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श.१ : उ.१: सू.१४,१५
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भगवई
१४. नेरइया णं भंते ! केवइकालस्स
आणमंति वा ? पाणमंति वा ? ऊससंति वा? णीससंति वा ? जहा उस्सासपदे ।।
नैरयिकाः भदन्त ! कियत्कालाद् आनन्ति वा? १४. भन्ते ! नैरयिक जीव कितने काल से आन, अपानन्ति वा ? उच्छ्वसन्ति वा ? निःश्व- अपान तथा उच्छ्वास और निःश्वास करते हैं?' सन्ति वा? यथा उच्छ्वासपदे।
यह पण्णवणा के 'उच्छ्वास-पद' (७) की भांति वक्तव्य है।
भाष्य
१. आन, अपान तथा उच्छ्वास और निःश्वास करते हैं
व्याकरण की दृष्टि से अन् और श्वस दोनों एकार्थक धातुएं का निर्देश है। हैं-अन-श्वसुक्-प्राणने। इस आधार पर आमंति और ऊससंति को
'पण्णवणा' सूत्र में कहा गया है कि नैरयिक जीव निरन्तर दोहरा प्रयोग कहा जा सकता है। सूत्र-रचनाशैली के अनुसार इस श्वासोच्छ्वास लेते हैं, क्योंकि वे अत्यन्त दुःखी हैं। जो अत्यन्त प्रकार के दोहरे प्रयोग अनेक स्थानों पर मिलते हैं।
दुःखी होता है, वह निरन्तर श्वास लेता है और निरन्तर श्वास छोड़ता आन का अर्थ है-श्वास लेना' और अपान का अर्थ है। श्वासोच्छ्वास-प्राण की क्रिया के लिए 'आनमन्ति पाणमन्ति' का है-'श्वास छोड़ना।' वृत्तिकार के अनुसार इन्हीं दोनों पदों को स्पष्ट तथा श्वासोच्छ्वास की क्रिया के लिए 'ऊससंति नीससंति' का प्रयोग करने के लिए उच्छ्वास और निःश्वास पद का प्रयोग हुआ है। किया गया है। वृत्तिकार ने वैकल्पिक रूप में आनमन्ति की णमु धातु से संबंध-योजना
प्राण और श्वास दोनों में गहरा सम्बन्ध है। श्वास के साथ
प्राण-तत्त्व का आकर्षण होता है। श्वास लेते समय प्राण-शक्ति और कुछ आचार्यों के मतानुसार श्वासोच्छ्वास दो प्रकार का होता श्वास छोड़ते समय अपान-शक्ति सक्रिय रहती है। इसलिए है-आध्यात्मिक (आन्तरिक) श्वासोच्छ्वास और बाह्य श्वासोच्छ्- उच्छ्वास-निःश्वास की आन्तरिक शक्ति को आनापान और बाहरी वास। आध्यात्मिक श्वास, निःश्वास को आन, अपान तथा बाह्य को शक्ति को उच्छ्वास-निःश्वास कहा जाता है। आधुनिक वैज्ञानिक उच्छ्वास, निःश्वास कहा जाता है।
अवधारणा में ऑक्सीजन का ग्रहण और कार्बन-डाइऑक्साइड का ___व्यावहारिक भाषा में प्राण और श्वास दोनों एकार्थक माने
निष्कासन फुप्फुस में भी होता है और शरीर की कोशिकाओं में भी जाते हैं, किन्तु वास्तव में दोनों एक नहीं हैं। प्राण हमारी जीवनी-शक्ति
होता है। फुप्फुस और कोशिकाओं के भीतर होने वाली ये क्रियाएं है और श्वास वायुमण्डल से लिए जाने वाले श्वास-वर्गणा के पदगल
क्रमशः बाह्य और आन्तरिक शक्ति की प्रक्रियाएं हैं। इनकी क्रमशः हैं। प्रस्तुत सत्र में श्वासोच्छवास-प्राण और श्वासोच्छवास इन दोनों उच्छ्वास-निःश्वास और आनापान के साथ तुलना की जा सकती है।
की है।
१५. नेरइया णं भंते ! आहारट्ठी?
नैरयिकाः भदन्त ! आहारार्थिनः?
हंता गोयमा ! आहारट्ठी। जहा पण्णवणाए पढमए आहारुद्देसए तहा भाणियवं
हन्त गौतम ! आहारार्थिनः । यथा प्रज्ञापनायां प्रथमकः आहारोद्देशकः तथा भणितव्यः ।
१५. भन्ते ! क्या नैरयिक जीव आहार की इच्छा करते हैं ? हां, गौतम ! वे आहार की इच्छा करते हैं। यह पण्णवणा के 'आहार-पद' (२८) के प्रथम उद्देशक की भांति वक्तव्य है।
संगहणी गाहा
संग्रहणी गाथा
संग्रहणी गाथा
ठिई उस्सासाहारे, किं वाऽऽहारेंति सवओ वावि, कतिभागं सवाणि व, कीस व भुजो परिणमंति ?॥१॥
स्थितिः उच्छ्वासाहारी, किं वाऽऽहरन्ति सर्वतो वापि। कतिभागं सर्वाणि वा, कीदृशं वा भूयः परिणमन्ति ? ।।
नैरयिकों की स्थिति कितनी है ? वे कितने काल से उच्छ्वास लेते हैं ? क्या वे आहार के इच्छुक हैं ? वे किस प्रकार का आहार करते हैं ? वे सब आत्म-प्रदेशों से आहार करते हैं ? वे कितने भाग का आहार करते हैं ? वे आहार-परिणामयोग्य सब पुद्गलों का आहार करते हैं ? वे उसका किस रूप में परिणमन करते हैं ?
१. आप्टे.-आन-Inhalation अपान—Breathing out. २. भ.वृ.१।१४ –अथवा आनमन्ति प्राणमन्तीति ‘णमु प्रत्ये' इत्यस्यानेकार्थत्वेन
श्वसनार्थत्वात्। ३. पण्ण. ७।१
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