णवणा और जीवाजीवाभिगमे में सादि सिद्ध और अनादि सिद्ध ये दोनों मत मिलते है। उत्तरायणाणि में एक आत्मा की अपेक्षा सिद्ध जीव को सादि और अनेक आत्माओं की अपेक्षा सिद्ध जीवों को अनादि बतलाया गया। २५. तत्थ णं सावत्थीए नयरीए पिंगलए नामं नियंठे वेसालियसावए परिवसइ ॥ १. ओव. सू. १६५, गा. ६ १. वैशालिक श्रावक पिंगल के लिए दो विशेषण प्रयुक्त हुए हैं-निर्ग्रन्थ और वैशालिक श्रावक । आगम-साहित्य में 'निर्ग्रन्थ' शब्द मुनि के लिए और 'श्रावक' शब्द गृहस्थ उपासक के लिए प्रयुक्त होता है। यहां एक व्यक्ति के लिए निर्ग्रन्थ और श्रावक इन दोनों विशेषणों का प्रयोग एक प्रश्न उपस्थित करता है । वृत्तिकार ने ' वैशालिक श्रावक' का अर्थ ' महावीर के वचन को सुनने वाला' किया है।' वेसालिया प्रयोग उत्तरज्झयणाणि में भी मिलता है। अनुश्रुति के अनुसार राजा विशाल ने वैशाली नगरी बसाई थी ।" वैशाली राजधानी का नाम जत्थ य एगो सिद्धो, तत्थ अणंता भवक्खयविमुक्का | माढा, पुट्ठा सव्वे य लोगंते ॥ २. (क) उत्तर. ३६ । ६४ । २१० भगवई है।' जो जीव काल की दृष्टि से अनन्त के आठवें भंग की अवधि में चले गए हैं, उन्हें काल की अपेक्षा से अनादि सिद्ध कहा जा सकता है। यह सादि और अनादि का विकल्प सापेक्ष है, किंतु कोई भी जीव बद्ध अवस्था में नहीं रहा, सदा मुक्त रहा, ऐसा अनादि सिद्ध सम्मत नहीं है। प्रारम्भबिंदु की दृष्टि से सिद्ध जीव के दो विकल्प किए गए हैं—सादि सिद्ध और अनादि सिद्ध । इन दोनों प्रकार के सिद्धों का कोई चरम बिंदु नहीं है; इसलिए वे सब अपर्यवसित—पर्यवसानरहित होते हैं। इस अपर्यवसान के सिद्धान्त के द्वारा भगवान् महावीर ने अवतारवाद का अस्वीकार किया है । स्वर्ग में उत्पन्न आत्मा पुण्य के क्षीण होने पर फिर जन्म लेती है। मोक्ष में गई हुई आत्मा का पुनर्जन्म नहीं होता । यह जैन दर्शन का ध्रुव सिद्धान्त है। मुक्त आत्मा के अतिरिक्त किसी भी ईश्वरीय आत्मा का अस्तित्व नहीं है; इसलिए 'संभवामि युगे युगे' जैसा स्वर जैन दर्शन में उच्चरित नहीं है। गोम्मटसार के अनुसार आजीवक मत में मुक्तजीवों का पुनः अवतार लेना सम्मत है। मल्लिषेणसूरि ने भी इस अभिमत का उल्लेख किया है— “ तथा चाहुराजीविकनयानुसारिणः ४. (क) पण्ण. १८७ १।१३ | (ख) जीवा. ६ | १०; १ | ६ | (ख) ओवा. सू. १६५, गा. ३-८ । ३. पा.यो. द. भाष्य, १ ।२४- - - - कैवल्यं प्राप्तास्तर्हि सन्ति च बहवः केवलिनः, ते हि त्रीणि बन्धनानि छित्त्वा कैवल्यं प्राप्ताः, ईश्वरस्य च तत्सम्बन्धो न भूतो न भावी । यथा मुक्तस्य पूर्वा बन्धकोटिः प्रज्ञायते नैवमीश्वरस्य, यथा वा प्रकृतिलीनस्य उत्तरा बंधकोटिः संभाव्यते नैवमीश्वरस्य । स तु सदैव मुक्तः सदैवेश्वर इति । ५. उत्तर. ३६ । ६५ । ६. गो. सा. ३८,६६— अविकम्मवियला सीदीभूदा णिरंजणा णिच्चा तत्र श्रावस्त्यां नगर्यां पिंगलकः नाम निर्ग्रन्थः २५. उस श्रावस्ती नगरी में वैशालिक श्रावक पिंगल वैशालिक श्रावकः परिवसति । नाम का निर्ग्रन्थ रहता था । भाष्य "ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य कर्त्तारः परमं पदम् । गत्वा गच्छन्ति भूयोऽपि भवं तीर्थनिकारतः ।। " ७ ११ भी था और उस जनपद को भी वैशाली कहा जाता था । उस जनपद के नागरिक वैशालिक कहलाते थे ।” इसलिए यह विशेषण भगवान् पार्श्व और महावीर दोनों का हो सकता है। 'श्रावक' शब्द संज्ञावाची और गुणवाची दोनों है । श्रमण संघ के चार अंग हैंश्रमण, श्रमणी श्रावक और श्राविका ।" यहां श्रावक शब्द संज्ञावाची है । इसका अर्थ है श्रमणोपासक — श्रमण की उपासना करने वाला गृहस्थ । प्रस्तुत सूत्र में 'श्रावक' शब्द गुणवाची है । इसका अर्थ है सुनने वाला शृणोतीति श्रावकः । यह प्रयोग विरल ही है । १२ अट्टगुणा कि किद्या लोयग्गणिवासिणो सिद्धा || सदसिव संखो मक्कडि बुद्धो णैयाइयो य वेसेसी । ईसरमंडलि दंसण विदूषणट्टं कयं एवं || (टीका)— कर्माञ्जनसंश्लेषात् संसारसमागमोऽस्तीति मस्करिदर्शनम् । ७. स्याद्वादमंजरी, पृ. ४। ८. भ. वृ. २।२५ विसाला महावीरजननी, तस्या अपत्यमिति वैशालिक:भगवांस्तस्य वचनं शृणोति तद्रसिकत्वादिति वैशालिक श्रावकः तद्वचनामृतपाननिरत इत्यर्थः । ६. द्रष्टव्य, उत्तर. ६ । १७ और उसका टिप्पण । १०. श्रीमद् वाल्मिकेय रामायण, आदिकाण्ड, सर्ग ४६, गा. ११,१२--- इक्ष्वाकोस्तु नरव्याघ्रपुत्रः परमधार्मिकः । अलम्बुसायामुत्पन्नो विशाल इति विश्रुतः ॥ तेन चासीदिह स्थाने विशालेति पुरीकृता । ११. द्रष्टव्य, तीर्थंकर महावीर, पृ. ८३-८५ । १२. भ. २० ॥ ७४ ॥ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २११ श.२: उ.१: सू.२५-२७ बारहवें शतक (सूत्र ३०) में 'बेसालियसावयाणं अरहंताणं' पाठ मिलता प्रकरण में वैशालिकश्रावक निर्ग्रन्थ का विशेषण है और वहां है। वृत्तिकार के अनुसार वह भी मुनि का विशेषण है।' प्रस्तुत 'वैशालिकश्रावक' आहेत का विशेषण है । २६. तए णं से पिंगलए नामं नियंठे ततः सः पिंगलकः नाम निर्ग्रन्थः वैशालिक- २६. 'वह वैशालिकश्रावक पिंगल नाम का निर्ग्रन्थ वेसालियसावए अण्णया कयाइ जेणेव श्रावकः अन्यदा कदाचिद् यत्रैव स्कन्दकः किसी दिन जहां कात्यायनसगोत्र स्कन्दक है, वहां खंदए कचायणसगोत्ते तेणेव उवागच्छइ, कात्यायनसगोत्रः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य ___आता है, आकर कात्यायनसगोत्र स्कन्दक से यह उवागच्छित्ता खंदगं कचायणसगोत्तं स्कन्दकं कात्यायनसगोत्रम् इममाक्षेपं प्रश्न पूछता है—मागध ! इणमक्खेवं पुच्छे-मागहा! पृच्छति-मागध ! १. किं सअंते लोए? अणंते लोए? २.स- १. किं सान्तः लोकः ? अनन्तः लोकः ? १. क्या लोक सान्त है अथवा अनन्त है ? २.जीव अंते जीवे? अणंते जीवे? ३. सअंता २. सान्तः जीवः ? अनन्तः जीवः ? सान्त है अथवा अनन्त है ? ३. सिद्धि सान्त है सिद्धी? अणंता सिद्धी? ४. सअंते सिद्धे? ३. सान्ता सिद्धिः? अनन्ता सिद्धिः? अथवा अनन्त है ? ४. सिद्ध सान्त है अथवा अणंते सिद्धे? ५. केण वा मरणेणं मरमाणे ४. सान्तः सिद्धः ? अनन्तः सिद्धः? ५.केन अनन्त है ? ५. किस मरण से मरता हुआ जीव जीवे बढति वा, हायति वा?–एता- वा मरणेन नियमाणः जीवः वर्धते वा, हीयते बढ़ता है अथवा घटता है ? इस प्रकार मेरे वताव आइक्खाहि बुचमाणे एवं॥ वा?–एतावत् तावद् आख्याहि उच्यमानः द्वारा पूछे गए इतने प्रश्नों का तुम उत्तर दो। एवम्। २७. तए णं से खंदए कचायणसगोते ततः स स्कन्दकः कात्यायनसगोत्रः पिंगलकेन २७. वैशालिकश्रावक पिंगल निर्ग्रन्थ के द्वारा ये पिंगलएणं नियंठेणं वेसालियसावएणं निर्ग्रन्थेन वैशालिकश्रावकेण इममाक्षेपं पृष्टः प्रश्न पूछे जाने पर कात्यायनसगोत्र स्कन्दक इणमक्खेवं पुच्छिए समाणे संकिए कंखिए सन् शङ्कितः काङ्क्षितः विचिकित्सितः शंकित, कांक्षित, विचिकित्सित, भेदसमापन्न और वितिगिच्छिए भेदसमावन्ने कलुससमावन्ने भेदसमापन्नः कलुषसमापनः नो संशक्नोति कलुषसमापन हो जाता है। वह वैशालिकश्रावक णो संचाएइ पिंगलयस्स नियंठस्स पिंगलस्य निर्ग्रन्थस्य वैशालिकश्रावकस्य पिंगल निर्ग्रन्थ को कुछ भी उत्तर देने में अपने वेसालियसावयस्स किचि वि पमक्खि- किंचिदपि प्रमोक्षमाख्यातम तष्णीकः सन्ति- आपको समर्थ नहीं पाता है, मौन हो जाता है। मक्खाइउं, तुसिणीए संचिदुइ ॥ छते। भाष्य १. सूत्र २६,२७ आक्षेप वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'प्रश्न' किया है। संस्कृत अनुसार अर्थ-परिवर्तन हुआ है। स्कन्दक पिगंल के प्रश्नों का उत्तर शब्दकोश में इसका एक अर्थ 'संदेह' भी मिलता है।' आक्षेप शब्द देने में अपने आपको असमर्थ पाता है। उस समय उसकी जो मनोदशा क्षिपंप्रेरणे धातु से निष्पन्न हुआ है। प्रश्न करने वाला समाधान बनी, उसका चित्रण इन पांच पदों के द्वारा किया गया है। देने वाले व्यक्ति को प्रेरित करता है। इससे प्रस्तुत अर्थ के साथ शंकित-इसका उत्तर 'यह होगा अथवा यह होगा ?' इस इस शब्द की संगति हो जाती है। प्रकार वह संदिग्ध हो गया । प्रमोक्ष-वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'उत्तर' किया है।' प्रश्नकर्ता कांक्षित-'यह उत्तर ठीक होगा अथवा नहीं । इसका उत्तर स्वतंत्र होता है। उत्तरदाता उसके प्रश्न से बंधा होता है। वह उत्तर मुझे कैसे मिलेगा ?'-इस प्रकार वह उत्तर की आकांक्षा से कांक्षित देकर उस बंधन से मुक्त होता है; इसलिए इसका नाम प्रमोक्ष है। हो गया । उत्तरज्झयणाणि में प्रश्न और उत्तर के अर्थ में आक्षेप और प्रमोक्ष का विचिकित्सित-'मैं जो उत्तर दूंगा उसे पिंगल निर्ग्रन्थ मान्य प्रयोग मिलता है। संस्कृत शब्दकोश में प्रमुच् धातु का अर्थ बोलना करेगा या नहीं ?'-वह इस विचिकित्सा से समापन्न हो गया । भेदसमापन–मतिभंग किकर्तव्यविमूढता से व्याकुल हो शंकित, कांक्षित, विचिकित्सित, भेदसमापन्न, कलुषसमापन-इन गया। पांचों पदों का प्रयोग प्रथम शतक में दो बार हुआ है। सूत्र १३० कलुषसमापन–'मैं इस विषय में कुछ नहीं जानता' इस में इस पर भाष्य भी लिखा गया है। संदर्भ के साथ शब्दों के अर्थ प्रकार की निराशा से भर गया। बदल जाते हैं । प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त इन शब्दों का संदर्भ के १. भ.वृ.११३०वैशालिको भगवान् महावीरस्तस्य वचनं शण्वन्ति श्रावयन्ति ६. आप्टे. प्रमु-Toulter. वा तद्रसिकत्वादिति वैशालिकश्रावकास्तेषां आर्हतानां अर्हद्दवतानां साधू ७. भ.१।१३०, १७०। ८.भ.वृ.२१२७–'संकिए' इत्यादि किमिदमिहोत्तरमिदं वा ? इति संजातशङ्कः । नामिति गम्यम्। इदमिहोत्तरं साधु इदं च न साधु अतः कथमत्रोत्तरं लप्स्ये ? इत्युत्तरलाभा२. भ.वृ.२।२६-'आक्षेपं' प्रश्नं 'पुच्छे' त्ति पृष्टवान् । काङ्क्षावान् काक्षितः । अस्मिन्नुत्तरे दत्ते किमस्य प्रतीतिरुत्पत्स्यते न वा ? ३. आप्रे.-आक्षेप-An objection or doubt. इत्येवं विविकित्सितः। 'भेदसमावन्ने' मतेभंग-किंकर्तव्यताव्याकुलता४. भ.वृ.२१२७--प्रमुच्यते पर्यनुयोगबंधनादनेनेति प्रमोक्षम्-उत्तरम् । लक्षणमापनः । 'कलुषसमापन्नः' नाहमिह किञ्चिन्जानामीत्येवं स्वविषयं कालुष्यं ५. उत्तर.२५।१३। समापन इति। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.२: उ.१: सू.२८-३० २१२ भगवई २८. तए णं से पिंगलए नियंठे वेसालियसावए ततः स पिंगलकः निर्ग्रन्थः वैशालिकश्रावकः २८. वैशालिक श्रावक पिंगल निर्ग्रन्थ कात्यायन खंदयं कच्चायणसगोत्तं दोचं पितचं पि स्कन्दकं कात्यायनसगोत्रं द्वितीयमपि सगोत्र स्कन्दक से दूसरी बार और तीसरी बार इणमक्खेवं पुच्छे मागहा! तृतीयमपि इममाक्षेपं पृच्छति–मागध ! भी यह प्रश्न पूछता है---मागध ! १. किं सते लोए ? अणंते लोए ? १. किं सान्तः लोकः ? अनन्तः लोकः ? । १. क्या लोक सान्त है अथवा अनन्त है ? २.जीव २.सअंते जीवे? अणंते जीवे? ३. सअंता २.सान्तः जीवः? अनन्तः जीवः ? ३. सान्ता सान्त है अथवा अनन्त है ? ३. सिद्धि सान्त है सिद्धी? अणंता सिद्धी ? ४. सअंते सिद्धे? सिद्धिः? अनन्ता सिद्धिः? ४ सान्तः सिद्धः? अथवा अनन्त है ? ४ सिद्ध सान्त है अथवा अणंते सिद्धे ? ५.केण वा मरणेणं मरमाणे अनन्तः सिद्धः?, केन वा मरणेन निय- अनन्त है ? ५ किस मरण से मरता हुआ जीव जीवे वइति वा, हायति वा?–एतावताव माणः जीवः वर्धते वा, हीयते वा ?-एता- बढ़ता है अथवा घटता है ?-इस प्रकार मेरे आइक्खाहि युचमाणे एवं ॥ वत् तावद् आख्याहि उच्यमानः एवम् । द्वारा पूछे गए इतने प्रश्नों का तुम उत्तर दो। २६. तए णं से खंदए कचायणसगोत्ते ततः स स्कन्दकः कात्यायनसगोत्रः पिंगलकेन २६. वैशालिकश्रावक पिंगल निर्ग्रन्थ के द्वारा दूसरी पिंगलएणं नियंठेणं वेसालियसावएणं दोचं पि निर्ग्रन्थेन वैशालिकश्रावकेण द्वितीयमपि, बार और तीसरी बार भी ये प्रश्न पूछे जाने पर तचं पि इणमक्खेवं पुच्छिए समाणे संकिए ततीयमपि इममाक्षेपं पृष्टः सन् शङ्कितः कात्यायनसगोत्र स्कन्दक शंकित, कांक्षित, विचिकंखिए वितिगिछिए भेदसमावन्ने काशितः विचिकित्सितः भेदसमापनः कलु- कित्सित, भेदसमापन्न और कलुषसमापन्न हो जाता कलुससमावने णो संचाएइ पिंगलयस्स षसमापन्नः नो संशक्नोति पिंगलकस्य है। वह वैशालिकश्रावक पिंगल निर्ग्रन्थ को कुछ नियंठस्स वेसालियसावयस्स किंचि वि निर्ग्रन्थस्य वैशालिकश्रावकस्य किंचिदपि भी उत्तर देने में अपने आपको समर्थ नहीं पाता पमोक्खमक्खाइऊं, तुसिणीए संचिद्वइ । प्रमोक्षमाख्यातुम्, तूष्णीकः सन्तिष्ठते। है, मौन हो जाता है। ३०. तए णं सावत्थीए नयरीए सिंघाडग- ततः श्रावस्त्याः नगर्याः शृङ्गाटक-त्रिक- ३०. 'श्रावस्ती नगरी के शृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, तिग-चउक्क-चचर-चउम्मुह-महापह-पहेसु चतुष्क-चत्वर-चर्तुमुख-महापथ-पथेषु महान् चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और महया जणसंमद्दे इ वा जणबूहे इ वा जनसम्मदः इति वा जनव्यूहः इति वा मार्गों पर महान् जनसम्पर्द, जनव्यूह, जनबोल, जणबोले इ वा जणकलकले इ वा जणुम्मी जनबोलः इति वा जनकलकलः इति वा जनकलकल, जन-ऊर्मि, जन-उत्कलिका, जनइ वा जणुक्कलिया इ वा जणसण्णिवाए इ वा जनोर्मिः इति वा जनोत्कलिका इति वा सन्निपात बहुजन परस्पर इस प्रकार आख्यान, बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ, एवं जनसनिपातः इति वा बहुजनः अन्योऽन्यम् भाषण, प्रज्ञापन और प्ररूपण करते हैंभासेइ, एवं पण्णवेइ, एवं परूवेइ- एवमाख्याति, एवं भाषते, एवं प्रज्ञापयति, एवं प्ररूपयतिएवं खल देवाणप्पिया ! समणे भगवं एवं खलु देवानुप्रियाः ! श्रमणः भगवान् देवानुप्रियो ! धर्मतीर्थ के आदिकर्ता यावत् महावीरे आइगरे जाव सिद्धिगतिनामधेयं महावीरः आदिकरः यावत् सिद्धगतिनानधेयं । सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त करने के इच्छुक ठाणं संपाविउकामे पुवाणुपुरि चरमाणे स्थानं संप्राप्तुकामः पूर्वानुपूर्वी चरन् ग्रामानुग्राम श्रमण भगवान् महावीर क्रमानुसार विचरण, ग्रामागामाणुगामं दूइज्जमाणे इहमागए इहसंपत्ते दवन् इह आगतः इह संप्राप्तः इह समवसृतः नुग्राम में परिव्रजन करते हुए यहां आए हैं, यहां इहसमोसटे इहेव कयंगलाए नयरीए बहिया इहैव कयजलायाः नगर्याः बहिः छत्र- संप्राप्त हुए हैं, यहां समवसृत हुए हैं, इसी कयंजला छत्तपलासए चेइए अहापडिरूवं ओग्गहं पलाशके चैत्ये यथाप्रतिरूपम् अवग्रहम् अव- नगरी के बाहर छत्रपलाशक चैत्य में प्रवास-योग्य ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं गृह्य संयमेन तपसा आसानं भावयन् स्थान की अनुमति लेकर संयम और तप से अपने भावेमाणे विहरइ। विहरति। आप को भावित करते हुए रह रहे हैं। तं महप्फलं खलु भो देवाणुप्पिया ! तहा- तत् महत्फलं खलु भोः देवानुप्रियाः ! तथा- देवानुप्रियो ! ऐसे अर्हत् भगवानों के नामगोत्र का रूवाणं अरहंताणं भगवंताणं नामगोय- रूपाणाम् अर्हतां भगवतां नामगोत्रस्यापि श्रवण भी महान् फलदायक है, फिर अभिगमन, स्सवि सवणयाए, किमंग पुण अभिगमण- श्रवणं, किमङ्ग पुनः अभिगमन-वन्दन- वन्दन, नमस्कार, प्रतिपृच्छा और पर्युपासना का वंदण-नमसण-पडिपुच्छण-पञ्जवासणयाए? नमस्यन-प्रतिप्रच्छनपर्युपासनम् ? एकस्यापि कहना ही क्या ? एक भी आर्य धार्मिक सुवचन एगस्सवि आरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स आर्यस्य धार्मिकस्य सुवचनस्य श्रवणं, किमङ्ग का श्रवण महान् फलदायक है, फिर विपुल अर्थसवणयाए, किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स पुनः विपुलस्य अर्थस्य ग्रहणम् ? तत् गच्छामः ग्रहण का कहना ही क्या ? इसलिए देवानुप्रियो! गहणयाए ? तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया! देवानुप्रियाः! श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दामहे हम चलें, श्रमण भगवान् महावीर को वन्दनसमणं भगवं महावीरं वंदामो नमसामो स- नमस्यामः सत्कारयामः सम्मानयामः कल्याणं नमस्कार करें, सत्कार-सम्मान करें, भगवान् कारेमो सम्माणेमो कल्लाणं मंगलं देवयं चे- मंगलं दैवतं चैत्यं पर्युपास्महे । एतन् नः प्रेत्य- कल्याणकारी, मंगल, देव और प्रशस्त चित्त वाले इयं पञ्जवासामो। एयं णे पेचभवे इहभवेय भवे इहभवे च हिताय शुभाय क्षमाय निःश्रेय- हैं, हम उनकी पर्युपासना करें। यह हमारे पर Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २१३ श.२: उ.१: सू.३० हियाए सुहाए खमाए निस्सेयसाए आणु- साय आनुगामिकत्वाय भविष्यति इति कृत्वा भव और इस भव के लिए हित, शुभ, क्षम, निःगामियत्ताए भविस्सइ त्ति कटु बहवे उग्गा बहवः उग्राः उग्रपुत्राः भोजाः भोजपुत्राः एवं श्रेयस और आनुगामिकता के लिए होगा', ऐसा उग्गपुत्ता भोगा भोगपुत्ता एवं दुप्पडो- द्विप्रत्यवतारेण-राजन्याः क्षत्रियाः माहनाः सोचकर अनेक उग्र, उग्रपुत्र, भोज, भोजपुत्रयारेणं-इण्णा खत्तिया माहणा भडा जोहा भटाः योधाः प्रशास्तारः मल्लवयः, लिच्छ- इस प्रकार द्विपदावतार के रूप में राजन्य, क्षत्रिय, पसत्यारो मल्लई लेच्छई लेच्छईपुत्ता अण्णे य वयः, लिच्छविपुत्राः अन्ये च बहवः राजेश्वर- माहन, भट, योद्धा, प्रशासक, मल्लवि, लिच्छवि, बहवे राईसर-तलवर-माइंबिय-कोडुंबिय-इब्भ -तलवर-माडम्बिक-कौटुम्बिक-इभ्य श्रेष्ठि- लिच्छविपुत्र तथा अन्य अनेक राजे, युवराज, सहि-सेणावइ-सत्यवाहप्पमितो जाव महया सेनापति-सार्थवाहप्रभृतयः यावन् महता। कोटवाल, मडम्बपति, कुटुम्बपति, इभ्य, सेठ, उकि(क?)दुसीहनाय-बोल-कलकल-श्वेणं पक्खुभियमहासमुद्दरवभूयं पिव करेमाणा उत्कुष्टसिंहनाद-बोल-कलकलरवेण प्रक्षुभित- सेनापति, सार्थवाह आदि हर्षध्वनि, सिंहनाद, सावत्थीए नयरीए मझमझेणं निग्गच्छति ॥ महासमुद्ररवभूतम् इव कुर्वाणाः श्रावस्त्याः अस्पष्ट ध्वनि और कोलाहल ध्वनि से गर्जते हुए नगर्याः मध्यमध्येन निर्गच्छन्ति । महासमुद्र की भांति शब्द करते हुए श्रावस्ती नगरी के ठीक मध्य से निकलते हैं। भाष्य १. सूत्र ३० शब्द-विमर्श शृंगाटक....पथ शृंगाटक तीन मार्गों का मध्य भाग। इसका आकार यह होगा-AI त्रिक-तिराहा-जहां तीन मार्ग मिलते हों। इसका आकार यह होगा । ___ चतुष्क-चौराहा-चार मार्गी का मध्यभाग। चतुष्कोण भूभाग। इसका आकार यह होगा चत्वर—चौहटा-जहां चार मार्ग मिलते हों। इसका आकार यह होगा-+ । भिन्न-भिन्न व्याख्या-ग्रंथों में 'चत्वर' के अनेक अर्थ मिलते हैं१. सीमाचतुष्क २. त्रिपथभेदी ३. बहुतर रथ्याओं का मिलन-स्थान ४. चार मार्गों का समागम ५. छह मार्गों का समागम ।। स्थानांगवृत्तिकार ने इसका अर्थ 'आठ रथ्याओं का मध्य' किया है। चतुर्मुख देवकुल आदि मार्ग। देवकुलों के चारों ओर दरवाजे होते हैं । १. (क) भ.वृ.२१६६–'सिंघाडग' ति शृंगाटकफलाकारं स्थानं, त्रिक---रथ्या त्रयमीलनस्थानं, चतुष्कं रध्याचतुष्कमीलनस्थानं, चत्वरं-बहुतररथ्यामीलनस्थान, महापथो-राजमार्गः, पन्थाः-रथ्यामात्रम् । (ख) स्था.वृ.प.२८० । ठाणं, पृ.६१५,६१६ | (ग) अल्पपरिचित शब्दकोष । २. (क) भ.वृ.२।३० जनसम्पर्दः उरोनिष्पेषः । (ख) भ.जो.१/३११४१ महापक-राजमार्ग। पथ-सामान्य मार्ग। जनसम्मर्द.....जनसनिपात जनसम्मर्द से जनसन्निपात तक ये सात पद हैं । जनसम्पर्द-इतनी भीड़ कि जहां जनता खंधे से खंधा मिलाकर चले। जनव्यूह-चक्राकार जन-समूह । जनबोल जन-समूह । जनकलकल बृहत् जन-समुदाय । वृत्तिकार ने 'बोल' का अर्थ अव्यक्त वर्णवाली ध्वनि और 'कलकल' का अर्थ स्पष्ट वचन विभाग वाली ध्वनि किया है। औपपातिक वृत्ति और राजप्रश्नीय वृत्ति में भी यही अर्थ मिलता है।' यहां पाठ-सम्वन्धी विमर्श आवश्यक है । उसके आधार पर ही अर्थ का विमर्श किया जा सकता है। ओवाइयं', रायपसेणइयं तथा प्रस्तुत आगम के नौवें शतक (सू. १५६-१५६) में जणसम्मद के स्थान पर जणसद्द पाठ है । इस पाठ-परम्परा के अनुसार शब्द, बोल, और कलकल ये तीनों ध्वनि-वाचक हैं । दूसरा शब्द 'व्यूह' समूह-वाचक है और अंतिम तीन पद भी समूह-वाचक हैं । प्रस्तुत सूत्र की पाठ-परम्परा के अनुसार 'सम्मर्द' और 'व्यूह' ये दोनों पद बहुजन एम वदै माहोमाय, आगल ए संबंध जुड़ाय । तिहां जन-संमर्द उरो-निःपेष, उरु सूं उरु अडी सुविशेष ॥ ३. भ.बृ.२।३०–बोलः अव्यक्तवर्णो ध्वनिः कलकलः स एवोपलभ्यमान वचनविभागः। ४. औप.वृ.पृ.१०८; राज.वृ.पृ.२८४ । ५. ओवा.सू.५२। ६. राय.सू.६८७। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.२: उ.१: सू.३० २१४ भगवई समूहवाची, बोल और कलकल—ये दोनों पद ध्वनिवाची तथा अंतिम ऐसा माना जाता है कि 'नमस्' शब्द के उच्चारणपूर्वक जो प्रणाम तीन पद समूहवाची हैं। इस प्रकार ध्वनि और समूह का मिश्रण किया जाता है, वह नमस्कार है। रचना-शैली का एक व्यवधान बनता है । हमारी दृष्टि में सातों पद शिष्टाचार का चौथा अंग है-'प्रतिप्रच्छन' । इसका अर्थ है समूहवाचक हैं। इसलिए जणसद की अपेक्षा जणसम्मद्द पाठ अधिक शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का प्रश्न करना।" संगत है । 'बोल' का अर्थ समूह भी मिलता हैं।' कलकल का अर्थ भी एक प्रकार का समुदाय होना चाहिए | बोल और कलकल शिष्टाचार का पांचवा अंग है-'पर्युपासना'। इसका अर्थ शब्द ध्वनि के अर्थ में इसी सूत्र में प्रयुक्त हैं-उक्किद्वसीहनाय-बोल- है-सेवा अथवा पास में बैठना। कलकलरवेणं । अर्थ-तत्व या विषय। जनोर्मि-भीड़ अथवा जनता की लहर । चैत्य-वृत्तिकार ने चैत्य का अर्थ 'इष्टदेव की प्रतिमा' किया जनोत्कलिका-लघुतर जनसमुदाय । है।" यहां चैत्य-तुल्य व्यक्तिके लिए चैत्य शब्द का प्रयोग विवक्षित जनसनिपात-भिन्न-भिन्न स्थानों से आए हुए लोगों का सर्गम । है । जयाचार्य ने राजप्रश्नीय वृत्ति को उद्धृत करते हुए इसका अर्थ तथारूप-संगत रूप वाला । 'अत्यन्त प्रशस्त मन का हेतु' किया है।" चैत्य शब्द के अनेक अर्थों की जानकारी के लिए देखें भ.११५ का भाष्य । नाम, गोत्र-नाम और गोत्र दोनों एकार्थक हैं । वृत्तिकार ने इनका विशेष अर्थ बतलाया है । उनके अनुसार यादृच्छिक संज्ञा प्रेत्यभव-जन्मान्तर । को 'नाम' और गुणनिष्पन्न संज्ञा को 'गोत्र' कहा जाता है। हित—जिसका परिणाम अच्छा हो । किमंग पुनः इसका प्रयोग पूर्वोक्त अर्थ की विशिष्टता बतलाने सुख मूलपाठ सुहाए है । इसके संस्कृत रूप दो हो सकते के लिए हुआ हैं । 'अंग' आमत्रंण के अर्थ में प्रयुक्त होता हैं।' हैं-शुभाय और सुखाय । वृत्तिकार ने केवल सुखाय किया है।" ___ अभिगमन....पर्युपासन-यह एक गुच्छक है। इसके द्वारा क्षम–संगतत्व", औचित्य, सामर्थ्य । शिष्टाचार की पद्धति बतलाई गई है। शिष्टाचार का पहला अंग है निःश्रेयस कल्याण । वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'मोक्ष' किया अभिगमन-सामने जाना या निकट जाना । शिष्टाचार का दूसरा अंग है 'वन्दन'–निकट जाकर उनकी आनुगामिकता-भविष्य में उपकारक के रूप में साथ देने विशेषताओं का उल्लेख करना । वदि धातु के दो अर्थ हैं-स्तुति वाला । वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'परम्परा के रूप में शुभ अनुबन्धन और अभिवादन | विशेषताओं का उल्लेख करना स्तुति है । वाला' किया है। वृत्तिकार ने वन्दन का अर्थ स्तुति किया है। मनुस्मृति में अभिवादन की तीन क्रमिक क्रियाएं बतलाई गई हैं उग्र-उग्र आदि प्राचीन भारतीय कुल हैं। ठाणं और पण्णवणा में छह कुलों का उल्लेख मिलता है—१. उग्र २. भोज ३. राजन्य १. प्रत्युत्थान-अपने आसन से उठना । ४. ईक्ष्वाकु ५. ज्ञात या नाग ६. कौरव।" २. पादोपसंग्रह-दोनों पैरों को इकट्ठा करना । आयारचूला में भी उग्र आदि कुलों का उल्लेख मिलता है।" ३. अभिवादन-जिनका अभिवादन किया जाता है उनके भगवान् महावीर जिस नगर में पधारे और उनकी अगवानी में जो नाम और पद का उल्लेख करते हुए फिर अपना नाम बतलाना।" लोग गए उनमें उग्र, भोज आदि का मुख्य उल्लेख है।' शिष्टाचार का तीसरा अंग है 'नमस्यन'-नमस्कार करना।' १. देशी शब्द कोश। २. भ.वृ.२।३०-ऊर्मि-संबाधः कल्लोलाकारो वा जनसमुदायः, उत्कलिका समुदाय एव लघुतरः, जनसन्निपातः-अपरापरस्थानेभ्यो जनानां मीलनम् । ३. वही,२।३०-नाम्नो यादृच्छिकस्याभिधानस्य, गोत्रस्य च गुणनिष्पत्रस्य ।। ४. वही.२।३०-'किमंग पुण'त्ति किंपुनरिति पूर्वोक्तार्थस्य विशेषद्योतनार्थः अनेत्यामन्त्रणे। ५. वही,२।३०-अभिगमनम्-अभिमुखगमनम् । ६. वही, २।३० वंदनम् स्तुतिः। ७. मनुस्मृति,२।१२०१२६। ५. भ.६.२।३०-नमस्यनम् -प्रणमनम् । ६. आप्टे.-नमस्कार-Bowing, Respectfulor Reverentialsaluta tion, Respectful obeisance made by uttering the word नमस्। १०. भ.बृ.२३० प्रतिप्रच्छनम्-शरीरादिवार्ताप्रश्नः। ११. भ.वृ.२१३०-चैत्यम् -इष्टदेवप्रतिमा, चैत्यमिव चैत्यम् । १२. भ.जो.१।३१।६७ चैत्य-अत्यंत प्रशस्त मनो हेतु स्वामी, ए चिहुं पद नो तंत, अर्थ कीधो धामी, कीधो धामी प्रभु हितकामी, वृत्ति रायप्रश्रेणी थी पामी । म्है तो जासां जासां वंदन वीर प्रभू अंतरजामी॥ १३. भ.वृ.२१३०-'सुखाय' शर्मणे। १४. वही,२।३०'क्षमाय' संगतत्वात् । १५. वही,२।३०-'निःश्रेयसाय' मोक्षाय । १६. वही,२।३०–'आनुगामिकत्वाय' परम्पराशुभानुबन्धसुखाय । १७. (क) ठाणं,६।३५ छविहा कुलारिया मणुस्सा पण्णता, तंजहा उग्गा, भोगा, राइण्णा, इक्खागा, णाता, कोरव्वा । (ख) पण्ण.911 १८. आ.चूला १२३ १६. भ.२।३०, ६।२०४,११1१६५/ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई नायाम्म हाओ' और ओवाइयं' में भी यह उल्लेख मिलता है। भगवान् पार्श्व के शिष्य केशी के आगमन पर भी उक्त कुलों के जाने का उल्लेख मिलता है। इन संदर्भों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उग्र, भोज आदि कुलों के लोग प्राचीन काल से श्रमण परम्परा, आर्हत धर्म, निर्ग्रन्थ धर्म या जैन धर्म के अनुयायी रहे हैं । प्रस्तुत आगम के एक सूत्र से इस संभावना की पुष्टि होती है। गौतम के एक प्रश्न के उत्तर में भगवान महावीर ने बताया —ये उग्र, भोज, राजन्य, ईक्ष्वाकु, ज्ञात या नाग और कौरव इस धर्म (निर्ग्रन्थ धर्म) में दीक्षित होते हैं और दीक्षित होकर कुछ मुक्त हो जाते हैं, कुछ स्वर्ग में चले जाते हैं। ' थावच्चापुत्र और सेलक के प्रसंग से भी यह तथ्य उजागर होता है। थावच्चापुत्र भगवान् अरिष्टनेमि के शिष्य थे । राजा सेक ने थावच्चापुत्र से कहा—जैसे उग्र, भोज आदि प्रव्रजित होते हैं वैसे मैं प्रव्रजित होने में समर्थ नहीं हूं। ऐसा ही प्रसंग रायपसेणइयं में मिलता है। इससे यह स्पष्ट है कि उग्र, भोज आदि कुल प्राचीनकाल से ही जैन धर्म के अनुयायी थे। आवश्यकनियुक्ति के अनुसार भगवान् ऋषभ से इन कुलों का संबंध था । शब्द - विमर्श उग्र — भगवान् ऋषभ ने आरक्षक वर्ग के रूप में जिनकी नियुक्त की थी, वे उग्र कहलाए। उनके वंशजों को भी उग्र कहा गया है । भोज— जो गुरुस्थानीय थे, वे तथा उनके वंशज । राजन्य — जो मित्रस्थानीय थे, वे तथा उनके वंशज । क्षत्रिय-क्षत से त्राण देने वाला क्षत्रिय कहलाता है। यह 'क्षत्रिय' शब्द का निरुक्त है। आवश्यकनियुक्ति के अनुसार भगवान् ऋषभ ने चतुर्वर्ग की व्यवस्था की थी १. उग्र — आरक्षक वंश । २. भोज — गुरुवंश । १. नाया. १।१ । ६६ । २. ओवा.सू. ५२ । ३. राय. सू. ६८८/ ४. भ. २० / ७६ –जे इमे भंते! उग्गा, भोगा, राइण्णा, इक्खागा, नाया, कोरव्या - एए णं अस्सिं धम्मे ओगाहंति, ओगाहित्ता अट्ठविहं कम्मरयमलं पवाहेति, पवाहेत्ता तओ पच्छा सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंत करेंति ? हंता गोयमा ! जे इमे उग्गा, भोगा, राइण्णा, इक्खागा, नाया, कोरव्या - एए णं अस्सिं धम्मे ओगाहंति, ओगाहित्ता अट्ठविहं कम्मरयमलं पवाहेति, पवाहेत्ता तओ पच्छा सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति, अत्येगतिया अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ता उववत्तारो भवति । ५. नाया. १।५।४५। ६. राय. सू. ६६५ । ७. आब. नि.गा. १६६ । ८. देखें, दसवे. २८ का टिप्पण | ६. आव. नि.गा. २०२ उग्गा भोगा रायण्ण खत्तिआ संगहो भवे चउहा । आरक्खिगुरुवयंसा सेसा जे खत्तिया ते उ ।। २१५ ३. राजन्य — भगवान् का वयस्य वंश । ४. क्षत्रिय — उक्त तीन वर्गों के अतिरिक्त शेष सवका नाम 'क्षत्रिय' किया गया। १० वृत्तिकार ने तीन शब्दों के अर्थ में आवश्यकनिर्युक्ति का अनुसरण किया है। 'क्षत्रिय' शब्द का अर्थ राजकुलीन किया है। इस विषय में दसवेआलियं ( ६ । २ का टिप्पण) तथा उत्तराध्ययनः एक समीक्षात्मक अध्ययन (पृ. ७७-८६) द्रष्टव्य हैं। माहण-- 'माहण' का प्रयोग समण के साथ भी हुआ है और स्वतंत्र भी हुआ है। 'माहण' मुनि का पर्यायवाची नाम भी है और वह ब्राह्मण का वाचक भी है। यहां राजन्य क्षत्रिय, माहण, भट-इन शब्दों का प्रयोग है। यहां 'माहण' शब्द मुनि का वाचक नहीं है। सूयगडो में अनेक स्थानों पर समण और माहण का प्रयोग जैन मुनि से भिन्न मुनियों के लिए भी हुआ है।" इसलिए 'माहण' का अर्थ प्रकरण या संदर्भ के अनुसार ही किया जा सकता है। श. २ः उ.१: सू.३० भट— शूर १३ यो विशिष्ट पराक्रमी योद्धा । प्रशास्ता — धर्मशास्त्र का पाठक अथवा प्रशासक। मल्ल-ईसापूर्व छठी शताब्दी में लिच्छवी गणतंत्र अस्तित्व में था। वह बहुत शक्तिशाली था । उस गणतंत्र में नौ मल्ल और नौ लिच्छवी राजेश सम्मिलित थे । मल्लों का राज्य काशी में और लिच्छवियों का राज्य कौशल प्रदेश में था। १५ लिच्छवी लिच्छवी और विदेहों के राष्ट्र का नाम 'बाजी' था। बज्जी गणतंत्र की राजधानी वैशाली थी। महावस्तु में लिच्छवियों को वैशालिक कहा गया है। राजा नरेश १६ ईश्वर — युवराज तलवर — कोतवाल १७ माम्बिक मडम्ब का अधिपति । वृत्तिकार ने 'सन्निवेश का नायक' किया है। १८ ११. सू. १ । १ ६४१, ६७ । १२. भ. वृ. २।३० १३. वही, २।३० उग्रा भोगा राजन्याः क्षत्रिया एष चतुर्द्धा भवति संग्रहः, एतेषामेव यथाक्रमं स्वरूपमाह — आरक्षका उग्रदण्डकारित्वादुग्राः, गुरवो — गुरुस्थानीया भगवत आदितीर्थकरस्थ प्रतिपत्तिस्थानीया इति भावः भोगाः, वयस्याः स्वामिनः समवयसो राजन्याः, शेषा उक्तव्यतिरिक्ता ये ते पुनः क्षत्रिया इति । १०. भ.वृ.२ । ३० – 'उग्रा' आदिदेवावस्थापिताऽऽरक्षकवंशजाताः, 'भोगाः' तेनैवावस्थापितगुरुवंशजाताः, 'राजन्याः ' भगवद्वयस्यवंशजाः, 'क्षत्रियाः' राजकुलीनाः । भटाः शौर्यवन्तः । योधाः तेभ्यो विशिष्टतराः । इसका अर्थ १४. देखें, सूय. २।१।१४ का टिप्पण | १५. उवंगा (निरया.)१।१२७ – तए णं से चेडए राया इमी से कहाए लद्धट्टे समाणे नवमल्लई नवलेच्छई कासीकोसलगा अट्ठारसवि गणरायाणो सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी । १६. महावस्तु, भा. १,पृ.२५४ — वैशालिकानां लिच्छिवीनां वचनेन । १७. मडम्ब की जानकारी के लिए देखें, भ. १।४६ का भाष्य । १८. भ. वृ. २।३० माडम्विका : ' सन्निवेशविशेषनायकाः । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था। श.२: उ.१: सू.३०,३१ २१६ भगवई कौटुम्बिक-कतिपय कुटुम्बों का स्वामी जो राजसेवक होता तीन प्रयोग मिलते हैं। इनका संस्कृत रूप उत्कृष्टि है। उत्क्रुष्ट का ___एक अर्थ 'हर्ष-ध्वनि' है।' इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति और सार्ववाह-इनकी व्याख्या स्थानांग सिंहनाद सिंहगर्जना। वृत्ति के अनुसार इस प्रकार है बोल अस्पष्ट वचन। इभ्य–धनवान् जिसके पास इतना धन हो कि उसके धन के कलकल स्पष्ट वचन। ढेर में छिपा हुआ हाथी भी न मिले। मलयगिरि ने 'बोल' का अर्थ 'अव्यक्त ध्वनि' और 'कलकल' श्रेष्ठी नगर सेठ। इसके मस्तक पर श्रीदेवी से अंकित सोने __ का अर्थ 'व्यक्त वचन' किया है। जीवाजीवाभिगम वृत्ति में उन्होंने का एक पट्ट बंधा रहता था। 'बोल' का अर्थ 'मुंह के आगे हाथ देकर ऊंचे स्वर से आवाज सेनापति हाथी, अश्व, रथ और पैदल-इन चतुर्विध करना' तथा 'कलकल' का अर्थ 'व्याकूल शब्द-समूह' किया है। सेनाओं का अधिपति । इसकी नियुक्ति राजा करता था अभयदेवसूरि ने औपपातिक वृत्ति में 'बोल' का अर्थ 'अव्यक्त ध्वनि' सार्थवाह—सार्थ (सथवाड़ों) का अधिपति । और 'कलकल' का अर्थ 'व्यक्त वचन' किया है। उत्कृष्ट--यहां भगवती के आदर्शों में पाठ संक्षिप्त है। उक्विड प्रस्तुत सूत्र में 'बोल' और 'कलकल' का प्रयोग दो बार हुआ यह पाठ ओवाइयं से संग्रहीत है। उस के आदर्शों और मुद्रित प्रति है। प्रथम में 'बोल' का अर्थ 'अव्यक्त वर्ण वाली ध्वनि' और में उक्किटु पाठ उपलब्ध है। वृत्ति में व्याख्या से पूर्व जो पाठ उद्धृत 'कलकल' का अर्थ 'स्पष्ट वचन-विभाग वाली ध्वनि' किया गया है।' किया है, उसमें उक्कटि पाठ मिलता है-उद्विसीहनाय-बोल-कलकल द्वितीय प्रयोग में 'बोल' का अर्थ 'अव्यक्त ध्वनि' और 'कलकल' रवेण'ति।' अभयदेवसूरि ने इसकी व्याख्या 'आनन्द महाध्वनि' की का अर्थ 'अव्यक्त वचन' किया है।” इस आधार पर 'कलकल' है। ध्वनि के अर्थ में संस्कृत शब्दकोष में 'उत्कृष्टि' शब्द उपलब्ध का अर्थ 'भीड़ की ध्वनि, कोलाहल' किया जा सकता है। वह व्यक्त नहीं आयानिलिमेंट किलोमीणा और अव्यक्त दोनों प्रकार का हो सकता है। ३१.तएणं तस्स खंदयस्स कच्चायणसगोत्तस्स ततः तस्य स्कन्दस्य कात्यायनसगोत्रस्य ३१. 'अनेक लोगों के पास इस बात को सुनकर, बहजणस्स अंतिए एयमटुं सोचा निसम्म बहुजनस्य अन्तिके एतदर्थं श्रुत्वा निशम्य मन में अवधारण कर उस कात्यायनसगोत्र इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए अयमेतादृकुरूपः आध्यात्मिकः चिन्तितः स्कन्दक के इस प्रकार का आध्यात्मिक, मणोगए संकप्पे समुपजित्था एवं खलु प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपादि-एवं स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, मनोगत संकल्प समणे भगवं महावीरे कयंगलाए नयरीए खलु श्रमणः भगवान् महावीरः कयञ्जलायाः उत्पन्न हुआ श्रमण भगवान् महावीर कयंजला बहिया छत्तपलासए चेइए संजमेणं तवसा नगर्याः बहिः छत्रपलाशके चैत्ये संयमेन तपसा नगरी के बाहर छत्रपलाशक चैत्य में संयम और अप्पाणं भावमाणे विहरइ। तं गच्छामि णं आत्मानं भावयन् विहरति । तत् गच्छामि तप से आत्मा को भावित करते हुए रह रहे हैं, समणं भगवं महावीरं वदामि नमसामि। श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दे नमस्यामि। इसलिए मैं वहां जाऊं और श्रमण भगवान महावीर सेयं खलु मे समणं भगवं महावीरं वंदित्ता श्रेयः खलु मम श्रमणं भगवन्तं महावीरं को बन्दन-नमस्कार करूं । श्रमण भगवान् महावीर नमंसित्ता सकारेत्ता सम्माणेत्ता कल्लाणं वंदित्वा नमस्थित्वा सत्कृत्य सम्मान्य कल्याणं को वन्दन-नमस्कार कर उनका सत्कार-सम्मान कर मंगलं देवयं चेइयं पञ्जुवासित्ता इमाइं च णं मंगलं दैवतं चैत्यं पर्युपास्य इमान् च एतद्- कल्याणकारी, मंगल, देव और प्रशस्त चित्तवाले एयारूवाई अट्ठाई हेऊइं पसिणाई कारणाई रूपान् अर्थान् हेतून् प्रश्नान् कारणानि भगवान् की पर्युपासना कर इन इस प्रकार के वागरणाई पुच्छित्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ, व्याकरणानि प्रष्टुम् इति कृत्वा एवं संप्रेक्षते, अर्थों, हेतुओं, प्रश्नों, कारणों और व्याकरणों को संपेहेत्ता जेणेव परिवायगावसहे तेणेव उवा- संप्रेक्ष्य यत्र परिव्राजकावसथः तत्त्व उपाग- पूछना मेरे लिए श्रेयस्कर होगा, ऐसी संप्रेक्षा करता अर्थवान् स क श्रेष्ठी श्राप ७. जीवा. १. स्था.वृ.प.४३६-इभ्यः-अर्थवान् स च किल यदीयपुजीकृतद्रव्यराश्यन्त- रितो हस्त्यपि नोपलभ्यत इत्येतावताऽर्थेनेति भावः । श्रेष्ठी-श्रीदेवताध्या- सितसौवर्णपट्टभूषितोत्तमाङ्गः पुरज्येष्ठो वणिक् । सेनापतिः-नृपतिनिरूपितो हस्त्यश्वरथपदातिसमुदायलक्षणायाः सेनायाः प्रभुरित्यर्थः। सार्थवाहकः- सार्थनायकः। श्रेष्ठी की विशेष जानकारी के लिए देखें, दसवे. चूलिका, ११५ का टिप्पण। २. औप.पू.पृ.११२। ३. भ.वृ.२।३०–उत्कृष्टिश्च आनन्दमहाध्वनिः । ४. आव.नि.गा.२३१,१७५,२३१॥ (द्रष्टव्य अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्द- कोष)। ५. आप्रे-उकुष्ट-Crying out, exclaiming. ६. राज.वृ.पृ.२८६–बोलश्च वर्णव्यक्तिवर्जितो ध्वनिः, कलकलश्च व्यक्त वचनः । ७. जीवा.वृ.प.३४६,४७-बोलो नाम मुखे हस्तं दत्त्वा महता शब्देन पूत्करणं यच्च कलकलो व्याकुलशब्दसमूहः। ८. औप.वृ.पृ.११२,११३–बोलश्च वर्णव्यक्तिवर्जितो ध्वनिरेव कलकलश्च व्यक्त वचनः स एव तल्लक्षणे यो रवः स तथा तेन । ६.भ.वृ.२॥३०-बोलः--अव्यक्तवर्णो ध्वनिः, कलकलः स एवोपलभ्यमान वचनविभागः। १०. वही.२३०-बोलश्च-वर्णव्यक्तिवर्जितो महाध्वनिः, कलकलश्च अव्यक्तवचनः, स एवैतल्लक्षणो यो रवस्तेन | Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई गच्छइ, उवागच्छित्ता तिदंडं च कुंडियं च कंचणियं च करोडियं च मिसियं च केसरियं च छण्णालयं च अंकुसयं च पवित्तयं च गणेत्तियं च छत्तयं च वाहणाओ य पाउयाओ य धाउरत्ताओ य गेण्हइ, गेण्हित्ता परिव्यायागावसहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता तिदंड - कुंडिय-कंचणिय-करोडियमिसिय-केसरिय छण्णालय- अंकुसय-पवित्तयगणेत्तियहत्थगए, छत्तोवाहणसंजुत्ते, घाउरत्तवत्थपरिहिए सावत्थीए नयरीए मज्झमज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव कयंगला नगरी, जेणेव छत्तपलासए चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव पहारेत्य गमणाए । १. सूत्र ३१ शब्द-विमर्श अज्झत्थिय — इसका संस्कृत रूप आध्यात्मिक होता है। इस आधार पर अज्झत्तिए पाठ की परिकल्पना की जा सकती है। किन्तु प्राचीन प्राकृत में प्रायः सर्वत्र द्वित्व तकार के स्थान पर 'त्थ' का प्रयोग मिलता है। इसका अर्थ है 'आन्तरिक, आत्मविषयक' । चिन्तित - स्मृत्यात्मक । प्रार्थित —अभिलाषात्मक । है । २१७ च्छति, उपागम्य त्रिदण्डं च कुण्डिकां च 'कंचणियं' च करोटिकां च वृषिकांच केशरिकां च 'छन्नालय' च अङ्कुशं च पवित्रकं च 'गणेत्तियं' च छत्रकं च उपानही च पादुके च धातुरक्ताः च गृह्णाति, गृहीत्वा परिव्राजकावसथात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिकम्य हस्तगतत्रिदण्ड- कुण्डिका- 'कंचणिय'करोटिका - वृषिका केशरिका- 'छन्नालय' अंकुशक-पवित्रक-‘गणेत्तिय’-छत्रोपानत्संयुक्तः, परिहितधातुरक्तवस्त्रः श्रावस्त्याः नगर्याः मध्यमध्येन निर्गच्छति, निर्गम्य यत्रैव कय'ञ्जला नगरी, यत्रैव छत्रपलाशकं चैत्यं, यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीरः, तत्रैव प्रादीधरत् गमनाय । मनोगत — मन में विद्यमान, वचन के द्वारा अप्रकाशित । संकल्प -- संकल्पना, विकल्प।' आध्यात्मिक से संकल्प तक एक वाक्य गुच्छक है। इसमें संकल्प की प्रक्रिया निर्दिष्ट है। स्कन्दक ने जनसमूह से सुना कि महावीर कयंजला नगरी में आए हुए हैं, तब उसके मन में एक आन्तरिक स्पन्दन हुआ, उसने स्मृति का रूप ले लिया । स्मृति ने इच्छा को जागृत कर दिया। इच्छा मन के स्तर पर प्रकट हो गई। अंत में संकल्प अभिव्यक्त हो गया। अर्थ, हेतु, प्रश्न, कारण और व्याकरण—यह भी एक गुच्छक भाष्य अर्थ — भाव, पदार्थ का वास्तविक स्वरूप । हेतु — साध्य के बिना जिसका न होना निश्चित हो । १. भ. वृ. २ । ३१ --- ' अज्झत्थिए' त्ति आध्यात्मिक आत्मविषयः, 'चिंतिए'त्ति स्मरणरूपः, 'पत्थिए 'त्ति प्रार्थितः - अभिलाषात्मकः, 'मणोगए 'त्ति मनस्येव यो गतो न वहिः वचनेनाप्रकाशनात् स तथा, 'सङ्कल्पः' विकल्पः । २. (क) औप.वृ. पृ. १८० काञ्चनिका रुद्राक्षमयमालिका । श. २: उ.१: सू. ३१ है, संप्रेक्षा कर वह जहां परिव्राजकों का मठ है, वहां आता है, आकर त्रिदण्ड, कमण्डलु, रुद्राक्षमाला, मृत्पात्र, आसन, केसरिका (पात्रप्रमार्जन का वस्त्र-खण्ड) टिकठी, अंकुश, छलनी ( छन्ना), कलाई पर पहने जाने वाला रुद्राक्ष- आभरण, छत्र, चर्मनिर्मित पादत्राण और गेरुआ वस्त्र ग्रहण करता है । ग्रहण कर वह परिव्राजक के मठ से बाहर निकलता है, बाहर निकलकर उसने त्रिदण्ड, कमण्डलु, रुद्राक्षमाला, मृत्पात्र, आसन, केसरिका, टिकठी, अंकुश, छलनी, कलाई पर पहने जाने वाला रुद्राक्ष - आभरण को हाथ में लिया, छत्र तथा पादत्राण धारण किए, गेरुआ वस्त्र पहन कर श्रावस्ती नगरी के मध्य से निकलता है, निकल कर जहां कयंजला नगरी है, जहां छत्रपलाशक चैत्य है, जहां श्रमण भगवान् महावीर है, वहां जाने का उसने संकल्प किया। प्रश्न जिज्ञासा । कारण — जिसके बिना कार्य की उत्पत्ति न हो सके और जो निश्चित रूप से कार्य का पूर्ववर्ती हो । व्याकरण- विवेचना, विश्लेषण, व्याख्या । प्रस्तुत सूत्र २।३१ में सांख्य परिव्राजक के १८ उपकरणों का उल्लेख है, जिनमें निम्नलिखित शब्द विमर्शनीय हैं त्रिदण्ड – यह बांस के तीन दंडों को एकत्र बांधकर बनाया जाता है। यह वाणी, मन और शरीर के संयमन का प्रतीक माना जाता है। कुंडिका कमण्डलु । कांच निका— रुद्राक्षमाला' । करोटिका-मिट्टी का प्याला । वृषिका — उपवेशनपट्टिका, मृर्गचर्म का आसन, कुश-घास का बना हुआ आसन । इसका मूल पाठ 'भिसिया' है। इसके संस्कृत रूप अनेक हो सकते हैं—बृशी, वृषी, वृसी, वृषी, वृसी । " केसरिका — जैन साधना-पद्धति के अनुसार जिनकल्पी मुनि के (ख) भ. वृ. २।३१ काञ्चनिका— रुद्राक्षकृता । ३. आप्टे. वृषी, वृसी – The seat of an ascetic or religious student (made of kusa grass). ४. वही (देखें, सभी उल्लिखित शब्द) । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.२: उ.१: सू.३१-३३ २१८ भगवई लिए बारह प्रकार के उपकरणों का उल्लेख मिलता है। उनमें चौथा यहां 'पवित्र' का अर्थ जल छानने का वस्त्र, छन्ना है। यहां यही उपकरण पात्र-केसरिका है। इसका अर्थ पात्र को साफ करने का अर्थ प्रासंगिक लगता है। गुणरल ने षड्दर्शनसमुच्चय की टीका में वस्त्रखण्ड है।' भगवती वृत्ति में भी यही अर्थ उपलब्ध है। सांख्य परिव्राजकों के लिए छलनी रखने का उल्लेख किया है। देखें भ. २०२४ का भाष्य। छण्णालय-त्रिकाष्ठिका, टिकठी। गणेत्तिया-कलाई का आभरण | अंकुश-इसका प्रयोग वृक्ष के पत्तों को तोड़ने के लिए किया जाता था। औपपातिक वृत्ति के अनुसार देवार्चन के लिए भी इसका औपपातिक वृत्ति में इसका अर्थ 'हाथ का एक आभरण' किया उपयोग होता था।" है।" ज्ञाता वृत्ति में इसका अर्थ 'रुद्राक्ष से बना हुआ कलाई का आभरण' किया है।" देशीनाममाला में 'अक्षमाला' के अर्थ में 'गणेत्ती' पवित्रक छलनी या छन्ना। का प्रयोग मिलता हैं।" यह आश्चर्य की बात है कि लेटिन में भगवती वृत्ति में इसका अर्थ अंगूठी और औपपातिक वृत्ति में रुद्राक्ष के नाम में 'गणित्रस्' शब्द मिलता है।" तांबे की अंगूठी है। इसका एक अर्थ 'कुश घास की अंगूठी है, पाउरत्ताओ-वृत्तिकार ने यहां शाटिका का अध्याहार किया जो धार्मिक अवसरों पर चतुर्थ अंगुली में पहनी जाती है। किन्तु ३२. गोयमाइ ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी दच्छसिणं गोयमा ! पुव्वसंगइयं। के भंते!? बंदयं नाम। से काहे वा ? किह वा ? केविचिरेण वा? गौतम ! अयि ! श्रमणः भगवान् महावीरः ३२. 'हे गौतम !'इस सम्बोधन से सम्बोधित कर भगवन्तं गौतमम् एवमवादी भगवान् महावीर ने भगवान् गौतम से इस प्रकार कहाद्रक्ष्यसि गौतम ! पूर्वसांगतिकम् । गौतम ! तुम अपने पूर्व मित्र को देखोगे। कं भदन्त !? भन्ते ! किसको? स्कन्दकं नाम। स्कन्दक को। अथ कदा वा ? कथं वा ? कियचिरेण वा? कब ? कैसे? और कितने समय के पश्चात् ? भाष्य १. गोयमाइ वृत्तिकार ने इसके संस्कृत रूप दो किए हैं-गौतम इति, गौतम अयि ।" ३३. एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये ३३. गौतम ! उस काल और उस समय श्रावस्ती समएणं सावत्यी नामं नगरी होत्या- श्रावस्ती नाम नगरी आसीत्-वर्णकः । तत्र नामक नगरी थी'-नगर-वर्णन | उस श्रावस्ती वण्णओ। तत्थ णं सावत्यीए नयरीए श्रावस्त्यां नगर्यां गर्दभालस्य अन्तेवासी नगरी में गर्दभाल का शिष्य कात्यायनसगोत्र गद्दभालस्स अंतेवासी खंदए नामंकबायण- स्कन्दकः नाम कात्यायनसगोत्रः परिव्राजकः स्कन्दक नामक परिव्राजक रहता है। भगवान् ने सगोत्ते परिव्वायए परिवसइ । तं चेव जाव परिवसति। तचैव यावद् यत्रैव ममान्तिके, वह सारी बात बताई यावत् जहां मैं हूं, उसने जेणेव ममं अंतिए, तेणेव पहारेत्थ तत्रैव प्रादीधरत् गमनाय। सः अदूरागतः वहां आने का संकल्प किया। (अब) वह निकट गमणाए। से अदूरागते बहुसंपत्ते अद्धाण- बहुसंप्राप्तः अध्वप्रतिपन्नः अन्तरा पथे वर्तते। आ गया है, थोडी दूरी पर है, वह मार्ग में चल पडिवण्णे अतंरा पहे वट्टइ। अजेवणं अधैव द्रक्ष्यसि गौतम ! ही रहा है, निकट मार्ग पर है।' गौतम ! तुम दच्छसि गोयमा! आज ही उसको देखोगे। १. (क) ओघ. ६६५ पत्तं पत्ताबंधो पायट्ठवणं च पायकेसरिया। (ख) ओघ.वृ.प.२०५–पात्रकेसरिका पात्रकमुखवस्त्रिका । २. भ.वृ.२।३१ केशरिका-प्रमार्जनार्थं चीवरखण्डम् । ३. वही,२।३१-अंकुशकं तरुपल्लवग्रहणार्थमंकुशाकृतिः । ४. औप.वृ.पृ. १०–अंकुशकाः देवार्चनार्थं वृक्षपल्लवाकर्षणार्थ अंकुशकाः। ५. भ.व.२।३१ पवित्रकं अंगुलीयकम् । ६. औप.वृ. पृ. १८०–पवित्रकाणि ताम्रमयान्यंगुलीयकानि । ७. आप्टे,—पवित्रम् -A ring of kusa grass worm on the fourth finger on certain religious occasions. . आप्टे कृत कोश में 'पवित्रवत्' का अर्थ है -Having a strainer. इससे पवित्र का अर्थ strainer अर्थात् 'जल छानने का वस्त्र' होता है। ६. भ.वृ.२।३१ गणेत्तिका कलाचिकाऽऽभरणविशेषः । १०. औप.वृ.पृ.१८०-गणेत्तिका हस्ताभरणविशेषः। ११. ज्ञाता.वृ.पृ.२२७-गणेत्रिका रुद्राक्षकृतं कलाचिकाभरणम् । १२. देशीनाममाला,पृ.२१५-....अक्खवले गणेत्ती अ ।। १३. आप्रे.-रुद्राक्ष Eleocarpus Ganitrus. १४. (क) भ.वृ.२१३१ धाउरत्ताओ त्ति शाटिका इति विशेषः। (ख) औप.तृ.पृ.१८० धाउरत्ताओ यत्ति धातुरक्ता-गैरिकोपरजिता शाटिका इति गम्यम् । १५. भ.वृ.२।३२--गौतम इति एवमामन्त्र्येति शेषः, अथवाऽयीत्यामन्त्रणार्थ मेव। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १. होत्या वृत्तिकार ने विभक्ति - परिवर्तन के द्वारा होत्या का प्रयोग अस्ति के स्थान में माना है।' २. वह निकट आ गया है....... निकट मार्ग पर है। ३४. मंतेत्ति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासी पहू णं भंते! खंदए कच्चायणसगोते देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए ? हंता पभू ॥ ३५. जावं च णं समणे भगवं महावीरे भगवओ गोयमस्स एयम परिकहेइ, तावं च णं से खंद कच्चायणसगोत्ते तं देसं हब्वमागए । ३६. तए णं भगवं गोयमे खंदयं कच्चायणसगोत्तं अदूरागतं जाणित्ता खिप्पामेव अब्भुट्टेति, अब्भुट्टेत्ता खिप्पामेव पच्छुवगच्छs, जेणेव खंदए कच्चायणसगोत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता खंदयं कच्चायणसगोत्तं एवं वयासी हे खंदया ! सागयं खंदया ! सुसागयं खंदया ! अणुराग खंदया ! सागयमणुरागयं खंदया ! से नूणं तुमं खंदया ! सावत्थीए नयरीए पिंगलएणं नियंठेणं वेसालियसावएणं इणमक्खेवं पुच्छिए मागहा ! किं सअंते लोगे ? अणंते लोगे ? एवं तं चेव जाव जेणेव इहं, तेणेव हब्बमागए। से नूणं खंदया ! अट्ठे समट्ठे ? हंता अपि ॥ ३७. तए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते भगवं गोयमं एवं वयासीसे केस णं गोयमा ! तहारूवे नाणी वा तवस्सी वा, जेणं तव एस अट्टे ममताव रहस्सकडे हव्यमक्खाए, जओ तु जाणसि ? २१६ भाष्य भदन्त ! अयि ! भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादीत् ——– प्रभुः भदन्त ! स्कन्दकः कात्यायनसगोत्रः देवानुप्रियाणाम् अन्तिके मुण्डः भूत्वा अगाराद् अनगारतां प्रव्रजितुम् ? हन्त प्रभुः । यावच् च श्रमणः भगवान् महावीरः भगवतः गौतमस्य एतदर्थं परिकथयति तावच् च स स्कन्दकः कात्यायनसगोत्रः तं देशं 'हव्वं' आगतः । गौतम ने पूछा- 'मैं स्कन्दक को कब देखूंगा ?' इसके उत्तर में भगवान् ने कहा--' उसे तू आज ही देखेगा।' इस 'आज' की व्याख्या में ने चार विशेषणों का प्रयोग किया है। सूत्रकार ततः भगवान् गौतमः स्कन्दकं कात्यायनसगोत्रम् अदूरागतं ज्ञात्वा क्षिप्रमेव अभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय क्षिप्रमेव प्रत्युपगच्छति, यत्रैव स्कन्दकः कात्यायनसगोत्रः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य स्कन्दकं कात्यायनसगोत्रम् एवमवादीत् हे स्कन्दक ! स्वागतं स्कन्दक ! सुस्वागतं स्कन्दक ! अन्वागतं स्कन्दक ! स्वागतमन्वागतं स्कन्दक! अथ नूनं त्वं स्कन्दक ! श्रावस्त्यां नगर्यां पिंगलकेन निर्ग्रन्थेन वैशालिक श्रावकेण इममाक्षेपं पृष्टः — मागध ! किं सान्तः लोकः ? अनन्तः लोकः ? एवं तच्चैव यावत् यत्रैव इह, तत्रैव 'हव्वं' आगतः । स नूनं स्कन्दक ! अर्थः हन्त अस्ति । समर्थः ? १. भ. वृ. २ । ३३ – 'होत्य'त्ति विभक्तिपरिणामादस्तीत्यर्थः अथवा कालस्यावसर्पिणीत्वाव्यसिद्धगुणा कालान्तर एवाभवन्नेदानीमिति । ततः सः स्कन्दकः कात्यायनसगोत्रः भगवन्तं गौतमम् एवमवादीत् — स क एष गौतम ! तथारूपः ज्ञानी वा तपस्वी वा येन तव एष अर्थः मम तावत् रहस्यकृतः 'हव्वं' आख्यातः, यतः त्वं जानासि ? २. वही, २ । ३३ ' अदूरागए 'त्ति अदूरे आगतः, स चावधिस्थानापेक्षयाऽपि स्यात् अथवा दूरतरमार्गापेक्षया क्रोशादिकमप्यदूरं स्यादत उच्यते 'बहुसंपत्ते' ईष श. २: उ.१: सू.३३-३७ ३४. ' भन्ते' ! इस सम्बोधन से सम्बोधित कर भगवान् गौतम श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन - नमस्कार करते हैं। वन्दन-नमस्कार कर वे इस प्रकार बोले—भन्ते ! कात्यायनसगोत्र स्कन्दक देवानुप्रिय के पास मुण्ड होकर अगार धर्म से अनगार धर्म में प्रव्रजित होने में समर्थ है ? हां, वह समर्थ है। ३५. जितने में श्रमण भगवान् महावीर भगवान् गौतम से यह बात कह रहे हैं, उतने में वह कात्यायनसगोत्र स्कन्दक शीघ्र ही उस स्थान पर पहुंच गया । ३६. भगवान् गौतम कात्यायनसगोत्र स्कन्दक को निकट आया हुआ जानकर शीघ्र ही खड़े होते हैं, खड़े होकर शीघ्र ही सामने जाते हैं, जहां कात्यायनसगोत्र स्कन्दक है, वहां पहुँचते हैं, पहुंचकर उन्होंने कात्यायनसगोत्र स्कन्दक से इस प्रकार कहा—हे स्कन्दक ! स्वागत है स्कन्दक ! सुस्वागत है स्कन्दक ! अन्वागत है स्कन्दक ! स्वागत - अन्वागत है स्कन्दक ! स्कन्दक ! श्रावस्ती नगरी में वैशालिक श्रावक निर्ग्रन्थ पिंगल ने तुमसे यह प्रश्न पूछा— मागध ! क्या लोक सान्त है। अथवा अनन्त है ? इस प्रकार गौतम ने वह सारी बात कही यावत् जहां भगवान् महावीर है, वहां तुम आए हो । स्कन्दक ! क्या यह अर्थ संगत है ? हां, है । ३७. उस कात्यायनसगोत्र स्कन्दक ने भगवान् गौतम से इस प्रकार कहा- गौतम ! वह ऐसा तथारूप ज्ञानी अथवा तपस्वी कौन है जिसने मेरा यह रहस्यपूर्ण अर्थ तुम्हें बताया, जिससे यह तुम जानते हो ? दूनसंप्राप्तो बहुसंप्राप्तः, स च विश्रामादिहेतोरारामादिगतोऽपि स्यादत उच्यते'अद्धाणपडिवत्रे' त्ति मार्गप्रतिपन्नः किमुक्तं भवति ? -- ' अंतरापहे वट्टइत्ति विवक्षितस्थानयोरन्तरालमार्गे वर्तत इति । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.२ः उ.१: सू.३५-४२ २२० भगवई ३८. तए णं से भगवं गोयमे खंदयं कच्चायण- ततः सः भगवान गौतमः स्कन्दकं कात्यायन- ३८. भगवान् गौतम ने कात्यायनसगोत्र स्कन्दक से सगोत्तं एवं वयासी एवं खलु खंदया ! सगोत्रम् एवमवादीद्-एवं खलु स्कन्दक! इस प्रकार कहा—स्कन्दक ! मेरे धर्माचार्य, ममं धम्मायरिए धम्मोवदेसए समणे भगवं मम धर्माचार्यः धर्मोपदेशकः श्रमणः भगवान् धर्मोपदेशक श्रमण भगवान् महावीर हैं। वे उत्पन्न महावीरे उप्पण्णनाणदंसणधरे अरहा जिणे महावीरः उत्पन्नज्ञानदर्शनधरः अर्हत जिनः ज्ञान-दर्शन के धारक', अर्हत, जिन, केवली, केवली तीयपचुप्पत्रमणागयवियाणए सब्ब- केवली अतीतप्रत्युत्पन्नानागतविज्ञायकः सर्व- अतीत, वर्तमान और भविष्य के विज्ञाता, सर्वज्ञ ण्णू सचदरिसी जेणं मम एस अठे तव ज्ञः सर्वदर्शी येन मम एष अर्थः तव तावत् और सर्वदर्शी हैं। उन्होंने मुझे तुम्हारा यह रहस्यताव रहस्सकडे हव्बमक्खाए, जओ णं अहं रहस्यकृतः 'हव्वं' आख्यातः, यतः अहं । पूर्ण अर्थ बताया। स्कन्दक ! जिससे यह मैं जाणामि खंदया! जानामि स्कन्दक! जानता हूँ। भाष्य १. उत्पन्न ज्ञान-दर्शन के धारक देखें, भ.१।२००-२१० का भाष्य । ३६. तए ण से बंदए कच्चायणसगोत्ते भगवं गोयमं एवं वयासी गच्छामो णं गोयमा ! तव धम्मायरियं धम्मोवदेसयं समणं भगवं महावीरं वंदामो नमसामो सकारेमो सम्माणेमो कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पञ्जुवासामो। अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं ॥ ततः सः स्कन्दकः कात्यायनसगोत्रः भगवन्तं ३६. कात्यायनसगोत्र स्कन्दक ने भगवान् गौतम से गौतमम् एवमवादीत् गच्छावः गौतम ! तब इस प्रकार कहा-गौतम ! हम चलें, तुम्हारे धर्माधर्माचार्य धर्मोपदेशकं श्रमणं भगवन्तं महावीरं । चार्य, धर्मोपदेशक श्रमण भगवान् महावीर को वन्दावहे नमस्यावः सत्कारयावः सम्मानयावः वन्दन-नमस्कार करें, सत्कार-सम्मान करें। वे कल्याणं मंगलं दैवतं चैत्यं पर्युपास्वहे । कल्याणकारी, मंगल, देव और प्रशस्तचित्तवाले हैं, उनकी हम पर्युपासना करें। यथासुखं देवानुप्रिय ! मा प्रतिबन्धम् । देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख हो, प्रतिबंध मत करो। ४०. तए णं से भगवं गोयमे बंदएणं कच्चा- ततः सः भगवान् गौतमः स्कन्दकेन कात्या- ४०. भगवान् गौतम ने कात्यायनसगोत्र स्कन्दक के यणसगोत्तेणं सद्धिं जेणेव समणे भगवं महा- यनसगोत्रेण सार्द्धम् यत्रैव श्रमणः भगवान् साथ जहां श्रमण भगवान् महावीर थे, वहां जाने वीरे, तेणेव पहारेत्य गमणाए । महावीरः, तत्रैव प्रादीधरत् गमनाय । का संकल्प किया। ४१. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे वियट्टभोई यावि होत्था ॥ तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणः भगवान् ४१. उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीरः व्यदृभोजी चापि आसीत् । महावीर प्रतिदिनभोजी थे। भाष्य १. प्रतिदिनमोजी वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'व्यावृत्तभोजी' किया है। इसके निरुक्त में उन्होंने लिखा है—'व्यावृत्त-व्यावृत्त (भिन्न-भिन्न) सूर्य में भोजन करने वाला व्यावृत्तभोजी कहलाता है। यहां प्रतिदिन के अर्थ में 'व्यावृत्त' का प्रयोग संगत नहीं लगता। संस्कृत शब्द कोश में 'अट्ट' का एक अर्थ 'निरन्तर' है। इसलिए व्यट्टमोजी का अर्थ निरन्तरभोजी' किया जा सकता है। ४२. तए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स ततः श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य ४२. 'प्रतिदिनभोजी श्रमण भगवान् महावीर का वियट्टभोइस्स सरीरयं ओरालं सिंगारं व्यट्टभोजिनः शरीरकम् 'ओरालं' शृंगारं शरीर प्रधान, शृंगारित (अतिशयशोभित), कल्लाणं सिवं धनं मंगल्लं अणलंकिय- कल्याणं शिवं धन्यं मांगल्यं अनलंकृत- कल्याण, शिव, धन्य, मंगलमय, अलंकृत न होने विभूसियं लक्खण-वंजण-गुणोववेयं सिरीए विभूषितं लक्षण-व्यञ्जन-गुणोपेतं श्रिया पर भी विभूषित, लक्षण, व्यञ्जन, गुणों से युक्त अतीव-अतीव उवसोमेमाणं चिट्ठइ॥ अतीव-अतीव उपशोभमानं तिष्ठति । और श्री से अतीव-अतीव उपशोभमान है। २. आप्टे. अट्ट frequent, constant १. वही,२।४१–'वियट्टभोइ'त्ति व्यावृत्ते व्यावृत्ते सूर्ये भुङ्क्ते इत्येवंशीलो व्यावृत्तभोजी प्रतिदिनभोजीत्यर्थः। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २२१ श.२: उ.१: सू.४२,४३ भाष्य १. सूत्र ४२ प्रस्तुत सूत्र में भगवान् महावीर के शरीर के नौ विशेषण बतलाए गए हैं: १. ओराल यह देशी शब्द है। इसका अर्थ है—प्रधान ।' २. शृंगार—अतिशय शोभावाला । ३. कल्याण श्रेय। ४. शिव–उपद्रवरहित। ५. धन्य स्वस्थ, भाग्यशाली, प्रशंसनीय । ६. मांगल्य हितार्थ की प्राप्ति कराने वाला। ७. अनलंकृतविभूषित मुकुट आदि अलंकारों से अलंकृत और वस्त्र आदि से विभूषित-अलंकृत-विभूषित | भगवान् का शरीर न अलंकार से अलंकृत था और न वस्त्र से विभूषित था। यह वृत्ति-सम्मत अर्थ है। यह वर्णनात्मक है। इससे कोई विशेषता परिलक्षित नहीं होती। विशेषता की दृष्टि से उक्त वाक्य का आश्य यह होना चाहिए कि भगवान् का शरीर अलंकृत न होने पर भी विभूषित था-कान्ति, दीप्ति और चमकयुक्त था। ८. लक्षण, बजन और गुणों से युक्त लक्षण शुभसूचक शरीर के चिन्ह । व्यञ्जन-मष, तिल आदि। इनका वैकल्पिक अर्थ है-जन्म-जात चिह्न 'लक्षण' और पश्चात् होने वाला चिह्न 'व्यञ्जन'। गुण सौभाग्य आदि। __वृत्तिकार ने लक्षण का अर्थ मान, उन्मान और प्रमाण किया है। जो पुरुष जल से भरी हुई कुण्डिका में प्रवेश करता है, उसके प्रवेश करने पर एक द्रोण जितना जल निकलता है, वह 'पुरुषमानोपेत' कहलाता है; तराजु पर बैठा हुआ पुरुष अर्धभार' मान होता है तो वह 'उन्मानोपेत' कहलाता है। अपने अंगुल से १०८ अंगुल की ऊंचाई वाला 'प्रमाणोपेत' कहलाता है। वृत्तिकार द्वारा कृत 'लक्षण' की व्याख्या यहां विमर्शनीय है। अणुओगदाराई के अनुसार उत्तमपुरुष मान, उन्मान और प्रमाण से युक्त तथा लक्षण, व्यञ्जन और गुणों से उपेत होता है। मुख आत्माङ्गुल से बारह अङ्गुल-प्रमाण होता है और जो पुरुष नवमुख-प्रमाण (अर्थात् १०८ अङ्गुल) ऊंचाई वाला होता है वह प्रमाणोपेत, जो पुरुष द्रोणी-प्रमाण है, वह मानयुक्त और जो अर्धभार तुल्य तुलता है, वह उन्मानयुक्त है। प्रस्तुत आगम में भी लक्षण-व्यञ्जन-गुणोपेत तथा मानोन्मानप्रमाण-प्रतिपूर्ण ये दोनों विशेषण स्वतन्त्र रूप में मिलते हैं। इसलिए यहां लक्षण का अर्थ शरीरगत चिह्न अधिक संगत लगता है। लक्षण और व्यञ्जन का संयुक्त प्रयोग शरीरगत चिह्नों के अर्थ में होता है। ६. श्री-वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं लक्ष्मी और शोभा। यहां 'शोभा' अर्थ प्रासंगिक है।' ४३. तए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते ततः सः स्कन्दकः कात्यायनसगोत्रः श्रमणस्य ४३. 'वह कात्यायनसगोत्र स्कन्दक प्रतिदिन-भोजी समणस्स भगवओ महावीरस्स वियट्टभो- भगवतः महावीरस्य व्यट्टभोजिनः शरीरकम् श्रमण भगवान् महावीर के प्रधान, शृंगारित, इस्स सरीरयं ओरालं सिंगारं कल्लाणं सिवं 'ओरालं' शृंगारं कल्याणं शिवं धन्यं मांगल्यम् कल्याण, शिव, धन्य, मंगलमय, अलंकृत न होने धनं मंगल्लं अणलंकियविभूसियं लक्खण- अनलंकृतविभूषितं लक्षण-व्यञ्जन-गुणोपेतं पर भी विभूषित, लक्षण, व्यञ्जन, गुणों से युक्त वंजण-गणोववेयं सिरीए अतीव-अतीव उव- श्रिया अतीव-अतीव उपशोभमानं पश्यति, और श्री से अतीव-अतीव उपशोभमान शरीर को १. भ.वृ.२१४२-'ओरालं'ति प्रधानम् | २. वही,२।४२----अलंकृतं मुकुटादिभिर्विभूषितं—वस्त्रादिभिस्तनिषेधादनलङ् कृतविभूषितम् । ३. देखें, अणु.सू.३७८/ ४. भ.वृ.२१४२ लक्षणं-मानोन्मानादि, तत्र मान-जलद्रोणमानता, जलभृत कुण्डिकायां हि मातव्यः पुरुषः प्रवेश्यते तत्प्रवेशे च यज्जलं ततो निस्सरति, तद्यदि द्रोणमानं भवति, तदाऽसौ मानोपेत उच्यते । उन्मानं त्वर्द्धभारमानता, मातव्यः पुरुषो हि तुलारोपितो यद्यर्द्धभारमानो भवति, तदोन्मानोपेतोऽसाबुच्यते । प्रमाणं पुनः स्वाङ्गुलेनाष्टोत्तरशताङ्गुलोच्छ्रयता, यदाह "जलदोणमद्धभारं समुहाइ समूसिओ उ जो नव उ। माणुम्माणपमाणं तिविहं खलु लक्खणं एवं ॥" व्यञ्जनं–मषतिलकादिकमथवा सहज लक्षणं पश्चाद्भवं व्यञ्जनमिति। गुणाः सौभाग्यादयो लक्षणव्यञ्जनानां वा ये गुणास्तैरुपपेतं यत्तत्त था। ५. अणु.३६०, गा.१ माणुम्माणप्यमाणजुत्ता, लक्खणवंजणगुणेहिं उववेया। उत्तमकुलप्पसूया उत्तमपुरिसा मुणेयव्वा ।। ६. वही, ३६०-जेणं जया मणुस्सा भवंति तेसि णं तया अप्पणो अंगुलेणं दुवालस अंगुलाई मुहं, नवमुहाई पुरिसे पमाणजुत्ते भवइ । दोणीए पुरिसे माणजुत्ते भवइ, अद्धभारं तुल्लमाणे पुरिसे उम्माणजुत्ते भवइ। ७. भ.११।१३४-लक्खण-वंजण-गुणोववेयं माणुम्माण-प्पमाण-पडिपुण्णसुजाय___ सव्वंगसुंदरंग। ८. भ.वृ.२१४३–'सिरीए'त्ति लक्ष्म्या शोभया वा। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. २: उ.१: सू. ४३-४५ सोभेमाणं पास, पासित्ता हट्टतुट्ठचित्तमाणंदिए दिए पीइमणे परमसोमस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता बंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता पच्चासन्ने नातिदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणणं पंजलियडे पजुवासइ ॥ सूत्र ४३ शब्द- विमर्श हृष्टतुष्ट —अतितुष्ट; अथवा हृष्ट - विस्मित, तुष्ट — जिसमें चित्त या मन तोष प्राप्त करे । आनन्दित सौम्य आदि भावों से ईषत् समृद्ध मुख-मण्डल । नन्दित सौम्य आदि भावों से समृद्धतरता को प्राप्त । ४४. दयाति ! समणे भगवं महावीरे खंदयं कच्चायणसगोत्तं एवं वयासी— से नूणं तुमं खंदया ! सावत्थीए नयरीए पिंगलएणं नियंठेणं वेसालियसावएणं इणमक्खेवं पुच्छिएमागहा ! १. किं सअंते लोए ? अनंते लोए ? २. सअंते जीवे ? अणंते जीवे ? ३. सअंता सिद्धी ? अनंता सिद्धी ? ४. सअंते सिद्धे ? अते सिद्धे ? ५. केण वा मरणेणं मरमाणे जीवे वड्ढति वा, हायति वा ? एवं तं चैव जाव जेणेव ममं अंतिए तेणेव हव्वमागए । से नूणं खंदया ! अट्टे समट्ठे ? हंता अत्थि ॥ २२२ दृष्ट्वा दृष्टतुष्टचित्तः आनन्दितः नन्दितः प्रीतिमनाः परमसौमनस्थितः हर्षवशविसर्पद्हृदयः यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीरः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिः आदक्षिण-प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा न अत्यासन्नः नातिदूरः शुश्रूषमाणः नमस्यन् अभिमुखः विनयेन कृतप्राञ्जलिः पर्युपास्ते । ४५. जे विय ते खंदया ! अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकष्पे समुपखित्था -- किं सअंते लोए ? अनंते लोए ? – तस्स वि य णं अयमट्टे – एवं भाष्य स्कन्दक ! अयि ! श्रमणः भगवान् महावीरः स्कन्दकं कात्यायनसगोत्रम् एवमवादीत् अथ नूनं त्वं स्कन्दक ! श्रावस्त्यां नगर्यां पिंगलकेन निर्गन्थेन वैशालिक श्रावकेण अयमाक्षेपः पृष्टः — मागध ! १. किं सान्तः लोकः ? अनन्तः लोकः ? २. सान्त जीवः ? अनन्त जीवः ? ३. सान्ता सिद्धि: ? अनन्ता सिद्धि: ? ४ सान्तः सिद्धः ? अनन्तः सिद्धः ? ५. केन वा भरणेन म्रियमाणः जीवः वर्धते वा, हीयते वा ? एवं तच्चैव यावत् यत्रैव मम अन्तिकः तत्रैव 'हव्वं' आगतः । स नूनं स्कन्दक ! अर्थः समर्थः ? हन्त अस्ति । १ . वही, २ । ४३ – तुट्ठचित्तमाणंदिए 'त्ति हृष्टतुष्टमत्यर्थं तुष्टं दृष्टं वा विस्मितं तुष्टं च - तोषवचित्तं मनो यत्र तत्तथा तद् हृष्टतुष्टचित्तं यथा भवति एवम् ‘आनन्दितः' ईषन्मुखसौम्यतादिभावैः समृद्धिमुपगतः, ततश्च 'नंदिए 'त्ति नन्दितस्तैरेव समृद्धतरतामुपगतः, 'पीइमणे 'ति प्रीतिः प्रीणनमाप्यायनं मनसि यस्य प्रीतिमन —- जिसका मन प्रीति से भरा हुआ हो । सोमणस्सिए— वृत्तिकार ने इसके दो संस्कृत रूप दिए हैंसौमनस्थित और सौमनस्थिक— परम सौमनस्य वाला । विसप्पमाण— फैलता हुआ । ' योऽपि च तव स्कन्दक ! अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपादि - किं सान्तः लोकः ? अनन्तः लोकः ? -तस्यापि च अयमर्थः एवं खलु भगवई देखता है, देखकर हृष्ट-तुष्ट चित्त वाला, आनन्दित, नन्दित, प्रीतिपूर्ण मन वाला, परम सौमनस्य-युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाला हो गया। जहां श्रमण भगवान् महावीर हैं, वहां वह आता है, आकर श्रमण भगवान् महावीर को दांई ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा करता है, वन्दननमस्कार करता है, बन्दन - नमस्कार कर न अति निकट, न अति दूर शुश्रूषा और नमस्कार की मुद्रा में उनके सम्मुख सविनय बद्धाञ्जलि होकर पर्युपासना करता है। ४४. 'हे स्कन्दक !' इस सम्बोधन से सम्बोधित कर श्रमण भगवान् महावीर ने कात्यायनसगोत्र स्कन्दक से इस प्रकार कहा—स्कन्दक ! श्रावस्ती नगरी में वैशालिक श्रावक पिंगल निर्ग्रन्थ ने तुमसे यह प्रश्न पूछा— मागध ! १. क्या लोक सान्त है अथवा अनन्त हैं ? २. जीव सान्त है अथवा अनन्त है ? ३. सिद्धि सान्त है अथवा अनन्त है ? ४. सिद्ध सान्त है अथवा अनन्त है ? ५. किस मरण से मरता हुआ जीव बढ़ता है अथवा घटता है ? इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर ने वह सारी बातें कहीं यावत् तुम मेरे पास आगए । स्कन्दक ! क्या यह अर्थ संगत है ? हां, है । ४५. 'स्कन्दक ! तुम्हारे मन में जो इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ क्या लोक सान्त है अथवा अनन्त है ? उसका भी यह अर्थ है- स तथा 'परमसोमणस्सिए 'ति परमं सौमनस्यं सुमनस्कता संजातं यस्य स तथा 'परमसौमनस्थितस्तद्वाऽस्यास्तीति परमसौमनस्थिकः 'हरिसवसविसप्पमाहियए' त्ति हर्षवशेनविसर्पद् विस्तारं व्रजद् हृदयं यस्य स तथा । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २२३ श.२: उ.१: सू.४५ से अंते। खलु मए खंदया ! चउबिहे लोए पण्णत्ते, मया स्कन्दक ! चतुर्विधः लोकः प्रज्ञाप्तः, तद् स्कन्दक ! मैंने लोक चार प्रकार का बतलाया है, तं जहा दबओ, खेत्तओ, कालओ, यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतः भावतः। जैसे-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः और भावतः। भावओ। दव्वओ णं एगे लोए सअंते। द्रव्यतः एकः लोकः सान्तः। द्रव्यतः लोक एक और सान्त है। खेत्तओ णं लोए असंखेजाओ जोयण- क्षेत्रतः लोकः असंख्येया योजनकोटिकोटयः क्षेत्रतः लोक असंख्येय कोटाकोटि योजन लम्बाकोडाकोडीओ आयाम-विक्खंभेणं, असंखे- आयाम-विष्कम्भेण, असंख्येया योजनकोटि- -चौड़ा और असंख्येय कोटाकोटि योजन परिधि जाओ जोयणकोडाकोडीओ परिक्खेवेणं कोटयः परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः, अस्ति पुनः तस्य वाला प्रज्ञप्त है और वह अन्त-सहित है। पण्णत्ते, अत्थि पुण से अंते। अन्तः । कालओ णं लोए न कयाइ न आसी, न कालतः लोकः न कदापि नासीत्, न कदापि कालतः लोक कभी नहीं था, कभी नहीं है और कयाइ न भवइ, न कयाइ न भविस्सइ न भवति, न कदापि न भविष्यति—अभूत् कभी नहीं होगा, ऐसा नहीं है वह था, है और -भविंसु य, भवति य, भविस्सइय- च, भवति च, भविष्यति च-ध्रुवः नियतः होगा वह ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, धुवे नियए सासए अक्खए अब्बए अवढिए शाश्वतः अक्षयः अव्ययः अवस्थितः नित्यः, ___अव्यय, अवस्थित, नित्य है और उसका अन्त निचे, नत्थि पुण से अंते। नास्ति पुनः तस्य अन्तः। नहीं है, वह अनन्त है। भावओ णं लोए अणंता वण्णपजवा, भावतः लोके अनन्ताः वर्णपर्यवाः, अनन्ताः भावतः लोक में अनन्त वर्णपर्यव, अनन्त अणंता गंधपजवा, अणंता रसपजवा, गन्धपर्यवाः, अनन्ताः रसपर्यवाः, अनन्ताः गन्धपर्यव, अनन्त रसपर्यव, अनन्त स्पर्शपर्यव, अणंता फासपजवा, अणंता संठाणपजवा, स्पर्शपर्यवाः, अनन्ताः संस्थानपर्यवाः, अनन्त संस्थानपर्यव, अनन्त गुरुलघुपर्यव, अनन्त अणंता गरुयलहुयपज्जवा, अणंता अगरुय- अनन्ताः गुरुकलघुकपर्यवाः, अनन्ताः अगु- अगुरुलघुपर्यव हैं और उसका अन्त नहीं है, वह लहुयपजवा, नत्थि पुण से अंते। रुकलघुकपर्यवाः, नास्ति पुनः तस्य अन्तः । अनन्त है। सेत्तं खंदगा ! दबओ लोए सअंते, खेत्तओ तदेतत् स्कन्दक ! द्रव्यतः लोकः सान्तः, स्कन्दक ! इसलिए द्रव्यतः लोक सान्त है, क्षेत्रतः लोए सअंते, कालओ लोए अणंते, भावओ क्षेत्रतः लोकः सान्तः, कालतः लोकः अनन्तः, लोक सान्त है, कालतः लोक अनन्त है, भावतः लोए अणंते॥ भावतः लोकः अनन्तः। लोक अनन्त है। भाष्य १. सूत्र ४५ शब्द-विमर्श द्रव्यतः.......भावतः देखें भ. २।२-७ का भाष्य धुक्-अचल, गतिरहित। नियत-एकस्वरूपता के कारण नियमबद्ध । शाश्वत-प्रतिक्षण अस्तित्व वाला। अक्षय-अविनाशी। अव्यय-जिसके एक अवयव का भी व्यय न हो। अवस्थित–हीयमान और वर्धमान इन दोनों अवस्थाओं से गन्ध आदि के पर्यवों से किया गया है। पर्यव का अर्थ है-पर्याय । पर्यव, विशेष, धर्म, पर्याय, पर्यय, भेद और भाव-ये सब पर्यायवाची शब्द हैं।' पर्यव दो प्रकार के होते हैं स्वभाव पर्यव और विभाव पर्यव। जीव और पुद्गल में दोनों प्रकार के पर्यव रहते हैं, शेष द्रव्यों में स्वभाव पर्यव होता है।' वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श-ये पुद्गल के स्वभाव पर्यव हैं। एक परमाणु या स्कन्ध एक गुण काले रंग वाला यावत् अनन्त गुण काले रंग वाला हो जाता है। इसी प्रकार गंध, रस और स्पर्श में भी स्वाभाविक परिणमन होता रहता है। गुरुलघु पर्यव पुद्गल और पुद्गल युक्त जीव में होता है। इसका संबंध स्पर्श से है।' अगुरुलघु पर्यव एक विशेष गुण या शक्ति है। इस शक्ति से द्रव्य का द्रव्यत्व बना रहता है। चेतन अचेतन नहीं होता और अचेतन चेतन नहीं होता-इस नियम का आधार अगुरुलघु पर्यव ही है। इसी शक्ति के कारण द्रव्य के गुणों में प्रतिसमय मुक्त। नित्य-अवस्थित होने के कारण सदा होने वाला।' भावतः लोक में लोक शब्द का निरुक्त यह है—जो दिखाई देता है, वह लोक है। इसीलिए भावतः लोक का निरूपण वर्ण, १. वही,२१४५–'धुवे'त्ति ध्रुवोऽचलत्वात् स चानियतरूपोऽपि स्यादत आह-णियते'त्ति नियत एकस्वरूपत्वात्, नियतरूपः कादाचित्कोऽपि स्या- टत आह–'सासए'त्ति शाश्वतः प्रतिक्षणं सद्भावात्, स च नियतकाला- पेक्षयाऽपि स्यादित्यत आह-'अक्खए'त्ति अक्षयोऽविनाशित्वात्, अयं च बहुतरप्रदेशापेक्षयाऽपि स्यादित्यत आह–'अव्वए'त्ति अव्ययस्तठप्रदेशानामव्ययत्वात्, अयं च द्रव्यतयाऽपि स्यादित्याह-'अवविए'ति अवस्थितः । पर्यायाणामनन्ततयाऽवस्थितत्वात्, किमुक्तं भवति ? –नित्य इति । २. भ.५।२५१-अजीवेहिं लोक्कइ पलोक्कइ, जे लोकइ से लोए। ३. एकार्थक कोश, पृ. ६१—पज्जवो त्ति वा भेदो त्ति वा गुणो त्ति वा एगट्ठा । नयनका सब्भाव खु विहावं दव्वाणं पजयं जिणुद्दिष्टुं । सव्वेसिं च सहावं, विभावं जीवपोग्गलाणं च ॥ ५. देखें, भ.१1३६२४१६ का भाष्य । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.२: उ.१: सू.४५,४६ २२४ भगवई 'षट्स्थानपतित हानि और वृद्धि' होती रहती है।' इस शक्ति को जीव गुरुलघु नहीं हैं। यह निषेधपक्ष है। उसका विधिपक्ष है कि सूक्ष्म वाणी से अगोचर, प्रतिक्षण वर्तमान और आगम प्रमाण से वे अगुरुलघु हैं। यह सिद्धों में पाया जाने वाला अगुरुलघु गुरुलघु स्वीकरणीय बतलाया गया है।' अगुरुलघु पर्याय को स्वभाव-पर्याय का अभाव नहीं है, किन्तु यह एक विधायक शक्ति है। इसीलिए और अर्थपर्याय भी कहा जाता है। अगुरुलघु का दूसरा अर्थ है उसके अनन्त पर्यव होते हैं और इसी शक्ति के द्वारा वे न नीचे भारहीन | नामकर्म की एक प्रकृति का नाम भी अगुरुलघु कर्म है। आते हैं और न इधर-उधर परिभ्रमण करते हैं। यह अगुरुलघुशक्ति उसका संबंध भी भारहीनता से है। अणु, सूक्ष्म स्कन्ध और अमूर्त द्रव्यों में पाई जाती है। ' संसारी जीव अनादि पारिणामिक अगुरुलघु शक्ति प्रत्येक द्रव्य में होती है। में गुरुलघु और अगुरुलघु दोनों पर्यवों का अस्तित्व होता है। वह यहां विवक्षित नहीं है। अगुरुलघु नामकर्म भी यहां विवक्षित औदारिक आदि शरीरों के कारण गुरुलघु पर्यवों का अस्तित्व होता नहीं है। यहां गुरुलघु की नियामक शक्ति के रूप में अगुरुलधु है और कार्मण आदि पुद्गल द्रव्यों की अपेक्षा से तथा जीव की विवक्षित है। यह शक्ति स्वयं भारहीन है, साथ-साथ गुरुलघु की अपेक्षा से अगुरुलघु पर्यवों का अस्तित्व होता है।' सिद्ध जीव नियामक भी है। यह शक्ति सिद्ध जीवों में पाई जाती है। सिद्ध अशरीरी होते हैं; इसलिए उनमें केवल अगुरुलघु पर्यव होते हैं। ४६. जे वि य ते खंदया ! अयमेयासवे योऽपि च तव स्कन्दक ! अयमेतद्पः ४६. स्कन्दक ! तुम्हारे मन में जो इस प्रकार का अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे आध्यात्मिकः चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, मनोगत समुप्पन्जित्थासंकल्पः समुदपादि संकल्प उत्पन्न हुआकिं सअंते जीवे ? अणंते जीवे ? किं सान्तः जीवः ? अनन्तः जीवः ? क्या जीव सान्त है अथवा अनन्त है ? तस्स वि य णं अयमठे एवं खलु मए तस्यापि च अयमर्थः–एवं खलु मया उसका भी यह अर्थ है-स्कन्दक ! मैंने जीव खंदया ! चउबिहे जीवे पण्णत्ते, तं जहा स्कन्दक ! चतुर्विधः जीवः प्रज्ञप्तः, तद् यथा चार प्रकार का बतलाया है, जैसे—द्रव्यतः, दवओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ। -द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतः भावतः। क्षेत्रतः, कालतः और भावतः। दव्वओ णं एगे जीवे सअंते। द्रव्यतः एकः जीवः सान्तः। द्रव्यतः जीव एक और सान्त है। खेत्तओ णं जीवे असंखेजपएसिए, असंखे- क्षेत्रतः जीवः असंख्येयप्रदेशिकः, असं- क्षेत्रतः जीव असंख्येयप्रदेशी है, आकाश के अपएसोगाढे, अत्थि पुण से अंते। ख्येयप्रेदेशावगाढः, अस्ति पुनः तस्य अन्तः। असंख्येयप्रेदेशों में अवगाहन किए हुए है और वह अन्तसहित है। कालओ णं जीवे न कयाइ न आसी, न कालतः जीवः न कदापि नासीत्, न कदापि कालतः जीव कभी नहीं था, कभी नहीं है और कयाइ न भवइ, न कयाइ न भविस्सइ- न भवति, न कदापि न भविष्यति—अभूत् । कभी नहीं होगा, ऐसा नहीं है वह था, है और भविंसु य, भवति य, भविस्सइ य–धुवे च, भवति च, भविष्यति च-ध्रुवः नियतः होगा—वह ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, नियए सासए अक्खए अव्वए अवट्ठिए शाश्वतः अक्षयः अव्ययः अवस्थितः नित्यः, अव्यय, अवस्थित, नित्य है और उसका अन्त निचे, नत्थि पुण से अंते। नास्ति पुनः तस्य अन्तः। नहीं है, वह अनन्त है। भावओ णं जीवे अणंता नाणपजवा, भावतः जीवे अनन्ताः ज्ञानपर्यवाः, अनन्ताः भावतः जीव में अनन्त ज्ञानपर्यव, अनन्त दर्शनअणंता दंसणपजवा, अणंता चारित्तपजवा, दर्शनपर्यवाः, अनन्ताः चारित्रपर्यवाः, पर्यव, अनन्त चारित्रपर्यव अनन्त गुरुलघुपर्यव, अणंता गरुयलहुयपजवा, अणंता अगरुय- अनन्ताः गुरुकलघुकपर्यवाः, अनन्ताः अगुरु- अनन्त अगुरुलघुपर्यव हैं और उसका अन्त नहीं लहुयपज्जवा, नत्थि पुण से अंते। कलघुकपर्यवाः, नास्ति पुनः तस्य अन्तः।। है, वह अनन्त है। सेतं खंदगा! दबओ जीवे सअंते, खेत्तओ तदेतत् स्कन्दक ! द्रव्यतः जीवः सान्तः, स्कन्दक ! इसलिए द्रव्यतः जीव सान्त है, क्षेत्रतः जीवे सअंते, कालओ जीवे अणंते, भावओ क्षेत्रतः जीवः सान्तः, कालतः जीवः अनन्तः, जीव सान्त है, कालतः जीव अनन्त है, भावतः जीवे अणंते॥ भावतः जीवः अनन्तः। जीव अनन्त है। १. आलापपद्धति नयचक्र, परिशिष्ट पृ. २११- अगुरुलघुविकाराः स्वभाव- सूक्ष्मं जिनोदितं तत्त्वं हेतुभिर्नेव हन्यते । पर्यायास्ते द्वादशधा षड्वृद्धिहानिरूपाः। अनन्तभागवृद्धिः, असंख्यातभाग- आज्ञासिद्धं तु तद्ग्राह्यं नान्यथावादिनो जिनाः ॥ ४ ॥ वृद्धिः संख्यातभागवृद्धिः, संख्यातगुणवृद्धिः, असंख्यातगुणवृद्धिः, अनन्त- ३. भ.व.२।४५—'वण्णपज्जवत्ति वर्णविशेषा एकगुणकालत्वादयः, एवमन्येऽपि गुणवृद्धिः इति षड्वृद्धिः। तथा अनन्तभागहानिः, असंख्यातभागहानिः, गुरुलघुपर्यवास्तद्विशेषा बादरस्कन्धानाम्, अगुरुलधुपर्यवा अणूनां सूक्ष्मसंख्यातभागहानिः, संख्यातगुणहानिः, असंख्यातगुणहानिः, अनन्तगुणहानिः, __ स्कन्धानाममूर्तानां च। इति षड्हानिः । एवं षड्वृद्धिहानिरूपा द्वादश ज्ञेयाः।। ४. भ.व.२।४६–अनंता गुरुलघुपर्यवा औदारिकादिशरीराण्याश्रित्य, इतरे तु २. वही, पृ. २१६-अगुरुलघोर्भावोऽगुरुलघुत्वम् । सूक्ष्मा वागगोचराः प्रतिक्षणं । कार्मणादिद्रव्याणि जीवस्वरूपं चाश्रित्येति । वर्तमाना आगमप्रमाणादभ्युपगम्या अगुरुलघुगुणाः। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४७. जे विय ते खंदया ! अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुपखित्था किं सअंता सिद्धी ? अनंता सिद्धी ? तस्स वि य णं अयमट्ठे एवं खलु भए खंदया ! चउव्विहा सिद्धी पण्णत्ता, तं जहा - दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ। दव्वओ णं एगा सिद्धी सअंता । खेत्तओ णं सिद्धी पणयालीसं जोयणसयसहस्साइं आयाम - विक्खंभेणं, एगा जोयणकोडी बायालीसं च सयसहस्साई तीसं च सहस्साइं दोण्णि य अउणापत्रजोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ता, अथ पुण से अंते । कालओ णं सिद्धी न कयाइ न आसी, न कयाइ न भवइ, न कयाइ न भविस्सइभविसु य, भवति य, भविस्सइ य— धुवा नियया सासया अक्खया अव्यया अवट्ठिया निच्चा, नत्थि पुण सअंता । भावओ णं सिद्धीए अनंता वण्णपजवा, अणंता गंधपज्जवा, अनंता रसपजवा, अणता फासपज्जवा, अनंता संठाणपजवा, अणता गरुयलहुयपजवा, अनंता अगरुयलहुयपजवा, नत्थि पुण सअंता । सेत्तं खंदया ! दव्वओ सिद्धी सअंता, खेत्तओ सिद्धी सअंता, कालओ सिद्धी अनंता, भावओ सिद्धी अणंता ॥ ४८. जेविय ते खंदया ! अयमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे सपाकिं सअंते सिद्धे ? अणंते सिद्धे ? तस्स वि य णं अयम — एवं खलु मए खंदया ! चउब्विहे सिद्धे पण्णत्ते, तं जहा दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ । दव्वओ णं एगे सिद्धे सअंते । खेत्तओ णं सिद्धे असंखेज्जपएसिए, असं खेज्जप सोगाढे, अस्थि पुण से अंते । कालओ णं सिद्धे सादीए, अपज्जवसिए, नत्थि पुण से अंते । भावओ णं सिद्धे अणंता नाणपज्जवा, अनंता दंसणपञ्चवा, अनंता अगरुयलहुयपजवा, २२५ योऽपि च तव स्कन्दक ! अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपादि किं सान्ता सिद्धि: ? अनन्ता सिद्धि: ? तस्यापि च अयमर्थः — एवं खलु मया स्कन्दक ! चतुर्विधा सिद्धिः प्रज्ञप्ता, तद् यथा -द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतः भावतः । द्रव्यतः एका सिद्धिः सान्ता । क्षेत्रतः सिद्धिः पञ्चचत्वारिंशच योजनशतसहस्राणि आयाम - विष्कम्भेण, एका योजनकोटिः द्विचत्वारिंशच्च शतसहस्राणि त्रिंशच्च सहस्राणि द्वयोः च एकोनपञ्चाशद् योजनशते किंचित् विशेषाधिके परिक्षेपेण प्रज्ञप्ता, अस्ति पुनः तस्याः अन्तः । कालतः सिद्धिः न कदापि नासीत् न कदापि न भवति, न कदापि न भविष्यति अभूत् च, भवति च, भविष्यति च ध्रुवा, नियता, शाश्वती, अक्षया, अव्यया, अवस्थिता, नित्या, नास्ति पुनः सान्ता । भावतः सिद्धयां अनन्ताः वर्णपर्यवाः, अनन्ताः गन्धपर्यवाः, अनन्ताः रसपर्यवाः, अनन्ताः स्पर्शपर्यवाः अनन्ताः संस्थानपर्यवाः, अनन्ताः गुरुकलघुकपर्यवाः, अनन्ताः अगुरुकलघुकपर्यवाः, नास्ति पुनः सान्ता । तदेतत् स्कन्दक ! द्रव्यतः सिद्धिः सान्ता, क्षेत्रतः सिद्धिः सान्ता, कालतः सिद्धिः अनन्ता, भावतः सिद्धिः अनन्ता । योऽपि च तव स्कन्दक ! अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपादि- किं सान्तः सिद्धः ? अनन्तः सिद्धः ? तस्यापि च अयमर्थः एवं खलु मया स्कन्दक ! चतुर्विधः सिद्धः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - द्रव्यतः, क्षेत्रतः कालतः, भावतः । द्रव्यतः एकः सिद्धः सान्तः । क्षेत्रतः सिद्धः असंख्येयप्रदेशिकः, असंख्येयप्रदेशावगाढः अस्ति पुनः तस्य अन्तः । कालतः सिद्धः सादिक: अपर्यवसितः नास्ति पुनः तस्य अन्तः । भावतः सिद्धे अनन्ताः ज्ञानपर्यवाः, अनन्ताः दर्शनपर्यवाः, अनन्ताः अगुरुकलघुकपर्यवाः, श. २: उ.१: सू.४७,४८ ४७. स्कन्दक ! तुम्हारे मन में जो इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ- क्या सिद्धि सान्त है अथवा अनन्त है ? उसका भी यह अर्थ है—स्कन्दक ! मैंने सिद्धि चार प्रकार की बतलाई है, जैसे द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः और भावतः । द्रव्यतः सिद्धि एक और सान्त है। क्षेत्रतः सिद्धि पैंतालीस (४५) लाख योजन लम्बी-चौड़ी है, उसकी परिधि एक करोड़ बयालीस लाख तीस हजार दो सौ उनपचास (१,४२,३०,२४६) योजन से कुछ अधिक प्रज्ञप्त है और वह अन्त - सहित है। कालतः सिद्धि कभी नहीं थी, कभी नहीं है और कभी नहीं होगी, ऐसा नहीं है- वह थी, है और होगी — वह ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित, नित्य है और वह सान्त नहीं है, वह अनन्त है। भावतः सिद्धि में अनन्त वर्णपर्यव, अनन्त गन्धपर्यव, अनन्त रसपर्यव, अनन्त स्पर्शपर्यव अनन्त संस्थानपर्यव, अनन्त गुरुलघुपर्यव, अनन्त अगुरुलघुपर्यव हैं और वह सान्त नहीं है, वह अनन्त है। स्कन्दक ! इसलिए द्रव्यतः सिद्धि सान्त है, क्षेत्रतः सिद्धि सान्त है, कालतः सिद्धि अनन्त है, भावतः सिद्धि अनन्त है। ४८. स्कन्दक ! तुम्हारे मन में जो इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ क्या सिद्ध सान्त है अथवा अनन्त है ? उसका भी यह अर्थ है स्कन्दक ! मैंने सिद्ध चार प्रकार का बतलाया है, जैसे द्रव्यतः, क्षेत्रतः कालतः और भावतः । द्रव्यतः सिद्ध एक और सान्त हैं। क्षेत्रतः सिद्ध असंख्येयप्रदेशी है, आकाश के असंख्येय प्रदेशों में अवगाहन किए हुए है और वह अन्त सहित है। कालतः सिद्ध सादि अपर्यवसित है और उसका अन्त नहीं है। भावतः सिद्ध में अनन्त ज्ञानपर्यव, अनन्त दर्शनपर्यव, अनन्त अगुरुलघु पर्यव हैं और उसका Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.२: उ.१: सू.४८,४६ २२६ नत्थि पुण से अंते। नास्ति पुनः तस्य अन्तः। सेत्तं खंदया ! दबओ सिद्धे सअंते, खेत्तओ। तदेतत् स्कन्दक ! द्रव्यतः सिद्धः सान्तः, सिद्धे सअंते, कालओ सिद्धे अणंते,भावओ क्षेत्रतः सिद्धः सान्तः, कालतः सिद्धः अनन्तः, सिद्धे अणते॥ भावतः सिद्धः अनन्तः। भगवई अन्त नहीं है, वह अनन्त है। स्कन्दक ! इसलिए द्रव्यतः सिद्ध सान्त है, श्रेत्रतः सिद्ध सान्त है, कालतः सिद्ध अनन्त है, भावतः सिद्ध अनन्त है। ४६.जेविय ते खंदया ! इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पजित्थाकेण वा मरणेणं मरमाणे जीवे बढति वा, हायति वा? तस्स वि य णं अयमठे-एवं खलु खंदया! मए दुविहे मरणे पण्णत्ते, तं जहा -बालमरणे य, पंडियमरणे य । से किं तं बालमरणे? बालमरणे दुवालसविहे पण्णत्ते, तं जहा१. वलयमरणे २. वसट्टमरणे ३. अंतोसल्लमरणे ४. तब्भवमरणे ५. गिरिपडणे ६. तरुपडणे ७. जलप्पवेसे . जल- णप्पवेसे ६. विसभक्खणे १०. सत्थोवाडणे ११. वेहाणसे १२. गद्धपढे इचेतेणं खंदया ! दुवालसविहेणं बालमरणेणं मरमाणे जीवे अणंतेहिं नेरइयभवग्गहणेहिं अप्पाणं संजोएइ, अणंतेहिं तिरिय- भवम्गहणेहिं अप्पाणं संजोएइ, अणंतेहिं मणुयभवम्गहणेहिं अप्पाणं संजोएइ, अणंतेहिं देवभवम्गहणेहिं अप्पाणं संजोएइ, अणाइयं च णं अणवदग्गं चाउरंतं संसारकतारं अणुपरियट्टइ। सेत्तं मरमाणे वड्ढइ-वड्टइ। त्योवाडणे पाटन द्वादशविधेन वालणः आत्मानं योऽपि च तव स्कन्दक ! अयमेतद्पः ४६. 'स्कन्दक ! तुम्हारे मन में जो इस प्रकार का आध्यात्मिकः चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक मनोगत संकल्पः समुदपादि संकल्प उत्पन्न हुआकेन मरणेन म्रियमाणः जीवः वर्धते वा, हीयते । किस मरण से मरता हुआ जीव बढ़ता है अथवा वा? घटता है ? तस्यापि अयमर्थः-एवं खलु स्कन्दक! मया उसका भी यह अर्थ है स्कन्दक! मैंने मरण दो द्विविधं मरणं प्रज्ञप्तं, तद् यथा- बालमरणं प्रकार का बतलाया है, जैसे-बालमरण और च पण्डितमरणं च । पण्डितमरण। अथ किं तत् बालमरणम् ? वह बालमरण क्या है? बालमरणं द्वादशविधं प्रज्ञप्तं, तद् यथा- बालमरण बारह प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसेवलयमरणं, वशार्तमरणम्, अन्तःशल्यमरणं, १. वलयमरण-संयम-जीवन से च्युत होकर तदभवमरणं, गिरिपतनं, तरुपतनं, जल मरना। प्रवेशः, ज्वलनप्रवेशः, विषभक्षणं, शस्त्राव- २. वशार्तमरण-इन्द्रियों के वशवर्ती होकर पाटनं, वैहानशं, गृध्रस्पृष्टम्। इत्येतेन मरना। स्कन्दक! द्वादशविधेन बालमरणेन म्रियमाणः । ३. अन्तःशल्यमरण—माया आदि आन्तरिक जीव अनन्तैः नैरयिकभवग्रहणः आत्मानं शल्य की दशा में मरना। संयोजयति, अनन्तैः तिर्यगभवग्रहणैः आत्मानं ४. तद्भवमरण-तिर्यंच या मनुष्य भव में संयोजयति, अनन्तैः मनुष्यभवग्रहणैः आत्मानं । विद्यमान प्राणी पुनः तद्भवयोग्य तिर्यंच या संयोजयति, अनन्तैः देवभवग्रहणैः आत्मानं मनुष्य भवयोग्य आयुष्य का बंध कर वर्तमान संयोजयति, अनादिकं च 'अणवदग्गं' चतु- आयु के क्षय होने पर मरता है, उसका मरण रन्तं संसारकान्तारम् अनुपर्यटति। तदेतत् तद्भवमरण है। नियमाणः वर्धते-वर्धत। ५. गिरिपतन-पर्वत से गिरकर मरना। ६. तरुपतन वृक्ष से गिरकर मरना। ७. जलप्रवेश-जल में डूब कर मरना। १. ज्वलनप्रवेश-अग्नि में प्रवेश कर मरना। ६. विषमक्षण जहर खाकर मरना। १०. शस्त्रावपाटन छूरी आदि शस्त्रों से शरीर को विदीर्ण कर मरना। ११. वैहानश-गले में फांसी लगा वृक्ष की शाखा से लटक कर मरना। १२. गृद्धस्पृष्ट-गीध द्वारा मांस नोचे जाने पर मरना। स्कन्दक ! इस बारह प्रकार के बालमरण से मरता हुआ जीव नैरयिक के अनन्त भव-ग्रहण से अपने आपको संयोजित करता है, तिर्यंच के अनन्त भव-ग्रहण से अपने आप को संयोजित करता है, मनुष्य के अनन्त भव-ग्रहण से अपने आपको संयोजित करता है, देव के अनन्त भवग्रहण से अपने आपको संयोजित करता है और वह आदि-अन्तहीन चतुर्गत्यात्मक संसारकान्तार में अनुपर्यटन करता है। इस बालमरण से मरता हुआ जीव बढ़ता है, बढ़ता है। तदेतत् बालमरणम् । यह बालमरण है। सेत्तं बालमरणे । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २२७ श.२: उ.१: सू.४६ से किं तं पंडियमरणे ? अथ किं तत् पण्डितमरणम् ? वह पण्डितमरण क्या है ? पंडियमरणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- पण्डितमरणं द्विविधं, प्रज्ञप्तं, तद् यथा- पण्डितमरण दो प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसेपाओवगमणे य, भत्तपञ्चक्खाणे य। प्रायोपगमनं च भक्तप्रत्याख्यानं च । प्रायोपगमन और भक्तप्रत्याख्यान | से किं तं पाओवगमणे? अथ किं तत् प्रायोपगमनम् ? वह प्रायोपगमन क्या है ? पाओवगमणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- प्रायोपगमनं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद् यथा- प्रायोपगमन दो प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसेनीहारिमे य, अनीहारिमे य । नियमा निर्झरिमञ्च, अनि रिमञ्च। नियमाद् । निर्वारि और अनिहारि। यह नियमतः अपरिकर्म अप्पडिकम्मे। अप्रतिकर्म। होता है। सेत्तं पाओवगमणे । तदेतत् प्रायोपगमनम् । यह प्रायोपगमन है। से किं तं भत्तपचक्खाणे? अथ किं तद् भक्तप्रत्याख्यानम् ? वह भक्तप्रत्याख्यान क्या है ? भत्तपचक्खाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- भक्तप्रत्याख्यानं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद् यथा- भक्तप्रत्याख्यान दो प्रकार का प्रज्ञाप्त है, जैसेनीहारिमे य, अनीहारिमे य । नियमा निर्धारि और अनिर्हारि। यह नियमतः सपरिकर्म सपडिकम्मे । सप्रतिकर्म। होता है। सेत्तं भत्तपचक्खाणे । तदेतद् भक्तप्रत्याख्यानम्। यह भक्तप्रत्याख्यान है। इच्चेतेणं खंदया ! दुविहेणं पंडियमरणेणं इत्येतेन स्कन्दक ! द्विविधेन पण्डितमरणेन स्कन्दक ! इस द्विविध पण्डितमरण से मरता हुआ मरमाणे जीवे अणंतेहिं नेरइयभवग्गहणेहिं म्रियमाणः जीवः अनन्तैः नैरयिकभवग्रहणैः जीव नैरयिक के अनन्त भव-ग्रहण से अपने अप्पाणं विसंजोएइ, अणंतेहिं तिरिय- आत्मानं विसंयोजयति, अनन्तैः तिर्यग्- आपको विसंयोजित करता है, तिर्यंच के अनन्त भवम्गहणेहिं अप्पाणं विसंजोएइ, अणंतेहिं भवग्रहणैः आत्मानं विसंयोजयति, अनन्तैः । भव-ग्रहण से अपने आपको विसंयोजित करता मणुयभवम्गहणेहिं अप्पाणं विसंजोएइ, मनुष्यभवग्रहणः आत्मानं विसंयोजयति, है, मनुष्य के अनन्त भव-ग्रहण से अपने आप अणंतेहिं देवभवग्गहणेहिं अप्पाणं अनन्तैः देवभवग्रहणैः आत्मानं विसंयोजयति, को विसंयोजित करता है, देव के अनन्त भवविसंजोएइ, अणाइयं च णं अणवदगं अनादिकं च 'अणवदग्गं' चतुरन्तं संसार- ग्रहण से अपने आपको विसंयोजित करता है और चाउरंतं संसारकतारं वीईवयइ। सेत्तं कान्तारं व्यतिव्रजति। वह आदि-अन्तहीन चतुर्गत्यात्मक संसारकान्तार मरमाणे हायइ-हायइ। तदेतन् म्रियमाणः हीयते-हीयते । का व्यतिक्रमण करता है। इस पण्डितमरण से मरता हुआ जीव घटता है, घटता है। सेत्तं पंडियमरणे। तदेतत् पण्डितमरणम् । यह पण्डितमरण है । इच्चेएणं खंदया ! दुविहेणं मरणेणं मरमाणे इत्येतेन स्कन्दक ! द्विविधेन मरणेन म्रियमाणः स्कन्दक ! इस द्विविध बाल और पण्डितमरण से जीवे वड्ढइ वा, हायइ बा॥ जीवः वर्धते वा, हीयते वा। मरता हुआ जीव बढ़ता है और घटता है। भाष्य १. सूत्र ४६ आयु का क्षय, इन्द्रिय और बल का विनाश होना मरण है। इनमें वैहायस और गध्रस्पृष्ट विशेष स्थिति में अप्रतिऋष्टअनिषिद्ध उसके दो प्रकार बतलाए गये हैं-बालमरण और पंडितमरण | ठाणं बतलाए गए हैं। आयारो में केवल वैहायस का विधान है।' उसमें में मरण के तीन प्रकार मिलते है-बालमरण, पण्डितमरण और गृध्रस्पृष्ट का विधान नहीं है। इससे प्रतीत होता है कि गृध्रस्पृष्ट बालपण्डितमरण ।' यहां 'बालपण्डितमरण' स्वतंत्र रूप में विवक्षित अनिषिद्ध है-यह मान्यता आयारो के उत्तरकाल में हुई है। ठाणं नहीं है। ठाणं में मरण के चौदह प्रकार तथा समवाओ में मरण के में वैहायस और गृध्रस्पृष्ट दोनों अनिषिद्ध हैं। विजयोदया में भी सतरह प्रकार बतलाए गए हैं। भगवती आराधना में भी मरण के सतरह प्रकार उपलब्ध हैं। देखें तालिका । वैहायस और गृध्रपृष्ठ को अप्रतिषिद्ध और अननुज्ञात बतलाया गया प्रस्तुत प्रकरण में बालमरण के बारह प्रकार बतलाए गए हैं। १. ठाणं, ३५१६-तिविहे मरणे पण्णत्ते, तं जहा—वालमरणे, पंडियमरणे, बालपंडियमरणे। २. आयारो, ८/५ तवस्सिणो हु तं सेयं, जमेगे विहमाइए। ३. ठाणं, २।४१३-दो मरणाई समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं निग्गंथाणं णो निचं कित्तियाई णो णिचं बुइयाई णो णिचं पसत्थाई णो णिचं अब्मणुण्णायाई भवंति। कारणे पुण अप्पडिकुट्ठाई, तं जहा–बेहाणसे चेव गिद्धपढे चेव। ४. विजयोदया, वृ.प.८५-अप्रतिषिद्धे अननुज्ञाते च द्वे मरणे विप्पणासं गिद्धपुढे इति संक्षिते । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.२: उ.१: सू.४६ २२८ भगवई भग. २/४६ ठाणं, २/४११-१४ | सम. १७/६ नि. ११/६३ मरण आवीचि अवधि आत्यन्तिक वलाय (वलन्) वशात अन्तःशल्य तद्भव बालमरणवलय वशात तद्भव अन्तःशल्य गिरिपतन तरुपतन जलप्रवेश ज्वलनप्रवेश विषभक्षण शस्त्रावपाटन वहायस गृध्रस्पृष्ट पण्डितमरण प्रायोपगमन भक्तप्रत्याख्यान म. १३/१३०-१४५ मरण आवीचि अवधि आत्यन्तिक बाल पण्डित अप्रशस्तमरणवलय निदान वशात तद्भव निदान गिरिपतन तरुपतन जलप्रवेश ज्वलनप्रवेश विषभक्षण शस्त्रावपाटन वैहायस गृध्रस्पृष्ट प्रशस्तमरण प्रायोपगमन भक्तप्रत्याख्यान बाल पण्डित मूलाराधना, १/२५ विजयोदया वृत्ति प.९६ मरण अवीचि तद्भव अवधि आद्यन्त बाल पण्डित अवसन्न बालपण्डित सशल्य वलाय वशार्त विप्राणस गृध्रपृष्ठ भक्तप्रत्याख्यान प्रायोपगमन इंगिनी बालमरणगिरिपतन मरुपतन भृगुपतन तरुपतन गिरिप्रस्कन्दन मरुप्रस्कन्दन भृगुप्रस्कन्दन तरुप्रस्कन्दन जलप्रवेश ज्वलनप्रवेश जलप्रस्कन्दन ज्वलनप्रस्कन्दन विषभक्षण शस्त्रावपाटन वलय वशात तभव अन्तःशल्य वैहायस गृध्रस्पृष्ट बालपण्डित छद्मस्थ केवली वैहायस गृद्धस्पृष्ट (गृद्धपृष्ठ) भक्तप्रत्याख्यान इंगिनी प्रायोपगमन केवली उत्तराध्ययन नियुक्ति में 'वैहायस' और 'गृध्रस्पृष्ट' इन दोनों को अनुज्ञात बतलाया गया है। उक्त तालिका में मरण की संख्या और क्रम में भेद मिलता है। संख्या भेद विवक्षा-सापेक्ष है। निशीथ में बालमरण के २० प्रकार बतलाए गये हैं और अन्त में इस प्रकार के अन्यतर बाल मरणों का भी संकेत किया गया है। इससे स्पष्ट है कि बालमरण की संख्या १२ भी हो सकती है, २० भी हो सकती है और ५० भी हो सकती है। ग्रंथकर्ता की विवक्षा के आधार पर संख्या न्यून और अधिक हो सकती है। क्रमभेद भी ग्रन्थकर्ता की विवक्षा है। मृत्यु के मूल प्रकार दो ही हो सकते हैं-आवीचिमरण और प्रायोगिकमरण। शेष सब प्रायोगिकमरण के प्रकार हैं। अकलंक ने मरण के दो प्रकारों का निर्देश किया है-नित्यमरण और तद्भव- मरण। उनके अनुसार तद्भवमरण का अर्थ है नए भव की प्राप्ति से पूर्ववर्ती अनन्तर क्षण में होने वाला पूर्वभव का विगमन ।' बालमरण और पण्डितमरण के दो-दो अर्थ होते हैं १. अविरत व्यक्ति का मरण बालमरण कहलाता है। विरत व्यक्ति का मरण पण्डितमरण कहलाता है। देशविरत व्यक्ति का मरण बालपण्डितमरण कहलाता है। बालमरण और पण्डितमरण का उक्त अर्थ अविरति और विरति की अपेक्षा से किया गया है।' २. प्रस्तुत प्रकरण में बाल मनुष्य या अविरत मनुष्य के आत्मघाती प्रयल, निदान और आर्त्त-रौद्र ध्यान की दशा में होने वाला मरण बालमरण है। इसी प्रकार यहां पण्डितमरण का प्रयोग भी अनशनपूर्वक होने वाले मरण के अर्थ में किया गया है। पण्डितमरण का एक प्रकार इंगितमरण भी है। यह भक्तप्रत्याख्यान का ही एक प्रकार है। इसलिए इसका पृथक् निर्देश नहीं है। जयाचार्य ने इस प्रसंग में एक सहज १. उत्तरा.नि.गा.२२४ गिद्धाइभक्खणं गिद्धपिट्ट उब्बंधणाइ वेहासं । एए दुनि वि मरणा, कारणजाए अणुण्णाया।। २. निसीह.११।६३–अण्णयराणि वा तहप्पगाराणि बालमरणाणि । ३. त.रा.वा.७।२२-परणं द्विविधं नित्यभरणं तद्भवमरणं चेति।..... तद्भवभरणं भवान्तरप्राप्त्यनंतरोपश्लिष्टं पूर्वभवविगमनम् । ४. उत्तरा.नि.गा.२२२ - अविरयमरणं बालं मरणं विरयाण पंडियं विति । जाणाहि बालपंडियमरणं पुण देसविरयाणं ।। ५. (क) भ.जो.१।३५।२७,२८-- अन्य सूत्र रै माय, पंडित मरणज त्रिविधे । पाओवगमन सुहाय, इंगित भतपचखाण फुन ।। इंगित-मरणज तेह, विशेष भतपचखाण नों। तिण कारण थी जेह, तृतिय भेद न कहयो इहां ।। (ख) भ.वृ.२ । ४६-यच्चान्यत्रेह स्थाने इंगितमरणमभिधीयते तद्भक्तप्रत्याख्यानस्यैव विशेष इति नेह भेदेन दर्शितमिति । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २२६ श.२ः उ.१: सू.४६ उभरने वाले प्रश्न का समाधान किया है। यहां पण्डितमरण के दो यह मरण पांच स्थावर और अमनस्क त्रस जीवों के होता है। उक्त प्रकार निर्दिष्ट हैं। कोई मुनि अनशन के बिना मरता है, क्या उसका तीन शल्यों के हेतुभूत कमों के उदय से जीव में जो माया, निदान मरण पण्डितमरण नहीं कहलाएगा? इस प्रश्न के समाधान में उन्होंने और मिथ्यात्व के परिणाम होते हैं, उन्हें भावशल्य कहा जाता है। इस दशा में होने वाला मरण 'शल्य-मरण' कहा जाता है। लिखा है कि मुनि विरत अवस्था में मरता है इसलिए उसका मरण पण्डितमरण कहलाएगा । किन्तु वह यहां विवक्षित नहीं है। यहां जहां भावशल्य है, वहां द्रव्यशल्य अवश्य होता है, किन्तु प्रायोपगमन और भक्तप्रत्याख्यान के अर्थ वाला पण्डितमरण विवक्षित भावशल्य केवल समनस्क जीवों के ही होता है। अमनस्क जीवों में है।' मरण के सतरह प्रकारों में बालमरण, पण्डितमरण और बाल- संकल्प या चिन्तन नहीं होता, इसलिए उनके केवल द्रव्यशल्य ही पण्डितमरण का स्वतन्त्र निर्देश है तथा वलायमरण आदि का उनसे होता है। इसलिए अमनस्क जीवों के मरण को 'द्रव्यशल्य-मरण' और पृथक् निर्देश है। इससे भी इनके दो संदर्भो में प्रयुक्त होने की पुष्टि समनस्क जीवों के मरण को 'भावशल्य-मरण' कहा गया है। होती है। __तद्भवमरण-तिर्यञ्च या मनुष्य भव में विद्यमान प्राणी पुनः शब्द-विमर्श तद्भव योग्य तिर्यञ्च या मनुष्य भव-योग्य आयुष्य का बंध कर वलयमरण-संयमजीवन से च्युत व्यक्ति के मरण को वलयमरण वर्तमान आयु के क्षय होने पर मरता है, उसका मरण 'तद्भवमरण' कहा जाता है। मूलाराधना में इसका नाम वलायमरण है। विजयोदया है। वृत्ति के अनुसार यह केवल मनुष्य और तिर्यञ्च के होता है। उत्तराध्ययननियुक्ति के अनुसार तद्भवमरण अकर्मभूमिज मनुष्य और में इसके संस्कृत रूप दो दिए हैं—पलाय और बलाका। उत्तराध्ययन तिर्यञ्च तथा देव, नारक को छोड़कर शेष जीवों (मनुष्य और तिर्यञ्च) नियुक्ति में भी वलायमरण नाम उपलब्ध है। भगवतीवृत्ति में भी के होता है। तद्भवमरण बालमरण का एक प्रकार माना गया है। इसका संस्कृत रूप वलन्मरण किया है।' इसका हेतु क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर जयाचार्य ने दिया है। वशर्तमरण इन्द्रिय और विषय की परतन्त्रता से पीड़ित मनु- उनके अनुसार निदानपूर्वक होने वाला तद्भवमरण बालमरण होता ष्य का मरण विजयोदया के अनुसार आर्त-रौद्र-ध्यान में प्रवर्तमान प्राणी है।' का मरण वशार्तमरण है। इसके चार भेद किए गए हैं: १. इन्द्रि बहानश इसका मूल वेहाणस है। मूलारापना में विपाणस शब्द यवशात २. वेदनावशात ३. कषायवशात ४. नोकषायवशात। मिलता है। इन दोनों में समानता खोजी जा सकती है। वैहानश __ अन्तःशल्यमरण-अतिचारों की आलोचना किए बिना दोषपूर्ण और विपाणस दोनों विशेष स्थिति में अप्रतिषिद्ध बतलाए गये हैं। स्थिति में होने वाला मरण । वृत्तिकार ने इसके दो भेद किए हैं-द्रव्य विह का अर्थ है-आकाश और आनश का अर्थ है—विनाश या और भाव। शरीर में शस्त्र की नोक आदि रहने से जो मृत्यु होती जीवन की समाप्ति । इस प्रकार वैहानश का अर्थ होगा-वृक्ष-शाखा है, वह 'द्रव्य अन्तःशल्य-मरण' कहलाता है। लञ्जा और अभिमान आदि से लटक कर गले में फन्दा डालकर जीवन को समाप्त कर आदि के कारण अतिचारों की आलोचना न कर दोषपूर्ण स्थिति में देना। वृत्तिकार ने निरुक्तिवशात वैहानस शब्द की सिद्धि की है।" मरने वाले की मृत्यु को 'भाव अन्तःशल्य-मरण' कहा जाता है। किन्तु समाप्ति के अर्थ में तालव्य शकार अधिक उपयुक्त है। विषाणस विजयोदया में इसका नाम 'शल्य-मरण' है। उसके भी दो भेद का अर्थ प्राण-अपान का निरोध कर जीवन को समाप्त करना है। हैं-द्रव्यशल्य और भावशल्य। मिथ्यादर्शन, माया और निदान इन संभावना की जा सकती है कि दोनों शब्द मूल में एक तीनों शल्यों की उत्पत्ति के हेतुभूत कर्म को 'द्रव्यशल्य' कहा जाता बाद में पाठ-परिवर्तन हुआ हो। अर्थ की दृष्टि से वेहाणस पाठ है। द्रव्यशल्य की दशा में होने वाला 'द्रव्यशल्य-मरण' कहलाता है। अधिक उपयुक्त लगता है। १.भ.जो.१।३५।२६३१ मुख्य थकी ए ख्यात, द्वि प्रकार पंडित-मरण । अणसण विण मुनि जात, मरै तिको न कहयुं इहां। सर्वानुभूति साध, सुनक्षत्र मुनिवर बलि | पाम्या पद आराध, अणसण विण पंडित-मरण || वली अन्य मुनिराय, संथारा विण जे मरे। ते पंडित-मरण सुहाय, तेहनों कथन इहां नथी । २. विजयोदया, वृ.प.८८। ३. उत्तरा. नि.गा.२१७-- संजोगजोगविसन्ना मरंति जे तं वलायमरणं तु। ४. भ.वृ.२१४६-वलतो बुभुक्षापरिगतत्वेन वलवलायमानस्य संयमाद् वा प्रस्यतो मरणं तद्वलन्मरणम् । ५. विजयोदया,वृ.प.८६) ६. (क) सम.वृ.प.३४-यस्मिन् भवे-तिर्यग्मनुष्यभवलक्षणे वर्तते जन्तुस्तद् भवयोग्यमेवायुर्बद्ध्वा पुनः तत्क्षयेण म्रियमाणस्य यद्भवति तत्तद्भवमरणम् । (ख) भ.वृ.२१४६ तथा तस्मै भवाय मनुष्यादेः सतो मनुष्यादावेव बद्धायुषो यन्मरणं तत्तद्भवमरणम्। ७. वही,२१४६-इदं च नरतिरश्चामेवेति । ८. उत्तरा.नि.गा.२२१ मोत्तुं अकम्मभूमग-नर-तिरिए सुरगणे अ नेरइए। सेसाणं जीवाणं तब्भवमरणं तु केसिंचि ॥ ६. भ.जो.११३५१६ मनुष्य मरी नै मनुष्य हुवै, तिर्यंच मरी नै तिर्यच । तद्भव-मरण कह्यो तसुं, कर्म निदाने संच ॥ १०. भ.व.२।४६–'वेहाणसे'त्ति विहायसि—आकाशे भवं वृक्षशाखाधुबन्धनेन यत्तन्निरुक्तिवशाद्वैहानसम्। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.२: उ.१ः सू.४६ २३० भगवई गप्रस्पृष्ट-कोई व्यक्ति हाथी आदि बृहत्काय जानवरों के शव मरण-मीमांसा में प्रवेश कर शरीर का व्युत्सर्ग करता है। हाथी आदि के कलेवर भगवान् ने जीवन और मुत्यु दोनों की अनेकान्त-दृष्टि से समीक्षा में प्रविष्ट होने पर उस कलेवर के साथ-साथ उस जीवित शरीर को भी गीध आदि नोचकर मार डालते हैं, उस स्थिति में जो मरण होता की थी। उनकी दृष्टि में व्यक्ति जैसे जीने के लिए स्वतन्त्र है, वैसे है, वह गृध्रस्पृष्ट मरण कहलाता है। दिगम्बर परम्परा में इसका अर्थ ___ ही मरने के लिए भी स्वतन्त्र है। इस स्वतन्त्रता का उपयोग और शस्त्र के द्वारा प्राण-त्याग करना मिलता है। दुरुपयोग दोनों ही हो सकते हैं। बालमरण मुत्यु की स्वतत्रंता का श्वेताम्बर-साहित्य में गृध्रस्पृष्ट की जो अर्थ-परम्परा है. वह दुरुपयोग है। भावावेश में जो आत्महत्या की जाती है, वह बालमरण आलोच्य है। इसकी प्राचीनता भी संदिग्ध है। जैन साधना-पद्धति है। वह स्वतंत्रता का दुरुपयोग है। पंडितमरण या समाधिमरण मुत्यु की तपस्या के अनकल भी नहीं है। कारण उपस्थित होने पर की स्वतंत्रता का सदुपयोग है। इस मरण के पीछे कोई भावावेश तात्कालिक मरण के लिए यह प्रयोग उपयोगी नहीं है। नहीं होता। पूर्ण शान्त और समाहित चित्त की अवस्था में इस मरण दीर्घकालीन प्रयोग की दृष्टि से भक्तप्रत्याख्यान और प्रायोपगमन का वरण किया जाता है। आयारो, सूयगडो, उत्तरज्झयणाणि और ये दोनों श्रेष्ठ उपाय हैं। इसलिए गृध्रस्पृष्ट का अर्थ अभी अनुसन्धान दसाओ में इस समाधि-मरण की पृष्ठभूमि और प्रक्रिया का निरूपण का विषय है। हुआ है।' मुनि को जब यह लगे कि इस शरीर के द्वारा नए-नए गुणों की उपलब्धि हो रही है, तब तक वह जीवन का बृहण करे। प्रायोपगमन प्राय का अर्थ है मृत्यु | समाधिमरण के लिए जब कोई विशेष गुण की उपलब्धि न हो, तब वह परिज्ञापूर्वक इस उपगमन करना अथवा उपवेशन करना प्रायोपगमन कहलाता है। यह शरीर को त्याग दे। शरीर-व्युच्छेद के लिए आहार का त्याग किया अनशन का एक प्रकार है। व्याख्या-साहित्य में इसके संस्कृत रूप जा सकता है। इसका उत्तरायणाणि में स्पष्ट निर्देश है। इसका पादोपगमन और पादपोपगमन भी मिलते हैं।' निर्देश ठाणं में भी उपलब्ध हैं। अनशन रुग्ण अवस्था में ही नहीं, निहारिम अथवा निहारि-उपाश्रय से बाहर गिरिकन्दरा आदि । किसी बाधा के न होने पर भी किया जा सकता है। यह विधान एकान्त स्थानों में किया जाने वाला अनशन | केवल मुनि के लिए ही नहीं, श्रमणोपासक या श्रावक के लिए भी अनिरिम अथवा अनिहारि—उपाश्रय में किया जाने वाला है। इस समाधि-मरण को उत्तरवर्ती आचार्यों ने मुत्यु-महोत्सव कहा अनशन। अप्रतिकर्म अथवा अपरिकर्म-शुश्रूषा- या उपचार-रहित। जीवन के बारे में भी भगवान् महावीर का दृष्टिकोण प्रायोपगमन अनशन करने वाला वृक्ष के समान निश्चेष्ट लेटा रहता अनेकान्तवादी रहा है। उनकी दृष्टि में संयमपूर्ण जीवन वांछनीय है। है, कोई स्पन्दन नहीं करता, हलन-चलन नहीं करता। इसलिए यह और असंयमपूर्ण जीवन वांछनीय नहीं है। उनकी भाषा है-जीवन नियमतः अप्रतिकर्म होता है। की आंकाक्षा और मरण की आंकाक्षा दोनों ही नहीं करनी चाहिए। भक्तप्रत्याख्यान-समाधिमरण के लिए किया जाने वाला व्यक्ति को जीवन की आंकाक्षा और मरण के भय से मुक्त रहना अनशन। यह नियमतः सप्रतिकर्म होता है। चाहिए, किन्तु संयमपूर्ण जीवन और समाधि-मरण की आंकाक्षा करणीय है। अनशन के इन दोनों प्रकारों की विशेष जानकारी के लिए उत्तरायणाणि,३०।१२,१३ के टिप्पण द्रष्टव्य हैं। १. भ.वृ.२ । ४६-'गिद्धपढे'त्ति गृधैः पक्षिविशेषैर्गुद्वैर्वा मांसलुब्धैः शृगाला- दिभिः स्पृष्टस्य विदारितस्य करि-करभ-रासभादिशरीरान्तर्गतत्वेन यन्मरणं तद्गृध्रस्पृष्टं गृद्धस्पृष्टं वा गृधैर्वा भक्षितस्य स्पृष्टस्य यत्तद्गृध्रस्पृष्टम् । २. विजयोदया, वृ.प.८८-शस्त्रग्रहणेन यद् भवति तद् गृद्धपुट्ठमिति । ३. उत्तर. अ.५ का आमुख द्रष्टव्य है। ४. (क) आयारो, ८७५-१३०तथा गा. १-२५/ (ख) सूय. २।२।६७। (ग) उत्तर.३६।२५०-२५५। (घ) दसाओ,१०।३१। ५. उत्तर.४७ लाभतरे जीविय बूहइत्ता। पच्छा परिण्णाय मलावधंसी ॥ ६. वही,२६।३३-३४--- निगंथो धिइमंतो, निग्गंथी वि न करेज छहिं चेव । ठाणेहि उ इमेहि, अणइक्कमणा य से होइ । आयंके उवसग्गे, तितिक्खया बंभचेरगुत्तीसु । पाणिदया तबहेडं, सरीरवोच्छेयणट्ठाए। ७. ठाणं,६।४२। ८. सूय.२।२।६७ तेणं एतेणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाई सामण्णपरियागं पाउणंति, पाउणित्ता आबाहसि उप्पण्णंसि वा अणुप्पण्णंसि वा बहूई भत्ताई पञ्चक्खंति। ६. दसाओ, १०॥३१ से णं समणोवासए भवति-अभिगतजीवाजीवे जाव पडिलाभेमाणे विहरइ । से णं एतारूवेणं विहारेणं विहरमाणे बहूणि वासाणि समणोवासगपरियागं पाउणति, पाउणित्ता आबाहसि उप्पण्णंसि वा अणुप्पण्णंसि वा बहूई भत्ताई पच्चखाइ । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ५०. एत्य णं से खदए कच्चायणसगोत्ते संबुद्धे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी इच्छामि णं मंते! तुभं अंतिए केवलिपण्णत्तं धम्म निसामित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध ॥ २३१ श.२: उ.१: सू.५०-५२ अत्र सः स्कन्दकः कात्यायनसगोत्रः संबुद्धः ५०. इस बिन्दु पर वह कात्यायनसगोत्र स्कन्दक श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, संबुद्ध होकर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादीद्-इच्छामि बन्दन-नमस्कार करता है। वन्दन-नमस्कार कर भदन्त ! तव अन्तिके केवलिप्रज्ञप्तं धर्मं इस प्रकार बोलता है “भन्ते ! मैं आपके पास निशमितुम् । केवलि प्रज्ञप्त धर्म को सुनना चाहता हूं।" यथासुखं देवानुप्रिय ! मा प्रतिबन्धम् । "देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख हो, प्रतिबंध मत करो।" ५१. तए णं समणे भगवं महावीरे खंदयस्स ततः श्रमणः भगवान महावीरः स्कन्दकस्य ५१. श्रमण भगवान् महावीर कात्यायनसगोत्र कचायणसगोत्तस्स, तीसे य महइ- कात्यायनसगोत्रस्य, तस्यां महामहत्यां परिषदि स्कन्दक को उस विशाल परिषद् में धर्म कहते महालियाए परिसाए धम्म परिकहेइ। धर्म परिकथयति । धर्मकथा भणितव्या। हैं। धर्मकथा' वक्तव्य है। घम्मकहा भाणियव्वा॥ भाष्य १. धर्मकथा धर्मकथा के वर्णन की भी एक शैली निर्धारित कर ली गई। धर्म-देशना दी, ऐसी कल्पना नहीं की जा सकती। इसे ओवाइयं में जो धर्मकथा का निर्देश है, उसी की ओर सर्वत्र निर्देश आगम-संकलन-कालीन शैली ही कहा जा सकता है। किया गया है। भगवान् महावीर ने सबको एक ही प्रकार की ५२. तए णं से खदए कचायणसगोत्ते ततः सः स्कन्दकः कात्यायनसगोत्रः श्रमणस्य ५२. 'वह कात्यायनसगोत्र स्कन्दक श्रमण भगवान् समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं भगवतः महावीरस्य अन्तिके धर्म श्रुत्वा महावीर के पास धर्म सुनकर अवधारण कर सोचा निसम्म हतुद्दचित्तमाणदिए णंदिए निशम्य हृष्टतुष्टचित्तः आनन्दितः नन्दितः हृष्ट-तुष्ट चित्त वाला, आनन्दित, नन्दित, प्रीतिपूर्ण पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवस- प्रीतिमनाः परमसीमनस्थितः हर्षवशविसर्पद्- मनवाला, परम सौमनस्य युक्त और हर्ष से विसप्पमाणहियए उवाए उढेइ, उद्वेत्ता हृदयः उत्थया उत्तिष्ठति, उत्थया श्रमणं विकस्वर हृदय वाला हो गया। वह उठने की समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण- भगवन्तं महावीरं त्रिः आदक्षिणप्रदक्षिणां मुद्रा में उठता है, उठकर श्रमण भगवान् महावीर पयाहिणं करेइ, करेत्ता बंदइ नमसइ, करोति, कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा को दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासिनमस्थित्वा एवमवादीत् करता है, वन्दन-नमस्कार करता है, वन्दन नमस्कार कर वह इस प्रकार बोलासदहामि णं भंते ! निग्गेयं पावयणं, __ श्रद्दधामि भदन्त ! नैर्ग्रन्थं प्रवचनम्, भन्ते ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन में श्रद्धा करता हूं। पत्तियामिण भंते ! निग्गथं पावयणं, प्रत्येमि भदन्त ! नैन्यं प्रवचनम्, भन्ते ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन में प्रतीति करता हूं। रोएमि णं भंते ! निग्गथं पावयणं, अन्भु- रोचे भदन्त ! नैर्ग्रन्थं प्रवचनम्, भन्ते ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन में रुचि करता हूं। टेमिणं भंते ! निग्गंथं पावयणं। अभ्युत्तिष्ठामि भदन्त ! नैर्ग्रन्थं प्रवचनम् । भन्ते ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन में अभ्युत्थान करता हूं। एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! अवितहमेयं एवमेतद् भदन्त ! तथैतद् भदन्त ! अवितथ- भन्ते ! यह ऐसा ही है, भन्ते ! यह तथा भंते ! असंदिद्धमेयं भंते ! इच्छियमेयं भंते! मेतद् भदन्त ! असंदिग्धमेतद् भदन्त! इष्टमेतद् (संवादितापूर्ण) है, भन्ते! यह अवितथ है, भन्ते! पडिच्छियमेयं भंते ! इच्छिय-पडिच्छियमेयं भदन्त ! प्रतीष्टमेतद् भदन्त ! इष्ट-प्रतीष्टमेतद् यह असंदिग्ध है, भन्ते ! यह इष्ट है, भन्ते ! यह भंते!भदन्त! प्रतीप्सित (प्राप्त करने के लिए इष्ट) है और भन्ते! यह इष्ट-प्रतीप्सित हैसे जहेयं तुब्भे वदह त्ति कटु समणं भगवं तत् यथेदं यूयं वदथ इति कृत्वा श्रमणं जैसा आप कह रहे हैं-ऐसा भाव प्रदर्शित कर महावीरं बंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा वह श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार उत्तरपुरस्थिमं दिसीभायं अवकमइ, अवक- नमस्थित्वा उत्तरपौरस्त्यं दिग्भागम् अपक्रा- करता है, वन्दन-नमस्कार कर उत्तर-पूर्व दिशामित्ता तिदंडं च कुंडियं च जाव घाउरत्ताओ मति, अपक्रम्य त्रिदण्डं च कुण्डिकां च यावद् भाग (ईशान कोण) की ओर जाता है, जाकर य एगते एडेइ, एडेत्ता जेणेव समणे भगवं धातुरक्ते एकान्ते एडयति, एडयित्वा यत्रैव त्रिदण्ड, कमण्डलु, यावत् धातुरक्त शाटक को महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता श्रमणः भगवान् महावीरः तत्रैव उपागच्छति, एकान्त में डाल देता है, डालकर जहां श्रमण समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण- उपागम्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिः आद- भगवान महावीर हैं, वहां आता है। आकर श्रमण Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.२ः उ.१: सू.५२ पयाहिणं करेइ, करेता बंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी आलित्ते णं भंते ! लोए, पलित्ते णं भंते ! लोए, आलित्त - पलित्ते णं भंते ! लोए जराए मरणेण य । से जहानामए केइ गाहावई अगारंसि झियायमाणंसि जे से तत्य भंडे भवइ अप्पभारे मोल्लगरुए, तं गहाय आयाए एगंतमंतं अवक्कमइ । एस मे नित्यारिए समाणे पच्छा पुरा य हियाए सुहाए खमाए निस्सेयसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ । एवामेव देवाणुप्पिया ! मज्झ वि आया एगे भंडे इट्टे कंते पिए मणुण्णे मणामे थेजे बेस्सासिए सम्म बहुमए अणुमए भंडकरंडगसमाणे, माणं सीयं मा णं उन्हं, मा खुहा, माणं पिवासा, मा णं चोरा, मा णं वाला, माणं दंसा, माणं मसया, माणं वाइय-पित्तिय-सेंभिय-सन्निवाइय विविहा रोगा का परीसहोवसग्गा फुसंतु त्ति कट्टु एस मे नित्यारिए समाणे परलोयस्स हियाए सुहाए खमाए नीसेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ । तं इच्छामि देवाणुपिया ! सयमेव पव्वावियं, सयमेव मुंडावियं, सयमेव सेहावियं सयमेव सिक्खावियं, सयमेव आयार-गोयरं विणय-वेणइय-चरण- करण-जायामायावत्तियं धम्ममाइक्खियं ॥ २३२ क्षिण- प्रदक्षिणां करोति कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादीद्— आदीप्तः भदन्त ! लोकः, प्रदीप्तः भदन्त ! लोकः, आदीप्त- प्रदीप्तः भदन्त ! लोकः जरसा मरणेन च । अथ यथानामकः कश्चिद् गृहपतिः अगारे ध्यायमाने यः सः तत्र भाण्डः भवति अल्पभारः मूल्यगुरुकः, तं गृहीत्वा आत्मना एकान्तमन्तम् अपक्रामति । एष मम निस्तारितः सन् पश्चात् पुरा च हिताय सुखाय क्षमाय निःश्रेयसे आनुगामिकत्वाय भवष्यति । एवमेव देवानुप्रिय ! ममापि आत्मा एकः भाण्डः इष्टः कान्तः प्रियः मनोज्ञः 'मणामे' स्थेयान् वैश्वासिकः सम्मतः बहुमतः अनुमतः भाण्डकरण्डकसमानः, मा शीतं, मा उष्णं, मा क्षुधा, मा पिपासा, मा चौराः, मा व्यालाः, मा दंशाः, मा मशकाः, मा वातिक- पैत्तिकश्लैश्मिक-सान्निपातिकाः विविधाः रोगातंकाः परीषहोपसर्गाः स्पृशन्तु इति कृत्वा एष मम निस्तारितः सन् परलोकस्य हिताय सुखाय क्षमाय निःश्रेयसे आनुगमिकत्वाय भविष्यति । तद् इच्छामि देवानुप्रिय ! स्वयमेव प्रव्राजितं, स्वयमेव मुण्डितं, स्वयमेव शैक्षापितं, स्वयमेव शिक्षापितं स्वयमेव आचार - गोचरं विनयवैनयिक-चरण- करण-यात्रामात्राप्रत्ययं धर्ममाख्यातम् । भाष्य १. सूत्र ५२ प्रस्तुत सूत्र में स्कन्दक के द्वारा निर्ग्रन्थ-प्रवचन के प्रति आस्था की अभिव्यक्ति का निरूपण है। फिर उसके द्वारा भगवान् महावीर के पास प्रवज्या लेने की प्रार्थना का वर्णन है। उस समय एक भगवई भगवान् महावीर को दायीं ओर से प्रारम्भकर तीन बार प्रदक्षिणा करता है, प्रदक्षिणा कर वन्दन- नमस्कार करता है, वन्दन - नमस्कार कर वह इस प्रकार बोला- भन्ते ! यह लोक बुढ़ापे और मौत से आदीप्त हो रहा है (जल रहा है), भन्ते ! यह लोक बुढ़ापे और मौत से प्रदीप्त हो रहा है। (प्रज्वलित हो रहा है), भन्ते ! यह लोक बुढ़ापे और मौत से आदीप्त- प्रदीप्त हो रहा है। जैसे किसी गृहपति के घर में आग लग जाने पर वह वहां जो अल्पभार वाला और बहुमूल्य आभरण होता है, उसे लेकर स्वयं एकान्त स्थान में चला जाता है । ( और सोचता है) अग्नि से निकाला हुआ यह आभरण पहले अथवा पीछे मेरे लिए हित, सुख, क्षम, निःश्रेयस और आनुगामिकता के लिए होगा । "देवानुप्रिय ! इसी प्रकार मेरा शरीर भी एक उपकरण है। वह इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर, स्थिरतर, विश्वसनीय, सम्मत, बहुमत, अनुमत और आभरण करण्डक के समान है। इसे सर्दी न लगे, गर्मी न लगे, भूख न सताए, प्यास न सताए, चोर पीड़ा न पहुंचाए, हिंस्र पशु इस पर आक्रमण न करे, दंश और मशक इसे न काटे, वात, पित्त, श्लेष्म और संनिपात-जनित विविध प्रकार के रोग और आतंक तथा परीषह और उपसर्ग इसका स्पर्श न करें, इस अभिसंधि से मैंने इसे पाला है। मेरे द्वारा इसका निस्तार होने पर यह परलोक में मेरे लिए हित, सुख, क्षम, निःश्रेयस और आनुगमिकता के लिए होगा। इसलिए देवानुप्रिय ! मैं आपके द्वारा ही प्रव्रजित होना चाहता हूं, मैं आपके द्वारा ही मुण्डित होना चाहता हूं, मैं आपके द्वारा ही शैक्ष बनना चाहता हूं, मैं आपके द्वारा ही शिक्षा प्राप्त करना चाहता हूं तथा आपके द्वारा ही आचार, गोचर, विनयवैनयिक, चरण-करण-यात्रामात्रा-मूलक धर्म का आख्यान चाहता हूं । सम्प्रदाय से दूसरे सम्प्रदाय में दीक्षित होने की परम्परा जटिल नहीं थी। विचार- परिवर्तन के बाद कोई भी व्यक्ति जहां चाहे दीक्षित हो सकता था। ऐसा करना कोई विवाद या विग्रह का विषय नहीं Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २३३ श.२: उ.१: सू.५२ बनता था। इसलिए परिव्राजक स्कन्दक ने भगवान् के पास प्रव्रजित होने की प्रार्थना सहज भाव से की और भगवान ने उसे अपने संघ में प्रव्रजित कर लिया। एक विरक्त आत्मा दीक्षित होने से पहले जिन शब्दों में अपने वैराग्य की भावना प्रस्तुत करता है, उसकी भी आगम-साहित्य में एक निश्चित वर्णन-शैली है। स्कन्दक के प्रकरण में भी उस शैली का प्रयोग किया गया है। शब्द-विमर्श निर्ग्रन्य-प्रवचन-निर्ग्रन्थों का शासन। भगवान् महावीर के समय में जैन शासन निर्ग्रन्थ-प्रवचन के नाम से प्रख्यात था। तथा सत्य, वैसा। प्रतीप्सित-प्राप्त करने के लिए इष्ट । लोक-जीव-लोक। माण-आभरण। अपभारे अल्पभार वाला। वृत्तिकार ने अप्पसारे पाठ की व्याख्या की है।' जयाचार्य ने भी उसी का अनुसरण किया है। इसका अर्थ होता है 'अल्प किन्तु सार'। इसका अगला विशेषण है मोल्लगरुए। इसके सन्दर्भ में अप्पमारे—यह पाठ अधिक संगत लगता है। ज्ञाता०वृत्ति में अभयदेवसूरि ने अप्पमारे पाठ की व्याख्या की है, अप्पसारे को पाठांतर माना है।" हित, सुख आदि इस शब्द-समूह के लिए देखें, भ.२।३० का भाष्य। आया (आत्मा) यहां 'आत्मा' शब्द 'शरीर' 'जीवन' या 'पूर्ण व्यक्तित्व' के अर्थ में प्रयुक्त है। ओवाइयं और रायपसेणइयं में इस प्रकार के प्रकरण में 'शरीर' शब्द का प्रयोग मिलता है। पेज (स्वेयान) यह 'तर' के अर्थ में निष्पन्न स्थिर शब्द है। इसका अर्थ है 'स्थिरतर'। वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'स्थैर्य' किया है।' माण्डकरण्डक-आभरण का करण्डक, टोकरी या पिटारी। वातिक वात-संबंधी रोग। पैत्तिक-पित्त-संबंधी रोग। श्लैष्मिक कफ-संबंधी रोग सानिपातिक वात, पित्त आदि दोषों के मिश्रण से होने वाला रोग। सबिवाइप-इस पद में प्रथमा के बहुवचन का लोप माना गया है। रोग लम्बे काल तक चलने वाली व्याधि।' आतङ्क–सद्योघाती व्याधि।' परीषह-शरीर और मन को पीड़ा देने वाले बाह्य और आन्तरिक कारण। उपसर्ग-उपद्रव।" त्तिकटु-यहां वृत्तिकार ने शेष माना है–त्तिकटु इत्यमिसन्याय व पालितः इति शेषः।" वाजित, मुण्डापित, शैक्षापित, शिक्षापित-वृत्तिकार ने इन चार पदों में क्रम-व्यवस्था बतलाई है। उसके अनुसार 'प्रव्राजन' का अर्थ है 'मुनि-वेश देना'। 'मुण्डापित' का अर्थ है 'केश का लुंचन'। शैक्षापित का अर्थ हैं "दिनचर्या से संबंधित क्रिया-कलाप का ज्ञान कराना । "शिक्षापित' का अर्थ है-'अध्ययन कराना' ।” आचार-गोचर-आचार-ज्ञान आदि पांच प्रकार का आचार ।" गोचर-भिक्षाचर्या ।" विनय अनुशासन अथवा विनम्रता। वैनयिक विनय का फल । नन्दी वृत्ति में भी हरिभद्रसूरि ने इसका यही अर्थ किया है।" १. भ.वृ.२१५२–'अप्पसारे'त्ति अल्पं च तत्सारं चेत्यल्पसारम् । २. भ.जो.१।३६।१२– घर में भंड वस्तु हुदै, अल्प न्हानी तिका छै सार । वस्तु बहुमोली ग्रही आत्मना, जावै एकांत स्थान तिवार॥ ३. ज्ञाता.वृ.प.६६–पण्यं हिरण्यादि अल्पभारं, पाठान्तरे अल्पं च तत्सारं चेत्य ल्पसारं मूल्यगुरुकम्। ४. ओवा.सू.११७। ५. राय.सू.७६६। ६. म.वृ.२।५२ स्थैर्यधर्मयोगात् स्थैर्यः। ७. वही,२१५२-इह प्रथमावहुवचनलोपो दृश्यः । ८,६. वही,२ । ५२-रोगाः कालसहा व्याधयः आतंकास्त एव सद्योधातिनः। १०. विशेष जानकारी के लिए देखें, ठाणं, ४१५६७-६०१ तथा इनके टिप्पण। ११. भ.वृ.२।२। १२. देखें, ठाणं,५१४४,४५ का टिप्पण १३. भ.वृ.२।१२ प्रव्राजितं रजोहरणादिवेषदानेनात्मानमिति गम्यते। मावे वा क्तप्रत्ययस्तेन प्रव्राजनमित्यर्थः मुंडितं शिरोलुंचनेन 'सेहावियंति सेहितं प्रत्यु पेक्षणादिक्रियाकलापग्राहणतः, शिक्षितं सूत्रार्थग्राहणतः। १४. ठाणं,५।१४७-पंचविहे आयारे पण्णत्ते, ते जहा—णाणायारे, दंसणायारे, चरित्तायारे, तवायारे, वीरियायारे । १५. भ.१.२।५२-आचारः-श्रुतज्ञानादिविषयमनुष्ठानं कालाध्ययनादि, गो चरो-भिक्षाटनम् । १६. तुलना के लिए देखें, दसवे.७१२ का टिप्पण;म.वृ. २१५२ वैनयिक तत्फलं कर्मक्षयादि । १७. नन्दी, हारि.वृ.पृ.७५-वैनयिकम् –फलं कर्मक्षयादि । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.२ः उ.१: सू.५२-५४ २३४ भगवई नन्दी चर्णि में वैनयिक का अर्थ शिष्य किया गया है। किन्त प्रकरण प्रकार हैं। व्याख्या-साहित्य में यह 'करणसत्तरी' के नाम से प्रसिद्ध की दृष्टि से यहां विनय' का फल यही अर्थ संगत है। चरण यह व्रत आदि का सूचक है।।' इसके सत्तर प्रकार यात्रा-संयम-यात्रा। हैं। व्याख्या-साहित्य में यह 'चरणसत्तरी' के नाम से प्रसिद्ध है। मात्रा-संयम-यात्रा के लिए आवश्यक परिमित आहार । करण-यह आहार-विशुद्धि आदि का सूचक है। इसके सत्तर वृत्ति-वर्तन या व्यवहार।" ५३.तएणं समणे भगवं महावीरे खंदयं कचा- ततः श्रमणः भगवान् महावीरः स्कन्दकं ५३. 'श्रमण भगवान् महावीर कात्यायनसगोत्र यणसगोत्तं सयमेव पवावेइ, सयमेव कात्यायनसगोत्रं स्वयमेव प्रव्राजयति, स्वयमेव स्कन्दक को स्वयं ही प्रव्रजित करते हैं, स्वयं ही मुंडावेइ, सयमेव सेहावेइ, सयमेव सिक्खा- मुण्डयति, स्वयमेव शैक्षयति, स्वयमेव मुण्डित करते हैं, स्वयं ही शैक्ष बनाते हैं, स्वयं वेड, सयमेव आयार-गोयरं विणय-वेण- शिक्षयति, स्वयमेव आचार-गोचरं विनय- ही शिक्षित करते हैं और स्वयं ही आचार-गोचर, इय-चरण-करण-जायामायावत्तियं धम्ममा- वैनयिक-चरण-करण-यात्रामात्राप्रत्ययं धर्ममा- विनय-वैनयिक-चरण-करण-यात्रामात्रा-मूलक धर्म इक्खइएवं देवाणुप्पिया ! गंतब्बं, एवं ख्याति–एवं देवानुप्रिय ! गन्तव्यम्, एवं का आख्यान करते हैं—देवानुप्रिय ! इस प्रकार चिद्वियव्वं, एवं निसीइयव्वं, एवं तुयट्टियव्, स्थातव्यम्, एवं निषत्तव्यम्, एवं त्वक्- चलना चाहिए, इस प्रकार ठहरना चाहिए, इस एवं भंजियवं, एवं भासियव्वं, एवं वर्तितव्यम, एवं भोक्तव्यम, एवं भाषितव्यम्, प्रकार बैठना चाहिए, इस प्रकार करवट लेनी उहाय-उवाय पाणेहिं भूएहिं जीवेहिं सत्तेहिं एवम् उत्थाय-उत्थाय प्राणेषु भूतेषु जीवेषु चाहिए, इस प्रकार भोजन करना चाहिए, इस संजमेणं संजमियव्वं, अस्सिंचणं अह्र णो सत्त्वेषु संयमेन संयतितव्यम्, अस्मिन् च अर्थे प्रकार बोलना चाहिए, इस प्रकार पूर्ण जागरुकता किंचि वि पमाइयवं॥ न किञ्चिदपि प्रमदितव्यम्। से प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के प्रति संयम से संयत रहना चाहिए। इस अर्थ में किञ्चित् भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। भाष्य १. सूत्र ५३ प्रस्तुत सूत्र में भगवान् ने स्कन्दक के लिए जिस धर्म का वृत्तिकार ने भी एवं की संक्षिप्त व्याख्या की है। प्रवचन किया, वह एक दीक्षान्त भाषण है। शब्द-विमर्श सूत्रकार ने एवं' शब्द के द्वारा विषय को बहुत संक्षिप्त कर पमाइयवं-प्रमाद का अर्थ है-विस्मृति, अनवधानता, दिया। यदि वह विषय विस्तृत होता, तो शैक्ष के लिए इसकी बहुत उपयोगिता हो जाती। एवं शब्द की व्याख्या दसवेआलिय' के जयं और सयगडो के आउत्तं शब्द के आधार पर की जा सकती है। मूर्छा। ५४. तए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते समण- ततः स : स्कन्दकः कात्यायनसगोत्रः श्रमणस्य ५४. वह कात्यायनसगोत्र स्कन्दक श्रमण भगवान् स्स भगवओ महावीरस्स इमं एयास्वं ध- भगवतः महावीरस्य एतम् एतद्रूपं धार्मिकम् महावीर के इस प्रकार के धार्मिक उपदेश को म्मियं उवएसं सम्मं संपडिवाइ-तमाणाए उपदेशं सम्यक् संप्रतिपद्यते-तद् आज्ञाय' सम्यक् प्रकार से स्वीकार करता है उसे भलीतह गच्छइ, तह चिट्ठइ, तह निसीयइ, तह तथा गच्छति, तथा तिष्ठति, तथा निषीदति, भांति जानकर वैसे ही (संयमपूर्वक) चलता है, १. नन्दी चू.पृ.६१—वेणिया सीसा । २.प्र.सारो.प.१३२,गा.५५१ वय समणधम्म संजम वेयावच्चं च बंभगुत्तीओ। नाणाइतियं तव कोहनिग्गहा इइ चरणमेयं ॥ ३. वही,प.१३६,गा.५६२ पिंडविसोही य समिई भावण पडिमा य इंदियनिरोहो । पडिलेहण गुत्तीओ, अभिग्गहा चेव करणं तु॥ ४. भ.बृ.२ । ५२-चरणं-व्रतादि, करणं-पिण्डविशुद्धयादि, यात्रा संयमयात्रा, मात्रा तदर्थमेवाहारमात्रा, ततो विनयादीनां द्वन्द्वः, ततश्च विनयादीनां वृत्तिः-वर्तनं यत्रासौ विनयवैनयिकचरणकरणयात्रामात्रावृत्तिकोऽतस्तं ५. दसवे.अ.४,गा. ६. सूय.२।२।१६। ७. भ.वृ.२१५३–एवं देवाणुप्पिया ! गंतव्वं ति युगमात्रभून्यस्तदृष्टिनेत्यर्थः ‘एवं चिट्ठियव्वं'ति निष्कमणप्रवेशादिवर्जिते स्थाने संयमात्मप्रवचनबाधापरिहारेणोर्ध्वस्थानेन स्थातव्यम्, 'एवं निसीइयव्वंति, 'निषत्तव्यम्' उपवेष्टव्यं संदंशकभूमिप्रमार्जनादिन्यायेनेत्यर्थः ‘एवं तुयट्टियव्वं'ति शयितव्यं, सामायिकोवारणादिपूर्वकम् ‘एवं भुंजियव्वंति धूमाङ्गारादिदोषवर्जनतः ‘एवं भासियव्वं ति मधुरादिविशेषणोपपन्नतयेति 'एवमुत्थायोत्थाय' प्रमादनिद्राव्यपोहेन विबुद्ध्य विबुद्ध्य प्राणादिषु विषये यः संयमो-रक्षा तेन संयतव्यं—यति तव्यम्। धर्मम् । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई तुयट्टइ, तह मुंजइ, तह भासइ, तह उट्ठाय - उडाय पाणेहिं भूएहिं जीवेहिं सत्तेहिं संजमेणं संजमेइ, अस्सिं च णं अट्ठे णो पमायइ ॥ ५५. तए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते अणगारे जाते इरियासमिए भासासमिए एसणासमिए आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए उच्चार- पासवण - खेल - सिंघाण- जल्ल-पारि aणयासमिए मणसमिए वइसमिए कायसमिए मगुत्ते वइगुत्ते कायगुत्ते गुत्ते गुत्तिं दिए गुत्तबंभारी चाई लज्जू धने खंतिखमे जिदिए सोहि अनियाणे अप्पुस्सुए अबहिल्लेसे सुसामण्णरए दंते इणमेव निग्गंथं पावयणं पुरओ काउं विहरइ ॥ २३५ तथा त्वग्वर्तते, तथा भुनक्ति, तथा भाषते, तथा उत्थाय - उत्थाय प्राणेषु भूतेषु जीवेषु सत्त्वेषु संयमेन संयच्छति, अस्मिन् च अर्थे न प्रमाद्यति । १. आणाए हमने संस्कृत रूप आज्ञाय किया है । वृत्ति में इसका संस्कृत रूप आज्ञया है । ' भाष्य ततः स्कन्दकः कात्यायनसगोत्रः अनगारः जातः — ईर्यासमितः भाषासमितः एषणासमितः आदानभाण्डामत्रनिक्षेपणासमितः उच्चार-प्रश्रवण-वेल-सिंघाण 'जल्ल' पारिष्ठापनिकासमितः मनः समितः वचः समितः कायसमितः मनोगुप्तः वचोगुप्तः कायगुप्तः गुप्तः गुप्तेन्द्रियः गुप्तब्रह्मचारी त्यागी लज्जावान् धन्यः क्षान्तिक्षमः जितेन्द्रियः शोधितः अनिदानः अल्पोत्सुकः अबहिर्लेश्यः सुश्रामण्यरतः दान्तः इदमेव नैर्ग्रन्थं प्रवचनं पुरतः कृत्वा विहरति । भाष्य १. सूत्र ५५ प्रस्तुत सूत्र में जैन मुनि की एक जीवन्त प्रतिमा उत्कीर्ण की गई है। इसके दर्शन से मुनि के मुनित्व का साक्षात्कार हो जाता है। उसके बाह्य और आन्तरिक दोनों रूप सामने आ जाते हैं। चलना, बोलना, खाना, वस्तुओं को लेना- रखना और उत्सर्ग करना-ये जीवनयात्रा की सामान्य प्रवृत्तियां हैं। इनके साथ 'समिति' शब्द का प्रयोग है। वह इस बात की और इंगित करता है कि मुनि की ये प्रवृत्तियां सर्वसाधरण की तरह नहीं होनी चाहिए। ये गुप्ति-पूर्वक होनी चाहिए। ये प्रवृत्तियां संयत और जागरुकता - पूर्ण होनी चाहिए। मन, वचन और शरीर ये तीनों प्रवृत्ति के साधन हैं। इनका १. भ. वृ. २५४ - तद् अनन्तरं आज्ञया — आदेशेन । २ . वही, २।५५ – 'ईरियासमिए 'त्ति ईर्यायां गमने समितः, सम्यक्प्रवृत्तत्वरूपं हि समितत्व; 'आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमए 'त्ति आदानेन — ग्रहणेन सह भाण्डमात्राया—उपकरणपरिच्छदस्य या निक्षेपणा— न्यासस्तस्यां समितो यः श. २: उ.१: सू. ५४,५५ वैसे ही ठहरता है, वैसे ही बैठता है, वैसे ही करवट लेता है, वैसे ही भोजन करता है, वैसे ही बोलता है, वैसे ही पूर्ण जागरुकता से प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के प्रति संयम से संयत रहता है। इस अर्थ में वह प्रमाद नहीं करता । 9 ५५. कात्यायनसगोत्र स्कन्दक अनगार हो गयावह विवेकपूर्वक चलता है, विवेकपूर्वक बोलता है, विवेकपूर्वक आहार की एषणा करता है, विवेकपूर्वक वस्त्रपात्र आदि को लेता और रखता है, विवेकपूर्वक मल, मूत्र, श्लेष्मा, नाक के मैल, शरीर के गाढ़े मैल का परिष्ठापन (विसर्जन) करता है, मन की संगत प्रवृत्ति करता है, वचन की संगत प्रवृत्ति करता है, शरीर की संगत प्रवृत्ति करता है, मन का निरोध करता है, वचन का निरोध करता है, शरीर का निरोध करता है, अपने आपको सुरक्षित रखता है, इन्द्रियों को सुरक्षित रखता है, ब्रह्मचर्य को सुरक्षित रखता है, संग (आसक्ति) का त्याग करता है, अनाचरण करने में लज्जा करता है, कृतार्थता का अनुभव करता है, समर्थ होने पर भी क्षमा करता है, इन्द्रिय-जय है, अतिचार की विशुद्धि करता है, पौद्गलिक समृद्धि का संकल्प नहीं करता, उत्सुकता से मुक्त रहता है, भावधारा को आत्मोमुखी रखता है, सुश्रामण्य में रत है, इन्द्रिय और मन का निग्रह करता है और इस निर्ग्रन्थ-प्रवचन (जिन-शासन) को ही आगे रख कर चलता है। प्रयोग भी संयत और संगत होना चाहिए। मुनि के लिए इनकी प्रवृत्ति का निग्रह करना भी आवश्यक है । साधना के लिए प्रवृत्ति और निवृत्ति का संतुलन अपेक्षित होता है। प्रवृत्ति के बिना जीवन की यात्रा नहीं चलती और निवृत्ति के बिना प्रवृत्ति में होने वाली समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। इसलिए यह निर्देश है कि मन, वचन, शरीर की सम्यक् प्रवृत्ति और गुप्ति दोनों करनी चाहिए । उनकी सम्यक् प्रवृत्ति करने वाला मुनि मनसमित, वचनसमित और कायसमित कहलाता है; उनकी निवृत्ति करने वाला मनोगुप्त, वचनगुप्त और कायगुप्त कहलाता है । ' स तथा 'उच्चारे 'त्यादि, इह च 'खेल' त्ति कण्ठमुखश्लेष्मा सिङ्खानकं चनासिकाश्लेष्मा, 'मणसमिए 'त्ति संगतमनः प्रवृत्तिकः, 'मणगुत्ते त्ति मनोनिरोधवान् । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.२ः उ.१: सू.५५ २३६ भगवई गप्त का अर्थ है संरक्षित। वृत्तिकार ने इसे मनोगप्त आदि का का अपाय करना, स्वयोग्यदान अथवा संयत को ज्ञान आदि का निगमन बतलाया है।' किन्तु दशवकालिक की चूर्णियों के आधार पर दान। इसका विशेष अर्थ ज्ञात होता है। वह इस प्रकार है __ 'अकरणीय कार्य में लज्जा करना' मुनि के चरित्र का एक 'गरू के वचन में दत्तावधान' और 'प्रयोजनवश बोलने विशेष लक्षण है। वृत्तिकार ने लज्जु का अर्थ 'संयमी' किया है। वाला। शंकाराचार्य ने ही का अर्थ 'अकार्य करने में लज्जा' किया है।" वृत्तिकार ने लज्ज का वैकल्पिक अर्थ 'रन' की भांति सरल व्यवहार इन्द्रियों को सुरक्षित रखने वाला गुप्तेन्द्रिय और ब्रह्मचर्य की करने वाला किया है।" नौ गुप्तियों का सम्यक् पालन करने वाला गुप्तब्रह्मचारी होता है। इन्द्रिय-विकार से मुक्त जितेन्द्रिय होता है। भगवती के वृत्तिकार एक गृहस्थ धन-सम्पदा को प्राप्त कर अपने आप को धन्य ने इन्द्रिय और जितेन्द्रिय के बीच एक भेदरेखा खींची है-"जिसमें मानता है, वैसे ही मुनि आत्मिक सम्पदा को उपलब्ध कर धन्य होता इन्द्रिय-विकार का अभाव नहीं है, किन्तु उसका गोपन कर लेता है, वह गुप्तेन्द्रिय और जिसमें इन्द्रिय-विकार उत्पन्न नहीं होता है, वह कुछ लोग असमर्थ होने के कारण सहन करते हैं अथवा उन्हें जितेन्द्रिय होता है।" सहन करना पड़ता है। मुनि समर्थ होते हुए भी प्रतिकूल परिस्थिति __ शरीर, वचन और मन की विविध अवस्थाओं में होने वाली को सहन करता है; इसलिए वह शान्तिक्षम कहलाता है।" प्रवृत्ति और निवृत्ति के माध्यम से मुनि के स्वरूप का चित्रण किया मुनि का हृदय अकलुषित या पवित्र होता है, इसलिए उसे गया है। ईर्या, एषणा, आदान-निक्षेप, उच्चार-प्रश्रवण और काय शोधी कहा गया। इसका वैकल्पिक अर्थ सुहृद् हो सकता है। वह समिति-ये सब शरीर की चेष्टाएं हैं। कायगुप्ति, इन्द्रियगुप्ति और समस्त प्राणियों के साथ मैत्री का व्यवहार करता है; इसलिए यह ब्रह्मचर्यगुप्ति—ये शारिरिक चेष्टा की निवृत्ति के प्रकार हैं। अर्थ भी संगत है।" भाषा और वचन समिति ये भाषा की प्रवृत्ति के प्रकार हैं। वह अनिदान होता है—पौदगलिक पदार्थों की आंकाक्षा नहीं वचनगुप्ति भाषा की निवृत्ति है। मन की समिति—यह मन की प्रवृत्ति का निर्देश है। मन मुनि आत्मा में रमण करता है। इसलिए पदार्थ के प्रति उसके की गुप्ति—यह उसकी निवृत्ति का निर्देश है। 'गुप्त' का संबंध मन मन में औत्सुक्य नहीं होता। किसी वस्तु को देखकर यह क्या है? और वचन दोनों से हो सकता है। मुनि अपने शरीर, वचन और यह कैसी है ? यह किसकी है ? यह कैसे बनी है ? यह कहां मन की प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों का सन्तुलन बनाए-इसका सम्यग् होती है ? आदि-आदि प्रश्नों की व्याकुलता उसमें नहीं होती। वह मार्गदर्शन दिया गया है। उत्कंठा से मुक्त होता है। उत्तरज्झयणाणि के अनुसार यह स्थिति मुनि के लिए संग (लेप या आसक्ति) का त्याग करना सुख की स्पृहा का निवारण करने पर प्राप्त होती है।" आवश्यक है। स्वामी कार्तिकेय ने संग को तीन उदाहरणों के द्वारा मुनि की भावधारा संयम में अन्तर्लीन रहती है। इसलिए वह समझाया है--मिष्ट भोजन, रागद्वेष उत्पन्न करने वाली वस्तुएं और __ 'अबहिर्लेश्य' कहलाता है। ममत्व के वासस्थान—इनको छोड़ना त्याग है। उपाध्याय विनयविजय मुनि सम-समानता की अनुभूति, शम–शान्ति, क्लमने शान्तसुधारसभावना में भी त्याग की यही परिभाषा की है। तपस्या में रत होता है, उसका श्रामण्य अतिशायी बनता है; इसलिए अकलंक ने त्याग के तीन अर्थ किए है—सन्निधि या संग्रह उसे 'सुश्रामण्यरत' कहा जाता है। करता।" १. भ.वृ.२१ –'गुत्तेति मनोगुप्तत्वादीनां निगमनम् । २. दसवे.अ.चू.पृ.१६६ मणसा गुरुवयणे उवयुत्तो। ३. दसवे.जि.चू,पृ.२८५-वायाए कजमेत्तं भासंतो। ४. भ.वृ.२।५५-'गुत्तिदिए' त्ति 'गुत्तबंभयारी'त्ति गुप्तं ब्रह्मगुप्तियुक्तं ब्रह्म चरति यः स। ५. वही,२१५५-'जितेन्द्रिय' इन्द्रयविकाराभावात, यच्च प्राग गुप्तेन्द्रिय इत्यक्तं तदिन्द्रियविकारगोपनमात्रेणापि स्यादिति विशेषः। ६. वही,२/५–'चाइ'त्ति सङ्गत्यागवान् । ७. बारस अणुवेक्खा,गा. ४०१ जो चयदि मिट्ठभोजं, उवयरणं राय-दोस-संजणयं । वसदि ममत्तहेर्दू, चायगुणो सो हवे तस्स ॥ ५. शांतसुधारसभावना,१०।२ सत्य-क्षमा-मार्दव-शौच-संगत्यागार्जव-ब्रह्म विमुक्तियुक्तः। ६. (क) त.रा.वा.६/६,भा.२,पृ.५६८-त्यागः पुनः सन्निहितस्यापायः, दानं वा स्वयोग्यम्, अथवा संयतस्य योग्यं ज्ञानादिदानं त्याग इत्युच्यते। (ख) द्रष्टव्य, ठाणं, १०।१६ का टिप्पण। १०. सनत्सुजातीय, शांकरभाष्य, २०१६-ही:-अकार्यकरणे लज्जा । ११. भ.वृ.२। 'लज्जुत्ति संयमवान् रज्जुरिव वा रज्जुः अवक्रव्यवहारः। १२. वही,२१५५---'धन्ने'त्ति धन्यो-धर्मधनलब्धेत्यर्थः । १३. वही,२१५५-'खंतिखमे'त्ति क्षान्त्या क्षमते न त्वसमर्थतया योऽसौ क्षान्ति क्षमः। १४. वही,२।५५–'सोहिए'त्ति शोभितः शोभावान् शोधितो वा निराकृताति चारत्वात्, सौहृदं-मैत्री सर्वप्राणिषु तद्योगात्सौहृदो वा । १५. वही,२।५५–'अणियाणे'त्ति प्रार्थनारहितः। १६. वही,२।५५–'अप्पुसुएत्ति अल्पौत्सुक्यः त्वरारहितः। १७. उत्तर.२६।३० अप्पडिबद्धयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? अप्पडिबद्धयाए णं निस्संगत्तं जणयइ । निस्संगत्तेणं जीवे एगे एगग्गचित्ते दिया य राओ य असञ्जमाणे अपडिबद्धे यावि विहरइ। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २३७ श.२: उ.१: सू.५५-५६ मुनि क्रोध आदि कषाय तथा इन्द्रिय और मन का निग्रह सामने रखना या उसे आगे रखकर चलना हार्दिक श्रद्धा का प्रतिफलन करता है, इसलिए वह 'दान्त' कहलाता है। इणमेव निगं पावयणं पुरओ काउं विहरइ-इस वाक्य में पूर्ण मुनि कैसा होना चाहिए और मुनि को कैसा जीवन जीना समर्पण की अभिव्यञ्जना की गई है। नैर्ग्रन्थ प्रवचन को निरन्तर चाहिए, उसका एक सर्वांगीण चित्रण प्रस्तुत प्रकरण में हुआ है। ५६. तए णं समणे भगवं महावीरे कयंगलाओ ततः श्रमणः भगवान् महावीरः कयञ्जलायाः ५६. श्रमण भगवान् महावीर कयंजला नगरी और नयरीओ छत्तपलासाओ चेइयाओ पडिनि- नगर्याः छत्रपलाशाच् चैत्यात् प्रतिनिष्कामति, छत्रपलाश चैत्य से पुनः निष्क्रमण करते हैं, पुनः मखमह. पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवय- प्रतिनिष्क्रम्य बहिः जनपदविहारं विहरति। निष्क्रमण कर आसपास जनपद में विहार कर रहे विहारं विहरइ ॥ ५७. तए णं से खदए अणगारे समणस्स ततः सः स्कन्दकः अनगारः श्रमणस्य भगवतः ५७. 'वह स्कन्दक अनगार श्रमण भगवान् महावीर भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं महावीरस्य तथारूपाणां स्थविराणाम् अन्तिके के तथारूप स्थविरों के पास सामायिक आदि अंतिए सामाइयमाइयाई एकारस अंगाइं सामायिकादिकानि एकादश अंगानि अधीते, ग्यारह अगों का अध्ययन करता है, अध्ययन अहिजइ, अहिजित्ता जेणेव समणे भगवं अधीय यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीरः तत्रैव कर जहां श्रमण भगवान् महावीर हैं वहां आता महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता उपागच्छाति, उपागम्य श्रमणं भगवन्तं है, आकर श्रमण भगवान महावीर को वन्दनसमणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, बंदित्ता महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा नमस्कार करता है, वन्दन-नमस्कार कर वह इस नमंसित्ता एवं वदासी-इच्छामि णं भंते! एवमवादीद्-इच्छामि भदन्त ! युष्माभिः प्रकार बोला—भन्ते ! मैं आपकी अनुज्ञा पाकर तुम्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे मासियं अभ्यनुज्ञातः सन् मासिकी भिक्षुप्रतिमाम् एकमासिकी प्रथम भिक्षु-प्रतिमा की उपसम्पदा भिक्खुपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए। उपसंपद्य विहर्तुम् । स्वीकार कर विहार करना चाहता हूं। अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं ॥ यथासुखं देवानुप्रिय ! मा प्रतिबन्धम् । देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख हो, प्रतिबन्ध मत करो। ५८. तए णं से बंदए अणगारे समणेणं ततः सः स्कन्दकः अनगारः श्रमणेन भगवता ५८. वह स्कन्दक अनगार श्रमण भगवान् महावीर भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे महावीरेण अभ्यनुज्ञातः सन् हृष्टः यावन् नम- की अनुज्ञा प्राप्त कर हृष्ट चित्त वाला हुआ यावत् हढे जाव नमंसित्ता मासियं भिक्खुपडिमं स्थित्वा मासिकी भिक्षुप्रतिमाम् उपसंपद्य वह भगवान् को नमस्कार कर मासिकी भिक्षुप्रतिमा उवसंपज्जित्ता णं विहरइ॥ विहरति । की उपप्सम्पदा स्वीकार कर विहार कर रहा है। ५९. तए णं से खंदए अणगारे मासियं ततः सः स्कन्दकः अनगारः मासिकी ५६. वह स्कन्दक अनगार मासिकी भिक्षुप्रतिमा भिक्खुपडिमं अहासुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं भिक्षुप्रतिमां यथासूत्रं यथाकल्पं यथामार्ग का यथासूत्र, यथाकल्प, यथामार्ग, यथातत्त्व, अहातचं अहासम्म सम्मं कारण फासेइ यथातत्त्वं यथासाम्यं सम्यक् कायेन स्पृशति यथासाम्य सम्यक् प्रकार से काया से स्पर्श करता पालेइ सोभेइ तीरेइ पूरेइ किट्टेइ अणुपालेइ पालयति शोधयति तीरयति पूरयति कीर्तयति है, पालन करता है, उसे शोधित करता है, पारित आणाए आराहेइ, सम्म काएण फासेत्ता अनुपालयति आज्ञया आराधयति, सम्यक् करता है, पूरित करता है, कीर्तित करता है, अनुपालेत्ता सोभेत्ता तीरेत्ता पूरेत्ता किट्टेत्ता कायेन स्पृष्ट्वा पालयित्वा शोधयित्वा पालित करता है, आज्ञा से उसकी आराधना अणुपालेत्ता आणाए आराहेत्ता जेणेव समणे तीरयित्वा पूरयित्वा कीर्तयित्वा अनुपाल्य करता है तथा सम्यक् प्रकार से काया से उसका भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवाग- आज्ञया आराध्य यत्रैव श्रमणः भगवान् स्पर्श कर, उसका पालन, शोधन, पारण, पूरण, छित्ता समणं भगवं महावीरं बंदइ नमसइ, ___ महावीरः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य श्रमणं कीर्तन, अनुपालन और आज्ञा से आराधन कर वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी इच्छामि णं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा जहां श्रमण भगवान् महावीर हैं वहां आता है, भंते ! तुभेहिं अन्भणुण्णाए समाणे दो- नमस्थित्वा एवमवादीद्-इच्छामि भदन्त ! आकर श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार मासियं भिक्खुपडिमं उवसंपज्जित्ता णं वि- युष्माभिः अभ्यनुज्ञातः सन् द्वैमासिकी भिक्षु- करता है, बन्दन-नमस्कार कर इस प्रकार बोलता हरित्तए। प्रतिमाम् उपसंपद्य विहर्तुम् । है—भन्ते ! मैं आपकी अनुज्ञा पाकर द्विमासिकी भिक्षुप्रतिमा की उपसम्पदा को स्वीकार कर विहार करना चाहता हूँ। १. भ.वृ.२।५५–'अवहिल्लेस्से' त्ति अविद्यमाना वहि:-संयमावहिस्ता- रागद्वेषयोरन्तार्थं प्रवृत्तत्वात्, 'इणमेव त्ति इदमेव प्रत्यक्षं 'पुरो काउंति अग्रे ल्लेश्या-मनोवृत्तिर्यस्यासाववहिर्लेश्यः; 'सुसामण्णरए'त्ति शोभने श्रमणत्वे विधाय मार्गानभिज्ञो मार्गज्ञनरमिव पुरस्कृत्य वा-प्रधानीकृत्य 'विहरति' रतोऽतिशयेन वा श्रामण्ये रतः; 'दंते'त्ति दान्तः क्रोधादिदमनात्, व्यन्तो वा आस्ते इति। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ श.२: उ.१: सू.५७-६० अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं । तं चेव॥ यथासुखं देवानुप्रिय ! मा प्रतिबन्धम् ।। तच्चैव। भगवई देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख हो, प्रतिबन्ध मत करो। वह द्विमासिकी प्रतिमा की उपसम्पदा को स्वीकार कर उसकी आज्ञा-पूर्वक आराधना करता ६०. एवं तेमासियं, चउम्मासियं, पंचमासियं, एवं त्रैमासिकी, चातुर्मासिकी, पाञ्चमासिकी, ६०. इसी प्रकार त्रैमासिकी, चातुर्मासिकी, पांच छम्मासियं, सत्तमासियं, पढमसत्तरातिदियं, पाण्मासिकी, साप्तमासिकी, प्रथमसप्तरात्रिं- मासिकी, पाण्मासिकी, साप्तमासिकी, प्रथम सात दोचसत्तरातिदियं, तबसत्तरातिदियं, राति- दिवा, द्वितीयसप्तरात्रिंदिवा, तृतीयसप्तरात्रिं- रात-दिन की, द्वितीय सात रात-दिन की, तृतीय दियं, एगरातियं॥ दिवा, रात्रिंदिवा, एकरात्रिकीम् । सात रात-दिन की, एक रात-दिन की और एक रात की प्रतिमा स्वीकार करता है, स्वीकार कर उसकी आज्ञा-पूर्वक आराधना करता है। भाष्य १. सूत्र ५७-६० इन चार सूत्रों में भिक्षु की बारह प्रतिमाओं का उल्लेख है। तीसरी वस्तु तथा उत्कृष्ट श्रुत-संपदा कुछ न्यून दस पूर्व की होनी इनका विशद वर्णन दसाओ में उपलब्ध है।' वृत्तिकार ने प्रतिमा का चाहिए।' अर्थ 'अभिग्रह-विशेष' किया है। 'प्रतिमा' शब्द की विशेष जानकारी वृत्तिकार ने प्रश्न उपस्थित किया है-स्कन्दक ग्यारह अंग के लिए टाणं, २।२४३-२४८ का टिप्पण द्रष्टव्य है। का अध्येता था। प्रतिभा की साधना विशिष्ट श्रुतसम्पन्न मुनि ही कर भिक्षु-प्रतिमाएं उन भिक्षुओं द्वारा आचरित होती हैं, जिनका सकता है। फिर उन्होंने प्रतिमा की आराधना कैसे की ? इसका शारीरिक संहनन सुदृढ़ और श्रुतज्ञान विशिष्ट होता है। पंचाशक के समाधान यह है-रकन्दक ने भगवान से अनुज्ञा प्राप्त कर प्रतिमा अनुसार जो मुनि विशिष्ट संहनन-सम्पन्न, धृति-सम्पन्न और शक्ति-सम्पन्न की आराधना की थी। केवली की उपस्थिति में श्रुत का नियम लागू तथा भावितात्मा होता है, वही गुरु की आज्ञा प्राप्त कर इन प्रतिमाओं नहीं होता।' को स्वीकार कर सकता है। उसकी न्यूनतम श्रुत-संपदा नौवें पूर्व की __दसाओ के अनुसार प्रतिमाओं का विवरण इस प्रकार है---- नाम कालमान | आहार-परिमाण प्रारंभिक तपस्या साधनास्थल आसन o c o o एक-एक दत्ति दो-दो दत्तियों तीन-तीन दत्तियां चार-चार दत्तियां पांच-पांच दत्तियां छह-छह दत्तियां सात-सात दत्तिया o १. एकमासिकी भिक्षु-प्रतिमा २. द्वैमासिकी भिक्षु-प्रतिमा ३. त्रैमासिकी भिक्षु-प्रतिमा ४. चातुर्मासिकी भिक्षु-प्रतिमा ५. पाञ्चमासिकी भिक्षु-प्रतिमा ६. पाण्मासिकी भिक्षु-प्रतिमा ७. साप्तमासिकी भिक्ष-प्रतिमा ८. प्रथम सात रात-दिन की भिक्षु-प्रतिमा ६. द्वितीय सात रात-दिन की भिक्षु-प्रतिमा १०. तृतीय सात रात-दिन की भिक्षु-प्रतिमा ११. अहोरात्रिकी भिक्ष-प्रतिमा १२. एकरात्रिकी भिक्षु-प्रतिमा o एकमास दो मास तीन मास चार मास पांच मास छह मास सात मास सात दिन-रात सात दिन-रात सात दिन-रात एक दिन-रात एक रात आरामगृह, शुन्यगृह, वृक्षमूल आरामगृह, शून्यगृह, वृक्षमूल आसनगृह, शून्यगृह, वृक्षमूल आरामगृह, शून्यगृह, वृक्षमूल आरामगृह, शून्यगृह, वृक्षमूल आराभगृह, शून्यगृह, वृक्षमूल आरामगृह, शून्यगृह, वृक्षभूल गांव आदि के बाहर उत्तान, पावशयन, निषद्या गांव आदि के बाहर | दण्डायत, लगुडशयन, उकडू गांव आदि के बाहर गादोहिका, वीरासन, आम्रकुब्ज गांव आदि के बाहर गोदोहिका, बीरासन, आम्रकुब्ज गांव आदि के थाहर | कायोत्सर्ग आदि o चतुर्थ भक्त चतुर्थ भक्त चतुर्थ भक्त षष्ठ भक्त अश्म भक्त शब्द मर्यादा या व्यवस्था का सूचक है। मार्ग' शब्द पद्धति के अनुसरण का सूचक है। 'तत्त्व' शब्द प्रतिमा के वास्तविक स्वरूप का सूचक है। 'सान्य' शब्द समभाव का सूचक है।' शब्द-विमर्श यवासूत्र....यथासाम्य-इन पांच पदों में प्रतिमा की विधि का निर्देश दिया गया है। 'सूत्र' शब्द विधिसूत्र का सूचक है। 'कल्प' १. दसाओ,७।१-३५। २. भ.व.२।५६ भिक्षूचितमभिग्रहविशेषम् । ३. श्रीपंचाशक,१८१४,५ पडिवाइ एयाओ संघयणं घिइजुओ महासत्तो। पडिमाओ भावियप्पा, सम्म गुरुणा अणुण्णाओ॥ गच्छे चिअ-निम्माओ, जा पुव्व दस भवे असंपुण्णा । णवमस्स तइय वत्थू, होइ जहण्णो सुयाहिगभो ।। ४. भ.वृ.२१५६ नन्वयमेकादशाङ्गधारी पठितः, प्रतिमाश्च विशिष्टश्रुतवानेव करोति, यदाह "गच्छे च्चिय णिम्माओ जा पुब्बा दस भवे असंपुण्णा । नवमस्स तइयवत्थू होइ जहण्णो सुयाहिगमो ।' इति कथं न विरोधः ? उच्यते, पुरुषान्तरविषयोऽयं श्रुतनियमः, तस्य तु सर्वविदुपदेशेन प्रवृत्तत्वान्न दोष इति। ५. वही,२१५६–'अहासुत्तति सामान्यसूत्रानतिक्रमेण 'अहाकप्पं'ति प्रतिमाकल्पानतिक्रमेण तत्कल्पवस्त्वनतिक्रमेण वा 'अहामग्गं'ति ज्ञानादिमोक्षमार्गानतिक्रमेण क्षायोपशमिकभावानतिक्रमेण वा 'अहातचंति यथातत्त्वं तत्त्वानतिक्रमेण मासिकी भिक्षुप्रतिमेति शब्दार्थानतिलङ्घनेनेत्यर्थः । 'अहासम्मति यथासाम्यं समभावानतिक्रमेण । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २. सामायिक आदि ग्यारह अंग ग्यारह अंगों में पहला अंग आयारो है। प्रस्तुत सूत्र में 'सामायिक आदि ग्यारह अंग' का उल्लेख किया गया है। यह सामायिक क्या है ? वृत्ति में इसकी कोई व्याख्या नहीं है । प्रसंग के अनुसार सामायिक को आयारो ( आचारांग) का पर्यायवाची नाम माना जा सकता है। आयारो में सामायिक समता का ही प्रतिपादन है । वृत्तिकार ने एक प्रश्न उपस्थित किया है-पांचवें अंग में स्कन्दक का चरित उपलब्ध है। यदि उसने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया तो, पांचवें अंग में स्कन्दक-चरित कैसे मिलता ? वृत्तिकार ने इसके समाधान में लिखा है- भगवान् महावीर के तीर्थ में नौ वाचनाएं थीं। उनमें स्कन्दक -चरित में अभिधेय अर्थ किसी दूसरे व्यक्ति के चरित्र द्वारा प्रतिपादित किए गए थे। सुधर्मा स्वामी ने अपनी वाचना में फिर स्कन्दक चरित्र को स्थान दिया । इसलिए स्कन्दक द्वारा ग्यारह अंगों के अध्ययन में और वर्तमान ६१. तए णं से खंदए अणगारे एगरातियं भिक्खुपडिमं अहासुतं जाव आराहेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी -- इच्छामि णं भंते! तुब्भेहिं अब्मणुण्णाए समाणे गुणरयणसंवच्छरं तवोकम्मं उवसंपत्ति णं विहरित्तए । अहा देवाप्पिया ! मा पडिबंधं ॥ ६२. तए णं से खंदए अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे तुट्ठे जाव नमसित्ता गुणरयणसंवच्छरं तवोकम्मं उवसंपत्ति णं विहरति, तं २३६ श.२ः उ.१: सू.५७-६२ पांचवें अंग के स्कन्दक- प्रकरण में कोई विरोध नहीं है। इसका दूसरा विकल्प यह बताया है—गणधर अतिशायी ज्ञान वाले थे। उनके द्वारा भविष्य में होने वाले चरित्र का प्रतिपादन भी किया जा सकता है । ' जहा पढमं मासं चउत्थंचउत्थेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं दिया ठाणुक्कडुए सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे, रत्तिं वीरासणं अवाउडे । वृत्तिकार का यह समाधान अत्यन्त श्रद्धाभिषिक्त है। आगम - रचना के इतिहास की दृष्टि से विचार करें, तो यह प्रश्न कोई जटिल नहीं है। भगवान् महावीर के समय में ग्यारह अंगों का जो स्वरूप था वह आज उपलब्ध नहीं है। आज जो ग्यारह अंग उपलब्ध हैं, वे देवर्धिगणी द्वारा संकलित वाचना के हैं। इनकी पूर्ववर्ती ग्यारह अंगों से तुलना नहीं की जा सकती। इनमें उत्तरवर्ती अनेक घटनाएं संकलित हैं। जमालि के प्रकरण में भी सामायिक आदि ग्यारह अंगों के अध्ययन का उल्लेख है' और प्रस्तुत आगम में उसका चरित्र भी निरूपित है । ऐतिहासिक दृष्टि से यह स्वीकार करना अधिक संगत होगा कि प्रस्तुत आगम में स्कन्दक और जमालि के चरित उत्तरकाल में संकलित किए गए हैं। ततः सः स्कन्दकः अनगारः एकरात्रिकी भिक्षुप्रतिमां यथासूत्रं यावद् आराध्य यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीरः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य श्रमण भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीद् इच्छामि भदन्त ! युष्माभिः अभ्यनुज्ञातः सन् गुणरत्नसंवत्सरं तपःकर्म उपसम्पद्य विहर्तुम् । यथासुखं देवानुप्रिय ! मा प्रतिबन्धम् । ततः सः स्कन्दकः अनगारः श्रमणेन भगवता महावीरेण अभ्यनुज्ञातः सन् हृष्टतुष्टः यावन् नमस्थित्वा गुणरत्नसंवत्सरं तपःकर्म उपसम्पद्य विहरति, तद्यथा १. भ. वृ.२ । ५७ --एक्कारस अंगाई अहिज्जइति इह कश्चिदाह - नन्वनेन स्कन्दकचरितात्प्रागेवैकादशाङ्गनिष्पत्तिरवसीयते, पञ्चमाङ्गान्तर्भूतं च स्कन्दकचरितमिदमुपलभ्यते इति कथं न विरोधः ? उच्यते, श्रीमन्महावीरतीर्थे किल नव वाचनाः, तत्र च सर्ववाचनासु स्कन्दकचरितात् पूर्वकाले ये स्कन्दकचरिताभिधेया अर्थास्ते चरितान्तरद्वारेण प्रज्ञाप्यन्ते । स्कन्दकचरितोत्पत्तौ च सुधर्मस्वामिना जम्बूनामानं स्वशिष्यमङ्गीकृत्याधिकृतवाचनायामस्यां स्कन्द प्रथमं मासं चतुर्थचतुर्थेन अनिक्षिप्तेन तपःकर्मणा दिवा स्थानोत्कुटुकः सूर्याभिमुखः आतापनभूम्याम् आतापयन्, रात्रौ वीरासनेन अप्रावृतेन च । ६१. वह स्कन्दक अनगार एक रात की भिक्षुप्रतिमा की यथासूत्र यावत् आराधना कर जहां श्रमण भगवान् महावीर हैं, वहां आता है, आकर श्रमण भगवान् महावीर को बन्दन - नमस्कार करता है, वन्दन- नमस्कार कर वह इस प्रकार बोलाभन्ते! मैं आपकी अनुज्ञा पाकर गुणरत्नसंवत्सर तपःकर्म की उपसम्पदा स्वीकार कर बिहार करना चाहता हूं। देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख हो, प्रतिबंध मत करो। ६२. वह स्कन्दक अनगार श्रमण भगवान् महावीर की अनुज्ञा प्राप्तकर हष्टतुष्ट चित्त वाला हुआ यावत् नमस्कार कर गुणरल संवत्सर तपःकर्म' की उपसम्पदा स्वीकार कर विहार करता है, जैसे प्रथम मास में विना विराम' (एकान्तर ) चतुर्थचतुर्थभक्त (एक-एक दिन का उपवास) तपःकर्म करता है, दिन में स्थान —— कायोत्सर्ग-मुद्रा और उकडू आसन में बैठ सूर्य के सामने मुंह कर आतापनभूमि में आतापना लेता है और रात्रि वीरासन में बैठता है, निर्वस्त्र रहता है। कचरितमेवाश्रित्य तदर्थप्ररूपणा कृतेति न विरोधः । अथवा सातिशायित्वाद् गणधराणामनागतकालभाविचरितनिबन्धनमदुष्टमिति, भाविशिष्यसन्तानापेक्षयाऽतीतकालनिर्देशोऽपि न दुष्ट इति । २. ठाणं ७ । १४०, १४१ । ३. भ. ६।२१५ । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समापणभूमीए आयाणकड़ए सूरामिण द्वितीय मानक श.२ः उ.१ः सू.६२ २४० भगवई दोचं मासं छठंछठेणं अणिक्खित्तेणं द्वितीयं मासं षष्ठषष्ठेन अनिक्षिप्तेन तपःकर्मणा दूसरे मास में बिना विराम षष्ठ-षष्ठभक्त (दो-दो तवोकम्मेणं दिया ठाणुक्कडुए सूराभिमुहे दिवा स्थानोत्कुटुकः सूर्याभिमुखः आतापन- दिन का उपवास) तपःकर्म करता है। दिन में आयावणभूमीए आयावेमाणे, रत्तिं वीरा- भूम्याम् आतापयन् रात्री वीरासनेन अप्रावृतेन स्थानकायोत्सर्ग-मुद्रा और उकडू आसन में बैठ सणेणं अवाउडेण य। च । सूर्य के सामने मुंह कर आतापनभूमि में आतापना लेता है और रात्रि में वीरासन में बैठता है, निर्वस्त्र रहता है। एवं तच्च मास अट्ठमअट्टमेणं। चउत्थ मास एवं ततीयं मासम अष्टमाष्टमेन। चतुर्थ मासं इसी प्रकार तीसरे मास में अष्टम-अष्टमभक्त दसमंदसमेणं। पंचमं मासं बारसमंबारस- बारस- ट दशमदशमेन । पञ्चमं मासं द्वादशद्वादशेन। (तीन-तीन दिन का उपवास), चौथे मास में दशममेणं। छटुं मासं चउद्दसमंचउद्दसमेणं। षष्ठं मासं चतुर्दशचतुर्दशेन। सप्तमं मासं दशमभक्त (चार-चार दिन का उपवास), पांचवें सत्तमं मासं सोलसमंसोलसमेणं । अट्ठमं षोडशषोडशेन । अष्टमं मासम् अष्टादशा- मास में द्वादश-द्वादशभक्त (पांच-पांच दिन का मासं अट्ठारसमंअट्ठारसमेणं। नवमं मासं ष्टादशेन । नवमं मासं विंशविंशेन । दशमं मासं उपवास) छठे मास में चतुर्दश-चतुर्दशभक्त वीसइमंवीसइमेणं । दसमं मासं बावीसइमं द्वाविंशद्वाविंशेन। एकादशं मासं चतुर्विंश- (छह-छह दिन का उपवास), सातवें मास में बावीसइमेणं । एक्कारसमं मासं चउवीसइमं चतुर्विंशेन । द्वादशं मासं षड्विंशषड्विंशेन। षोडश-षोडशभक्त (सात-सात दिन का उपवास), चउवीसइमेणं। बारसमं मासं छब्बीसइमं त्रयोदशं मासम् अष्टाविंशाष्टाविंशेन | चतुर्दशं आठवें मास में अष्टदश-अष्टदशभक्त (आठ-आठ छब्बीसइमेणं । तेरसमं मासं अट्ठावीसइमं मासं त्रिंशत्रिंशेन। पञ्चदशं मासं दिन का उपवास), नवें मास में बीसवां-बीसवांअट्ठावीसइमेणं। चउद्दसमं मासं तिसइमं द्वात्रिंशद्वात्रिंशेन। षोडशं मासं चतुस्त्रिंश- भक्त (नव-नव दिन का उपवास), दसवें मास में तिसइमेणं। पण्णरसमं मासं बत्तीसइम चतुस्त्रिंशेन अनिक्षिप्तेन तपःकर्मणा दिवा । बाईसवां-बाईसवांभक्त (दश-दश दिन का बत्तीसइमेणं। सोलसं मासं चोत्तीसइमं स्थानोत्कुटुकः सूर्याभिमुखः आतापनभूम्याम् उपवास), ग्यारहवें मास में चौबीसवां-चौबीसवां चोत्तीसइमेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं आतापयन् रात्रौ वीरासनेन अप्रावृतेन च । भक्त (ग्यारह-ग्यारह दिन का उपवास), बारहवें दिया गणुकुकुडुए सूराभिमुहे आयावण मास में छबीसवां-छबीसवांभक्त (बारह-बारह दिन भूमीए आयावेमाणे, रति वीरासणेणं का उपवास), तेरहवें मास में अठाईसवांअवाउडेण य॥ अठाईसवांभक्त (तेरह-तेरह दिन का उपवास), चौदहवें मास में तीसवां-तीसवांभक्त (चौदह-चौदह दिन का उपवास), पन्द्रहवें मास में बत्तीसवां-बत्तीसवांभक्त (पन्द्रह-पन्द्रह दिन का उपवास) और सोलहवें मास में बिना विराम चौतीसवांचौतीसवांभक्त (सोलह-सोलह दिन का उपवास) तपःकर्म करता है। दिन में स्थान- कायोत्सर्ग-मुद्रा और उकडू आसन में बैठ सूर्य के सामने मुंहकर आतापनभूमि में आतापना लेता है और रात्रि में वीरासन में बैठता है. निर्वस्त्र रहता है। भाष्य १. गुणरत्न संवत्सर तपःकर्म इस तपस्या में सोलह मास का समय लगता है। इसमें तपस्या । का कालमान १३ महीनें और १७ दिनों का होता है। आहार का कालमान ७३ दिन का होता है। देखें तालिका १. भ.वृ.२।६१-गुणानां निर्जराविशेषाणां रचनं-करणं संवत्सरेण सत्रिभागवर्षेण यस्मिंस्तपसि तद् गुणरचनसंवत्सरं, गुणा एव वा रत्नानि यत्र स तथा गुणरलः संवत्सरो यत्र तद्गुणरत्नसंवत्सरं तपः, इह च त्रयोदश मासाः सप्तदशदिनाधिकास्तपःकालः, त्रिसप्ततिश्च दिनानि पारणककाल इति, एवं चायम् पण्णरसवीसचउव्वीस चेव चउवीस पण्णवीसा य । चउवीस एक्कवीसा चउवीसा सत्तवीसा य ॥ तीसा तेत्तीसावि य चउव्वीस छवीस अट्ठवीसा य | तीसा बत्तीसावि य सोलसमासेसु तवदिवसा ॥ पण्णरसदसट्टछप्पंचचउरपंचसु य तिण्णि तिण्णित्ति । पंचसु दो दो य तहा सोलसमासेसु पारणगा ।। इह च यत्र मासेऽष्टमादितपसो यावन्ति दिनानि न पूर्यन्ते तावन्त्यग्रेतनमासादाकृष्य पूरणीयानि, अधिकानि चाग्रेतनमासे क्षेप्तव्यानि । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१ श.२: उ.१: सू.६२ दिन में आसन तपस्या के दिन पारणा के दिन उकडू १५ उकडू उकडू उकडू م م उकडू م مه भगवई | कालमान । तपस्या प्रथम मास चतुर्थ-चतुर्थ भक्त द्वितीय मास | षष्ठ-षष्ठ भक्त तृतीय मास | अष्टम-अष्टम भक्त चतुर्थ मास दशम-दशम भक्त पंचम मास | द्वादश-द्वादश भक्त षष्ठ मास |चतुर्दश-चतुर्दश भक्त सप्तम मास | षोडश-षोडश भक्त अष्टम मास | अष्टादश-अष्टादश भक्त नवम मास बीसवां-बीसवां भक्त दशम मास बावीसवां-बावीसवां भक्त ग्यारहवां मास | चौबीसवां-चौबीसवां भक्त बारहवां मास | छबीसवां-छबीसवां भक्त तेरहवां मास अठाईसवां-अठाईसवां भक्त चौदहवां मास | तीसवां-तीसवां भक्त । पन्द्रहवां मास | बत्तीसवां-बत्तीसवां भक्त सोलहवां मास | चौतीसवां-चौतीसवां भक्त उकडू उकडू उकडू आतापना रात्रि आसन सूर्याभिमुख होकर वीरासन निर्वस्त्र अवस्था सूर्याभिमुख होकर वीरासन निर्वस्त्र अवस्था सूर्याभिमुख होकर वीरासन निर्वस्त्र अवस्था सूर्याभिमुख होकर | वीरासन निर्वस्त्र अवस्था सूर्याभिमुख होकर वीरासन निर्वस्त्र अवस्था सूर्याभिमुख होकर । | वीरासन निर्वस्त्र अवस्था सूर्याभिमुख होकर वीरासन निर्वस्त्र अवस्था सूर्याभिमुख होकर वीरासन निर्वस्त्र अवस्था सूर्याभिमुख होकर वीरासन निर्वस्त्र अवस्था सूर्याभिमुख होकर वीरासन निर्वस्त्र अवस्था सूर्याभिमुख होकर | वीरासन निर्वस्त्र अवस्था सूर्याभिमुख होकर वीरासन निर्वस्त्र अवस्था सूर्याभिमुख होकर वीरासन निर्वस्त्र अवस्था सूर्याभिमुख होकर | वीरासन निर्वस्त्र अवस्था सूर्याभिमुख होकर | वीरासन निर्वस्त्र अवस्था सूर्याभिमुख होकर | वीरासन निर्वस्त्र अवस्था उकडू उकडू سه سه سه سه سه له له उकडू उकडू उकडू उकडू उकडू له له उकडू له اشه २. बिना विराम अनिक्षिप्त का अर्थ 'बिना विराम' है। ३. चतुर्थ इसका अर्थ है उपवास । एक दिन में भोजन के दो भक्त (या वेला) माने जाते हैं। प्राचीन परम्परा के अनुसार उपवास करने वाला एक बार भोजन कर आहार का प्रत्याख्यान कर देता है। उपवास के दिन दो भक्त अनाहार रहते हैं। पारणा के दिन भोजन के समय उपवास पूरा किया जाता है। चौथे भक्त की सीमा तक आहार का त्याग होता है, इसलिए इसका पारिभाषिक नाम चतुर्थ है।' आगम-साहित्य में उपवास के लिए प्रायः 'चतुर्थ' का ही प्रयोग मिलता है। सम्बोधप्रकरण में इसके अनेक पर्यायवाची नाम मिलते हैं।' ४. स्थान कायोत्सर्ग-मुद्रा और उकडू आसन स्थान का अर्थ है कायोत्सर्ग। वृत्तिकार ने स्थान का अर्थ आसन किया है। उत्कुटुक या उकडू आसन का अर्थ है-दोनों पैरों को भूमि पर टिकाकर दोनों पुतों को भूमि से न छुहाते हुए भूमि पर बैठना। इसकी दूसरी परिभाषा है-एड़ी और पुतों को ऊंचा रखकर बैठना। घेरण्डसंहिता में उत्कटासन का विवरण इस प्रकार है-चरणों के अंगूठों को भूमि में टेककर, दोनों एड़ियों को निरालम्ब कर, ऊपर को उठा दें। गुदा को एड़ियों पर रखें-इसे उत्कटासन कहते हैं।' ५. आतापन-भूमि में आतापना लेता है आतापना तैजस शक्ति या कुण्डलिनी के विकास की एक प्रकृष्ट साधना है।' इसका प्रयोग जैन मुनि तथा अन्य तपस्वी भी करते थे।' इस तप के लिए एक ऊंचा स्थान चुना जाता है, जहां से सूर्य का आतप लिया जा सके। यह स्थान पर्वत का शिखर या कोई भी ऊंचा टीला हो सकता है। आतापना सूर्य के सम्मुख खड़े होकर, दोनों भुजाओं को ऊंचा कर ली जाती थी। यह कायोत्सर्ग की खड़ी मुद्रा और उकडू आदि आसनों में ली जाती थी। बृहत्कल्प भाष्य में आतापना के तीन प्रकार निर्दिष्ट है-उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य। ____उत्कृष्ट लेटकर ली जाने वाली। मध्यम–बैठकर ली जाने वाली। जघन्य-खड़े-खड़े ली जाने वाली। उत्कृष्ट आतापना के तीन प्रकार हैं १.भ.व.२१६२-चतुर्थं भक्तं यावद्भक्तं त्यज्यते तत्र तच्चतुर्थम्, इयं चोपवासस्य सज्ञा, एवं षष्ठादिकमुपवासद्वयादेरिति । २. संबोधप्रकरण,गा.६६ मुखो समणो धम्मो, निप्पावो उत्तमो अणाहारो। चउप्पाओ भत्तहो, उववासो तस्स एगहा ॥ ३. भ.वृ.२१६२ स्थानम्-आसनमुत्कुटुकम् आधारे पुतालगनरूपं यस्यासी स्थानोत्कुटुकः। ४.घेरण्डसंहिता.२१२३ अङ्गुष्ठाभ्यामवष्टभ्य धरां गुल्फे च खे गती। तत्रोपरि गुदं न्यस्य विज्ञेयमुत्कटासनम् ॥ ५. ठाणं,३३३८६। ६. भ.३।३३। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. २: उ.१: सू.६२ वाली। १. उत्कृष्ट उत्कृष्ट – ओंधे मुंह लेटकर ली जाने वाली । २. उत्कृष्ट मध्यम – बाई या दाई करवट में लेटकर ली जाने ३. उत्कृष्ट जघन्य — सीधा लेटकर ली जाने वाली । मध्यम आतापना के भी तीन प्रकार हैं- ४. मध्यम उत्कृष्ट ५. मध्यम मध्यम ६. मध्यम जघन्य — उकडू आसन में ली जाने वाली । जघन्य आतापना के भी तीन प्रकार हैं ७. जघन्य उत्कृष्ट — हस्तिशुण्डिका में ली जाने वाली । ८. जघन्य मध्यम — एकपादिका में ली जाने वाली । ६. जघन्य जघन्य - समपादिका में ली जाने वाली । आतापना से प्राणिक ऊर्जा का संचय होता है। यह सूर्य के तेजस् अर्थात् सौर ऊर्जा (solar energy ) से प्राप्त होती है। सूर्य रश्मि - चिकित्सा पद्धति में सूर्य किरणों का प्रयोग स्वास्थ्य के लिए किया जाता है। मुनि और तपस्वी इनका प्रयोग प्राण ऊर्जा के संवर्धन और चित्त की निर्मलता के लिए करते थे । पर्यकासन में ली जाने वाली । ' अर्धपर्यंकासन में ली जाने वाली। पर्यकासन — बाएं पैर को दाएं ऊरु और जंघा की संधि पर तथा दाएं पैर को बाएं ऊरु और जंघा की संधि पर रखना । पर्यंकासन और पद्मासन को एक माना जाता है। घेरण्डसंहिता अनुसार बद्धपद्मासन ही पद्मासन है। आप्टे के अनुसार पर्यकासन और वीरासन एक हैं । ' अर्धपर्यंकासन — बाएं या दाएं किसी एक पैर को में रखना। मुद्रा हस्तिशुण्डिकासन —— हस्तिशुण्डिकासन की दो मुद्राएं प्राप्त होती हैं- १. पुतों के सहारे बैठ कर क्रमश: एक-एक पैर को ऊपर उठाकर अधर में रखना १. मध्यम के वैकल्पिक प्रकार इस प्रकार हैं २. सीधे खड़े रहकर शिर को घुटनों की ओर नीचे लाना तथा दोनों हाथ जोड़कर हाथी की सूण्ड की भांति दोनों पैरों के बीच से ले जाना । मध्यम उत्कृष्ट - गोदोहिकासन में ली जाने वाली । मध्यम मध्यम-उकडू- आसन में ली जाने वाली | मध्यम जघन्य पर्यंकासन में ली जाने वाली। ४. घेरण्डसंहिता, २८ पद्मासन २. बृ.क.भा.गा. ५६४५-५६४६ । ३. स्था.वृ. प. २८७ पर्यंका - जिनप्रतिमानामिव या पद्मासनमिति रूढा तथा अर्धपर्यंका उरावेकपादनिवेशनलक्षणा । ७. मनोनुशासनम्,पृ.४६ । की वामोरुपरि दक्षिणं हि चरणं संस्थाप्य वामं तथा, दक्षोरुपरि पश्चिमेन विधिना कृत्वा कराभ्यां दृढम् । अंगुठे ह्रदये निधाय चिबुकं नासाग्रमालोकयेत्, एतद्व्याधिविनाशकारणपरं पद्मासनं प्रोच्यते ।। ५. आप्टे पर्यंकासन — देखें, इसी सूत्र में वीरासन का भाष्य, भाष्यांक ६ । ६. (क) बृ.क.भा.गा. ५६४८ वृत्ति – पुताभ्यामुपविष्टस्यैकपादोत्पाटनरूपा । (ख) देखें, उत्तर. ३० । २७ का टिप्पण । २४२ भगवई एकपादिक सीधे खड़े होकर गर्दन, पृष्ठवंश और पैर तक का सारा शरीर सीधा और समरेखा में रखकर एक पैर को उठाकर सीधा फैलाना । " समपादिका—सीधे खड़े रहकर गर्दन, पृष्ठवंश और पैर तक का सारा शरीर सीधा और समरेखा में रखकर दोनों पैरों को सटाकर रखना। ६. वीरासन प्रथम परिभाषा - कुर्सी पर बैठकर उसे निकाल देने पर जो मुद्रा बनती है उसे वीरासन कहते हैं । ' १० दूसरी परिभाषा - बद्धपद्मासन की तरह दोनों पैरों को रखकर, हाथों को पद्मासन की तरह रखना। तीसरी परिभाषा - दाएं पैर के घुटने को उठाकर पैर भूमि पर रखा जाता है। बाएं पैर की अगुलियों को भूमि पर टिकाकर, एड़ी ऊंची कर, उस पर गुदा रखकर बैठा जाता है। घुटना आड़ा रखा जाता है। मुट्ठी बांधकर हाथ घुटनों पर सीधे रखे जाते हैं । सीना उठाकर सामने देखा जाता है। घेरण्डसंहिता में भी प्रायः यही मुद्रा मिलती है। " आप्टे ने वीरासन के विषय में वशिष्ठ का मत उद्धृत किया है।' १४ फल — उकडू आसन का प्रभाव वीर्य-ग्रन्थियों पर पड़ता है और यह ब्रह्मचर्य की साधना में बहुत फलदायी है। वीरासन से धैर्य, सन्तुलन और कष्ट - सहिष्णुता का विकास होता है । वीरासन की विधि - दायें पैर को घुटने से मोड़कर एडी मलद्वार पर नीचे आ जाए इस प्रकार रखें। बांये पैर को घुटने से मोड़कर एडी दायें पैर के पंजे के पास रहे इस प्रकार रखें। रेचक करते-करते बांये हाथ को बांई साथल पर उस प्रकार रखो जिससे कोहनी का भाग थोड़ा ही दूर रहे। फिर दायें हाथ के पंजे से बांये हाथ के पहुंचे को पकड़े। वीरासन का प्रभाव - वीरासन का यह दूसरा प्रकार है। इस आसन में बैठकर नादानुसन्धान किया जाता है। इस आसन के अभ्यास से शौर्य प्रकट होता है। जठराग्नि प्रदीप्त होती है। स्फूर्ति और उत्साह पैदा होता है । ८. (क) वृ.क.भा.गा. ५६४८वृत्ति - उत्थितस्यैकपादेनावस्थानम् । (ख) मनोनुशासनम्,पृ.४३ । ६. (क) वृ.क.भा.गा. ५६४८ वृत्ति - समतलाभ्यां पादाभ्यां स्थित्वा यदूर्ध्वस्थितैराताप्यते । (ख) मनोनुशासनम्, पृ. ४३ १०. भ. वृ. २ / ६२ सिंहासनोपविष्टस्य — भून्यस्तपादस्यापनीतसिंहासनस्येव यदवस्थानं तद्वीरासनम् । ११. मनोनुशासनम्,पृ. ५२ । १२. आसन अने मुद्रा, प्रथम खण्ड, पृ. २६७ । १३. घेरण्डसंहिता, २।१५ एकपादमथैकस्मिन् विन्यसेदुरुसंस्थितम् । इतरस्मिस्तथा पश्चाद् वीरासनमिति स्मृतम् ॥ पर्यंकासन एकं पादमथैकस्मिन् विन्यस्योरौ तु संस्थितं । इतरस्मिंस्तथैवोरुं वीरासनमुदाहृतम् || १४. आप्टे Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २४३ श.२: उ.१: सू.६३,६४ ६३. तए णं से खंदए अणगारे गुण- तत सः स्कन्दकः अनगारः गुणरलसंवत्सरं ६३. वह स्कन्दक अनगार गुणरत्नसंवत्सर तपःकर्म स्यणसंवच्छरं तवोकम्मं अहासुत्तं अहाकपं तपःकर्म यथासूत्रं यथाकल्पं यावद् आराध्य की यथासूत्र, यथाकल्प यावत् आराधना कर जहां जाव आराहेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे यत्रैव श्रमणः भगवान महावीरः तत्रैव श्रमण भगवान् महावीर हैं वहां आता है, आकर तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं ___ उपागच्छति, उपागम्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करता महावीरं वंदइ नमसइ, बंदित्ता नमंसित्ता बन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा बहुभिः है, बन्दन-नमस्कार कर अनेक चतुर्थभक्त, षष्ठबहूहिं चउत्थ-छटुट्ठम-दसम-दुवालसेहिं, चतुर्थ-षष्ठ-अष्टम-दशम-द्वादशैः मासार्द्धमास- भक्त, दशमभक्त, द्वादशभक्त, अर्धमास और मासमासद्धमासखमणेहिं विचित्तेहिं तवोकम्मेहिं क्षपणैः विचित्रैः तपःकर्मभिः आत्मानं भाव- क्षपण-इस प्रकार विचित्र तपःकर्म के द्वारा अप्पाणं भावमाणे विहरइ॥ यन् विहरति। आत्मा को भावित करता हुआ विहरण कर रहा ६४. तए णं से खंदए अणगारे तेणं ओरालेणं ततः सः स्कन्दकः अनगारः तेन 'ओरालेणं' ६४. 'वह स्कन्दक अनगार उस प्रधान, विपुल, विउलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं कल्लाणेणं विपुलेन प्रत्तेन प्रगृहीतेन कल्याणेन शिवेन अनुज्ञात, प्रगृहीत, कल्याण, शिव, धन्य, मंगलसिवेणं धनेणं मंगल्लेणं सस्सिरीएणं उदग्गेणं धन्येन मांगल्येन सश्रीकेण उदग्रेण उदात्तेन मय, शोभायित, उत्तरोत्तर वर्धमान, उदात्त, उत्तम, उदत्तेणं उत्तमेणं उदारेणं महाणुभागेणं उत्तमेन उदारेण महानुभागेन तपःकर्मणा उदार और महान् प्रभावी तपःकर्म से सूखा, रूखा, तवोकम्मेणं सुक्के लुक्खे निम्मंसे अट्ठि- शुष्कः रूक्षः निर्मासः अस्थि-चावनद्धः मांसरहित, चर्म से वेष्टित अस्थि वाला, उठते-बैठते चम्मावणद्धे किडिकिडियाभूए किसे किटिकिटिकाभूतः कृशः धमनिसन्ततः जात- समय किट-किट शब्द से युक्त, कृश और धमनियों घमणिसंतए जाए यावि होत्था । जीवंजीवेणं श्चापि आसीत् । जीवंजीवेन गच्छति, जीवं- का जाल-मात्र हो गया। वह प्राण-वल से चलता गच्छइ, जीवंजीवेणं चिट्ठइ, मासं भासित्ता जीवेन तिष्ठति, भाषां भाषित्वापि ग्लायति, है और प्राण-बल से ठहरता है, वह वचन बोलने वि गिलाइ, भासं भासमाणे गिलाइ, भासं भाषां भाषमाणः ग्लायति, भाषां भाषिष्ये इति के पश्चाद् भी ग्लान होता है, वचन बोलता हुआ भासिस्सामीति गिलाइ। ग्लायति । भी ग्लान होता है और वचन बोलूंगा यह चिन्तन करता हुआ भी ग्लान होता है। से जहानामए कट्ठसगडिया इ वा, अथ यथानाम काष्ठशकटिका इति बा, जैसे कोई इंधन से भरी हुई गाड़ी, पत्तों से भरी पत्तसगडिया इवा, पत्त-तिल-भंडगसगडिया पत्रशकटिका इति वा, पत्र-तिल-भाण्डक- हुई गाड़ी, पत्र-सहित तिलों और मिट्टी के बर्तनों इवा, एरंडकट्ठसगडिया इवा, इंगाल- शकटिका इति वा, एरण्डकाष्ठशकटिका इति से भरी हुई गाड़ी, एरण्ड की लकड़ियों से भरी सगडिया इ वा-उण्हे दिण्णा सुक्का वा, अंगारशकटिका इति वा-उष्णे दत्ता हुई गाड़ी तथा कोयलों से भरी हुई गाड़ी ताप समाणी ससदं गच्छइ, ससदं चिट्ठइ, शुष्का सती सशब्दं गच्छति, सशब्दं तिष्ठति, लगने से सूखी हुई, सशब्द चलती है और सशब्द एवामेव खंदए अणगारे ससदं गच्छइ, ससदं एवमेव स्कन्दकः अनगारः सशब्दं गच्छति, ठहरती है, इसी प्रकार स्कन्दक अनगार सशब्द चिदुइ, उवचिए तवणं अवचिए मंस- सशब्दं तिष्ठति, उपचितः तपसा अपचितः । (किट-किट की ध्वनि-सहित) चलता है और सोणिएणं, हुयासणे विव भासरासि- मांस-शोणितेन, हुताशनः इव भस्मराशि- सशब्द ठहरता है, वह तप से उपचित और पडिच्छण्णे तवेणं, तेएणं, तव-तेयसिरीए प्रतिछन्नः तपसा, तेजसा, तपस्तेजःश्रिया मांस-शोणित से अपचित हो गया । वह राख के अतीव-अतीव उवसोभेमाणे-उवसोभेमाणे अतीव-अतीव उपशोभमानः-उपशोभमानः । ढेर से ढकी हुई अग्नि की भांति तप, तेज तथा चिट्ठइ ॥ तिष्ठति । तपस्तेज की श्री से' अतीव-अतीव उपशोभित होता हुआ, उपशोभित होता हुआ रहता है । भाष्य १. सूत्र ६४ प्रस्तुत सूत्र में तप के चौदह विशेषण निर्दिष्ट हैं ओराल–ओराल का अर्थ है प्रधान | वह तप प्रधान होता है, जो आशंसामुक्त हो। विपुल विस्तीर्ण। लम्बी अवधि तक होने वाला तप। प्रतइसका मूल 'पयत्त' शब्द है। इसके संस्कृत रूप 'प्रत्त' और 'प्रदत्त' दोनों हो सकते हैं। इसका अर्थ है 'गुरु द्वारा अनुज्ञात'। प्रगृहीत-संयमपूर्वक आराधित। वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'बहुमानपूर्वक आश्रित' किया है। कल्याण-आरोग्यकर। शिव-निरुपद्रव। धन्य-कृतार्थ। मांगल्य अनिष्ट का उपशमन करने वाला। सश्रीक-आभायुक्त। उदा-उत्तरोत्तर वर्धमान। उदात्त-उत्तमभाव युक्त। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. २: उ.१: सू. ६४-६६ उत्तम श्रेष्ठ । वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'ज्ञानयुक्त' तथा 'उत्तमपुरुषों द्वारा आसेवित' भी किया है। उदार — व्यथामुक्त ।' महानुभाव महान् प्रभावी ।' शब्द - विमर्श अस्थिचर्मावनद्ध— हड्डियों पर मांस नहीं रहा, वे केवल चमड़ी से वेष्टित हैं—इस अवस्था को बतलाने के लिए 'अस्थिचर्मावनद्ध' शब्द का प्रयोग किया गया है।' किटिकिटिकाभूत—'किटिकिटिका' अनुकरण शब्द है । उठते-बैठते समय पैर की हड्डियों से होने वाली आवाज ।' संस्कृत में ६५. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नगरे समोसरणं जाव परिसा पडिगया || ६६. तए णं तस्स खंदयस्स अणगारस्स अण्णा कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकष्पे समुपखित्था एवं खलु अहं इमेणं एयारूवेणं ओरालेणं विउलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं कल्लाणेणं सिवेणं धन्त्रेणं मंगल्लेणं सस्सिरीएणं उदग्गेणं उदत्तेणं उत्तमेणं उदारेणं महाणुभागेणं तवोकम्मेणं सुक्के लुक्खे निम्मंसे अट्ठचम्मावणद्धे किडिकिडियाभूए किसे धमणि - संतए जाए। जीवंजीवेणं गच्छामि, जीवंजीवेणं चिट्ठामि भासं भासित्ता वि गिलामि, भासं भासमाणे गिलामि, भासं भासिस्सामीति गिलामि । २४४ भगवई 'कटकटा' शब्द का प्रयोग दो चीजों की रगड़ से उत्पन्न होने वाली आवाज के अर्थ में होता है । ' घमनिसंतत नाड़ी का जाल । ' जीवंजीव - प्राणबल। यहां अनुस्वार अलाक्षणिक है। २. राख के ढेर से ढकी हुई..... तपस्तेज की श्री से शरीर की शोभा या सौन्दर्य को बढ़ाने वाले दो तत्त्व हैं रक्त और मांस। तपस्या के द्वारा स्कन्दक मुनि के शरीर में रक्त और मांस का अपचय हो गया। इसलिए वह बाहर से सुन्दर नहीं लग रहा था, किन्तु अन्दर में तप और तेज की शोभा से अत्यन्त उपशोभित हो रहा था । ' तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहे नगरे समवसरणं यावत् परिषद् प्रतिगता । १. आप्टे उदार - Unperplexed २. भ. बृ. २ । ६४ - ' ओरालेण'मित्यादि 'ओरालेन' आशंसारहिततया प्रधानेन, प्रधानं चाल्पमपि स्यादित्याह -- ' विपुलेन' विस्तीर्णेन बहुदिनत्वात्, विपुलं च गुरुभिरननुज्ञातमपि स्यात् प्रयत्नकृतं वा स्यादत आह— 'पयत्तेणं'ति प्रदत्तेनानुज्ञातेन गुरुभिः प्रयतेन वा प्रयत्नवता - प्रमादरहितेनेत्यर्थः एवंविधमपि सामान्यतः प्रतिपन्नं स्यादित्याह - 'प्रगृहीतेन' बहुमानप्रकर्षादाश्रितेन तथा 'कल्याणेन' नीरोगताकारणेन 'शिवेन' शिवहेतुना 'धन्येन' धर्मधनसाधुना 'माङ्गल्येन' दुरितोपशमसाधुना 'सश्रीकेण' सम्यक्पालनात्सशोभेन 'उदग्रेण ' उन्नतपर्यवसानेन उत्तरोत्तरं वृद्धिमतेत्यर्थः 'उदात्तेन' उन्नतभाववता 'उत्तमेणं' ति ऊर्ध्वं तमसः - अज्ञानाद्यत्तत्तथा तेन् ज्ञानयुक्तेनेत्यर्थः उत्तमपुरुषासेवितत्वाद् वोत्तमेन 'उदारेण' औदार्यवता निःस्पृहत्वातिरेकात् 'महानुभागेन' महाप्रभावेण । ततः तस्य स्कन्दकस्य अनगारस्य अन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापरात्रकालसमये धर्मजागरिकां जाग्रतः अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपादि एवं खलु अहम् अनेन एतद्रूपेण 'ओरालेणं' विपुलेन प्रत्तेन प्रगृहीतेन कल्याणेन शिवेन धन्येन मांगल्येन सश्रीकेण उदग्रेण उदात्तेन उत्तमेन उदारेण महानुभागेन तपःकर्मणा शुष्कः रूक्षः निर्मासः अस्थि-चर्मावनद्धः किटिकिटिकाभूतः कृशः धमनिसन्ततः जातः । जीवंजीवेन गच्छामि, जीवंजीवेन तिष्ठामि, भाषां भाषित्वापि ग्लायामि, भाषां भाषमाणः ग्लायामि, भाषां भाषिष्ये इति ग्लायामि । ६५. उस काल और उस समय राजगृह नगर में श्रमण भगवान् महावीर का समवसरण था यावत् परिषद् चली गई । ६६. किसी एक समय मध्यरात्रि में धर्म- जागरिका करते हुए उस स्कन्दक अनगार के मन में आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ— मैं इस विशिष्टरूप वाले प्रधान, विपुल, अनुज्ञात, प्रगृहीत, कल्याण, शिव, धन्य, मंगलमय, श्रीसम्पन्न, उत्तरोत्तर वर्धमान, उदात्त, उत्तम, उदार और महानप्रभावी तपःकर्म से सूखा, रूखा, मांस-रहित, चर्म से वेष्टित अस्थिवाला, उठते-बैठते समय किट-किट शब्द से युक्त, कृश और धमनियों का जाल-मात्र हो गया हूं। मैं प्राणबल से चलता हूं और प्राणबल से ठहरता हूं। मैं वचन बोलने के पश्चाद् भी ग्लान होता हूं और वचन बोलता हुआ भी ग्लान होता हूं । वचन बोलूंगा यह चिन्तन करता हुआ भी ग्लान होता हूं। ३. वही, २१६४ – अस्थीनि चर्मावनद्धानि यस्य सोऽस्थिचर्मावनद्धः । ४. वही, २ । ६४ किटिकिटिकानिर्मांसास्थिसम्बन्ध्युपवेशनादिक्रियासमुत्थः शब्दविशेषस्तां भूतः प्राप्तो यः स किटिकिटिकाभूतः । ५. आप्टे कटकटा - An onomatopoetic word supposed to represent the noise of rubbing together. ६. भ. वृ. २ | ६६ ' धमनीसन्ततो' नाडीव्याप्तो मांसक्षयेण दृश्यमाननाडीकत्वात् । ७. वही, २ । ६६-- 'जीवंजीवेणं'ति अनुस्वारस्यागमिकत्वात् 'जीवजीवेन' जीवबलेन गच्छति न शरीरवलेनेत्यर्थः । ८. वही, २ ६६ हुताशन इव भस्मराशिप्रतिच्छन्नः 'तवेणं तेएणं 'ति तपोलक्षणेन तेजसा, अयमभिप्रायः यथा भस्मच्छन्नोऽग्निर्वहिर्वृत्या तेजोरहितो ऽन्तर्वृत्त्या तु ज्वलति । एवं स्कन्दकोऽपि अपचितमांसशोणितत्वाद्वहिर्निस्तेजा अन्तस्तु शुभध्यानतपसा ज्वलतीति । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २४५ श.२: उ.१: सू.६६ से जहानामए कटूठसगडिया इवा, पत्तस- अथ यथानामकं काष्ठशकटिका इति वा, जैसे कोई इंधन से भरी हुई गाड़ी, पत्तों से भरी गडिया इ वा, पत्त-तिल-भंडगसगडिया इ पत्रशकटिका इति वा, पत्र-तिल-भाण्डक- हुई गाड़ी, पत्र-सहित तिलों और मिट्टी के बर्तनों वा, एरंडकट्ठसगडिया इ वा, इंगालस- शकटिका इति वा, एरण्डकाष्टशकटिका इति से भरी हुई गाड़ी, एरंड की लकड़ियों से भरी हुई वा, अंगारशकटिका इति वा, उष्णे दत्ता गाड़ी तथा कोयलों से भरी हुई गाड़ी ताप लगने ससई गच्छइ, ससदं चिटइ, एवामेव अहं पि शुष्का सती सशब्दं गच्छति, सशब्दं तिष्ठति, से सूखी हुई सशब्द चलती है और सशब्द ठहरती ससदं गच्छामि, ससई चिट्ठामि। एवमेव अहमपि सशब्दं गच्छामि, सशब्द है, इसी प्रकार मैं भी सशब्द (किट-किट की तिष्ठामि । ध्वनि-सहित) चलता हूं और सशब्द ठहरता हूं। तं अत्यि ता मे उहाणे कम्मे बले वीरिए तद् अस्ति तावन् मे उत्थानं कर्म बलं वीर्यं ।। इस समय मुझ में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरिसक्कार-परकमे तं जावता मे अस्थि पुरुषकार-पराक्रमः तद् यावन् मे अस्ति पुरुषकार-पराक्रम है; अतः जब तक मुझ में उहाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कार-परक्कमे उत्थानं कर्म बलं वीर्यं पुरुषकार-पराक्रमःउत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम जाव य मे धम्मायरिए धम्मोवदेसए समणे यावच्च मे धर्माचार्यः धर्मोपदेशकः श्रमणः है और जब तक मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक, जिन, भगवं महावीरे जिणे सुहत्थी विहरइ, तावता भगवान् महावीरः जिनः सुहस्ती विहरति, सुहस्ती', श्रमण भगवान् महावीर विहार कर रहे मे सेयं कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए, तावन् मे श्रेयः कल्यं प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां, हैं, तब तक मेरे लिए यह श्रेय है कि मैं कल फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलियम्मि अहपंडुरे ____फुल्लोत्पलकमलकोमलोन्मीलिते यथापाण्डुरे उषाकाल में पौ फटने पर प्रफुल्लित उत्पल और पभाए रत्तासोयप्पकासे, किंसुय-सुयमुह- प्रभाते रक्ताशोकप्रकाशे किंशुक-शुकमुख- अर्ध विकसित कमल वाले तथा पीत आभा गुंजद्धरागसरिसे, कमलागरसंडबोहए, उहि- गुजार्द्धरागसदृशे, कमलाकरषण्डबोधके, वाले प्रभात में लाल अशोक की दीप्ति, पलाश, यम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा उत्थिते सूरे सहस्ररश्मी दिनकरे तेजसा तोते के मुख और गुजार्ध के समान रंग वाले, जलते समणं भगवं महावीरं वंदित्ता ज्वलति श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दित्वा ___ जलाशय गत नलिनी वन के उद्बोधक सहस्ररश्मि नमंसित्ता णचासन्ने णातिदूरे सुस्सूसमाणे नमस्थित्वा नात्यासन्नः नातिदूरः सुश्रूषमाणः दिनकर सूर्य के उदित और तेज से देदीप्यमान अभिमुहे विणएणं पंजलियडे पजुवासित्ता अभिमुखः विनयेन कृतप्राञ्जलिः पर्युपास्य । होने पर श्रमण भगवान् महावीर को समणेणं भगवया महावीरेणं अब्मणुण्णाए श्रमणेन भगवता महावीरेण अभ्यनुज्ञातः सन् वंदन-नमस्कार कर, न अति निकट न अति दूर समाणे सयमेव पंच महब्बयाणि आरोवेत्ता, स्वयमेव पंच महाव्रतानि आरोप्य, श्रमणाश्च सुश्रूषा और नमस्कार की मुद्रा में उनके सम्मुख समणा य समणीओ य खामेत्ता तहारूवेहिं __ श्रमणीश्च क्षमयित्वा तथारूपैः स्थविरैः कृत- सविनय बद्धाञ्जलि होकर पर्युपासना करूं, श्रमण थेरेहिं कडाईहिं सद्धिं विपुलं पव्वयं सणियं- योग्यैः सार्धं विपुलं पर्वतं शनैः-शनैः आरुह्य भगवान् महावीर की अनुज्ञा प्राप्त होने पर मैं स्वयं सणियं दुरुहित्ता मेहघणसंनिगासं देव- मेघघनसन्निकाशं देवसन्निपातं पृथिवीशिला- ही पांच महाव्रतों की आरोपणा करूं, श्रमणसन्निवातं पुढवीसिलापट्टयं पडिलेहित्ता, पट्टकं प्रतिलेख्य, दर्भसंस्तारकं संस्तुत्य दर्भ- -श्रमणियों से क्षमायाचना करूं, तथारूप कृतयोग्य दभसंथारगं संथरित्ता दब्मसंथारोवगयस्स संस्तारोपगतस्य संलेखनाजोषणाजुष्टस्य प्रत्या- स्थविरों के साथ धीमे-धीमे विपुल पर्वत पर चढ़ संलेहणाझूसणाझूसियस्स भत्तपाणपडियाइ- ख्यातभक्तपानस्य प्रायोपगतस्य कालमनव- सघन मेघ के समान श्याम वर्ण वाले देवों के क्खियस्स पाओवगयस्स कालं अणवकंख- कांक्षमाणस्य विहर्तम इति कत्वा एवं संप्रेक्षते, ____समागम-स्थल पृथ्वीशिलापट्ट का प्रतिलेखन करूं, माणस विहरित्तए ति कटु एवं संपेहेइ, संप्रेक्ष्य कल्ये प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां यावद् (उस पर) डाभ का बिछौना बिछाऊं, उस डाभ संपेहेत्ता कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उत्थिते सूरे सहस्ररश्मौ दिनकरे तेजसा के बिछौने पर बैठ संलेखना की आराधना में उद्वियम्मि सरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे शिशि शियो ज्वलति यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीरः तत्रैव जलनि यौव श्रमणः भगवान महावीरः तत्रैव लीन हो. भक्तपान का प्रत्याख्यान कर तेयसा जलंते जेणेव समणे भगवं महावीरे उपागच्छति, उपागम्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं प्रायोपगमन अनशन की अवस्था में मृत्यु की तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं त्रिः आदक्षिण-प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वन्दते आकांक्षा नहीं करता हुआ रहूं-ऐसी संप्रेक्षा महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा नात्यासन्नः करता है, संप्रेक्षा कर दूसरे दिन उषाकाल में पौ करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, बंदित्ता नम- नातिदूरः शुश्रूषमाणः नमस्यन् अभिमुखः फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर सूर्य के उदित सित्ता णचासत्रे णातिदूरे सुस्सूसमाणे णमं- विनयेन कृतप्राञ्जलिः पर्युपास्ते । और तेज से देदीप्यमान होने पर जहां श्रमण भगसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलियडे वान महावीर हैं वहां आता है, आकर श्रमण भगपञ्जुवासइ॥ वान् महावीर को दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा करता है, वन्दन-नमस्कार करता है, वन्दन-नमस्कार कर न अति निकट न अति दूर सुश्रुषा और नमस्कार की मुद्रा में उनके सम्मुख सविनय बद्धाञ्जलि होकर पर्युपासना करता है। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.२: उ.१: सू.६६ २४६ भगवई भाष्य १. मध्यरात्रि में 'प्रस्तुत वाक्य में दो पद हैं—'पूर्वरात्र' और 'अपरात्र', का अर्थ होता है धर्मचिन्ता। धर्मध्यान का अनुस्मरण करना-इसके पूर्वरात्र-रात्रि का पूर्व भाग-यह वृत्तिकार का अभिमत है। रात्रि आधार पर धर्मजागरिका का अर्थ होता है धर्मध्यान का अभ्यास । के पश्चिम भाग के अर्थ में 'अपररात्र' शब्द का प्रयोग मिलता है। नींद से जागना-इसके आधार पर धर्मजागरिका का अर्थ होता है संस्कृत शब्दकोश में भी 'अपररात्र' शब्द इस अर्थ में उपलब्ध -नींद को त्याग कर धर्म के विषय में अनुचिन्तन करना । है। 'अपरात्र' शब्द विरात्र के अर्थ में मिलता है।' शब्दकोश के ३. सुहस्ती आधार पर पूर्वरात्र का कालमान सूर्यास्त से मध्यरात्रि तक तथा तीर्थंकर का एक विशेषण 'पुरुषवरगन्धहस्ती' मिलता है।' अपररात्र का कालमान रात्रि का अंतिम प्रहर है।' वृत्तिकार ने इसका मुख्य अर्थ 'शुभार्थी' किया है। किन्तु 'सुहस्ती' वृत्तिकार ने अवरत्त को अपररात्र का ही प्राकृत रूप माना अधिक प्रासंगिक लगता है। है। उनके अनुसार रेफ का लोप होने पर अवरत्त पद की सिद्धि हो ४. उषाकाल में पौ फटने पर जाती है। _इस वाक्य में रात्रि के उषाकाल की सूचना दी गई है। अनुजयाचार्य के अनुसार पुब्बरतावरत-इन दोनों पदों से योगद्वारचूर्णि में इस समय को अरुणोदय से लेकर सूर्योदय के पहले 'मध्यरात्रि' का अर्थ फलित होता है। 'पूर्वरात्रि का अंतिम भाग' ___ तक का बतलाया गया है। और 'पश्चिमरात्रि का पूर्वभाग'-यह अर्धरात्रि का समय है। ५. प्रफुल्लित उत्पल और अर्धविकसित कमल वाले पुवरत्तावरत्त वाक्य के द्वारा इसी समय का संकेत दिया गया है।' इस वाक्य में आए हुए'कमल' शब्द का अर्थ वृत्ति में 'हरिण' अनुयोगद्वारचूर्णि से चिन्तन का समय रात्रि का दूसरा प्रहर किया गया है और कोमल का अर्थ 'अकठोर'। यहां कमल का फलित होता है। इससे मध्यरात्रि के अर्थ की पुष्टि होती है। दिगम्बर हरिण अर्थ स्वाभाविक नहीं है। इसका सहज अर्थ 'जलज' ही होना परम्परा के अनुसार 'सूर्यास्त से दो घड़ी पश्चात् से लेकर अर्धरात्रि चाहिए। कमल सूर्यविकासी होता है; इसलिए वह प्रसंगानुसारी भी के दो घड़ी पूर्व तक' पूर्वरात्रिक स्वाध्याय का समय है। 'अर्धरात्रि है। अनुयोगद्वारचूर्णि में उत्पल और कमल दोनों एक साथ उल्लिखित के दो घड़ी पश्चात् से सूर्योदय के दो घड़ी पूर्व तक' वैरात्रिक हैं और 'कोमल' शब्द अपूर्ण के अर्थ में व्याख्यात है।" सूत्रकार स्वाध्याय का समय है। इन दोनों के बीच 'अर्धरात्रि के दो घड़ी ने भी कोमल का प्रयोग उन्मीलित के विशेषण के रूप में किया है। पूर्व से अर्धरात्रि के दो घड़ी पश्चात् तक' चार घड़ी का समय निद्रा 'कोमल उन्मीलित' अर्थात् अर्धविकसित । का है। इस समय का उपयोग धर्मजागरिका के लिए भी किया जाता ६. पीत आभावाले था।" 'पूर्वरात्र अपरात्र'—इस वाक्य की दो अर्थ-परम्पराएं प्राप्त पाण्डुर शब्द के अनेक अर्थ हैं। सफेद-सा, सफेद-पीला । अनुयोगद्वारचूर्णि में इसका अर्थ 'प्रभाखचित जैसा' किया गया है।" १. रात्रि का प्रथम भाग और पश्चिम भाग। ७. पांच महाव्रतों की आरोपणा करूं २. मध्यरात्रि। इस वाक्य में विहरितए तक के पाठ से अनशन की विधि फलित होती है। उसके चार अंग हैं२. धर्मजागरिका १. महाव्रत की आरोपणा—आरोपणा का अर्थ है प्रायजागरिका का अर्थ है-चिन्तन, अनुस्मरण और नींद से श्चित्त महाव्रतों का पुनरुच्चारण और उनमें जाने-अनजाने हई भलों जागना। धर्म का चिन्तन करना-इसके आधार पर धर्मजागरिका का प्रायश्चित्त । १. आप्रे.-विरार--The end of night (बहुरात्र, अपरात्र) ५. अणगारधर्मामृत,६।१-१३। २. वही,--पूर्वरात्र-The first part of the night from dark to ६. आवस्सयं,६।११। midnight. ७. भ.व.२।६६–'सुहत्थि'त्ति शुभार्थी भव्यान् प्रति सुहस्ती वा पुरुषअपररात्र-The last watch of night (पाणिनी अष्टाध्यायी ५।४।८७) वरगन्धहस्ती। ३. भ.जो. ११३८३३का नीचे का वार्तिक—पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि-इहां . वही,२।६६ प्रादुः-प्राकाश्ये ततः प्रकाशप्रभातायां रजन्यां। इण पाठ ऊपर टीकाकार नो विवेचन मननीय है--रात्रि नो पूर्वभाग ते पूर्वरात्र ६. अनु.चू.पृ.११—पादुरिति प्रकासीकृतं, केन ? प्रभया, किं प्रकासितं ? रयकहियै। वलि अपररात्र ते अपकृष्ट रात्रि, रात्रि नु पश्चिम भाग । पूर्वरात्रि अनै णीए सेसं, किमुक्तं भवति? अरुणोदयादारभ्य यावन्नोदयति आदित्य इत्यर्थः पश्चिम रात्रि ए बिहुं लक्षण जो काल रूप समय तेहनै कहियै पुब्ब- तंसि पभाते, पभातोवलक्खणं च इमं। रत्तावरत्तकालसमय । एतलै मध्यरात्रि नै विषे- पूर्व रात्रि नुं छेहलु भाग अनैं १०. भ.वृ.२।६६-फुल्लं विकसितं तच्च तदुत्पलं च फुल्लोत्पलं तच्च कमलपश्चिम रात्रि नुं पहिलं भाग ए बिहु भाग रात्रि ना ते वेला अर्द्धरात्रि हुई, ते श्च हरिणविशेषः फुल्लोत्पलकमलौ तयोः कोमलम् अकठोरमुन्मीलितंअर्धरात्रि नै विषे। दलानां नयनयोश्चोन्मीलनं यस्मिंस्तत्तथा तस्मिन् । अथवा पूर्वरात्रि अपररात्रि काल समय इहां रेफरा लोप थकी पुव्व- ११. अनु.चू.पृ.११-फुल्ला उप्पला कमला य कोमला उम्मिल्लिया-अद्धविरत्तावरत्तकालसमयंसि इम पाठ हुई। कसिता य सोभना। ४. अनु.चू.पृ.११ –कल्लमिति श्वः प्रगे वा तच्च कल्यमतिक्रान्तमनागतं वा, १२. वही,पृ.११-प्रभाखचितेव्व उदिते सूरे भवति । एतच कल्यग्रहणं पण्णवर्ग पडुच्च जओ पण्णवगो बितिय जामे पण्णवेति । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २. खामणा-जिन साधु-साध्वियों के साथ जीवन बिताया, उनके प्रति कोई कटु व्यवहार हुआ हो अथवा मन में उच्चावच भाव आया हो, उसके लिए क्षमायाचना करना । ३. अनशन की विधि सम्पन्न कराने वाले स्थविरों के साथ अनशन - भूमि पर पहुंच जाना । ४. अनशन - भूमि के उपयुक्त स्थल पर बिछौना कर अनशन को स्वीकार करना । २४७ ६८ वें सूत्र में यह भी प्राप्त है कि अनशन करते समय मुनि का मुंह पूर्व दिशा की ओर तथा अञ्जलि मस्तक का स्पर्श करती हुई होनी चाहिए। विशेष जानकारी के लिए आयारो, ८।१०५ से आगे पूरा अध्ययन द्रष्टव्य है । ८. कृतयोग्य जो स्थविर अनशन की विधि सम्पन्न कराने में कुशल होते, वे 'कृतयोग्य' कहलाते थे। योग्या का अर्थ है अभ्यास । चरक में 'कृतयोग्य' वैद्य का एक विशेषण है।' ६७. खंदाइ ! समणे भगवं महावीरे खंदयं अणगारं एवं वयासी से नूणं तव खंदया! पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुपखित्थाएवं खलु अहं इमेणं एयारूवेणं तवेणं ओरालेणं विउलेणं तं चैव जाव कालं अणवखमाणस्स विहरित्तए त्ति कट्टु एवं संपेहेसि, संपेहेत्ता कल्लं पाउप्पभाषाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते जेणेव ममं अंतिए तेणेव हव्वमागए । से नूणं खंदया ! अट्टे समट्टे ? हंता अत्थि । अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं ।। ३. श. २: उ.१: सू. ६६-६८ वृत्तिकार के अनुसार कडाई शब्द कृतयोग्य का संक्षिप्त रूप है । इसका वैकल्पिक रूप कृतयोगिन् भी दिया गया है । ' ६८. तए णं से खंदए अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे चित्तमादिए दिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए उट्ठाए उट्ठेइ, उट्ठेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो याहिण -पयाहिणं करेइ, करेत्ता चंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता सयमेव पंच महव्वयाइं आरुहेइ, आरुहेत्ता समणा य समणीओ यखामेइ, खामेत्ता तहारूवेहिं थे१. चरक, चिकित्सास्थान, ८ – योग्या कर्माभ्यासः । २. भ. बृ. २ | ६६ – 'कडाईहिं 'ति इह पदैकदेशात्पदसमुदायो दृश्यस्ततः कृतयोग्यादिभिरिति स्यात्, तत्र कृता योगाः - प्रत्युपेक्षणादिव्यापारा येषां सन्ति ते कृतयोगिनः । नि.भा.चू.उ.१०,गा.२६६६-३००१, भा. ३, पृ. ६६ – 'श्रुतार्थप्रत्युच्चारणा निशीवचूर्णि में 'कृतयोगी' का अर्थ 'श्रुत और अर्थ के प्रत्युच्चारण में असमर्थ मुनि' किया गया है।' व्यवहारभाष्य की वृत्ति में 'कृतयोगी' के दो अर्थ प्राप्त हैं जो पहले श्रुत और अर्थ का धारण करने वाला होता है, वर्तमान में नहीं होता, वह कृतयोगी होता है। इसका दूसरा अर्थ - 'सूत्र और अर्थ की दृष्टि से छेद -ग्रन्थों को धारण करने वाला स्थविर' किया गया है। ६. संलेखना की आराधना में लीन संलेखना का अर्थ है— कषाय और आहार का अल्पीकरण । संलेखना की विस्तृत जानकारी के लिए उत्तरज्झयणाणि ३६ । २५१-२५५ तथा आचारांगभाष्य, अध्ययन ८, गाथा ३ द्रष्टव्य है । १०. प्रायोपगमन अनशन की अवस्था में 'प्रायोपगमन' अनशन का एक प्रकार है। देखें, भ.२ ।४६ का भाष्य । स्कन्दक ! अयि ! श्रमणः भगवान् महावीरः स्कन्दकम् अनगारम् एवमवादीत् तत् नूनं तब स्कन्दक ! पूर्वरात्रापरात्रकालसमये धर्मजागरिकां जाग्रतः अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपादि — एवं खलु अहम् अनेन एतद्रूपेण तपसा 'ओरालेणं' विपुलेन तच्चैव यावत् कालम् अनवकांक्षमाणस्य विहर्तुम् इति कृत्वा एवं संप्रेक्षसे, संप्रेक्ष्य कल्ये प्रादुप्रभातायां रजन्यां यावद् उत्थिते सूरे सहस्ररश्मी दिनकरे तेजसा ज्वलति यत्रैव ममान्तिकः तत्रैव 'हव्वं' आगतः । सः नूनं स्कन्दक ! अर्थः समर्थः ? हन्त अस्ति । यथासुखं देवानुप्रिय ! मा प्रतिबन्धम् । ततः सः स्कन्दकः अनगारः श्रमणेन भगवता महावीरेण अभ्यनुज्ञातः सन् हृष्टतुष्टचित्तः आनन्दितः नन्दितः प्रीतिमनाः परमसौमनस्थितः हर्षवशविसर्पद्ह्रदयः उत्थया उत्तिष्ठति, उत्थाय श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिः आदक्षिण- प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा स्वयमेव पंचमहाव्रतानि आरोहति, आरुह्य श्रमणान् च श्रमणीः च क्षमयति, क्षमयित्वा तथारूपैः स्थ ६७. स्कन्दक ! इस सम्बोधन से संबोधित कर श्रमण भगवान् महावीर ने स्कन्दक अनगार से इस प्रकार कहा— स्कन्दक ! मध्यरात्रि में धर्म- जागरिका करते हुए तुम्हारे मन में यह इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ— मैं इस विशिष्ट रूपवाले प्रधान, विपुल तप से कृश हो गया हूँ यावत् मृत्यु की आकांक्षा नहीं करता हुआ रहूं-ऐसी संप्रेक्षा करते हो, संप्रेक्षा कर दूसरे दिन उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर सूर्य के उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर तुम जहां मैं हूँ, वहां मेरे पास आए हो । स्कन्दक ! क्या यह अर्थ संगत है ?" हां, यह संगत है। देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख हो, प्रतिबंध मत करो । ६८. 'वह स्कन्दक अनगार श्रमण भगवान् महावीर की अनुज्ञा प्राप्तकर हृष्ट-तुष्ट चित्त वाला, आनन्दित, नन्दित, प्रीतिपूर्ण मनवाला, परम सौमनस्ययुक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाला हो गया। वह उठने की मुद्रा में उठता है, उठकर श्रमण भगवान् महावीर को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा करता है, वन्दन - नमस्कर करता है, वन्दन - नमस्कार कर वह स्वयं ही पांच महाव्रतों की आरोहणा करता है, आरोहणा कर समर्थः कृतयोगी' । ४. व्य.भा.उ.५,वृ.प. ६—कृतयोगी नाम यः पूर्वमुभयधर आसीत, नेदानीम् । ५. वही, उ. ५, वृ. प. १६ - यः कृतयोगी सूत्रतोऽर्थतश्चच्छेदग्रन्थधरः स्थविरः । ६. भ. वृ. २ । ६६ संलिख्यते— कृशीक्रियतेऽनयेति संलेखना –तपस्तस्या जोषणा सेवा तया जुष्टः सेवितो जूषितो वा क्षपितो यः स तथा तस्य । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. २ः उ.१: सू.६८ रेहिं कडाईहिं सद्धिं विपुलं पव्वयं सणियं-सणियं द्रुहइ, हित्ता मेहघण - सन्निगासं देवसन्निवातं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता उच्चारपासवणभूमिं पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता दब्भसंधारगं संथर, संघरिता पुरत्याभिमु संपलियंकनिसणे करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्यए अंजलि कट्टु एवं वयासी— २४८ विरैः कृतयोग्यैः सार्द्धं विपुलं पर्वतं शनैः-शनैः आरोहति आरुह्य मेघनसन्निकाश देवसन्निपातं पृथिवीशिलापट्टकं प्रतिलिखति, प्रतिलिख्य उच्चारप्रस्त्रवण भूमिं प्रतिलिखति, प्रतिलिख्य दर्भसंस्तारकं संस्तृणाति, संस्तृत्य पौरस्त्याभिमुखः सम्पर्यङ्कनिषण्णः करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावर्त्त मस्तके अञ्जलिं कृत्वा एवमवादीत् नमोत्थु णं अरहंताणं भगवंताणं जाव नमोऽस्तु अर्हद्भ्यः भगवद्भ्यः यावत् सिद्धिसिद्धिगतिनामधेयं ठाणं संपत्ताणं । गतिनामधेयं स्थानं संप्राप्तेभ्यः । नमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव सिद्धिगतिनामधेयं ठाणं संपाविउकामस्स । वंदामि णं भगवंतं तत्थगयं इहगए, पासउ मे भगवं तत्थगए इहगयं ति कट्टु वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासीपुपि मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए सव्वे पाणाइवाए पच्च- क्खाए जावज्जीवाए जाव मिच्छादंसणसल्ले पच्चक्खाए जावज्जीवाए। इयाणिं पि य णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि जावजीवाए जाव मिच्छादंसणसल्लं पच्चक्खामि जावजीवाए । सव्वं असण- पाण- खाइम - साइमं चउव्विपि आहारं पच्चक्खामि जावजीवाए। जंपि य इमं सरीरं इट्ठ कंतं पियं जाव मा णं वाइय-पित्तिय-सेंभिय-सन्निवाइय विविहा रोगायका परीसहोवसग्गा फुसंतु त्ति कट्टु एवं पिणं चरिमेहिं उस्सास - नीसासेहि वोसिरामि त्ति कट्टु संलेहणानूसणानूसिए भत्तपाणपडियाइक्खिए पाओवगए कालं अणवखमाणे विहरइ | नमोऽस्तु श्रमणाय भगवते महावीराय यावत् सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं संप्राप्तुकामाय । मे वन्दे भगवन्तं तत्रगतं इहगतः पश्यतु भगवान् तत्रगतः इहगतं इति कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत् पूर्वमपि मया श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिके सर्वः प्राणातिपातः प्रत्याख्यातः यावज्जीवं यावन् मिथ्यादर्शनशल्यः प्रत्याख्यातः यावज्जीवम् । इदानीमपि च श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिके सर्वं प्राणातिपातं प्रत्याख्यामि यावज्जीवं यावन् मिथ्यादर्शनशल्यं प्रत्याख्यामि यावज्जीवम् । सर्वम् अशन-पानखाद्य-स्वाद्यं चतुर्विधमपि आहारं प्रत्याख्यामि यावज्जीवम् । यदपि च इदं शरीरम् इष्टं कान्तं प्रियं यावन् मा वातिक-पैत्तिक- श्लैष्मिकसान्निपातिकाः विविधाः रोगातङ्काः परीषहो - पसर्गाः स्पृशन्तु इति कृत्वा एतदपि चरमैः उच्छ्वास-निःस्वासैः व्युत्सृजामि इति कृत्वा संलेखनाजोषणाजुष्टः प्रत्याख्यातभक्तपाः प्रायोपगतः कालमनवकांक्षमाणः विहरति । भाष्य १. सूत्र ६८ प्रस्तुत सूत्र में एक स्थान पर पांच महाव्रत की आरोपणा का उल्लेख है और दूसरे स्थान पर 'मैंने श्रमण भगवान् महावीर के पास प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य का प्रत्याख्यान किया थाइसका उल्लेख है। इन दोनों पाठों से एक प्रश्न उपस्थित होता है कि स्कन्दक ने प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य के प्रत्याख्यानपूर्वक भगवई श्रमण- श्रमणियों से क्षमायाचना करता है, क्षमायाचना कर तथारूप कृतयोग्य स्थविरों के साथ धीमे-धीमे विपुल पर्वत पर चढ़ता है, चढ़कर सघन मेघ के समान श्यामवर्ण वाले देवों के समागम-स्थल पृथ्वी शिलापट्ट का प्रतिलेखन करता है, प्रतिलेखन कर उच्चार - प्रश्रवण- भूमि का प्रतिलेखन करता है, प्रतिलेखन कर डाभ का बिछौना बिछाता है, बिछा कर पूर्व दिशा की ओर मुंह कर पर्यंक- आसन में बैठ दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट वाली दसनखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर, मस्तकर पर टिकाकर इस प्रकार बोलता हैनमस्कार हो अर्हत् भगवान् को यावत् जो सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त हो चुके हैं। नमस्कार हो श्रमण भगवान् महावीर को यावत् जो सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त करने के इच्छुक हैं। 'यहां बैठा हुआ मैं वहां विराजित भगवान् को चन्दन करता हूँ । वहां विराजित भगवान् यहां स्थित मुझे देखें' ऐसा सोचकर वह बन्दन - नमस्कार करता है, वन्दन - नमस्कार कर वह इस प्रकार बोलता है— मैंने पहले भी श्रमण भगवान् महावीर के पास जीवनभर के लिए सर्व प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य का प्रत्याख्यान किया था। इस समय भी मैं श्रमण भगवान महावीर के पास जीवन भर के लिए सर्व प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य का प्रत्याख्यान करता हूँ। मैं जीवन भर के लिए सर्व अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य - इस चार प्रकार के आहार का प्रत्याख्यान करता हूँ । यद्यपि मेरा यह शरीर मुझे इष्ट, कान्त, प्रिय यावत् बात, पित्त, श्लेष्म और सन्निपातजनित विविध प्रकार के रोग और आतंक तथा परीषह और उपसर्ग इसका स्पर्श न करें, इसलिए इसको भी मैं अन्तिम उच्छ्वास- निःश्वास तक छोड़ता हूँ। ऐसा कर वह संलेखना की आराधना में लीन होकर भक्तपान का प्रत्याख्यान कर प्रायोपगमन अनशन की अवस्था मृत्यु की आकांक्षा नहीं करता हुआ रह रहा है। दीक्षा का व्रत स्वीकार किया था और अनशन के समय पांच महाव्रतों की आरोपणा की, इसका तात्पर्य क्या है? भगवान् पार्श्व के शासन में केवल सामायिक चारित्र था और भगवान् महावीर के शासन में सामायिक चारित्र तथा छेदोपस्थापनीय चारित्र दोनों थे। दीक्षा सामायिक चारित्र के संकल्प के साथ की Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २४६ श.२ः उ.१: सू.६८,६६ जाती और एक सप्ताह, चार मास अथवा छह मास के पश्चात् दोनों एकार्थक हैं। छेदोपस्थापनीय चारित्र स्वीकृत किया जाता था। सामायिक चारित्र मेघधनसंनिकासकाला। में केवल सर्व सावधयोग का प्रत्याख्यान होता था। भगवान् महावीर ने दीक्षा के समय "सव्वं मे अकरणिलं पावकम्म" इस संकल्प के देवसंनिपात–जहां देव आते हैं।' साथ सामायिक चारित्र स्वीकार किया था।' छेदोपस्थापनीय चारित्र पृथ्वीशिलापट्ट शिला का आसन।' में सावधयोग का प्रत्याख्यान विस्तार के साथ किया जाता था। संपल्यंकासन–पर्यंकासन। वृत्तिकार ने इसका अर्थ पद्मासन विस्तार की दो परम्पराएं प्रस्तुत सूत्र में विद्यमान हैं किया है। आचार्य हेमचन्द्र ने पर्यंकासन और पद्मासन को १. पांच महाव्रतों का स्वीकार । पृथक्-पृथक् माना है। ' द्रष्टव्य भ.२१६२ का भाष्य । २. अठारह प्रकार की सावध प्रवृतियों का प्रत्याख्यान । २. दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट वाली....अंजलि को प्रस्तुत सूत्र में दोनों का उल्लेख हुआ है। इन दोनों में पहले प्रस्तुत पाठ में अंजलि के तीन विशेषण हैं। वृत्तिकार ने कौन-सी परम्परा प्रचलित हुई——यह निश्चयपूर्वक कहना कठिन है। सीमा संभावना की जा सकती है कि पहले अठारह प्रकार की सावध अस्पृष्ट अथवा सिर की और आवर्तन या परिभ्रमण करने वाले। प्रवृतियों के प्रत्याख्यान की परम्परा रही हो और उसके पश्चात् आचार्य मलयगिरी ने अंजलि तथा उसके तीनों विशेषणों की व्याख्या उसका संक्षिप्त रूप पांच महाव्रतों के रूप में हुआ हो। सूत्र-संकलन की है। के काल में दोनों परम्पराओं का एक साथ उल्लेख हुआ है-यह ३. प्राणातिपात यावत मिथ्यादर्शनशल्य संभावना की जा सकती है। द्रष्टव्य, भ.११२७६-२८६ का भाष्य शब्द-विमर्श आरुहेइ-आरोहणा करना। 'आरोहणा' और 'आरोपणा' ६६. तए णं से खंदए अणगारे समणस्स ततः सः स्कन्दकः अनगारः श्रमणस्य भगवतः ६६. वह स्कन्दक अनगार श्रमण भगवान् महावीर के भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं महावीरस्य तथारूपाणां स्थविराणाम् अन्तिके तथारूप स्थविरों के पास सामायिक आदि ग्यारह अंतिए सामाइयमाइयाइं एकारस अंगाई सामायिकादीनि एकादश अङ्गानि अधीय अंगो का अध्ययन कर प्रायः परिपूर्ण बारह वर्ष अहिन्जित्ता, बहुपडिपुण्णाई दुवालसवासाई बहुप्रतिपूर्णानि द्वादशवर्षाणि श्रामण्यपर्यायं के श्रामण्य-पर्याय का पालन कर एक मास की सामण्णपरियागं पाउणित्ता मासियाए प्राप्य मासिक्या संलेखनया आत्मानं जोषित्वा संलेखना से अपने आप (शरीर) को कृश बना, संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, सट्ठिं भत्ताई षष्टिं भक्तानि अनशनेन छित्त्वा आलोचित- अनशन के द्वारा साठ भक्त' (भोजन के समय) अणसणाए छेदेता आलोइय-पडिक्कंते प्रतिक्रान्तः समाधिप्राप्तः आनुपूर्व्या काल- का छेदन कर आलोचना और प्रतिक्रमण कर' समाहिपत्ते आणुपुबीए कालगए ॥ गतः। समाधिपूर्ण दशा में क्रमशः दिवंगत हो गया। भाष्य १. साठ भक्त एक दिन में भोजन के दो भक्त होते हैं। तीस दिन के अनशन आलोचना का अर्थ है-अपनी भूलों का प्रकट उच्चारण या में साठ भक्त त्यक्त हो जाते हैं। निवेदन । प्रतिक्रमण का अर्थ है----अकरणीय को पुनः न करने का २. आलोचना और प्रतिक्रमण कर संकल्प अथवा अतीत की भूलों के लिए मिथ्या दुष्कृत का प्रयोग।" १. आ.चूला,१५/३२-"सव्वं मे अकरणिज्जं पावकम्म" ति कटु सामाइयं चरितं पडिवाइ। २. भ.वृ.२१६६ घनमेघसदृशंसान्द्रजलदसमानं कालकमित्यर्थः । ३. वही,२१६६-'देवसंनिवार्य'ति देवानां संनिपातः--समागमो रमणीयत्वाद् यत्र स तथा त। ४. वही,१६६-पृथ्वीशिलारूपः पट्टकः:-आसनविशेषः पृथिवीशिलापट्टकः काष्ठशिलाऽपि शिला स्यादतस्तद्व्यवच्छेदाय पृथिवीग्रहणं । ५. वही,२१६५–'संपलियंकनिसण्णे'त्ति पद्मासनोपविष्टः । ६. योगशास्त्र,४।१२५,१२६ स्याज्जंघयोरधोभागे पादोपरिकृते सति । पर्यो नाभिगोत्तान-दक्षिणोत्तरपाणिकः ।। जंघाया मध्यभागे तु संश्लेषो यत्र जंघया। पद्मासनमिति प्रोक्तं तदासनविचक्षणैः ।। ७. भ.वृ.२१६८-'सिरसावतंति शिरसाऽप्राप्तम्-अस्पृष्टम्, अथवा शिरसि __ आवर्त आवृत्तिरावर्तनं--परिभ्रमणं यस्यासी सप्तम्यलोपाच्छिरस्यावर्तस्तम् । ८. राज.वृ.पृ.५६-द्वयोर्हस्तयोरन्योऽन्यान्तरित्ताङ्गुलिकयोः सम्पुटरूपतया यदे कत्र मीलनं सा अञ्जलिः ताम् । करतलाभ्यां परिगृहीता-निष्पादिता करतलपरिगृहीता ताम् । दश नखा यस्यां एकैकस्मिन् हस्ते नखपञ्चकसंभवात् दशनखा ताम् तया। आवर्तनमावर्तः शिरस्यावर्तो यस्याः सा शिरस्यविर्ता ---'कण्ठेकालः', "उरसिलोमा' इत्यादिवत् अलुक्समासः--ताम् । ६. भ.व.२।६६-'सढि भत्ताई'ति प्रतिदिनं भोजनद्वयस्य त्यागास्त्रिंशता दिनैः षष्टिर्भक्तानि त्यक्तानि भवन्ति। १०. वही, २।६९-आलोचितं-गुरूणां निवेदितं यदतिचारजातं तत्, प्रति क्रान्तम्-अकरणविषयीकृतं येनासावालोचितप्रतिक्रान्तः अथवाऽऽलोचितश्चासावालोचनादानात् प्रतिक्रान्तश्च मिथ्यादुष्कृतदानादालोचितप्रतिक्रान्तः। Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.२: उ.१: सू.७०,७१ २५० भगवई ७०. तए णं ते थेरा भगवंतो खंदयं अणगारं ततः ते स्थविराः भगवन्तः स्कन्दकम् अनगारं ७०. वे स्थविर भगवान् स्कन्दक अनगार को दिवंगत कालगयं जाणित्ता परिनिव्वाणवत्तियं कालगतं ज्ञात्वा परिनिर्वाणप्रत्ययं कायोत्सर्ग जानकर परिनिर्वाणहेतुक कायोत्सर्ग करते हैं, काउसगं करेंति, करेत्ता पत्त-चीवराणि कुर्वन्ति, कृत्वा पात्र-चीवराणि गृह्णन्ति, कायोत्सर्ग कर उसके पात्र और चीवरों को लेते गेहंति, गेण्हित्ता विपुलाओ पव्वयाओ गृहीत्वा विपुलात् पर्वतात् शनैः-शनैः हैं, लेकर धीमे-धीमे विपुल पर्वत से नीचे उतरते सणिय-सणिय पचोरुहति, पचोरुहित्ता प्रत्यारोहन्ति, प्रत्यारुह्य यत्रैव श्रमणः भगवान हैं, नीचे उतर कर जहां श्रमण भगवान महावीर जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव महावीरः तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागम्य श्रमणं हैं वहां आते हैं, आकर श्रमण भगवान महावीर उवागळंति, उवागच्छित्ता समणं भगवं भगवन्तं महावीरं वन्दन्ते नमस्यन्ति, वन्दित्वा को वन्दन-नमस्कार करते हैं, वन्दन-नमस्कार कर महावार वदात नमसात, पादत्ता नमासत्ता नमस्थित्वा एचमवादिष:-एवं खल देवा- वे इस प्रकार कहते हैं-देवानप्रिय का अन्तवासी एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पियाणं नुप्रियाणां अन्तेवासी स्कन्दकः नाम अनगारः स्कन्दक नाम का अनगार, जो प्रकृति से भद्र और अंतेवासी खंदए नामं अणगारे पगइभद्दए प्रकृतिभद्रकः प्रकृतिउपशान्तः प्रकृतिप्रतनु- प्रकृति से उपशान्त था, जिसकी प्रकृति में क्रोध, पगइउवसंते पगइपयणुकोहमाणमायालोभे क्रोधमानमायालोभः मृदुमार्दवसम्पन्नः आलीनः मान, माया, लोभ प्रतनु (पतले) थे, जो मृदु-मार्दव मिउमद्दवसंपने अल्लीणे विणीए। से णं विनीतः। स देवानुप्रियैः अभ्यनुज्ञातः सन् से सम्पन्न, आत्मलीन और विनीत था, उसने देवाणुप्पिएहिं अब्भणुण्णाए समाणे सयमेव स्वयमेव पंच महाव्रतानि आरुह्य, श्रमणाः च देवानुप्रिय की आज्ञा पाकर स्वयं ही पांच महाव्रतों पंच महब्वयाणि आरुहेत्ता, समणा य समणीओ य खामेत्ता, अम्हेहिं सद्धिं विपुलं श्रमणीः च क्षमयित्वा, अस्माभिः सार्धं विपुलं की आरोहणा की, श्रमण-श्रमणियों से क्षमायाचना पव्वयं सणियं-सणियं द्रहित्ता जाव पर्वतं शनैः-शनैः आरुह्य यावत् मासिक्यां की, हमारे साथ धीरे-धीरे विपुल पर्वत पर चढ़ा मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, सर्डिं संलेखनायाम् आत्मानं जोषित्वा षष्टिं भक्तानि यावत् एक मास की संलेखना से अपने आप को भत्ताइं अणसणाए छेदेता आलोइय अनशनेन छित्त्वा आलोचित-प्रतिक्रान्तः कृश बनाया, अनशन के द्वारा साठ भक्तों का पडिकंते समाहिपत्ते आणुपुबीए कालगए। समाधिप्राप्तः आनुपूर्व्या कालगतः । इमानि च छेदन किया, वह आलोचना और प्रतिक्रमण कर इमे य से आयारभंडए॥ तस्य आचारभाण्डकानि। समाधिपूर्ण दशा में क्रमशः दिवंगत हो गया। ये प्रस्तुत हैं उसके साधु-जीवन के उपकरण। भाष्य १. परिनिर्वाणहेतुक परिनिर्वाण का अर्थ है- मरण। मुनि का परिनिर्वाण होने उल्लेख नहीं है। कप्पो (बृहत्कल्प) में दिवंगत मुनि के शरीर-व्युत्सर्ग पर कायोत्सर्ग करने का विधान है।' की विधि निर्दिष्ट है।' भाष्य में इसकी विस्तृत चर्चा मिलती है।' परिनिर्वाण के समय अन्य मुनियों को हर्ष और शोक दोनों तुलना के लिए देखें, भगवती आराधना, गा.१८७६-२००० । अवस्थाओं से अतीत रहकर उदासीन भाव में रहना चाहिए। २. आचार-भाण्ड प्रस्तुत प्रकरण में कायोत्सर्ग का उल्लेख है, किन्तु स्कन्दक साध्वाचार का उपकरण। मुनि के शव का व्युत्सर्ग किस विधि से किया गया इसका कोई ७१. भंतेति ! भगवं गोयमे समणं भगवं भदन्त ! अयि ! भगवान् गौतमः श्रमणं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा वयासी–एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंते- नमस्थित्वा एवमवादीद्-एवं खलु देवानुवासी खंदए नामं अणगारे कालमासे कालं । प्रियाणाम् अन्तेवासी स्कन्दकः नाम अनगारः किचा कहिं गए ? कहिं उववण्णे ? कालमासे कालं कृत्वा कुत्र गतः ? कुत्र उपपन्नः ? गोयमाइ ! समणे भगवं महावीरे भगवं गौतम ! अयि ! श्रमणः भगवान् महावीरः गोयमं एवं वदासी-एवं खलु गोयमा ! भगवन्तं गौतमम् एवमवादीत्-एवं खलु मम अंतेवासी खंदए नामं अणगारे पगइभ- गौतम ! मम अन्तेवासी स्कन्दकः नाम अनइए पगइउवसंते पगइपयणकोहमाणमाया- गारः प्रकृतिभद्रकः प्रकृतिउपशान्तः प्रकृति- ७१. 'भन्ते !' इस सम्बोधन से संबोधित कर भगवान् गौतम श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करते हैं, वन्दन-नमस्कार कर इस प्रकार कहते हैं-देवानुप्रिय का शिष्य स्कन्दक नाम का अनगार कालमास में काल (मृत्यु) को प्राप्त कर कहां गया है ? कहां उपपन्न हुआ है? गौतम !' इस सम्बोधन से सम्बोधित कर श्रमण भगवान् महावीर भगवान् गौतम से इस प्रकार कहते हैं-'गौतम ! मेरा अन्तेवासी स्कन्दक अनगार, जो प्रकृति से भद्र और प्रकृति से उपशान्त १. भ.व.२१७-'परिणिव्वाणवत्तियंति परिनिर्वाणं--मरणं, तत्र यच्छरीरस्य परिष्ठापनं तदपि परिनिर्वाणमेव तदेव प्रत्ययो-हेतुर्यस्य स परिनिर्वाण- प्रत्ययोऽतस्तम्। २.कप्पो,४।२५। ३.७.क.भा.गा.५४६७५५६५ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.२: उ.१: सू.७१-७३ भगवई २५१ लोभे मिउमद्दवसंपण्णे अल्लीणे विणीए, से प्रतनुक्रोधमानमायालोभः मृदुमार्दवसम्पन्नः णं मए अन्भणुण्णाए समाणे सयमेव पंच आलीनः विनीतः, सः मया अभ्यनुज्ञातः सन् महब्बयाई आरुहेत्ता जाव मासियाए स्वयमेव पंच महाव्रतानि आरुह्य यावन् संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, सद्धिं भत्ताई मासिक्यां संलेखनायाम् आत्मानं जोषित्वा षष्टिं अणसणाए छेदेत्ता आलोइय-पडिक्कते भक्तानि अनशनेन छित्त्वा आलोचित-प्रति- समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा अचुए क्रान्तः समाधिप्राप्तः कालमासे कालं कृत्वा कप्पे देवत्ताए उववण्णे॥ अच्युते कल्पे देवत्वेन उपपन्नः। था, जिसकी प्रकृति में क्रोध-मान-माया-लोभ प्रतनु थे, जो मृदु-मार्दव से सम्पन्न, आत्मलीन और विनीत था, उसने मेरी आज्ञा पाकर स्वयं ही पांच महाव्रतों की आरोहणा की यावत् एक महीने की संलेखना से अपने आप को कृश बनाया, अनशन के द्वारा साठ भक्तों का छेदन किया । वह आलोचना और प्रतिक्रमण कर, समाधिपूर्ण दशा में कालमास में काल को प्राप्त कर अच्युत कल्प में देवरूप में उपपन्न हुआ है। ७२. तत्थ णं अत्येगइयाणं देवाणं बाबीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। तत्थ णं खंदयस्स वि देवस्स बावीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता॥ तत्र अस्त्येककानां देवानां द्वाविंशति ७२. वहां कुछ देवों की स्थिति बाईस सागरोपम की सागरोपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। तत्र स्कन्दक- प्रज्ञप्त है। वहां स्कन्दक देव की स्थिति भी बाईस स्यापि देवस्य द्वाविंशतिं सागरोपमानि स्थितिः सागरोपम है। प्रज्ञप्ता। ७३. से णं भंते ! खंदए देवे ताओ देवलोयाओ सः भदन्त ! स्कन्दकः देवः तस्माद् देवलोकाद् ७३. भन्ते ! वह स्कन्दक देव आयु-क्षय, भव-क्षय आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं आयुःक्षयेण भवक्षयेण स्थितिक्षयेण अनन्तरं और स्थिति-क्षय' के अनन्तर उस देवलोक से अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिति ? कहिं च्यवं च्युत्वा कुत्र गमिष्यति ? कुत्र उप- च्यवन कर कहां जाएगा? कहां उपपन्न होगा? उववजिहिति? पत्स्यते? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति गौतम ! महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति, 'बुज्झिहिति' गौतम ! वह महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध, प्रशान्त, बज्झिहिति मुचिहिति परिणिवाहिति मोक्ष्यति परिनिर्वास्यति सर्वदुःखानाम् अन्तं मुक्त और परिनिर्वृत होगा, सब दुःखों का अन्त सबदुक्खाणं अंतं करेहिति ॥ करिष्यति । करेगा। भाष्य १. आयु-क्षय, भव-क्षय और स्थिति-क्षय ठाणं में आयबन्ध के छह प्रकार बतलाए गए हैं-जाति. गति, स्थिति, अवगाहना, प्रदेश और अनुभाग।' आयुष्य के प्रदेश (परमाणु-स्कन्ध) क्षीण हो जाते हैं, उस अवस्था का नाम आयुक्षय है। ठाणं की भाषा में इसे 'प्रदेश-आयु का क्षय' कहा जा सकता इनका बन्ध होता है और आयुष्य के प्रदेशों की समाप्ति के साथ ये सब समाप्त हो जाते हैं।' २. च्यवन कर वृत्तिकार ने चय शब्द का अर्थ शरीर किया है। उसका वैकल्पिक अर्थ च्यवन किया है। चइत्ता का मूल अर्थ त्याग कर और वैकल्पिक अर्थ 'च्यव कर' किया है।' 'भवक्षय' का अर्थ है किसी एक गति या जाति के अनुबन्ध की समाप्ति। 'भव' शब्द में गति और जाति दोनों का समावेश किया जा सकता है। "स्थिति' का अर्थ है काल-मर्यादा। आयुष्य के बन्ध के साथ १. ठाणं,६।११६। २. भ.वृ.२ १७३---'आउक्खएणं'ति आयुष्ककर्मदलिकनिर्जरणेन, 'भवक्खएणं' ति देवभवनिबन्धनभूतकर्मणां गत्यादीनां निर्जरणेन 'ठितिक्खएणं'ति आयुष्ककर्मणः स्थितेर्वेदनेन । ३. वही, २/७३--'चयन्ति शरीरं 'चइत्त'त्ति त्यक्त्वा , अथवा 'चयं' ति व्यवं –च्यवनं 'चइत्त'त्ति च्युत्वा कृत्वा । Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल समुग्धाय-पदं ७४. कइ णं भंते! समुग्धाया पण्णत्ता ? गोयमा ! सत्त समुग्धाया पण्णत्ता, तं जहा - १. वेदणासमुग्धाए २. कसायसमुग्धाए ३. मारणंतियसमुग्धाए ४. वेउव्वियसमुग्धाए ५. तेजससमुग्धाए ६. आहारगसमुग्धाए ७. केवलियसमुग्धाए । छाउमत्थियसमुग्धायवज्जं समुग्धायपदं नेयब्वं । बीओ उद्देसो : दूसरा उद्देशक संस्कृत छाया समुद्घात-पदम् कति भदन्त ! समुद्घाताः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! सप्त समुद्घाताः प्रज्ञप्ताः, तद् यथावेदनासमुद्घातः, कषायसमुद्घातः, मारणान्तिकसमुद्घातः, वैक्रियसमुद्घातः, तैजससमुद्घातः, आहारकसमुद्घातः, कैवलिकसमुद्घातः । छाद्मस्थिकसमुद्घातवर्ज्यं समुद्धातपदं नेतव्यम् । १. सूत्र ७४ जीव विशेष परिस्थिति में अपने प्रदेशों का शरीर से बाहर प्रक्षेपण करता है, उस क्रिया का नाम समुद्घात है। १. भ. ६ । १२२ । भाष्य वेदना समुद्घात — जीव जब वेदना के अनुभव में परिणत होकर उस (वेदना के अनुभव ) के साथ एकीभाव स्थापित कर लेता है, उस समय वह भविष्य में अनुभव-योग्य वेदनीय कर्म-प्रदेशों की उदीरणा कर उन्हें उदय में ले आता है । उदित पुद्गलों का अनुभव कर उनका निर्जरण कर देता है । वेदना समुद्घात में परिणत जीव वेदनीय कर्म पुद्गलों का परिशाटन अथवा निर्जरण करता है। कषाय समुद्घात—जीव क्रोध, मान, माया और लोभ में परिणत होकर शरीर से बाहर आत्म-प्रदेशों को फैलाता है, शरीर के पोले भाग को भरता है, फिर उनका शरीर से बाहर प्रक्षेपण करता है । इस क्रिया में वह कषाय के पुद्गलों का परिशाटन अथवा निर्जरण करता है। मारणान्तिक समुयात—जीव का आयुष्य अन्तर्मुहूर्त्त शेष रहता है, तब वह मारणान्तिक समुद्घात करता है। सब जीव मारणान्तिक समुद्घात के द्वारा नहीं मरते। जिनका अन्तिम समय अत्यन्त कष्टमय होता है, वे ही जीव मारणान्तिक समुद्घात करते हैं। यह समुद्घात मरण के अन्त में होता है, इसलिए इसका नाम मारणान्तिक है। इस समुद्घात का प्रयोग करने वाला अपने आत्म-प्रदेशों को चौड़ाई में शरीर - प्रमाण तथा लम्बाई में जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग-प्रमाण, उत्कर्षतः असंख्य-योजन - प्रमाण क्षेत्र तक एक ही दिशा में अगले जन्म में उत्पन्न होने के स्थान तक फैला देता है। हिन्दी अनुवाद समुद्घात पद ७४. 'भन्ते ! समुद्घात कितने प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! समुद्घात सात प्रज्ञप्त हैं, जैसे—वेदना समुद्घात, कषाय समुद्घात, मारणान्तिक समुद्घात, वैक्रिय समुद्घात, तैजस समुद्घात, आहारक समुद्घात और केवली समुद्घात । छाद्मस्थिक समुद्घात को छोड़कर पण्णवणा का समुद्घात - पद (३६) ज्ञातव्य है । मारणान्तिक समुद्घात कोई जीव एक बार करता है। वह अपने उत्पत्ति-स्थान में जाकर वहीं उत्पन्न हो जाता है। कोई जीव उसका प्रयोग दो बार करता है। वह मारणान्तिक समुद्घात के द्वारा अपने अग्रिम जन्म के उत्पत्ति-स्थान तक पहुंचकर लौट आता है। पूर्व स्थिति में आकर फिर मारणान्तिक समुद्घात का प्रयोग कर मरता मारणान्तिक समुद्घात करने वाला आयुष्य कर्म के पुद्गलों का परिशाटन अथवा निर्जरण करता है। वैक्रिय समुद्घात —— इस समुद्घात का प्रयोग विक्रिया - विविध प्रकार के रूपों का निर्माण करने के लिए किया जाता है। वैक्रिय समुद्घात का प्रयोग करने वाला वैक्रिय शरीर नाम कर्म के पुद्गलों का परिशाटन अथवा निर्जरण करता है। भट्ट अकलंक ने विक्रिया के दो प्रकारों का निर्देश किया है— एकत्व-विक्रिया और पृथक्त्वविक्रिया । एकत्व - विक्रिया- अपने शरीर का सिंह आदि के रूप में परिवर्तन करना । उदाहरण के रूप में स्थूलभद्र को प्रस्तुत किया जा सकता है। स्थूलभद्र की बहनें अपने मुनि- भाई का दर्शन करना चाहती थी। उन्होंने श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी से पूछा—- हमारे भाई कहा हैं ? भद्रबाहु ने कहां - - गुफा में ध्यान कर रहा है। वे गुफा की ओर गई, स्थूलभद्र ने अपनी बहनों के आने की बात जान ली, सिंह का रूप बनाकर बैठ गए। बहनों ने गुफा में सिंह को देखा और वे मुड़कर वापस भद्रबाहु के पास आ गई। भद्रबाहु के संकेता Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २५३ श.२ः उ.२ः सू.७४ नुसार दूसरी बार गई, तो गुफा में स्थूलभद्र बैठे थे। पृथक्त्व-विक्रिया-अपने शरीर से भिन्न प्रासाद, मण्डप आदि का निर्माण करना।' विशेष विवरण के लिए देखें, भगवती, ३१४ का भाष्य। तैजस समयात तेजोलब्धि-सम्पन्न पुरुष अपने आत्म-प्रदेशों का शरीर से बाहर प्रक्षेपण करता है। वे चौड़ाई और मोटाई में शरीर-प्रमाण होते हैं तथा लम्बाई में संख्यात योजन प्रमाण दण्ड का निर्माण करते हैं। प्रयोक्ता पुरुष तैजस शरीर नाम कर्म के पुद्गलों का परिशाटन और तद्योग्य अन्य पुद्गलों का ग्रहण कर तेजोलेश्या का प्रयोग करता है। इसका उद्देश्य होता है-अनुग्रह और निग्रह करना। अनुग्रह के लिए शीतल तेजोलेश्या और निग्रह के लिए उष्ण तेजोलेश्या का प्रयोग किया जाता है। आधुनिक विज्ञान परमाणु-शक्ति का उपयोग निर्माण और ध्वंस दोनों के लिए कर रहा है, वैसे ही तेजोलब्धि भी निर्माण और ध्वंस दोनों के लिए प्रयुक्त की जाती थी। तैजस समुद्घात का प्रयोग करने वाला तैजस शरीर नाम कर्म का परिशाटन अथवा निर्जरण करता है। आहारक समुद्घात आहारक लब्धि से सम्पन्न मुनि आहारक शरीर का निर्माण करने के लिए अपने आत्म-प्रदेशों का बाहर प्रक्षेपण करता है। वे चौड़ाई और मोटाई में शरीर-प्रमाण होते हैं तथा लम्बाई में संख्यात योजन प्रमाण दण्ड का निर्माण करते हैं। प्रयोग करने वाला पूर्वबद्ध आहारक शरीर नाम कर्म के पुद्गलों का परिशाटन और तद्योग्य अन्य पुद्गलों का ग्रहण कर आहारक शरीर का निर्माण करता है। सिद्धसेन गणी के अनुसार उस शरीर का जघन्य प्रमाण एक रलि-बंधी मुट्ठी वाले हाथ जितना और उत्कृष्ट प्रमाण पूरे हाथ जितना।" आहारक शरीर के निर्माण का प्रयोजन ___ तत्त्वार्थ भाष्य के अनुसार इसका प्रयोजन है-सन्देहनिवारण। आहारक लब्धि-सम्पन्न चतुर्दश पूर्वधर मुनि किसी अत्यन्त गहन विषय में संदिग्ध हो जाता है, तब सन्देह-निवारण के लिए वह आहारक शरीर का निर्माण कर उसे केवली के पास संप्रेषित करता है। वह अपने सन्देह का समाधान पाकर फिर अपने मूल शरीर में आ तदवस्थ हो जाता है।" सिद्धसेन गणी ने चतुर्दशपूर्वी की दो श्रेणियों का उल्लेख किया है-भिन्नाक्षर और अभिन्नाक्षर। जिसे प्रत्येक अक्षर के श्रुतगम्य पर्यायों का भित्र अथवा परिस्फुट ज्ञान होता है, वह 'भिन्नाक्षर चतुर्दशपूर्वी' कहलाता है। वहीं श्रुतकेवली कहलाता है। उसके मन में श्रुतज्ञान-विषयक कोई संशय नहीं होता, इसलिए वह आहारक समुद्घात का प्रयोग नहीं करता। अभिन्नाक्षर चतुर्दशपूर्वी को अक्षर-पर्यायों का परिस्फुट ज्ञान नहीं होता; इसलिए वह श्रुत-विषयक अर्थ का सन्देह उत्पन्न होने पर यदि आहारक लब्धि सम्पन्न हो, तो उसका प्रयोग कर लेता है।' भट्ट अकलंक ने आहारक समुदघात के प्रयोग के तीन प्रयोजनों का निर्देश किया है: १.आहारक लब्धि के सद्भाव का ज्ञान २.सूक्ष्म पदार्थ का निर्धारण ३.संयम-परिपालन ।' घवला और द्रव्यसंग्रह की टीका में आहारक समुद्घात के विषय में कुछ विशेष तथ्य उपलब्ध हैं। घवला के अनुसार-आहारक समुद्घात के प्रयोग से निर्मित आहारक शरीर एक हस्त प्रमाण, सर्वांग सुन्दर, समचतुरस्त्र संस्थान से युक्त, हंस के समान धवल, रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र-इन सात धातुओं से रहित, विष, अग्नि एवं शस्त्रादि समस्त बाधाओं से मुक्त, वज्र, शिला, स्तम्भ, जल व पर्वतों में से गमन करने में दक्ष तथा मस्तक से उत्पन्न होता है।' द्रव्यसंग्रह की टीका के अनुसार--आहारक समुद्घात का प्रयोग करने वाला अपने मस्तिष्क से एक निर्मल स्फटिक के रंग का एक हाथ का पुतला निकालता है। वह पुतला जहां कहीं केवली होते हैं, वहां संशय का निवारण कर, प्रश्नकर्ता को समाधान दे, पूनः अपने शरीर में प्रवेश कर जाता है। आहारक समुद्घात का प्रयोग करने वाला आहारक शरीर नाम कर्म पदगलों का परिशाटन अथवा निर्जरण करता है। केवली समुद्घात-आयुष्य कर्म की स्थिति और दलिकों से जब वेदनीय कर्म की स्थिति और दलिक तथा नाम और गोत्र कर्म की स्थिति और दलिक अधिक होते हैं, तब उनको आपस में बराबर १. त.रा.वा.२।४६, पृ.१५२-विविधकरणं विक्रिया । सा द्वेधा एकत्वविक्रिया कैकमक्षरं श्रुतज्ञानगम्यपर्यायैः सत् कारिकाभेदेन भिन्नं वितिमिरतामितं स पृथक्त्वविक्रिया चेति। तत्रैकत्वविक्रिया स्वशरीरादपृथग्भावेन सिंहव्याघ्र- भिन्नाक्षरः, तस्य च श्रुतज्ञानसंशयापगमात् प्रश्नाभावस्ततश्चाहारकलब्धिहंसकुररादिभावेन विक्रिया। पृथक्त्वविक्रिया स्वशरीरादन्यत्वेन प्रासादमण्ड- तामपि नैवोपजीवति बिनालम्बनेन, स एव श्रुतकेवली भण्यते, शेषः करोपादिविक्रिया। त्यकृत्नश्रुतज्ञानलाभादवीतरागत्वाच्च, अत एव केचिद् परितुष्यन्तः सूत्र२. त.सू. (भाष्यानुसारिणी टीका-सहित),२१४६,पृ.२०६-प्रमाणं चास्यावर- तो माचार्यकृतन्यासादधिकमधीयते । “अकृत्स्नश्रुतस्यर्द्धिमतः" इत्यनेन विशेषणन्यूनः पाणिरुत्कर्षेण सम्पूर्ण इति । कलापेनेति, एवंविधश्चतुर्दशपूर्वधर एव सञ्जातलब्धिस्तन्निवर्तयति। ३. वही,२१४६,पृ.२०६–कस्मिंश्चिदर्थे कृच्छ्रेऽत्यन्तसूक्ष्मे सन्देहमापनो निश्च- ५. त.रा.वा.२।४६,पृ.१५३--कदाचिल्लब्धिविशेषसद्भावज्ञापनार्थं कदाचित् याधिगमार्थ क्षेत्रान्तरितस्य भगवतोऽर्हतः पादमूलमौदारिकेण शरीरेणाशक्य- सूक्ष्मपदार्थनिर्धारणार्थं संयमपरिपालनार्थं च । गमनं मत्वा लब्धिप्रत्ययमेवोत्पादयति । पृष्ट्वाऽथ भगवन्तं छित्रसंशयः पुन- ६. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भा.१,पृ.२६६ । रागत्य व्युत्सृजत्यन्तर्मुहूर्तस्य । ७. वही,भा.१,पृ.२६६। ४. वही,२१४६,पृ.२०६- स च द्विविधः भिन्नाक्षरोऽभिन्नाक्षरश्च, ते च यस्यै . Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.२: उ.२. सू.७४ २५४ भगवई करने के लिए केवली समुद्घात होता है। जब आयुष्य केवल प्रथम चार समयों में आत्म-प्रदेश क्रमशः फैलते हैं, वैसे ही अन्त के अन्तर्मुहूर्त शेष रहता है, तभी समुद्घात होता है। समुद्घात में आठ चार समयों में क्रमशः सिकुड़ते हैं। पांचवे समय में फिर मन्थनाकार, समय लगते हैं। पहले समय में आस-प्रदेश शरीर के बाहर निकल छठे समय में कपाटाकार, सातवें समय में दण्डाकार और आठवें कर दण्डाकार फैल जाते हैं। वह दण्ड ऊंचाई-निचाई में लोक-प्रमाण समय में पहले की भांति शरीरस्थ हो जाते हैं। होता है। पर उसकी मोटाई शरीर के बराबर ही होती है। दूसरे इन आठ समयों में पहले और आठवें समय में औदारिक समय में उक्त दण्ड पूर्व-पश्चिम या उत्तर-दक्षिण में फैलकर कपाटाकार योग, दूसरे, छठे और सातवें समय में औदारिकमिश्र योग तथा तीसरे, (किंवाड़ के आकार का) बन जाता है। तीसरे समय में कपाटाकार चौथे और पांचवे समय में कार्मण योग होता है।' समुद्घात-विषयक आत्म-प्रदेश पूर्व-पश्चिम और उत्तर-दक्षिण में फैलकर मन्थनाकार । विशेष अवबोध के लिए पण्णवणा का छत्तीसवां पद (समुद्घात-पद) (मन्थनी के आकार के) बन जाते हैं। चौथे समय में खाली भागों द्रष्टव्य है। में फैलकर आत्म-प्रदेश समूचे लोक में व्याप्त हो जाते हैं। जिस प्रकार १. पण्ण.३६/८२-८५;प्रज्ञा.वृ.प.६०२-तस्य केवलिनः सर्व-बहुप्रदेशं वेदनीय मुपलक्षणमेतद् नामगोत्रे च तथा सर्वश्तोकप्रदेशमायुःकर्म तदा स......ततश्च तैर्वन्धनैः स्थितिभिश्च विषमं सत् वेदनीयादिकं समुद्घातविधिना सममायुषा सह करोति, स एवं खलु केवली बन्धनैः, स्थितिभिश्च विषमस्य सतो वेदनीयादिकस्य कर्मणः 'समीकरणयाए'. समवहन्ति-समुद्घाताय प्रयतते, एवं खलु समुद्घातं गच्छति । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल तइओ उद्देसो : तीसरा उद्देशक संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद पुढवि-पदं पृथिवी-पदम् पृथ्वी-पद ७५. कइ णं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ? कति भदन्त ! पृथिव्यः प्रज्ञाप्ताः ? ७५. भन्ते ! पृथ्वियां कितनी प्रज्ञप्त हैं ? गोयमा ! सत्त पुटवीओ पण्णत्ताओ, तं गौतम ! सप्त पृथिव्यः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा-- गौतम ! पृथ्वियां सात प्रज्ञप्त हैं, जैसे-रत्नप्रभा, जहा-१. रयणप्पभा २. सक्करप्पमा रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, ३.बालुयप्पभा ४. पंकप्पमा ५. धूमप्पमा धूमप्रभा, तमःप्रभा, तमस्तमाः। जीवाभिगमे तमःप्रभा और तमस्तमा । जीवाभिगम में नैरयिकों ६. तमप्पमा ७. तमतमा। जीवाभिगमे नैरयिकाणां यः द्वितीयः उद्देशः स नेतव्यः का जो दूसरा उद्देशक है, वह ज्ञातव्य है यावत्नेरइयाणं जो बितिओ उद्देसो सो नेयब्बो यावत्जाक ७६. किं सब्वे पाणा उववण्णपुवा ? किं सर्वे प्राणाः उपपन्नपूर्वाः ? ७६. क्या सब प्राणी (वहां) पहले भी उपपन्न हुए हंता गोयमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो॥ हन्त गौतम ! असकृत् अथवा अनन्तकृत्वः। हां, गौतम ! अनेक बार अथवा अनन्त बार।' भाष्य १. अनेक वार अथवा अनन्त वार जीव तत्त्व के लिए जैन दर्शन की यह विशिष्ट धारणा रही इन तथ्यों से सिद्ध की है कि वे एक साथ ही जन्म लेते हैं, एक है कि समस्त जीव दो प्रकार के हैं—पहले स्थूल शरीर धारण किए। साथ ही मरते हैं, एक साथ हो श्वास-उच्छ्वास व आहार लेते हैं।' हुए हैं, दूसरे सूक्ष्म शरीर वाले हैं। सूक्ष्म शरीर की धारणा पूर्णरूप ऐसा व्यवहार अन्य किसी भी जीव का नहीं है। यह अभिन्नता से वैज्ञानिक और लोक के सन्तुलन की व्यवस्था में उपयोगी है। औदारिक शरीर की अपेक्षा से बतलाई गई है। आत्म-स्वातन्त्र्य की पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति-इन पांच स्थावर कायों के दृष्टि से इनके तैजस और कार्मण शरीर व्यक्तिगत होते हैं। जीव सूक्ष्म और बादर इन दो भागों में विभक्त होते हैं। प्रस्तुत ये जीव समस्त लोक में व्याप्त हैं। अतः यह जान लेना प्रकरण में वनस्पति-काय के सूक्ष्म जीव विवक्षित हैं। वनस्पति के आवश्यक है कि ये वनस्पति के जीव स्थूल वनस्पति से नितान्त मूल प्रकार दो हैं—प्रत्येक शरीरी और साधारण शरीरी। जिसके एक भिन्न हैं। ये सूक्ष्म निगोद के जीव जैन विज्ञान की दृष्टि से जब शरीर में अनन्त जीव होते हैं, उसे साधारण शरीरी कहा जाता है। अव्यवहार राशि से उक्रमण या उद्वर्तन करते हैं, तो वे स्थूल वनस्पति एक शरीर में अनन्त जीव के साथ रहने की प्रवृत्ति को परिभाषित । में विकास करते हैं। यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। यह करते हुए उस शरीर को निगोद कहा जाता है तथा उन जीवों को परिवर्तन ऐसी स्थिति में होता है जब लोक में किसी प्रकार के संतुलन निगोदजीव कहा है।' इनको एक ही शरीर के होने की प्रामाणिकता में परिवर्तन होता है। जब कोई जीव मोक्ष प्राप्त करता है, तो संसार १. जीवा.५।३७-कतिविधा णं भंते ! णिओदा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा साहारणमाहारो साहारणमाणुपाणगहणं च । पण्णत्ता, तं जहा-णिओदा य णिओदजीवा य । साहारणजीवाणं साहारणलक्खणं एवं ।। २. पण्ण.१।४८,गा.५३-५७ - जह अयगोलो धंतो, जाओ तत्ततवणिजसंकासो । समयं वक्वंताणं, समयं तेसिं सरीरनिव्वत्ती। सव्वो अगणिपरिणतो, निगोयजीवे तहा जाण ॥ समयं आणुग्गहणं, समयं ऊसास-नीसासे ।। एगस्स दोण्ह तिण्ह व, संखेज्जाण व न पासिउं सक्का । एक्कस्स उ जं गहणं, बहूण साहारणाण तं चेव। दीसंति सरीराई, णिगोयजीवाणऽणताणं ॥ जं बहुयाणं गहणं, समासओ तं पि एगस्स । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। श.२. उ.३. सू.७५,७६ २५६ भगवई के जीवों के संतुलन-हेतु अव्यवहार राशि के जीव उत्क्रमण करते हैं वनस्पति को अव्यवहार राशि कहा जाता है। निगोद के दो प्रकार और इस संतुलन को बनाने में यह एक प्रक्रिया है जिसे इस प्रकार होते है सूक्ष्म निगोद और बादर निगोद। दरसाया जा सकता है-निगोद जीव-संसारी जीव-मोक्ष के जीव जो जीव एक बार अव्यवहार राशि से व्यवहार राशि में आ जितने जीव मोक्ष जाते हैं उतने ही जीव अव्यवहार राशि जाता है, उसकी राशि में परिवर्तन नहीं होता वह सूक्ष्म निगोद में से व्यवहार राशि में आ जाते हैं।' जाने पर भी व्यवहार राशि में ही रहता है। व्यवहार का अर्थ हैइससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि जीव कहीं बाहर से नहीं भेद। अव्यवहार राशि के जीवों में इन्द्रियकृत कोई भेद नहीं है। आते, न अन्तरिक्ष से आते और न घटते या बढ़ते हैं। वे एक यह आत्मा का प्राकृतिक रूप है, इसीलिए आत्मा और पुद्गल का जाति से दूसरी जाति में, एक स्वरूप से दूसरे स्वरूप में बदलते रहते सम्बन्ध कब हुआ—जैन दर्शन के सामने यह प्रश्न ही नहीं है। इस अव्यवहार राशि में से निकलकर जीव व्यवहार राशि में आते हैं। वहां उनके एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय जैन दर्शन की यह धारणा है कि जीवों की संख्या अनन्त ये--भेद बनते हैं। जो जीव अव्यवहार राशि से व्यवहार राशि में है, वे अनादि हैं। जो नया उद्गम दिखाई देता है, वास्तव में वह आकर अनन्त काल तक संसार में परिभ्रमण करता है, वह प्रत्येक नया उद्गम नहीं है, अपितु जीव एक जाति से दूसरी जाति में अपने योनि में अनन्त बार पैदा हो चुका है। जो जीव अव्यवहार राशि शरीर के आवरण में बदलता है। से निकलकर शीघ्र मुक्त हो जाता है, उसके लिए असकृत् (अनेक निगोद के जीव एक Reserve Fund (स्थाई कोश या अक्षय बार) का नियम है। वह एकाधिक बार जन्म लेकर मुक्त हो जाता कोश) की तरह हैं। ये ही लोक में जैविक सन्तुलन बनाये रखते है। अनन्त बार और अनेक बार के उल्लेख होने के विशेष कारण हैं। ये सूक्ष्म निगोद से बादर निगोद अथवा प्रत्येक शरीर में आ हैं। ऐसे जीव भी हैं जो अव्यवहार राशि से निकल कर केवल जाते हैं। इस उवर्तन के और भी कारण उपलब्ध हैं। इस उदवर्तन एकाधिक भव करते हुए मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं, जैसे मरुदेवी माता के सहयोगी कारण ये हैं: के संबंध में उल्लेख है कि उन्होंने सूक्ष्म निगोद से निकल कर दूसरे १. चेतना के परिणामों की भिन्नता । जन्म में ही मोक्ष पा लिया। २. लेश्याओं का परिवर्तन होना। ___ अनन्त बार और अनेक बार इन दोनों नियमों के उदाहरण ३. काल-लब्धि। बारहवें शतक में विस्तार से वर्णित हैं।' पारिभाषिक शब्दावली में अनादिनिगोद, नित्यनिगोद या अनादि १. अभिधान राजेन्द्रकोष, भा.६,पृ.६३ सिज्झन्ति जत्तिया किर, इह संववहारजीवरासीयो । जंति अणाइवणस्सइ-रासीओ तत्तिमा तम्मित्ति ।। निगोदाश्च द्विधाधसूक्ष्मा बादराश्च, यावन्तः सिध्यन्ति तावन्तः सूक्ष्मनिगोदेभ्यो व्यवहारराशी समायान्ति। २. गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गा.१६६ ३. जीवा.५।५३–णिओदजीवा णं भंते कतिविहा पण्णता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-सुहमणिओदजीवा, बादरणिओदजीवा य; जीवा.बृ.प.४२३-भगवानाह-गौतम ! द्विविधा निगोदाः प्रज्ञप्तास्तद् यथा निगोदाश्च निगोदजीवाश्च । उभयेषामपि निगोदशब्दवाच्यतया प्रसिद्धत्वात् तत्र निगोदा जीवाश्रयविशेषाः, निगोदजीवा भिन्नतैजसकार्मणा जीवा एव । अधुना निगोदभेदान् पृच्छति 'निगोयाणं मंते' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-गौतम ! द्विविधाः प्रज्ञप्तास्तद् यथा सूक्ष्मनिगोदाश्च बादरनिगोदाश्च, तत्र सूक्ष्मनिगोदाः सर्वलोकापना वादरनिगोदाः मूलकंदादयः। ४. भ.१२।१३३-१५२ । . Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो उद्देसो : चौथा उद्देशक मूल संस्कृत छाया इन्द्रिय-पदम् हिन्दी अनुवाद इन्द्रिय-पद इंदिय-पदं ७७. कइ णं मंते ! इंदिया पण्णता ? कति भदन्त ! इन्द्रियाणि प्रज्ञप्तानि ? गोयमा ! पंच इंदिया पण्णत्ता, तं जहा- गौतम ! पंच इन्द्रियाणि प्रज्ञप्तानि, तद् यथा १. सोइंदिए २. चक्खिंदिए ३. पाणिदिए -श्रोत्रेन्द्रियं, चक्षुरिन्द्रियं, घ्राणेन्द्रियं, रसे- ४. रसिदिए ५. फासिदिए । पढमिल्लो न्द्रियं, स्पर्शेन्द्रियम् । प्रथमः इन्द्रिय-उद्देशकः इंदियउद्देसओ नेयन्वो जा नेतव्यः यावत् ७७. भन्ते ! इन्द्रियां कितनी प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! इन्द्रियां पांच प्रज्ञप्त हैं, जैसे-श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय। प्रथम इन्द्रिय-उद्देशक (पण्णवणा के इन्द्रिय-पद (१५) का प्रथम उद्देशक) ज्ञातव्य है, यावत् ७८. अलोगे णं भंते ! किणा फुडे ? कतिहिं अलोकः भदन्त ! केन स्पृष्टः कतिभिः वा ७८. भन्ते ! अलोक किससे स्पृष्ट है ? अथवा कितने वा काएहिं फुडे ? कायैः स्पृष्टः ? कायों से स्पृष्ट हैं ? गोयमा ! नो धम्मत्थिकारणं फुडे जाव नो ___ गौतम ! नो धर्मास्तिकायेन स्पृष्टः यावन् नो गौतम ! वह न धर्मास्तिकाय से स्पृष्ट है यावत् न आगासत्यिकाएणं फडे, आगासत्थिकायस्स आकाशास्तिकायेन स्पृष्टः, आकाशास्ति- आकाशास्तिकाय से स्पृष्ट है। वह आकाशास्तिदेसेणं फुडे आगासत्यिकायस्स पदेसेहिं कायस्य देशेन स्पृष्टः आकाशास्तिकायस्य काय के देश से स्पृष्ट है। वह आकाशास्तिकाय फुडे, नो पुढविकाइएणं फुडे जाव नो अद्धा- प्रदेशैः स्पृष्टः, नो पृथिवीकायेन स्पृष्टः यावन् के प्रदेशों से स्पृष्ट है। वह न पृथ्वीकाय से स्पृष्ट समएणं फुडे, एगे अजीवदव्वदेसे अगुरु- नो अद्धासमयेन स्पृष्टः, एकः अजीवद्रव्यदेशः है यावत् न अद्धा समय से स्पृष्ट है। वह एक, लहुए अणंतेहिं अगुरुलहुयगुणेहिं संजुत्ते अगुरुलघुकः अनन्तैः अगुरुलघुकगुणैः अजीव द्रव्य का देश, अगुरुलघु, अनन्त अगुरुसव्वागासे अणंतमागूणे ॥ संयुक्तः सर्वाकाशः अनन्तभागोनः । लघु गुणों से संयुक्त है और अनन्तवें भाग से न्यून परिपूर्ण आकाश है। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल परिचारणा-वेद-पदं ७६. अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खति भासंति पण्णवंति परूवेंति १. एवं खलु नियंठे कालगए समाणे देव भूणं अप्पाणेणं से णं तत्थ नो अण्णे देवे, नो अण्णेसिं देवाणं देवीओ अभिजुंजिय- अभिजुंजिय परियारेइ, नो अप्पणिचियाओ देवीओ अभिजुंजिय- अभिजुंजिय परियारेइ, अप्पणामेव अप्पाणं विउब्वियविउव्जिय परियारेइ । २. एगे वि य णं जीवे एगेणं समएणं दो वेदे वेदेइ, तं जहा — इत्थिवेदं च, पुरिसवेदं च । । इत्थिवेयरस वेयणाए पुरिसवेयं वेएइ, पुरिसवेयस्स वेयणाए इत्थवेयं वेएइ । एवं खलु एगे वि य णं जीवे एगेणं समएणं दो वेदे वेदेइ, तं जहा — इत्थिवेदं च पुरिसवेदं च ॥ पंचमो उद्देसो : पांचवां उद्देशक संस्कृत छाया च । जं समयं इत्थवेयं वेएइ तं समयं पुरिसवेयं यस्मिन् समये स्त्रीवेदं वेदयति, तस्मिन् समये बेइ । पुरुषवेदं वेदयति । जं समयं पुरिसवेयं वेएइ तं समयं इत्थिवेयं यस्मिन् समये पुरुषवेदं वेदयति, तस्मिन् समये वे परिचारणा-वेद-पदम् अन्ययूथिकाः भदन्त ! एवमाख्यान्ति भाषन्ते ७६. 'भन्ते ! अन्ययूथिक ऐसा आख्यान, भाषण, प्रज्ञापयन्ति प्ररूपयन्तिप्रज्ञापन और प्ररूपण करते हैं १. एवं खलु निर्ग्रन्थः कालगतः सन् देवभूतेन आत्मना स तत्र नो अन्यान् देवान्, नो अन्येषां देवानां देवी: अभियुज्य अभियुज्य परिचारयति, नो आत्मीयाः देवीः अभियुज्य-अभियुज्य परिचारयति, आत्मनैव आत्मानं विकृत्य- विकृत्य परिचारयति । २. एकोऽपि च जीवः एकेन समयेन द्वौ वेदी वेदयति, तद् यथा—स्त्रीवेदं च पुरुषवेदं स्त्रीवेदं वेदयति । स्त्रीवेदस्य वेदनया पुरुषवेदं वेदयति, पुरुषवेदस्य वेदनया स्त्रीवेदं वेदयति । एवं खलु एकोऽपि च जीवः एकेन समयेन द्वौ वेदौ वेदयति, तद् यथा—स्त्रीवेदं च, पुरुषवेदं च । १. सूत्र ७६ प्रस्तुत सूत्र में अन्यतीर्थिकों के दो मत निरूपित हैं। पहला मत देवों के मैथुन सेवन से संबधित है और दूसरा लिंग -वेदन से संबधित है। इनके विषय में भगवान् महावीर का अभिमत अगले सूत्रों में निदर्शित है। शब्द-विमर्श भाष्य आश्लेष कर-कर---वृत्तिकार ने 'अभियुज्य' शब्द के दो अर्थ किए हैं-वश में कर अथवा आश्लेष कर ।' १. भ.वृ.२१७८— 'अभियुज्य' वशीकृत्य आश्लिष्य वा । २. स्था.वृ. प. १०० परिचारणा देवमैथुनसेवेति । .... परिचारयति — परिभुङ्क्ते - हिन्दी अनुवाद परिचारणा-वेद- पद १. मृत्यु को प्राप्त हुआ निर्ग्रन्थ अपनी देवरूप आत्मा के द्वारा वहां पर अन्य देवों और अन्य देवों की देवियों का आश्लेष कर-कर परिचारणा नहीं करता, वह अपनी देवियों का आश्लेष कर-कर परिचारणा नहीं करता, किन्तु वह अपने ही बनाए हुए विभिन्न रूपों से परिचारणा करता है । २. एक जीव एक समय में दो वेदों का वेदन करता है, जैसे—स्त्रीवेद का और पुरुषवेद का । जिस समय वह स्त्रीवेद का वेदन करता है, उसी समय पुरुषवेद का वेदन करता है । जिस समय वह पुरुषवेद का वेदन करता है, उसी समय स्त्रीवेद का वेदन करता है। वह स्त्री वेद के वेदन से पुरुषवेद का वेदन करता है और पुरुषवेद के वेदन से स्त्रीवेद का वेदन करता है। इस प्रकार एक जीव भी एक समय में दो वेदों का वेदन करता है, जैसे— स्त्रीवेद का और पुरुषवेदका । परिचारणा करता है - इसका अर्थ है - परिभोग करना । स्थानांग वृत्ति में इसका अर्थ 'देव-मैथुन-सेवा' भी किया है।' द्रष्टव्य, ठाणं ३१६ का टिप्पण और ५।५४ का टिप्पण । विउब्बिय - इसका अर्थ है रूप का निर्माण कर । वेद - यह एक पारिभाषिक शब्द है। इसका अर्थ है - 'मैथुन की संवेदना उत्पन्न करने वाला मोहकर्म का परमाणु-स्कन्ध' । इसका दूसरा अर्थ है 'मैथुन की संवेदना'। इसका तीसरा अर्थ है 'मैथुन-क्रिया में उत्पन्न होने वाले लिंग' । ३ वेदबाधोपशमनायेति । ३. प्रज्ञा. वृ. प. ४६८, ४६६ - विद्यते ' इति वेदः स्त्रिया वेदः स्त्रीवेदः, स्त्रियाः Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २५६ श.२ः उ.५: सू.७६,८० हैं-स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद | पहल पहले अर्थ का संबंध मोहकर्म से है। संवेदना को भाववेद और अवयव को द्रव्यवेद कहा जाता है। वेद के तीन प्रकार ५०. से कहमेयं भंते ! एवं ? तत् कथमेतद् भदन्त ! एवम् ? ८०. 'भन्ते ! यह इस प्रकार कैसे है ? गोयमा ! जंणं ते अण्णउत्थिया एव- गौतम ! यत् ते अन्ययूथिकाः एचमाख्यान्ति गौतम ! अन्ययूथिक, जो ऐसा आख्यान करते हैं माइक्खंति जाव इत्थिवेदं च, पुरिसवेदं च । यावत् स्त्रीवेदं च पुरुषवेदं च । ये एते एव- यावत् जीव एक साथ स्त्रीवेद और पुरुषवेद दोनों जेते एवमाहंसु, मिच्छं ते एवमाहंसु । अहं माहुः, मिथ्या ते एवमाहुः । अहं पुनः गौतम! का वेदन करते हैं। जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि भासामि एवमाख्यामि भाषे प्रज्ञापयामि प्ररू- कहते हैं। गौतम ! मैं इस प्रकार आख्यान, पण्णवेमि परूवेमिपयामि भाषण, प्रज्ञापन और प्ररूपण करता हूँ१. एवं खलु णियंठे कालगए समाणे १. एवं खलु निर्ग्रन्थः कालगतः सन् १. मृत्यु को प्राप्त हुआ निर्ग्रन्थ महान् ऋद्धि और अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो अन्यतरेषु देवलोकेषु देवत्वाय उपपत्ता महान् द्युति से सम्पन्न, महाबली, महान् यशस्वी, भवंति–महिडिएसु महज्जतीएसु महाबलेसु भवति–महर्द्धिकेषु महाधुतिकेषु महाबलेषु ___ महान् सौख्य-युक्त, महान् सामर्थ्य वाले, ऊंची गति महायसेसु महासोक्खेसु महाणुभागेसु दूरग- महायशःसु महासौख्येषु महानुभागेषु दूरगतिषु वाले और चिरकालिक स्थिति वाले किसी देवलोक तीसु चिरद्वितीएसु । से णं तत्य देवे भवइ चिरस्थितिकेषु । सः तत्र देवः भवति में देवरूप में उपपन्न होता है। वह महान् ऋद्धि महिडिए जाव दस दिसाओ उज्जोएमाणे महर्द्धिकः यावद् दश दिशः उद्द्योतयन् से सम्पन्न यावत् दसों दिशाओं को उयोतित और पभासेमाणे पासाइए दरिसणिजे अभिरूवे प्रभासयन् प्रासादीयः दर्शनीयः अभिरूपः । प्रभासित करता हुआ, द्रष्टा के चित्त को प्रसन्न पडिरूवे । से णं तत्य अण्णे देवे, अण्णेसि प्रतिरूपः । सः तत्र अन्यान् देवान् अन्येषां ___करने वाला, दर्शनीय, कमनीय और रमणीय' देवाणं देवीओ अभिमुंजिय-अभिमुंजिय देवानां देवीः अभियुज्य-अभियुज्य परि- देव होता है। वह अन्य देवों और देवों की देवियों परियारेइ, अप्पणिचियाओ देवीओ अभि- चारयति, आत्मीयाः देवीः अभियुज्य-अभि- का आश्लेष कर-कर परिचारणा करता है, अपनी जंजिय-अभिजंजिय परियारेइ, नो अप्प- युज्य परिचारयति, नो आत्मनैव आत्मानं देवियों का आश्लेष कर-कर परिचारणा करता णामेव अप्पाणं विउब्बिय-विउब्विय परि- विकृत्य-विकृत्य परिचारयति । है, किन्तु वह अपने बनाए हुए विभिन्न रूपों से यारेइ । परिचारणा नहीं करता । २. एगे वि य णं जीवे एगेणं समएणं एग २. एकोऽपि च जीवः एकेन समयेन एकं २. एक जीव एक समय में एक ही वेद का वेदन वेदं वेदेइ, तं जहा-इत्थिवेदं वा, पुरिसवेदं वेदं वेदयति, तद् यथा-स्त्रीवेदं वा पुरुषवेदं करता है, जैसे--स्त्रीवेद का अथवा पुरुषवेद वा । वा । जं समयं इत्थिवेदं वेदेइ, नो तं समयं यस्मिन् समये स्त्रीवेदं वेदयति, नो तस्मिन् जिस समय वह स्त्रीवेद का वेदन करता है, उस पुरिसवेदं वेदेइ । ___समये पुरुषवेदं वेदयति । समय पुरुषवेद का वेदन नहीं करता । जं समयं पुरिसवेदं वेदेइ, नो तं समयं यस्मिन् समये पुरुषवेदं वेदयति, नो तस्मिन् जिस समय वह पुरुषवेद का वेदन करता है, उस इत्थिवेदं वेदेइ । समये स्त्रीवेदं वेदयति । समय स्त्रीवेद का वेदन नहीं करता । इत्थिवेदस्स उदएणं नो पुरिसवेदं वेदेइ, स्त्रीवेदस्य उदयेन नो पुरुषवेदं वेदयति, वह स्त्रीवेद के उदय से पुरुषवेद का वेदन नहीं पुरिसवेदस्स उदएणं नो इत्थिवेदं वेदेइ । पुरुषवेदस्य उदयेन नो स्त्रीवेदं वेदयति ।। करता और पुरुषवेद के उदय से स्त्रीवेद का वेदन नहीं करता । एवं खल एगे जीवे एगेणं समएणं एगं वेदं एवं खलु एकः जीवः एकेन समयेन एकं वेदं । इस प्रकार एक जीव एक समय में एक ही वेद वेदेइ, तं जहा-इत्थीवेदं वा, पुरिसवेदं वेदयति, तद् यथा स्त्रीवेदं वा पुरुषवेदं का वेदन करता है, जैसे-स्त्रीवेद का अथवा या। वा। पुरुषवेद का। इत्थी इत्थिवेदेणं उदिण्णेणं पुरिसं पत्थेइ । स्त्री स्त्रीवेदेन उदीर्णेन पुरुषं प्रार्थयति । पुरुषः स्त्री उदयप्राप्त स्त्रीवेद के कारण पुरुष की इच्छा पुरिसो पुरिसवेदेणं उदिण्णेणं इत्थं पत्थेइ। पुरुषवेदेन उदीर्णेन स्त्रियं प्रार्थयति । द्वावपि करती है और पुरुष उदयप्राप्त पुरुषवेद के कारण दो वि ते अण्णमण्णं पत्थेति, तं जहा- तौ अन्योन्यं प्रार्थयतः, तद् यथा-स्त्री वा स्त्री की इच्छा करता है। वे दोनों परस्पर एक इत्थी या पुरिसं, पुरिसे वा इत्थिं ॥ पुरुषं, पुरुषो वा स्त्रियम् । दूसरे की इच्छा करते हैं, जैसे—स्त्री पुरुष की इच्छा करती है, पुरुष स्त्री की इच्छा करता है । पुमांसं प्रत्यभिलाष इत्यर्थः, तद्विपाकवेद्यं कर्मापि स्त्रीवेदः, पुरुषस्य वेदः पुरुषवेदः, पुरुषस्य स्त्रियं प्रत्यभिलाष इत्यर्थः, तद्विपाकवेद्यं कर्मापि पुरुषवेदः, नपुंसकस्य वेदो नपुंसकवेदः, नपुंसकस्य स्त्रियं पुरुषं च प्रत्यभिलाष इत्यर्थः तद्विपाकवेद्यं कर्मापि नपुंसकवेदः । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.२: उ.५: सू.८०-८३ भगवई २६० भाष्य १. सूत्र ८० प्रस्तुत सूत्र में अन्ययूथिक मत से महावीर के मत की भिन्नता का निदर्शन है। यहां अन्ययूथिक का नोमोल्लेख नहीं, किन्तु प्रकरण के अनुसार यह अभिमत आजीवक सम्प्रदाय का होना चाहिए। वह एक श्रमण-सम्प्रदाय है और भगवान महावीर के समकालीन भी है। उसका अस्तित्व पहले भी था—यह स्वीकार करने में कोई ऐतिहासिक बाधा भी नहीं लगती। बौद्ध साहित्य में गोशालक को आजीवक का तीसरा आचार्य बतलाया गया है।' ठाणं में परिचारणा के नौ विकल्प प्राप्त हैं। उनमें 'अप्पणामेव अप्पणा विउब्बिय-विउब्विय परियारेति' इस विकल्प को सर्वत्र मान्य किया है। प्रस्तुत सूत्र में इसे अस्वीकार किया गया है। यह स्पष्ट विरोधाभास है। इसे वाचना-भेद मानकर सन्तोष किया जा सकता है। किन्तु जहां पक्ष और प्रतिपक्ष का प्रश्न है, वहां वाचना-भेद की बात पर्याप्त नहीं है। इस विषय में एक तर्क सामने है-ठाणं में देव का सामान्य निर्देश है। इसलिए अपने द्वारा निर्मित रूप के साथ परिचारणा की बात मान्य की गई। प्रस्तुत प्रसगं में निर्ग्रन्थ का जीवन जीकर होने वाले देव का निर्देश है। यह संभावना की जा सकती है कि वह देव जो पर्वजन्म में निर्ग्रन्थ था, अपने द्वारा निर्मित रूप के साथ परिचारणा नहीं करता। २. द्रष्टा के चित्त को प्रसन्न करने वाला.......रमणीय प्रासादीय-जिसे देखकर चित्त प्रसन्न हो। दर्शनीय-जिसे देखकर चक्षु थके नहीं। अभिरूप—मनोज्ञ रूप वाला। प्रतिरूप-जिसका रूप प्रत्येक द्रष्टा की आंख में प्रतिबिम्बित हो।' गब्भ-पदं गर्भ-पदम गर्भ-पद १. उदगम्भेणं भंते ! उदगम्भे त्ति कालओ उदकगर्भः भदन्त ! उदकगर्भः इति कालतः ८१. 'भन्ते ! उदकगर्भ उदकगर्भ के रूप में काल केवचिरं होइ ? कियच्चिरं भवति ? की दृष्टि से कितने समय तक रहता है? गोयमा ! जहण्णेणं एक समयं, उक्कोसेणं गौतम ! जघन्येन एक समयम्, उत्कर्षेण गौतम ! जघन्यतः एक समय, उत्कर्षतः छह छम्मासा॥ षण्मासान् । मास। भाष्य १. सूत्र १ प्रस्तुत सूत्र का सम्बन्ध वर्षा शास्त्र से है। उदकगर्भ का अर्थ है-कुछ कालावधि के पश्चात् वर्षा का हेतुभूत पुद्गल-परिणाम। इसकी पहचान सन्ध्याराग आदि के द्वारा होती है। ठाणं में उदकगर्भ के आठ प्रकार बतलाए गए हैं।' स्थानांग वृत्ति में इसका विस्तृत वर्णन मिलता है।' १२. तिरिक्खजोणियगम्भे णं भंते ! तिरि- तिर्यगयोनिकगर्भः भदन्त ! तिर्यगयोनिकगर्भः २२. भन्ते ! तिर्यग्योनिकगर्भ तिर्यगयोनिकगर्भ के खजोणियगम्भे त्ति कालओ केवचिरं होइ? इति कालतः कियच्चिरं भवति ? रूप में काल की दृष्टि से कितने समय तक रहता गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं अट्ठ संवच्छराई ॥ गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण अष्ट संवत्सरान् । गौतम ! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्तः, उत्कर्षतः आठ वर्ष। ५३. मणुस्सीगन्भेणं भंते ! मणुस्सीगन्मे ति मनुष्यीगर्भः भदन्त ! मनुष्यीगर्भः इति कालतः ८३. भन्ते ! मानुषी-गर्भ मानुषी-गर्भ के रूप में काल कालओ केवचिरं होई? कियच्चिरं भवति? की दृष्टि से कितने समय तक रहता है ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण गौतम ! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कर्षतः बारह बारस संवच्छराई॥ द्वादश संवत्सरान् । वर्ष। १. अंगुत्तरनिकाय, छक्कनिपाता, महावग्गो, छलभिजातिसुत्तं । षण्मासान्, षण्णां मासानामुपरि वर्षणात्, अयं च मार्गशीर्षपौषादिषु वैशा२. ठाणं,३।६। खान्तेषु सन्ध्यारागमेधोत्पादादिलिङ्गो भवति । यदाह३. भ.वृ.२/०-'पासाइए' द्रष्टृणां चित्तप्रसादजनकः 'दरिसणिजे' यं पश्यचक्षुर्न "पौषे समार्गशीर्षे सन्ध्यारागोऽम्बुदाः सपरिवेषाः । श्राम्यति 'अभिरूवे' मनोज्ञरूपः ‘पडिरूवेत्ति द्रष्टार-द्रष्टारं प्रति रूपं यस्य स नात्यर्थं मार्गशिरे शीतं पोषेऽतिहिमपातः॥" तथेति। ५. ठाणं,४।६४०,६४१। ४. भ.१.२।०-तत्रोदकगर्भः-कालान्तरेण जलप्रवर्षणहेतुः पुद्गलपरिणामः, ६. स्या.वृ.प.२७३ । तस्य चावस्थानं जघन्यतः समयः समयानन्तरमेव प्रवर्षणात। उत्कटतस्त Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ८४. कायभवत्थे णं भंते ! कायभवत्ये त्ति aa hai हो ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं चउवीसं संवच्छराई ॥ ८५. मणुस्स-पंचेंदियतिरिक्खजोणियबीए णं भंते! जोणिन्भू केवतियं कालं संचिट्ठ ? गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बारस मुहुत्ता ॥ २६१ श. २: उ.५: सू. ८४-८६ कायभवस्थः भदन्त ! कायभवस्थः इति ८४. 'भन्ते ! कायभवस्थ (माता के उदर में रहे कालतः कियचिरं भवति ? हुए अपने गर्भ-शरीर में उत्पन्न होने वाला जीव ) कायभवस्थ के रूप में काल की दृष्टि से कितने समय तक रहता है ? १. सूत्र ८४ सूत्र ८३ में मानुषी के गर्भ की उत्कृष्ट स्थिति १२ वर्ष की बतलाई गई है और काय भवस्थ की २४ वर्ष की। कोई प्राणी पहले गर्भ में १२ वर्ष तक रहता है और वहां से मरकर फिर उसी गर्भ-शरीर में उत्पन्न हो जाता है और उत्पन्न होकर फिर १२ वर्ष तक गर्भ में रहता है। इस प्रकार काय भवस्थ की उत्कृष्ट गर्भ स्थिति २४ वर्ष ८६. एगजीवे णं भंते ! एगभवग्गहणेणं केवइयाणं पुत्तत्ताए हव्वामागच्छइ ? गोयमा ! जहण्णेणं इक्कस्स वा दोन्ह वा तिह वा, उक्कोसेणं सयपुहत्तस्स जीवा णं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छंति ॥ गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण चतुर्विंशतिः संवत्सरान् । भाष्य की हो जाती है। एक ही गर्भकाय में उसके दो भव या जन्म हो जाते हैं,' इसलिए उसका नाम काय भवस्य किया गया है । १२ वर्ष की स्थिति को 'भवस्थिति' और २४ वर्ष की स्थिति को 'कायस्थिति' कहा जाता है। मनुष्य-पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकबीजं भदन्त ! ८५. 'भन्ते ! मनुष्य और पञ्चेन्द्रिय-तिर्यंच का योनिभूतं कियत् कालं संतिष्ठते ? योनि - बीज (वीर्य) कितने काल तक योनिभूत गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण द्वा- (उत्पादक शक्तिवाला) रहता है ? दश मुहूर्तान् । गौतम ! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कर्षतः बारह मुहूर्त । भाष्य १. सूत्र ८५ बीज और वीर्य पर्यायवाची शब्द हैं। प्रवचनसारोद्वार में बीज शुक्र और शोणित दोनों के लिए प्रयुक्त है। ' योनिभूत का अर्थ है—उत्पादक शक्ति से सम्पन्न | गौतम ! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कर्षतः चौबीस वर्ष । १. भ. वृ. २ । ८४ काये— जनन्युदरमध्यव्यवस्थितनिजदेह एव यो भवो जन्म स कायभवस्तत्र तिष्ठति यः स कायभवस्थः, स च कायभवस्थ इति एतेन पर्यायेणेत्यर्थः, 'चउव्वीसं संवच्छराई ति स्त्रीकार्य द्वादश वर्षाणि स्थित्वा पुनर्मृत्वा तस्मिन्नेवात्मशरीरे उत्पद्यते द्वादशवर्षस्थितिकतया, इत्येवं चतुविंशतिवर्षाणि भवन्ति । केचिदाहुः - द्वादश वर्षाणि स्थित्वा पुनस्तत्रैवान्यबीजेन तच्छरीरे उत्पद्यते, द्वादशवर्षस्थितिरिति । एकजीवः भदन्त ! एकभवग्रहणेन कियतां ८६. 'भन्ते ! एक जीव एक भव में कितने जीवों का पुत्र हो सकता है ? पुत्रत्वाय 'हव्वं' आगच्छति ? गौतम ! जघन्येन एकस्य वा द्वयोः वा त्रयाणां वा, उत्कर्षेण शतपृथक्त्वस्य जीवाः पुत्रत्वाय 'हव्वं' आगच्छन्ति । गौतम ! जघन्यतः एक, दो या तीन और उत्कर्षतः नौ सौ तक जीवों का पुत्र हो सकता है। २. प्र. सारो.वृ. प. ४०१, द्वार २४१, गा. १३६० । russ मणुस्सी किट्ठा हो वरिसवारसगं । गमस्स य कायठिई नराण चउवीस वरिसाई | ३. वही, वृ. प. ४०२, द्वार २४७,गा. १३६७ बीयं सुकं तह सोणियं च ठाणं तु जणणिगब्धंनि । Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.२: उ.५: सू.८६-८८ भगवई २६२ भाष्य १.सूत्र १६ वृत्तिकार ने पिता की संख्या के लिए बैल आदि का उदाहरण शब्द-विमर्श प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार बहुसंख्यक बैल आदि का वीर्य गाय पृथकृत्व—पृथक्त्व का अर्थ है दो से नौ। यह सामयिक संज्ञा आदि की योनि में प्रविष्ट होनेपर जो जीव पैदा होता है, वह बहुपितृक है। होता है।' १७. एगजीवस्स णं भंते ! एगभवग्गहणेणं एकजीवस्य भदन्त ! एकभवग्रहणेन कियन्तः ७.'भन्ते ! एक जीव के एक भव में कितने जीव केवइया जीवा पुत्तत्ताए हबमागच्छंति ? जीवाः पुत्रत्वाय 'हव्वं' आगच्छन्ति ? पुत्र-रूप में उत्पन्न हो सकते हैं ? गोयमा ! जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि गौतम ! जघन्येन एको वा द्वौ वा त्रयो वा, गौतम ! जघन्यतः एक, दो या तीन और उत्कर्षतः वा, उक्कोसेणं सयसहस्सपृहत्तं जीवा णं उत्कर्षेण शतसहस्रपृथक्त्वं जीवाः पुत्रत्वाय नौ लाख जीव पुत्र-रूप में उत्पन्न हो सकते हैं। पुत्तत्ताए हव्यमागच्छंति ॥ 'हव्वं' आगच्छन्ति । ५८.सेकेणटेणं भंते ! एवं बुचइ-जहण्णेणं तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-जघन्येन १८. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा हैएको वा दो या तिण्णि वा, उक्कोसेणं ___एको वा द्वौ वा त्रयो वा, उत्कर्षेण शत- एक जीव के जघन्यतः एक, दो या तीन और सयसहस्सपुहत्तं जीवा णं पुत्तत्ताए हव्व- सहस्रपृथक्त्वं जीवाः पुत्रत्वाय 'हव्वं' आग- उत्कर्षतः नौ लाख जीव पुत्र-रूप में उत्पन्न हो मागच्छंति ? च्छन्ति ? सकते हैं ? गोयमा ! इत्थीए पुरिसस्स य कम्मकडाए गौतम ! स्त्रियाः पुरुषस्य च कर्मकृतायां योन्यां गौतम ! स्त्री और पुरुष की कर्मकृत (कामोद्दीपक) जोणीए मेहुणवत्तिए नामं संजोए समुप्प- मैथुनवृत्तिको नाम संयोगः समुत्पद्यते । तौ योनि में मैथुनवृत्तिक नामक संयोग उत्पन्न होता जइ। ते दुहओ सिणेहं चिणंति, चिणित्ता द्वितः स्नेहं चिनुतः, चित्वा तत्र जघन्येन एको है । वे स्त्री और पुरुष स्नेह (वीर्य और शोणित) तत्थ णं जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा द्वौ वा त्रयो वा, उत्कर्षेण शतसहस्त्र- का संचय करते हैं। संचय करन के पश्चात् वहां वा, उक्कोसेणं सयसहस्सपुहत्तं जीवा णं पृथक्त्वं जीवाः पुत्रत्वाय 'हव्वं' आ- जघन्यतः एक, दो या तीन और उत्कर्षतः नौ पुत्तत्ताए हबमागच्छंति । से तेणटेणं गच्छन्ति । तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते लाख जीव पुत्र-रूप में उत्पन्न हो सकते हैं। गौतम! गोयमा ! एवं बुच्चइ-जहण्णेणं एको वा –जघन्येन एको वा द्वौ वा त्रयो वा, इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है जघन्यतः दो वा तिण्णि वा, उकोसेणं सयसहस्सपुहत्तं उत्कर्षेण शतसहस्रपृथक्त्वं जीवाः पुत्रत्वाय एक, दो या तीन और उत्कर्षतः नौ लाख जीव जीवा णं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छंति ॥ 'हब्ब' आगच्छन्ति । पुत्ररूप में उत्पन्न हो सकते हैं। भाष्य १. सूत्र ८७,८८ वृत्तिकार ने बहुपुत्र की बात समझाने के लिए मत्स्य आदि का उदाहरण दिया है। मछली के एक साथ नौ लाख बच्चे उत्पन्न हो सकते हैं और निष्पन्न भी हो सकते हैं। मनुष्य-स्त्री की योनि में नौ लाख जीव उत्पन्न हो सकते हैं, किन्तु निष्पन्न बहुत नहीं होते। अर्थात् एक, दो अथवा तीन हो सकते हैं (देखें मूलपाठ)। जयाचार्य के अनुसार ये नौ लाख संज्ञी (समनस्क) जीव होते हैं।' संभोग के समय असंज्ञी (अमनस्क) जीव भी पैदा होते है।' उनकी संख्या यहां निर्दिष्ट नहीं है। शब्द-विमर्श कर्मकृत-वृत्तिकार ने कर्म के दो अर्थ किए हैं---नाम कर्म अथवा काम-वासना का उद्दीपक कर्म। प्रस्तुत प्रकरण में वैकल्पिक अर्थ अधिक संगत प्रतीत होता है। १. भ.वृ.२१८६मनुष्याणां तिरश्चां च बीजं द्वादशमुहूर्तान् यावद्योनिभूतं भवति, ततश्च गवादीनां शतपृथक्त्वस्यापि बीजं गवादियोनिप्रविष्टं बीजमेव, तत्र च वीजसमुदाये एको जीव उत्पद्यते, स च तेषां बीजस्वामिनां सर्वेषां पुत्रो भवतीत्यत उक्तम्— 'उक्कोसेणं सयपुहुत्तस्से' त्यादि । २. प्र.सारो.वृ.प.४०२,द्वार२४६,गा.१३६४ की वृत्ति-पृथक्त्वं चेह द्विप्रभृति रानवभ्य इति समयोक्तं ज्ञेयम् । ३. भ.वृ.२१६७ मत्स्यादीनामेकसयोगेऽपि शतसहस्रपृथक्त्वं गर्भे उत्पद्यते निष्पद्यते चेत्येकस्यैकभवग्रहणे लक्षपृथक्त्वं पुत्राणां भवतीति । मनुष्ययोनों पुनरुत्पन्ना अपि बहवो न निष्पद्यन्त इति । ४. भ.जो.१। ४०।३० ते इण अर्थे करिनैं हे गोतम, जब शीघ्र ही आय। पुत्रपणे नवलक्ष ऊपजै, ए सन्नी तणी अपेक्षाय ।। ५. पण्ण,११६४-- सुक्कपोग्गलपरिसाडेसु वा विगतजीवकलेवरेसु वा थी-पुरिस संजोएसु वा.....एस्थ णं सम्मुच्छिममणुस्सा सम्मुच्छंति । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २६३ श.२: उ.५: सू.८७-६३ मैथुनवृत्तिक-इसके संस्कृत रूप दो हो सकते हैं, मैथुनवृत्तिकः नेह-स्नेह का अर्थ है-वीर्य और रक्त। और मैथुनप्रत्ययिक ।' ९. मेहणणं भंते ! सेवमाणस केरिसए मैथनं भटन्त | सेवमानम्य कीटा. ! मैथुनं भदन्त ! सेवमानस्य कीदृशः असंयमः ९६.'भन्ते ! मैथुन सेवन करने वाले जीव के कैसा असंजमे कजई ? क्रियते ? असंयम होता है ? गोयमा ! से जहानामए केइ पु गौतम ! सः यथानामकः कश्चित् पुरुषः 'रूय' गौतम ! जिस प्रकार कोई पुरुष तपी हुई शलाका रूयनालियं वा बूरनालियं वा तत्तेणं कणएणं नालिकां वा बूरनालिकां वा तप्तेन कनकेन से रूई से भरी हुई नालिका अथवा बूर से भरी समभिद्धंसेजा, एरिसए णं गोयमा ! मेहुणं समभिध्वंसेत, ईदृशः गौतम ! मैथुनं सेव- हुई नालिका को ध्वस्त कर देता है । गौतम ! सेवमाणस्स असंजमे कजइ ॥ मानस्य असंयमः क्रियते । मैथुन सेवन करने वाले जीव के ऐसा असंयम होता है। भाष्य १. सूत्र १६ प्रस्तुत सूत्र में मैथुन के द्वारा होने वाले असंयम को समझाया पहलू है। उसकी वर्जना का दूसरा पहलू है--हिंसा। संभोग-काल में गया है। भगवान् महावीर ने ब्रह्मचर्य पर बहुत बल दिया। अब्रह्मचर्य उत्कर्षतः नौ लाख जीवों की हिंसा होती है। वे जीव पञ्चेन्द्रिय होते से राग या मूर्छा बढ़ती है। यह अब्रह्मचर्य की वर्जना का एक हैं। वृत्तिकार ने इस श्रुति का उल्लेख किया है। ६०. सेवं भंते ! सेवं मंते ! जाब विहरइ ॥ तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! यावत् वि- ६०. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते वह ऐसा ही है, हरति। इस प्रकार भगवान् गौतम यावत् संयम और तप से अपने आप को भावित करते हुए विहरण कर ६१.तए णं समणे भगवं महावीरे रायगिहाओ ततः श्रमणः भगवान् महावीरः राजगृहान् नगराओ गुणसिलाओ चेइयाओ पडि- नगराद गुणशिलाच चैत्यात प्रतिनिष्कामति, निक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जण- प्रतिनिष्कम्य बहिः जनपदविहारं विहरति । वयविहारं विहरइ ॥ श्रमण भगवान् महावीर राजगृह नगर और गुणशिल चैत्य से पुनः निष्क्रमण करते हैं, पुनः निष्क्रमण कर राजगृह के आस-पास जनपद में विहरण कर रहे हैं। तुंगियानयरी-समणोवासय-पदं ६२. तेणं कालेणं तेणं समएणं तुंगिया नामं नयरी होत्या-वण्णओ॥ तुङ्गिकानगरी-श्रमणोपासक-पदम् तुंगिकानगरी-श्रमणोपासक-पद तस्मिन् काले तस्मिन् समये तुङ्गिका नाम नगरी ६२. उस काल और उस समय तुंगिका नामक नगरी आसीत्-वर्णकः । थी-नगर-वर्णन | ६३. तीसे णं तुंगियाए नयरीए बहिया उत्तर- तस्याः तुङ्गिकायाः नगर्याः बहिः उत्तरपौरस्त्ये ६३. उस तुंगिका नगरी के बाहर उत्तर-पूर्व दिग्भाग पुरत्थिमे दिसीमागे पुष्फवतिए नाम चेइए दिग्भागे पुष्पवतिकं नाम चैत्यम् आसीत्- (ईशानकोण) में पुष्पवतिक नामक चैत्य थाहोत्या-वण्णओ॥ वर्णकः । चैत्य-वर्णन । १.भ..२०६५-नामकर्मनिवर्तितायां योनौ अथवा कर्ममदनोद्दीपको व्यापारस्तत् कृतं यस्यां सा कर्मकृताऽतस्तस्याम् । २. वही,२।५-मैथुनस्य वृत्तिः-प्रवृत्तिर्यस्मिन्नसौ मैथुनवृत्तिको मैथुनं वा प्रत्य यो-हेतुर्यस्मिन्नसौ स्वार्थिके कप्रत्यये मैथुनप्रत्ययिकः। ३. वही,२।८६ मतं-कर्पासविकारस्तभृता नालिका—शुषिरवंशादिरूपा रूतनालिका ताम् । एवं बूरनालिकामपि, नवरं बूरं-वनस्पति विशेषावयवविशेषः। 'समभिद्धंसेज'त्ति रूतादिसमभिध्वंसनात् इह चायं वाक्यशेषो दृश्यः–एवं मैथुन सेवमानो योनिगतसत्त्वान् मेहनेनाभिध्वंसयेत् । एते च किल ग्रन्थान्तरे पञ्चेन्द्रियाः श्रूयन्त इति। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.२: उ.५: सू.६४ २६४ भगवई ६४. तत्थ णं तुंगियाए नयरीए बहवे तत्र तुझिकायां नगर्यां बहवः श्रमणोपासकाः ६४. 'उस तुंगिका नगरी में अनेक श्रमणोपासक समणोवासया परिवसंति-अड्डा दित्ता परिवसन्ति-आढ्याः दीप्ताः विस्तीर्णविपुल- रहते हैं। वे सम्पन्न और दीप्तिमान हैं। उनके वित्थिण्णविपुलभवण-सयणासण-जाणवाह- भवन-शयनासन-यानवाहनाकीर्णाः बहुधन- विशाल और प्रचुर भवन शयन-आसन वाले और णाइण्णा बहुधण-बहुजायरूव-रयया आयो- बहुजातरूप-रजताः आयोग-प्रयोगसंप्रयुक्ताः यान-वाहन से आकीर्ण हैं। उनके पास प्रचुर धन, गपयोगसंपउत्ता विच्छड्डियविपुलभत्तपाणा विच्छतिविपुलभक्तपानाः बहुदासी-दास-गो- सोना और चांदी हैं। वे आयोग और प्रयोग में बहुदासी-दास-गो-महिस-गवेलय-प्पभूया महिष-गवेलकप्रभूताः बहुजनस्य अपरिभूताः संलग्न हैं। उनके घर में विपुलमात्रा में भोजन बहुजणस्स अपरिभूया अभिगय-जीवाजीवा अभिगतजीवाजीवाः उपलब्धपुण्यपापाः आ- और पान दिया जा रहा है। उनके पास अनेक उवलद्धपुण्ण-पावा आसव-संवर-निजर- श्रव-संवर-निर्जरा-क्रियाऽधिकरण-बन्ध-प्र- दास, दासी, गाय, भैंस और भेड़े हैं। वे बहुजन किरियाहिकरणबंध-पमोक्खकुसला अस- मोक्षकुशलाः असहाय्याः देवासुरनाग- के द्वारा अपरिभवनीय हैं। जीव-अजीव को हेजा देवासुरनागसुवण्णजक्खरक्खस्स- सुवर्णयक्षराक्षसकिनरकिंपुरुषगरुडगान्धर्व- जानने वाले, पुण्य-पाप के मर्म को समझने वाले, कित्ररकिंपरिसगरुलगंधव्वमहोरगादिएहि महोरगादिकैः देवगणैः नैर्ग्रन्थात् प्रवचनाद् आस्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बंध देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अनतिक्रमणीयाः नैर्ग्रन्थे प्रवचने निःशंकिताः और मोक्ष के विषय में कुशल, सत्य के प्रति स्वयं अणतिक्कमणिज्जा, निग्गंथे पावयणे निस्सं- निष्कांक्षिताः निर्विचिकित्साः लब्धार्थाः निश्चल, देव, असुर, नाग, सुवर्ण, यक्ष, राक्षस, किया निकंखिया निन्वितिगिच्छा लद्धद्वा गृहीतार्थाः पृष्टार्थाः अभिगतार्थाः विनि- किनर, किंपुरुष, गरुड़, गन्धर्व, महोरग आदि गहियहा पुच्छियट्ठा अभिगयट्ठा चितार्थाः अस्थिमज्जाप्रेमानुरागरक्ताः इद- देव-गणों के द्वारा निर्ग्रन्थ-प्रवचन से अविचलनीय, विणिच्छियद्वा अद्विमिंजपेम्माणुरागरता मायुष्मन् नैर्ग्रन्थं प्रवचनम् अर्थः इदं परमार्थः इस निर्ग्रन्थ-प्रवचन में शंका-रहित, कांक्षा-रहित, अयमाउसो ! निग्गंथे पावयणे अटे अयं पर- शेषम् अनर्थः उशितपरिघाः अपावृतद्वाराः । विचिकित्सा-रहित, यथार्थ को सुनने वाले, ग्रहण ' मटे सेसे अणद्वे, ऊसियफलिहा अवंगुय- 'चियत्त'अन्तःपुरगृहप्रवेशाः चतुर्दशाष्ट- करने वाले, उस विषय में प्रश्न करने वाले, उसे दुवारा चियत्तंतेउरघरप्पवेसा चाउद्दसट्ट- मोद्दिष्टपूर्णमासीषु प्रतिपूर्ण पौषधं सम्यग् । जानने वाले, उसका विनिश्चय करने वाले, (निर्ग्रमुद्दिद्वपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्मं अनुपालयन्तः श्रमणान् निर्ग्रन्थान् प्रासुक- न्थ प्रवचन के) प्रेमानुराग से अनुरक्त अस्थिअणुपालेमाणा, समणे निग्गंथे फासु- -एषणीयेन अशन-पान-खाद्य-स्वाद्येन वस्त्र- मञ्जावाले 'आयुष्मन् । यह निर्ग्रन्थ-प्रवचन यथार्थ एसणिजेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं -प्रतिग्रह-कम्बल-पादप्रौंछनेन पीठ-फलक- है। यह परमार्थ है, शेष अनर्थ है', (ऐसा मानने वत्थ-पडिग्गह-कंबल-पायपुंछणेणं पीढ- ___ -शय्या-संस्तारकेण औषध-भैषज्येन प्रति- वाले), आगल को ऊंचा और दरवाजे को खुला फलग-सेजा-संथारएणं ओसह-भेसजेणं लाभयन्तः बहुभिः शीलव्रतगुण-विरमण- रखने वाले, अन्तःपुर और दूसरों के घर में बिना पडिलाभमाणा बहुहिं सीलब्बयगुण- -प्रत्याख्यान-पौषधोपवासैः यथापरिगृहीतैः ।। किसी रुकावट के प्रवेश करने वाले, चतुर्दशी, -रमण-पचक्खाण-पोसहोववासेहिं अहा- तपःकर्मभिः आत्मानं भावयन्तः विहरन्ति । अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा को प्रतिपूर्ण पौषध परिग्गहिएहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं का सम्यक् अनुपालन करने वाले, श्रमण-निर्ग्रन्थों भावेमाणा विहरंति ॥ को प्रासुक और एषणीय अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कंबल, पादौंछन, औषध-भैषज्य, पीठ-फलक, शय्या और संस्तारक का दान देने वाले, बहुतशीलव्रत, गुण, विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास के द्वारा तथा यथापरिगृहीत तपःकर्म के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए रह रहे हैं। भाष्य १. सूत्र ६४ प्रस्तुत सूत्र में तुंगिया नगरी के श्रमणोपासकों का वर्णन है। श्रमण की उपासना करनेवाले गृहस्थ का नाम है श्रमणोपासक । इसका समानार्थक शब्द है श्रावक। इस वर्णन में श्रमणोपासकों की सामाजिक और धार्मिक दोनों अवस्थाओं का चित्रण किया गया है। सम्पन्नता, दानशीलता और अपरिभवनीयता यह उनकी सामाजिक अवस्था का चित्रण है। तत्त्वज्ञान, आत्म-निर्भरता, धर्म के प्रति दृढ आस्था, व्रतों की आराधना और तपस्या यह उनके धार्मिक जीवन का चित्रण है। भौतिक जीवन के साथ धार्मिक जीवन का योग होना श्रावक जीवन की अपनी विशेषता है। १. द्रष्टव्य, भ.२२५ का भाष्य । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २६५ श.२: उ.५: सू.६४ शब्द-विमर्श आद्य-धन-धान्य आदि से परिपूर्ण। दीप्त-दीप्तिमान् । वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'प्रसिद्ध' किया है।' औपपातिक वृत्ति में 'दित्त' पाठ का अर्थ दृप्त-दर्पवान किया है।' 'दित्त' का प्रसिद्ध अर्थ चिन्तनीय है। ओवाइयं में 'दित्ता, वित्ता ये दो पाठ मिलते हैं।' 'वित्त' का अर्थ 'प्रसिद्ध है।' प्रतीत होता है प्रस्तुत प्रकरण में पाठ और वृत्ति दोनों की अव्यवस्था हुई ___ आयोग और प्रयोग आयोग का अर्थ है-द्विगुण आदि की वृद्धि के लिए अर्थ देना। प्रयोग का अर्थ है-ब्याज।' औपपातिक वृत्ति में आयोग का अर्थ 'अर्थ-लाभ' और प्रयोग का अर्थ 'उपाय' किया गया है। हो सकता है राजा कृणिक के प्रसंग में यह अर्थपरिवर्तन किया गया। स्थानांग वृत्ति में 'प्रयोग' का अर्थ 'ऋण लेनेवालों को अर्थ देना' किया है। विच्छर्दित-त्यक्त अथवा विच्छित्तिमान-विभूतियुक्त। गवेलक-भेड़।' पुण्य-शुभ कर्म को पुण्य कहते हैं। पाप-अशुभ कर्म को पाप कहते हैं। आश्रय-कर्म-आकर्षण के हेतुभूत आत्म-परिणाम को आश्रव कहते हैं। संवर आश्रव के निरोध को संवर कहते हैं। निर्जरा तपस्या के द्वारा कर्ममल का विच्छेद होने से जो आत्म-उज्जवलता होती है, उसे निर्जरा कहते हैं। क्रिया--द्रष्टव्य भ.११२७६-२८६ और भ.११३६४-३७२ का भाष्य। अधिकरण गाड़ी, यंत्र आदि ।" बन्ध-कर्म-पुद्गलों के ग्रहण को बन्ध कहा जाता है। मोक्ष-समस्त कर्मों का फिर बन्ध न हो, ऐसा क्षय होने से आत्मा अपने ज्ञानदर्शनमय स्वरूप में अवस्थित होती है, उसका नाम मोक्ष है। कुशल हेय और उपादेय का ज्ञाता । सत्य के प्रति स्वयं निश्चल वृत्तिकार ने असहेज शब्द के दो अर्थ किए हैं: १. आत्मकर्तृत्व एवं कर्म-सिद्धान्त पर जिन्हें इतना भरोसा होता है. वे विपत्ति के क्षणों में भी किसी दिव्य शक्ति के सहयोग की आकांक्षा नहीं करते, इसलिए वे असहेज (असहाय्य) कहलाते हैं। २. अन्य मतावलम्बियों द्वारा सम्यक्त्व से विचलित करने के प्रयलों के उपरान्त भी जो विचलित नहीं होते, अपने सिद्धान्तों और साधना-पथ में अविचल रहने के लिए किसी बाहरी सहयोग की अपेक्षा नहीं रखते, वे असहेज होते हैं। इसका फलितार्थ यह है-चे स्वयं तत्त्वज्ञ और जैन दर्शन के मर्मज्ञ होते हैं। इसलिए अन्य दार्शनिकों द्वारा प्रस्तुत तर्कों को प्रतिहत करने में वे स्वयं समर्थ होते हैं और जिन-शासन में अत्यन्त भावित होने के कारण वे दूसरों का सहयोग नहीं चाहते।" श्रीमञ्जयाचार्य ने भगवती-जोड़ में लम्बी चर्चा प्रस्तत की है।" विघ्ननिवारण, सामाजिक प्रतिष्ठा और अध्यात्म-साधना के विकास की दृष्टि से यदि श्रावक दिव्य शक्तियों का सहयोग लेता है, तो वह अनुचित नहीं है। जयाचार्य के अभिमत में यह असहेज स्वतंत्र साधना के सन्दर्भ में विशेष प्रयोग है, जिस प्रकार श्रमण के लिए प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, तीसरे में गोचरी और चौथे में पुनः स्वाध्याय का विधान किया गया है, वह साधु के लिए अनिवार्य साधना-पद्धति नहीं है तथा उनके समाचरण के अभाव में साधुत्व खंडित नहीं होता," वैसे ही श्रावक दिव्य शक्तियों का सहयोग न ले, यह उनका विशेष गुण है, पर सम्यक्त्व के साथ उसकी अनिवार्यता नहीं है। यदि अनिवार्यता हो, तो आगमों के निम्न प्रंसग हमें एक बार पुनः चिन्तन का अवसर देते हैं: १. भ.६.२ ६४-दित्तत्ति दीप्ताः-प्रसिद्धाः दृप्ता वा दर्पिताः। २. औ.बृ.पृ.२१ दित्तेति दृप्तो दर्पवान् । ३. ओवा.सू.१४। ४. औ.वृ.पृ.२१ वित्तेत्ति प्रसिद्धः । ५. (क) म.वृ.२।६४–आयोगो द्विगुणादिवृद्धयाऽर्थप्रदानं प्रयोगश्च कलान्तरं तौ संप्रयुक्तौ व्यापारितौ यैस्ते तथा । (ख) आप्टे. कलान्तरम् -Interest, Profitमासे शतस्य यदि पंच कलान्तरं स्यात् (लीलावती); प्रयोगः-(17) (a) Principal, loan bearing interest; (b) Lending money on usury. ६. औ.व.पृ.२२ –आयोगस्य अर्थलाभस्य, प्रयोगाः उपायाः । ७. स्था.वृ.प.४०० आयोगेन द्विगुणादिलाभेन, द्रव्यस्य प्रयोगः–अधमर्णानां दानम्। ८. भ.व.२०६४–विच्छर्दितं वा--विविधविच्छित्तिमद्विपुलं भक्तं च पानकं च येषां ते तथा। ६. वही,२।६४—गवेलका–उरभ्राः । १०. (क) म.वृ.२१६४-अधिकरणं गंत्री-यंत्रकादि । (ख) आप्टे.—गंत्री A car drawn by oxen. ११. भ.वृ.२१६४–'असहेज्जेत्यादि-अविद्यमानं साहाय्यं परसाहायकम् अत्यन्तसमर्थत्वाद्येषां ते साहाय्यास्ते च ते देवादयश्चेति कर्मधारयः, अथवा व्यस्तमेवेदं तेनासाहाय्या-आपद्यपि देवादिसाहायकानपेक्षाः स्वयं कृतं कर्म स्वयमेव भोक्तव्यमित्यदीनमनोवृत्तय इत्यर्थः अथवा पाषण्डिभिः प्रारब्धाः सम्यक्त्वाविचलनं प्रति न परसाहाय्यमपेक्षन्ते, स्वयमेव तत्प्रतिघातसमर्थत्वा जिनशासनात्यन्तभावितत्वाचेति । १२. भ.जो.91४१।१५७३। १३. उत्तर.२६/८ का टिप्पण न.५॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.२: उ.५: सू.६४ २६६ भगवई गृहीताई-अर्थ का अवधारण करनेवाला । पृष्टार्य-सन्दिग्ध अर्थ के विषय में प्रश्न करनेवाला । अभिगृहीतार्थ-प्रश्न के उत्तर को समझने वाला। विनिश्चिताई अर्थ के तात्पर्य को समझने वाला। अस्थिमजाप्रेमानुरागरक्त-मजागत संस्कार अत्यन्त सुदृढ़ होता है। उसे बदलना सहज संभव नहीं होता। विशेष जानकारी के लिए स्यगडो, २१२१६२ का टिप्पण द्रष्टव्य है। आगल को ऊंचा और दरवाजे को खुला रखने वाले–'उन श्रमणोपासकों का अन्तःकरण उन्नत और स्फटिक की भांति निर्मल स्वच्छ है। तात्पर्य की भाषा में जिन-प्रवचन की प्राप्ति के कारण वे परितुष्ट मनवाले हैं।' यह वृद्ध-व्याख्या है। यहां 'वृद्ध' शब्द के द्वारा अभयदेवसूरि का संकेत सूत्रकृतांग के वृत्तिकार शीलांकाचार्य की ओर प्रतीत होता है। शीलांकाचार्य ने सूत्रकृतांग की वृत्ति में उसियफलिहे की यही व्याख्या की है। वृत्तिकार ने इसके दो विकल्प और उद्धत १. अभयकुमार ने महाराणी धारिणी की उदग्र आकांक्षा को तृप्त करने के लिए देव की आराधना कर अभीप्सित कार्य में सफलता प्राप्त की, जिसका विस्तृत वर्णन हमें नायाघम्मकहाओ (अ.१) में उपलब्ध है। २. अंतगडदसाओ (३।४७-५०)के अनुसार श्री कृष्ण ने अपने छोटे भाई गजसुकुमाल के लिए देव की आराधना की और इच्छित फल प्राप्त किया। ३. चक्रवर्ती भरत ने चक्रवर्ती बनने से पहले अष्टम भक्त तप कर देवाराधना की जिसका प्रमाण है-जंबुद्दीवपण्णत्ती (३।२०)। ४. श्रीकृष्ण ने लवण समुद्र के अधिष्ठायक सुस्थित नामक देव की आराधना कर उसकी सहायता ली थी (नायाघम्मकहाओ, १।१६।२३७) औपपातिकवृत्ति और राजप्रश्नीयवृत्ति में असहेज का अर्थ 'सम्यक्त्व से अविचलित रहना' ही किया है, जो जयाचार्य के चिन्तन को और अधिक पुष्ट करता है। यदि दिव्य शक्तियों के सहयोग से सम्यक्त्व की सुरक्षा में खतरा होता, तो श्री कृष्ण और भरत चक्रवर्ती दिव्य शक्तियों की आराधना क्यों करते ? जयाचार्य के मन्थन का नवनीत यही है कि श्रावक वैसे साहाय्य की इच्छा नहीं करता, जिससे सम्यक्त्व और सत्य की निष्ठा में विचलन का भाव उत्पन्न हो। असुर और नागकुमार ये दोनों भवनपति जाति के देव हैं। सुवर्ण यह ज्योतिष्क जाति का देव है। यक्ष, राक्षस, किजर, किंपुरुष, गंधर्व और महोरग–ये व्यन्तर जाति के देव हैं।' गरुड-रुड भवनपति जाति के देव हैं। निःशंकित तत्त्व के विषय में सन्देह से मुक्त। निष्कांक्षित कुतत्त्व की आंकाक्षा से मुक्त। निर्विचिकित्स-धार्मिक आराधना के फल के विषय में सन्देह से मुक्त। लब्बार्व–अर्थ का श्रवण करनेवाला। यहां 'अर्थ' शब्द सूत्र का वाच्य, तत्त्व का प्रतिपाद्य और लक्ष्य-इन तीन सन्दर्भो में प्रयुक्त १. वे श्रावक अपने घरों के द्वार की आगल को ऊंचा रखते २. अपनी अतिशय उदारता के कारण वे गृहद्वार के आगल रखते ही नहीं, किंवाड़ सदा खुला रखते हैं।' वृत्तिकार ने किवाड़ खुले रखने के दो कारण बतलाए हैं। उन्हें सद्दर्शन प्राप्त हुआ है, इसलिए किसी अन्य सम्प्रदाय से उन्हें कोई भय नहीं हैं; इसलिए वे खुले द्वार रहते हैं—यह वृद्ध-व्याख्या है। दूसरा मत यह बतलाया है-उदारता की दृष्टि से वे किवाड़ खुला रखते हैं। ___ आगल को ऊंचा और किवाड़ को खुला रखने का कारण सूत्रकृतांगचूर्णि में निर्दिष्ट है, वह आगम-परम्परा के अधिक अनुकूल प्रतीत होता है—जैन श्रमणों की यह मर्यादा है कि वे बन्द किंवाड़ को खोल नहीं सकते और खुले किंवाड़ों को बन्द नहीं कर सकते। दसवेआलियं का कथन है--कवाडं णो पणोल्लेखा। दूसरी बात है-घर में बार-बार आने-जाने वाले लोग किंवाड़ को खोलते हैं या बन्द करते हैं, तो उससे जीवों की विराधना होती ता १.औ.वृ.पृ.१८८राज.वृ.पृ.२६०–अविद्यमानसाहाय्यः, कुतीर्थिकप्रेरितः सम्यक् त्वाविचलनं प्रति न परसाहाय्यमपेक्षते। २. भ.वृ.२।६४-तत्र देवा-वैमानिकाः 'असुरे'ति असुरकुमाराः 'नाग'त्ति नागकुमाराः, उभयेऽप्यमी भवनपतिविशेषाः, 'सुवण्ण'त्ति सद्वर्णाः ज्योतिष्काः यक्षराक्षसकिंनरकिंपुरुषाः व्यन्तरविशेषाः ‘गरुल त्ति गरुडध्वजाः सुपर्ण कुमाराः भवनपतिविशेषाः गन्धर्वा महोरगाश्च व्यन्तरविशेषाः। ३. वही,२६४-अस्थीनि च कीकसानि मिजा च तन्मध्यवर्ती धातु- रस्थिमिजास्ताः प्रेमानुरागेण-सर्वज्ञप्रवचनप्रीतिरूपकुसुम्भादिरागेण रक्ता इव रक्ता येषां ते तथा, अथवाऽस्थिमिजासु जिनशासनगतप्रेमानुरागेण रक्ता ये ते तथा। ४. द्रष्टव्य,सूय.२१२१७१ का टिप्पण। ५. भ.वृ.२।६४-'ऊसियफलिह'त्ति उशितम्-उन्नतं स्फटिकमिव स्फटिकं चितं येषां ते उशितस्फटिकाः मौनीन्द्रप्रवचनावाप्त्या परितुष्टमानसा इत्यर्थ इति वृद्धव्याख्या, अन्ये त्वाहुः-उड्रितः-अर्गलास्थानादपनीयो/कृतो न तिरश्चीनः कपाटपश्चाभागादपनीत इत्यर्थः, परिघः-अर्गला येषां ते उशितपरिधाः अथवोशितो-गृहद्वारादपगतः परिधो येषां ते उशितपरिधाः, औदार्यातिशयादतिशयदानदायित्वेन भिक्षुकाणां गृहप्रवेशनार्थ मनर्गलितगृहद्वारा इत्यर्थः। ६. वही,२१६४–'अवंगुयदुवारे ति अप्रावृतद्वाराः कपाटादिभिरस्थगित गृहद्वारा इत्यर्थः, सद्दर्शनलाभेन न कुतोऽपि पाषण्डिकाद् बिभ्यति, शोभनमार्गपरिग्रहेणोद्घाटशिरसस्तिष्ठन्तीति भाव इति वृद्धव्याख्या। अन्ये त्वाहुः -भिक्षुकप्रवेशार्थमौदार्यादस्थगितगृहद्वारा इत्यर्थः । ७. दसवे.५1१1१८॥ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २६७ श.२: उ.५: सू.६४ है। अतः श्रावक आगलों को ऊंचा कर अपने घर के मुख्य द्वार के रोगों पर चन्द्रमा का असर होता है। पूर्णिमा तथा अमावस्या के को तथा कोठे आदि के किंबाड़ को सदा खुला रखते हैं।' दिन चन्द्रमा का सर्वाधिक प्रबल प्रभाव होता है।" अन्तःपुर और दूसरों के.....प्रवेश करने वाले वृत्तिकार ने इसके भगवती तथा जीवाजीवाभिगमे में बताया है कि लवण समुद्र तीन अर्थ किए हैं-श्रावक अपनी धार्मिकता के कारण इतना चतुर्दशी, अष्टमी, पूर्णिमा या अमावस्या और पूर्णिमा को विश्वसनीय हो जाता है कि उसका अन्तःपुर और परघर में प्रवेश अतिरेक-अतिरेक बढ़ता है और घटता है । अभिमत है, बिना रोकटोक हो सकता है। इसका दूसरा अर्थ है कि लगता है, इसीलिए भगवती में जैन श्रावकों के लिए चतुर्दशी, उनके अन्तःपुर और घर में शिष्ट जन का प्रवेश सम्मत है। इसके अष्टमी, पूर्णिमा या अमावस्या को केवल धर्म की आराधना करने का द्वारा उनकी ईर्ष्या-मुक्त प्रवृत्ति की सूचना दी गई है। तीसरा अर्थ है विधान किया गया है। इन दिनों में उपवास को निर्जल करना कि उन्होंने अन्तःपुर और परघर में जैसे-तैसे प्रवेश करना वर्जित चाहिए। शरीर में जल-तत्त्वों की अधिक वृद्धि न हो, इसीलिए निर्जल किया है। इनमें पहला अर्थ अधिक प्रासांगिक है। उपवास का विधान किया गया है। उत्तरकाल में पर्व-तिथियों में चतुर्दशी, अष्टमी.....अनुपालन करनेवाले श्रमणोपासकों के । हरियाली का वर्जन करने की परम्परा प्रचलित हुई। लिए अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा को प्रतिपूर्ण पर्व-तिथियों में जो उपवास किया जाता है वह पौषधोपवास पौषधोपवास करने का उल्लेख महत्वपूर्ण है। प्रतिपूर्ण पौषधोपवास कहलाता है। पर्व-तिथियों में एक दिन-रात आहार, शरीर-सत्कार करने वाले चतुर्विध आहार का प्रत्याख्यान करते हैं, उपवास में जल आदि का त्याग कर ब्रह्मचर्य-पूर्वक जो धर्माराधना की जाती है, उसे भी नहीं लेते। पूरे दिन और रात धर्म की आराधना में लीन रहते 'प्रतिपूर्ण पौषध' कहा जाता है। विशेष जानकारी के लिए उत्तरायणाणि, ५।२३ का टिप्पण ज्योतिष-शास्त्र, शरीर-शास्त्र और विज्ञान के सन्दर्भ में यदि हम द्रष्टव्य है। इनका समाधान खोजें, तो सही समाधान मिल सकता है। औषध-वह दवा जिसमें एक ही द्रव्य हो। शरीर-शास्त्र के अनुसार हमारे शरीर में बहत्तर प्रतिशत पानी है। पानी का संबन्ध चन्द्रमा से है। भैषज्य-वह दवा जिसमें अनेक द्रव्यों का मिश्रण हो। ज्योतिष-शास्त्र में मन का कारक चन्द्रमा है। चन्द्रमा के आधार शील-शील शब्द शील-समाधौ धातु से निष्पन्न हुआ है। पर ही ज्योतिषी जातक के मन की स्थिति का विश्लेषण करते हैं। इसका अर्थ है 'समाधान' । आगम के व्याख्या-साहित्य में इसके अनेक अर्थ किए गए हैं। श्रावक के बारह व्रतों में पांच अणुव्रत हैं, शेष "चन्द्रमा हमारी पृथ्वी का निकटवर्ती ग्रह है। पृथ्वी पर स्थित सात शीलव्रत कहलाते हैं। पानी पर उसका सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। चन्द्र-दिवस के अनुसार यहां 'गुण' शब्द का प्रयोग प्रथक् किया गया है, इसलिए समुद्र में ज्वार-भाटे का समय बदलता रहाता है। 'शील' शब्द के द्वारा चार शिक्षाव्रत ग्रहणीय हैं। "शुक्ल पक्ष की पञ्चमी, अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी, पूर्णिमा तथा कृष्ण पक्ष की पञ्चमी, अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी और शील-चार शिक्षाव्रत। अमावस्या के दिन चन्द्रमा पृथ्वी और शरीर के ठीक सामने आता व्रत-पांच अणुव्रत। है। उस समय समुद्र और हमारे शरीर का पानी उछाल मारता है। गुण-तीन गुणव्रत । इन पर्व-तिथियों में इधर शरीर का पानी उछाल मारता है, उधर हरी वृत्तिकार ने शीलव्रत का अर्थ अणुव्रत किया है।" वनस्पति जिसमें नब्बे प्रतिशत पानी होता है, का सेवन करने से विरमण यथोचित राग आदि की निवृत्ति, इन्द्रिय-विषयों का शरीर में जल-तत्त्वों की वृद्धि हो जाती है और अग्नि-तत्त्व मन्द पड़ने यथाशक्य परित्याग। से शरीर में वायु-रोग बढ़ता है। वायु जब मस्तिष्क में पहुंचता है। तो उसके कारण मनुष्यों में उन्माद उत्पन्न होता है। प्रत्याख्यान नमस्कार-सहिता, पौरुषी आदि का संकल्प। "शिकागो के एक वैज्ञानिक ने सिद्ध किया है कि मस्तिष्क पौषप–पर्व-दिन में विशेष अनुष्ठान या आराधना करना । १. सूत्र.चू.पृ.३६८,३६६; द्रष्टव्य, सूय.२।२१७२ का टिप्पण। २. भ.व.२।६४-'चियत्तो'त्ति लोकानां प्रीतिकर एवान्तःपुरे वा गृहे वा प्रवेशो येषां ते तथा, अतिधार्मिकतया सर्वत्रानाशङ्कनीयास्त इत्यर्थः । अन्येत्वाहुः-- 'चियत्तो'त्ति नाप्रीतिकरोऽन्तःपुरगृहयोः प्रवेश:-शिष्टजनप्रवेशनं येषां ते तथा, अनीर्ष्यालुताप्रतिपादनपरं चेत्थं विशेषणमिति । अथवा 'चियत्तो'त्ति त्यक्तोन्तःपुरगृहयोः परकीययोर्यथाकथञ्चित्प्रवेशो यैस्ते तथा । ३. तन्दुरुस्ती आपके हाथ में (एक्युप्रेशर पद्धति),पृ.७४ से ७६ । ४. (क) भ.३।१५२-लवणसमुद्दे चाउसमुद्दिठ्ठपुण्णमासिणीसु अतिरेगे वहुइ वा? हायइ वा ? (ख) जीवा.३।२६ एवं खलु गोयमा लवणसमुद्दे चाउद्दसट्टमुद्दिट्ट पुण्णमासिणीसु अतिरेगं अतिरेगं वहति वा हायति वा। ५. द्रष्टव्य, अभिधान राजेन्द्र कोश, 'शील' शब्द । ६. चारित्रसार,१३।६-"गुणव्रतत्रयं शिक्षाव्रतचतुष्टयं शीलसप्तकमित्युच्यते।" ___ द्रष्टव्य, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, 'शील' शब्द । ७. भ.वृ.२।६४-शीलव्रतानि-अणुव्रतानि । Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.२: उ.५: सू.६५ भगवई ६५. तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावचिजा तस्मिन् काले तस्मिन् समये पार्थापत्यीयाः ६५.'उस काल और उस समय पाश्र्थापत्यीय स्थविर थेरा भगवंतो जातिसंपना कुलसंपन्ना स्थविराः भगवन्तः जातिसम्पन्नाः कुलसम्पन्नाः भगवान्, जो जातिसम्पन्न, कुलसम्पन्न, बलसम्पन्न, बलसंपन्ना रूवसंपन्ना विणयसंपन्ना नाण- बलसम्पन्नाः रूपसम्पन्नाः विनयसम्पन्नाः ज्ञान- रूपसम्पन्न, विनयसम्पन्न, ज्ञानसम्पन्न, दर्शनसम्पन्न, संपन्ना सणसंपना चरित्तसंपत्रा लज्जासंपना सम्पन्नाः दर्शनसम्पन्नाः चारित्रसम्पन्नाः लजा- चारित्रसम्पन्न, लज्जासम्पन्न, लाधवसम्पन्न, ओजलाघवसंपन्ना ओयंसी तेयंसी वचंसी जसंसी । सम्पत्राः लाघवसम्पन्ना ओजस्विनः तेजस्विनः स्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी, यशस्वी, क्रोधजयी, मानजियकोहा जियमाणा जियमाया जियलोभा वर्चस्विनः यशस्विनः जितक्रोधाः जितमानाः जयी, मायाजयी, लोभजयी, निद्राजयी, जितेजियनिद्दा जिइंदिया जियपरीसहा जीवि- जितमायाः जितलोभाः जितनिद्राः जितेन्द्रियाः न्द्रिय, परीषहजयी, जीने की आशंसा और मृत्यु यास-मरण-भयविप्पमुक्का तवप्पहाणा गुण- जितपरीषहाः जीविताशा-मरण-भयवि- के भय से मुक्त, तपप्रधान, गुणप्रधान, करणप्पहाणा करणप्पहाणा चरणप्पहाणा निग्ग- प्रमुक्ताः तपःप्रधानाः गुणप्रधानाः करण- प्रधान, चरणप्रधान, निग्रहप्रधान, निश्चयप्रधान, हप्पहाणा निच्छयप्पहाणा मद्दवप्पहाणा प्रधानाः चरणप्रधानाः निग्रहप्रधानाः निश्चय- मार्दवप्रधान, आर्जवप्रधान, लाघवप्रधान, क्षमाअज्जवप्पहाणा लाघवष्पहाणा खंतिप्पहाणा प्रधानाः मार्दवप्रधानाः आर्जवप्रधानाः लाघव- प्रधान, मुक्तिप्रधान, विद्याप्रधान, मन्त्रप्रधान, मुत्तिप्पहाणा विजाप्पहाणा मंतप्पहाणा प्रधानाः क्षान्तिप्रधानाः मुक्तिप्रधानाः विद्या- वेदप्रधान, ब्रह्मप्रधान, नयप्रधान, नियमप्रधान, वेयप्पहाणा बंभप्पहाणा नयप्पहाणा निय- प्रधानाः मन्त्रप्रधानाः वेदप्रधानाः ब्रह्म- सत्यप्रधान, शौचप्रधान, चारुप्रज्ञ, पवित्र ह्रदय मप्पहाणा सचप्पहाणा सोयप्पहाणा चारु- प्रधानाः नयप्रधानाः नियमप्रधानाः सत्य- वाले, निदानरहित, उत्सुकतारहित, आत्मोन्मुखी पण्णा सोही अणियाणा अप्पस्सुया प्रधानाः शौचप्रधानाः चारुप्रज्ञाः शोधिनः भावधारा वाले, सुश्रामण्य में रत, प्रश्न का यथार्थ अबहिल्लेसा सुसामण्णरया अच्छिद्द- अनिदानाः अल्पोत्सुकाः अबहिर्लेश्याः सुश्रा- उत्तर देने वाले, कुत्रिकापणतुल्य, बहुश्रुत और पसिणवागरणा कुत्तियावणभूया बहुस्सुया मण्यरताः अच्छिद्रप्रश्नव्याकरणाः कुत्रि- बहुत परिवार वाले हैं, वे पांच सौ अनगारों के बहुपरिवारा पंचहि अणगारसएर्हि सद्धिं कापणभूताः बहुश्रुताः बहुपरिवाराः पंचभिः साथ स-परिवृत होकर अनुक्रम से परिव्रजन करते संपरिखडा अहाणुपुदि चरमाणा गामाणुगाम अनगारशतैः सार्द्ध संपरिवृताः यथानुपूर्वि हुए एक ग्राम से दूसरे ग्राम में घूमते हुए सुखपूर्वक दूइजमाणा सुहंसुहेणं विहरमाणा जेणेव चरन्तः ग्रामानुग्रामं दवन्तः सुखंसुखेन विहरण करते हुए जहां तुंगिका नगरी है, जहां तुंगिया नगरी जेणेव पुष्फवइए चेइए तेणेव विहरन्तः यत्रैव तुङ्गिका नगरी यत्रैव पुष्प- पुष्पवतिक चैत्य है, वहां आए और आकर प्रवासउवागच्छंति, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं वतिकः चैत्यः तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागम्य -योग्य स्थान की अनुमति लेकर संयम और तप ओग्गहं ओगिण्हित्ता णं संजमेणं तवसा यथाप्रतिरूपम् अवग्रहम् अवगृह्य संयमेन से अपने आपको भावित करते हुए रह रहे हैं। अप्पाणं भावमाणा विहरति ॥ तपसा आत्मानं भावयन्तः विहरन्ति । भाष्य १. सूत्र ६५ प्रस्तुत सूत्र में स्थविर की विशेषताओं का निरूपण किया गया है। इनसे मुनि के बहु-आयामी व्यक्तित्व का परिचय हो जाता है। शब्द-विमर्श स्थविर–श्रुतवृद्ध। जातिसम्पन-उत्तम मातृपक्षवाला। कुलसम्पन्न-उत्तम पितृपक्षवाला। लज्जासम्पन-लाज अथवा संयम से सम्पन्न ।' लाघवसम्पन्न-अल्प उपकरण-युक्त। गौरव का त्याग करनेवाला।' ओजस्वी-मनोबल से युक्त। तेजस्वी शरीर-प्रभा से युक्त। वर्चस्वी-विशिष्ट प्रभाव-युक्त। यशस्वी ख्यातिमान। वृत्तिकार ने वच्चंसी का वैकल्पिक अर्थ 'वचस्वी' (विशिष्ट वचन युक्त) भी किया है। गुणप्रधान--'गुण' शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में होता है । वृत्तिकार ने इसका अर्थ संयम-गुण किया है। दशवकालिकचूर्णि में इसका अर्थ 'चरित्र-रक्षा के लिए की जानेवाली भावना' है। चरणप्रधान करणप्रधान-द्रष्टव्य भ.२१५२ का भाष्य। १. भ.वृ.२।६ लज्जा-प्रसिद्धा संयमो वा।। २. वही,२६ लाघवं द्रव्यतोऽल्पोपधित्वं भावतो गौरवत्यागः। ३. वही,श६-'ओयंसी'ति ओजस्विनो मानसावष्टम्भयुक्ताः 'तेयंसी'ति तेज- स्विनः शरीरप्रभायुक्ताः वयंसी'ति वर्चस्विनः' विशिष्टप्रभावोपेताः 'वचस्विनो वा' विशिष्टवचनयुक्ताः 'जसंसी'ति ख्यातिमन्तः अनुस्वारश्चैतेषु प्राकृतत्वात् । ४. वही,२।६ गुणाश्च संयमगुणाः। ५. दशवै.जि.चू.पृ.३७०-गुणा तेसिं सारक्खणनिमित्तं भावणाओ। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २६६ निग्रहप्रधान — निग्रह का शाब्दिक अर्थ है निषेध और नियन्त्रण | अनाचार का निषेध करना और अपने इन्द्रिय तथा मन का नियन्त्रण करना—ये दोनों अर्थ यहां संगत हो सकते हैं। वृत्तिकार ने इसका अर्थ अन्यायकारी को दण्ड देना किया है । ' निश्चयप्रधान १. अवश्यकरणीय का संकल्प, २. तत्त्व का निर्णय । मार्दवप्रधान - आर्जवप्रधान क्या ये 'जितमान' और 'जितमाय' के पुनरुक्त नहीं है ? इस प्रश्न का वृत्तिकार ने बहुत अच्छा समाधान दिया है। उनके अनुसार मान और माया को जीतने का अर्थ है —मान और माया के उदय को विफल कर देना। जबकि 'मार्दवप्रधान' तथा 'आर्जवप्रधान' के द्वारा मान और माया के 'उदय के अभाव की सूचना दी गई है । ' लाघवप्रधान- लाघव का अर्थ है— क्रिया की दक्षता । विद्याप्रधान मंत्रप्रधान --- विद्या -- जिसकी अधिष्ठात्री देवी हो । मंत्र जिसका अधिष्ठाता देव हो । ' अभयदेवसूरि ने विद्या और मंत्र के वैकल्पिक अर्थ भी दिए हैं— जो साधना सहित हो, वह विद्या और जो साधना -रहित हो, वह मंत्र । वेदप्रधान औपपातिक वृत्ति में वेद के दो अर्थ मिलते हैं—आगम तथा ॠग्वेद आदि वेद । ब्रह्मप्रधान—ब्रह्म के दो अर्थ हैं — वस्ति निरोध तथा कुशल ६६. तए णं तुंगियाए नयरीए सिंघाडग-तिगचउक्क-चच्चर-चउम्मुह- महापह-पहेसु जाव एगदिसाभिमुहा निज्जायंति । १. भ.जो. १।४२।१६ निग्रह-प्रधान जेह, दंड अन्याय करै जसुं। अनाचार सेवेह तास निषेधी दंड दियै ॥ २. भ. बृ. २/६५ निग्रहः अन्यायकारिणां दण्डः । ३. वही, २६५ निश्चयः – अवश्यंकरणाभ्युपगमस्तत्त्वनिर्णयो वा । ४. वही, २६५ ननु जितक्रोधादित्वान्मार्द्दवादिप्रधानत्वमवगम्यत एव तत्किं मार्दवेत्यादिना ? उच्यते, तत्रोदयविफलतोक्ता, मार्दवादिप्रधानत्वे तूदयाभाव एवेति । ५. वही, २६५ लाघवम् क्रियासु दक्षत्वम् । ६. भ.जो. १ । ४२ । २४-२६ विद्या करी प्रधान, ते प्रज्ञप्ती आदि करि । देवी साधन जान, अक्षर अनुकेर्डे तिका ॥ मंत्रे करी प्रधान, हरिणगमेषी प्रमुख ही । अधिष्ठित सुविधान, तेह तणा पिण जाणमुनि ।। अथवा विद्या सोय, साधना करी सहित जे। मंत्र जिको अवलोय, साधना करी रहित ते ॥ ७. ज्ञाता.वृ. प. ८ विद्याः प्रज्ञप्त्यादिदेवताधिष्ठिता वर्णानुपूर्व्यः, मंत्राः अनुष्ठान। भाष्य । १० ११ नयप्रधान नैगम आदि सात नय अथवा नीति । नियम- नाना प्रकार के अभिग्रह । शौच-अनवद्य आचार । ” श. २: उ.५: सू. ६५,६६ चारुप्रज्ञ – प्रज्ञा का अर्थ है— श्रुतनिरपेक्ष ज्ञान अन्तर्दृष्टि । पवित्र हृदय वाला..... सुश्रामण्य में रत — देखें, भ. २ । ५५ का तस्याः तुङ्गिकायाः नगर्याः शृङ्गाटक-त्रिकचतुष्क- चत्वर-चतुर्मुख-महापथ-पथेषु यावत् एकदिशाभिमुखाः निर्यान्ति । निश्छिद्र प्रश्नव्याकरण- व्याकरण का अर्थ है—उत्तर या व्याख्या । निश्छिद्र का अर्थ है— निर्दोष। जिसमें प्रश्न के उत्तर या व्याख्या की शक्ति निर्दोष होती है अथवा तत्काल उत्तर देने की शक्ति होती है, वह निश्छिद्र प्रश्न व्याकरणवाला होता है। १३ कुत्रिकापणभूत 'कुत्रिकापण एक विशिष्ट दुकान का नाम है । आगम - साहित्य में इसका अनेक बार उल्लेख हुआ है। भगवान् महावीर के युग में इस प्रकार की अनेक दुकानें होने का उल्लेख मिलता है। कुत्तिय के संस्कृत रूप दो मिलते है— कुत्रिक और कुत्रिज । जिस दुकान में स्वर्ग, मनुष्यलोक और पाताल इन तीनों में होने वाली सभी वस्तुएं मिलती हैं, उसे 'कुत्रिकापण' कहा जाता है। जिसमें धातु, जीव और मूल (जड़) – ये तीनों प्रकार के पदार्थ मिलते हैं, उसे 'कुत्रिजापण' कहा जाता है। स्थविर समीहित अर्थ-सम्पादन से युक्त अथवा कल गुणों से युक्त थे; इसलिए उनकी कुत्रिकापण से तुलना की गई है। ६६. उस तुंगिका नगरी के शृङ्गाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहट्टों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर यावत् नागरिक जन एक ही दिशा के अभिमुख जा रहे हैं। हरिणेगमिष्यादिदेवताधिष्ठितास्ता एव अथवा विद्या ससाधना, साधनरहिताः मंत्राः । ८. (क) औ.वृ. पृ. ६३ वेदाः आगमाः ऋग्वेदादयो वा । (ख) भ.जो. १।४२।२७- वेद करी सुप्रधान, आगम चिहुं वेदज्ञ वा । ६. राज.वृ. पृ. २८३ — ब्रह्मचर्यं वस्तिनिरोधः सर्वमेव वा कुशलानुष्ठानम् । १०. (क) वही, पृ. २८३ - नया नैगमादयः सप्त प्रत्येकं शतविधाः । (ख) औ.वृ. पृ. ६२ नया नीतयः । ११. राज.वृ. पृ. २८३ नियमा विचित्रा अभिग्रहविशेषाः । १२. राज. बृ. पृ. २८३ द्रव्यतो निर्लेपता, भावतोऽनवद्यसमाचारता । १३. भ.जो. १ । ४२ । ३५ । १४. (क) भ. वृ. २ / ६५ कुत्रिकं स्वर्गमर्त्यपाताललक्षणं भूमित्रयं तत्संभवं वस्त्वपि कुत्रिकं तत्सम्पादक आपणो हट्टः कुत्रिकापणस्तद्भूताः समीहितार्थसम्पा - दनलब्धियुक्तत्वने सकलगुणोपेतत्वेन वा तदुपमाः । (ख) अल्पपरिचित शब्दकोश —अथवा धातुजीवमूल लक्षणेभ्यस्त्रिभ्योजातं त्रिजं सर्वमपि वस्त्वित्यर्थः, कौ— पृथिव्यां त्रिजमापणयति — व्यवहरति यत्र हट्टे सः कुत्रिजापणः । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.२: उ.५: सू.६६,६७ २७० भगवई रन्ति । भाष्य १. शृङ्गाटकों ..... मार्गों 'शृंगाटक' इत्यादि पदों के लिए द्रष्टव्य है-भ.२।३० का भाष्य। ६७. तए णं ते समणोवासया इमीसे कहाए ततः ते श्रमणोपासकाः अनया कथया ६७. वे श्रमणोपासक इस कथा को सुनकर हृष्ट-तुष्ट लट्ठा समाणा हट्ठतुटूठचित्तमाणंदिया लब्धार्थाः सन्तः हृष्टतुष्टचित्ताः आनन्दिताः चित्तवाले, आनन्दित, नन्दित, प्रीतिपूर्ण मन वाले, गंदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरिस- नन्दिताः प्रीतिमनसः परमसौमनस्थिताः हर्ष- परम सौमनस्य-युक्त और हर्ष से विकस्वर वसविसप्पमाणहियया अण्णमण्णं सदाति, वशविसर्पहृदयाः अन्योन्यं शब्दयन्ति, शब्द- हृदयवाले हो गए। वे परस्पर एक दूसरे को सद्दावेत्ता एवं वयासी एवं खलु देवा- यित्वा एवमवादिषुः-एवं खलु देवानुप्रियाः! सम्बोधित कर इस प्रकार बोले–देवानुप्रियो ! गुप्पिया ! पासावचिजा थेरा भगवंतो पार्धापत्यीयाः स्थविरा भगवन्तः जाति- ___पार्धापत्यीय स्थविर भगवान् जो जातिसम्पन्न हैं जातिसंपन्ना जाव अहापडिरूवं ओग्गहं सम्पन्नाः यावद् यथाप्रतिरूपं अवग्रहम् अव- यावत् प्रवास-योग्य स्थान की अनुमति लेकर संयम ओगिण्हित्ता णं संजमेणं तवसा अप्पाणं गृह्य संयमेन तपसा आत्मानं भावयन्तः विह- और तप से अपने आप को भावित करते हुए भावमाणा विहरंति। तं महाफलं खलु देवाणुप्पिया ! तहारूवाणं तत् महाफलं खलु देवानुप्रियाः ! तथारूपाणां देवानुप्रियो ! तथारूप स्थविर भगवान् के थेराणं भगवंताणं नामगोयस्स वि सवण- स्थविराणां भगवतां नामगोत्रस्यापि श्रवण- नाम-गोत्र का श्रवण भी महान फलदायक है, फिर याए, किमंग पुण अभिगमण-वंदण- स्य, किमंग पुनः अभिगमन-वन्दन- अभिगमन, वन्दन, नमस्कार, प्रतिपृच्छा और नमंसण-पडिपुच्छण-पञ्जुवासणयाए ? एग- नमस्यन-प्रतिप्रच्छन-पर्युपासनयाः ? एक- पर्युपसना का कहना ही क्या ? एक भी आर्य स्स वि आरियस्स घम्मियस्स सुवयणस्स स्यापि आर्यस्य धार्मिकस्य सुवचनस्य श्रवण- धार्मिक सुवचन का श्रवण महान् फलदायक है सवणयाए, किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स स्य, किमंग पुनः विपुलस्य अर्थस्य ग्रहणस्य? फिर विपुल अर्थ-ग्रहण का कहना ही क्या ? गहणयाए ? तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया! तद् गच्छामः देवानुप्रियाः ! स्थविरान् भगवतः इसलिए देवानुप्रियो ! हम चलें, स्थविर भगवान् थेरे भगवंते वंदामो नमसामो सकारेमो वन्दामहे नमस्यामः सत्कारयामः सम्मानयामः को वन्दन-नमस्कार करें, सत्कार-सम्मान करें। वे सम्माणेमो कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं कल्याणं मंगलं दैवतं चैत्यं पर्युपास्महे । एतत् । कल्याणकारी हैं, मंगल, देव और प्रशस्त चित्तवाले पजुवासामो। एवं णे पेचभवे इहभवे य नः प्रेत्यभवे इहभवे च हिताय सुखाय क्षमाय हैं, उनकी पर्युपासना करें । यह हमारे परभव हियाए सुहाए खमाए निस्सेयसाए निःश्रेयसे आनुगामिकत्वाय भविष्यति इति और इहभव के लिए हित, सुख, क्षम, निःश्रेयस् आणुगामियत्ताए भविस्सति इति कटु कृत्वा अन्योन्यस्य अन्तिके एतदर्थं प्रति- और आनुगामिकता के लिए होगा। ऐसा अण्णमण्णस्स अंतिए एयमढें पडिसुणेति, शृण्वन्ति, प्रतिश्रुत्य यत्रैव स्वकानि-स्वकानि सोचकर वे परस्पर, इस विषय की प्रतिज्ञा करते पडिसुणेत्ता जेणेव सयाई-सयाई गिहाई गृहाणि तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागम्य स्नाताः हैं, प्रतिज्ञा कर जहां अपने-अपने घर हैं, वहां तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पहाया कृतबलिकर्माणः कृतकौतुक-मंगल-प्राय- आते हैं, वहां आकर उन्होंने स्नान किया, कयबलिकम्मा कयकोउय-मंगल-पाय- चित्ताः शुद्धप्रवेश्यानि मंगलानि वस्त्राणि बलिकर्म' किया, कौतुक' (तिलक आदि), छित्ता सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाई वत्थाई पवर प्रवरं परिहिताः अल्पमहाभिरणालंकृत- मंगल (दधि, अक्षत आदि) और प्रायश्चित्त परिहिया अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरा शरीराः स्वकेभ्यः-स्वकेभ्यः गृहेभ्यः प्रति- किया, शुद्ध प्रवेश्य' (सभा में प्रवेशोचित) सएहि-सएहिं गिहेहितो पडिनिक्खमंति, निष्कामन्ति, प्रतिनिष्क्रम्य एकतः मिलन्ति, मांगलिक वस्त्रों को विधिवत् पहना। अल्पभार पडिनिक्खमित्ता एगयओ मेलायंति, मेला- मिलित्वा पादविहारचारेण तुङ्गिकायाः नगर्याः और बहुमूल्य वाले आभरणों से शरीर को अलंकृत यित्ता पायविहारचारेणं तुंगियाए नयरीए मध्यमध्येन निर्गच्छन्ति, निर्गम्य यत्रैव किया। (इस प्रकार सञ्जित होकर वे) अपने-अपने मझमझेणं निग्गछंति, निग्गच्छित्ता जेणेव पुष्पवतिकः चैत्यः तत्रैव उपागच्छन्ति, उपा- घरों से निकलकर एक साथ मिलते हैं। एक साथ पुष्फवतिए चेइए तेणेव उवागच्छंति, उवा- गम्य स्थविरान् भगवतः पंचविधेन अभि- मिलकर पैदल चलते हुए तुंगिका नगरी के गच्छित्ता थेरे भगवंते पंचविहेणं अभिगमेणं ___ गमेन अभिगच्छन्ति, (तद् यथा-१. सचि- बीचोबीच निर्गमन करते हैं, निर्गमन कर जहां अभिगच्छंति, (तं जहा-१. सचित्ताणं त्तानां द्रव्याणां व्युत्सर्जनतया २. अचित्तानां पुष्पवतिक चैत्य है, वहां आते हैं, वहां आकर दव्वाणं विओसरणयाए २. अचित्ताणं द्रव्याणां च व्युत्सर्जनतया ३. एकशाटिकेन । पांच प्रकार के अभिगमों से स्थविर भगवान् के दव्वाणं अविओसरणयाए ३. एगसाडिएणं उत्तरासंगकरणेन ४. चक्षुःस्पर्श अंजलि- पास जाते हैं। (जैसे- १.सचित्त द्रव्यों को उत्तरासंगकरणेणं ४. चक्खुप्फासे अंजलि- प्रग्रहेण ५. मनसः एकत्वीकरणेन) यत्रैव छोड़ना २. अचित्त द्रव्यों को छोड़ना, ३. एक प्पग्गहेणं ५. मणसो एगत्तीकरणेणं) जेणेव स्थविराः भगधन्तः तत्रैव उपागच्छन्ति, उपा- शाटकवाला उत्तरासंग करना ४. दृष्टिपात होते Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २७१ श.२: उ.५: सू.६७ थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेंति, करेत्ता वंदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता तिविहाए पजुवासणाए पजुवासंति ॥ गम्य त्रिः आदक्षिण-प्रदक्षिणां कुर्वन्ति, कृत्वा वन्दन्ते नमस्यन्ति, वन्दित्वा नमस्थित्वा त्रिवि- धया पर्युपासनया पर्युपासते । ही बद्धाजलि होना ५. मन को एकाग्र करना) जहां स्थविर भगवान हैं वहां आते हैं। आकर दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा करते हैं। प्रदक्षिणा कर वन्दन-नमस्कार करते हैं। वन्दन-नमस्कार कर तीन प्रकार की पर्युपासना के द्वारा पर्युपासना करते हैं। भाष्य १.हित....आनुगामिकता हित आदि पदों के लिए द्रष्टव्य है-भ.२।३० का भाष्य । २. बलिकर्म यह स्नान के अनन्तर की जानेवाली क्रिया है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ अपने गृह-देवता की पूजा किया है।' निशीषभाष्य-चूर्णि में चावल आदि से अल्पना करने को बलिकर्म कहा गया है।' अंगुत्तरनिकाय में बलि के पांच प्रकार निर्दिष्ट हैं १. ज्ञातिबलि २. अतिथिबलि ३. पूर्वप्रेतबलि ४. राजबलि ५. देवता-बलि। मनुस्मृति में भी बलिप्रकरण में महर्षि, पितर, देव, भूत और अतिथि–इन पांच प्रकारों का निर्देश मिलता है।' बलि का अर्थ पूजा है, किन्तु स्नान के पश्चात् बलिकर्म का अर्थ घटित नहीं होता। पुष्करिणी में स्नान किया, वहां भी बलिकर्म करने का उल्लेख है। वहां कुलदेवता की पूजा कैसे हो सकती है? यहां 'बलि' का अर्थ 'जलाञ्जलि' देना हो सकता है। इसका दूसरा अर्थ-'ललाट पर रेखा खींचना' भी किया जा सकता है। जयाचार्य ने 'बलिकर्म' शब्द की विस्तृत मीमांसा की है।" ३. कौतुक 'कौतुक' शब्द कुतूहल, उत्सव, अपचय आदि अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ काजल का तिलक किया है। दृष्टिदोष आदि से बचने के लिए काजल का तिलक करने की प्रथा थी। शान्त्याचार्य ने इसका अर्थ 'ललाट से मुशल का स्पर्श करवाना किया है। द्रष्टव्य, उत्तरज्झयणाणि, २२ | ६ का टिप्पण। कौतुक के अर्थ में कोउहल शब्द का भी प्रयोग मिलता है। उसका अर्थ है पुत्र-प्राप्ति के लिए स्नान आदि करना।' सौभाग्य आदि के निमित स्नान करना या करवाना कौतुक कहलाता है।" र सरसों, दही, अक्षत, दूर्वा, अंकुर आदि का प्रयोग करने को मंगल कहा जाता है। ५. प्रायश्चित्त कौतुक और मंगल ये चक्षुदोष आदि के निवारण के लिए किये जाते हैं। इसलिए कौतुफ और मंगल का प्रयोग प्रायश्चित्त कहलाता है। वृत्तिकार ने एक मतान्तर का उल्लेख किया है। उसके अनुसार पादछुप्त पाठ व्याख्यात होता है। तात्पर्यार्थ में कोई मौलिक अन्तर नहीं है। है। इसलिए कौतुर्मान्तर का उल्लेख का कोई मौलिक १. भ.व.२।६७-'कयबलिकम्म'त्ति स्नानानन्तरं कृतं बलिकर्म यैः स्वगृहदेवतानां ते तथा। २. निशीथ भा.गा.२०४ की चू.-बलिकरणंकूरा तिणा बलिकडा। ३. अंगुत्तरनिकाय,पञ्चक निपातो, मुण्डराजवग्गो, आदियसुत्तं, ५।५।१, पृ.३११ ---पुन च परं,गहपति, आरियसावको उट्ठानविरियाधिगतेहि भोगेहि बाहाबलपरिचितेहि....पञ्चबलिं कत्ता होति। आतिबलिं, अतिथिबलिं, पुब्बपेतबलिं, राजबलिं, देवताबलिं–अयं चतुर्थो भोगानं आदियो । ४. मनुस्मृति,३/० ऋषयः पितरो देवा, भूतान्यतिथयस्तथा । आशासते कुटुम्बिभ्यस्तेभ्यः कार्य विजानता ।। ५. नाया.१।२।१४। ६. आप्टे,—बलिक्रिया line on the forehead. ७. भ.जो.११४३११-४६। ८. भ..२।६७ कौतुकानि–पषीतिलकादीनि । ६. उत्तरा.वृ.वृ.प.४६० कौतुकानि ललाटस्य मुशलस्पर्शनादीनि । १०. (क) उत्तर.२०।४५ जे लक्खणं सुविण पउंजमाणे, निमित्तकोऊहल संपगाढे। (ख) उत्तरा.बृ.वृ.प.४७६ –कौतुकं च अपत्याद्यर्थं स्वपनादि । ११. स्था.वृ.प.२६१-रक्षादिकरणेन कौतुककरणेन-सौभाग्यादिनिमित्तं परस्त्र पनकादिकरणेनेति । १२. भ.वृ.२।६७–मंगलानि तु सिद्धार्थकदध्यक्षतदूर्वाकुरादीनि । १३. वही,२।७-'कयकोउयमंगलपायच्छित्त'त्ति कृतानि कौतुकमंगलान्येव प्रायश्चित्तानि दुःस्वप्नादिविघातार्थमवश्यकरणीयत्वाद्यैस्ते तथा । अन्ये त्याहुः -'पायच्छित्त'त्ति पादेन पादे वा छुप्ताश्चक्षुर्दोषपरिहारार्थ पादच्छुप्ताः कृत-- कौतुकमगंलाश्च ते पादच्छुप्ताश्चेति विग्रहः । Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. २: उ.५ः सू.६७-१०० ६. शुद्ध प्रवेश्य वृत्तिकार ने इसके (सुद्धप्यावेस के) दो संस्कृत रूप दिए हैं- शुद्धात्मवैष्य और शुद्धप्रवेश्य। शुद्धात्मवैष्य का अर्थ है-शुद्ध आत्मा के लिए वेषोचित । शुद्धप्रवेश्य का अर्थ है- सभाप्रवेशोचित वेश । ' प्रतिपत्ति, विनयप्रतिपत्ति, विनयविधि का समाचरण – ये गति परक अर्थ हैं। प्रस्तुत प्रकरण में अभिगमन का अर्थ विनय की प्रतिपत्ति है। उसके पांच अंग होते हैं, जिनका सूत्र में उल्लेख है । इनमें पहले दो हैं १. सचित्त द्रव्य का व्युत्सर्ग ६८. तए णं ते पेरा भगवंतो तेसिं समगोवासयाणं तीसे महइमहालियाए महच्चपरिसाए चाउज्जामं धम्मं परिकहेंति, तं वस्त्र आदिका त्याग न करना स्वाभाविक है—उसका अभिगमन के अंग के रूप में उल्लेख किस लिए आवश्यक है ? यह प्रश्न सहज ही उभरता है । ज्ञाता की वृत्ति में अभयदेवसूरि नें एक वैकल्पिक पाठ का उल्लेख किया है। उसका अर्थ है छत्र, चामर आदि का ७. प्रवर यह क्रियाविशेषण विभक्तिरहित पद है । वृत्तिकार ने पउराई व्युत्सर्ग। यह चैकल्पिक पाठ और उसका अर्थ संगत प्रतीत होत — इस पाठान्तर का उल्लेख किया है। ८. अभिगमों अभिगम के ज्ञानपरक और गमनपरक दोनों प्रकार के अर्थ होते हैं। अभिगम—ज्ञान, विस्तृत बोध और बोधिलाभ-ये ज्ञानपरक अर्थ हैं। जहा सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं, सव्वाओ अदिष्णादाणाओ वेरमणं, सव्वाओ बहिद्धादाणाओ वेरमणं ॥ ६६. तणं ते समणोवासया वेराणं भगवंताणं अंतिए धम्मं सोचा निसम्म हट्ठतुट्ठा जाव हरिसवसविसप्पमाणहियया तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेंति, करेत्ता एवं वयासी संजमे णं भंते ! किंफले ? तवे किंफले ? १००. तए णं ते येरा भगवंतो ते समणोवासए एवं वयासी संजमे णं अजो ! अणहयफले, तवे वोदाणफले ॥ २७२ २. अचित द्रव्य का अव्युत्सर्ग यह 'अव्युत्सर्ग' शब्द चिन्तनीय है । वृत्तिकार ने अविओसरणवाए का अर्थ 'वस्त्र, अंगूठी आदि का अत्याग' किया है। ' ततः ते स्थविरा: भगवन्तः तेषां श्रमणोपासकानां तस्यै महातिमहत्यै महार्चपरिषदे चातुर्यामं धर्मं परिकथयन्ति तद् यथा सर्वस्मात् प्राणातिपाताद् विरमणम्, सर्वस्मात् मृषावादाद् विरमणम्, सर्वस्माद् अदत्तादानाद् विरमणम्, सर्वस्माद् बहिस्तादादानाद् विरमणम् । १. भ. वृ. २ । ६७ - शुद्धात्मनां वैष्याणि – वेषोचितानि अथवा शुद्धानि च तानि प्रवेश्यानि च — राजादिसभाप्रवेशोचितानि शुद्धप्रवेश्यानि । है। प्रस्तुत प्रकरण में 'अविओसरणयाए' पाठ सही प्रतीत नहीं होता । यहां 'अ' शब्द 'च' के अर्थ में प्रयुक्त है। प्राकृत व्याकरण के अनुसार 'च' व्यञ्जन का लोप होने पर अकार शेष रहता है। इसका अर्थ है 'अपि' (भी) । इस प्रकार पूरे वाक्य का अर्थ होगा— अचित्त द्रव्यों का भी व्युत्सर्ग। अभिगम के समय जैसे सचित्त पुष्पमालाएं आदि का व्युत्सर्ग किया जाता था, वैसे ही छत्रचामर आदि का भी सर्ग किया जाता था। ६. उत्तरासंग उत्तरीय वस्त्र का विशेष विधि से न्यास करना, जिस प्रकार पूजा के समय उत्तरीय ओढा जाता है। ' ततः ते श्रमणोपासकाः स्थविराणां भगवताम् अन्तिके धर्मं श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टाः यावत् हर्षवशविसर्पद्हृदयाः त्रिः आदक्षिण-प्रदक्षिणां कुर्वन्ति कृत्वा एवमवादिषुः —संयमः भदन्त ! किंफलः ? तपः किंफलम् ? २. बही, २६७ वत्थाई पवराई परिहिय'त्ति क्वचिद् दृश्यते 'वत्थाई पवरपरि - हिय'त्ति, तत्र प्रथमपाठो व्यक्तः, द्वितीयस्तु प्रवरं यथा भवत्येवं परिहिताः ततः ते स्थविरा: भगवन्तः तान् श्रमणोपासकान् एवमवादिषुः – संयमः आर्याः ! अनानवफलः, तपः व्यवदानफलम् । भगवई ६८. वे स्थविर भगवान् उन श्रमणोपासकों को उस विशालतम ऐश्वर्यशाली परिषद् में चातुर्याम धर्म का उपदेश करते हैं, जैसे— सर्वप्राणातिपात से विरत होना, सर्व मृषावाद से विरत होना, सर्व अदत्तादान से विरत होना, सर्व बाह्य आदान ( परिग्रह) से विरत होना । ६६. 'वे श्रमणोपासक भगवान् स्थविरों के पास धर्म सुनकर, अवधारण कर, हृष्ट-तुष्ट चित्त वाले हो गए यावत् हर्ष से उनका हृदय विकस्वर हो गया। वे दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा करते हैं, प्रदक्षिणा कर इस प्रकार बोले—भन्ते! संयम का फल क्या है ? तपस्या का फल क्या है ? प्रवरपरिहिताः । ३. वही,२।६७ –– वस्त्रमुद्रिकादीनाम् 'अविउसरणयाए 'त्ति अत्यागेन । ४. ज्ञाता.वृ. प. ५०। ५. भ. वृ. २/६७ उत्तरासंगः—उत्तरीयस्य देहे न्यासविशेषः । १००. वे भगवान् स्थविर उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार बोले—आर्यो ! संयम का फल है अनास्त्रव और तप का फल है व्यवदान — निर्जरा । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १०१. तए णं ते समणोवासया पेरे भगवंते एवं वयासी जइ णं भंते ! संजमे अणहयफले, तवे वोदाणफले । किंपत्तियं णं भंते! देवा देवलोएसु उववज्जंति ? १०२. तत्थ णं कालियपुत्ते नामं घेरे ते समणोवासए एवं वयासी—पुव्वतवेणं अजो ! देवा देवलोएसु उववज्र्ज्जति । तत्य णं मेहिले नामं येरे ते समणोवासए एवं वयासी—पुव्वसंजमेणं अजो ! देवा देवलोएसु उववज्जंति । तत्य णं आणंदरक्खिए नामं येरे ते समणोवासए एवं वयासी— कम्मियाए अजो ! देवा देवलोएसु उववज्रंति । तत्य णं कासवे नामं थेरे ते समणोवासए एवं वयासी—संगियाए अजो ! देवा देवलोएसु उववजंति । पुव्वतवेणं, पुव्यसंजमेणं, कम्मियाए, संगियाए अजो ! देवा देवलोएसु उववअंति । सच्चे णं एस अट्ठे, नो चेव णं आयभाववत्तब्वयाए ॥ २७३ ततः ते श्रमणोपासकाः स्थविरान् भगवतः एवमवादिषु : - यदि भदन्त ! संयमः अनास्त्रवफलः, तपः व्यवदानफलम् । किंप्रत्ययं भदन्त ! देवाः देवलोकेषु उपपद्यन्ते ? तत्र कालिकपुत्रः नाम स्थविरः तान् श्रमणोपासकान् एवमवादीत् पूर्वतपसा आर्या ! देवाः देवलोकेषु उपपद्यन्ते । तत्र मेहिलः नाम स्थविरः तान् श्रमणोपासकान् एवमवादीत् — पूर्वसंयमेन आर्याः ! देवाः देवलोकेषु उपपद्यन्ते । तत्र आनन्दरक्षितः नाम स्थविरः तान् श्रमणोपासकान् एवमवादीत् — कर्मितया आर्याः ! देवाः देवलोकेषु उपपद्यन्ते । तत्र काश्यपः नाम स्थविरः तान् श्रमणोपासकान् एवमवादीत् — संगितया आर्याः ! देवाः देवलोकेषु उपपद्यन्ते । पूर्वतपसा, पूर्वसंयमेन, कर्मितया, संगितया आर्याः ! देवाः देवलोकेषु उपपद्यन्ते । सत्योऽयमर्थः, नो चैव आत्मभाववक्तव्यतया । भाष्य १. सूत्र ६६-१०२ प्रस्तुत प्रकरण में भगवान् पार्श्व द्वारा सम्मत दो तत्त्वों संवर और निर्जरा की चर्चा हुई है। भगवान् महावीर ने उस दो अंगवाले धर्म का समर्थन किया है। धर्म के दो तत्त्व हैं—संयम और व्यवदान । संयम के द्वारा कर्म का निरोध होता है और व्यवदान के द्वारा कर्म की निर्जरा होती है। ये दोनों स्वर्गोत्पत्ति के कारण नहीं हैं, फिर कोई जीव स्वर्ग में कैसे उत्पन्न होता है ? उसका कोई कारण है या निष्कारण ही पैदा होता है ? इस प्रश्न के समाधान चार स्थविरों ने चार उत्तर दिए हैं- पूर्व तप, पूर्व संयंम, कर्मिता और संगिता । इन चारों में एक संगति है। चारों के समवाय से एक उत्तर १. (क) भ.वृ. २ १०१ कः प्रत्ययः कारणं यत्र तत् किंप्रत्ययं ? निष्कारणमेव देवा देवलोकेषूत्पद्यन्ते तपः संयमयोरुक्तनीत्या तदकारणत्वादित्यभिप्रायः । (ख) भ.जो. १ । ४३ । ६३ संयम सूं आवता कर्म रोकै, तप सूं पूर्व कर्म खपाय स्वर्ग तणां कारण नहिं दोनं, तिण सूं निःकारणे स्वर्ग जाय' २. भ. वृ. २ । १०२ - 'पुव्वतवेणं ति पूर्वतपः - सरागावस्थाभावि तपस्या, वीतरागावस्थाऽपेक्षया सरागावस्थायाः पूर्वकालभावित्वात् एवं संयमोऽपि श. २: उ.५ः सू.६६-१०२ १०१. वे श्रमणोपासक भगवान् स्थविरों से इस प्रकार बोले—' भन्ते ! यदि संयम का फल अनास्रव है और तप का फल व्यवदान है, तो देव देवलोक में किस कारण से उपपन्न होते हैं ? १०२. कालिकपुत्र नामक स्थविर ने उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा—आर्यो ! पूर्वकृत तप से देव देवलोक में उपपन्न होते हैं। मेहिल (अथवा मैथिल) नामक स्थविर ने उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा—आर्यो ! पूर्वकृत संयम से देव देवलोक में उपपन्न होते हैं। आनन्दरक्षित नामक स्थविर ने उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा—आर्यो ! कर्म की सत्ता से देव देवलोक में उपपन्न होते हैं। काश्यप नामक स्थविर उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा—आर्यो ! आसक्ति के कारण देव देवलोक में उपपन्न होते हैं। आर्यो ! पूर्वकृत तप, पूर्वकृत संयम, कर्म की सत्ता और आसक्ति के कारण देव देवलोक में उपपन्न होते हैं । यह अर्थ सत्य है । अहंमानिता के कारण ऐसा नहीं कहा जा रहा है। बनता है। पूर्व तप का अर्थ है—सराग अवस्था में होने वाला तप और पूर्व संयम का अर्थ है— सराग अवस्था में होनेवाला संयम । इन दो उत्तरों का तात्पर्यार्थ यह है कि वीतराग संयम और वीतराग तप की अवस्था में स्वर्गोत्पत्ति के हेतुभूत आयुष्य का बंध नहीं होता, वह सराग संयम और सराग तप की अवस्था में होता है। छठे, सातवें गुणस्थान में होता है, इसीलिए तप और संयम के साथ 'पूर्व' शब्द को जोड़ा गया है। मुख्यतया स्वर्गोत्पत्ति के दो हेतु हैं— कर्मिता और सङ्गिता । तप से कर्म की निर्जरा होती है और संयम से कर्म का निरोध होता है। इन दोनों से आयुष्य कर्म का बंध नहीं होता। उसके बंध के दो कारण हैं—कर्म का अस्तित्व और संग (राग) का अस्तित्व ।' जो जीव वर्तमान जन्म में मुक्त: होने अयथाख्यातचारित्रमित्यर्थः । ततश्च सरागकृतेन संयमेन तपसा च देवत्वावाप्तिः, रागांशस्य कर्मबन्धहेतुत्वात् । 'कम्पियाए 'त्ति कर्म विद्यते यस्यासी कर्मी तद्भावस्तत्ता तया कर्मितया । अन्ये त्वाहुः कर्म्मणां विकारः कार्मिका तया ऽ क्षीणेन कर्म्मशेषेण देवत्वावाप्तिरित्यर्थः । 'संगियाए 'त्ति सो यस्यास्ति स सङ्गी तद्भावस्तत्ता तया, ससङ्गो हि द्रव्यादिषु संयमादियुक्तोऽपि कर्म बघ्नाति, ततः सङ्गितया देवत्वावाप्तिरिति । आह च- पुव्वतवसंजमा होति रागिणो पच्छिमा अरागस्स । रागोसंगो वृत्तो संगा कम्पं भवो तेणं ॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.२ः उ.५ः सू.६६-१०७ २७४ भगवई वाला नहीं है, उसके संसार में अवस्थित रहने योग्य कर्म शेष हैं, वह पुनर्जन्म के लिए आयुष्य कर्म का बन्ध करता है । इस दृष्टि से देवत्व - प्राप्ति का एक हेतु कर्म का अस्तित्व बनता है। प्रश्न पूछा गया— देव के आयुष्य का बंध किस कर्म के उदय से होता है ? उत्तर दिया गया वह शरीरप्रयोग नाम कर्म के उदय से होता है। कर्मबंध का मूल कारण है—शरीरप्रयोग नाम कर्म का उदय । इसके अतिरिक्त देवगति-योग्य कर्म बंधने के हेतु चार बतलाए गये हैं१. सराग संयम २. संयमासंयम ३. बालतपः कर्म ४. अकाम निर्जरा । ये चारों देवगति के आयुष्य-बंध के हेतु हैं। उसके बंध का कारण (साधकतम साधन या साक्षात् कारण) है-शरीरप्रयोग नाम कर्म का उदय । की भाषा में निर्जरा के साथ पुण्य का बंध होता है, इसलिए संयम और निर्जरा की साधना देवगति का हेतु बनती है। प्रस्तुत प्रकरण में पूर्व संयम का प्रयोग है और संग का पृथक् उल्लेख है। भगवई तथा ठाणं और ओवाइयं में सराग संयम का उल्लेख है।' इससे यह सहज ही फलित होता है कि आयुष्य कर्म का बंध रागावस्था में ही होता है, वीतराग अवस्था में नहीं । शब्द-विमर्श आयुष्य का बंध संग या राग के आस्तित्व में ही होता है; इसलिए वह भी देवत्व-प्राप्ति का एक हेतु बतलाया गया है। तात्पर्य १०३. तए णं ते समणोवासया थेरेहिं भगवंतेहिं इमाई एयारूवाई वागरणाई बागरिया समाणा हट्ठट्ठा थेरे भगवंते बंदंति नमसंति, पसिणाई पुच्छंति, अट्ठाई उवादियंति, उवादिएत्ता जामेव दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसिं पडिगया ॥ १०४. तए णं ते येरा अण्णया कयाई तुंगियाओ नयरीओ पुफ्फवतियाओ चेहयाओ पडिनिग्गच्छंति, बहिया जणवयविहारं विहरति ॥ १०५. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे होत्या - सामी समोसढे जाव परिसा पडिगया ॥ १०६. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी इंदभूई नामं अणगारे जाव संखित्तविपुलतेयलेस्से छछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ॥ १०७. तए णं भगवं गोयमे छटुक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बीयाए पोरिसीए झाणं झियाइ, तइयाए पोरिसीए अतुरियमचवलमसंभंते मुहपोत्तियं १. (क) भ. ८ ४२८ । अनाव—यह शब्द ष्णुंकू प्रस्रवणे धातु से निष्पन्न हुआ है। इसका अर्थ है अनास्रव, नए कर्म का निरोध । व्यवदान — निर्जरा, पूर्वकृत कर्म का विनाश।' आत्माभाववक्तव्यता— अहंमानिता । ' ततः ते श्रमणोपासकाः स्थविरैः भगवद्भिः इमानि एतद्रूपाणि व्याकरणानि व्याकृताः सन्तः हृष्टतुष्टाः स्थविरान् भगवतः वन्दन्ते नमस्यन्ति, प्रश्नान् पृच्छन्ति, अर्थान् उपाददति, उपादाय यस्याः एव दिशः प्रादुर्भूताः तस्यामेव दिशि प्रतिगताः । ततः ते स्थविराः अन्यदा कदाचित् तुङ्गिकायाः नगर्याः पुष्पवतिकाच् चैत्यात् प्रतिनिर्गच्छन्ति, बहिः जनपदविहारं विहरन्ति । तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहः नाम नगरम् आसीत् । स्वामी समवसृतः यावत् परिषद् प्रतिगता । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य ज्येष्ठः अन्तेवासी इन्द्रभूतिः नाम अनगारः यावत् संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यः षष्ठषष्ठेन अनिक्षिप्तेन तपः कर्मणा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरति । (ख) ठाणं, ४ । ६२६ । (ग) ओवा.सू.७३ । २. भ.वृ.२ । १०१ – 'दाप्' लवने अथवा 'दैप् शोधने' इति वचनाद् । व्यवदानं — पूर्वकृतकर्म्मवनगहनस्य लवनं प्राक्कृतकर्म्मकचवरशोधनं वा फलं यस्य ततः भगवान् गौतमः षष्ठक्षपणपारणके प्रथमायां पौरुष्यां स्वाध्यायं करोति, द्वितीयायां पौरुष्यां ध्यानं ध्यायति, तृतीयायां पौरुष्यां अत्वरितमचपलमसंभ्रान्तः मुखपोतिकां प्रति १०३. वे श्रमणोपासक भगवान् स्थविरों से ये इस प्रकार के उत्तर सुनकर हृष्ट-तुष्ट हो भगवान् स्थविरों को वन्दन - नमस्कार करते हैं, प्रश्न पूछते हैं, अर्थ ग्रहण करते हैं, ग्रहण कर जिस दिशा से आए, उसी दिशा में लौट जाते हैं। १०४. किसी दिन वे स्थविर तुंगिका नगरी के पुष्पवतिक चैत्य से लौट जाते हैं, बाह्य जनपदों में विहार करते हैं। १०५. उस काल और उस समय राजगृह नामक नगर था। वहां भगवान् महावीर पधारे यावत् परिषद् आई और लौट गई । १०६. उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अंतेवासी इन्द्रभूति नामक अनगार यावत् विपुल तेजोलेश्या को अन्तर्लीन रखने वाले बिना विराम षष्ठभक्त तपःकर्म तथा संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए रह रहे हैं । १०७. भगवान् गौतम षष्ठभक्त के पारणा में प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करते हैं, द्वितीय प्रहर में ध्यान करते हैं, तृतीय प्रहर में त्वरता, चपलता और संभ्रम रहित होकर मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन तद्व्यवदानफलं तप इति । ३. वही, २।१०२ - आत्मभाव एव - स्वाभिप्राय एव न वस्तुतत्त्वं वक्तव्योवाच्योऽभिमानाद्येषां ते आत्मभाववक्तव्यास्तेषां भाव आत्मभाववक्तव्यता - अहंमानिता तया । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २७५ पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता भायणवत्थाई लिखति, प्रतिलिख्य भाजनवस्त्राणि प्रति- पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता भायणाई पमन्जइ, लिखति, प्रतिलिख्य भाजनानि प्रमार्जयति, पमजित्ता भायणाई उग्गाहेइ, उग्गाहेत्ता प्रमाय॑ भाजनानि उद्गृह्णाति, उदगृह्य यत्रैव जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव श्रमणः भगवान् महावीरः तत्रैव उपागच्छति, उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं उपागम्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादीद्- एवं वयासी-इच्छामि णं भंते ! तुम्भेहिं इच्छामि भदन्त ! भवद्भिः अनुज्ञातः सन् अब्भणुण्णाए समाणे छद्रुक्खमणपारणगंसि षष्ठक्षपणपारणके राजगृहे नगरे उच्च-नीच- रायगिहे नगरे उच्च-नीय-मज्झिमाई कुलाइं मध्यमानि कुलानि गृहसमुदानस्य भिक्षाचर्याय घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्तए । अटितुम् । अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं ॥ यथासुखं देवानुप्रिय ! मा प्रतिबन्धम् । श.२ः उ.५: सू.१०७-१०६ करते हैं, प्रतिलेखन कर पात्र-वस्त्र का प्रतिलेखन करते हैं प्रतिलेखन कर पात्रों का प्रमार्जन करते हैं, प्रमार्जन कर पात्रों को हाथ में लेते हैं, लेकर जहां श्रमण भगवान् महावीर हैं, वहां आते हैं, आकर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करते हैं, वन्दन-नमस्कार कर वे इस प्रकार बोले-भन्ते ! मैं आपकी अनुज्ञा पाकर षष्ठभक्त के पारणा में राजगृह नगर के उच्च, नीच और मध्यम कुलों की सामुदानिक' भिक्षाचर्या के लिए घूमना चाहता हूं। देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख हो, प्रतिबन्ध मत करो। भाष्य १. सामुदानिक नाना घरों से ली जानेवाली भिक्षा ।' १०८. तए णं भगवं गोयमे समणेणं भगवया ततः भगवान् गौतमः श्रमणेन भगवता १०८. भगवान् गौतम श्रमण भगवान् महावीर की महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे समणस्स महावीरेण अभ्यनुज्ञातः सन् श्रमणस्य भगवतः अनुज्ञा प्राप्त कर श्रमण भगवान महावीर के पास भगवओ महावीरस्स अंतियाओ गुणसि- महावीरस्य अन्तिकात् गुणशिलाच् चैत्यात् से गुणशिल चैत्य से बाहर आते हैं, बाहर आकर लाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनि- प्रतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य अत्वरितम- त्वरता-, चपलता और संभ्रम-रहित होकर युगक्खमित्ता अतुरियमचवलमसंभंते जुगंतर- चपलमसंभ्रान्तः युगान्तरप्रलोकनया दृष्ट्या प्रमाण भूमि को देखने वाली दृष्टि से ईर्या समिति पलोयणाए दिट्ठीए पुरओ रियं सोहेमाणे- पुरतः ईयाँ शोधयन्-शोधयन् यत्रैव राजगृह का शोधन करते हुए, शोधन करते हुए जहां सोहेमाणे जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवा- नगरं तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य राजगृहे राजगृह नगर है वहां आते हैं, आकर राजगृह गच्छइ, उवागच्छित्ता रायगिहे नगरे उच्च- नगरे उच्च-नीच-मध्यमानि कुलानि गृहसमु- नगर के उच्च, नीच और मध्यम कुलों की सामुनीय-मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स दानस्य भिक्षाचर्याम् अटति । दानिक भिक्षाचर्या के लिए घूमते हैं। भिक्खायरियं अडइ । भाष्य १. युगप्रमाण भूमि को देखने वाली दृष्टि २. ईर्या युग का अर्थ है-गाड़ी का जुआ। युग-प्रलोकना का अर्थ रियं का अर्थ है-ईर्या, गमन । है युगप्रमाण भूमि के अन्तर को देखनेवाली। वृत्तिकार ने 'युग' का अर्थ यूपद्ययज्ञ का स्तम्भ किया है।२ १०६. तए णं भगवं गोयमे रायगिहे नगरे ततः भगवान् गौतमः राजगृहे नगरे उच्च-नीच- १०६. भगवान् गौतम राजगृह नगर के उच्च, नीच उच्च-नीय-मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स मध्यमानि कुलानि गृहसमुदानस्य भिक्षा-चर्या- और मध्यम कुलों की सामुदानिक भिक्षाचर्या के भिक्खायरियाए अडमाणे बहुजणसदं निसा- याम् अटन् बहुजनशब्दं निशमयति–एवं लिए घूमते हुए अनेक व्यक्तियों से ये शब्द सुनते मेइ–एवं खलु देवाणुप्पिया ! तुंगियाए खलु देवानुप्रियाः ! तुङ्गिकायाः नगर्याः बहिः हैं—देवानुप्रिय ! तुंगिका नगरी से बाहर नयरीए बहिया पुष्फवइए चेइए पासाव- पुष्पवतिके चैत्ये पावपित्यीयाः स्थविराः पुष्पवतिक चैत्य में पार्थापत्यीय भगवान् स्थविरों व्यवधानं प्रलोकयति या सा युगान्तरप्रलोकना तया दृष्ट्या । १. भ.वृ.२।१०७-गृहेषु समुदानं भैक्षं गृहसमुदानं तस्मै गृहसमुदानाय ।। २. भ.बृ.२१०५ युगं-यूपस्तत् प्रमाणमन्तरं-स्वदेहस्य दृष्टिपातदेशस्य च Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. २: उ.५: सू. १०६, ११० चिजा थेरा भगवंतो समणोवासएहिं इमाई एयारूवाई वागरणाई पुच्छिया - संजमे णं भंते! किंफले ? तवे किंफले ? तए णं ते थेरा भगवंतो ते समणोवासए एवं वयासी संजमे णं अजो ! अणण्हयफले, तवे वोदाणफले, तं चेव जाव पुव्वतवेणं, पुव्वसंजमेणं, कम्मियाए, संगियाए अजो ! देवा देवलोएसु उववजंति । सच्चे णं एस मट्ठे, नो चेव णं आयभाववत्तव्य - याए । से कहमेयं मन्त्रे एवं ॥ ११०. तए णं भगवं गोयमे इमीसे कहाए लट्टे समाणे जायसढे जाव समुप्पन्नको हल्ले अहापत्तं समुदाणं गेण्हइ, गेण्हित्ता रायगिहाओ नयराओ पडिनिक्खमइ अतुरियमचवलमसंभंते जुगंतरपलोयणाए दिट्ठीए पुरओ रियं सोहेमाणे सोहेमाणे जेणेव गुणसिलए चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते गमणागमणाए पडिक्कमइ, पडिक्कमित्ता सणसणं आलोएइ, आलोएत्ता भत्तपाणं पडिदंसेइ, पडिदंसेत्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं वदासी एवं खलु भंते ! अहं तुम्मेहिं अब्भणाए समाणे रायगिहे नयरे उच्चनीय-मज्झिमाणि कुलाणि घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे बहुजणसद्दं निसामे—ि एवं खलु देवाणुप्पिया ! तुंगिया नयरीए बहिया पुष्फवइए चेइए पासाचिजा थेरा भगवंतो समणोवासएहिं इमाई एयारूवाई वागरणाई पुछिया — संजमे णं भंते! किंफले ? तवे किंफले ? २७६ भगवन्तः श्रमणोपासकैः इमानि एतद्रूपाणि व्याकरणानि पृष्टाः --संयमः भदन्तः किंफलः ? तपः किं फलम् ? ततः ते स्थविरा: भगवन्तः तान् श्रमणोपासकान् एवमवादिषु : – संयमः आर्याः ! अनास्रवफलः, तपः व्यवदानफलम्, तच्चैव यावत् पूर्वतपसा, पूर्वसंयमेन, कर्मितया, संगि तया आर्याः । देवाः देवलोकेषु उपपद्यन्ते । सत्योऽयमर्थः नो चैव आत्मभाववक्तव्यतया । तत् कथमेतत् मन्ये एवम् ? ततः भगवान् गौतमः अनया कथया लब्धार्थः सन् जातश्रद्धः यावत् समुत्पन्नकुतूहलः यथापर्याप्तं समुदानं गृह्णाति, गृहीत्वा राजगृहान् नगरात् प्रतिनिष्क्रामति, अत्वरितमचपलमसंभ्रान्तः युगान्तरप्रलोकनया दृष्ट्या पुरतः ईय शोधयन्-शोधयन् यत्रैव गुणशिलकं चैत्यं यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीरः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अदूरसामन्ते गमनागमने प्रतिक्रामति, प्रतिक्रम्य एषणाम् अनेषणाम् आलोचयति, आलोच्य भक्तपानं प्रतिदर्शयति, प्रतिदर्श्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादीद् एवं खलु भदन्त ! अहं भवद्भिः अभ्यनुज्ञातः सन् राजगृहे नगरे उच्चनीच - मध्यमानि कुलानि गृहसमुदानस्य भिक्षार्यायै अन् बहुजनशब्द निशमयामि एवं खलु देवानुप्रिय ! तुङ्गकायाः नगर्याः बहिः पुष्पवतिके चैत्ये पार्श्वापत्ययाः स्थविरा: भगवन्तः श्रमणोपासकैः इमानि एतद्रूपाणि व्याकरणानि पृष्टश:संयमः भदन्त ! किंफलः ? तपः किंफलम् ? तं चैव जाव सच्चे णं एस मट्ठे, नो चेव तच्चैव यावत् सत्योऽयमर्थः, नो चैव आत्म णं आयभाववत्तव्वयाए । तं पभू णं भंते ! ते घेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं इमाइं एयारूवाइं वागरणाई वागरेत्तए ? उदाहु अप्पभू ? समिया णं भंते! ते येरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं इमाई एयरूवाई वागरणाई वागरेत्तए ? उदाहु असमिया ? आउज्जिया णं भंते ! तेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं इमाई एयारूवाई वागरणाई वागरेत्तए ? उदाहु भाववक्तव्यतया । तत् प्रभवः भदन्त ! ते स्थविरा: भगवन्तः तेषां श्रमणोपासकानाम् इमानि एतद्रूपाणि व्याकरणानि व्याकर्तुम् ? उताहो अप्रभवः ? सम्यञ्चः भदन्त ! ते स्थविरा: भगवन्तः तेषां श्रमणोपसकानाम् इमानि एतद्रूपाणि व्याकरणानि व्याकर्तुम् ? उताहो असम्यञ्चः ? आवर्जिकाः भदन्त ! ते स्थविरा: भगवन्तः तेषां श्रमणोपासकानाम् इमानि एतद्रूपाणि भगवई से श्रमणोपासकों ने ये इस प्रकार के प्रश्न पूछे भन्ते ! संयम का फल क्या है ? तप का फल क्या है ? उन भगवान् स्थविरों ने उन श्रमणोपासकों को इस प्रकार कहा—आर्यो ! संयम का फल अनानव तप का फल व्यवदान है। इसी प्रकार यावत् पूर्वकृत तप, पूर्वकृत संयम, कर्म की सत्ता और आसक्ति के कारण देव देवलोकों में उपपन्न होते हैं । । यह अर्थ सत्य है, अहंमानिता के कारण ऐसा नहीं कहा जा रहा है। तो क्या यह ऐसे ही है ? ११०. यह कथा सुनकर भगवान् गौतम के मन में श्रद्धा यावत् कुतूहल उत्पन्न हुआ। वे यथा पर्याप्त भिक्षा लेते हैं, लेकर राजगृह नगर से बाहर आते हैं, त्वरा -, चपलता और संभ्रम -रहित होकर युगप्रमाण भूमि को देखले वाली दृष्टि से ईर्ष्या-समिति का शोधन करते हुए, शोधन करते हुए जहां गुणशिलक चैत्य है, जहां श्रमण भगवान् महावीर हैं, वहां आते हैं, आकर श्रमण भगवान् महावीर के न अति दूर और न अति निकट रहकर गमनागमन का प्रतिक्रमण करते हैं, प्रतिक्रमण कर, एषणा और अनेषणा की आलोचना करते हैं, आलोचना कर भक्त-पान दिखलाते हैं, दिखलाकर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दननमस्कार करते हैं, वन्दन - नमस्कार कर इस प्रकार बोले—भन्ते ! मैं आपकी अनुज्ञा पाकर राजगृह नगर के उच्च नीच और मध्यम कुलों में सामुदानिक भिक्षा के लिए घूमता हुआ अनेक व्यक्तियों से ये शब्द सुनता हूँ —देवानुप्रिय ! तुंगिका नगरी के बाहर पुष्पवतिक चैत्य में पार्श्वापत्यीय भगवान् स्थविरों से श्रमणोपासकों ने ये इस प्रकार के प्रश्न पूछे—भन्ते ! संयम का फल क्या है ? तप का फल क्या है ? इसी प्रकार यावत् यह अर्थ सत्य है, अहंमानिता के कारण ऐसा नहीं कहा जा रहा है। भन्ते ! क्या वे भगवान स्थविर उन श्रमणोपासकों को ये इस प्रकार के उत्तर देने में समर्थ हैं ? अथवा असमर्थ हैं ? वे भगवान स्थविर उन श्रमणोपासकों को ये इस प्रकार के उत्तर देने में योग्य' हैं ? अथवा अयोग्य हैं ? वे भगवान स्थविर उन श्रमणोपासकों को ये इस प्रकार के उत्तर देने में दायित्वपूर्ण हैं ? अथवा दायित्वपूर्ण नहीं हैं ? वे भगवान स्थविर उन श्रमणोपासकों Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २७७ श.२: उ.५: सू.११० अणाउजिया ? पलिउजिया णं भंते ! ते व्याकरणानि व्याकर्तुम् ? उताहो अना- को ये इस प्रकार के उत्तर देने में विशिष्ट थेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं इमाई वर्जिकाः ? परिवर्जिकाः भदन्त ! ते स्थविराः दायित्वपूर्ण हैं ? अथवा विशिष्ट दायित्वपूर्ण नहीं एयारूवाई वागरणाई वागरेत्तए ? उदाहु भगवन्तः तेषां श्रमणोपासकानाम् इमानि हैं ?--आर्यो ! पूर्वकृत तप से देव देवलोक में अपलिउजिया ?-पुब्बतवेणं अजो ! देवा एतद्रूपाणि व्याकरणानि व्याकर्तुम् ? उताहो उपपन्न होते हैं। आर्यो ! पूर्वकृत संयम, कर्म की देवलोएसु उववजंति । पुवसंजमेणं, अपरिवर्जिकाः?—पूर्वतपसा आर्याः ! देवाः सत्ता और आसक्ति के कारण देव देवलोक में कम्मियाए, संगियाए अज्जो ! देवा देव- देवलोकेषु उपपद्यन्ते । पूर्वसंयमेन, कर्मि- उपपन्न होते हैं, यह अर्थ सत्य है, अहंमानिता के लोएसु उववजंति । सचे णं एस मढे, नो तया, संगितया आर्याः ! देवाः देवलोकेषु कारण ऐसा नहीं कहा जा रहा है।' चेव णं आयभाववत्तब्बयाए । उपपद्यन्ते। सत्योऽयमर्थः, नो चैव आत्म भाववक्तव्यतया । पभू णं गोयमा ! ते थेरा भगवंतो तेसिं प्रभवः गौतम ! ते स्थविराः भगवन्तः तेषां गौतम ! वे भगवान स्थविर उन श्रमणोपासकों समणोवासयाणं इमाइं एयारवाई वागरणाई श्रमणोपासकानाम् इमानि एतद्रूपाणि व्या- को ये इस प्रकार के उत्तर देने में समर्थ हैं, असमर्थ वागरेत्तए, नो चेव णं अप्पभू । समिया करणानि व्याकर्तु, नो चैव अप्रभवः। नहीं हैं। गौतम ! वे भगवान् स्थविर उन श्रमणोणं गोयमा ! ते थेरा भगवंतो तेसिं सम्यञ्चः गौतम ! ते स्थविराः भगवन्तः तेषां पासकों को ये इस प्रकार के उत्तर देने में योग्य समणोवासयाणं इमाई एयारवाई वागरणाइं। श्रमणोपासकानाम् इमानि एतद्पाणि व्या- हैं, अयोग्य नहीं हैं। गौतम ! वे भगवान् स्थविर वागरेत्तए, नो चेव णं असमिया। करणानि व्याकर्तुम्, नो चैव असम्यञ्चः। उन श्रमणोपासकों को ये इस प्रकार के उत्तर देने आउजिया णं गोयमा ! ते थेरा भगवंतो आवर्जिकाः गौतम ! ते स्थविराः भगवन्तः में दायित्वपूर्ण हैं, दायित्वहीन नहीं हैं। गौतम ! तेसिं समणोवासयाणं इमाई एयारवाई तेषां श्रमणोपासकानाम् इमानि एतद्रूपाणि वे भगवान् स्थविर उन श्रमणोपासकों को ये इस वागरणाइं वागरेत्तए, नो चेव णं व्याकरणानि व्याकर्तुम्, नो चैव अना- प्रकार के उत्तर देने में विशिष्ट दायित्वपूर्ण हैं, अणाउजिया। पलिउजिया णं गोयमा ! ते वर्जिकाः। परिवर्जिकाः गौतम ! ते स्थविराः विशिष्ट दायित्वहीन नहीं हैं आर्यो ! पूर्वकृत थेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं इमाई भगवन्तः तेषां श्रमणोपासकानाम् इमानि तप से देव देवलोक में उपपन्न होते हैं। आर्यो ! एयारवाई वागरणाइं वागरेत्तए, नो चेव णं एतद्रूपाणि व्याकरणानि व्याकर्तुम्, नो चैव पूर्वकृत संयम, कर्म की सत्ता और आसक्ति के अपलिउजिया–पुवतवेणं अज्जो ! देवा अपरिवर्जिकाः-पूर्वतपसा आर्याः ! देवाः कारण देव देवलोक में उपपन्न होते हैं यह अर्थ देवलोएसु उववजंति। पुबसंजमेणं, देवलोकेषु उपपद्यन्ते । पूर्वसंयमेन, सत्य है, अहंमानिता के कारण ऐसा नहीं कहा कम्मियाए, संगियाए अजो ! देवा देव- कर्मितया, संगितया आर्याः ! देवाः देवलोकेषु जा रहा है । लोएस उववनंति । सचे णं एस मटे, नो । उपपद्यन्ते । सत्योऽयमर्थः नो चैव आत्मचेव णं आयभाववत्तव्बयाए । भाववक्तव्यतया । अहं पिणं गोयमा ! एवमाइक्खामि, अहमपि गौतम ! एवमाख्यामि, भाषे, प्रज्ञाप- गौतम ! मैं भी इसी प्रकार आख्यान करता हूँ, भासामि, पण्णवेमि, परवेमि-पुचतवेणं यामि, प्ररूपयामि-पूर्वतपसा देवाः देवलो- भाषण करता हूँ, प्रज्ञापन करता हूँ, प्ररूपणा देवा देवलोएसु उववजंति। पुब्बसंजमेणं केषु उपपद्यन्ते । पूर्वसंयमेन देवाः देवलोकेषु करता हूँ-पूर्वकृत तप से देव देवलोक में उपपन्न देवा देवलोएसु उववनंति । कम्मियाए देवा उपपद्यन्ते। कर्मितया देवाः देवलोकेषु उप- होते हैं। पूर्वकृत संयम से देव देवलोक में उपपन्न देवलोएसु उववजंति। संगियाए देवा । पद्यन्ते। संगितया देवाः देवलोकेषु उप- होते हैं। कर्म की सत्ता से देव देवलोक में उपपन्न देवलोएसु उववजंति। पद्यन्ते। होते हैं। आसक्ति के कारण देव देवलोक में उपपन्न होते हैं। पुवतवेणं, पुचसंजमेणं, कम्मियाए, संगि- पूर्वतपसा, पूर्वसंयमेन, कर्मितया, संगितया- आर्यो ! पूर्वकृत तप, पूर्वकृत संयम, कर्म की याए अजो ! देवा देवलोएसु उववजंति। आर्याः ! देवाः देवलोकेषु उपपद्यन्ते। सत्ता और आसक्ति के कारण देव देवलोक में सचे णं एस मढे, नो चेव णं आयभाव- सत्योऽयमर्थः, नो चैव आमभावक्तव्यता । उपपन्न होते हैं। यह अर्थ सत्य है, अहंमानिता वत्तव्बयाए॥ के कारण ऐसा नहीं कहा जा रहा है। भाष्य १. योग्य वृत्तिकार ने समिया के तीन अर्थ किए हैं—विपर्यासरहित, सम्यक् प्रवृत्त, अभ्यासवान् ।' १. आप्टे-सम्यक् -Fit. व्याकर्तुं वर्तन्ते अविपर्यासास्त इत्यर्थः समञ्चन्तीति वा सम्यञ्चः समिता वा--- २. भ.व.२।११०-'समिया णं'ति सम्यगिति प्रशंसार्थो निपातस्तेन सम्यक् ते सम्यक्प्रवृत्तयः श्रमिता वा-अभ्यासवन्तः । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.२: उ.५: सू.११०,१११ २७८ भगवई २. दायित्वपूर्ण ३. विशिष्ट दायित्वपूर्ण आउजिया का अर्थ है-अभिमुखीभूत, शुभ प्रवृत्ति में व्याप्त। पलिउजिया का अर्थ है विशिष्ट दायित्वपूर्ण। वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'ज्ञानी' किया है।' १११. तहास्वं णं भंते ! समणं वा माहणं वा तथारूपं भदन्त ! श्रमणं वा माहनं वा १११. 'भन्ते तथारूप श्रमण-माहन की पर्युपासना पजुवासमाणस्स किंफला पञ्जुवासणा ? पर्युपासीनस्य किम्फला पर्युपासना ? करने का क्या फल है ? गोयमा ! सवणफला। गौतम ! श्रवणफला । गौतम ! पर्युपासना का फल है-श्रवण । से णं भंते ! सवणे किंफले? अथ भदन्त ! श्रवणं किम्फलम् ? भन्ते ! श्रवण का क्या फल है ? नाणफले। ज्ञानफलम् । गौतम ! श्रवण का फल ज्ञान है। से णं भंते ! नाणे किंफले? अथ भदन्त ! ज्ञानं किम्फलम् ? भन्ते ! ज्ञान का क्या फल है ? विण्णाणफले। विज्ञानफलम्। गौतम ! ज्ञान का फल विज्ञान है। से णं भंते ! विण्णाणे किंफले? अथ भदन्त ! विज्ञानं किम्फलम् ? भन्ते ! विज्ञान का क्या फल है ? पच्चक्खाणफले। प्रत्याख्यानफलम्। गौतम ! विज्ञान का फल प्रत्याख्यान है। से णं भंते ! पञ्चक्खाणे किंफले? अथ भदन्त ! प्रत्याख्यानं किम्फलम् ? भन्ते ! प्रत्याख्यान का क्या फल है ? संजमफले। संयमफलम। गौतम ! प्रत्याख्यान का फल संयम है। से णं भंते ! संजमे किंफले? अथ भदन्त ! संयमः किम्फलः ? भन्ते ! संयम का क्या फल है ? अणण्हयफले। अनास्त्रवफलः। गौतम ! संयम का फल अनास्त्रव है। से णं भंते ! अणण्हए किंफले। अथ भदन्त ! अनानवः किम्फल: ? भन्ते ! अनानव का क्या फल है ? तवफले। तपःफलः। गौतम ! अनानव का फल तप है। से णं भंते ! तवे किंफले? अथ भदन्त ! तपः किम्फलम् ? भन्ते ! तप का क्या फल है ? वोदाणफले। व्यवदानफलम् । गौतम ! तप का फल व्यवदान है। से णं भंते ! वोदाणे किंफले? अथ भदन्त ! व्यवदानं किम्फलम् ? भन्ते ! व्यवदान का क्या फल है ? अकिरियाफले। अक्रियाफलम् । गौतम ! व्यवदान का फल अक्रिया है। साणं भंते ! अकिरिया किंफला? अथ भदन्त ! अक्रिया किम्फला ? भन्ते ! अक्रिया का क्या फल है ? सिद्धिपज्जवसाणफला-पण्णत्ता गोयमा ! सिद्धिपर्यवसानफला–प्रज्ञप्ता गौतम ! गौतम ! अक्रिया का अन्तिम फल सिद्धि है। संग्रहणी गाथा संगहणी गाहा सवणे नाणे य विण्णाणे, पञ्चक्खाणे य संजमे। अणण्हए तवे चेव, वोदाणे अकिरिया सिद्धी ॥१॥ संग्रहणी गाथा श्रवण, ज्ञान, विज्ञान, प्रत्याख्यान, संयम, अनानव, तप, व्यवदान, अक्रिया और सिद्धि । श्रवणं ज्ञानं च विज्ञानं, प्रत्याख्यानं च संयमः। अनास्त्रवः तपश्चैव, व्यवदानम् अक्रिया सिद्धिः ॥ भाष्य १. सूत्र १११ प्रस्तुत सूत्र में श्रमण-माहन की पर्युपासना से प्राप्त होनेवाली अध्यात्म-विकास की दस भूमिकाओं का उल्लेख किया गया है। सन्तसाहित्य में 'सत्संग' शब्द बहुत प्रचलित है। उससे होनेवाली ऊर्धारोहण की प्रक्रिया का एक बहुत सुन्दर चित्रण यहां उपलब्ध है १. श्रवण धर्म अथवा अध्यात्म का श्रवण । २. ज्ञान–श्रुतज्ञान। ३. विज्ञान हेय और उपादेय का विवेक । ४. प्रत्याख्यान हेय और उपादेय का विवेक होने पर ही मनुष्य हेय का प्रत्याख्यान करता है। ५. संयम इन्द्रिय और मन का संयमन | ६. अनाम्रक नए कर्म का निरोध । ७. तप--विशिष्ट प्रकार की शुभ प्रवृत्ति । ८. व्यवदान पुरातन कर्म की निर्जरा। ६. अक्रिया-मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति का निरोध । २. वही,२१११०–'पलिउज्जिय'त्ति परि-समन्ताद् योगिकाः परिज्ञानिन इत्यर्थः परिजानन्तीति भावः। १. वही,२।११०–'आउज्जिय'त्ति आयोगिकाः उपयोगवन्तो ज्ञानिन इत्यर्थः जानन्तीति भावः । Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २७६ श.२: उ.५: सू.१११-११३ १०. सिद्धि-मोक्ष।' हैं।' दसवेआलियं में इन भूमिकाओं का विस्तार से निरूपण हुआ ये अध्यात्म-विकास की दस भूमिकाएं ठाणं में भी उपलब्ध उण्हजलकुंड-पदं उष्णजलकुण्ड-पदम् उष्णजलकुण्ड-पद ११२. अत्रउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति, अन्ययूथिकाः भदन्त ! एवमाख्यान्ति, ११२. 'भन्ते ! अन्ययूथिक इस प्रकार आख्यान भासंति, पण्णवेति परुति एवं खलु भाषन्ते, प्रज्ञापयन्ति, प्ररूपयन्ति एवं खलु करते हैं, भाषण करते हैं, प्रज्ञापन करते हैं, रायगिहस्स नयरस्स बहिया वेभारस्स राजगृहस्य नगरस्य बहिः वैभारस्य पर्वतस्य प्ररूपणा करते हैं राजगृह नगर के बाहर वैभार पव्वयस्स अहे, एत्य णं महं एगे हरए अघे अधः, अत्र महान् एकः हृदः अघः प्रज्ञप्तः पर्वत के नीचे अघ नामक एक विशाल द्रह प्रज्ञप्त पण्णते अणेगाई जोयणाई आयाम- -अनेकानि योजनानि आयाम- विष्कम्भेण है। उसकी लंबाई-चौड़ाई अनेक योजन है। विक्खंभेणं, नाणादुमसंडमंडिउद्देसे, सस्सि- नानाद्रुमषण्डमंडितोद्देशः सश्रीकः प्रासादीयः उसका तटभाग नाना द्रुमवनों से मण्डित है। वह रीए पासादीए दरिसणिज्जे अभिरूवे दर्शनीयः अभिरूपः प्रतिरूपः । तत्र बहवः श्रीसम्पन्न, द्रष्टा के चित्त को प्रसन्न करने वाला, पडिरूवे । तत्थ णं बहवे ओराला बलाहया 'ओराला' बलाहकाः संस्वेदन्ते संमूर्च्छन्ति। दर्शनीय, कमनीय और रमणीय है। उसमें बहुत संसेयंति संमुच्छंति वासंति। तब्बइरित्ते य वर्षन्ति। तद्व्यतिरिक्तश्च सदा समितः । प्रधान बलाहक (जलीय स्कन्धों को ऊपर उठाने णं सया समियं उसिणे-उसिणे आउकाए उष्णः-उष्णः अकायः अभिनिःप्रवति । वाला ताप) भाप बनते हैं, बादल बनते हैं और अमिनिस्सवइ। बरसते हैं। उस जलाशय के भर जाने पर वह सदा सघन रूप में गरम-गरम जल का अभिनिःस्रवण करता है। भाष्य १. सूत्र ११२ वृत्तिकार ने हरए अघे के स्थान पर 'अप्पे' इस पाठ का उल्लेख किया है। प्राचीन लिपि में 'घ' और 'प' की लिखावट समान है। 'अप्प' का अर्थ है जल का उद्गम स्थल ।' शब्द-विमर्श उद्देश तटभाग। सया समियं देखें,भ.१।३१४-३१६ का भाष्य । ११३.से कहमेयं भंते ! एवं? तत् कथमेतत् भदन्त ! एवम् ? गोयमा ! जं णं ते अण्णउत्थिया एव- गौतम ! यत्ते अन्ययूथिकाः एवमाख्यान्ति माइक्खंति जाव जे ते एवमाइक्खंति, मिच्छं यावत् ये एते एवमाख्यान्ति, मिथ्या ते एव- ते एवमाइक्खंति । अहं पुण गोयमा ! एव- माख्यान्ति । अहं पुनः गौतम ! एवमाख्यामि, माइक्खामि, भासामि, पण्णवेमि, परवेमि भाषे, प्रज्ञापयामि, प्ररूपयामि एवं खलु -एवं खलु रायगिहस्स नयरस्स बहिया राजगृहस्य नगरस्य बहिः वैभारस्य पर्वतस्य वेभारस्स पव्वयस्स अदूरसामंते, एत्य णं अदूरसामन्ते, अत्र महातपोपतीरप्रभवं नाम महातवोवतीरप्पभवे नाम पासवणे पण्णत्ते प्रस्रवणं प्रज्ञप्तं—पञ्च धनुःशतानि आयाम -पंच घणुसयाई आयाम-विक्खंभेणं, विष्कम्भेण, नानाद्रुमषण्डमण्डितोद्देशं सश्रीकं नाणादुमसंडमंडिउद्देसे सस्सिरीए पासादीए प्रासादीयं दर्शनीयं अभिरूपं प्रतिरूपम् । तत्र दरिसणिजे अभिरूवे पडिरूवे। तत्थ णं बहवः उष्णयोनिकाः जीवाः च पुद्गलाः च बहवे उसिणजोणिया जीवा य पोग्गला य उदकत्वाय अवक्रामन्ति, व्युत्क्रामन्ति, च्यव- उदगत्ताए वक्कमति विउक्कमंति चयंति न्ते, उपपद्यन्ते । तद्व्यतिरिक्तोऽपि च सदा उववजंति । तब्बइरित्ते वि यणं सया समियं समितः उष्णः-उष्णः अप्कायः अभिनिः- उसिणे-उसिणे आउयाए अभिनिस्सवइ। स्रवति । ११३. 'भन्ते ! यह इस प्रकार कैसे है ? गौतम ! जो अन्ययूथिक इस प्रकार आख्यान करते हैं यावत् जो वे ऐसा आख्यान करते हैं, वे मिथ्या आख्यान करते हैं। गौतम ! मैं इस प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन और प्ररूपणा करता हूं-राजगृह नगर के बाहर वैभार पर्वत के न अतिदूर न अतिनिकट महातपोपतीरप्रभव नामक निर्झर है। उसकी लम्बाई-चौड़ाई पांच सौ धनुष है। उसका तटभाग नाना द्रुमवनों से मण्डित है, वह श्रीसंपन्न, द्रष्टा के चित्त को प्रसन्न करने वाला, दर्शनीय, कमनीय और रमणीय है। वहां अनेक उष्णयोनिक जीव और पुद्गल उदकरूप में उत्पन्न होते हैं और विनष्ट होते हैं, च्युत होते हैं और उत्पन्न होते हैं। उस जलाशय के भर जाने पर उससे सदा सघनरूप में गरम-गरम जल का अभि १. भ.बृ.२११११। २. ठाणं,३,४१८/ ३. दसवे.४|११-२५॥ ४. भ.वृ.२/११२॥ ५. आप्टे. Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.२: उ.५: सू.११३,११४ २८० भगवई एस णं गोयमा ! महातवोवतीरप्पभवे एतद् गौतम ! महातपोपतीरप्रभवं प्रस्रवणम् ।। निःस्रवण होता है। गौतम ! यह महातपोपतीरपासवणे। एस णं गोयमा ! महा- एष गौतम ! महातपोपतीरप्रभवस्य प्रस्रवणस्य प्रभव नामक निर्झर है। गौतम ! यह महातवोवतीरप्पभवस्स पासवणस्स अट्टे अर्थः प्रज्ञप्तः। तपोपतीरप्रभव निर्झर का अर्थ प्रज्ञप्त है। पण्णत्ते॥ भाष्य सूत्र ११३ प्रस्तुत सूत्र में "जीवा य पोग्गला य उदगत्ताए वकमंति" यह तापमान ३०० अंश सेण्टीग्रेट से भी ज्यादा होता है। इतने ताप पाठ है। यदि पुद्गल का पानी के रूपमें परिणमन नहीं होता तो। पर अब तक ज्ञात जीव रह ही नहीं सकता। प्रोटीन और डी.एन.ए. पाठ केवल 'जीवा' ही होता। इससे यह सिद्ध होता है कि जल टूट जाएगें। एन्जाइम पिघल जाएंगे। कोई भी जिन्दा चीज क्षण सचित्त और अचित्त दोनों प्रकार का होता है । भर में मर जाएगी। हम अब तक स्वीकार करते आए हैं कि शुक्र उष्णयोनिक जीव गरम वातावरण में ही पनपते हैं। अब उन्हें ग्रह पर इतना ही तापमान होने के कारण वहां जीवन नहीं हो वैज्ञानिक मान्यता भी मिल रही है। लुईस टामस ने लिखा है-- सकता। इसी आधार पर हम कह सकते हैं कि ४-५ अरब वर्ष _ "एक जीवाणु प्रजाति है जिसे १६८२ तक प्रथिवी के धरातल पूर्व इस ग्रह के आरम्भिक समय में जीवन नहीं रहा होगा। बी.जे.ए. पर देखा ही नहीं गया। इन जीवों को स्वप्न में भी कभी नहीं देखा बैरोज तथा जे.डब्ल्यू. डेमिंग ने हाल में इन गहरे समुद्रों का नालियों गया। ये प्रकृति के जिन नियमों को हम जानते हैं, उनके जीते से आए जीवाणुओं की जीवन्त बस्तियों की खोज की है। यही नहीं जागते उल्लंघन हैं। चीजें जो एक प्रकार से सीधे नरक से आई जब इन जीवाणुओं को पानी से ऊपर लाया गया, उन्हें टाइटेनियम हो या हम जो नरक के बारे में सोचते हैं। पृथ्वी के अन्दर गर्भ सुइयों में रखा गया तथा २५० अंश सेण्टीग्रेट तक गरम ताप वाले क्षेत्र में जो रहने लायक न हो। इस प्रकार के क्षेत्रों में हाल में कक्षों में मुहरबन्द किया गया तो ये जीवित ही नहीं रहे बल्कि बड़े अनुसंधानी पनडुब्धियों की वैज्ञानिक निगाह पड़ी है। यह पनडुब्बियां उत्साह से पुनरुत्पादन किया। इनकी संख्या बढ़ती गयी उन्हें केवल समुद्र के तल में २५००० मीटर या इससे ज्यादा तक जा सकती उबलते पानी में ही डालकर मारा जा सकता है। फिर भी यह है। ये तल के गट्टों में किनारे तक पहुंच सकती हैं। जहां खुली साधारण जीवाणु जैसे लगते हैं। इलैक्ट्रोनिक माईक्रोस्कोप के नीचे नालियां पृथिवी की पपड़ी में चिमनियों से अधिक गर्म समुद्री जल इनकी संरचना वैसी ही है--कोशिका-दीवारें, राइबोसोम तथा बाकी छोड़ती हैं। इन्हें समुद्री वैज्ञानिक "ब्लेक स्मोकर्स" कहते हैं। यह । सब कुछ, जैसा कि अब कहा जा रहा है। यदि ये मूल रूप से केवल गरम पानी या भाप नहीं या दबाव के नीचे भी भाप नहीं, पुरातत्व काल के जीवाणु हैं हमारे सब के पुरखे, तो फिर उन्होंने जैसी कि प्रयोगशाला के (आटो-लेब) में होती है, जिस पर हम या उनकी पीढ़ियों ने ठंडा होकर जीना कैसे सीखा? मैं इससे ज्यादा दशकों से सारे जीवाणु नष्ट करने के लिए निर्भर करते आए हैं। आश्चर्यजनक चाल की कल्पना ही नहीं कर सकता।" यह बहुत अधिक गरम पानी अत्यधिक दबाव में होता है जिसका ११४. सेवं भंते ! सेवं मंते ! त्ति भगवं गोयमे तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति भगवान् ११४. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ॥ गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नम- है-इस प्रकार कहते हुए भगवान् गौतम श्रमण स्यति। भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करते हैं। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो उद्देसो : छठा उद्देशक संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद भासा-पदं भाषा-पदम् भाषा-पद ११५. से नूणं भंते ! मत्रामी ति ओहारिणी भासा ? एवं भासापदं भाणियबं ।। अथ नूनं भदन्त ! मन्ये इति अवधारिणी ११५. 'भन्ते ! मैं मनन करता हूं, क्या यह अवभाषा? एवं भाषापदं भणितव्यम् । धारिणी भाषा है ? यहां भाषापद (पण्णवणा, पद ११) वक्तव्य है। भाष्य १. सूत्र ११५ अवधारिणी भाषा-भाषा ज्ञान का माध्यम है। जिस भाषा के द्वारा अर्थ का अवधारण किया जाता है, उसका नाम है-अवधारिणी भाषा। यह अवबोध की बीजभूत होती है। मनन और चिन्तन इसी के माध्यम से होते हैं।' १. भ.व.२।११५–'मन्ये' अववुध्ये इति । एवमवधार्यते—अवगम्यतेऽनयेत्यवधारणी, अबबोधवीजभूतेत्यर्थः । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो उद्देसो : सातवां उद्देशक ल हिन्दी अनुवाद संस्कृत छाया स्थान-पदं ठाण-पदं स्थान-पद ११६. कति णं भंते ! देवा पण्णता? गोयमा ! चउबिहा देवा पण्णत्ता, तं जहा -भवणवइ-वाणमंतर-जोइस-वेमाणिया।॥ कति भदन्त ! देवाः प्रज्ञप्ताः? गौतम! चतुर्विधाः देवाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा- भवनपति-वानमन्तर-ज्योतिष्क-वैमानिकाः। ११६. भन्ते ! देव कितने प्रकार के प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! देव चार प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसेभवनपति, वानमन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक । ११७. कहि णं भंते ! भवणवासीणं देवाणं ठाणा पण्णता? गोयमा ! इमीसे स्यणप्पभाए पुढवीए जहा ठाणपदे देवाणं वत्तव्वया सा भाणियव्वा । उववाएणं लोयस्स असंखेजइभागे एवं सव्वं भाणियव्वं जाव सिद्धगंडिया समत्ता। कप्पाण पइटाणं, बाहल्लुचत्तमेव संठाणं । कुत्र भदन्त ! भवनवासिनां देवानां स्थानानि ११७. भन्ते ! भवनवासी देवों के स्थान कहां प्रज्ञप्त प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्याः यथा गौतम ! इस रलप्रभा पृथ्वी में प्रज्ञप्त हैं। स्थान-पद स्थानपदे देवानां वक्तव्यता सा भणितव्या। (पण्णवणा,२।३०-६३) में जो देवों की वक्तउपपातेन लोकस्य असंख्येयतमभागे एवं सर्वं व्यता है, वह कथनीय है। उनका उपपात लोक भणितव्यं यावत् सिद्धकण्डिका समाप्ता । के असंख्यातवें भाग में होता है। इस प्रकार यह कल्पानां प्रतिष्ठानं बाहल्योच्चत्वमेव संस्थानम्। समूचा प्रकरण यावत् सिद्धकण्डिका की समाप्ति (पण्णवणा,२।३०-६७) तक वक्तव्य है। जीवाभिगमे यः वैमानिकोद्देशः स भणितव्यः । सौधर्म आदि कल्प-विमानों के प्रतिष्ठान (आधार), सर्वः। बाहल्य (मोटाई), ऊँचाई और संस्थान (आकृति) के लिए जीवाभिगम का जो वैमानिक उद्देश (३। १०५७-११३८) है, वह समग्र यहां वक्तव्य है। वेमाणिउद्देसो सो जीवाभिगमे जो भाणियब्बो सबो । Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो उद्देसो : आठवां उद्देशक संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद चमरसभा-पदं चमरसभा-पदम् चमरसभा-पद ११८. कहि णं भंते ! चमरस्स असुरिंदस्स कुत्र भदन्त ! चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुर- ११८. 'भन्ते ! असुरेन्द्र असुरराज चमर की सुधर्मा असुरकुमाररण्णो सभा सुहम्मा पण्णत्ता? कुमारराजस्य सभा सुधर्मा प्रज्ञप्ता ? सभा कहां प्रज्ञप्त है ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्बयस्स गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य गौतम ! जम्बूद्वीप द्वीप में मेरूपर्वत से दक्षिणभाग दाहिणे णं तिरियमसंखेजे दीवसमुद्दे वीई- दक्षिणे तिर्यग् असंख्येयान् द्वीपसमुद्रान् व्यति- में तिरछे असंख्य द्वीपसमुद्रों के पार चले जाने पर वइत्ता अरुणवरस्स दीवस्स बाहिरिल्लाओ व्रज्य अरुणवरस्य द्वीपस्य बाह्याद् वेदिका- अरुणवर द्वीप है। उसकी बाहरी वेदिका के आगे वेइयंताओ अरुणोदयं समुदं बायालीसं न्ताद् अरुणोदयं समुद्रं द्विचत्वारिंशद् अरुणोदय समुद्र है। उसका बयालीस हजार जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता, एत्थ णं योजनसहस्राणि अवगाह्य, अत्र चमरस्य योजन अवगाहन करने पर असुरेन्द्र असुरराज चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो असुरेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य तिगिच्छिकूटः चमर का तिगिच्छिकूट नामक उत्पात-पर्वत प्रज्ञप्त तिगिछिकूड़े नाम उप्यायपव्वए पण्णत्ते नाम उत्पातपर्वतः प्रज्ञप्तः सप्तदशएकविंश- है-उसकी ऊंचाई सतरह सौ इक्कीस योजन है। -सत्तरसएकवीसे जोयणसए उड्ढे उच्च- तिः योजनशतानि ऊर्ध्वम् उच्चत्वेन, उसका उद्वेध (गहराई) चार सौ तीस योजन तेणं चत्तारितीसे जोयणसए कोसं च उब्वे- चतुस्त्रिंशद् योजनशतानि क्रोशं च उद्वेधेन, और एक कोश है। उसका मूल में विष्कम्भ हेणं मूले दसबावीसे जोयणसए विक्खं- मूले दशद्वाविंशतिः योजनशतानि विष्कम्भेण, (चौड़ाई) एक हजार बाईस योजन है, मध्य में भेणं, मज्झे चत्तारि चउवीसे जोयणसए मध्ये चतुश्चतुर्विंशतिः योजनशतानि । उसका विष्कम्भ चार सौ चौबीस योजन है और विक्खंभेणं, उवरिं सत्ततेवीसे जोयणसए विष्कम्भेण, उपरि सप्तत्रयोविंशतिः योजन- ऊपर का विष्कम्भ सात सौ तेईस योजन है। विक्खंभेणं, मूले तिण्णि जोयणसहस्साई, शतानि विष्कम्भेण, मूले त्रीणि योजन- उसकी मूल में परिधि तीन हजार दो सौ बत्तीस दोण्णि य बत्तीसुत्तरे जोयणसए किंचि विसे- सहस्राणि, द्वे च द्वात्रिंशदुत्तरे योजनशते कुछ कम योजन है, मध्य में परिधि एक हजार सूणे परिक्खेवेणं, मज्झे एगं जोयणसहस्सं किंचिद्विशेषोनं परिक्षेपेण, मध्ये एकं तीन सौ इकतालीस कुछ कम योजन है, ऊपर तिण्णि य इगयाले जोयणसए किंचि योजनसहस्रं त्रीणि च एकचत्वारिंशत् योजन- की परिधि दो हजार दो सौ छयांसी योजन से विसेसूणे परिक्खेवेणं, उवर दोण्णि य शतानि किंचिद्विशेषोनं परिक्षेपेण, उपरि द्वे कुछ अधिक है। वह मूल में विस्तृत, मध्य में जोयणसहस्साई, दोण्णि य छलसीए जोय- ___च योजनसहने, द्वे च षडशीतिः योजनशते संकड़ा और ऊपर विशाल है। उसकी आकृति णसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं, मूले किंचिदविशेषाधिकः परिक्षेपेण, मूले विस्तृतः, श्रेष्ठ वज्र जैसी है, वह महामुकुन्द नामक वाद्य के वित्थडे, मज्झे संखित्ते, उप्पिं विसाले, मध्ये संक्षिप्तः, उपरि विशालः, वरवन- संस्थान से संस्थित है, सर्वरलमय है। वह स्वच्छ, वरवइरविग्गहिए महामउंदसंठाणसंठिए विग्रहिकः, महामुकुन्दसंस्थानसंस्थितः सर्व- सूक्ष्म, चिकना, स्निग्ध, घुटा हुआ, प्रमार्जित, सबरयणामए अच्छे सण्हे लण्हे घटे मढे । रत्नमयः अच्छः श्लक्ष्णः श्लक्ष्णः घृष्टः मृष्टः रजरहित, निर्मल, निष्पङ्क, निरावरण दीप्ति वाला निरए निम्मले निष्पके निकंकडच्छाए सप्पभे । नीरजः निर्मलः निष्पङ्कः निष्कङ्कटच्छायः तथा प्रभा, मरीचि और उद्योतयुक्त है। द्रष्टा के समिरिईए सउज्जोए पासादीए दरिसणिज्जे संप्रभः समरीचिकः सोद्योतः प्रासादीयः चित्त को प्रसन्न करने वाला, दर्शनीय, कमनीय, अभिरूवे पडिरूवे। से णं एगाए पउम- दर्शनीयः अभिरूपः प्रतिरूपः। स एकया और रमणीय है। वह एक पद्मवर वेदिका और वरवेइयाए, वणसंडेण य सब्बओ समंता पद्मवरवेदिकया, वनषण्डेन च सर्वतः । वृक्षनिकुंज से चारों ओर से घिरा हुआ है। संपरिक्खित्ते। पउमवरवेइयाए वणसंडस्स समन्तात् संपरिक्षिप्तः। पद्मवरवेदिकायाः पद्मवरवेदिका और वृक्षनिकुञ्जों का वर्णन । य वण्णओ। वनषण्डस्य च वर्णकः। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. २: उ. ८ः सू. ११८-१२१ १. सूत्र ११८ शब्द-विमर्श उत्पातपर्वत—तिर्यग् लोक में जाने के लिए जिस पर्वत से उड़ान भरी जाती है उसे उत्पात - पर्वत कहा जाता है।' इसकी तुलना वर्तमान की हवाई पट्टी से की जा सकती है। ये संख्या में अनेक हैं। इन उत्पात-पर्वतों पर वैक्रिय शरीर का पुनर्निमाण कर देव ऊपर, नीचे या तिरछे लोक में जाने के लिए अपने विमानों के साथ उड़ानें भरते हैं। ११६. तस्स णं तिगिंठिकूडस्स उप्पायपव्वयस्स उप्पिं बहुसम - रमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते वण्णओ ॥ १२०. तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभा - गस्स बहुमज्झदेस भागे, एत्थ णं महं एगे पासायवडेंसए पण्णत्ते- अड्डाइजाइं जोयणसया उडूढं उच्चत्तेणं, पणुवीसं जोयणसयं विक्खंभेणं । पासायवण्णओ। उल्लोयभूमिवण्णओ । अट्ठजोयणाई मणिपेटिया । चमरस्स सीहासणं सपरिवारं भाणियव्वं ॥ १. प्रासादावतंसक १२१. तस्स णं तिगिंछिकूडस्स दाहिणे णं छक्कोडिस पणवत्रं च कोडीओ पणतीसं च कः । श्रेष्ठ प्रासाद, प्रासादो में शिखर तुल्य प्रासाद । तस्य तिगिच्छिकूटस्य उत्पातपर्वतस्य उपरि बहुसम - रमणीयः भूमिभागः प्रज्ञप्तः वर्ण १. बहुसम यहां 'बहु' शब्द 'अपूर्ण' के अर्थ में है।' इसलिए 'बहुसम' का अर्थ होगा- प्रायः सम । २८४ भाष्य (ख) स्था.वृ.प.४५७——उप्पायपव्वएत्ति—- उत्पतनं ऊद्धर्वगमनमुत्पातस्तेनोपलक्षितः पर्वत उत्पातपर्वतः । तस्य बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे, अत्र महान् एकः प्रासादावतंसकः प्रज्ञप्तः – अर्धतृतीयानि योजन - शतानि ऊर्ध्वं उच्चत्वेन, पञ्चविंशतिः योजनशतानि विष्कम्भेण । प्रासादवर्णकः। उल्लोचभूमिवर्णकः । अष्ट योजनानि मणिपीठिका । चमरस्य सिंहासनं सपरिवारं भणितव्यम् । १. (क) भ.वृ. २।११८ – तिर्यग्लोकगमनाय यत्रागत्योत्पतति स उत्पातपर्वत इति । विग्रहिक - विग्रह का अर्थ है आकृति । वरवज्रविग्रहिकवज्र जैसी शरीर रचना वाला।' भाष्य भाष्य २. ठाणं, १०/४७-६१ ३. भ. बृ. २।११८ - वरवज्रस्येव विग्रह — आकृतिर्यस्य स स्वार्थिके कप्रत्यये सति सह, लह-ये दोनों 'श्लक्ष्ण' शब्द के प्राकृत रूप हैं। 'श्लक्ष्ण' शब्द के अनेक अर्थ हैं। यहां 'सह' का अर्थ सूक्ष्म और 'लण्ड' का अर्थ चिकना घटित होता है। निरावरण प्रभा — निरावरण दीप्ति । तस्य तिगिच्छकूटस्य दक्षिणे षट्कोटिशतं पञ्चपञ्चाशच्च कोट्यः पञ्चत्रिंशच् च भगवई ११६. उस तिगिच्छिकूट उत्पात पर्वत के ऊपर बहुसम - रमणीय भूभाग प्रज्ञप्त है-भूभागवर्णन | २. उल्लोच भूमि चंदोवा के ऊपर की भूमि, छत । १ १२०. उस बहुसमरमणीय भूभाग के प्रायः मध्यदेशभाग में एक महान् प्रासादावतंसक प्रज्ञप्त है— उसकी ऊंचाई दो सौ पचास योजन है और चौड़ाई एक सौ पच्चीस योजन है। प्रासाद का वर्णन | चंदोवा के उपर की भूमि का वर्णन । मणिपीठिका आठ योजन की है। चमर का सिंहासन उसके परिवार के सिंहासनों सहित वक्तव्य है। २ १२१. उस तिगिच्छिकूट उत्पातपर्वत के दक्षिण भाग में अरुणोदय समुद्र में छह अरब, पचपन करोड़, वरवज्रविग्रहिको मध्ये क्षाम इत्यर्थः । ४. (क) म.वृ. २1११८ श्लक्ष्णः --- शलक्ष्णपुद्गलनिर्वृत्तत्वात्, लम्हे-मसृणः । (ख) जीवा.वृ. प. १७८ सण्हा— श्लक्ष्णा श्लक्ष्णपुद्गलस्कन्धनिष्पन्ना श्लक्ष्ण-दलनिष्पन्नपटवत् लण्हा मसृणाघुण्टितपटवत् । ५. भ. वृ. २/११६ निक्कंडच्छाए' निरावरण दीप्तिः । ६. भिक्षुशब्दानुशासन, २ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २८५ सयसहस्साई पण्णासं च सहस्साई अरु- शतसहस्राणि पञ्चाशच् च सहस्त्राणि अरुणोदए समुद्दे तिरियं वीइवइत्ता अहे स्य- णोदये समुद्रे तिर्यक् व्यतिव्रज्य अधः रल- णप्पभाए पुढवीए चत्तालीसं जोयण- प्रभायाः पृथिव्याः चत्वारिंशद् योजनशत- सहस्साई ओगाहित्ता, एत्थ णं चमरस्स सहस्राणि अवगाह्य अत्र चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो चमरचंचा असुरकुमारराजस्य चमरचञ्चा नाम राजधानी नाम रायहाणी पण्णत्ता-एर्ग जोयणसय प्रज्ञप्ता-एकं योजनशतसहस्रम् आयाम- सहस्सं आयाम-विक्खंभेणं जंबूदीव- विष्कम्भेण जम्बूद्वीपप्रमाणा। प्पमाणा। ओवारियलेणं सोलसजोयणसहस्साई उपकारिकालयनं षोडशयोजनसहस्त्राणि आयाम-विक्खंभेणं, पण्णासं जोयणसह आयाम-विष्कम्भेण, पञ्चाशद् योजनसहस्साई पंच य सत्ताणउए जोयणसए किंचि स्राणि पञ्च च सप्तनवतिः योजनशतं किञ्चिद् विसेसूणे परिक्खेवेणं, सबप्पमाणं वेमा विशेषोनं परिक्षेपेण, सर्वप्रमाणं वैमानिकणियप्पमाणस्स अद्धं नेयव्वं ॥ प्रमाणस्य अर्धं नेतव्यम्। श.२ः उ.८. सू.१२१ पैंतीस लाख और पचास हजार योजन तिरछा चले जाने पर तथा नीचे की ओर रलप्रभा पृथ्वी का चालीस हजार योजन अवगाहन करने पर असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर की चमरचञ्चा नामक राजधानी प्रज्ञप्त है। उसकी लम्बाई-चौड़ाई एक लाख योजन है। वह जम्बूद्वीप-प्रमाण है। उसकी पीठिका लम्बाई-चौड़ाई में सोलह हजार योजन और परिधि में पचास हजार पांच सौ सितानवे योजन से कुछ कम है। उसका सर्व प्रमाण वैमानिक देवों की राजधानी के प्राकार आदि से आधा जानना चाहिए। 8800380 MONOURG800000000 Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल समयखेत्त-पदं १२२. किमिदं भंते ! समयखेत्ते त्ति पवुच्चति ? गोयमा ! अड्ढाइजा दीवा, दो य समुद्दा, एस णं एवइए समयखेत्तेति पवुच्चति ॥ १२३. तत्थ णं अयं जंबुद्दीवे दीवे सव्यदीव-समुद्दाणं सव्वब्धंतरे । एवं जीवाभिगमवत्तब्बया नेयव्वा जाव अभिंतरपुक्खरद्धं जोइसविहूणं ॥ नवमो उद्देसो : नवां उद्देशक संस्कृत छ समयक्षेत्र -पदम् किमिदं भदन्त ! समयक्षेत्रमिति प्रोच्यते ? गौतम ! अर्धतृतीया द्वीपाः द्वौ च समुद्री, एतद् एतावत् समयक्षेत्रमिति प्रोच्यते । तत्रायं जम्बूद्वीपः द्वीपः सर्वद्वीप- समुद्राणां सर्वाभ्यन्तरः । एवं जीवाभिगमवक्तव्यता नेतव्यायावद् आभ्यन्तर-पुष्करार्द्धं ज्योतिष्कविहीनम् । हिन्दी अनुवाद समयक्षेत्र - पद १२२. भन्ते ! समयक्षेत्र किसे कहा जाता है ? गौतम ! अढ़ाई द्वीप और दो समुद्र - यह इतना क्षेत्र समय-क्षेत्र कहलाता है । १२३. इनमें जम्बूद्वीप नामक द्वीप सब द्वीपों और समुद्रों के मध्य में है। इस प्रकार आभ्यन्तर पुष्करार्ध तक जीवाजीवाभिगम की वक्तव्यता ज्ञातव्य है । उसमें से केवल ज्योतिष्क देवों की वक्तव्यता छोड़ देनी है। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल अत्थिकाय-पदं १२४. कति णं भंते ! अत्थिकाया पण्णत्ता? गोयमा ! पंच अत्थिकाया पण्णत्ता, तं जहा — धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, आगासत्यिकाए, जीवत्थिकाए, पोग्गलत्थि काए ॥ १२५. धम्मत्थिकाए णं भंते ! कतिवण्णे ? कतिगंधे ? कतिरसे ? कतिफासे ? गोयमा ! अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे; अरूवी, अजीवे, सासए, अवट्ठिए लोगदव्वे । से समासओ पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा---- दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ, ओ दव्वओ णं धम्मत्थिकाए एगे दव्वे । खेत्तओ लोगप्पमाणमेत्ते । कालओ न कयाइ न आसि, न कयाइ नत्थि, न कयाइ न भविस्सइ — भविंसु य, भवति य, भविस्सइ य— धुवे, गियए, सासए, अक्खए, अब्बए, अवट्टिए, णिच्चे । भावओ अवणे, अगंधे, अरसे, अफासे । गणगुणे ॥ १२६. अधम्मत्थिकाए णं भंते ! कतिवण्णे? कतिगंधे ? कतिरसे ? कतिफासे ? लोग गोयमा ! अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे; अरूबी, अजीवे, सासए, अवट्ठिए, दव्वे | दसमो उद्देसो : दसवां उद्देशक संस्कृत छाया अस्तिकाय-पदम् कति भदन्त ! अस्तिकायाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! पञ्च अस्तिकायाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा -- धर्मास्तिकायः, अधर्मास्तिकायः, आकाशास्तिकायः, जीवास्तिकायः, पुद्गलास्तिकायः । धर्मास्तिकायः भदन्त ! कतिवर्णः ? कति गन्धः ? कतिरसः ? कतिस्पर्शः ? गौतम ! अवर्णः, अगन्धः, अरसः, अस्पर्शः अरूपी, अजीवः शाश्वतः अवस्थितः, लोकद्रव्यम् । सः समासतः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद् यथाद्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः, भावतः, गुणतः । द्रव्यतः धर्मास्तिकायः एकम् द्रव्यम् । क्षेत्रतः लोकप्रमाणमात्रः । कालतः न कदाचिन् नासीत्, न कदाचिन् नास्ति, न कदाचिन् न भविष्यति — अभवच् च, भवति च, भविष्यति च ध्रुवः, नियतः, शाश्वतः अक्षयः, अव्ययः, अवस्थितः, नित्यः । भावतः अवर्णः, अगन्धः, अरसः, अस्पर्शः । गुणतः गमनगुणः । अधर्मास्तिकायः भदन्त ! कतिवर्णः ? कति गन्धः ? कतिरसः ? कतिस्पर्शः ? गौतम ! अवर्णः, अगन्धः, अरसः, अस्पर्शः; अरूपी, अजीवः शाश्वतः अवस्थितः, लोकद्रव्यम् । हिन्दी अनुवाद अस्तिकाय-पद १२४. 'भन्ते ! अस्तिकाय कितने प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! अस्तिकाय पांच प्रज्ञप्त हैं, जैसे— धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय । १२५. भन्ते ! धर्मास्तिकाय में कितने वर्ण हैं ? कितने गन्ध हैं ? कितने रस हैं ? कितने स्पर्श हैं ? गीतम ! वह अवर्ण, अगन्ध, अरस, अस्पर्श; अरूपी, अजीव, शाश्वत, अवस्थित तथा लोक का एक अंशभूत द्रव्य है। वह संक्षेप में पांच प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे—द्रव्य की अपेक्षा से, क्षेत्र की अपेक्षा से, काल की अपेक्षा से, भाव की अपेक्षा से और गुण की अपेक्षा से । द्रव्य की अपेक्षा से धर्मास्तिकाय एक द्रव्य है । क्षेत्र की अपेक्षा से लोकप्रमाण मात्र है। काल की अपेक्षा से कभी नहीं था—ऐसा नहीं है, कभी नहीं है—ऐसा नहीं है, कभी नहीं होगा—ऐसा नहीं है वह अतीत में था, वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा - अतः वह ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है । भाव की अपेक्षा से अवर्ण, अगन्ध, अरस और अस्पर्श है। गुण की अपेक्षा से गमनगुण गति में उदासीन सहायक है। १२६. भन्ते ! अधर्मास्तिकाय में कितने वर्ण हैं ? कितने गन्ध हैं ? कितने रस हैं ? कितने स्पर्श हैं ? गौतम ! वह अवर्ण, अगन्ध, अरस, अस्पर्श; अरूपी, अजीव, शाश्वत, अवस्थित तथा लोक का एक अंशभूत द्रव्य है। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श.२: उ.१०. सू.१२६-१२८ २८८ से समासओ पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा- सः समासतः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद् यथा- वह संक्षेप में पांच प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-द्रव्य दबओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ गुण- द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः, भावतः, गुणतः। की अपेक्षा से, क्षेत्र की अपेक्षा से, काल की ओ। अपेक्षा से, भाव की अपेक्षा से और गुण की अपेक्षा से। दबओ णं अधम्मत्थिकाए एगे दब्बे। द्रव्यतः अधर्मास्तिकायः एकम् द्रव्यम् । द्रव्य की अपेक्षा से अधर्मास्तिकाय एक द्रव्य है। खेत्तओ लोगप्पमाणमेत्ते। क्षेत्रतः लोकप्रमाणमात्रः। क्षेत्र की अपेक्षा से लोकप्रमाण मात्र है। कालओ न कयाइ न आसि, न कयाइ कालतः न कदाचिन् नासीत्, न कदाचिन् । काल की अपेक्षा कभी नहीं था--ऐसा नहीं है, नत्थि, न कयाइ न भविस्सइ-भविंसु य, नास्ति, न कदाचिन् न भविष्यिति-अभवच् कभी नहीं है-ऐसा नहीं है, कभी नहीं भवति य, भविस्सइ य-धुवे, णियए, च, भवति च, भविष्यति च–ध्रुवः, नियतः, होगा ऐसा नहीं है—वह अतीत में था, वर्तमान सासए, अक्खए, अब्बए, अवदिए, शाश्वतः, अक्षयः, अव्ययः, अवस्थितः, में है और भविष्य में रहेगा-अतः वह ध्रुव, णिचे। नित्यः। नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है। भावओ अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे। भावतः अवर्णः, अगन्धः, अरसः, अस्पर्शः। भाव की अपेक्षा से अवर्ण, अगन्ध, अरस और अस्पर्श है। गुणओ ठाणगुणे॥ गुणतः स्थानगुणः। गुण की अपेक्षा से स्थानगुण---स्थिति में उदासीन सहायक है। १२७. आगासत्थिकाए णं भंते ! कतिवण्णे? कतिगंधे ? कतिरसे ? कतिफासे? आकाशास्तिकायः भदन्त ! कतिवर्णः ? १२७. भन्ते ! आकाशास्तिकाय में कितने वर्ण हैं? कतिगन्धः ? कतिरसः ? कतिस्पर्शः ? कितने गन्ध हैं ? कितने रस हैं ? कितने स्पर्श गोयमा ! अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे; अरूवी, अजीवे, सासए, अवदिए, लोगा- लोगदब्वे । से समासओ पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा- दवओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ, गुण- ओ। गौतम ! अवर्णः, अगन्धः, अरसः, अस्पर्शः अरूपी, अजीवः, शाश्वतः, अवस्थितः, लोकालोकद्रव्यम् । सः समासतः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद् यथाद्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः, भावतः, गुणतः। गौतम ! वह अवर्ण, अगन्ध, अरस, अस्पर्श; अरूपी, अजीव, शाश्वत, अवस्थित तथा लोकालोक का एक अंशभूत द्रव्य है। वह संक्षेप में पांच प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-द्रव्य की अपेक्षा से, क्षेत्र की अपेक्षा से, काल की अपेक्षा से, भाव की अपेक्षा से और गुण की अपेक्षा से। द्रव्य की अपेक्षा से आकाशास्तिकाय एक द्रव्य दबओ णं आगासत्थिकाए एगे दब्बे। द्रव्यतः आकाशास्तिकायः एकम् द्रव्यम् । खेत्तओ लोयालोयप्पमाणमेक्ते-अणंते। क्षेत्रतः लोकालोकप्रमाणमात्रः-अनन्तः । कालओ न कयाइ न आसि, न कयाइ कालतः न कदाचिन् नासीत्, न कदाचिन् नत्थि, न कयाइ न भविस्सइ-भविंसु य, नास्ति, न कदाचिन् न भविष्यति अभवच् भवति य, भविस्सइ य-धुवे, णियए, च, भवति च, भविष्यति च–ध्रुवः, नियतः, सासए, अक्खए, अबए, अवट्ठिए, शाश्वतः, अक्षयः, अव्ययः, अवस्थितः, णिचे। नित्यः। क्षेत्र की अपेक्षा से लोक- तथा अलोकप्रमाण-अनन्त है। काल की अपेक्षा से कभी नहीं था—ऐसा नहीं है, कभी नहीं है-ऐसा नहीं है, कभी नहीं होगा —ऐसा नहीं है-वह अतीत में था, वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा-अतः वह ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य भावओ अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे। भावतः अवर्णः, अगन्धः, अरसः, अस्पर्शः। भाव की अपेक्षा से अवर्ण, अगन्ध, अरस और अस्पर्श है। गुण की अपेक्षा से अवगाहनगुण वाला है। गुणओ अवगाहणागुणे॥ गुणतः अवगाहनागुणः। १२८. जीवत्थिकाए णं भंते ! कतिवण्णे ? कतिगंधे ? कतिरसे ? कतिफासे? जीवास्तिकायः भदन्त ! कतिवर्णः ? कति- १२८. भन्ते ! जीवास्तिकाय में कितने वर्ण हैं ? गन्धः ? कतिरसः ? कतिस्पर्शः ? कितने गन्ध हैं ? कितने रस हैं ? कितने स्पर्श गोयमा ! अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे; गौतम ! अवर्णः, अगन्धः, अरसः, अस्पर्शः; गौतम ! वह अवर्ण, अगन्ध, अरस, अस्पर्श; Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दव्वे। गुणओ। भगवई २८६ श.२: उ.१०. सू.१२८-१३० अस्वी, जीवे, सासए, अवहिए, लोग- अरूपी, जीवः, शाश्वतः, अवस्थितः, अरूपी, जीव, शाश्वत, अवस्थित तथा लोक का लोकद्रव्यम् । एक अंशभूत द्रव्य है। से समासओ पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा- सः समासतः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद् यथा- वह संक्षेप में पांच प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे—द्रव्य दब्बओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ, द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः, भावतः, गुणतः। की अपेक्षा से, क्षेत्र की अपेक्षा से, काल की अपेक्षा से, भाव की अपेक्षा से और गुण की अपेक्षा से। दबओ णं जीवत्थिकाए अणंताई द्रव्यतः जीवास्तिकायः अनन्तानि द्रव्याणि ।। द्रव्य की अपेक्षा से जीवास्तिकाय अनन्त जीवजीवदवाई। द्रव्य है। खेत्तओ लोगप्पमाणमेत्ते। क्षेत्रतः लोकप्रमाणमात्रः। क्षेत्र की अपेक्षा से लोकप्रमाणमात्र है। कालओ न कयाइ न आसि, न कयाइ कालतः न कदाचिन् नासीत्, न कदाचिन् काल की अपेक्षा से कभी नहीं था—ऐसा नहीं नत्थि, न कयाइ न भविस्सइ-भविंसु य, नास्ति, न कदाचिन् न भविष्यिति-अभवच् है, कभी नहीं है—ऐसा नहीं है, कभी नहीं होगा भवति य, भविस्सइ य–धुवे, णियए, च, भवति च, भविष्यति च-ध्रुवः, नियतः, -ऐसा नहीं है-वह अतीत में था, वर्तमान में सासए, अक्खए, अवए, अवट्टिए, शाश्वतः, अक्षयः, अव्ययः, अवस्थितः, है और भविष्य में रहेगा—अतः वह ध्रुव, नियत, णिचे। नित्यः। शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य भावओ अवण्णे, अगंधे, अरसे, अफासे। भावतः अवर्णः, अगन्धः, अरसः, अस्पर्शः। भाव की अपेक्षा से अवर्ण, अगन्ध, अरस और अस्पर्श है। गुण की अपेक्षा से उपयोग गुणवाला है। गुणओ उवओगगुणे॥ गुणतः उपयोगगुणः। १२६. पोग्गलत्थिकाए णं भंते ! कतिवण्णे? कतिगंधे ? कतिरसे? कतिफासे ? पुद्गलास्तिकायः भदन्त ! कतिवर्णः ? कति- १२६. भन्ते ! पुद्गलास्तिकाय में कितने वर्ण हैं ? गन्धः ? कतिरसः ? कतिस्पर्शः ? कितने गन्ध हैं ? कितने रस हैं ? कितने स्पर्श गुणओ। गोयमा ! पंचवण्णे, पंचरसे, दुगंधे, गौतम ! पञ्चवर्णः, पञ्चरसः, द्विगन्धः, अष्ट- गौतम ! उसमें पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और अट्ठफासे; स्पर्शः आठ स्पर्श हैं; रूवी, अजीवे, सासए, अवदिए, लोग- रूपी, अजीवः, शाश्वतः, अवस्थितः, लोक- वह रूपी, अजीव, शाश्वत, अवस्थित तथा लोक दब्बे। द्रव्यम्। का एक अंशभूत द्रव्य है। से समासओ पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा- सः समासतः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद् यथा- वह संक्षेप में पांच प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे—द्रव्य दब्बओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ, द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः, भावतः, गुणतः। की अपेक्षा से, क्षेत्र की अपेक्षा से, काल की अपेक्षा से, भाव की अपेक्षा से और गुण की अपेक्षा से। दब्बओ णं पोग्गलत्यिकाए अणंताई द्रव्यतः पुद्गलास्तिकायः अनन्तानि द्रव्या- द्रव्य की अपेक्षा से पुद्गलास्तिकाय अनन्त द्रव्य दवाई। णि। खेत्तओ लोयप्पमाणमेत्ते। क्षेत्र की अपेक्षा से लोकप्रमाणमात्र है। कालओ न कयाइ न आसि, न कयाइ क्षेत्रतः लोकप्रमाणमात्रः। काल की अपेक्षा से कभी नहीं था-ऐसा नहीं नत्थि, न कयाइ न भविस्सइ-भविंसु य, कालतः न कदाचिन् नासीत्, न कदाचित् है, कभी नहीं है—ऐसा नहीं है, कभी नहीं भवति य, भविस्सइ -घुवे, णियए, नास्ति, न कदाचिन् न भविष्यति-अभवच् होगा—ऐसा नहीं है—वह अतीत में था, वर्तमान सासए, अक्खए, अव्वए, अवदिए, च, भवति च, भविष्यति च–ध्रुवः, नियतः, में है और भविष्य में रहेगा—अतः वह ध्रुव, णिचे। शाश्वतः, अक्षयः, अव्ययः, अवस्थितः, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्यः। नित्य है। भावओ वण्णमंते, गंधमंते, रसमंते, भाव की अपेक्षा से वर्णवान्, गन्धवान्, रसवान् फासमंते। भावतः वर्णवान्, गन्धवान्, रसवान्, और स्पर्शवान् है। गुणओ गहणगुणे॥ स्पर्शवान्। गुण की अपेक्षा से ग्रहणगुण-समुदित होने की गुणतः ग्रहणगुणः। योग्यता वाला है। १३०. एगे भंते ! धम्मत्यिकायपदेसे घम्मत्थि- एकः भदन्त ! धर्मास्तिकायप्रदेशः धर्मास्ति- १३०. भन्ते ! क्या धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.२: उ.१०. सू.१३०-१३३ २६० भगवई काए त्ति वत्तव्वं सिया ? गोयमा ! णो इणढे समढे ॥ कायः इति वक्तव्यं स्यात् ? गौतम ! नायमर्थः समर्थः। धर्मास्तिकाय कहा जा सकता है ? गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। १३१. एवं दोण्णि, तिण्णि, चत्तारि, पंच, छ, सत्त, अट्ठ, नव, दस, संखेजा, असं- खेजा। भंते ! धम्मत्थिकायपदेसा धम्मत्थिकाए ति वत्तव्वं सिया? गोयमा ! णो इणडे समढे ॥ एवं द्वौ, त्रयः, चत्वारः, पञ्च, षट्, सप्त, १३१. भन्ते ! क्या इसी प्रकार धर्मास्तिकाय के दो, अष्ट, नव, दश, संख्येयाः, असंख्येयाः। तीन, चार, पांच, छह, सात, आठ, नौ, दस, भदन्त ! धर्मास्तिकायप्रदेशाः धर्मास्तिकायः संख्येय और असंख्येय प्रदेशों को धर्मास्तिकाय इति वक्तव्यं स्यात् ? कहा जा सकता है ? गौतम ! नायमर्थः समर्थः। गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। १३२. एगपदेसूणे वि य णं भंते ! धम्मत्थि- काए धम्मत्थिकाए त्ति वत्तव् सिया ? गोयमा ! णो इणढे समढे ॥ एक प्रदेशोनोऽपि भदन्त ! धर्मास्तिकायः १३२. भन्ते ! क्या एक प्रदेश कम धर्मास्तिकाय धर्मास्तिकायः इति वक्तव्यं स्यात् ? को भी धर्मास्तिकाय कहा जा सकता है ? गौतम ! नायमर्थः समर्थः। गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। १३३. से केणटेणं भंते ! एवं वुचइ–एगे तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-एकः १३३. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा धम्मत्थिकायपदेसे नो धम्मत्थिकाए त्ति धर्मास्तिकायप्रदेशः नो धर्मास्तिकायः इति है-धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को धर्मास्तिकाय वत्तव्वं सिया जाव एगपदेसणे वि य णं वक्तव्यं स्यात् यावद् एकप्रदेशोनोऽपि च नहीं कहा जा सकता यावत् एक प्रदेश कम धम्मत्थिकाए नो धम्मत्थिकाए ति वत्तव्वं धर्मास्तिकायः नो धर्मास्तिकायः इति वक्तव्यं धर्मास्तिकाय को भी धर्मास्तिकाय नहीं कहा जा सिया ? स्यात् ? सकता? से नणं गोयमा ! खंडे चक्के ? सगले चक्के? अथ नूनं गौतम ! खण्डं चक्रम् ? सकलं गौतम ! क्या चक्र का खण्ड चक्र कहलाता है ? चक्रम् ? अथवा अखण्ड चक्र चक्र कहलाता है ? भगवं ! नो खंडे चक्के, सगले चक्के । भगवन् ! नो खण्डं चक्रम्, सकलं चक्रम् । भगवन् ! चक्र का खण्ड चक्र नहीं कहलाता, अखण्ड चक्र चक्र कहलाता है। खंडे छत्ते ? सगले छत्ते। खण्डं छत्रम् ? सकलं छत्रम् ? क्या छत्र का खण्ड छत्र कहलाता है ? अथवा अखण्ड छत्र छत्र कहलाता है ? भगवं! नो खंडे छत्ते, सगले छत्ते। भगवन् ! नो खण्डं छत्रम्, सकलं छत्रम् । भगवन् ! छत्र का खण्ड छत्र नहीं कहलाता, अखण्ड छत्र छत्र कहलाता है। खंडे चम्मे ? सगले चम्मे ? खण्डं चर्म ? सकलं चर्म ? क्या चर्म का खण्ड चर्म कहलाता है ? अथवा अखण्ड चर्म चर्म कहलाता है ? भगवं ! नो खंडे चम्मे, सगले चम्मे। भगवन् ! नो खण्डं चर्म, सकलं चर्म । भगवन् ! चर्म का खण्ड चर्म नहीं कहलाता, अखण्ड चर्म चर्म कहलाता है। खंडे दंडे ? सगले दंडे ? खण्डः दण्डः ? सकलः दण्डः ? क्या दण्ड का खण्ड दण्ड कहलाता है ? अथवा अखण्ड दण्ड दण्ड कहलाता है ? भगवं ! नो खंडे दंडे, सगले दंडे । भगवन् ! नो खण्डः दण्डः, सकलः दण्डः । भगवन् ! दण्ड का खण्ड दण्ड नहीं कहलाता, अखण्ड दण्ड दण्ड कहलाता है। खंडे दूसे ? सगले दूसे ? खण्डं दूष्यम् ? सकलं दूष्यम् ? क्या वस्त्र का खण्ड वस्त्र कहलाता है ? अथवा अखण्ड वस्त्र वस्त्र कहलाता है ? भगवं ! नो खंडे दूसे, सगले दूसे ।। भगवन् नो खण्डं दूष्यम्, सकलं दूष्यम् । भगवन् ! वस्त्र का खण्ड वस्त्र नहीं कहलाता, अखण्ड वस्त्र वस्त्र कहलाता है। खंडे आयुहे ? सगले आयहे ? खण्डः आयुधः ? सकलः आयुधः ? क्या आयुध का खण्ड आयुध कहलाता है ? अथवा अखण्ड आयुध आयुध कहलाता है ? भगवं ! नो खंडे आयुहे, सगले आयुहे। भगवन् ! नो खण्ड: आयुधः, सकलः भगवन् ! आयुध का खण्ड आयुध नहीं कहलाता, आयुधः। अखण्ड आयुध आयुध कहलाता है। खंडे मोदए ? सगले मोदए ? खण्डः मोदकः ? सकलः मोदकः ? क्या मोदक का खण्ड मोदक कहलाता है ? अथवा अखण्ड मोदक मोदक कहलाता है ? Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २६१ श.२: उ.१०: सू.१२४-१३५ भगवं ! नो खंडे मोदए, सगले मोदए। भगवन् ! नो खण्डः मोदकः, सकलः मोदकः। से तेणद्वेणं गोयमा ! ए बुचइ–एगे तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-एकः । धम्मत्थिकायपदेसे नो धम्मत्थिकाए ति धर्मास्तिकायप्रदेशः नो धर्मास्तिकायः इति वत्तव्वं सिया जाव एगपदेसूणे वि य णं वक्तव्यं स्याद् यावद् एकप्रदेशोनोऽपि च धम्मत्थिकाए नो धम्मत्थिकाए त्ति बत्तवं धर्मास्तिकायः नो धर्मास्तिकायः इति वक्तव्यं सिया ॥ स्यात् । भगवन् ! मोदक का खण्ड मोदक नहीं कहलाता, अखण्ड मोदक मोदक कहलाता है। गौतम ! यह इस अपेक्षा से कहा जा रहा हैधर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को धर्मास्तिकाय नहीं कहा जा सकता यावत् एक प्रदेश कम धर्मास्तिकाय को भी धर्मास्तिकाय नहीं कहा जा सकता। १३४. से किंखाइ णं भंते ! धम्मत्थिकाए ति तत् 'किंखाइ' भदन्त ! धर्मास्तिकायः इति १३४. भन्ते ! धर्मास्तिकाय किसे (कितने प्रदेशों वत्तबं सिया ? वक्तव्यं स्यात् ? को) कहा जा सकता है ? गोयमा ! असंखेजा धम्मत्थिकायपदेसा, ते गौतम ! असंख्येयाः धर्मास्तिकायप्रदेशाः, ते गौतम ! धर्मास्तिकाय के असंख्येय प्रदेश हैं। वे सव्वे कसिणा पडिपुण्णा निरवसेसा एक- सर्वे कृत्स्नाः प्रतिपूर्णाः निरवशेषाः एक- सब प्रतिपूर्ण, निरवशेष और एक शब्द (धर्माग्गहणगहिया–एस गोयमा ! धम्म- ग्रहणग्रहीताः-एष गौतम ! धर्मास्तिकायः ।। स्तिकाय) के द्वारा गृहीत होते हैं-गौतम ! इसको थिकाए ति बत्तबं सिया ॥ इति वक्तव्यं स्यात् । धर्मास्तिकाय कहा जा सकता है। १३५. एवं अधम्मत्थिकाए वि। आगासत्थि- एवम् अधर्मास्तिकायोऽपि। आकाशास्ति- १३५. इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय वक्तव्य है। काय-जीवत्थिकाय-पोग्गलत्थिकाया वि एवं काय-जीवास्तिकाय-पुदगलास्तिकायाः अपि आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलाचेव, नवरं-तिहं पि पदेसा अणंता एवं चैव, नवरं-त्रयाणामपि प्रदेशाः स्तिकाय भी इसी प्रकार वक्तव्य हैं, केवल इतना भाणियवा। सेसं तं चेव ॥ अनन्ताः भणितव्याः। शेषं तच् चैव । अन्तर है—इन तीनों के प्रदेश अनन्त होते हैं। शेष पूर्ववत् । भाष्य १. सूत्र १२४-१३५ आगम-साहित्य में तत्त्व के चार वर्गीकरण मिलते हैं.---- १. द्रव्य-जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य।' २. पांच अस्तिकाय-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्ति काय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय। (यह प्रस्तुत आलापक में ३. छह द्रव्य-धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव ।' ४. नवतत्त्व-जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष।' जैन दर्शन द्वैतवादी दर्शन है; इसलिए उसने मूल तत्त्व दो माने—जीव और अजीव । पञ्चास्तिकाय इन दो का विस्तार है। जीव और अजीव को सांख्य आदि द्वैतवादी दर्शन भी मानते हैं। किन्तु अस्तिकाय का सिद्धान्त भगवान महावीर का सर्वथा मौलिक सिद्धान्त है। जीव की तुलना सांख्य-सम्मत पुरुष से की जा सकती है। पुद्गल की तुलना सांख्य-सम्मत प्रकृति से की जा सकती है। आकाश प्रायः सभी दर्शनों में सम्मत है। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय-ये दो तत्त्व अन्य किसी दर्शन में प्रतिपादित नहीं हैं। 'द्रव्य' शब्द का प्रयोग वैशेषिक दर्शन में मिलता है। किन्तु 'अस्तिकाय' का प्रयोग अन्य किसी दर्शन में उपलब्ध नहीं है। यह अस्तित्व का वाचक शब्द है। वेदान्त में जैसे ब्रह्म निरपेक्ष अस्तित्व है, वैसे ही जैन दर्शन में ये पांच निरपेक्ष अस्तित्व हैं। जैसे पुद्गल के परमाणु होते हैं, वैसे ही शेष चार अस्तिकायों के भी परमाणु होते हैं। उनके परमाणु पृथक्-पृथक् नहीं होते, वे सदा अपृथक् रहते हैं, इसलिए वे 'प्रदेश' कहलाते हैं। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के प्रदेश असंख्य, आकाशास्तिकाय, पुदगलास्तिकाय और जीवास्तिकाय-इनके प्रदेश अनन्त हैं।' षड्द्रव्यवाद पञ्चास्तिकाय के उत्तरकाल का विकास है। भगवती के दो प्रसंगों के आधार पर यह अनुमान किया जा सकता है। कालोदय आदि अन्ययूथिक संन्यासियों ने एक चर्चा शुरु की श्रमण ज्ञातपुत्र पांच अस्तिकायों की प्रज्ञापना करते हैं।' पांच अस्तिकाय के साथ अद्धा-समय या काल का योग होने पर छह द्रव्य बन जाते हैं। इस प्रकार अस्तित्ववाद की दृष्टि से तत्त्व के ये तीन वर्गीकरण हैं। नव पदार्थ का वर्गीकरण उपयोगितावाद की दृष्टि से है। उसमें जीव और अजीव ये दो मूल द्रव्य हैं। शेष सात पदार्थों में मोक्ष तथा उसके साधक-बाधक द्रव्यों का निरूपण प्रस्तुत प्रकरण में अस्तिकाय का जो स्वरूप मिलता है, वह १. भ.२५।। २. वही,२५।११,१२। ३. ठाणं.६६ ४. भ.२।१३४,१३५। ५. (क) वही,७४२१-२२०। (ख) वही,१८/१३४-१४२॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. २: उ.१०: सू.१२४-१३५ २६२ दार्शनिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। जीव तत्त्व का सिद्धान्त अनेक दर्शनों में स्वीकृत है। वह अंगुष्ठ-परिमाण है, देह-परिमाण है अथवा व्यापक है—यह विषय भी चर्चित है, किन्तु उसका स्वरूप-ज्ञानउसके कितने परमाणु या प्रदेश हैं - यह विषय कहीं भी उपलब्ध नहीं है। अस्तिकाय को प्रदेशात्मक बतला कर भगवान् महावीर ने उसके स्वरूप को एक नया आयाम दिया है। जैन दर्शन में अस्तित्व का अर्थ है- परमाणु या परमाणु-स्कन्ध | धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीवास्तिका चार परमाणु-स्कन्ध हैं। इनके परमाणु कभी वियुक्त नहीं होते, इसलिए ये प्रदेश -स्कन्ध कहलाते हैं । पुद्गलास्तिकाय के परमाणु संयुक्त और वियुक्त दोनों अवस्थाओं में होते हैं, इसलिए उसमें परमाणु और परमाणु-स्कन्ध दोनों अवस्थाएं मिलती हैं। पांच अस्तिकायों में एक जीवास्तिकाय के प्रदेश-स्कन्ध चैतन्यमय हैं, शेष तीन अस्तिकायों के प्रदेश- स्कन्ध तथा पुद्गलास्तिकाय के प्रदेश-स्कन्ध और परमाणु चैतन्यरहित हैं, अजीव हैं। पांच अस्तिकायों में चार अस्तिकाय अमूर्त हैं, पुद्गलास्तिकाय मूर्त है। अमूर्त का लक्षण है-वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श का अभाव । मूर्त का लक्षण है –वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से युक्त होना । शब्द-विमर्श अस्तिकाय— 'अस्ति' शब्द के दो अर्थ हैं१. त्रैकालिक अस्तित्व २. प्रदेश काय का अर्थ है – राशि । ' लोकद्रव्य – चार अस्तिकाय और लोकाकाश के समवाय का नाम है -- लोक । धर्मास्तिकाय लोक का एक घटक है, इसलिए उसे लोकद्रव्य कहा गया है । ' दव्वओ, खेत्तओ, कालओ - देखें २।२७ का भाष्य । भाव और गुण भाव का अर्थ है पर्याय । अस्तिकाय चतुष्टय में भाव का निषेधात्मक निरूपण किया गया है। केवल पुद्गलास्तिकाय में उसका विधायक निरूपण है। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श-ये पुद्गल के सहभावी धर्म हैं। उत्तरवर्ती दार्शनिक और लाक्षणिक ग्रन्थों में सहभावी धर्म को गुण और क्रमभावी धर्म को पर्याय कहा गया है। १. भ. वृ. २ । १२४ - अस्तिशब्देन प्रदेशा उच्यन्तेऽतस्तेषां काया-राशयोऽस्तिकायाः, अथवाऽस्तीत्ययं निपातः कालत्रयाभिधायी, ततोस्तीति सन्ति आसन् भविष्यन्ति च ये कायाः प्रदेशराशयस्तेऽस्तिकाया इति । २. वही, २।१२५ लोकस्य – पञ्चास्तिकायात्मकस्यांशभूतं द्रव्यं लोकद्रव्यम् । ३. वही, २।१२५ 'गुणओ'त्ति कार्यतः । ४. त. रा. वा. ५1१७ गतिस्थित्योः धर्माधर्मौ कर्तारौ इत्ययमर्थः प्रसक्तः इति, तन्त्र, किं कारणम्, उपकारवचनात्। उपकारो बुलाधानम् अवलम्बनम् इत्यनर्थान्तरम् । तेन धर्माधर्मयोः गतिस्थितिनिर्वर्तने प्रधानकर्तृत्वमपोदितं भवति । भगवई आगम - साहित्य में सहभावी और क्रमभावी दोनों प्रकार के धर्मों को पर्याय कहा गया है । द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक—ये दो ही नय हैं, गुणार्थिक नय विवक्षित नहीं है। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शये सहभावी भी हैं और इनका अवस्था-भेद होता रहता है, इसलिए ये क्रमभावी भी हैं। वृत्तिकार ने 'गुण' का अर्थ कार्य किया है। यहां 'गुण' शब्द सहभावी धर्म के अर्थ में प्रयुक्त नहीं है, यह उपकार के अर्थ में प्रयुक्त है। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय गति और स्थिति के प्रेरक नहीं हैं, केवल उपकारक हैं। गमन गुण का अर्थ होगागति में उपकारक । स्थान- गुण का अर्थ होगा — ठहरने में उपकारक । अवगाहना-गुण का अर्थ होगा - आश्रय में उपकारक । चैतन्य जीव का स्वभाव है। उपयोग चैतन्य की प्रवृत्ति है। सूत्र १३७ में वह जीव के लक्षण के रूप में निर्दिष्ट है; इसलिए वह उपकारक है। उसके द्वारा जीव होने का पता चलता है। जीवास्तिकाय और जीव धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय ये तीनों संख्या की दृष्टि से एक व्यक्तिक हैं। जीव अनन्त हैं। उन अनन्त जीवों के समुदय का नाम जीवास्तिकाय है । परमाणु और परमाणुस्कन्ध भी अनन्त हैं। उनके समुदय का नाम पुद्गलास्तिकाय है। एक जीव जीवास्तिकाय नहीं कहलाता तथा एक कम जीव वाले जीवास्तिकाय को जीवास्तिकाय नहीं कहा जाता। सभी जीवों का समुदय जीवास्तिकाय कहलाता है। पुद्गलास्तिकाय का भी यही नियम है। जीवास्तिकाय को क्षेत्र की अपेक्षा से लोक - प्रमाण कहा गया है। इसी प्रकार धर्मास्तिकाय को भी क्षेत्र की अपेक्षा से लोकप्रमाण कहा गया है। किन्तु तात्पर्य की दृष्टि से दोनों भिन्न हैं । धर्मास्तिकाय अकेला ही पूरे लोक में व्याप्त है, जब कि लोक आकाश का कोई भी भाग ऐसा नहीं है, जहां जीव न हो । जीव जीवास्तिकाय का एक देश है।' प्रत्येक जीव असंख्यात - प्रदेशात्मक है। ठाणं में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश और एक जीव-इन चारों का प्रदेश परिमाण एक समान बतलाया गया है । केवली समुद्घात के समय एक जीव के प्रदेश पूरे लोक में व्याप्त हो जाते हैं। अतः एक जीव को भी क्षेत्र की अपेक्षा से लोकप्रमाण कहा जा सकता है। यह कादाचित्क घटना है। यहां यह विवक्षित नहीं है। यहां जीवास्तिकाय का लोक-व्यापित्व ही विवक्षित है। यथा अन्धस्येतरस्य वा स्वजङ्घाबलाद् गच्छतः यष्ट्याद्युपकारकं भवति, न तु प्रेरकं तथा जीवपुद्गलानां स्वशक्त्यैव गच्छतां तिष्ठतां च धर्माधर्मौ उपकारकौ न प्रेरक इत्युक्तं भवति । ५. भ. बृ.२ । १३५ – उपयोगगुणो जीवास्तिकायः प्राग्दर्शितः, अथ तदंशभूतो जीवः । ६. ठाणं, ४।४६५चत्तारि पएसग्गेणं तुल्ला पण्णत्ता, तं जहा -- धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, लोगागासे, एगजीवे । ७. वही, ८ । ११४ - उत्थे समए लोगं पूरेति । Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई एक जीव के प्रदेश असंख्य होते हैं। जीवास्तिकाय के प्रदेश अनन्त बतलाए गए हैं। यह अनन्त जीवों की अपेक्षा से है। पुद्गलास्तिकाय के अनन्त प्रदेश स्कन्ध-समुदय की अपेक्षा से निर्दिष्ट चेतन / अचेतन मूर्त / अमूर्त प्रदेशपरिमाण अचेतन अमूर्त धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय अचेतन आकाशास्तिकाय अचेतन अमूर्त पुद्गलास्तिकाय अचेतन मूर्त जीवास्तिकाय चेतन अमूर्त जीवत्त उवदंसण-पदं १३६. जीवे णं भंते ! सउट्ठाणे सकम्मे सबले सवीरिए सपुरिसक्कार- परक्कमे आयभावेणं जीवभावं उवदंसेतीति वत्तव्वं सिया ? हंता गोयमा ! जीवे णं सउट्ठाणे सकम्मे सबले सवीरिए सपुरिसक्कार- परक्कमे आयभावेणं जीवभावं उवदंसेतीति बत्तव्वं सिया ॥ १३७. से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच जीवे सट्टा सकम्मे सबले सवीरिए सपुरिसकार- परक्कमे आयभावेणं जीवभावं उवदंसेतीति वत्तव्यं सिया ? गोयमा ! जीवे णं अनंताणं आभिणिबोहियनाणपञ्जवाणं, अणंताणं सुयनाणपजवाणं, अणंताणं ओहिनाणपज्जवाणं, अनंताणं मणपञ्जवनाणपजवाणं, अनंताणं वाणपजवाणं, अनंताणं मइअण्णाणपजवाणं, अणंताणं सुयअण्णाणपञ्जवाणं, अनंताणं विभंगनाणपञ्जवाणं, अणंताणं चक्खुदंसणपज्जवाणं, अणंताणं अचक्खुदंसणपज्जवाणं, अणंताणं ओहिदंसणपज्जवाणं, अणंताणं केवलदंसणपज्जवाणं उवओगं गच्छइ । उवओगलक्खणे णं जीवे । से एएणणं एवं बुच्च — गोयमा ! जीवे णं सउट्ठाणे सकम्मे सबले सवीरिए सपुरिसक्कार-परक्कमे आयभावेणं जीवभावं उवदंसेतीति वत्तव्यं सिया ।। २६३ श. २: उ.१०: सू.१२४-१३७ हैं। लोकाकाश के प्रदेश असंख्य हैं, किन्तु अखंड आकाश के प्रदेश अनन्त है। पांच अस्तिकायों का विवरण निम्न यंत्र में दिया जा रहा है गुण एक / अनन्त क्षेत्रीय अवस्थिति उदासीन गतिसहायक एक द्रव्य लोक-परिमाण | उदासीन स्थितिसहायक एक द्रव्य लोक-परिमाण अवगाहना एक द्रव्य लोकालोक-परिमाण ग्रहण परस्पर संबंध करना अनन्त द्रव्य उपयोग लोक-परिमाण लोक-परिमाण अनन्त द्रव्य असंख्य असंख्य अनन्त अनन्त एक जीव की अपेक्षा असंख्य, सम्पूर्ण जीवास्तिकाय की अपेक्षा अनन्त जीवत्व-उपदर्शन-पदम् जीवः भदन्त ! सोत्थानः सकर्मा सबल: सवीर्यः सपुरुषकार-पराक्रमः आत्मभावेन जीवभावम् उपदर्शयति इति वक्तव्यं स्यात् ? हन्त गौतम ! जीवः सोत्थानः सकर्मा सबलः सवीर्यः सपुरुषकार-पराक्रमः आलभावेन जीवभावम् उपदर्शयति इति वक्तव्यं स्यात् । तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते— जीवः सोत्थानः सकर्मा सबलः सवीर्यः सपुरुषकार-पराक्रमः आत्मभावेन जीवभावम् उपदर्शयति इति वक्तव्यं स्यात् ? गौतम ! जीवः अनन्तानाम् आभिनिबोधिकज्ञानपर्यवाणाम्, अनन्तानां श्रुतज्ञानपर्यवाणाम्, अनन्तानाम् अवधिज्ञानपर्यवाणाम्, अनन्तानां मनः पर्यवज्ञानपर्यवाणाम्, अनन्तानां केवलज्ञानपर्यवाणाम्, अनन्तानां मत्यज्ञानपर्यवाणाम्, अनन्तानां श्रुताज्ञानपर्यवाणाम्, अनन्तानां विभंगज्ञानपर्यवाणाम्, अनन्तानां चक्षुर्दर्शनपर्यवाणाम्, अनन्तानाम् अचक्षुर्दर्शनपर्यवाणाम्, अनन्तानाम् अवधिदर्शनपर्यवाणाम्, अनन्तानां केवलदर्शनपर्यवाणाम् उपयोगं गच्छति । उपयोगलक्षणः जीवः । तद् एतेनार्थेन एवमुच्यते— गौतम ! जीवः सोत्थानः सकर्मा सबलः सवीर्यः सपुरुषकार-पराक्रमः आत्मभावेन जीवभावम् उपदर्शयति इति वक्तव्यं स्यात् । जीवत्व - उपदर्शन-पद 9 १३६. ' भन्ते ! उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार- पराक्रम से युक्त जीव अपने आत्म-भाव (आत्मप्रवृति) से जीव-भाव ( जीव होने) को प्रकट करता है—क्या यह कहा जा सकता है ? हां, गौतम ! उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार पराक्रम से युक्त जीव अपने आत्म-भाव से जीव-भाव को प्रकट करता है—यह कहा जा सकता है। १३७. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है — उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार- पराक्रम से युक्त जीव अपने आत्म-भाव से जीवभाव को प्रकट करता है—यह कहा जा सकता है ? गौतम ! जीव आभिनिबोधिक ज्ञान के अनन्त पर्यवों, श्रुतज्ञान के अनन्त पर्यवों, अवधिज्ञान के अनन्त पर्यवों मनः पर्यवज्ञान के अनन्त पर्यवों, केवलज्ञान के अनन्त पर्यवों, मतिअज्ञान के अनन्त पर्यवों, श्रुतअज्ञान के अनन्त पर्यवों, विभङ्गज्ञान के अनन्त पर्यवों, चक्षुदर्शन के अनन्त पर्यवों, अचक्षुदर्शन के अनन्त पर्यवों, अवधिदर्शन के अनन्त पर्यवों और केवलदर्शन के अनन्त पर्यवों के उपयोग को प्राप्त होता है। जीव उपयोगलक्षण वाला है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है—उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम से युक्त जीव अपने आत्म-भाव से जीव-भाव को प्रकट करता है— यह कहा जा सकता है। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. २: उ.१०: सू. १३६-१३६ १. सूत्र १३६, १३७ जीव स्वरूप से अमूर्त और चैतन्यमय है, किन्तु प्रत्येक संसारी जीव शरीरधारी है। शरीरधारी होने के कारण वह मूर्त है, उसका चैतन्य अदृश्य है। वह क्रिया अथवा प्रवृत्ति के द्वारा दृश्य बनता है। जीव की पहचान ज्ञान से नहीं होती, ज्ञानपूर्वक होनेवाली प्रवृत्ति से होती है। प्रवृत्ति की छह अवस्थाओं का सूत्रकार ने उल्लेख किया है—उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम । जीव उत्थान गमन, शयन, भोजन आदि आत्मभावों के द्वारा अपने चैतन्य को अभिव्यक्त करता है। विशिष्ट उत्थान विशिष्ट चेतनापूर्वक होता है। — प्रत्येक विशिष्ट उत्थान के पीछे एक विशिष्ट प्रकार की चेतना काम करती है। यह चैतन्यपूर्वक होनेवाली प्रवृत्ति ही जीव का लक्षण आगास-पदं १३८. कतिविहे णं भंते ! आगासे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे आगासे पण्णत्ते, तं जहा - लोयागासे य अलोयागासे य ॥ १३६. लोयागासे णं भंते ! किं जीवा ? जीवदेसा ? जीवप्पदेसा ? अजीवा ? अजीवदेसा ? अजीवप्पदेसा ? गोयमा ! जीवा वि, जीवदेसा वि, जीवप्पदेसा वि; अजीवा वि, अजीवदेसा वि, अजीवप्पदेसा वि । जे जीवा ते नियमा एगिंदिया, बेइंदिया, तेइंदिया, चउरिदिया, पंचिंदिया, अणि दिया। जे जीवदेसा ते नियमा एगिंदियदेसा, बेइंदियदेसा, तेइंदियदेसा, चउरिदियदेसा, पंचिंदियदेसा, अणिदियदेसा । जे जीवप्पसा ते नियमा एगिंदियपदेसा, बेइंदियपदेसा, इंदियपदेसा, चउरिदियपदेसा, पंचिंदियपदेसा, अणिदियपदेसा । २६४ भाष्य बनती है। जीव का लक्षण उपयोग बतलाया गया है। ज्ञान के अनन्त पर्याय हैं । ज्ञेय के अनुसार ज्ञान के पर्याय का परिवर्तन होता रहता है, इसीलिए उपयोग — चेतना का व्यापार जीव का लक्षण बनता है। आकाश-पदम् कतिविधः भदन्त ! आकाशः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! द्विविधः आकाशः प्रज्ञप्तः, तद् यथा -लोकाकाशः च अलोकाकाशः च । जे अजीवा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहारूवी य अरूवी य । १. भ.वृ. २।१३७ —– 'पर्यवाः' प्रज्ञाकृता अविभागाः परिच्छेदाः । शब्द-विमर्श आत्मभाव - उत्थान आदि क्रिया के लिए होनेवाला जीव - परिणाम | जीवभाव जीवत्व, चैतन्य । पर्यव—बुद्धि से कृत अविभाग परिच्छेद ।' लोकाकाशः भदन्त । किं जीवाः ? जीवदेशाः ? जीवप्रदेशाः ? अजीवाः ? अजीवदेशाः ? अजीवप्रदेशाः ? गौतम ! जीवाः अपि जीवदेशाः अपि, जीवप्रदेशाः अपि अजीवाः अपि, अजीवदेशाः अपि, अजीवप्रदेशाः अपि । ये जीवाः ते नियमाद् एकेन्द्रियाः, द्वीन्द्रियाः, त्रीन्द्रियाः चतुरिन्द्रियाः, पञ्चेन्द्रियाः, अनिन्द्रियाः । ये जीवदेशाः ते नियमाद् एकेन्द्रियदेशाः, द्वीन्द्रियदेशाः, त्रीन्द्रियदेशाः, चतुरिन्द्रियदेशाः, पञ्चेन्द्रियदेशाः, अनिन्द्रियदेशाः । ये जीवप्रदेशाः ते नियमाद् एकेन्द्रियप्रदेशाः, द्वीन्द्रियप्रदेशाः, त्रीन्द्रियप्रदेशाः, चतुरिन्द्रियप्रदेशाः, पञ्चेन्द्रियप्रदेशाः, अनिन्द्रियप्रदेशाः । ये अजीवाः ते द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा -रूपिणः च अरूपिणः च । भगवई आकाश-पद १३८. आकाश कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है ? गौतम ! आकाश दो प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे— लोकाकाश और अलोकाकाश । १३६. भन्ते ! लोकाकाश क्या जीव है ? जीव का देश है ? जीव का प्रदेश है ? अजीव है ? अजीव का देश है ? अजीव का प्रदेश है ? गौतम ! लोकाकाश जीव भी है, जीव का देश भी है, जीव का प्रदेश भी है; अजीव भी है, अजीव का देश भी है और अजीव का प्रदेश भी है । जो जीव हैं, वे नियमतः एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय और अनिन्द्रिय हैं। जो जीव के देश हैं, वे नियमतः एकेन्द्रिय जीवों के देश हैं, द्वीन्द्रिय जीवों के देश हैं, त्रीन्द्रिय जीवों के देश हैं, चतुरिन्द्रिय जीवों के देश हैं, पञ्चेन्द्रिय जीवों के देश हैं और अनिन्द्रिय जीवों के देश हैं। जो जीवों के प्रदेश हैं, वे नियमतः एकेन्द्रिय जीवों के प्रदेश हैं, द्वीन्द्रिय जीवों के प्रदेश हैं, त्रीन्द्रिय जीवों के प्रदेश हैं, चतुरिन्द्रिय जीवों के प्रदेश हैं, पञ्चेन्द्रिय जीवों के प्रदेश हैं और अनिन्द्रिय जीवों के प्रदेश हैं। जो अजीव हैं, वे दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसेरूपी और अरूपी । Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २६५ श.२: उ.१०. सू.१३८,१३६ जे रूवी ते चउब्विहा पण्णत्ता, तं जहा- ये रूपिणः ते चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा । जो रूपी हैं, वे चार प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसेखंघा, खंघदेसा, खंघपदेसा, परमाणु- -स्कन्धाः, स्कन्धदेशाः, स्कन्धप्रदेशाः, पर- स्कन्ध, स्कन्ध के देश, स्कन्ध के प्रदेश और पोग्गला। माणुपुद्गलाः। परमाणुपुद्गल । जे अस्वी ते पंचविहा पण्णता, तं जहा ये अरूपिणः ते पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् जो अरूपी हैं, वे पांच प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-धम्मत्थिकाए, नो घम्मत्थिकायस्य देसे, यथा-धर्मास्तिकायः, नो धर्मास्तिकायस्य धर्मास्तिकाय, धर्मास्तिकाय का देश नहीं होता, धम्मत्थिकायस्स पदेसा; अधम्मत्थिकाए, देशः, धर्मास्तिकायस्य प्रदेशाः; अधर्मास्ति- धर्मास्तिकाय के प्रदेश; अधर्मास्तिकाय, अधर्मानो अधम्मत्थिकायस्स देसे, अधम्मत्थि- कायः, नो अधर्मास्तिकायस्य देशः, अधर्मा- स्तिकाय का देश नहीं होता, अधर्मास्तिकाय के कायस्स पदेसा, अद्धासमए । स्तिकायस्य प्रदेशाः, अध्वसमयः । प्रदेश और अध्वसमय। भाष्य १. सूत्र १३८,१३६ आकाश के दो खण्ड हैं-लोकाकाश और अलोकाकाश। इनकी सीमारेखा है-धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय। वे जिस आकाशखण्ड में व्याप्त हैं, वहां गति और स्थिति होती हैं। जहां गति और स्थिति हैं, वहां जीव और पुद्गल का अस्तित्व है। इसलिए धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय से व्याप्त आकाशखण्ड लोकाकाश है। शेष आकाश में आकाश के अतिरिक्त और कोई द्रव्य नहीं है; इसलिए उसकी संज्ञा अलोकाकाश है।' लोकाकाश ससीम है और अलोकाकाश असीम। जीव और अजीव दोनों लोकाकाश में व्याप्त हैं, फिर देश और प्रदेश की व्याप्ति के प्रश्न की सार्थकता क्या है ? इस विषय पर वृत्तिकार ने विमर्श किया है। उनके अनुसार देश और प्रदेश का प्रतिपादन सापेक्ष है। नैयायिक, वैशेषिक आदि कुछ दार्शनिक आत्मा को व्यापक और निरवयव मानते हैं। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा देह-परिमाण और सावयव है। इस अपेक्षा को ध्यान में रखकर जीव के देश और प्रदेश का प्रश्न उपस्थित किया गया है। पांच अस्तिकायों में एक पुद्गल-द्रव्य ही ऐसा है, जिसके देश की संभावना की जा सकती है। पुद्गल-द्रव्य के दो प्रकार हैंपरमाणु और स्कन्ध। परमाणु मिलते हैं, स्कन्ध बन जाता है; स्कन्ध का भेद होता है, फिर परमाणु बन जाते हैं। पुद्गल-द्रव्य कभी विभक्त और कभी अविभक्त होता रहता है, इसलिए उसका देश संभव है। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय सर्वथा अविभक्त हैं। उनका एक भी प्रदेश (परमाणु) द्रव्य से पृथक् नहीं होता। उस अवस्था में उनके देश की कल्पना नहीं की जा सकती; इसीलिए सूत्रकार ने लोकाकाश में धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के देश का निषेध किया है। जीव के देश का विधान सापेक्ष दृष्टि से किया गया है। संख्यात्मक दृष्टि से धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय तीनों एक-एक हैं। जीव और पुद्गल-दोनों में से प्रत्येक अनन्त हैं। अनन्त जीवों की अपेक्षा से एक जीव को जीवों का एक देश कहा जा सकता है। वृत्तिकार ने संकोच-विकोच की अपेक्षा से जीव की व्याख्या की है। उनके अनुसार एक जीव के स्थान में अनेक जीवों के देश हो सकते हैं। इस दृष्टि से जीव के देश का विधान किया जा सकता है। वृत्तिकार ने चूर्णिकार का अभिमत उद्धृत किया है। चूर्णिकार के अनुसार अरूपी द्रव्य का प्रतिपादन समुदय अथवा एक स्कन्ध के रूप में किया जाता है। वह स्कन्ध प्रदेशात्मक है, देशात्मक नहीं है। प्रदेश अवस्थित होते हैं और देश अनवस्थित होता है। इसलिए अरूपी द्रव्य के देश का निर्देश नहीं किया गया है। अरूपी द्रव्य के साथ जो 'देश' शब्द का प्रयोग मिलता है, वह व्यवहार के लिए किया गया है।' व्यवहार के दो प्रकार हो सकते हैं १. स्वविषयगत व्यवहार-जैसे धर्मास्तिकाय अपने देश से ऊर्ध्वलोक में व्याप्त होता है। २. परद्रव्यस्पर्शनादिगत व्यवहार-जैसे ऊर्ध्वलोकाकाश धर्मास्तिकाय के देश का स्पर्श करता है। वृत्तिकार ने चूर्णि के आधार पर ही प्रस्तुत सूत्र (१३६) की व्याख्या की है। १. द्रष्टव्य,म.१9190०१०६॥ २.भ.११1१०६,११०॥ ३. भ.वृ.२।१३६ ननु लोकाकाशे जीवा अजीवाश्चेत्युक्ते तद्देशप्रदेशास्तत्रोक्ता एव भवन्ति, जीवाद्यव्यतिरिक्तत्वाद्देशादीनां, ततो जीवाजीवग्रहणे किं देशा- दिग्रहणेनेति ? नैवं, निरवयवा जीवादय इति मतव्यवच्छेदार्थत्वादस्येति। ४. भ.वृ.२।१३९-इह तु सभेदस्याकाशस्याधारत्वेन विवक्षितत्वात्तदाधेयाः सप्त वक्तव्या भवन्ति, न च तेऽत्र विवक्षिताः, वक्ष्यमाणकारणात् । ये तु विवक्षि- तास्तानाह—पंचेति, कथमित्याह–'धम्पत्थिकाए' इत्यादि, इह जीवानां पुद्- गलानां च बहुत्वादेकस्यापि जीवस्य पुद्गलस्य वा स्थाने संकोचादितथाविधपरिणामवशादहवो जीवाः पुद्गलाश्च तथा तद्देशास्तत्रदेशाश्च संभवन्तीति कृत्वा जीवाश्च जीवदेशाश्च जीवप्रदेशाश्च, तथा रूपिद्रव्यापेक्षयाऽजीवाश्चाजीवदेशाश्चाजीवप्रदेशाश्चेति संगतम्, एकत्राप्याश्रये भेदवतो वस्तुत्रयस्य सद्भावात्। ५. द्रष्टव्य,भ.११।१००,१०१ । ६. द्रष्टव्य,वही,२।१४६,१४८/ ७. भ.१.२१३६/ | Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.२: उ.१०. सू.१४०-१४४ २६६ भगवई १४०. अलोयागासे णं भंते ! किं जीवा ? अलोकाकाशः भदन्त ! किं जीवाः ? जीव- १४०. 'भन्ते ! अलोकाकाश क्या जीव है ? जीव जीवदेसा ? जीवप्पदेसा ? अजीवा ? देशाः ? जीवप्रदेशाः ? अजीवाः ? अजीव- का देश है ? जीव का प्रदेश है ? अजीव है ? अजीवदेसा ? अजीवप्पदेसा? देशाः ? अजीवप्रदेशाः ? अजीव का देश है ? अजीव का प्रदेश है ? । गोयमा! नो जीवा, नो जीवदेसा, नो जीव- गौतम ! नो जीवाः, नो जीवदेशाः, नो जीव- गौतम ! वह न जीव है, न जीव का देश है, न प्पदेसा; नो अजीवा, नो अजीवदेसा, नो प्रदेशाः; नो अजीवाः, नो अजीवदेशाः, नो जीव का प्रदेश है; न अजीव है, न अजीव का अजीवप्पदेसा; एगे अजीवदब्बदेसे अगरुय- अजीवप्रदेशाः; एकः अजीवद्रव्यदेशः अगुरु- देश है, न अजीव का प्रदेश है। वह एक अजीव लहुए अणंतेहिं अगरुयलहुयगुणेहिं संजुत्ते कलघुकः अनन्तैः अगुरुकलघुकगुणैः संयुक्तः । द्रव्य का देश है, अगुरुलघु है, अनन्त अगुरुलघु सव्वागासे अणंतभागूणे ॥ सर्वाकाशे अनन्तभागोनः। गुणों से संयुक्त है और अनन्त भाग से न्यून परिपूर्ण आकाश है। भाष्य १. सूत्र १४० अलोकाकाश में केवल अजीव-द्रव्य का देश है इसका तात्पर्य है कि अलोक में आकाश परिपूर्ण नहीं है। उसका एक भाग लोक में है, इसलिए अलोक में अजीव-द्रव्य का देश है।' अलोकाकाश परिपूर्ण आकाश की अपेक्षा अनन्त भाग न्यून है क्योंकि लोकाकाश अलोकाकाश के अनन्तवें भाग जितना है।' वह अलोकाकाश अगुरुलघु है, अनन्त अगुरुलघु गुणों से संयुक्त होते हैं। ‘अगुरुलघु' की मीमांसा के लिए भ.२।४५ का भाष्य द्रष्टव्य है। अस्थिकाय-पदं अस्तिकाय-पदम् अस्तिकाय-पद १४१. धम्मत्थिकाए णं भंते ! केमहालए धर्मास्तिकायः भदन्त ! कियन्महान् प्रज्ञप्तः ? १४१. 'भन्ते ! धर्मास्तिकाय कितना बड़ा प्रज्ञप्त पण्णते? गोयमा ! लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोय- गौतम ! लोके लोकमात्रः लोकप्रमाणः लोकफुडे लोयं चेव फुसित्ता णं चिट्ठ॥ स्पृष्टः लोकं चैव स्पृष्ट्वा तिष्ठति। गौतम ! वह लोक में है, लोक-परिमाण है, लोक प्रमाण है, लोक से स्पृष्ट है और लोक का ही स्पर्श कर अवस्थित है। १४२. अधम्मत्थिकाए णं भंते ! केमहालए अधर्मास्तिकायः भदन्त ! कियन्महान् प्रज्ञप्तः? १४२. भन्ते ! अधर्मास्तिकाय कितना बड़ा प्रज्ञप्त पण्णते ? गोयमा ! लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोय- गौतम ! लोके लोकमात्रः लोकप्रमाणः लोक- गौतम ! वह लोक में है, लोक-परिमाण है, लोकफुड़े लोयं चेव फुसित्ता णं चिट्ठइ ।। स्पृष्टः लोकं चैव स्पृष्ट्वा तिष्ठति । प्रमाण है, लोक से स्पृष्ट है और लोक का ही स्पर्श कर अवस्थित है। १४३. लोयाकासे गं भंते ! केमहालए लोकाकाशः भदन्त ! कियन्महान् प्रज्ञप्तः ? १४३. भन्ते ! लोकाकाश कितना बड़ा प्रज्ञप्त है? पण्णत्ते? गोयमा ! लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोय- गौतम ! लोके लोकमात्रः लोकप्रमाणः लोक- गौतम ! वह लोक में है, लोक-परिमाण है, लोकफुडे लोयं चेव फुसित्ता णं चिट्ठइ॥ स्पृष्टः लोकं चैव स्पृष्ट्वा तिष्ठति । प्रमाण है, लोक से स्पृष्ट है और लोक का ही स्पर्श कर अवस्थित है। १४४. जीवत्थिकाए णं भंते ! केमहालए जीवास्तिकायः भदन्त ! कियन्महान् प्रज्ञप्तः? १४४. भन्ते ! जीवास्तिकाय कितना बड़ा प्रज्ञप्त पण्णते? गोयमा ! लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोय- गौतम ! लोके लोकमात्रः लोकप्रमाणः लोकफुडे लोयं चेव फुसित्ता णं चिदुइ ॥ स्पृष्टः लोकं चैव स्पृष्ट्वा तिष्ठति। गौतम ! वह लोक में है, लोक-परिमाण है, लोकप्रमाण है, लोक से स्पृष्ट है और लोक का ही स्पर्श कर अवस्थित है। २. वही, २११४०-लौकाकाशस्यालोकाकाशापेक्षयाऽनन्तभागरूपत्वादिति । १. भ.वृ.२११४०-अलोकाकाशस्य देशत्वं लोकालोकरूपाकाशद्रव्यस्य भाग- रूपत्वात्। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २६७ श.२: उ.१०. सू.१४१-१५० १४५. पोग्गलत्थिकाए णं भंते ! केमहालए पुद्गलास्तिकायः भदन्त ! कियन्महान् प्रज्ञप्तः? १४५. भन्ते ! पुद्गलास्तिकाय कितना बड़ा प्रज्ञप्त पण्णत्ते ? गोयमा ! लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोय- गौतम ! लोके लोकमात्रः लोकप्रमाणः लोक- गौतम ! वह लोक में है, लोक-परिमाण है, लोकफुडे लोयं चेव फुसित्ता णं चिदुइ ।। स्पृष्टः लोकं चैव स्पृष्ट्वा तिष्ठति। प्रमाण है, लोक से स्पृष्ट है और लोक का ही स्पर्श कर अवस्थित है। भाष्य १. सूत्र १४१-१४५ प्रस्तुत आलापक से 'लोक पञ्चास्तिकायमय है' यह परि- भाषा फलित होती है। चार अस्तिकाय लोकव्यापी हैं। आकाशास्तिकाय केवल लोकव्यापी नहीं है, अतः 'लोक पञ्चास्तिकायमय है' यह सापेक्ष वचन है। चार अस्तिकाय लोकप्रमाण हैं। इनमें धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय ये दोनों एक-व्यक्तिक रूप में व्यापक हैं। जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय-ये दोनों अस्तिकाय अनेक-व्यक्तिक हैं—जीव अनन्त हैं और पुद्गल (परमाणु और परमाणुस्कन्ध) भी अनन्त हैं। तात्पर्य की भाषा में निर्दिष्ट है कि सम्पूर्ण लोकाकाश में जीव और पुदगल व्याप्त हैं। लोकाकाश का एक भी प्रदेश ऐसा नहीं है, जहां जीव और परमाणु अथवा स्कन्ध का स्पर्श न हो। फुसणा-पदं स्पर्शना-पदम् स्पर्शना-पद १४६. अहोलोए णं भंते ! धम्मत्थिकायस्स केवइयं फुसति ? गोयमा ! सातिरेगं अद्धं फुसति ॥ अधोलोकः भदन्त ! धर्मास्तिकार्य कियत १४६. 'भन्ते ! अधोलोक धर्मास्तिकाय के कितने स्पृशति ? भाग का स्पर्श करता है ? गौतम ! सातिरेकम् अर्धं स्पृशति । गौतम ! वह धर्मास्तिकाय का कुछ अधिक आधे भाग का स्पर्श करता है। १४७. तिरियलोए णं भंते ! धम्मत्थिकायस्स तिर्यग्लोकः भदन्त ! धर्मास्तिकायं कियत् १४७. भन्ते ! तिर्यग्लोक धर्मास्तिकाय के कितने केवइयं फुसति ? स्पृशति ? भाग का स्पर्श करता है ? गोयमा ! असंखेजइभागं फुसति ॥ गौतम ! असंख्येयतमं भागं स्पृशति । गौतम ! वह धर्मास्तिकाय के असंख्यातवें भाग का स्पर्श करता है। १४८. उद्दलोए णं भंते ! धम्मत्थिकायस्स ऊर्ध्वलोकः भदन्त ! धर्मास्तिकायं कियत् १४८. भन्ते ! ऊर्ध्वलोक धर्मास्तिकाय के कितने केवइयं फुसति ? स्पृशति ? भाग का स्पर्श करता है ? गोयमा ! देसूणं अद्धं फुसति ॥ गौतम ! देशोनम् अर्धं स्पृशति । गौतम ! वह धर्मास्तिकाय के कुछ कम आधे भाग का स्पर्श करता है। १४६. इमाणं भंते ! रयणप्पभापुढवी धम्म- इयं भदन्त ! रलप्रभापृथिवी धर्मास्तिकायस्य १४६. भन्ते ! यह रत्नप्रभा पृथ्वी क्या धर्मास्तिकाय त्यिकायस्स किं संखेजइभागं फुसति? किं संख्येयतमं भागं स्पृशति ? असंख्येयतमं के संख्यात वें भाग का स्पर्श करती है ? असंअसंखेजइभागं फुसति ? संखेजे भागे भागं स्पृशति ? संख्येयान् भागान् स्पृशति ? ख्यात वें भाग का स्पर्श करती है ? संख्येय भागों फुसति ? असंखेन्जे भागे फुसति ? सव्वं असंख्येयान् भागान् स्पृशति ? सर्वं स्पृशति? का स्पर्श करती हैं ? असंख्येय भागों का स्पर्श फुसति ? करती है अथवा सम्पूर्ण का स्पर्श करती है ? गोयमा ! णो संखेजइभागं फुसति, असंखे- गौतम ! नो संख्येयतमं भागं स्पशति, असंख्ये- गौतम ! वह संख्यातवें भाग का स्पर्श नहीं करती, जइभागं फुसति, णो संखेजे भागे फुसति, यतमं भागं स्पृशति, नो संख्येयान् भागान् असंख्यातवें भाग का स्पर्श करती है, संख्येय णो असंखेजे भागे फुसति, णो सवं ___ स्पृशति, नो असंख्येयान् भागान् स्पृशति, नो भागों का स्पर्श नहीं करती, असंख्येय भागों का फुसति ।। सर्वं स्पृशति। स्पर्श नहीं करती और सम्पूर्ण का स्पर्श नहीं करती। १५०. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए अस्याः भदन्त ! रलप्रभायाः पृथिव्याः घनो- १५०. भन्ते ! इस रलप्रभा पृथ्वी का घनोदधि क्या Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.२: उ.१०ः सू.१४६-१५३ २६८ भगवई घणोदही धम्मत्थिकायस्स किं संखेजइभागं दधिः धर्मास्तिकायस्य किं संख्येयतमं भागं फुसति ? असंखेजइभागं फुसति ? संखेजे स्पृशति? असंख्येयतमं भागं स्पृशति? संख्ये- भागे फुसति ? असंखेजे भागे फुसति? यान् भागान् स्पृशति ? असंख्येयान् भागान् सव्वं फुसति ? स्पृशति ? सर्व स्पृशति ? धर्मास्तिकाय के संख्यातवें भाग का स्पर्श करता है? असंख्यातवें भाग का स्पर्श करता है ? संख्येय भागों का स्पर्श करता है ? असंख्येय भागों का स्पर्श करता है अथवा सम्पूर्ण का स्पर्श करता जहा स्यणप्पभा तहा घणोदहिघणवाय-तणुवाया वि॥ जैसे रत्नप्रभा पृथ्वी स्पर्श करती है, वैसे ही घनोदधि, घनवात और तनुवात भी स्पर्श करते तनुवाताः अपि। १५१. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए अस्याः भदन्त ! रलप्रभायाः पृथिव्याः १५१. भन्ते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी का अवकाशान्तर ओवासंतरे धम्मत्थिकायस्स कि संखेजइ- अवकाशाम्तरं धर्मास्तिकायस्य किं संख्येयतमं क्या धर्मास्तिकाय के संख्येय भाग का स्पर्श करता भागं फुसति ? असंखेजइभागं फुसति ? भागं स्पृशति ? असंख्येयतमं भागं स्पृशति? है ? असंख्यातवें भाग का स्पर्श करता है ? संखेजे भागे फुसति ? असंखेजे भागे संख्येयान् भागान स्पृशति ? असंख्येयान् संख्येय भागों का स्पर्श करता है ? असंख्येय फुसति ? सबं फुसति ? भागान् स्पृशति ? सर्वं स्पृशति ? भागों का स्पर्श करता है ? अथवा सम्पूर्ण का स्पर्श करता है? गोयमा ! संखेजइभागं फुसति, नो असंखे- गौतम ! संख्येयतमं भागं स्पृशति, नो गौतम ! वह संख्यातवें भाग का स्पर्श करता है, जइभागं फुसति, नो संखेजे भागे फुसति, असंख्येयतमं भागं स्पृशति, नो संख्येयान् । असंख्यातवें भाग का स्पर्श नहीं करता, संख्येय नो असंखेजे भागे फुसति, नो सव्वं भागान् स्पृशति, नो असंख्येयान् भागान् भागों का स्पर्श नहीं करता, असंख्येय भागों का फुसति। स्पृशति, नो सर्वं स्पृशति। स्पर्श नहीं करता और सम्पूर्ण का स्पर्श नहीं करता। ओवासंतराइं सव्वाइं॥ अवकाशान्तराणि सर्वाणि। इसी प्रकार सभी अवकाशान्तर वक्तव्य हैं। १५२. जहा रयणप्पभाए पुढवीए वत्तव्बया भणिया एवं जाव अहेसत्तमाए। एवं सोहम्मे कप्पे जाव ईसीपब्भारा पुढवी -एते सव्वे वि अंसेखेजइभागं फुसंति। सेसा पडिसेहियवा। यथा रत्नप्रभायाः पृथिव्याः वक्तव्यता भणिता १५२. जैसे रलप्रभा पृथ्वी की वक्तव्यता कही गई एवं यावद् अधःसप्तम्याः। है वैसे ही यावत् अधःसप्तमी (सातवीं पृथ्वी) की वक्तव्यता ज्ञातव्य है। एवं सौधर्मः कल्पः यावद् ईषत्प्राग्भारापृथिवी इसी प्रकार सौधर्मकल्प यावत् ईषत्-प्राग्भारा -एते सर्वेऽपि असंख्येयतमं भागं स्पृश- पृथ्वी-ये सभी धर्मास्तिकाय के असंख्यात वें न्ति। शेषाः प्रतिषेद्धव्या। भाग का स्पर्श करते हैं। शेष विकल्पों का प्रतिषेध कर देना चाहिए। १५३. एवं अधम्मत्यिकाए, एवं लोयाकासे वि। एवम् अधर्मास्तिकायः एवं लोकाकाशोऽपि। १५३. इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय का और इसी प्रकार लोकाकाश का स्पर्श करते हैं। संग्रहणी गाथा संगहणी गाहा पुढवोदही घण-तणू, कप्पा गेवेजणुत्तरा सिद्धी। संखेजइभागं अंतरेसु सेसा असंखेज्जा ॥१॥ संग्रहणी गाथा पृथिव्युदधी घन-तनू कल्पाः ग्रैवेयानुत्तरी सिद्धिः। संख्येयतमं भागम् अन्तरेषु शेषाः असंख्येयतमान्॥ पृथ्वी, घनोदधि, घनवात, तनुवात, बारह कल्प, नौ ग्रैवेयक, पांच अनुत्तर विमान और सिद्धशिला -इन में पृथ्वी, बारह कल्प, नौ ग्रैवेयक और पांच अनुत्तर विमान के अवकाशान्तर धर्मास्तिकाय आदि के संख्यात वें भाग का स्पर्श करते हैं और शेष सब (पृथ्वी से सिद्धशिला तक) उनके असंख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २६६ श.२: उ.१०. सू.१४६-१५३ भाष्य १. सूत्र १४६-१५३ जैन विश्वविद्या के अनुसार लोक का प्रमाण चौदह रज्जु' है। है। तिर्यग्लोक लोक के प्रायः मध्य में है, इसलिए उसे मध्यलोक वह तीन भागों में विभक्त है-१. अधोलोक २. तिर्यक्लोक भी कहा जाता है। उसका व्याप्तिक्षेत्र १५०० योजन है, इसलिए ३.ऊर्ध्वलोक। धर्मास्तिकाय लोक की सीमा करनेवाला तत्त्व है। उसे वह धर्मास्तिकाय के असंख्यातवें भाग का स्पर्श करता है। रलप्रभा आधार मानकर लोक के तीन विभागों की स्पर्शना पर विचार किया पृथ्वी आदि सब की ऊंचाई (व्याप्तिक्षेत्र) संख्यात योजनों में होने से, गया है। अधोलोक का व्याप्तिक्षेत्र (ऊंचाई की अपेक्षा से) सात रज्जु वे धर्मास्तिकाय के असंख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं। केवल से कुछ अधिक है, इसलिए वह धर्मास्तिकाय के कुछ अधिक अर्धभाग अवकाशान्तर का व्याप्ति-क्षेत्र (ऊंचाई) सर्वत्र असंख्यात योजन प्रमाण का स्पर्श करता है। ऊर्ध्वलोक का व्याप्तिक्षेत्र सात रज्जु से कुछ कम होने के कारण वह धर्मास्तिकाय के संख्यातवें भाग का स्पर्श करता है, इसलिए वह धर्मास्तिकाय के कुछ कम अर्धभाग का स्पर्श करता है। १. 'रज्जु' की मीमांसा के लिए देखें, विश्व-प्रहेलिका, पृ.११३-१२३ । PROMNAMAmar Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - परिशिष्ट له له مه १. नामानुक्रम (व्यक्ति और स्थान) भाष्यविषयानुक्रम । पारिभाषिक शब्दानुक्रम । आधारभूत ग्रन्थ-सूची । ५. जिनदास महत्तस्कृत चूर्णि-दो शतक । ६. अभयदेवसूरिकृत वृत्ति-दो शतक । - Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट - १ नामानुक्रमः व्यक्ति और स्थान ४५ २०८ १२, १३, २०७, २३६ गुजरात गुणरलसूरि गुणशिलक गोयमा गोशालक गौतम ६१ अकलंक २३, २८,७८, ६३,१३५, २२८, २३६,२५३ अर्नेस्ट पोपेल १५६ अभयकुमार २६६ अभयदेवसूरि ६-६, १३, २२, २३, ३२, ३६, ५७, ६३, ७४,७८, ८८,१३५,१४१,१४५, १४७, १६५, १८३,१८५,१६१,२१६, २३३, २६६,२६६, २७२ अमृतचन्द १३८ अरस्तु २० अरिष्टनेमि २१५ आइंस्टीन ११,१६७ १५२ आनन्द ८६ आनन्दरक्षित २७३ आसुरी २०८ इन्द्रभूति १४,१५,१७,१८,१६६, २७४ इम्मेन्युअल काण्ट ११ उमास्वाति ८१, ८२, ८८,६१, ६२, १००, १८७ ऋषभ ६,१०,२१५ एंथानी डिकेस्पर १५६ एनेक्जीमेण्डर १३३ एनेक्जीमेनस १३३ कपिल २०० कयंजला २०७,२१२, २१६,२१७,२३७ कलकत्ता ४५ कार्तिकेय २३६ काननद्वीप कालास १७६-१८३ कालिकपुत्र २७३ ६८, ८१,२६० ६-१८,२१,२३-२६, २६-३२, ३४, ३६-४०, ४२, ४३, ४६-५६,५६,६२,६४-६७,७०७३, ७५-७७,७६, १०, १२-१,६४-१०३, १०५.१०८, ११-११८, १२१-१२६, १३६१४०,१४२-१४४, १४६,१४-१५२,१५४१५७,१५६,१६०,१६२-१७४, १७६-१७६, १८४-१९७, १८६,१६२, १६३, १६७-२००, २०२-२०५, २०७,२१८-२२०, २१५, २५०२५२, २५५, २५७, २५६-२६३, २७४-२८०, २८२, २८३, २८६-२६१,२६३, २६४, २६६२६६ १३३ आत्रे ग्रीक चंपा चरक चिल्लणा छत्रपलाशक जमालि (ली) जयाचार्य ६६,१५१ १२ २०७, २१२, २१६, २१७,२३७ २३, २३ १०-१२,३३, ३५, ३६, ४२,५६, ६२, ८१,८७, ८६,६१,६२,६६, १४७,२१४, २२८, २२६, २३३, २४६, २६२, २६५, २६६, २७१ ६,१८, ६२, १७४, १७५, १८२ ६२ जिनभद्रगणी (क्षमाश्रमण) जिनसेन जिनेन्द्र वर्णी ज्ञातपुत्र टामस, लुईस तामलुक ताम्रलिप्ति तुंगिका २६१ काशी २१५ २८० काश्यप २७३ ४५ ४५ कूणिक १६८,२६३, २६४,२६८-२७०, २७४-२७६ केशी २६५ २१५ २१५ २६६ २०७,२१८ कौशल गजसुकुमाल गर्दभाल २१५ थावच्चापुत्र थेलिज देकार्ते १३३ १३६ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामानुक्रमः व्यक्ति और स्थान देवर्धिगणी धर्मसी धारिणी नार्थ करोलिना पंचशिख पकुध कात्यायन पतञ्जलि पार्श्व पिंगल पुण्यविजयजी पुष्पदन्त पुष्पवतिक प्रवाहण जैवलि प्लेटो बंगाल ब बाशम ए. एल. बुद्ध, गौतम बेचरदासजी ब्रह्म ब्रह्मऋषि ब्राह्मी भद्रबाहु भरत ८ ६. १० ६, २५२ २६६ १५२ ४५ ८६ ४५ भृगुकच्छ मंखलिपुत्रगोशालक ६६ मंखलीगोशालक ૬ मंडितपुत्र ५६ मधुरा मलयगिरि भरद्वाज भरौंच भिक्षु मल्ल मल्लवादी मल्लिषेण सूरि महावीर मागध मेहिल यशोविजयजी ६०, २०८, २३६ ८१, ६६ २६६ १५६ २०६ 9€9 १३५, १६५, २०८ ६१, ६३, १८२, १६८, २१०, २१५, २४८, २७३ २०६, २११, २१२, २१६, २२२ ६ ६, १० २६३, २६८, २७४ १३४ २० ४५ ४५ ६६ २०६ १५३ २०८ ४५ ६, १२, २२,३६,५७,६३,७४,८८, १४१, १५८, २१६, २४६ २१५ ६२ ३०४ २१० ६, ११-१४, १७-१६, २१, २७, ४०, ४६, ६५,६६,७७, ८१, ८६, ६०, ६१-६३,६८, ६६, १०१, १०३, १२६, १३०, १३४-१३६, १५१, १७६, १७७, १७६, १८२, १८७, १६७-१६६, २०१, २०७, २०६, २१४-२२७, २३०-२३४, २३७, २३६, २४३-२४५, २४७ २५०, २६०, २६३, २६६, २७३-२७६, २८०, २६१, २६२ २११, २१२, २१६, २२२ २७३ ७६, ६२ राजगृह रैक्क रोह लाइबनिस लायमन लिच्छवी लुईस टामस वजी वज्रस्वामी वाचस्पति मिश्र वार्षगण्य विनयविजय विलियम फिफर विशाल वीरसेन वैशालिक वैशाली शंकराचार्य शय्यंभवसूरि शान्त्याचार्य शिकागो शिवशर्माचार्य शीलांकाचार्य श्यामार्य श्रावस्ती श्रीकृष्ण श्रेणिक समयसुन्दर सिकन्दर सिद्धसेन सिद्धसेनगणी सिद्धसेन दिवाकर सिद्धसेनसूरि सुकुमालिका सुधर्मा सुन्दरी सेलक स्कन्दक स्थूलभद्र स्पिनोजा हरिभद्र हरिभद्रसूरि हेमचन्द्र हेराक्लाइट्स भगवई ५, ६, ११, १३, ४७, १६८, १६६, २०७, २४४, २६३, २७४-२७६, २७६ १३३ १२६-१३४ १४० १८५ २१५ २८० २१५ で २०८ २०८ २३६ १५६ २१० ८,६२ २१५ २१०, २१५ २३६ ८,६ २७१ २६७ ६३ २६६ ६ २०७, २१०, २१२, २१३, २१७२१६, २२२ २०८, २३६ १२ ६२ १६६ ११,२१,७६, ७८, ६२, १३६ ८२, २५३ ६०, ६२, ६३ १५२ ६८ ११, ६५, २३६ € २१५ २०७-२०६, २११, २१२, २१६-२२७, २३२, २३३, २३५, २३७-२३६, २४३, २४७-२५१ २५२, २५३ १४० ६३ ६, १३ ७, २४६ १३३ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय अंकुश अंतिमशरीरी अक्रियावाद अक्षय अज्झत्थिय अज्ञान अज्ञान के भंग अदृष्ट अधिक भंग अनभिगम अनलंकृतविभूषित अनिर्यूट अनिहरिम अथवा अनिर्धारि अनुदीर्ण अनुदीर्ण उदीरणाभव्य कर्म अनुपधारित अनुपरिवर्तन और व्यतिव्रजन अनेक बार अथवा अनन्त बार अन्तकर अन्तक्रिया अन्तःशल्यमरण अन्तेवासी अन्ययूथिक मत से महावीर के मत की मित्रता अपरा अपौरुषेय अप्प अप्पभारे अप्रतिकर्म अथवा अपरिकर्म अबोधि अभिगमन....पर्युपासन अभिगमों अभिनिविष्ट अभिसमन्वागत अरहंतादिशब्दों का विशेष अर्थ अर्थ अर्थ, हेतु, प्रश्न, कारण और व्याकरण अर्ध अर्धपर्यंकासन अलमस्तु अलोकाकाश परिशिष्ट - २ भाष्यविषयानुक्रम पृष्ठ २१८ १०४ १६१ २२३ २१७ १८३ ११५ १८३ १२० १८३ २२१ १८३ २३० ८६ ८६ १८३ १७१ २५५ १०४ ६६,१६१ २२६ १४ २६० १५३ १३८ २७६ २३३ २३० १८३ २१४ २७२ १५८ १५८ ७ २१४ २१७ १४६ २४२ १०४ २६६ विषय अवकाशान्तर अवगाहना अवधारणी भाषा अवभासित.... प्रभासित करता है अवस्थित अविरति अव्यय अव्यवछिन्न अव्याकृत अशून्यकाल असंज्ञी असंज्ञी आयु असंयत का वानमंतरदेव-रूप में जन्म असंवृत-संवृत अस्तित्व- नास्तित्व अस्थिचर्मावनद्ध अस्थि-मज्जा-प्रेमानुरागरक्त आकर आकाश-प्रतिष्ठित आकाशास्तिकाय आकीर्ण आकुलीकरण और परीतीकरण आक्षेप आगल को ऊँचा और दरवाजे को खुला रखने वाले आचार गोचर आचार भाण्ड आच्छादित आजीविक आणाए आतंक आतापन-भूमि में आतापना लेता है आत्म-भाव-वक्तव्यता आत्मकर्तृत्ववाद आदिष्ट आधाकर्म आधुनिक विज्ञान के संदर्भ में गर्भस्थ शिशु का विकास, क्षमता व व्यवहार आन, अपान तथा उच्छ्वास और निःश्वास करते हैं आनन्दित आनुगामिकता पृष्ठ १२३,१३५ ११२ २८१ १२३ २२३ ३४ २२३ १८३ १८३ ६५ ६८ ७० ४३ ४० ७७ २४४ २६६ ४४ १३७ २६५ ४६ १७१ २११ २६६ २३३ २५० ४६ ६६ २३५ २३३ २४१ २७४ २७ ६५ १८५ १५६ २४ २२२ २१४ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यविषयानुक्रम ३०६ भगवई विषय पृष्ठ विषय पृष्ठ २३३ कर्बट २५१ ७१ २६५ २४६ १०७ ४५ १५२ १४५ KARMWWW २६ १०४ २१६ १७६ २१६ २७५ २११ आया (आत्मा) आयु-क्षय, भव-क्षय और स्थिति-क्षय आयुष्य का अल्पबहुत्व आयोग और प्रयोग आरम्भ, अनारम्भ आलोचना और प्रतिक्रमण कर आवास आश्रम आहार के प्रकार आहार के सन्दर्भ में सबेणं देसं और सबेणं सब आहार-पुद्गल-वर्गणा आधोवधिक इभ्य इह-पर-भविक आयुष्य ईर्या ईस्वर उग्र तपस्वी......घोरब्रह्मचर्यवासी उधार-प्रस्रवण उच्चावच उच्छ्वास और निःश्वास उकुष्ट उत्तरवैक्रिय उत्तरासग उत्थान उत्पत्ति-निष्पत्तिवाद उत्पन्न ज्ञान-दर्शन के धारक उत्पत्रज्ञानदर्शनधर उत्पातपर्वत उदक-गर्भ उदय उदयानन्तर-पश्चात्कृत कर्म २१५ २०६ १५३ १८३ १६१ २२१ १५३ २१६ ११४ १६ २७२ १७७ कर्म की विभिन्न अवस्थाएं कर्मकृत कर्म के साथ काल का नियम कर्म ग्रहण की प्रक्रिया कर्म परिवर्तन का सिद्धांत कर्म-पुद्गल-वर्गणा कर्म-प्रतिष्ठित जीव कर्म-संगृहीत जीव कर्मवाद कर्म, वर्ण, लेश्या कर्म-वेदन कलकल कलुषसमापन कल्प कल्पान्तर कल्पोपपत्तिका कल्याण कवल-आहार कसौटी पर खचित स्वर्ण-रेखा तथा पद्म-केशर की भांति पीताभ गौरवर्ण वाले कांक्षाप्रदोष कांक्षामोहनीय कांक्षामोहनीय कर्म के वेदन के प्रकार कांक्षामोहनीय का बन्ध आदि कांक्षित काचनिका कात्यायन कान्दर्पिक, किल्विषिक और आभियोगिक काययोग में भंग काल-समय काष्ठशय्या किटिकिटिकाभूत कुंडिका कुत्रिकापणभूत कृत कृतयोग्य केवल केवल इनका नानात्व ज्ञातव्य है केसरिका कौटुम्बिक कौतुक क्रिया क्रियावाद क्षत्रिय ७४ ८६ १६१ १०४ ८० २११ २१७ २०६ २८३ २६० ११६ उदीरणा ७५,८६ ८६,१५८ १६६ २७६ १४४ १४४ १८३,२३३ १८३ १८३ २८४ २४६ २८० १८३ २४४ २१७ २६६ ७४,१५८ २४७ १०३ ११७ २१७ उदीर्ण उद्दाति उद्देश उद्वर्तमान और उदृत्त उपपद्यमान और उपपत्र उपसर्ग उपस्थित उपहित उल्लोच-भूमि उषाकाल में पौ फटने पर उष्णजलकुण्ड उस काल और उस समय एकपादिक एत्यं, इहं ऐपिथिकी, साम्परायिकी ओराल औषध-भैषज्य काइ करण करोटिका २१६ २७१ १२८ २४२ ५६ २१५ २१४ १६३ २२१ २६७ ४५ २१८ १२६ खेट गणेत्तिया गमनीय गर्ग गुणरल-संवत्सर-तपःकर्म २३४ २१७ १५१ २४० Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३०७ भाष्यविषयानुक्रम विषय पृष्ठ विषय पृष्ठ १७१ १३५ १५७ २१८ २१५ तनुवात, घनवात, घनोदधि तन्मना तप के १४ विशेषण तर्क तलवर तल्लेश्य तापस तिर्यञ्च तुंगिकानगरी-श्रमणोपासक तुम्हारा (ते) तैजस व कार्मण के सत्ताईस भंग ६. १८३ २४१ १७ २६७ ६६ त्तिक? MANOOGm GANA २३४ त्रिदण्ड त्र्यणुकवाद fo २७६ ७४ २१७ १२,२१४ २०६ १७१ १२३ २०६ २१३ १४६ दर्शनभ्रष्ट स्वतीर्थिक-जैन मुनि वेषधारी दर्शानान्तर दायित्वपूर्ण दीक्षान्त भाषण दीर्धीकरण और हस्वीकरण दृष्टिगोचर देव के विशेषण-महर्चिक आदि देवत्व प्राप्त करने योग्य असंयमी देवसंनिपात देसं उवरमइ, देसं पञ्चक्खाइ देसेणं, देसं, सब्वेणं, सवं दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट वाली....अंजलि को द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः, भावतः द्रष्टा के चित्त को प्रसन्न करने वाला....रमणीय द्रोणमुख ६७ १६१ गुरुत्व और लघुत्व गृध्रस्पृष्ट गोयमाइ गौतम के मन में एक श्रद्धा एक शंसय और एक कुतुहल जन्मा...प्रबलतम बना गौतमसगोत्र ग्राम ग्रामकण्टक चतुर्थ चतुर्दशपूर्वी, चार ज्ञान से समन्वित चतुर्दशी, अष्टमी....अनुपालन करने वाले चरक और परिव्राजक चरण चरित्रान्तर चलमान-चलित आदि नव पद चलित, अचलित (कर्म प्रक्रिया) चित, उपचित चिन्तित चैत्य छन्द छहों अंगो का वेत्ता जनसम्मर्द...जनसन्निपात जन्म और आयुष्यवाद जिन जिनस्थानों में जिसका जो नानात्व है वह ज्ञातव्य है जीवंजीव जीव-अजीववाद जीव और पुद्गल का सम्बन्ध जीव का लक्षण जीव-प्रतिष्ठित अजीव जीव-संगृहीत अजीव जीवास्तिकाय और जीव जीवों का भव-परिवर्तन ज्ञाता, ज्ञान देने वाले ज्ञान आदि का भवान्तर संक्रमण (पुनर्जन्म) ज्ञानान्तर ज्यौतिषायण ढके हुए णवरं-णेरइया णवरं-मणुस्सा गावकखइ तचित्त तत्तीव्राध्यवसान तत्त्वों के चार वर्गीकरण तथा तथारूप तदध्यवसित तदर्थोपयुक्त तदर्पितकरण तद्भवमरण तद्भावनाभावित १४४ ११६ १२१ २४४ १३४ २४६ २०१ २६० २६४ १३७ धन्य २२१ २४४ २३१ M २१८ १६ २२३ ६ १८ धमनिसंतत धर्मकथा धर्मजागरिका घाउरत्ताओ ध्यानकोष्ठक में लीन होकर ध्रुव न अति दूर और न अति निकट, ऊर्ध्वजानु ___अधःसिर (उकडू आसन की मुद्रा में) नगर नन्दित नमस्कार महामन्त्र नमस्कार महामन्त्र का मूल-स्रोत और कर्ता नयान्तर नाम-गौत्र निःश्रेयस निगम २२२ Wrm २१४ १८५ १५७ १५७ २६१ २३३ १५७,२१४ १५७ १५७ १५७ २२६ १५७ २१४ ४४ २०६ निघण्टु नित्य निधत्त निमित्त नियत Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यविषयानुक्रम ३०८ भगवई विषय पृष्ठ विषय पृष्ठ २१७ नियमान्तर निरावरण प्रभा १५८ निरुक्त २८४ २०६ २०६ २३३ ७५ २३० प्रशास्ता प्रस्थापित प्रहाण प्राणातिपात....मिथ्यादर्शनशल्य प्रायश्चित्त प्रायोपगमन प्रायोपगमन अनशन की अवस्था में २०६ १२६ २७१ २३० २६६ प्रार्थित ७० २१७ २६४ ११८ १०६ २२२ १८३ प्रासादावतंसक प्रासुक-एषणीय प्रीतिमन प्रेत्यभव फलकशय्या बंभण्णय बद्ध बन्ध करता है ११२ १८७ २०६ निरोध निर्ग्रन्थ-प्रवचन निर्जरण निर्झरिम या निहारि निश्छिद्र प्रश्नव्याकरण नैरयिक असंज्ञी आयु नैरयिक और पृथ्वीकायिक जीवों में अन्तर नैरयिक जीवों में आयुस्थिति व कषाय संज्ञा नैरयिकों का आहार एवं जीवन नैरियिकों के भंग पंडित पंडितमरण पत्तन पमाइयव्वं परमाधोवधिक पराक्रम परिचारणा-वेद परिनिर्वाणहेतुक परीषह पर्यंकासन पर्याप्ति और पर्याप्त पर्युपासना के लाभ पवित्रक पांच महाव्रतों की आरोपणा करूं २२८ । १५८ ७१ बल १०४ बलिकर्म बहुसम २५८ बाल २५० १६१ १८३,२३३ २४२ १५६ बाल, पंडित और बालपंडित का आयुष्य बालमरण के प्रकार बाल्य बिना विराम १८३ २४१ २१६ २७८ बोल १०४ २४६ पारग २०६ १२० १०० २३० २१५ १०७ १६७ २४६ २३३ ब्रह्मचर्यवास ब्राह्मी लिपि को नमस्कार भंग-शून्य भंते वह ऐसा ही है, भंते वह ऐसा ही है भक्तप्रत्याख्यान भङ्गान्तर भट भण्डमत्तोवगरण भवधारणीय भवसिद्धिक-सिद्धि-और सिद्धवाद भव्य भव्यद्रव्यदेव भाण्ड माण्डकरण्डक भारयुक्त और भारहीन पदार्थ भिक्षु-प्रतिमा भेदसमापन्न भोज ११४ १३५ १६६ १८३ २३३ २२० पीत आभावाले पुद्गल और जीव की त्रैकालिकता पुरुषकार पुरुषार्थवाद (आत्मकर्तृत्व) पृथ्वीयों में पृथ्वीशिलापट्ट पैत्तिक प्रकृति-उदीरणा की योग्यता प्रज्ञा प्रतिक्रमण प्रतिदिनभोजी प्रतिलोम भंग वक्तव्य हैं प्रतीप्सित प्रत्यय प्रफुल्लित उत्पल और अर्धविकसित कमल वाले प्रमत्त-अप्रमत्त का विभाग वक्तव्य नहीं है प्रमत्त संयत और अप्रमत्त संयत प्रमाणान्तर प्रमोक्ष प्रयोग से प्रवचनमाता प्रवचनान्तर और प्रवचनी-अतर २३३ १७४ ~ २३३ २३८ २११ २४६ २१५ २७१ ३५ मंगल मंगल-पद ४५ २११ ७८ १०४ २४६ मडम्ब मतान्तर मध्यरात्रि में मन को धारण करता हुआ...संवर करता हुआ मनोगत मरण-मीमांसा मल्ल २१७ प्रवर २७२ प्रव्राजित, मुण्डापित, शैक्षापित, शिक्षापित ३ ३ २३० २१५ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई विषय महाव्रतों की आरोपणा का उल्लेख मांगल्य माइम्बिक मात्रिक- पैत्रिक अंग मात्रा मानुषी के गर्भ की स्थिति मायी मिथ्यादृष्टि और अमायी सम्यग्दृष्टि मार्गान्तर माहन मिश्र मिश्रकाल मृग मृतादी निर्ग्रन्थ मेघघनसंनिकास मैथुन के द्वारा होने वाला असंयम मोक्षवाद यथासूत्र... यथासाम्य यात्रा यावत् युगप्रमाण भूमि को देखने वाली दृष्टि योग्य योध योनि - बीज योनि में नौ लाख जीव राख के ढेर से ढकी हुई ... तपस्तेज की श्री से राजगृह नाम का नगर था राजधानी राजन्य राजा रोग रोह के प्रश्न, महावीर के उत्तर लक्षण, व्यञ्जन और गुणों से युक्त लघिमाऋद्धिसम्पन्न लब्धापलब्धी लब्धार्थ लाघव लिङ्गान्तर लिच्छवी लेश्या लोक लोक- अलोकवाद लोक का निरूपण वर्णगन्ध आदि पर्यवों से लोक का प्रमाण लोक पंचास्तिकाय है लोकद्रव्य वज्रऋषभनाराच संहनन बण्णवज्झ वर्णनवाची आलापक वलयमरण वशार्त्तमरण वह निकट आ गया है.... निकट मार्ग पर है वातिक ३०६ पृष्ठ २४८ २२१ २१५ १५४ २३४ २६१ ६१ ६१ २१५ ११७ ६५ १६६ २०६ २४६ २६३ १०३ २३८ २३४ ३५ २७५ २७६ २१६ २६१ २६२ २४४ ११ ४५ २१५ २१५ २३३ १३३ २२१ १७ १८३ २६६ १७६ ६१ २१५ ६१ २३४ १३४ २२३ २६८ २६७ २६२ १५ १५८ 99 २२६ २२६ २१६ २३३ विषय वायुकाय की काय स्थिति वायुकायिक जीव वायुकाय का आन, अपान, उच्छ्वास निःश्वास करते हैं वायुकायिक जीवों का सशरीर निष्क्रमण या अशरीर निष्क्रमण विग्रहगति विग्रहिक विचिकित्सित विधान-मार्गणा विनय विपुल तेजोलेश्या को अन्तर्लीन रखने वाला विशिष्ट दायित्वपूर्ण विसप्पमाण वीरासन बीरियवज्झाई वीर्य वीर्यलब्धि के प्रकार ( उपस्थापन - अपक्रमण ) वीर्यलब्धिक वृत्ति वृषिका वेदन वेदनावाद वैक्रियलब्धिक वैक्रियसमुद्घात वैनयिक वैशालिक श्रावक वैहानश व्यतिकीर्ण व्यवच्छेद व्याकरण व्याघात और निर्व्याघात शंका.... कलुष शंकित शरीर-निरपेक्ष शाश्वत शाश्वत अशाश्वत शिक्षा शिव शील शुद्ध प्रवेश्य शून्यकाल शृंगाटक.... पथ शृंगार श्रमण-माहण श्री श्रुत को नमस्कार श्रेष्ठी श्लैष्मिक भाष्यविषयानुक्रम श्वासोच्छ्वास षष्टितन्त्र संकल्प संख्यान संज्ञा पृष्ठ २०२ २०२ २०३ १४७ २८४ २११ २०१ २३३ १७ २७६ २२२ २४२ १६७ ८२ ६६ १५६ २३४ २१७ ७५ ५७ १५७ १५७ २३३ २१० २२६ ४६ २०६ २०६ २०१ ७५ २११ १७ २२३ १८७ २०६ २२१ २६७ २७२ ६६ २१३ २२१ १५७ २२१ १० २१६ २३३ २०१ २०६ २१७ २०६ τς Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यविषयानुक्रम ३१० भगवई विषय पृष्ठ विषय पृष्ठ २४६ १६२ २७५ १५१ WOW NP सामायिक, प्रत्याख्यान, संयम, संवर, विवेग और व्युत्सर्ग सामुदानिक सायुष्क संक्रमण या निरायुष्क सारक सार्थवाह सिंहनाद सित सिद्ध....सब दुःखों का अन्त करता है सुक्कलेस्साणं सुख २१६ P १३८ १ संवेग २१४ २४६ २०२ २०६ संपल्यंकासन संयतासंयत संयम संयम और तप से अपने आप को भावित करते हुए संयम की आराधना करने वाले संयम की विराधना करने वाले संलेखना की आराधना में लीन २४७ संवर संवर-निर्जरा की चर्चा १५७ संसार संस्थान ६५,२०६ संस्थान-काल संहनन सण्ह, लण्ड सत्व सत्य के प्रति स्वयं निश्चल (असहेज) २६५ सदा-समित सनिवेश समपादिका २४२ समचतुरस्त्र संस्थान समाहारगा समिति, गुप्ति आदि मुनिचर्या का उपदेश समुद्घात २५२ सम्यक् श्रद्धा सम्यग्दृष्टि में तीन ज्ञान का नियम है, मिथ्यादृष्टि में तीन अज्ञान की भजना है सम्यग्मिथ्यादृष्टि में भंग सर्वाक्षरसन्निपाती लब्धि से युक्त सवीर्य, अवीर्य १६८ सबंति, सब्बाबंति सशरीर या अशरीर १५१ साठ भक्त २४६ सात हाथ की ऊंचाई वाले समचतुरस्र संस्थान से संस्थित बज्रऋषभनाराच संहनन-युक्त सानिपातिक २३३ सामान्य जीव सामायिक आदि ग्यारह अंग MUCO COM २६८ १५ सूक्ष्म, स्थूल सूर्य का उदय और अस्त १२२ सेनापति २१६ सोपक्रम आयु, निरुपक्रम आयु सोमणस्सिए २२२ स्कन्दक-कथा २०८ स्कन्दक के द्वारा निर्ग्रन्थ-प्रवचन के प्रति आस्था की अभिव्यक्ति २३२ स्थविर १८३ स्थविर की विशेषता स्थान ११२,२४१ स्थान-मार्गणा स्थिति-उदीरणा की योग्यता स्थिति-स्थान १०७ नेह २६३ नेहकाय स्पर्श १२३ स्पर्शना १२६ स्पृष्ट ४६,१५८ स्फोटवाद १६१ स्वभाव से २०१ २३५ ७६ १४१ ११५ ११५ ७८ १२३ हस्तिशुण्डिकासन हिंसात्सक प्रवृति पर विभज्यवाद हित हुण्ड संस्थान हृष्टतुष्ट होत्या २१४ ११४ २२२ २१६ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंग ( आगम) ६, १८, २३६,२४६ अकर्म ८३,८४,८५ अकर्मभूमिज २२६ अकाम निर्जरा ४३, ४४, ६८, १६१, २७४ अक्रियमाण कृत १८६ अक्रिया २७८ अक्रियावाद १६१ अक्रोध १७६, १७७ अक्षर ६ अगन्ध २८७,२८८, २८६ अग १८१ अगुरुलघु १२६,१७२, १७४,२६६ अगुरुलघु पर्यव २२३, २२४, २२५ अगृद्धि १७६, १७७ अग्नि १३३,२०१,२५५ अग्निकुमार १०६ अघात्य कर्म २२ अचक्षुदर्शन ६०,२६३ अचरम ४० अचरमशरीरी ४० अचित्त २०६,२८० अचेतन १४०, १६७, २२३,२६३ अचेलत्व १७६, १७७, अज्ञान ८१, ११५, ११८, १२१, १७४, १७५, १८१ अज्ञेयवाद ४८ अच्युत कल्प देव ६७, ६८, १०६,१४८ अच्युत व्यवमान १४६ अजीव १३०,१३४,१३६, १३८, २८५, २६१, २६२, २६३,२६४,२६६ अढाई द्वीप २८६ अणिमा १७ अणु २८, १२४ अणु-बादर १२६ अणुव्रत ६६ अतिथि १८५ अतीतकाल ६४,१००, १३२, १७४, १७५, २२०, २८७, २८८,२८६ अतीन्द्रिय ज्ञान १४,१७,७६ अत्यन्ताभाव ७८ अथर्वणवेद २०७ अदत्तादान ३३, १२८, १७०, २७२ अदत्तादान-क्रिया १२६ परिशिष्ट - ३ पारिभाषिक शब्दानुक्रम अदृष्ट १८१ अदृष्टजन्मवेदनीय १६५ अद्धा समय २६१ अद्वैतवाद १३३ अधर्मास्तिकाय १३४,१७३, १७५, १६७, २८५, २८६,२६०, २६१,२६२, २६३,२६६, २६८ अधस्तन १०६ अधिकरण १२६, २६४, २६५ अधोलोक १०५, १२६, १४०, १४१, २६५ अध्यवसान १५५, १५६, १५७ अध्यवसाय ३४, ५७, ५८, १५५, १५६, १५७ -काल ६६ -स्थान ३६ - साधना २६५ अनगार १४,३६,४०, ४१ अनधिगम ७६ अनन्त १७२,२०८, २१२,२१६, २२२, २२३, २२६,२२७,२५५, २८८,२८६ - अनन्त काल ६६ गुना ६५,६६ अनन्तरावगाढ १२८ -परम्परावगाढ १२६ अनभिगम १८१ अनलंकृतविभूषित २२१ अनवकांक्षण-वृत्ति १६६ अनवगाढ १२३ अनशन १७, ६६, २४७, २४८ -भूमि २४७ अनाकार उपयोग ११६, १७४, १७५ अनागतकाल १००, १०३, १३२, १७४, १७५ अनादि ६२,६५,१७२ -अनन्त ४० का सिद्धान्त १३५ पारिणामिक ७८, २२४ सिद्ध २१० सिद्धि १३५ अनानुपूर्वी १३१,१३२,१३३ -कृत १२८ अनारम्भक ३,३१,३२,३४ अनास्रव २७२, २७६, २७८ अनाहारक २६ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दानुक्रम ३१२ भगवई अनित्यंस्थ २०६ अनित्य १८७ अनिदान २३६ अनिदावेदना ५८ अनिन्द्रिय ३८,१५१,२६२,२६४ अनिबद्ध मंगल ६ अनियत विपाक ६६ अनियूट १८१ अनिारि २२७,२३० अनुज्ञा ७५ अनुत्तरोपपातिक देव ५७,१०६,२६८ अनुत्थान ८३,८४,८५ अनुदीर्ण ४८,८२,८३,८४,८६ किन्तु उदीरणायोग्य ८२,८३ -उदीरणा भव्य कर्म १६ अनुपधारित ११ अनुपरिवर्तन १७१ अनुभव १३६ अनुभाग २६,४०,६३,७४,८६,६४ -उदीरणा ८६ -कर्म ६७,६८ -बन्ध देखें अनुभाग अनुभाव ३६ अनुमान ६३,२०८ अनेकान्तवाद ६५,६६,१३४,१४०,२३० अनेवंभूत वेदना ६६ अन्तःशल्यमरण २२६,२२८,२२६ अन्तकर १०१,१०४,१७७ अन्तकृत २०५ अन्तक्रिया १,६६,१६१ अन्तर १२६ अन्तराय ६४,१६६ अन्तरालगति १४७,२०३ अन्तिमशरीरी १०२,१०३,१०४,१७७,२०१ अन्तेवासी १४ अन्यतीर्थिक २५८ अन्ययूथिक १७८,१८८,१८६,१६२,१६६,२५६,२७६ अपक्रमण ६५,६६,६७ अपचित १८८ अपरा (प्लेसेंटा) १५१,१५३ अपरिकर्म २२७,२३० अपरिग्रही ५६ अपरिस्पन्दात्मक वीर्य २ अपरीत १७१ अपर्यवसित २१० अपवर्तन २६,२७,३०,३१,४१ अपान-देखें आन,अपान अपार्ध-पुद्गल परिवर्त ४०,१७१ अपुरुषकारपराक्रम ८३,८४ अकायिक जीव ३५,११६,१४१,१८५,१६७,१६६,२०१ अप्रकम्प १६६ अप्रतिकर्म २३० अप्रतिवद्धता १७६,१७७ अप्रत्याख्यान ५६,६० अप्रत्याख्यानक्रिया ५१,५२,५५,१६,१८४ अप्रमत्त ३५,३६,६१ संयत ३२,३३,३४,३६,५५,५६ अप्रशस्त लेश्या ३६ अबल ८३,८४,८५ अबहिर्लेश्य २३६ अबाधाकाल ७४ अबोधि १८१ अब्रह्मचर्य २६३ अभवसिद्धिक १३० अभव्य ६७ अभाव २६० अभाषा १० अभिगम १६१,२७०,२७२ अभिग्रह ६३,२६६ अभिधर्म १७७ अभिनिविट्ठ ४१ अभिनिविष्ट १५७,१५८,१६६,१६७ अभिन्नाक्षर २५३ अभियोगी ६६ अभिरूप २६० अभिवादन २१४ अभिसमण्णागय ४१ अभिसमन्वागत १४६,१५८,१६६,१६७ अभ्याख्यान १२८,१२६,१७० अमनस्क ५७,५८,६०,६८,७०,११५,२६२ तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय-देखें असंज्ञी तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय अमान १७६ अमाया ६२,१७६ अमायी ६१,६२ सम्यग्दृष्टि ५८,६०,६१,६२ अमावस्या २६७ अमूर्छा १७६,१७७ अमूर्त ७६,१६७,२०६,२६३ अयथार्थवादी १७७ अरहंताणं ७ अरति-रति १७२,१७० अरस २८७,२८८,२८६ अरिहंताणं ७ अरुणवर द्वीप २८३ अरुणोदय समुद्र २८३ अरुहंताणं ७ अरूपी २८७,२६४ अर्थ पर्याय २२४ अर्थावग्रह ६० अर्धनाराच ११३ अर्धपर्यंकासन २४२ अर्धभार २२१ अर्धमागधी ८,१० अर्धमास २४३ अर्हत् ५,११,४१,७५,६६,१०२,१०३,२२० -प्रवचन ११ अलंकृत-विभूषित २२१ अलमस्तु १०४ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३१३ पारिभाषिक शब्दानुक्रम अलोक १२८,१३०,१३१,१३२,१३५,१६७,२८८,२६३,२६६ अलोभ १७६ अल्पचेल १७६ अल्पतर पुद्गल ५४ अल्पप्रदेश-परिमाण ३६ अल्पबहुत्व ७१,१२६ अल्पशरीरी ५०,५४,५७ अल्पेच्छा १७६,१७७ अल्पोपधिक १७६ अवकाशान्तर १२२,१२३,१३१,१३२,१३५,१७२,१७५२६८,२६६ अवगाढ ७३,१२३ -अनवगाढ १२६ अवगाहन २२४,२२५ -गुण २८६ अवगाहना १०६,११२,११५,११६,१२६,२१०,२६३ -स्थान १११ -काल ११२ अवग्रह ८८ अवतारवाद २१० अवधारणा ८१ अवधारणी २८१ अवधि-ज्ञान १३,१७,१०,१०३,१०४,२६३ __-दर्शन ६०,२६३ अवर्ण २८७,२८८,२८६ अवसर्पिणी ११,२०२ अवस्थान-काल ६४,६५ अवस्थित २२४,२८७ अवाय १८,६० अविग्रहगति १४५,१४७ अविज्ञात १८१ अविरत ३३,४२,४३,१६१ तथा देखें असंयत अविरति ३२,३३,३४,५६,१८३ तथा देखें असंयत अविसंवादन ६२ अवीर्य ८३,८४,८५,१६६,१६७,१६८ अवेदनीय २७ अव्यय २२४ अव्यवच्छिन्न १८१ अव्याकृत १८१,२०६ अव्यापन १५४ अव्युत्कालिक च्यवमान १४६ अव्युत्सर्ग २७२ अव्रत-देखें अविरति अव्रती जीव-देखें अविरति अशरीर ३७,३८,२०३ अशुभ ३४,२०५ योग ३२,३३,३४,५६ अशून्य-काल ६४,६५,६६ अशैलेशीप्रतिपन्न १६७,१६८ अश्रवण १८१ अश्रुत १८१ अष्टम भक्त २६६ अष्टस्पर्शी २८ असंख्यातगुना ५६,७१ असंख्यातवां भाग २६६,२६६ असंख्येय १०६,११२,२२७,२६३,२६६,२६७ प्रदेश ११२,२२४,२२५,२६१,२६८ असंख्येयभाग ५६ असंज्ञिभूत ५०,५३,५७,५८,६१ असंज्ञी ६६,६८,१२१,२६३ -आयु ६७,७०,७१ तिर्यंचपंचेन्द्रिय ६६ असंयत ३२,३३,३५,३६,४२,४३,४४,५४,५५,६६,६७,१६१,१८७ तथा देखें अविरति असंयत भव्य द्रव्य ६७ असंयती देखें असंयत असंयम २३०,२६३ तथा देखें अविरत असंयमी तथा देखें असंयत असंवृत ३६,४०,४१ असंवृत बक्कुस ४० असंसारसमापन्न ३२,१६७ असंहनन-अवस्था ११४ असत १३३,१३४ असत्य ६२ असातवेदनीय कर्म २६,३६,४१,५७,७४,१८४,१८७ असिद्ध १३१ असिद्धी १३५ असुर २६४,२६६ असुरकुमार देव ५६,५८,६१,७२,१०५,१०७,११७ अस्तिकाय २१,१०१,१३१,१६७,१६६,२८५,२६०,२६१,२६३,२६५ अस्तित्व ७७,७८,७६,८३,८४,१०१,१३३,१४०,२०८,२०६,२२४,२६० अस्थितकल्पी २ अस्थिबंध १५; देखें संहनन अस्थिरचना ११३; देखें संहनन अस्पर्श २८७,२८८,२८६ अस्पृष्ट १२३,१२५,१२६,१२७,२०३ अहंमानिता २७७ अहिंसक ३३,१६५ अहेतुगम्य ७६ अहेतुवाद ७६ आकर ४२,४४ आकाश-देखें आकाशास्तिकाय्य -खण्ड २६३ -प्रदेश ७३,१२६ आकाशास्तिकाय १३४,१७३,१७५,१६७,२८५,२८८,२६०,२६१,२६२, २६३,२६४,२६६ आकूलीकरण १७१ आकृति १५ आकृति-विज्ञान १४ आक्षेप २११ आक्सीजन २४ आगम ६,८,१५,६६,६०,६१,६२,२०८,२१३,२६५,२६१ का व्याख्या-साहित्य ६६ प्रमाण ६३ युग का दर्शन १६७ -संकलन-काल ६३,२०८ -साहित्य-दे खें आगम आगमों का संकलन २०८ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दानुक्रम आगमोत्तरयुग का दर्शन १६७ आचारशास्त्रीय १६८ आचार्य ५,१४,६६ आजीवक ६६, ६७, ६८, ६६,८६,१६३, २१०, २६० आजीविक देखें आजीवक आटो-लेब २८० आतापन-भूमी २४१ आतापना २३६,२४०,२४१ आत्म-कर्तृत्ववाद ८०, १२६, २६५ -परिणाम ६३ - प्रदेश ६८, १४५, २५२,२५३, २५४ -भाव २६३,२६४ -भाव- वञ्चन ६२ आत्मा १७,१६,३७,३८, ४२, ६०, ८२, १८३,२०६,२१०,२५८, २७४, २६३ आत्मा सशरीर ३७ आत्माल २२१ आत्मारम्भक ३१,३२,३४ आत्यन्तिक २२८ आधाकर्म १८४, १८५ आधिकरणिकी १६२,१६३, १६४ आधुनिक विज्ञान २५३ आधोवधिक अवधि १०२, १०४ आध्यात्मिक दृष्टि १४०,१८७ आन-देखें आन, अपान आन, अपान २४, १६६,२००,२०४ आनत १०६ आनापान २४ आनुगामिकता ६३,२१३,२१४,२३२, २७०, २७१ आनुपूर्वी १२८ - नानुपूर्वी १२६ -कृत १२८ आनुवंशिकी १४, १५ आभामण्डल ५७, ६३ आभियोगिक ६६,६७, ६८ आभिनिबोधिकज्ञान ६०,११६,१२० आभ्युपगमिकी ६८,६६, २६३ आम्रकुब्जक १५७,२३८ आयु देखें आयुष्य -क्षय २५१ -बन्ध देखें आयुष्य-बंध - विज्ञान १५४ -र्वेद १५१,१५२, १५३, १५४, १५६ आयुष्य २६, ४२, ४८, ६०, ६१, ६४, १४८, १४९, १५६, १६०, १६१, १७८, १७६,२०३,२२६, २२७, २५२,२७३,२७४ कर्म ३६,४१,२०५, २५३,२७३ -बन्ध ४४, ४८, ७०, १५१, १७६,२५१ -वाद ६० आरंभिकी ५१ आरण देवलोक १०६ आरम्भ ३१,३२,५६ आरम्भवाद १६१ आरम्भिकी ३४, ५२, ५४, ५५, ५६, ६०, ६२ आर्जवप्रधान २६६ ३१४ आर्त- रौद्र-ध्यान २२६ आलोचना २४६, २५०, २५१ आवर्त २० आविचिमरण २२८ आश्रम ४२, ४४, ४५ आश्रव ३३,५६,८१,१०३, २६४,२६५, २६१ -द्वार ३२ आसक्ति २६६, २७३, २७६, २७७ आस्रव देखें आश्रव आहरण १४२-१४४ आहार २८,२६,३१,४६, ५६, ५७, ६०, ६१, १४४,१५२, १६७,२५५ -पर्याप्ति १४४,१५६ -स्थिति २४ आहारक २८, ३८, १२०,१५२ शरीर १२०, १४६, १७५, २५३ आहार - पुद्गल-वर्गणा २८ आहारक लब्धि २५३ वर्गणा ६३ समुद्धात २५२, २५३ आहियमाण आहृत १४८, १४६ इतिहास २०७ इत्यस्थ २०४, २०६ इन्द्रिय ३८,६२,८८, १४०, १५१, १५५, १८३, १६६, २०१,२२७, २५६,२६६ -जयी १६ -ज्ञान १५१ -पर्याप्ति १४४ -वशार्त २२६ - संस्थान ३८ इभ्य २१३,२१६ इलिका गति १४५ इलैक्ट्रोनिक माईक्रोस्कोप २८० इहभविक ३७,३८, १७६ इक्ष्वाकु २१४ ईर्ष्या २३६, २७५, २७६ ईशान १०६ ईश्वर ४८, १३५, २०६, २१०,२१५ - कर्तृत्ववाद २७, ४८,७७, ७८, १३५ ईषत्प्राग्भारा १३७, २०६,२६८ ईहा ८८, ६० उकडू आसन १८,१६,२३८,२४१ उग्र २१४,२१५ तपस्वी १६ उच्च-नीच २७५, २७६ उच्चार-प्रस्रवण १५३,२३६ उच्छ्वास, निःश्वास २४,४६,५४,५६,५७, ६०, ६१, १५०, १५३,१८२,१६७, १६६,२००, २०१,२०२,२०४ उत्कटिका १६ उत्क्षिप्त शरीर १७ उत्तर- वैक्रिय ११४ उत्तरासंग २७२ उत्तानशयन १५७,२३८ उत्थान ८१, ८१, ८२, ८३, ८४, ८५, ८६, १६८, २४५,२६३ भगवई Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई उत्पत्ति-निष्पत्तिवाद १६१ उत्पत्तिस्रोत ८२ उत्पन्नज्ञानदर्शनधर ४१,१०१, १०३, १०४, २३६ उत्पात पर्वत २८२, २८३, २८४ उत्पाद २१, २२, २३, ७७, १००, १०१,१८७ उत्सर्पिणी २०२ उदकगर्भ २६० उदग्र २४३ उदधिकुमार १०६ उदधिप्रतिष्ठित १३७ उदय ३०, ३१, ८१, ८२, ८३, ८६, १६६, २६६, २७४ के अनन्तर पश्चात्कृत कर्म ८२, ८३, ८६ उदात्त २४३ उदीरणा २२, २३, २६, २७, २६, ३०, ३१, ४१,७३,७५,८२, ८३, ८६, ८७,६६ -भव्य ८६ -योग्य ८३, ८४,८५,८६ उदीरित २५, २६ उदीर्ण ४१, ४८,६१,८२, ८३, ८४, ८५, ८६, १५८, १६६, १६७ उद्देशक ३१ उद्देशना - अन्तेवासी १५ उद्वर्तन २६,२७,४१,१४२, १४३ उन्मान २२१ उपकरण १६७ उपकारक शक्ति १५१ उपचय २५, २६,२६,३६,७४, १५१, १५४ उपचित ७३,७४,७५,१८१, १८३, १८८ उपद्रवण ३२ उपधारित १८१ उपनिषद में सृष्टिवाद १३३ उपपद्यमान १४२, १४४ उपपत्र १४२, १४४, २५५ उपपात ६०, ६७,१६३ उपयोग १०६,१३२,२०१, २६३, २६४ गुणवाला २८६ उपयोगलक्षण देखें उपयोग उपवास १६, १७, २६७ उपशमन ८३, ८४,८६,८७ उपशान्त १६६ उपशामना २७,४१,८५ उपस्थान ६४,६५ उपस्थापना - अन्तेवासी १४,१५ उपस्थित १८१, १८३ उपहित १८१, १८३ उपादेय २६५ उपाध्याय ५,६६ उभयारम्भक ३१,३२,३४ उल्लोच भूमि २८३ उष्णयोनिक जीव २७६, २८० ऊंचालोक १४१ ऊर्ध्वजानु अधः शिरा १८, १६ ऊर्ध्वलोक १०५, १२६, १४०, २६३, २६५ ऋग्वेद २०७ ३१५ ऋजुगति १४७ ऋजुता ६२ ऋजुसूत्रनय २२,२३,६२ ऋद्धि १७,१४८, २५६ एकत्व विक्रिया २५२ एकदण्डी २०८ एकभविक कर्माशय ६६ एकान्तपण्डित १५६, १६१ एकान्तबाल ६६,१५६, १६१ एकार्थक २३ एकेन्द्रिय ८७,११३, १४५, १६६,२००, २०१, २६२,२६४ एवंभूत ६२ वेदना ६६ एषणा २३६ एषणीय १८६ ऐर्यापथिकी १६२,१६३ ओघ १८५ ओज १५२, १५३ आहार २८, १५२ ओजस् १५२ ओजस्वी २६८ ओराल २६, २२१,२४३ ओहिणाणजिणे १३ औघ - औदेशिक १८५ औधिक १८,३६,६० औदारिक २८, ३८, ६३, ११३, ११८, १५१, १७५, २०३, २२४,२५६ औदारिकमिश्र २५४ औदारिकवर्गणा ६३ औदारिकशरीर देखें औदारिक औदेशिक १८५ औपक्रमिकी ६८,६६ वेदना ६८ औपग्रहिक १८ औपपातिक २१३ औपम्य ६३ कड ४१ कन्दर्पी भावना ६८ कन्दुक गति १४५ कन्नड ७ कपाटाकार २५४ करण ४१, ८२, १५५, १५६,२३४ करणप्रधान २६८ करणवीर्य १६८, १६६ पारिभाषिक शब्दानुक्रम कर्बट ४२ कर्म २३, २६, २७, ३०, ३६, ४०, ४१, ४२, ४८, ५३, ५७, ६०, ६१,७४,७५, ८०, ८१, ८२, ८३, ८४, ८५, ८६, ८७, ८६, ६२, १३६, १३७, १३८, १५१, १५८, १६६, १६७, १६८, १६६, १७३, १७५, १८५, २४५, २६२, २७३, २७४, २७६, २७७,२६३ -उदय ६८ - उदीरणा ८६ -काण्ड २०८ -क्षय ६६ -ग्रंथ ७३,७४,११६ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दानुक्रम ३१६ भगवई -दलिक ७४ -निर्जरण ४४ -निषेक ७४ -पुद्गल २६,३०,३१,६३,७३,७४,८६,६८,२५३ -पुद्गल-वर्गणा २६,२८ प्रकृति ५,४१,७३,६४ -प्रतिष्ठित १३७,१३८ प्रदेश ३१,७५,६८ -बन्ध ४०,४८,५७,५६,६०,८१,१५७,१६३,२७४ -मुक्त ४० -रूप १६१ -लेश्या १३१ -विपाक ६६,१६५ -वाद २७,४८,७३,६८ वेदन ४८,७५,६८ -शरीर २८,३८ -शास्त्र-देखें कर्मम्रन्थ -सत्ता २७७ -सिद्धान्त २६५ कर्माशय १६५ कर्मिता २७३ कलकल २१६ कलह १३८,१७० कलुष ८६ -समापत्र ७५,२११,२१२ कल्प २०७,२०६ -स्थिति ६१ कल्पान्तर ८८,६१ कल्पोपपत्तिका १६१ कल्याण २२१,२४३ कवल आहार १५०,१५१,१५२,१५३ कषाय ३४,५६,६३,१८३,१६३,२५२ का उदय या विलय ६३ की अल्पता १६१ कुशील निग्रंथ ३५ -चतुष्क १ -वशाते २२६ -समुद्घात २५२ कांक्षा ७४,७५,८६,६१,६२,६३,१७७,२११,२१२,२६४ का जन्म ६१ -प्रदोष ५,१७७ मोहनीय कर्म ७२,७३,७४,७५,७६,८०,८१,८७,८८, ८६,९०,६१,६३ कान्दर्पिक ६६,६७,६८ कापिल ६६ कापोत लेश्या ३४,३५,६०,६१,६२,११४,११६,११७,११८,१२० काय ४०,२०२ -क्लेश १७ -गुप्त २३५ -परीत १७१ -भवस्थ २६१ योग १६,११६,१६५,१७४ -समित २३५ -स्थिति ६५,२०२ कायिक परिष्पन्द १६५ कायिकी क्रिया १६२,१६३,१६४,१६५ कायोत्सर्ग ८,२३८,२५० __-मुद्रा २३६,२४०,२४१ कारण २१७ कार्बन-डाइऑक्साइड २४ कार्मण शरीर २८,२६,११२,११३,११६,११८,१२०,१४७,१५२,१७२, १७४,१७५,२०३,२२४ योग २५४ वर्गणा ६३ काल ११,२६,३०,६०,६६,१०२,१२५,१२६,१२६,१३२,१६७,२००, २०१,२०१,२०२,२०७,२०६,२१०,२२०,२६३,२७४,२८७,२८८, २८६,२६१ -मर्यादा ४८,२५१ कालतः २२३,२२४,२२५,२२६ काव्यानुशासन ११ किंपुरुष २६४,२६६ किन्नर २६४,२६६ किल्विषिक ६६,६७,६८ किल्विषी भावना ६८,६६ कीलिका १६,११३ कुटिव्रत ६६ कुण्डलिनी २४१ कुत्रिकापण २६८,२६६ कुब्ज १५ कुलसम्पन्न २६८ कुलस्थविर १८३ कृत ७३,७५,१५७,१५८,१६६,१६७ कृतयोगी २४७ कृतयोग्य स्थविर २४५,२४७,२४८ कृतिकर्म २० कृष्णपक्ष १७१ कृष्ण-परिव्राजक ६६ कृष्ण लेश्या ३४,३५,३६,६०,६१,६२,११६,११७,११८,१७४ केवल०,१०३ -ज्ञान १७,२२,६३,६०,११,१२०,२६३ -ज्ञानी १३,१०४ -णाणजिणे १३ दर्शन ६०,२६३ ब्रह्मचर्यवास १०१ संयत जीव ३६ संयम १०१ केवली १२,१८,४१,१०२,१०३,२१०,२२०,२५३ __-समुद्घात २५२,२५३,२५४,२६२ कोश ३८ कोशिका-दीवारें २८० कौटुम्बिक २१६ कौतुक २७१ कौरव २१४ क्रमविकासवाद १३३ क्रमोपयोगवाद ६२ क्रियमाण १६४ कृत १२६ क्रिया १९६,१९० Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई क्रिया ५६,६०,६१,६२, १२८, १२६, १६१, १६२, १६३, १६४१७६, १८६, ११६०,१६०,२०८, २६४,२६५ -वाद ५६ -वादी १६१ कोण १२६ क्रोध ६२,८१,१२८, १७०, १७७, १८१,१८३ संज्ञा १०६ क्रोमोसोम १५ क्लम १५४,२३६ क्लेश १०३, १६५ क्षत्रिय ६६, २०८, २१३,२१५ क्षपण ६८ क्षम २३२,२७० क्षमायाचना २५० क्षय (क्षयिक) २२,८१,१६६ क्षयोपशम १७, ३८,४८,८१,१६६ क्षेत्र ११,६६, १२५, १२६, १६७, २०१, २२३, २२४, २२५,२२६, २८७, २८६ खामणा २४७ खेचर ६६ खेट ४२ गंधर्व २६४,२६६ गणधर १४ -वाद ६५ गणस्थविर १८३ गणित -विद्या ६ गणित्रस् २१८ गणेत्तिया २१८ गणेत्ती २१८ गति ४२,४३,२६३ - परिणाम १७५ -सहायक २६३ गन्ध १५८, २२३,२८६, २६० गमन २७५ गरिमा १७ गरुड २६४,२६६ गर्भ १४६ अवक्रान्ति- प्रकरण १५२ का देवलोक गमन १५५ का नरक -गमन १५५ की मुद्रा १५७. -विज्ञान १५०, १५२, १५३, १५५, १५६, १५७, १५८ - शरीर १४६ ग ८२, ८३, ८५,८७,१८१ गाढ बन्धन ३६, ४०, १८५, १८६ गिरिपतन २२६,२२८ गुण २६७, २८७, २८८, २६६, २६२ गुणप्रधान २६८ गुणरत्न संवत्सर तपः कर्म २३६,२४०,२४३ गुणसूत्र (देखें क्रोमोसोम) १५,१५४ गुणस्थान ५६,६२ गुप्ति २३५ गुरु १७४ गुरुत्व १७१ ३१७ गुरुलघु १७२, १७४, २२३ गृद्धस्पृष्ट मरण २२६, २२७, २२८ गृहस्थ १६१ गेरुक ६८ गोत्र ६४,२०६ गोदोहिका १६,२३८ गोशालक के शिष्य ६८ ग्राम ४२, ४४ - स्थविर १८३ ग्रीक दर्शन में सृष्टिवाद १३३ ग्रैवेयक ६७,२६८ -त्रिक १०६ घनवात १३१, १३३, १३५, १३६, १७२, १७५, २६६ घनोदधि १३१, १३५,१३६, १७२, १७५, २६६, २६८ घोरतपस्वी १६, १७ घ्राणेन्द्रिय- प्रत्यक्ष ६० चक्रवर्ती १२ चक्षुदर्शन ६०,२६३ चक्षुरिन्द्रिय-प्रत्यक्ष ६० चतुःस्थानपतित ५६ चतुःस्पर्शी २८ चतुरिन्द्रिय ८७,११६, १६७, १६६, २०१, २६२,२६४ चतुर्गति-गमन २०६ चतुर्गत्यात्मक संसारकान्तार २२६ चतुर्थभक्त २३६,२४१,२४३ चतुर्दशपूर्वी १३,१४,१७,१८, ६०, २५३ चतुर्याम ६१ चतुर्विंशस्तव चतुष्क २१३ चत्वर २१३ चमर २८३ चमरचञ्चा १६६ चय २५,२६,२६,७३, ७४,१५१ चरक ६६ चरक परिव्राजक ६६, ६७ चरण २३४ चरणप्रधान २६८ चरमशरीरी ४०, ४१ चरित्रान्तर ८८,६१ चलन २३ चलमान अचलित १८८ चलमान चलित २२, २३, १८६ चार द्वार वाले स्थान २१२,२६६ चार वेद २०७ चारित्र ३७,३८, ६७, ६८, ६१, १८३, २४८, २४६ -पर्यव २२४ मोह १७,२७,६६ पारिभाषिक शब्दानुक्रम चिण १३ चित ७३,७४,७५, १५५, १५६, १५७ चीनी बौद्ध सम्प्रदाय २०८ चेइय १२ चेतन १७,६०,१३४, १४०, २२३, २६२ चेतना ६० चैतन्य केन्द्र १६ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दानुक्रम ३१८ भगवई चैतन्याद्वैतवाद १३४ चैत्य १२,२०७,२१४,२३७,२६३,२७६ चौबीस दण्डक ६० चौराहा २१२,२६६ चौहटा २१२,२६६ च्यवन २५१ छद्मस्थ १०२,१०३,१०४ छन्द २०७,२०६ छह द्रव्य २६१ छानस्थिक समुद्घात २१२ छेदन २३ छेदोपस्थापनीय चारित्र १५,६१,२४८,२४६ जटाधारी ६८ जडचैतन्याद्वैतवाद १३४ जडाद्वैतवाद १३४ जन-उकलिका २१२,२१४ -ऊर्मि २१२,२१४ -कलकल २१२,२१३ -पद २१० -बोल २१२,२१३ -व्यूह २१२,२१३ -सत्रिपात २१२,२१४ -समूह २१२ -सम्म २१३ जन्म ६० काल ६० -मरण ६२ जन्मान्तर-सादृश्यवाद ६५ जम्बूद्वीप १२३,२८३ जलप्रवेश मरण २२६,२२८ जाति २८,२०१ -सम्पन्न २६८ -स्थविर १८३ -स्मरणज्ञान ६६ जिण १३ जिणे १४ जिन १३,१४,४१,७५,७६,१०२,२२०,२४५ कल्पस्थिति ६१ -कल्पी मुनि २१७ जीन १५ जीव २४-२६,३०-३५,४०,४१,४४,४८,५१,५२,५६६४-६६,७५, ६२,१५,११३,१३०,१३४,१३६-१४०,१४४-१४६,१६७-१७२, १८६,१६०,१६७,१६६-२०५,२०८,२०६,२११,२१२,२२३, २२४,२३४,२५२,२५५,२५६,२५८,२६१,२६३,२७३, २६०-२६४,२६५ -अजीव २६४ -अणु २८० -अवस्था २०६ -अस्तिकाय १३४,१७३,१७५,२८५,२८६,२८७,२८६,२६०, २६१,२६२,२६३,२६५ -व २०१ -द्रव्य २००,२६१ -प्रदेश २६,३०,३१ -भाव २६३ -मुक्त १३७ जेनेटिक साइंस १४ जैन दर्शन ४८,७७,८६,१६१,१६७,२१०,२६२ दर्शन में सृष्टि १३३ महाराष्ट्री मुनि ६६,६८,२३५ मुनिवेषधारी ६७,६६ विज्ञान २५५ साधना-पद्धति २१७ जैव-रसायन १५ ज्ञात २१४ ज्ञान ३६,३७,३८,६२,६६,१०६,११५,११८,१२०,१३१,१७४,१७५, १८१,१८३,२७८ -कोश ३८ -दर्शन २ पारभविक ३८ -पर्यव २२५ -मोह ८६ ज्ञानान्तर ८८,६० ज्ञानावरणीय कर्म ३८,७४८६,६४ ज्ञानी ६८,२१६ ज्ञानेन्द्रिय १३६ ज्ञेय ७६ ज्योतिष शास्त्र २६७ ज्योतिष्क देव ३५,५६,५८,६७,१०६,१२१,१६८,२८१,२८६ ज्यौतिषायण २०६ ज्वलनप्रवेश (मरण) २२६,२२८ तत्तीव्राध्यवसान १५७ तच्चित्त १५७ तत्त्व १३३ -ज्ञान २०८,२६४ -विद्या १६७ तथारूप १५७ तदध्यवसित १५७ तदर्थोपयुक्त १५७ तदर्पितकरण १५७ तदुभयभविक ३८ तद्भवमरण २२६,२२८,२२६ तद्भावनाभावित १५७ तनुवात १३१,१३२,१३३,१३५,१३६,१७२,१७५,२६६ तन्मना १५७ तप१४,१६,१७,१६,३७,३८,६१,६६,१२१,१३०,१६६,१७६,१६७, १६३,२०७,२१२,२६३,२७२,२७३,२७७,२७८ तपःकर्म २३६,२४०,२४३,२४४,२६४,२७४ तपस्वी २१६ तप्ततपस्वी १६,१७ तमःप्रभा १०५,२५५ तमस्तमा १०५,२५५ तमिल ७ तरुपतन (मरण) २२६,२२८ तलवर २१५ तल्लेश्य १५७ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई तापस ६६,६७,६८ श्रमण ६८ तिरछा लोक- देखें तिर्यग्लोक तिराहा २१२,२६६ तिर्यग्योनिक ५७,६१,६४, ६५, ७०, ६७, ६८, १२०, १४८ -आयु ७० गर्भ २६० -संसार- अवस्थान-काल ६४ तिर्यग्लोक १४१, २८३,२६५ तिर्यञ्च ४२, ४३,६६, ६७, ७०, १५१, १६०, १७१, २०४,२२६, २२७ यौगलिक ७१ तीन गुप्तियां १०४ तीर्थंकर १२,६६ तीव्र अनुभाव ३६ तीव्र बन्धन ४० तेजः ३५,३६,१२१ तेजस्कायिक ३५, १८५, १६७, १६६ तेजस्वी २६८ तेजोलब्धि २५३ तेजोलेश्या १४,१७,३४,६०,६१,६२,११७,११८, २५२, २७४ तैजस २८, २६, ६३, ११२, ११३, ११८, १२०, १४७, १५२, १७२, १७५, २०३ तैजस शक्ति २४१ तैजस समुद्धा २५२, २५३ त्रस १३६, १३७, १८५ -नाडी २०१ त्रायस्त्रिंश देव ८६ त्रिक २१३ त्रिदण्ड २१७ त्रिदण्डी ६८,२०८ त्रिप्रदेशी स्कन्ध १६१ त्रीन्द्रिय ८७,११६, १६७, १६६, २०१, २६२, २६४ त्रैकालिक २०६ त्र्यणुक १६१ वाद १६१ दण्डक ३५, ४८, ५६, ६०, ७२, ७३, १२८, १४६ दण्डाकार २५४ दण्डायत २३८ दर्शन ३७,१३१,१७४, १७५, १८३ पर्यव २२४,२२५ भ्रष्ट स्वतीर्थिक ६६,६७,६६ मोहनीय २७,६६,७४, ६७ दर्शनान्तर ८८६० दर्शनावरण ६४ दर्शनीय २६० दशमभक्त २४३ दहन २३ दार्शनिक ४८, ६५, २६५, २६५ दिगम्बर- साहित्य ६२ दिव्य शक्तियाँ २६५ दिशा १२२, १२३, १२४, १२५, १२६, १२७, २००,२०१ कुमार १०६ दीक्षा २४८ ३१६ दीप्ततपस्वी १६ दीर्घीकरण १७१,१७२ दुःख १६१ दुरधिगम ७६ दुष्प्रवृत्ति ३२ दृष्ट १८१ दृष्टि १०६, ११८, १३१, १७४, १७५, १७७ देव ४२, ६१, ६४, ६५, ६७, ६८, १४८, १४९, १५६, १६०, १६८, १७१, १६६, २२६, २२७, २५८, २६४, २६६, २७३, २७७, २८२ - असंज्ञी आयु ७०, ७१ -आयु ७०, ७१ - गति ४५,६७,७० -त्व ६७ -लोक ४३,६७,६८,२५१, २५६, २७३ -संसार अवस्थान-काल ६४ देश ११,५६,१७५, २६३ -कथा ८१ -तः आहार १५३ -बन्ध १६ -विरत ५६, ६८, ६६, २२८ देशात्मक २६३ देशी भाषा १२६ द्वैतवादी २६१ दोष १७० द्यूत ८१ द्रव्य ११,२१,२२,६३,७८, ६६, १००, १३२, १७४, १७५, १८७, १६७, २०१,२०६, २२३, २२६, २८७, २८८, २८६,२६१, २६३, २६४ -तः २२३, २२४,२२५,२२६ -त्व २२३ अवमोदरिका १७७ पारिभाषिक शब्दानुक्रम क्रिया ६७ मंगल ५ लिपि १० लेश्या ५७,१०६, ११४, ११६, ११८, १२०, १२१, १५५, १५६, १५७,१७४, १७५ वेद २५६ शल्य २२६ श्रुत १० सम्यक्त्व ७६ द्रव्यार्थिक ६२, १८२, १८३ द्रव्येन्द्रिय १५१ द्रष्टा २६० द्रोण २२१ द्रोणमुख ४२, ४४, ४५ द्रोणी प्रमाण २२१ द्वादशभक्त २४३ द्वादशांगधर १८, १८३ द्वादशांगी २०,२८,६१ द्विप्रदेशी स्कन्ध १६०, १६१ द्वीन्द्रिय ८७,११६, १६७, १६६, २०१, २६२,२६४ द्वीप १३१,१७५ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दानुक्रम ३२० भगवई द्वीपकुमार १०६ द्वीपसमुद्र २८३ द्वेष ८१,१२८,१६५ द्वैक्रियवाद १७६ द्वैतवाद १३४ द्वैतवादी दर्शन १३४,२६१ द्व्यणुक १६१ धन्य २२१,२४३ धर्म ८१,१५६,२६७,२७३,२६१ -कथा २३१ -जागरिका २४६ -ध्यान २४६ धन्तिवासी १५ धर्मास्तिकाय ५६,१३४,१७३,१७५,१६७,२८५,२८८,२८६,२६०,२६२,२६३, २६५,२६६,२६६ धारक २०६ धारणा ८८,६० धूमप्रभा १०५,२५५ ध्यानकोष्ठ १६,१३० ध्यानमुद्रा १६ ध्रौव्य २१,२२,१००,१०१,१८७ नगर ४२,४५ -स्थविर १८३ नपुंसकवेद २५६ नमस्कार मंत्र ८६ नय २३,६२,१७४,१८३ -दृष्टि २१ नयान्तर ८८,६२ नरक ३५,४३,६१,६६,७०,१५६,१६०,१७१,१६३ नागकुमार २१४,२६४,२६५ नाडी-तंत्र ३८ नानाघोष २३ नानार्थक २३ नानाव्यञ्जन २३ नामकर्म ६३,८१,८२,६४,२२४,२६२ नाराच (संहनन) ११३ नास्तिक २०८ नास्तित्व ७७,७८,७६ निःशंकित २६६ निःश्रेयस २१४,२३२,२७० निःस्पन्द ४१ निकाचना २६,२७,३०,३१,४१,८६ निकाय २०२ निक्षेप १० निगंठ २७ निगम ४२ निग्रह २६६ निघण्टु २०७ नित्यानित्यवाद १८७ निदान २२६ निद्रा ८१ निधत्त २७,२६,३०,३१,४१,८६,१५७,१५८,१६६,१६७ निबद्ध मंगल ६,८ निमित्त १२ नियत २२४ नियत विपाक ६६ नियति १ -वाद ८१,६६ नियम ११५ नियमान्तर ८८,६३ निरायुष्क १५१ निरुक्त २०७,२०६ निरुपक्रम २०३ निरोध १८३,२७३,२७४ निर्ग्रन्थ ६८,१८५,१८६,२०४,२०५,२०६-२१२,२५८,२५६ -प्रवचन २३१,२३५,२६४ निर्जरा १६,२३,२६,२६-३१,४२,४४,५७,७५,८५-८७,६८,२६४,२६५, २७२-२७४,२६१ निर्जीण २५,२६,७२ निर्देश १२६ नियूंढ १८१ निर्विचिकित्स २६६ निर्विश्यमान १ निर्विष्ट ६१ निवृत्तित १६४ निर्वृत्त्यमान १६४ नियरि २२७,२३० निर्झरिम २३० निलय १३३ निश्चय नय २३,१८२ निषद्या १६,२३८ निषेक-रचना ७४ निष्कांक्षित २६६ निसृज्यमान १६४ निसृष्ट १६४ निहत्त ४१ निलव ६८,६६ नील लेश्या ३४-३६,६०-६२,११६-११८,१२० नैगम ७०,६२,२६६ नैयायिक २६५ नैरयिक २६,३४,४६-५१,५७,५८,६०,६४,६५,७०,७२,८७,६७,६८, १०६,१०६,११२-११४,११६,११६,१२०,१३१,१४२,१५५,१६८, १७२,२२६,२२७,२५५ -असंज्ञी-आयु ७१ -आयु ७० यावत् वैमानिक १७५ -संसार-अवस्थान-काल ६४ नैश्चयिक काल १६७ नोकर्म ८७ नोकर्म-पुद्गल १४७ नोकषायवशात २२६ नो परीत-नो अपरीत १७१ न्यग्रोध परिमंडल (संस्थान) १५ न्याय दर्शन १५१ पंकप्रभा १०५,२५५ पंचयाम ६१ पच्चीस तत्त्व २०८ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई पञ्चास्तिकाय २८६,२६१ पञ्चेन्द्रिय ५२,६०,२०१, २६३, २६२,२६४ तिर्यञ्च ३३-३५,५४, ५८, ६१, ६५, ६६, १६८, २६१ पण्डित १६१ -पर्याय १८७ -वीर्य ६४,६५,६६ मरण २२७-२३० पत्तन ४२ पद्म लेश्या ३४,३५,३६,६१,६२,१२१ पनडुब्बियाँ २८० परंपरगत २०५ परकाय २०३ परतरभव ३८ परपरिवाद १२८, १२६, १७० परभविक १७६ परभाववञ्चन ६२ परम अवधिक्षान १०३ परमकृष्ण लेश्या ११६ परमहंस ६६ परमाणु २८, ६६-१०१,१८८-१६१, २२३, २६०,२६३ -स्कन्ध २६० परमात्मा २०६ परमाधोवधिक अवधि १०२, १०४ परम्परावगाढ १२४ पराक्रम ८० ८२, ८५, १६८ परारम्भक ३१,३२,३४ परिग्रह ३३, ५६, १२८, १७०, २७२ परिचारणा २५८, २५६ परिज्ञापूर्वक २३० परिणमन २६,४६ परिणम्यमान परिणत १४८, १४६ परिणाम ४०, ४४, ४८, २०२ परिणामी कारण १४५ परिणामी - नित्यवाद २२ परिताप १६५ परिनिर्वाण ४२,२५० परिनिर्वृत ३६,४१,१०१, १०३, १७७, १८२, २०५, २५१ परिनिब्वाइ ४१ परिव्राजक ६८, ६६, १६७,२०८, २१७,२१८ परिस्पन्दात्मक वीर्य ८२ परिहारविशुद्धि ( चारित्र) ६१ परीत १७१ परीतीकरण १७१ परीषह १८२, २३३ -जयी १६ परोक्ष ज्ञान ७६,६३,१०४ पर्यकासन १५,२४२ पर्याय २२३ पर्यव १३२,१७५, २२३, २२४ पर्याप्त १४४, १५५, १५६ पर्याप्ति १४४, १५५, १५६ पर्याय ११,२२,७८,६६, १००, १४०, १७४, २२३ स्थविर १८३ पर्यायार्थिक (नय) ११,६२, १८२ ३२१ पर्युपासना २०,२१२,२१४,२१६, २२०,२७०,२७१ पर्व- तिथियाँ २६७ पल्योपम ४३ पवित्रक २१८ पश्चात्कृत ८३ पश्चाद् उपपन्न ५०, ५३, ५७ पांचप्रदेशी स्कन्ध १६१ पांच समितियां १०४ पादोपसंग्रह २१४ पानी २०१,२५५ पाप ५८,२६५,२६१ -कर्म ४२-४४,१२६ -कर्म का प्रत्याख्यान ४३ -स्थान १२६,१७२ पारगत २०५ पारभविक ३८ पारिग्रहिकी क्रिया ५१, ५२,५४,५५,५६ पारिणामिक (भाव) ४० पारितापनिकी (क्रिया) १६२,१६३,१६४, १६५ पार्श्व की परम्परा १६८ पार्श्वशयन १५७,२३८ पार्श्वपत्यीय १६८ पाश ६२ पाश्चात्य दर्शन १३६ पितृ-अंग १५४ पुण्य ५८, १५६, १६५, २६५,२६१ पारिभाषिक शब्दानुक्रम पुण्य-पाप ६२,२६४ पुत्रजीवरसहरणी १५० पुद्गल २४-२६, २६, ३१, ३५, ४०, ४६, १००, ११३, १२७,१३७-१४०, १४४, १५२,१६१,२०१,२०२, २२३, २२४, २५२,२५३, २७६,२८०, २६१, २६५ - द्रव्य १७४,२००,२६३ - परिणाम २६० -वर्गणा २५,१६१ -संघात १५२ पुद्गलास्तिकाय १३४,१७३, १७५, १६७, २८५, २८७, २८६-२६५ पुनर्जन्म ३७,५८,२१०, २७३ -वाद २७,४३ पुराण - साहित्य २०८ पुरुष २०८,२६१ -क्रिया ८२ -वेद २५८, २५६ पुरुषकार- पराक्रम ८०-८५,२४५, २६१, २६३ पुरुषमानोपेत २२१ पुरुषार्थ ६६ - वाद २७,८१,६८,६६, १६६ पुष्करार्ध २८६ पूर्णिमा २६७ पूर्व उपपन्न ५०, ५३, ५७ पूर्व (कृत) तप २७६, २७७ पूर्व (कृत) संयम २७३, २७४, २७७ पूर्वजन्म ३८, ४८ - स्मृति-देखें जातिस्मरण ज्ञान पूर्वबद्ध ४८ पृथक्त्वविक्रिया २५२,२५३ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दानुक्रम ३२२ भगवई पृथक्करण १८३ पृथ्वी १०५,१३१,१३६,१७२,१७५,१६६,२०१,२५५ कायिक (जीव) ३५,५६,५८,६०-६२,८७,८८,१०६,११८,११६, १८५,१६७,१६६,२०१ पैशुन्य १२८,१२६,१७० पौषधोपवास २६४,२६७ प्रकृति २६,३६,६३,२०८,२६१ -उदीरणा ८६ -बंध ४०,४१,६३ प्रक्षेप आहार २८,१५२ प्रगृहीत २४३ प्रज्ञापनीय ७६ प्रणय १ प्रणिधान १६५ प्रतिक्रमण ४२,४३,१८३,२४६,२५०,२५१ प्रतिपृच्छा २७० प्रतिमा २३८ प्रतिरूप २६० प्रतिलेखन ८१,२४८,२७५ प्रतिषेध ७५ प्रतिसंलीनता १६ प्रत्त २४३ प्रत्यक्ष ६३,२०८ ज्ञान १४,६२,६३ प्रत्यभिज्ञा ८८ प्रत्यय २ प्रत्याख्यान ४२,४४,५६,१६०,१६१,१९०,१२,१८३,२४८,२६४, २६७,२७८ प्रतिदिनभोजी २२१ प्रत्युत्थान २१४ प्रत्येक शरीरी २५५ प्रदक्षिणा २० प्रदेश २६,५६,७३,११२,१३२,१७४,२१०,२६०,२६३,२६४ -उदय ८६ -उदीरणा ८६ -कर्म ६७ -बन्ध ४०,६३ -स्कन्ध २६० प्रदेशात्मक २६३ प्रदेशावगाही १२७ प्रपञ्च-निरोध २०६ प्रमत्त ३५,३६,६१ और अप्रमत्त ६० संयत ३२-३४,५५,५६,६०,६८ प्रमाणान्तर ८८,६३ प्रमाणोपेत २२१ प्रमाता ७८ प्रमाद ३४,८०,८१ -योग ८० प्रमार्जन २७५ प्रमेय ७५ प्रमोक्ष २११ प्रयोग से ७७,७८ प्रवंचना ६२ प्रवचनकार ६१ प्रवचनमाता १०१,१०३,१०४ प्रवचनान्तर २८,६१ प्रवचनी-अन्तर ८५,६१ प्रवर २७२ प्रवृत्ति ३४,५६ प्रव्रज्या १५ प्रव्राजना अन्तेवासी १४,१५ प्रशस्त ३५,१७१ प्रशान्त ३६,४१,१०१-१०३,१७७,१८२,२५१ प्रशासक १८३,२१३ प्रशास्ता २१५ -स्थविर १८३ प्रश्न २१७ प्रस्थापित १५७,१५८,१६६,१६७ प्रहाण २३ प्राकृत भाषा १२६ प्राण २४,१८६,१६०,२०४,२०५,२३४ -शक्ति २४ प्राणत १०६ प्राणवियोजनात्मक १६५ प्राणातिपात ३३,१२७-१२६,१६५, १७०-१७२,२४८, २४६, २७२ -क्रिया १२८,१६२-१६६ प्राणी १३७,२५५ प्रात्यधिक ६३ प्रादोषिकी (क्रिया) १६२-१६५ प्रायश्चित्त २७१ प्रायोगिक ७८ -मरण २२८ प्रायोपगमन अनशन २२७-२२६,२४५,२४७ प्रासादीय २६० प्रासुक १८६ -भोजी २०६ प्रेय १२८,१७० बक्षस निग्रन्थ ४० बद्ध ४१,१५८,१६६,१६७ बन्ध ३०,३१,३६,४८,८०,८१,२२६,२६४,२६५,२७३,२७४,२६१ बन्धन ४१ -बद्ध १८५,१८६ बल ८०-८५,८६,२४५,२६३ बलाहक २७६ बलिकर्म २७०,२७१ बहुउदक ६६ बहुप्रदेश-परिमाण ३६ बहुश्रुत २६८ बहुसम २८३ बादर २८,१२४ बाल १६१ -तप ४३ -तपःकर्म २७४ -पण्डित ५६,१६०,१६१ -पण्डित-वीर्य ६४-६६ -पण्डितमरण २२७,२२६ -पर्याय १८७ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई पारिभाषिक शब्दानुक्रम -मनुष्य २२० -मरण २२६-२२६ -वीर्य ६४,६६ बालुकाप्रभा १०५,२५५ बाह्य आदान २७२ बुज्झइ ४१ बुद्ध २०५,२०६ बोधि ११ बोल २१६ बौद्ध ६,१६३ दर्शन १०३ भिक्षु ६८ साहित्य १४,२७,६६ ब्रह्म १०६ ब्रह्मचर्य १६,१७,४२ -गुप्ति २३६ -वास १०३,१०४,१८२,१८३ ब्रह्मलोक ६७ ब्राह्मण १८५,२०८ परिव्राजक ६६ ब्राह्मी लिपि ५,६,१० भंगान्तर ८८,६२ भक्त-कथा १ -प्रत्याख्यान २२७-२३० भगवान् महावीर की साधना-पद्धति १७७ भजना ११५ भट २१३,२१५ भव ४०,६५,२०५,२१३,२६१ -क्षय २५१ -ग्रहण २२६ -धारणीय ११४,१५५ -निरोध २०६ -परिवर्तन ६४ -स्थिति ६५ -सिद्धिक १३०,१३५ भवान्तर-संक्रमण ३६,३७ भवनपति देव ३५,८७,१०५,१०७,११७,२८१ भवनवासी ६७,६८, देखें भवनपति भवनावास १०७ भविष्य २२०,२८७-२८६ भवोपग्राही ४२ भव्य ६७ -द्रव्य-देव ६७,६८ भारतीय दण्ड-विधान १६६ भाव ११,४०,१२६,१६७,२००,२०१,२०६,२८७,२८८,२८६,२६२ अवमोदरिका १७७ -धारा ४०,४१,६३ मंगल ५ लिपि १० लेश्या ५७ वेद २५८ शल्य २२६ श्रुत १० साधना १७७ भावतः २२३,२२४,२२५ भावना ६६ भावी जन्म ३६ नैगम ७० भावेन्द्रिय १५१ भाषा २८,१६०,१६६,२८१ -पद २८१ -पर्याप्ति १५६ भिक्षुप्रतिमा २३७-२३६ भिन्नाक्षर २५३ भूत १८६,१६०,२०४,२३४ भेद ११,२६,७५,८६ -विज्ञान १४० -समापन्न ७५,२११,२१२ भेदन २३ भोज २१४,२१५ मंगल ६,८,२७१ मंत्र ६६ -शास्त्र ७ मडम्ब ४२,४४,४५ -पति २१३ मडाई २०६ मणपज्जवणाणजिणे १३ मणिपीठिका २८३ मतान्तर ८८,६२ मति १३,१२०,१२१ -ज्ञान १७,११८,११६,२६३ -भ्रंश १ मध्यलोक १०५ मन ३८,४०,६०,६८,७०,१४०,१५५-१५७,१६६,१८३,२६६ -योग ११६,१७४ -योगी ११६ -समित २३५ मनःपर्यव-ज्ञान १३,१७,३६,६०,२६३ -ज्ञानी १३,१०४ मनःपर्याप्ति १५६ मनुष्य ४२,४३,५७,५८,६१,६४,६५,६७,६७,६५ १२०,१४८,१५१,१५६,१६०,१७१,२२७,२६२ -असंज्ञी-आयु ७०,७१ -आयु ७० -लोक ४३ -संसार-अवस्थान-काल ६४ मनो-गुप्त २३५ -भक्ष्य आहार २८,२६ -वर्गणा २८,६३ -विज्ञान १४,१५,१४० मन्थनाकार २५४ मरण २३ -मीमांसा २३० मल्ल २१५ मल्लवि २१३ महर्द्धि १४७ महाआरंभ १६१ महातपस्वी १६,१७ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दानुक्रम ३२४ भगवई महाधुतिक १४८,२५६ महानुभाव १४८ महान् यशस्वी २५६ महान् सामर्थ्य वाले २५९ महान् सौख्य-युक्त २५६ महाबल १४८ महाबली २५६ महामुकुन्द २८३ महायश १४८ महाविदेह क्षेत्र २५१ महाव्रत ६३,२५१ -आरोपण १५ की आरोपणा २४५,२४६ महाशरीरी ५०,५४,५६,५७ महिमा १७ महेशाख्य १४ महोरग २६४,२६६ मांगल्य २२१,२४३ मागधी माइम्बिक २१५ मातृजीवरसहरणी १५० मातृ-अंग १५४ मात्रा २३४ मान -१,१२८,१७०,१७७,१८१,२२१ मानयुक्त २२१ मानसिक १६,१६५ मानुषी-गर्भ २६० मानोन्मान २२१ माया ६२,८१,१२८,१७०,१७७,१८१,२२६ निदान और मिथ्यात्व २२६ -प्रत्यया ३४,५१,५२,५४,५५,६२ -मृषा १२८,१२६,१७० -शल्य ६२ मायी मिथ्यादर्शनी ६२ मिथ्यादृष्टि ६०-६२ मारणान्तिक २५२ मार्ग ६१,२६६ मार्गणा १२६,२०१ मार्गान्तर १८,६१ मार्दवप्रधान २६६ मासिकी भिक्षुप्रतिमा २३७ माहण १५७,२१३ माहेन्द्र १०६ मिथ्याज्ञान १ मिथ्यात्व ३४,५६ मिथ्यात्व महिनीय ७४ मिथ्यादर्शन ११४,२२६ -प्रत्यया ५१,५२,५५,६२ -शल्य १२८,१२६,१७०,१७१,२४८,२४६ मिथ्या-दृष्टि ४४,५०,५४-५६,५८,५६,६२,६७,६८,६६,११४,११५, १६१,१७७ -रुचि ६७ मिश्रकाल ६४-६६ मुक्त ३६-४१,१०११०३,१३६,१७७,१८२,२०५,२१० मुक्ति २०८ -स्थान ४२ मुखवत्रिका २७४ मुच्चइ ४१ मुनि ५,२०६ मूर्छा ५६,८२,१७६,२६३ मूर्त-अमूर्त १६७ मूल तत्व १३३ मृतयाची २०६ मृताशी २०६ मृत्यु ४४ -काल ४२ का वरण ४२ मृषावाद ३३,१२८,१७०,२७२ -क्रिया १२६ मैथुन ३३,१२८,१७०,२५८,२६३ -वृत्तिक २६२ मोक्ष ६७,२६४,२६५,२६१ -पद १०१ मोहनीय कर्म २६,३४,८१,८२,६४,६६,६७,२५८ यक्ष २६४,२६६ यजुर्वेद २०७ यज्ञ २७५ यथाख्यात (चारित्र) 9 यथानिकरण ६६ यशस्वी २६८ याचितभोजी २०४-२०६ यात्रा २३४ युगपद् उपयोगवाद ६२ योग ३४,५६,६२,६३,८०-८२,१०६,११८,१३४,२०८,२५४ -आश्रव ३२ -दर्शन ६,१६५ -परिणाम ६३ -वर्गणा ६३ योगी ६६ योजन ४५ योद्धा २१३ योध२१५ योनि २६२ -बीज २६१ -भूत २६१ यौगलिक ५७ मनुष्य ७१ रज्जु २६६ रलप्रभा पृथ्वी ७१,१०५,१११,११२,११४,११६,२५५,२८१,२८३, २६७२६६ रस १७,१५८,२००,२२३,२६० -परिवर्तन ४१ -वान् २८६ रसनेन्द्रिय प्रत्यक्ष ६० राइबोसोम २८० राक्षस २६४,२६६ राग १ राजधानी ४२ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३२५ पारिभाषिक शब्दानुक्रम राजन्य २१३-२१५ राजमार्ग २१२,२६६ राजा २१५ राशि २० राष्ट्रस्थविर १८३ रूप १५८ रूपी २६४ रोम-आहार ५६ लक्षण-व्यञ्जन-गुणोपेत २२१ लगुडशयन २३८ लधिमा १७ लघु १७४ -त्व १७१ लज्जासम्पन्न २६८ लब्धि १६ -वीर्य १६७,१६८,१६६ लब्यक्षर ६ लवसत्तम देव ५७ लाघव १७६,२६६ -सम्पन्न २६८ लाघविक १७६ लान्तक कल्प ६७,१०६ लिंगान्तर ८८,६१ लिच्छवि २१३,२५५ -पुत्र २१३ लेश्या १७,३१,३६,५०,५१,५३,५७,६०-६३ द्रव्य–देखें द्रव्य लेश्या -त्रिक ३५ -सूत्र ५७ लोक ८,१३०,२०६,२११,२१२,२१६,२२२,२२३,२५४,२५५,२७७, २८७-२८६,२६३ -अलोकवाद १३४ -द्रव्य २६२ -विद्या १९८ -स्थिति १३६,१३७ लोकाकाश १६७,२०६,२१०,२६२,२६३,२६५,२६६ लोकान्त १२६,१३१,१३२ लोभ १,१२८,१७०,१७७,१८१ -प्रत्यया ६२ लोम आहार २८,१५२,१५३ वंदना २० वचन १६६ -गुप्त २३५ -योग १७४ -योगी ११६ -समित २३५ वजी २१५ वज्र २८३ वज्रऋषभनाराच संहनन १४,१५,११३ वृद्धावस्था ४१ वनस्पतिकायिक (जीव) ३३,३५,११६,१८५,१६७,१६६,२०१,२५५ वरवज्रविग्रहिक २८६ वर्गणा २८,३५,६३,१६१,२०२ वर्चस्वी २६८ वर्ण ५७,६०,६१,६३,१५८,२००,२२३,२६० बाह्य १५७,१५८ -वध्य १५८ -वान् २८६ वर्तमान २२०,२७३,२८७-२८६ -काल १०० वर्ष (क्षेत्र) १३१,१७५ वलयमरण २२६,२२८,२२६ वशात २२८ -मरण २२६,२२६ वाचना २३६ -अन्तेवासी १५ -भेद ६२,२६० वाचिक १६ वाणी-संयम ४० वानमंतर देव ३५,४३,५६,५८,१२१,१६८,२८१ देवलोक ४२ वामन १५ वायु २०१,२०२,२५५ -कायिक (जीव) ३५,१८५,१६७,१६६,२०१-२०३ -प्रतिष्ठित १३६ विकलेन्द्रिय ११६,१२० विग्रहगति १४५.१४७ विचय १३ विचिकित्सा ७५,८६ -रहित २६४ विचिकित्सित ७५,२११,२१२ विजत १३ विजयोदया २२६ विज्ञ २०४,२०५ विज्ञात १८१,२६७,२७८ विज्ञानवाद १३५ विदिशा १२२,१२३ विद्या ६६ विद्युत्कुमार १०६ विधान १२६ विनय २३३ विनाश ७७ विपाकोदय ८६ विपुल तेजो लेश्या २४३,२७४ विभंग अज्ञान ११५,१२१,२६३ विभज्यवाद १६५ विभाग औद्देशिक १५५ विभाव २२३ विमुक्ति १८३ वियोजन ६६ विरति ३३,६०,१८३ विरमण २६७ विलय २०६ विवेक १८०-१८२ विशुद्धि ६३ विशेष २२३ विषकूट-यंत्र १६६ विषभक्षण २२६,२२८ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दानुक्रम ३२६ भगवई विषय १. विसंयोजित २२७ विसंवाद ६२ विसंवादन ६२ वित्रता ७८ वीतराग ३६,५६,६०,६१ संयत ३६,५५ वीरासन २३-२४०,२४२ वीर्य ८०-८५,८६,१६६,२४५,२६१-२६३,२६३ -परिणाम १७५ -बाह्य १६६ -भाव ६४ -लब्धि ६३,१५५,१५६ वृत्ति २३४ वृद्धमत ११६ वेद २०४,२०५,२५६ वेदना २३,२६,२६,३०,३१,४८,१२,५३,५५. ६१,७५,८४,८५,८७,९६,२५२ -सूत्र ६०,६१ -वशात २२६ -वाद ५७ वेदनीय २७,६४ कर्म २०४ कर्म-प्रदेश २५२ वेदित २५,२६,७३ वैक्रिय (शरीर) २८,३८,१३,२१२,११३,१२०,१५१,१७२,१७५,२०३ लब्धि १५५,१५७ वर्गणा ६३ समुद्धात १५५,१५७,२५२ वैज्ञानिक २०१,२५५,२६७,२८० सिद्धान्त १३६ वैदिक ऋषि १३३ संहिताओं २०८ साहित्य २०८ वैनयिक २३३,२३४ वैमानिक देव ३५,४४,५६,५८,६१,७२,७३,१२१,१४४,१४६,१६८, १७३,२८१ देवों की राजधानी २६५ वैरानुबंधी १६६ वैशालिक श्रावक २१० वैशेषिक दर्शन ७७,१६१,२६५ वैखसिक ७८ वैहानश २२६,२२६ वैहायस २२७,२२८ व्यजनाक्षर व्यञ्जनावग्रह व्यदृभोजी-देखें व्यावृत्तभोजी व्यतिव्रजन १७१ व्यय २१-२३,१००,१०१,१६७ व्यवच्छित्र ११ व्यवदान २७२,२७३,२७६,२७८ व्यवहार ६२,१८२ और निश्चय १८३ नय २३,६८,१८२,१८७ व्याकरण २०७,२०६,२१७ व्याकृत १८१ व्यावहारिक काल १६७ व्यावृत्तभोजी २२० व्युत्सर्ग १८०-१९२,२३०,२७२ व्यूह २१३ व्रत ४४,२६७ व्रती ३३,१६१ शंका ७५,१७६,८६,६२,६३ -रहित २६४ शंकित ७५,२११,२१२ शब्द ५६,६२ -नय ११ शम २३६ शरीर १७,३८,४६,५६,५७,६०,६१-६३,९०,८२,१०६,११२,११३, ११८,१२०,१३२,१४०,१४५,१५४,१६६,१७२,१७४,२०३,२२४,२५२ और मनस १३६ नाम कर्म ६३,१६६ -पर्याप्ति १५३,१५६ -निर्माण ६२,१५१ -योग-वर्गणा ६३ -व्युत्सर्ग की विधि २५० -शास्त्र २६७ -संघात ११३ शरीरी ४० शर्कराप्रभा १०५,२५५ शल्य-मरण २२६ शस्त्र १६७ शस्त्रावपाटन (मरण) २२६,२२८ शाक्य ६८,६६,१००,१०१,१३०,१३२,२२३,२२४,२८७-२८६ शाश्वत काल १०३ शिक्षा २०७,२०६ शिथिल बन्धन ३६-४१ शिव २२१,२४३ शीतल तेजोलेश्या २५३ शीर्षासन १६ शील २६७ -व्रत ६६,२६४ शुक्र १०६ शुक्ल पक्ष १७१ लेश्या ३४,३५,६०-६२,१२१,१७४ वर्ण २०० शुद्ध प्रवेश्य २७२ शुभ २०५ -अशुभ २०६ -योग ३२-३४ शून्यकाल ६४,६६ शून्यवाद १३५ शृंगाटक २१२,२१३,२६६ शृंगार २२१ शेवात (संहनन) ११३,११८ शैलेशी १६६ -प्रतिपन्न १६७,१६८ शैव दर्शन ६२ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई पारिभाषिक शब्दानुक्रम शौरसेनी श्रद्धा २० श्रम २१४ श्रमण ६७-८६,१५७,१६०,१८५,२१०,२४८,२६४ निर्ग्रन्थ १७६,१८६ -परम्परा २०१ माहन २७८ श्रमणियाँ २४५,२५० संघ २१० -सम्प्रदाय ६६,१६३,२६० श्रमणी २१०,२४८ श्रमणोपासक ५६,२१०,२३०,२६४,२७०,२७२,२७३ श्रवण १८१,२७८ श्रामण्य ६७ -पर्याय २४६ श्रावक १६१,२१०,२३०,२६५,२६६ श्राविका २१० श्री २२१ श्रुत ५,१०,१३,१२०,१२१ -अज्ञान २६३ केवली १६ -ज्ञान १०,१७,६०,११८-१२०,२६३ -ज्ञानी १५ -निश्रित ६० -वद्ध १८३ -स्थविर १८३ श्रेधी १८४,२१६ श्रोत्रेन्द्रिय प्रत्यक्ष १० श्वास १६७,२०१ ___-वर्गणा २०२ श्वासोच्छ्वास २८,५६,१५४,२०१,२०२,२५५ -पर्याप्ति १५६ श्वेताम्बर-साहित्य २३० षट्स्थानपतित हानि और वृद्धि २२४ षड् आवश्यक ६२ षटितन्त्र २०७,२०६ षष्ठभक्त २४३ सइंद्रिय ३८ संक्रमण २६,२७,३०,३१,४१,१५१ संक्लिष्ट ४४ संख्या १२६ संख्यात २०७,२०६ संख्यातवां भाग २६६ संख्येय २६७ संगिता २७३ संग्रह २ संघस्थविर १६३ संघात १५ संज्ञा ८७,१३२,१७४,१७५ संज्ञाक्षर संज्ञिभूत ५०,५३,५७,५८,६१ संझी २६२ पंचेन्द्रिय १५५,१५६ संज्वलन कषाय ६८ संघीयमान १६४ संपराय २७ संमुर्छिम संभोग-काल २६३ संयत (संयति).३२-३६,५१,५६ संयतासंयत ३३,३६,४३,५४,५५,५६,६०,६६,६७,२७४ संयम १४,१६,३७,३८,४४,६६,६८,१०४,१२१,१३०,१६६, १७६-१८२,१६७,१६३,२०७,२१२,२६३,२७२-२७४, २७६-२७१ संयमासंयम-देखें संयतासंयत संयोग ११ संलेखना २४५,२४७ संबर १६,४०,७६,५५,६७,१०४,१८०-१५२,२६४,२६५,२७३,२६१ योग १६३ संवृत ३६,४०,१७७ बस ४० संवेग १५७ संशय १ संसार ६४,६५,१४०,१७०,१७१,२०३ संसार-अवस्थान-काल ६४,६५,१७२ का आकलीकरण १७१ का परीतीकरण १७१ -चक्र २०६ परीत १७१ प्रहाण २०६ -भ्रमण ४० -वेदनीय कर्म २०४,२०५ -वेदनीय-प्रहाण २०६ -वेदनीय-व्यवच्छेद २०६ -व्यवच्छेद २०६ -समापन १६७ संसारी ३३ संस्कार-सूत्र १५ संस्थान १४,६५,१०६,११४,११८,१२०,२०६ -काल ६५ संहति १८८ संहनन १४,१५,१०६,११३,११४,११८,१२० -रहित १२० स-इन्द्रिय ३८,२०८ सकषाय ३६ सचित्त २५० सह लण्ह २८३ सत् ७८,१२६,१३३,१३४,२०६ सत्कारणवाद १३३ सत्ता २०६,२७६,२७७ सत्त्व १८६,१६०,२०४,२०५,२३४ सत्य ६२,७६ सघोविपाकी १६५ सनत्कुमार १०६ सनिवेश ४२,४४,४५ सपरिकर्म २२७ सपर्यवसित १७२ सप्रतिक्रमण पञ्चमहाव्रतात्मक १६२ समचतुरस्र संस्थान १४,१५ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दानुक्रम ३२८ भगवई समनस्क ५७,५८,११५,२६२ समभिरूढ ११,६२ समय २६,३०,१०१,१०८,१११,१२५,१२६,१७३,१७५,१६३,२२०, २५८,२६३ -क्षेत्र १६६,२८६ समाधिमरण २३०,२५०,२५१ समिति २३६ समुद्घात १६६,२५२ समुद्र १३१,१३६ समुद्री वैज्ञानिक २८० सम्म २१३ सम्यक् ७६ -त्व ३८,४८,८६,११६,२६५,२६६ -चारित्र ६१ -ज्ञान ६१ -दर्शन ७६,६६,११४ -दृष्टि ३३,४४,५०,५४-५६,५८,५६,६२,६८,११५,१६१ -दृष्टि उपपन्नग ६१ -मिथ्यादर्शन ११४ -मिथ्यादृष्टि ५०,५४,५५,५६,११४,११५ -रुचि ६७ सराग ६०,६१,२७३ तप २७३ संयम ३६,४३,५५,२७४ सर्वकाल १३३,१७४ सर्वज्ञ १२-१४,२२० सर्वतः आहार १५३ सर्वदर्शी १२,२२० सर्वदुःखप्रहीण २०५ सर्वव्रत ६६ सर्वांगासन १८,१६ सर्वाक्षरसन्निपाती लब्धि १८ सवीर्य १६६,१६८ सवंति सव्वावंति १२६ सशरीर ३८,२०३ सश्रीक २४३ सहस्रारकल्प ६७,६६,१०६ सांख्य दर्शन ६६,१०३,२०८,२६१ परिव्राजक २१७ सांख्यिकी ४८ साकार उपयोग ११६,१७४,१७५ सागर ४८,१७५ सागरोपम २३ साठ भक्त २४६ सातवेदनीय २६,५७,५८,७४ सादि पारिणामिक ७८ सिद्ध २१० साधन १२६ साधना-पद्धति २६५ साधारण शरीरी २५५ सान्त २०६,२२३,२२४,२२५,२२६ सामवेद २०७ सामाचारी ६७,६१,६२ सामान्य जीव ३४,३५,८७,१४५ सामायिक,६,३८,६१-६३,१८०,१८२,२३६,२४६ आदि ग्यारह अंग २३६ चारित्र २४८ सामुदानिक भिक्षाचर्या २७३,२७५ साम्परायिकी (क्रिया) १६२ सायुष्क १५१ सारक २०६ सारम्भ ३३ सार्थवाह २१३,२१६ सावध योग १८३ सास्वादन सम्यक्त्व ११६,१२० साहित्य १६३ सिंहनाद २१६ सिज्झइ ४१ सिद्ध ५,३३-३५,३६-४१,१०२,१०३,१३०,१३१,१३६,१७७,१८२, २०४-२०६,२०९-२११,२२२,२२४,२२६,२५१, -कण्डिका २८१ -वाद १३५ -शिला २६८ सिद्धालय २०६ सिद्धि १३०,१३५,२०६,२१२,२२२,२२५,२४८,२७८ सुख २१४,२३२,२७० दुःख ४८,२०५ सुखाधिगम ७६ सुवर्ण २६४,२६६ सुश्रामण्यरत २३६,२६८ सूक्ष्म ३८,७६,१४० जल १४१ -तर ३८ निगोद २५५ शरीर ३८ सम्पराय (चारित्र) ६१ स्कन्ध २२४ सूर्य १२२,१२३ सृष्टिवाद ६५,१३३,१३४ सेनापति २१६ सोपक्रम आयु २०३ सौधर्म देवलोक ६७,६८ स्कन्दक-चरित्र २३६ स्कन्ध २८,५६,१००,१०१,२२३,१२५,२६३ स्टेटिस्टिक्स ४८ स्तनितकुमार १०६ स्त्रीवेद २५८,२५६ स्थलचर ६६ स्थविर १८३,१६८,२४६,२६८ -कल्प ६१ -कल्पस्थिति १ स्थान २४१ स्थावर ११६,१३६,१३७ -काय २०२ स्थितकल्पी २ स्थिति २३,२६,३१,३६,६३,१११,१२६,२५६,२८८,२६३ -उदीरणा ८६ -क्षय २५१ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३२६ पारिभाषिक शब्दानुक्रम -परिवर्तन ४१ -बन्ध ३६,४०,७४ -सहायक २६३ -स्थान १०५,१०७,११८ स्थिर ३० स्थूल ३८ शरीर ३८,१४७,१५१,२५५ सृष्टि १६१ स्नेह २६३ -काय १४०,१४१,१८८,१८६ स्पर्श १२६,१२६,१५८,२००,२२३,२६०,२६३ स्पर्शन १२६ स्पर्शनेन्द्रिय २८ ___-प्रत्यक्ष ६० स्पर्शवान् २८६ स्पृश्यमान १२५,१२६ स्पृष्ट ४१,१२५-१२७,१५७,१५८,१६६,१६७,२०३ स्फोट १६१ -वाद १६१ स्मारक २०६ स्मृत १८१ स्मृतिकोश ३८ स्यन्दमान १५३ स्वकाय २०३ स्वभाव पर्यव २२३ पर्याय २२४ स्वभाव से ७७,७८ स्वर्ग २७३ स्वविषय-अविषय १२६ स्वातंत्र्य २०६ स्वाध्याय २७४ स्वाभाविक परिणमन २२३ स्वामित्व १२६ हंस ६६ हस्तिशुण्डिकासन २४२ हिंसा २०८,२६३ हित २१४,२३२,२७० हित, सुख २३३ हीयमान १५४ हंडक संस्थान १५,११४,११८,१२० हेतुगम्य ७६ हेय २६५ हस्वीकरण १७१,१७२ 094265802005 SAMANAS Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट - ४ आधारभूत ग्रन्थ-सूची लेखक, सम्पादक, अनुपावक, बावना प्रमुख, प्रचारक आदि संकरण प्रकाशक I १. पालि प्रकाशन मण्डल, विहार राज्य २६०,२७१ जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) ६,२६६ सन् १६७४ वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. मुनि मयमल पं. खूबचन्द वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. मुनि नथमल सन् १६२७ सन् १६७ जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) अंगुत्तर निकाय अंतगडदसाओ (अंगसुत्ताणि, भाग ३) अणगार धर्मामृत अणुओगदाराई (नदसुत्ताणि, भाग ५) अणुत्तरोववाइयदसाओ (अंगसुत्ताणि, भाग ३) अथर्ववेद अनुयोगद्वारचूर्णि * २४६ भू. ३६:६,१३,६२, ६३,२२१ ६ सन् १६७४ जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) * १३४ १३,२४६ ७. जिनदास महत्तर सन् १६२८ मलधारीय हेमचन्द्र सूरि ६. ६. अनुयोगद्वारवृत्ति अनुयोगद्वारवृत्ति सन् १६३६ सन् १६२८ श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम (मालवा) श्री केशरबाई ज्ञानमन्दिर, पाटण, श्री ऋषभदेवजी केसरीमल जी, श्वेताम्बर संस्था, रतलाम (मालवा) बौद्ध भारती, वाराणसी चौखम्भा विद्या भवन, वाराणसी १३ १३ हरिभद्र सन १६७० वि. सं. २०२० १०३,१७७ १६६,२०६ ले. आचार्य वसुबन्धु ले. आचार्य हेमचन्द्र सं. नेमिचन्द्र शास्त्री विजय राजेन्द्र सूरि संकलक आचार्य आनन्दसागरसूरि सन् १९८५ वि. सं. २०१० लोगोस प्रेस, नई दिल्ली देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड, सूरत २५६,२६७ २१३,२६६ अभिधर्मकोश भाष्यम् ११. अभिधानचिंतामणि (नाममाला) अभिधान राजेन्द्र कोष १३. अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोष अधंग-संग्रह (इन्दुव्याख्या सहित) १५. अधंग हृदयम् १६. अहिर्बुध्यसंहिता १७, आगम शब्दकोश (अंगसुत्ताणि शब्दसूची) १८. आचारांगचूर्णि १५२,१५३ मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली १५१,१५३ २०६ सन् १९८० जैन विश्वभारती लाडनूं (राज.) भू. २१ वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ श्री जिनदासगणि सन् १६४१ १३,१२६ श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वे.संस्था, रतलाम (मालबा) भाष्यकारः आचार्य श्री महाप्रज्ञ ७६ १६. आचारांगभाष्यम् (प्रकाश्यमान ग्रन्थ) २०. आचारांगवृत्ति श्री शीलांकाचार्य सन. १६७८ मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली १२६ २१. आत्मप्रबोध आदिपुराण आयारचूला (अंगसुत्ताणि, भाग १) आयारो (मूलपाठ, अनुवाद तथा टिप्पण) सन् १९८८ सन् १९७४ भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) आचार्य जिनसेन वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. मुनि नथमल वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. विवेचक मुनि नथमल भू. ३५ ६ १०,१६,१८५,२१४, २४६ ६,७६,६८,१२६,१७६, २२७,२३० २४. वि. सं. २०३१ जैन विश्वभारती, लाडनूं, (राज.) Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३३१ आधारभूत ग्रन्थ-सूची लेखक, सम्पावक, अनुपावक, वाचना प्रमुख, प्रसारक आदि २५. आलापपद्धति - २६. आवश्यकचूर्णि देखें नयचक्र श्री जिनदासगणि २२३ १०४ २७. आवश्यकनियुक्ति (हरिभद्रवृत्ति-सहित) भद्रबाहु ७,६,२१५,२१६ २८. आवस्सयं (नवसुत्ताणि, भाग ५) आसन अने मुद्रा वा. प्र. आचार्य तुलसी, सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ, ६,२४६ सन् १९२६ श्री ऋषभदेवजी केसरीमलजी, श्वेताम्बर संस्था, रतलाम (मालवा) वि. सं. २०३८ श्री भेरुलाल कनैयालाल कोठारी, धार्मिक ट्रस्ट आर आर टक्कर मार्ग, बम्बई सन् १९८७ जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) द्वितीय संस्करण श्री डाह्याभाई हीराभाई पटेल कायावरोहण वाया मियागाम जि. बड़ौदा प्रथमावृत्ति, सन् १९६० जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, कलकत्ता द्वितीय संस्करण जैन विश्व भारती संस्थान, सन् १९६२ लाडनूं (राज.) २६. २४२ सं. आचार्य तुलसी ८६ ३०. इन्द्रियवादी री चौपाई (भिक्षुग्रन्थ रलाकर, प्रथमखण्ड) उत्तरज्झयणाणि (मूलपाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद, तुलनात्मक टिप्पण) वा.प्र. आचार्य तुलसी, सं. विवेचकः युवाचार्य महाप्रज्ञ ६,१८,३८,४१,४४,६३, ६६,८६,६१,९८,१०४ १७६,२१०,२११,२३०, २३६,२४२,२६५,२७१ २०८,२१५ मुनि नथमल वि. सं. २०२३ ३२. उत्तराध्ययनः एक समीक्षात्मक अध्ययन ३३. उत्तराध्ययननियुक्ति जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा कलकत्ता ले. भद्रबाहु २२८,२२६ उत्तराध्ययनबृहद्वृत्ति सन् १९१७ ले. शान्त्याचार्य सन.१६७४ ३४. उत्तराध्ययनबृहद्वृत्ति (श्री उत्तराध्ययनानि) ३५. उवासगदसाओ (अंगसुत्ताणि, भाग ३) ३६. ऋग्वेद ३७. एकार्थक कोश वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. मुनि नथमल देवचन्द्र लालभाई जैनपुस्तकोद्धार १२,४४,४५,२७१ फण्ड, बम्बई जैन विश्व भारती, ६.८६ लाडनूं, (राज.) १३४ जैन विश्व भारती, लाडनूं, (राज.) २२३ सन् १९८४ वा. प्र. आचार्य तुलसी प्रधान सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ सं. समणी कुसुमप्रज्ञा नियुक्तिकार-भद्रबाहु ३८. सन् १९१६ आगमोदय समिति, मेहसाणा २१८ ओघनियुक्ति (भाष्य एवं द्रोणाचार्य कृत-वृत्ति-सहित) ओवाइयं (उवंगसुत्ताणि, भाग ४, खण्ड १) ३६. सन् १९८७ वा. प्र. आचार्य तुलसी - सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ जैन विश्व भारती, लाडनूं, (राज.) भू.३४,११,१७,५६,६७ ६६,१८३,२०६,२०८ २१०,२१३,२१५,२१६ २३३,२६५,२७३ माणेकलाल नहालचंद...ट्रस्ट १२,१८,२१३,२१५ २१८,२६५,२६६,२६६ जैन विश्व भारती, लाडनूं, (राज.) २५० ४०. औपपातिकवृत्ति अभयदेवसूरि वि. सं. १६६४ ६४ सन् १९८७ ४१. कप्पो (नवसुत्ताणि, भाग ५) कर्मग्रन्थ (नवसुत्ताणि, भाग ५) वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ श्री देवेन्द्र सूरि ११६ श्रीवर्धमान स्थानकवासी जैन धार्मिक (शिक्षा समिति बड़ोत (मेरठ) श्री गणेशस्मृति ग्रन्थमाला, बीकानेर ४३. कर्मप्रकृति प्रथम संस्करण १९५२ २७,२८,७३,७४,८६ ४४. कल्पसूत्र श्रीमद् शिवशर्मसूरि विरचित, तत्त्वावधान-आचार्य श्री नानेश सं. देव कुमार जैन भद्रबाहु सं. मुनि पुण्यविजयजी सं. पं फूलचन्द्र, पं महेन्द्र कुमार, पं कैलाशचन्द्र सन् १६५२ साराभाई मणिलाल नवाब, अहमदाबाद भा. दि. जैनसंघ चौरासी, मथुरा ४५. कसाय पाहुडं सन् १९४४ भू.१४,१५,३६,२२,८६ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधारभूत ग्रन्थ-सूची ४६. कौटिल्य अर्थशास्त्र ४७. कौषीतकी ४८. गणधरवाद ४६. ग्रन्थ-नाम ५०. घेरण्ड संहिता ५१. चरक संहिता ५२. चारित्रसार ५३. छान्दोग्योपनिषद् ५४. जंबुद्दीवपण्णत्ती गोम्मटसार ( उवंगसुत्ताणि, भाग ४, खण्ड २) ५५. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्ति ५८. ५६. जय धवला ५७. जीतकल्प भाष्य (जीतकल्पसूत्रम्, सभाष्य ) जीवाजीवाभिगमे ( उवंगसुत्ताणि, भाग ४, खण्ड १ ) ५६. जीवाजीवाभिगमवृति ६०. जैन दर्शन का आदिकाल ६१. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ६२. ज्ञाताधर्मकथावृत्ति ६३. ज्ञान बिन्दुप्रकरणम् ६४. झीणी चरचा ६५. ठाणं (मूलपाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद तथा टिप्पण) ६६. तत्वार्थवार्तिकम् (राजवार्तिकम्) लेखक, सम्पादक, अनुवादक, बाचना प्रमुख, प्रवाचक आदि कौटिल्याचार्य ले. जिनभद्रगणि सं. महोपाध्याय विनयसागर श्रीमन्नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती सं. स्व. डॉ. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये भाष्यकार श्री स्वामी जी महाराज वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ शान्तिचन्द्र देखें कषाय पाहु ले. जनभद्रगणी सं. मुनि पुण्यविजयजी वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ ले. दलसुख मालवणिया सं. क्षु. जिनेन्द्र वर्णी, अभयदेवसूरि यशोविजयजी ले. जयाचार्य प्रवा. आचार्य श्री तुलसी, प्रधान सं. युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ सं. साध्वी प्रमुखा कनकप्रभा वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. विवेचक मुनि नथमल ले. भट्ट अकलंक देव सं पं मेहन्द्र कुमार जैन ३३२ संस्करण सन् १६८२ वि. सं. २०२१ चतुर्दश संस्करण सन् १६८६ सन् १६२० वि. सं. १६६४ सन् १६८७ सन् १६४४ सन् १६५२ सन् १६५१ सन् १६८५ वि. सं. २०३३ वि. सं. २००६ प्रकाशक राजस्थान प्राकृत भारती, संस्थान, जयपुर एवं सम्यग् ज्ञान प्रचारक मण्डल, जयपुर श्री पीतम्बरापीठ संस्कृत परिषद् दतिया, मध्य प्रदेश चौखम्भा भारती अकादमी, वाराणसी गीता प्रेस गोरखपुर जैन विश्व भारती लाडनूं, (राज.) देवचन्द्र लालभाई जैनुस्तकोद्धार फण्ड, बम्बई बबलचंद्र केशवलाल मोदी हाजा पटेलनी पोल, अहमदाबाद जैन विश्व भारती, लाडनूं, (राज.) भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, श्री सिद्धचक्र साहित्य प्रचारक समिति, बम्बई सिंघी जैन ग्रन्थमाला जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) जैन विश्वभारती, लाडनूं, (राज.) भारतीय ज्ञान पाठ काशी, दुर्गाकुण्डरोड, बनारस ४ पृष्ठ ४५ २०८ ६५ २१०,२५६ १८, १६, २४१,२४२ १५१-१५४, १५६, २४७ २६७ १३३,१३४,२०८ १२६,२६६ १२ भगवई २२ १६ ६५,१७१,१७२, १७६, २१०,२५५, २५६, २६७, २८२,२८६ १७३,२१६, २५६ भू. १६,३१ ६२,११३, २५३,२६७ २१८, २३३, २६६, २७२ ७६,६०,६२ २२,६२,६३ भू. १७, १८, ३४, ६, १३-१७, १६,२२,२७,२८,३१,३५, ३८, ४०, ४२,५७,५६,६२, ६५,६६, ८१, ८६-६३, १०४, ११३,१३५, १४७, १४६, १५३, १७६, १८३. १६१,२०६, २०६,२१४, २२७,२३०, २३३, २३६, २३८,२३६,२४१,२५१, २५८, २६०, २७४, २७६, २८४,२६२ भू. १४, १५:१५ १८, २२, २८,४४,५६,६२,७८,८१, ८६,६२,१३५,१३६, १४४, १४७,२०१,२०३,२०६, २२८, २३६, २५३,२६५ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई आधारभूत ग्रन्थ-सूची ग्रन्य-नाम संस्करण प्रकाशक लेखक, सम्मादक, अनुवादक, वाचना प्रमुख, प्रवाचक आदि पृष्ठ श्रुतसागर सूरि ले. उमास्वाति टीकाकार सिद्धसेनगणी ७०. तिलोग वि. सं. १९६६ ६७. तत्त्वार्थवृत्ति ६८. तत्त्वार्थसूत्र (सभाष्य तत्त्वार्याधिगम सूत्र) ६६. तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् (तत्त्वार्थभाष्यानुसारिणीटीका) तिलोयपण्णत्ती ७१. तीर्थकर महावीर ७२. तैत्तिरीय उपनिषद् ७३. दशवैकालिकःएक समीक्षात्मक अध्ययन ७४. दशवकालिकचूर्णि (दसकालियसुत्तं भद्रबाहुनियुक्ति व अगस्त्यचूर्णिसहित) ७५. दशवैकालिकचूर्णि यतिवृषभाचार्य आचार्य विजयेन्द्रसूरि शांकर भाष्य सहित ले. मुनि नथमल भारतीय ज्ञान पीठ काशी, बनारस १३५ सेठ मणीलाल रेवाशंकर ३४,८१,८२,८८,६१,६२ जगजीवन जौहरी, बम्बई-२ १०१,१२६,१३५,१५७ देवचन्द्र लालभाई जैनपुस्तकोद्धार ८२,८८,२५३ फण्ड, बम्बई जीवराज ग्रन्थमाला, शोलापुर, १७,१०७,१३६ यशोधर्म मन्दिर, बम्बई २१० गीताप्रेस, गोरखपुर १३३,२०८ जैन श्वेताम्बर तेरापंथी भू.३२,४४,४५ महासभा, कलकत्ता प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी ८,२३६ अहमदाबाद नवम संस्करण वि. सं. २०२३ सन् १६७३ ले. अगस्त्यसिंह स्थविर सं. मुनि पुण्यविजयजी जिनदास महत्तर सन् १६३३ ८,४५,२३६,२६८ श्री ऋषभदेव केशरीमल श्वेताम्बर संस्था, रतलाम ६८,६६ ७६. दशवैकालिकनियुक्ति ७७. दशवैकालिकवृत्ति देखें दशवै. हरिभद्र हरिभद्र सरि ८,४४,४५ देवचन्द्र लालभाई जैनपुस्तकोद्धार फण्ड जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) सन् १६७४ वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. मुनि नथमल ७८. दसवेआलियं (मूलपाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद तथा टिपण) ७६. दसाओ (नवसुत्ताणि, भाग ५) १०. दीघनिकायपालि ८,६,१८,२०,४०,६८, १८३,२०६,२१५,२३३, २३४,२६६,२७६ २३०,२३८ सन् १९८७ जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ वि. सं. २०१५ बिहारराजकीय पालिप्रकाशन मण्डल ६६,१६१ सन् १९३८ २१८ सन् १९८८ जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) १३३,२१४ सन् १६७७ भू.१५६० विजय लावण्य सूरीश्वर ज्ञानमन्दिर, बोटाद (सौराष्ट्र) वीरसेवामन्दिर, दरियागंज, दिल्ली सन् १९७६ भू.३४ सन् १९८७ जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) भू.१४-१७,२०,२१,३२, ३६,६,१७,८८,६०,६३ भू.२१,३२,१७,६३,२३४ सन् १६६६ प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी, वाराणसी १. देशीनाममाला हेमचन्द्राचार्य २२. देशीशब्द कोश वा. प्र. आचार्य तुलसी प्रधान सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ ६३. द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका ले .सिद्धसेन दिवाकर (किरणावली विवृत्तियुक्ता) सं. विजय सुशील सूरि २४. ध्यानशतक हरिभद्रसूरि (ध्यानशतक तथा ध्यानस्तव) ५. नंदी वा. प्र. आचार्य तुलसी (नवसुत्ताणि, भाग ५) सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ नंदीचूर्णि आगमकार-देववाचक, (नन्दीसूत्र, चूर्णि-सहित) चूर्णिकार—जिनदास महत्तर सं. मुनि श्री पुण्यविजयजी १७. नन्दी सूत्र (मलयगिरि वृत्तियुक्त) नन्दी सूत्रम् सं. मुनि पुण्यविजयजी (हारिभद्रीय वृत्तिसहित) नमस्कार स्वाध्याय (प्राकृत विभाग) ६०. नयचक्र ले. माइल्लधवल, सं. अनुवाद(परिशिष्ट-आलापपद्धति) पं. कैलाश चन्द्र शास्त्री ६१. नायाधम्मकहाओ वा. प्र. आचार्य तुलसी (अंगसुत्ताणि, भाग ३) सं. मुनि नथमल ६२. नियमसार तात्पर्यवृत्ति सं. १६६० आगमोदय समिति, महेसाणा ६८९ सन् १९६६ भू.३६,२३४ प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी, वाराणसी जैन साहित्य विकास मण्डल, बम्बई सन् १६७१ भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली २२३ सन् १६७४ जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) ६,६८,२०८,२०६,२१५ २६६,२७१ १३५ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधारभूत ग्रन्थ-सूची ६३. निरयावलियाओ ६४. ग्रन्थ-नाम निशीथसूत्रम् (भाष्य व चूर्णि सहित ) निसीहज्झयणं ( नवसुत्ताणि भाग, ५) ६६. न्यायदर्शनम् (वात्स्यायन भाष्य ) न्यायावतार ६५. ६७. वा. प्र. आचार्य तुलसी ( उवंगसुत्ताणि, भाग ४, खण्ड २) सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ fc. पंचसंग्रह (दिगम्बर) ६६. पंचसंग्रह ( श्वेताम्बर) १००. पंचाशक १०१. पंचास्तिकाय (तत्त्वप्रदीपिका वृत्ति) १०२. पज्जीवसणाकष्पो १०३ पट्टावलि- समुच्चय १०४. पण्णवणा ( उवंगसुत्ताणि, भाग ४, खण्ड २) १०५. पण्हावागरणाई (अंगसुत्ताणि, भाग ३) १०६. पातञ्जल योगदर्शनम् ( व्यास भाष्य सहित ) १०७. पातञ्जल योगदर्शन ( योगवार्तिक) १०८. प्रज्ञापनावृत्ति १०६. प्रमाणनयतत्त्वलोकालंकार ११०. प्रमाण मीमांसा १११. प्रवचनसार ११२. प्रवचनसारोद्धार ११३. प्रश्नोत्तर तत्त्वबोध लेखक, सम्पादक, अनुवादक, बाचना प्रमुख, प्रभाबक आदि ११५. प्राकृत व्याकरण ११६. प्राचीन भारतीय अभिलेख सं. उपाध्याय कवि श्री अमर मुनि मुनि श्री कन्हैयालाल " कमल" वा. प्र. आचार्य तुलसी . युवाचार्य महाप्रज्ञ ले. आचार्य सिद्धसेन सं. हीरालाल जैन ले. हरिभद्र सं. प्रो. ए. चक्रवर्ती डॉ. ए. एन. उपाध्ये देखें कल्पसूत्र ले. धर्मसागरगणी वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. मुनि नथमल ले. महर्षि पतञ्जलि व्याख्याकार— श्रीमत् स्वामी हरिहरानन्द आरण्य ले. महर्षि पतञ्जलि व्याख्याकार- विज्ञानभिक्षु ले. श्रीमन्मलयगिर्याचार्य ११४. प्राकृत भाषाओं का व्याकरण रिचर्ड पिशल, ले. हेमचन्द्र ले. कुन्दकुन्दाचार्य ले. श्रीमन्नेमिचन्द्रसूरि टीका. श्रीसिद्धसेनसूरि ले. जयाचार्य प्रवाचक आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ ३३४ अनु. डॉ. हेमचन्द्र जोशी डी. लिट., ले. हेमचन्द्र ले. श्री राम गोयल संस्करण सन् १६८६ सन् १६८२ सन् १६८७ सन् १६७६ वि. सं. २०१७ सन् १६७५ सन् १६६६ सन् १६७४ सन् १६७४ सन् १६१८ सन् १६८६ सन् १६४८ प्रथम संस्करण सन् १६८२ प्रकाशक सरस्वती पुस्तक भण्डार, अहमदाबाद श्री जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ़, सौराष्ट्र देवचन्द्र लालभाई जैनपुस्तकोद्धार फण्ड प्रथम संस्करण १६८८ जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) भारतीय ज्ञानपीठ जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) सन्मति ज्ञान पीठ लोहामंडी, आगरा १३, ४४, ४५, २४७,२७१ जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) बोद्ध भारती, वाराणसी श्रीपरम श्रुतप्रभावक मंडल, श्रीमद्रराजचन्द्र आश्रम, अनास भारतीय ज्ञानपीठ, काशी जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली - पटना-वाराणसी आगमोदय समिति, मेहसाणा बिहार- राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना पृष्ठ राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी जयपुर २१५ २२८ १५१ ६३ १६,१८,५६,६३, ८१, ८६ ८६ २३८ १३६ ६ भू. ३५ ६, १०, २४, २८,२६,३६, ४६, ५८-६३, ६६-६८, ७३, ८१, ८६, ६८, ११६, १३५, १५८,२०२, २०३, २१०, २१४,२५२,२५४,२५५, २५७,२६२, २८१, २८२ ६,१२ १६,२०,४८,६६,१३५, १६५,१७६,२१० १०३ भगवई ५, २२, २८, ३६,५७,५८, ६२, ६३,७४, १२८, १५८, २५४, २५८ ८८ ५ ६२,१३५,२०७ १२६,१५२, १८५,२३४, २६१,२६२ १२,६० 19 १३,१६ Ε Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३३५ आधारभूत ग्रन्थ-सूची संस्करण पृष्ठ लेखक, सम्पावक, अनुवादक, बाचना प्रमुख, प्रचारक आदि आचार्य कुन्दकुन्द ले. स्थविर आर्यभद्रबाहु २३६ जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर १४१,२४२,२५० ले. डॉ. रघुवंश झा सन् १९८४ किशोर विद्या निकेतन, भदैनी वाराणसी १३३,२०८ ११७. बारस अणुवेक्खा ११८. बृहत्कल्पसूत्रम् (स्वोपज्ञनियुक्ति, संघदास गणि संकलित भाष्य आदि सहित) ११६. बृहदारण्यकोपनिषद्ःएक समीक्षात्मक अध्ययन १२०. बोधपाहुड १२१. भगवद् गीता १२२. भगवती आराधना (विजयोदयावृत्ति-सहित) १२३. भगवतीचूर्णि (प्रस्तुत आगम का पंचम परिशिष्ट) १२४. भगवती-जोड़ ले. आचार्य श्री शिवार्य ३,१२३,२०८ १८५ सन् १६३५ सखाराम दोशी, शोलापुर जिनदास महत्तर हस्तलिखितप्रति जैन विश्व भारती ले. जयाचार्य प्रवाचक आचार्य तुलसी प्रधान सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ सं. साध्वी प्रमुखा कनकप्रभा प्रथम संस्करण १६८१ लाडनूं, (राज.) १०,११,२०,३३-३६,४०, ४२,५६,६६,७१,८१,८७, ८६,६१,६२,६७,११२, १४५,१४७,१५७,२१३, २१४,२२८,२२६,२३३, २४६,२६२,२६५,२६६, २७१,२७३ ले. अभयदेव सूरि १२५. भगवतीवृत्ति (प्रस्तुत पुस्तक का छठा परिशिष्ट) १२६. भगवती सूत्र १२७. भारतीय तत्वविद्या १२८. भिक्षुशब्दानुशासनम् सन् १९६० अनु. बेचरदास दोशी ले. पं. सुखलालजी संघवी ले. मुनि चोथमल्ल सं. मुनि राजेन्द्र कुमार आगमोदय समिति, मेहसाणा १५३ ज्ञानोदय ट्रस्ट, अहमदाबाद १६१ आदर्श साहित्य संघ चुरु, राजस्थान २८४ १२६. मज्झिम निकाय १३०. मनुस्मृति सन् १९७० टीकाकारपंडित श्री हरगोविन्द शास्त्री ले. आचार्य तुलसी सन् १९८६ १३१. मनोऽनुशासनम् १३२. महानिशीथ १३३. महापुराण १३४. महाभारत १३५. महावस्तु १३६. मूलाचार १३७. योगशास्त्र ले. श्रीमद् वट्टकेराचार्य ले. कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य । सन् १९८४ सन् १९७५ बिहार राजकीय पालिप्रकाशन मण्डल २८,२०६ चौखम्भा संस्कृत सिरीज आफिस २०६,२०८,२१४,२७१ वाराणसी आदर्श साहित्य संघ चुरु, राजस्थान २४२ ८,६,१३ भारतीय ज्ञानपीठ, काशी १७ २०० २१५ भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली ११५,१६६ श्री निर्ग्रन्थ साहित्य प्रकाशनसंघ २०८,२४६ दिल्ली शंभुलाल जगशीशाह, गुर्जरग्रन्थरल १२,२१३,२१४,२१६, कार्यालय, अहमदाबाद २४६,२६६ लखनऊ २१० जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) भू.३२,१२,६०,२१३, २१५,२३३ श्री जैनग्रन्थप्रकाशकसभा अहमदाबाद जैन विश्व भारती लाडनूं, (राज.) १८३ १३८. राजप्रश्नीयवृत्ति ले. मलयगिरि वि. सं. १६६४ १३६. रामायणम्, वाल्मिकेय सन् १९८६ १४०. रायपसेणइयं वा. प्र. आचार्य तुलसी (उवंगसुत्ताणि भाग ४. खण्ड १) सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ १४१. लोकप्रकाश ले. विनयविजयगणि भुवन वाणी ट्रस्ट सन् १९८७ वि. सं. १६६० सन् १९८७ वा.प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ १४२. ववहारो (नवसुत्ताणि, भाग ५) १४३. वाक्यपदीयम् १४४, विजयोदयावृत्ति १४५. विद्यानुशासन, योगशास्त्र डेक्कन कालेज, पूना देखें, भगवती आराधना १६१ २२७,२२८,२३० Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधारभूत ग्रन्थ-सूची भगवई संस्करण प्रकाशक लेखक, सम्पावक, अनुवादक, बाचना प्रमुख, प्रचारक आदि सन् १६७४ जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) ६ १४६. विवागसुयं (अंगसुत्ताणि, भाग ३) १४७. विशेषावश्यकभाष्यम् वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. मुनि नथमल ले. जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण सं. दलसुखभाई मालवणीया लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदावाद ५,१३,१८,२८,१०३, १४८,१७५,१८२ १३ १४८. विशेषावश्यकभाष्यम् (कोट्याचार्यवृत्ति-सहित) १४६. विश्व की मूल लिपि ब्राह्मी १५०. विश्व प्रहेलिका डॉ. प्रेम सागर जैन ले. मुनि महेन्द्र कुमार सन् १९६६ १० जेठालाल एस. जवेरी, भारत बिजली २६८ लिमिटेड, उद्योगनगर, किंग्स सर्किल रेलवे स्टेशन के पास, बम्बई ले. समयसुन्दर सं. मुनि माणेक सन् १६२८ वकील त्रिकमलाल अगरचन्द्र, भू.३१,२४७ १५१. विसंवादशतक १५२. व्यवहार सूत्र (भाष्य एवं मलयगिरि विरचित वृत्ति सहित) १५३. शतपथ ब्राह्मण १५४. शान्तसुधारसभावना अहमदाबाद चौखम्मा संस्कृत सिरीज, वाराणसी १३४ आदर्श साहित्य संघ चुरू (राज.) २३६ सन् १९८५ ले. उपाध्याय विनय विजय सं. अनु. मुनि राजेन्द्र कुमार व्याख्याकार-हरिकृष्णदास गोयन्दका २०८ १५५. श्वेताश्वतर उपनिषद् (ईशादि नौ उपनिषद्) १५६. षट्खण्डागम (धवला टीका-सहत) मोतीलाल जालान, गीताप्रेस गोरखपुर सेठ शीतलराय लक्ष्मीचन्द्र अमरावती सन् १६४२ ६-८,१५,२०,८६,११३, १४७,१५८,१६६,२०६ ले. पुष्पदन्त भूतबलि, वीरसेनाचार्यकृत धवला रीका सहित, सं हीरालाल जैन ले. आचार्य हरिभद्र टीकाकार गुणरलसूरि १५७. षड्दर्शनसमुच्चय सन् १९७० भरतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी २०८ २०८ १५८. षष्टितंत्र १५६. संबोध प्रकरण १६०. सनत्सुजातीय शांकरभाष्य १६१. सन्मतिप्रकरण अनु. स्वामी श्रीसनातनदेव ले. सिद्धसेन दिवाकर सन् २०१६ १६२. समयसार आचार्य कुन्दकुन्द चतुर्थ आवृत्ति सन् १९८४ १६३. समवाओ वा. प्र. आचार्य तुलसी (मूलपाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी सं. विवेचक युवाचार्य महाप्रज्ञ अनुवाद, टिष्पण, परिशिष्ट आदि) १६४. समवायांगवृत्ति १६५. सर्वार्थसिद्धि १६६. सागारधर्मामृत पंडित आशाधर १६७. सुत्तनिपात अनु. भिक्षु धर्मरल १६८. सुश्रुत संहिता १६६. सूत्रकृतांगचूर्णि जिनदास महत्तर २४१ गीताप्रेस पो. गीताप्रेस (गोरखपुर) २३६ ज्ञानोदय ट्रस्ट, अनेकान्त विहार, ११,२१,२२,७६,७८,६३, श्रेयस् कॉलोनी के पास, १३६ अहमदाबाद-६ श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय १८३ मन्दिर ट्रस्ट जैन विश्व भारती, लाडनूं, (राज.) भू.१४-१७,२०,२१,३६; ६,१०,१४,२०,३८,१०४, ११३,१८३ २२६ २०६ सरल जैन ग्रन्थ भाण्डार, जबलपुर १० महाबोधि सभा, सारनाथ १४ मोतीलाल बनारसीदास (दिल्ली) १५२-१५४ श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी १०३,१२८,२६७ श्वेतांवर संस्था, रतलाम १५२ २८,१६६ जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) भू.१७,१८५६,१३,५६, ६६,१०४,१५६,१५७ १६१,१६१,२१५,२३०, २३४,२६६ वीर नि. सं. २४८२ सन् १६५१ पंचम संस्करण १७०. सूत्रकृतांगनियुक्ति १७१. सूत्रकृतांगवृत्ति १७२. सूयगडो (मूलपाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद, टिप्पण तथा परिशिष्ट) देखें सूत्रकृतांगवृत्ति श्री शीलांकाचार्य वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. विवेचक युवाचार्य महाप्रज्ञ भाग १-१६४ भाग २-१९८६ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ग्रन्थ-नाम १७३. सूरपण्णत्ती ( उवंगसुत्ताणि, भाग ४, खण्ड २) १७४ स्थानांगवृत्ति १७५ स्याद्वादमंजरी १७६. हठयोगप्रदीपिका १७७. हेमशब्दानुशासनम् 90. Doctrine of the Jainas. १७६. Encyclopedia Britannica 9to. Greek Thinkers 99. Greschictite der Indischen Philosophie १८२. History and Doctrines of Ajivkas १८३. Mahavira And His Teachings (Lord Mahavir and Anyatirthikas) १८४. Principal Upanishads १८५. Sanskrit-English Dictionary १६. Sanskrit-English Dictionary १८७ Studies in the Bhagavati Sutra 9 cc. The Universe and Dr. Einstein 9. The World Book Encylopeadia १६०. Viyāhapannatti 949. Zeitschrift der Deutschen Morgenlandischen Gesellshaaft लेखक, सम्पादक, अनुवादक, याचना प्रमुख, प्रवाचक आदि वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ ले. अभयदेवसूरि अनु. सं डा. जगदीश चन्द्र जैन स्वात्माराम योगीन्द्र आचार्य हेमचन्द्र W. Schubring Theoder Gomper Frauwallener Dr. A. L. Basham Josep Delue Dr. S. Radhakrishnan Sir Monier-MonierWilliams V. S. Apte Dr. J. C. Sikdar Lincoln Barnett Josep Delue ३३७ संस्करण सन् १६८६ सन् १६३७ सन् १६६२ सन् १९८८ वि. सं. २००७ First Edition, 1962 सन् 1973 सन् 1977 Revised and Enlarged Edition सन् 1957 First Edition 1970 प्रकाशक जैन विश्व भारती, लाडनूं, (राज.) सेठ माणेकलाल चुनीलाल, अहमदाबाद श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास खेमराज श्री कृष्ण दास अध्यक्ष, श्री वेन्कटेश्वर प्रेस, बम्बई छगनीराम अमरचन्द्र शिरोलिया, उज्जैन Motilal Banarsidass Delhi, Varanasi, Patna भू. १६ Bhagavan Mahavira Mahotsava Samiti, Bombay Motilal Banarsidass Delhi, Varanasi, Madras Presad Prakashan, Pune Research Institute of Prakrit, Jainology and Ahinsa (Bihar) आधारभूत ग्रन्थ-सूची पृष्ठ १२२, १२३ १३, १५, १६, ४४-४६, ८८, १३५, १४४, १४७, २१३, २५८,२६०, २६५,२७१, २८४ २१० १६ ७ भू. १८, १६; १८५, १८७ १५४ १३३,१३४ ૬૬ भू. १६ १३३ ४५ १२, १३, १६, २०, २४, ४४, ४६,८०,१२३, १४१, १५८, १६७, २०६, २११, २१४, २१६-२१८, २२०,२४२, २४४, २४६, २६५, २७१, २७६, २७६ १६६ १६७ World Book-Childcraft १३६ International, Inc. Chicago... De Tempel, Tempelhoe भू. ३३ Brugge (Belgie) Leipzig, Wiesbaden १८५ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट - ५ जिनदास महत्तर-कृता भगवती-चूर्णिः प्रथमं शतकम् पञ्चमः उद्देशकः नमो जिनाय पुढवी ठिति योगाहण सरीर संघयणमेव संठोणो। लेस्सा दिट्ठी णो अष्ठौगै जोगवयोगे विरहिज्जति जं ठाणं असीति भिगा (भंगा) तहिं करिज्जासि जत्थ उगेहोति विरहोति विरहो अभंगगं सत्तवीसा वा चउहिं कोदीहिं लोभादीहिं वा ठितिसुत्तादि विसेसितेहिं समष्ठुभंगलक्खणं पुढवीसुत्तं सत्त कण्णाउ पत्तेयं चउवीसा दंडएणं आवासणेयव्वा । ठितिसुत्तं जहण्ण मज्झा उकोसा जहिणियातो समय दुसमयं संखेज्जा जाव तस्सावासस्सुक्कोसिया ण पावत्ती ताव आदि-अंत-समय-विरहितासंखेजा ट्ठिति ट्ठाणो भवंत्ति । जहण्णट्टिती अविरहिता नारगेहि कहु तत्थ सत्तावीसं भंगा। कोहोवयुत्तेहिं य अविरहिता तहिं निचवहुवयणं समाहियाए जहणियाए असीति तत्थ य तेहि विरहो होति अहवा एक्को वा दो वा तिण्णि वा संखेजा ते कोवे वा माणे वा मायाए वा लोभे वा उवउत्ता तत्थ भंगा असीति वत्तव्वा एवं जाव संखेजसमयाहियाए वा ततो असंखेजा । तप्पाउस्सुक्कोसियासु अविरहियत्तणात्तो सत्तावीसं । उगाहणसुत्तं-सरीरप्पमाणं तहेव जहण्णादियं उववज्जमाणाणं ते जहण्णद्वितीए विरहिअंति तत्थासीति जाव संखेज्जपदेसाविया । असंखेनं तप्पायुग्गुक्कोसियासु सत्तावीसं अविरहियत्तणातो। संघयण-संठाण-काउलेस्सासु सत्तावीसं । दिट्ठी संमामिच्छत्ते ण विरहिज्जति तत्थसीति सेस दंसणे रतण पढमं पुढविसुत्ताणि समत्ताणि ताव सत्तावीसं। एवं सत्तसुवि लेस्सासु विसेसो। एवं भवणवासीणं लोभादीया देवाणं लोभपरिणामबहुत्ताउ सत्तावीसमसीतिं च द्विति आदि विसेसिते कोधादिसु वारेजा णारगाणं जहा असंखेजेसु णं पुढविक्काते सव्वट्टाणेसु वहुया काऊण सुण्णभंगो णवरं तेउलेस्साए विरहिजंति त्ति देवोवत्तीए तत्था-सीति एवं आउवणप्फतीणं पुढवीकाय तुल्लं तेउवाऊण सव्वस्थ अभंगगं। वितिचउरिदियाणं सत्तावीसट्टाणे अभंगगं बहुत्ताउ असीति चेव सासातण सम्मद्दिट्ठि विरहं संभवोपपातं वहुत्वं आभिणिवोहितसुतणाणसमत्तेसु असीति । पंचिंदियतिरियाणं जहण्णहिती उगाहणासु विरहिउ जेसु असीति तेसु सव्वेव सत्तावीसाए बहुत्तातो अभंगगं सम्मामिच्छत्ते विरहाउ चेवासीति । मणूयाणं जहणियाए द्वितीए आहारकशरीरं पडुच्च विरहाउ असीर्ति सेसियाउ सट्ठाणेसु असीतीतो भाणियव्वातो सत्तावीसट्ठाणे अभंगगं णेरतियाण जहा केवलणाणे मोहणिज्जक्खयाउ असंभवो। वेमाणियमाणमंत जोसिया जहा लोभादीया असुरा णेरइया देवेसु सत्तावीसा असीति भंगा सेसे पुठविक्काइयादिसु मणुयपज्जतेसुं दससु सत्तावीसमसीते अभंगगं संखेवतो जाणे सेवं भगवं । षष्ठः उद्देशकः सर्वदिक सर्वदिक्षु वा सर्वाणि यावंति नोवी सव्वंति सामान्यविशेषनयाभ्यां प्रसिद्धितः पदानि व्याख्यातव्यानि नियमा छद्दिसि । भवनमन्यावलविभाप्रतिहतोद्योतप्रदीपवत् लोकोऽलोकमध्ये कर्मकर्मे वत्ततामात्मनिसमम्वायंतः कर्मलक्षणपदार्थमभिनिर्वतयंति एकेंद्रियान्प्राप्पोपरितं लच्छिता सीदिति कृतयागमनप्रतिघातिनो भवंति तप्रदेशा व्कतादि दिग्वपे अव्ये एकस्य बहुमध्ये प्रतिघातिनः गेहानागर प्रम्नाः पयोरनाद्यपर्यवसानता तयोः पूर्वमिदं परमिदमिति न शक्यते वक्तुं रात्रिंदिनस्येव स प्रतिपक्षप्रतिसिद्धमुपात्तोदाहरणवदभाव्यं लोयंतं सत्तमेणोवासंतरेण वारेत्तण सत्तमं सेसमुपगतो अणंतरं सेसाणंतरेहिं जाव सव्वतो लोयट्ठिति सभाव वा तेणमुतमतिसंघाय समितीत्याधुदाहरणं चानुमानं सदाम्बमात्रया इदं समितं एकीभाव न वा इतं फु कारणावयवेन कार्यावयवी न निर्वलंत तंतुना पढा न वद्व प्रदेशे वता नव देशे न सर्वः असकलकारणत्वात् तंतुना पट इव न च सर्वाय वैर्देश कार्याभिनिवृत्तिः संपूर्णसमं वाप्प समवायिकारणत्वात् घेटिकदेश देशवत् सर्वावयवैः सर्व पूर्णकारण समयात् घटवत् । सप्तमः उद्देशकः उववजमाणे आहार उववण्णे आहार उव्वट्टमाणे आहार उववढे आहार पढमसमए सव्वमाहारमुववयमाणे सेसेसु देस वा सव्ववाहार अद्धेणं विद्धाणिव्यत्ती ण सिया उवगरणं णा सिया रंभया पोग्गला भावोतन्निव्वत्ति सामत्थ तेण जोगा सव्विंदिएसु कायिको शरीरस्फंदः मानसो मनोव्यापार प्रणिधिः। अष्टमः उद्देशकः इषुसंयोगो विकरणं खेवगस्सेव प्रणयेन मृगवधो नेतरेषां किं कारणं कज्जमाणं कृतमेव हन्यमानो हत एवं छम्मासाणुवंधीकणविधिः परितो अण्णं परिणामांतरं पोग्गलादि संघातो जाति । Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३४० भगवती-चूर्णि नवमः उद्देशकः गुरुय दव्वे णस्थि-अच्चंतं हेट्ठा अवस्थाणाभाव अलहुयदव्वे विणत्थि उड्डा गमणतो णिच्छयणयस्स ववहारस्स यातर दव्वखंधेसूवजादिरुतादि य गरुलहुं णिच्छयणयस्स गुरुलघु अट्ठप्फासा खंधा। अगुरुलघु अमुत्तदव्वाणि तप्पट्टे सपज्जया कालो सुहमपरिणया चतुप्फालाय खंधा एगजीवेति दव्वट्ठयाए एगंमि जीवे सव्वपज्जव संगहातो जहाजीवे भवपज्जया तहा भवे वीतरयज यत्ति कट्ट पकभवयकरणे दुभव जावकरणं जालगठिकावत उत्तरं निव्वयणं एगे जता एगं गेण्हति ण तदा वितियस्स गहणं घडविणाणकाले य ड गट्ठण विण्णाणं इव थिरसुत्ते थिरो जीवो दव्वट्ठताए कमाई अस्थिराइं संजोगविभागसंबंधतो जीवो ण विद्धंसति कम्मपोग्गलविद्धंसंति सव्वगमेसु य चेव । दशमः उद्देशकः चलमाणे नो चलिते दव्वट्ठियस्स सव्वमणुप्पण्णमवि णट्ठमिति कट्ट अहवा ववहारस्स इच्छित कजाकरणातो णो चलितं णिच्छयरस जइ एगसमय चलितं अतोचलितं । दो परमाणुपोग्गला सण्हत्तणातो ण संहणंति तिघभि धी समुदातो सो च्चेव परमत्थतो पुरिट्ठिभेएणं केवलं भिजंति तिण्हं च मज्झत्तणातो छेदो भवति ततो दिव हुता उत्तरं समुदाएण। अवयव पुव्वएण होयव्वं पिंडवत् जे य अंता अवयवा ते परमाणू तेसिं च समुदायो वि होति कारणत्तातो तंतु पढट इव ण य तिण्ह मज्झभेदो अवयवत्वात्परमाणुवत् भेदेण तिप्पदेसा तिण्णि वा दो वा भवंति तहा भासादब्वाई कारणत्तेण पढमपच्छिमकाले भासाए णिदिरसंती। वट्टमाणे समय परम णिरोहे ववहारा भावातो उत्तर भासा वट्टमाणकालय तेण दवतीतकट्ट। तप्पयाय परिणामातो हवति घटवत् अण्णहा भासाभावो सव्वभासापसंगे एवं किरियादिपदेसु योजं परिहारो य दुभवकरणेन किरियातो भणियातो पढमं सतं सम्मत्तं । द्वितीयं शतकम् प्रथमः उद्देशकः जीवा एगेंदिया णिफंदाणुस्सासा दित्तातो भासरासी इव होहिंति तिसिं फंदादिणो धम्मा आहारादि पुव्वसरीर वयणातो पुरिस इव उस्सासादिय । वाउयाणो सो सव्वेसिं वाउकाइयाण वाउक्कातो चेव ऊसासो। मृतयाजी मडाई मृतासी वा साधुस्स पुनरपि संसारमात्येष्यति तदाविह कारण चित्तत्तणातो अनिरुद्ध भवतणादिणो हेतवो इत्येतस्मादर्थात् इच्चत्थं अंकुरवत् वीजवइ विपरीतं एते चेव हेत विपरीताछिन्न संसारस्य दधकारणत्थात् वीजवदेवाकारणवत्वाद्वावेउट्ठा भोईति दिनकरे व्यावृत्ते अहोरात्रे इति भो जीवा यावत् सांते लोए सपडिपक्खा दसपहो चउब्विहेणत्थे चत्तारि भणित्ता पंचत्यिकाया लोगो एगं दव्वं समुदाय सद्दत्तणातो वणस्संति तोणावत । पञ्चमः उद्देशकः संजमातो कर्मनास्त्रवंति तवेण विदारणं करेति जति एतेसिं एयं कजं ततो किंप्रत्ययं देवार्थकार्यं णस्थित्ति तस्स कारणानि अभावो पावति चउहि चत्तारि कारणानि देवलोगस्स साहणाणि भणिताणि पुब्बतवपूव्वसंजमकंमयसंगियताई पंचण्हं संजमाणं अवक्खात हेट्ठा पुव्वाणि तेण तवेण तेण संयमेणं अहक्खायचारित्तेण वंधति शुभाशुभं पुव्वतवसंजमे सुभकमियाए संगिया वि पुव्वसंजमसुह देवलोग संगातोरानो दोय आवुत्तेहिं परियावुत्तेहिं समत्थेहि समएहिं। दशमः उद्देशकः उउदंसस्थिकायादिसु पर्युदासो दट्ठव्यो अरूवि, पंचविधो समासतो लोगागासपमाणो खेत्तपरिच्छिण्णोत्ति खेत्तप्पमाणो वण्णो दवण्णासोपतस्स भावो अमुत्तो अवण्णा जाव फासे भावो तस्स दव्व पजातो गुणो दव्वट्ठवीरियं तस्स तस्स या जहा पोग्गलत्थिकायस्स भावारूवादयो अणंता तहा अमुत्त दव्वाणं अगरुलहुभावा अणंता दट्ठवा । एगे भंते धंमत्थि समुदाए वट्टमाणो सट्टोणावव वट्टति असगलत्तणेतो जो य उवयारो सो सम्बो अतत्वं मृग्यते वक्कादीणि उदाहरणाणि लोगागासेणं सत्तमी लोगागासे किमस्ति जीवादय इत्यादे या देवकुलु साधुवत् अज्जीवा दुविहा रूवी अरूवी खंधा द्विप्रदेशिकाद्या देशा द्विधागाराच्छेदेन एगतो द्वयं पदेसा वंधत्था परमाणवो सुद्धा अगतखंधभावा अरूविणो दव्वा समुदायसद्देण भण्णंति णीसासा तत्थ पदेसेहिं वा णिस्सेसं भणेज णा देसेण तस्स अणवट्ठिपमाणत्तणातो तेण ण देसेणणिद्देसो तहा पोग्गलस्थिकायो वि जो पुण देससंदो एत्तेसु कतो सो सविसय गत ववहारत्यं पर दव्व फुसणादिगत ववहारत्यं वा णमु पुण अप्पावहुयमसणादिसु देसमसणाण संभवति अणवट्ठियतातोणिस्सेसदव्यग्गहणं दव्वद्वताए वा पदेसठ्ठताए भवति अद्धासमयोवट्टमाण एग समयो ण च सयाणि अहो उवरिय तिरियलोगो ततो अधोलोगो लोगमज्झा पुण रयणप्पभपुढविओगासंत रज्जुप्पमाणा असंखेजतिभागमोगाहिंता भवति अहो लोगो सत्तरज्जतो साधेयतो हेट्ठा सत्त वित्थारो देसूणातो उडलोगो देसणा सत्तरज्जतो वंभलोते वित्थारो पंच रज्जतो एतेण अप्पबहत्तणेजा लोगो अणंततिभागो लोगागासस्स अलोगागासमणंतविभागीणं लोगागासं समद्वितं । बितियशतं Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट - ६ अभयदेवसूरि-कृता भगवती-वृत्तिः प्रथमं शतकम् प्रथम उद्देशकः सर्वज्ञमीश्वरमनन्तमसमग्र, सार्वीयमस्मरमनीशमनीहमिदम् । सिद्धं शिवं शिक्करं करणव्यपेतं, श्रीमजिनं जितरिपुं प्रयतः प्रणौमि ॥१॥ नत्वा श्री वर्द्धमानाय, श्रीमते च सुधर्मणे। सर्वानुयोगवृद्धेभ्यो, वाण्यै सर्वविदस्तथा ॥२॥ एतट्टीकाचूर्णी जीवाभिगमादिवृत्तिलेशांच। संयोज्य पञ्चमाझं विवृणोमि विशेषतः किञ्चित् ॥३॥ व्याख्यातं समवायाख्यं चतुर्थमङ्गम् । अथावसायातस्य 'विआहपण्णत्ति'त्ति सज्ञितस्य पञ्चमाङ्गस्य समुन्नतजयकुञ्जरस्येव ललितपदपद्धतिप्रबुद्धजनमनोरञ्जकस्य उपसर्गनिपाताव्ययस्वरूपस्य घनोदारशब्दस्य लिङ्गविभक्तियुक्तस्य सदाख्यातस्य सल्लक्षणस्य देवताधिष्ठितस्य सुवर्णमण्डितोद्देशकस्य नानाविधाद्भुतप्रवरचरितस्य षट्त्रिंशत्प्रश्नसहस्रप्रमाणसूत्रदेहस्य चतुरनुयोगचरणस्य ज्ञानचरणनयनयुगलस्य द्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकनयद्वितयदन्तमुशलस्य निश्चयव्यवहारनयसमुन्नतकुम्भद्वयस्य प्रस्तावनावचनरचनाप्रकाण्डशुण्डादण्डस्य निगमनवचनातुच्छपुच्छस्य कालाधष्टप्रकारप्रवचनोपचारचारुपरिकरस्य उत्सर्गापवादवादसमुच्छलदतुच्छघण्टायुगलघोषस्य' यशःपटहपटुप्रतिरवापूर्णदिक्चक्रवालस्य स्याद्वादविशदाङ्कुशवशीकृतस्य विविधहेतुहेतिसमूहसमन्वितस्य मिथ्यात्याज्ञानाविरमणलक्षणरिपुबलदलनाय श्रीमन्महावीरमहाराजेन नियुक्तस्य बलनियुक्तककल्पगणनायकमतिप्रकल्पितस्य मुनियोधैरनाबाधमधिगमाय पूर्वमुनिशिल्पिकल्पितयोबहुप्रवरगुणत्वेऽपि ह्रस्वतया महतामेव वाञ्छितवस्तुसाधनसमर्थयोवृत्तिचूर्णिनाडिकयोस्तदन्येषां च जीवाभिगमादिविविधविवरणदवरकलेशानां संघटनेन' बृहत्तरा अत एवामहतामप्युपकारिणी हस्तिनायकादेशादिव गुरुजनवचनात्पूर्वमुनिशिल्पिकुलोत्पन्नैरस्माभिन डिकवेयं वृत्तिरारभ्यत इति शास्त्रप्रस्तावना। १. अथ 'विआहपण्णत्ति'"त्ति कः शब्दार्थः ? उच्यते-विरिति” विविधा जीवाजीवादिप्रचुरतरपदार्थविषयाः, आ–अभिविधिना कथञ्चिन्निखिलज्ञेयव्याप्त्या मर्यादया वा-परस्परासंकीर्णलक्षणाभिधानरूपया, ख्या-ख्यानानि भगवतो महावीरस्य गौतमादिविनेयान् प्रति प्रश्नितपदार्थप्रतिपादनानि-व्याख्याः । ताः प्रज्ञाप्यन्ते-प्ररूप्यन्ते भगवता सुधर्मस्वामिना जम्बूनामानमभियस्याम् । २. अथवा विविधतया विशेषेण वा आख्यायन्त इति व्याख्या:--अभिलाप्यपदार्थवृत्तयः, ताः प्रज्ञाप्यन्ते यस्याम् । ३. अथवा व्याख्यानाम्-अर्थप्रतिपादनानां प्रकृष्टाः ज्ञप्तयो-ज्ञानानि यस्यां सा व्याख्याप्रज्ञप्तिः । ४,५. अथवा व्याख्याया:-अर्थकथनस्य प्रज्ञायाश्च-तद्धेतुभूतबोधस्य व्याख्यासु वा प्रज्ञाया आप्तिः-प्राप्तिः आत्तिर्वा-आदानं यस्याः सकाशादसौ पूर्वमानाशवरमणलक्षणरिपुबलदलनाय दहापटप्रतिरवापूर्णदिक्चक्रवालस्यातापुच्छस्य कालाधष्टप्रकारप्रवचनातयदन्तमुशलस्य निश्चय १. सर्वीय ख.ग.घ.च.छ. २ वियाह ख.च.छ. विवाह ग.घ. ३. उपसर्ग ख.ग.घ.घ.छ. ४. ज्ञान ........ नयनयन ....... ग. ५. कालाधटप्रकारवचनो ......... घ. ६. उत्सर्गापवादसमुच्छलद ग. ७. बलनियुक्तकल्पगण ......... क.ग. ८. दिविवरण च. ६. संघटनेन ख.च.छ. १०. वियाहपण्णत्ति ख.ग.घ.च.छ. ११.xक.च.छ. Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.१: सू.१ ३४२ भगवती वृत्ति व्याख्याप्रज्ञाप्तिाख्याप्रज्ञात्तिर्वा व्याख्याप्रज्ञाद्वा भगवतः सकाशादाप्तिरात्तिर्वा गणधरस्य यस्याः सा तथा। ६. अथवा विवाहा-विविधा विशिष्टा वाऽर्थप्रवाहा नयप्रवाहा वा प्रज्ञाप्यन्ते—प्ररूप्यन्ते प्रबोध्यन्ते वा यस्यां, विवाहा वा-विशिष्टसन्ताना । ७,८. विबाधा वा-प्रमणाबाधिता प्रज्ञा आप्यन्त यस्याः । विवाहा चासौ विबाधा चासौ प्रज्ञप्तिश्च-अर्थप्रज्ञप्तिश्चार्थप्ररूपणा=विवाहप्रज्ञप्तिर्विवाहप्रज्ञाप्तिः विबाधप्रज्ञप्तिर्विबाधप्रज्ञाप्तिर्वा ।' ६. इयं च भगवतीत्यपि पूज्यत्वेनाभिधीयते इति। इह व्याख्यातारः शास्त्रव्याख्यानारम्भे फलयोगमङ्गलसमुदायादीनि द्वाराणि वर्णयन्ति । तानि चेह व्याख्यायां विशेषावश्यकादिभ्योऽवसेयानि । शास्त्रकारास्तु विघ्नविनायकोपशमननिमित्तं विनेयजनप्रवर्त्तनाय च शिष्टजनसमयसमाचरणाय वा मड़लाभिधेयप्रयोजनसम्बन्धानुदाहरन्ति। तत्र च सकलकल्याणकारणतयाऽधिकृतशास्त्रस्य श्रेयोभूतत्वेन विघ्नः संभवतीति तदुपशमनाय मङ्गलान्तरव्यपोहेन भावमङ्गलमुपादेयम्, मङ्गलान्तरस्यानैकान्तिकत्वादनात्यन्तिकत्वाच्च । भावमङ्गलस्य तु तद्विपरीततयाऽभिलषितार्थसाधनसमर्थत्वेन पूज्यत्वात् । आह च "किं पुण तमणेगंतियमचंतं च ण जओऽमिहाणाई। तबिवरीयं मावे तेण विसेसेण तं पुजं॥" भावमङ्गलस्य च तपःप्रभृतिभेदभिन्नत्वेनानेकविधत्वेऽपि परमेष्ठिपञ्चकनमस्काररूपं विशेषेणोपादेयम्, परमेष्ठिनां मङ्गलवलोकोत्तमत्वशरण्यत्वाभिधानात्, आह च–वत्तारि मंगलमित्यादि । तन्नमस्कारस्य च सर्वपापप्रणाशकत्वेन सर्वविघ्नोपशमहेतुत्वात्, आह च "एष पञ्चनमस्कारः, सर्वपापप्रणाशनः । मङ्गलानां च सर्वेषां, प्रथमं भवति मङ्गलम्।।" अत एवायं समस्तश्रुतस्कन्धानामादावुपादीयते। अत एव चायं तेषामभ्यन्तरतयाऽभिधीयते, यदाह-'सो सव्वसुयक्खंधऽब्यंतरभूओ'त्ति, अतः शास्त्रस्यादावेव' परमेष्ठिपञ्चकनमस्कारमुपदर्शयन्नाहनमो अरहंताणमित्यादि, तत्र नम इति नैपातिकं पदं द्रव्यभावसङ्कोचार्थम्। आह च–'नेवाइयं पयं दव्वभावसंकोयण पयत्यो'। 'नमः' करचरणमस्तकसुप्रणिधानरूपो नमस्कारो भवत्वित्यर्थः, केभ्य इत्याह-'अर्हद्यः' अमरवरविनिर्मिताशोकादिमहाप्रातिहार्यरूपां पूजामर्हन्तीत्यर्हन्तः, यदाह "अरहति वंदणनमंसणाणि अरहंति पूयसकारं । सिद्धिगमणं च अरहा अरहंता" तेण बुचंति ।।" अतस्तेभ्यः । इह च चतुर्थ्यर्थे षष्ठी प्राकृतशैलीवशात् । अविद्यमानं वा रह:-एकान्तरूपो देशः अन्तश्च-मध्यं गिरिगुहादीनां, सर्ववेदितया समस्तवस्तुस्तोमगतप्रच्छन्नत्वस्याभावेन येषां ते अरहोऽन्तरः अतस्तेभ्योऽरहोऽन्तयः, अथवा अविद्यमानो रथः-स्यन्दनः सकलपरिग्रहोपलक्षणभूतोऽश्च-विनाशो जराद्युपलक्षणभूतो येषां ते अरधान्ता अतस्तेभ्यः। अथवा 'अरहंताणं ति क्वचिदप्यासक्तिमगच्छद्र्यः क्षीणरागत्वात्। अथवा अरहयद्भ्यः-प्रकृष्टरागादिहेतुभूतमनोज्ञेतरविषयसंपर्केऽपि वीतरागत्वादिकं स्वं स्वभावमत्यजद्भय इत्यर्थः । 'अरिहंताणं'ति पाठान्तरं, तत्र कर्मारिहन्तभ्यः, आह च "अविहंपि व कम्मं अरिभूयं होइ सयलजीवाणं । तं कम्ममरि" हंता, अरिहंता तेण वुचंति ॥" 'अरुहंताण' मित्यपि पाठान्तरं, तत्र 'अरोहद्भयः' अनुपजायमानेभ्यः क्षीणकर्मवीजत्वात्, आह च "दग्ये बीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नाङ्कुरः । कर्मबीचे तथा दग्ये, न रोहति भवाङ्कुरः ।। १ ॥" नमस्करणीयता चैषां भीमभवगहनभ्रमणभीतभूतानामनुपमानन्दरूपपरमपदपुरपथप्रदर्शकत्वेन परमोपकारित्वादिति । 'नमो सिद्धाणं'ति, सितं-बद्धमष्टप्रकार" कर्मेन्धनं मातं-दग्धं जाज्वल्यमानशुक्लध्यानानलेन यैस्ते निरुक्तविधिना सिद्धाः । १.आप्यन्ते २. xच. ३. क.ख.ग.प.च.छ. संकेतितादर्शेषु पाठविपर्ययो दृश्यते-विवाधप्रज्ञाप्तिर्विवा- धप्रज्ञप्तिा ४. यहां टीकाकार ने मूल प्राकृत पाठ न देकर उसका संस्कृत रूप उद्धृत किया दी गई है। ७. पदं ख. घ. छ .. संकोअण ग ६,१०. अरिहंति क ११. अरिहंता छ १२. कम्ममरि क.ख. घ. च. छ १३. प्रकार क. घ. च. छ ५. शास्त्रादावेव ख ६. सूत्र से पहले जो संख्या दी गई है, वह अंगसुत्ताणि भाग २ के आधार पर Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ३४३ अथवा 'षिधु गतौ' इति वचनात् सेधन्ति स्म - अपुनरावृत्त्या निर्वृतिपुरीमगच्छन् । अथवा 'षिधु संराद्धौ' इतिवचनात् सिद्धयन्ति स्म - निष्ठितार्था भवन्ति स्म । अथवा 'षिधूञ् शास्त्रे माङ्गल्ये चे 'तिवचनात् सेधन्ति स्म - शासितारोऽभूवन् माङ्गल्यरूपतां चानुभवन्ति स्मेति सिद्धाः । अथवा सिद्धाः – नित्याः अपर्यवसानस्थितिकत्वात्, प्रख्याता वा भव्यैरुपलब्धगुणसन्दोहत्वात्, आह च"मातं सितं येन पुराणकर्म्म, यो वा गतो निर्वृतिसोधमूर्ध्नि । ख्यातोऽनुशास्ता परिनिष्ठतार्यो यः सोऽस्तु सिद्धः कृतमङ्गलो मे ।। " अतस्तेभ्यो नमः । नमस्करणीयता चैषामविप्रणाशिज्ञानदर्शनसुखवीर्यादिगुणयुक्ततया' स्वविषयप्रमोदप्रकर्षोत्पादनेन भव्यानामतीवोपकारहेतुत्वादिति । 'नमो आयरियाणं' ति आ — मर्यादया तद्विषयविनयरूपया चर्यन्ते - सेव्यन्ते जिनशासनार्थोपदेशकतया तदाकांङ्क्षिभिरित्याचार्याः, उक्तञ्च - " सुत्तत्थविऊ लक्खणत्तो गच्छस्स मेटिभूओ य । गणतत्तिविष्यमुको अत्थं वाएइ आयरिओ ।।" त्ति । अथवा आचारो - ज्ञानाचारादिः पञ्चधा, आ-मर्यादया वा चारो-विहार आचारस्तत्र साधवः स्वयंकरणात् प्रभाषणात् प्रदर्शनाच्चेत्याचार्याः आह च अथवा आ-ईषद् अपरिपूर्णा इत्यर्थः, चारा - हेरिका ये ते आचाराः, चारकल्पा इत्यर्थः, युक्तायुक्तविभागनिरूपणनिपुणा विनेयाः अतस्तेषु साधवो यथावच्छास्त्रार्थोपदेशकतया इत्याचार्या अतस्तेभ्यः । ""पंचविहं आयारं आयरमाणा तहा पहासिंता । आयारं दंसिंता आयरिया तेण वुच्यंति ।।" नमस्यता चैषामाचारोपदेशकतयोपकारित्वात् । 'नमो उवज्झायाणं 'ति उपं - समीपमागत्याधीयते 'इङ् अध्ययने' इतिवचनात् पठ्यते । 'इण गता' वितिवचनाद्वा अधि-आधिक्येन गम्यते, 'इक् स्मरणे' इति वचनाद्वा स्मर्यते सूत्रतो जिनप्रवचनं येभ्यस्ते उपाध्यायाः, यदाह ''बारसंगो जिणक्खाओ, सज्झाओ कहिओ बुहे । तं वइति जम्हा, उवज्झाया तेण बुच्चति ।।" श. १: उ.१: सू.१ अथवा उपाधानमुपाधिः–—–—संनिधिस्तेनोपाधिना उपाधौ वा आयो - लाभः श्रुतस्य येषामुपाधीनां वा - विशेषणानां प्रक्रमाच्छोभनानामायो – लाभो येभ्यः । अथवा उपाधिरेव - संनिधिरेव आयम् - इष्टफलं दैवजनितत्वेन, आयानाम् - इष्टफलानां समूहस्तदेकहेतुत्वाद्येषाम् । अथवा आधीनां मनः पीडानामायो - लाभ आध्यायः अधियां वा नञः कुत्सार्थत्वात् कुबुद्धीनामायोऽध्यायः 'ध्यै चिन्तायाम्' इत्यस्य धातोः प्रयोगान्नञः कुत्सार्थत्वादेव च दुर्ध्यानं वाऽध्यायः, उपहत आध्यायः अध्यायो वा यैस्ते उपाध्यायाः । अतस्तेभ्यः । नमस्यता चैषां सुसंप्रदायायातजिनवचनाध्यापनतो विनयनेन भव्यानामुपकारित्वादिति । 'नमो सव्यसाहूणं 'ति, साधयन्ति ज्ञानादिशक्तिभिर्मोक्षमिति साधवः, समतां वा सर्वभूतेषु ध्यायन्तीति निरुक्तिन्यायात्साधवः, यदाह ''निव्वाणसाहए जोए, जम्हा साहेति साहुणो । समाय सब्बभूएस, तम्हा ते भावसाहुणो ॥ " १. x क. घ च छ २. पयासंता छ पहासितो च साहायकं वा संयमकारिणां धारयन्तीति साधवः, निरुक्तेरेव, सर्वे च ते सामायिकादिविशेषणाः प्रमत्तादयः पुलाकादयो वा जिनकल्पिकप्रतिमाकल्पिकयथालन्दककल्पिकपरिहारविशुद्धिकल्पिकस्थविरकल्पिकस्थितकल्पिकास्थितकल्पिकक ल्पातीतभेदाः प्रत्येकबुद्धस्वयम्बुद्धबुद्धबोधितभेदा भारतादिभेदाः सुषमदुष्षमादिविशेषिता वा साधवः सर्वसाधवः । सर्वग्रहणं च सर्वेषां गुणवतामविशेषनमनीयताप्रतिपादनार्थम् । इदं चार्हदादिपदेष्वपि बोद्धव्यं, न्यायस्य समानत्वादिति । अथवा सर्वेभ्यो जीवेभ्यो हिताः सार्वास्ते च ते साधवश्च सार्वस्य वा - अर्हतो न तु बुद्धादेः साधवः सार्वसाधवः सर्वान् वा शुभयोगान् साधयन्ति - कुर्वन्ति । सार्व्वान् वा - अर्हतः साधयन्ति - तदाज्ञाकरणादाराधयन्ति प्रतिष्ठापयन्ति वा दुर्नयनिराकरणादिति सर्व्वसाधवः सार्वसाधवो वा । अथवा श्रव्येषु श्रवणार्हेषु वाक्येषु, अथवा सव्यानि – दक्षिणान्यनुकूलानि यानि कार्याणि तेषु साधवो - निपुणाः श्रव्यसाधवः सव्यसाधवो ३. संता क. छ ४. साहंति ख. ग. च. छ ५. x ख. ग. च. छ ६. स्थितास्थितकल्पिक क. ख. ग. च. छ ७. सुखमदुःखमादि ख. घ. छ. Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१ उ.१: सू.१-३ ३४४ भगवती वृत्ति वाऽतस्तेभ्यः। 'नमो लोए सव्वसाहूणति क्वचित्पाठः, तत्र 'सर्व' शब्दस्य देशसर्वतायामपि दर्शनादपरिशेषसर्वतोपदर्शनार्थमुच्यते-'लोके' मनुष्यलोके न तु गच्छादौ ये सर्वसाधवस्तेभ्यो नम इति । एषां च नमनीयता मोक्षमार्गसाहायककरणेनोपकारित्वात्, आह च "असहाए सहायत्तं करेंति मे संजमं करेंतस्स । एएण कारणेणं णमामिऽहं सव्वसाहूणं || ति। ननु यद्ययं सक्षेपेण नमस्कारस्तदा सिद्धसाधूनामेव युक्तः, तद्ग्रहणेऽन्येषामप्यर्हदादीनां ग्रहणात्, यतोऽहंदादयो न साधुत्वं व्यभिचरन्ति । अथ विस्तरेण तदा ऋषभादिव्यक्तिसमुच्चारणतोऽसौ वाच्यः स्यादिति । नैवं, यतो न साधुमात्रनमस्कारेऽहंदादिनमस्कारफलमवाप्यते, मनुष्यमात्रनमस्कारे राजादिनमस्कारफलवदिति कर्तव्यो विशेषतोऽसौ, प्रतिव्यक्ति तु नासौ वाच्योऽशक्यत्वादेवेति । ननु यथाप्रधानन्यायमङ्गीकृत्य सिद्धादिरानुपूर्वी युक्ताऽत्र, सिद्धानां सर्वथाकृतकृत्यत्वेन सर्वप्रधानत्वात् । नैवम्, अहंदुपदेशेन सिद्धानां ज्ञायमानत्वादर्हतामेव च तीर्थप्रवर्तनेनात्यन्तोपकारित्वादित्यहंदादिरेव सा।। नन्वेवमाचार्यादिः सा प्राप्नोति, क्वचित्काले आचार्येभ्यः सकाशादर्हदादीनां ज्ञायमानत्वादिति, अत एव च तेषामेवात्यन्तोपकारित्वात् । नैवम्, आचार्याणामुपदेशदानसामर्थ्यमर्हदुपदेशत एव, न हि स्वतंत्रा आचार्यादय उपदेशतोऽर्थज्ञापकत्वं प्रतिपद्यन्ते अतोऽर्हन्त एव परमार्थेन सर्वार्थज्ञापकाः, तथा अर्हत्परिषद्पा एवाचार्यादयोऽतस्तान् नमस्कृत्याहन्नमस्करणमयुक्तम्, उक्तं च "ण य कोइवि परिसाए पणमित्ता पणवए रनो"त्ति एवं तावत्परमेष्ठिनो नमस्कृत्याधुनातनजनानां श्रुतज्ञानस्यात्यन्तोपकारित्वात् तस्य च द्रव्यभावश्रुतरूपत्वात् भावश्रुतस्य च द्रव्यश्रुत हेतुकत्वात्सज्ज्ञाऽक्षररूपं द्रव्यश्रुतं नमस्कुर्वन्नाह११२. णमो बंभीए लिवीए'त्ति । लिपिः-पुस्तकादावक्षरविन्यासः सा चाष्टादशप्रकाराऽपि श्रीमन्नाभेयजिनेन स्वसुताया ब्राह्मीनामिकाया दर्शिता ततो ब्राह्मीत्यभिधीयते. आह च"लेहं लिवीविहाणं जिणेणं बंभीई दाहिणकरेणं''इत्यतो ब्राह्मीतिस्वरूपविशेषणं लिपेरिति। ननु अधिकृतशास्त्रस्यैव मङ्गलत्वात् किं मङ्गलेन ? अनवस्थादिदोषप्राप्तेः । सत्यं, किन्तु शिष्यमतिमङ्गलपरिग्रहार्थं मङ्गलोपादानं शिष्टसमयपरिपालनाय चेत्युक्तमेवेति । अभिधेयादयः पुनरस्य सामान्येन व्याख्याप्रज्ञप्तिरिति नाम्नैवोक्ता इति ते पुनर्नोच्यन्ते, तत एव श्रोतृप्रवृत्त्यादीष्टफलसिद्धेः, तथाहि इह भगवतोऽर्थव्याख्या अभिधेयतया उक्ताः, तासां च प्रज्ञापना बोधो वाऽनन्तरफलं, परम्पराफलं तु मोक्षः, स चास्याऽऽप्तववनत्वादेव फलतया सिद्धो, न ह्याप्तः साक्षात् पारम्पर्येण वा यन्न मोक्षाङ्गं तत्प्रतिपादयितुमुत्सहते, अनाप्तत्वप्रसङ्गात्। तथाऽयमेव सम्बन्धो यदुतास्य शास्त्रस्येदं प्रयोजनमिति । तदेवमस्य शास्त्रस्यैकश्रुतस्कन्धरूपस्य सातिरेकाध्ययनशतस्वभावस्य उद्देशकदशसहस्रीप्रमाणस्य षट्त्रिंशत्प्रश्नसहस्रपरिमाणस्य अष्टाशीतिसहस्राधिकलक्षद्वयप्रमाणपदराशेर्मङ्गलादीनि दर्शितानि । अथ प्रथमे शते ग्रन्थान्तरपरिभाषयाऽध्ययने दशोद्देशका भवन्ति । उद्देशकाश्च-अध्ययनार्थदेशाभिधायिनोऽध्ययनविभागाः, उद्दिश्यन्तेउपधानविधिना शिष्यस्याचार्येण यथैतावन्तमध्ययनभागमधीष्वेत्येवमुद्देशास्त एवोद्देशकाः, तांश्च सुखधरणस्मरणादिनिमित्तमाद्याभिधेयाभिधानद्वारेण संग्रहीतुमिमां गाथामाह-'रायगिहे'त्यादि । अधिकृतगाथार्थो यद्यपि वक्ष्यमाणोद्देशकदशकाभिगमे स्वयमेवावगम्यते तथापि बालानां सुखावबोधार्थमभिधीयते तत्र 'रायगिहेति लुप्तसप्तम्येकवचनत्वाद्राजगृहे नगरे वक्ष्यमाणोद्देशकदशकस्याथों भगवता श्रीमहावीरेण दर्शित इति व्याख्येयम् । एवमन्यत्रापीष्टविभक्त्यन्तताऽवसेया । 'चलण'ति चलनविषयः प्रथमोद्देशकः 'चलमाणे चलिए' इत्याद्यर्थनिर्णयार्थइत्यर्थः। 'दुक्खे'त्ति दुःखविषयो द्वितीयः, 'जीवो भदन्त ! स्वयंकृतं दुःखं वेदयती' त्यादिप्रश्ननिर्णयार्थ इत्यर्थः । 'कंखपओसे''ति कांक्षा-मिथ्यात्वमोहनीयोदयसमुत्थोऽन्यान्यदर्शनग्रहरूपो जीवपरिणामः स एव प्रकृष्टये दोषो-जीवदूषणं कांङ्क्षाप्रदोषस्तद्विषयस्तृतीयः। जीवेन भदन्त! कांक्षामोहनीयं कर्म कृतमित्याद्यर्थनिर्णयार्थः । चकारः समुच्चये। 'पगइ'त्ति प्रकृतयः-कर्मभेदाश्चतुर्थोद्देशकस्यार्थः, कति भदन्त ! कर्मप्रकृतयः ? इत्यादिश्चासौ । 'पुढवीओ'त्ति रलप्रभादिपृथिव्यः पञ्चमे वाच्याः, 'कति भदन्त! पृथिव्यः ?' इत्यादि च सूत्रमस्य। 'जावन्ते'त्ति यावच्छब्दोपलक्षितः षष्ठः, 'यावतो भदन्त ! अवकाशान्तरात्सूर्य' इत्यादिसूत्रश्चासौ । 'नेरइए'त्ति नैरयिकशब्दोपलक्षितः सप्तमः नैरयिको भदन्त ! निरये उत्पद्यमान' इत्यादि च तत्सूत्रम् । 'बाले'त्ति बालशब्दोपलक्षितोऽष्टमः, एकान्तबालो भदन्त ! मनुष्य' इत्यादिसूत्रश्चासौ। 'गुरुए'त्ति गुरुकविषयो नवमः, कथं भदन्त! जीवा गुरुकत्वमागछन्ति?' इत्यादि च सूत्रमस्य । चः समुच्चयार्थः । 'चलणाओ'त्ति बहुवचननिर्देशाच्चलनाद्या दशमोद्देशकस्यार्थाः, तत्सूत्रं चैवम्-'अन्ययूथिका भदन्त ! एवमाख्यान्ति चलत् अचलितमित्यादी ति प्रथमशतोद्देशकसङ्ग्रहणीगाथार्थः । तदेवं शास्त्रोद्देशे कृतमङ्गलादिकृत्योऽपि प्रथमशतस्यादौ विशेषतो मङ्गलमाह१३. 'नमो सुयस्स'त्ति नमस्कारोऽस्तु' 'श्रुताय' द्वादशाङ्गीरूपायाहत्प्रवचनाय । १. करिति ख. ग. घ. २.x क. ३. बंभीए ख. ग. च. ४. प्रमाणस्य क. ५. पाओसत्ति च पाओसित्ति ग ६. x ख ७. ति ग. घ. छ. Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवता वृत्ति ३४५ नन्विष्टदेवतानमस्करो मङ्गलार्थो भवति, न च श्रुतमिष्टदेवतेति कथमयं मङ्गलार्थ इति ? अत्रोच्यते--श्रुतमिष्टदेवतैव, अर्हतां नमस्करणीयत्वात, सिद्धवत्, नमस्कुर्वन्ति च श्रुतमर्हन्तो-'नमस्तीर्थायेति भणनात्। तीर्थं च श्रुतं संसारसागरोत्तरणासाधारणकारणत्वात्, तदाधारत्वेनैव च सङ्घस्य तीर्थशब्दाभिधेयत्वात् । तथा सिद्धानपि मङ्गलार्थमर्हन्तो नमस्कुर्वन्त्येव "काऊण नमोकारं सिद्धाणमभिग्गहं तु सो गिण्हे" इति वचनादिति । एवं तावत्प्रथमशतोद्देशकाभिधेयार्थलेशः प्राग्दर्शितः, ततश्च 'यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायमाश्रित्यादितः प्रथमोद्देशकार्थप्रपञ्चो वाच्यः । तस्य च गुरुपर्वक्रमलक्षणं सम्बन्धमुपदर्शयन् भगवान् सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनमाश्रित्येदमाह१॥४. 'तेणं कालेणं तेणं समएण' मित्यादि, अथ कथमिदमवसीयते यदुत-सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनमभिसंबन्धग्रन्थममु मुक्तवानिति ? उच्यते, सुधर्मस्वामिवाचनाया एवानुवृत्तत्वात्, आह च ___ "तित्थं च सुहम्माओ निरवचा गणहरा सेसा।" सुधर्मस्वामिनश्च जम्बूस्वाम्येव प्रधानः शिष्योऽतस्तमाश्रित्येयं वाचना प्रवृत्तेति । तथा षष्ठाड़े उपोद्घात एवं दृश्यते-यथा किल सुधर्मस्वामिनं प्रति जम्बूनामा प्राह-"जइ णं भंते ! पंचमस्स अंगस्स विवाहपन्नत्तीए समणेणं भगवया महावीरेणं अयमढे पन्नत्ते, छट्टरस णं भंते ! के अट्टे पन्नत्ते ?"त्ति तत एवमिहापि सुधम्र्मैव जम्बूनामानं प्रत्युपोद्घातमवश्यमभिहितवानित्यवसीयत इति। अयं चोपोद्घातग्रन्थो मूलटीकाकृता समस्तं शास्त्रमाश्रित्य व्याख्यातोऽप्यस्माभिः प्रथमोद्देशकमाश्रित्य व्याख्यास्यते । प्रतिशतं प्रत्युद्देशकमुपोद् घातस्येह शास्त्रऽनेकधाऽभिधानादिति। अयं च प्राग्व्याख्यातो नमस्कारादिको ग्रन्थो वृत्तिकृता न व्याख्यातः कुतोऽपि कारणादिति । 'ते णं काले णं'ति, ते इति-प्राकृतशैलीवशात्तस्मिन् यत्र तन्नगरमासीत् । णंकारोऽन्यत्रापि वाक्यालङ्कारार्थो यथा “इमा णं भंते ! पुढवी" त्यादिषु । 'काले' अधिकृतावसर्पिणीचतुर्थविभागलक्षण इति, 'ते ण ति तस्मिन् यत्रासौ भगवान् धर्मकथामकरोत् । 'समए णं'ति समये-कालस्यैव विशिष्टे विभागे, अथवा तृतीयैवेयं, ततस्तेन कालेन हेतुभूतेन तेन समयेन हेतुभूतेनैव । 'रायगिहे'ति एकारः प्रथमैकवचनप्रभव: "कयरे आगच्छइ दित्तरूवे" इत्यादाविव। ततश्च राजगृहं नाम नगरं 'होत्थ'त्ति अभवत् । नन्विदानीमपि तन्नगरमस्तीत्यतः कधमुक्तमभवदिति ?, उच्यते-वर्णकग्रन्थोक्तविभूतियुक्तं तदैवाभवत् न तु सुधर्मस्वामिनो वाचनादानकाले, अवसर्पिणीत्वात्कालस्य तदीयशुभभावानां हानिभावात् । 'वनओ'त्ति इह स्थानके नगरवर्णको वाच्यः । ग्रन्थगौरवभयादिह तस्यालिखितत्वात्, स चैवम् 'रिद्धस्थिमियसमिद्धे' ऋद्धं-पुरभवनादिभिर्वृद्धं स्तिमितं-स्थिरं स्वचक्रपरचक्रादिभयवर्जितत्वात् समृद्धं-धनधान्यादिविभूतियुक्तत्वात्, ततः पदत्रयस्य कर्ममधारयः, ‘पमुइयजणजाणवए' प्रमुदिता-हृष्टाः प्रमोदकारणवस्तूनां सद्भावाजना-नगरवास्तव्यलोका जानपदाश्व-जनपदभवास्तत्रायाताः सन्तो यत्र तत् प्रमुदितजनजानपदमित्यादिरौपपातिकात् सव्याख्यानोऽत्र दृश्यः । 'तस्स णं'ति षष्ट्याः पञ्चम्यर्थत्वात्तस्माद्राजगृहानगरात् 'बहिय'त्ति बहिस्तात् 'उत्तरपुरस्थिमे'त्ति उत्तरपौरस्त्ये 'दिसीभाए'त्ति दिशां भागो दिग्रुपो वा भागो गगनमण्डलस्य दिग्भागस्तत्र 'गुणसिलकं' नाम 'चेइयंति चितेर्लेप्यादिचयनस्य भावः कर्म वेति चैत्यं-सज्ञाशब्दत्वाद्देवविम्बं तदाश्रयत्वात्तद्गृहमपि चैत्यं, तच्चेह व्यन्तरायतनं न तु भगवतामर्हतामायतनं 'होत्यत्ति बभूव, इह च यन्न व्याख्यास्यते तप्रायः सुगमत्वादित्यवसेयमिति। 'तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे......' ‘समणे'त्ति 'श्रमु तपसि खेदे चेति वचनात् श्राम्यति-तपस्यीति श्रमणः । अथवा सह शोभनेन मनसा वर्तत इति समनाः, शोभनत्वं च मनसो व्याख्यातं स्तवप्रस्तावात्, मनोमात्रसत्त्वस्यास्तवत्वात् । ५ संगतं वा-यथा भवत्येवमणति-भाषते समो वा सर्वभूतेषु सन् अणति-अनेकार्थत्वाद्धातूनां प्रवर्तत इति समणो निरुक्तिवशाद् । 'भगवं'त्ति भगवान्-ऐश्वर्यादियुक्तः पूज्य इत्यर्थः । ‘महावीरे' त्ति वीरः 'सूर वीर विक्रान्ता वितिवचनात् रिपुनिराकरणतो विक्रान्तः, स च चक्रवादिरपि स्यादतो विशेष्यते-महांश्चासौ दुर्जयान्तररिपुतिरस्करणाद्वीरश्चेति महावीरः । एतच्च देवैर्भगवतो गौणं नाम कृतं, यदाह "अयले भयमेरवाणं खंतिक्खमे परिसहोवसग्गाणं । देवेहिं (से नाम) कयं (समणे भगवं) महावीरेत्ति।।" 'आदिकरे'त्ति आदौ-प्रथमतः श्रुतधर्मम्-आचारादिग्रन्थात्मकं करोति-तदर्थप्रणायकत्वेन प्रणयतीत्येवंशील आदिकरः। आदिकरत्वाच्चासौ किंविध इत्याह-'तित्थयरे'त्ति तरन्ति तेन संसारसागरमिति तीर्थ-प्रवचनं तदव्यतिरेकाचेहसङ्घस्तीर्थं तत्करणशीलत्वात्तीर्थकरः। तीर्थकरत्वं चास्य नान्योपदेशपूर्वकमित्यत आह–'सहसंबुद्धे'त्ति, सह-आत्मनैव सार्द्धमनन्योपदेशत इत्यर्थः, सम्यग्-यथावत् बुद्धो-हेयोपादेयोपेक्षणीय वस्तुतत्त्वं विदितवानिति सहसंबुद्धः। सहसंबुद्धत्वं चास्य न प्राकृतस्य सतः पुरुषोत्तमत्वादित्यत आह-'पुरिसुत्तमो 'त्ति पुरुषाणां मध्ये तेन तेन १.x क.ख. च. छ. ५. सम्बन्धस्या घ. च. छ. २. व्याख्यायते क.छ. ६. खंतिखमे क. ३. पुरच्छिमेक ७. पुरिसोत्तमो क. ग. घ. ४. चेइअंक. ख. ग. छ, चेइअ छ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.१: सू.७ ३४६ भगवती वृत्ति रूपादिनाऽतिशयेनोद्गतत्वादूर्ध्ववर्तित्वादुत्तमः' पुरुषोत्तमः । अथ पुरुषोत्तमत्वमेवास्य सिंहाधुपमानत्रयेण' समर्थयन्नाह–'पुरिससीहे 'त्ति, सिंह इव सिंहः पुरुषश्चासौ सिंहश्चेति पुरुषसिंहः । लोकेन हि सिंहे शौर्यमतिप्रकृष्टमभ्युपगतमतः शौर्ये स उपमानं कृतः। शौर्यं तु भगवतो बाल्ये प्रत्यनीकदेवेन भाष्यमानस्याप्यभीतत्वात् कुलिशकठिनमुप्रिहारप्रहतिप्रवर्द्धमानामरशरीरकुब्जताकरणाच्चेति । तथा 'पुरिसवरपोंडरीए'त्ति, वरपुण्डरीकंप्रधानधवलसहस्रपत्रं पुरुष एव वरपुण्डरीकमिवेति पुरुषवरपुण्डरीकं, धवलत्वं चास्य भगवतः सर्वाशुभमलीमसरहितत्वात् सर्वेश्च शुभानुभावैः शुद्धत्वात्। अथवा पुरुषाणां-तत्सेवकजीवानां वरपुण्डरीकमिव-वरच्छत्रमिव यः सन्तापातपनिवारणसमर्थत्वात् भूषाकारणत्वाच्च स पुरुषवरपुण्डरीकमिति । तथा 'पुरिसवरगंधहत्थि'त्ति पुरुष एव वरगन्धहस्ती पुरुषवरगन्धहस्ती, यथा गन्धहस्तिनो गन्धेनापि समस्तेतरहस्तिनो भज्यन्ते तथा भगवतस्तद्देशविहरणेन ईतिपरचक्रदुर्भिक्षडमरमरकादीनि दुरितानि नश्यन्तीति पुरुषवरगन्धहस्तीत्युच्यत इत्यत उपमात्रयात्पुरुषोत्तमोऽसौ । न चायं पुरुषोत्तम एव, किन्तु लोकस्याप्युत्तमो लोकनाथत्वाद्, एतदेवाह-'लोगणाहे'त्ति, लोकस्य-सज्ञिभव्यलोकस्य नाथ:-प्रभुर्लोकनाथः, नाथत्वं च योगक्षेमकारित्वं 'योगक्षेमकृन्नाथ' इति वचनात्, तच्चास्याप्राप्तस्य सम्यग्दर्शनादेर्योगकरणेन लब्धस्य च परिपालनेनेति। लोकनाथत्वं च यथाऽवस्थितसमस्तवस्तुस्तोमप्रदीपनादेवेत्यत आह–'लोगपईवे'त्ति लोकस्य-विशिष्टतिर्यग्नरामररूपस्याऽऽन्तरतिमिरनिराकरणेन प्रकृष्टप्रकाशकारित्वात्प्रदीप इव प्रदीपः । इदं विशेषणं द्रष्ट्रलोकमाश्रित्योक्तम्, अथ दृश्यं लोकमाश्रित्याह-'लोगपज्जोयगरे'त्ति, लोकस्य-लोक्यत इति लोकः अनया व्युत्पत्त्या लोकालोकस्वरूपस्य समस्तवस्तुस्तोमस्वभावस्याखण्डमार्तण्डमण्डलमिव निखिलभावस्वभावावभाससमर्थकवलालोकपूर्वकप्रवचनप्रभापटलप्रवर्त्तनेन प्रद्योत द्यप्रकाशं करोतीत्येवंशीलो लोकप्रद्योतकरः। उक्तविशेषणोपेतश्च मिहिरहरिहरहिरण्यगर्भादिरपि तत्तीर्थकमतेन भवतीति कोऽस्य विशेष इत्याशङ्कायां तद्विशेषाभिधानायाह-'अभयदए'त्ति न भयं दयते-ददाति प्राणापहरणरसिकेऽप्युपसर्गकारिणि प्राणिनीत्यभयदयः। अभया वा-सर्वप्राणिभयपरिहारवती दया-अनुकम्पा यस्य सोऽभयदयः । हरिहरमिहिरादयस्तु नैवमिति विशेषः । न केवलमसावपकारिणां तदन्येषां वाऽनर्थपरिहारमात्रं करोत्ति अपि त्वर्थप्राप्तिमपि करोतीति दर्शयन्नाह-'चक्खुदये त्ति चक्षुरिव चक्षुः-श्रुतज्ञानं शुभाशुभार्थविभागोपदर्शकत्वात्, यदाह "चक्षुष्मन्तस्त एवेह, ये श्रुतज्ञानचक्षुषा । सम्यक् सदैव पश्यन्ति, मावान् हेयेतरानराः ॥" तद्दयत इति चक्षुर्दयः । यथाहि लोके कान्तारगतानां चौरैर्विलुप्तधनानां बद्धचक्षुषां चक्षुरुद्घाटनेन चक्षुर्दत्त्वा वाञ्छितमार्गदर्शनेनोपकारी भवति, एवमयमपि संसारारण्यवर्त्तिनां रागादिचौरविलुप्तधर्मधनानां कुवासनाऽऽच्छादितसज्ज्ञानलोचनानां तदपनयनेन श्रुतचक्षुर्दत्त्वा निवार्णमार्ग यच्छन्नुपकारीति दर्शयन्नाह–'मग्गदए'त्ति, मार्ग-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकं परमपदपुरपथं दयत इति मार्गदयः । यथा हि लोके चक्षुरुद्घाटनं मार्गदर्शनं च कृत्वा चौरादिविलुप्तान निरुपद्रवं स्थान प्रापयन् परमोपकारी भवतीत्येवमयमपीति दर्शयन्नाह –'सरणदए'त्ति शरणं-त्राणं नानाविधोपद्रवोपद्रुतानां तद्रक्षास्थानं, तच्च परमार्थतो निर्वाणं तद्दयत इति शरणदयः । शरणदायकत्वं चास्य धर्मदेशनयैवेत्यत आह–'धम्मदेसए'त्ति धर्म-श्रुतचारित्रात्मकं देशयतीति धर्मदेशकः । 'धम्मदये'त्ति पाठान्तरं, तत्र च धर्मा-चारित्ररूपं दयत इति धर्मादयः । धर्मदेशनामात्रेणापि धर्मदेशक उच्यत इत्यत आह । 'धम्मसारहि' त्ति धर्मरथस्य प्रवर्तकत्वेन सारथिरिव धर्मसारथिः । यथा रथस्य सारथी रथं रथिकमश्वांश्च रक्षति एवं भगवान् चरित्रधर्माङ्गानां -संयमात्मप्रवचनाख्यानां रक्षणोपदेशाद्धर्मसारथिर्भवतीति। तीर्थान्तरीयमतेनान्येऽपि धर्मसारथयः सन्तीति विशेषयन्नाह-'धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टी'त्ति, त्रयः समुद्राश्चतुर्थश्च हिमवान् एते चत्वारोऽन्ताः-पृथिव्यन्ताः एतेषु स्वामितया भवतीति चातुरन्तः, स चासौ चक्रवर्ती च चातुरन्तचक्रवर्ती वरश्चासौ चातुरन्तचक्रवर्ती च वरचातुरन्तचक्रवर्ती-राजातिशयः । धर्मविषये 'वरचातुरन्तचक्रवर्ती' धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्ती, यथा हि पृथिव्यां शेषराजातिशायी वरचातुरन्तचक्रवर्ती भवति तथा भगवान् धर्मविषये शेषप्रणेतॄणां मध्ये सातिशयत्वात्तथोच्यत इति । अथवा धर्म एव वरमितरचक्रापेक्षया कपिलादिधर्मचक्रापेक्षया वा। चतुरन्तं दानादिभेदेन चतुर्विभागं चतसृणां वा नारकादिगतीनामन्तकारित्वाच्चतुरन्तं तदेव चातुरन्तं। यच्चक्रं भावारातिच्छेदात् तेन वर्तितुं शीलं यस्य स तथा। एतच्च धर्मदेशकत्वादिविशेषेणकदम्बकं प्रकृष्टज्ञानादियोगे सति भवतीत्याह-'अप्पडिहयवरनाणदसणधरे'त्ति अप्रतिहते- कटकुट्यादिभिरस्खलिते अविसंवादके वा अत एव क्षायिकत्वाद्वा वरे-प्रधाने ज्ञानदर्शन केवलाख्ये विशेषसामान्यावबोधात्मके धारयतियः स तथा । छद्मवानप्येवंविधसंवेदनसंपदुपेतः कैश्चिदभ्युपगम्यते, स च मिथ्योपदेशित्वानोपकारी भवतीति निश्छद्मताप्रतिपादनायाऽस्याह। अथवा कथमस्याप्रतिहतसंवेदनत्वं संपन्नम् ? अत्रोच्यते, आवरणाभावाद्, एतमेवास्याऽऽवेदयन्नाह–'वियदृछउमे'त्ति व्यावृत्तं-निवृत्तमपगतं छद्म–शठत्वमावरणं वा यस्यासौ व्यावृत्तछया। छद्माभावश्चास्य रागादिजयाजात इत्यत आह । 'जिणे'त्ति जयति-निराकरोति रागद्वेषादिरूपानरातीनिति जिनः । रागादिजयश्चास्य रागादिस्वरूपतज्जयोपायज्ञानपूर्वक एव भवतीत्येतदस्याह । 'जाणए'त्ति जानाति छाद्मस्थिकज्ञानचतुष्टयेनेति ज्ञायकः । ज्ञायक इत्यनेनास्य स्वार्थसंपत्त्युपाय उक्तः । अधुना तु स्वार्थसंपत्तिपूर्वकं परार्थसंपादकत्वं विशेषणचतुष्टयेनाह-'बुद्धे 'त्ति, बुद्धो जीवादितत्त्वं बुद्धवान् । तथा 'बोहए'त्ति, जीवादितत्त्वस्य परेषां बोधयिता, तथा 'मुत्तेत्ति मुक्तो बाह्याभ्यन्तरग्रन्थिबन्धनेन मुक्तत्वात्। तथा 'मोयए'त्ति परेषां कर्मबन्धनान्मोचयिता। अथ मुक्तावस्थामाश्रित्य विशेषणान्याह-सव्वन्नू सव्वदरिसी'ति सर्वस्य वस्तुस्तोमस्य विशेषरूपतया ज्ञायकत्वेन सर्वज्ञः, सामान्यरूपतया पुनः सर्वदर्शी, न तु मुक्तावस्थायां दर्शनान्तराभिमतपुरुषवद्भविष्यजडत्वम्। एतच्च पदद्वयं क्वचिन्न दृश्यत इति । तथा 'सिवमयल' मित्यादि, तत्र 'शिव' सर्वाऽऽबाधारहितत्वात् । 'अचलं' स्वाभाविकप्रायोगिकचलनहेत्वभावात् । 'अरुजम्' अविद्यमानरोगं तन्निबन्धनशरीरमनसोरभावात्। 'अनन्तम्' अनन्तार्थविषयज्ञानस्वरूपत्वात्। 'अक्षयम्' अनाशं साद्यपर्यवसितस्थितिकत्वात्। अक्षतं वा परिपूर्णत्वात्पौर्णमासीचन्द्रमण्डलवत्। 'अव्याबाध' परेषामपीडाकारित्वात् । 'सिद्धिगइनामधेय'ति । सिध्यन्ति-निष्ठितार्था भवन्ति यस्यां सा सिद्धिः सा चासौ गम्यमानत्वाद्गतिश्च सिद्धिगतिस्तदेव नामधेयं-प्रशस्तं नाम यस्य तत्तथा। 'ठाणं'ति तिष्ठति-अनवस्थाननिबन्धनकर्माभावेन सदाऽवस्थितो १. उद्भूत क.छ. ६. कारि ख. ग. छ. २. उपमा क. च ७. चारित्र क. ग. ३. भाष्यमान घ. ८. नरनारकादि क. ख. ग. च. ४. प्रहत ग. ६. विशेषसामान्यबोधात्मके क. ख. ग. च. छ. ५. उद्योत ख. छ. १०. प्रतिपादनायाऽह ग. घ. Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ३४७ श.१: उ.१: सू.७-६ भवति यत्र तत्स्थानं क्षीणकर्मणो जीवस्य स्वरूपं लोकाग्रं वा । जीवस्वरूपविशेषणानि तु लोकाग्रस्याऽऽधेयधर्माणामाधारेऽध्यारोपादवसेयानि । तदेवंभूतं स्थानं 'संपाविउकामे' ति यातुमनाः, न तु तव्याप्तः तप्राप्तस्याकरणत्वेन विवक्षितार्धानां प्ररूपणाऽसम्भवात् ।' प्राप्तुकाम इति च यदुच्यते तदुपचारात्, अन्यथा हि निरभिलाषा एव भगवन्तः केवलिनो भवन्ति ''मोक्षे भवे च सर्वत्र, निःस्पृहो मुनिसत्तमः।" इति वचनादिति। 'जाव समोसरणं ति, तावद्भगवद्वर्णको वाच्यो यावत्समवसरणं-समवसरणवर्णक इति। स च भगदद्वर्णक एवम्-'भुयमोयग-भिंग नेलकजल-पहट्ठभमरगण-निद्धनिकुरुंबनिचियकुंचियपयाहिणावत्तमुद्धसिरए'। भुजमोचको-रत्नविशेषः भृङ्ग:-कीटविशेषोऽङ्गारविशेषो वा नैलंनीलीविकारः कजलं-मषी प्रहृष्टभ्रमरगणः प्रतीतः एत इव स्निग्धः कृष्णच्छायो निकुरम्बः-समूहो येषां ते तथा ते च ते निचिताश्च-निबिडाः कुञ्चिताश्च-कुण्डलीभूताः प्रदक्षिणावर्ताश्च मूर्द्धनि शिरोजा यस्य स तथा । एवं शिरोजवर्णका "रतुप्पलपत्तमउयसुकुमालकोमलतले"इति पादतलवर्णकान्तः शरीरवर्णको भागवतो वाच्यः । पादतलविशेषणस्य चायमर्थः-रक्त-लोहितम् उत्पलपत्रवत्-कमलदलवत् मृदुकम्-अस्तब्ध सुकुमालानां मध्ये कोमलं च तल–पादतलं यस्य य तथा। तथा "अट्ठसहस्सवरपुरिसलक्खणधरे आगासगएणं चक्केणं आगासगएणं छत्तेणं आगासगयाहिं चामराहिं आगासफलिहामएणं सपायपीढेणं सीहासणेणं" आकाशस्फटिकम्-अतिस्वच्छस्फटिकविशेषस्तन्मयेन उपलक्षित इति गम्यं । 'धम्मज्झएणं पुरओ कड्डिजमाणेणं' देवैरिति गम्यते। 'चउदसहि समणसाहस्सीहिं छत्तीसाए अजियासाहस्सीहिं सद्धिं संपरिखुडे' साहस्रीशब्दः सहस्रपर्यायः सार्द्ध सह, तेषां विद्यमानतयाऽपि सार्द्धमिति स्यादत उच्यते--संपरिदृतः-परिकरित इति । 'पुवाणुपुब्बिं चरमाणे' न पश्चानपूर्व्यादिना 'गामाणुगामं दूइज्जमाणे' ग्रामश्च प्रतीतः अनुग्रामश्च तदनन्तरं ग्रामो ग्रामानुग्रामं तद् 'द्रवन्' गच्छन् 'सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव रायगिहे नगरे जेणेव गुणसिलए चेइए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हइ ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ'त्ति। समवसरणवर्णके च 'समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बहवे समणा भगवंतो अप्पेगइया उग्गपव्वइया' इत्यादि साध्वादिवर्णको वाच्यः । तथाऽसुरकुमाराः शेषभवनपतयो व्यन्तरा ज्योतिष्का वैमानिका देवाश्च भगवतः समीपमागच्छन्तो वर्णयितव्याः । १८. "परिसा निग्गय"त्ति राजगृहाद्राजादिलोको भगवतो वन्दनार्थं निगतः, तन्निर्गमश्चैवम्-"तए णं रायगिहे नगरे सिंघाडगतिग चउक्कचच्चरचउम्मुहमहापहपहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ-एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे इह गुणसिलए चेइए अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। तं सेयं खलु तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं नामगोयस्सवि सवणयाए किमंग पुण वंदणणमंसणयाए ? त्तिकट्ट बहवे उग्गा उग्गपुत्ता इत्यादिर्वाच्यो यावद्भगवन्तं नमस्यन्ति पर्युपासते चेति। एवं राजनिगमोऽन्तःपुरनिर्गमश्च तत्पर्युपासना चौपपातिकवद्वाच्या। 'धम्मो कहिओ'त्ति, धर्मकथेह भगवतो वाच्या, सा चेवं-'तए णं समणे भगवं महावीरे सेणियरस रनो चिल्लणापमुहाण य देवीणं तीसे य महइमहालियाए परिसाए सव्वभासाणुगामिणीए सरस्सईए धम्म परिकहेइ, तंजहा-अस्थि लोए, अस्थि अलोए, एवं जीवा अजीवा बंधे मोक्खे' इत्यादि । तथा "जह णरगा गम्मती जे णरया जा य वेयणा नरए । सारीरमाणसाई दुक्खाई तिरिक्खजोणीए॥" इत्यादि । 'पडिगया परिस'त्ति लोकः स्वस्थानं गतः, प्रतिगमश्च तस्या एवं वाच्यः-'तए णं सा महइमहालिया महचपरिसा' महाऽतिमहती आलप्रत्ययस्य स्वार्थिकत्वादतिशयातिशयगुर्वी महत्पर्षत्-प्रशस्तता प्रधानपरिषत्, महाचर्चानां वा-सत्पूजानां महाा वा पर्षत् महार्चपर्षदिति 'समणरस भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोचा निसम्म हट्टतुट्ठा समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ" करेत्ता वंदइ नमसइ२ एवं वयासीसुयक्खाए णं भंते ! निग्गंथे पावयणे, णत्थि णं अन्ने केइ समणे वा माहणे वा एरिसं धम्ममाइक्खित्तए। एवं वइत्ता जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिशं पडिगय'त्ति। १६. 'तेण मित्यादि तेन कालेन तेन समयेन श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'जेट्टे'त्ति प्रथमः' अंतेवासित्ति शिष्यः। अनेन पदद्वयेन तस्य सकलसङ्घ नायकत्वमाह । 'इंदभूइ'त्ति इन्द्रभूतिरिति मातापितृकृतनामधेयः । 'नाम'ति विभक्तिपरिणामान्नाम्नेत्यर्थः । अन्तेवासी किल विवुक्षया श्रावकोऽपि स्यादित्यत आह–'अणगारे'त्ति, नास्यागारं विद्यत इत्यनगारः । अयं चावगीतगोत्रोऽपि स्यादित्यत आह-'गोयमसगोत्तेणं 'त्ति गौतमसगोत्र इत्यर्थः । अयं च तत्कालोचितदेहमानापेक्षया न्यूनाधिकदेहोऽपि स्यादित्यत आह–'सत्तुस्सेहे'त्ति सप्तहस्तीच्छ्यः । अयं च लक्षणहीनोऽपि स्यादित्यत आह-'समचउरंससंठाणसंठिए'त्ति, समं–नाभेरुपरि अधश्च सकलपुरुषलक्षणोपेतावयवतया तुल्यं तच्च तच्चतुरसंच-प्रधानं समचतुरसम्। अथवा समाः-शरीरलक्षणोक्तप्रमाणाविसंवादिन्यश्चतस्रोऽसयो यस्य तत्समचुरस्रम्। अस्रयस्त्विह चतुर्दिग्भागोपलक्षिताः शरीरावयवा इति । अन्ये त्वाहुः-समा-अन्यूनाधिकाः चतस्रोऽप्यस्रयो यत्र तत्समचतुरस्रम् । अस्रयश्च पर्यङ्कासनोपविष्टस्य जानुनोरन्तरम् आसनस्य ललाटोपरिभागस्य चान्तरं दक्षिणस्कन्धस्य वामजानुनश्चान्तरं वामस्कन्धस्य दक्षिणजानुनश्चान्तरमिति । १. भावात् क.ख. घ. छ. २. नील च ३. पहिट्ट ख ४. भगवतो ख. ग. च. ५. x ख. च. ६. फालिह घ ७. उगह क. ग. घ. छ. ८. उगिण्हित्ता ख. ग. घ. छ. ६. महतिमहती घ. छ. १०. पर्षत् ग. छ. ११. पकरेइ क. ग. घ. छ. १२. गोयमगोतेण घ. च. गोयमे गोतेणं ख. छ. Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तु-कनकस्य न लोहा लवस्तस्य यो निकषः काय च निन्द्यवर्णोऽपि स्थानिय यः पुलको दुतवासादयः पुलकः-सारो वर्णातिशयातका रेखालक्षणः तथा पम्हात पारा, कणयपुलयनियसपम्हगोरे' का मणि संतादहनसमर्थतया प्राकृतपुंसान: । अयं च विशी यः स तथा खा तस्य यसपाणि केशरापनियस श.१: उ.१: सू.६-१० ३४८ भगवती वृत्ति अन्ये त्वाः-विस्तारोत्सेधयोः समत्वात् समचतुरस्रं तच्च तत् संस्थानं च-आकारः समचतुरस्रसंस्थानं तेन संस्थितो-व्यवस्थितो यः स तथा। अयं च हीनसंहननोऽपि स्यादित्यत आह-'वजरिसभनारायसंघयणे" त्ति, इह संहननम्-अस्थिसञ्चयविशेषः । वज्रादीनां लक्षणमिदम् ''रिसहो य होइ पट्टो, वजं पुण कीलियं वियाणाहि । उमओ मक्कडबंधो नारायं तं वियाणाहि ।' ति। तत्र वज्रं च तत् कीलिकाकीलितकाष्ठसंपुटोपमसामर्थ्ययुक्तत्वात् । ऋषभश्च लोहादिमयपट्टबद्धकाष्ठसंपुटोपमसामर्थ्यान्वितत्वाद् । वज्रर्षभः स चासौ नाराचं च उभयतो मर्कटबन्धनिबद्धकाष्ठसंपुटोपमसामोपेतत्वाद् । वज्रर्षभनाराचं (तच) तत् संहननम् ---अस्थिसञ्चयविशेषोऽत्युत्तमसामर्थ्ययोगाद्यस्यासौ वज्रर्षभनाराचसंहननः। अन्ये तु कीलिकादिमत्त्वमस्नामेव वर्णयन्ति । अयं च निन्द्यवर्णोऽपि स्यादित्यत आह–'कणयपुलयनिघसपम्हगोरे' कनकस्य–सुवर्णस्य 'पुलगंति यः पुलको-लवस्तस्य यो निकष:-कषपट्टके रेखालक्षण: तथा 'पम्ह'त्ति पद्मपक्ष्माणि केशराणि तद्वगौरो यः स तथा । वृद्धव्याख्या तु-कनकस्य न लोहादेर्यः पुलक:-सारो वर्णातिशयस्तत्प्रधानो यो निकषो-रेखा तस्य यत्पक्ष्म-बहलत्वं तद्वद्नौरो यः स तथा। अथवा-कनकस्य यः पुलको द्रुतत्वे सति बिन्दुस्तस्य निकषो-वर्णतः सदृशो यः स तथा, 'पम्ह'त्ति पञ तस्य चेह प्रस्तावात्केशराणि गृह्यन्ते ततः पद्मवद्गौरो यः स तथा | ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः । अयं च विशिष्टचरणरहितोऽपि स्यादित्यत आह–'उग्गतवे'ति उग्रम् अप्रधृष्यं तपः-अनशनादि यस्य स उग्रतपाः, यदन्येन प्राकृतपुंसा न शक्यते चिन्तयितुमपि तद्विधेन तपसा युक्त इत्यर्थः । 'दित्ततवे'त्ति, दीप्तं-जाज्वल्यमानदहन इव कर्मवनगहनदहनसमर्थतया ज्वलितं तपो-धर्मध्यानादि यस्य स तथा । 'तत्ततवे'त्ति तप्तं तपो येनासौ तप्ततपाः, एवं हि तेन तत्तपस्तप्तं येन कर्माणि संताप्य तेन तपसा स्वात्माऽपि तपोरूपः संतापितो यतोऽन्यस्यास्पृश्यमिव जातमिति । 'महातवे'त्ति आशंसादोषरहितत्वाप्रशस्ततपाः। 'ओराले'त्ति भीम उग्रादिविशेषणविशिष्टतपःकरणात्पार्श्वस्थानामल्पसत्त्वानां भयानक इत्यर्थः। अन्ये वाहुः-'ओराले' त्ति उदार:-प्रधानः । 'घोरे त्ति घोरः अतिनिर्पणः, परीषहेन्द्रियादिरिपुगणविनाशमाश्रित्य निर्दय इत्यर्थः। अन्ये त्वात्मनिरपेक्ष घोरमाहुः । 'घोरगणे 'त्ति, घोराअन्यैर्दुरनुचरा गुणा--मूलगुणादयो यस्य स तथा। 'घोरतवस्सि'त्ति घोरैस्तपोभिस्तपस्वीत्यर्थः। 'घोरबंभचेरवासित्ति घोर-दारुणमल्पसत्त्वैर्दुरनुचरत्वाद्यद्ब्रहाचर्य तत्र वस्तुं शीलं यस्य स तथा। 'उच्छूढसरीरे'त्ति उच्छूढम्-उज्झितमिवोज्झितं शरीरं येन तत्संस्कारत्यागात् स तथा। 'संखित्तविउलतेयलेसे'त्ति संक्षिप्ता-शरीरान्तर्लीनत्वेन ह्रस्वतां गता विपुला-विस्तीर्णा अनेकयोजनप्रमाणक्षेत्राश्रितवस्तुदहनसमर्थत्वात्तेजोलेश्या-विशिष्टतपोजन्यलब्धिविशेषप्रभवा तेजोज्वाला यस्य स तथा । मूलटीकाकृता तु 'उच्छूटसरीरसंखित्तविउलतेयलेसे'त्ति कर्मधारयं कृत्वा व्याख्यातमिति। 'चउद्दसपुब्धि'त्ति चतुर्दश पूर्वाणि विद्यन्ते यस्य तेनैव तेषां रचितत्वादसौ चतुर्दशपुर्वी । अनेन तस्य श्रुतकेवलितामाह, स चावधिज्ञानादिविकलोऽपि स्यादत आह–'चउणाणोवगए'त्ति, केवलज्ञानवर्जज्ञानचतुष्कसमन्वित इत्यर्थः । उक्तविशेषणद्वययुक्तोऽपि कश्चिन्न समग्रश्रुतविषयव्यापिज्ञानो भवति चतुर्दशपूर्वविदां षट्स्थानकपतितत्वेन श्रवणादित्यत आह–'सव्वक्खरसन्निवाइ'त्ति, सर्वे च तेऽक्षरसन्निपाताश्च तत्संयोगाः सर्वेषां वाऽक्षराणां सन्निपाताः सर्वाक्षरसन्निपातास्ते यस्य ज्ञेयतया सन्ति स सर्वाक्षरसन्निपाती। श्रव्याणि वाश्रवणसुखकारीणि अक्षराणि साङ्गत्येन नितरां वदितुं शीलमस्येति श्रव्याक्षरसंनिवादी। स चैवंगुणविशिष्टये भगवान् विनयराशिरिव साक्षादितिकृत्वा शिष्याचारत्वाच्च ‘समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते विहरतीति योगः' तत्र दूरं च-विप्रकृष्टं सामन्तं च-संनिकृष्टं तनिषेधाददूरसामन्तं तत्र, नातिदूरे नातिनिकट इत्यर्थः। किंविधः संस्तत्र विहरतीत्याह-'उद्दजाणु'त्ति ऊर्ध्वं जानुनी यस्यासावूदुर्ध्वजानुः शुद्धपृथिव्यासनवर्जनादौपग्रहिकनिषद्याया अभावाच्चोत्कुटुकासन इत्यर्थः । 'अहोसिरे'त्ति अधोमुखः नोज़ तिर्यग्वा विक्षिप्तदृष्टिः, किन्तु नियतभूभागनियमितदृष्टिरिति भावः। 'झाणकोट्टोवगए'त्ति यानं-धर्म्य शुक्लं वा तदेव कोष्ठ:-कुशूलो ध्यानकोष्ठस्तमुपगतः-तत्र प्रविष्टो ध्यानकोठोपगतः, तथा हि कोष्ठके धान्यं प्रक्षिप्तमविप्रसृतं भवति एवं स भगवान् ध्यानतोऽविप्रकीर्णेन्द्रियान्तः करणवृत्तिरिति । 'संजमेणं'ति संवरेण । 'तवस'त्ति अनशनादिना, चशब्दः समुच्चयार्थो लुप्तोऽत्र द्रष्टव्यः । संयमतपोग्रहणं चानयोः प्रधानमोक्षाङ्गत्वख्यापनार्थं, प्रधानत्वं च संयमस्य नवकर्मानुपादानहेतुत्वेन तपसश्च पुराणकर्मनिर्जरणहेतुत्वेन । भवति चाभिनवकर्मानुपादानात् पुराणकर्मक्षपणाच्च सकलकर्मक्षयलक्षणो मोक्ष इति, 'अप्पाणं भावमाणे विहरइत्ति, आत्मनं वासयंस्तिष्ठतीत्यर्थः । १।१०. 'तते णं से'त्ति. 'ततः' ध्यानकोष्ठोपगतविहरणानन्तरं णमिति वाक्यालङ्कारार्थः ‘से' इति प्रस्तुतपरामर्शार्थः, तस्य तु सामान्योक्तस्य विशेषावधारणार्थमाह-'भगवं गोयमे'त्ति किमित्याह-'जायसः' इत्यादि, जातश्रद्धादिविशेषणः सन् उत्तिष्ठतीति योगः । तत्र जाता-प्रवृत्ता श्रद्धा-इच्छा वक्ष्यमाणार्थतत्त्वज्ञानं प्रति यस्यासौ जातश्रद्धः। तथा जातः संशयो यस्य स जातसंशयः, संशयस्तु अनवधारितार्थं ज्ञानं, स चैवं तस्य भगवतो जातः-भगवता हि महावीरेण 'चलमाणे चलिए' इत्यादौ सूत्रे चलन्नर्थश्चलितो निर्दिष्टः, तत्र च य एव चलन् स एव चलितः इत्युक्तः, ततश्चैकार्थविषयावेतौ निर्देशौ, चलनिति च वर्तमानकालविषयः चलित इति चातीतकालविषयः, अतोऽत्र संशयः कथं नाम य एवार्थो वर्तमानः स एवातीतो भवति ?, विरुद्धत्वादनयोः कालयोरिति । तथा 'जायकोउहल्ले'त्ति, जातं कुतूहलं यस्य स जातकुतूहलो, जातौत्सुक्य इत्यर्थः, कथमेतान् पदार्थान् भगवान् प्रज्ञापयिष्यीतीति । तथा 'उप्पन्नसड्ढे'त्ति उत्पन्ना-प्रागभूता सती भूता श्रद्धा यस्य स उत्पन्नश्रद्धः । अथ जातश्रद्ध इत्येतावदेवास्तु किमर्थमुत्पन्नश्रद्ध इत्यभिधीयते ? प्रवृत्तश्रद्धत्वेनैवोत्पन्नश्रद्धत्वस्य लब्धत्वात् । न ह्यनुत्पन्ना श्रद्धा प्रवर्तत इति । अत्रोच्यते, हेतुत्वप्रदर्शनार्थं, तथाहि कथं प्रवृत्तश्रद्ध उच्यते ? यत उत्पन्नश्रद्ध इति । हेतुत्वप्रदर्शनं चोचितमेव, वाक्यालङ्कारत्वात्तस्य, यथाहुः १. रिसह क. च. छ. २. विशेषादुत्तम घ. छ. ३. निहस क. ४. ऽद्भूतत्वे क. घ. च. ५. अत ख. ग. ६. उराले ख. ग. घ. ७.x घ. च. ८.धर्म क. ग. घ. Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति " प्रवृत्तदीपामप्रवृत्तभास्करां प्रकाशचन्द्रां बुबुधे विभावरीम् । " इह यद्यपि प्रवृत्तदीपत्वादेवाप्रवृत्तभास्करत्वमवगतं तथाऽप्यप्रवृत्तभास्करत्वं प्रवृत्तदीपत्वादेर्हेतुतयोपन्यस्तमिति । 'उप्पन्नसंसए उप्पन्नको उहल्ले 'त्ति प्राग्वत्, तथा 'संजायसड्डे' इत्यादि पदष्टुं प्राग्वत्, नवरमिह संशब्दः प्रकर्षादिवचनो, यथा " संजातकामो बलभिद्विभूत्यां मानात् प्रजाभिः प्रतिमाननाच्च । " ३४६ ( संजातकाम :-) ऐन्द्रैश्वर्ये प्रकर्षेण जातेच्छः कार्त्तवीर्य इति । अन्ये तु 'जायसढे' इत्यादि विशेषणद्वादशकमेवं व्याख्यान्ति - जाता श्रद्धा यस्य प्रष्टुं स जातश्रद्धः किमिति जातश्रद्धः ? इत्यत आहयस्माज्जातसंशयः, इदं वस्त्वेवं स्यादेवं वेति, अथ जातसंशयोऽपि कथमित्यत आह- यस्माज्जातकुतूहलः कथं नामास्यार्थमवभोत्स्ये ? इत्यभिप्रायवानिति, एतच्च विशेषणत्रयमवग्रहापेक्षया द्रष्टव्यम् । एवमुत्पन्नसंजातसमुत्पन्न श्रद्धत्वादय ईहापायधारणाभेदेन वाच्याः । अन्ये त्वाहुः—जातश्रद्धत्वाद्यपेक्षयोत्पन्नश्रद्धत्वादयः समानार्था विवक्षितार्थस्य प्रकर्षवृत्तिप्रतिपादनाय स्तुतिमुखेन ग्रन्थकृतोक्ताः । न चैवं पुनरुक्तं दोषाय, यदाह श. १: उ.१: सू.१०-११ “वक्ता हर्षमयादिभिराक्षिप्तमनाः स्तुवंस्तथा निन्दन् । यत्पदमसकृद्ब्रूते तत्पुनरुक्तं न दोषाय ॥” इति 'उट्ठाए उई 'त्ति उत्थानमुत्था - ऊर्ध्वं वर्त्तनं, तया उत्थया 'उत्तिष्ठति' ऊर्ध्वो भवति । 'उत्तिष्ठति' इत्युक्ते क्रियारम्भमात्रमपि प्रतीयते यथा वक्तुमुत्तिष्ठते इति ततस्तद्व्यवच्छेदायोक्तमुत्थयेति । 'उट्ठाए उट्ठित्त ' त्ति उपागच्छतीत्युत्तरक्रियाऽपेक्षया उत्थानक्रियायाः पूर्वकालताऽभिधानाय उत्थयोत्थायेति कृत्वाप्रत्ययेन निर्द्दिशतीति । 'जेणेवे' त्यादि, इह प्राकृतप्रयोगादव्ययत्वाद्वा येनेति यस्मिन्नेव दिग्भागे श्रमणो भगवान् महावीरो वर्त्तते 'तेणेव' त्ति तस्मिन्नेव दिग्भागे उपागच्छति, तत्कालापेक्षया वर्त्तमानत्वादागमनक्रियाया वर्त्तमानविभक्त्या निर्देशः कृतः, उपागतवानित्यर्थः । उपागम्य च श्रमणं भगवन्तं महावीरं कर्मतापन्न 'तिक्खुत्तो' त्ति त्रीन् वारान् त्रिकृत्वः 'आयाहिणपयाहिणं करेइत्ति आदक्षिणाद्-दक्षिणहस्तादारभ्य प्रदक्षिणः परितो भ्राम्यतो दक्षिण एव आदक्षिणप्रदक्षिणोऽतस्तं करोतीति, 'वंदइ'त्ति 'वन्दते' वाचा स्तौति 'नमंसइ' ति 'नमस्यति' कायेन प्रणमति 'नच्चासन्ने 'त्ति, 'न' नैव 'अत्यासन्नः ' अतिनिकटः, अवग्रहपरिहारात्, नात्यासन्ने वा स्थाने वर्त्तमान इति गम्यं, 'णाइदूरे त्ति 'न' नैवं 'अतिदूर:' अतिविप्रकृष्टः, अनौचित्यपरिहारात्, नातिदूरे वा स्थाने, 'सुस्सूसमाणे 'त्ति भगवद्वचनानि श्रोतुमिच्छन्, 'अभिमुहे त्ति, अभि- भगवन्तं लक्ष्यीकृत्य मुखमस्येत्यभिमुखः, तथा 'विणएणं 'ति विनयेन हेतुना 'पंजलिउडे' त्ति प्रकृष्टः - प्रधानो ललाटतटघटितत्वेनाञ्जलिः - हस्तन्यासविशेषः कृतो विहितो येन सोऽग्न्याहितादिदर्शनात् प्राज्ञ्जलिकृतः 'पज्जुवासमाणे 'त्ति 'पर्युपासीनः' सेवमानः । अनेन च विशेषणकदम्बकेन श्रवणविधिरुपदर्शितः, आह च ''णिद्दाविगहापरिवज्जिएहि गुत्तेहिं पंजलिउडेहिं । भत्तिबहुमाणपब्बं उवउत्तेहिं सुणेयव्वं ॥ " ति ‘एवं वयासि’त्ति ‘एवं' वक्ष्यमाणप्रकारं वस्तु 'अवादीत्' उक्तवान् 9199. 'से' इति तद् यदुक्तं पूज्यैः 'चलच्चलित' मित्यादि, 'णूणं' ति एवमर्थे, तत्र तत्रास्यैवं व्याख्यातत्वात् । अथवा 'से' इतिशब्दो मागधदेशीप्रसिद्धोऽथशब्दार्थे वर्त्तते । अथशब्दस्तु वाक्योपन्यासार्थः परिप्रश्नार्थो वा यदाह - " अथ प्रक्रियाप्रश्नानन्तर्यमङ्गलोपन्यासप्रतिवचनसमुच्चयेषु'' 'नून' मिति निश्चितं । 'भंते 'ति गुरोरामन्त्रणं, ततश्च हे भदन्त ! कल्याणरूप ! सुखरूप ! इति वा 'भदि कल्याणे सुखे च' इति वचनात्। प्राकृतशैल्या वा भवस्य - - संसारस्य भयस्य वा भीतेरन्तहेतुत्वाद्भवान्तो भयान्तो वा तस्यामन्त्रणं हे भवान्त ! हे भयान्त ! वा । भान् वा ज्ञानादिभिर्दीप्यमान ! 'भा दीप्तौ' इति वचनात् भ्राजमान ! वा दीप्यमान ! 'भ्राजू ! दीप्तौ' इति वचनात् । अयं च आदित आरभ्य ‘भंते 'त्ति पर्यन्तो ग्रन्थो भगवता सुधर्म्मस्वामिना पञ्चमाङ्गस्य प्रथमशतस्य प्रथमोद्देशकस्य सम्बन्धार्थमभिहितः । अथानेन सम्बन्धेनायातस्य पञ्चमाङ्गप्रथमशतप्रथमोद्देशकस्येदमादिसूत्रम् - 'चलमाणे चलिए' इत्यादि । १. उट्ठेइ क. ख. ग. च. २. पंजलियडेहिं ख. च. पंजलिवडेहिं ग. अथ केनाभिप्रायेण भगवता सुधर्म्मस्वामिना पञ्चमाङ्गप्रथमशतप्रथमोद्देशकस्यार्थानुकधनं कुर्वतैवमर्थवाचकं सूत्रमुपन्यस्तं नान्यानीति ? अत्रोच्यते - इह चतुर्षु पुरुषार्थेषु मोक्षाख्यः पुरुषार्थो मुख्यः सर्वातिशायित्वात् । तस्य च मोक्षस्य साध्यस्य साधनानां च सम्यग्दर्शनादीनां साधनत्वेनाव्यभिचारिणामुभयनियमस्य शासनाच्छास्त्रं सद्भिरिष्यते । उभयनियमस्त्वेवं सम्यग्दर्शनादीनि मोक्षस्यैव साध्यस्य साधनानि नान्यस्यार्थस्य, मोक्षश्च तेषामेव साधनानां साध्यो नान्येषामिति, स च मोक्षो विपक्षक्षयात्, तद्विपक्षश्च बन्धः, स च मुख्यः कर्मभिरात्मनः सम्बन्धः, तेषां तु कर्मणां प्रक्षयेऽयमनुक्रम उक्तः 'चलमाणे' इत्यादि । तत्र 'चलमाणे 'त्ति चलत्-स्थितिक्षयादुदयमागच्छद् विपाकाभिमुखीभवद्यत्कर्मेति प्रकरणगम्यं तच्चलितम् - उदितमिति व्यपदिश्यते । चलनकालो हि उदयावलिका, तस्य च कालस्यासंख्येयसमयत्वादादिमध्यान्तयोगित्वं कर्मपुलानामप्यनन्ताः स्कन्धा अनन्तप्रदेशाः ततश्च ते क्रमेण प्रतिसमयमेव चलन्ति, तत्र योऽसावाद्यश्चलनसमयस्तस्मिंश्चलदेव तच्चलितमुच्यते । कथं पुनस्तद्वर्त्तमानं सदतीतं भवतीति ? अत्रोच्यते--यथा पट उत्पद्यमानकाले प्रथमतन्तुप्रवेशे उत्पद्यमान एवोत्पन्नो भवतीति उत्पद्यमानत्वं च तस्य प्रथमतन्तुप्रवेशकालादारभ्य पट उत्पद्यते इत्येवं व्यपदेशदर्शनात् प्रसिद्धमेव। उत्पन्नत्वं तूपपत्त्या प्रसाध्यते, तथाहि--उत्पत्तिक्रियाकाल एव प्रथमतंतुप्रवेशेऽसावुत्पन्नः, यदि पुनर्नोत्पन्नोऽभविष्यत्तदा ३. पंचमांगस्य ख. ग. Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.१: सू.११ ३५० भगवती वृत्ति तस्याः क्रियाया वैयर्थमभविष्यत् निष्फलत्वाद् । उत्पाद्योत्पादनार्था हि क्रियाः भवन्ति, यथा च प्रथमे क्रियाक्षणे नासावुत्पन्नस्तथोत्तरेष्वपि क्षणेष्वनुत्पन्न एवासौ प्राप्रोति । को ह्युत्तरक्षणक्रियाणामात्मनि रूपविशेषो ? येन प्रथमया नोत्पन्नस्तदुत्तराभिस्तूत्पाद्यते। अतः सर्वदैवानुत्पत्तिप्रसङ्गः, दृष्टा चोत्पत्तिः, अन्त्यतन्तुप्रवेशे पटस्य दर्शनाद् । अतः प्रथमतन्तुप्रवेशकाल एव किञ्चिदुत्पन्न पटस्य,यावच्चोत्पन्नं न तदुत्तरक्रिययोत्पाद्यते। यदि पुनरुत्पाद्येत तदा तदेकदेशोत्पादन एव क्रियाणां कालानां च क्षयः स्यात् । यदि हि तदंशोत्पादननिरपेक्षा अन्याः क्रिया भवन्ति तदोत्तरांशानुक्रमणं युज्येत' नान्यथा, तदेवं यथा पट उत्पद्यमान एवोत्पन्नस्तथैवा- संख्यातसमयपरिमाणत्वादुदयावलिकाया आदिसमयाप्रभृति चलदेव कर्म चलितं, कथं ? यतो यदि हि तत्कर्म चलनाभिमुखीभूतमुदयावलिकाया आदिसमय एव न चलितं स्यात्तदा तस्याद्यस्य चलनसमयस्य वैयर्थ्यं स्यात्, तत्राचलितत्वात् यथा च तस्मिन् समये न चलितं तथा द्वितीयादिसमयेष्वपि न चलेत, को हि तेषामात्मनि रूपविशेषो ? येन प्रथमसमये न चलितमुत्तरेषु चलतीति, अतः सर्वदैवाचलनप्रसङ्गः, अस्ति चान्त्यसमये चलनं, स्थितेः परिमितत्वेन कर्माभावाभ्युपगमाद्, अत आवलिकाकालादिसमय एव किञ्चिच्चलितं, यच्च तस्मिंश्चलितं तत्रोत्तरेषु समयेषु चलति, यदि तु तेष्वपि तदेवाद्यं चलनं भवेत्तदा तस्मिन्नैव चलने सर्वेषामुदयावलिकाचलनसमयानां क्षयः स्यात् । यदि हि तत्समयचलननिरपेक्षाण्यन्यसमयचलनानि भवन्ति तदोत्तरचलनानुक्रमणं युज्येत नान्यथा, तदेवं चलदपि तत्कर्म चलितं भवतीति । तथा 'उदीरिजमाणे उदीरिए'त्ति, उदीरणा नाम उदयाप्राप्तं चिरेणाऽऽगामिना कालेन यद्वेदयितव्यंर' कर्मदलिकं तस्य विशिष्यध्यवसायलक्षणेन करणेनाकृष्योदये प्रक्षेपणं सा चासंख्येयसमयवर्तिनी तया च पुनरुदीरणया उदीरणाप्रथमसमय एवोदीर्यमाणं कर्म पूर्वोक्तपटदृष्टान्तेनोदीरितं भवतीतष्योदये प्रक्षेपणं साचा पदारणा नाम उदयाप्राप्तं चिर तथा 'वेइज्जमाणे वेइए'त्ति वेदनं-कर्मणो भोगः, अनुभव इत्यर्थः, तच्च वेदनं स्थितिक्षयादुदयप्राप्तस्य कर्मणः उदीरणाकरणेन चोदयमुपनीतस्य भवति। तस्य च वेदनाकालस्यासंख्येयसमयत्वादाद्यसमये वेद्यमानमेव वेदितं भवतीति । तथा 'पहिजमाणे पहीणे'त्ति, प्रहाणं तु-जीवप्रदेशैः सह संश्लिष्टस्य कर्मणस्तेभ्यः पतनम्, एतदप्यसंख्येयसमयपरिमाणमेव, तस्य तु प्रहाणस्यादिसमये प्रहीयमाणं कर्म प्रहीणं स्यादिति । तथा 'छिञ्जमाणे छिन्ने'त्ति, छेदनं तु-कर्मणो दीर्घकालानां स्थितीनां ह्रस्वताकरणम् । तच्चापवर्त्तनाभिधानेन करणविशेषेण करोति । तदपि च छेदनमसंख्येयसमयमेव, तस्य त्वादिसमये स्थितितश्छिद्यमानं कर्म छिन्नमिति । तथा 'भिज्जमाणे भिन्ने'त्ति भेदस्तु-कर्मणः शुभस्याशुभस्य वा तीव्ररसस्यापवर्तनाकरणेन मन्दताकरणम् मन्दस्य चोद्वर्तनाकरणेन तीव्रताकरणम् । सोऽपि चासंख्येयसमय एव, ततश्च तदाद्यसमये रसतो भिद्यमानं कर्म भिन्नमिति । तथा 'डज्झमाणे दहे'त्ति दाहस्तु-कर्मदलिकदारूणां ध्यानाग्निना तद्रूपापनयनमकर्मत्वजननमित्यर्थः। यथा हि काष्ठस्याग्निना दग्धस्य काष्ठरूपापनयनं भस्मात्मना च भवनं दाहस्तथा कर्मणोऽपीति । तस्याप्यन्तर्मुहूर्तवर्तित्वेनासंख्येयसमयस्यादिसमये दह्यमानं कर्म दग्धमिति । तथा 'मिजमाणे मडे' म्रियमाणमायुःकर्ममृतमिति व्यपदिश्यते । मरणं ह्यायुःपुद्गलानां क्षयः, तच्चासंख्येयसमयवर्ति भवति। तस्य च जन्मनः प्रथमसमयादारभ्यावीचिकमरणेनानुक्षणं मरणस्य भावान्नियमाणं मृतमिति। तथा 'निजरिजमाणे निजिण्णे'त्ति, निर्जीर्यमाणं-नितरामपुनर्भावेन क्षीयमाणं कर्म निर्जीणं-क्षीणमिति व्यपदिश्यते। निर्जरणस्यासंख्येयसमयभावित्वेन तत्प्रथमसमय एव पटनिष्पत्तिदृष्टान्तेन निर्जीर्णत्वस्योपपद्यमानत्वादिति । पटदृष्यन्तश्च सर्वपदेषु सभावनिको वाच्यः। तदेवमेतान्नव प्रश्नान् गौतमेन भगवता भगवान् महावीरः पृष्टः सन्नुवाच-'हते'त्यादि । अथ कस्माद् भगवन्तं' गौतमः पृच्छति ? विरचितद्वादशाङ्गतया विदितसकलश्रुतविषयत्वेन निखिलसंशयातीतत्वेन च सर्वज्ञकल्पत्वात्तस्य, आह च "संखाईए उ मवे साहइ जं वा परो उ पुच्छेजा। ण यणं अणाइसेसी वियाणई एस छउमत्यो ।। त्ति, नैवम्, उक्तगुणत्वेऽपि छद्मस्थतयाऽनाभोगसम्भवात्, यदाह "न हि नामानामोगग्रस्थस्येह कस्यचित्रास्ति । यस्माज्जानावरणं ज्ञानावरणप्रकृति कर्म।।'' इति । अथवा जानत एव तस्य प्रश्नः संभवति । स्वकीयबोधसंवादनार्थमज्ञलोकबोधनार्थं शिष्याणां वा स्ववचसि प्रत्ययोत्पादनार्थं सूत्ररचनाकल्पसंपादनार्थं वेति। तत्र 'हंता गोयमे'त्ति, हन्तेति कोमलामंत्रणार्थः, दीर्घत्वं च मागधदेशीप्रभवमुभयत्रापि । 'चलमाणे' इत्यादेः प्रत्युच्चारणं तु चलदेव चलितमित्यादीनां स्वानुमतत्वप्रदर्शनार्थम्। वृद्धाः पुनराहु:-'हंता गोयमा' इत्यत्र 'हन्ते'ति एवमेतदिति अभ्युपगमवचनः, यदनुमतं तत्प्रदर्शनार्थं 'चलमाणे' इत्यादि प्रत्युच्चारितमिति । इह च यावत्करणलभ्यानि पदानि सुप्रतीतान्येव । एवमेतानि नव पदानि कर्माधिकृत्य वर्तमानातीतकालसामानाधिकरण्यजिज्ञासया पृथनि निर्णीतानि अर्थतान्येव चलनादीनि परस्परतः किंतुल्यार्थानि भिन्नार्थानि वेति पृच्छ निर्णयं च दर्शयितुमाह १. युज्यते घ. २. तरोत्तरेषु समयेषु न चलति क. ३. वेदितव्यं ख. घ. ४. भगवान च. छ. ५. समाना घ. छ. Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ३५१ श. १: उ.१: सू.१२ १।१२. एए णं भंते ! इत्यादि व्यक्तं, नवरम् 'एगट्ट 'त्ति 'एकार्थानि ' अनन्यविषयाणि एकप्रयोजनानि वा । 'नाणाघोसो' त्ति इह घोषाः – उदात्तादयः । 'नाणावंजण 'त्ति इह व्यञ्जनानि - अक्षराणि । 'उदाहु'त्ति उताहो निपातो विकल्पार्थः । 'नाणट्ट 'त्ति भिन्नाभिधेयानि । इह च चतुर्भङ्गी पदेषु दृष्टा, तत्र कानिचिदेकार्थानि एकव्यञ्जनानि यथा क्षीरं क्षीरमित्यादीनि तथाऽन्यानि एकार्थानि नानाव्यञ्जनानि यथा क्षीरं पय इत्यादीनि, तथाऽन्यान्यनेकार्थान्येकव्यञ्जनानि यथाऽर्कगव्यमाहिषाणि क्षीराणि तथाऽन्यानि नानार्थानि नानाव्यञ्जनानि यथा घटपटलकुटादीनि । तदेवं चतुर्भङ्गीसंभवेऽपि द्वितीयचतुर्थभङ्गकौ' प्रश्नसूत्रे गृहीतौ परिदृश्यमाननानाव्यञ्जनता तदन्ययोरसम्भवात् । निर्वचनसूत्रे तु चलनादीनि चत्वारि पदान्याश्रित्य द्वितीयः, छिद्यमानादीनि तु पञ्च पदान्याश्रित्य चतुर्थ इति । ननु चलनादीनामर्थानां व्यक्तभेदत्वात् कथमाद्यानि चत्वारि पदान्येकार्थानि ? इत्याशंक्याह – 'उप्पन्नपक्खस्स 'त्ति उत्पन्नमुत्पादो, भावे क्लीबे क्तप्रत्ययविधानात्, तस्य पक्षः - परिग्रहोऽङ्गीकारः 'पक्ष परिग्रहे' इति धातुपाठादिति उत्पन्नपक्षः । इह च षष्ट्यास्तृतीयार्थत्वाद् उत्पन्नपक्षेणउत्पादाङ्गीकारेण उत्पादाख्यं पर्यायं परिगृह्य एकार्थान्येतान्युच्यन्ते । अथवा ‘उत्पन्नपक्षस्य’ उत्पादाख्यवस्तुविकल्पस्याभिधायकानीति शेषः सर्वेषामेषामुत्पादमाश्रित्यैकार्थकारित्वादेकान्तर्मुहूर्त्तमध्यभावित्वेन तुल्यकालत्वाच्चैकार्थिकत्वमिति भावः । स पुनरुत्पादाख्यः पर्यायो विशिष्टः केवलोत्पादः एव । यतः कर्मचिन्तायां कर्मणः प्रहाणेः फलद्वयं केवलज्ञानमोक्षप्राप्ती । तत्रैतानि पदानि केवलोत्पादविषयत्वादेकार्थान्युक्तानि । यस्मात् केवलज्ञानपर्यायो जीवेन न कदाचिदपि प्राप्तपूर्वः यस्माच्च प्रधानस्ततस्तदर्ध एव पुरुषप्रयासः, तस्मात् स एव केवलज्ञानोत्पत्तिपर्यायोऽभ्युपगतः । एषां च पदानामेकार्थानामपि सतामयमर्थः सामर्थ्यप्रापितक्रमः, यदुत - पूर्वं तच्चलति — उदेतीत्यर्थः, उदितं च वेद्यते अनूभूयत इत्यर्थः । तच्च द्विधा-स्थितिक्षयादुदयप्राप्तं उदीरणया चोदयमुपनीतं, ततश्चानुभवानन्तरं तत् प्रहीयते, दत्तफलत्वाजीवादपयातीत्यर्थः । एतच्च टीकाकारमतेन व्याख्यातम् । अन्ये तु व्याख्यान्ति-स्थितिबन्धाद्यविशेषितसामान्यकर्माश्रयत्वादेकार्थिकान्येतानि केवलोत्पादपक्षस्य च साधकानीति । चत्वारि चलनादीनि पदान्येकार्थकानीत्युक्ते शेषाण्यनेकार्थकानीति सामर्थ्यादवगतमपि सुखावबोधाय साक्षात्प्रतिपादयितुमाह- 'छिमाणे ' इत्यादि व्यक्तं, नवरं 'णाणट्ट 'त्ति नानार्थानि, नानार्थत्वं त्वेवं छिद्यमानं छिन्नमित्येतत्पदं स्थितिबन्धाश्रयं यतः सयोगिकेवली अन्तकाले योगनिरोधं कर्तुकामो वेदनीयनामगोत्राख्यानां तिसृणां प्रकृतीनां दीर्घकालस्थितिकानां सर्वापवर्त्तनयाऽऽन्तमौहूर्त्तिकं स्थितिपरिमाणं करोति । तथा ‘भिद्यमानं भिन्न’मित्येतत्पदमनुभागबन्धाश्रयं तत्र च यस्मिन् काले स्थितिघातं करोति तस्मिन्नेव काले रसघातमपि करोति । केवलं रसधातः स्थितिखण्डकेभ्यः क्रमप्रवृत्तेभ्योऽनन्तगुणाभ्यधिकः । अतोऽनेन रसघातकरणेन पूर्वस्माद्भिन्नार्थं पदं भवति । तथा ‘दह्यमानं दग्ध’मित्येतत्पदं प्रदेशबन्धाश्रयं, प्रदेशबन्धस्त्वनन्तानन्तप्रदेशानां स्कन्धानां कर्म्मत्वापादनं । तस्य च प्रदेशबन्ध कर्म्मण; सत्कानां पञ्चह्रस्वाक्षरोच्चारणकालपरिमाणयाऽसंख्यातसमयया गुणश्रेणीरचनया पूर्वरचितानां शैलेश्यवस्थाभाविसमुच्छिन्नक्रियध्यानाग्निना प्रथमसमयादारभ्य यावदन्त्यसमयस्तावव्यतिसमयं क्रमेणासंख्येयगुणवृद्धानां कर्मपुद्गलानां दहनं - दाहः । अनेन च दहनार्थेनेदं पूर्वस्मात्पदाद्भिन्नार्थं पदं भवति । दाहश्चान्यत्रान्यथा रूढोऽपीह मोक्षचिन्ताऽधिकारान्मोक्षसाधन उक्तलक्षणकर्मविषय एव ग्राह्य इति । तथा म्रियमाणं मृतमित्येतत्पदमायुः कर्म्मविषयम् । यतः आयुष्कपुद्गलानां प्रतिसमयं क्षयो मरणम्, अनेन च मरणार्थेन पूर्वपदेभ्यो भिन्नार्थत्वाद्भिन्नार्थं पदं भवति। तथा 'म्रियमाणं मृत मित्यनेनायुः कर्मैवोक्तं यतः कर्मैव तिष्ठज्जीवतीत्युच्यते, कर्मैव च जीवादपगच्छत् म्रियत इत्युच्यते । तच्च मरणं सामान्येनोक्तमपि विशिष्टमेवाभ्युपगन्तव्यम् । यतः संसारवर्त्तीनि मरणानि अनेकशोऽनुभूतानि दुःखरूपाणि चेति, किं तैः ? इह पुनः पदेऽपुनर्भवमरणमन्त्यं सर्वकर्म्मक्षयसहचरितमपवर्गहेतुभूतमिति विवक्षितमिति । तथा 'निर्जीर्यमाणं निर्जीर्ण' मित्येतत्पदं सर्वकर्माभावविषयं यतः सर्वकर्मनिर्जरणं न कदाचिदप्यनुभूतपूर्वं जीवेनेति, अतोऽनेन सर्वकर्माभावरूपनिर्जरणार्थेन पूर्वपदेभ्यो भिन्नार्थत्वाद्भिन्नार्थं पदं भवति । अथैतानि पदानि विशेषतो नानार्थान्यपि सन्ति सामान्यतः कस्य पक्षस्याभिधायकतया प्रवृत्तानीत्यस्यामाशङ्कायामाह 'विगयपक्खस्स 'त्ति विगतं विगमो - वस्तुनोऽवस्थान्तरापेक्षया विनाशः, स एव पक्षी - वस्तुधर्मः तस्य वा पक्षः परिग्रहो विगतपक्षस्तस्य विगतपक्षस्य वाचकानीति शेषः, विगतत्व' त्विहाशेषकर्म्माभावोऽभिमतो, जीवेन तस्याप्राप्तपूर्वतयाऽत्यन्तमुपादेयत्वात् तदर्थत्वाच्च पुरुषप्रयासस्येति । एतानि चैवं विगमार्थानि ' भवन्ति । छिद्यमानपदे हि स्थितिखण्डनं विगम उक्तः, भिद्यमानपदे त्वनुभावभेदो विगमः, दह्यमानपदे त्वकर्मताभवनं विगमः, म्रियमाणप पुनरायुःकर्माभावो विगमः, निर्जीर्यमाणपदे त्वशेषकर्माभावो विगमः उक्तः । तदेवमेतानि विगतपक्षस्य प्रतिपादकानीत्युच्यन्ते । एवं च यत्पञ्चमाङ्गादिसूत्रोपन्यासे प्रेरितं यदुत - केनाभिप्रायेणेदं सूत्रमुपन्यस्तमिति, तत् केवलज्ञानोत्पादसर्वकर्मविगमाभिधानरूपसूत्राभिप्रायव्याख्यानेन निर्णीतमिति । एतत्सूत्रसंवादिसिद्धसेनाचार्योऽप्याह- १. चतुर्थी ख ग घ च छ . २. x घ. च ३. x ख. ग. घ. "उपजमाणकालं उप्पण्णं विगययं विगच्छंतं । दवियं पण्णवयंतो तिकालविसयं विसेसेइ ||" इति ४. विगतं ग. घ. च. छ. ५. विगतार्थानि ग. Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.१: सू.१२-१५ ३५२ भगवती वृत्ति 'उत्पद्यमानकाल'मित्यनेनाद्यसमवादारभ्योत्पत्त्यन्तसमयं यावदुत्पद्यमानत्वस्येष्टत्वाद्वर्त्तमानभविष्यत्कालविषयं द्रव्यमुक्तम्। उत्पन्नमित्यनेन त्यतीतकालविषयम् । एवं विगतं विगच्छदित्यनेनापीति। ततश्चोत्पद्यमानादि प्रज्ञापयन् भगवान्' द्रव्यं विशेषयति, कथं ? त्रिकालविषयं यथा भवतीति संवादगाथार्थः। अन्ये तु कर्मेतिपदस्य सूत्रेऽनभिधानाच्चलनादिपदानि सामान्येन व्याख्यान्ति, न कम्मपिक्षयैव, तथाहि-'चलमाणे चलिए'त्ति इह चलनम्अस्थिरत्वपर्यायेण वस्तुन उत्पादः । 'वेइज्जमाणे वेइए'त्ति 'व्येजमान कम्पमानं, 'व्येजितं' कम्पितम्, 'एज़ कम्पने' इति वचनात् । व्येजनमपि तद्रूपापेक्षयोत्पाद एव । 'उदीरिजमाणे उदीरिए'त्ति इहोदीरणं स्थिरस्य सतः प्रेरणं, तदपि चलनमेव । 'पहिजमाणे पहीणे' त्ति 'प्रहीयमाण' प्रभ्रश्यत् परिपतदित्यर्थः 'प्रहीणं' प्रभ्रष्टं परिपतितमित्यर्थः, इहापि प्रहाणं१ चलनमेव, चलनादीनां चैकार्थत्वं सर्वेषां गत्यर्थत्वात्। 'उप्पन्नपक्खस्स'त्ति चलत्वादिना पर्यायेणोत्पन्नत्वलक्षणपक्षस्याभिधायकान्येतानीति । तथा छेदभेददाहमरणनिर्जरणान्यकर्थािन्यपि व्याख्येवानि, तद्व्याख्यानं च प्रतीतमेव भिन्नार्थता पुनरेषामेवं-कुठारादिना लतादिविषयश्छेदः, तोमरादिना शरीरादिविषयो भेदः, अग्निना दादिविषयो दाहः, मरणं तु प्राणत्यागः, निर्जरा तु अतिपुराणीभवनमिति। 'विगयपक्खस्स'त्ति भिन्नार्थान्यपि सामान्यतो विनाशाभिधायकान्येतानीत्यर्थः । न च वक्तव्यं-किमेतैश्चलनादिभिरिह निरूपितैः ? अतत्त्वरूपत्वादेषाम् । अतत्त्वरूपत्वस्यासिद्धत्वात्, तदसिद्धिश्च निश्चयनयमतेन वस्तुस्वरूपस्य प्रज्ञापयितुमारब्धत्वात् तथाहि-व्यवहारनयश्चलितमेव चलितमिति मन्यते, निश्चयनयः चलदपि चलितमिति । अत्र च बहुवक्तव्यं तच्च विशेषावश्यकादिहैवाभिधास्वमानजमालिचरिताद्वाऽव सेयमिति।' इहाद्ये प्रश्नोत्तरसूत्रद्वये मोक्षतत्त्वं चिन्तितम् । मोक्षः पुनर्जीवस्य । जीवाश्च नारकादयश्चतुर्विंशतिविधाः, यदाह "नेरइया असुराई पुढवाई बेदियादओ चेव। पंचिंदियतिरियनरा वंतर जोइसिय वेमाणी ।।" तत्र नारकांस्तावत् स्थित्यादिभिश्चिन्तयन्नाह१।१३. 'नेरइयाण'मित्यादि, निर्गतम् अयम्-इष्टफलम् कर्म येभ्यस्ते निरयास्तेषु भवा नैरयिका नारकास्तेषां नैरयिकाण "भंते!'त्ति भदन्त! केवइयकालं ति 'कियांश्चासौ कालश्चेति कियत्कालस्तं कियत्कालं यावत् 'ठिती' त्तिआयुःकर्मवशान्नरकेऽवस्थानं 'पन्नत्त'त्ति 'प्रज्ञप्ता'प्ररूपिता भगवद्भिरन्यतीर्थकरैश्चेति प्रश्नः। 'गोयमे'त्यादि निवर्चनं व्यक्तमेव, नवरं 'दस वाससहस्साईति प्रधमपृथिवीप्रधमप्रस्तटापेक्षया' तेत्तीसं सागरोवमाईति सप्तमपृथिव्यपेक्षयेति । मध्यमा तु जघन्यापेक्षया समयाद्यधिका सामर्थ्यगम्येति । अनन्तरं नारकाणां स्थितिरुक्ता। ते चोच्छ्वासादिमन्तः इत्युच्छ्वासादिनिरूपणायाह१।१४. 'नेरइयाण'मित्यादि, व्यक्तं, नवरं 'केवइकालस्स'त्ति प्राकृतशैल्या कियत्कालात् कियता कालेनेत्यर्थः । 'आणमंति'त्ति आनन्ति 'अन प्राणने' इति धातुपाठात् मकारस्यागमिकत्वात् । 'पाणमंति'त्ति प्राणति । वाशब्दौ समुच्चयार्थी एतदेव 'द्वयं क्रमेणार्थतः स्पष्टयन्नाह-ऊससंति वा णीससंति वत्ति यदेवोक्तमानन्ति तदेवोक्तमुच्छ्वसन्तीति, तथा यदेवोक्तं प्राणन्ति तदेवोक्तं निःश्वसन्तीति, अथवा आनमन्ति प्राणमन्तीति ‘णमु प्रह्वत्वे' इत्यस्यानेकार्थत्वेन श्वसनार्थत्वात्। अन्येत्वाह:-'आनन्ति वा प्राणन्ति वा' इत्यनेनाध्यात्मक्रिया परिगृह्यते, 'उच्छ्वसन्ति वा निःश्वसन्ति वा' 'इत्यनेन च बाह्येति । 'जहा ऊसासपए' त्ति एतस्य प्रश्नस्य निर्वचनं यथा उच्छ्वासपदे प्रज्ञापनायाः सप्तमपदे । तथा वाच्यं तच्चेदम्-'गोयमा ! सययं संतयामेव आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा' इति, तत्र सततम् अनवरतम्, अतिदुःखिता हि ते, अतिदुःखव्याप्तस्य च निरन्तरमेवोच्छ्वासनिःश्वासौ दृश्येते, सततत्वं च प्रायोवृत्त्याऽपि स्यादित्यत आह-संतयामेव'त्ति सन्ततमेव नैकसमयेऽपि तद्विरहोऽस्तीति भावः । दीर्घत्वं चेह प्राकृतत्वात् । आनमन्तीत्यादेः पुनरुच्चारणं शिष्यवचने आदरोपदर्शनार्थम् । गुरुभिराद्रियमाणवचना हि शिष्याः संतोषवन्तो भवन्ति । तथा च पौनःपुन्येन प्रश्नश्रवणार्थनिर्णयादिषु घटन्ते लोके चादेयवचना भवन्ति । तथा च भव्योपकारस्तीर्थाभिवृद्धिश्चेति । अथ तेषामेवाहारं प्रश्नयन्नाह१११५. 'णेरइयाण'मित्यादि, व्यक्तं, नवरम् ‘आहारढि'त्ति आहारमर्थयन्ते-प्रार्थयन्त इत्येवंशीलाः। अर्थो वा-प्रयोजनमेषामस्तीत्यर्थिनः ‘आहारेण भोजनेनार्थिन" 'आहारस्य-भोजनस्य वाऽर्थिन" आहारार्थिनः । 'जहा पन्नवणाए'त्ति 'आहारट्टी' इत्येतत्पदप्रभृति यथा प्रज्ञापनायाश्चतुर्थोपाङस्य 'पढमए'त्ति आद्ये 'आहारउद्देसए'त्ति आहारपदस्याष्टाविंशतितमस्योद्देशकः पदशब्दलोपाच्चाहारोद्देशकः तत्र भणितं 'तथा भाणिय'ति तेन प्रकारेण वाच्यमिति। तत्र च नारकाहारवक्तव्यतायां बहूनि द्वाराणि भवन्ति, तत्संग्रहार्थं पूर्वोक्तस्थित्युच्छ्वासलक्षणद्वारद्वयदर्शनपूर्विकां गाथामाह १. स भगवान् क.ख. २. प्रहीणं ख. ग. च. ३. निश्चयस्तु क. ख. ग. च. छ. ४. चरिताच्चा क. ग. घ. ५. विदियादाओ ग. ६. तह य. ख. ग. च. ७. कवइकाल क. ग. च. ८. नीससंति ख. ग. च. ६.दुःखव्याप्तस्य ख. ग. घ. च. छ. १०.xख. ग. छ. ११.४ च. Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ३५३ श.१: उ.१: सू.१५ "ठिइ उस्सासाहारे किं वाऽऽहारेति सबओ वावि ? कति मागं सव्वाणि व? कीस व भुजो परिणमंति ॥" व्याख्या, स्थितिरिकाणां वाच्या, उच्छ्वासश्च, तौ चोक्तावेव। तथा 'आहारे'त्ति आहारविषयो विधिर्वाच्यः, स चैवम्-‘णेरइयाणं भंते ! आहारट्ठी? हंता आहारट्ठी। णेरइयाणं भंते ! केवइकालस्स आहारट्टे समुप्पजइ ? 'आहारार्थः' आहारप्रयोजनमाहारार्थित्वमित्यर्थः। 'गोयमा! णेरइयाणं दुविहे आहारे पन्नत्ते' अभ्यवहारक्रियेत्यर्थः, तंजहा–आभोगनिव्वत्तिए य अणाभोगनिव्वतिए य। तत्राभोगः-अभिसन्धिस्तेन निवर्तितः कृत आभोगनिवर्तितः आहारयामीतीच्छापूर्वक इत्यर्थः । अनाभोगनिवर्तितस्तु आहारयामीति विशिष्टेच्छामन्तरेणापि। प्रावृट्काले प्रचुरतरप्रश्रवणाघभिव्यंग्यशीतपुद्गलाधाहारवत् । 'तत्थ णं जे से अणाभोगनिव्वत्तिए से णं अणुसमयविरहिए आहारटे समुप्पज्जइ' अणुसमयंत्ति प्रतिक्षणं संततातितीव्रक्षुवेदनीयकर्मोदयत ओजआहारादिना प्रकारेणेति । 'अविरहिए'त्ति चुक्कस्खलितन्यायादपि न विरहितः, अथवा प्रदीर्घकालोपभोग्याहारस्य सकृद्ग्रहणेऽपि भोगोऽनुसमयं स्यादतो ग्रहणस्यापि सातत्यप्रतिपादनार्थमविरहितमित्याह'तत्थ णं जे से आभोगनिव्वत्तिए से णं असंखेजसमइए अंतोमुहुत्तिए आहारटे समुष्पज्जइ' असंख्यातसामयिकः पल्योपमादिपरिमाणोऽपि स्यादत आह–अंतोमुहुत्तिए'त्ति । इदमुक्तं भवति–आहारयामीत्यभिलाष एतेषां गृहीताहारद्रव्यपरिणामतीव्रतरदुःखजननपुरस्सरमन्तर्मुहूर्त्तान्निवर्तत इति। 'किं वाऽहारेंति'त्ति किं स्वरूपं वा वस्तु नारका आहारयन्ति ? इति वाच्यं, वा शब्द: समुच्चये, तत्रेदं प्रश्ननिर्वचनसूत्रम्-‘णेरइया णं भंते ! किमाहारमाहारेंति? गोयमा ! दव्वओ अणंतपएसियाई' अनन्तप्रदेशवन्ति पुद्गलद्रव्याणीत्यर्थः तदन्येषामयोग्यत्त्वात् । 'खेत्तओ असंखेज्जपएसावगाढाई' न्यूनतरप्रदेशावगाढानि हि न ग्रहणप्रायोग्यानि' अनंतप्रदेशावगाढानि तु न भवन्त्येव, सकललोकस्याप्यसंख्येयप्रदेशपरिमाणत्वात् 'कालओ अण्णतरविइयाई' जघन्यमध्यमोत्कृथस्थितिकानीत्यर्थः । स्थितिश्चाहारयोग्यस्कन्धपरिणामेनावस्थानमिति । 'भावओ वण्णमंताई गंधमंताई रसमंताई फासमंताई आहारिति। 'जाई भावओ वण्णमंताई आहारेति ताई किं एगवण्णाई आहारेंति ? जाव किं पंचवण्णाई आहारेंति ? गोयमा ! ठाणमग्गणं पडुच्च एगवण्णाई पि आहारेंति जाव पंचवण्णाई पि आहारेति।' विहाणमग्गणं पडुच्च कालवन्नाई पि आहारेंति जाव सुकिल्लाइंपि आहारेति ।' तत्र'ठाणमग्गणं पडुच्च'त्ति तिष्ठन्त्यस्मिन्निति स्थानं सामान्यं यथैकवर्णं द्विवर्णमित्यादि, 'विहाणमग्गणं पडुच्च' त्ति विधानं-विशेषः कालादिरिति । जाई वन्नओ कालवन्नाई आहारेंति ताई किं एगगुणकालाई आहारेति जाव दसगुणकालाई आहारेंति संखेज्जगुणकालाई असंखेजगुणकालाई अनन्तगुणकालाई आहारेंति ? गोयमा ! एकगुणकालाई पि आहारेंति जाव अनन्तगुणकालाई पि आहारेति, एवं जाव सुक्किलाई, एवं गंधओवि रसओवि। 'जाई भावओ फासमंताई ठाणमग्गणं पडुच्च णो एगफासाई आहारेंति, णो दुफासाई आहारेंति, णो तिफासाई आहारेंति' एकस्पर्शानामसम्भवादन्येषां चाल्पप्रदेशिकतासूक्ष्मपरिणामाभ्यां ग्रहणायोग्यत्वात्। 'चउफासाई पि आहारेंति जाव अट्ठफासाई पि आहारेति' बहुप्रदेशताबादरपरिणामाभ्यां ग्रहणयोग्यत्वादिति, 'विहाणमग्गणं पडुच्च कक्खडाई पि आहारेंति जाव लुक्खाई पि आहारेंति।' 'जाई फासओ कक्खडाई आहारेति ताई किं एगगुणकक्खडाई आहारेति जाव अनन्तगुणकक्खडाई आहारेंति ? गोयमा ! एगगुणकक्खडाई पि आहारेति जाव अणंतगुणकक्खडाई पि आहारेति एवं अट्ठवि फासा भाणियव्वा जाव अणंतगुणलुक्खाई पि आहारैति। 'जाई भंते ! अणंतगुणलुक्खाई आहारेंति ताई कि पुट्ठाई आहारति अपुट्ठाई आहारेंति ? गोयमा ! पुट्ठाई आहारेंति णो अपुट्ठाइं अहारेंति' 'पुढाई' ति आत्मप्रदेशस्पर्शवन्ति, तत्पुनरात्मप्रदेशस्पर्शनमवगाढक्षेत्राद्बहिरपि भवति अत उच्यते-जाई भंते ! पुट्ठाई आहारेति ताई किं ओगाढाई आहारेंति अणोगाढाई आहारैति ? गोयमा ! ओगाढाइं नो अणोगाढाई' 'अवगाढानी' ति आत्मप्रदेशैः सहैकक्षेत्रावगाढानीत्यर्थः । 'जाई भंते ! ओगाढाई आहारेति ताई किं अणंतरोगाढाई आहारेंति परंपरोगाढाई आहारेंति ? गोयमा ! अणंतरोगाढाई आहारेंति' णो परंपरोगाढाई आहारेंति।' अनन्तरावगाढानीति येषु प्रदेशेष्वात्माऽवगाढस्तेष्वेव यान्यवगाढानि तान्यनन्तरावगाढानि अन्तराऽभावेनावगाढत्वात् यानि च तदन्तरवर्तीनि तान्यवगाढसम्बन्धात्परम्परावगाढानीति। 'जाई भंते ! अणंतरोगाढाई आहारेंति ताई किं अणूई आहारेंति बादराई आहारेति ? गोयमा ! अणूई पि आहारेति बादराई पि आहारेंति' तत्राणुत्वं बादरत्वं चापेक्षिकं तेषामेवाहारयोग्यानां स्कन्धानां प्रदेशवृद्ध्या वृद्धानामवसेयम्। 'जाई भंते ! अणूई पि आहारेंति बादराई पि आहारेति ताई किं उडं आहारेति ? एवं अहेवि तिरियंपि ? गोयमा ! उइंपि आहारेंति एवं अहेवि तिरियंपि। 'जाई भंते ! उड्डु पि आहारैति अहेवि तिरियं पि आहारेति ताई किं आई आहारेंति मज्झे आहारेंति पज्जवसाणे आहारेंति ? गोयमा ! तिविहावि', अयमर्थः-आभोगनिवर्तितस्याहारस्यान्तर्मोहूर्तिकस्यादिमध्यावसानेषु सर्वत्राहारयन्तीति। 'जाई भंते ! आई मज्झे अवसाणेवि आहारेति ताई किं सविसए आहारेंति अविसए आहारेंति ? गोयमा ! सविसए नो अविसए आहारेंति' तत्र स्वः स्वकीयो विषयः स्पृष्टावगाढानन्तरावगाढाख्यः स्वविषयस्तस्मिन्नाहारयन्ति । १. तद्ग्रहणप्रायोग्यानि क. ख. २. बहुप्रदेशिकता क बहुप्रदेशिता छ. ३. तदनन्तरवत्तीनि ख. ग. घ. च. ४. बायराई क.छ. ५. आदि ख. ग. घ. छ. ६. तिहावि क. च. छ. ७. सविसए आहारेति छ. Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.१: सू.१५ ३५४ भगवती वृत्ति 'जाई भते ! सविसए आहारैति ताई किं आणुपुब्बिं आहारेंति अणाणुपुब्बिं आहारेंति ? गोयमा ! आणुपुब्बिं आहारेति नो अणाणुपुदि आहारेंति,' तत्रानुपूर्व्या यथाऽसन्नं नातिक्रम्य । जाई भंते ! आणुपुब्बिं आहारेंति ताई किं तिदिसिं आहारेंति जाव छद्दिसि आहारेति ? गोयमा ! नियमा छद्दिसिं आहारेति । ' इह नारकाणां लोकमध्यवर्तित्वेन षण्णामप्यू दिदिशामलोकेनानावृतत्वात् षट्सु दिक्ष्वाहारग्रहणमस्ति तत उक्त-नियमात् षड्दिशि। दिक्त्रयादिविकल्पास्तु लोकान्तवर्तिषु पृथिवीकायिकादिषु दिशां त्रयस्य द्वयस्य एकस्याश्च अलोकेनावरणे (सति) भवन्तीति । यद्यपि वर्णतः पञ्चवर्णानीत्याधुक्तं तथापि प्राचुर्येण यद्वर्णगन्धादियुतानि द्रव्याण्याहारयन्ति तानि दर्शयति' 'उस्सन्नं कारणं पडुच्च'त्ति बाहुल्यलक्षणं कारणमाश्रित्य, तत्र च प्रकृत्यशुभानुभाव एव कारणमिति। 'वन्नओ कालनीलाइं गंधओ दुब्बिगंधाई रसओ तित्तकडुयरसाई फासओ कक्खडगुरुयसीयलुक्खाई" एतानि च प्रायो मिथ्यादृष्टय एवाहारयन्ति, न तु भविष्यत्तीर्थकरादय इति । अथ तानि यथास्वरूपाण्येव नारका आहारयन्त्यन्यथा वेत्यस्यामाशंकायामभिधीयते–'तेसि पि पोराणे वनगुणे गंधगुणे रसगुणे फासगुणे विष्परिणामइत्ता परिपीलइत्ता परिसाडइत्ता परिविद्धंसइत्ता' विपरिणामादयो विनाशार्थत्वेनैकार्था एव ध्वनयः। 'अन्ने य अपव्वे वन्नगुणे गंधगुणे रसगुणे फासगुणे उप्पाएता आयसरीरोगाढे पोग्गले सव्वप्पणयाए आहारमाहारेंति' 'सव्वप्पणयाए'त्ति सर्वात्मना सर्वैरात्मप्रदेशैरित्यर्थः । व्याख्यातं सूत्रे संग्रहगाथायाः 'किं वाऽहारेंति'त्ति पदम्। अथ 'सव्वओ वा' इति व्याख्यायते-तत्र 'सर्वतः' सर्वप्रदेशै रयिका आहारयन्तीति । वाऽपीति वचनादभीक्ष्णमाहारयन्तीत्यपि वाच्यं, तच्चैवम्'नेरइयाणं भंते ! सव्वओ आहारेंति सव्वओ परिणामेति सव्वओ ऊससंति सव्वओ नीससंति अभिक्खणं आहारेंति अभिक्खणं परिणामेति अभिक्खणं ऊससंति अभिक्खणं नीससंति आहच्च आहारेंति, आहच्च परिणामेंति आहच्च ऊससंति आहच्च नीससंति ? हंता गोयमा ! नेरइया सव्वओ आहारेति .......।' 'सव्वओ'त्ति सर्वात्मप्रदेशैः 'अभिक्खणं ति अनवरतं पर्याप्तत्वे सति 'आहच्चे'ति कदाचित्-न सर्वदा अपर्याप्तकावस्थायामिति। तथा 'कइभागं'ति आहारतयोपात्तपुद्गलानां कतिथं भागमाहारयन्ति इति वाच्यं, तच्चैवं-'नेरइयाणं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गिण्हति ते णं तेसिं पोग्गलाणं सेयालंसि कइभागमाहारेंति ? कइभागं आसाइंति ? गोयमा ! असंखेजइभागं आहारेंति अणंतभागं आसाइंति' 'सेयालंसिंति एष्यत्काले ग्रहणकालोत्तरकालमित्यर्थः । 'असंखेजइभागमाहारेंति' इत्यत्र केचिद् व्याचक्षते-गवादिप्रथमबृहद्ग्रासग्रहण इव काश्चिद् ग्रहीतासंख्येयभागमात्रान् पुद्गलानाहारयन्ति तदन्ये तु पतन्तीति । अन्ये त्वाचक्षते-ऋजुसूत्रनयदर्शनात् स्वशरीरतया परिणतानामसंख्येयभागमाहारयन्ति, ऋजुसूत्रो हि गवादिप्रथमग्रासग्रहणमिव गृहीतानां शरीरत्वेनापरिणतानामाहारतां नेच्छति, शरीरतया परिणतानामपि केषाञ्चिदेव विशिष्टाहारकार्यकारिणां तामभ्युपगच्छति शुद्धनयत्वात्तस्येति । अन्ये पुनरित्थमभिदधति 'असंखेजइभागमाहारेंति'त्ति शरीरतया परिणमंति, शेषास्तु किट्टीभूय मनुष्याभ्यवहताहारवन्मलीभवन्ति, न शरीरत्वेन परिणमन्तीत्यर्थः। 'अणंतभागं आसाइंति'त्ति आहारतया गृहीतानामनन्तभागमास्वादयन्ति तद्रसादीन् रसनादीन्द्रियद्वारेणोपलभन्ते इत्यर्थः।। 'सव्वाणि' व ति दारं, तत्र सर्वाण्येवाहारद्रव्याण्याहारयन्तीति वाच्यं । वाशब्दः समुच्चये, तच्चैवम्-'नेरइया णं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए परिणमेति ते किं सव्वे आहारेति ? णो सव्वे आहारेति ? गोयमा ! सव्वे अपरिसेसिए आहारेंति।' इह विशिष्टग्रहणगृहीता आहारपरिणामयोग्या एव ग्राह्याः, उज्झितशेषा इत्यर्थः । अन्यथा पूर्वापरसूत्रयोर्विरोधः स्यात्, इष्टा चैवं व्याख्या; यदाह "जं जह सुत्ते भणियं तहेव बइ तं वियालणा नत्थि । किं कालियाणुओगो दियो दिदिष्पहाणेहिं॥" 'कीस व भुजो परिणमंति'त्ति द्वारगाथापदम् तत्र 'कीस'त्ति पदावयवे पदसमुदायोपचारात् कीसत्ताएत्ति दृश्यं, किंस्वतया-किंस्वभावतया कीदृशतया वा केन प्रकारेण किंरूपतयेत्यर्थः । वाशब्दः समुच्चये। 'भुजो'त्ति 'भूयोभूयः' पुनः पुनः परिणमन्ति आहारद्रव्याणीति प्रकृतमित्येतदत्र वाच्यं, तच्चैवं--'नेरइया णं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हंति' ते णं तेसिं पोग्गला कीसत्ताए भुजो भुजो परिणमंति? गोयमा ! सोइंदियत्ताए जाव फासिंदियत्ताए अणिठ्ठत्ताए अकंतत्ताए अप्पियत्ताए अमणुण्णताए अमणामत्ताए अणिच्छियत्ताए अभिज्झियत्ताए अहत्ताए नो उडदत्ताए दुक्खत्ताए नो सुहत्ताए एएसिं भुजो भुजो परिणमंति ।' तत्र ‘अनिष्टतया' सदैव तेषां सामान्येनावल्लभतया, तथा 'अकान्ततया' सदैव तद्भावेनाकमनीयतया, तथा 'अप्रियतया' सर्वेषामेव द्वेष्यतया, तथा 'अमनोज्ञतया' कथयाऽप्यमनोरमतया, तथा 'अमनोऽम्यतया'चिन्तयाऽपि अमनोगम्यतया, तथा 'अनीप्सिततया आप्तुमनिष्टतया। एकार्था वैते शब्दाः । 'अभिज्झियत्ताए"त्ति अभिध्येयतया तृप्तेरनुत्पादकत्वेन पुनरप्यभिलाषनिमित्ततया । अहृद्यत्वेनेत्यन्ये अशुभत्वेनेत्यर्थः । 'अहत्ताए'त्ति गुरुपरिणामतया' नो उद्दत्ताए'त्ति नो लघुपरिणामतयेति सङ्ग्रहगाथार्थः । इदं च सङ्ग्रहणीगाथाविवरणसूत्रं, क्वचित् सूत्रपुस्तक एव दृश्यत इति । १ते तद् च. छ. २. ओसन्न क. ३. गरुय क. ग. च. छ. ४. गिण्हंति ग. घ. ५. श्चैते ख. ग. घ. च. ६. अहिझियत्ताए क. छ. Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति श.१: उ.१: सू.१५-२३ अथ नैरयिकाऽहाराधिकारात्तद्विषयमेव प्रश्नचतुष्टयमाह१1१६. 'नेरइयाण'मित्यादि, 'पुव्वाहारिय'त्ति ये पूर्वमाहृताः पूर्वकाल एकीकृताः संगृहीताः इतियावत् अभ्यवहता वा 'पोग्गल'त्ति स्कन्धाः 'परिणय' त्ति ते 'परिणताः' पूर्वकाले शरीरेण सह सम्पृक्ताः परिणतिं गता इत्यर्थः । इति प्रथमः प्रश्नः । इह च सर्वत्र प्रश्नत्वं काकुपाठादवगम्यते । तथा 'आहारिय'त्ति पूर्वकाले 'आहताः' संगृहीता--अभ्यवहृता वा, 'आहरिजमाणे'त्ति ये च' वर्तमानकाले 'आह्रियमाणाः' संगृह्यमाणा अभ्यवह्रियमाणा वा पुद्गलाः 'परिणय'त्ति ते परिणता इति द्वितीयः । तथा 'अणाहारिय'त्ति येऽतीतकालेऽनाहृताः 'आहारिजिस्समाणे'त्ति ये चानागते काले आहरिष्यमाणाः पुद्गलास्ते परिणता इति तृतीयः । तथा 'अणाहारिया अणाहारिजिस्समाणा' इत्यादि अतीतानागताहरणक्रियानिषेधाच्चतुर्थः। इह च यद्यपि चत्वार एव प्रश्ना उक्तास्तथाऽप्येते त्रिषष्टिः संभवन्ति, यतः पूर्वाहता आह्रियमाणा आहरिष्यमाणा अनाहता अनाह्रियमाणा अनाहरिष्यमाणाश्चेति षट् पदानीह सूचितानि । तेषु चैकैकपदाश्रयणेन षड्, द्विकयोगे पंचदश, त्रिकयोगे विंशतिः, चतुष्कयोगे पञ्चदश, पञ्चकयोगे षट्, षड्योगे एक इति । अत्रोत्तरमाह-'गोयमे त्यादि व्यक्तं, नवरं ये पूर्वमाहृतास्ते पूर्वकाल एव परिणताः ग्रहणानन्तरमेव परिणामभावात् । ये पुनराहता आह्रियमाणाश्च ते परिणताः, आहतानां परिणामभावादेव, परिणमन्ति च आह्रियमाणानां परिणामभावस्य वर्तमानत्वादिति । वृत्तिकृता तु द्वितीयप्रश्नोत्तरविकल्प एवंविधो दृष्ट:-यदुत आहृता आहरिष्यमाणा पुद्गलाः परिणताः परिणस्यन्ते च । यतोऽयं तेनैवं व्याख्यातः यदुत ये पुनराहता आहरिष्यन्ते पुनस्तेषां केचित् परिणताः परिणताश्च ये संपृक्ताः शरीरेण सह ये तु न तावत् संपृच्यन्ते कालान्तरे तु संपृक्ष्यन्ते ते परिणस्यन्त इति । ये पुनरनाहता आहरिष्यन्ते पुनस्ते नो परिणताः, अनाहतानां संपक्काभावेन परिणामाभावात्, यस्मात्त्वाहरिष्यन्ते ततः परिणस्यन्ते आहतस्यावश्यं परिणामभावादिति । चतुर्थस्त्वतीतभविष्यदाहरणक्रियाया अभावेन परिणामाभावादवसेय इति । एतदनुसारेणैव प्राग्दर्शितविकल्पानामुत्तरसूत्राणि वाच्यानीति। अथ शरीरसंपर्कलक्षणपरिणामात्पुद्गलानां चयादयो भवन्तीति तद्दर्शनार्थं प्रश्नयन्नाह१।१७,१८. 'नेरइयाण'मित्यादि, चयादिसूत्राणिपरिणामसूत्रसमानीतिकृत्वाऽतिदेशतोऽधीतानीति,तथाहि-'जहा परिणया तहा चियावी''त्यादि इह च पुस्तकेषु वाचनाभेदो दृश्यते तत्र न संमोहः कार्यः, सर्वत्राभिधेयस्य तुल्यत्वात्। केवलं परिणतसूत्रानुसारेण प्रश्नसूत्राणि व्याकरणानि च मतिमताऽध्येयानीति। तत्र 'चिताः' शरीरे चयं गताः, उपचिताः पुनर्बहुशः प्रदेशसामीप्येन शरीरे चिता एवेति, उदीरितास्तु स्वभावतोऽनुदितान् पुद्गलानुदयप्राप्ते कर्मदलिके करणविशेषेण प्रक्षिप्य यान् वेदयते, उदीरणालक्षणं चेदम् "जं करणेणाकडिय उदए दिजइ उदीरणा एसा ।।" तथा 'वेदिताः' स्वेन रसविपाकेन प्रतिसमयमनुभूयमानाः अपरिसमाप्ताशेषानुभावा इति। तथा निर्जीर्णाः कास्ये नानुसमयमशेषतद्विपाकहानियुक्ता इति। 'गाह'त्ति परिणतादिसूत्राणां संग्रहणाय गाथा भवति, सा चेयम् 'परिणये'त्यादि व्याख्यातार्था । नवरं एकैकस्मिन् पदे परिणतचितोपचितादौ चतुर्विधाः आहृताः, आहृताः आह्रियमाणाश्च, अनाहता आहरिष्यमाणाश्च, अनाहता अनाहरिष्यमाणाश्च, इत्येवं चतूरूपाः पुद्गला भवन्ति, प्रश्ननिर्वचनविषया स्युरिति । पुद्गलाधिकारादेवेमामथदशसूत्रीमाह१११९-२३. 'नेरइयाणं भन्ते ! कतिविहा पोग्गला भिजंती'त्यादि, व्यक्तं,नवरं-'भिजंति'त्ति तीव्रमन्दमध्यतयाऽनुभागभेदेन भेदवन्तो भवन्ति, उद्वर्तन करणापवर्तनकरणाभ्यां मन्दरसास्तीवरसाः तीव्ररसास्तु मन्दरसा भवन्तीत्यर्थः । उत्तरम्-'कम्मदव्ववग्गणमहिगिच्च'त्ति समानजातीयद्रव्याणां राशिव्यवर्गणा, सा चौदारिकादिद्रव्याणामप्यस्तीत्यत आह–कर्मरूपा द्रव्यवर्गणा कर्मद्रव्याणां वा वर्गणा कर्मद्रव्यवर्गणा, तामधिकृत्यतामाश्रित्य, कर्मेद्रव्यवर्गणासत्का इत्यर्थः, कर्मद्रव्याणामेव च मन्देतरानुभावचिन्ताऽस्ति । न द्रव्यान्तराणामितिकृत्वा कर्मद्रव्यवर्गणामधिकृत्येत्युक्तम्, 'अणू चेव बायरा चेव'त्ति चेवशब्दः समुच्चयार्थः । ततश्चाणवश्च बादराश्च, सूक्ष्माश्च स्थूलाश्चेत्यर्थः । सूक्ष्मत्वं स्थूलत्वं चैषां कर्मद्रव्यापेक्षयैवावगन्तव्यं नान्यापेक्षया, यत औदारिकादिद्रव्याणां मध्ये कर्मद्रव्याण्येव सूक्ष्माणीति । एवं चयोपचयोदीरणवेदननिर्जरा" शब्दार्थभेदेन वाच्याः । किन्तु चयसूत्रे उपचयसूत्रे च 'आहारदव्ववग्गणमहिगिच्चे ति यदुक्तं तत्रायमभिप्राय:-शरीरमाश्रित्य चयोपचयौ प्राग् व्याख्यातौ, तौ चाहारद्रव्येभ्यः एव भवतो नान्यतः अत आहारद्रव्यवर्गणामधिकृत्येत्युक्तमिति, उदीरणादयस्तु कर्मद्रव्याणामेव भवन्त्यतस्तत्सूत्रेषूक्तं कर्मद्रव्यवर्गणामधिकृत्येति। १.xख. ग. छ. २. चितावी ख. ग. घ. छ. ३. अहिकिन्च क. ४. चयोपचयोदीरणा ख. ग. छ. ५. वेदनां क. ख. ग. छ. ६. अहिकिच्च क. Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.१: सू.२४-३२ ३५६ भगवती वृत्ति १॥२४. 'ओयडेसुत्ति अपवर्तितवन्तः इहापवर्त्तनं कर्मणां स्थित्यादेरध्यवसायविशेषेण हीनताकरणं, अपवर्तनस्य चोपलक्षणत्वादुवर्तनमपीह दृश्य, तच्च स्थित्यादेर्वृद्धिकरणस्वरूपं । 'संकामिंसुत्ति संक्रमितवन्तः, तत्र संक्रमणं मूलप्रकृत्यभिन्नानामुत्तरप्रकृतीनामध्यवसायविशेषेण परस्परं संचारणं, तथा चाह "मूलप्रकृत्यभित्राः संक्रमयति गुणतः उत्तराः प्रकृतीः। नन्वात्माऽमूर्तत्वादध्यवसायप्रयोगेण ॥" अपरस्त्वाह "मोत्तूण आउयं खलु देसणमोहं चरित्तमोहं च । सेसाणं पगईणं उत्तरविहिसंकमो मणिओ॥" एतदेव निदर्शाते यथा कस्यचित्सवेद्यमनुभवतोऽशुभकर्मपरिणतिरेवंविधा जाता येन तदेव सद्वेद्यमसद्वेद्यतया संक्रामतीति, एवमन्यत्रापि योज्यमिति। 'निधत्तिंसुत्ति निधत्तान् कृतवन्तः । इह च विश्लिष्टानां परस्परतः पुद्गलानां निचयं कृत्वा धारणं रूढिशब्दत्वेन निधत्तमुच्यते । उद्वर्तनापवर्तनव्यतिरिक्तकरणानामविषयत्वेन कर्मणोऽवस्थानमिति । 'निकाएंसुत्ति निकाचितवन्तः, नितरां बद्धवन्तः इत्यर्थः । निकाचनं च तेषामेव पुद्गलानां परस्परविश्लिष्टानामेकीकरणमन्योऽन्यावगाहिता अग्निप्रतप्तप्रतिहन्यमानशूचीकलापस्येव सकलकरणानामविषयतया कर्मणो व्यवस्थापनमितियावत् । 'भिजंती'त्यादिपदानां संग्रहणी यथा 'भेइय' इत्यादिगाथा गतार्था, नवरं-अपवर्तनसंक्रमनिधत्तनिकाचनपदेषु त्रिविधः कालो निर्देष्टव्यः, अतीतवर्तमानानागतकालनिर्देशेन तानि वाच्यानीत्यर्थः । इह चापवर्त्तनादीनामिव भेदादीनामपि त्रिकालता युक्ता, न्यायस्य समानत्वात्, केवलमविवक्षणान्न तन्निर्देशः सूत्रे कृत इति । अथ पुद्गलाधिकारादिदं सूत्रचतुष्टयमाह११२५-२७. 'नेरइयाण मित्यादि, व्यक्तं, नवरं 'तेयाकम्मत्ताए'त्ति तेजःशरीरकार्मणशरीरतया तद्रूपतयेत्यर्थः । 'अतीतकालसमए'त्ति कालस्वरूपः समयो न तु समाचाररूपः । कालोऽपि समयरूपो न तु वर्णादिस्वरूप इति परस्परेण विशेषणात् कालसमयः । अतीतः कालसमयः अतीतकालस्य चोत्सर्पिण्यादेः समय:-परमनिकृष्टोंऽशोऽतीतकालसमयस्तत्र 'पडुप्पन्न'त्ति प्रत्युत्पन्नो-वर्तमानः, नोऽतीतकालेत्यादौ अतीतानागतकालविषयग्रहणप्रतिषेधो विषयातीतत्वात् । विषयातीतत्वं च तयोविनष्टानुत्पन्नत्वेनासत्त्वादिति । प्रत्युत्पन्नत्वेऽप्यभिमुखान् गृह्णाति नान्यान्, 'गहणसमयपुरक्खडे'त्ति ग्रहणसमयः पुरस्कृतो-वर्तमानसमयस्य पुरोवर्ती येषां ते ग्रहणसमयपुरस्कृताः प्राकृतत्वादेवं निर्देशः अन्यथा पुरस्कृतग्रहणसमया इति स्याद् ग्रहीष्यमाणा इत्यर्थः । उदीरणा च पूर्वकालगृहीतानामेव भवति, ग्रहणपूर्वकत्वादुदीरणायका । अत उक्त-अतीतकालसमयगृहीतानुदीरयन्तीति । गृह्यमाणानां ग्रहीष्यमाणानां चागृहीतत्वादुदीरणाऽभावस्तत उक्तं-'नो पडुप्पन्ने'त्यादि । वेदनानिर्जरासूत्रयोरप्येषेवोपपत्तिरिति । अथ कर्माधिकारादेवेयमष्टसूत्री११२९-३२. 'नेरइयाण'मित्यादिळक्ता च नवरं 'जीवाओ किं चलिय'ति जीवप्रदेशेभ्यश्चलितं तेष्वनवस्थानशीलं तदितरत्त्वचलितं तदेव बधाति, यदाह "कृत्रैर्देशैः स्वकदेशस्वं रागादिपरिणतो योग्यम्। बध्नाति योगहेतोः कर्म नेहाक्त इव च मलम् ।।" इति एवमुदीरणावेदनाऽपवर्तनासंक्रमणनिधत्तनिकाचनानि भाव्यानि। निर्जरा तु पुद्गलानां निरनुभावीकृतानामात्मप्रदेशेभ्यः सातनम्। सा च नियमाञ्चलितस्य कर्मणो नाचलितस्येति, इह संग्रहणीगाथा-'बंधोदये' त्यादि वितार्था केवलमुदयशब्देनोदीरणा गृहीतेति । उक्ता नारकवक्तव्यता। अथ चतुर्विंशतिदण्डकक्रमागतामसुरकुमारवक्तव्यतामाह'असुरकुमाराण'मित्यादि, तत्रासुरकुमारवक्तव्यता नारकवक्तव्यतावन्नेया यतः 'ठिइऊसासाहारे' इत्यादिगाथोक्तानि सूत्राणि ४० 'परिणयचिए' इत्यादिगाथागृहीतानि६ 'भेइयचिए' इत्यादिगाथागृहीतानि१ - 'बंधोदये'त्यादिगाथागृहीतानि, तदेवं द्विसप्ततिः सूत्राणि नारकप्रकरणोक्तानि त्रयोविंशतावसुरादिप्रकरणेषु समानि। नवरं विशेषोऽयम्-'उक्कोसेणं साइरेगं सागरोवम'मिति यदुक्तं तद्बलिसज्ञमसुरकुमारराजमाश्रित्योक्तं यदाह-चमरबलि सारमहियंति, 'सत्तण्हं थोवाणं ति सप्तानां स्तोकानामुपरीति गम्यते, स्तोकलक्षणं चैवमाचक्षते १. उवदिसु ख. ग. घ. छ. ओवटेंसु च २. निर्दिस्यते क. ग. घ. ३. निकाइंसु क. ख. ग. घ. च. छ. अंगसुत्ताणि अधिकृत्य एष पाठः स्वीकृतः । ४. चैषां क. ★ सूत्रचतुष्टयमिति उल्लिखितं वृत्तौ परं अंगसुत्ताणि पुस्तके एवं वेदेति निजरेंतीति द्वयोरेकसूत्रता कृता इति तत्र सूत्रत्रयम् । Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ३५७ श.१: उ.१: सू.३२ "हवस्स अणवगल्लस्स निरुवकिस्स जंतुणो। एगे ऊसासनीसासे एस पाणुत्ति युबइ । सत्तपाणि से बोवे, सत्तयोवाणि से लवे । लवाणं सत्तहत्तरिए, एस मुहुत्ते विघाहिए॥" इदं जघन्यमुच्छ्वासादिमानं जघन्यस्थितिकानाश्रित्यावगन्तव्यम्, उत्कृष्टं चोत्कृष्थस्थितिकानाश्रित्येति । 'चउत्थभत्तस्स'त्ति चतुर्थभक्तमित्येकोपवासस्य संज्ञा ततस्तस्योपरि, एकत्र दिने भुक्त्वाऽहोरात्रं चातिक्रम्य तृतीये भुजत इति भावः । नागकुमारवक्तव्यतायाम् 'उक्कोसेणं देसूणाई दो पलिओवमाईति यदुक्तं, तदुत्तरश्रेणिमाश्रित्यावसेयं यदाह "दाहिण दिवट्टपलियं दो देसूणुत्तरिल्लणं।" इति।। 'मुहत्तपुहूत्तस्स"त्ति मुहूर्त उक्तलक्षण एव, पृथक्त्वं तु द्विप्रभृतिरानवभ्यः संख्याविशेषः समये प्रसिध्दः । एवं 'सुवन्नकुमाराणं'त्ति नागकुमाराणामिव सुपर्णकुमारणामपि स्थित्यादिवाच्यम्। इदं च कियडूरं यावद्वाच्यम् ? इत्याह-जाव 'थणियकुमाराणं'त्ति यावद्करणाद् विद्युत्कुमारादिपरिग्रहः । एषां चेहायं क्रमोऽवसेयः "असुरा नाग सुवत्रा विजू अग्गी य दीव उदही य । दिसि वाऊ थणियावि य दसमेया भवणवासीणं ॥" अथ भवनपतिवक्तव्यताऽनन्तरं दण्डकक्रमादेव पृथिव्यादीनां स्थित्यादि निरूपयन्नाह-'पुढवीं'त्यादि व्यक्तमावनस्पतिसूत्रात् । नवरम्-'अंतोमुहुत्त'न्ति मुहूर्त्तस्यान्तरन्तर्मुहूर्तं भिन्नो मुहूर्त इत्यर्थः। 'उक्कोसेणं बावीसं वाससहरसाइंति यदुक्तं तत् खरपृथिवीमाश्रित्यावगन्तव्यं यदाह "सण्हा य१ सुद्ध१२ वालुय१४ मणोसिआ१६ सक्करा य१८ खरपुटवी२२ । एगं बारस योद्दस सोलस अट्ठार बावीसा ।।" इति। 'वेमायाए'त्ति विषमा विविधा वा मात्रा-कालविभागो विमात्रा तया। इदमुक्तं भवति-विषमकाला पृथिवीकायिकानामुच्छ्वासादिक्रिया इयत्कालादिति न निरूपयितुं शक्यते । 'जहा नेरइयाण' मित्यतिदेशात्, 'खेत्तओ असंखेजपएसोगाढाई कालओ अन्नयराठिइयाई' इत्यादि दृश्यम्। 'निव्वाधाएण छद्दिसिं'ति व्याघात आहारस्य लोकान्तनिष्कुटेषु संभवति नान्यत्र, ततो निष्कुटेभ्योऽन्यत्र षट्सु दिक्षु, कथम् ?--चतसृषु पूर्वादिदिक्षु ऊर्ध्वमधश्च पुद्गलग्रहणं करोति, तस्य स्थापना शामिव सुपएषां चहामीय दीवा ऊध्र्व अघः द 'वाधायं पडुच्च'त्ति व्याघातं प्रतीत्य, व्याघातश्च निष्कुटेषु, तत्र च 'सिय तिदिसिं'ति स्यात्-कदाचित् तिसृषु दिक्षु आहारग्रहणं भवति, कथम्? यदा पृथिवीकायिकोऽधस्तने उपरितने वा कोणेऽवस्थितः स्यात्तदाऽधस्तादलोकः पूर्वदक्षिणयोश्चालोक इत्येवं तिसृणामलोके नाऽऽवृतत्वात्तदन्यासु तिसृषु पुद्गलग्रहणम् । एवमुपरितनकोणेऽपि वाच्यम्, यदा पुनरध उपरि चालोको भवति तदा चतसृषु । यदा तु पूर्वादीनां षण्णां दिशामन्यतरस्यामलोको भवति तदा पञ्चस्विति । 'फासओ कक्खडाईति इह कर्कशादयो रूक्षान्ताः स्पर्शा दृश्याः, 'सेसं तहेवं'त्ति शेषं-भणितावशेषं तथैव यथा नारकाणां तथा पृथिवीकायिकानामपि, तच्चेदम्-'जाई भंते ! लुक्खाई आहारेति ताई किं पुट्ठाई अपुट्ठाई ? जइ पुट्ठाई किं ओगाढाई अणोगाढाइं?'इत्यादि । 'नाणत्तंति नानात्वं भेदः पुनः पृथिवीकायिकानां नारकापेक्षयाऽऽहारं प्रतीदं यथा 'कइभाग'मित्यादि तत्र 'फासाइंति'त्ति स्पर्श कुर्वन्ति स्पर्शयन्ति-स्पर्शनेन्द्रियेणाहारपुद्गलानां कतिभागं स्पृशन्तीत्यर्थः अथवा स्पृशेनास्वादयन्ति प्राकृतशैल्या फासायंति, स्पर्शेन वाऽऽददति-गृह्णन्ति उपलभन्त इति फासाइंति । इदमुक्तं भवति-यथा रसनेन्द्रियपर्याप्तिपर्याप्तका रसनेन्द्रियद्वारेणाहारमुपभुजाना आस्वादयन्तीति व्यपदिश्यन्ते एवमेते स्पर्शनेन्द्रियद्वारेणेति। 'सेसं जहा नेरइयाणं'ति तच्चैवम्-'पुढविकाइयाणं भंते ! पुव्वाहारिया पोग्गला परिणया' इत्यादि प्राग्वच्च व्याख्येयमिति । ३. ग्रह ख. ग. च. छ. १. इदं च छ. एवं च. २. पुहत्तस्स क.ख. ग. घ. च. Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ श.१: उ.१: सू.३२-३३ भगवती वृत्ति एवं 'जाव वणस्सइकाइयाणं" अनेन पृथिवीकायिकसूत्रभिवाप्कायिकादिसूत्राणि समानीत्युक्तं। स्थितौ पुनर्विशेषोऽत एवाह-नवरं 'ठिई वण्णेयव्वा जा जस्स'त्ति तत्र जघन्या सर्वेषामन्तर्मुहूर्त्तकम् उत्कृष्ट त्वां सप्त वर्षसहस्राणि तेजसामहोरात्रत्रयं, वायूनां त्रीणि वर्षसहस्राणि, वनस्पतीनां दशेति, उक्ता चेयं पृथिव्यादिक्रमेण "बावीसाई सहस्सा सत्त सहस्साई तिनिहोरता। वाए तिबिसहस्सा दसवाससहस्सिया रुक्खे । ति । 'बेइंदियाणं ठिइ भणिऊण ऊसासो वेमायाए'त्ति वक्तव्य इति शेषः । स्थितिश्च द्वीन्द्रियाणां द्वादश वर्षाणि, द्वीन्द्रियाणामाहारसूत्रे यदुक्तम्-'तस्थ णं जे से आभोगनिव्वत्तिए से णं असंखेज्जसमइए अंतोमुहुत्तिए वेमायाए आहारट्ठे समुप्पजइत्ति। तस्यायमर्थः-असंख्यातसामयिक आहारकालो भवति । स चावसर्पिण्यादिरूपोऽप्यस्तीत्यत उच्यते-आन्तमौहूर्त्तिकः, तत्रापि विमात्रया अन्तर्मुहूर्ते समयासंख्यातत्वस्यासंख्येयभेदत्वादिति । 'बेइंदियाणं' दुविहे आहारे पन्नत्ते, लोमहारे पक्खेवाहारे यत्ति, तत्र लोमाहारः खल्वोघतो वर्षादिषु यः पुद्गलप्रवेशः स सूत्राद् गम्यत इति । प्रक्षेपाहारस्तु कावलिकः तत्र प्रक्षेपाहारे बहवोऽस्पृष्थ एव शरीरादन्तर्बहिश्च विध्वंसन्ते स्थौल्यसौश्याभ्याम्, अत एवाह-'जे पोग्गले पक्खेवाहारत्ताए गिण्हती त्यादि । 'अणेगाइं च णं भागसहस्साईति असंख्येया भागा इत्यर्थः, 'अणासाइजमाणाई'ति रसनेन्द्रियतः । 'अफासाइजमाणाईति स्पर्शनेन्द्रियतः। 'कयरे' इत्यादि यत्पदं तदेव दृश्यं-'कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वत्ति व्यक्तं च 'सव्वत्थोवा पोग्ला अणासाइजमाणे' त्यादि। येऽनास्वाद्यमानाः केवलं रसनेन्द्रियविषयास्ते स्तोकाः, अस्पृश्यमाणामनन्तभागवर्तिन इत्यर्थः । ये त्वस्पृश्यमाणाः केवलं स्पर्शनविषयास्तेऽनन्तगुणा रसनेन्द्रियविषयेभ्यः सकाशादिति । 'तेइंदियचउरिदियाणं नाणत्तं ठिईए'त्ति तच्चेदम्-'जहनेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तेइंदियाणं एगूणपन्नासं राइंदियाई चउरिदियाणं छम्मासा'। तथाऽऽहारेऽपि नानात्वं, तत्र च 'ते इंदियाणं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गेहंति' इत्यत आरभ्य तावत्सूत्रम् वाच्यं यावत् 'अणेगाइं च णं भागसहस्साई अणाघाइज्जमाणाई' इत्यादि। इह च द्वीन्द्रियसूत्रापेक्षयाऽनाघ्रायमाणानीत्यतिरिक्तमतो नानात्वम् । एवमल्पबहुत्वसूत्रे परिणामसूत्रे च । चतुरिन्द्रियसूत्रेषु तु परिणामसूत्रे चक्खिंदियत्ताए घाणिदियत्ताए'इत्यधिकमिति नानात्वमिति । पञ्चेन्द्रियतिर्यकसूत्रे 'ठिई भणिऊणं ति 'जहन्नेण अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई' ति इत्येतद्रूपां स्थिति भणित्वा 'उस्सासो'त्ति उच्छ्वासो विमात्रया वाच्य इति। तथा तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियाणामाहारार्थं प्रति यदुक्तं-'उक्कोसेणं छट्ठभत्तस्स'त्ति तद्देवकुरूत्तरकुरुतिर्यक्षु लभ्यते। मनुष्यसूत्रे यदुक्तं-अष्टमभक्तस्येति तद्देवकुर्वादिमिथुनकनरानाश्रित्य समवसेयमिति । 'वाणमंतराण'मित्यादि वाणमन्तराणां स्थितौ नानात्वम्, 'अवसेसंति स्थितेरवशेषमायुष्कवर्जमित्यर्थः, प्रागुक्तमाहारादि वस्तु यथा नागकुमाराणां तथा दृश्यम् । व्यन्तराणां नागकुमाराणां च प्रायः समानधर्मत्वात् । तत्र व्यन्तराणां स्थितिर्जघन्येन दशवर्षसहस्राणि । उत्कर्षेण तु पल्योपममिति । 'जोइसियाणंपी'त्यादि ज्योतिष्काणामपि स्थितेरवशेषं तथैव यथा नागकुमाराणाम् । तत्र ज्योतिष्काणां स्थितेजघन्येन पल्योपमाष्टमभागः उत्कर्षण पल्योपमं वर्षलक्षाधिकमिति। नवरम्, 'उस्सास'त्ति केवलमुच्छ्वासस्तेषां न नागकुमारसमानः किन्तु वक्ष्यमाणः तथा चाह-'जहन्नेणं मुहुत्तपुहुत्तस्से त्यादि, पृथक्त्वं द्विप्रभृतिरानवभ्यः। तत्र यजघन्यं मुहूर्तपृथक्त्वं तद्विवा मुहूर्ताः यच्चोत्कृष्टं तदष्टौ नव वेति। आहारोऽपि विशेषित एव तथा चाह 'आहारो'इत्यादि । 'वेमाणियाणं ठिई भाणियव्वा ओहिय'त्ति औधिकी-सामान्या, सा च पल्योपमादिका त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमान्ता तत्र जघन्या सौधर्ममाश्रित्य उत्कृष्टा चानुत्तरविमानानीति। उच्छ्वासप्रमाणं तु जघन्यं जघन्यस्थितिकदेवानाश्रित्य इतरत्तूत्कृष्यस्थितिकानाश्रित्येत्यर्थः। अत्र गाथा "जस्स जइ सागराई ठिई तस्स तत्तिएहिं पक्खेहिं । ऊसासो देवाणं वाससहस्सेहिं आहारो।।" ति । तदेतावता ग्रन्थेनोक्ता चतुर्विंशतिदण्डकवक्तव्यता । इयं च केषुचित् सूत्रपुस्तकेषु ‘एवं ठिई आहारो' इत्यादिनाऽतिदेशवाक्येन दर्शिता सा चेतो विवरणग्रन्थादवसेयेति । उक्ता नारकादिधर्मवक्तव्यता । इयं चारम्भपूर्विकेति आरंभनिरूपणायाह११३३. 'जीवा णं किं आयारंभे'त्यादि। आरंभो-जीवोपघातःउपद्रवणमित्यर्थः सामान्येन वाऽऽश्रवद्वारप्रवृत्तिः। तत्र चात्मानमारभन्ते आत्मना वा स्वयमारभन्त इत्यात्मारम्भाः । तथा परमारभन्ते परेण वाऽऽरम्भयन्तीति परारम्भाः । तदुभयम्-आत्मपररूपं, तदुभयेन वाऽऽरम्भन्त इति तदुभयारम्भाः । आत्मपरोभयारम्भवर्जितास्त्वनारम्भा इति प्रश्नः । अत्रोत्तरं स्फुटमेव, नवरम्-अस्तिशब्दस्याव्ययत्वेन १. वणप्फई ख. ग. घ. ६. पुहत्तस्य च. छ. २. बेदियाणं ख. ग. घ. ★ अंगसुताणि ग्रन्थे इयं च केषुचित् सूत्रपुस्तकेषु ‘एवं ठिई आहारो' इति ३. गिण्हंति क. छ. संकेतांकिताः प्रती आश्रित्य संक्षिप्तपाठो गृहीतस्तस्य पादटिप्पणे एषा विस्तृत४. तेदिय ग. वाचना उद्धृतास्ति। ५. आउणपण्णासं ख. घ. छ एगोण क. ७. चा... ग. घ. Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ३५६ श. १: उ.१: सू.३३-३६ बहुत्वार्थत्वाद् ‘अस्ति’विद्यन्ते सन्तीत्यर्थः । अथवाऽस्ति अयं पक्षो यदुत 'एगइयत्ति एकका एके केवनेत्यर्थः जीवाः। आत्मारम्भा अपीत्यादावपिशब्द उत्तरपदापेक्षया समुच्चये, स चात्मारम्भत्वादिधर्माणामेकाश्रयताप्रतिपादनार्थः भिन्नाश्रयताप्रतिपादनार्थो वा । एकाश्रयत्वं च कालभेदेनावगन्तव्यं, तथाहि — कदाचिदालारम्भाः कदाचित्परारंभाः कदाचित्तदुभयारंभाः, अत एव नो अनारम्भाः । भिन्नाश्रयत्वं त्वेवम् एके जीवा असंयता इत्यर्थः आत्मारम्भा वा परारम्भा वेत्यादि । अथैकस्वभावत्वाज्जीवानां भेदमसंभावयन्नाह १ । ३४. ' से केणट्टेणं 'ति अथ केन कारणेनेत्यर्थः, 'दुविहा पन्नत्त'त्ति मयाऽन्यैश्च केवलिभिः । अनेन समस्तसर्वविदां मताभेदमाह, मतभेदे तु विरोधिवचनतया तेषामसत्यवचनतापत्तिः, पाटलीपुत्रस्वरूपाभिधायकविरुद्धवचनपुरुषकदम्बकवदिति । प्रमत्तसंयतस्य हि शुभोऽशुभश्च योगः स्यात् संयतत्वात्प्रमादपरत्वाच्च इत्यत आह- ' सुभं जोगं पडुचत्ति शुभयोगः - उपयुक्ततया प्रत्युपेक्षणादिकरणम्, अशुभयोगस्तु तदेवानुपयुक्ततया, आहच " पुढवी आउकाए तेऊवाऊवणस्सइतसाणं । पडिलेहणापमत्तो छण्हंपि विराहओ होइ ।।" १।३६. तथा अतः शुभाशुभ योगावात्मा (ना) रम्भादिकारणमिति । 'अविरई पडुच 'त्ति, इहायं भावः यद्यप्यसंयतानां सूक्ष्मैकेन्द्रियादीनां नात्मारम्भकादित्वं साक्षादस्ति तथाऽप्यविरतिं प्रतीत्य तदस्ति तेषाम् । न हि ते ततो निवृत्ताः, अतोऽसंयतानामविरतिस्तत्र कारणमिति । निवृत्तानां तु कथंचिदात्माद्यारम्भकत्वेऽप्यनारम्भकत्वं यदाहच "जा जयमाणस्स भवे विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स । साहोइ निजरफला अज्झत्थविसोहिजुत्तस्स ।। "त्ति । " सव्यो पमत्तजोगो समणस्स उ होइ आरंभो ।” ति । 'से तेणट्टेणं' ति अथ तेन कारणेनेत्यर्थः । अथात्मारम्भकत्वादित्वमेव नारकादिचतुर्विंशतिदण्डकैर्निरूपयन्नाह— १ । ३५. ‘नेरइयाण’मित्यादि, व्यक्तं, नवरं, 'मणुस्से' त्यादौ अयमर्थः मनुष्येषु संयतासंयतप्रमत्ताप्रमत्तभेदाः पूर्वोक्ताः सन्ति ततस्ते यथा जीवास्तथाऽध्येतव्याः । किन्तु संसारसमापन्नाः इतरे च ते न वाच्याः भववर्त्तित्वादेव तेषामिति । एतदेवाह 'सिद्धविरहिए' इत्यादि । व्यन्तरादयो यथा नारकास्तथाऽध्येयाः, असंयतत्वसाधर्म्यादिति । आत्मारम्भकत्वादिभिर्धर्मैर्जीवा निरूपिताः ते च सलेश्या अलेश्याश्च' भवन्तीति सलेश्यांस्तांस्तैरेव निरूपयन्नाह— १ । ३८. 'सलेसा जहा ओहिय' त्ति । लेश्या - कृष्णादिद्रव्यसान्निध्यजनितो जीवपरिणामो, यदाह "कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात् परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्यैव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रयुज्यते । ।" तत्र 'सलेश्याः' लेश्यावन्तो जीवाः 'जहा ओहिय'त्ति यथा नारकादिविशेषणवर्जिता जीवा अधीताः, - 'जीवा णं भंते! किं आयारंभा परारंभे' त्यादिना दण्डकेन तथा सलेश्या जीवा अपि वाच्याः । सलेश्यानामसंसारसमापन्नत्वस्यासम्भवेन संसारसमापन्नेत्यादिविशेषणवर्जितानां शेषाणां संयतादिविशेषणानां तेष्वपि युज्यमानत्वात् । तत्र चायं पाठक्रमः - 'सलेसा णं भंते ! जीवा किं आयारंभे'त्यादि तदेव सर्वं, नवरं जीवस्थाने सलेश्या इति वाच्यमिति, अयमेको दण्डकः, कृष्णादिलेश्याभेदात्तदन्ये षट्, तदेवमेते सप्त । तत्र 'कण्हलेस्से' त्यादि, कृष्णलेश्यस्य नीललेश्यस्य कापोतलेश्यस्य च जीवराशेर्दण्डको यथा औधिकजीवदण्डकस्तथाऽध्येतव्यः-प्रमत्ताप्रमत्तविशेषणवर्जः, कृष्णादिषु हि अप्रशस्तभावलेश्यासु संयतत्वं नास्ति, यचोच्यते - 'पुव्वपडिवण्णओ पुण अन्नयरीए उ लेसाए' त्ति, तद्द्रव्यलेश्यां प्रतीत्येति मन्तव्यं, ततस्तासु प्रमत्ताद्यभावः । तत्र सूत्रोच्चारणमेवम्— 'कण्हलेसाणं भंते! जीवा कि आयारंभा परारंभा तदुभयारंभा अणारंभा ? गोयमा ! आयारंभावि जाव नो अणारंभा । से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ ? गोयमा ! अविरइं पडुच्च । एवं नीलकापोतलेश्यादण्डकावपीति । तथा तेजोलेश्यादेर्जीवराशेर्दण्डकाः यथा औधिका जीवास्तथा वाच्याः । नवरं तेषु सिद्धा न वाच्याः, सिद्धानामलेश्यत्वात्, तच्चैवम्- 'तेउलेस्साणं भंते ! जीवा किं आयारंभा ? परारंभा ? तदुभयारंभा ? अणारंभा ? गोयमा ! अत्थेगइया आयारंभावि जाव नो अणारंभा, अत्थेगइया नो आयारंभा जाव अणारंभा से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ ? गोयमा ! दुविहा तेउलेस्सा पन्नत्ता, तंजहा - संजया य असंजया ये 'त्यादि । । भवहेतुभूतमारम्भं निरूप्य भवाभावहेतुभूतं ज्ञानादिधर्मकदम्बकं निरूपयन्नाह— ‘इहभविए’इत्यादि व्यक्तं, नवरम् - इह भवे वर्त्तमानजन्मनि यदुवर्त्तते न तु भवान्तरे तदैहभविकं । काकुपाठाच्चेह प्रश्नताऽवसेया, तेन १. श्चालेश्या क. ग. च. Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. २: उ.१: सू. ३६-४५ १।४०. १।४१. १ । ४४. भगवती वृत्ति ३६० किमैहभविकं ज्ञानमुत 'परभविए 'त्ति (ग्रन्थाग्रम् १०००) परभवे - वर्तमानानन्तरभाविन्यनुगामितया यदुवर्त्तते तत्पारभविकम् । आहोश्चित् 'तदुभयभविए'त्ति तदुभयरूपयोः इहपरलक्षणयोर्भवयोर्यदनुगामितया वर्त्तते तत्तदुभयभविकम् । इदं चैवं न पारभविकाद्भिद्यत इति परतरभवेऽपि यदनुयाति तद्ग्राह्यम्, इहभवव्यतिरिक्तत्वेन परतरभवस्यापि परभवत्वात् । ह्रस्वतानिर्देशश्चेह सर्वत्र प्राकृतत्वादिति प्रश्नः निर्वचनमपि सुगमं । नवरम् 'इहभविए 'त्ति ऐहभविकं यदिहाधीतं नानन्तरभवेऽनुयाति, पारभविकं यदनन्तरभवेऽनुयाति, तदुभयभविकं तु यदिहाधीतं परभवे परतरभवे चानुवर्त्तत इति । १।४५. १ । ४२, ४३. ' एवं तवे संजमेत्ति प्रश्ननिर्वचनाभ्यां चारित्रवत्तपःसंयमौ वाच्यौ, चारित्ररूपत्वात्तयोरिति । 'दंसणंपि एवमेव'त्ति, दर्शनमिह सम्यक्त्वमवसेयं, मोक्षमार्गाधिकारात् यदाह – “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । " यत्र तु ज्ञानदर्शनयोरेव ग्रहणं स्यात्तत्र दर्शनं सामान्यावबोधरूपमवसेयमिति । 'एवमेवे 'ति ज्ञानवत् प्रश्ननिर्वचनाभ्यां समवसेयम्। चारित्रसूत्रे निर्वचने विशेषः, तथाहि - चारित्रमैहभविकमेव । न हि चारित्रवानिह भूत्वा तेनैव चारित्रेण पुनश्चारित्री भवति, यावज्जीवताऽवधिकत्वात्तस्य । किञ्च चारित्रिणः संसारे सर्वविरतस्य देशविरतस्य च देवेष्वेवोत्पादात् तत्र च विरतेरत्यन्तमभावात् मोक्षगतावपि चारित्रसंभवाभावात् । चारित्रं हि कर्मक्षपणायानुष्ठीयते मोक्षे च तस्याकिञ्चित्करत्वात् यावज्जीवमिति प्रतिज्ञासमाप्तेः तदन्यस्याश्चाग्रहणाद्, अनुष्ठानरूपत्वात् चारित्रस्य शरीराभावे च तदयोगात्, अत एवोच्यते ' सिद्धे नोचरित्ती नोअचरित्ती' 'नोअचरित्ती 'ति चाविरतेरभावादिति । अनन्तरं चारित्रमुक्तं, तच्च द्विधा तपः संयमभेदादिति, तयोर्निरूपणायातिदेशमाह ननु सत्यपि ज्ञानादेर्मोक्षहेतुत्वे दर्शने एव यतितव्यं, तस्यैव मोक्षहेतुत्वात् यदाह- "भट्टेण चरित्ताओ सुट्टुवरं दंसणं गहेयव्वं । सिज्यंति चरणरहिया दंसणरहिया न सिज्यंति । ।" इति यो मन्यते तं शिक्षयितुं प्रश्नयन्नाह 'असंवुडे ण'मित्यादि, व्यक्तं, नवरम् 'असंवुडे णं'ति 'असंवृतः' अनिरुद्धाश्रवद्वारः 'अणगारे 'त्ति अविद्यमानगृहः, साधुरित्यर्थः । 'सिज्झइति ‘सिध्यति’ अवाप्तचरमभवतया सिद्धिगमनयोग्यो भवति । 'बुज्झइ 'त्ति स एव यदा समुप्पन्नकेवलज्ञानतया स्वपरपर्यायोपेतान्निखिलान् जीवादिपदार्थान् जानाति तदा बुध्यत इति व्यपदिश्यते । 'मुच्चइ' त्ति स एव संजात केवलबोधो भवोपग्राहिकम्र्म्मभिः प्रतिसमयं विमुच्यमानो मुच्यत इत्युच्यते । 'परिनिव्वाइ त्ति स एव तेषां कर्मपुद्गलानामनुसमयं यथा यथा क्षयमाप्नोति तथा तथा शीतीभवन् परिनिर्वातीति प्रोच्यते । 'सव्वदुक्खाणमंत करेइति स एव चरमभवायुषोऽन्तिमसमये क्षपिताशेषकर्माशः सर्वदुःखानामन्तं करोतीति भण्यते इति प्रश्नः । उत्तरं तु कण्ठयं, नवरं 'नो इणट्टे समट्टे'त्ति 'नो' नैव 'इणट्टे'त्ति 'अयम्' अनन्तरोक्तत्वेन प्रत्यक्षः 'अर्थ:' भाव: 'समर्थ:' बलवान्, वक्ष्यमाणदूषणमुद्गरप्रहारजर्जरितत्वात् । ‘आउयवज्जाओ'त्ति यस्मादेकत्र भवग्रहणे सकृदेवान्तर्मुहूर्त्तमात्रकाले एवायुषो बन्धस्तत उक्तमायुर्वज इति । 'सिटिलबंधणवद्धाओ 'ति श्लथबन्धनं—स्पृष्टता वा बद्धता वा निधत्तता वा, तेन बद्धाः - आत्मप्रदेशेषु संबन्धिताः पूर्वावस्थायामशुभतरपरिणामस्य कथञ्चिदभावादिति शिथिलबन्धनबद्धाः, एताश्च शुभा एव द्रष्टव्याः । असंवृतभावस्य निन्दाप्रस्तावात्, ताः किमित्याह 'धणियबंधणबद्धाओ पकरेति त्ति गाढतरबन्धना बद्धावस्था वा निधत्तावस्था वा निकाचिता वा 'प्रकरोति' । प्रशब्दस्यादिकर्मार्थत्वात्कर्त्तुमारभते, असंवृतत्वस्याशुभयोगरूपत्वेन गाढतरप्रकृतिबन्धहेतुत्वात्, आह च " जोगा पयडिपएसं 'ति । पौनःपुन्यभावे त्वसंवृतत्वस्य ताः करोत्येवेति । T तथा ह्रस्वकालस्थितिका दीर्घकालस्थितिकाः प्रकरोति । तत्र स्थितिः - उपात्तस्य कर्म्मणोऽवस्थानं तामल्पकालां महतीं करोतीत्यर्थः । असंवृतत्वस्य कषायरूपत्वेन स्थितिबन्धहेतुत्वात्, आह च "टिइमभागं कसायओ कुणइ "त्ति । तथा 'मंदाणुभावे'त्यादि, इहानुभावो विपाको रसविशेष इत्यर्थः, ततश्च मन्दानुभावाः - परिपेलवरसाः सतीः गाढरसाः प्रकरोति । असंवृतत्वस्य कषायरूपत्वादेव अनुभागबन्धस्य च कषायप्रत्ययत्वादिति । 'अप्पपएसे 'त्यादि, अल्पं - स्तोकं प्रदेशाग्रं - कर्मदलिकपरिमाणं यासां ताः तथा ता बहुप्रदेशाग्राः प्रकरोति । प्रदेशबन्धस्यापि योगप्रत्ययत्वाद्, असंवृतत्वस्य च योगरूपत्वादिति । 'आउयं चे'त्यादि, आयुः पुनः कर्म्म स्यात् - कदाचिद्बध्नाति स्यात् न बध्नाति । यस्मात्रिभागाद्यवशेषायुषः परभवायुः प्रकुर्व्वन्ति, तेन या भागादिस्तदा बध्नाति, अन्यदा न बध्नातीति । तथा ‘असाए’त्यादि असातवेदनीयं च - दुःखवेदनीयं कर्म पुनः 'भूयो भूयः' पुनः पुनः 'उपचिनोति' उपचितं करोति । ननु कर्मसप्तकान्तवर्त्तित्वादसातावेदनीयस्य पूर्वोक्तविशेषणेभ्य एव तदुपचयप्रतिपत्तेः किमेतद्ग्रहणेन ? अत्रोच्यते-अंसंवृतोऽत्यन्तदुःखितो भवतीति प्रतिपादनेन भयजननादसंवृतत्वपरिहारार्थमिदमित्यदुष्टमिति । ३. नोचरिती नोअचरित्ती क. घ. २. मन्येत ख. ग. छ. ३. प्रमाणं ख. घ. ४. अन्यदा तु ख. Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६१ भगवती वृत्ति श.१: उ.१: सू.४५-५० 'अणाइय'ति अविद्यमानादिकम्, अज्ञातिकं वा-अविद्यमानस्वजनम् ऋणं-वाऽतीतम् ऋणजन्यदुःस्थताऽतिक्रान्तं दुःस्थतानिमित्ततयेति ऋणातीतम्, अणं वाऽणकं-पापमतिशयेनेतं गतमणातीतम् । 'अणवयग्गं'ति, 'अवयग्गं'ति देशीवचनोऽन्तवाचकस्ततस्तन्निषेधाद् अणवयग्गम्, अनन्तमित्यर्थः। अथवाऽवनतम्-आसन्नमग्रम्-अन्तो यस्य तत्तथा तन्निषेधाद् अनवनताग्रम्। एतदेव वर्णनाशादवनताग्रमिति। अथवा ऽनवगतम् –अपरिच्छिन्नमग्रं-परिमाणं यस्य तत्तथा । अत एव 'दीहमद्धंति 'दीर्घाद्धं' दीर्घकालं, 'दीर्घाध्वं वा' दीर्घमार्गं । 'चाउरंत'न्ति चतुरन्तं देवादिगतिभेदात्, पूर्वादिदिग्भेदाच्च चतुर्विभागं तदेव स्वार्थिकाण्प्रत्ययोपादानाचातुरन्तं । 'संसारकतारंति भवारण्यम् 'अणुपरियट्टइ'त्ति पुनः पुनभ्रंमतीति । असंवृतस्य तावदिदं फलं, संवृतस्य तु यत्स्यात्तदाह'संवुड़े ण मित्यादि, व्यक्तं, नवरं संवृतः अनगारः प्रमत्ताप्रमत्तसंयतादि, स च चरमशरीरः स्यादचरमशरीरो वा, तत्र यश्चरमशरीरस्तदपेक्षयेदं सूत्रं, यस्त्वचरमशरीरस्तदपेक्षया परम्परया सूत्रार्थोऽवसेयः । ननु पारम्पर्येणासंवृतस्यापि सूत्रोक्तार्थस्यावश्यम्भावो, यतः शुक्लपाक्षिकस्यापि मोक्षोऽवश्यंभावी । तदेवं संवृतासंवृतयोः फलतो भेदाभाव एवेति? अत्रोच्यते सत्यं, किन्तु यत्संवृतस्य पारम्पर्य तदुत्कर्षतः सप्ताष्टभवप्रमाणं । यतो वक्ष्यति-'जहन्नियं चरित्ताराहणं आराहित्ता सत्तट्ठभवग्गहणेहि सिज्झइति । यच्चासंवृतस्य पारम्पर्य तदुत्कर्षतोऽपार्द्धपुद्गलपरावर्त्तमानमपि स्याद्, विराधनाफलत्वात्तस्येति । 'वीइवयइत्ति व्यतिव्रजति व्यतिक्रामतीत्यर्थः । अनगारः संवृतत्वात्सिध्यतीत्युक्तं, यस्तु तदन्यः स विशिष्टगुणविकलः सन् किं देवः स्यान्न वा ? इति प्रश्नयन्नाह'जीवे ण'मित्यादि, व्यक्तम्, नवरम् 'असंजए'त्ति असाधुः संयमरहितो वा । 'अविरए'त्ति प्राणातिपातादिविरतिरहितः विशेषेण वा तपसि रतो यो न भवति सोऽविरतः । 'अप्पडिहए'त्यादि, प्रतिहतं निराकृतमतीतकालकृतं निन्दादिकरणेन प्रत्याख्यातं च वर्जितमनागतकालविषयं पापकर्म-प्राणातिपातादि येन स प्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा तनिषेधादप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा, अनेनातीतानागतपापकर्मानिषेध उक्तः । असंयतोऽविरतश्चेत्यनेन वर्तमानपापासंवरणमभिहितम् । अथवा 'न' नैव 'प्रतिहतं' तपोविधानेन मरणकालाद् आरात्क्षपितं प्रत्याख्यातं च मरणकालेऽप्याश्रवनिरोधेन पापकर्म येन स तथा । अथवा 'न' नैव प्रतिहतं सम्यग्दर्शनप्रतिपत्तितः प्रत्याख्यातं च सर्वविरत्यङ्गीकरणतः पापकर्म-ज्ञानावरणाद्यशुभं कर्म येन स तथा। 'इओ'त्ति इतः प्रज्ञापकप्रत्यक्षात्तिर्यग्भवान्मनुष्यभवाद्वा च्युतो-मृतः ‘पेच्च' त्ति जन्मान्तरे देवः स्यात् ? इति प्रश्नः । ११४६. 'जे इमे जीवे'त्ति ये इमे प्रत्यक्षासन्नाः पंचेन्द्रियतिर्यञ्चो मनुष्या वा 'गामे' त्यादि ग्रामादिष्वधिकरणभूतेषु । तत्र ग्रामो-जनपदप्रायजनाश्रितः स्थानविशेषः, आकरो-लोहाद्युत्पत्तिस्थानम्, नकर-कररहितं, निगमो-वणिगजनप्रधानं स्थानं, राजधानी-यत्र राजा स्वयं वसति, खेटधूलिप्राकारं, कर्बट-कुनगरं, मडम्बं–सर्वतो दूरवर्ति सन्निवेशान्तरं, द्रोणमुखं-जलपथस्थलपथोपेतं, पत्तनं-विविधदेशागतपण्यस्थानं , तच्च द्विधा जलपत्तनं स्थलपत्तनं चेति रलभूमिरित्यन्ये, आश्रमं–तापसादिस्थानं, सन्निवेशो–घोषादिः, एषां द्वन्द्वस्ततस्तेषु। अथवा ग्रामादयो ये सन्निवेशास्ते तथा तेषु। 'अकामतण्हाए'त्ति अकामानां-निर्जराद्यनभिलाषिणां सतां तृष्णा-तृड् अकामतृष्णा तया, एवमकामक्षुधा । 'अकामबंभचेरवासेणं'ति अकामानां-निर्जराधनभिलाषिणां सताम् अकामो वा-निरभिप्रायो ब्रह्मचर्येण-स्यादिपरिभोगाभावमात्रलक्षणेन वासो-रात्रौ शयनमकामब्रह्मचर्यवासोऽतस्तेन । 'अकामअण्हाणगसेयजल्लमलपंकपरिदाहेणं'ति अकामा येऽस्नानकादयस्तेभ्यो यः परिदाहः स तथा तेन, तत्र स्वेदः-प्रस्वेदः याति च लगति चेति, जल्लो-रजोमात्रं, मलः-कठिनीभूतं रज एव, पो-मल एव स्वेदेनार्दीभूत इति । 'अप्पतरो वा भुजतरो वा काल'ति प्राकृतत्वेन विभक्तिविपरिणामादल्पतरं वा भूयस्तरं वा बहुतरं कालं यावत्, वाशब्दौ देवत्वं प्रत्यल्पेतरकालयोः समताऽभिधानार्थों, केवलं देवत्वे सामान्यतः सत्यपि अल्पतरकालमकामनिर्जरावतामविशिष्टं तस्याद् इतरेषां तु विशिष्टमिति, 'अप्पाणं परिकिलेसंति'त्ति विबाधयन्ति । 'कालमासे त्ति कालो-मरणं, तस्य मास:-प्रक्रमादवसरः कालमासस्तत्र ‘कालं किच्च'त्ति मृत्वा 'वाणमंतरेसु'त्ति वनान्तरेषु-वनविशेषेषु भवा वर्णागमकरणाद वानमन्तराः, अन्ये त्याहू: वनेषु भवा वानास्ते च ते व्यन्तराञ्चेति वानव्यन्तरारतेषामेते वानमन्तरा वानव्यन्तरा वाऽतस्तेष 'देवलोकेषु' देवाश्रयेषु 'देवत्ताए उववत्तारो भवंति'त्ति ये इमे इत्यत्र यच्छब्दोपादानात्ते देवतयोपपत्तारो भवन्तीति द्रष्टव्यम्। 1५०. 'तेसिं'ति ये देवलोकेष्वकामनिर्जरावन्तो देवतयोत्पद्यन्ते तेषामिति ‘से जहानामए' 'से' त्ति अथ यथा येन प्रकारेण नामेति संभावने वाक्यालंकारे वा 'ए' इत्यामन्त्रणार्थोऽलंकारार्थ एव वा 'इहं' ति इह मयलोके 'असोगवणे इव'त्ति अशोकवनम्, इतिशब्द उपप्रदर्शने, अनुस्वारलोपः संधिश्च प्राकृतत्वात् । 'वा' इति विकल्पार्थः । अथवा 'असोगवणे' इत्यत्र प्रथमैकवचनकृत एकारः। शब्दस्तु वाक्चालङ्कारे । अशोकादयस्तु प्रसिद्धा एव । नवरं 'सत्तवन्न'त्ति सप्तपर्णः सप्तच्छद इत्यर्थः। 'कुसुमिय'त्ति संजातकुसुमं 'माइयंत्ति मयूरितं संजातपुष्पविशेषमित्यधः, 'लवइय'त्ति लवकितं संजातपल्लवलवमंकुरवदित्यर्थः, 'थवइय'त्ति स्तबकितं संजातपुष्पस्तबकमित्यर्थः 'गुलुइय' त्ति संजातगुल्मक, गुल्मं च लतासमूहः 'गुच्छ्यि 'त्ति संजातगुच्छं, गुच्छश्च पत्रसमूहः, यद्यपि च स्तवकगुच्छयोरविशेषो नामकोशेऽधीतस्तथाऽपीह पुष्पपत्रकृतो विशेषो भावनीयः, 'जमलिय'त्ति यमलतया रामश्रेणितया तत्तरूणां व्यवस्थितत्वात् संजातयमलत्वेन यमलितं, 'जुवलिय'त्ति युगलतया तत्तरूणां संजातत्वेन युगलितं, 'विणमिय'त्ति विशेषेण पुष्पफलभरेण नमितमितिकृत्वा विनिमितं, 'पणमिय' त्ति तेनैव नमयितुमारब्धत्वात् प्रणमितं प्रशब्दस्यादिकार्थत्वादिति, १.x क.ख. छ. Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति श. १: उ.१,२: सू.५०-६१ ३६२ तथा 'सुविभक्ताः अतिविभक्ताः सुनिष्पन्नतया पिण्ड्यो लुम्ब्यो मञ्जर्यश्च प्रतीतास्ता एवावतंसका - शेखरकास्तान् धारयति यत्तत्सुविभक्तपिण्डीमञ्जर्यवतंसकधरं ततः कुसुमितादीनां कर्मधारय इति । 'सिरीए 'त्ति श्रिया -- वनलक्ष्म्या 'उवसोभेमाणे उवसोभेमाणे 'त्ति इह द्विर्वचनमाभीक्ष्ण्ये भृशत्वे इत्यर्थः । 'आइन्न' त्ति क्वचित्प्रदेशे देवानां देवीनां च वृन्दैरात्मीयात्मीयावाऽऽ समर्यादानुल्लंघनेन व्याप्ताः आङ् शब्दोऽत्र मर्यादावृत्तिः । तथा कचित्तु 'विइइन्न'त्ति तैरेव वृन्दैर्निजावाससीमोल्लंघनेन व्याप्ताः विशब्दो विशेषवाची । 'उवत्थड 'त्ति उपस्तीर्णाः उपशब्दः सामीप्यार्थः स्तृञ् च आच्छादनार्थस्ततश्चोत्पतद्भिर्निपतद्भिश्चानवरतक्रीडासक्तैरुपर्युपरि च्छादिताः । 'संघड' त्ति संस्तीर्णाः संशब्दः परस्परसंश्लेषार्थः ततश्च क्वचित्तैरेवाक्रीडमानैरन्योऽन्यस्पर्द्धया समन्ततश्चरद्भिराच्छादिता इति । 'फुड' त्ति 'स्पृष्टाः' आसनशयनरमणपरिभोगद्वारेण परिभुक्ताः स्फुटा वा प्रकाशा व्यन्तरसुरनिकरकिरणविसरनिराकृतान्धकारतया । 'अवगाढगाढ'त्ति गाढंघबाढमवगाढास्तैरेव सकलक्रीडास्थान परिभोगनिहितमनोभिरधोऽपि व्याप्ताः । गाढावगाढा इति वाच्ये प्राकृतत्वादवगाढगाढाः । इह च देवत्वयोग्यस्य जीवस्याभिधानेन तदयोग्यः सामर्थ्यादवसीयत एवेति । 'अत्थेगइए नो देवे सिया' इत्येतस्यादावुक्तस्य पक्षस्य निर्वचनं कृतं द्रष्टव्यमिति । अथोद्देशकनिगमनार्थमाह १।५१. ‘सेवं भंते सेवं भंते त्ति यन्मया पृष्टं तत् भगवद्भिः प्रतिपादितं तत एवमित्थमेव भदन्त ! नान्यथा, अनेन भगवदुवचने बहुमानं दर्शयति । द्विर्वचनं चेह भक्तिसंभ्रमकृतमिति । एवं कृत्वा भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति चेति । ॥ प्रथमशते प्रथमोद्देशक विवरणं समाप्तमिति ॥ द्वितीय उद्देशकः व्याख्यातः प्रथमोद्देशकः । अथ द्वितीय आरभ्यते अस्य चैवं' सम्बन्धः - प्रथमोद्देशके चलनादिधर्मकं कर्म्म कथितं तदेवेह निरूप्यते । तथोद्देशकार्थसंग्रहिण्यां 'दुक्खेत्ति यदुक्तं तदिहोच्यते, तत्प्रस्तावनार्थं च पूर्वोक्तमेव ग्रन्थं स्मरयन्नाह - १। ५२. 'रायगिहे ' इत्यादि पूर्ववत् । १ । ५३. 'जीवे ण'मित्यादि तत्र 'सयंकडं दुक्खं 'ति यत्परकृतं तन्न वेदयतीति प्रतीतमेवातः स्वयंकृतमिति पृच्छति स्म । 'दुक्ख' ति सांसारिकं सुखमपि वस्तुतो दुःखमिति दुःखहेतुत्वात् दुःखं कर्म वेदयतीति काकुपाठात् प्रश्नः । निर्वचनं तु यदुदीर्णं तद् वेदयति । अनुदीर्णस्य हि कर्मणो वेदनमेव नास्ति, तस्मादुदीर्णं वेदयति नानुदीर्णम् । न च बन्धानन्तरमेवोदेति अतोऽवश्यं वेद्यमप्येकं वेदयत्येकं न वेदयति इत्येवं व्यपदिश्यते । अवश्यं वेद्यमेव च कर्म 'कडाण कम्माण ण मोक्खो अत्थि' इति वचनादिति । १।५५. 'एवं जाव वेमाणिए' इत्यनेन चतुर्विंशतिदण्डकः सूचितः स चैवम्- 'नेरइए णं भंते ! सयंकड' मित्यादि । एवमेकत्वेन दण्डकः, तथाबहुत्वेनान्यः स चैवम्मू १५६. 'जीवा णं भंते ! सयंकडं दुक्खं वेदेंती त्यादि तथा 'नेरइयाणं भंते! सयंकडं दुक्ख मित्यादि नन्वेकत्वे योऽर्थो बहुत्वेऽपि स एवेति किं बहुत्वप्रश्ने न ? इति अत्रोच्यते क्वचिद्वस्तुनि एकत्वबहुत्वयोरर्थविशेषो दृष्टथे तथा सम्यक्त्वादेः एकं जीवमाश्रित्य षट्षष्टिसागरोपमाणि साधिकानि स्थितिकाल उक्तो, नानाजीवानाश्रित्य पुनः सर्वाद्धा इति । एवमत्रापि संभवेदिति शंकायां बहुत्वप्रश्नो न दुष्टः अत्यन्ताऽव्युत्पन्नमतिशिष्यव्युत्पादनार्थत्वाद्द्वेति । अथायुः प्रधानत्वान्नारकादिव्यपदेशस्यायुराश्रित्य दण्डकद्वयम् १ । ५६. 'जीवे ण 'मित्यादि एतस्य चेयं वृद्धोक्तभावना - यदा सप्तमक्षितावायुर्बद्धं पुनश्च कालान्तरे परिणामविशेषात्तृतीयधरणीप्रायोग्यं निर्वर्त्तितं वासुदेवेनेव तत्तादृशमंगीकृत्योच्यते- पूर्वबद्धं कश्चिन्न वेदयति अनुदीर्णत्वात्तस्य । यदा पुनर्यत्रैव बद्धं तत्रैवोत्पद्यते तदा वेदयतीत्युच्यते तथैव तस्योदितत्वादिति । १. चायं ग. अथ चतुर्विंशतिदण्डकमाहारादिभिर्निरूपयन्नाह 'नेरइए' इत्यादि, व्यक्तं, नवरं । १ । ६०. १ । ६१. ' महासरीरा य अप्पसरीरा येत्यादि, इहाल्पत्वं महत्त्वं चापेक्षिकम् । तत्र जघन्यम् - अल्पत्वमंगलासंख्येयभागमात्रत्वम् उत्कृष्टं तु महत्त्वं पञ्चधनुःशतमानत्वम् । एतच्च भवधारणीयशरीरापेक्षया । उत्तरवैक्रियापेक्षया तु जघन्यमंगलमसंख्यातभागमात्रत्वम्, इतरतु धनुः सहस्रमानत्वमिति । एतेन च किं समशरीरा इत्यत्र प्रश्ने उत्तरमुक्तम् । शरीरविषमताऽभिधाने सत्याहारोच्छ्वासयोर्वेषम्यं सुखप्रतिपाद्यं भवतीति शरीरप्रश्नस्य द्वितीयस्थानोक्तस्यापि प्रथमं निर्वचनमुक्तम् । अथाहारोच्छ्वासप्रश्नयोर्निर्वचनमाह - ' तत्थ णमित्यादि ये यतो महाशरीरास्ते तदपेक्षया बहुतरान् पुद्गलान् आहारयन्ति महाशरीरत्वादेव । दृश्यते हि लोके बृहच्छरीरो बह्वाशी स्वल्पशरीरश्चाल्पभोजी, हस्तिशशकवत् । बाहुल्यापेक्षं चेदमुच्यते, अन्यथा बृहच्छरीरोऽपि कश्चिदल्पमश्नाति अल्पशरीरोऽपि कश्चिद् भूरि भुंक्ते, तथाविधमनुष्यवत् । न पुनरेवमिह बाहुल्यपक्षस्यैवाश्रयणात् । २. स्मरन्नाह क. Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति श.१: उ.२ः सू.६१-७३ ते च नारका उपपातादिसवेद्यानुभवादन्यत्रासद्वद्योदयवर्तित्वेनैकान्तेन यथा महाशरीरा' दुःखितास्तीव्राहाराभिलाषाश्च भवन्तीति । 'बहुतराए पोग्गले परिणामेति'त्ति आहारपुद्गलानुसारित्वात्परिणामस्य बहुतरानित्युक्तं, परिणामश्चापृष्टोऽप्याहारकार्यमितिकृत्वोक्तः । तथा 'बहुतराए पोग्गले उस्ससंति'त्ति उच्छ्वासतया गृह्णन्ति, 'निस्ससंति'त्ति निःश्वासतया विमुञ्चन्ति, महाशरीरत्वादेव । दृश्यते हि बृहच्छरीरस्तज्जातीयेतरापेक्षया बहूच्छ्वासनिःश्वास इति । दुःखितोऽपि तथैव, दुःखिताश्च नारका इति बहुतरांस्तानुच्छ्वसन्तीति। तथाऽऽहारस्यैव कालकृतं वैषम्यमाह–'अभिक्खणं आहारेंति'त्ति अभीक्ष्ण-पौनःपुन्येन यो यतो महाशरीरः स तदपेक्षया शीघ्रशीघ्रतराहारग्रहण इत्यर्थः। 'अभिक्खणं ऊससंति अभिक्खणं नीससंति' एते हि महाशरीरत्वेन दुःखिततरत्वात् 'अभीक्ष्णम्' अनवरतमुच्छ्वासादि कुर्वन्तीति। तथा 'जेते'इत्यादि ये ते, इह ये इत्येतावतैवार्थसिद्धौ यत्ते इत्युच्यते तद्भाषामात्रमेवेति । 'अप्पसरीरा अप्पतराए पोग्गले आहारेति'त्ति ये यतोऽल्पशरीरास्ते तदाहरणीयपुद्गलापेक्षयाल्पतरान् पुद्गलानाहारयन्ति, अल्पशरीरत्वादेव । 'आहच्च आहारेंति'त्ति कदाचिदाहारयन्ति कदाचिन्नाहारयन्ति, महाशरीराहारग्रहणान्तरालापेक्षया, बहुतरकालान्तरालतयेत्यर्थः । 'आहच्च ऊससंति नीससंति 'त्ति एते ह्यल्पशरीरत्वेनैव महाशरीरापेक्षयाऽल्पतरदुःखत्वात् आहत्य कदाचित् सान्तरमित्यर्थः उच्छ्वासादि कुर्वन्ति, यच्च नारकाः सन्ततमेवोच्छ्वासादि कुर्वन्तीति प्रागुक्तं तन्महाशरीरापेक्षयेत्यवगन्तव्यमिति । अथवाऽपर्याप्तकालेऽल्पशरीराः सन्तो लोमाहारापेक्षया नाहारयन्ति उच्छ्वासाऽपर्याप्तकत्वेन नोच्छ्वसन्ति, अन्यदा त्वाहारयन्ति उच्छ्वसन्ति चेत्यत आहत्याहारयन्ति आहत्योच्छ्वसन्तीत्युक्तं। ‘से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-नेरइया सव्वे नो समाहारे'त्यादि निगमनमिति । समकर्मसूत्रे११६३. 'पुचोदवनगा य पच्छोववनगा यत्ति पूर्वोत्पन्नाः प्रथमतरमुत्पन्नास्तदन्ये तु पश्चादुत्पन्नाः, तत्र पूर्वोत्पन्नानामायुषस्तदन्यकर्मणां च बहुतरवेदना दल्पकर्मत्वं, पश्चादुत्पन्नानां च नारकाणामायुष्कादीनामल्पतराणां वेदितत्वात् महाकर्मत्वम् । एतच्च सूत्रं समानस्थितिका ये नारकास्तानङ्गीकृत्य प्रणीतम् । अन्यथा हि रत्नप्रभायामुत्कृष्टस्थितेनरिकस्य बहुन्यायुषि क्षयमिते पल्योपमावशेषे च तिष्ठति तस्यामेव रत्नप्रभायां दशवर्षसहस्रस्थिते नारकोऽन्यः कश्चिदुत्पन्न इति कृत्वा प्रागुत्पन्नं पल्योपमायुष्कं नारकमपेक्ष्य किं वक्तुं शक्यं महाकर्मेति ? १९६४. एवं वर्णेसूत्रे पूर्वोत्पन्नस्याल्पं कर्म ततस्तस्य विशुद्धो वर्णः, पश्चादुत्पन्नस्य च बहुकर्मत्वादविशुद्धतरो वर्ण इति । ११६८. एवं लेश्यासूत्रेऽपि इह च लेश्याशब्देन भावलेश्या ग्राह्याः बाह्यद्रव्यलेश्या तु वर्णद्वारेणैवोक्तेति । १।६८,६६. 'समवेयणत्ति समवेदनाः समानपीडाः 'सन्निभूय'त्ति संज्ञा-सम्यग्दर्शनं तद्वन्तः संज्ञिनः संज्ञिनो भूता:-संज्ञित्वं गताः संज्ञिभूताः । अथवाऽसंज्ञिनः संझिनो भूताः संज्ञिभूताः च्चिप्रत्यययोगात्, मिथ्यादर्शनमपहाय सम्यग्दर्शनजन्मना समुत्पन्ना इति यावत् । तेषां च पूर्वकृतकमविपाकमनुस्मरतामहो महदुःखसंकटमिदमकस्मादस्माकमापतितं, न कृतो भगवदर्हाणीतः सकलदुःखक्षयकरो विषयविषमविषपरिभोगविप्रलब्धचेतोभिधर्म इत्यतो महदुःखं मानसमुपजायतेऽतो महावेदनास्ते। असंज्ञिभूतास्तु मिथ्यादृष्टयः, ते तु स्वकृतकर्मफलमिदमित्येवमजानन्तोऽनुपतप्तमानसा अल्पवेदनाः स्युरित्येके। अन्येत्वाहुः-संज्ञिन:संज्ञिपंचेन्द्रियाः सन्तो भूता-नारकत्वंगताः संज्ञिभूताः ते महावेदनाः। तीव्राशुभाध्यवसायेनाशुभतरकर्मबंधनेन महानरकेषूत्पादात् । असंज्ञिभूतास्त्वनुभूतपूर्वासंज्ञिभवाः ते चासंज्ञित्वादेवात्यन्ताशुभाध्यवसायाभावाद्रत्नप्रभायामनतितीव्रवेदननरकेषूत्पादादल्पवेदनाः। अथवा संज्ञिभूताः पर्याप्तकीभूताः असंज्ञिनस्तु अपर्याप्तकाः ते च क्रमेण महावेदना इतरे च भवन्तीति प्रतीयत एवेति । ११७० 'समकिरिय'त्ति समा:-तुल्याः क्रिया:-कर्मबंधनिबन्धनभूता आरम्भिक्यादिका येषां ते समक्रियाः।। ११७१. आरंभिय'त्ति आरंभ:-पृथिव्याधुपमर्दः, स प्रयोजनं–कारणं यस्याः साऽऽरम्भिकी। 'पारिग्गहिय'त्ति परिग्रहो-धर्मोपकरणवर्जवस्तुस्वी कारो धर्मोपकरणमूर्छा च, स प्रयोजनं यस्याः सा पारिग्रहिकी। 'मायावत्तिय'त्ति माया-अनार्जवं उपलक्षणत्वाक्रोधादिरपि च, सा प्रत्ययः --कारणं यस्याः सा मायाप्रत्यया । 'अप्पच्चक्खाणकिरिय'त्ति अप्रत्याख्यानेन निवृत्त्यभावेन क्रिया-कर्मबन्धादिकरणमप्रत्याख्यानक्रियेति । 'पंच किरियाओ कजंति'त्ति क्रियन्ते, कर्मकर्तरिप्रयोगोऽयं, तेन भवन्तीत्यर्थः । 'मिच्छादसणवत्तिय'त्ति मिथ्यादर्शनं प्रत्ययो हेतुर्यस्याः सा मिथ्यादर्शनप्रत्यया। ननु मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगाः कर्मबन्धहेतवः इति प्रसिद्धिः, इह तु आरम्भादयस्तेऽभिहिता इति कथं न विरोधः ? उच्यते आरम्भपरिग्रहशब्दाभ्यां योगपरिग्रहो, योगानां तद्पत्वात् । शेषपदैस्तु शेषबन्धहेतुपरिग्रहः प्रतीयत एवेति। तत्र सम्यग्दृष्टीनां चतस्र एव, मिथ्यात्वाभावात् । शेषाणां तु पञ्चापि, सम्यग्मिध्यात्वस्य मिथ्यात्वेनैवेह विवक्षितत्वादिति । ११७२,७३. 'सव्वे समाउया' इत्यादेः प्रश्नस्य निर्वचनचतुर्भङ्गया भावना क्रियते निबद्धदशवर्षसहस्रप्रमाणायुषो युगपच्चोत्पन्ना इति प्रथमभंगः।। तेष्वेव दशवर्षसहस्रस्थितिषु नरकेष्वेके प्रथमतरमुत्पन्ना अपरे तु पश्चादिति द्वितीयः । १. महाशरीर ख. घ. च. छ. २. प्रथमतरसमुत्पन्ना ख. ग. घ. छ. ३. क्षयमुपगते ग. ४. महदुःखं ख. ग. ५. कर्मनिवन्धनभूता क. ख. घ. ६. इत्यादि क. ख. Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १: उ. २: सू.७३-८० १।७४. १।७५. १।७६. अन्यैर्विषममायुर्निबद्धं कैश्चिद्दशवर्षसहस्रस्थितिषु कैश्चिच्च पञ्चदशवर्षसहस्रस्थितिषु, उत्पत्तिः पुनर्युगपदिति तृतीयः । केचित्सागरोपमस्थितयः केचित्तु दशवर्षसहस्रस्थितयः इत्येवं विषमायुषो विषममेव चोत्पन्ना इति चतुर्थः । इह संग्रहगाथा - ३६४ "आहाराईसु समा कम्मे वज्ञे तहेव लेसाए । वियणाए किरियाए आउय उववत्तिचउमंगी ॥ " असुरकुमारा णं भंते ! इत्यादिनाऽ सुरकुमारप्रकरणमाहारादिपदनवकोपेतं सूचितं । तच नारकप्रकरणवन्नेयम्, एतदेवाह - 'जहा नेरइया'इत्यादि । तत्राहारकसूत्रे नारकसूत्रसमानेऽपि भावना विशेषेण लिख्यते-असुरकुमाराणामल्पशरीरत्वं भवधारणीयशरीरापेक्षया जघन्यतोगुला संख्येयभागमानत्वं महाशरीरत्वं तूत्कर्षतः सप्तहस्तप्रमाणत्वं । उत्तरवैक्रियापेक्षया त्वल्पशरीरत्वं जघन्यतोऽङ्गुलसंख्येयभागमानत्वं महाशरीरत्वं तूत्कर्षतो योजनलक्षमानमिति । तत्रैते महाशरीरा बहुतरान् पुद्गलानाहारयन्ति, मनोभक्षणलक्षणाहारापेक्षया । देवानां ह्यसौ स्यात् प्रधानश्च, प्रधानापेक्षया च शास्त्रे निर्देशो वस्तूनां विधीयते । ततोऽल्पशरीरग्राह्याहारपुद्गलापेक्षया बहुतरांस्ते तानाहारयन्तीत्यादि प्राग्वत् । अभीक्ष्णमाहारयन्ति अभीक्ष्णमुच्छ्वसन्ति च इत्यत्र ये चतुर्थादिरुपर्याहारयन्ति स्तोकसप्तकादेश्चोपर्युच्छ्वसन्ति तानाश्रित्याभीक्ष्णमित्युच्यते । ' उत्कर्षतो ये सातिरेकवर्षसहस्रस्योपरि आहारयन्ति सातिरेकपक्षस्य चोपर्युच्छ्वसन्ति तानंगीकृत्य एतेषामल्पकालीनाहारोच्छ्वासत्वेन पुनः पुनराहारयन्तीत्यादिव्यपदेशविषयत्वादिति । तथाऽल्पशरीरा अल्पतरान् पुद्गलानाहारयन्ति उच्छ्वसन्ति च अल्पशरीरत्वादेव, यत्पुनस्तेषां कादाचित्कत्वमाहारोच्छ्वासयोस्तन्महाशरीराहारोच्छ्वासान्तरालापेक्षया बहुतमान्तरालत्वात् । तत्र हि अन्तराले ते नाहारादि कुर्वन्ति तदन्यत्र कुर्वन्तीत्येवं विवक्षणादिति । महाशरीराणामप्याहारोच्छ्वासयोरन्तरालमस्ति किन्तु तदल्पमित्यविवक्षणादेवाभीक्ष्णमित्युक्तम् । सिद्धं च महाशरीराणां तेषामाहारोच्छ्वासयोरल्पान्तरत्वम्, अल्पशरीराणां तु महान्तरत्वं । यथा सौधर्मदेवानां सप्तहस्तमानतया महाशरीराणां तयोरन्तरं क्रमेण वर्षसहस्रद्वयं पक्षद्वयं च । अनुत्तरसुराणां च हस्तमानतया अल्पशरीराणां त्रयस्त्रिंशद्वर्षसहस्राणि त्रयस्त्रिंशदेव च पक्षा इति । एषां च महाशरीराणामभीक्ष्णाहारोच्छ्वासाभिधानेनाल्पस्थितिकत्वमवसीयते । इतरेषां तु विपर्ययो वैमानिकवदेवेति । अथवा लोमाहारापेक्षयाऽभीक्ष्णं - अनुसमयमाहारयन्ति महाशरीराः पर्याप्तकावस्थायां उच्छ्वासस्तु यथोक्तमानेनापि भवन् परिपूरणभवापेक्षया पुनः पुनरित्युच्यते। अपर्याप्तकावस्थायां त्वल्पशरीरा लोमाहारतो नाहारयन्ति, ओजाहारत एवाहरणात् इति कदाचित्ते आहारयन्तीत्युच्यते । उच्छूवासापर्याप्तकावस्थायां च नोच्छ्वसन्त्यन्यदा तूच्छ्वसन्तीत्युच्यते आहत्योच्छ्वसन्तीति । 'कम्मवन्नलेस्साओ परिवन्नेयव्वाओ त्ति कर्म्मादीनि नारकापेक्षया विपर्ययेण वाच्यानि, तथाहि नारका ये पूर्वोत्पन्नास्तेऽल्पकर्मकशुद्धतरवर्णशुभतरलेश्या उक्ताः असुरास्तु ये पूर्वोत्पन्नास्ते महाकर्माणोऽशुद्धवर्णा अशुभतरलेश्याश्चेति कथम् ? ये हि पूर्वोत्पन्ना असुरास्तेऽतिकन्दर्पदर्पाध्मातचित्तत्वान्नारकाननेकप्रकारया यातनया यातयन्तः प्रभूतमशुभं कर्म संचिन्वन्तीत्यतोऽभिधीयन्ते ते महाकर्माणः । अथवा ये बद्धायुषस्ते तिर्यगादिप्रायोग्यकर्म्मप्रकृतिबन्धनान्महाकर्माणः तथाऽशुद्धवर्णा अशुभलेश्याश्च ते । पूर्वोत्पन्नानां हि क्षीणत्वात् शुभकर्मणः शुभो वर्णो लेश्या च हसतीति । पश्चादुत्पन्नास्त्वबद्धायुषोऽल्पकर्माणो बहुतरकर्मणामबंधनादशुभकर्म्मणामक्षीणत्वाच्च शुभवर्णादयः स्युरिति । भगवती वृत्ति वेदना-सूत्रं च' यद्यपि नारकाणामिवासुरकुमाराणामपि तथाऽपि तद्भावनायां विशेषः, स चायम् - ये संज्ञिभूतास्ते महावेदनाः, चारित्रविराधनाजन्यचित्तसन्तापात्। अथवा संज्ञिभूता संज्ञिपूर्वभवाः पर्याप्ता वा ते शुभवेदनामाश्रित्य महावेदना इतरे त्वल्पवेदना इति । एवं नागकुमारादयोऽपि औचित्येन वाच्याः । १। ७७-८०. 'वेदनाक्रिययोस्तु नानात्वमत एवाह - 'पुढविकाइयाणं भंते ! सव्वे समवेदणे त्यादि । 'पुढविक्काइया णं भंते ! आहारकम्मवन्नलेस्सा जहा नेरइयाणं 'ति चत्वार्यपि सूत्राणि नारकसूत्राणीव पृथिवीकायिकाभिलापेनाधीयन्त इत्यर्थः । केवलमाहारसूत्रे भावनैवं—पृथिवीकायिकानामंगुलासंख्येयभागमात्रशरीरत्वेऽप्यल्पशरीरत्वम् । इतरच्च इत आगमवचनादवसेयम्- ' पुढविकाइयस्स ओगाहणट्टयाए चउट्ठाणवडिए' त्ति, ते च महाशरीरा लोमाहारतो बहुतरान् पुद्गलानाहारयन्तीति, उच्छ्वसन्ति च अभीक्ष्णं महाशरीरत्वादेव । अल्पशरीराणामल्पाहारोच्छ्वासत्वमल्पशरीरत्वादेव । कादाचित्कत्वं च तयोः पर्याप्तकेतरावस्थापेक्षमवसेयम् । तथा कर्मादिसूत्रेषु पूर्वपश्चादुत्पन्नानां पृथिवीकायिकानां कर्मवर्णलेश्याविभागो नारकैः सम एव । १. मिदमुच्यते ख. ग. घ. २. पर्याप्ता ख. ‘असन्नि’त्ति मिध्यादृष्टयोऽमनस्का वा 'असन्निभूय'त्ति असंज्ञिभूता असंज्ञिनां या जायते तामित्यर्थः । एतदेव व्यनक्ति- 'अणिदाए 'त्ति अनिर्द्धारया वेदनां वेदयन्ति । वेदनामनुभवन्तोऽपि न पूर्वोपात्ताशुभकर्मपरिणतिरियमिति मिध्यादृष्टित्वादवगच्छन्ति । विमनस्कत्वाद्वा मत्तमूर्च्छितादिवदिति भावना । 'माईमिच्छादिट्ठि' त्ति मायावन्तो हि तेषु प्रायेणोत्पद्यन्ते, यदाह “उम्मम्गदेसओ मग्गणासओ गूढहियय माइल्लो । सदसीलो य ससल्लो तिरियाउं बंघए जीवो ।। "त्ति । ३. x क. छ. Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ३६५ श.१: उ.२ः सू.८०-१०१ ततस्ते मायिन उच्यन्ते, अथवा मायेहानन्तानुबंधिकषायोपलक्षणम् अतोऽनन्तानुबंधिकषायोदयवन्तोऽत एव मिथ्यादृष्टयो-मिथ्यात्वोदयवृत्तय इति। 'ताणं णियइयाओ' *त्ति तेषां पृथिवीकायिकानां नैयतिक्यो-नियता न तु त्रिप्रभृतयः, पञ्चैवेत्यर्थः। 'से तेणटेणं समकिरियत्ति निगमनम्। १/८२. 'जाव चउरिदिय'त्ति, इह महाशरीरत्वमितरच्च स्वस्वावगाहनाऽनुसारेणावसयेम् । आहारश्च द्वीन्द्रियादीनां प्रक्षेपलक्षणोऽपीति। ११८३. 'पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा णेरइय'त्ति प्रतीतं, नवरमिह महाशरीरा अभीक्ष्णमाहारयन्ति उच्छ्वसन्ति चेति यदुच्यते तत्संख्यात वर्षायुषोऽपेक्ष्येत्यवसेयं, तथैव दर्शनात् । नासंख्यातवर्षायुषः तेषां प्रक्षेपाहारस्य षष्ठस्योपरि प्रतिपादितत्वात् । अल्पशरीराणां त्वाहारोच्छ्वासयोः कादाचित्कत्वं वचनप्रामाण्यादिति । लोमाहारापेक्षया तु सर्वेषामप्यभीक्ष्णमिति घटत एव । अल्पशरीराणां तु यत्कादाचित्कत्वं तदपर्याप्तत्वे लोमाहारोच्छ्वासयोरभवनेन पर्याप्तकत्वे च तद्भावेनावसेयमिति । तथा कर्मसूत्रे यत्पूर्वोत्पन्नानामल्पकर्मत्वमितरेषां तु महाकर्मत्वं तदायुष्कादितद्भववैद्यकर्मापेक्षयाऽवसेयम् । तथा वर्णलेश्यासूत्रयोर्यत्पूर्वोत्पन्नानां शुभवर्णाद्युक्तं तत्तारुण्यात् पश्चादुत्पन्नानां चाशुद्धवर्णादि बाल्यादवसेयं, लोके तथैव दर्शनादिति। तथा 'संजयासंजय'त्ति देशविरताः स्थूलात् प्राणातिपातादेर्निवृत्तत्वादितरस्मादनिवृत्तत्वाञ्चेति। ११८६. 'मणुस्सा जहा नेरइयत्ति तथा वाच्या इति गम्यम् । नानात्वं भेदः पुनरयं-'तत्र मणुस्सा णं भंते ! सव्वे समाहारगा ?' इत्यादि प्रश्नः, 'नो इणढे सम?' इत्याधुत्तरम्। ११६७. 'जाव दुविहा मणुस्सा पन्नत्ता, तंजहा-महासरीरा य अप्पसरीरा य, तत्थ णं जे ते महासरीरा ते बहुतराए पोग्गले आहारेंति', एवं 'परिणामेति ऊससंति नीससंति।' इह स्थाने नारकसूत्रे 'अभिक्खणं आहारेंती'त्यधीतम्, इह तु 'आहच्चे'त्यधीयते, महाशरीरा हि देवकुर्बादिमिथुनकाः, ते च कदाचिदेवाहारयन्ति कावलिकाहारेण, 'अट्ठमभत्तस्स आहारो"त्ति वचनात् । अल्पशरीरास्त्वभीक्ष्णमल्पं च, बालानां तथैव दर्शनात्, संमूर्छिममनुष्याणामल्प शरीराणामनवरतमाहारसंभवाच्च। ११६१. यच्चेह पूर्वोत्पन्नानां शुद्धवर्णादि तत्तारुण्यात् संमूर्छिमापेक्षया चेति ।' ११६७. 'सरागसंजय'त्ति अक्षीणानुपशान्तकषायाः। 'वीयरागसंजय'त्ति उपशान्तकषायाः क्षीणकषायाश्च । 'अकिरिय'त्ति वीतरागत्वेनारंभादीनाम भावादक्रियाः। 'एगा मायावत्तिय'त्ति अप्रमत्तसंयतानामेकैव मायाप्रत्यया 'किरिया कजइत्ति क्रियते-भवति कदाचिदुड्डाहरक्षणप्रवृत्तानामक्षीणकषायत्वादिति। 'आरंभिय'त्ति प्रमत्तसंयतानां 'सर्वः प्रमत्तयोग आरंभ' इतिकृत्वाऽऽरम्भिकी स्यात्, अक्षीणकषायत्वाच्च मायाप्रत्ययेति। १११००. 'वाणमंतरजोइसवेमाणिया जहा असुरकुमार'त्ति, तत्र शरीरस्याल्पत्वमहत्त्वे स्वावगाहनानुसारेणावसेये। तथा वेदनायामसुरकुमाराः 'सन्निभूया य असन्निभूया य, सन्निभूया महावेयणा असन्निभूया अप्पवेयणा' इत्येवमधीताः । व्यन्तरा अपि तथैवाध्येतव्याः, यतोऽसुरादिषु व्यन्तरान्तेषु देवेषु असंज्ञिन उत्पद्यन्ते, यतोऽत्रैवोद्देशके वक्ष्यति-'असन्नी णं जहन्नेणं भवणवासीसु उक्कोसेणं वाणमंतरेसुत्ति, ते चासुरकुमारप्रकरणोक्तयुक्तरल्पवेदना भवन्तीत्यवसेयम् । यत्तु प्रागुक्तं संज्ञिनः सम्यग्दृष्टयोऽसंज्ञिनस्त्वितरे इति तवृद्धव्याख्यानुसारेणैवेति । ज्योतिष्कवैमानिकेषु त्वसंज्ञिनो नोत्पद्यन्तेऽतो वेदनापदे तेष्वधीयते 'दुविहा जोतिसिया-मायिमिच्छदिट्ठी उववन्नगा ये'त्यादि, तत्र मायिमिथ्यादृष्टयोऽल्पवेदना इतरे च महावेदनाः शुभवेदनामाश्रित्येति । एतदेव दर्शयन्नाह-नवरं 'वेयणा' इत्यादि। अथ चतुर्विंशतिदण्डकमेव लेश्याभेदविशेषणमाहारादिपदैनिरूपयन्' दण्डकसप्तकमाह919०१. 'सलेस्साणं भंते ! नेरइया सव्वे समाहारग'त्ति अनेनाहारशरीरोच्छ्वासकर्मवर्णलेश्यावेदक्रियोपपाताख्यपूर्वोक्तनवपदोपेतनारकादि चतुर्विंशतिपददण्डको लेश्यापदविशेषितः सूचितः, तदन्ये च कृष्णलेश्यादिविशेषिताः । पूर्वोक्तनवपदोपेता एव यथासंभवं नारकादिपदात्मकाः षड् दण्डकाः सूचिताः। तदेवमेतेषां सप्तानां दण्डकानां सूत्रसंक्षेपार्थ यो यथाऽध्येतव्यस्तं तथा दर्शयन्नाह-'ओहियाण'मित्यादि, तत्र औधिकानां पूर्वोक्तानां निर्विशेषणानां नारकादीनां तथा सलेश्यानामधिकृतानामेव शुक्ललेश्यानां तु सप्तमदण्डकवाच्यानामेषां त्रयाणामेको गमः-सदृशः पाठः, सलेश्यः शुक्ललेश्यश्चेत्येवंविधविशेषणकृत एव तत्र भेदः। औधिकदण्डकसूत्रवदनयोः सूत्रमिति हृदयम् । तथा 'जस्सस्थि' इत्येतस्य वक्ष्यमाणपदस्येह सम्बन्धाद्यस्य शुक्ललेश्याऽस्ति स एव तद्दण्डकेऽध्येतव्यः तेनेह पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो मनुष्या वैमानिकाश्च वाच्याः, नारकादीनां शुक्ललेश्याया अभावादिति। 'किण्हलेसनीललेसाणंपि एगो गमो' औधिक एवेत्यर्थः । विशेषमाह-'नवरं वेयणा' इत्यादि, कृष्णलेश्यादण्डके नीललेश्यादण्डके च वेदनासूत्रे 'दुविहा णेरइया पन्नत्ता-सन्निभूया य असन्निभूया य'त्ति औधिकदण्डकाधीतं नाध्येतव्यम्, असंज्ञिनां प्रथमपृथिव्यामेवोत्पादात, 'असण्णी खलु पढम मितिवचनात्, प्रथमायां च कृष्णनीललेश्ययोरभावात् । तर्हि किमध्येतव्यमित्याह-'मायिमिच्छदिट्ठिउववन्नगा ये'त्यादि, तत्र ★ अंगसुत्ताणि मध्ये 'णेयतियाओ' त्ति पाठः । १. वेति क.ख.ग.च. छ. २. अल्प ख. छ. ३. लेश्यालेश्या ख.घ. छ. ४. सप्त क. ५. एसो ख. घ. च. Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.२. सू.१०१-१०७ ३६६ भगवती वृत्ति मायिनो मिथ्यादृष्टयश्च महावेदना भवन्ति, यतः प्रकर्षपर्यन्तवर्तिनी स्थितिमशुभां ते निवर्तयन्ति, प्रकृष्चयां च तस्यां महती वेदना संभवति, इतरेषां तु विपरीतेति। तथा मनुष्यपदे क्रियासूत्रे यद्यप्यौघिकदण्डके 'तिविहा मणुस्सा पन्नत्ता, तंजहा-संजया, असंजया, संजयासंजया, तत्थ णं जे ते संजया ते दुविहा पण्णत्ता, तंजहा—सरागसंजया य वीयरागसंजया य, तत्थ णं जे ते सरागसंजया ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-पमत्तसंजया य अप्पमत्तसंजया य' त्ति पठितं, तथाऽपि कृष्णनीललेश्यादण्डकयोध्येतव्यं, कृष्णनीललेश्योदये संयमस्य निषिद्धत्वात् । यच्चोच्यते 'पुव्वपडिवन्नओ पुण अन्नयरीए उ लेस्साए' त्ति तत्कृष्णादिद्रव्यरूपां द्रव्यलेश्यामंगीकृत्य न तु कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यजनितात्मपरिणामरूपां भावलेश्याम्, एतच्च प्रागुक्तमिति । एतदेव दर्शयन्नाह-'मणुस्से'त्यादि। तथा कापोतलेश्यादण्डकोऽपि नीलादिलेश्यादण्डकवदध्येतव्यो, नवरं नारकपदे वेदनासूत्रे नारका औधिकदण्डकवदेव वाच्याः, ते चैवम्'नेरइया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा–सन्निभूया य असन्निभूया यत्ति असंज्ञिनां प्रथमपृथिव्युत्पादेन कापोतलेश्यासम्भवादत आह–'काउलेस्साणवी'त्यादि। तथा तेजोलेश्या पद्मलेश्या च यस्य जीवविशेषस्यास्ति तमाश्रित्य ययौघिको दण्डकस्तथा तयोर्दण्डको भणितव्यौ, तदस्तिता चैवं-नारकाणां विकलेन्द्रियाणां तेजोवायूनां चाधास्तिस्र एव। भवनपतिपृथिव्यम्बुवनस्पतिव्यन्तराणामाद्याश्चतस्रः। पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याणां षड्। ज्योतिषां तेजोलेश्या । वैमानिकानां तिस्रः प्रशस्ता इति । आह च "किण्हानीलाकाऊतेउलेसा य मवणवंतरिया। जोइससोहम्मीसाणे तेउलेसा मुणेयव्या ।। "कप्पे सणंकुमारे माहिदे चेव बंमलोगे य। एएसु पम्हलेसा तेण परं सुझलेस्सा उ॥ "तथा पुढवीआउवणस्सइबायरपत्तेय लेस चत्तारि। गमयतिरियनरेसु छल्लेसा तिनि सेसाणं॥" केवलमौघिकदण्डके क्रियासूत्रे मनुष्याः सरागवीतरागविशेषणा अधीताः इह तु तथा न वाच्याः, तेजःपद्मलेश्ययोर्वीतरागत्वासम्भवात, शुक्ललेश्यायामेव तत्संभवात् । प्रमत्ताप्रमत्तास्तूच्यन्त इति, एतदेव दर्शयन्नाह तेउलेसा पम्हलेसेत्यादि। 'गाह'त्ति उद्देशकादितः सूत्रार्थसंग्रहगाथा गतार्थाऽपि सुखबोधार्थमुच्यते-दुःखमायुश्चोदीर्णं, वेदयतीत्येकत्वबहुत्वाभ्यां दण्डकचतुष्टयतामुक्तम् । तथा 'आहारे'त्ति 'नेरइया किं समाहारा' ?इत्यादि । तथा 'किं समकम्मा' ? तथा 'किं समवन्ना' ? तथा 'किं समलेसा' ? तथा 'किं समवेयणा'? तथा 'किं समकिरिया' ? तथा 'किं समाउया समोववन्नग'त्ति गाथार्थः । प्राक् सलेश्या नारका इत्युक्तमथलेश्या निरूपयन्नाह१.१०२. 'कइ णमित्यादि तत्रात्मनि कर्मपुद्गलानां लेशनात्-संश्लेषणाल्लेश्या, योगपरिणामश्चैताः योगनिरोधे लेश्यानामभावात् । योगश्च शरीर नामकर्मपरिणतिविशेषः। 'लेस्साणं बीओ उद्देसओ'त्ति प्रज्ञापनायां लेश्यापदस्य चतुरुद्देशकस्येह द्वितीयोद्देशको लेश्यास्वरूपावगमाय भणितव्यः । प्रथम इति क्वचिद् दृश्यते सोऽपपाठ इति। अथ कियडूरं यावदित्याह-'जाव इट्टी' ऋद्धिवक्तव्यतां यावत्, स चायं संक्षेपत:-'कइ णं भंते ! लेस्साओ पन्नत्ताओ ? गोयमा ! छल्लेसाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-कण्हलेसा'६, एवं सर्वत्र प्रश्न उत्तरं च वाच्यम् । 'नेरइयाणं तिन्नि कण्हलेस्सा३ तिरिक्खजोणियाणं एगिदियाणं४ पुढविआउवणस्सईणं४, तेउवाउबेइंदियतेइंदियचउरिंदियाणं३,पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं६ 'इत्यादि बहु वाच्यं यावत् ‘एएसि णं भंते ! जीवाणं कण्हलेस्साणं जाव सुक्कलेस्साणं कयरे कयरेहितो अप्पिड्डिया वा महिड्डिया वा? गोयमा ! कण्हलेसेहितो नीललेसा महिड्डिया, नीललेसेहिंतो कावोयलेसे त्यादि। अथ पशवः पशुत्वमश्नुवते इत्यादिवचनविप्रलम्भाद् यो मन्यतेऽनादावपि भवे एकधैव जीवस्यावस्थानमिति तद्बोधनार्थं प्रश्नयन्नाह१११०३. 'जीवस्स ण'मित्यादि, व्यक्तं, नवरं किंविधस्य जीवस्य ? इत्याह-'आदिष्टस्य' अमुष्य नारकादेरित्येवं विशेषितस्य 'तीतद्धाए'त्ति अनादा वतीते काले 'कतिविधः उपाधिभेदात्कतिभेदः संसारस्य-भवाद्भवान्तरसंचरणलक्षणस्य संस्थानम्-अवस्थितिक्रिया, तस्य काल:-अवसरः संसारसंस्थानकालः। अमुष्य जीवस्यातीतकाले कस्यां कस्यां गताववस्थानमासीत् ? इत्यर्थः, अत्रोत्तरं-चतुर्विध उपाधिभेदादिति भावः । १1१०४. तत्र नारकभवानुगसंसारावस्थानकालस्त्रिधा-शून्यकालोऽशून्यकालो मिश्रकालश्चेति । १।१०५. तिरश्चां शून्यकालो नास्तीति तेषां द्विविधः । १1१०६,१०७. मनुष्यदेवानां त्रिविधोऽप्यस्ति, आह च "सुबासुबो मीसो तिविहो संसारचिटणाकालो। तिरियाण सुनवजो सेसाणं होइ तिविहोवि॥" तत्राशून्यकालस्तावदुच्यते-अशून्यकालस्वरूपपरिज्ञाने हि सति इतरौ सुज्ञानौ भविष्यत इति। तत्र वर्तमानकाले सप्तसु पृथिवीषु ये नारका वर्त्तन्ते तेषां मध्याद्यावन्न कश्चिदुद्वर्तते न चान्य उत्पद्यते तावन्मात्रा एव ते आसते स कालस्तान्नारकानङ्गीकृत्याशून्य इति भण्यते, आह च १. अप्पड्डिया महिहिया वा क. ग. च. छ. Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ३६७ श.१ : उ.२: सू.१०७-११२ "आइइसमइयाणं नेरइयाणं न जाव एकोवि । उबट्टइ अनो वा उववजइ सो असुनो उ।" मिश्रकालस्तु तेषामेव नारकाणां मध्यादेकादय उद्वृत्ताः यावदेकोऽपि शेषस्तावन्मिश्रकालः। शून्यकालस्तु यदा त एवादिष्टसामयिका नारका सामस्त्येनोवृत्ता भवन्ति नैकोऽपि तेषां शेषोऽस्ति स शून्यकाल इति, आह च "उवढे एकामिवि ता मीसो घरइ जाव एकोवि । निल्लेविएहि सम्बेहिं वट्टमाणेहिं सुनो उ॥" इदं च मिश्रनारकसंसारावस्थानकालचिन्तासूत्रं न तमेव वार्त्तमानिकनारकभवमंगीकृत्य प्रवृत्तम्, अपि तु वार्त्तमानिकनारकजीवानां गत्यन्तरगमने तत्रैवोत्पत्तिमाश्रित्य । यदि पुनस्तमेव नारकभवमंगीकृत्येदं सूत्रं स्यात्तदाऽशून्यकालापेक्षया मिश्रकालस्यानन्तगुणता सूत्रोक्ता न स्यात्, आह च "एवं पुण ते जीवे पहुच सुत्तं न तन्मवं चेव । जइ होज तन्मवं तो अनन्तकालो ण संभवइ ॥" कस्मात् ? इति चेद् उच्यते, ये वार्त्तमानिका नारकास्ते स्वायुष्ककालस्यान्ते उद्वर्तन्ते, असंख्यातमेव च तदायुः अत उत्कर्षतो द्वादशमौहूतिकाशून्यकालापेक्षया मिश्रकालस्यानन्तगुणत्वाभावप्रसंगादिति, आह च "किं कारणमाइवा नेरइया जे इमम्मि समयम्मि । ते ठिइकालस्संते जम्हा सव्वे खविजंति ॥" इति । १११०५. 'सव्वत्थोवे असुन्नकाले ति नारकाणामुत्पादोद्वर्त्तनाविरहकालस्योत्कर्षतोऽपि द्वादशमुहूर्तप्रमाणत्वात्, 'मीसकाले अणंतगुणे' त्ति मिश्राख्यो विवक्षितनारकजीवनिर्लेपनाकालोऽशून्यकालापेक्षयाऽनन्तगुणो भवति। यतोऽसौ नारकेतरेष्वागमनगमनकालः। स च त्रसवनस्पत्यादिस्थितिकालमिश्रितः सन्ननन्तगुणो भवति, वसवनस्पत्यादिगमनागमनानामनन्तत्वात् । स च नारकनिर्लेपनाकालो वनस्पतिकायस्थितेरनन्तभागे वर्तत इति, उक्तं च "चोवो असुजकालो सो उकोसेण बारसमुहत्तो। तत्तो य अणंतगुणो मीसो निल्लेवणाकालो।। आगमणगमणकालो तसाइतरुमीसिओ अणंतगुणो। अह निल्लेवणकालो अणंतभागे वणदाए॥" ति । 'सुन्नकाले अणंतगुणे'त्ति सर्वेषां विवक्षितनारकजीवानां प्रायो वनस्पतिष्वनन्तानन्तकालमवस्थानात्। एतदेव' वनस्पतिष्वनन्तानन्तकालावस्थानं जीवानां नारकभवान्तरकाल उत्कृष्टो देशितः समय इति । उक्तं चद्य "सुनो य अणंतगुणो सो पुण पायं वणस्सइगयाणं । एवं चेव य नारयमवंतरं देसियं जेई॥" ति। १1१०६. 'तिरिक्खजोणियाणं सब्वत्थोवे असुन्नकाले'त्ति, स चान्तर्मुहूर्त्तमात्रः, अयं च यद्यपि सामान्येन तिरश्चामुक्तस्तथाऽपि विकलेन्द्रियसंमर्छिमानामेवावसेयः, तेषामेवान्तर्मुहूर्त्तमानस्य विरहकालस्योक्तत्वात्, यदाह "भिजमुहत्तो विगलिदिएसु सम्मुच्छिमेसुवि स एव ।" एकेन्द्रियाणां तूवर्तनोपपातविरहाभावेनाशून्यकालाभाव एव, आह च "एगो असंखभागो बट्टइ उब्बट्टणोववामि । एगनिगोए निबं एवं सेसेसु वि स एव ॥" 'पृथिव्यादिषु पुनः अणुसमयमसंखेज'त्ति वचनाद् विरहाभाव इति । 'मिस्सकाले अणंतगुणे'त्ति नारकवत् । शून्यकालस्तु तिरश्चां नास्त्येव, यतो वार्त्तमानिकसाधारणवनस्पतीनां तत उद्वृत्तानां स्थानमन्यन्नास्ति। १।११०. 'मणुस्सदेवाणं जहा नेरइयाणं'ति अशून्यकालस्यापि द्वादशमुहूर्तप्रमाणत्वात्, अत्र गाथा __ "एवं नरामराणवि तिरियाणं नवरि नत्यि सुनद्धा। जं निम्गयाण तेसि भायणमचं तओ नत्वि||" इति । १११११. 'एयस्से'त्यादि, व्यक्तं । किं संसार एवावस्थानं जीवस्य स्यादुत मोक्षेऽपि ? इति शंकायां पृच्छामाह११११२. 'जीवे ण'मित्यादि, व्यक्तं, नवरं 'अंतकिरियं' त्ति अन्त्या च सा पर्यन्तवर्तिनी क्रिया चान्त्यक्रिया, अन्तस्य वा कर्मान्तस्य क्रिया अन्तक्रिया तां कृत्स्नकर्मक्षयलक्षणां मोक्षप्राप्तिमित्यर्थः । 'अंतकिरियापयं नेयव्वं'ति तच्च प्रज्ञापनायां विंशतितमं, तच्चैवम्-'जीवे णं भंते ! अंतकिरियं करेजा ? गोयमा ! अत्थेगइए करेजा, अत्थेगइए णो करेजा, एवं नेरइए जाव वेमाणिए' भव्यः कुन्नितर इत्यर्थः । 'नेरइए णं भंते ! नेरइएसु वट्टमाणे अंत केरज्जा ? गोयमा ! नो इणढे १. तदेव ख. ग. Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १: उ.२ः सू.११२-११३ ३६८ समट्ठे' इत्यादि, नवरं ‘मणस्सेसु अंतं करेज्जा' मनुष्येषु वर्त्तमानो नारको मनुष्यीभूत इत्यर्थः । कर्मलेशादन्तक्रियाया अभावे केचिज्जीवा देवेषूत्पद्यन्तेऽतस्तद् विशेषाभिधानायाह- १ । ११३. ‘अह भंते !’इत्यादि व्यक्तं, नवरम् 'अथेति परिप्रश्नार्थः । 'असंजयभवियदव्वदेवाणं ति इह प्रज्ञापनाटीका लिख्यते-असंयताः चरणपरिणामशून्याः, भव्याः – देवत्वयोग्या अत एव द्रव्यदेवाः समासश्चैवं असंयताश्च ते भव्यद्रव्यदेवाश्चेति असंयतभव्यद्रव्यदेवाः । तत्रैतेऽसंयतसम्यग्दृष्टयः किलेत्येके, यतः किलोक्तम् " अणुव्वयमहव्वएहि य बालतवोऽकामनिजराए । देवाउयं निबंध सम्मद्दिट्ठी य जो जीवो ॥" एतच्चायुक्तं, यतोऽमीषामुत्कृष्टत उपरिमग्रैवेयकेषूपपात उक्तः । सम्यग्दृष्टीनां तु देशविरतानामपि न तत्रासौ विद्यते देशविरतश्रावकाणामच्युतादूर्ध्वमगमनात् नाप्येते निह्नवाः, तेषामिव भेदेनाभिधानात् । तस्मान्मिथ्यादृष्टय एव अभव्या भव्या वा असंयतभव्यद्रव्यदेवाः श्रमणगुणधारिणो निखिलसामाचार्यनुष्ठानयुक्ता द्रव्यलिंगधारिणो गृह्यन्ते । ते ह्यखिलकेवलक्रियाप्रभावत एवोपरिमग्रैवेयकेषूत्पद्यत इति । असंयताश्च ते सत्यप्यनुष्ठाने चारित्रपरिणामशून्यत्वात् । ननु कथं तेऽभव्या भव्या वा श्रमणगुणधारिणो भवन्ति ? इति अत्रोच्यते - तेषां हि महामिथ्यादर्शनमोहप्रादुर्भावे सत्यपि चक्रवर्त्ति - प्रभूत्यनेकभूपतिप्रवरपूजासत्कारसन्मानदानान् साधून् समवलोक्य तदर्थं प्रव्रज्याक्रियाकलापानुष्ठानं प्रति श्रद्धा जायते । ततश्च ते यथोक्तक्रियाकारिण इति । तथा 'अविराहियसंजमाणं त्ति प्रव्रज्याकालादारभ्याभग्नचारित्रपरिणामानां संज्चलनकषायसामर्थ्यात् प्रमत्तगुणस्थानकसामर्थ्याद् वा स्वल्पमायादिदोर्ध्वेभवेऽप्यनाचरितचरणोपघातानामित्यर्थः । तथा 'विराहियसंजमाणं'ति उक्तविपरीतानाम् । 'अविहियसंजमासंजमाणं ति प्रतिपत्तिकालादारभ्याखण्डितदेशविरतिपरिणामानां श्रावकाणां, 'विराहियसंजमासंजमाणं'ति उक्तव्यतिरेकाणां । 'असन्नीणं'ति मनोलब्धिरहितानामकामनिर्जरावतां, तथा 'तावसाणं ति पतितपत्राद्युपभोगवतां बालतपस्विनां तथा 'कन्दप्पियाणं' ति कन्दर्पः – परिहासः स येषामस्ति तेन वा ये चरन्ति ते कन्दर्पिकाः कान्दर्पिका वा व्यवहारतश्चरणवन्त एव कन्दर्पकौकुच्यादिकारकाः, तथाहि- " कहकहकहस्स हसनं कंदप्पो अणिहुया व उल्लावा । कंदष्पकहाकहणं कंदप्पुवएसं संसा य ।। भुमनयणवयणदसणच्छदेहिं करपायकन्नमाईहिं । तं तं करेइ जह जह हसइ परो अत्तणा अहसं । वाया कुकुइओ पुण तं जंप जेण हस्सए अन्नो । नाणाविहजीवरुए कुब्बइ मुहतूरए चैव ॥ इत्यादि । जो संजओवि एयासु अप्पसत्यासु भावणं कुणइ । सो तब्बिहेसु गच्छइ सुरेसु भइओ चरणहीणो ॥ " त्ति । अतस्तेषां कन्दर्पिकाणाम् । 'चरगपरिव्वायगाणं 'ति चरकपरिव्राजका - धाटिभैक्ष्योपजीविनस्त्रिदण्डिनः अथवा चरकाः - कच्छोटकादयः परिव्राजकास्तु—–कपिलमुनिसूनवोऽतस्तेषां । 'किव्विसियाणं' ति किल्बिषं पापं तदस्ति येषां ते किल्बिषिकाः, ते च व्यवहारतश्चरणवन्तोऽपि ज्ञानाद्यवर्णवादिनः यथोक्तम् १. एव च ख. ग. घ. २. व्यतिरेकिणाम् क. च. ३. मुहत्तरए क. ख. ग. घ. च. “णाणस्स केवलीणं धम्मायरियस्स संघसाहूणं । माई अवनवाई किव्विसियं भावणं कुणइ ॥ " अतस्तेषाम् । तथा 'तेरिच्छियाणं ति तिरश्चां गवाश्वादीनां देशविरतिभाजाम्। 'आजीवियाणं' ति पाषण्डिविशेषाणां नाग्न्यधारिणां गोशालकशिष्याणामित्यन्ये । आजीवन्ति वा येऽविवेकिलोकतो लब्धिपूजाख्यात्यादिभिस्तपश्चरणादीनि ते आजीविकाऽस्तित्वेनाजीविका अतस्तेषां । तथा 'आभिओगियाणं' ति अभियोजनं विद्यामन्त्रादिभिः परेषां वशीकरणाद्यभियोगः स च द्विधा, यदाह "दुविहो खलु अभिओगो दव्वे भावे य होइ नायव्वो । होति जोगा विज्जा मंता य भावंमि ॥” इति सोऽस्ति येषां तेन वा चरन्ति तेऽभियोगिका आभियोगिका वा । ते च व्यवहारतश्चरणवन्त एव मन्त्रादिप्रयोक्तारः, यदाह "कोउवभूईकम्मे पसिणापसिणे निमित्तमाजीवी । इरिससायगरुओ अहिओगं भावणं कुणइ ||" इति । भगवती वृत्ति ४. कच्छोटिका च. ५. सव्वसाहूणं क. ख. ग. च. Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ३६६ श.१: उ.२,३ः सू.११३-१२३ कौतुकं सौभाग्याद्यर्थं स्नपनकं भूतिकर्म-ज्वरितादिभूतिदानं प्रश्नाप्रश्नं च स्वप्नविद्यादि | 'सलिंगीणं' ति रजोहरणादिसाधुलिंगवतां किंविधानामित्याह-'दंसणवावन्नगाणं'ति दर्शनं सम्यक्त्वं व्यापन्नं-भ्रष्टं येषां ते तथा तेषां निहवानामित्यर्थः।। 'देवलोएसु उववज्जमाणाणं'ति, अनेन देवत्वादन्यत्रापि केचिदुत्पद्यन्त इति प्रतिपादितं, 'विराहियसंजमाणं जहन्नेणं भवणवईसु उक्कोसेणं सोहम्मे कप्पे'त्ति, इह कश्चिदाह-विराधितसंयमानामुत्कर्षेण सौधर्मे कल्पे इति यदुक्तं, तत्कथं घटते ? द्रौपद्याः सुकुमालिकाभवे विराधितसंयमाया ईशाने उत्पादश्रवणात् इति। अत्रोच्यते-तस्याः संयमविराधना उत्तरगुणविषया बकुशत्वमात्रकारिणी न मूलगुणविराधनेति। सौधर्मोत्पादश्च विशिष्टतरसंयमविराधनायां स्यात् । यदि पुनर्विराधनामात्रमपि सौधर्मोत्पत्तिकारकं स्यात्तदा बकुशादीनामुत्तरगुणादिप्रतिसेवावतां कथमच्युतादिषूत्पत्तिः स्यात् ? कथंचिद्विराधकत्वात्तेषामिति । 'असन्त्रीणं जहन्नेणं भवणवासीसु उक्कोसेणं वाणमंतरेसु'त्ति इह यद्यपि 'चमरबलि सारमहिय'मित्यादिवचनादसुरादयो महर्द्धिकाः 'पलिओवममुक्कोसं वंतरियाणं'ति वचनाच्च व्यन्तरा अल्पर्धिकास्तथाऽप्यत एव वचनादवसीयते सन्ति व्यन्तरेभ्यः सकाशादल्पर्द्धयो भवनपतयः केचनेति । असञी देवेषूत्पद्यत इत्युक्तं स च आयुषा इति तदायुर्निरूपयन्नाह११११४. 'कइविहे ण'मित्यादि व्यक्तं, नवरं 'असन्निआउए'त्ति असंज्ञी सन् यत्परभवयोग्यमायुर्बभाति तदसंड्यायुः 'नेरइयअसन्निआउए'त्ति नैरयिकप्रायोग्य मसंइयायुरयिकासंघ्यायुः एवमन्यान्यपि। एतच्चासंघ्यायुः सम्बन्धमात्रेणापि भवति यथा भिक्षोः पात्रम्, अतस्तत्कृतत्वलक्षणसंबन्धविशेषनिरूपणायाह१1११५. 'असन्नी'त्यादि व्यक्तं, नवरं 'पकरेइत्ति बभाति, 'दसवाससहस्साईति रत्नप्रभाप्रथमप्रतरमाश्रित्य' 'उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेजइभागं'ति रत्नप्रभाचतुर्थप्रतरे मध्यमस्थितिकं नारकमाश्रित्येति । कथम् ? यतः प्रथमप्रस्तटे दशवर्षाणां सहस्राणि जघन्या स्थिति उत्कृष्ट नवतिः सहस्राणि । द्वितीये तु दश लक्षाणि जघन्या, इतरा तु नवतिर्लक्षाणि । एषैव तृतीये जघन्या, इतरा तु पूर्वकोटी। एषैव चतुर्थे जघन्या, इतरा तु सागरोपमस्य दशभागः । एवं चात्र पल्योपमासंख्येयभागो मध्यमा स्थितिर्भवति। तिर्यक्सूत्रे यदुक्तं 'पलिओवमस्स असंखेजइभागं'ति तन्मिथुनकतिरश्चोऽधिकृत्येति । 'मणुस्साउए वि एवं चेव'त्ति जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षतः पल्योपमासंख्येयभाग इत्यर्थः । तत्र चासंख्येयभागो मिथुनकनरानाश्रित्य । 'देवा जहा नेरइयत्ति देवा इति असंज्ञिविषयं देवायुरुपचारात्तथा वाच्यं 'जहा नेरइय'त्ति यथाऽसंज्ञिविषयं नरकायुः तच्च प्रतीतमेव । नवरं भवनपतिव्यन्तरानाश्रित्य तदवसेयमिति । १।११६. एयस्स णं भंते ! इत्यादिना यदसङ्ग्यायुषोऽल्पबहुत्वमुक्तं तदस्य ह्रस्वीदीर्घत्वमाश्रित्येति । ।। प्रथमशतके द्वितीय उद्देशकः ।। तृतीय उद्देशकः द्वितीयोद्देशकान्तिमसूत्रेष्वायुर्विशेषो निरूपितः। स च मोहदोषे सति भवतीत्यतो मोहनीयविशेषं निरूपयन्नादौ च संग्रहगाथायां यदुक्तं 'कंख पओसे'त्ति तद्दर्शयन्नाह११११८. 'जीवाण'मित्यादि व्यक्तं, नवरं जीवानां सम्बन्धि यत् 'कखामोहणिज्जेत्ति मोहयतीति मोहनीयं कर्म तच्च चारित्रमोहनीयमपि भवतीति विशिष्यते–कांक्षा-अन्यान्यदर्शनग्रहः, उपलक्षणत्वाच्चास्य शंकादिपरिग्रहः । ततः कांक्षाया मोहनीयं कांक्षामोहनीयं मिथ्यात्वमो हनीयमित्यर्थ :। 'कडे'ति कृतं क्रियानिष्पाद्यमिति प्रश्नः । उत्तरं तु 'हंता कडे'त्ति अकृतस्य कर्मत्वानुपपत्तेः। इह च वस्तुनः करणे चतुर्भंगी दृष्टा, यथा देशेन हस्तादिना वस्तुनो देशस्याच्छादनं करोति, अथवा हस्तादिदेशेनैव समस्तस्य वस्तुनः, अथवा सर्वात्मना वस्तुदेशस्य, अथवा सर्वात्मना सर्वस्य वस्तुनः इत्येतां कांक्षामोहनीयकरणं प्रतिप्रश्नयन्नाह१।११६. 'से'त्ति तस्य कर्मणः भदन्त ! 'किम् इति प्रश्ने 'देशेन' जीवस्यांशेन 'देशः' कांक्षामोहनीयस्य कर्मणोंऽशः कृतः ? इत्येको भंगः, अथ 'देशेन' जीवांशेनैव सर्वं कांक्षामोहनीयं कृतं ? इति द्वितीयः, उत 'सर्वेण' सर्वात्मना देशः कांक्षामोहनीयस्य कृतः ? इति तृतीयः, उताहो ! 'सर्वेण' सर्वात्मना सर्वं कृतम् ? इति चतुर्थः । अत्रोत्तरं-'सव्वेणं सव्वे कडे'त्ति जीवस्वाभाव्यात् सर्वस्वप्रदेशावगाढतदेकसमयबन्धनीयकर्मपुद्गलबंधने सर्वजीवप्रदेशानां व्यापार इत्यत उच्यते-सर्वात्मना 'सर्वं तदेककालकरणीयं कांक्षामोहनीयं कर्म 'कृतं' कर्मतया बद्धं, अत एव च भंगत्रयप्रतिषेध इति, अत एवोक्तम् "एगपएसोगाढं सवपएसेहिं कम्मुणो जोग्गं। बंधइ बहुत्तहेर्ड"ति, 'एगपएसोगाढं'ति जीवापेक्षया कर्मद्रव्यापेक्षया च ये एके प्रदेशास्तेष्ववगाढम् । सर्वजीवप्रदेशव्यापारत्वाच्च तदेकसमयबन्धनार्ह सर्वमिति गम्यम् । अथवा सर्वं यत्किंचित् कांक्षामोहनीयं तत्सर्वात्मना कृतं न देशेनेति । जीवानामिति सामान्योक्तौ विशेषो नावगम्यत इति विशेषावगमाय नारकादिदण्डकेन प्रश्नयन्नाह१११२०. नेरइयाण'मित्यादि भावितार्थमेव। क्रियानिष्पाद्यं कर्मोक्तं, तक्रिया च त्रिकालविषयाऽतस्तां दर्शयन्नाह१११२३. 'जीवाण'मित्यादि व्यक्तं, नवरं 'करिसुत्ति अतीतकाले कृतवन्तः, उत्तरं तु हन्त ! अकार्षुः । तदकरणेऽनादिसंसाराभावप्रसंगात् । Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१ : उ.३ः सू.१२६-१३३ ३७० भगवती वृत्ति १११२६.एवं 'करेंति' सम्प्रति कुर्वन्ति । १।१२७. एवं 'करिस्संति' अनेन च भविष्यत्कालता करणस्य दर्शितेति । कृतस्य च कर्मणश्चयादयो भवन्तीति तान् दर्शयन्नाह१११२८. एवं चिए'इत्यादि व्यक्तं, नवरं चयः-प्रदेशानुभागादेर्वर्द्धनम्, उपचयस्तदेव पौनःपुन्येन । अन्ये त्वाहु:-चयनं-कर्मपुद्गलोपादानमात्रम्, उपचयनं तु चितस्याबाधाकालं मुक्त्वा वेदनार्थं निषेकः, स चैवम्-प्रथमस्थितौ बहुतरं कर्मदलिकं निषिञ्चति ततो द्वितीयायां विशेषहीनम् एव यावदुत्कृष्टायां विशेषहीनम् निषिंचति, उक्तं च "मोत्तूण सगमबाहं पढमाइ ठिईई बहुतरं दव्वं । सेसं विसेसहीणं जावुकोसंति सम्वासि ॥" ति। उदीरणम्-अनुदितस्य करणविशेषादुदयप्रवेशनम् । वेदनम्-अनुभवनम्। निर्जरणं-जीवप्रदेशेभ्यः कर्मप्रदेशानां शातनमिति । इह च सूत्रसंग्रहगाथा भवति, सा च गाहा 'कड-चिए'त्यादि, भावितार्था च। नवरं 'आइतिए'त्ति कृतचितोपचितलक्षणे। 'चउभेय'त्ति सामान्यक्रियाकालत्रयक्रियाभेदात् । 'तियभेय' त्ति सामान्यक्रिया विरहात् । 'पच्छिम'त्ति उदीरितवेदितनिर्जीर्णा मोहपुद्गला इति शेषः । 'तिनि'त्ति त्रयस्त्रिविधा इत्यर्थः। नन्वाधे सूत्रत्रये कृतचितोपचितान्युक्तानि उत्तरेषु कस्मान्नोदीरितवेदितनिर्जीर्णानि ? इति, उच्यते-कृतं चितमुपचितं च कर्म चिरमप्यवतिष्ठत इति करणादीनां त्रिकालक्रियामात्रातिरिक्तं चिरावस्थानलक्षणकृतत्वाद्याश्रित्य कृतादीन्युक्तानि । उदीरणानां तु न चिरावस्थानमस्तीति त्रिकालवर्तिना क्रियामात्रेणैव तान्यभिहितानीति । जीवाः कांक्षामोहनीयं कर्म वेदयन्तीत्युक्तम्, अथ तद् वेदनकारणप्रतिपादनाय प्रस्तावयन्नाह१।१२६. 'जीवा णं भंते !'इत्यादि, व्यक्तं, नवरं ननु जीवाः कांक्षामोहनीयं वेदयन्तीति प्राग् निर्णीतं किं पुनः प्रश्नः ? उच्यते-वेदनोपायप्रतिपादनार्धम्, उक्तं च "पुवमणियंपि पच्छा जं भण्णइ तत्व कारणं अत्यि। पडिसेहो य अणुना हेउविसेसोवलंभोत्ति॥" १११३०. 'तेहिं तेहिंति तैस्तैर्दर्शनान्तरश्रवणकुतीर्थिकसंसर्गादिभिर्विद्वप्रसिद्धैः । द्विवचनं चेह वीप्सायाम् । कारणै:-शंकादिहेतुभिः, किमित्याह शंकिताः-जिनोक्तपदार्थान् प्रति सर्वतो देशतो वा संजातसंशयाः, कांक्षिता:-देशतः सर्वतो वा संजातान्यान्यदर्शनग्रहाः, 'वितिगिछिय'त्ति विचिकित्सिताः-संजातफलविषयशंकाः, भेदसमापन्ना इति-किम् इदम् जिनशासनमाहोश्चिदिदम् इत्येवं जिनशासनस्वरूपं प्रति मतेद्वैधीभावं गताः-अनध्यवसायरूपं वा मतिभङ्गं गताः, अथवा यत एव शङ्कितादिवेशेषणा अत एव मतेद्वैधीभावं गताः, 'कलुषसमापन्नाः' नैतदेवमित्येवं मतिविपर्यासं गताः । “एवं खलु' इत्यादि, 'एवम्' इत्युक्तेन प्रकारेण 'खलु'त्ति वाक्यालंकारे निश्चयेऽवधारणे वा । एतच्च जीवानां कांक्षामोहनीयवेदनमित्थमेवावसेयं, जिनप्रवेदितत्वात्, तस्य च सत्यत्वादिति तत्सत्यतामेव दर्शयन्नाह1१३१. 'से णण'मित्यादि व्यक्तं, नवरं 'तदेव' न पुरुषान्तरैः प्रवेदितं, रागाद्युपहतत्वेन तवेदितस्यासत्यत्वसंभवात् । 'सत्य' सूनृतं, तच्च व्यवहारतोऽपि स्यादत आह–'निःशंकम्' अविद्यमानसन्देहमिति।। अथ जिनप्रवेदितं सत्यमित्यभिप्रायवान् यादृशो भवति तद्दर्शयन्नाह१।१३२. से नूण मित्यादि, व्यक्तं, नवरं 'नून' निश्चितम् ‘एवं मणं धारेमाणे'त्ति 'तदेव सत्यं निःशंकं यज्जिनैः प्रवेदितमित्यनेन प्रकारेण मनो-मानसम् उत्पन्नं सत् धारयन्-स्थिरीकुर्वन् ‘एवं पकरेमणे'त्ति उक्तरूपेणानुत्पन्नं सत् प्रकुर्वन्–विदधानः ‘एवं चिट्टेमाणे'त्ति उक्तन्यायेन मनश्चेष्टयन् नान्यमतानि सत्यानीत्यादिचिन्तायां व्यापारयन्, चेष्टमानो वा विधेयेषु तपोध्यानादिषु, ‘एवं संवरेमाणे 'त्ति उक्तवदेव मनः संवृण्वन-मतान्तरेभ्यो निवर्तयन् 'प्राणातिपातादीन्' वा प्रत्याचक्षाणो जीव इति गम्यते । 'आणाए'त्ति आज्ञाया:-ज्ञानाधासेवारूपजिनोपदेशस्य 'आराहए'त्ति आराधकः-पालयिता भवतीति। अथ कस्मात्तदेव सत्यं यजिनैः प्रवेदितम् ? इति, अत्रोच्यते, यथावद्वस्तुपरिणामाभिधानादिति तमेव दर्शयन्नाह१११३३. 'से णूण मित्यादि 'अस्थित्तं अस्थित्ते परिणमइ'त्ति अस्तित्वम्-अमुल्यादेः अमुल्यादिभावेन सत्त्वम्, उक्तञ्च "सर्वमस्ति स्वरूपेण, पररूपेण नास्ति च । अन्यथा सर्वभावानामेकत्वं संप्रसज्यते॥" तच्चेह ऋजुत्वादिपर्यायरूपमवसेयम् । अंगुल्यादिद्रव्यास्तित्वस्य कथञ्चिदृजुत्वादिपर्यायाव्यतिरिक्तत्वात् अस्तित्वे-अगुल्यादेरेवाङ्गल्यादिभावेन सत्त्वे वक्रत्वादिपर्याय इत्यर्थः । 'परिणमति' तथा भवति, इदमुक्तं भवति-द्रव्यस्य प्रकारान्तरेण सत्ता प्रकारान्तरसत्तायां वर्तते यथा मृद्रव्यस्य पिंडप्रकारेण सत्ता घटप्रकारसत्तायामिति । १. चिट्ठमाण ग. घ. ३. पर्ययतया च. २. सवरमाण ग. घ. Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ३७१ श.१: उ.३: सू.१३३-१४२ 'नस्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ'त्ति नास्तित्वम्-अंगुल्यादेरंगुष्ठादिभावेनासत्त्वं तच्चांगुष्ठादिभाव एव। ततश्चांगुल्यादेास्तित्वमंगुष्ठाद्यस्तित्वरूपमंगुल्यादेन स्तित्वे अंगुष्ठादेः पर्यायान्तरेणास्तित्वरूपे परिणमति, यथा मृदो नास्तित्वं तन्त्वादिरूपं मृनास्तित्वरूपे पटे इति । अथवाऽस्तित्वमिति-धर्मधर्मिणोरभेदात् सद्वस्तु अस्तित्वे-सत्त्वे परिणमति, तत्सदैव भवति, नात्यन्तं विनाशि स्याद्, विनाशस्य पर्यायान्तरगमनमात्ररूपत्वात्, दीपादिविनाशस्यापि तमिस्रादिरूपतया परिणामात् । तथा 'नास्तित्वम्' अत्यन्ताभावरूपं यत् खरविषाणादि तत् 'नास्तित्वे' अत्यन्ताभाव एव वर्तेते, नात्यन्तमसतः सत्त्वमस्ति खरविषाणस्येवेति, उक्तं च "नासतो जायते मावो, नाभावो जायते सतः।" अथवाऽस्तित्वमिति धर्मभेदात् सद् 'अस्तित्वे' सत्त्वे वर्तते यथा पटः पटत्व एव नास्तित्वं चासत् 'नास्तित्वे' असत्त्वे वर्तते यथा अपटोऽपटत्व एवेति। अथ परिणामहेतुदर्शनायाह११३४. 'जं ण'मित्यादि 'अस्थित्तं अस्थित्ते परिणमइत्ति पर्यायः पर्यायान्तरतां यातीत्यर्थः । 'नस्थित्तं नत्थित्ते परिणमइत्ति वस्त्वन्तरस्य पर्याय स्तत्पर्यायान्तरतां यातीत्यर्थः। 'पओगस' त्ति सकारस्यागमिकत्वात् 'प्रयोगेण' जीवव्यापारेण 'वीसस'त्ति यद्यपि लोके विश्रसाशब्दो जरापर्यायतया रूढस्तथाऽपीह स्वभावार्थो दृश्यः, इह प्राकृतत्वात् 'वीससाए'त्ति वाच्ये 'वीससा' इत्युक्तमिति, अत्रोत्तरम्-'पओगसावि तंति प्रयोगेणापि तद्-अस्तित्वादि, यथा कुलालव्यापारमृपिंडो घटतया परिणमति । अंगुलिऋजुता वा वक्रतयेति । 'अपिः' समुच्चये, 'वीससावि तंति, यथा शुभ्राभ्रमशुभ्राभ्रतया । नास्तित्वस्यापि नास्तित्वपरिणामे प्रयोगविश्रसयोरेतान्येवोदाहरणानि । वस्त्वन्तरापेक्षया मृत्पिण्डादेरस्तित्वस्य नास्तित्वात् । सत्सदेव स्यादिति व्याख्यानान्तरेऽप्येतान्येवोदाहरणानि पूर्वोत्तरावस्थयोः सद्पत्वादिति । यदपि अभावोऽभाव एव स्यात्' इति व्याख्यातं, तत्रापि प्रयोगेणापि तथा विस्रसयाऽपि अभावोऽभाव एवं स्यात् न प्रयोगादेः साफल्यमिति व्याख्येयमिति । अथोक्तहेत्वोरुभयत्र समतां भगवदभिमततां च दर्शयन्नाह११३५. 'जहा ते इत्यादि 'यथा' प्रयोगविस्रसाभ्यामित्यर्थः 'ते' इति तव मतेन अथवा सामान्येनास्तित्वनास्तित्वपरिणामः प्रयोगविश्रसाजन्य उक्तः । सामान्यश्च विधिः क्वचिदतिशयवति वस्तुन्यन्यथाऽपि स्याद् अतिशयवांश्च भगवानिति तमाश्रित्य परिणामान्यथात्वमाशंकमान आह–'जहा ते'इत्यादि, 'ते'इति तव सम्बन्धि अस्तित्वं, शेषं तथैवेति । अथोक्तस्वरूपस्यैवार्थस्य सत्यत्वेन प्रज्ञापनीयतां दर्शयितुमाह१।१३६,१३७. से णूण मित्यादि अस्तित्वमस्तित्वे गमनीयं सद्वस्तु सत्त्वेनैव प्रज्ञापनीयमित्यर्थः । 'दो आलावग'त्ति ‘से णूणं भंते ! अस्थित्तं अस्थित्ते गमणिज्ज'मित्यादि 'पओगसावि तं वीससावि तं' इत्येतदन्त एकः, परिणामभेदाभिधानात् । १११३८. 'जहा ते भंते ! अस्थित्तं अस्थित्ते गमणिज'मित्यादि 'तहा मे अस्थित्तं अस्थित्ते गमणिज्ज'मित्येतदन्तस्तु द्वितीयोऽस्तित्वपरिणामयोः समता ऽभिधायीति। एवं वस्तुप्रज्ञापनाविषयां समभावतां भगवतोऽभिधायाथ शिष्यविषयां तां दर्शयत्राह११३६. 'जहा ते'इत्यादि 'यथा' स्वकीयपरकीयताऽनपेक्षतया समत्वेन विहितमितिप्रवृत्या उपकारबुध्या वा 'ते' तव भदन्त ! 'एत्य'ति एतस्मिन मयि संनिहिते स्वशिष्ये गमनीयं-वस्तु प्रज्ञापनीयं तथा' तेनैव समतालक्षणप्रकारेण उपकारधिया वा । 'इहंति 'इह' अस्मिन् गृहिपाषण्डिकादौ जने गमनीयम् ? वस्तु प्रकाशनीयमिति प्रश्नः । अथवा 'एत्थं ति स्वात्मनि यथा गमनीयं सुखप्रियत्वादि तथा 'इह' परात्मनि, अथवा यथा प्रत्यक्षाधिकरणार्थतया 'एत्थ' मित्येतच्छब्दरूपं गमनीयं तथा 'इह'मित्येतच्छब्दरूपमिति ? समानार्थत्वाद् द्वयोरपीति । कांक्षामोहनीयकर्मवेदनं सप्रसंगमुक्तम्, अथ तस्यैव बन्धमभिधातुमाह१११४०. 'जीवाणं भंते ! कंखे'त्यादि। १११४१. 'पमायपच्चय'त्ति 'प्रमादप्रत्ययात्' प्रमत्ततालक्षणाद्धेतोः प्रमादश्च मद्यादिः। अथवा प्रमादग्रहणेन मिथ्यात्वाविरतिकषायलक्षणं बन्धहेतुत्रयं गृहीतम्। इष्यते च प्रमादेऽन्तर्भावोऽस्य यदाह "पमाओ य मुणिंदेहि मणिओ अट्ठभेयओ। अण्णाणं संसओ चेव, मिच्छानाणं तहेव च ॥ रागो दोसो मइब्मंसो, धम्ममि अणायरो। जोगाणं दुप्पणीहाणं, अट्टहा वज्जियब्बओ ॥" ति।। यथा 'योगनिमित्तं' च योगा:-मनःप्रभृतिव्यापाराः ते निमित्तं हेतुर्यत्र तत्तथा बध्धन्तीति, क्रियाविशेषणं चेदम्, एतेन च योगाख्यश्चतुर्थः कर्मबन्धहेतुरुक्तः, चशब्दः समुच्चये। अथ प्रमादादेरेव हेतुफलभावं दर्शनायाह'१११४२. 'से ण'मित्यादि 'पमाए किंपवहे'त्ति प्रमादोऽसौ कस्मात् प्रवहति-प्रवर्त्तत इति किं प्रवहः ? पाठान्तरेण किंप्रभवः ? 'जोगप्पवहे 'त्ति योगो–मनःप्रभृतिव्यापारः तावहत्वं च प्रमादस्य मद्याद्यासेवनस्य मिथ्यात्वादित्रयस्य च मनःप्रभृतिव्यापारसद्भावे भावात्। १. दर्शयन्नाह-ख. ग. घ. च. , Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति श. १: उ.३: सू.१४३-१५० १ । १४३. ‘वीरियप्पवहे’त्ति वीर्यं नाम वीर्यान्तरायकर्मक्षयक्षयोपशमसमुत्थो जीवपरिणामविशेषः । १ । १४४. 'सरीरप्पवहे 'त्ति वीर्यं द्विधा - सकरणमकरणं च तत्रालेश्यस्य केवलिनः कृत्स्नयोर्ज्ञेयदृश्ययोः केवलं ज्ञानं दर्शनं चोपयुञ्जानस्य योऽसा - वपरिस्पन्दोऽप्रतिघो जीवपरिणामविशेषस्तदकरणं, तदिह नाधिक्रियते । यस्तु मनोवाक्कायकरणसाधनः सलेश्यजीवकर्तृको जीवप्रदेशपरिस्पन्दात्मको व्यापारोऽसौ सकरणं वीर्यं तच्च शरीरप्रवहम्। शरीरं विना तदभावादिति । १।१४५. 'जीवप्पवहे'त्ति इह यद्यपि शरीरस्य कर्मापि कारणं न केवलं एव जीवस्तथाऽपि कर्मणो जीवकृतत्वेन जीवप्राधान्यात् जीवप्रवहं शरीरमित्युक्तम् । अथ प्रसंगतो गोशालकमतं निषेधयन्नाह १ । १४६. ‘एवं सइ'त्ति, 'एवम्' उक्तन्यायेन जीवस्य कांक्षामोहनीयकर्मबंधकत्वे सति 'अस्ति' विद्यते न तु नास्ति । यथा गोशालकमते नास्ति जीवानामुत्थानादि, पुरुषार्थासाधकत्वात्, नियतित एव पुरुषार्थसिद्धेः, यदाह " प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थः, सोऽवश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा । भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने, नाभाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः ॥” इति । ३७२ एवं हि अप्रामाणिकाया नियतेरभ्युपगमः कृतो भवति, अध्यक्षसिद्धपुरुषकारापलापश्च स्यादिति । 'उट्ठाणे इ वत्ति उत्थानमिति वेति वाच्ये प्राकृतत्वात्सन्धिलोपाभ्यामेवं निर्देशः । तत्र 'उत्थानं' ऊर्ध्वभवनम् 'इतिः 'उपप्रदर्शने, वाशब्दो विकल्पे समुच्चये वा । 'कम्मे इ वत्ति कर्म - उत्क्षेपणापक्षेपणादि। 'बले इ व 'त्ति बलं - शारीरः प्राणः । ' वीरिए इ वत्ति वीर्यं - जीवोत्साहः । 'पुरिसक्कारपरक्कमे इ वत्ति पुरुषकारश्च पौरुषाभिमानः, पराक्रमश्च स एव साधिताभिमतप्रयोजनः पुरुषकारपराक्रमः । अथवा पुरुषकार : - पुरुषक्रिया सा च प्रायः स्त्रीक्रियातः प्रकर्षवती भवतीति तत्स्वभावत्वादिति विशेषेण तद्ग्रहणं, पराक्रमस्तु शत्रुनिराकरणमिति । कांक्षामोहनीयस्य वेदनं बन्धश्च सहेतुक उक्तः । अथ तस्यैवोदीरणामन्यच्च तद्गतमेव दर्शयन्नाह— १ । १४७. 'से नूण'मित्यादि 'अप्पणा चेव'त्ति 'आत्मनैव' स्वयमेव जीवः, अनेन कर्मणो बन्धादिषु मुख्यवृत्त्या आत्मनः एवाधिकारः उक्तो, नापरस्य, आह च " अणुमेत्तोवि न कस्सइ, बंघो परवत्युपच्चया भणिओ ।" त्ति । 'उदीरेइ' त्ति उदीरयति - करणविशेषेणाकृष्य भविष्यत्कालवेद्यं कर्म क्षपणायोदयावलिकायां प्रवेशयति । तथा 'गरहइ' त्ति आत्मनैव गर्हते निन्दति अतीतकालकृतं कर्म स्वरूपतः, तत्कारणगर्हणद्वारेण वा जातिविशेषबोधः सन् । तथा 'संवरइ' त्ति संवृणोति न करोति वर्त्तमानकालिकं कर्मस्वरूपतः तहेतुसंवरणद्वारेण वेति । गर्हादौ च यद्यपि गुर्वादीनामपिसहकारित्वमस्ति तथाऽपि न तेषां प्राधान्यं जीववीर्यस्यैव तत्र कारणत्वात् । गुर्वादीनां च वीर्योल्लासनमात्र एव हेतुत्वादिति । अथोदीरणमेवाश्रित्याह' १ । १४८. 'जं तं भंते ! 'इत्यादि व्यक्तं, नवरं अधोदीरयतीत्यादि पदत्रयोद्देशेऽपि' कस्मात् 'तं किं उदिनं उदीरेइ' इत्यादिना आद्यपदस्यैव निर्देशः कृतः ? उच्यते-उदीर्णादिके कर्मविशेषणचतुष्टये उदीरणामेवाश्रित्य विशेषणस्य सद्भावाद् इतरयोस्तु तदभावाद्। एवं तर्हि उद्देशसूत्रे गर्हते संवृणोतीत्येतत् पद्वयं कस्मादुपात्तम् ? उत्तरत्रानिर्देक्ष्यमाणत्वात्तस्येति, उच्यते - कर्मण उदीरणायां गर्हासंवरणे प्रायः उपायौ इत्यभिधानार्थम्, एवमुत्तरत्रापि वाच्यमिति । प्रश्नार्थश्चेहोत्तरव्याख्यानाद्बोद्धव्यः, तत्र 'नो उदिन्नं उदीरेइ' त्ति उदीर्णत्वादेव उदीर्णस्याप्युदीरणे उदीरणाऽविरामप्रसंगात् । 'नो अणुदिनं उदीरेइ 'त्ति इहानुदीर्ण- चिरेण भविष्यदुदीरणम् अभविष्यदुदीरणं च तन्नोदीरयति तद्विषयोदीरणायाः सम्प्रत्यनागतकाले चाभावात् । 'अणुदिनं उदीरणाभवियं कम् उदीरे 'त्ति अनुदीर्णं स्वरूपेण किन्त्वनन्तरसमय एव यदुदीरणाभविकं तदुदीरयति, विशिष्टयोग्यताप्राप्तत्वात् । तत्र भविष्यतीति भवा सैव भविका उदीरणा भविका यस्येति प्राकृतत्वाद् उदीरणाभविकम्, अन्यथा भविकोदीरणमिति स्यात्, उदीरणाया' वा भव्यम् - योग्यमुदीरणाभव्यमिति । 'नो उदयाणंतरपच्छाकड' न्ति उदयेनान्तरसमये पश्चात्कृतम् अतीततां नीतं यत्तत्तथा तदपि नोदीरयति', तस्यातीतत्वात् अतीतस्य चासत्त्वाद् असतश्चानुदीरणीयत्वादिति । इह च यद्यप्युदीरणादिषु कालस्वभावादीनां कारणत्वमस्ति तथाऽपि प्राधान्येन पुरुषवीर्यस्यैव कारणत्वमुपदर्शयन्नाह १ । १४६. 'जं त 'मित्यादि व्यक्तं, नवरं उत्थानादिनोदीरयतीत्युक्तं, तत्र च यदापन्नं तदाह १ । १५०. ‘एवं सइ'त्ति 'एवम्' उत्थानादिसाध्ये उदीरणे सतीत्यर्थः, शेषं तथैव । कांक्षामोहनीयस्योदीरणोक्ता, अथ तस्यैवोपशमनमाह १. उदीरणा क. च. छ. २. उद्देशके ख. ग. घ. छ. ३. उदीरणायां क. ४. नो उदीरयति क. ख. छ. Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति १।१५१. ‘से णूण’मित्यादि, उपशमनं मोहनीयस्यैव, यदाह— ३७३ "मोहस्सेवोवसमो खाओवसमो चउण्ह घाईणं । उदयक्खयपरिणामा अदुहवि होति कम्माणं ।।" उपशमश्चोदीर्णस्य क्षयः अनुदीर्णस्य च विपाकतः प्रदेशतश्चाननुभवनं सर्वथैव विष्कम्भितोदयत्वमित्यर्थः । अयं चानादिमिथ्यादृष्टेरौपशमिकसम्यक्त्वलाभे उपशमश्रेणिगतस्य चेति । १ । १५२. ‘अणुदिन्नं उवसामेति त्ति उदीर्णस्य त्ववश्यं वेदनादुपशमनाभाव इति । उदीर्णं सवेद्यते इति वेदनसूत्रं, तत्र १ । १५६. ‘उदिन्नं वेएइ'त्ति अनुदीर्णस्य वेदनाभावात्, अथानुदीर्णमपि वेदयति तर्हि उदीर्णानुदीर्णयोः को विशेषः स्यात् ? इति । वेदितं सन्निर्जीर्यत इति निर्जरासूत्रं, तत्र १ । १ ६०. ‘उदयाणंतरपच्छाकड' ति उदयेनानन्तरसमये यत्पश्चात्कृतम् - अतीततां गमितं तत्तथा तत् 'निर्जरयति' प्रदेशेभ्यः शातयति, नान्यद्, अननुभूतरसत्वादिति । उदीरणोपशमवेदननिर्जरणसूत्रोक्तार्थसंग्रहगाथा श.१: उ.३ः सू.१५१-१७० "तइएण उदीरेति उवसामेति य पुणोवि बीएणं । वेति निजरंति य पढमचउत्येहिं सब्वेऽवि || " अथ कांक्षामोहनीयवेदनादिकं निर्जरान्तं सूत्रप्रपञ्चं नारकादिचतुर्विंशतिदण्डकैर्नियोजयन्नाह" १ । १६३. 'नेरइयाण'मित्यादि इह च 'जहा ओहिया जीवा' इत्यादिना 'हंता वेयंती, कहन्नं भंते! नेरइयाणं कंखामोहणिज्जं कम्मं वेयंति ? गोयमा ! तेहिं तेहिं कारणेहिं' इत्यादिसूत्रं निर्जरासूत्रान्तं स्तनितकुमारप्रकरणान्तेषु प्रकरणेषु सूचितं, तेषु च यत्र यत्र जीवपदं प्रागधीतं तत्र तत्र नारकादिपदमध्येयमिति । पञ्चेन्द्रियाणामेव शङ्कितत्वादयः कांक्षामोहनीयवेदनप्रकारा घटन्ते नैकेन्द्रियादीनाम्, अतस्तेषां विशेषेण तवेदनप्रकारदर्शनायाह' १ । १६४. 'पुढविक्काइयाण'मित्यादि, व्यक्तं, नवरम् १ । १६५. 'एवं तक्का इ व 'त्ति एवं वक्ष्यमाणोल्लेखेन तर्कों-विमर्शः स्त्रीलिंगनिर्देशश्च प्राकृतत्वात् । 'सन्ना इ व 'त्ति संज्ञा - अर्थावग्रहरूपं ज्ञानं । 'पण्णा इ' व त्ति प्रज्ञा – अशेषविशेषविषयं ज्ञानमेवम् । 'मणे इवत्ति मनः स्मृत्यादिविशेषमतिभेदरूपं 'वइ इ वत्ति वागू - वचनं 'सेसं तं चैव 'त्ति शेषं तदेव यद् औधिकप्रकरणेऽधीतं तच्चेदम्- 'हंता गोयमा ! तमेव सच्चं नीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं । से णूणं भंते ! एवं मणं धारेमाणे ' इत्यादि तावद् वाच्यं यावद् 'सेणूणं भंते ! अप्पणा चेव निज्जरेइ अप्पणा चैव गरहइ' इत्यादेः सूत्रस्य 'पुरिसक्कारपरक्कमेइ वत्ति पदम् । १ । १६७. एवं जाव चउरिंदिय त्ति पृथिवीकायप्रकरणवदप्कायादिप्रकरणानि चतुरिन्द्रियप्रकरणान्तान्यध्येयानि । तिर्यक्पञ्चेन्द्रि वैमानिकप्रकरणान्तानि औधिकजीवप्रकरणवत्तदभिलापेनाध्येयानीति, अत एवाह १. निर्जीर्यति क. ख. २. दण्डके क. ख. च. छ. १।१६८. 'पंचेंदिए' त्यादि । भवतु नाम शेषजीवानां कांक्षामोहनीयवेदनं निर्ग्रन्थानां पुनस्तन्न संभवति, जिनागमावदातबुद्धित्वात्तेषामिति प्रश्नयन्नाह— १ । १६६. ‘अत्थि ण’मित्यादि काक्वाऽध्येयम् 'अस्ति' विद्यतेऽयं पक्षः - यदुत 'श्रमणाः ' व्रतिनः, अपिशब्दः श्रमणानां कांक्षामोहनीयस्यावेदनसंभावनार्थः । ते च शाक्यादयोऽपि भवन्तीत्याह- 'निर्ग्रन्थाः ' सबाह्याभ्यन्तरग्रन्थान्निर्गताः साधव इत्यर्थः । १ । १७०. 'णाणंतरेहिं 'ति एकस्माज्ज्ञानादन्यानि ज्ञानानि ज्ञानान्तराणि तैर्ज्ञानविशेषैर्ज्ञानविशेषेषु वा शंकिता इत्यादिभिः सम्बन्धः, एवं सर्वत्र । तेषु चैवं शंकादयः स्युः– यदि नाम परमाण्वादिसकलरूपिद्रव्यावसानविषयग्राहकत्वेन संख्यातीतरूपाण्यवधिज्ञानानि संति तत् किमपरेण मनःपर्यायज्ञानेन ? तद्विषयभूतानां मनोद्रव्याणामवधिनैव दृष्टत्वात्, उच्यते चागमे मनः पर्यायज्ञानमिति किमत्र तत्त्वमिति ज्ञानतः शंका । इह समाधिः -- यद्यपि मनोविषयमप्यवधिज्ञानमस्ति तथाऽपि न मनःपर्यायज्ञानमवधावन्तर्भवति । भिन्नस्वभावत्वात्, तथाहि - मनः पर्यायज्ञानं मनोमात्रद्रव्यग्राहकमेवादर्शनपूर्वकं च । अवधिज्ञानं तु किञ्चिन्मनोव्यतिरक्तद्रव्यग्राहकं किंचिच्चोभयग्राहकं दर्शनपूर्वकं च न तु केवलमनोद्रव्यग्राहकं इत्यादि बहुवक्तव्यमतोऽवधिज्ञानातिरिक्तं भवति मनःपर्यायज्ञानमिति । तथा २. दर्शनं—सामान्यबोधः तत्र यदि नामेन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तः सामान्यार्थविषयो बोधो दर्शनं तदा किमेकश्चक्षुर्दर्शनमन्यस्त्वचक्षुर्दर्शनम् ? अथेन्द्रियानिन्द्रियभेदात् भेदस्तदाचक्षुष इव श्रोत्रादीनामपि दर्शनभावात् । षडिन्द्रियनोइन्द्रियजानि दर्शनानि स्युर्न द्वे एवेति । अत्र समाधिः -सामान्यविशेषात्मकत्वादु वस्तुनः क्वचिद्विशेषतस्तन्निर्देशः क्वचिच्च सामान्यतः । तत्र चक्षुर्दर्शनमिति विशेषतः अचक्षुर्दर्शनमिति च सामान्यतः। यच्च प्रकारान्तरेणापि निर्देशस्य संभवे चक्षुर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनं चेत्युक्तं तदिन्द्रियाणामप्राप्तकारित्वप्राप्तकारित्वविभागात् । मनसस्त्वप्राप्तकारित्वेऽपि प्राप्तकारीन्द्रियवर्गस्य तदनुसरणीयस्य बहुत्वात्तद्दर्शनस्याचक्षुर्दर्शनशब्देन ग्रहणमिति । अथवा दर्शनं – सम्यक्त्वम्, तत्र च शंका "मिच्छत्तं जमुनिं तं खीणं अणुदीयं च उवसंतं । " ३. दर्शयन्नाह ग. Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.३: सू.१७० ३७४ भगवती वृत्ति इत्येवंलक्षणं क्षायोपशमिकम् । औपशमिकमप्येवं लक्षणमेव, यदाह "खीणम्मि उदिनम्मी अणुदिजते व सेसमिछत्ते। अंतोमहत्तमेतं उसमसम्म लहइ जीवो ॥" ततोऽनयोर्न विशेषः उक्तश्चासाविति, समाधिश्च–क्षयोपशमो हि उदीर्णस्य क्षयोऽनुदीर्णस्य च विपाकानुभवापेक्षयोपशमः प्रदेशानुभवस्तूदयोऽस्त्येव, उपशमे तु प्रदेशानुभवोऽपि नास्तीति, उक्तं च "वेएइ संतकम्मं खओवसमिएसु नाणुभावं सो। उबसंतकसाओ पुण वेदेइ ण संतकम ति॥" तथा ३. चारित्रं-चरणं तत्र च यदि सामायिकं सर्वसावधविरतिलक्षणं छेदोपस्थापनीयमपि तल्लक्षणमेव, महाव्रतानामवद्यविरतिरूपत्वात, तत्कोऽनयोर्भेदः ? उक्तश्चासाविति, अत्र समाधिः-ऋजुजडवक्रजडानां प्रथमचरमजिनसाधूनामाधासनाय छेदोपस्थापनीयमुक्तम् । व्रतारोपणे हि मनाक् सामायिकाशुद्धावपि व्रताखण्डनाच्चारित्रिणो वयं चारित्रस्य व्रतरूपत्वादिति बुद्धिः स्यात्, सामायिकमात्रे तु तदशुद्धौ भग्नं नश्चारित्रं, चारित्रस्य सामायिकमात्रत्वादित्येवमनाधासस्तेषां स्यादिति, आह च "रिउवकजडा पुरिमेयराण सामाइए क्यारुहणं। मणयमसुद्धेवि जओ सामाइए हुति हु वयाई॥" इति । तथा ४. लिंग–साधुवेषः । तत्र च यदि मध्यमजिनैर्यथालब्धवस्त्ररूपं लिंग साधूनामुपदिष्टं, तदा किमिति प्रथमचरमजिनाभ्यां सप्रमाणधवलवसनरूपं तदेवोक्तं ? सर्वज्ञानामविरोधिवचनत्वादिति । अत्रापि ऋजुजडवक्रजडऋजुप्रज्ञशिष्यानाश्रित्य भगवतां तस्योपदेशः, तथैव तेषामुपकारसम्भवादिति समाधिः। तथा ५. प्रवचनमागमः। तत्र च यदि मध्यमजिनप्रवचनानि चतुर्यामधर्मप्रतिपादकानि, कथं प्रथमेतरजिनप्रवचने पञ्चयामधर्मप्रतिपादके ? सर्वज्ञानामविरुद्धवचनत्वात् । अत्रापि समाधिः-चतुर्यामोऽपि तत्त्वतः पञ्चयाम एवासौ, चतुर्थव्रतस्य परिग्रहेऽन्तर्भूतत्वात् । योषा हि नामपरिगृहीता भुज्यते इति न्यायादिति । तथा ६. प्रवचनमधीते वेत्ति वा प्रावचन:-कालापेक्षया बह्वागमः पुरुषः । तत्रैकः प्रावचनिक एवं कुरुते अन्यस्त्वेवमिति किमत्र तत्त्वमिति ? समाधिश्चेह-चारित्रमोहनीयक्षयोपशमविशेषेण उत्सर्गापवादादिभावितत्वेन च प्रावचनिकानां विचित्रा प्रवृत्तिरिति नासौ सर्वथाऽपि प्रमाणम्, आगमाविरुद्धप्रवृत्तेरेव प्रमाणत्वादिति । तथा ७. कल्पो-जिनकल्पिकादिसमाचारः । तत्र यदि नाम जिनकल्पिकानां नाग्न्यादिरूपो महाकष्टः कल्पः कर्मक्षयाय, तदा स्थविरकल्पिकानां वस्त्रपात्रादिपरिभोगरूपो यथाशक्तिकरणात्मकोऽकष्टस्वभावः कथं कर्मक्षयायेति ? इह च समाधि:-द्वावपि कर्मक्षयहेत, अवस्थाभेदेन जिनोक्तत्वात् । कष्टाकष्टयोश्च विशिष्टकर्मक्षयं प्रत्यकारणत्वादिति । तथा ८. मार्गः-पूर्वपुरुषक्रमागता सामाचारी। तत्र केषाञ्चिद्विश्चैत्यवन्दनानेकविधकायोत्सर्गकरणादिकाऽऽवश्यकसामाचारी तदन्येषां तु न तथेति किमत्र तत्त्वमिति ? समाधिश्च-गीतार्थाशठप्रवर्तिताऽसौ सर्वाऽपि न विरुद्धा, आचरितलक्षणोपेतत्वात् । आचरितलक्षणं चेदम् "असढेण समाइनं जं कत्यइ केणई असावजं । न निवारियमबेहिं बहुमणुमयमेयमायरियं ॥" ति। तथा ६. मतं-समान एवागमे आचार्याणामभिप्रायः । तत्र च सिद्धसेनदिवाकरो मन्यते-केवलिनो युगपद् ज्ञानं दर्शनं च, अन्यथा तदावरणक्षयस्य निरर्थकता स्यात् । जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणस्तु भिन्नसमये ज्ञानदर्शने, जीवस्वरूपत्वात् । तथा तदावरणक्षयोपशमे समानेऽपि क्रमेणैव मतिश्रुतोपयोगी, न चैकतरोपयोगे इतरक्षयोपशमाभावः । तत्क्षयोपशमस्योत्कृष्टतः षट्षष्टिसागरोपमप्रमाणत्वादतः किं तत्त्वमिति ? इह च समाधिः यदेव मतमागमानुपाति तदेव सत्यमिति मन्तव्यमितरत्पुनरुपेक्षणीयम्। अथ चाबहुश्रुतेन नैतदवसातुं शक्यते तदैवं भावनीयम्-आचार्याणां सम्प्रदायादिदोषादयं मतभेदः । जिनानां तु मतमेकमेवाविरुद्धं च, रागादिविरहितत्वात् । आह च "अणुवकयपराणुग्गहपरायणा जं जिणा जुगप्पवरा । जियरागदोसमोहा य णण्णहावाइणो तेण॥" ति। तथा १०. भंगाः-व्यादिसंयोगभंगकाः। तत्र च द्रव्यतो नाम एका हिंसा न भावत इत्यादि चतुर्भग्युक्ता च तत्र प्रथमोऽपि भंगो युज्यते, यतः किल द्रव्यतो हिंसा-ईसिमित्या गच्छतः पिपीलिकादिव्यापादनं, न चेयं हिंसा, तल्लक्षणायोगात्, तथाहि "जो उ पमत्तो पुरिसो तस्स उ जोगं पडुन रे सत्ता। वावजंती नियमा तेसि सो हिंसओ होइ॥" ति। उक्ता चेयमतः शंका, न चेयं युक्ता । एतद्गाथोक्तहिंसालक्षणस्य द्रव्यभावहिंसाश्रयत्वात्, द्रव्यहिंसायास्तु मरणमात्रतया रुढत्वादिति । तथा ११. नया-द्रव्यास्तिकादयः । तत्र यदि नाम द्रव्यास्तिकमतेन नित्यं वस्तु, पर्यायास्तिकनयमतेन कथं तदेवानित्यं ? विरुद्धत्वात्, इति Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७५ भगवती वृत्ति श.१: उ.३,४ः सू.१७०-१८० शंका, इयं चायुक्ता । द्रव्यापेक्षयैव तस्य नित्यत्वात्, पर्यायापेक्षया चानित्यत्वात्। दृश्यते चापेक्षयैकत्रैकदा विरुद्धानामपि धर्माणां समावेशो । यथा जनकापेक्षया य एव पुत्रः स एव पुत्रापेक्षया पितेति । तथा १२. नियम:-अभिग्रहः । तत्र यदि नाम सर्वविरतिः सामायिकं तद् किमन्येन पौरुष्यादिनियमेन ? सामायिकेनैव सर्वगुणावाप्तेः उक्तश्चासौ इति शंका, इयं चायुक्ता। यतः सत्यपि सामायिके युक्तः पौरुष्यादिनियमः, अप्रमादवृद्धिहेतुत्वादिति, आह च "सामाइए वि हु सावजचागरूवे उ गुणकरं एवं । अपमायवुहिजणगत्तणेष आणाओ विजेयं ॥" ति। तथा १३. प्रमाण-प्रत्यक्षादि । तत्रागमप्रमाणम्-आदित्यो भूमेरुपरि योजनशतैरष्टाभिः संचरति, चक्षुः प्रत्यक्षं च तस्य भुवो निर्गच्छतो ग्राहकमिति किमत्र सत्यमिति सन्देहः, अत्र समाधिः-न हि सम्यक् प्रत्यक्षमिदं, दूरतरदेशतो विभ्रमादिति । ॥प्रथमशते तृतीयोद्देशकः ।। चतुर्थ उद्देशकः अनन्तरोद्देशके कर्मणः उदीरणवेदनाद्युक्तमिति तस्यैव भेदादीन् दर्शयितुं तथा द्वारगाथायां 'पगइ'त्ति यदुक्तं तच्चाभिधातुमाह१1१७४. 'कइ ण'मित्यादि, व्यक्तं, नवरं 'कम्मपगडीओ'त्ति प्रज्ञापनायां त्रयोविंशतितमस्य कर्मप्रकृत्यभिधानस्य पदस्य प्रथमोदेशको नेतव्यः । एतद्वाच्यानां चार्थानां सङ्ग्रहगाथाऽस्तीत्यत आह गाहा, सा चेयम्-'कई'त्यादि । तत्र 'कइप्पगडी'ति द्वारं, तच्चैवम्-'कइ णं भंते ! कम्मष्पगडीओ पन्नत्ताओ? गोयमा ! अट्ठ, तंजहा–णाणावरणिज्ज'मित्यादि'कह बंधइत्यादि द्वारमिदं चैवम्-कहानं भंते ! जीवे अट्ठ कम्मपगडीओ बंधइ ? गोयमा ! णाणावरणिज्जरस कम्मस्स उदएणं दंसणावरणिजं कम्मं निग्गच्छइ' विशिष्टोदयावस्थं जीवस्तदासादयतीत्यर्थः । 'दरिसणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं दंसणमोहणिज्जं कम्मं निग्गच्छइ' विपाकावस्था करोतीत्यर्थः । 'दंसणमोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं मिच्छत्तं निगच्छइ, मिच्छत्तेणं उदिनेणं एवं खलु जीवे अट्ठ कम्मपगडीओ बंधइ' इत्यादि । न चैवमिहेतरेतराश्रयदोषः कर्मबन्धप्रवाहस्यानादित्वादिति । 'कइहिं व ठाणेहिं'त्ति द्वारं तच्चैवम्-'जीवे णं भंते ! णाणावरणिज्जं कम्मं कइहिं ठाणेहिं बंधइ ? गोयमा ! दोहिं ठाणेहि, तंजहा-रागेण य दोसेण य'इत्यादि। 'कइ वेएइ वत्ति द्वारमिदं चैवम्-'जीवे णं भंते ! कइ कम्मपगडीओ वेएइ ? गोयमा ! अस्थेगइए वेएइ, अत्थेगतिए नो वेएइ, जे वेएइ से अट्ठ' इत्यादि । 'जीवे णं भंते ! णाणावरणिज्जं कम्मं वेएइ ? गोयमा ! अत्थेगइए वेएइ, अत्थेगतिए नो वेएइ' केवलिनोऽवेदनात् । ‘णेरइए णं भंते ! णाणावरणिज्जं कम्मं वेएइ ? गोयमा ! नियमा वेएइ'इत्यादि । 'अणुभागो कइविहो कस्स'त्ति कस्य कर्मणः कतिविधो रसः ? इति द्वारम् । इदं चैवम्-'णाणावराणिजस्स णं भंते ! कम्मस्स कतिविहे अणुभागे पण्णते? गोयमा ! दसविहे पण्णत्ते, तंजहा-सोयावरणे सोयविनाणावरणे' इत्यादि । द्रव्येन्द्रियावरणो भावेन्द्रियावरणश्चेत्यर्थः । अथ कर्मचिन्ताधिकारान्मोहनीयमाश्रित्याह१।१७५. 'जीवे णं भंते' इत्यादि 'मोहणिजेणं'ति मिथ्यात्वमोहनीयेन 'उदिण्णेणं ति उदितेन ‘उवट्ठाएज' त्ति 'उपतिष्ठेत' उपस्थानं-परलोकक्रियास्वभ्युपगमं कुर्यादित्यर्थः। १।१७६. 'वीरियत्ताए'त्ति वीर्ययोगावीर्यः-प्राणी, तद्भावो वीर्यता। अथवा वीर्यमेव स्वार्थिकप्रत्ययाद् वीर्यता। वीर्याणां वा भावो वीर्यता तया । 'अवीरियत्ताए'त्ति अविद्यमानवीर्यतया वीर्याभावेनेत्यर्थः । नो अवीरियत्ताए'त्ति वीर्यहतुकत्वादुपस्थानस्येति । १११७७. 'बालवीरियत्ताए'त्ति बालः सम्यगर्थानवबोधात् सद्बोधकार्यविरत्यभावाच्च मिथ्यादृष्टिस्तस्य या वीर्यता-परिणतिविशेषः सा तथा तया । 'पंडियवीरियत्ताए'त्ति पण्डितः सकलावद्यवर्जकस्तदन्यस्य परमार्थतो निर्ज्ञानत्वेनापंण्डितत्वाद् यदाह "तज्ज्ञानमेव न भवति यस्मिनुदिते विभाति रागगणः। तमसः कुतोऽस्ति शक्तिर्दिनकरकिरणाग्रतः स्वातुम् ।।" इति सर्वविरत इत्यर्थः । 'बालपंडियवीरियत्ताए'त्ति बालो देशे विरत्यभावात्, पण्डितो देश एव विरतिसद्भावादिति बालपण्डितो-देशविरतः । इह च मिथ्यात्वे उदिते मिध्यादृष्टित्वाञ्जीवस्य बालवीर्येणैवोपस्थानस्यान्नेतराभ्याम् । एतदेवाह-'गोयमे !'त्यादि। उपस्थानविपक्षोऽपक्रमणमतस्तदाश्रित्याह१११७८. 'जीवे ण'मित्यादि 'अवक्कमेज'त्ति 'अपक्रामेत' अपसत्, उत्तमगुणस्थानकाद् हीनतरं गच्छेदित्यर्थः। १११८०. 'बालवीरियत्ताए अवक्कमेञ्ज'त्ति मिथ्यात्वमोहोदये सम्यक्त्वात् संयमाद्देशसंयमाद् वा 'अपक्रामेत्' मिथ्यादृष्टिभवेदिति । 'यो पंडियवीरियत्ताए अवक्कमेज'त्ति नहि पण्डितत्वात्प्रधानतरं गुणस्थानकमस्ति यतः पण्डितवीर्येणापसर्पत्। 'सिय बालपंडियवीरियत्ताए अवक्कमेज'त्ति स्यात कदाचिच्चारित्रमोहनीयोदयेन संयमादपगत्य बालपण्डितवीर्येण देशविरतो भवेदिति । १. किह ख. ग. घ. च. छ. २. बंधइ त्ति क. घ. च. छ. ३. च. क. ग. घ. च. छ. ४. ठाणेहिं बंधइ ग. च. छ. Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.४: सू.१८०-२०० ३७६ भगवती वृत्ति वाचनान्तरे त्वेवम्-'बालवीरियत्ताए नो पंडियवीरियत्ताए नो बालपंडियवीरियत्ताए'त्ति तत्र च मिथ्यात्वमोहोदये बालवीर्यस्यैव भावादितरवीर्यद्वयनिषेध इति। उदीर्णविपक्षत्वादुपशान्तस्येत्युपशान्तसूत्रद्वयं तथैव।। १।१९३. नवरम् 'उववाएजा पंडियदीरियत्ताए'त्ति उदीर्णालापकापेक्षयोपशान्तालापकयोरयं विशेषः-प्रथमालापके सर्वथा मोहनीयेनोपशान्तेन सतोपतिष्ठेत क्रियासु पण्डितवीर्येण, उपशान्तमोहावस्थायां पण्डितवीर्यस्यैव भावादितरयोश्चाभावात् । वृद्धैस्तु काञ्चिद्वाचनामाश्रित्येदं व्याख्यातं-मोहनीयेनोपशान्तेन सता न मिथ्यादृष्टिर्जायते, साधुः श्रावको वा भवतीति। द्वितीयालापके तु 'अवक्कमेज बालपंडियवीरियत्ताए'त्ति मोहनीयेन हि उपशान्तेन संयतत्वाद् बालपण्डितवीर्येणापक्रामन् देशसंयतो भवति। देशतस्तस्य मोहोपशमसद्भावात् । न तु मिथ्यादृष्टिः, मोहोदय एव तस्य भावात्, मोहोपशमस्य हाधिकृतत्वादिति । अथापक्रामतीति यदुक्तं तत्र सामान्येन प्रश्नयन्नाह१।१६७. 'से भंते ! कि'मित्याह-'से'त्ति असौ जीवः अथार्थो वा सेशब्द: 'आयाए'त्ति आत्मना 'अणायाए'त्ति अनात्मना, परत इत्यर्थः 'अपक्रामति' अपसर्पति । पूर्व पण्डितत्वरुचिर्भूत्वा पश्चान मिश्ररुचिर्मिथ्यारुचिर्वा भवतीति, कोऽसौ ? इत्याह-मोहनीयं कर्म मिथ्यात्वमोहनीयं चारित्रमोहनीयं वा वेदयन् उदीर्णमोह इत्यर्थः। ११११८. 'से' कहमेयं भंते !'त्ति अथ 'कथं' केन प्रकारेण 'एतद्' अपक्रमणम् ‘एवं'ति मोहनीयं वेदयमानस्येति । इहोत्तरं-'गोयमे'त्यादि 'पूर्वम्' अपक्रमणात् प्राग् 'असौ' अपक्रमणकारी जीवः 'एतद्' जीवादि अहिंसादि वा वस्तु एवं' यधा जिनैरुक्तं 'रोचते' श्रद्धत्ते करोति वा । 'इदानीं' मोहनीयोदयकाले सः जीवः एतद् जीवादि अहिंसादि वा एवं यथा जिनरुक्तं 'नो रोचते' न श्रद्धत्ते न करोति वा। ‘एवं खलु' उक्तप्रकारेण 'एतद्' अपक्रमणं एवं मोहनीयवेदनेत्यर्थः । मोहनीयकर्माधिकारात् सामान्यकर्म चिन्तयन्नाह१।१८६. 'से नूण'मित्यादि 'नेरइयस्स वे'त्यादौ नास्ति मोक्षः इत्येवं सम्बन्धात् षष्ठी। 'जे कडे'त्ति तैरेव यद् बद्धं 'पावे कम्मे'त्ति 'पाप' अशुभं नरकगत्यादि, सर्वमेव वा 'पापं' दुष्टं मोक्षव्याघातहेतुत्वात् । 'तस्स'त्ति तस्मात्कर्मणः सकाशात् 'अवेइयत्त'त्ति तत्कर्माननुभूय। १।१६०. 'एवं खलु'त्ति वक्ष्यमाणप्रकारेण 'खलु' वाक्यालंकारे 'मए'त्ति मया, अनेन च वस्तुप्रतिपादने सर्वज्ञत्वेनात्मनः स्वातन्त्र्यं प्रतिपादयति । 'पएसकम्मे य'त्ति प्रदेशा:-कर्मपुद्गला जीवप्रदेशेष्वोतप्रोतास्तद्रूपं कर्म प्रदेशकर्म । 'अणुभागकम्मे यत्ति अनुभाग:-तेषामेव कर्मप्रदेशानां संवेद्यमानताविषयो रसस्तद्पं कर्म अनुभागकर्म । तत्र यत् प्रदेशकर्म तन्नियमाद् वेदयति, विपाकस्याननुभवनेऽपि कर्मप्रदेशानामवश्यं क्षपणात्, प्रदेशेभ्यः प्रदेशान्नियमाच्छातयतीत्यर्थः । अनुभागकर्म च तथाभावं वेदयति वा न वा, यथा मिथ्यात्वं तत्क्षयोपशमकालेऽनुभागकर्मतया न वेदयति प्रदेशकर्मतया तु वेदयत्येवेति।। इह च द्विविधेऽपि कर्माणि वेदयितव्ये प्रकारद्वयमस्ति, तच्चाहतैव ज्ञायते इति दर्शयन्नाह-'ज्ञात' सामान्येनावगतम्, एतद् वक्ष्यमाणं वेदनाप्रकारद्वयं 'अर्हता' जिनेन 'सुयंति 'स्मृतं' प्रतिपादितम् अनुचिन्तितं वा। तत्र स्मृतमिव स्मृतं केवलित्वेन स्मरणाभावेऽपि जिनस्यात्यन्तमव्यभिचारसाधादिति। 'विण्णायंति विविधप्रकारैः देशकालादिविभागरूपैति विज्ञातम् । तदेवाह-'इम कम्मं अयं जीवे'त्ति अनेन द्वयोरपि प्रत्यक्षतामाह केवलित्वादर्हतः । 'अब्मोवगमियाए'त्ति प्राकृतत्वादभ्युपगमः प्रव्रज्याप्रतिपत्तितो ब्रह्मचर्यभूमिशयनकेशलुञ्चनादीनामंगीकारस्तेन निर्वृत्ता आभ्युपगमिकी तया 'वेयइस्सइत्ति भविष्यत्कालनिर्देशः । भविष्यत्पदार्थो विशिष्टज्ञानवतामेव ज्ञेयः अतीतो वर्तमानश्च पुनरनुभवद्वारेणान्यस्यापि ज्ञेय संभवतीति ज्ञापनार्थः। 'उवक्कमियाए'ति उपक्रम्यते अनेनेत्युपक्रमःकर्मवेदनोपायस्तत्र भवा औपक्रमिकी-स्वयमुदीर्णस्योदीरणाकरणेन वोदयमुपनीतस्य' कर्मणोऽनुभवस्तया औपक्रमिक्या वेदनया वेदयिष्यति । तथा च 'आहाकम्मति यथाकर्म-बद्धकर्मानतिक्रमेण 'अहानिगरणं'ति निकरणानां-नियतानां देशकालादीनां करणानांविपरिणामहेतूनामनतिक्रमेण यथा यथा तत्कर्म भगवता दृष्टं तथा तथा विपरिणस्यतीति, इति शब्दो वाक्यार्थसमाप्ताविति । अनन्तरं कर्म चिन्तितं । तच्च पुद्गलात्मकमिति परमाण्वादिपुद्गलांश्चिन्तयन्नाह-अथवा परिणामाधिकारात् पुद्गलपरिणाममाह१।१६१. 'एस णं भंते !'इत्यादि पोग्ग्ले'त्ति परमाणुरुत्तरत्र स्कन्धग्रहणात् । 'तीतंति अतीतम्, इह च सर्वेऽध्वभावकाला इत्यनेनाधारे द्वितीया । ततश्च सर्वस्मिन्नतीत इत्यर्थः। 'अणतं'ति अपरिमाणं, अनादित्वात्। 'सासयंति सदा विद्यमानं, न हि लोकोऽतीतकालेन कदाचिच्छून्य इति । 'समय' ति कालं । 'भुवि'त्ति अभूदिति । एतद्वक्तव्यं स्यात्? सद्भूतार्थत्वात् । १।१६२. 'पडुप्पन्नं'ति प्रत्युत्पन्नं वर्तमानमित्यर्थः । वर्तमानस्यापि शाश्वतत्वं सदाभावाद् । १।१६३.एवमनागतस्यापीति। अनन्तरं स्कन्धः उक्तः । स्कन्धश्च स्वप्रदेशापेक्षया जीवोऽपि स्यादिति जीवसूत्रं, जीवाधिकाराच्च प्रायो यथोत्तरप्रधानजीववस्तुवक्तव्यतामुद्देशकान्तं यावदाह११२००.'छउमत्थे ण'मित्यादि । इह छद्मस्थोऽवधिज्ञानरहितोऽवसेयो, न पुनरकेवलिमात्रम्। उत्तरत्रावधिज्ञानिनो वक्ष्यमाणत्वादिति। केवलेणं ति असहायेन शुद्धेन वा परिपूर्णेन वाऽसाधारणेन वा यदाह ३. चोदय क.घ. १.तत्र च. घ. च. छ. २. देशे संयतो ग. छ. Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ३७७ श.१: उ.४,५: सू.२००-२१३ "केवलमेगं सुखं सगलमसाहारणं अणंतं च।" 'संजमेणं ति पृथिव्यादिरक्षणरूपेण, 'संवरेण ति इन्द्रियकषायनिरोधेन, 'सिंझिंसु' इत्यादौ च बहुवचनं प्राकृतत्वादिति। एतच्च गौतमेनानेनाभिप्रायेण पृष्ट-यदुत उपशान्तमोहाद्यवस्थायां सर्वविशुद्धाः संयमादयोऽपि भवन्ति विशुद्धसंयमादिसाध्या च सिद्धिरिति सा छद्मस्थस्यापि स्यादिति। ११२०१. अंतकरे'ति भवान्तकारिणः, ते च दीर्घतरकालापेक्षयाऽपि भवन्तीत्यत आह-'अंतिमसरीरिया वत्ति अन्तिमं शरीरं येषामस्ति तेऽन्तिमशरीरिकाः चरमदेहा इत्यर्थः। वाशब्दो समुच्चये। 'सव्वदुक्खाणमंतं करेंसु'इत्यादौ 'सिझिंसु सिझंती'त्याद्यपि द्रष्टव्यं सिद्ध्याधविनाभूतत्वात् सर्वदुःखान्तकरणस्येति। 'उप्पन्ननाणदंसणधरे' उत्पन्ने ज्ञानदर्शने धारयन्ति ये ते तथा, न त्वनादिसंसिद्धज्ञानाः। अत एव 'अरह'त्ति पूजार्हाः 'जिण'त्ति रागादिजेतारः। ते च छद्मस्था अपि भवन्तीत्यत आह–'केवली'ति सर्वज्ञाः 'सिझंती'त्यादिषु चतुषु पदेषु वर्तमाननिर्देशस्य शेषोपलक्षणत्वात् 'सिझिंसु सिझंति सिज्झिस्संती'त्येवमतीतो निर्देशो द्रष्टव्यः, अत एव 'सव्वदुक्खाण मित्यादौ पञ्चमपदेऽसौ विहित इति। ११२०४. 'जहा छउमत्थो'इत्यादेरियं भावना 'आहोहिएणं भंते ! मणूसेऽतीतमणंतं सासय मित्यादि दण्डकत्रयं । तत्राधः परमावधेरधस्ताद् योऽवधिः सोऽधोऽवधिस्तेन यो व्यवहरत्यसौ आधोऽवधिकः-परिमितक्षेत्रविषयावधिकः। 'परमाहोहिओ'त्ति परम आधोऽवधिकाद् यः स परमाधोऽवधिकः प्राकृतत्वाच्च व्यत्ययनिर्देशः। 'परमोहिओ'त्ति चित्पाठो,व्यक्तश्च। स च समस्तरूपिद्रव्यासंख्यातलोकमात्रालोकखण्डासंख्या तावसर्पिणीविषयावधिज्ञानः । 'तिन्नि आलावग'त्ति कालत्रयभेदतः। १।२०५. 'केवलीण मित्यादि केवलिनोऽप्येते एव त्रयो दण्डकाः विशेषस्तु सूत्रोक्त एवेति । १।२०६. 'से गुण मित्यादिषु कालत्रयनिर्देशो' वाच्य एवेति।। १।२०६. 'अलमत्युत्ति वत्तव्वं सिय'त्ति अलमस्तु पर्याप्तं भवतु, नातः परं किञ्चिद् ज्ञानान्तरं प्राप्तव्यमस्यास्तीत्येतद् वक्तव्यं 'स्यात्' भवेत् सत्यत्वादस्येति। ॥प्रथमशते चतुर्थोद्देशकः ॥ पञ्चम उद्देशकः अनन्तरोद्देशकस्यान्तिम सूत्रेष्वर्हदादय उक्तास्ते च पृथिव्यां भवन्तीति अथवा पृथिवीतोऽप्युद्वृत्ता मनुजत्वमवाप्ताः सन्तस्ते भवन्तीति पृथिवीप्रतिपादनायाह तथा 'पुढवित्ति यदुद्देशकसंग्रहिण्यामुक्तं तत्प्रतिपादनाय चाह११२११. 'कइ ण'मित्यादि तत्र 'रयणप्पभ'त्ति नरकवर्ज प्रायः प्रथमकाण्डे इन्द्रनीलादिबहुविधरलसंभवात् रलानां प्रभा-दीप्तिर्यस्यां सा रलप्रभा। यावत्करणादिदं दृश्य-शर्कराप्रभा वालुकाप्रभा पंकप्रभा धूमप्रभा तमःप्रभेति, शब्दार्थश्च रत्नप्रभावदिति । 'तमतम'त्ति तमस्तमःप्रभेत्यर्थः, तत्र प्रकृष्टं तमस्तमस्तमस्तस्येव प्रभा यस्याः सा तमस्तमःप्रभा। एतासु च नरकावासा भवन्तीति तान् आवासाधिकाराच्च शेषजीवावासान् परिमाणतो दर्शयन्नाह११२१२. 'इमीसे ण'मित्यादि, 'अस्यां' विनेयप्रत्यक्षायां 'निरयावाससयसहस्स'त्ति आवसन्ति येषु ते आवासाः नरकाश्च ते आवासाश्चेति नरकावासा स्तेषां यानि शतसहस्राणि तानि तथेति। शेषपृथिवीसूत्राणि तु गाथाऽनुसारेणाध्येयानि, अत एवाह 'गाह'त्ति सा चेयं 'तीसा य पन्नवीसा' इत्यादि। सूत्राभिलापश्च-'सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए कई निरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता ? गोयमा ! पणवीसं निरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता' इत्यादिरिति। १।२१३. 'छण्हंपि जुयलयाणं'ति दक्षिणोत्तरदिग्भेदेनासुरादिनिकायो विभेदो भवतीति युगलान्युक्तानि, तत्र षट्सु युगलेषु प्रत्येक षट्सप्ततिभवनलक्षाणामिति । एषां चासुरादिनिकाययुगलानां दक्षिणोत्तरदिशोरयं विभागः "चउतीसा चञ्चत्ता अदृत्तीसं च सयसहस्साओ। पन्ना चत्तालीसा दाहिणओ हुँति भवणाई॥" 'चत्तालीसत्ति द्वीपकुमारादीनां षण्णां प्रत्येकं चत्वारिंशभवनलक्षाः, "तीसा चत्तालीसा चोत्तीसं चेव सयसहस्साइं। छायाला छत्तीसा उत्तरओ होति भवणाई॥" 'छत्तीस' ति द्वीपकुमारादीनां षण्णां प्रत्येकं षट्त्रिंशद्भवनलक्षाणीति । अथाधिकृतोद्देशकार्थसंग्रहाय गाथामाह १. कालत्रय निर्देशनन्य च. छ. Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ श.१: उ.५: सू.२१५-२१८ भगवती वृत्ति ११२१४,२१५. 'पुढवी'त्यादि, तत्र पुढवीति लुप्तविभक्तिकत्वानिर्देशस्यं पृथिवीषु, उपलक्षणत्वाच्चास्य पृथिव्यादिषु जीवावासेष्विति द्रष्टव्यमिति। 'ठिइत्ति 'सूचनात् सूत्र'मिति न्यायात् स्थितिस्थानानि वाच्यानीति शेषः । एवं 'ओगाहणे ति अवगाहनास्थानानि । शरीरादिपदानि तु व्यक्तान्येव । एकारान्तं च पदं प्रथमैकवचनान्तं दृश्यम्, इत्येवमेतानि स्थितिस्थानादीनि दश वस्तूनि इहोद्देशके विचारयितव्यानीति गाथासमासार्थः । विस्तारार्थं तु सूत्रकारः स्वयमेव वक्ष्यतीति । तत्र रलप्रभापृथिव्यां स्थितिस्थानानि तावारूपयन्नाह११२१६. 'इमीसे ण'मित्यादि व्यक्तं, नवरं 'एगमेगंसि निरयावासंसित्ति प्रतिनरकावासमित्यर्थः 'ठितिठाण' त्ति आयुषों विभागाः 'असंखेज' त्ति संख्यातीतानि, कथं ? प्रथमपृथिव्यपेक्षया जघन्या स्थितिर्दश वर्षसहस्त्राणि उत्कृष्थ तु सागरोपमम् । एतस्यां चैकैकसमयवृद्ध्याऽसंख्येयानि स्थितिस्थानानि भवन्ति, असंख्येयत्वात्सागरोपमसमयानामिति । एवं नरकावासापेक्षयाऽप्यसंख्येयान्येव तानि केवलं तेषु जघन्योत्कृटविभागो ग्रन्थान्तरादवसेयो, यथा प्रथमप्रस्तटनकरेषु जघन्या स्थितिर्दश वर्षसहस्रणि उत्कृष्ट तु नवतिरिति एतदेव दर्शयन्नाह-'जहणिया ठिती' त्यादि, जघन्या स्थितिर्दशवर्षसहस्त्रादिका इत्येकं स्थितिस्थानं, तच्च प्रतिनरकं भिन्नरूपं, सैव समयाधिकेति द्वितीयं, इदमपि विचित्रम्, एवं यावदसंख्येयसमयाधिका सा, सर्वान्तिमस्थितिस्थानदर्शनायाह-'तप्पाउग्गुक्कोसिय'त्ति उत्कृय असावनेकविधेति विशेष्यते तस्य-विवक्षितनरकावासस्य प्रायोग्या-उचिता उत्कर्षिका तत्प्रायोग्योकर्षिका इत्यपरं स्थितिस्थानम्, इदमपि विचित्र', विचित्रत्वादुत्कर्षस्थितेरिति । एवं स्थितिस्थानानि प्ररूप्य तेष्वेव क्रोधाधुपयुक्तत्वान्नारकाणां विभागेन दर्शयन्निदमाह११२१७. 'इमीसे णं'इत्यादि 'जहन्नियाए ठिईए वट्टमाण'त्ति या यत्र नरकावासे जघन्या तस्यां वर्तमानाः 'किं कोहोवउत्ते'त्यादि प्रश्ने ‘सब्वेवी' त्याधुत्तरं। तत्र च प्रतिनरकं जघन्यस्थितिकानां एकादिसंख्यातसमयाधिकजघन्यस्थितिकानां तु कादाचित्कत्वात् तेषु च क्रोधाधुपयुक्तानामेकत्वानेकत्वसंभवादशीतिर्भङ्गकाः। एकेन्द्रियेषु तु सर्वकषायोपयुक्तानां प्रत्येकं बहूनां भावादभङ्गकम्। आह च "संभवइ जहिं विरहो असीई भंगा तर्हि करेजाहि। जहियं न होइ विरहो, अभंगयं सत्तवीसा वा॥" इदपि विचित्रम्, एवं यावदसंख्ययावषसहस्त्रादिका इत्येकं स्थितिस्थान मतप्पाउग्गुक्कोसिय'त्ति उत्कृथ असा ११२१८. अयं च तत्सत्तापेक्षो विरहो द्रष्टव्यो, न तूत्पादापेक्षया । यतो रलप्रभायां चतुर्विशतिर्मुहूर्ता उत्पादविरहकाल उक्तः । ततश्च यत्र सप्तविंशतिभंगकाः उच्यन्ते, तत्रापि विरहभावादशीतिः प्राप्नोति, सप्तविंशतेश्चाभाव एवेति । तत्र 'सव्वेवि ताव होज कोहोवउत्त'त्ति, प्रतिनरकं स्वकीयस्वकीयस्थित्यपेक्षया जघन्यस्थितिकानां नारकाणां सदैव बहूनां सद्भावात् नारकभवस्य च क्रोधोदयप्रचुरत्वात्सर्व एव क्रोधोपयुक्ता भवेयुरित्येको भंगः। 'अहवा' इत्यादिना द्वित्रिचतुः संयोगभंगा दर्शिताः । तत्र द्विकसंयोगे बहुवचनान्तं क्रोधममुञ्चता षड्भंगाः कार्याः, तथाहि क्रोधोपयुक्तश्च मानोपयुक्ताश्च १ तथा क्रोधोपयुक्ताश्च मानोपयुक्ताश्च २ एवं मायया एकत्वबहुत्वाभ्यां द्वौ, लोभेन च द्वौ एवमेते द्विकसंयोगे षट्। त्रिकसंयोगे तु द्वादश भवन्ति १२, तथाहि-क्रोधे नित्यं बहुवचनं मानमाययोरेकवचनमित्येकः १ मानैकत्वे मायाबहुत्वे च द्वितीयः २ माने बहुवचने मायायामेकत्वमिति च तृतीयः ३, मानबहुत्वे मायाबहुत्वे च चतुर्थः ४, पुनः क्रोधमानलोभैरित्थमेव चत्वारः ४, पुनः क्रोधमायालोभैरित्थमेव चत्वारः ४ एवमेते द्वादश। चतुष्कसंयोगे त्वष्टौ, तथाहि-क्रोधे बहुवचनेन मानमायालोभेषु चैकवचनेनैकः, इत्यमेव लोभे बहुवचनेन द्वितीयः । एवमेतावेकवचनान्तमायया जातौ, एवमेव बहुवचनान्तमाययाऽन्यौ द्वौ एवमेते चत्वार एकवचनान्तमानेन जाताः, एवमेव बहुवचनान्तमानेन चत्वार इत्येवमष्टी, एवमेते जघन्यस्थितिषु नारकेषु सप्तविंशतिर्भवन्ति, जघन्यस्थितौ हि बहवो नारका भवन्त्यतः क्रोधे बहुवचनमेव। 'समयाहियाए जहन्नविईए वट्टमाणा नेरइया किं कोहोवउत्ता' इत्यादि प्रश्नः इहोत्तरम्-'कोहोबउत्ते य' इत्यादयोऽशीतिर्भाः । इह समयाधिकायां यावत्संख्येयसमयाधिकायां जघन्यस्थितौ नारका न भवन्त्यपि भवति चेदेको वाऽनेको वेति ततः क्रोधादिष्वेकत्वेन चत्वारो विकल्पाः, बहुत्वेन चान्ये चत्वार एव । ४ । द्विकसंयोगे चतुर्विंशतिः, तथाहि क्रोधमानयोरेकत्वबहुत्वाभ्यां चत्वारः ४, एवं क्रोधमाययोः ४, एव क्रोधलोभयोः ४, एवं मानमाययोः ४, एवं मानलोभयोः ४, एवं मायालोभयोरिति ४ द्विकयोगे चतुर्विंशतिः । त्रिकयोगे द्वात्रिंशत, तथाहि क्रोधमानमायास्वेकत्वेनैकः, एष्वेव मायाबहुत्वेन द्वितीयः एवमेतौ मानैकत्वेन, द्वावेवान्यौ तद्बहुत्वेन, एवमेते चत्वारः क्रोधैकत्वेन, चत्वार एवान्ये क्रोधबहुत्वेनेत्येवमथै क्रोधमानमायात्रिके जाताः । तथैवान्येऽष्टौ क्रोधमानलोभेषु । तथैवान्येऽथै क्रोधमायालोभेषु, तथैवान्येऽष्टौ मानमायालोभेष्विति द्वात्रिंशत् । चतुष्कसंयोगे षोडश, तथाहि क्रोधादिष्वेकत्वेनैको लोभस्य बहुत्वेन द्वितीयः, एवमेतौ मायैकत्वेन, तथाऽन्यौ मायाबहुत्वेन, एवमेते चत्वारो मानैकत्वेन, तथाऽन्ये चत्वार एव मानबहुत्वेन, एवमेतेऽष्टौ क्रोधैकत्वेन । एवमन्येऽष्टौ क्रोधबहुत्वेनेति षोडश । एवमेते सर्व एवाशीतिरिति । एते च जघन्यस्थितौ एकादिसंख्यातान्तसमयाधिकायां भवन्ति, असंख्यातसमयाधिकायास्तु जघन्यस्थितेरारभ्योत्कृष्धस्थितिं यावत्सप्तविंशतिभङ्गास्त एव, तत्र नारकाणां बहुत्वादिति । अथावगाहनाद्वारं तत्र १. इदमपि च ग. च. २. चित्रं क. , Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ३७६ श.१: उ.५: सू.२१६-२४० ११२१६. 'ओगाहणाठाण'त्ति अवगाहन्ते-आसते यस्यां साऽवगाहना-तनुस्तदाधारभूतं वा क्षेत्रं तस्याः स्थानानि-प्रदेशवृद्ध्या विभागाः अवगाहना स्थानानि, तत्र 'जहन्निय' त्ति जघन्याऽगुंलासंख्येयभागमात्रा सर्वनरकेषु 'तप्पाउग्गुक्कोसियत्ति तस्य विवक्षितनरकस्य प्रायोग्या या उत्कर्षिका सा तत्प्रायोग्योत्कर्षिका यथा त्रयोदशप्रस्तटे धनुःसप्तकं रलित्रयमंगुलषट्कं चेति। ११२२०. 'जहन्नियाए'इत्यादि जघन्यायां तस्यामेव चैकादिसंख्यातान्तप्रदेशाधिकायामवगाहनायां वर्तमानानां नारकाणामल्पत्वात् क्रोधाधुपयुक्त एकोऽपि लभ्यतेऽतोऽशीतिर्भाः । 'असंखेजपएसे'त्यादि, असंख्यातप्रदेशाधिकायां तप्रायोग्योत्कृष्टायां च नारकाणां बहुत्वात् तेषु च बहूनां क्रोधोपयुक्तत्वेन क्रोधे बहुवचनस्य भावात् मानादिषु त्वेकत्वबहुत्वसंभवात् सप्तविंशतिभंगा भवन्तीति। ननु ये जघन्यस्थितयो जघन्यावगाहनाश्च भवन्ति तेषां जघन्यस्थितिकत्वेन सप्तविंशतिभंगकाः प्राप्नुवन्ति जघन्यावगाहनत्वेन चाशीतिरिति विरोधः? अत्रोच्यते, जघन्यस्थितिकानामपि जघन्यावगाहनाकालेऽशीतिरेव, उत्पत्तिकालभावित्वेन जघन्यावगाहनानामल्पात्वादिति, या च जघन्यस्थितिकानां सप्तविंशतिः सा जघन्यावगाहनत्वमतिक्रान्तानामिति भावनीयम्। शरीरद्वारे१॥२२२. 'सत्तावीसं भंग'त्ति अनेन यद्यपि वैक्रियशरीरे सप्तविंशतिभंगका उक्तास्तथाऽपि या स्थित्याश्रया अवगाहनाश्रया च भङ्गकप्ररूपणा सा तथैव दृश्या, निरवकाशत्वात्तस्याः, शरीराश्रयायाश्च सावकाशत्वात् । एवमन्यत्रापि विमर्शनीयमिति। १।२२३. 'एएणं गमेणं तिन्नि सरीरया भाणियव्व' ति, वैक्रियशरीरसूत्रपाठेन त्रीणि शरीरकाणि वैक्रियतैजसकार्मणानि भणितव्यानि, त्रिष्वपि भंगकाः सप्तविंशतिर्वाच्येत्यर्थः। ननु विग्रहगतौ केवले ये तैजसकार्मणशरीरे स्यातां तयोरल्पत्वेनाशीतिरपि भंगकानां संभवतीति कथमुच्यते तयोः सप्तविंशतिरेवेति ? अत्रोच्यते-सत्यमेतत्, केवलं वैक्रियशरीरानुगतयोस्तयोरिहाश्रयणं केवलयोश्चानाश्रयणमिति सप्तविंशतिरेवेति । यच्च द्वयोरेवातिदेश्यत्वे त्रीणीत्युक्तं तत् त्रयाणामपि गमस्यात्यन्तसाम्योपदर्शनार्थमिति । संहननद्वारे२२४.'छण्हं संघयणाणं असंघयणि'त्ति षण्णां संहननानां-वज्रर्षभनाराचादीनां मध्यादेकतरेणापि संहननेनासंहननानीति। कस्मादेवमित्यत आह 'नेवट्ठी'त्यादि, नैवास्थ्यादीनि तेषां सन्ति अस्थिसंचयरूपं च संहननमुच्यत इति । 'अनिट्ठ'त्ति इष्यन्ते स्मेतीष्टास्तनिषेधादनिष्टाः, अनिष्टमपि किंचित् कमनीयं भवतीत्यत उच्यते-अकान्ताः । अकान्तमपि किञ्चित् कारणवशात् प्रीतये भवतीत्याह-(ग्रन्थाग्रम् २०००) 'अप्पिया' अप्रीतिहेतवः। अप्रियत्वं तेषां कुतः ? यतः 'असुभ'त्ति अशुभस्वभावाः । ते च सामान्या अपि भवन्तीत्यतो विशिष्यते–'अमणुण्ण'त्ति न मनसा-अन्तःसंवेदनेन शुभतया ज्ञायन्त इत्यमनोज्ञाः। अमनोज्ञता चैकदाऽपि स्यादत आह-'अमणाम'त्ति न मनसा अम्यन्ते-गम्यन्ते पुनः पुनः स्मरणतो ये ते अमनोऽमाः। एकार्थिका वैते शब्दाः अनिष्टताप्रकर्षप्रतिपादनार्था इति । 'सरीरसंघायत्ताए'त्ति संघाततया, शरीररूपसंचयतयेत्यर्थः । संस्थानद्वारे११२२६. किंसंठियत्ति किं संस्थितं-संस्थानं येषां तानि किंसंस्थितानि। 'भवधारणिज्जत्ति, भवधारणं-निजजन्मातिवाहनं प्रयोजनं येषां तानि भवधारणीयानि, आजन्मधारणीयानीत्यर्थः। 'उत्तरवेउब्वियत्ति पूर्ववैक्रियापेक्षयोत्तराणि-उत्तरकालभावीनि वैक्रियाणि उत्तरवैक्रियाणि, 'हुंडसंठिय'त्ति सर्वत्रासंस्थितानि। दृष्टिद्वारे ११२३३. 'सम्मामिच्छादसणे असीइभंग'त्ति मिश्रदृष्टीनामल्पत्वात्तद्भावस्यापि च कालतोऽल्पत्वादेकोऽपि लभ्यते इत्यशीतिभंगाः। ज्ञानद्वारे११२३४. 'तिन्नि णाणाई नियम'त्ति ये ससम्यक्त्वा नरकेषूत्पद्यन्ते, तेषां प्रथमसमयादारभ्य भवप्रत्ययस्यावधिज्ञानस्य भावात् त्रिज्ञानिन एव ते। ये तु मिथ्यादृष्टयस्ते संज्ञिभ्योऽसंज्ञिभ्यश्चोत्पद्यन्ते, तत्र ये संनिभ्यस्ते भवप्रत्ययादेव विभंगस्य भावात् यज्ञानिनः, ये त्वसंज्ञिभ्यस्तेषामाद्यादन्तर्मुहूर्तात्परतो विभंगस्योत्पत्तिरिति तेषां पूर्वमज्ञानद्वयं पश्चाद् विभंगोत्पत्तावज्ञानत्रयमित्यत उच्यते-'तिन्नि अण्णाणाई भयणाए' त्ति 'भजनया' विकल्पनया कदाचिद् द्वे कदाचित् त्रीणीत्यर्थः । अत्रार्थे गाथे स्याताम् "सबी नेरइएसुं उरलपरिचायणंतरे समए। विमंगं ओहिं वा अविग्गहे विग्गहे लहइ।। अस्सनी नरएसुं पञ्जत्तो बेण लहइ विन्मंग। नाणा तिनेव तओ अमाणा दोनि तिनेव॥" ११२३६.'एवं तिन्नि णाणे'त्यादि, आभिनिबोधिकज्ञानवत् सप्तविंशतिभंगकोपेतानि आधानि त्रीणि ज्ञानानि अज्ञानानि चेति। इह च त्रीणि ज्ञानानीति यदुक्तं तदाभिनिबोधिकस्य पुनर्गणनेनान्यथा द्वे एव ते वाच्ये स्यातामिति । 'तिन्नि अन्नाणाई' इत्यत्र यदि मत्यज्ञानश्रुताज्ञाने विभंगात्पूर्वकालभाविनी विवक्ष्येते ततो जघन्यावगाहनाश्रयेणैवाशीतिभंगकास्तेषामवसेया इति । योगद्वारे१॥२४०. 'एवं कायजोए'त्ति, इह यद्यपि केवलकार्मणकाययोगेऽशीतिभङ्गाः संभवन्ति तथाऽपि तस्याविवक्षणात् सामान्यकाययोगाश्रयणाच्च सप्तविंशतिरुक्तेति। Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १: उ.५ः सू.२४१-२५० उपयोगद्वारे— १ । २४१. 'सागारोवउत्त'त्ति, आकारो - विशेषांशग्रहणशक्तिस्तेन सहेति साकारः, तद्विकलोऽनाकारः सामान्यग्राहीत्यर्थः । १ । २४४. ‘णाणत्तं लेसासु’त्ति, रलप्रभापृथिवीप्रकरणवच्छेषपृथिवीप्रकरणान्यध्येयानि, केवलं लेश्यासु विशेषः, तासां भिन्नत्वाद्, अत एव तद्दर्शनाय गाथा—‘काऊ’इत्यादि । तत्र 'तइयाए मीसिय'त्ति वालुकाप्रभाप्रकरणे उपरितननरकेषु कापोती, अधस्तनेषु तु नीली भवतीति ते यथासंभवं प्रश्नसूत्रे चाध्येतव्य इत्यर्थः । यच्च सूत्राभिलापेषु नरकावाससंख्यानानात्वं, तत् 'तीसा य पन्नवीसा' इत्यादिना पूर्वप्रदर्शितेन समवसेयमिति । एवं च सूत्राभिलापः कार्यः—'सक्करपभाए णं भंते! पुढवीए पणवीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एक्कमेक्कसि निरयावासंसि कइ लेस्साओ पन्नत्ताओ ? गोयमा ! एगा काउलेस्सा पण्णत्ता । सक्करप्पभाए णं भंते ! जाव काउलेसाए वट्टमाणा नेरइया किं कोहोवउत्ता ?, इत्यादि 'जाव सत्तावीसं भंगा'। एवं सर्वपृथिवीषु गाथानुसारेण वाच्याः । असुरकुमारप्रकरणे— ३८० भगवती वृत्ति १ । २४५. ‘पडिलोमा भंग’त्ति नारकप्रकरणे हि क्रोधमानादिना क्रमेण भङ्गकनिर्देशः कृतः, असुरकुमारादिप्रकरणेषु लोभमायादिनाऽसौ कार्य इत्यर्थः । अत एवाह - 'सव्वेवि ताव होज लोहोवउत्त'त्ति, देवा हि प्रायो लोभवन्तो भवन्ति तेन सर्वेऽप्यसुरकुमारा लोभोपयुक्ताः स्युः । द्विकसंयोगे तु लोभोपयुक्तत्वे बहुवचनमेव । मायोपयोगे त्वेकत्वबहुत्वाभ्यां द्वौ भंगकौ । एवं सप्तविंशतिर्भगकाः कार्याः । 'नवरं णाणत्तं जाणियव्वं' ति नारकाणामसुरकुमारादीनां च परस्परं नानात्वं ज्ञात्वा प्रश्नसूत्राणि उत्तरसूत्राणि चाध्येयानीति हृदयं तच्च नारकाणामसुरकुमारादीनां च संहननसंस्थानलेश्यासूत्रेषु भवति, तच्चैवं - 'चउसट्ठीए णं भंते ! असुरकुमारावाससयसहस्से एगमेसि असुरकुमारावासंसि असुरकुमाराणं सरीरगा किंसंघयणी ? गोयमा ! असंघयणी, जे पोग्गला इट्ठा कंता ते तेसिं संघायत्ताए परिणमंति, एवं संठाणेवि, नवरं भवधारणिज्जा समचउरंससंठिया उत्तरवेउव्विया अन्नयरसंठिया एवं लेसासुवि । 'नवरं कइ लेस्साओ पन्नत्ताओ ? गोयमा ! चत्तारि तंजहा - किण्हा नीला काऊ तेऊलेसा, चउसट्ठीए णं जाव कण्हलेसाए वट्टमाणा किं कोहोवउत्ता ? गोयमा ! सव्वेवि ताव होज लोहोवउत्ता' इत्यादि । एवं 'नीलाकाऊतेऊवि' नागकुमारादिप्रकरणेषु तु 'चुलसीए नागकुमारावाससयसहरसेसु' इत्येवं "चउसट्ठी असुराणं नागकुमाराण होइ चुलसीइ" इत्यादेर्वचनात् प्रश्नसूत्रेषु भवनसंख्यानानात्वमवगम्य सूत्राभिलापः कार्य इति । १ । २४७. ‘एवं पुढविक्वाइयाणं सव्वेसु ठाणेसु अभंगयंति, पृथिवीकायिका एकैकस्मिन् कषाये उपयुक्ता बहवो लभ्यन्त इत्यभंगकं दशस्वपि स्थानेषु । नवरं ‘तेउलेसाए असीई भंग'त्ति, पृथिवीकायिकेषु लेश्याद्वारे तेजोलेश्या वाच्या, सा च यदा देवलोकाच्युतो देव एकोऽनेको वा पृथिवीकायिकेषूत्पद्यते तदा भवति । ततश्च तदैकत्वादिभवनादशीतिभंगका भवन्तीति । इह पृथिवीकायिकप्रकरणे स्थितिस्थानद्वारं साक्षाल्लिखितमेवास्ति । शेषाणि तु नारकववाच्यानि तत्र च 'नवरं णाणत्तं जाणियव्वं ' इत्येतस्यानुवृत्तेर्नानात्वमिह प्रश्नत उत्तरतश्चावसेयं तच्च शरीरादिषु सप्तसु द्वारेष्विदम् -' असंखिजेसु णं भंते ! पुढविकाइयावाससयसहस्सेसु जाव पुढविकाइयाणं कइ सरीरा पन्नत्ता ? गोयमा ! तिन्नि सरीरा, तंजहा - ओरालिए तेयए कम्मए' । एतेसु च 'कोहोवउत्तावि माणोवउत्तावी त्यादि वाच्यम् । तथा ‘असंखेज्जेसु णं जाव पुढविकाइयाणं सरीरगा किंसंघयणी ? 'इत्यादि तथैव, नवरं 'पोग्गला मणुन्ना अमणुन्ना सरीरसंघायत्ताए परिणमंति' । एवं संस्थानद्वारेऽपि, किन्तु उत्तरे 'हुंडसंठिया' एतावदेव वाच्यं, न तु 'दुविहा सरीरगा पन्नत्ता, तंजहा - भवधारणिजा य उत्तरवेउच्चिया य' इत्यादि पृथिवीकायिकानां तदभावादिति । लेश्याद्वारे पुनरेवं वाच्यं - 'पुढविक्काइयाणं भंते ! कइ लेस्साओ पन्नत्ताओ ? गोयमा ! चत्तारि, तंजहा - कण्हलेसा जाव तेउलेसा' एतासु च तिसृष्वभंगकमेव । तेजोलेश्यायां त्वशीतिभंगकाः, एतच्च प्रागेवोक्तमिति । दृष्टिद्वारे इदं वाच्यम्- 'असंखेजेस जाव पुढविक्काइया किं सम्मदिट्ठी मिच्छदिट्ठी सम्मामिच्छदिट्ठी ? गोयमा ! मिच्छदिट्ठी' शेषं तथैव । ज्ञानद्वारेऽपि तथैव, नवरं 'पुढविक्काइया णं भंते! किं णाणी अन्नाणी ? गोयमा ! णो णाणी अन्नाणी — नियमा दोअन्नाणी । योगद्वारेऽपि तथैव, नवरं 'पुढविक्वाइया णं भंते! किं मणजोगी वइजोगी कायजोगी ? गोयमा ! नो मणजोगी नो वयजोगी कायजोगी' । १ । २४८. ‘एवं आउक्वाइयावित्ति पृथिवीकायिकवदष्कायिका अपि वाच्याः, ते हि दशस्वपि स्थानकेष्वभंगकाः तेजोलेश्यायां चाशीतिभंगकवन्तो, यतस्तेष्वपि देव उत्पद्यत इति । १।२४६. ‘तेउक्काइए’त्यादौ सव्वेसु वि ठाणेसु त्ति स्थितिस्थानादिषु, दशस्वप्यभंगकं, क्रोधाद्युपयुक्तानामेकदैव तेषु बहूनां भावात् । इह देवा नोत्पद्यन्त इति तेजोलेश्या तेषु नास्ति, ततस्तत् संभवान्नाशीतिरपीत्यभंगकमेवेति । एतेषु च सूत्राणि पृथिवीकायिकसमानि केवलं वायुकायसूत्रेषु शरीरद्वारे एवमध्येयम्- 'असंखेज्जेसु णं भंते ! जाव वाउक्काइयाणं कइ सरीरा पन्नत्ता ? गोयमा ! चत्तारि तंजहा-ओरालिए वेउव्विए तेयए कम्मर त्ति । १ । २५०. ‘वणप्फइकाइए’त्यादि, वनस्पतयः पृथिवीकायिकसमाना वक्तव्याः दशस्वपि स्थानकेषु भंगकाभावात् । तेजोलेश्यायां च तथैवाशीतिभंगकसद्भावादिति । ननु पृथिव्यपूवनस्पतीनां दृष्टिद्वारे सास्वादनभावेन सम्यक्त्वं कर्मग्रन्थेष्वभ्युपगम्यते । तत एव च ज्ञानद्वारे मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं च, अल्पाश्चैते इत्येवमशीतिर्भगाः सम्यग्दर्शनाभिनिबोधिक श्रुतज्ञानेषु भवन्तु ? नैवं, पृथिव्यादिषु सास्वादनभावस्यात्यन्तविरलत्वेनाविवक्षितत्वात्, तत एवोच्यते“उभयाभावो पुढवाइएसु विगलेसु होज उववण्णो”त्ति, Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ३५१ श.१: उ.५: सू.२५१-२५४ 'उभयं' प्रदिपद्यमानपूर्वप्रतिपन्नरूपमिति | ११२५१. 'बेईदिए'त्यादावेवमक्षरघटना-'जेहिं ठाणेहिं नेरइयाणं असीइभंगा तेहिं ठाणेहिं बेइंदियाइदियचउरिदियाणं असीइं चेव'त्ति तत्रैकादि संख्यातान्तसमायाधिकायां जघन्यस्थितौ १ तथा जघन्यायामवगाहनायां च २ तत्रैव च संख्येयान्तप्रदेशवृद्धायां ३ मिश्रदृष्टौ च नारकाणामशीतिभंगका उक्ताः। विकलेन्द्रियाणामप्येतेषु स्थानेषु मिश्रदृष्टिवर्जेष्वशीतिरेव, अल्पत्वात्तेषां एकैकस्यापि क्रोधाधुपयुक्तस्य संभवात् । मिश्रदृष्टिस्तु विकलेन्द्रियेष्वेकेन्द्रियेषु च न भवतीति न विकलेन्द्रियाणां तत्राशीतिस्तत्राप्यभंगकमिति इति । वृध्दैस्त्विह सूत्रे कुतोऽपि वाचनाविशेषाद् यत्राशीतिस्तत्राप्यभंगकमिति व्याख्यातमिति । इहैव विशेषाभिधानायाह-नवरमित्यादि, अयमर्थः-दृष्टिद्वारे ज्ञानद्वारे च नारकाणां सप्तविंशतिरुक्ता, विकलेन्द्रियाणां तु 'अब्महिय'त्ति अभ्यधिकान्यशीतिभंगकानां भवति, क ? इत्याह सम्यक्त्वे' अल्पीयसां हि विकलेन्द्रियाणां सास्वादनभावेन सम्यक्त्वं भवति । अल्पत्वाच्च तेषामेकत्वस्यापि संभवेनाशीतिभंगकानां भवति । एवमाभिनिबोधिके श्रुते चेति । तथा 'जेही त्यादि, येषु स्थानेषु नैरयिकाणां सप्तविंशतिभंगकास्तेषु स्थानेषु द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां भंगकाभावः। तानि च प्रागुक्ताशीतिभंगकस्थानविशिष्टानि मंतव्यानि, भंगकाभावश्च क्रोधाधुपयुक्तानामेकदैव बहूनां भावादिति।। विकलेन्द्रियसत्राणि च पथिवीकायिकसत्राणीवाध्येयानि, नवरमिह लेश्याद्वारे-तेजोलेश्या नाध्येतव्या । दृष्टिद्वारे च 'बेइंदिया णं भंते ! किं सम्मद्दिवी मिच्छद्दिवी समामिच्छद्दिट्टी ? गोयमा ! सम्मद्दिट्ठीवि मिच्छद्दिट्ठीवि नो समामिच्छदिट्ठी। सम्मइंसणे वट्टमाणा बेइंदिया किं कोहोवउत्ता ?' इत्यादि प्रश्ने उत्तरमशीतिर्भङ्गकाः । तथा ज्ञानद्वारे-'बेइंदिया णं भंते ! किं णाणी अन्नाणी ? गोयमा ! णाणीवि अन्नाणीवि। जइ णाणी दुनाणी-'मइणाणी सुयणाणी य' शेषं तथैवाशीतिश्च भंगा इति। योगद्वारे-'बेइंदिया णं भंते ! किं मणजोगी वइजोगी कायंजोगी ? गोयमा ! णो मणजोगी वइजोगी कायजोगी य' शेषं तथैव। एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियसूत्राण्यपि। १।२५२. 'पंचिंदिये'त्यादि 'जहिं सत्तावीसं भंग'त्ति यत्र नारकाणां सप्तविंशतिभंगकास्तत्र पञ्चेन्द्रियतिरश्चामभंगकं । तच्च जघन्यस्थित्यादिकं पूर्वं दर्शितमेव । भंगकाभावश्च क्रोधाधुपयुक्तानां बहूनामेकदैव तेषु भावादिति । सूत्राणि चेह नारकसूत्रवदध्येयानि नवरं शरीरद्वारेऽयं विशेष:-'असंखेजेसु णं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणियावासेसु पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं केवइया सरीरा पन्नत्ता ? गोयमा ! चत्तारि, तंजहा-ओरालिए वेउविए तेयए कम्मए' सर्वत्र चाभंगकमिति । तथा संहननद्वारे 'पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं केवइया संघयणा पन्नत्ता ? गोयमा ! छ संघयणा पन्नत्ता, तंजहा-वइरोसहनारायं जाव छेवट्ठति । एवं संस्थानद्वारेऽपि 'छ संठाणा पन्नत्ता, तंजहा-समचउरंसे ६'। एवं लेश्याद्वारे-'कइ लेसाओ पन्नत्ताओ ? गोयमा ! छ लेस्सा पन्नत्ता, तंजहा-किण्हलेस्सा ६'। ११२५३. 'मणुस्साणवित्ति यथा नैरयिका दशसु द्वारेष्वभिहितास्तथा मनुष्या अपि भणितव्या इति प्रक्रमः, एतदेवाह-'जेही'त्यादि, तत्र नारकाणां जघन्यस्थितावेकादिसंख्यातान्तसमयाधिकायां १ तथा जघन्यावगाहनायां २ तस्यामेव संख्यातान्तप्रदेशाधिकायां ३ मिश्रे च ४ अशीतिभंगका उक्ताः। मनुष्याणामप्येतेष्वशीतिरेव, तत्कारणं च तदल्पत्वमेवेति । नारकाणां मनुष्याणां च सर्वथा साम्यपरिहारायाह-'जेसु सत्तावीसा' इत्यादि, सप्तविंशतिभंगकस्थानानि च नारकाणां जघन्यस्थित्यसंख्यातसमयाधिकजघन्यस्थितिप्रभृतीनि । तेषु जघन्यस्थितौ विशेषस्य वक्ष्यमाणत्वेन तद्वर्जेषु मनुष्याणामभंगकम् । यतो नारकाणां बाहुल्येन क्रोधोदय एव भवति । तेन तेषां सप्तविंशतिर्भङ्गका उक्तस्थानेषु युज्यन्ते । मनुष्याणां तु प्रत्येकं क्रोधाधुपयोगवतां बहूनां भावान्न कषायोदये विशेषोऽस्ति । तेन तेषां तेषु स्थानेषु भंगकाभाव इति । इहैव विशेषाभिधानायाह-नवरमित्यादि । येषु स्थानेषु नारकाणामशीतिस्तेषु मनुष्याणामप्यशीतिः तथा 'जेसु सत्तावीसा तेसु अभंगय'मित्युक्तं, केवलं मनुष्याणामिदमभ्यधिकं यदुत जघन्यकस्थितौ तेषामशीतिर्न तु नारकाणां तत्र सप्तविंशतिरुक्तेत्यभंगकम् । तथाऽहारकशरीरे अशीतिराहारकशरीरवतां मनुष्याणामल्पत्वान्नारकाणां तु तन्नास्त्येवेत्येतदप्यभ्यधिकं मनुष्याणामिति। इह च नारकसूत्राणां मनुष्यसूत्राणां च प्रायः शरीरादिषु चतुर्दा ज्ञानद्वार एव च विशेषः, तथाहि-'असंखेज्जेसु णं भंते ! मणुस्सावासेसु मणुस्साणं कइ सरीरा पन्नत्ता ? गोयमा ! पंच, तंजहा-ओरालिए वेउविए आहारए तेयए कम्मए । असंखेज्जेसु णं जाव ओरालियसरीरे वट्टमाणा मणुस्सा किं कोहोवउत्ता ४ ? गोयमा ! कोहोवउत्तावि ४ । एवं सर्वशरीरकेषु नवरमाहारकेऽशीतिभंगकानां वाच्या। एवं संहननद्वारेऽपि नवरं 'मणुस्साणं भंते ! कइ संघयणा पण्णता ? गोयमा ! छस्संघयणा पण्णत्ता, तंजहा–वइरोसहनाराए जाव छेवढे ।' संस्थानद्वारे 'छ संठाणा पण्णत्ता, तंजहा समचउरंसे जाव हुंडे ।' लेश्याद्वारे 'छ लेसाओ, तंजहा-किण्हलेस्सा जाव सुक्कलेसा।' ज्ञानद्वारे 'मणुस्साणं भंते ! कइ णाणाणि ? गोयमा ! पंच, तंजहा–आभिणिबोहियणाणं जाव केवलणाणं ।' एतेषु च केवलवर्जेष्वभंगकम् केवले तु कषायोदय एवं नास्तीति । ११२५४. 'वाणमंतरे'त्यादि, व्यन्तरादयो दशस्वपि स्थानेषु यथा भवनवासिनस्तथा वाच्याः। यत्रासुरादीनामशीतिभंगका यत्र च सप्तविंशतिस्तत्र व्यन्तरादीनामपि ते तथैव वाच्याः । भकास्तु लोभमादौ विधायाध्येयाः। तत्र भवनवासिभिः सह व्यन्तराणां साम्यमेव, ज्योतिष्कादीनां तु न Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.५,६: सू.२५४-२६८ ३८२ भगवती वृत्ति तथेति तैस्तेषां सर्वथा साम्यपरिहारसूचनायाह-'णवरं णाणत्तं जाणियव्वं जं जस्स' त्ति 'यत्' लेश्यादिगतं 'यस्य' ज्योतिष्कादेः 'नानात्वम्' इतरापेक्षया भेदस्तद् ज्ञातव्यमिति। परस्परतो विशेष ज्ञात्वैतेषां सूत्राण्यध्येयानीतिभावः । तत्र लेश्याद्वारे-ज्योतिष्काणामेकैव तेजोलेश्या वाच्या। ज्ञानद्वारे त्रीणि ज्ञानानि, अज्ञानान्येव त्रीण्येव, असंज्ञिनां तत्रोपपाताभावेन विभंगस्यापर्याप्तकावस्थायामपि भावात् । तथा वैमानिकानां लेश्याद्वारे तेजोलेश्यादयस्तिस्रो लेश्या वाच्याः । ज्ञानद्वारे च त्रीणि ज्ञानान्यज्ञानानि चेति। वैमानिकसूत्राणि चैवमध्येयानि'संखेजेसु णं भंते ! वेमाणियावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि वेमाणियावासंसि केवइया ठिइठाणा पन्नत्ता ?' इत्येवमादीनि । ॥ प्रथमशते पञ्चमोद्देशकः ॥ षष्ठ उद्देशकः अथ षष्ठो व्याख्यायते, तस्य चायं सम्बन्धः-अनन्तरोद्देशकेऽन्तिमसूत्रेषु 'असंखेज्जेसु णं भंते ! जोतिसियवेमाणियावासेसु तथा संखेजेसु णं भंते ! वेमाणियावाससयसहस्सेसु' इत्येतदधीतं, तेषु च ज्योतिष्कविमानावासाः प्रत्यक्षा एवेति तद्गतदर्शनं प्रतीत्य तथा 'जावते' इति यदुक्तमादि गाथायां तच्च दर्शयितुमाह११२५६. 'जावइयाओ'इत्यादि, यत्परिमाणात् 'ओवासंतराओ'त्ति 'अवकाशान्तरात्' आकाशविशेषादवकाशरूपान्तरालाद् वा, यावत्यवकाशान्तरे स्थित इत्यर्थः । 'उदयंते'त्ति उदयन् उद्गच्छन् 'चक्खुप्फास'त्ति चक्षुषो-दृष्टेः स्पर्श इव स्पर्शो न तु स्पर्श एव चक्षुषोऽप्राप्तकारित्वादिति चक्षुःस्पर्शस्तं । 'हव्वं ति शीघ्रं, स च किल सर्वाभ्यन्तरमण्डले सप्तचत्वारिंशति योजनानां सहस्रेषु द्वयोः शतयोस्त्रिषष्टौ (४७२६३) च साधिकायां वर्तमान उदये दृश्यते। अस्तसमयेऽप्येवम् । एवं प्रतिमण्डलं दर्शने विशेषोऽस्ति, स च स्थानान्तरादवसेयः । ११२५७. 'सव्वओ समंत'त्ति 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु 'समन्तात् विदिक्षु, एकार्थों वैतौ । 'ओभासई त्यादि 'अवभासयति' ईषत्प्रकाशयति यथा स्थूलतरमेव वस्तु दृश्यते । 'उद्द्योतयति' भृशं प्रकाशयति यथा स्थूलमेव दृश्यते। 'तपति' अपनीतशीतं करोति यथा वा सूक्ष्म पिपीलिकादि दृश्यते तथा करोति । 'प्रभासयति' अतितापयोगाद्विशेषतोऽपनीतशीतं विधत्ते यथा वा सूक्ष्मतरं वस्तु दृश्यते तथा करोतीति । एतत्क्षेत्रमेवाश्रित्याह–'तं भंते !'त्यादि१।२५८. 'तं भंते' ! ति यत् क्षेत्रमवभासयति यदुद्द्योतयति तपति प्रभासयति च 'तत्' क्षेत्रं किं भदन्त ! स्पृष्टमवभासयति अस्पृष्टमवभासयति ? इह यावत्करणादिदं दृश्यं–'गोयमा ! पुढे ओभासेइ नो अपुटुं । ११२५६.तं भंते ! ओगाढं ओभासेइ अणोगाढं ओभासेइ ? गोयमा ! ओगाढं ओभासइ नो अणोगाढं । ११२६०.एवं अणंतरोगाढं ओभासेइ नो परम्परोगाढं। १।२६१.तं भंते ! किं अणुं ओभासइ बायरं ओभासइ ? गोयमा ! अणुंपि ओभासइ बायरंपि ओभासइ । १।२६२.तं मंते ! उई ओभासइ तिरियं ओभासइ अहे ओभासइ ? गोयमा ! उड्डपि ओभासइ तिरियंपि ओभासइ अहेपि ओभासइ । १।२६३.तं भंते ! आइं ओभासइ मज्झे ओभासइ अंते ओभासइ ? गोयमा आइंपि ओभासइ मज्झेपि ओभासइ अंतेपि ओभासइ। १।२६४.तं भंते ! सविसए ओभासइ अविसए ओभासइ ? गोयमा ! सविसए ओभासइ नो अविसए। १।२६५.तं मंते ! आणुपुट्विं ओभासेइ अणाणुपुरि ओभासइ ? गोयमा ! आणुपुरि ओभासइ नो अणाणुपुब्बिं । १।२६६.तं भंते ! कइदिसिं ओभासइ ? गोयमा ! नियमा छद्दिसिं'ति । एतेषां च पदानां प्रथमोद्देशकनारकाहारसूत्रव्याख्या दृश्येति । य एव 'ओभासइ' इत्यनेन सह सूत्रप्रपञ्च उक्तः स एव 'उज्जोयई'त्यादिना पदत्रयेण वाच्य इति दर्शयन्नाह११२६७.एवं 'उज्जोवेई'त्यादि । स्पृष्टं क्षेत्रं प्रभासयतीत्युक्तम् । अथ स्पर्शनामेव दर्शयन्नाह११२६८. 'सव्वंति'त्ति प्राकृत्वात् स्वतः सर्वासु दिक्षु 'सव्वावंति'त्ति प्राकृतत्वादेव सर्वात्मना सर्वेण वाऽऽतपेनापत्तिः-व्याप्तिर्यस्य क्षेत्रस्य तत्सर्वापत्तिः, अथवा सर्व क्षेत्रम्, इतिशब्दो विषयभूतं क्षेत्रं सर्वं न तु समस्तमेवेत्यस्यार्थस्योपप्रदर्शनार्थः । तथा सर्वेणातपेनापो-व्याप्तिर्यस्य क्षेत्रस्य तत्सपिम् । इतिशब्दः सामान्यतः सर्वेणातपेन व्याप्तिर्न तु प्रतिप्रदेशं सर्वेणेत्यस्यार्थस्योपप्रदर्शनार्थः। अथवा सह व्यापेन-आतपव्याप्त्या यत्तत्सव्यापम् । इतिशब्दस्तु तथैव। 'फुसमाणकालसमयं' ति स्पृश्यमानक्षणे, अथवा स्पृशतः-सूर्यस्य स्पर्शनायाः कालसमयः स्पृशत्कालसमयस्तत्र आतपेनेति गम्यते, यावत्क्षेत्रं स्पृशति सूर्य इति प्रकृतं तावत्क्षेत्रं स्पृश्यमानं स्पृथमिति वक्तव्यं स्यादिति प्रश्नः। हन्तेत्याधुत्तरं। स्पृश्यमानस्पृष्टयोश्चैकत्वं प्रथम सूत्रादवगन्तव्यमिति। १. वेमाणावासेसु ख. ग. घ. च. छ. ४. आप्ति ग. २.अस्तमये ख. च. छ. ५. सर्वाप्ति ग. 3. चैतौ क.ख. ग.घ.च. Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६३ भगवती वृत्ति श.१: उ.६: सू.२६५-२६८ स्पर्शनामेवाधिकृत्याह११२७०. 'लोयंते भंते ! अलोयंत'मित्यादि, लोकान्तः सर्वतो लोकावसानम्, अलोकान्तस्तु तदनन्तर एवेति । इहापि१।२७१. 'पुटुं फुसइ'इत्यादिसूत्रप्रपञ्चो दृश्यः, अत एवोक्तं 'जाव नियमा छद्दिसि' ति । एतद्भावना चैवं-स्पृष्टमलोकान्तं लोकान्तः स्पृशति, स्पृष्टत्वं च व्यवहारतो दूरस्थस्यापि दृष्टं यथा चक्षुःस्पर्श इति, अत उच्यते-अवगाढम्-आसन्नमित्यर्थः। अवगाढत्वं चासत्तिमात्रमपि स्यादत उच्यतेअनन्तरावगाढम् अव्यवधानेन संबद्धं न तु परम्पराऽवगाढं-शृंखलाकटिका इव परम्परासम्बद्धम् । तं चाणुं स्पृशति, अलोकान्तस्य क्वचिद्विवक्षया प्रदेशमात्रत्वेन सूक्ष्मत्वात् बादरमपि स्पृशति क्वचिद्विवक्षयैव बहुप्रदेशत्वेन बादरत्वात्। तमूर्ध्वमधस्तिर्यक् च स्पृशति, ऊर्ध्वादिदिक्षु लोकान्तस्यालोकान्तस्य च भावात् । तं चादौ मध्येऽन्ते च स्पृशति कथम् ? अधस्तिर्यगूदुज़लोकप्रान्तानामादिमध्यान्तकल्पनात् । तं च स्वविषये स्पृशति-स्पृष्टावगाढादौ, नाविषयेऽस्पृष्टादाविति । तं चानुपूर्व्या स्पृशति, आनुपूर्वी चेह प्रथम स्थाने लोकान्तस्ततोनन्तरं द्वितीये स्थानेऽलोकान्त इत्येवमवस्थानतया स्पृशति, लोकान्तस्य पार्वतः सर्वतोऽलोकान्तस्य भावात्। इह च विदिक्षु स्पर्शना नास्ति' दिशां लोकविष्कम्भप्रमाणत्वाद् विदिशां च तत्परिहारेण भावादिति।। एवं द्वीपान्तसागरान्तादिसूत्रेषु स्पृथदिपदभावना कार्या। नवरं दीपान्तसागरान्तसूत्रे । ११२७२.'छद्दिसि इत्यस्यैवं भावना-योजनसहस्रावगाढा द्वीपाश्च समुद्राश्च भवन्ति, ततश्चोपरितनानधस्तनांश्च द्वीपसमुद्रप्रदेशानाश्रित्य ऊर्ध्वाधोदिग्द्वयस्य स्पर्शना वाच्या। पूर्वादिदिशां तु प्रतीतैव समन्ततस्तेषामवस्थानात्।। ११२७३. 'उदयंते पोयंते'ति नद्याधुदकान्तः ‘पोतान्तं' नौपर्यवसानं, इहाप्युच्छ्यापेक्षया उर्ध्वदिक्स्पर्शना वाच्या जलनिमज्जनेन वेति । ११२७४. 'छिदंते दूसंत'न्ति छिद्रान्तः 'दूष्यान्तं' वस्त्रान्तं स्पृशति इहापि षड्दिस्पर्शनाभावना वस्त्रोच्छ्यापेक्षया। अथवा कम्बलरूपवस्त्रपोट्टलिकायां तन्मध्योत्पन्नजीवभक्षणेन तन्मध्यरन्ध्रापेक्षया लोकान्तसूत्रवत् षड्दिकस्पर्शना भावयितव्या । १॥२७५.'छायंते आयवंतंति इह छायाभेदेन षदिग्भावनैवम्-व्योमवर्तिपक्षिप्रभृतिद्रव्यस्य या छाया तदन्त आतपान्तं चतसृषु दिक्षु स्पृशति तथा तस्या एव छायाया भूमेः सकाशात्तद् द्रव्यं यावदुच्योऽस्ति, ततश्च छायान्त आतपान्तमूर्ध्वमधश्च स्पृशति । अथवा प्रासादवरण्डिकादेर्या छाया तस्या भित्तेरवतरत्या आरोहन्त्या वाऽन्त आतपान्तमूर्ध्वमधश्च स्पृशतीति भावनीयम् । अथवा तयोरेव छायाऽऽतपयो; पुद्गलानामसंख्येयप्रदेशावगाहित्वादुच्छ्रयसद्भावः तत्सद्भावाच्चोवधिोविभागः। ततश्च छायान्त आतपान्तमूर्ध्वमधश्च स्पृशतीति । स्पर्शनाऽधिकारादेव प्राणातिपातादिपापस्थानप्रभवकर्मस्पर्शनामधिकृत्याह१।२७६. 'अस्थि'त्ति अस्त्ययं पक्ष:-'किरिया कज्जइत्ति क्रियत इति क्रिया-कर्म सा क्रियते-भवति । १।२७७. 'पुढे' इत्यादेाख्या पूर्ववत्।। १।२७८. 'कडा कजइ'त्ति कृता भवति, अकृतस्य कर्मणोऽभावात् । ११२७६. 'अत्तकडा कज्जइ'त्ति आत्मकृतमेव कर्म भवति, नान्यथा । १।२८०. 'अणाणुपुब्बिं कडा कज्जइ'त्ति पूर्वपश्चाविभागो नास्ति यत्र तदनानुपूर्वीशब्देनोच्यत इति । ११२१५. 'जहा नेरइया जहा एगिदियवज्जा भाणियव्वं' त्ति नारकवदसुरादयोऽपि वाच्याः। एकेन्द्रियवर्जाः ते त्वन्यथा, तेषां हि दिक्पदे 'निव्वाघाएणं छद्दिसिं वाघायं पडुच्च सिय तिदिसिं' इत्यादेर्विशेषाभिलापस्य जीवपदोक्तस्य भावात्, अत एवाह-एगिंदिया जहा जीवा तहा भाणियव्व' त्ति । ११२१६. 'जाव मिच्छादसणसल्ले' इह यावत्करणात् 'माणे माया लोभे पेजे' अनभिव्यक्तमायालोभस्वभावमभिष्वंगमात्रं प्रेम। 'दोसे' अन भिव्यक्तक्रोधमानस्वरूपप्रीतिमात्रं द्वेषः। 'कलह' राटिः। 'अब्मक्खाणे' असद्दोषाविष्करणं । 'पेसुन्ने' प्रच्छन्नमसद्दोषाविष्करणं । 'परपरिवाए' विप्रकीर्णं परेषां गुणदोषवचनम्। 'अरतिरती' अरतिः-मोहनीयोदयाच्चित्तोद्वेगस्तत्फला रतिः-विषयेषु मोहनीयोदयाच्चित्ताभिरतिररतिरतिः । 'मायामोसे' तृतीयकषायद्वितीयाश्रवयोः संयोगः। अनेन च सर्वसंयोगा उपलक्षिताः। अथवा वेषान्तरभाषान्तरकरणेन यत्परवञ्चनं तन्मायामषेति। मिथ्यादर्शनं शल्यमिव विविधव्यथानिबन्धनत्वान्मिथ्यादर्शनशल्यमिति। एवं तावद्गौतमद्वारेण कर्म प्ररूपितं । तच्च प्रवाहतः शाश्वतमित्यतः शाश्वतानेव लोकादिभावान् रोहकाभिधानमुनिपुंगवद्वारेण प्ररूपयितुं प्रस्तावयन्नाह११२१८. 'तेणं कालेण'मित्यादि 'पगइभद्दए'त्ति स्वभावत एव परोपकारकरणशीलः । 'पगइमउए'त्ति स्वभावत एव भावमार्दविकः अत एव 'पगइविणीए'ति तथा 'पगइउवसंते'त्ति क्रोधोदयाभावात् । 'पगइपयणुकोहमाणमायालोभे' सत्यपि कषायोदये तत्कार्याभावात् प्रतनुक्रोधादिभावः । 'मिउमद्दवसंपन्ने'त्ति मृदु यन्मार्दवम्- अत्यर्थमहंकृतिजयस्तत्संपन्नः-प्राप्तो गुरूपदेशाद् य; स तथा 'अल्लीणे'त्ति गुरुसमाश्रितः संलीनो वा। 'भद्दए'त्ति अनुपतापको गुरुशिक्षागुणात् । 'विणीए'त्ति गुरुसेवागुणात् । १।२६२. 'भवसिद्धिया य'त्ति भविष्यतीति भवा, भवसिद्धिः-निवृत्तिर्येषां ते भवसिद्धिकाः, भव्याः इत्यर्थः । ११२६७. 'सत्तमे उवासंतरे'त्ति सप्तमपृथिव्या अधोवाकाशमिति । सूत्रसंग्रहगाथे-के ? तत्र१।२६८. 'ओवासे'त्ति सप्तावकाशान्तराणि, 'वाय'त्ति तनुवाता; घनवाताः, 'घणउदहित्ति घनोदधयः सप्त, 'पुढवि'त्ति नरकपृथिव्यः सप्तैव, 'दीवा यत्ति १. न स्पर्शनास्ति क. ग. घ. च. छ. २. स्पर्श घ. च. जाप Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.६: सू.२६५-३१३ ३८४ भगवती वृत्ति जम्बूद्वीपादयोऽसंख्येया एव, 'सागरा' लवणादयः, 'वासत्ति वर्षाणि भरतादीनि सप्तैव, 'नेरइयाइत्ति चतुर्विंशतिदण्डकः ‘अस्थि यत्ति अस्तिकायाः पञ्च, 'समय'त्ति कालविभागाः, कर्माण्यष्टौ, लेश्या षट्, दृष्टयो-मिथ्यादृष्ट्यादयास्तिस्रः, दर्शनानि चत्वारि, ज्ञानानि पञ्च, सञ्ज्ञाश्चतस्रः शरीराणि पञ्च, योगास्त्रयः, उपयोगौ द्वौ, द्रव्याणि षट्, प्रदेशा अनन्ताः पर्यवा अनन्ता एव, 'अद्ध'त्ति अतीताद्धा अनागताद्धा सर्वाद्धा चेति । 'पुट्विं लोयंतित्ति, अयं सूत्राभिलापनिर्देशः, तथैव पश्चिमसूत्राभिलापं दर्शयन्नाह१।३०१. 'पुट्विं भंते ! लोयंते पच्छा सव्वद्धे'त्ति । एतानि च सूत्राणि शून्यज्ञानादिवादनिरासेन विचित्रबाह्याध्यात्मिकवस्तुसत्ताऽभिधानार्थानि ईश्वरादि कृतत्वनिरासेन चानादित्वाभिधानार्थानीति। लोकान्तादिलोकपदार्थप्रस्तावादथ गौतममुखेनलोकस्थितिप्रज्ञापनायाह११३१०.'कइविहा ण'मित्यादि, अयं सूत्राभिलाप:-आकाशप्रतिष्ठितो वायु:-तनुवातघनवातरूपः, तस्यावकाशान्तरोपरि स्थितत्वात्, आकाशं तु स्वप्रतिष्ठितमेवेति न तत्प्रतिष्ठाचिन्ता कृतेति(१)। तथा वातप्रतिष्ठित उदधिः-यनोदधिस्तनुवातघनवातोपरि स्थितत्वात(२)। तथा उदधिप्रतिष्ठिता पृथिवी घनोदधीनामुपरि स्थितत्वात् रलप्रभादीनां, बाहुल्यापेक्षया चेदमुक्तम्, अन्यथा ईषनागभारापृथिवी आकाशप्रतिष्ठितैव(३)। तथा पृथिवीप्रतिष्ठितास्त्रसस्थाराः प्राणाः, इदमपि प्रायिकमेव अन्यथाऽऽकाशपर्वतविमानप्रतिष्ठिता अपि ते सन्तीति (४)। तथाऽजीवाः-शरीरादिपुद्गलरूपा जीवप्रतिष्ठिताः, जीवेषु तेषां स्थितत्वात् (५)। तथा जीवाः कर्मप्रतिष्ठिताः कर्मसु-अनुदयावस्थकर्मपुद्गलसमुदायरूपेषु संसरिजीवानामाश्रितत्वात् । अन्ये त्वाहुः-जीवा; कर्मभिः प्रतिष्ठिता:नारकादिभावेनावस्थापिताः'(६)। तथा अजीवा जीवसंगृहीताः मनोभाषादिपुद्गलानां जीवैः संग्रहीतत्वात्, अथाजीवाः जीवप्रतिष्ठितास्तथाऽजीवा जीवसंगृहीता इत्येतयोः को भेदः? उच्यते-पूर्वस्मिन् वाक्ये आधाराधेयभाव उक्तः, उत्तरे तु संग्राह्यसंग्राहकभाव इति भेदः । यच्च यस्य संग्राह्यं तत्तस्याधेयमण्यापत्तितः स्याद्, यथाऽपूपस्य तैलमित्याधाराधेयभावोऽप्युत्तरवाक्ये दृश्य इति (७)। तथा जीवाः कर्मसंगृहीताः संसारिजीवानामुदयप्राप्तकर्मवशवर्त्तित्वात्, ये च यद्वशास्ते तत्र प्रतिष्ठिताः । यथा घटे रूपादय इत्येवमिहाप्याधाराधेयता दृश्येति (E)। १।३११. से जहानामए केइ'त्ति स 'यथानामकः' यत् प्रकारनामा देवदत्तादिनामेत्यर्थः, अथवा 'से' इति 'स' यथा इति दृष्टान्तार्थ: 'नाम' इति संभावनायाम् 'ए' इति वाक्यालंकारे 'वत्यिंति 'बस्तिं' दृति 'आडोवेइ'त्ति आटोपयेत् वायुना पूरयेत्, 'उप्पिं सियं बंधइत्ति उपरि सितं 'षिङ् बन्धने' इति वचनात् । क्तप्रत्ययस्य च भावार्थत्वात् कर्मार्थत्वाद्वा बन्ध-ग्रन्थिमित्यर्थः बजाति करोतीत्यर्थः । अथवा 'उप्पिंसि'त्ति उपरि 'त'मिति बस्तिं 'से आउयाए'त्ति सोऽकायस्तस्य वायुकायस्य 'उप्पिं ति उपरि, उपरिभावश्च व्यवहारतोऽपि स्यादित्यत आह-उपरितले सर्वोपरीत्यर्थः। यथा वायुराधारो जलस्य दृष्ट एवमाधाराधेयभावो भवति। आकाशघनवातादीनामिति भावः। आधाराधेयभावश्च प्रागेव सर्वपदेषु व्यंजित इति । 'अस्थाहमतारमपोरुसियंसि'त्ति अस्ताघम्-अविधमानस्ताघम्-अगाधमित्यर्थः, अस्ताधो वा निरस्ताधस्तलमिवेत्यर्थः' अत एवातारंतरीतुमशक्यं, पाठान्तरेणापार-पारवर्जितं पुरुषः प्रमाणमस्येति पौरुषेयं तत्प्रतिषेधादपौरुषेयं ततः कर्मधारयोऽतस्तत्र मकारश्चेहालाक्षणिकः । ‘एवं वा' इत्यत्र वाशब्दो दृष्यन्तान्तरतासूचनार्थः। लोकस्थित्यधिकारादेवेदमाह-'अस्थि ण'मित्यादि अन्ये त्वाहु:-'अजीवा जीवपइट्ठिया' इत्यादेः पदचतुष्टयस्य भावनार्थमिदमाह११३१२. 'पोग्गले'त्ति कर्मशरीरादिपुद्गलाः। 'अण्णमण्णबद्ध'त्ति अन्योऽन्यं जीवाः पुद्गलानां पुद्गलाश्च जीवानां संबद्धा इत्यर्थः । कथं बद्धा इत्याह 'अन्नमन्नपुट्ठा' पूर्वं स्पर्शनामात्रेणान्योऽन्यं स्पृथस्ततोऽन्योऽन्यं बद्धाः गाढतरं संबद्धा इत्यर्थः । 'अण्णमण्णमोगाढ'त्ति परस्परेण लोलीभावं गतः, अन्योऽन्यं स्नेहप्रतिबद्धा इति । अत्र रागादिरूपः स्नेहः यदाह "नेहाभ्यक्तशरीरस्य, रेणुना श्लिष्यते यथा गात्रम् । रागद्वेषक्लिनस्य' कर्मबन्यो भवत्येवम् ।।" इति । अत एव अण्णमण्णघडताए त्ति अन्योऽन्यं घटासमुदायो येषां तेऽन्योऽन्यघटास्तद्भावस्तत्ता तयाऽन्योन्यघटतया । १।३१३. 'हरए सिय'त्ति 'हृदो' नदः ‘स्यात्' भवेत् 'पुण्णे'त्ति भृतो जलस्य, स च किञ्चिन्यूनोऽपि व्यवहारतः स्यादत आह–'पुण्णप्पमाणे'त्ति पूर्णप्रमाणः पूर्ण वा जलेनात्मनो मानं यस्य स पूर्णात्ममानः। 'वोलट्टमाणे' त्ति व्यपलोड्यन अतिजलभरणाच्छर्धमानजल इत्यर्थः । 'वोसट्टमाणे'त्ति जलप्राचुयदिव विकशन्-रफारीभवन् वर्द्धमान इत्यर्थः । 'समभरघडत्ताए' त्ति समो न विषमो घटैकदेशमनाश्रितत्वेन भरो-जलसमुदायो यत्र स समभरः सर्वथा भृतो वा समभरः, समशब्दस्य सर्वशब्दार्थत्वात्, समभरश्चासौ घटश्चेति समासः समभरघट इव समभरघटस्तभावस्तत्ता तया समभरघटतया सर्वथाभृतघटाकारतयेत्यर्थः । 'अहे णत्ति अहेशब्दः अथार्थः अथशब्दश्चानन्तर्यार्थः, णमिति वाक्यालंकारे 'महंति महतीं 'सयासवं'ति आश्रवति-ईषत्क्षरतिजलं यैस्ते १. अवस्थिता ख. ग. ३. रागद्वेषा ख. ग. घ. च. छ. २. मित्यर्थः ख. ग. Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति श.१: उ.६,७: सू.३१३-३३२ आश्रवाः-सूक्ष्मरन्ध्राणि सन्तो- विद्यमानाः सदा वा सर्वदा शतसंख्या वाऽऽश्रवा यस्यां सा सदाश्रवाः शताश्रवा वाऽतस्ताम् एवं 'सयछिडु' नवरं छिद्रं महत्तरं रन्ध्रम् 'ओगाहेजत्ति 'अवगाहयेत्' प्रवेशयेद् । 'आसवदारेहिं ति आश्रवच्छिद्रैः 'आपूरमाणी'त्ति आपूर्यमाणा जलेनेति शेषः, इह द्विवचनमाभीक्ष्ण्ये 'पुण्णे'त्यादि प्रागवन्नवरं 'वोसट्टमाणा'. इत्यादौ वृद्धैरयं विशेष उक्तः-'वोसट्टमाणा' भृता सती या तत्रेव निमज्जति सोच्यते। 'समभरघडताए'त्ति ह्रदक्षिप्तसमभरघटवद् हृदस्याधस्त्योदकेन सह तिष्ठतीत्यर्थः । यथा नौश्च हृदोदकं चान्योऽन्यावगाहेन वर्त्तते एवं जीवाश्च पुद्गलाश्चेति भावना । लोकस्थितावेवेदमाह११३१४. 'सदा' सर्वदा ‘समियं ति सपरिमाणं न बादराकायवदपरिमितमपि, अथवा 'सदा'इति सर्तुषु 'समित मिति रात्रौ दिवसस्य च पूर्वापरयोः प्रहरयो; तत्रापि कालस्य स्निग्धेतरभावमपेक्ष्य बहुत्वमल्पत्वं चावसेयमिति, यदाह "पढमचरिमाउ सिसिरे, गिम्हे अद्धं तु तासि वजेत्ता। पायं ठवे सिणेहाइरक्खणवा पवेसे वा।।" लेपितपात्रं बहिर्न स्थापयेत् स्नेहादिरक्षणायेति । 'सूक्ष्मः स्नेहकाय'इति अप्कायविशेष इत्यर्थः । ११३१५. 'उद्दे'त्ति ऊध्र्वालोके वर्तुलवैताढ्यादिषु 'अहे'त्ति अधोलोकग्रामेषु, 'तिरिय'ति तिर्यगलोके। १।३१६. 'दीहकालं चिट्ठइत्ति तडागादिपूरणात् 'विद्धंसमागच्छइत्ति स्वल्पत्वात्तस्येति । ॥प्रथमशते षष्ठोद्देशकः ॥ सप्तम उद्देशकः अथ सप्तम आरभ्यते, तस्य चैवं सम्बन्धः-विध्वंसमागच्छतीत्युक्तं प्राक् इह तु तद्विपर्यय उत्पादोऽभिधीयते । अथवा लोकस्थितिः प्रागुक्ता इहापि सैव । तथा 'नेरइए'त्ति यदुक्तं संग्रहिण्यां तच्चावसरायातमिहोच्यत इति, तत्रादिसूत्रम्११३१८. 'नेरइए णं भंते ! नेरइएसु उववजमाणे' त्ति ननूत्पद्यमान एव कथं नारक इति व्यपदिश्यते ? अनुत्पन्नत्वात् तिर्यकादिवद् इति, अत्रोच्यते उत्पद्यमान उत्पन्न एव तदायुष्कोदयात् अन्यथा तिर्यगाद्यायुष्काभावान्नारकायुष्कोदयेऽपि यदि नारको नासौ तदन्यः कोऽसौ? इति । 'किं देसेणं देसं उववज्जइत्ति देशेन च 'देशेन च'' यदुत्पतनं प्रवृत्तं तद्देशेनदेश, छान्दसत्वाच्चाव्ययीभावप्रतिरूपः समासः, एवमुत्तरत्रापि । तत्र जीवः किं 'देशेन' स्वकीयावयवेन 'देशेन' नारकावयविनोंऽशतयोत्पद्यते अथवा 'देशेन' देशमाश्रित्योत्पादयित्वेति शेषः एवमन्यत्रापि । तथा 'देसेणं सव्वंति देशेन च सर्वेण च यत् प्रवृत्तं तद्देशेनसर्वं, तत्र देशेन-स्वावयवेन सर्वतः सर्वात्मना नारकावयवितयोत्पद्यत, इत्यर्थः । आहोस्वित् सर्वेण-सर्वात्मना देशतो नारकांशतयोत्पद्यते, अथवा 'सर्वेण' सर्वात्मना सर्वतो नारकतयेति प्रश्नः। अत्रोत्तरम् देशेनदेशतयोत्पद्यते, यतो न परिणामिकारणावयवेन कार्यावयवो निर्व्वय॑ते, तन्तुना पटाप्रतिबद्धपटप्रदेशवत्। यथा हि पटदेशभूतेन तन्तुना पटाप्रतिबद्धः पटदेशो न निर्वहँते तथा पूर्वावयविप्रतिबद्धेन तद्देशेनोत्तरावगविदेशो न निर्द्धर्त्यत इति भावः । तथा न देशेन सर्वतयोत्पद्यते, अपरिपूर्णकारणत्त्वात्, तन्तुना पट इवेति। तथा न सर्वेणदेशतयोत्पद्यते, संपूर्णपरिणामिकारणत्त्वात् समस्तघटकारणैर्घटैकदेशवत् । 'सव्वेणं सव्वं उववज्जइ' सर्वेण तु सर्व उत्पद्यते । पूर्णकारणसमवायाद्, घटवदिति चूर्णिव्याख्या। टीकाकारस्त्वेवमाह-किमवस्थित एव जीवो देशमपनीय यत्रोत्पत्तव्यं तत्र देशत उत्पद्यते ? अथवा देशेन सर्वत उत्पद्यते ? अथवा सर्वात्मना यत्रोत्पत्तव्यं तस्य देशे उत्पद्यते ? अथवा सर्वात्मना सर्वत्र ? इति, एतेषु पाश्चात्यभंगौ ग्राह्यौ । यतः सर्वेण सर्वात्मप्रदेशव्यापारेण इलिकागतौ यत्रोत्पत्तव्यं तस्य देशे उत्पद्यते, तद्देशेनोत्पत्तिस्थानदेशस्यैव व्याप्तत्वात् । कन्दुकगतौ वा सर्वेण सर्वत्रोत्पद्यते विमुच्यैव पूर्वस्थानमिति । एतच्च टीकाकारव्याख्यानं वाचनान्तरविषयमिति । उत्पादे चाहारक इत्याहारसूत्रम्११३२०. तत्र 'देशेन देश'मिति आत्मदेशेनाभ्यवहार्यद्रव्यदेशमित्येवं गमनीयम् । उत्तरम् -'सव्वेण वा देसमाहारेइ'त्ति, उत्पत्त्यनन्तरसमयेषु सर्वात्मप्रदेशैराहारपुद्गलान् कांश्चिदादत्ते कांश्चिद् विमुञ्चति, तप्ततापिकागततैलग्राहकविमोचकापूपवद्, अत उच्यते-देशमाहारयतीति । 'सव्वेण वा सव्वंति सर्वात्मप्रदेशैरुत्पत्तिसमये आहारपुद्गलानादत्ते एव प्रथमतः तैलभृततप्ततापिकाप्रथमसमयपतितापूपवदित्युच्यते-सर्व माहारयतीति। उत्पादस्तदाहारेण सह प्राग्दण्डकाभ्यामुक्तः।। १।३२२,३२४. अथोत्पादप्रतिपक्षत्वाद्वर्तमानकालनिर्देशसाधयच्चिोद्वर्तनादण्डकस्तदाहारदण्डकेन सह । १।३२६,३२८. तदनन्तरं च नोद्वर्तनाऽनुत्पन्नस्य स्यादित्युत्पन्नतदाहारदण्डको उत्पन्नप्रतिपक्षत्वाच्चोवृत्ततदाहारदण्डकाविति । पुस्तकान्तरे तूत्पादतदाहारदण्डकानन्तरमुत्पादे सत्युत्पन्नः स्यादित्युत्पन्नतदाहारदण्डकौ। ततस्तूत्पादप्रतिपक्षत्वादुद्वर्तनाया उद्वर्तनातदाहार दण्डकौ। १।३३०,३३२. उद्वर्तनायां चोवृत्तः स्यादित्युवृत्ततदाहारदण्डकौ कण्ठ्याश्चैत इति। एवं तावदष्टाभिर्दण्डकैर्देशसर्वाभ्यामुत्पादादि चिन्तितम्, अथाथभिरेवाड़सर्वाभ्यामुत्पादाघेव चिन्तयन्नाह ३. उत्पादयन् क. घ. १.X घ. २. उत्पादनं क. Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.१: उ.७: सू.३३४-३४६ ३६६ भगवती वृत्ति ११३३४. नेरइएण'मित्यादि 'जहा पढमिल्लेणं'ति यथा देशेन, ननु देशस्य चार्धस्य च को विशेषः? उच्यते-देशस्त्रिभागादिरनेकधा, अर्द्ध त्वेकधैवेति । उत्पत्तिरुद्वर्त्तना च प्रायो गतिपूर्विका भवतीतिगतिसूत्राणि११३३५. 'विग्गहगइसमावन्नए'त्ति विग्रहो-वक्रं तत्प्रधाना गतिर्विग्रहगतिः, तत्र यदा वक्रेण गच्छति तदा विग्रहगतिसमापन्न उच्यते, अविग्रहगतिसमा पन्नस्तु ऋजुगतिकः स्थितो वा। विग्रहगतिनिषेधमात्राश्रयणात् । यदि चाविग्रहगतिसमापन्न ऋजुगतिक एवोच्यते तदा नारकादिपदेषु सर्वदैवाविग्रहगतिकानां यद् बहुत्वं वक्ष्यति तन्न स्याद् । एकादीनामपि तेषूत्पादश्रवणात् । टीकाकारेण तु केनाप्यभिप्रायेणाविग्रहगतिसमापन्न ऋजुगतिक एव व्याख्यात इति। ११३३७. 'जीवा णं भंते !'इत्यादि प्रश्नः, तत्र जीवानामानन्त्यात् प्रतिसमयं विग्रहगतिमतां तन्निषेधवतां च बहूनां भावादाह-विग्गहगइ'इत्यादि । नारकाणां त्वल्पत्वेन विग्रहगतिमतां कदाचिदसंभवात् संभवेऽपि चैकादीनामपि तेषां भावाद् विग्रहगतिप्रतिषेधवतां च सदैव बहूनां भावात् आह'सव्वेवि ताव होज्ज अविग्गहे'त्यादि विकल्पत्रयम् । असुरादिषु एतदेवातिदेशत आह–'एव'मित्यादि जीवानां निर्विशेषाणामेकेन्द्रियाणां चोक्तयुक्त्या विग्रहगतिसमापन्नत्त्वे तत्प्रतिषेधे च बहुत्वमेवेति न भंगत्रयम् । तदन्येषु तु त्रयमेवेति 'तियभंगो'त्ति त्रिकरूपो भंगस्त्रिकभंगो भंगत्रयमित्यर्थः। गत्यधिकाराच्यवनसूत्रम्११३३६. 'महिड्डिए'त्ति महर्द्धिको विमानपरिवाराद्यपेक्षया, 'महजुइए'त्ति महाद्युतिकः शरीराभरणाद्यपेक्षया 'महब्बले महाबलः शारीरप्राणापेक्षया 'महायसे'त्ति महायशाः बृहप्रख्यातिः 'महेसक्खे'त्ति महेशो-महेश्वर इत्याख्या-अभिधानं यस्यासौ महेशाख्यः ‘महासोक्खे'त्ति क्वचित्, 'महाणुभावे त्ति महानुभावः विशिष्टवैक्रियादिकरणाचिन्त्यसामर्थ्यः, 'अविउक्कंतियं चयमाणे'त्ति च्यवमानता किलोत्पत्तिसमयेऽप्युच्यत इत्यत आह–व्युत्क्रान्तिः-उत्पत्तिस्तन्निषेधादव्युत्क्रान्तिकम् । अथवा व्यवक्रान्तिः–मरणं, तन्निषेधादव्यवक्रान्तिकं तद्यथा भवत्येवं च्यवमानो जीवमानो जीवन्नेव मरणकाल इत्यर्थः । 'अविउक्कंतियं चयं चयमाणे'त्ति क्वचिद् दृश्यते, तत्र च 'चर्य' शरीरं 'चयमाणे'त्ति त्यजन् 'किञ्चित्कालं'ति कियन्तमपि कालं यावन्नाहारयेदिति योगः । कुतः ? इत्याह–'हीप्रत्ययं' लज्जानिमित्तं, स हि च्यवनसमयेऽनुपक्रान्त एव पश्यत्युत्पत्तिस्थानमात्मनः, दृष्ट्वा च तद्देवभवविसदृशं पुरुषपरिभुज्यमानस्त्रीगर्भाशयरूपं जिह्वेति, ह्रिया च नाहारयति । तथा 'जुगुप्साप्रत्ययं' कुत्सानिमित्तं शुक्रादेरुत्पत्तिकारणस्य कुत्साहेतुत्वात् । 'परीसहवत्तियंति इह प्रक्रमात् परीषहशब्देनारतिपरीषहो ग्राह्यः, ततश्चारतिपरीषहनिमित्तं, दृश्यते चारतिप्रत्ययाल्लोकेप्याहारग्रहणवैमुख्यमिति । 'आहार' मनसा तथाविधपुद्गलोपादानरूपम् । 'अहे णं'ति अथ लज्जादिक्षणानन्तरमाहारयति बुभुक्षावेदनीयस्य चिरं सोढुमशक्यत्वादिति । 'आहारिजमाणे आहारिए' इत्यादौ भावार्थः प्रथमसूत्रवत् । अनेन च क्रियाकालनिष्ठाकालयोरभेदाभिधानेन तदीया55हारकालस्याल्पतोक्ता। तदनन्तरं च 'पहीणे य आउए भवइ'त्ति 'चः' समुच्चये प्रक्षीणं प्रहीणं वाऽऽयुर्भवति, ततश्च यत्रोत्पद्यते मनुजत्वादौ 'तमाउयंति तस्य मनुजत्वादेरायुस्तदायुः 'प्रतिसंवेदयति' अनुभवतीति? 'तिरिक्खजोणियाउयं वा' इत्यादौ देवनारकायुषोः प्रतिषेधो, देवस्य तत्रानुत्पादादिति। उत्पत्त्यधिकारादिदमाह११३४०. 'गब्मं वक्कममाणे'त्ति गर्ने व्युत्क्रामन् गर्भ उत्पद्यमान इत्यर्थः । ११३४१. 'दबिंदियाईति निर्वृत्त्युपकरणलक्षणानि, तानि हीन्द्रियपर्याप्तौ सत्यां भविष्यन्तीत्यनिन्द्रिय उत्पद्यते। 'भाविंदियाईति लब्ध्युपयोगलक्षणानि, तानि च संसारिणः सर्वावस्थाभावीनीति । ११३४२. 'ससरीरि'त्ति सह शरीरेणेति सशरीरी, इन्समासान्तभावात् 'असरीरि'त्ति शरीरवान् शरीरी तन्निषेधादशरीरी 'वक्कमइ'त्ति व्युत्क्रामति, उत्पद्यत इत्यर्थः। ११३४४. 'तप्पढमयाए'त्ति तस्य गर्भव्युत्क्रमणस्य प्रथमता तप्रथमता तया 'कि'मिति प्राकृतत्वात् कम् ? 'माउओयं' ति 'मातुरोजः' जनन्या आर्तवं, शोणितमित्यर्थ, 'पिउसुक्कं' ति पितुः शुक्र, इह यदिति शेषः 'त'ति आहारमिति योगः। तदुभयसंसिटुं'ति तयोरुभयं तदुभयं द्वयं, तच्च तत् संश्लिष्टं च संसृष्टं वा-संसर्गवत् तदुभयसंश्लिष्टं तदुभयसंसृष्टं वा। ११३४५. 'जं से'त्ति या तस्य गर्भसत्त्वस्य माता 'रसविगतीओ'त्ति रसरूपा विकृती:-दुग्धाद्या रसविकारास्ताः 'तदेगदेसेणं'ति तासां रस विकृतीनामेकदेशस्तदेकदेशस्तेन सह ओज आहारयतीति । 'उच्चारेइ वत्ति उच्चारो-विष्ठा 'इति' उपप्रदर्शने 'वा' विकल्पे खेलो-निष्ठीवनं, 'सिंघाणति नासिकाश्लेष्मा। ११३४७. 'केसमंसुरोमनहत्ताए 'त्ति इह श्मश्रूणि-कूर्चकशाः रोमाणि-कक्षादिकेशाः। ११३४८. 'जीवे ण'मित्यादि । ११३४६. 'सव्वओ'त्ति सर्वात्मना 'अभिक्खणं'ति पुनः पुनः 'आहच्च'त्ति कदाचिदाहारयति कदाचिन्नाहारयति, तथास्वभावत्वात्, यतश्च सर्वतः आहार- यतीत्यादि ततो मुखेन न प्रभुः कावलिकमाहारमाहर्तुमिति भावः । अथ कथं सर्वत आहारयति ? इत्याह-'माउजीवरसहरणी'त्यादि रसो ह्रियते-आदीयते यया सा रसहरणी नाभिनालमित्यर्थः । मातृजीवस्य रसहरणी मातृजीवरसहरणी, किमित्याह-'पुत्तजीवरसहरणी' पुत्रस्य रसोपादाने कारणत्वात् कथमेवमित्याह-मातृजीवप्रतिबद्धता सती सा १.x क. घ. च. छ. Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७ भगवती वृत्ति श.१: उ.७: सू.३४६-३५७ यतः 'पुत्तजीवं फुड'त्ति पुत्रजीवं स्पृष्टवती। इह च प्रतिबद्धता गाढसम्बन्धः,तदंशत्वात् । स्पृष्टता च सम्बन्धमात्रम्, अतदंशत्वात् । अथवा मातृजीवरसहरणी पुत्रजीवरसहरणी चेति द्वे नाड्यौ स्तः, तयोश्चाद्या मातृजीवप्रतिबद्धा पुत्रजीवस्पृऐति, 'तम्हे ति यस्मादेवं तस्मान्मातृजीवप्रतिबद्धया रसहरण्या पुत्रजीवस्पर्शनादाहारयति । 'अवरावि यत्ति पुत्रजीवरसहरण्यपि च पुत्रजीवप्रतिबद्धा सती मातृजीवं स्पृष्टवती 'तम्ह त्ति यस्मादेवं तस्माच्चिनोति शरीरं, उक्तं च तन्त्रान्तरे "पुत्रस्य नाभौ मातुच, हदि नाडी निबध्यते । ययाऽसौ पुष्टिमाप्रोति, केदार इव कुल्यया॥" इति। गर्भाधिकारादेवेदमाह११३५०. 'कइ ण'मित्यादि ‘माइअंग'त्ति आर्त्तवविकारबहुलानीत्यर्थः 'मत्थुलुंग'त्ति मस्तकभेज्जकम्, अन्ये त्वाहुः-मेदः फिप्फिसादि मस्तुलुंगमिति । १३५१. 'पेइयंगत्ति पैतृकांगानि शुक्रविकारबहुलानीत्यर्थः । 'अद्विमिंज'त्ति अस्थिमध्यावयवः, केशादिकं बहुसमानरूपत्वादेकमेव, उभयव्यतिरिक्तानि तु शुक्रशोणितयोः समविकाररूपत्वात् मातापित्रोः साधारणानीति। ११३५२. 'अम्मापिइए णं'ति अम्बापैतृकं शरीरावयवेषु शरीरोपचाराद्, उक्तलक्षणानि मातापित्रंगानीत्यर्थः । 'जावइयं से कालं'ति यावन्तं कालं 'से'त्ति तत् तस्य वा जीवस्य 'भवधारणीयं' भवधारणप्रयोजनं मनुष्यादिभवोपग्राहकमित्यर्थः। 'अव्वावन्ने'त्ति अविनष्टम्, 'अहे 'ति उपचयान्तिमसमयादनन्तरमेतद् अम्बापतृकं शरीरं । 'वोक्कसिज्जमाणे'त्ति व्यवकृष्यमाणं हीयमानम् । गर्भाधिकारदेवापरं सूत्रम्११३५३. 'गब्भगए समाणे'त्ति गर्भगतः सन् मृत्वेति शेषः, 'एगइए'त्ति सगर्वराजादिगर्भरूपः । ११३५४. संज्ञित्वादिविशेषणानि च गर्भस्थस्यापि नरकप्रायोग्यकर्मबन्धसंभवाभिधायकतयोक्तानि । वीर्यलब्ध्या वैक्रियलब्ध्या संग्रामयतीति योगः। अथवा वीर्यलब्धिको वैक्रियलब्धिकश्च सन्निति, पराणीएणं'ति 'परानीकं' शत्रुसैन्यं 'सोच्च'त्ति आकर्ण्य 'निशम्य' मनसाऽवधार्य 'पएसे निच्छुभइ'त्ति गर्भदेशाद् बहिः क्षिपति 'समोहण्णइत्ति समवहन्ति समवहतो भवति तथाविधपुद्गलग्रहणार्थम् । 'संग्रामं संग्रामयति' युद्धं करोति । 'अत्यकामए'इत्यादि अर्थ-द्रव्ये कामो-वांछामात्रं यस्यासावर्थकामः, एवमन्यान्यपि विशेषणानि, नवरं राज्यं नृपत्वं, भोगा-गन्धरसस्पर्शाः, कामौ- शब्दरूपे, कांक्षा-गृद्धिः आसक्तिरित्यर्थः । अर्थे' कांक्षा संजाताऽस्येत्यर्थकांक्षितः, पिपासेव पिपासा-प्राप्तेऽप्यर्थेऽतृप्तिः । तच्चित्तेत्ति तत्र-अर्थादौ चित्तं-सामान्योपयोगरूपं यस्यासौ तच्चित्तः, 'तम्मणे'त्ति तत्रैव-अर्थादौ मनो-विशेषोपयोगरूपं यस्य स तन्मनाः, 'तल्लेसे'त्ति लेश्या-आत्मपरिणामविशेषः, 'तदज्झवसिए'त्ति इहाध्यवसायोऽध्यवसितं, तत्र तच्चित्तादिभावयुक्तस्य सतस्तस्मिन्-अर्थादावेवाध्यवसितंपरिभोगक्रियासंपादनविषयमस्येति तदध्यवसितः, 'तत्तिव्वज्झवसाणे'त्ति तस्मिन्नेव–अर्थादौ तीव्रम्-आरम्भकालादारभ्य प्रकर्षयायि अध्यवसानं-प्रयलविशेषलक्षणं यस्य स तथा, 'तदट्ठोवउत्ते' त्ति तदर्थम्-अर्थादिनिमित्तमुपयुक्तः-अवहितस्तदर्थोपयुक्तः, 'तदप्पियकरणे' त्ति तस्मिन्नेव–अर्थादावर्पितानि-आहितानि करणानि-इन्द्रियाणि कृतकारितानुमतिरूपाणि वा येन स तथा, 'तब्भावणाभाविए'त्ति असकृदनादौ संसारे तद्भावनया-अर्थादिसंस्कारेण भावितो यः स तथा, 'एयंसि णं अतरंसि' त्ति एतस्मिन् संग्रामकरणावसरे कालं-मरणमिति । ११३५६. 'तहारूवस्स'त्ति तथाविधस्य उचितस्येत्यर्थः, 'श्रमणस्य' साधोः, वाशब्दो देवलोकोत्पादहेतुत्वं प्रति श्रमणमाहनवचनयोस्तुल्यत्वप्रकाशनार्थः । 'माहणस्स'त्ति मा हन इत्येवमादिशति स्वयं स्थूलप्राणातिपातादिनिवृत्तत्वाद्यः स माहनः । अथवा ब्रह्मणो ब्रह्मचर्यस्य देशतः सद्भावाद् ब्राह्मणो देशविरतः तस्य वा 'अंतिए'त्ति समीपे एकमप्यास्तामनेकम् 'आर्यम्' आराद् यातं पापकर्मभ्य इत्यार्थम्, अत एव धार्मिकमिति, 'तओ'त्ति तदनन्तरमेव, 'संवेगजायसड्डि'त्ति संवेगेन-भवभयेन जाता श्रद्धा श्रद्धानं धर्मादिषु यस्य स तथा 'तिव्वधम्माणुरागरत्ति' ति तीव्रो यो धर्मानुरागो-धर्मबहुमानस्तेन रक्त इव यः स तथा।। 'धम्मकामए' त्ति धर्म:-श्रुतचारित्रलक्षणः, पुण्यं तत्फलभूतं शुभकर्मेति। १।३५७. 'अंबखुजए वत्ति आम्रफलवत्कुब्जः 'अच्छेजति आसीत सामान्यतः, एतदेव विशेषत उच्यते-'चिद्वेज'त्ति ऊर्ध्वस्थानेन 'निसीएजत्ति निषदनस्थानेन, 'तुयटेज'त्ति शयीत, 'सममागच्छइ'त्ति, समं-अविषमं 'सम्मति पाठे 'सम्यग्' अनुपधातहेतुत्वादागच्छति-मातुरुदराद् योन्या निष्कामति । 'तिरियमागच्छइत्ति तिरश्चीनो भूत्वा जठरान्निर्गन्तुं प्रवर्तते यदि तदा 'विनिघातं' मरणमापद्यते, निर्गमाभावादिति। गर्भान्निर्गतस्य च यत्स्यात्तदाह-वण्णवज्झाणि यत्ति वर्ण:-श्लाघा वथ्यो–हन्तव्यो येषां तानि वर्णवध्यानि, अथवा वर्णाद्बाह्यानि वर्णबाह्यानि अशुभानीत्यर्थः, चशब्दो वाक्यान्तरत्वद्योतनार्थः । * 'से'त्ति तस्य गर्भनिर्गतस्य 'बद्धाइंति सामान्यतो बद्धानि 'पुट्ठाईति पोषितानि गाढतरबन्धतः 'निहत्ताइंति उदवर्त्तनापवर्तनकरणवर्जशेषकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थापितानीत्यर्थः, अथवा बद्धानि, कथम् ? यतः पूर्वं स्पृथनीति, 'कडाइंति निकाचितानि सर्वकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थापितानीत्यर्थः, 'पट्टवियाईति मनुष्यगतिपञ्चेन्द्रियजातित्रसादिनामकर्मसहोदयत्वेन व्यवस्थापितानीत्यर्थः, 'अभिनिविट्ठाईति तीव्रानुभावतया निविष्ठानि, 'अभिसमन्त्रागयाईति उदयाभिमुखीभूतानीति, ततश्च 'उदिनाई ति उदीर्णानि स्वतः उदीरणाकरणेन वोदितानि, व्यतिरेकमाह-'नो उवसंताईति अनिष्टादीनि व्याख्यातान्येवैकार्थानि वा, 'हीणस्सरे'त्ति अल्पस्वरः, 'दीणस्सरे' त्ति दीनस्येवदुःस्थितस्येव स्वरो यस्य स दीनस्वरः, 'अणादेयवयणे पञ्चायाए यावित्ति इहैवमक्षरघटना-प्रत्याजातश्चापि समुत्पन्नोऽपि चानादेयवचनो भवतीति। . || प्रथमशते सप्तमोद्देशकः ।। १. अर्थ ख. ग. घ. च. छ. २. ब्राह्मणो ख. ग. घ. च. छ. ★ कस्याञ्चित् प्रतौ वाक्यालंकारत्वद्योतनार्थः इति उल्लिखितमस्ति, तदशुद्धं प्रतिभाति। Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १: उ.८ः सू. ३५६-३७१ ३८८ अष्टम उद्देशकः गर्भवक्तव्यता सप्तमोद्देशकस्यान्ते उक्ता । गर्भवासश्चायुषि सतीत्यायुर्निरूपणायाह, तथाऽऽदिगाथायां यदुक्तं 'बाले' त्ति तदभिधानाय चाष्टमोद्देशकः, तत्र च सूत्रम् १ । ३५६. ‘एगंतबाले’इत्यादि 'एकान्तबालः' मिथ्यादृष्टिरविरतो वा एकान्तग्रहणेन मिश्रतां व्यवच्छिनत्ति । यच्चैकान्तबालत्वे समानेऽपि नानाविधायुर्बन्धनं तन्महारम्भाद्युन्मार्गदेशनादितनुकषायत्वादि अकामनिर्जरादि तद्धेतुविशेषवशादिति, अत एव बालत्वे समानेऽप्यविरतसम्यग्दृष्टिर्मनुष्यो देवायुरेव प्रकरोति न शेषाणि । एकान्तबालप्रतिपक्षत्वादेकान्तपण्डितसूत्रं, तत्र च १ । ३६०. ‘एगंतपंडिए णं’ति एकान्तपण्डितः साधुः 'मणुस्से त्ति विशेषणं स्वरूपज्ञापनार्थमेव । ' अमनुष्यस्यैकान्तपण्डितत्वायोगात्, तदयोगश्च सर्वविरतेरन्यस्याभावादिति । 'एत पंडिए णं मणुस्से आउयं सिय पकरेइ सिय नो पकरेइ 'त्ति सम्यक्त्वसप्तके क्षपिते न बध्नात्यायुः साधुः, अर्वाक् पुनर्बध्नातीत्यत उच्यतेस्याठाकरोतीत्यादि । १ । ३६१. 'केवलमेव दो गईओ पन्नायंति त्ति केवलशब्दः सकलार्थस्तेन साकल्येनैव द्वे गती 'प्रज्ञायेते' अवबुध्येते केवलिना, तयोरेव सत्त्वादिति । 'अंतकिरिय'त्ति निर्वाणं 'कप्पोववत्तिय'त्ति कल्पेषु अनुत्तरविमानान्तदेवलोकेषूपपत्तिरुत्पत्तिः सैव कल्पोपत्तिका । इह च कल्पशब्दः सामान्येनैव वैमानिकदेवाऽऽवासाभिधायक इति । एकान्तपण्डितद्वितीयस्थानवर्त्तित्वाद् बालपण्डितस्य अतो बालपण्डितसूत्रं, तत्र च १ । ३६२. 'बालपंडिए णं 'ति श्रावकः । भगवती वृत्ति १ । ३६ ३ . ‘देसं उवरमइ’त्ति विभक्तिविपरिणामाद्देशात्' 'उपरमते' विरतो भवति, ततो 'देसं' स्थूलं प्राणातिपातादिकं 'प्रत्याख्याति' वर्जनीयतया प्रतिजानीते । आयुर्बन्धस्य क्रियाः कारणमिति क्रियासूत्राणि पञ्च, तत्र— १ । ३६४. ‘कच्छंसि व'त्ति 'कच्छे' नदीजलपरिवेष्टिते वृक्षादिमति प्रदेशे, 'दहंसि वत्ति हदे प्रतीते, 'उदगंसि व 'त्ति उदके — जलाश्रयमात्रे 'दवियंसि व 'त्ति ‘द्रविके’ तृणादिद्रव्यसमुदाये, ‘वलयंसि वत्ति वलये वृत्ताकारनद्याद्युदककुटिलगतियुक्तप्रदेशे 'नूमंसि वत्ति नूमे अवतमसे 'गहणंसि व ग वृक्षवल्लीलतावितानवीरुत्समुदाये 'गहणविदुग्गंसि वत्ति 'गहनविदुर्गे' पर्वतैकदेशावस्थितवृक्षवल्ल्यादिसमुदाये 'पव्वयंसि वत्ति पर्वते 'पव्वयविदुग्गंसि वत्ति पर्वतसमुदाये 'वर्णसि वत्ति वने एकजातीयवृक्षसमुदाये, 'वणविदुग्गंसि वति नानाविधवृक्षसमूहे 'मिगवित्तीए' "त्ति मृगैः – हरिणैर्वृत्तिः – जीविका यस्य स मृगवृत्तिकः स च मृगरक्षकोऽपि स्यादित्यत आह- 'मियसंकप्पे त्ति मृगेषु संकल्पो - वधाध्यवसायः छेदनं वा यस्यासौ मृगसंकल्पः, स च चलचित्ततयाऽपि भवतीत्यत आह- ' मियपणिहाणे 'त्ति मृगवधैकाग्रचित्तः 'मिगवहाए 'त्ति मृगवधाय 'गंत'त्ति गत्वा कच्छादाविति योगः । 'कूडपासं' ति कूटं च मृगग्रहणकारणं गर्त्तादि पाशश्च - तद्बन्धनमिति कूटपाशम् 'उद्दाइ'त्ति मृगवधायोद्ददाति रचयतीत्यर्थः । 'तओ णं'त्ति ततः कूटपाशकरणात् 'कइकिरिए त्ति कतिक्रियः ? क्रियाश्च कायिक्यादिकाः । १ । ३६५. 'जे भविए 'त्ति यो भव्यो योग्यः कर्त्तेतियावत् 'जावं च ण'मिति शेषः यावन्तं कालमित्यर्थः कस्याः कर्त्ता इत्याह- ' उद्दवणयाए 'त्ति कूटपाशधारणतायाः ताप्रत्ययश्चेह स्वार्थिकः 'तावं च णं'त्ति तावन्तं कालं 'काइयाए त्ति गमनादिकायचेष्टारूपया 'अहिगरणियाए 'त्ति अधिकरणेन - कूटपाशरूपेण निर्वृत्ता या सा तया तथा 'पाउसियाए 'ति प्रद्वेषो मृगेषु दुष्टभावस्तेन निर्वृत्ता प्राद्वेषिकी तया 'तिहिं किरियाहिं' ति क्रियन्त इति क्रियाः--चेाविशेषाः, 'पारितावणियाए 'त्ति परितापनप्रयोजना पारितापनिकी, सा च बद्धे सति मृगे भवति । प्राणातिपातक्रिया च घातिते इति । १ । ३६६. ‘ऊसविए’त्ति उत्सर्पः ऊसिक्किऊणेत्यर्थः ऊर्ध्वकृत्येति वा 'निसिरइ'त्ति निसृजति — क्षिपति यावदिति शेषः । १ । ३६८. 'उसुं'ति बाणम् । १ । ३७०.‘आयंयकण्णायतं’ति कर्णं यावदायतः - आकृष्टः कर्णायतः आयतं प्रयत्नवद् यथा भवतीत्येवं कर्णायत आयतकर्णायतस्तम् 'आयामेत्त' त्ति आयम्य आकृष्य 'मग्गओ' त्ति पृष्ठतः 'सयपाणिण 'त्ति 'स्वकपाणिना' स्वकहस्तेन' 'पुव्वायामणयाए 'त्ति पूर्वाकर्षणेन ' से णं भंते! पुरिसेत्ति 'सः' शिरश्छेत्ता पुरुषः 'मियवेरेणं' ति इह वैरं वैरहेतुत्वाद् वधः पापं वा वैरं वैरहेतुत्वादिति । अथ शिरश्छेतृपुरुषहेतुकत्वादिषु निपातस्य कथं धनुर्द्धरपुरुषो मृगवधेन स्पृष्ट इत्याकूतवतो गौतमस्य तदभ्युपगतमेवार्थमुत्तरतया प्राह १ । ३७१.क्रियमाणं धनुःकाण्डादि कृतमिति व्यपदिश्यते ? युक्तिस्तु प्राग्वत्, तथा सन्धीयमानं - प्रत्यञ्वायामारोप्यमाणं काण्डं धनुर्वाऽऽरोप्यमाणप्रत्यञ्चं 'सन्धितं' कृतसन्धानं भवति ?, तथा 'निर्वृत्त्यमानं' नितरां वर्त्तुलीक्रियमाणं प्रत्यञ्चाकर्षणेन निर्वृत्तितं-वृत्तीकृतं मण्डलाकारं कृतं भवति ? तथा ‘निसृज्यमानं' निक्षिप्यमाणं काण्डं निसृष्टं भवति ? यदा च निकृष्टं तदा निसृज्यमानताया धनुद्धरेण कृतत्वात् तेन काण्डं निसृष्टं भवति, काण्डनिसर्गाच्च मृगस्तेनैव मारितः, ततश्चोच्यते- 'जे मियं मारेइ' इत्यादीति । इह च क्रियाः प्रक्रान्ताः ताश्चानन्तरोक्ते मृगादिवधे यावत्यो यत्र कालविभागे भवन्ति तावतीस्तत्र दर्शयन्नाह - 'अन्तो छण्ह' मित्यादि, षण्मासानू यावत् प्रहारहेतुकं मरणं परतस्तु परिणामान्तरापादितमितिकृत्वा षण्मासादूर्ध्वं प्राणातिपातक्रिया न स्यादिति हृदयम्, एतच्च व्यवहारनयापेक्षया १. ज्ञानार्थमिव ख. घ. छ. २. परिणामादेशात् ख. ग. घ. च. छ. ३. मिगवत्तए क. ख. घ. छ. ४. करणताया ख. च. छ. ५. तथा तथा क. च. छ. ६. स्वहस्तेन ग. घ. च. छ. Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ३८६ श. १: उ.८, ६ः सू. ३७१-३६३ प्राणातिपातक्रियाव्यपदेशमात्रोपदर्शनार्थमुक्तम्, अन्यथा यदा कदाऽप्यधिकृतं प्रहारहेतुकं मरणं भवति तदैव प्राणातिपातक्रिया इति । १ । ३७२. 'सत्तीए 'त्ति शक्त्या - प्रहरणविशेषेण 'समभिधंसेज 'त्ति हन्यात् 'सयपाणिण 'त्ति स्वकहस्तेन ' से त्ति तस्य 'काइयाए 'त्ति 'कायिक्या' शरीरस्पन्दरूपया 'आधिकरणिक्या' शक्तिखड्गव्यापाररूपया, 'प्राद्वेषिक्या' मनोदुष्प्रणिधानेन 'पारितापनिक्या' परितापनरूपया ‘प्राणातिपातक्रियया’ मारणरूपया 'आसन्ने 'त्यादि शक्त्याऽभिध्वंसकः असिना वा शिरश्छेत्ता पञ्चभिः क्रियाभिः स्पृष्टः, तथा पुरुषवैरेण च स्पृष्टः, मारितपुरुषवैरभावेन' किम्भूतेनेत्याह--आसन्नो वधो यस्माद्वैरात्तत्तथा तेनासन्नवधकेन भवति च वैराद् वध वधकस्य तमेव वध्यमाश्रित्यान्यतो वा तत्रैव जन्मनि जन्मान्तरे वा, यदाह "वहमारण अब्भक्खाणदाणपरधणविलोवणाईणं । सव्वजत्रो उदओ दसगुणिओ एक्कसिकयाणं ।। " ति । ‘चः’ समुच्चयेऽनवकांक्षणा–परप्राणनिरपेक्षा स्वगतापायपरिहारनिरपेक्षा वा वृत्तिः - वर्त्तनं यत्रैव वैरे तत्तथा तेनानवकांक्षणवृत्तिकेनेति । क्रियाधिकार एवेदमाह १ । ३७३. ‘सरिसय'त्ति सदृशकौ कौशलप्रमाणादिना 'सरित्तय'त्ति 'सदृक्त्वचौ' सदृशच्छवी 'सरिव्वय' त्ति सदृग्वयसौ समानयौवनाद्यवस्थौ 'सरिसभंडमत्तोवगरण' ति भाण्डं - भाजनं मृन्मयादि, मात्रो - मात्रया युक्त उपधिः स च कांस्यभाजनादिभोजनभण्डिका, भाण्डमात्रा वा — गणिमादिद्रव्यरूपः परिच्छदः, उपकरणानि – अनेकधाऽऽवरणप्रहरणादीनि ततः सदृशानि भाण्डमात्रोपकरणानि ययोस्तौ तथा । अनेन च समानविभूतिकत्वं तयोरभिहितं । 'सवीरिए' त्ति सवीर्यः । १ । ३७४. 'वीरियवज्झाइं ति वीर्यं वध्यं येषां तानि तथा । वीर्यप्रस्तावादिदमाह १।३७५. 'जीवा णमित्यादि । १ । ३७६. ‘सिद्धा णं अवीरियत्ति सकरणवीर्याभावादवीर्याः सिद्धाः, 'सेलेसिपडिवन्नगा यत्ति शीलेशः - सर्वसंवररूपचरणप्रभुस्तस्येयमवस्था शैलेशी । शैलेशो वा — मेरुस्तस्येव याऽवस्था स्थिरतासाधर्म्यात् सा शैलेशी । सा च सर्वथा योगनिरोधे पञ्चह्नस्वाक्षरोच्चारकालमाना तां प्रतिपन्नका ये ते तथा। 'लद्धिवीरिएणं सवीरिय’'त्ति वीर्यान्तरायक्षय क्षयोपशमतो या वीर्यस्य लब्धिः सैव तद्हेतुत्वाद् वीर्यं लब्धिवीर्यं तेन सवीर्याः । एतेषां च क्षायिकमेव लब्धिवीर्यं। 'करणवीरिएणं' ति लब्धिवीर्यकार्यभूता क्रिया करणं तद्रूपं करणवीयें। 'करणवीरिएणं सवीरियावि अवीरियावित्ति तत्र 'सवीर्याः, उत्थानादिक्रियावन्तः अवीर्यास्तूत्थानादिक्रियाविकलाः, ते चापर्याप्त्यादिकालेऽवगन्तव्या इति । १ । ३८०. ‘नवरं सिद्धवज्जा भाणियव्व 'त्ति औधिकजीवेषु सिद्धाः सन्ति मनुष्येषु तु ते नेति, मनुष्यदण्डके वीर्यं प्रति सिद्धस्वरूपं नाध्येयमिति । ।। प्रथमशते अष्टमोद्देशकः ॥ नवम उद्देशकः अष्टमोद्देशकान्ते वीर्यमुक्तं, वीर्याच्च जीवा गुरुत्वाद्यासादयन्तीति गुरुत्वादिप्रतिपादनपरः तथा संग्रहण्यां यदुक्तं 'गरुए 'त्ति तव्प्रतिपादनपरश्च नवमोद्देशकः, तत्र च सूत्रम् १ । ३ ८४. ‘कहण्ण’मित्यादि, ‘गरुयत्तं'ति 'गुरुकत्वम्' अशुभकर्मोपचयरूपमधस्ताद्गमनहेतुभूतं 'लघुकत्वं' गौरवविपरीतम् । १ । ३ ८६ . ‘एवम् आउलीकरेंति त्ति इहैवंशब्दः पूर्वोक्ताभिलापसंसूचनार्थः स चैवम् 'कहण्णं भंते ! जीवा संसारं आउलीकरेंति ? गोयमा ! पाणाइवाएण'मित्यादि, एवमुत्तरत्रापि, तत्र 'आउलीकरेति' प्रचुरीकुर्वन्ति कर्मभिरित्यर्थः । १ । ३८७. 'परित्तीकरेंति' त्ति स्तोकं कुर्वन्ति कर्मभिरेव । १। ३८८. 'दीहीकरेंति 'त्ति दीर्घं प्रचुरकालमित्यर्थः । १ । ३८६. 'हस्सीकरेंति 'त्ति अल्पकालमित्यर्थः । १ । ३६०. 'अणुपरियट्टेति त्ति पौनःपुन्येन भ्रमन्तीत्यर्थः । १ । ३६१. 'वीइवयंति 'त्ति व्यतिव्रजन्ति व्यतिक्रामन्तीत्यर्थः । 'पसत्था चत्तारि 'त्ति लघुत्वपरीतत्वह्रस्वत्वव्यतिव्रजनदण्डकाः प्रशस्ताः मोक्षांगत्वात्, 'अप्पसत्था चत्तारि 'त्ति गुरुत्वाकुलत्वदीर्घत्वानुपरिवर्त्तनदण्डका अप्रशस्ताः अमोक्षांगत्वादिति । गुरुत्वलघुत्वाधिकारादिदमाह– १ । ३६३. 'सत्तमे ण' मित्यादि, इह चेयं १. वैरिभावेन क. ख. घ. छ. गुरुलघुव्यवस्था "निच्छयओ सव्वगुरुं सब्बलहुं वा न विजए दव्वं । ववहारओ उ जुज्जइ बायरखंधेसु नऽण्णेसु । ” २. यत्र ख. ग. च. छ. Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १: उ.६: सू. ३६३-४१६ १।३६८. १ । ३६६. १।४११. १ । ४१२. ११४१३. १।४१५. १ । ४१७. ३६० अगुरुलहू चउफासो अविदव्या य होंति नायव्वा । सेसा उ अट्ठफासा गुरुलहुया निच्छयणयस्स || " १ । ४००-४०३. ‘धम्मत्थिकाए 'त्ति इह यावत्करणाद् 'अहम्मत्थिकाए आगासत्थिकाए त्ति दृश्यं 'चउत्थपएणं' ति एते 'अगुरुलहु' इत्यनेन पदेन वाच्याः । शेषाणां तु निषेधः कार्यो, धर्मास्तिकायादीनामरूपितयाऽगुरुलघुत्वादिति । १।४१६. 'चउफास' त्ति सूक्ष्मपरिणामानि 'अट्ठफास 'त्ति बादराणि । गुरुलघुद्रव्यं रूपि, अगुरुलघुद्रव्यं त्वरूपि रूपि चेति । व्यवहारतस्तु गुर्वादीनि चत्वार्यपि सन्ति, तत्र च निदर्शनानि - गुरुर्लोष्टोऽधोगमानत्, लघुधूमः उर्ध्वगमनात्, गुरुलघुर्वायुस्तिर्यग्गमनात्, अगुरुलघ्वाकाशं तत्स्वभावत्वादिति । एतानि चावकाशान्तरादिसूत्राण्येतद्गाथाऽनुसारेणावगन्तव्यानि तद्यथा- १ । ४०४,४०५. पुद्गलास्तिकायसूत्रे उत्तरं निश्चयनयाश्रयम्, एकान्तगुरुलघुनोस्तन्मतेनाभावात् । 'गुरुलहुयदव्वाइं' ति औदारिकादीनि चत्वारि 'अगुरुलहुयदव्वाई' ति कार्मणादीनि । १। ४०६,४०७. ‘समया कम्माणि य चउत्थपएणं ति समयाः - अमूर्त्ताः कर्माणि च - कार्मणवर्गणात्मकानीत्यगुरुलघुत्वमेषां । 9180€. “ओवासवायघणउदहीपुढविदीवा य सागरा वासा। नेरइयाई अत्थि य समया कम्माइ लेसाओ || दिट्टी दंसणणाणे सण्ण सरीरा य जोग उवओगे। दब्बपएसा पज्जव तीयाआगामिसब्बद्ध || " त्ति । ‘वेउव्वियतेयाइं पडुच्च’त्ति नारका वैक्रियतैजसशरीरे प्रतीत्य गुरुकलघुका एव । यतो वैक्रियतैजसवर्गणात्मके ते, एताश्च गुरुलघुका एव, यदाह भगवती वृत्ति " ओरालियवेउब्वियाहारगतेय गुरुलहू दब्बं" त्ति । 'जीवं च कम्मगं च पडुच 'त्ति जीवापेक्षया कार्मणशरीरापेक्षया च नारका अगुरुलघुका एव जीवस्यारूपित्वेनागुरुलघुत्वात् कार्मणशरीरस्य च कार्मणवर्गणात्मकत्वात् कार्मणवर्गणानां चागुरुलघुत्वात् आह च "कम्मगमणमासाई एयाई अगुरुलहुयाई” ति । 'णाणत्तं जाणियव्वं सरीरेहिं 'त्ति, यस्य यानि शरीराणि भवन्ति तस्य तानि ज्ञात्वाऽसुरादिसूत्राण्यध्येयानीतिहृदयम् । तत्रासुरादिदेवा नारकववाच्याः, पृथिव्यादयस्तु औदारिकतैजसे प्रतीत्य गुरुलघवो जीवं कार्मणं च प्रतीत्यागुरुलघवः इति । वायवस्तु औदारिकवैक्रियतैजसानि प्रतीत्य गुरुलघवः। एवं पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चोऽपि । मनुष्यास्त्वौदारिकवैक्रियतैजसाहारकाणि प्रतीत्येति । 'दव्वलेसं पडुच्च तइयपएणं' ति द्रव्यतः कृष्णलेश्या औदारिकादिशरीरवर्णः औदारिकादिकं च गुरुलध्वितिकृत्वा गुरुलघु इति अनेन तृतीयविकल्पेन व्यपदेश्या । भावलेश्या तु जीवपरिणतिस्तस्याश्चामूर्त्तत्वादगुरुलध्वित्यनेन व्यपदेश इत्यत आह-'भावलेस पहुच चउत्थपदेणं 'ति । 'दिट्ठीदंसणे 'त्यादि दृष्ट्यादीनि जीवपर्यायत्वेनागुरुलघुत्वादगुरुलघुलक्षणेन चतुर्थपदेन वाच्यानि । अज्ञानपदं त्विह ज्ञानविपक्षत्वादधीतम्, अन्यथा द्वारेषु ज्ञानपदमेव दृश्यते । 'हेट्ठिल्लए’त्ति औदारिकादीनि 'तइयपणं 'ति गुरुलघुपदेन गुरुलघुवर्गणात्मकत्वात् । 'कम्मयं चउत्थपणं ति अगुरुलघुद्रव्यात्मकत्वात् कार्मणशरीराणाम् । मनोयोगवाग्योगौ चतुर्थपदेन वाच्यौ तद्द्रव्याणामगुरुलघुत्वात् । काययोगः कार्मणवर्जस्तृतीयेन गुरुलघुत्वात्तद्द्रव्याणामिति । 'सव्वदव्वे'त्यादि 'सर्वद्रव्याणि' धर्मास्तिकायादीनि 'सर्वप्रदेशाः ' तेषामेव निर्विभागा अंशाः सर्वपर्यवाः वर्णोपयोगादयो द्रव्यधर्म्माः । एते पुद्गलास्तिकायवद् व्यपदेश्याः, गुरुलघुत्वेनागुरुलघुत्वेन चेत्यर्थः । यतः सूक्ष्माण्यमूर्त्तानि च द्रव्याण्यगुरुलघूनि, इतराणि तु गुरुलघूनि, प्रदेशपर्यवास्तु तत्तद्रव्यसम्बन्धित्वेन तत्तत्स्वभावा इति । गुरुलघुत्वाधिकारादिदमाह– 'से नूण' मित्यादि, 'लाघवियं ति लाघवमेव लाघविकम् - अल्पोपधिकम्, 'अपिच्छत्ति अल्पोऽभिलाष आहारादिषु 'अमुच्छ'त्ति उपधावसंरक्षणानुबन्ध:, 'अगेहि' त्ति भोजनादिषु परिभोगकालेऽनासक्तिः, अप्रतिबद्धता - स्वजनादिषु स्नेहाभाव इत्येतत्पंचकमिति गम्यम् । श्रमणानां निर्ग्रन्थानां 'प्रशस्तं' सुन्दरम् अथवा लाघविकं प्रशस्तं कथंभूतमित्याह - 'अप्पिच्छा' अल्पेच्छारूपमित्यर्थः एवमितराण्यपि पदानि । १. गुरुलघुका घ. च. उक्ता लाघविकस्य प्रशस्तता, तच्च क्रोधाद्यभावाविनाभूतमिति क्रोधादिदोषाभावाविनाभूतकांक्षाप्रदोषक्षयकार्याभिधानार्थं च क्रमेण सूत्रे, व्यक्ते च । नवरं— कांक्षा — दर्शनान्तरग्रहो गृद्धिर्वा सैव प्रकृष्टो दोषः कांक्षाप्रदोषः कांक्षाप्रद्वेषं वा रागद्वेषावित्यर्थः । कांक्षाप्रदोषः प्रागुक्तः, प्रदोषत्वं च कांक्षायास्तद्विषयभूतदर्शनान्तरस्य विपर्यस्तत्वादिति दर्शनान्तरस्य विपर्यस्ततां दर्शयन्नाह २. स्वरूप ख. ग. च. Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६१ भगवती वृत्ति श.१: उ.६: सू.४२०-४२६ ११४२०. 'अण्णउत्थिए'इत्यादि, अन्ययूथं-विवक्षितसंघादपरः संघस्तदस्ति येषां तेऽन्ययूथिकाः, तीर्थान्तरीया इत्यर्थः । 'एवम्'इति वक्ष्यमाणं 'आइक्खंति'त्ति आख्यान्ति सामान्यतः, 'भासंति'त्ति विशेषत; 'पण्णवेंति'त्ति उपपत्तिभिः, 'परूवेति'ति भेदकथनतः। द्वयोर्जीवयोरेकस्य वा समयभेदेनायुद्धयकरणे नास्ति विरोध इत्युक्तम्-'एगे जीवे इत्यादि 'दो आउयाई पकरेइ' त्ति जीवो हि स्वपर्यायसमूहात्मकः, स च यदैकमायुःपर्याय करोति तदाऽन्यमपि करोति, स्वपर्यायत्वात्, ज्ञानसम्यक्त्वपर्यायवत् । स्वपर्यायकर्तृत्वं च जीवस्याभ्युपगन्तव्यमेव, अन्यथा सिद्धत्वादिपर्यायाणामनुत्पादप्रसंग इति भावः । उक्तार्थस्यैव भावनार्थमाह-'जमि'त्यादि विभक्तिविपरिणामाद्' यस्मिन् समये इहभवो-वर्तमानभवो यत्रायुषि विद्यते फलतयैतदिहभवायुः, एवं परभवायुरपि, अनेन चेहभवायुःकरणसमये परभवायुःकरणं नियमितम् । अथ परभवायुःकरणसमये इहभवायुःकरणं नियमयन्नाह–'जं समय' परभवियाउयमित्यादि, एवमेकसमयकार्यतां द्वयोरप्यभिधायैकक्रिया कार्यतामाह-'इहभवियाउस्से'त्यादि ‘पकरणयाए'त्ति करणेन ‘एवं खलु'इत्यादि निगमनम्। १।४२१. 'जण्णं ते अपणउत्थिया एवमाइक्खंती'त्याद्यनुवादवाक्यस्यान्ते तत् प्रतीतं न केवलमित्ययं वाक्यशेषो दृश्यः । जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु'त्ति तत्र 'आहंसु' त्ति उक्तवन्तः यच्चार्य वर्तमाननिर्देशेऽधिकृतेऽतीतनिर्देशः स सर्वो वर्तमानः कालोऽतीतो भवतीत्यस्यार्थस्य ज्ञापनार्थः । मिथ्यात्वं चास्यैवम्-एकनाध्यवसायेन विरुद्धयोरायुषोर्बन्धायोगात् । यच्चोच्यते-पर्यायान्तरकरणे पर्यायान्तरं करोति, स्वपर्यायत्वादिति । तदनैकान्तिकं सिद्धत्वकरणे संसारित्वाकरणादिति। टीकाकारव्याख्यानं त्विहभवायुर्यदा प्रकरोति-वेदयते इत्यर्थः परभवायुस्तदा प्रकरोति बधातीत्यर्थः । इहभवायुरुपभोगेन परभवायुर्बध्नाति इत्यर्थः । मिथ्या चैतत्परमतं, यस्माजातमात्रो जीव इहभवायुर्वेदयते, तदैव तेन यदि परभवायुर्बद्धं तदा दानाध्ययनादीनां वैयर्थ्यं स्यादिति । एतच्चायुर्बन्धकालादन्यत्रावसेयम् । अन्यथाऽऽयुर्बन्धकाले इहभवायुर्वेदयते परभवायुस्तु प्रकरीत्येवेति । अन्ययूथिकप्रस्तावादिदमाह११४२३. 'तेण मित्यादि, 'पासावच्चिज्जेत्ति पाश्र्थापत्यानां-पार्धजिनशिष्याणामयं पाश्र्थापत्यीयः । 'थेरे'त्ति श्रीमन्महावीरजिनशिष्याः श्रुतवृद्धाः 'सामाइयंति समभावरूपं 'न याणंति'त्ति न जानन्ति, सूक्ष्मत्वात्तस्य। 'सामाइयस्स अटुं'त्ति प्रयोजनं कर्मानुपादाननिर्जरणरूपम्। 'पञ्चक्खाणं'ति पौरुष्यादिनियम, तदर्थं च आश्रवद्वारनिरोधम् । 'संजमं'ति पृथिव्यादिसंरक्षणलक्षणं, तदर्थंच-अनाश्रवत्वं । 'संवरं' ति इन्द्रियनोइंद्रियनिवर्त्तनं, तदर्थं तु अनाश्रवत्वमेव । 'विवेगं'ति विशिष्टबोधं, तदर्थं च-त्याज्यत्यागादिकं 'विउस्सग्गं'ति व्युत्सर्ग कायादीनां तदर्थं चानभिष्वंगताम् । ११४२४.अज्जो !'त्ति हे आर्य! ओकारांतता सम्बोधने प्राकृतत्वात् । १।४२५. किं भे'त्ति किं भवतामित्यर्थः। ११४२६. 'आया णे'त्ति आत्मा न:-अस्माकं मते सामायिकमिति, यदाह "जीवो गुणपडिवण्णो नयस्स दबडियस्स सामाइयं" ति। सामायिकार्थोऽपि जीव एव, कर्मानुपादानादीनां जीवगुणत्वात् जीवाव्यतिरिक्तत्वाच्च तद्गुणानामिति । एवं प्रत्याख्यानाद्यप्यवगन्तव्यम् । ११४२७. 'जइ भे अज्जो !'त्ति यदि भवतां हे आर्याः! स्थविराः सामाविकमात्मा तदा 'अवहट्टत्ति अपहृत्य त्यक्त्वा क्रोधादीन किमर्थं गर्हध्वे ? 'निन्दामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि'इति वचनात् क्रोधादीनेव अथवा 'अवज्ज'मिति गम्यते, अयमभिप्रायः यः सामायिकवान् त्यक्तक्रोधादिश्च स कथं किमपि निन्दति ? निन्दा हि किल द्वेषसम्भवेति । अत्रोत्तरं-संयमार्थमिति, अवघे गर्हिते संयमो भवति, अवद्यानुमतेर्व्यवच्छेदनात् । तथा११४२८. गर्दा संयमः तद्हेतुत्वात्, न केवलमसौ गर्दा कर्मानुपादानहेतुत्वात्संयमो भवति, 'गरहावि' त्ति गर्दैव च सर्वं 'दोस' ति दोषं-रागादिकं पूर्वकृतं पापं वा द्वेषं वा 'प्रविनयति' क्षपयति, किं कृत्वा ? इत्याह-सव्वं बालियं' ति बाल्यं-बालतां मिथ्यात्वमविरतिं च ‘परिण्णाए त्ति ‘परिज्ञाय' ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया च प्रत्याख्यायेति । इह च गर्हायास्तद्वतश्चाभेदादेककर्तृकत्वेन परिज्ञायेत्यत्र क्त्वाप्रत्ययविधिरदुष्ट इति। 'एवं खु' त्ति एवमेव 'णे' इत्यस्माकम् 'आया संजमे उवहिए'त्ति उपहितः प्रक्षिप्तो न्यस्तो भवति, अथवाऽऽत्मरूपः संयमः 'उपहितः' प्राप्तो भवति । 'आया संजमे उवचिए' ति आत्मा संयमविषये पुष्टो भवति, आत्मरूपो वा संयम उपचितो भवति। 'उवहिए'त्ति 'उपस्थितः' अत्यन्तावस्थायी। १।४२६. 'एएसि णं भंते ! पयाणं' इत्यस्य 'अदिवाण मित्यादिना सम्बन्धः । कथमदृष्टानामित्याह 'अन्नाणयाए'त्ति अज्ञानो-निनिस्तस्य भावोऽज्ञानता तयाऽज्ञानतया स्वरूपेणानुपलम्भादित्यर्थः । एतदेव कथमित्याह–'असवणयाए'त्ति अश्रवण:-श्रुतिवर्जितस्तद्भावस्तत्ता तया, 'अबोहीए' त्ति अबोधिः-जिनधर्मानवाप्तिः, इह तु प्रक्रमान्महावीरजिनधर्मानवाप्तिस्तया, अथवौत्पत्तिक्यादिबुद्ध्यभावेन, 'अणभिगमेणं'ति विस्तारबोधाभावेन हेतुना, 'अदृष्टानां' साक्षात्स्वयमनुपलब्धानाम्, 'अश्रुतानाम्' अन्यतोऽनाकर्णितानाम्, 'अस्सुयाण'ति 'अस्मृतानां' दर्शनाकर्णनाभावेनाननुध्यातानाम्, अत एव 'अविज्ञातानां' विशिष्टबोधाविषयीकृतानाम्, एतदेव कुत इत्याह-'अब्बोकडाणं' ति अव्याकृतानां विशेषतो गुरुभिरनाख्यातानाम्, 'अव्वोच्छिण्णाणं'ति विपक्षादव्यवच्छेदितानाम्, 'अनिजूढाणं'ति महतो ग्रन्थात्सुखावबोधाय संक्षेपनिमित्तमनुग्रहपरगुरुभिरनुद्धतानाम्, अत एवास्माभिः 'अनुपधारितानाम्' अनवधारितानाम् 'एयमढे'त्ति एवं प्रकारोऽर्थः अथवाऽयमर्थः 'नो सद्दहिए'त्ति न द्धितः, 'नो पत्तिए'त्ति 'नो' नैव 'पत्तियं' ति प्रीतिरुच्यते तद्योगात् 'पत्तिए' प्रीतः-प्रीतिविषयीकृतः, अथवा न प्रीतितः न प्रत्ययितो वा हेतुभिः, 'नो रोइए'त्ति न चिकीर्षितः । 'एवमेयं से जहेयं तुब्मे वयह'त्ति अथ यथैतद्वस्तु यूयं वदथ एवमेतद्वस्त्विति भावः । ३. प्रतीतः ग. च. छ. १. परिणामात् ख. ग. घ. च. छ. २.प्रभवेति ग. च. Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति श. १: उ.६, १०: सू.४३१-४४२ ३६२ १। ४३१. 'चाउज्जामाउ'त्ति चतुर्महाव्रतातु पार्श्वनाथजिनस्य हि चत्वारि महाव्रतानि । नापरिगृहीता स्त्री भुज्यते इति मैथुनस्य परिग्रहेऽन्तर्भावादिति । 'सपडिक्कमणं'ति पार्श्वनाथधर्मो हि अप्रतिक्रमणः, कारण एव प्रतिक्रमणकरणादन्यथा त्वकरणात्। महावीरजिनस्य तु सप्रतिक्रमणः कारणं विनाऽप्यवश्यं प्रतिक्रमणकरणादिति । 'देवाणुप्पिय'त्ति प्रियामंत्रण 'मा पडिबंधं' ति मा व्याघातं कुरुष्वेति गम्यम् । १। ४३३. 'मुंडभावे 'त्ति मुंडभावो - दीक्षितत्वं, 'फलगसेज्जं त्ति प्रतलायतविष्कम्भवत् काष्ठरूपा, 'कट्टसेज्जं त्ति असंस्कृतकाष्ठशयनं, कष्टशय्या वाऽमनोज्ञा वसतिः, 'लद्धाबलद्धी 'त्ति लब्धं च - लाभोऽपलब्धिश्च - अलाभोऽपरिपूर्णलाभो वा लब्धापलब्धि:, 'उच्चावय'त्ति उच्चावचाः अनुकूलप्रतिकूला असमंजसावा, 'गामकंटय'त्ति ग्रामस्य - इन्द्रियसमूहस्य कण्टका इव कण्टका - बाधकाः शत्रवो वा ग्रामकण्टकाः, क एते इत्याह-- ' बावीसं परीसहोवसग्ग'त्ति परीषहाः –— क्षुदादयस्त एवोपसर्गा - उपसर्जनात् धर्मभ्रंशनात् परीषहोपसर्गाः, अथवा द्वाविंशतिपरीषहाः, तथा उपसर्गादिव्यादयः । कालस्यवैशिकपुत्रः प्रत्याख्यानक्रियया सिद्ध इति तद्विपर्ययभूताप्रत्याख्यानक्रियानिरूपणसूत्रम् १। ४३४. ‘भंते’इत्यादि, तत्र ‘'भंते 'त्ति हे भदन्त ! 'इति' एवमामंत्र्येति शेषः, अथवा भदन्त ! इतिकृत्वा, गुरुरितिकृत्वेत्यर्थः, 'सेट्ठियरस' त्ति श्रीदेवताऽध्यासितसौवर्णपट्टविभूषितशिरोवेष्टनोपेतपौरजननायकस्य 'तणुयस्स'त्ति दरिद्रस्य 'किवणस्स 'त्ति रंकस्य 'खत्तियस्स' त्ति राज्ञः 'अपच्चक्खाणकिरिय'त्ति प्रत्याख्यानक्रियाया अभावोऽप्रत्याख्यानजन्यो वा कर्मबन्धः । १। ४३५. 'अविरइं'ति इच्छाया अनिवृत्तिः सा हि सर्वेषां समैवेति । अप्रत्याख्यानक्रियायाः हि प्रस्तावादिदमाह - १ । ४३६. ‘आहाकम्म’मित्यादि आधया - साधुप्रणिधानेन यत् सचेतनमचेतनं क्रियते, अचेतनं वा पच्यते चीयते वा गृहादिकं व्यूयते' वा वस्त्रादिकं तदाधाकर्म 'किं बंधइ' त्ति प्रकृतिबन्धमाश्रित्य स्पृष्टावस्थापेक्षया वा 'किं पकरेइ' त्ति स्थितिबन्धापेक्षया बद्धावस्थापेक्षया वा 'किं चिणाइ'त्ति अनुभागबन्धापेक्षया निधत्तावस्थाsपेक्षया वा 'किं उवचिणाइ'त्ति प्रदेशबन्धापेक्षया निकाचनापेक्षया वेति । १। ४३७ 'आयाए'त्ति आत्मना धर्मं चारित्रधर्मं श्रुतधर्मं वा 'पुढविकायं नावकखइत्ति नापेक्षते, नानुकम्पत इत्यर्थः । १। ४३८. आधाकर्मविपक्षश्च प्रासुकैषणीयमिति प्रासुकैषणीयसूत्रम् । अनन्तरसूत्रे संसारव्यतिव्रजनमुक्तं तच्च कर्मणोऽस्थिरतया प्रलोटने सति भवतीत्यस्थिरसूत्रम् १। ४४०. तत्र ‘अथिरे'त्ति अस्थासु द्रव्यं लोष्टादि 'प्रलोटति' परिवर्तते, अध्यात्मचिन्तायामस्थिरं कर्म तस्य जीवप्रदेशेभ्यः प्रतिसमयचलनेनास्थिरत्वात् 'प्रलोटयति' बन्धोदयनिर्जरणादिपरिणामैः परिवर्तेते । 'स्थिर' शिलादि न प्रलोटयति, अध्यात्मचिन्तायां तु स्थिरो जीवः, कर्मक्षयेऽपि तस्यावस्थितत्वात्, नासौ 'प्रलोटयति' उपयोगलक्षणस्वभावान्न परिवर्तते । तथा अस्थिरं भंगुरस्वभावं तृणादि 'भज्यते' विदलयति, अध्यात्मचिन्तायामस्थिरं कर्म तद् भज्यते व्यपैति । तथा 'स्थिरं ' अभंगुरमयः शलाकादि न भज्यते, अध्यात्मचिन्तायां स्थिरो जीवः स च न भज्यते शाश्वतत्वादिति । जीवप्रस्तावादिदमाह--'सासए बालए 'त्ति बालको व्यवहारतः शिशुर्निश्चयतोऽसंयतो जीवः स च शाश्वतो द्रव्यत्वात्, 'बालियत्तं 'ति इहेकप्रत्ययस्य स्वार्थिकत्वाद् बालत्वं व्यवहारतः शिशुत्वं निश्चयतस्त्वसंयतत्वं तच्चाशाश्वतं पर्यायत्वादिति । एवं पण्डितसूत्रमपि, नवरं पण्डितो व्यवहारेण शास्त्रज्ञो जीवः निश्चयतस्तु संयत इति ॥ अनन्तरोद्देशकेऽस्थिरं कर्मेत्युक्तं, कर्मादिषु च कुतीर्थिका विप्रतिपद्यन्ते अतस्तद्विप्रतिपत्तिनिरासप्रतिपादनार्थः तथा संग्रहण्यां 'चलणाउ'त्ति यदुक्तं तत्प्रतिपादनार्थश्च दशमोद्देशको व्याख्यायते, तत्र च सूत्रम् — ॥ प्रथमशते नवमोद्देशकः ॥ दशम उद्देशकः १ । ४४२. ‘अण्णउत्थिया ण’मित्यादि, 'चलमाणे अचलिए 'त्ति चलत्कर्माचलितं, चलता तेन चलितकार्याकरणात्, वर्त्तमानस्य चातीततया व्यपदेष्टुमशक्यत्वात्, एवमन्यत्रापि वाच्यमिति । 'एगयओ न साहण्णंति'त्ति एकत एकत्वेनैकस्कन्धतयेत्यर्थः 'न संहन्येते' न संहतौ-मिलितौ स्याताम् । 'नत्थि सिणेहकाए 'त्ति स्नेहपर्यवराशिर्नास्ति, सूक्ष्मत्वात् त्र्यादियोगे तु स्थूलत्वात्सोऽस्ति । 'दुक्खत्ताए कञ्जति त्ति पञ्च पुद्गलाः संहत्य दुःखतया - कर्मतया क्रियन्ते, भवन्तीत्यर्थः, 'दुक्खेऽवि यति कर्मापि च 'सेत्ति तत् शाश्वतमनादित्वात् 'सय'त्ति सर्वदा 'समियं 'ति सम्यक् सपरिमाणं वा 'चीयते चयं याति ‘अपचीयते' अपचयं याति । तथा 'पुव्वं 'ति भाषणात् प्राक् 'भास' त्ति वाकद्रव्यसंहतिः 'भास'त्ति सत्यादिभाषा स्यात्, तत्कारणत्वात् विभंगज्ञानित्वेन वा तेषां मतमात्रमेतत् निरुपपत्तिकमुन्मत्तकवचनवदतो नेहोपपत्तिरत्यर्थं गवेषणीया, एवं सर्वत्रापीति, तथा 'भासिजमाणी भासा अभास 'त्ति निसृज्यमाणवाद्रव्याणि अभाषा, वर्त्तमानसमयस्यातिसूक्ष्मत्वेन व्यवहारानङ्गत्वादिति, 'भासासमयविइक्कतं च णं ति इह क्तप्रत्ययस्य भावार्थत्वाद् विभक्तिविपरिणामाच्च' भाषासमयव्यतिक्रमे च 'भासिय'त्ति निसृष्टा सती भाषा भवति, प्रतिपाद्यस्याभिधेये' प्रत्ययोत्पादकत्वादिति, - 'अभासओ णं भास'त्ति अभाषमाणस्य भाषा भाषणात्पूर्वं पश्चाच्च तदभ्युपगमात्, 'नो खलु भासओ' त्ति भाष्यमाणायास्तस्या अनभ्युपगमादिति । १. X क. च. २. ऊयते ख. ग. च. छ. ३. प्रलोटयति ग. ४. परिणामाच्च ख. ग. घ. च. छ. ५. अभिधेये ख. ग. घ. छ. Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ३६३ श. १: उ.१०: सू.४४२-४४३ तथा - 'पुव्वं किरिए 'त्यादि, क्रिया कायिक्यादिका सा यावन्न क्रियते तावत् 'दुःख' ति दुःखहेतुः । 'कज्जमाणि' त्ति क्रियमाणा क्रिया 'न दुक्खा' न दुक्खहेतुः क्रियासमयव्यतिक्रान्तं च क्रियायाः क्रियमाणताव्यतिक्रमे च कृता सती क्रिया दुःखेति । इदमपि तन्मतमात्रमेव निरुपपत्तिकम् । अथवा पूर्वं क्रिया दुःखा, अनभ्यासात् । क्रियमाणा क्रिया न दुःखा, अभ्यासात् । कृता क्रिया दुःखा, अनुतापश्रमादेः । 'करणओ दुक्ख 'त्ति करणमाश्रित्य करणकाले कुर्वत इत्यर्थः । 'अकरणओ दुक्ख त्ति अकरणमाश्रित्याकुर्वत इति यावत् । 'नो खलु सा करणओ दुक्ख त्ति अक्रियमाणत्वे दुःखतया तस्या अभ्युपगमात् । ' सेवं वत्तव्वं सिया' अथैवं पूर्वोक्तं वस्तु वक्तव्यं स्यादुपपन्नत्वादस्येति । अथान्ययूथिकान्तरमतमाह-'अकृत्यम्' अनागतकालापेक्षयाऽनिर्वर्त्तनीयं जीवैरिति गम्यं 'दुक्खम्' असातं तत्कारणं वा कर्म, तथाऽकृतत्वादेवास्पृश्यम् — अबन्धनीयं तथा क्रियमाणं वर्त्तमानकाले कृतं चातीतकाले तन्निषेधादक्रियमाणकृतं । कालत्रयेऽपि कर्मणो बन्धनिषेधाद् अकृत्वाऽकृत्वा, आभीक्ष्ण्ये द्विर्वचनं, दुःखमिति प्रकृतमेव, के ? इत्याह-प्राणभूतजीवसत्त्वाः, प्राणादिलक्षणं चेदम् "प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः, भूतास्तु तरवः स्मृताः । जीवाः पञ्चेन्द्रिया ज्ञेयाः, शेषाः सत्त्वा उदीरिताः ॥ " 'वेयणं' ति शुभाशुभकर्म्मवेदनां पीडां वा 'वेदयन्ति' अनुभवन्ति इत्येतद्वक्तव्यं स्यात्, एतस्यैवोपपद्यमानत्वाद्, यादृच्छिकं हि सर्वं लोके सुखदुःखमिति, यदाह--- "अतर्कितोपस्थितमेव सर्वं, चित्रं जनानां सुखदुःखजातम् । काकस्य तालेन यथाऽभिघातो, न बुद्धिपूर्वोऽत्र वृवाऽभिमानः ॥” १ । ४४३. ‘से कहमेयं'ति अथ कथमेतद् भदन्त ! 'एवम् ?' अन्ययूथिकोक्तन्यायेन ? इति प्रश्नः । 'जं णं अण्णउत्थिया' इत्याद्युत्तरं । व्याख्या चास्य प्राग्वत् । मिथ्या चैतदेवं यदि चलदेव प्रथमसमये चलितं न भवेत्तदा द्वितियादिष्वपि तदचलितमेवेति न कदाचनापि चलेत्, अत एव वर्त्तमानस्यापि विवक्षयाऽतीतत्वं न विरुध्दम् । एतच्च प्रागेव निर्णीतमिति न पुनरुच्यते । यच्चोच्यते-चलितकार्याकरणादचलितमेवेति, तदयुक्तं, यतः प्रतिक्षणमुत्पद्यमानेषु स्थासकोशादिवस्तुष्वन्त्यक्षणभावि वस्तु आद्यक्षणे स्वकार्यं न करोत्येव, असत्त्वाद् । अतो यदन्त्यसमयचलितं कार्यं विवक्षितं परेण तदाद्यसमयचलितं यदि न करोति तदा क इव दोषोऽत्र ? कारणानां स्वस्वकार्यकरणस्वभावत्वादिति । यच्चोक्तं- द्वौ परमाणू न संहन्येते, सूक्ष्मतया स्नेहाभावात्, तदयुक्तम्, एकस्यापि परमाणोः स्नेहसंभवात्, सार्द्धपुद्गलस्य संहतत्वेन तैरेवाभ्युपगमाच्च, यत उक्तम्- 'तिणि परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति ते भिमाणा दुहावि तहावि कजति, दुहा कजमाणा एगओ दिवडे त्ति, अनेन हि सार्द्धपुद्गलस्य संहतत्वाभ्युपगमेन तस्य स्नेहोऽभ्युपगत एवेत्यतः कथं परमाण्वोः स्नेहाभावेन संघाताभाव इति । यच्चोक्तम् — एकतः सार्द्ध एकतः सार्द्ध इति, एतदप्यचारु, परमाणोरद्धकरणे परमाणुत्वाभावप्रसंगात् । तथा यदुक्तं - पंच पुद्गलाः संहताः कर्मतया भवन्ति, तदप्यसंगतं कर्मणोऽनन्तपरमाणुतयाऽनन्तस्कन्धरूपत्वात्, पञ्चाणुकस्य च स्कन्धमात्रत्वात्, तथा कर्म जीवावरणस्वभावमिष्यते, तच्च कथं पञ्चपरमाणुस्कन्धमात्ररूपं सदसंख्यातप्रदेशात्मकं जीवमावृणुयादिति । तथा यदुक्तं कर्म च शाश्वतं तदपि असमीचीनं, कर्म्मणः शाश्वतत्वे क्षयोपशमाद्यभावेन ज्ञानादीनां हानेरुत्कर्षस्य चाभावप्रसंगात् । दृश्यते च ज्ञानादिहानिवृद्धी । तथा यदुक्तं कर्म सदा चीयतेऽपचीयते चेति तदप्येकान्तशाश्वतत्वे नोपपद्यत इति । यच्चोक्तं- भाषणात्पूर्वं भाषा, तद्धेतुत्वाद्, तदयुक्तमेव, औपचारिकत्वात्, उपचारस्य च तत्त्वतोऽवस्तुत्वाद् । किं च- उपचारस्तात्त्विके वस्तुनि सति भवतीति तात्त्विकी भाषाऽस्तीति सिद्धम् । यच्चोक्तं-भाष्यमाणाऽभाषा, वर्त्तमानसमयस्याव्यावहारिकत्वात् । तदप्यसम्यग् वर्तमानसमयस्यैवास्तित्वेन व्यवहारांगत्वाद् अतीतानागतयोश्च विनानुत्पन्नतयाऽसत्त्वेन व्यवहारानंगत्वादिति, यच्चोक्तं-भाषासमयेत्यादि, तदप्यसाधु, भाष्यमाणभाषाया अभावे भाषासमय इत्यस्याप्यभिलापस्याभावप्रसंगात् । यश्च प्रतिपाद्यस्याभिधेये प्रत्ययोत्पादकत्वादिति हेतुः सोऽनैकान्तिकः, करादिचेष्टानामभिधेयप्रतिपादकत्वे सत्यपि भाषात्वासिद्धेः । तथा यदुक्तम्- अभाषकस्य भाषेति, तदसंगततरम्, एवं हि सिद्धस्याचेतनस्य वा भाषाप्राप्तिप्रसंग इति । एवं क्रियाऽपि वर्त्तमानकाल एव युक्ता, तस्यैव सत्त्वादिति । यच्चानभ्यासादिकं कारणमुक्तं तच्चानैकान्तिकम् । अनभ्यासादावपि यतः काचित्सुखादिरूपैव । तथा यदुक्तम्- अकरणतः क्रिया दुःखेति, तदपि प्रतीतिबाधितं यतः करणकाल एव क्रिया दुःखा वा सुखा वा दृश्यते, न पुनः पूर्वं पश्चाद् वा तदसत्त्वादिति । तथा यदुक्तम्—'अकिच्चमित्यादि यदृच्छावादिमताश्रयणात्, तदप्यसाधीयो, यतो यद्यकरणादेव कर्म दुःखं सुखं वा स्यात् तदा विविधैहिकपारलौकिकानुष्ठानाभावप्रसंगः स्यात्, अभ्युपगतं च किंचित्पारलौकिकानुष्ठानं तैरपि चेति, एवमेतत्सर्वमज्ञानविजृम्भितम् । उक्तं च वृद्धैः 1 "परतित्थियक्त्तव्वय पढमसए दसमयंमि उद्देसे । विभंगीणादेसा मइमेया वावि सा सव्वा ।। सम्भूयमसब्भूय भंगा चत्तारि होंति विब्भंगे । उम्मत्तवायसरिसं तो अण्णाणंति निद्दि ।। " सद्भूते - परमाणौ असद्भूतं - अर्धादि, असद्भूते - सर्वगात्मनि सद्भूतं चैतन्यं, सद्भूते - परमाणौ सद्भूतं निष्प्रदेशत्वम्, असद्भूते - सर्वगात्मनि असदुद्भूतं कर्तृत्वमिति । 'अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामीत्यादि तु प्रतीतार्थमेवेति । नवरं 'दोहं परमाणुपोग्गलाणं अस्थि सिणेहकाए 'त्ति एकस्यापि परमाणोः शीतोष्णस्त्रिग्धरूक्षस्पर्शानामन्यतरदविरुद्धं स्पर्शद्वयमेकदैवास्ति ततो द्वयोरपि तयोः स्निग्धत्वभावात् सेहकायोऽस्त्येव । ततश्च तौ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १: उ.१०: सू.४४३-४४७ ३६४ विषमस्नेहात्संहन्येते, इदं च परमतानुवृत्त्योक्तम्, अन्यथा रूक्षावपि रूक्षत्ववैषम्ये संहन्येते एव, यदाह" समनियाए बंघो न होइ समलुक्खयाए वि न होइ । मायनिक्खत्तणेण बन्धो उ खंघाणं ॥ " 'खंधेवि य णं से असासए'त्ति उपचयापचयिकत्वात्, अत एवाह - 'सया समियमित्यादि । । 'पुव्विं भाषा अभास 'त्ति भाष्यत इति भाषा भाषणाच्च पूर्वं न भाष्यते इति न भाषेति 'भासिजमाणी भासा भास 'त्ति शब्दार्थोपपत्तेः 'भासिया अभास 'त्ति शब्दार्थवियोगात् । 'पुव्विं किरिया अदुक्ख 'त्ति करणात्पूर्वं क्रियैव नास्तीत्यसत्त्वादेव च न दुःखा । सुखापि नासौ, असत्त्वादेव, केवलं परमतानुवृत्त्याऽदुःखेत्युक्तं 'जहा भास 'त्ति वचनात्। ‘कज्ज्रमाणी किरिया दुक्खा' सत्त्वात्, इहापि यत्क्रियमाणा क्रिया दुःखेत्युक्तं तत्परमतानुवृत्त्यैव, अन्यथा सुखा क्रियमाणैव क्रिया, तथा 'किरियासमयवितिक्कंतं च ण'मित्यादि दृश्यमिति । 'किच्चं दुक्ख’मित्यादि, अनेन च कर्म्मसत्ताऽवेदिता, प्रमाणसिद्धत्वादस्य, तथाहि - इह यदुद्वयोरिष्टशब्दादिविषयसुखसाधनसमेतयोरेकस्य दुःखलक्षणं फलमन्यस्येतरत् न तद्विशिष्टहेतुमन्तरेण संभाव्यते, कार्यत्वाद्, घटवत् । यश्चासौ विशिष्थे हेतुः स कर्मेति, आह च— पुनरप्यन्ययूथिकान्तरमतमुपदर्शयन्नाह— १। ४४४. ‘अण्णउत्थिया ण 'मित्यादि । तत्र च 'इरियावहियं ति ईर्या — गमनं तद्विषयः पन्था - मार्ग ईर्यापथस्तत्र भवा ऐर्यापथिकी, केवलकाययोगप्रत्ययः कर्मबन्ध इत्यर्थः । 'संप राइयं च त्ति संपरैति - परिभ्रमति प्राणी भवे एभिरिति संपरायाः कषायास्तप्रत्यया या सा साम्परायिकी, कषायहेतुकः कर्मबन्ध इत्यर्थः । ‘परउत्थियवत्तव्वं यव्वं 'ति इह सूत्रेऽन्ययूथिकवक्तव्यं स्वयमुच्चारणीयं ग्रन्थगौरवभयेनालिखितत्वात्तस्य, तच्चेदम्- 'जं समयं संपराइयं पकरेइ तं समयं इरियावहियं पकरेइ, इरियावहियापकरणयाए संपराइयं पकरेइ, संपराइयपकरणयाए इरियावहियं पकरेइ, एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेइ, तंजहा - इरियावहियं च संपराइयं चे 'ति । ‘ससमयवत्तव्वयाए णेयव्वं' सूत्रमिति गम्यं, सा चैवम्— " जो तुल्लसाहणाणं फले विसेसो ण सो विणा हे । कत्तणाओ गोयम ! घडो व्व हेऊ य से कम्मं ॥ " ति । १। ४४५. ‘से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा ! जन्नं ते अन्नउत्थिया एवमाइक्खंति जाव संपराइयं च जे ते एवमाहंसु मिच्छा ते एवमाहंसु, अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि४–एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एवं किरियं पकरेइ तंजहा' इत्यादि पूर्वोक्तानुसारेणाध्येयमिति । मिध्यात्वं चास्यैवम्ऐर्यापथिकी क्रियाऽकषायोदयप्रभवा इतरा तु कषायप्रभवेति कथमेकस्यैकदा तयोः संभवः ? विरोधादिति । अनन्तरं क्रियोक्ता, क्रियावतां चोत्पादो भवतीत्युत्पादविरहप्ररूपणायाह--- साचेयम् १ । ४४६. 'निरयगई 'त्यादि । १ । ४४७. 'वक्कंतीपयं 'ति व्युत्क्रान्तिः -- जीवानामुत्पादस्तदर्थं पदं - प्रकरणं व्युत्क्रान्तिपदं तच्च प्रज्ञापनायां षष्ठं, तच्चार्थलेशत एवं द्रष्टव्यं - पञ्चेन्द्रियतिर्यग्गतौ मनुष्यगतौ देवगतौ चोत्कर्षतो द्वादशमुहूर्त्ताः जघन्यतस्त्वेकसयम उत्पादविरह इति, तथा— तिर्यग्गतौ च विरहकालो यथा " चउवीसई मुहुत्ता १ सत्त अहोरत २ तह य पण्णरस३ । मासो य ४ दो य ५ चउरो ६ छम्मासा ७ विरहकालो उ ॥ भगवती वृत्ति उकोसो रयणासु सब्बासु जहण्णओ भवे समओ । एमेव व उब्वट्टण संखा पुण सुरवरा तुल्ला ॥ " " एगो य दो य तिण्णि य संखमसंखा व एगसमएणं । उववजंतेवइया उब्बतावि एमेव ॥" “ मिन्त्रमुहुत्तो विगलिंदियाण संमुच्छिमाण व तहेव । बारस मुहुत्त गमे उक्कोस जहन्नओ समओ | " एकेन्द्रियाणां तु विरह एव नास्ति, मनुष्यगतौ तु "बारस मुहुत्त गब्मे मुहुत्तं संमुच्छिमे चउव्वीसं । उक्कोस विरहकालो दोसुवि य जहन्नओ समओ ॥ " Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६५ श.१: उ.१०. सू.४४७ भगवती वृत्ति देवगतौ तु "मवणवणजोइसोहम्मीसाणे चउवीसइ मुहत्ता उ । उक्कोसविरहकालो पंचसुवि जहाओ समओ॥ णवदिण वीस मुहुत्ता बारस दस चेव दिणमुहुत्ताओ। बावीसा अद्धं चिय पणयालअसीइदिवससयं॥ संखेजा मासा आणयपाणएसु तह आरणचुए वासा। संखेजा विनेया गेवेजेसुं अओ वोठं ॥ हेष्टिमि वाससयाई मज्झि सहस्साई उवरिमे लक्खा । संखेज्जा वित्नेया जहा संखेण तीसुपि ॥ पलिया असंखभागो उक्कोसो होइ विरहकालो उ । विजयाइसु निद्दिडो सब्बेसु जहण्णओ समओ॥ उववायविरहकालो इय एसो वण्णिओ उ देवेसु । उबट्टणावि एवं सव्वेसु होइ विष्णेया॥ जहण्णेण एगसमओ उक्कोसेणं तु होति छम्मासा। विरहो सिद्धिगईए उबट्टणवजिया नियमा॥" इति ॥ ।। प्रथमशते दशमोद्देशकः ।। इति गुरुगमभंगैः सागरस्याहमस्य, स्फुटमुपचितजाड्यः पञ्चमांगस्य सयः । प्रथमशतपदार्थावर्तगर्त्तव्यतीतो, विवरणवरपोती प्राप्य सद्धीवराणाम् ।। ।। इति श्रीमदभयदेवाचार्यविरचितायां भगवतीवृतौ प्रथमशतं समाप्तमिति ॥ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ । ३. २ । ४. २ । २. 'जे इमे' इत्यादि, यद्यप्येकेन्द्रियाणामागमादिप्रमाणाज्जीवत्वं प्रतीयते तथाऽपि तदुच्छ्रवासादीनां साक्षादनुपलम्भाज्जीवशरीरस्य च निरुच्छ्वासादेरपि कदाचिद्दर्शनात् पृथिव्यादिषूच्छ्वासादिविषया शंका स्यादिति तन्निरासाय तेषामुच्छ्वासादिकमस्तीत्येतस्यागमप्रमाणप्रसिद्धस्यप्रदर्शनपरमिदं सूत्रमवगन्तव्यमिति । उच्छ्वासाद्यधिकाराज्जीवादिषु पञ्चविंशतौ पदेषूच्छ्वासादिद्रव्याणां स्वरूपनिर्णयाय प्रश्नयन्नाह 'किण्णं भंते ! जीवेत्यादि, किमित्यस्य सामान्यनिर्देशत्वात् 'कानि' किंविधानि द्रव्याणीत्यर्थः । 'आहारगमो नेयव्वो 'त्ति प्रज्ञापनाया अष्टाविंशतितमाहारपदोक्तसूत्रपद्धतिरिहाध्येयेत्यर्थः, सा चेयम् – 'दुवन्नाई तिवण्णाई जाव पंचवण्णाइंपि । जाई वन्नओ कालाई ताई किं एगगुणकालाई जाव अणंतगुणकालाइंपि' इत्यादिरिति । व्याख्यातं प्रथमं शतमथ द्वितीयं व्याख्यायते । तत्रापि प्रथमोद्देशकः, तस्य चायमभिसम्बन्धः - प्रथमशतान्तिमोद्देशकान्ते जीवानामुत्पादविरोऽभिहितः । इह तु तेषामेवोच्छ्वासादि चिन्त्यत इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमुपोद्घातसूत्रानन्तरसूत्रम्— द्वितीयं शतकम् प्रथम उद्देशकः २ । ७. 'जीवा - एगिंदिए 'त्यादि, जीवा एकेन्द्रियाश्च 'वाघाया य निव्वाघाया य'त्ति मतुब्लोपाद् व्याघातनिर्व्याघातवन्तो भणितव्याः । इह चैवं पाठेऽपि निर्व्याघातशब्दः पूर्वं द्रष्टव्यः, तदभिलापस्य सूत्रे तथैव दृश्यमानत्वात् । तत्र जीवा निर्व्याघाताः सव्याघाताः सूत्रे एव दर्शिताः, एकेन्द्रियास्त्वेवम्- 'पुढविक्काइया णं भंते! कइदिसं आणमंति ? गोयमा ! निव्वाघाएणं छद्दिसिं वाघायं पडुच्च सिय तिदिसि' मित्यादि । एवमप्कायादिष्वपि, तत्र निर्व्याघातेन षदिशम् । षदिशो यत्रानमनादौ तत्तथा व्याघातं प्रतीत्य स्यात्रिदिशं स्याच्चतुर्दिशं स्यात्पञ्चदिशमानमन्ति४, यतस्तेषां लोकान्तवृत्तावलोकेन त्र्यादिदिक्षूच्छ्वासादिपुद्गलानां व्याघातः संभवतीति । 'सेसा नियमा छद्दिसिं 'ति शेषा नारकादित्रसाः षडूदिशमानमन्ति तेषां हि त्रसनाड्यन्तर्भूतत्वात् षड्दिशमुच्छ्वासादिपुद्गलग्रहोऽस्त्येवेति । २।६. अथैकेन्द्रियाणामुच्छ्वासादिभावादुच्छ्वासादेश्च वायुरूपत्वात् किं वायुकायिकानामप्युच्छ्वासादिना वायुनैव भवितव्यमुतान्येन केनापि पृथिव्यादीनामिव तद्विलक्षणेन ? इत्याशंकायां प्रश्नयन्नाह— २ । ८. 'वाउयाए ण' मित्यादि, अथोच्छ्वासस्यापि वायुत्वादन्येनोच्छ्वासवायुना भाव्यं तस्याप्यन्येनैवमनवस्था । नैवमचेतनत्वात्तस्य किंच योऽयमुच्छ्वासवायुः स वायुत्वेऽपि न वायुसंभाव्यौदारिकवैक्रियशरीररूपः तदीयपुद्गलानामानप्राणसंज्ञितानामौदारिकवैक्रियशरीरपुद्गलेभ्योऽनन्तगुणप्रदेशत्वेन सूक्ष्मतयैतच्छरीरव्यपदेश्यत्वात् तथा च प्रत्युच्छ्वासादीनामभाव इति नानवस्था । 'वाउकाए णं भंते ! 'इति, अयं च प्रश्नो वायुकायप्रस्तावाद् विहितोऽन्यथा पृथिवीकायिकादीनामपि मृत्वा स्वकाये उत्पादोऽस्त्येव सर्वेषामेषां कायस्थितेरसंख्याततयाऽनन्ततया चोक्तत्वात् यदाह "अस्संखोसप्पिणीउस्सप्पिणीओ एगिंदियाण उ चउन्हं । ता चेव ऊ अनंता वणरसईए उ बोद्धव्या ॥" तत्र वायुकायो वायुकाय एवानेकशतसहस्रकृत्वः 'उद्दाइत्त'त्ति अपद्रुत्य' मृत्वा 'तत्थेव 'त्ति वायुकाय एव 'पच्चाया 'त्ति 'प्रत्याजायते' उत्पद्यते । २ । १०. 'पुढे उद्दाइ' त्ति स्पृष्टः स्वकायशस्त्रेण परकायशस्त्रेण वा 'अपद्रवति' म्रियते 'नो अपुट्ठे 'त्ति सोपक्रमापेक्षमिदम् । २।११. 'निक्खमइ'त्ति स्वकडेवरान्निःसरति । 'सिय ससरीरी त्ति स्यात् कथंचित् २।१२. 'ओरालियवेउब्वियाइं विष्पजहायेत्यादि, अयमर्थः - औदारिकवैक्रियापेक्षयाऽशरीरी तैजसकार्मणापेक्षया तु सशरीरी निष्क्रामतीति । वायुकायस्य पुनः पुनस्तत्रैवोत्पत्तिर्भवतीत्युक्तम्, अथ कस्यचिन्मुनेरपि संसारचक्रापेक्षया पुनः पुनस्तत्रैवोत्पत्तिः स्यादिति दर्शयन्नाह— २ । १३. 'मडाई णं भंते ! नियंठे' इत्यादि, मृतादी - प्रासुकभोजी, उपलक्षत्वादेषणीयादी चेति दृश्यं, 'निर्ग्रन्थः ' साधुरित्यर्थः 'हव्वं' शीघ्रमागच्छतीति योगः । किंविधः सन् ? इत्याह-'नो निरुद्धभवेत्ति अनिरुद्धाग्रेतनजन्मा चरमभवाप्राप्त इत्यर्थः । अयं च भवद्वयप्राप्तव्यमोक्षोऽपि स्यादित्याह - 'नो ३. अपहृत्य ख. घ. छ. १. वर्तित्वात् ग. २. व्यपदेशत्वात स्व गठ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ३६७ श.२: उ.१: सू.१३-२७ निरुद्धभवपवंचे'त्ति प्राप्तव्यभवविस्तार इत्यर्थः। अयं च देवमनुष्यभवप्रपञ्चापेक्षयाऽपि स्यादित्यत आह–'णो पहीणसंसारे'त्ति अप्रहीणचतुगतिगमन इत्यर्थः । यत एवमत एव 'नो पहीणसंसारवेयणिज'त्ति अप्रक्षीणसंसारवेद्यका । अयं च सकृच्चतुर्गतिगमनतोऽपि स्यादित्यत आह–'नो वोच्छिन्नसंसारे ति अत्रुटितचतुर्गतिगमनानुबन्ध इत्यर्थः । अत एव 'नो वोच्छिन्नसंसारवेयणिज्जे'त्ति 'नो' नैव व्यवच्छिन्नम्-अनुबन्धव्यवच्छेदेन चतुर्गतिगमनवेद्यं कर्म यस्य स तथा । अत एव 'नो निट्ठियटे'त्ति अनिष्ठितप्रयोजनः । अत एव 'नो निट्ठियट्ठकरणिजे'त्ति 'नो' नैव निष्ठितार्थानामिव करणीयानि-कृत्यानि यस्य स तथा । यत एवंविधोऽसावतः पुनरपीति अनादौ संसारे पूर्व प्राप्तमिदानीं पुनर्विशुद्धचरणावाप्तेः सकाशादसंभावनीयम् 'इत्थत्थं'ति इत्यर्थम् एतमर्थम्-अनेकशस्तिर्यङ्नरनाकिनारकगतिगमनलक्षणम् 'इत्यत्त'मिति पाठान्तरं तत्रानेन प्रकारेणेत्थं तद्भाव इत्थत्वं मनुष्यादित्वमिति भावः, अनुस्वारलोपश्च प्राकृतत्वात् 'हव्वं'ति शीघ्रम् आगच्छइ'त्ति प्राप्नोति । अभिधीयते च-कषायोदयात्प्रतिपतितचरणानां चारित्रवतां संसारसागरपरिभ्रमणं, यदाह "जइ उवसंतकसाओ लहइ अणंतं पुणोवि पडिवायं" ति । स च संसारचक्रगतो मुनिजीवः प्राणादिना नामषट्केन कालभेदेन युगपच्च वाच्यः स्यादिति बिभणिषुः प्रश्नयन्नाह२।१४. 'से णमि'त्यादि, तत्र 'सः' निर्ग्रन्थजीवः किंशब्दः प्रश्ने सामान्यवाचित्वाच्च नपुंसकलिंगेन निर्दिष्टः इति' एवमन्वर्थयुक्ततयेत्यर्थः वक्तव्यः स्यात् । प्राकृतत्वाच्च सूत्रे नपुंसकलिंगताऽस्येति । अन्वर्थयुक्तशब्दैरुच्यमानः किमसौ वक्तव्यः स्यात् ? इति भावः । अत्रोत्तरं-'पाणेत्ति वत्तव्य'मित्यादि, तत्र प्राण इत्येतत्तं प्रति वक्तव्यं स्यात् यदोच्छ्वासादिमत्त्वमात्रमाश्रित्य तस्य निर्देशः क्रियते। एवं भवनादिधर्मविवक्षया भूतादिशब्दपञ्चकवाच्यता तस्य कालभेदेन व्याख्येया ।यदा तूच्छ्वासादिधर्मैयुगपदसौ विवक्ष्यते तदा प्राणो भूतो जीवः सत्त्वो विज्ञो वेदयितेत्येतत्तं प्रति वाच्यं स्यात् । अथवा निगमनवाक्यमेवेदमतो न युगपत्पक्षव्याख्या कार्येति । २।१५. 'जम्हा जीवे इत्यादि, यस्मात् 'जीवः'आत्माऽसौ 'जीवति' प्राणान् धारयति तथा 'जीवत्वम्' उपयोगलक्षणम् आयुष्कं च कर्म 'उपजीवति' अनुभवति तस्माज्जीव इति वक्तव्यं स्यादिति । 'जम्हा सत्ते सुभासुभेहिं कम्मेहिंति सक्तः-आसक्तः शक्तो वा-समर्थः सुन्दरासुन्दरासु चेष्टासु, अथवा सक्तः-संबद्धः शुभाशुभैः कर्मभिरिति । अनन्तरोक्तस्यैवार्थस्य विपर्ययमाह २॥१७. 'मडाई'त्यादि 'पारगए'त्ति पारगतः संसारसागरस्य ‘भाविनिभूतवदि'त्युपचारादिति 'परंपरगए'त्ति परम्परया-मिथ्यादृष्ट्यादिगुणस्थानकानां मनुष्यादिसुगतीनां वा पारम्पर्येण गतो भवाम्भोधिपारं प्राप्तः परम्परागतः । इहानन्तरं संयतस्य संसारवृद्धिहानी उक्ते सिद्धत्वं चेति, अधुना तु तेषामन्येषां चार्थानां व्युत्पादनार्थं स्कन्दकचरितं विवक्षुरिदमाह२।२२. 'उप्पण्णणाणदसणधरे' इह यावत्करणात् 'अरहा जिणे केवली सव्वण्णू सव्वदरिसी आगासगएणं छत्तेण'मित्यादि समवसरणान्तं वाच्यमिति। २।२३. 'गद्दभालस्स'त्ति गर्दभालाभिधानपरिव्राजकस्य । २१२४. 'रिउव्वेयजजुव्वेयसामवेयअथव्वणवेय'त्ति इह षष्ठीबहुवचनलोपदर्शनात् ऋग्वेदयजुर्वेदसामवेदाथर्वणवेदानामिति दृश्यम्। इतिहासः-पुराणं स पंचमो येषां ते तथा तेषां 'चउण्हं वेयाणं'ति विशेष्यपदं 'निघंटुछटाणं'ति निघण्टो नामकोशः 'संगोवंगाणं'ति अंगानि-शिक्षादीनि षड़ उपांगानि-तदुक्तप्रपञ्चनपराः प्रबन्धाः ‘सरहस्साणं'ति ऐदम्पर्ययुक्तानां, 'सारएत्ति सारकोऽध्यापनद्वारेण प्रवर्तकः, स्मारको वाऽन्येषां विस्मृतस्य सूत्रादेः स्मरणात्, 'वारए'त्ति बारकोऽशुद्धपाठनिषेधात्, “धारए'त्ति क्वचित्पाठः तत्र धारकोऽधीतानामेषां धरणात्, “पारए'त्ति पारगामी, 'षडंगविदिति' षडंगानि-शिक्षादीनि वक्ष्यमाणानि, सांगोपांगानामिति यदुक्तं तद्वेदपरिकरज्ञापनार्थम्, अथवा षडंगविदित्यत्र तद्विचारकत्वं गृहीतं 'विद विचारणे' इति वचनादिति न पुनरुक्तत्वमिति । 'सद्वितंतविसारए'त्ति कापिलीयशास्त्रपण्डितः, तथा 'संखाणे'त्ति गणितस्कन्धे सुपरिनिष्ठित इति योगः। षडंगवेदकत्वमेव व्यनक्ति–'सिक्खाकप्पे'त्ति शिक्षा अक्षरस्वरूपनिरूपकं शास्त्रं कल्पश्च-तथाविधसमाचारनिरूपकं शास्त्रमेव ततः समाहारद्वन्द्वात् शिक्षाकल्पे । 'वागरणे'त्ति शब्दशास्त्रे 'छंदे'त्ति पद्यलक्षणशास्त्रे 'निरुत्ते'त्ति शब्दव्युत्पत्तिकारकशास्त्रे । 'जोतिसामयणे'त्ति ज्योतिःशास्त्रे 'बंभण्णएसु' त्ति ब्राह्मणसंबन्धिषु 'परिवायएसु यत्ति परिव्राजकसत्केषु 'नयेषु'नीतिषु दर्शनेष्वित्यर्थः । २।२५. नियंठे'त्ति निर्ग्रन्थः श्रमण इत्यर्थः 'वेसालियसावए'त्ति विशाला–महावीरजननी तस्या अपत्यमिति वैशालिक:-भगवास्तस्य वचनं शृणोति तद्रसिकत्वादिति वैशालिकश्रावकः, तद्वचनामृतपाननिरत इत्यर्थः । २।२६. 'इणमक्खेवंति एनम् ‘आक्षेपं' प्रश्नं 'पुछे'त्ति पृष्टवान्, ‘मागह'त्ति मगधजनपदजातत्वान्मागधस्तस्यामन्त्रणं हे मागध ! 'वड्डइ'त्ति संसारवर्धनात् 'हायइ'त्ति संसारपरिहान्येति। एतावतावे'त्यादि, एतावत् प्रश्नजातं तावदाख्याहि 'उच्यमानः' पृच्छ्यमानः, 'एवम्' अनेन प्रकारेण, एत स्मिन्नाख्याते पुनरन्यप्रक्ष्यामीति ह्रदयम् । २१२७. 'संकिए' इत्यादि, किमिदमिहोत्तरमिदं वा ? इति संजातशंकः । इदमिहोत्तरं साधु इदं च न साधु अतः कथमत्रोत्तरं लप्स्ये? इत्युत्तरलाभाकांक्षावान् Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति श. २: उ.१: सू.२७-३२ ३६८ कांक्षितः । अस्मिन्नुत्तरे दत्ते किमस्य प्रतीतिरुत्पत्स्यते न वा ? इत्येवं विचिकित्सितः । 'भेदसमावन्ने' मतेभंगंकिंकर्त्तव्यताव्याकुलता - लक्षणमापन्नः । 'कलुषसमापन्नः'नाहमिह किञ्चिज्जानामीत्येवं स्वविषयं कालुष्यं समापन्न इति । 'नो संचाइए 'त्ति न शक्नोति 'पमोक्खमक्खाइउं'ति प्रमुच्यते पर्यनुयोगबंधनादनेनेति प्रमोक्षम् - उत्तरं "आख्यातुं' वक्तुम् । २ । ३०. 'महया जणसंमद्दे इ वा जणवूहे इ वा' इत्यत्रेदमन्यद् दृश्यम् -'जणबोले इ वा जणकलकले इ वा जणुम्मी इ वा जणुक्कलिया इ वा जणसंनिवाए इ वा बहुजणी अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ ४ – एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे ३ आइगरे जाव संपाविउकामे पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाणुगामं माणे कयंगलाए नए छत्तपलासए चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । तं महम्फलं खलु भो देवाणुप्पिया! तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं नामगोयस्सवि सवणयाए, किमंग पुण अभिगमणवंदणनमंसणपडिपुच्छणपज्जुवासणयाए एस्सवि आयरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए ? किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए ? तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! समणं भगवं महावीरं वंदामो नमसामो सक्कारेमो सम्माणेमो कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पजुवासामो । एयं णो पेच्चभवे हियाए सुहाए खमाए निस्सेयसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ त्ति कट्टु बहवे उग्गा उग्गपुत्ता एवं भोगा राइण्णा खत्तिया माहणा भडा जोहा मल्लई लेच्छई अण्णे य बहवे राईसरतलवरमाडंबियकोडुंबियइब्भसेट्टिसेणावइसत्थवाहपभियओ जाव उक्किसीहनायबोलकलयलरवेणं समुद्दरवभूयं पिव करेमाणा सावत्थीए नयरीए मज्झमज्झेणं निगच्छंति । ' अस्यायमर्थः श्रावस्त्यां नगर्यां यत्र 'महय'त्ति महान् जनसंमर्दस्तत्र बहुजनोऽन्योऽन्यस्यैवमाख्यातीति वाक्यार्थः । तत्र जनसंमर्दः - उरोनिष्पेषः, 'इतिः' उपप्रदर्शने 'वा' समुच्चये, पाठान्तरे शब्द इति वा । जनव्यूहः- चक्राद्याकारो जनसमुदायः, बोलः - अव्यक्तवर्णो ध्वनिः, कलकलः-स एवोपलभ्यमानवचनविभागः, ऊर्मिः – संबाधः कल्लोलाकारो वा जनसमुदायः, उत्कलिका - समुदाय एव लघुतरः, जनसन्निपात:-- अपरापरस्थानेभ्यो जनानां मीलनं, 'यथाप्रतिरूप 'मित्युचितं, 'तथारूपाणां' संगतरूपाणां 'नामगोयस्सवि' त्ति नाम्नो यादृच्छिकस्याभिधानस्य गोत्रस्य च-गुणनिष्पन्नस्य 'सवणयाए' श्रवणेन 'किमंग पुण'त्ति किंपुनरिति पूर्वोक्तार्थस्य विशेषद्योतनार्थः अंगेत्यामन्त्रणे अभिगमनम् — अभिमुखगमनं, वन्दनं स्तुतिः, नमस्यनं - प्रणमनं, प्रतिप्रच्छनं- शरीरादिवार्त्ताप्रश्नः पर्युपासनं - सेवा, तेषां - अभिगमनादीनां भावस्तत्ता तया आर्यस्येत्यार्यप्रणेतृकत्त्वात् धार्मिकस्य धर्मप्रतिबद्धत्वात् । 'वंदामो' त्ति स्तुमः, 'नमस्यामः' इति प्रणमामः, 'सत्कारयामः' आदरं कुर्मो वस्त्रार्चनं वा 'सन्मानयाम ' उचितप्रतिपत्तिभिः । किंभूतम् ? इत्याह- कल्याणं - कल्याणहेतुं, मंगलं - दुरितोपशमनहेतुं दैवतं - देवं, चैत्यम् - इष्टदेवप्रतिमा चैत्यमिव चैत्यं, 'पर्युपासयामः ' सेवामहे । एतत् 'नः' अस्माकं 'प्रेत्यभवे' जन्मान्तरे 'हिताय' पथ्यान्नवत्, 'सुखाय' शर्मणे 'क्षमाय' संगतत्वाय, 'निःश्रेयसाय' मोक्षाय, 'आनुगामिकत्वाय' परम्परा शुभानुबन्धसुखाय' भविष्यति 'इतिकृत्वा' इतिहेतोर्बहवः 'उग्राः ' आदिदेवावस्थापिताऽऽरक्षकवंशजाताः, 'भोगाः ' तेनैवावस्थापितगुरुवंशजाताः, 'राजन्याः' भगवद्वयस्यवंशजाः 'क्षत्रियाः ' राजकुलीनाः, 'भटाः' शौर्यवन्तः, 'योधाः' तेभ्यो विशिष्टतराः 'मल्लकिनो लेच्छकिनश्च' राजविशेषाः, 'राजानः' नृपाः, 'ईश्वराः' युवराजास्तदन्ये च महर्द्धिकाः 'तलवराः' प्रतुष्टनरपतिवितीर्णपट्टबन्धविभूषिता राजस्थानीयाः, 'माडम्बिकाः, संनिवेशविशेषनायकाः, 'कौटुम्बिका: ' कतिपयकुटुम्बप्रभवो राजसेवकाः, उत्कृष्टिश्च आनन्दमहाध्वनिः, सिंहनादश्च - प्रतीतः, बोलश्च वर्णव्यक्तिवर्जितो महाध्वनिः, कलकलश्च - अव्यक्तवचनः, स एवैतल्लक्षणो यो रवस्तेन समुद्ररवभूतमिव — जलधिशब्दप्राप्तमिव तन्मयमिवेत्यर्थः, नगरमिति गम्यत इति । एतस्यार्थस्य संक्षेपं कुर्वन्नाह—– 'परिसा निग्गच्छति । २ । ३१. 'तए णं 'ति 'ततः' अनन्तरम् 'इमेयारूवे 'त्ति 'अयं' वक्ष्यमाणतया प्रत्यक्षः स च कविनोच्यमानो न्यूनाधिकोऽपि भवतीत्यत आह-- एतदेव रूपं यस्यासावेतद्रूपः 'अज्झत्थिए 'त्ति आध्यात्मिक आत्मविषयः 'चिंतिए 'त्ति स्मरणरूपः 'पत्थिए 'त्ति प्रार्थित:- अभिलाषात्मकः 'मणोगए 'त्ति मनस्येव यो गतो न बहिः वचनेनाप्रकाशनात् स तथा 'संकल्पः' विकल्पः 'समुप्पजित्य'त्ति समुत्पन्नवान् 'सेयं त्ति श्रेयः कल्याणं 'पुच्छित्तए 'त्ति योगः । 'इमाई च णं'ति प्राकृतत्वाद् 'इमान्' अनन्तरोक्तत्वेन प्रत्यक्षासन्नान् चशब्दादन्यांश्च 'एयारूवाई' ति एतद्रूपान् उक्तस्वरूपान्, अथवैतेषामेवानन्तरोक्तानामर्थानां रूपं येषां प्रष्टव्यतासाधर्म्यात्तत्तथा तान् 'अर्थान्' भावान् लोकसान्तत्वादींस्तदन्यांश्च 'हेऊइंति अन्वयव्यतिरेकलक्षणहेतुगम्यत्वाद्धेतवो — लोकसान्तत्वादय एव तदन्ये वाऽतस्तान् 'पसिणाई'ति प्रश्नविषयत्वात् प्रश्ना एत एव तदन्ये वाऽतस्तान् 'कारणाई' ति कारणम् उपपत्तिमात्रं तद्विषयत्वात्कारणानि एत एव तदन्ये वाऽतस्तानि 'वागरणाई' ति व्याक्रियमाणत्वाद्व्याकरणानि एत एव तदन्ये वाऽतस्तानि 'पुच्छित्तए 'त्ति प्रष्टुं 'तिकट्टु' इतिकृत्वाऽनेन कारणेन एवं 'संपेहेइ'त्ति 'एवम्' उक्तप्रकारं भगवद्वन्दनादिकरणमित्यर्थः 'संप्रेक्षते' पर्यालोचयति । 'परिव्वायगावसहे 'त्ति परिव्राजकमठः 'कुण्डिका' कमण्डलु 'काञ्चनिका' रुद्राक्षकृता 'करोटिका' मृद्भाजनविशेष: 'भृशिका' आसनविशेषः 'केशरिका' प्रमार्जनार्थं चीवरखण्डं 'षड्नालकं' त्रिकाष्ठिका 'अंकुशकं' तरुपल्लवग्रहणार्थमंकुशाकृतिः 'पवित्रकम्' अंगुलीयकं 'गणेत्रिका' कलाचिकाSS भरणविशेषः 'धाउरत्ताओ' त्ति साटिका इति विशेषः, 'तिदंडे 'त्यादि त्रिदण्डकादीनि दश हस्ते गतानि स्थितानि यस्य स तथा, 'पहारेत्थ'त्ति 'प्रधारितवान्' संकल्पितवान् 'गमनाय' गंतुं । २ । ३२. 'गोयमाइ 'त्ति गोयम इति एवमामन्त्र्येति शेषः, अथवाऽयीत्यामन्त्रणार्थमेव । 'से काहे व 'त्ति अथ कदा वा ? कस्यां वेलायामित्यर्थः 'किह व'त्ति केन वा प्रकारेण ? साक्षाद्दर्शनतः श्रवणतो 'केवच्चिरेण वत्ति कियतो वा कालात् ? 9. परम्पर ग., परंपरया क. २. कियचिरेण ग.घ. Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ भगवती वृत्ति श.२: उ.१: सू.३३-४५ २।३३. 'सावत्थी नामं नयरी होत्य'त्ति विभक्तिपरिणामादस्तीत्यर्थः अथवा कालस्यावसर्पिणीत्वात्प्रसिद्धगुणा कालान्तर एवाभवन्नेदानीमिति । 'अदूरागते' त्ति अदूरे आगतः। स चावधिस्थानापेक्षयाऽपि स्यात् अथवा दूरतरमार्गापेक्षया (ग्रंथान ३०००) क्रोशादिकमप्यदूर स्यादत उच्यते-'बहुसंपत्ते' ईषदूनसंप्राप्तो बहुसंप्राप्तः, स च विश्रामादिहेतोरारामादिगतोऽपि स्यादत उच्यते-'अद्धाणपडिवग्ने'त्ति मार्गप्रतिपन्नः किमुक्तं भवति ? 'अंतरापहे वट्टइत्ति विवक्षितस्थानयोरन्तरालमार्गे वर्त्तत इति। अनेन च सूत्रेण कथं द्रक्ष्यामि ? इत्यस्योत्तरमुक्तं कथम् ? यतोऽदूरागतादिविशेषणस्य साक्षादेव दर्शनं संभवति, तथा 'अज्जेव णं दच्छसि' इत्यनेन कियच्चिरादित्यस्योत्तरमुक्तं, 'काहे' इत्यस्य चोत्तरं सामर्थ्यगम्यं, यतो यदि भगवता मध्याह्नसमये इयं वार्ताऽभिहिता तदा मध्याह्नस्योपरि मुहूर्ताद्यतिक्रमणे या वेला भवति तस्यां द्रक्ष्यसीति सामर्थ्यादुक्तम् । अदूरागतादिविशेषणस्य हि तद्देशप्राप्तौ मुहूर्तादिरेव कालः संभवति न बहुतर इति। २।३४. 'अगाराओ'त्ति निष्कम्येतिशेषः 'अनगारितां' साधुतां 'प्रव्रजितुं' गन्तुम्, अथवा विभक्तिपरिणामादनगारितया 'प्रव्रजितुं' प्रव्रज्या प्रतिपत्तुम् । २।३६. 'अब्भुढेति'त्ति आसनं त्यजति । यच्च भगवतो गौतमस्यासंयतं प्रत्युभ्युत्थानं तद्भाविसंयतत्वेन यस्य पक्षपातविषयत्वाद् गौतमस्य चाक्षीणरागत्वात्, तथा भगवदाविष्कृततदीयविकल्पस्य तत्समीपगमनतस्तत्कथनाद् भगवज्ज्ञानातिशयप्रकाशनेन भगवत्यतीव बहुमानोत्पादनस्य चिकीर्षितत्वादिति। 'हे खंदय'त्ति सम्बोधनमात्रं 'सागयं खंदय त्ति 'स्वागतं' शोभनमागमनं तव स्कन्दक ! महाकल्याणनिधेर्भगवतो महावीरस्य संपर्केण तव, कल्याणनिबन्धनत्वात्तस्य । 'सुसागय'ति अतिशयेन स्वागतम्। कथंचिदेकार्थों वा शब्दावेतौ, एकार्थशब्दोच्चारणं च क्रियमाणं न दुष्ट, संभ्रमनिमित्तत्वादस्येति । 'अणुरागयं खंदय!'त्ति रेफस्यागमिकत्वात् ‘अन्वागतं' अनुरूपमागमनं स्कन्दक ! तवेति दृश्यम् । ‘सागयमणुरागयंति शोभनत्वानुरूपत्वलक्षणधर्मद्वयोपेतं तवागमनमित्यर्थः । 'जेणेव इहंति यस्यामेव दिशीदं भगवत्समवसरणं 'तेणेव'त्ति तस्यामेव दिशि 'अत्थे समत्वे'त्ति अस्त्येषोऽर्थः ? 'अढे समढे 'त्ति पाठान्तरं, काका चेदमध्येयं, ततश्चार्थः किं 'समर्थः' संगतः? इति प्रश्नः स्याद्, उत्तरं तु 'हंता अस्थि' सद्भूतोऽयमर्थः इत्यर्थः । २१३७. 'णाणी'त्यादि अस्यायमभिप्रायः-ज्ञानी ज्ञानसामर्थ्याज्जानाति तपस्वी च तपःसामदेिवतासान्निध्याजानातीति प्रश्नः कृतः 'रहरसकडे'त्ति रहः कृतः–प्रच्छन्नकृतो, हृदय एवावधारितत्वात् । २१३८. 'धम्मायरिए'त्ति कुत एतत् ? इत्याह--'धम्मोवएसए'त्ति उत्पन्नज्ञानदर्शनधरो न तु सदा संशुद्धः अर्हत्वन्दनाधर्हत्वात, जिनो रागादिजेतृत्वात, केवली असहायज्ञानत्वात्, अत एवातीतप्रत्युत्पन्नानागतविज्ञायकः, स च देशज्ञोऽपि स्यादित्याह–सर्वज्ञः सर्वदर्शी । २।४१. 'वियट्टभोइ'त्ति व्यावृत्ते २ सूर्ये भुंक्ते इत्येवंशीलो व्यावृत्तभोजी प्रतिदिनभोजीत्यर्थः । २१४२. 'ओरालं'ति प्रधानं 'सिंगारं'ति शृंगार:-अलंकारादिकृता शोभा तद्योगात् शृंगारं, शृंगारमिव शृंगारमतिशयशोभावदित्यर्थः। 'कल्याणं' श्रेयः 'शिवम्' अनुपद्रवमनुपद्रवहेतुर्दा, 'धन्य' धर्मधनलब्धृ तत्र वा साधु तद्वाऽर्हति, ‘मंगल्यं' मंगले-हितार्थप्रापके साधु मंगल्यम्, 'अलंकृतं' मुकुटादिभिर्विभूषितं-वस्त्रादिभिस्तन्निषेधादनलंकृतविभूषितं, 'लक्खणवंजणगुणोववेयंति लक्षणं-मानोन्मानादि, तत्र मानं-जलद्रोणमानता, जलभृतकुण्डिकायां हि मातव्यः पुरुषः प्रवेश्यते तत्प्रवेशे च यज्जलं ततो निस्सरति तद्यदि द्रोणमानं भवति तदाऽसौ मानोपेत उच्यते। उन्मानं त्वर्द्धभारमानता' मातव्यपुरुषो हि तुलारोपितो यद्यर्द्धभारमानो भवति तदोन्मानोपेतोऽसावुच्यते । प्रमाणं पुनः स्वांगुलेनाष्टोत्तरशतांगुलोच्यता यदाह "जलदोणमद्धमारं समुहाइ समूसिओ उ जो नव उ। माणुम्माणपमाणं तिविहं खलु लक्खणं एवं ॥" व्यंजनं-मषतिलकादिकमथवा सहज लक्षणं पश्चाद्भवं व्यंजनमिति । गुणाः-सौभाग्यादयो लक्षणव्यंजनानां वा ये गुणास्तैरुपपेतं यत्तत्तथा, उपअपइतम् इत्येतस्य स्थाने निरुक्तिवशाद् उपपेतं भवतीति, 'सिरीए' ति लक्ष्म्या शोभया था। २।४३. 'हट्टतुट्ठचित्तमाणदिए'त्ति हष्टतुष्टमत्यर्थं तुष्टं हृष्टं वा-विस्मितं तुष्टं च-तोषवच्चित्तं-मनो यत्र तत्तथा, तद् हृष्टतुष्टचित्तं यथा भवति एवम् 'आनन्दितः' ईषन्मुखसौम्यतादिभावैः समृद्धिमुपगतः, ततश्च 'नंदिएत्ति नन्दितस्तैरेव समृद्धतरतामुपगतः ‘पीइमणे'त्ति प्रीतिः-प्रीणनमाप्यायनं मनसि यस्य स तथा 'परमसोमणस्सिए'त्ति परमं सौमनस्यं सुमनस्कता संजातं यस्य स परमसौमनस्थितस्तद्वाऽस्यास्तीति परमसौमनस्थिकः 'हरिसवसविसप्पमाणहियए'त्ति हर्षवशेन विसर्पद्-विस्तारं व्रजद् हृदयं यस्य स तथा, एकार्थिकानि-वैतानि प्रमोदप्रकर्षप्रतिपादनार्धानीति । २१४५. 'दव्वओ णं एगे लोए सअंते'त्ति पञ्चास्तिकायमयैकद्रव्यत्वाल्लोकस्य सान्तोऽसौ, 'आयामविक्खंभेणं'ति आयामो-दैर्घ्यं विष्कम्भो-विस्तारः 'परिक्खेवण'ति परिधिना 'भविंसु यत्ति अभवत् इत्यादिभिश्च पदैः पूर्वोक्तपदानामेव तात्पर्यमुक्तम् । 'धुवे'त्ति ध्रुवोऽचलत्वात् स चानियतरूपोऽपि स्यादत आह–'णियए'त्ति नियत एकरवरूपत्वात्, नियतरूपः कादाचित्कोऽपि स्यादत आह–'सासए'त्ति शाश्वतः प्रतिक्षणं सद्भावात्, स च नियतकालापेक्षयाऽपि स्यादित्यत आह–'अक्खए'त्ति अक्षयोऽविनाशित्वात्, अयं च बहुतरप्रदेशापेक्षयाऽपि स्यादित्यत आह–'अव्वए'त्ति अव्ययस्तत्प्रदेशानामव्ययत्वात्, अयं च द्रव्यतयाऽपि स्यादित्याह-'अवट्टिए'ति अवस्थितः पर्यायाणामनन्ततयाऽवस्थितत्वात् किमुक्तं भवति? नित्य इति । Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.२ः उ.१: सू.४५-५२ ४०० भगवती वृत्ति 'वण्णपजव'त्ति वर्णविशेषा एकगुणकालत्वादयः, एवमन्येऽपि गुरुलघुपर्यवास्तद्विशेषा बादरस्कन्धानाम्, अगुरुलघुपर्यवा अणूनां सूक्ष्म स्कन्धानाममूर्तानां च। २।४६. 'नाणपज्जवत्ति वर्णविशेषा ज्ञानपर्यवा ज्ञानविशेषा बुद्धिकता वाऽविभागपरिच्छेदाः, अनन्ता गुरुलघुपर्यवा औदारिकादिशरीराण्याश्रित्य, इतरे तु कार्मणादिद्रव्याणि जीवस्वरूपं चाश्रित्येति । २१४७. 'जेवि य ते खंदया पुच्छत्ति अनेन समग्रं सिद्धप्रश्नसूत्रमुपलक्षणत्वाच्चोत्तरसूत्रांशश्च सूचितः, तच्च द्वयमप्येवम्-'जेवि य खंदया इमेयारूवे जाव किं सअंता सिद्धी ? अणंता सिद्धी ? तस्स वि य णं अयमढे, एवं खलु मए खंदया ! चउब्विहा सिद्धी पण्णत्ता, तंजहा-दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ त्ति, दव्वओ णं एगा सिद्धि'त्ति, इह सिद्धिर्यद्यपि परमार्थतः सकलकर्मक्षयरूपा सिद्धाधाराऽऽकाशदेशरूपा वा तथाऽपि सिद्धाधाराकाशदेशप्रत्यासन्नत्वेनेषनागभारापृथिवी सिद्धिरुक्ता, 'किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं'ति किञ्चिन्यूनगव्यूतद्वयाधिके द्वे योजनशते एकोनपञ्चाशदुत्तरे भवति इति । २१४६. 'वलयमरणे'त्ति वलतो-बुभुक्षापरिगतत्वेन वलवलायमानस्य-संयमाद् वा भ्रस्यतो मरणं तद् वलन्मरणम्। तथा वशेन-इन्द्रियवशेन ऋतस्य-पीडितस्य दीपकलिकारूपाक्षिप्तचक्षुषः शलभस्येव यन्मरणं तद्वशार्त्तमरणम्। तथाऽन्तःशल्यस्य द्रव्यतोऽनुद्धृततोमरादेः भावतः सातिचारस्य यन्मरणं तदन्तःशल्यमरणम् । तथा तस्मै भवाय मनुष्यादेः सतो मनुष्यादावेव बद्धायुषो यन्मरणं तत्तद्भवमरणम्, इदं च नरतिरश्चामेवेति । 'सत्थोवाडणे'त्ति शस्त्रेण-क्षुरिकादिना अवपाटनं-विदारणं देहस्य यस्मिन् मरणे तच्छनावपाटनम्। 'वेहाणसे'त्ति विहायसि-आकाशे भवं वृक्षशाखाधुबद्धत्वेन' यत्तनिरुक्तिवशाद् वैहानसम्। 'गद्धपट्टे 'त्ति गृ|ः-पक्षिविशेषै? –मांसलुब्यैः शृगालादिभिः स्पृष्टस्य–विदारितस्य करिकरभरासभादिशरीरान्तर्गतत्वेन यन्मरणं तद् गृध्रस्पृष्टं गृद्धस्पृष्टं वा, गृधैर्वा भक्षितस्य-स्पृष्टस्य यत्तद् गृध्रस्पृष्टम् ।। 'दुवालसविहेणं बालमरणेणं'त्ति उपलक्षणत्वादस्यान्येनापि बालमरणान्तःपातिना मरणेन म्रियमाण इति 'वड्डइ वड्डइ'त्ति संसारवर्द्धनेन भृशं वर्द्धते जीवः, इदं हि द्विर्वचनं भृशार्थे इति । 'पाओवगमणे'त्ति पादपस्येवोपगमनम्-अस्पन्दतयाऽवस्थानं पादपोपगमनम्, इदं च चतुर्विधाहारपरिहारनिष्पन्नमेव भवतीति । 'नीहारिमे यत्ति निहरिण निर्वृत्तं यत्तन्निर्हारिमं प्रतिश्रये यो म्रियते तस्यैतत्, तत्कडेवरस्य निरिणात् । अनि रिमं तु योऽटव्यां म्रियते इति । यच्चान्यत्रेह स्थाने इंगितमरणमभिधीयते तद्भक्तप्रत्याख्यानस्यैव विशेष इति नेह भेदेन दर्शितमिति। २१५१. 'धम्मकहा भाणियव्व'त्ति, सा चैवम् "जह जीवा बझंती मुच्चंती जह य संकिलिस्संति । जह दुक्खाणं अंतं करेंति केई अपडिबद्धा ॥ अट्टनियट्टियचित्ता जह जीवा दुक्खसागरमुवेति । जह वेरग्गमुवगया कम्मसमुग्गं विहाडेति ॥" इत्यादि । इह च 'अट्टनियट्टियचित्ता' आर्त निर्वर्तितं चित्ते यैस्ते तथा, आरौद् वाऽनिवर्तितं चित्तं यैस्ते आििनवर्तितचित्ताः। 'सद्दहामि'त्ति निर्ग्रन्थं प्रवचनमस्तीति प्रतिपद्ये । 'पत्तियामि'त्ति प्रीतिं प्रत्ययं वा सत्यमिदमित्येवंरूपं तत्र करोमीत्यर्थः। 'रोएमिति चिकीर्षामीत्यर्थः । 'अब्भुटेमि'त्ति एतदंगीकरोमीत्यर्थः । अथ श्रद्धानाद्युल्लेखं दर्शयति एवमेतन्नैर्ग्रन्थं प्रवचनं सामान्यतः, अथ यथैतड्यं वदथेति योगः। 'तहमेय'ति तथैव तविशेषतः 'अवितहमेयं' सत्यमेतदित्यर्थः 'असंदिद्धमेयंति सन्देहवर्जितमेतत् 'इच्छियमेयंति इष्टमेतत् 'पडिच्छियमेयंति प्रतीप्सितं प्राप्तुमिष्टम् 'इच्छियपडिच्छियंति युगपदिच्छाप्रतीप्साविषयत्वात् 'तिकदृ'त्ति इतिकृत्वेति, अथवा 'एवमेयं भंते !' इत्यादीनि पदानि यथायोगमेकार्थान्यत्यादरप्रदर्शनायोक्तानि । 'आलित्ते णति अभिविधिना ज्वलितः 'लोए'त्ति जीवलोकः 'पलिते णति प्रकर्षेण ज्वलितः एवंविधश्चासौ कालभेदेनापि स्यादत उच्यते-- आदीप्तप्रदीप्त इति, 'जराए मरणेण यत्ति इह वहिनेति वाक्यशेषो दृश्यः।। 'झियायमाणंसित्ति ध्यायमाने मायति वा, दह्यमान इत्यर्थः, 'अप्पसारे'त्ति अल्पं च तत्सारं चेत्यल्पसारम् ‘आयाए'त्ति आत्मना एकान्तं-विजन अन्तं-भूभागं 'पच्छा पुरा यत्ति विवक्षितकालस्य पश्चात् पूर्वं च सर्वदैवेत्यर्थः । 'थेजे"त्ति स्थैर्यधर्मयोगात स्थैर्यो वैश्वासिको विश्वासप्रयोजनत्वात् संमतस्तत्कृतकार्याणां संमतत्वात् 'बहुमतः' बहुशो बहुभ्यो वाऽन्येभ्यः सकाशाद् बहुरिति वा मतो बहुमतः ‘अनुमतः' अनु-विप्रियकरणस्य पश्चादपि मतोऽनुमतः 'भंडकरंडगसमाणे'त्ति भाण्डकरण्डकम्-आभरणभाजनं तत्समान आदेयत्वादिति। 'मा णं सीत मित्यादौ मा शब्दो निषेधार्थः णमिति वाक्यालंकारार्थः', इह स्पृशत्विति यथायोगं योजनीयम्, अथवा मा एनमात्मानमिति व्याख्येयम् । 'वाल'त्ति व्यालाः-श्वापदभुजगाः ‘मा णं वाइयपित्तियसेंभियसनिवाइय'त्ति इह प्रथमाबहुवचनलोपो दृश्यः । 'रोगायंक'त्ति रोगा:-कालसहा ३. अलंकारार्यः ख.ग.घ.च.थ. १. बंधनेन क. २. निरुक्त क.ख.च.छ. Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ४०१ श.२: उ.१: सू.५३-६० व्याधयः आतंकास्त एव सद्योघातिनः 'परीसहोवसम्पत्ति अस्य मा णमित्यनेन सम्बन्धः स्पृशन्तु छुपन्तु भवन्त्वित्यर्थः । 'त्तिकट्ट'इत्यभिसंधाय यः पालित इति शेषः, स किम् ? इत्याह–'एस मे इत्यादि। 'तं इच्छामि त्ति तत्तस्मादिच्छामि 'सयमेव'त्ति स्वयमेव भगवतैवेत्यर्थः प्रव्राजितं रजोहरणादिवेषदानेनात्मानमिति गम्यते। भावे वा क्तप्रत्ययस्तेन प्रव्राजनमित्यर्थः, मुण्डितं शिरोलुंचनेन 'सेहावियं'ति सेहितं प्रत्युपेक्षणादिक्रियाकलापग्राहणतः शिक्षितं सूत्रार्थग्राहणतः । तथाऽऽचार:-श्रुतज्ञानादिविषयमनुष्ठानं कालाध्ययनादि, गोचरो-भिक्षाटनम् एतयोः समाहारद्वन्द्वस्ततस्तदाख्यातमिच्छामीति योगः। तथा विनयः-प्रतीतो, वैनयिकं-तत्फलं कर्मक्षयादि, चरणं-व्रतादि, करणं-पिण्डविशुद्ध्यादि, यात्रा-संयमयात्रा, मात्रा-तदर्थमेवाहारमात्रा, ततो विनयादीनां द्वन्द्वः, ततश्च विनयादीनां वृत्तिः-वर्तनं यत्रासौ विनयवैनयिकचरणकरणयात्रामात्रावृत्तिकोऽतस्तं धर्मम् 'आख्यातम्' अभिहितमिच्छामीति योगः | 'एवं देवाणुप्पिया ! गंतव्य'ति युगमात्रभून्यस्तदृष्टिनेत्यर्थः ‘एवं चिट्ठियव्य'ति निष्कमणप्रवेशादिवर्जिते स्थाने संयमात्मप्रवचनबाधापरिहारेणोर्ध्वस्थानेन स्थातव्यम्, ‘एवं निसीइयव्वं'ति, "निषत्तव्यं' उपवेष्टव्यं संदंशकभूमिप्रमार्जनादिन्यायेनेत्यर्थः ‘एवं तुयट्टियव्वं ति शयितव्यं सामायिकोच्चारणादिपूर्वकं ‘एवं भुंजियवं'ति धूमांगारादिदोषवर्जनतः ‘एवं भासियव्वं'ति मधुरादिविशेषणोपपन्नतयेति 'एवमुत्थायोत्थाय' प्रमादनिद्राव्यपोहेन विबुद्ध्य विबुद्ध्य प्राणादिषु विषये यः संयमो-रक्षा तेन संयंतव्यं यतितव्यम् । २१५४. 'तमाणाए'त्ति 'तद्' अनन्तरं 'आज्ञया' आदेशेन । २१५५. 'ईरियासमिए'त्ति ईर्यायां-गमने समितः सम्यक्प्रवृत्तत्वरूपं हि समितत्वम्, 'आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए'त्ति आदानेन-ग्रहणेन सह भाण्डमात्राया-उपकरणपरिच्छदस्य या निक्षेपणा न्यासस्तस्या समितो यः स तथा 'उच्चारे'त्यादि, इह च 'खेल'त्ति कण्ठमुखश्लेष्मा सिंधानक च-नासिकाश्लेष्मा, 'मणसमिए'त्ति संगतमनःप्रवृत्तिकः, ‘मणगुत्ते'त्ति मनोनिरोधवान्, 'गुत्ते'त्ति मनोगुप्तत्वादीनां निगमनं, एतदेव विशेषणायाह -'गुतिंदिए'त्ति 'गुत्तबंभयारी'त्ति गुप्त-ब्रह्मगुप्तियुक्तं ब्रह्म चरति यः स तथा 'चाइ'त्ति संगत्यागवान्, 'लज्जु'त्ति संयमवान् रज्जुरिव वा रज्जः-अवक्रव्यवहारः, 'धन्ने'ति धन्यो-धर्मधनं लब्धेत्यर्थः, 'खंतिखमे'त्ति क्षान्त्या क्षमते न त्वसमर्थतया योऽसौ क्षान्तिक्षमः, 'जितेन्द्रिय' इन्द्रियविकाराभावात्, यच्च प्राग्गुप्तेन्द्रिय इत्युक्तं तदिन्द्रियविकारगोपनमात्रेणापि स्यादिति विशेषः, 'सोहिए'त्ति शोभितः शोभावान् शोधितो वा निराकृतातिचारत्वात्, सौहदं-मैत्री सर्वप्राणिषु तद्योगात्सौहृदो वा, 'अणियाणे'त्ति प्रार्थनारहितः, 'अप्पुस्सुए'त्ति 'अल्पौत्सुक्यः' त्वरारहितः, 'अबहिल्लेस्से'त्ति अविद्यमाना बहिः-संयमाद्बहिस्ताल्लेश्या-मनोवृत्तिर्यस्यासावबहिर्लेश्यः, 'सुसामण्णरए'त्ति शोभने श्रमणत्वे रतोऽतिशयेन वा श्रामण्ये रतः, 'दंते'त्ति दान्तः क्रोधादिदमनात् व्यन्तो वा रागद्वेषयोरन्तार्थं प्रवृत्तत्वात, 'इणमेव'त्ति इदमेव प्रत्यक्षं 'पुरओ काउंति अग्रे विधाय मार्गानभिज्ञो मार्गज्ञनरमिव पुरस्कृत्य वा प्रधानीकृत्य 'विहरति' आस्ते इति । २१५७. 'एक्कारसअंगाई अहिज्जइ'त्ति इह कश्चिदाह-नन्वनेन स्कन्दकचरिताप्रागेवैकादशांगनिष्पत्तिरवसीयते, पंचमांगान्तर्भूतं च स्कन्दकचरितमिदमुप लभ्यते इति कथं न विरोधः ? उच्यते, श्रीमन्महावीरतीर्थे किल नव वाचनाः, तत्र च सर्ववाचनासु स्कन्दकचरितात्पूर्वकाले ये स्कन्दकचरिताभिधेया अर्थास्ते चरितान्तरद्वारेण प्रज्ञाप्यन्ते । स्कन्दकचरितोत्पत्तौ च सुधर्मस्वामिना जम्बूनामानं स्वशिष्यमंगीकृत्याधिकृतवाचनायामस्यां स्कन्दकचरितमेवाश्रित्य तदर्थप्ररूपणा कृतेति न विरोधः। अथवा सातिशायित्वाद् गणधराणामनागतकालभावचरितनिबन्धनमदुष्टमिति, भाविशिष्यसन्तानापेक्षयाऽतीतकालनिर्देशोऽपि न दुष्ट इति । 'मासिय'ति मासपरिमाणां 'भिक्खूपडिम'ति भिसूचितमभिग्रहविशेषम्, एतत्स्वरूपं च "गच्छा विणिक्खमित्ता पडिवाइ मासियं महापडिमं । दत्तेगमोयणस्सा पाणस्सवि एग जा मासं ॥" इत्यादि। नन्वयमेकादशांगधारी पठितः, प्रतिमाश्च विशिष्टश्रुतवानेव करोति, यदाह "गच्छे चिय णिम्माओ जा पुबा दस भवे असंपुण्णा । नवमस्स तइयवत्यू होई जहण्णो सुयाहिगमो ॥" इति कथं न विरोधः ? उच्यते, पुरुषान्तरविषयोऽयं श्रुतनियमः तस्य तु सर्वविदुपदेशेन प्रवृत्तत्वान्न दोष इति । २१५६. 'अहासुत्तं'त्ति सामान्यसूत्रानतिक्रमेण वा 'अहाकप्पंति प्रतिमाकल्पानतिक्रमेण तत्कल्पवस्त्वनतिक्रमेण वा 'अहामग्गं'ति ज्ञानादिमोक्षमार्गानतिक्रमण क्षायोपशमिकभावानतिक्रमेण वा 'अहातचंति यथातत्त्वं तत्त्वानतिक्रमेण मासिकी भिक्षुप्रतिमेति शब्दार्थानतिलंघनेनेत्यर्थः । 'अहासम्म'ति यथासाम्यं समभावानतिक्रमेण 'काएणंति न मनोरथमात्रेण 'फासेइ'त्ति उचितकाले विधिना ग्रहणात् 'पालेइ'त्ति असकृदुपयोगेन प्रतिजागरणात् 'सोहेइ 'त्ति शोभयति पारणकदिने गुर्वादिदत्तशेषभोजनकरणात्, शोधयति वाऽतिचारपक्षालनात् 'तीरेइ' त्ति पूर्णेऽपि तदवधौ स्तोककालावस्थानात् 'पूरेइ'त्ति पूर्णेऽपि तदवधौ तत्कृत्यपरिमाणपूरणात्, 'किट्टेइ'त्ति कीर्त्तयति पारणकदिने इदं चेदं चैतस्याः कृत्यं तच्च मया कृतमित्येवं कीर्तनात् ‘अणुपालेइ'त्ति तत्समाप्तौ तदनुमोदनात्, किमुक्तं भवति ? इत्याह-आज्ञयाऽऽराधयतीति । २।६०. एवमेताः सप्त सप्तमासान्ताः ततोऽष्टमी प्रथमसप्तरात्रिन्दिवा-सप्ताहोरात्रमानाः एवं नवमी दशमी चेति, एतास्तिस्रोऽपि चतुर्थभक्तेनापानकेनेति उत्तानकादिस्थानकृतस्तु विशेषः, 'राइंदिय'ति रात्रिन्दिवा, एकादशी अहोरात्रपरिमाणा, इयं च षष्ठभक्तेन । ‘एगराइय' त्ति एकरात्रिकी, इयं चाष्टमेन भवतीति। Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ४०२ श. २: उ.१: सू. ६१-६६ २ । ६१. 'गुणरयणसंवच्छरं' ति गुणानां - निर्जराविशेषाणां रचनं करणं संवत्सरेण -सत्रिभागवर्षेण यस्मिंस्तपसि तद् गुणरचनसंवत्सरं, गुणा एव वा रत्नानि यत्र स तथा गुणरत्नः संवत्सरो यत्र तद्गुणरलसंवत्सरं तपः, इह च त्रयोदशमासाः सप्तदशदिनाधिकास्तपः कालः, त्रिसप्ततिश्च दिनानि पारणककाल इति, एवं चायमू "पण्णरसवीसचउव्वीस चेव चउवीस पण्णवीसा य । चवीस एकवीसा चवीसा सत्तवीसा य ॥ तीसा तेत्तीसावि व चब्बीस छवीस अडवीसा य । तीसा बत्तीसावि य सोलसमासेसु तवदिवसा ॥ पण्णरस दसट्ठछष्पंचचउरपंचसु य तिण्णि तिष्णित्ति । पंचसु दो दो य तहा सोलसमासेसु पारणगा ॥ " इह च यत्र मासेऽष्टमादितपसो यावन्ति दिनानि न पूर्यन्ते तावन्त्यग्रेतनमासादाकृष्य पूरणीयानि, अधिकानि चाग्रेतनमासे क्षेप्तव्यानि । २ । ६२. 'चउत्थं चउत्थेणं'ति चतुर्थं भक्तं यावद्भक्तं त्यज्यते यत्र तच्चतुर्थम् इयं चोपवासस्य संज्ञा, एवं षष्ठादिकमुपवासद्वयादेरिति । 'अणिक्खित्तेणं' ति अविश्रान्तेन ‘दिय’त्ति दिवा दिवस इत्यर्थः, 'ठाणुक्कुडुए 'त्ति स्थानम् - आसनमुत्कुटुकम् - आधारे पुतालगनरूपं यस्यासौ स्थानोत्कुटुकः 'वीरासणेणं'ति सिंहासनोपविष्टस्य भून्यस्तपादस्यापनीतसिंहासनस्यैव यदवस्थानं तद् वीरासनं तेन 'अवाउडेण य'त्ति प्रावरणाभावेन च । २। ६४. ‘ओरालेण’मित्यादि 'ओरालेन' आशंसारहिततया प्रधानेन प्रधानं चाल्पमपि स्यादित्याह – 'विपुलेन' विस्तीर्णेन बहुदिनत्वात् विपुलं च गुरुभिरननुज्ञातमपि स्यात् प्रयत्नकृतं वा स्यादत आह-पयत्तेणं' ति प्रदत्तेनानुज्ञातेन गुरुभिः प्रयतेन वा प्रयत्नवता - प्रमादरहितेनेत्यर्थः, एवंविधमपि सामान्यतः प्रतिपन्नं स्यादित्याह - 'प्रगृहीतेन' बहुमानप्रकर्षादाश्रितेन, तथा 'कल्याणेन' नीरोगताकारणेन 'शिवेन' शिवहेतुना 'धन्येन' धर्मधनसाधुना 'मांगल्येन' दुरितोपशमसाधुना 'सश्रीकेण' सम्यक्पालनात् सशोभेन 'उदग्रेण ' उन्नतपर्यवसानेन उत्तरोत्तरं वृद्धिमतेत्यर्थः 'उदात्तेन' उन्नतभाववता 'उत्तमेणं'ति ऊर्ध्वं तमसः - अज्ञानाद्यत्तत्तथा तेन ज्ञानयुक्तेनेत्यर्थः उत्तमपुरुषासेवितत्वाद् वोत्तमेन 'उदारेण' औदार्यवता निःस्पृहत्वातिरेकात् 'महानुभागेन' महाप्रभावेण 'सुक्के 'त्ति शुष्को नीरसशरीरत्वात् 'लुक्खे'त्ति बुभुक्षावशेन रूक्षीभूतत्वात्, अस्थीनि चर्मावनद्धानि यस्य सोऽस्थिचर्मावनद्धः किटिकिटिकानिर्मांसास्थिसम्बन्ध्युपवेशनादिक्रियासमुत्थः शब्दविशेषस्तां भूतः - प्राप्तो यः स किटिकिटिकाभूतः 'कृशः ' दुर्बलः ‘धमनीसंततो' नाडीव्याप्तो मांसक्षयेण दृश्यमाननाडीकत्वात् । 'जीवंजीवेणं' ति अनुस्वारस्यागमिकत्वात् 'जीवजीवेन' जीवबलेन गच्छति न शरीरबलेनेत्यर्थः । 'भासं भासित्ते 'त्यादौ कालत्रयनिर्देश: 'गिलाइ 'त्ति ग्लायति ग्लानो भवति । ‘से जहानामए'त्ति ‘से’त्ति यथार्थः यथेति दृष्टान्तार्थः नामेति संभावनायाम् 'इति' वाक्यालंकारे 'कट्ठसगडिय'त्ति काष्ठभृता शकटिका काष्ठशकटिका ‘पत्तसगडिय'त्ति पलाशादिपत्रभृता गन्त्री 'पत्ततिलभंडगसगडिय'त्ति पत्रयुक्ततिलानां भाण्डकानां च मृन्मयभाजनानां भृता गन्त्रीत्यर्थः 'तिलसंठगसगडिय'त्ति क्वचित्पाठः प्रतीतार्थः । 'एरण्डकट्टसगडिय'त्ति एरण्डकाष्ठमयी एरण्डकाष्ठभृता वा शकटिका, एरण्डकाष्ठग्रहणं च तेषामसारत्वेन तच्छकटिकायाः शुष्कायाः सत्या अतिशयेन गमनादौ सशब्दत्वं स्यादिति 'अंगारशकटिका' अंगारभृता मंत्री 'उण्हे दिण्णा सुक्का समाणी'ति विशेषणद्वयं काष्ठादीनामार्द्राणामेव संभवतीति यथासंभवमायोज्यमिति । हुताशन इव भस्मराशिप्रतिच्छन्नः 'तवेणं तेएणं 'ति तपोल क्षणेन तेजसा, अयमभिप्रायः यथा भस्मच्छन्नोऽग्निर्बहिर्वृत्त्या तेजोरहितोऽन्तर्वृत्त्या तु ज्वलति। एवं स्कन्दकोऽपि अपचितमांसशोणितत्वाद् बहिर्निस्तेजा अन्तस्तु शुभध्यानतपसा ज्वलतीति । उक्तमेवार्थमाह २ । ६६. ‘पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि 'त्ति पूर्वरात्रश्च—रात्रेः भाग : अपरात्रश्च — अपकृष्टा रात्रिः पश्चिमतद्भाग इत्यर्थः, तल्लक्षणो यः कालसमयः कालात्मकः समयः स तथा तत्र, अथवा पूर्वरात्रापररात्रकालसमय इत्यत्र रेफलोपात् पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि 'त्ति स्याद्, धर्मजागरिकां जाग्रतः - कुर्वत इत्यर्थः, 'तं अत्थि ता मे त्ति देवमप्यस्ति तावन्मम उत्थानादि न सर्वथा क्षीणमिति भावः । 'तं जाव ता मे अत्थि' त्ति तत् तस्माद्यावता इति भाषामात्रे 'मे' ममास्ति 'जाव य'त्ति यावच्च 'सुहत्थि त्ति शुभार्थी भव्यान् प्रति सुहस्ती वा पुरुषवरगन्धहस्ती, एतच्च भगवत्साक्षिकोऽनशनविधिर्महाफलो भवतीत्यभिप्रायेण भगवन्निर्वाणे शोकदुःखभाजनं मा भूवमहम् इत्यभिप्रायेण वा चिन्तितमनेनेति । ‘कल्लमि’त्यादि, ‘कल्लं’ति श्वः प्रादुः- प्राकाश्ये ततः प्रकाशप्रभातायां रजन्यां 'फुल्लोत्पलकमलकोमलोन्मीलिते' फुल्लं - विकसितं तच्च तदुत्पलं च फुल्लोत्पलं तच्च कमलश्च - हरिणविशेषः फुल्लोत्पलकमलौ तयोः कोमलम् - अकठोरमुन्मीलितं — दलानां नयनयोश्चोन्मीलनं यस्मिंस्तत्तथा तस्मिन् ‘अथे’ति रजनीविभातानन्तरं पाण्डुरे प्रभाते रक्ताशोकप्रकाशेन किंशुकस्य शुकमुखस्य गुंजार्द्धस्य च रागेण सदृशो यः स तथा तस्मिन्, तथा कमलाकरा - हृदादयस्तेषु षण्डानि - नलिनीषण्डानि तेषां बोधको यः स कमलाकरषण्डबोधकस्तस्मिन् 'उत्थिते' अभ्युद्गते, कस्मिन् ? इत्याह- सूरे, पुनः किम्भूते ? इत्याह - राहस्सरस्सिमीत्यादि । 'कडाईहिं' ति इह पदैकदेशात्पदसमुदायो दृश्यस्ततः कृतयोग्यादिभिरिति स्यात्, तत्र कृता योगाः – प्रत्युपेक्षणादिव्यापारा येषां सन्ति ते कृत Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०३ भगवती वृत्ति श.२: उ.१,२ः सू.६६-७४ योगिनः। आदिशब्दात् प्रियधर्माणो दृढधर्माण इत्यादि गृह्यत इति, 'विउलं'ति विपुलं विपुलाभिधानं 'मेघघणसंनिगासं'ति घनमेघसदृशंसान्द्रजलदसमानं कालकमित्यर्थः 'देवसंनिवार्य'ति देवानां संनिपातः-समागमो रमणीयत्वाद् यत्र स तथा तं 'पुढविसिलापट्टयं ति पृथ्वीशिलारूपः पट्टकः-आसनविशेषः पृथिवीशिलापट्टकः काष्ठशिलाऽपि शिला स्यादतस्तदव्यवच्छेदाय पृथिवीग्रहणम् । 'संलेहणाजूसणाजूसियस्स'त्ति संलिख्यते-कृशीक्रियतेऽनयेति संलेखना-तपस्तस्या जोषणा-सेवा तया जुष्ट: सेवितो जूषितो वा क्षपितो यः स तथा तस्य "भत्तपाणपडियाइक्खियस्स'त्ति प्रत्याख्यातभक्तपानस्य 'कालं ति मरणं 'तिकट्ट' इतिकृत्वा इदं विषयीकृत्य । “एवं संपेहेइ'त्ति ‘एवम् उक्तलक्षणमेव 'संप्रेक्षते' पर्यालोचयति संगतासंगतविभागतः । २६८. 'उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ'त्ति पादपोपगमनादारादुच्चारादेस्तस्य कर्त्तव्यत्वादुच्चारादिभूमिप्रत्युपेक्षणं न निरर्थकम् । 'संपलियंकनिसण्णे'त्ति पद्मा सनोपविष्टः 'सिरसावत्तं'ति शिरसाऽप्राप्तम्-अस्पृष्टम्, अथवा शिरसि आवर्त आवृत्तिरावर्तनं—परिभ्रमणं यस्यासौ सप्तम्यलोपा च्छिरस्यावतस्तम्। २१६६. 'सढि भत्ताई'ति प्रतिदिनं भोजनद्वयस्य त्यागात्रिंशता दिनैः षष्टिभक्तानि त्यक्तानि भवन्ति 'अणसणाए'त्ति प्राकृतत्वादनशनेन 'छेइत्त'त्ति 'छित्त्वा' परित्यज्य 'आलोइयपडिकते'त्ति आलोचितं गुरूणां निवेदितं यदतिचारजातं तत्, प्रतिक्रान्तम् -अकरणविषयीकृतं येनासावालोचितप्रतिक्रान्तः अथवाऽऽलोचितश्चासावालोचनादानात् प्रतिक्रान्तश्च मिथ्यादुष्कृतदानादालोचितप्रतिक्रान्तः।। २१७०. परिणिबाणवत्तियंति परिनिर्वाणं-मरणं तत्र यच्छरीरस्य परिष्ठापनं तदपि परिनिर्वाणमेव तदेव प्रत्ययो-हेतुर्यस्य स परिनिर्वाणप्रत्ययोऽतस्तं । २१७१. 'कहिं गए'त्ति कस्यां गतौ 'कहिं उबवण्णे'त्ति व देवलोकादौ ? इति । २।७२. 'एगइयाणं'ति एकेषां न तु सर्वेषाम् ।। २।७३. 'आउक्खए 'ति आयुष्ककर्मदलिकनिर्जरणेन, 'भवक्खएणं'ति देवभवनिबन्धनभूतकर्मणां गत्यादीनां निर्जरणेन 'ठितिक्खएणं'ति आयुष्ककर्मणः स्थितेर्वेदनेन 'अणंतरं'ति देवभवसम्बन्धिनं 'चय'न्ति शरीरं 'चइत्त'त्ति त्यक्त्वा अथवा 'चर्य'ति च्यवं--च्यवनं 'चइत्त'त्ति च्युत्वा कृत्वाऽनन्तरं क्व गमिष्यति ? इत्येवमनन्तरशब्दस्य सम्बन्धः कार्य इति। ॥द्वितीयशते प्रथमोद्देशकः ॥ द्वितीय उद्देशकः अथ द्वितीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्ध:-केण वा मरणेण मरमाणे जीवे वड्डइ ति प्रागुक्तं, मरणं च मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहतस्यान्यथा च भवतीति समुद्घातस्वरूपमिहोच्यते, इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम् २१७४. 'कइ णं भंते ! समुग्याए'त्यादि तत्र 'हन् हिंसागत्योः' इति वचनाद् हननानि-याताः सम्-एकीभावे उत्-प्राबल्येन ततश्चैकीभावेन प्राबल्येन च घाताः समुद्घाताः, अथ केन सहैकीभावः ? उच्यते----यदाऽऽत्मा वेदनादिसमुद्घातगतो भवति तदा वेदनाद्यनुभवज्ञानपरिणत एव भवतीति वेदनाद्यनुभवज्ञानेन सहकीभावः । अथ प्राबल्येन घाताः कथम् ? उच्यते यस्माद् वेदनादिसमुद्धातपरिणतो बहून वेदनीयादिकर्मप्रदेशान् कालान्तरानुभवयोग्यानुदीरणाकरणेनाकृष्य उदये प्रक्षिप्यानुभूय निर्जरयति, आत्मप्रदेशैः सह श्लिष्थन् शातयतीत्यर्थः, अतः प्राबल्येन धाता इति। 'सत्त समुग्घाय'त्ति वेदनासमुद्घातादयः । एते च प्रज्ञापनायामिव द्रष्टव्याः, अत एवाह-'छाउमथिए'त्यादि, 'छाउमस्थियसमुग्घायवज्र'ति 'कइ णं भंते ! छाउमधिया समुग्धाया पण्णत्ता' इत्यादिसूत्रवर्जितं 'समुग्घायपयंति प्रज्ञापनायाः षट्त्रिंशत्तमपदं समुद्घातार्थमिह नेतव्यं तच्चैवम्-'कइ णं भंते! समुग्घाया पण्णत्ता ? गोयमा ! सत्त समुग्धाया पण्णत्ता, तंजहा–वेयणासमुग्घाए कसायसमुग्धाए'इत्यादि। इह संग्रहगाथा "वेयण कसाय मरणे वेउब्बिय तेयए य आहारे । केवलिए चेव मवे जीवमणुस्साण सत्तेव ।।" जीवपदे मनुष्यपदे च सप्त वाच्याः । नारकादिषु तु यथायोगमित्यर्थः । तत्र वेदनासमुद्घातेन समुद्धत आत्मा वेदनीयकर्मपुद्गलानां शातं करोति, कषायसमुद्घातेन कषायपुद्गलानां मारणान्तिकसमुद्घातेनायुःकर्मपुद्गलानां, वैकुर्विकसमुद्घातेन तु समुद्धतो जीवप्रदेशान् शरीराद् बहिर्निष्काश्य शरीरविष्कम्भबाहल्यमात्रमायामतश्च संख्येययोजनानि दण्डं निसृजति, निसृज्य च यथास्थूलान् वैक्रियशरीरनामकर्मपुद्गलान् निसिरित्ता प्राग्बद्धान् शातयति यथासूक्ष्मांश्चादत्ते, यधोक्तम्-'वेउब्वियसमुग्याएणं समोहण्णइ समोहणित्ता संखेजाई जोयणाई दण्डं निसिरइ, निसिरित्ता अहाबायरे पोग्गले परिसाडेइ, अहासुहमे पोग्गले आइयइ"त्ति एवं तैजसाहारकसमुद्घातावपि व्याख्येयौ। केवलिसमुद्घातेन तु समुद्धतः केवली वेदनीयादिकर्मपुद्गलान् शातयतीति, एतेषु च सर्वेष्वपि समुद्घातेषु शरीराज्जीवप्रदेशनिर्गमोऽस्ति । सर्वे चैतेऽन्तर्मुहूर्तमानाः नवरं केवलिकोऽष्टसामयिकः। एतेचैकेन्द्रियविकलेन्द्रियाणामादितस्त्रयो, वायुनारकाणां चत्वारः, देवानां पंचेन्द्रियतिरश्चां च पञ्च, मनुष्याणां तु सप्तेति। ॥द्वितीयशते द्वितीयोद्देशकः ॥ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.२: उ.३,४: सू.७५-७७ ४०४ भगवती वृत्ति तृतीय उद्देशकः अथ तृतीय आरभ्यते । अस्य चायमभिसम्बन्धः-द्वितीयोद्देशके समुद्घाताः प्ररूपिताः, तेषु च मारणान्तिकसमुद्घातः तेन समवहता केचि त्पृथिवीषूत्पद्यन्त इतीह पृथिव्यः प्रतिपाद्यन्ते, इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्२।७५. 'कइ णं भंते ! पुढवीओ'इत्यादि, इह च जीवाभिगमे नारकद्वितीयोद्देशकार्थसंग्रहगाथा "पुढवी ओगाहित्ता निरया संठाणमेव बाहल्लं । विक्खंभपरिक्खेवो वण्णो गंयो य फासो य॥" सूत्रपुस्तकेषु च पूर्वार्द्धमेव लिखितं शेषाणां विवक्षितार्थानां यावच्छब्देन सूचितत्वादिति। तत्र 'पुढवि'त्ति पृथिव्यो वाच्याः ताश्चैवम्-'कइ णं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! सत्त, तंजहा-रयणप्पभे'त्यादि। 'ओगाहित्ता निरय'त्ति पृथिवीमवगाह्य कियद्रे नरकाः ? इति वाच्यं, तत्रास्यां रत्नप्रभायामशीतिसहस्रोत्तरयोजनलक्षबाहल्यायामुपर्येक योजनसहस्रमवग्राह्याधोऽप्येकं वर्जयित्वा त्रिंशन्नरकलक्षाणि भवन्ति । एवं शर्कराप्रभादिषु यथायोगं वाच्यम् । 'संठाणमेव'त्ति नरकसंस्थानं वाच्यम्। तत्र ये आवलिकाप्रविष्टस्ते वृत्तालयस्राश्चतुरस्राश्च, इतरे तु नानासंस्थानाः। 'बाहल्लं'ति नरकाणां बाहल्यं वाच्यं, तच्च त्रीणि योजनसहस्राणि, कथम् ? अध एक मध्ये शुषिरमेकमुपरि च संकोच एकमिति । 'विक्खंभपरिक्खेवो'त्ति एतौ वाच्यौ । तत्र संख्यातविस्तृतानां संख्यातयोजन आयामो विष्कम्भः परिक्षेपश्च, इतरेषां त्वन्यथेति । तथा वर्णादयो वाच्याः, ते चात्यन्तमनिष्य इत्यादि बहु वक्तव्यं यावदयमुद्देशकान्तः, यदुत२१७६. 'किं सव्वपाणा ?'इत्यादि, अस्य चैवं प्रयोगः-अस्यां रलप्रभायां त्रिंशन्नरकलक्षेषु किं सर्वे प्राणादयः उत्पन्नपूर्वाः ? अत्रोत्तरम्-'असइंति असकृद्-अनेकशः। इदं च वेलाद्वयादावपि स्यादतोऽत्यन्तबाहुल्यप्रतिपादनायाह–'अदुव'त्ति अथवा 'अणंतखुत्तो'त्ति 'अनन्तकृत्वः' अनन्तवारानिति । ॥द्वितीयशते तृतीयोद्देशकः ॥ चतुर्थ उद्देशकः ततीयोद्देशके नारका उक्ताः, ते च पंचेन्द्रिया इतीन्द्रियप्ररूपणाय चतुर्थोद्देशकः तस्य चादिसूत्रम्२१७७. 'कइ ण'मित्यादि, 'पढमिल्लो इंदियउद्देसओ नेयव्वोत्ति प्रज्ञापनायामिन्द्रियपदाभिधानस्य पंचदशपदस्य प्रथम उद्देशकोऽत्र 'नेतव्यः'अध्येतव्यः । तत्र च द्वारगाथा "संठाणं बाहल्लं पोहत्तं कइपएसओगाढे। अप्पाबहुपुटुपविद्वविसय अणगार आहारे ||" इह च सूत्रपुस्तकेषु द्वारत्रयमेव लिखितं शेषास्तु तदर्था यावच्छब्देन सूचिताः। तत्र संस्थानं श्रोत्रादीन्द्रियाणां वाच्यं, तच्चेदं श्रोत्रेन्द्रियं कदम्बपुष्पसंस्थितं चक्षुरिन्द्रियं मसूरकचन्द्रसंस्थितं, मसूरकम्-आसनविशेषश्चन्द्रः-शशी, अथवा मसूरकचन्द्रो-धान्यविशेषदलं । घ्राणेन्द्रियमतिमुक्तकचन्द्रकसंस्थितं, अतिमुक्तचन्द्रकः-पुष्पविशेषदलं, रसनेन्द्रियं क्षुरप्रसंस्थितं, स्पर्शनेन्द्रियं नानाकारम् । 'बाहल्लं'ति इन्द्रियाणां बाहल्यं वाच्यं, तच्चेदं सर्वाण्यंगुलासंख्येयभागबाहल्यनि । 'पोहत्तंति पृथुत्वं, तच्चेदं श्रोत्रचक्षुर्घाणानामंगुलासंख्येयभागो जिह्वेन्द्रियस्यांगुलपृथक्त्वं, स्पर्शनेन्द्रियस्य च शरीरमानम् । 'कइपएस'त्ति अनन्तप्रदेशनिष्पन्नानि पञ्चापि ओगाढे'त्ति असंख्येयप्रदेशावगाढानि । 'अप्पाबहु'त्ति सर्वस्तोकं चक्षुरवगाहतस्ततः श्रोत्रघ्राणरसनेन्द्रियाणि क्रमेण संख्यातगुणानि ततः स्पर्शनं त्वसंख्येयगुणमित्यादि। 'पुट्ठपविट्ठ'त्ति श्रोत्रादीनि चर्रहितानि स्पृष्टमर्थं प्रविष्टं च गृह्णन्ति । 'विसय'त्ति सर्वेषां जघन्यतोऽङ्गुलस्यासंख्येयभागो विषयः उत्कर्षतस्तु श्रोत्रस्य द्वादश योजनानि, चक्षुषः सातिरेक लक्षं, शेषाणां च नव योजनानीति। 'अणगारे'त्ति अनगारस्य समुद्घातगतस्य ये निर्जरापुद्गलास्तान्न छद्मस्थो मनुष्यो पशयतीति । 'आहारे'त्ति निर्जरापुद्गलान्नारकादयो न जानन्ति न पश्यन्ति आहारयन्ति चेत्येवमादि बहु वाच्यम् । Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ४०५ श.२: उ.४,५: सू.७७-८६ अथ किमन्तोऽयमुद्देशकः ? इत्याह-'यावदलोकः' अलोकसूत्रान्तः, तच्चेदम् २१७८. 'अलोगे णं भंते ! किणा फुडे कइहिं वा काएहिं फुडे ? गोयमा ! नो धम्मस्थिकाएणं फुडे जाव नो आगासस्थिकाएणं फुडे, आगासस्थिकायस्स देसेणं फुडे आकासस्थिकायस्स पएसेहिं फुडे, नो पुढविकाइएणं फुडे जाव नो अद्धासमएणं फुडे, एगे अजीवदव्वदेसे अगुरुलहुए अणंतेहिं अगुरुलहुयगुणेहिं संजुत्ते सव्वागासे अणंतभागूणे'त्ति। नालोको धर्मास्तिकायादिना पृथिव्यादिकायैः समये च स्पृष्टो-व्याप्तः, तेषां तत्रासत्त्वात्, आकाशास्तिकायदेशादिभिश्च स्पृष्टः, तेषां तत्र सत्त्वात्, एकश्चासावजीवद्रव्यदेशः, आकाशद्रव्यदेशत्वात्तस्येति। ॥द्वितीयशते चतुर्थोद्देशकः॥ पंचम उद्देशकः अनन्तरमिन्द्रियाण्युक्तानि तद्वशाच्च परिचारणा स्यादिति तन्निरूपणाय पञ्चमोदेशकस्येदमादिसूत्रम्२१७६. 'देवभूएणं ति देवभूतेनात्मना करणभूतेन नो परिचारयतीति योगः | ‘से णं'ति असौ निर्ग्रन्थदेवः 'तत्र' देवलोके 'नो' नैव 'अण्णे'त्ति 'अन्यान्' आत्मव्यतिरिक्तान् ‘देवान्' सुरान् तथा नो अन्येषां देवानां सम्बन्धिनीर्देवीः 'अभिजुंजिय'त्ति 'अभियुज्य' वशीकृत्य आश्लिष्य वा 'परिचारयति' परिभुक्ते णो 'अप्पणिच्चियाओ'त्ति आत्मीयाः 'अप्पणामेव अप्पाणं विउव्विय'त्ति स्त्रीपुरुषरूपतया विकृत्य, एवं च स्थिते-'एगे वि य ण'मित्यादि 'परउत्थियवत्तव्वा णेयव्य'त्ति एवं चेयं ज्ञातव्या-'जं समयं इस्थिवेयं वेएइ तं समयं पुरिसवेयं वेएइ, जं समयं पुरिसवेयं वेएइ तं समयं इस्थिवेयं वेएइ, इस्थिवेयस्स वेयणाए पुरिसवेयं देएइ, पुरिसवेयस्स वेयणाए इत्थीवेयं वेएइ, एवं खलु एगेऽवि य ण'मित्यादि। मिथ्यात्वं चैषामेवं-स्त्रीरूपकरणेऽपि तस्य देवस्य पुरुषत्वात् पुरुषवेदस्यैवैकत्र समये उदयो न स्त्रीवेदस्य, स्त्रीवेदपरिवृत्त्या वा स्त्रीवेदस्यैव, न पुरुषवेदस्योदयः, परस्परविरुद्धत्वादिति । २१८०. 'देवलोएसु'त्ति देवजनेषु मध्ये 'उववत्तारो भवंति'त्ति प्राकृतशैल्या उपपत्ता भवतीति दृश्यं, 'महिड्डिए'इत्यत्र यावत्करणादिदं दृश्य-'महजइए महाबले महायसे महासोक्खे महाणुभागे हारविराइयवच्छे कडयतुडियर्थभियभुए' त्रुटिका-बाहुरक्षिका 'अंगयकुंडलमट्ठगंडकण्णपीढधारी' अंगदानि-बाह्याभरणविशेषान, कुंडलानि–कर्णाभरणविशेषान्, मृष्टगण्डानि च-उल्लिखितकपोलानि, कर्णपीठानि–कर्णाभरणविशेषान् धारयतीत्येवंशीलो यः स तथा, 'विचित्तहत्याभरणे विचित्तमालामउलिमउडे' विचित्रमाला च-कुसुमसग् मौलौ-मस्तके मुकुटं च यस्य स तथा, इत्यादि यावत् 'रिद्धीए जुईए पभाए छायाए अच्चीए तेएणं लेसाए दस दिसाओ उज्जोवेमाणे'त्ति तत्र ऋद्धि:-परिवारादिका, युतिः-इटार्थसंयोगः, प्रभा-यानादिदीप्तिः, छाया-शोभा, अर्चि:-शरीरस्थरत्नादितेजोज्वाला, तेजः-शरीरार्चिः, लेश्या-देहवर्णः, एकार्थावते, उद्द्योतयन्, प्रकाश करणेन, 'पभासेमाणे'त्ति प्रभासयन् शोभयन् । इह यावत्करणादिदं दृश्यं–'पासाइए' द्रष्ट्टणां चित्तप्रसादजनकः 'दरिसणिज्जे' यं पश्यच्चक्षुर्न थाम्यति 'अभिरूवे' मनोज्ञरूपः 'पडिरूवे'त्ति द्रष्टारं द्रष्यरं प्रति रूपं यस्य स तथेति । एकेनैकदैक एव वेदो वेद्यत इह कारणमाह-'इत्थी इस्थिवेएण'मित्यादि । परिचारणायां किल गर्भः स्यादिति गर्भप्रकरणं, तत्र२।८१. 'उदगगब्बे णं'क्वचित् 'दगगब्बे णति दृश्यते तत्रोदकगर्भः-कालान्तरेण जलप्रवर्षणहेतुः पुद्गलपरिणामः, तस्य चावस्थानं जघन्यतः समयः समयानन्तरमेव प्रवर्षणात्। उत्कृष्टतस्तु षण्मासान्, षण्णां मासानामुपरि वर्षणात्। अयं च मार्गशीर्षपौषादिषु वैशाखान्तेषु सन्ध्यारागमेघोत्पादादिलिंगो भवति । यदाह "पौषे समार्गशीर्षे सन्ध्यारागोऽम्बुदाः सपरिवेषाः। नात्पर्य मार्गशिरे शीतं पोषेऽतिहिमपातः॥" २११४. 'कायभवत्थे णं भंते !'इत्यादि, काये-जनन्युदरमध्यव्यवस्थितनिजदेह एव यो भवो-जन्म स कायभवस्तत्र तिष्ठति यः स कायभवस्थः स च कायभवस्थ इति, एतेन पर्यायेणेत्यर्थः 'चउव्वीसं संवच्छराईति स्त्रीकाये द्वादश वर्षाणि स्थित्वा पुनर्मृत्वा तस्मिन्नेवात्मशरीरे उत्पद्यते द्वादशवर्षस्थितिकतया, इत्येवं चतुर्विंशतिवर्षाणि भवन्ति। केचिदाहुः-द्वादश वर्षाणि स्थित्वा पुनस्तत्रैवान्यबीजेन तच्छरीरे उत्पद्यते द्वादशवर्षस्थितिरिति। २।८६. 'एगजीवे णं भंते !'इत्यादि, मनुष्याणां तिरश्चां च बीजं द्वादश मुहूर्तान् यावद् योनिभूतं भवति, ततश्च गवादीनां शतपृथक्त्वस्यापि वीज गवादियोनिप्रविष्टं बीजमेव, तत्र च बीजसमुदाये एको जीव उत्पद्यते, स च तेषां बीजस्वामिनां सर्वेषां पुत्रो भवतीत्यत उक्तम्-'उकोसेणं सयपुहुत्तस्से'त्यादि। 'सयसहरसपुहुत्त'ति मत्स्यादीनामेकसंयोगेऽपि शतसहस्रपृथक्त्वं गर्भ उत्पद्यते निष्पद्यते चेत्येकस्यैकभवग्रहणे लक्षपृथक्त्वं पुत्राणां भवतीति। मनुष्ययोनौ पुनरुत्पन्ना अपि बहवो न निष्पद्यन्त इति । Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.२: उ.५: सू.८५-६५ ४०६ भगवती वृत्ति २११८. 'इत्थीए पुरिसस्स य'इत्येतस्य 'मेहुणवत्तिए नामं संयोगे समुप्पज्जति' इत्यनेन सम्बन्धः कस्यामसौ उत्पद्यते ? इत्याह-'कम्मकडाए जोणीए'त्ति नामकर्मनिवर्तितायां योनौ अथवा कर्म-मदनोद्दीपको व्यापारस्तत् कृतं यस्यां सा कर्मकृताऽतस्तस्यां मैथुनस्यवृत्तिः-प्रवृत्तियस्मिन्नसौ मैथुनवृत्तिको मैथुनं वा प्रत्ययो-हेतुर्यस्मिन्नसौ स्वार्थिके कप्रत्यये मैथुनप्रत्ययिकः 'नाम'ति नाम नामवतोरभेदोपचारादेतन्नामेत्यर्थः संयोगः संपर्कः। 'ते' इति स्त्रीपुरुषौ 'दुहओ'त्ति उभयतः 'स्नेह' रेतः शोणितलक्षणं 'संचिनुतः' सम्बन्धयतः इति । 'मेहुणवत्तिए नामं संजोए'त्ति प्रागुक्तम् । अथ मैथुनस्यैवासंयमहेतुताप्ररूपणसूत्रम्२।१६. 'रूयनालियं वत्ति रूतं-कर्पासविकारस्तभृता नालिका-शुषिरवंशादिरूपा रूतनालिका ताम्। एवं बूरनालिकामपि, नवरं बूरं-वनस्पति विशेषावयवविशेषः। 'समभिद्धंसेज'त्ति रूतादिसमभिध्वंसनात्, इह चायं वाक्यशेषो दृश्यः-एवं मैथुन सेवमानो योनिगतसत्त्वान् मेहनेनाभिध्वंसयेत्। एते च किल ग्रन्थान्तरे पञ्चेन्द्रिया श्रूयन्ते इति । 'एरिसएण'मित्यादि च निगमनमिति। पूर्व तिर्यङ्मनुष्योत्पत्तिर्विचारिता, अथ देवोत्पत्तिविचारणायाः प्रस्तावनायेदमाह२१६४. 'अड्ड'त्ति आढ्या धनधान्यादिभिः परिपूर्णाः 'दित्त'त्ति दीप्ताः-प्रसिद्धाः दृप्ता वा दर्पिताः 'विच्छिन्नविपुलभवणसयणासणजाणवाहणा' विस्तीर्णानि-विस्तारवन्ति विपुलानि-प्रचुराणि भवनानि-गृहाणि शयनासनयानवाहनैराकीर्णानि येषां ते तथा, अथवा विस्तारणानि-विपुलानि भवनानि येषां शयनासनयानवाहनानि चाकीर्णानि गुणवन्ति येषां ते तथा, तत्र यानं-गव्यादि, वाहनं तु-अश्वादि 'बहुधणबहुजायरूवरयया' बहु-प्रभूतं धनं-गणिमादिकं तथा, बहु एव जातरूपं-सुवर्णं रजतं च रूप्यं येषां ते तथा, 'आओगपोगसंपउत्ता' आयोगो-द्विगुणादिवृद्ध्याऽर्थप्रदानं प्रयोगश्च-कालान्तरं तौ संप्रयुक्तौ--व्यापारितौ यैस्ते तथा, 'विच्छड्डियविउलभत्तपाणा' विच्छर्दितं-विविधमुज्झितं बहुलोकभोजनत उच्छिष्टावशेषसंभवात् विच्छर्दितं वा-विविधविच्छित्तिमद्विपुलं भक्तं च पानकं च येषां ते तथा, 'बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूया' बहवो दासीदासा येषां ते गोमहिषगवेलकाश्च प्रभूता येषां ते तथा, गवेलका-उरभ्राः 'बहुजणस्स अपरिभूया' बहोर्लोकस्यापरिभवनीयाः 'आसवे'त्यादौ क्रिया:-कायिक्यादिकाः 'अधिकरणं' गंत्रीयंत्रकादि 'कुसल'त्ति आश्रवादीनां हेयोपादेयतास्वरूपवेदिनः, 'असहेजे' त्यादि अविद्यमानं साहाय्यं-परसाहायकं अत्यन्तसमर्थत्वाद् येषां तेऽसाहाय्यास्ते च ते देवादयश्चेति कर्मधारयः अथवा व्यस्तमेवेदं तेनासाहाय्या आपद्यपि देवादिसाहायकानपेक्षाः स्वयं कृतं कर्म स्वयमेव भोक्तव्यमित्यदीनमनोवृत्तय इत्यर्थः अथवा पाषण्डिभिः प्रारब्धाः सम्यक्त्वाविचलनं प्रति न परसाहाय्यमपेक्षन्ते, स्वयमेव तत्प्रतिघातसमर्थत्वाजिनशासनात्यन्तभावितत्वाच्चेति, तत्र देवा-वैमानिकाः 'असुरे'ति असुरकुमाराः 'नाग'त्ति नागकुमाराः उभयेऽप्यमी भवनपतिविशेषाः 'सुवण्ण'त्ति सवर्णाः ज्योतिष्काः यक्षराक्षसकिंनरकिंपुरुषा:-व्यन्तरविशेषाः 'गरुल'त्ति गरुडध्वजाः सुपर्णकुमारा:-भवनपतिविशेषाः गन्धर्वा महोरगाश्च-व्यन्तरविशेषाः 'अणतिकमणिज्जत्ति अनतिक्रमणीयाः-अचालनीयाः। 'लद्धट्ठ'त्ति अर्थश्रवणात् 'गहियट्ठ'त्ति अर्थावधारणात् 'पुच्छियट्ठ'त्ति सांशयिकार्थप्रश्नकरणात्' 'अभिगहियट्ट'त्ति प्रश्नितार्थस्याभिगमनात् 'विणिच्छियट्ठ'त्ति ऐदम्पर्यार्थस्योपलम्भाद् अत एव 'अडिमिंजपेम्माणुरागरत्ता' अस्थीनि च-कोकसानि मिञा च-तन्मध्यवर्ती धातुरस्थिमिजास्ताः प्रेमानुरागेण-सर्वज्ञप्रवचनप्रीतिरूपकुसुम्भादिरागेण रक्ता इव रक्ता येषां ते तथा, अथवाऽस्थिमिजासु जिनशासनगतप्रेमानुरागेण रक्ता ये ते तथा। केनोल्लेखेन ? इत्याह 'अयमाउसो'इत्यादि, अयमिति-प्राकृतत्वादिदम् ‘आउसो'त्ति आयुष्मन्निति पुत्रादेरामंत्रणं 'सेसे'त्ति शेष-निर्ग्रन्थप्रवचनव्यतिरक्तं धनधान्यपुत्रकलत्रमित्रकुप्रवचनादिकमिति, 'ऊसियफलिह'त्ति उशितम्-उन्नतं स्फटिकमिव स्फटिक चित्तं येषां ते उतिस्फटिकाः मौनीन्द्रप्रवचनावाप्त्या परितुष्टमानसा इत्यर्थ इति वृद्धव्याख्या। अन्ये त्वाहुः-उशितः-अर्गलास्थानादपनीयोर्वीकृतो न तिरश्चीनः कपाटपश्चाद्भागादपनीत इत्यर्थः परिष:-अर्गला येषां ते उशितपरिघाः, अथवोट्टितो-गृहद्वारादपगतः परिघो येषां ते उशितपरिघाः औदार्यातिशयादतिशयदानदायित्वेन भिक्षुकाणां गृहप्रवेशनार्थमनर्गलितगृहद्वारा' इत्यर्थः। 'अवंगुयदुवारे'ति अप्रावृतद्वारा-कपायदिभिरस्थगितगृहद्वारा इत्यर्थः, सद्दर्शनलाभेन न कुतोऽपि पाषण्डिका बिभ्यति, शोभनमार्गपरिग्रहेणोद्घाटशिरसस्तिष्ठन्तीति भाव इति वृद्धव्याख्या। अन्ये त्याहु:-भिक्षुकप्रवेशार्थमौदार्यादस्थगितगृहद्वारा इत्यर्थः । 'चियत्तंतेउरघरम्पवेसा' 'चियत्तो'त्ति लोकानां प्रीतिकर एवान्तःपुरे वा गृहे वा प्रवेशो येषां ते तथा, अतिधार्मिकतया सर्वत्रानाशंकनीयास्त इत्यर्थः । अन्ये त्याहु:-'चियत्तो'त्ति नाप्रीतिकरोऽन्तःपुरगृहयोः प्रवेशः-शिष्टजनप्रवेशनं येषां ते तथा, अनीर्ष्यालुताप्रतिपादनपरं चेत्थं विशेषणमिति। अथवा 'चियत्तो'त्ति त्यक्तोऽन्तःपुरगृहयोः परकीययोर्यथाकथंचिप्रवेशो यैस्ते तथा।। 'बहुहिं'इत्यादि शीलव्रतानि-अणुव्रतानि गुणा-गुणव्रतानि विरमणानि-औचित्येन रागादिनिवृत्तयः प्रत्याख्यानानि-पौरुष्यादीनि पौषधंपर्वदिनानुष्ठानं तत्रोपवास:--अवस्थानं पौषधोपवासः, एषां द्वन्द्वोऽतस्तैर्युक्ता इति गम्यम्। पौषधोपवास इत्युक्तं, पौषधं च यदा यथाविधं च ते कुर्वन्तो विहरन्ति, तद्दर्शयन्नाह-'चाउद्दसे'त्यादि, इहोद्दिष्य-अमावस्या पडिपुण्णं पोसहति आहारादिभेदाच्चतुर्विधमपि सर्वतः । 'वत्थपडिग्गहकंबलपायपूंछणेणं' ति इह पतद्ग्रह-पात्रं पादप्रोञ्छनं-रजोहरणं 'पीढे त्यादि पीठम-आसनं फलकं-अवष्टाभनफलक शय्या-वसतिद्धृहत्संस्तारको वा संस्तारको लघुतरः एषां समाहारद्वन्द्वोऽतस्तेन 'अहापरिग्गहिएहिति यथाप्रतिपन्नैर्न पुनहसिं नीतैः । २५. 'थेर'त्ति श्रुतवृद्धः, 'रूवसम्पन्न'त्ति इह रूपं–सुविहितनेपथ्यं शरीरसुन्दरता वा तेन सम्पन्ना-युक्ता रूपसंपन्नाः 'लज्जासंपन्ना लाघवसंपन्ने'त्ति लज्जा-प्रसिद्धा संयमो वा लाघवं-द्रव्यतोऽल्पोपधित्वं भावतो गौरवत्यागः, 'ओयंसी ति ओजस्विनो मानसावष्टम्भयुक्ताः 'तेयंसी ति 'तेजस्विनः, १. प्रवेशार्थ क. घ. च. छ. Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति श.२ः उ.५ः सू.६५-१०८ ४०७ शरीरप्रभायुक्ताः‘वच्च॑सी’ति ‘वर्चस्विनः' विशिष्टप्रभावोपेताः 'वचस्विनो वा, विशिष्टवचनयुक्ताः 'जसंसी 'ति ख्यातिमतः अनुस्वारश्चैतेषु प्राकृतत्वात्, 'जीवियासमरणभयविप्पमुक्क' त्ति जीविताशया मरणभयेन च विप्रमुक्ता ये ते तथा । इह यावत्करणादिदं दृश्यं - 'तवप्पहाणा गुणप्पहाणा' गुणाश्च संयमगुणाः तपः संयमग्रहणं चेह तपःसंयमयोः प्रधानमोक्षाङ्गगताभिधानार्थं, तथा 'करणप्पहाणा चरणप्पहाणा' तत्र करणं - पिण्डविशुद्ध्यादि, चरणं - व्रतश्रमणधर्मादि 'निग्गहप्पहाणा' निग्रहः - अन्यायकारिणां दण्डः 'निच्छयप्पहाणा' निश्चयः– अवश्यकरणाभ्युपगमस्तत्त्वनिर्णयो वा 'मद्दवम्पहाणा अज्जवप्पहाणा' 'ननु जितक्रोधादित्वान्मार्द्दवादिप्रधानत्वमवगम्यत एव तत्किं मार्दवेत्यादिना ? उच्यते, तत्रोदयविफलतोक्ता, मार्दवादिप्रधानत्वे तूदयाभाव एवेति । 'लाघवप्पहाणा' लाघवं - क्रियासु दक्षत्वं 'खंतिप्पहाणा मुत्तिप्पहाणा एवं विज्जामंतवेयबंभनयनियमसञ्च्चसोयप्पहाणा' 'चारुपण्णा' सत्प्रज्ञाः 'सोही' शुद्धिहेतुत्वेन शोधयः सुहृदो वा मित्राणि जीवानामिति गम्यम् 'अणियाणा अप्पुस्सुया अबहिल्लेसा सुसामण्णरया अच्छिद्दपसिणवागरणे' त्ति अच्छिद्राणि - अविरलानि निर्दूषणानि वा प्रश्नव्याकरणानि येषां ते तथा, तथा 'कुत्तियावणभूय'त्ति कुत्रिकं स्वर्गमर्त्यपाताललक्षणं भूमित्रयं तत्संभवं वस्त्वपि कुत्रिकं तत्संपादक आपणो - हट्टः कुत्रिकापणस्तद्भूताः समीहितार्थसम्पादनलब्धियुक्तत्वेन सकलगुणोपेतत्वेन वा तदुपमाः 'सद्धिं 'ति सार्द्धं सहेत्यर्थः 'संपरिवृताः' सम्यक्परिवारिताः परिकरभावेन परिकरिता इत्यर्थः पंचभिः श्रमणशतैरेव । २। ६६. 'सिंघाडग 'त्ति शृङ्गाटकफलाकारं स्थानं, त्रिकं—- रथ्यात्रयमीलनस्थानं, चतुष्कं —- रथ्याचतुष्कमीलनस्थानं चत्वरं - बहुतररथ्यामीलनस्थानं, महापथोराजमार्गः, पन्था - रथ्यामात्रम् । यावत्करणाद् 'बहुजणसद्दे इ वा इत्यादि पूर्वं व्याख्यातमत्र दृश्यम् । २ । ६७. 'पडिसुर्णेति त्ति अभ्युपगच्छंति 'सयाई' ति स्वकीयानि 'कयबलिकम्म'त्ति स्नानानन्तरं कृतं बलिकर्म यैः स्वगृहदेवतानां ते तथा, 'कयकोउयमंगलपायच्छित्त' त्ति कृतानि कौतुकमंगलान्येव प्रायश्चित्तानि दुःस्वप्रादिविधातार्थमवश्यकरणीयत्वाद्यैस्तै तथा । अन्ये त्वाहुः 'पायच्छित्त'त्ति पादेन पादे वा छुप्ताश्चक्षुर्दोषपरिहारार्थं पादच्छुप्ताः' कृतकौतुकमंगलाश्च ते पादच्छुप्ताश्चेति' विग्रहः । तत्र कौतुकानि - मषीतिलकादीनि मंगलानि तु - सिद्धार्थकदध्यक्षतदूर्वांकुरादीनि । 'सुद्धप्पावेसाई'ति शुद्धात्मनां वैष्याणि - वेषोचितानि अथवा शुद्धानि च तानि प्रवेश्यानि च राजादि - सभाप्रवेशोचितानि शुद्धप्रवेश्यानि 'वत्थाई पवराई परिहिय'त्ति क्वचित् दृश्यते, क्वचिच 'वत्थाई पवरपरिहिय'त्ति, तत्र प्रथमपाठो व्यक्तः, द्वितीयस्तु प्रवरं यथाभवत्येवं परिहिताः प्रवरपरिहिताः 'पायविहारचारेणं' ति पादविहारेण न यानविहारेण यश्चारो-गमनं स तथा तेन । 'अभिगमेणं'ति प्रतिपत्त्या अभिगच्छंति तत् समीपम् अभिगच्छन्ति 'सचित्ताणं 'ति पुष्पताम्बूलादीनां 'विउसरणयाए 'त्ति 'व्यवसर्जनया' त्यागेन 'अचित्ताणं'ति वस्त्रमुद्रिकादीनाम् 'अविउसरणयाए 'त्ति अत्यागेन 'एगसाडिएणं' ति अनेकोत्तरीयशाटकानां निषेधार्थमुक्तम् 'उत्तरासंगकरणेणं'ति उत्तरासंगः- उत्तरीयस्य देहे न्यासविशेषः 'चक्षुःस्पर्शे' दृष्टिपाते 'एगत्तीकरणेणं'ति अनेकत्वस्य - अनेकालम्बनत्वस्य एकत्वकरणम् — एकालम्बनत्वकरणमेकत्रीकरणं तेन 'तिविहाए पञ्चवासणाए 'त्ति इह पर्युपासनात्रैविध्यं मनोवाक्कायभेदादिति । २। ६८. 'महइमहालियाए 'त्ति आलप्रत्ययस्य स्वार्थिकत्वान्महातिमहत्याः । २ । १००. 'अणण्यफले 'त्ति न आश्रवः अनाश्रवः अनाश्रवो - नवकर्मानुपादानं फलमस्येत्यनाश्रवफलः संयमः 'वोदाणफले 'त्ति 'दापू लवने' अथवा पू शोधने' इति वचनाद् | व्यवदानं - पूर्वकृतकर्म्मवनगहनस्य लवनं प्राक्कृतकर्म्मकचवरशोधनं वा फलं यस्य तद्व्यवदानफलं तप इति । २ । १०१. 'किंपत्तियं'ति कः प्रत्ययः कारणं यत्र तत् किंप्रत्ययम् ? निष्कारणमेव देवा देवलोकेषूत्पद्यते तपःसंयमयोरुक्तनीत्या तदकारणत्वादित्यभिप्रायः । २ । १०२. 'पुव्वतवेणं'ति पूर्वतपः – सरागावस्थाभावितपस्या, वीतरागावस्थापेक्षया सरागावस्थायाः पूर्वकालभावित्वात् एवं संयमोऽपि अयथाख्यातचारित्रमित्यर्थः । ततश्च सरागकृतेन संयमेन तपसा च देवत्वावाप्तिः, रागांशस्य कर्मबन्धहेतुत्वात् । 'कम्मियाए 'त्ति कर्म विद्यते यस्यासौ कर्मी तद्भावस्तत्ता तया कर्म्मितया । अन्ये त्वाहुः - कर्म्मणां विकारः कार्मिका तयाऽक्षीणेन कर्म्मशेषेण देवत्वावाप्तिरित्यर्थः। ‘संगियाए 'त्ति संगो यस्यास्ति स संगी तभावस्तत्ता तया, ससंगो हि द्रव्यादिषु संयमादियुक्तोऽपि कर्म बध्नाति ततः संगितया देवत्वावाप्तिरिति । आह च "पुब्बतवसंजमा होंति रागिणो पच्छिमा अरागस्स । रागोसंगो वुत्तो संगा कम्मं भवो तेणं ॥ " 'सच्चे ण'मित्यादि सत्योऽयमर्थः कस्मात् ? इत्याह- 'नो चेव णमित्यादि नैवात्मभाववक्तव्यतयाऽयमर्थः आत्मभाव एव - स्वाभिप्राय एव न वस्तुतत्त्वं वक्तव्य - वाच्योऽभिमानाद् येषां ते आत्मभाववक्तव्यास्तेषां भाव-आलभाववक्तव्यता- अहंमानिता तया न वयमहंमानितयैवं ब्रूमः अपि तु परमार्थ एवायमेवंविध इति भावना । २ । १०७. ‘अतुरियं 'ति कायिकत्वरारहितम् 'अचवलं 'ति मानसचापल्यरहितम् 'असंभंते' त्ति असंभ्रान्तज्ञान: 'घरसमुदाणस्स' गृहेषु समुदानं - भैक्षं गृहसमुदानं तस्मै गृहसमुदानाय भिक्खायरियाए 'त्ति भिक्षासमाचारेण । २ । १०८. 'जुगंतरपलोयणाए 'त्ति युगं - यूपस्तत्प्रमाणमन्तरं - स्वदेहस्य दृष्टिपातदेशस्य च व्यवधानं प्रलोकयति या सा युगान्तरप्रलोकना तया दृष्ट्या 'रियं' ति ईयाँ गमनम् । 9. पादलुप्ता (ख.ग. घ.) २. पादलुप्ता (ख.ग.घ.) Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.२: उ.५-७: सू.१०६-११६ ४०८ भगवती वृत्ति २।१०६. 'से कहमेयं मण्णे एवं'ति अथ कथमेतत् स्थविरवचनं मन्ये इति वितर्कार्थो निपातः 'एवम्' अमुना प्रकारेणेति बहुजनवचनम्। २१११०. 'पभू णति 'प्रभवः' समर्थास्ते 'समिया णं ति सम्यगिति प्रशंसार्थो निपातस्तेन सम्यक् ते व्याकर्तुं वर्तन्ते अविपर्यासास्ते इत्यर्थः समञ्चन्तीति वा सम्यञ्चः समिता वा-सम्यक्प्रवृत्तयः श्रमिता वा-अभ्यासवन्तः ‘आउज्जिय'त्ति 'आयोगिकाः' उपयोगवन्तो ज्ञानिन इत्यर्थः जानन्तीति भावः, 'पलिउज्जियंति परिसमन्तात् योगिकाः परिज्ञानिन इत्यर्थः परिजानन्तीति भावः । अनन्तरं श्रमणपर्युपासनासंविधानकमुक्तम्, अथ सा यत्फला, तद्दर्शनार्थमाह २।१११. 'तहारूव'मित्यादि 'तथारूपम्' उचितस्वभावं कञ्चन पुरुषं श्रमणं वा तपोयुक्तम्, उपलक्षणत्वादस्योत्तरगुणवन्तमित्यर्थः, 'माहनं' वा स्वयं हनननिवृत्तत्वात्परं प्रति मा हनेतिवादिनम्, उपलक्षणत्वादेव मूलगुणयुक्तमिति भावः । वाशब्दौ समुच्चये, अथवा 'श्रमणः' साधुः 'माहनः' श्रावकः । 'सवणफले'ति सिद्धान्तश्रवणफला । 'णाणफले'त्ति श्रुतज्ञानफलं, श्रवणाद्धि श्रुतज्ञानमवाप्यते। 'विण्णाणफले'त्ति विशिष्टज्ञानफलं, श्रुतज्ञानाद्धि हेयोपादेयविवेककारिविज्ञानमुत्पद्यत एव । 'पच्चक्खाणफले'त्ति विनिवृत्तिफलं विशिष्टज्ञानो हि पापं प्रत्याख्याति । 'संजमफले' कृतप्रत्याख्यानस्य हि संयमो भवत्येव । 'अणण्हयफले'त्ति अनाश्रवफलः संयमवान किल नवं कर्म नोपादत्ते। 'तवफले'त्ति अनाश्रवो हि लघुकर्मत्वात्तपस्यतीति । 'वोदाणफले'त्ति व्यवदानं-कर्मनिर्जरणं, तपसा हि पुरातनं कर्म निर्जरयति। 'अकिरियाफले'त्ति योगनिरोधफलं, कर्मनिर्जरातो हि योगनिरोध कुरुते । 'सिद्धिपज्जवसाणे'ति सिद्धिलक्षणं पर्यवसानफलं-सकलफलपर्यन्तवर्ति फलं यस्या सा तथा। 'गाह'त्ति संग्रहगाथा, एतल्लक्षणं, चैतद्-"विषमाक्षरपादं वा"इत्यादि छन्दःशास्त्रप्रसिद्धमिति । तथारूपस्यैव श्रमणादेः पर्युपासना यथोक्तफला भवति, नातथारूपस्य, असम्यग्भाषित्वादिति असम्यग्भाषितामेव केषाञ्चिद्दर्शयन्नाह२।११२. 'अन्नउत्थिये'त्यादि, 'पब्बयस्स अहे'त्ति अधस्तात्तस्योपरि पर्वत इत्यर्थः । 'हरए'त्ति ह्रदः 'अघे'त्ति अघाभिधानः क्वचित्तु 'हरए' त्ति न दृश्यते । अघेत्यस्य च स्थाने 'अप्पे'त्ति दृश्यते । तत्र चाप्यः-अपां प्रभवो हद एवेति । 'ओराल'त्ति विस्तीर्ण:-'बलाहय'-त्ति मेघाः 'संसेयंति' 'संस्विद्यन्ति' उत्पादाभिमुखीभवन्ति, 'संमुच्छंति'त्ति संमूर्च्छन्ति उत्पद्यन्ते 'तव्वइरित्ते य'त्ति ह्रदपूरणादतिरिक्तश्चोत्कलित इत्यर्थः। 'आउयाए'त्ति अप्कायः 'अभिनिस्सवइत्ति अभिनिःश्रवति क्षरति । २१११३. मिच्छं ते एवमाइक्खंति'त्ति मिथ्यात्वं चैतदाख्यानस्य विभंगज्ञानपूर्वकत्वात् प्रायः सर्वज्ञवचनविरुद्धत्वाद् व्यावहारिकप्रत्यक्षेण प्रायो ऽन्यथोपलम्भाच्चावगन्तव्यम्। 'अदूरसामंते'त्ति नातिदूरे नाप्यतिसमीप इत्यर्थः 'एत्थ णं ति प्रज्ञापकेनोपदर्यमाने 'महातवोवतीरप्पभवे नाम पासवणे'त्ति आतप इवातपः-उष्णता महांश्चासावातपश्चेति महातपः महातपस्योपतीरं-तीरसमीपे प्रभव-उत्पादो यत्रासौ महातपोपतीरप्रभवः । प्रश्रवति-क्षरतीति प्रश्रवणः प्रस्यन्दन इत्यर्थः । 'वक्कमंति' उत्पद्यन्ते 'विउक्कमंति' विनश्यंति, एतदेव व्यत्ययेनाह–च्यवन्ते चेति उत्पद्यन्ते चेति । उक्तमेवार्थं निगमयन्नाह 'एस ण'मित्यादि 'एषः' अनन्तरोक्तरूपः एष चान्ययूथिकपरिकल्पिताघसज्ञो महातपोपतीरप्रभवः प्रश्रवण उच्यते, तथा 'एषः' योऽयमनन्तरोक्तः 'उसिणजोणीए'त्यादि स महातपोपतीरप्रभवस्य प्रश्रवणस्यार्थः-अभिधानान्वर्थः प्रज्ञप्तः इति । ॥द्वितीयशते पञ्चमोद्देशकः ॥ षष्ठ उद्देशकः पंचमोद्देशकस्यान्तेऽन्ययूथिका मिथ्याभाषिण उक्ताः, अथ षष्ठे भाषास्वरूपमुच्यते, तत्र सूत्रम्२।११५. से णूणं भंते ! मण्णामी'ति 'ओहारिणी भास'त्ति सेशब्दोऽथशब्दार्थे स च वाक्योपन्यासे, 'नूनम्' 'उपमानावधारणतर्कप्रश्नहेतुषु' इह अवधारणे 'भदन्त' इति गुमिन्त्रणे 'मन्ये' अवबुध्ये इति । एवमवधार्यते-अवगम्यतेऽनयेत्यवधारणी, अवबोधबीजभूतेत्यर्थः। भाष्यत इति भाषातद्योग्यतया परिणामितनिसृष्टनिसृज्यमानद्रव्यसंहतिरिति हृदयम्। एष पदार्थः, अयं पुनर्वाक्यार्थ:-अथ भदन्त ! एवमहं मन्येऽवश्यमवधारणी भाषेति। एवममुना सूत्रक्रमेण भाषापदं प्रज्ञापनायामेकादशं भणितव्यमिह स्थाने। इह च भाषा द्रव्यक्षेत्रकालभावैः सत्यादिभिश्च भेदैरन्यैश्च बहुभिः पर्यायैर्विचार्यते। ॥द्वितीयशते षष्ठोद्देशकः ॥ सप्तम उद्देशकः भाषाविशुद्धेर्देवा भवंतीति देवोद्देशकः सप्तमः, तस्य चेदं सूत्रम्२१११६. 'कइ ण'मित्यादि, 'कइ णति कति देवा जात्यपेक्षयेति गम्यम् । कतिविधा देवाः ? इति हृदयम्। Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ४०६ श.२: उ.७,८. सू.११७-११८ २१११७. 'जहा ठाणपए'त्ति यथा-यप्रकारा यादृशी प्रज्ञापनाया द्वितीये स्थानपदाख्ये पदे देवानां वक्तव्यता 'से'ति तथाप्रकारा भणितव्येति, नवरं 'भवणा पण्णत्त' त्ति क्वचिद् दृश्यते, तस्य च फलं न सम्यगवगम्यते, देववक्तव्यता चैवम्-'इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरिं एगं जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता हेढा वेगं जोयणसहस्सं वज्जेत्ता मज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्थ णं भवणवासीणं देवाणं सत्त भवणकोडीओ बावत्तरिं च भवणावाससयसहस्सा भवंतीति मक्खाय'इत्यादि। तद्गतमेवाभिधेयविशेषं विशेषेण दर्शयति-"उववाएणं लोयस्स असंखेजइभागे'त्ति, उपपातो-भवनपतिस्वस्थानप्राप्त्याभिमुख्यं तेनोपपातमाश्रित्येत्यर्थः लोकस्यासंख्येयतमे भागे वर्तन्ते भवनवासिन इति। 'एवं सव्वं भाणियब्वंति 'एवम्' उक्तन्यायेनान्यदपि भणितव्यं, तच्चेदम्-'समुग्घाएणं लोयस्स असंखेजइ भागे'त्ति मारणान्तिकादिसमुद्घातवर्तिनो भवनपतयो लोकस्यासंख्येय एव भागे वर्तन्ते । तथा 'संहाणेणं लोयस्स असंखेजे भागे' स्वस्थानस्य-उक्तभवनवाससातिरेककोटिसप्तकलक्षणस्य लोकासंख्येयभागवर्तित्वादिति, एवमसुरकुमाराणाम्, एवं तेषामेव दाक्षिणात्यानामौदीच्यानां, एवं नागकुमारादिभवनपतीनां यथौचित्येन व्यन्तराणां ज्योतिष्काणां वैमानिकानां च स्थानानि वाच्यानि कियद्रं यावदित्याह-'जाव सिद्धे'त्ति यावत् सिद्धगण्डिका-सिद्धस्थानप्रतिपादनपरं प्रकरणं, सा चैवम्-'कहि णं भंते ! सिद्धाणं ठाणा पण्णत्ता ?'इत्यादि। इह च देवस्थानाधिकारे यसिद्धगण्डिकाऽभिधानं तत्स्थानाधिकारबलादित्यवसेयं, तथेदमपरमपि जीवाभिगमप्रसिद्धं वाच्यं, तद्यथा-'कप्पाण पइट्ठाणं' कल्पविमानानामाधारो वाच्य इत्यर्थः, स चैवम्-'सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु विमाणपुढवी किंपइट्ठिया पण्णत्ता ? गोयमा ! घणोदहिपइट्ठिया पण्णत्ता' इत्यादि, आह च "घणउदहिपइटाणा सुरभवणा होति दोसु कप्पेसु । तिसु वाउपइटाणा तदुभयसुपइडिया तिसु य ॥ तेण परं उवरिमगा आगासंतरपइदिया सबे।" ति। तथा 'बाहल्ल'त्ति विमानपृथिव्याः पिंडो वाच्यः, स चैवम्-'सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु विमाणपुढवी केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ता ? गोयमा! सत्तावीसं जोयणसयाई'इत्यादि, आह च "सत्तावीस सपाई आइमकप्पेसु पुढविबाहल्लं। एक्किकहाणि सेसे दु दुगे य दुगे चउक्के य॥" ग्रैवेयकेषु द्वाविंशतिर्योजनानां शतानि, अनुत्तरेषु त्वेकविंशतिरिति । 'उच्चत्तमेव' त्ति कल्पविमानोच्चत्वं वाच्यं, तच्चैवम्-'सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु विमाणा केवइयं उच्चत्तेणं पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचजोयणसयाई' इत्यादि, आह च "पंच सउचत्तेणं आइमकप्पेतु होति उ विमाणा। एक्वेकवुद्धि सेसे दु दुगे य दुगे चउक्के य॥" ग्रैवेयकेषु दशयोजनशतानि अनुत्तरेषु त्वेकादशेति। 'संठाणं'ति विमानसंस्थानं वाच्यम्, तथैवम्-'सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु विमाणा किंसंठिया पण्णत्ता ? गोयमा ! जे आवलियापविट्ठा ते वट्टा तंसा चउरंसा, जे आवलियाबाहिरा ते नाणासंठिय'त्ति । उक्तार्थस्य शेषमतिदिशन्नाह जीवाभिगमेत्यादि, स च विमानानां प्रमाणवर्णप्रभागन्धादिप्रतिपादनार्थः । ॥द्वितीयशते सप्तमोद्देशकः ॥ अष्टम उद्देशकः अथ देवस्थानाधिकाराच्चमरचञ्चाभिधानदेवस्थानादिप्रतिपादनायाष्टमोद्दशकः, तस्य चेदं सूत्रम्२।११८. 'कहि ण णमित्यादि, 'असुरिंदस्स'त्ति सचेश्वरतामात्रेणापि स्यादित्याह-असुरराजस्य, वशवय॑सुरनिकायस्येत्यर्थः । 'उप्पायपव्वए'त्ति तिर्यग् लोकगमनाय यत्रागत्योत्पतति स उत्पातपर्वत इति । 'गोत्युभस्से'त्यादि, तत्र गोस्तुभो लवणसमुद्रमध्ये पूर्वस्यां दिशि नागराजावासपर्वतस्तस्य चादिमध्यान्तेषु विष्कम्भप्रमाणमिदम् "कमसो विक्खंभो से दसबावीसाइ जोयणसयाई। सत्तसए तेवीसे चत्तारिसए य चउबीसे॥" Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ४१० श. २: उ. ८ः सू. ११८-१२१ इहैव विशेषमाह - 'नवर 'मित्यादि, ततश्चेदमापन्नम् -'मूले दसबावीसे जोयणसए विक्खंभेणं सज्झे चत्तारि चउवीसे उवरिं सत्ततेवीसे, मूले तिण्णि जोयणसहरसाई दोणिय बत्तीसुत्तरे जोयणसए किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं मज्झे एगं जोयणसहस्सं तिण्णि य इगुयाले जोयणसए किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं उवरिं दोण्णि जोयणसहस्साइं दोण्णि य छलसीए जोयणसए किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं' पुस्तकान्तरे त्वेतत्सकलमस्त्येवेति । 'वरवइरविग्गहिए'त्ति वरवज्रस्येव विग्रहः – आकृतिर्यस्य स स्वार्थिके कप्रत्यये सति वरवज्रविग्रहिको, मध्ये क्षाम इत्यर्थः । एतदेवाह - 'महामउंदे' त्यादि मुकुन्दो - वाद्यविशेषः, 'अच्छे'त्ति स्वच्छ आकाशस्फटिकवत् । यावत्करणादिदम् दृश्यम् - 'सण्हे' श्लक्ष्णः श्लक्ष्णपुद्गलनिर्वृत्तत्वात् 'लण्हे' मसृणः ‘घट्टे' घृष्टः इव घृष्टः खरशानया प्रतिमेव 'मट्ठे' मृष्ट इव मृष्टः सुकुमारशानया प्रतिमेव प्रमार्जनिकयेव वा शोधितः अत एव 'नीरए' नीरजा रजोरहितः 'निम्मले' कठिनमलरहितः 'निप्पंके' आर्द्रमलरहितः 'निक्कंकडच्छाए' निरावरणदीप्तिः 'सप्पभे' सत्प्रभाव: 'रामरिईए' सकिरणः 'सउज्जोए' प्रत्यासन्नवस्तूद्द्योतकः पासाईए ४ । 'पउमवरवेइयाए वणसंडस्स य वण्णओ त्ति वेदिकावर्णको यथा-सा णं पउमवरवेइया अद्धं जोयणं उडुं उच्चत्तेणं पंचधणुसयाई विक्खंभेणं सव्वरयणामई तिगिच्छकूडउवरितलपरिक्खेवसमा परिक्खेवेणं, तीसे णं पउमवरवेश्याए इमे एयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते' 'वर्णकव्यासः' वर्णकविस्तरः 'वइरामया नेमा' इत्यादि, 'नेम'त्ति स्तम्भानां मूलपादाः । वनखण्डवर्णकरत्येवम् -' से णं वणसंडे देसूणाई दो जोयणाई चक्कवालविक्खंभेणं पउमवरवेइयापरिक्खेवसमे परिक्खेवेणं, किण्हे किण्हाभासे' इत्यादि । २ । ११६. ‘बहुसमरमणिज्जे त्ति अत्यन्तसमो रमणीयश्चेत्यर्थः 'वन्नओ'त्ति वर्णकस्तस्य वाच्यः स चायम् -' से जहानामए आलिंगपुक्खरे इ वा ' आलिंगपुष्करं—मुरजमुखं तद्वत्सम इत्यर्थः 'मुइंगपुक्खरे इ वा सरतले इ वा करतले इ वा आयंसमंडले इ वा चंदमंडले इ वे 'त्यादि । २ । १२०. 'पासायवडिंसए' त्ति प्रासादोऽवतंसक इव - शेखरक इव प्रधानत्वात् प्रासादावतंसकः । 'पासायवण्णओ'त्ति प्रासादवर्णको वाच्यः स चैवम्- 'अब्भुग्गयमूसियपहसिए' अभ्युद्गतमभ्रोद्गतं वा यथाभवत्येवमुच्छ्रश्रितः अथवा मकारस्यागमिकत्वाद् अभ्युद्गतश्चासावुच्छ्रद्रितश्चेत्यभ्युद्गतोच्छ्रछ्रितः अत्यर्थमुच्च इत्यर्थः प्रथमैकवचनलोपश्चात्र दृश्यः । तथा प्रहसित प्रभापटलपरिगततया प्रहसितः प्रभया वा सितः - शुक्लः संबद्धो वा प्रभासित इति 'मणिकणगरयणभत्तिचित्ते' मणिकनकरत्नानां भक्तिभिः - विच्छित्तिभिश्चित्रो विचित्रो यः स तथा इत्यादि । 'उल्लोयभूमिवण्णओत्ति उल्लोचवर्णकः प्रासादस्योपरिभागवर्णकः स चैवम्— 'तस्स णं पासायवडिंसगस्स इमेयारूवे उल्लोए पण्णत्ते' पउमलयभत्तिचित्ते जाव सव्वतवणिजमए अच्छे जाव पडिरूवे' भूमिवर्णकरत्वेवम्- 'तस्स णं पासायवडिंसयस्स बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते, तंजहा - आलिंगपुक्खरे इ वे 'त्यादि । 'सपरिवारं 'त्ति चमरसम्बन्धिपरिवारसिंहासनोपेतं तच्चैवम् तस्स णं सिंहासणस्स अवरुत्तरे णं उत्तरे णं उत्तरपुरत्थिमे णं एत्थ णं चमरस्स चउसठ्ठी सामाणियसाहस्सीणं चउसट्ठी भद्दासणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ एवं पुरत्थिमे णं पंचण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं पंच भद्दासणाई सपरिवाराई दाहिणपुरत्थिमे णं अब्मिंतरियाए परिसाए चउब्बीसाए देवसाहस्सीणं चउव्वीसं भद्दासणसाहस्सीओ, एवं दाहिणे णं मज्झिमाए अट्ठावीसं भद्दासणसाहस्सीओ, दाहिणपच्चत्थिमे णं बाहिरियाए बत्तीसं भद्दासणसाहस्सीओ पच्चत्थिमे णं सत्तण्हं अणियाहिवईणं सत्त भद्दासणाई, चउद्दिसिं आयरक्खदेवाणं चत्तारि भद्दासणसहस्राचउसट्टीओ 'ति । 'तेत्तीसं भोम' त्ति वाचनान्तरे दृश्यते, तत्र भौमानि - विशिष्टस्थानानि नगराकाराणीत्यन्ये । २।१२१. 'ओवारियलेणं' त्ति गृहस्य पीठबन्धकल्पम् । 'सव्वप्यमाणं वेमाणियप्यमाणस्स अद्धं नेयव्वं त्ति अयमर्थः यत्तस्यां राजधान्यां प्राकारप्रासादसभादिवस्तु तस्य सर्वस्योच्छ्रयादि प्रमाणं सौधर्मवैमानिकविमानप्राकारप्रासादसभादिवस्तुगतप्रमाणस्यार्द्धं च नेतव्यं तथाहि —– सौधर्मवैमानिकानां विमानप्राकारो योजनानां त्रीणि शतान्युच्चत्वेन, एतस्यास्तु सार्द्धं शतम् । तथा सौधर्मवैमानिकानां मूलप्रासादः पंच योजनानां शतानि तदन्ये चत्वारस्तत्परिवारभूताः सार्द्धं द्वे शते प्रत्येकं च तेषां चतुर्णामप्यन्ये परिवारभूताश्चत्वारः सपादशतम् । एवमन्ये तत्परिवारभूताः सार्द्धाद्विषष्टि एवमन्ये सपादैकत्रिंशत् । इह तु मूलप्रासादाः सार्द्धं द्वे योजनशते एवमर्द्धार्द्धहीनास्तदपरे यावदन्तिमाः पंचदश योजनानि पंच च योजनस्याष्टांशाः । एतदेव वाचनान्तरे उक्तम् - चत्तारि परिवाडीओ पासायवडेंसगाणं अद्धद्धहीणाओ त्ति एतेषां च प्रासादानां चतसृष्वपि परिपाटीषु त्रीणि शतान्येकचत्वारिंशदधिकानि भवन्ति, एतेभ्यः प्रासादेभ्यः उत्तरपूर्वस्यां दिशि सभा सुधर्मा सिद्धायतनमुपपातसभा ह्रदोऽभिषेकसभाऽलंकारसभा व्यवसायसभा चेति । एतानि च सुधर्मसभादीनि सौधर्मवैमानिकसभादिभ्यः प्रमाणतोऽर्द्धप्रमाणानि । ततश्चोछ्रय इहैषां षट्त्रिंशद्योजनानि पञ्चाशदायामो विष्कम्भश्च पंचविंशतिरिति । एतेषां च विजयदेवसम्बन्धिनामिव 'अणेगखंभसयसण्णिविट्ठा अब्भुग्गयसुकयवइरवेइया' इत्यादिवर्णको वाच्यः । तथा 'दाराणं उप्पिं बहवे अट्ठट्ठमंगलगा झया छत्ताइछत्ता' इत्यादि, अलंकारश्च सभादीनां वाच्यः । सर्वं च जीवाभिगमोक्तं विजयदेवसम्बन्धि चमरस्य वाच्यं, यावदुपपातउत्पातसभायां संकल्पश्चाभिनवोत्पन्नस्य किं मम पूर्वं पश्चाद् वा कर्तुं श्रेयः ? इत्यादिरूपः । अभिषेकश्चाभिषेकसभायां महदुर्ध्या सामानिकादिदेवकृतः विभूषणा च वस्त्रालंकारकृताऽलंकारसभायां व्यवसायश्च व्यवसायसभायां पुस्तकवाचनतः, अर्चनिका च सिद्धायतने सिद्धप्रतिमादीनां सुधर्मसभागमनं च सामानिकादिपरिवारोपेतस्य चमरस्य, परिवारश्च सामानिकादिः, Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ४११ श.२: उ.८-१०ः सू.१२१-१२८ ऋद्धिमत्त्वं च 'एवंमहिडिए' इत्यादिवचनैर्वाच्यमस्येति । एतद् वाचनान्तरेऽर्थतः प्रायोऽवलोक्यत एवेति। ॥द्वितीयशतेऽष्टमोद्देशकः ॥ नवम उद्देशकः चमरचञ्चालक्षणं क्षेत्रमष्टमोद्देशक उक्तम् । अथ क्षेत्राधिकारादेव नवमे समयक्षेत्रमुच्यत इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदं सूत्रम्२।१२२. 'किमिद'मित्यादि, तत्र समय:-कालस्तेनोपलक्षितं क्षेत्रं समयक्षेत्रम् । कालो हि दिनमासादिरूपः सूर्यगतिसमभिव्यंग्यो मनुष्यक्षेत्र एव न परतः, परतो हि नादित्याः संचरिष्णव इति । २११२३. एवं जीवाभिगमवत्तव्वया नेयव्य'त्ति एषां चैवम्-एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेण'मित्यादि 'जोइसविहूणं' त्ति तत्र जम्बू द्वीपादिमनुष्यक्षेत्रवक्तव्यतायां जीवाभिगमोक्तायां ज्योतिष्कवक्तव्यताऽप्यस्ति ततस्तविहीनं यथा भवत्येवं जीवाभिगमवक्तव्यता नेतव्येति । वाचनान्तरे तु 'जोइसअट्टविहूणंति इत्यादि बहु दृश्यते, तत्र 'जंबूद्दीवे णं भत्ते ! कइ चंदा पभासिंसु वा ३? कति सूरिया तविंसु वा ३? कइ नक्खत्ता जोइं जोइंसु वा ३? इत्यादिकानि प्रत्येकं ज्योतिष्कसूत्राणि, तथा-'से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ जंबूद्दीवे दीवे गोयमा ! जंबूद्दीवे णं दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं लवणरस दाहिणेणं जाव तत्थ तत्थ बहवे जंबूरुक्खा जंबूवणा जाव उवसोहेमाणा चिट्ठति, से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ जंबूद्दीवे दीवे'इत्यादीनि प्रत्येकमर्थसूत्राणि च सन्ति । ततश्चैतद्विहीनं यथा भवत्येवं जीवाभिगमवक्तव्यतया नेयं अस्योद्देशकस्य सूत्रं 'जाव इमा गाह'त्ति संग्रहगाथा-सा च "अरहंत समय बायर विजू धणिया बलाहगा अगणी। आगर निहि नइ उवराग निग्गमे बुडिवयणं च ॥" अस्याश्चार्थस्तत्रानेन सम्बन्धेनायातो-जम्बूद्वीपादीनां मानुषोत्तरान्तानामर्थानां वर्णनस्यान्ते इदमुक्तम्-'जाव च णं माणुसुत्तरे पब्बए तावं च णं अस्सिंलोएत्ति पवुघई' मनुष्यलोक उच्यत इत्यर्थः। तथा 'अरहंते'त्ति जावं च णं अरहंता चक्कवट्टी जाव सावियाओ मणुया पगइभद्दया विणीया तावं च णं अस्सिंलोएत्ति पवुच्चइ । 'समय'त्ति जावं च णं समयाई वा आवलिया इ वा जाव अस्सिलोएत्ति पवुच्चइ, एवं जावं च णं बायरे विजयारे बायरे थणियसद्दे जावं च णं बहवे ओराला बलाहया संसेयंति, 'अगणि' त्ति जावं च णं बायरे तेउयाए जावं च णं आगरा इ वा निही इ वा नई इ वा 'उवराग'त्ति चंदोवरागा इ वा सूरोवरागा इ वा तावं च णं अस्सिंलोएत्ति पवुच्चइ' । उपरागो-ग्रहणं 'निग्गमे वुड्डिवयणं च'त्ति यावच्च निर्गमादीनां वचनं—प्रज्ञापनं तावन्मनुष्यलोक इति प्रकृतं, तत्र 'जावं च णं चंदिमसूरियाणं जाव तारारूवाणं अइगमणं निग्गमण वुदी निव्वुट्टी आघविजइ तावं च गं अस्सिंलोएत्ति पवुच्चइत्ति। अतिगमनमिहोत्तरायणं निर्गमनं-दक्षिणायनं वृद्धि:-दिनस्य वद्धनं निवृद्धिः-तस्यैव हानिरिति। ॥द्वितीयशते नवमोद्देशकः ॥ दशम उद्देशकः अनन्तरं क्षेत्रमुक्तं तच्चास्तिकायदेशरूपमित्यस्तिकायाभिधानपरस्य दशमोद्देशकस्यादिसूत्रम्२।१२४. 'कइ ण'मित्यादि अस्तिशब्देन प्रदेशा उच्यन्तेऽतस्तेषां काया राशयोऽस्तिकायाः अथवाऽस्तीत्ययं निपातः कालत्रयाभिधायी, ततोऽस्तीति-सन्ति आसन भविष्यन्ति च ये कायाः-प्रदेशराशयस्तेऽस्तिकाया इति । धर्मास्तिकायादीनां चोपन्यासेऽयमेव क्रमः, तथाहि-धर्मास्तिकायादिपदस्य मांगलिकत्वाद्धर्मास्तिकाय आदाबुक्तः। तदनन्तरं च तद्विपक्षत्वादधर्मास्तिकायः ततश्च तदाधारत्वादाकाशास्तिकायः, ततोऽनन्त त्वामूर्त्तत्वसाधाजीवास्तिकायः, ततस्तदुपष्टम्भकत्वात् पुद्गलास्तिकाय इति । २।१२५. 'अवण्णे इत्यादि, यत एवावर्णादिरत एव अरूपी अमूर्तो न तु निःस्वभावो, नञः पर्युदासवृत्तित्वात्। शाश्वतो द्रव्यतः अवस्थितः प्रदेशतः 'लोगदव्वेत्ति लोकस्य-पंचास्तिकायात्मकस्यांशभूतं द्रव्यं लोकद्रव्यं, भावत इति पर्यायतः 'गुणओ'त्ति कार्यतः ‘गमणगुणे'त्ति जीवपुद्गलानां गति परिणतानां गत्युपष्टम्भहेतुर्मत्स्यानां जलमिवेति । २।१२६.'ठाणगुणे'त्ति जीवपुद्गलानां स्थितिपरिणतानां स्थित्युपष्टम्भहेतुर्मस्यानां स्थलमिवेति । २११२७. 'अवगाहणागुणे'त्ति जीवादीनामवकाशहेतुर्बदराणां कुण्डमिव । २११२८. 'उवओगगुणे'त्ति उपयोग:-चैतन्यं साकारलाकारभेदम् । Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श.२: उ.१०. सू.१२६-१३६ ४१२ भगवती वृत्ति २११२६. 'गहणगुणे'त्ति ग्रहणं-परस्परेण सम्बन्धनं जीवेन वा। औदारिकादिभिः प्रकारैरिति । २११३३. 'खंडं चक्के इत्यादि यथा खण्डचक्रं चक्रं न भवति, खण्डचक्रमित्येवं तस्य व्यपदिश्यमानत्वात्, अपि तु सकलमेव चक्र चक्र भवति। एवं धर्मास्तिकायः प्रदेशेनाप्यूनो न धर्मास्तिकाय इति वक्तव्यः स्याद् । एतच्च निश्चयनयदर्शनं, व्यवहारनयमतं तु-एकदेशेनोनमपि वस्तु वस्त्वेव, यथा खण्डोऽपि घटो घट एव, छिन्नकर्णोऽपि श्वा श्वैव, भणन्ति च–'एकदेशविकृतमनन्यवदिति । २११३४. 'से किंखाइंति' अथ किं पुनरित्यर्थः 'सव्वेऽवि' समस्ताः ते च देशापेक्षयाऽपि भवन्ति प्रकारकात्स्येऽपि सर्वशब्दप्रवृत्तेरित्यत आह–'कसिण' त्ति कृत्सा न तु तदेकदेशापेक्षया सर्व इत्यर्थः ते च स्वभावरहिता अपि भवन्तीत्यत आह-प्रतिपूर्णाः-आत्मस्वरूपेणाविकलाः, ते व प्रदेशान्तरापेक्षया स्वस्वभावन्यूना अपि तथोच्यन्त इत्यत आह-निरवसेस त्ति प्रदेशान्तरतोऽपि स्वस्वभावेनान्यूनाः, तथा 'एगग्गहणगहिय'त्ति एकग्रहणेन–एकशब्देन धर्मास्तिकाय इत्येवंलक्षणेन गृहीता ये ते तथा एकशब्दाभिधेया इत्यर्थः एकार्था वैते शब्दाः । २।१३५. 'पएसा अणंता भाणियव्व' त्ति धर्माधर्मयोरसंख्येयाः प्रदेशा उक्ताः आकाशादीनां पुनः प्रदेशा अनन्ता वाच्याः, अनन्तप्रदेशिकत्वात् त्रयाणामपीति । उपयोगगुणो जीवास्तिकायः प्राग्दर्शितः अथ तद्देशभूतो जीव उत्थानादिगुण इति दर्शयन्नाह२।१३६. 'जीवे णमित्यादि, इह च 'सउटाणे'इत्यादीनि विशेषणानि मुक्तजीवव्युदासार्थानि । 'आयभावेणं'ति आत्मभावेन उत्थानशयनगमनभोजनादि रूपेणात्मपरिणामविशेषेण, 'जीवभावं'त्ति जीवत्वं चैतन्यं 'उपदर्शयति' प्रकाशयतीति वक्तव्यं स्याद् ? विशिष्टस्योत्थानादेविशिष्टचेतना पूर्वकत्वादिति। २।१३७. 'अणंताणं आभिणिबोहिए'त्यादि 'पर्यवाः' प्रज्ञाकृता अविभागाः पलिच्छेदाः, ते चानन्ता आभिनिबोधिकज्ञानस्यातोऽनन्तानामाभिनि बोधिकज्ञानपर्यवाणां सम्बन्धिनम् अनन्ताभिनिबोधिकज्ञानपर्यवात्मकमित्यर्थः । 'उपयोग' चेतनाविशेषं गच्छतीति योगः। उत्थाना- दावात्मभावे वर्तमान इति हृदयम्। अथ यद्युत्थानाद्यात्मभावे वर्तमानो जीव आभिनिबोधिकज्ञानाधुपयोगं गच्छति तत् किमेतावतैव जीवभावमुपदर्शयतीति वक्तव्यं स्यात् ? इत्याशंक्याह–'उवओगे'त्यादि, अत उपयोगलक्षणं जीवभावमुत्थानाद्यात्मभावेनोपदर्शयतीति वक्तव्यं स्यादेवेति । अनन्तरं जीवचिन्तासूत्रमुक्तम्, अथ तदाधारत्वेनाकाशचिन्तासूत्राणि२११३८. 'कतिविहे णं भंते !'इत्यादीनि तत्र लोकालोकाकाशयोर्लक्षणमिदं "धर्मादीनां दृत्तिव्याणां भवति यत्र तत्क्षेत्रम्। तैव्यैः सह लोकस्तविपरीतं ह्यलोकाख्यम् ।।" इति । २११३६. 'लोगागासे ण'मित्यादौ षट् प्रश्नाः, तत्र लोकाकाशेऽधिकरणे 'जीव'त्ति संपूर्णानि जीवद्रव्याणि 'जीवदेस'त्ति जीवस्यैव बुद्धिपरिकल्पिता दुव्यादयो विभागाः। 'जीवप्पएस'त्ति तस्यैव बुद्धिकृता एव प्रकृष्ण देशाः प्रदेशा, निर्विभागा भागा इत्यर्थः । 'अजीव'त्ति धर्मास्तिकायादयः । ननु लोकाकाशे जीवा अजीवाश्चेत्युक्ते तद्देशप्रदेशास्तत्रोक्ता एव भवन्ति, जीवाद्यव्यतिरिक्तत्वाद्देशादीनां, ततो जीवाजीवग्रहणे किं देशादिग्रहणेनेति? नैवं, निरवयवा जीवादय इति मतव्यवच्छेदार्थत्वादस्येति, अत्रोत्तरं-'गोयमा ! जीवावी'त्यादि, अनेन चाद्यप्रश्नत्रयस्य निर्वचनमुक्तम् । अथान्त्यस्य प्रश्नत्रयस्य निर्वचनमाह-'जे अजीवे'त्यादि, 'रूबी यत्ति मूर्ताः, पुद्गला इत्यर्थः। 'अरूवी य'त्ति अमूर्त्ताः, धर्मास्तिकायादय इत्यर्थः। 'खंध'त्ति परमाणुप्रचयात्मकाः स्कन्धाः 'स्कन्धदेशाः' यादयो विभागाः ‘स्कन्धप्रदेशाः' तस्यैव निरंशा अंशाः 'परमाणुपुद्गलाः' स्कन्धभावमनापन्नाः परमाणव इति । ततो लोकाकाशे रूपिद्रव्यापेक्षया 'अजीवावि अजीवदेसावि अजीवप्पएसावि' इत्येतदर्थतः स्याद्, अणूनां स्कन्धानां चाजीवग्रहणेन ग्रहणात्। 'जे अरूवी ते पंचविहे'त्यादि अन्यत्रारूपिणो दशविधा उक्ताः तद्यथा-आकाशास्तिकायस्तदेशस्तप्रदेशश्चेत्येवं धर्माधर्मास्तिकायौ समयश्चेति दश, इह तु सभेदस्याकाशस्याधारत्वेन विवक्षितत्वात्तदाधेयाः सप्त वक्तव्या भवन्ति, न च तेऽत्र विवक्षिताः, वक्ष्यमाणकारणात्। ये तु विवक्षितास्तानाह-पंचेति, कथमित्याह-'धम्मत्थिकाए'इत्यादि, इह जीवानां पुद्गलानां च बहुत्वादेकस्यापि जीवस्य पुद्गलस्य वा स्थाने संकोचादितथाविधपरिणामवशाद् बहवो जीवाः पुद्गलाश्च तथा तद्देशास्तप्रदेशाश्च संभवन्तीतिकृत्वा जीवाश्च जीवदेशाश्च जीवप्रदेशाश्च, तथा रूपिद्रव्यापेक्षयाऽजीवाश्चाजीवदेशाश्चाजीवप्रदेशाश्चेति संगतम्, एकत्राप्याश्रये भेदवतो वस्तुत्रयस्य सद्भावात् । धर्मास्तिकायादौ तु द्वितयमेव युक्तं, यतो यदा संपूर्ण वस्तु विवक्ष्यते तदा धर्मास्तिकायादीत्युच्यते, तदंशविवक्षायां तु तत्देशा इति, तेषामवस्थितरूपत्वात् । तद्देशकल्पना त्वयुक्ता, तेषामनवस्थितरूपत्वादिति। यद्यपि चानवस्थितरूपत्वं जीवादिदेशानामप्यस्ति तथाऽपि तेषामेकत्राश्रये भेदेन संभवः प्ररूपणाकारणं इह तु तन्नास्तिकायादेरेकत्वादसंकोचादिधर्मकत्वाच्चेति, अत एव धर्मास्तिकायादिदेशनिषेधायाह-'नो धम्मत्थिकायस्स देसे' तथा 'नो अधम्मत्थिकायस्स देसे'त्ति।। चूर्णिकारोऽप्याह-'अरूविणो दव्वा समुदयसद्देणं भन्नति, नीसेसा पएसेहिं वा नीसेसा भणिज्जा, नो देसेणं, तस्स अणवट्ठियप्पमाणतणओ, तेण न देसेण निद्देसो, जो पुण देससद्दो एएसु कओ सो सविसयगयववहारत्थं परदव्वफुसणादिगयववहारत्थं चेति । तत्र स्वविषये-धर्मास्तिकाया Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ४१३ श.२: उ.१०. सू.१३६-१५३ दिविषये यो 'देशस्य व्यवहारो'यथा धर्मास्तिकायः स्वदेशेनोर्ध्वलोकाकाशं व्यापोतीत्यादिस्तदर्थम् । तथा परद्रव्येण-ऊर्ध्वलोकाकाशादिना यः स्वस्य स्पर्शनादिगतो व्यवहारो यथोललोकाकाशेन धर्मास्तिकायस्य देशः स्पृश्यते इत्यादिस्तदर्थमिति । 'अद्धासमय' त्ति अद्धा-कालस्तल्लक्षणः समय:-क्षणोऽद्धासमयः, स चैक एव वर्तमानक्षणलक्षणः अतीतानागतयोरसत्त्वादिति । कृतं लोकाकाशगतप्रश्नषट्कस्य निर्वचनम्, अथालोकाकाशं प्रति प्रश्नयन्नाह २११४० २११४१. 'पुच्छा तह चेव'त्ति यथा लोकप्रश्ने तथाहि-'अलोकाकासे णं भंते ! किं जीवा जीवदेसा जीवप्पएसा अजीवा अजीवदेसा अजीवप्पएस'त्ति। निर्वचनं त्वेषां षण्णामपि निषेधः। तथा 'एगे अजीवदव्वदेसे'त्ति अलोकाकाशस्य देशत्वं लोकालोकरूपाकाशद्रव्यस्य भागरूपत्वात् । 'अगरुयलहुए'त्ति गुरुलघुत्वाव्यपदेश्यत्वात् 'अणंतेहिं अगरुयलहुयगुणेहिति 'अनन्तैः' स्वपर्यायपरपर्यायरूपैगुणैः, अगुरुलघुस्वभावैरित्यर्थः । 'सव्वागासे अणंतभागूणे'त्ति लोकाकाशस्यालोकाकाशापेक्षयाऽनन्तभागरूपत्वादिति । अथानन्तरोक्तान् धर्मास्तिकायादीन् प्रमाणतो निरूपयन्नाह'केमहालए'त्ति लुप्तभावप्रत्ययत्वान्निर्देशस्य किं महत्त्वं यस्यासौ किंमहत्त्वः ? 'लोए'त्ति लोकः लोकप्रमितत्वाल्लोकव्यपदेशाद् वा, उच्यते च-"पंचत्थिकायमइयं लोयं"इत्यादि। लोके चासौ वर्तते, इदं चाप्रश्नितमप्युक्तं, शिष्यहितत्वादाचार्यस्येति 'लोकमात्रः' लोकपरिमाणः, स च किञ्चिन्यूनोऽपि व्यवहारतः स्यादित्यत आह-लोकप्रमाणः, लोकप्रदेशप्रमाणत्वात्तप्रदेशानाम्। स चान्योऽन्यानुबन्धेन स्थित इत्येतदेवाह-'लोयफुडे'त्ति लोकेन-लोकाकाशेन सकलस्वप्रदेशैः स्पृष्टो लोकस्पृष्टः, तथा लोकमेव च सकलस्वप्रदेशैः स्पृष्ट्वा तिष्ठतीति। पुद्गलास्तिकायो लोकं स्पृष्ट्वा तिष्ठतीत्यनन्तरमुक्तमिति स्पर्शनाऽधिकारादधोलोकादीनां धर्मास्तिकायादिगतां स्पर्शनां दर्शयन्निदमाह'अहोलोए ण'मित्यादि 'सातिरेगं अद्धति लोकव्यापकत्वाद्धर्मास्तिकायस्य सातिरेकसप्तरज्जप्रमाणत्वाच्चाधोलोकस्य । २११४६. २|१४७. 'असंखेज्जइभाग'ति असंख्यातयोजनप्रमाणस्य धर्मास्तिकायस्याथदशयोजनशतप्रमाणस्तिर्यग्लोकोऽसंख्यातभागवर्तीति तस्यासावसंख्येय भागं स्पृशतीति। २।१४८. 'देसूणं अद्धं ति देशोनसप्तरज्जुप्रमाणत्वादूर्ध्वलोकस्येति । २११४६-१५२. 'इमा णं भंते !'इत्यादि इह प्रतिपृथिवि पंच सूत्राणि देवलोकसूत्राणि द्वादश, ग्रैवेयकसूत्राणि त्रीणि, अनुत्तरेषप्रागभारासूत्रे द्वे-एवं द्विपञ्चाशत्सूत्राणि धर्मास्तिकायस्य किं संख्येयं भागं स्पृशन्तीत्याद्यभिलापेनावसेयानि । तत्रावकाशान्तराणि संख्येयभागं स्पृशन्ति, शेषास्त्व संख्येयभागमिति निर्वचनम्। २।१५३. एतान्येव सूत्राण्यधर्मास्तिकायलोकाकाशयोरिति । इहोक्तार्थसंग्रहगाथा भाविताथैवेति । ॥द्वितीयशते दशमोद्देशकः ॥ श्रीपंचमांगे गुरुसूत्रपिण्डे, शतं स्थितानेकशते द्वितीयम् । अनैपुणेनापि मया व्यचारि, सूत्रप्रयोगशवचोऽनुवृत्त्या ।। इति । ।। इति श्री भगवतीवृत्तौ द्वितीयं समाप्तम् ।। Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन विश्व भारती द्वारा प्रकाशित आगम साहित्य वाचना-प्रमुख : गणाधिपति तुलसी संपादक : विवेचक : आचार्य महाप्रज्ञ पृ. 1100, पृ. 1500, मू. 700.00 मू. 700.00 पृ. 625, मू. 500.00 अंगसत्ताणि मूलपाठ, पाठान्तर-साहित) भाग-१-(आयारो, सूयगडो, ठाणं, समवाओ) भाग-२–(भगवई-विआहपण्णत्ती) भाग-३–(नायाधम्मकहाओ, उवासगदसाओ, अंतगडदसाओ, अणुत्तरोववाइयदसाओ, पण्हावागरणाई, विवागसुर्य) उवंगसुत्ताणि (मूलपाठ, पाठान्तर-साहित, शब्द-सूची) (खण्ड-१) (ओवाइयं, राइपसेणइयं, जीवाजीवाभिगमे)। (खण्ड-२) (पण्णवणा, जंबुद्दीवपण्णत्ती, चंदपण्णत्ती, सुरपण्णत्ती, निरयावलियाओ, कप्पवडिसियाओ.। पुफ्फियाओ, पुफ्फचूलियाओ, वण्हिदसाओ) नवसुत्ताणि (मूलपाठ, पाठान्तर-साहित, शब्द-सूची) (चार मूल, चार छेद, आवश्यक आवस्सयं, दसवेआलियं, उत्तरज्झयणाणि, नंदी, अणुओगदाराई, 'दसाओ, कप्पो, ववहारो, निसीहज्झयणं)। पृ. 800, मू. 400.00 पृ. 1170, मू. 600.00 पृ. 1300, मू. 700.00 आगम शब्दकोष अंगसुत्ताणि तीनों भागों की समग्र शब्द-सूची पृ. 823, मू. 300.00 मूल, छाया, हिन्दी अनुवाद एवं टिप्पण-सहित दसवेआलियं उत्तरज्झयणाणि, भाग-१ उत्तरज्झयणाणि, भाग-२ सूयगडो, भाग-१ सूयगडो, भाग-२ पृ. 650, पृ. 516, पृ. 536, पृ. 700, पृ. 413, पृ. 1060, पृ. 468, मू. 500.00 मू. 500.00 मू. 500.00 मू. 600.00 मू. 400,00 मू. 700.00 मू. 50000 ठाणं मुद्रणाधीन पृ. 600 पृ. 356, पृ. 107, समवाओ अनुओगदाराई आयारो भाष्य (मूलपाठ, संस्कृत भाष्य, हिन्दी अनुवाद तथा टिप्पण सहित) आयारो (मूलपाठ, हिन्दी अनुवाद, टिप्पण) दसवेआलियं (गुटका) उत्तरज्झयणाणि (गुटका) 'गाथा (आगमों के आधार पर भगवान् महावीर का जीवन और दर्शन रोचक शैली में) भगवती की जोड़, भाग-१ भगवती की जोड़, भाग-२ भगवती की जोड़, भाग-३ भगवती की जोड़, भाग-४ भगवती की जोड़, भाग-५ / मू. 300.00 मू. 200.00 मू. 2.00 मू. 5.00 पृ. 441, पृ. 600, पृ. 472, पृ. 575, पृ. 480, 476, पृ. 420, मू. 250.00 मू. 130.00 मू. 70.00 मू. 200.00 मू. 300.00 मू. 300.00