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________________ श.१: उ.२ः सू.११३ ६८ भगवई वृत्तिकार ने एक प्राचीन मत का उल्लेख किया है। उस मत के अनुसार यहां असंयत सम्यग्दृष्टि का ग्रहण होता है । वृत्तिकार ने इस मत को अमान्य ठहराया है और उसकी समीक्षा की है। उनके अनुसार सम्यग्दृष्टि देशविरत होने पर भी अच्युत (बारहवें स्वर्ग) से ऊपर उत्पन्न नहीं होता । प्रस्तुत सूत्र में निह्नवों का ग्रहण भी नहीं किया जा सकता। उनका प्रतिपादन अंतिम सूत्र में किया गया है, इसलिए असंयत भव्य - द्रव्य-देव मिथ्यादृष्टि ही होता है । ' निर्जरा के कारण वे उच्च गति में उत्पन्न हो जाते हैं।' यहां 'असंज्ञी' पद अमनस्क तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय का सूचक है । चतुरिन्द्रिय तक के जीव देवगति में उत्पन्न नहीं होते। इसलिए यहां 'असंज्ञी' पद के द्वारा अमनस्क तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय का ही ग्रहण किया गया है। ६. तापस ३. संयम की आराधना करने वाले प्रव्रज्याकाल से लेकर जीवन के अंत तक जिसके चरित्र का परिणाम खण्डित नहीं होता वह विराधनारहित संयम का अधिकारी माना जाता है। संयम की प्रारम्भिक साधना मे संज्वलन कषाय का और प्रमत्त गुणस्थान का अस्तित्व रहता है, इस स्थिति में स्वल्प माया आदि दोष का संभव होने पर भी चारित्र का उपघात नहीं किया जाता; इसलिए उस जागरूक मुनि का संयम अविराधित माना गया है। ४. संयम की विराधना करने वाले वृत्तिकार ने इस विषय की समीक्षा में लिखा है कि आर्या सुकुमालिका ने संयम की विराधना की थी और वह दूसरे स्वर्ग ( ईशान कल्प) में उत्पन्न हुई, इसलिए उत्कर्षतः सौधर्म कल्प में उत्पन्न होने का नियम कैसे घटित हो सकता है ? इसका समाधान उन्होंने इस प्रकार किया है कि आर्या सुकुमालिका ने संयम के 'उत्तरगुण की विराधना की थी, उसने मूल गुण की विराधना नहीं की थी । विराधित संयम की कोटि में संयम की अधिकतम विराधना करने वालों का ग्रहण किया गया है। कुछ अंशों में विराधना करने वाले मुनि अच्युत तक के स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं। वृत्तिकार के समाधान की पुष्टि नायाधम्मकहाओ और भगवई से भी होती है। ५. असंज्ञी अमनस्क जीवों के मन का विकास नहीं होता, फिर भी अकाम १. भ. वृ. १1११३ – तत्रैतेऽसंयतसम्यग्दृष्टयः किलेत्येके, यतः किलोक्तम्अणुव्वयमहव्वयेहिय बालतवोऽकामनिज्जराए य । देवाउयं निबंधइ सम्मद्दिट्ठि य जो जीवो || एतच्चायुक्तं यतोऽमीषामुत्कृष्टत उपरिमग्रैवेयकेषूपपात उक्तः । सम्यग्दृष्टीनां तु देशविरतानामपि न तत्रासौ विद्यते, देशविरतश्रावकाणामच्युतादूर्ध्वमगमनात् । नाप्येते निह्नवाः तेषामिहैव भेदेनाभिधानात् । तस्मान्मिथ्यादृष्टय एव अभव्या भव्या वा असंयतभव्यद्रव्यदेवाः श्रमणगुणधारिणो निखिलसामाचार्यनुष्ठानयुक्ता द्रव्यलिंगधारिणो गृह्यन्ते । ते ह्यखिलकेवलक्रियाप्रभावत एवोपरिमग्रैवेयकेषूत्पद्यन्त इति । २. वही, १1११३ प्रव्रज्याकालादारभ्याभग्नचारित्रपरिणामानां संज्चलनकषायसामर्थ्यात् प्रमत्तगुणस्थानकसामर्थ्याद्वा स्वल्पमायादिदोषसम्भवेऽप्यनाचरितचरणोपघातानामित्यर्थः । ३. वही, १ ।११३ – इह कश्चिदाह - विराधितसंयमानामुत्कर्षेण सौधर्मे कल्पे इति यदुक्तं, तत्कथं घटते ? द्रौपद्याः सुकुमालिकाभवे विराधितसंयमाया ईशाने उत्पादश्रवणात् इति । अत्रोच्यते तस्याः संयमविराधना उत्तरगुणविषया Jain Education International हैं— दशवैकालिक नियुक्ति में पांच प्रकार के श्रमण बतलाए गए निर्ग्रन्थ जैन मुनि शाक्य - बौद्ध भिक्षु तापस—जटाधारी वनवासी मुनि गेरुक - त्रिदण्डी परिव्राजक आजीवक— गोशालक के शिष्य । इसके आधार पर कहा जा सकता है कि तापस श्रमणों का एक सम्प्रदाय था। ओवाइयं में तापसों के अनेक प्रकार बतलाए गए हैं। ७. कान्दर्पिक, किल्विषिक और आभियोगिक उक्त तीनों पद तीन भावनाओं से संबद्ध हैं। कन्दर्पी भावना से भावित साधु कान्दर्पिक, किल्विषी भावना से भावित साधु किल्चिषिक और अभियोगी भावना से भावित साधु आभियोगक कहलाते हैं । ये व्यवहारदृष्टि से चारित्रवान होते हैं। यह वृत्तिकार की व्याख्या है। ओवाइयं में इनके लिए 'श्रमण' शब्द का प्रयोग किया गया है। यहां किल्विषिक का जघन्यतः उत्पाद भवनवासी में बतलाया गया है । पण्णवणा में उनका जघन्यतः उत्पाद सौधर्म देवलोक में बतलाया गया है। भवनवासी में उत्पन्न होना विमर्शनीय है । किल्विषिक देव तीन प्रकार के होते हैं और वे तीनों वैमानिक देवों के स्तर हैं।" कन्दर्पी भावना वाले हास्य कुतूहलप्रधान प्रवृत्ति करतें हैं। ओवाइयं में कन्दर्पी भावना वालों का सौधर्म देवलोक में कान्दर्पिक के रूप में उत्पन्न होना बतलाया गया है। वहां उनके कुशत्वमात्रकारिणी न मूलगुणविराधनेति । सौधर्मोत्पादाश्च विशिष्टतरसंयमविराधनायां स्यात् । यदि पुनर्विराधनामात्रमपि सौधर्मोत्पत्तिकारकं स्यात्तदा बकुशादीनामुत्तरगुणादिप्रतिसेवावतां कथमच्युतादिषूत्पत्तिः स्यात् ? कथञ्चिद्विराधकत्वात्तेषामिति । ४. (क) नाया. १।१६ ११६२ (ख) भ.२५ । ३३७ । ५. भ. वृ. १ ।११३ – मनोलब्धिरहितानामकामनिर्जरावताम् । ६. पण्ण. ६ । १०३, १०४ । ७. ओवा. सू. ६४ । ८. वही, सू. ६५ से जे इमे गामागर-णयर-निगम-रायहाणि खेड-कब्बड - दोणमुह मडंब - पट्टणासम-संबाह-सण्णिवेसेसु पव्वइया समणा भवंति, तं जहा- कंदपिया कुक्कुइया मोहरिया गीयरइप्पिया नच्चणसीला । ६. पण्ण. २० । ६१ । १०. भ. ६।२३७२३६ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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