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श. १: उ.१: सू. ११-१२
क्रमवर्ती दो पर्यायों की दृष्टि से उत्पाद और व्यय समकालीन होते हैं। पूर्व पर्याय का अन्तिम बिन्दु और उत्तर पर्याय का आदि बिन्दु एक है। ठाणं के अनुसार चार अघात्य कर्मों के क्षय और आत्मा के सिद्ध होने का समय एक ही है, क्योंकि ये दोनों क्रमवर्ती पर्याय हैं।' पूर्व पर्याय का व्यय और उत्तर पर्याय का उत्पाद ज समय में होता है, उसी समय में वह वस्तु सामान्य रूप से स्थिर भी होती है । इस दृष्टि से उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य तीनों का एक काल माना जा सकता है। एक पर्याय की दृष्टि से उत्पाद और व्यय का काल भिन्न होता है । एक पर्याय की उत्पत्ति का आदि बिन्दु और अन्तिम बिन्दु भिन्न-भिन्न होते हैं। इसी प्रकार दोनों की काल-सीमाओं में रहने वाला द्रव्य भी भिन्न हो जाता है। इसे हम घट के उदाहरण से समझने का प्रयत्न करेंगे। एक घट बन रहा है। वह एक समग्र घट के रूप में उत्पद्यमान है—बन रहा है। जितने भाग में वह बन चुका है, उतने रूप में वह उत्पन्न है— बन गया है और जो भाग बनना शेष है, उसकी अपेक्षा से वह घट उत्पत्स्यमान है—बनने वाला है। उस उत्पद्यमान घट में जितने पूर्व पर्याय छोड़े जाते हैं, वे विगच्छत् नष्ट हो रहे हैं। जितना भाग बन चुका उतने पर्याय विगत — नष्ट हो चुके हैं। जो भाग बनना शेष हैं, उसके पर्याय विगमिष्यत् - नष्ट होने वाले हैं। इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य त्रैकालिक होता है। जैन दर्शन के अनुसार द्रव्य त्रैकालिक है और पर्याय वर्तमानकालिक है। यह परिणामी नित्यवाद का सिद्धान्त है। इसमें द्रव्य और पर्याय दोनों मान्य हैं।
प्रस्तुत सूत्र द्रव्य के सामान्य पक्ष को गौण करके विशेष पक्ष को ग्रहण करने वाली नय-दृष्टि का सूत्र है । तत्त्वार्यराजवार्तिक और
धवला में प्रस्तुत सिद्धान्त की व्याख्या ऋजुसूत्र के नय के दृष्टिकोण से है। ऋजुसूत्र वर्तमान पर्याय की सत्ता का प्रतिपादन करता है । 'पच्यमान पक्क' इसमें दो पक्ष हैं। पच्यमान वर्तमान है और पक्क
१. ( क ) ठाणं, ४ । १४४ - पढमसमयसिद्धस्स णं चत्तारि कम्मंसा जुगवं खिज्जति, तं जहा वेयणिजं, आउयं, णामं गीतं ।
(ख) जयाचार्य, झीणी चरचा, ढाल १७, गा. ६
प्रथम समय नां सिद्ध च्यार कर्मा नां अंश खपावै रे । चौथे ठाणै प्रथम उद्देश, बुद्धिवंत न्याय मिलावे रे || २. सम्मति. ३ । ३६,३७
जो आउंचणकालो सो चेव पसारियस्स विण जुत्तो । तेसिं पुण पडिवत्ती — विगमे कालंतरं णत्थि | उप्पजमाणकालं उप्पण्णं ति विगयं विगच्छंतं । दवियं पण्णवयंतो तिकालविसयं विसेसेइ ॥
३. (क) त. रा. वा. १1३३, पृ. ६७/
(ख) क. पा. प्रथम अधिकार, पृ. २०३,२०४ । ४. भ. वृ. १ 199 -- कथं पुनस्तद्वर्तमानं सदतीतं भवतीति ? अत्रोच्यते-यथा पट उत्पद्यमानकाले प्रथमतन्तुप्रवेशे उत्पद्यमान एवोत्पन्नो भवतीति, उत्पद्यमानत्वं च तस्य प्रथमतन्तुप्रवेशकालादारभ्य पट उत्पद्यते इत्येवं व्यपदेशदर्शनात् प्रसिद्धमेव उत्पन्नत्वं तूपपत्त्या प्रसाध्यते, तथाहि —उत्पत्तिक्रियाकाल एव
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भगवई
अतीत। ये दोनों विरोधी धर्म एक साथ कैसे हो सकते हैं ? आचार्य ने इस प्रश्न के समाधान में बताया है कि पचन-क्रिया के पहले अविभागी समय में वस्तु का कोई अंश पका या नहीं पका ? यदि नहीं पका तो वह दूसरे आदि समयों में भी नहीं पकेगा। इस पक्कअंश की अपेक्षा से यह 'पच्यमान पक्क' सिद्धान्त सही है। जितने अंश में वस्तु पक चुकी है, उसकी अपेक्षा से वह वस्तु पक्क है। उसका पूरा पाक नहीं हुआ है, इस अपेक्षा से वह पच्यमान भी है। ' अभयदेवसूरि ने इस सिद्धान्त को पट के उदाहरण से समझाया है। यदि प्रथम तंतु-प्रवेश के समय पट उत्पन्न नहीं होता है, तो फिर वह कभी उत्पन्न नहीं हो सकता तथा क्रिया की व्यर्थता सिद्ध होगी। आचार्य मलयगिरि ने भी क्रियमाण-कृत, अभ्यवह्रियमाण- अभ्यवहृत ( खाया जा रहा — खाया जा चुका) और परिणम्यमान-परिणत( जिसका परिणमन हो रहा है—परिणमन हो चुका ) इस सिद्धान्त की स्वीकृति ऋजुसूत्र नय द्वारा बतलाई है। ' प्रस्तुत दृष्टिकोण का निष्कर्ष यह है कि उत्पत्ति और विनाश की प्रक्रिया को समझने के लिए द्रव्य और पर्याय के संयुक्त रूप का स्वीकार आवश्यक है । केवल द्रव्य या केवल पर्याय के आधार पर उत्पत्ति या विनाश की व्याख्या नहीं की जा सकती ।
एक समय में एक द्रव्य में अनेक उत्पाद और विनाश होते हैं और अनेक ध्रौव्य भी होते हैं।
'चलमाणे चलिए' आदि नव पद हैं। इनमें पहले चार पद उत्पाद - पर्याय की अपेक्षा से और शेष पांच पद व्यय- पर्याय की अपेक्षा से बतलाए गए हैं। अभयदेवसूरि ने पहले चार पदों की व्याख्या 'केवलज्ञान' के उत्पाद की अपेक्षा से की है। इस व्याख्या में उन्होंने पूर्ववर्ती टीकाकार के मत का अनुसरण किया है। उनके अनुसार जो कर्म चलित होते हैं, उनकी ही उदीरणा होती है। उदीरित का ही वेदन होता है, और वेदित का ही क्षय होता है;
प्रथमतन्तुप्रवेशेऽसावुत्पन्नः, यदि पुनर्नोत्पन्नोऽभविष्यत्तदा तस्याः क्रियाया वैयर्थ्यमभविष्यत् निष्फलत्वाद्, उत्पाद्योत्पादनार्था हि क्रियाः भवन्ति, यथा च प्रथमे क्रियाक्षणे नासावुत्पन्नस्तथोत्तरेष्वपि क्षणेष्वनुत्पन्न एवासौ प्राप्नोति, को ह्युत्तरक्षणक्रियाणामात्मनि रूपविशेषो ? येन प्रथमया नोत्पन्नस्तदुत्तराभिस्तुत्पाद्यते, अतः सर्वदैवानुत्पत्तिप्रसङ्गः, दृष्टा चोत्पत्तिः, अन्त्यतन्तुप्रवेशे पटस्य दर्शनात्, अतः प्रथमतन्तुप्रवेशकाल एव किञ्चिदुत्पन्नं पटस्य यावच्चोत्पन्नं न तदुत्तरक्रिययोत्पाद्यते, यदि पुनरुत्पाद्येत तदा तदेकदेशोत्पादन एव क्रियाणां कालानां च क्षयः स्यात्, यदि हि तदंशोत्पादननिरपेक्षा अन्याः क्रिया भवन्ति तदोत्तरांशानुक्रमणं युज्येत, नान्यथा ।
५. प्रज्ञा.वृ. प. ५०६ इह प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनां करोति नयः ऋजुसूत्रो न शेषा नैगमादयः, ऋजुसूत्रश्च क्रियमाणं कृतं अभ्यवहियमाणमभ्यवहृतं परिणम्यमानं परिणतमभ्युपगच्छति ।
६. सम्मति. ३ | ४१-
एगसमयम्मि एकदवियस्स बहुया वि होंति उप्पाया । उप्पायसमा विगमा ठिईउ उस्सग्गओ नियमा
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