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भगवई
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जघन्य उत्पाद की कोई चर्चा नहीं है।' किल्विषी भावना वाले ज्ञान और ज्ञानी की अवहेलना नहीं करते हैं। ओवाइयं के अनुसार वे आचार्य, उपाध्याय आदि के प्रतिकूल प्रवृत्ति करने वाले होते हैं। ' प्रस्तुत आगम में भी इसका संवादी पाठ मिलता है।' अभियोगी भावना वाले विद्या और मन्त्र का प्रयोग करते हैं। उत्तरज्झयणाणि में पांच भावनाएं बतलाई गई हैं, उनमें ये तीनों उल्लिखित हैं। ८. चरक और परिव्राजक
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ये दोनों श्रमण-सम्पदाय के अंगभूत हैं । आगम के व्याख्या- साहित्य में चरक और परिव्राजक का बार-बार उल्लेख मिलता है। दशवैकालिक नियुक्ति में श्रमण के बीस पर्यायवाची नाम बतलाए गए हैं। उनमें चरक और परिव्राजक इन दोनों का समावेश है। ओवाइयं में परिव्राजकों के नौ सम्प्रदायों का उल्लेख मिलता है— सांख्य, योगी, कापिल, भार्गव, हंस, परमहंस, बहुउदक, कुटिव्रत और कृष्ण-परिव्राजक । वहां आठ ब्राह्मण परिव्राजक और आठ क्षत्रिय परिव्राजकों का उल्लेख भी मिलता है। प्रारम्भ में परिव्राजक तथा चरक का सांख्य दर्शन से सम्बन्ध रहा। उत्तरकाल में उनका विस्तार हो गया।
६. तिर्यञ्च
यहां गाय, अश्व आदि उन तिर्यञ्चों का ग्रहण किया गया हैं जो देशव्रत का पालन करते हैं।' ओवाइयं में इसका विशद विवेचन मिलता है। उसके अनुसार संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जलचर, स्थलचर और खेचर जीव जातिस्मरण ज्ञान को प्राप्त कर पांच अणुव्रतों को स्वीकार करते हैं, बहुत सारे शील व्रत आदि के द्वारा अपने आपको भावित कर अनशनपूर्वक मरकर उत्कर्षतः सहस्रारकल्प तक जाते हैं। इस विषय में प्रस्तुत आगम २४ । ३५२ तथा
उत्पन्न
१. ओवा. सू. ६५ ।
२. वही, सू. १५५ ।
३. म. ६३२४० ।
४. ( क ) भ.वृ. १ ।११३ – किल्विषं पापं तदस्ति येषां ते किल्विषिकाः, ते च व्यवहारतश्चरणवन्तोऽपि ज्ञानाद्यवर्णवादिन:, यथोक्तम्—
णाणस्स केवली, धम्मायरियस्स संघसाहूणं ।
माई अवन्नवाई, किव्विसियं भावणं कुणई ||
अतस्तेषां अभियोजनं विद्यामन्त्रादिभिः परेषां वशीकरणाद्यभियोगः, स द्विधा, यदाह-
दुविहो खलु अभिओगो, दव्वे भावे य होइ नायव्वो ।
दव्वंमि होंति जोगा, विज्जा मंता य भावंमि ॥ इति ।
सोऽस्ति येषां तेन वा चरन्ति ये ते आभियोगिक वा । ते च व्यवहारतश्चरणवन्त एव मन्त्रादिप्रयोक्तारः, यदाह
कोउयभूइकम्मे परिणापसिणे निमित्तमाजीवी । इरिससायगरुओ अहिओगं भावणं कुणइ ॥ इति । (ख) ओवा. सू. १५६ ।
५. उत्तर. ३६ । २५६ ।
६. दशवै.नि.गा. १५८, १५६
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पण्णवणा ६।१०५-१०६ द्रष्टव्य है।
१०. आजीविक
श. १: उ. २: सू. ११३
यह एक श्रमण-सम्प्रदाय था। भगवान् महावीर के समय में यह बहुत प्रसिद्ध और शक्तिशाली संघ था। मंखलिपुत्र गोशालक इसी सम्प्रदाय के आचार्य बने थे। इस सम्प्रदाय के बारे में आगम-साहित्य तथा आगम के व्याख्या- साहित्य में पर्याप्त जानकारी मिलती हैं । बौद्ध साहित्य में वर्णित छह तीर्थंकरों में मक्खली गोशालक का आजीवकों के तीर्थंकर के रूप में उल्लेख है।" इस विषय में प्रस्तुत आगम का पन्द्रहवां शतक द्रष्टव्य है। डॉ. ए. एल. बाशम ने 'आजीवक' पर एक महत्तवपूर्ण पुस्तक लिखी है। ओवाइयं में आजीवकों के द्विगृहान्तरिक त्रिगृहान्तरिक आदि सात प्रकार बतलाए गए हैं।
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११. दर्शनभ्रष्ट स्वतीर्थिक—जैन मुनि वेषधारी
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इन दो पदों के द्वारा निह्नवों की सूचना दी गई हैं । ठा में सात निह्नवों के बारे में जानकारी मिलती है। " ओवाइयं के अनुसार चर्या और लिंग की दृष्टि से ये प्रारम्भ में श्रमण होते हैं, किंतु किसी कारणवश उनका दृष्टिकोण मिथ्या हो जाता है और वे मिथ्याभिनिवेश के कारण तीर्थंकर द्वारा प्ररूपित सिद्धान्तों का अपलाप करते हैं।" विस्तृत विवरण के लिए देखें ठाणं ७।१४० का टिप्पण |
वृत्तिकार ने 'आजीवक' शब्द का अर्थ 'नग्न रहने वाले श्रमणों का एक प्रकार' किया हैं। कुछ व्याख्याकार इसका अर्थ 'गोशालक-सम्प्रदाय' मानते हैं। यह मतान्तर का उल्लेख हैं । वृत्तिकार ने इसका तीसरा अर्थ किया है— पूजा-प्रतिष्ठा के लिए तपश्चरण करने वाले ।
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पव्वइए अणगारे, पासंडे चरग तावसे भिक्खू । परिवाइए य समणे, निग्गंथे संजए मुत्ते ॥ तिने ताई दविए, मुणी य खंते दंत विरए य । हे तिरऽविय, हवंति समणस्स नामाई ||
७. ओवा.सु. ६६ ।
८. भ. वृ. १ ।११३ - 'तिरश्चां' गवाश्वादीनां देशविरतिभाजाम् । ६. ओवा. सू. १५६,१५७।
१०. दीघनिकाय, खण्ड १, पृ. ४१,२1१1३ अयं देव, मक्खलि गोसालो सङ्घी चैव गणी च गणाचरियो च, आतो, यसस्सी, तित्थकरो, साधुसम्मतो बहुजनस्स,
रतनू, चिरपव्वजितो, अद्धगतो, वयोअनुप्पत्तो ।
११. History and Doctrines of Ajivakas.
१२. ओवा.सू.१५८ ।
१३. ठाणं, ७।१४०-१४२ ।
१४. ओवा.सू.१६० ।
१५.भ.बृ.१ ।११३ – पाषण्डिविशेषाणां नाग्न्यधारिणां गोशालक शिष्याणामित्यन्ये । आजीवन्ति वा येऽविवेकिलोकतो लब्धिपूजाख्यात्यादिभिस्तपश्चरणादीनि ते आजीविकाऽस्तित्वेनाजीविका अतस्तेषाम् ।
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