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भगवई
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श.१: उ.१: सू.११-१३
इसलिए ये चार पद एकार्थक हैं-एक ही उत्पाद-पर्याय को सिद्ध करने वाले हैं।' अन्तिम पांच पद भिन्नार्थक हैं-व्यय-पर्याय के विभिन्न रूपों का प्रतिपादन करने वाले हैं।
आचार्य अकलंक ने 'चलमाणे चलिए' सिद्धान्त की व्याख्या । ऋजुसूत्र नय के आधार पर की है। अभयदेवसूरि इसकी व्याख्या निश्चय नय के आधार पर करते हैं। उनका अभिमत यह है कि व्यवहार नय की दृष्टि से जो चलित हो गया, वह चलित कहलाता
है। निश्चय नय की दृष्टि से चलत् भी चलित कहलाता है।'
इस सिद्धान्त में पर्याय की प्रधानता है; इसलिए ऋजुसूत्र नय के साथ इसकी अधिक संगति है। अभयदेवसूरि ने इन नौ पदों की व्याख्या कर्म के आधार पर की है। उन्होंने मतान्तर का भी उल्लेख किया है। मतान्तर के द्वारा इन पदों की व्याख्या सामान्य रूप से की गई है। इसलिए इन्हें केवल कर्म के साथ नहीं जोड़ना चाहिए। दोनों अभिमतों की जानकारी के लिए निम्नांकित कोष्टक देखें
वृत्ति का मत
मतान्तर
१. चलन २. उदीरण
अस्थिर पर्याय स्थिर वस्तु को प्रेरित करना।
३. वेदन ४. प्रहाण
५. छेदन
अकर्म-स्कन्धों का विपाक के अभिमुख होना, उदय में आना । आगामी काल में उदय में आने वाले कर्म का प्रयत्न के द्वारा उदय में प्रक्षेपण करना। उदय में आए हुए कर्म-स्कन्धों का वेदन करना। जीव-प्रदेशों से कर्म-स्कन्धों का पृथक् होना। स्थितिबन्ध का छेदन, स्थिति का अल्पीकरण | अनुभाग का भेदन, कर्म के रस का मन्दीकरण। कर्मस्कन्धों का प्रज्वलन। आयुष्य के कर्म-स्कन्धों का समापन | समस्त कर्म-स्कन्धों का जीव-प्रदेशों से पृथक् होना।'
६. भेदन ७. दहन ८. मरण ६. निर्जरा
कम्पमान पर्याय। गिरना स्थान से च्युत होना। कुठार आदि से होने वाला छेदन। खण्डखण्ड किया जाने वाला भेदन पर्याय । अग्नि के द्वारा होने वाली ज्वलन-क्रिया। प्राण-त्याग। पृथग्भवन अथवा बहुत पुराना होना।
इस क्रियाकाल और निष्ठाकाल (सम्पन्नता-काल) के अभेद के सिद्धान्त का प्रस्तुत आगम में अनेक बार प्रयोग किया गया है११३७१ में यह 'क्रियमाण कृत' के रूप में उल्लिखित है। ११४४२,४३ में यह सिद्धान्त पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष के रूप में निरूपित है। ६२२८ में जमाली ने इस सिद्धान्त के प्रति विप्रतिपत्ति प्रकट की है। १२।१५६-१६१ में यह सिद्धान्त 'उपपद्यमान उत्पन्न' के रूप में प्रतिपादित हुआ है।
शब्द-विमर्श एकार्यक-एक अर्थ या प्रयोजन वाले। नानार्थक-भिन्न अर्थ या प्रयोजन वाले। नानाघोष-विभिन्न उदात्त आदि घोषों से युक्त। नानाव्यञ्जन विभिन्न अक्षरों से युक्त ।
नेरइयाणं ठितिआदि-पदं
नैरयिकाणां स्थित्यादि-पदम
नैरयिकों की स्थिति आदि का पद
१३. नेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता? गोयमा ! जहण्णेणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता॥
नैरयिकाणां भदन्त ! कियन्तं कालं स्थितिः १३. भन्ते ! नरयिक जीवों की स्थिति कितने काल प्रज्ञप्ता ?
की प्रज्ञप्त है ? गौतम ! जघन्यतः दश वर्षसहस्राणि, उत्क- गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष, उत्कृष्ट तेतीस र्षतः त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि स्थितिः सागरोपम की स्थिति प्रज्ञप्त है। प्रज्ञप्ता।
१. म.वृ.१।१२-एषां च पदानामेकार्थानामपि सतामयमर्थः सामर्थ्यप्रापितक्रमः, ३. वही,११२ न च वक्तव्यं किमेतैश्चलनादिभिरिह निरूपितैः ? अतत्त्व
यदुत-पूर्व तचलति-उदेतीत्यर्थः, उदितं च वेधते अनुभूयत इत्यर्थः । तच्च रूपत्वादेषाम् । अतत्त्वरूपत्वस्यासिद्धत्वात् तदसिद्धिश्च निश्चयनयमतेन वस्तुद्विधा–स्थितिक्षयादुदयप्राप्तं उदीरणया चोदयमुपनीतं, ततश्चानुभवानन्तरं तत् स्वरूपस्य प्रज्ञापयितुमारब्धत्वात्, तथाहि-व्यवहारनयश्चलितमेव चलितमिति प्रहीयते, दत्तफलत्वाचीवादपयातीत्यर्थः । एतम टीकाकारमतेन व्याख्यातम् । मन्यते, निश्चयनयस्तु चलदपि चलितमिति । २. वही,१।१२-छिद्यमानपदे हि स्थितिखण्डनं विगम उक्तः, भिधमानपदे ४. वही, १।१२–अन्ये तु कर्मेतिपदस्य सूत्रेऽनभिधानाचलनादिपदानि सामान्येन त्वनुभावभेदो विगमः, दह्यमानपदे त्वकर्मताभवनं विगमः, म्रियमाणपदे पुनरायुः- व्याख्यान्ति, न कम्मपिक्षयैव । कर्माभावो विगमः, निर्जीयमाणपदे त्वशेषकर्माभावो विगम उक्तः । तदेवमेतानि ५. वही, १।११,१२ । विगतपक्षस्य प्रतिपादकानीत्युच्यन्ते।
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