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भगवई
११६. एयस्स णं भंते ! नेरइयअसण्णी - आउयस्स, तिरिक्खजोणियअसण्णी आउयस्स, मणुस्सअसण्णी आउयस्स, देवअस
आउयस्स करे करेहिंतो अप्पे वा ? बहुए वा ? तुल्ले वा ? विसेसाहिए वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवे देवअसण्णिआउए,
१. बन्ध करता है
यहां ‘प्रकरोति' का अर्थ 'बंध करना' है।' पकरेइ – इस धातु का कुछ विशिष्ट अर्थ भी है। इस विषय में भ. ११४३६-४३६ का आलापक द्रष्टव्य है। वहां बंघइ और पकरेइ दोनों धातु-पदों का प्रयोग
असणआए असंखेज्जगुणे, तिरिक्खजोणिय असणिआउए असंखेज्जगुणे, नेरइय असणिआउए असंखेजगुणे ॥
१. सूत्र ११६
आयुष्य का अल्पबहुत्व
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भाष्य
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एतस्य भदन्त ! नैरयिकासंज्ञ्यायुषः, तिर्यगूयोनिकासंज्ञयायुषः, मनुष्यासंज्ञयायुषः, देवासंज्ञ्यायुषः, कतरः कतरेभ्यः अल्पो वा ? बहुर्वा ? तुल्यो वा ? विशेषाधिको वा ?
गौतम ! सर्वस्तोकः देवासंज्ञ्यायुः, मनुष्यासंज्ञ्यायुः अख्येयगुणः, तिर्यग्योनिकासंज्ञ्यायुः असंख्येयगुणः, नैरयिकासंज्ञ्यायुः असंख्येयगुणः ।
जयाचार्य ने आयुष्य के अल्पबहुत्व का विमर्श किया है। उन्होंने लिखा है कि प्रस्तुत आगम के चौबीसवें शतक के द्वितीय उद्देशक की टीका में यह निर्दिष्ट है - "संमूर्च्छिम की उत्कृष्ट आयु एक करोड़ पूर्व-प्रमाण होती है।" इसका हेतु यह है कि संमूर्च्छिम जीव अपनी आयु के प्रमाण में ही देव-आयु का बंध कर सकता है, उससे अधिक नहीं कर सकता। इसी अपेक्षा से देव - आयु को
११७. सेवं भंते! सेवं भंते !
है। बंघइ का अर्थ सामान्य है— बांधना । पकरेइ का अर्थ कर्म की प्रकृति आदि में परिवर्तन करना है।
भाष्य
१. भ. बृ. 9 19१५ – पकरेइ' त्ति बध्नाति ।
२. वही, २।११७ – इह पल्योपमासंख्येयभागग्रहणेन पूर्वकोटी ग्राह्या, यतः संमूर्च्छिमस्योत्कर्षतः पूर्वकोटिप्रमाणमायुर्भवति, स चोत्कर्षतः स्वायुष्कतुल्यमेव देवायुर्बध्नाति नातिरिक्तं, अत एवोक्तं चूर्णिकारेण -- "उक्कोसेणं स तुल्ल
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त !
श.१: उ.२ः सू.११५-११७
११६. ' भन्ते! नैरयिक- असंज्ञी-आयु, तिर्यग्योनिक- असंज्ञी-आयु, मनुष्य-असंज्ञी - आयु और देव- असंज्ञी आयु, इनमें कौन किससे अल्प, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक है ?
सबसे अल्प माना गया है।'
यौगलिक मनुष्य की अपेक्षा से मनुष्य – आयु को उससे असंख्यातगुना तथा तिर्यञ्च यौगलिक की अपेक्षा से उससे असंख्यात - गुना माना गया है। रत्नप्रभा के चौथे प्रस्तर में मध्यम आयु में उत्पन्न होता है, इस अपेक्षा से नरक का आयु तिर्यञ्च से असंख्यातगुना होता है।
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गौतम ! देव की असंज्ञी-आयु सबसे अल्प हैं । मनुष्य असंज्ञी आयु उससे असंख्येयगुना है, तिर्यग्योनिक - असंज्ञी-आयु उससे असंख्येयगुना है। और नैरयिक-असंज्ञी-आयु उससे असंख्येयगुना है ।
११७. भन्ते वह ऐसा ही है, भन्ते वह ऐसा ही है।
पुव्वकोडी आयुयत्तं निव्वत्ते, न य संमुच्छिमो पुव्वकोडीआयुयत्ताओ परो अस्थि "त्ति ।
३. भ.जो. १ । १० । २२ का वार्तिक ।
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