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________________ भगवई श.१: उ.२ः सू.११४,११५ ७० ११४. कतिविहे णं भंते ! असण्णिआउए कतिविधं भदन्त ! असंइयायुः प्रज्ञप्तम्? पण्णते? गोयमा ! चउबिहे असण्णिआउए पण्णत्ते, __ गौतम ! चतुर्विधं असंइयायुः प्रज्ञप्तम्, तद् तं जहा–नेरइयअसण्णिआउए, तिरिक्ख- यथा-नैरयिकासंघ्यायुः तिर्यग्योनिकाजोणियअसण्णिआउए, मणुस्सअसण्णि- संजयायुः, मनुष्यासंइयायुः, देवासंघ्यायुः । आउए, देवअसण्णिआउए॥ ११४. भन्ते ! असंज्ञी-आयु कितने प्रकार की प्रज्ञप्त है? गौतम ! असंज्ञी-आयु चार प्रकार की प्रज्ञप्त है, जैसे-नैरयिक असंज्ञी-आयु,२ तिर्यग्योनिक असंज्ञी-आयु, मनुष्य असंज्ञी-आयु, देव असंज्ञी-आयु। भाष्य १. असंज्ञी-आयु असंज्ञी का अर्थ है अमनस्क। जिस जीव के मन का विकास नहीं होता, वह असंज्ञी कहलाता है। जो जीव असंज्ञी अवस्था में अगले जन्म के योग्य आयु का बन्ध करता है उसका नाम असंज्ञी-आयु है।' यह भावी नैगम नय की अपेक्षा से व्याख्या की गई है। भावी नैगम नय, नैगम नय का एक भेद है जिसका विषय हैभविष्य में वर्तमान का आरोपण करना। जैसे-जब जीव असंज्ञी कोनी ती तिर्यञ्च' अवस्था में नरक या देव गति का आयुष्य-बन्ध करता है, उस आयु बन्ध को असंज्ञी-आयुष्य-बन्ध कहा जाता है, जबकि देव और नारक असंज्ञी होते ही नहीं। यहां भविष्य में वर्तमान का आरोपण किया गया है। २. नैरयिक असंज्ञी-आयु नैरयिक असंज्ञी-आयु का तात्पर्य है-नैरयिक-प्रायोग्य असंज्ञी-आयु यानि असंज्ञी जीव जब नरक का आयुष्य-बन्ध करता है। शेष तीनों इसी प्रकार व्याख्येय हैं। ११५. असण्णी णं भंते ! जीवे किं नेरइयाउयं असंज्ञी भदन्त ! जीवः किं नैरयिकायुः ११५. भन्ते ! क्या असंज्ञी जीव नैरयिक-आयु का पकरेइ ? तिरिक्खजोणियाउयं पकरेइ ? प्रकरोति ? तिर्यग्योनिकायुः प्रकरोति ? मनु- बन्ध करता है ?' तिर्यग्योनिक- आयु का बन्ध मणुस्साउयं पकरेइ ? देवाउयं पकरेइ ? प्यायुः प्रकरोति ? देवायुः प्रकरोति ? करता है ? मनुष्य-आयु का बन्ध करता है ? देव-आयु का बन्ध करता है ? हंता गोयमा ! नेरइयाउयं पि पकरेइ, तिरि- हन्त गौतम ! नैरयिकायुरपि प्रकरोति, तिर्यग्- हां, गौतम ! वह नैरयिक-आयु का भी बन्ध करता क्खजोणियाउयं पि पकरेइ, मणुस्साउयं पि योनिकायुरपि प्रकरोति, मनुष्यायुरपि प्रकरो- है। तिर्यग्योनिक-आयु का भी बन्ध करता है। पकरेइ, देवाउयं पि पकरेइ। ति, देवायुरपि प्रकरोति । मनुष्य-आयु का भी बन्ध करता है और देव -आयु का भी बन्ध करता है। नेरइयाउयं पकरेमाणे जहण्णेणं दसवास- नैरयिकायुः प्रकुर्वन् जघन्येन दशसहस्र- नैरयिक-आयु का बन्ध करने वाला जघन्यतः दस सहस्साई, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असं- वर्षाणि, उत्कर्षेण पल्योपमस्य असंख्येयभागं हजार वर्ष और उत्कर्षतः पल्योपम के असंख्येय खेजइमागं पकरेइ। प्रकरोति । भाग का बन्ध करता है। तिरिक्खजोणियाउयं पकरेमाणे जहण्णेणं तिर्यग्योनिकायुः प्रकुर्वन् जघन्येन अन्त- तिर्यगयोनिक-आयु का बन्ध करने वाला जघन्यतः अंतोमहत्तं, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असं- मुहूर्तम्, उत्कर्षेण पल्योपमस्य असंख्येयभागं अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षतः पल्योपम के असंख्येय खेजइभागं पकरे। प्रकरोति । भाग का बन्ध करता है। मणुस्साउयं पकरेमाणे जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, मनुष्यायुः प्रकुर्वन् जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, मनुष्य-आयु का बन्ध करने वाला जघन्यतः अन्तउक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेजइभागं उत्कर्षेण पल्योपमस्य असंख्येयभागं प्रकरो- मुहूर्त और उत्कर्षतः पल्योपम के असंख्येय भाग पकरे। का बन्ध करता है। देवाउयं पकरेमाणे जहण्णेणं दसवास- देवायुः प्रकुर्वन् जघन्येन दश सहस्रवर्षाणि, देव-आयु का बन्ध करने वाला जघन्यतः दश सहस्साई, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखे- उत्कर्षेण पल्योपमस्य असंख्येयभागं प्रकरो- हजार वर्ष और उत्कर्षतः पल्योपम के असंख्येय अइमागं पकरेइ ॥ ति। भाग का बन्ध करता है। ति। ३. भ.वृ.१।११४-नैरयिकप्रायोग्यमसङ्ग्यायुनॆरयिकासङ्ग्यायुः, एवमन्यापि । १. भ.वृ.१।११४-असञी सन् यत्परभवयोग्यमायुर्बध्नाति तदसङ्ग्यायुः। २. असंज्ञी मनुष्य नरक और देवगति का आयुष्य-बंध नहीं करता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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