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भगवर्ड
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श.१: उ.२ः सू.११३ -एतेर्सि णं देवलोगेसु उववजमाणाणं एतेषां देवलोकेषु उपपद्यमानानां कस्य क वेषधारी१२-ये देवलोक में उपपन्न हों तो कस्स कहिं उववाए पण्णत्ते ? उपपातः प्रज्ञप्तः?
किसका कहां उपपात प्रज्ञप्त है ? गोयमा! असंजयभवियदबदेवाणं जहण्णेणं गौतम ! असंयतभव्यद्रव्यदेवानां जघन्येन गौतम ! देवत्व प्राप्त करने योग्य असंयमी जघन्यतः भवणवासीसु, उक्कोसेणं उवरिमगेवेजएसु। भवनवासिषु, उत्कर्षेण उपरिमप्रैवेयकेषु। भवनवासी, उत्कर्षतः उपरिवर्ती ग्रैवेयकों में, संयम अविराहियसंजमाणं जहण्णेणं सोहम्मे कप्पे, अविराधितसंयमानां जघन्येन सौधर्मे कल्पे, की आराधना करने वाले जघन्यतः सौधर्म कल्प, उक्कोसेणं सबढसिद्धे विमाणे। विराहिय- उत्कर्षेण सर्वार्थसिद्धे विमाने। विराधि- उत्कर्षतः सर्वार्थसिद्ध विमान में, संयम की संजमाणं जहण्णेणं भवणवासीसु, उक्कोसेणं तसंयमानां जघन्येन भवनवासिषु, उत्कर्षेण विराधना करने वाले जघन्यतः भवनवासी, सोहम्मे कप्पे। अविराहियसंजमासंजमाणं सौधर्मे कल्पे। अविराधितसंयमासंयमानां उत्कर्षतः सौधर्म कल्प में, संयमासंयम की जहण्णेणं सोहम्मे कप्पे, उक्कोसेणं अच्चुए जघन्येन सौधर्मे कल्पे, उत्कर्षेण अच्युते आराधना करने वाले जघन्यतः सौधर्म कल्प, कप्पे। विराहियसंजमासंजमाणं जहण्णेणं कल्पे। विराधितसंयमासंयमानां जघन्येन। उत्कर्षतः अच्युतकल्प में, संयमासंयम की भवणवासीसु, उक्कोसेणं जोइसिएसु। भवनवासिषु, उत्कर्षेण ज्यौतिषिकेषु। विराधना करने वाले जघन्यतः भवनवासी, असण्णीणं जहण्णेणं भवणवासीसु, असंज्ञिनां जघन्येन भवनवासिषु, उत्कर्षेण उत्कर्षतः ज्योतिष्क देवो में, असंज्ञी जीव उक्कोसेणं वाणमंतरेस। वानमन्तरेषु।
जघन्यतः भवनवासी, उत्कर्षतः वानमंतरों में उप
पन्न होते हैं। अवसेसा सचे जहण्णेणं भवणवासीसु, अवशेषाः सर्वे जघन्येन भवनवासिसु, अवशेष सब जघन्यतः भवनवासी में उपपन्न होते उक्कोसेणं बोच्छामि-तावसाणं जोति- उत्कर्षेण वक्ष्यामि तापसानां ज्योतिषिकेषु, । हैं। उनका उत्कर्षतः उपपात इस प्रकार होगासिएसु, कंदप्पियाणं सोहम्मे कप्पे, चरग- कांदर्पिकानां सौधर्मे कल्पे, चरक-परि- तापस ज्योतिष्क देवों में, कान्दर्पिक सौधर्म कल्प परिवायगाणं बंभलोए कप्पे, किनिसियाणं । व्राजकानां ब्रह्मलोके कल्पे, किल्विषिकानां में, चरक-परिव्राजक ब्रह्मलोक कल्प में, किल्विलंतगे कप्पे, तेरिच्छियाणं सहस्सारे कप्पे, लान्तके कल्पे, तैरश्चिकानां सहस्रारे कल्पे, षिक लान्तक कल्प में, तिर्यञ्च सहस्रार कल्प में, आजीवियाणं अचुए कप्पे, आभिओगियाणं आजीविकानाम् अच्युते कल्पे, आभियोगि- आजीविक अच्युत कल्प में, आभियोगिक अच्युत अचए कप्पे, सलिंगीणं दसणवावनगाणं कानाम् अच्युते कल्पे, स्वलिङ्गिनां दर्शनव्या- कल्प में, दर्शनभ्रष्ट स्वतीर्थिक-जैन मुनि उवरिमगेविजेसु॥ पन्नकानाम् उपरितनग्रैवेयकेषु ।
वेषधारी उपरिवर्ती प्रैवेयकों में उपपन्न होते हैं।
भाष्य
१. सूत्र ११३ प्रस्तुत सूत्र में देवगति में उत्पन्न होने योग्य जीवों का संकलन ।
में उनमें श्रामण्य का स्पर्श नहीं हुआ है। उनकी मिथ्या दृष्टि छूटी किया गया है। किस प्रकार की निर्जरा और संयम-साधना से देवों
नहीं है। इसमें भव्य और अभव्य दोनों प्रकार के मनुष्य हो सकते के विभिन्न स्तरों पर तिर्यञ्च और मनुष्य जन्म लेते हैं। उनका एक
हैं। वे द्रव्य क्रिया के कारण उच्च प्रैवेयक तक जा सकते हैं। श्रमण वर्गीकरण किया गया है। यह वर्गीकरण पण्णवणा में भी मिलता
का अनुष्ठान होने पर भी वे चारित्र के परिणाम से शून्य होते हैं है। ओवाइयं में भी इस विषय का एक लंबा प्रकरण है। उसमें इसलिए उन्हें असंयत कहा गया है।' कुछ विशद चर्चा उपलब्ध है।
____ भव्य-द्रव्य-देव'-यह पारिभाषिक शब्द है। जिसमें देव होने २. देवत्व प्राप्त करने योग्य असंयमी
की योग्यता प्राप्त हो जाती है उसे भव्य-द्रव्य-देव कहा जाता है।'
वृत्तिकार ने बतलाया है कि मिथ्यादृष्टि व्यक्ति भी साधु की पूजा-प्रतिष्ठा प्रस्तुत वर्गीकरण का पहला सूत्र है-असंयत भव्य द्रव्य देव।
देखकर साधुत्व के प्रति आकर्षित हो जाता है और साधु-जीवन की इसमें उन श्रमणों का संग्रह किया गया है जो श्रमण का जीवन जी ।
क्रिया का अनुपालन कर सकता है।' रहे हैं, श्रमण की सामाचारी का अनुपालन कर रहे हैं, किन्तु वास्तव
१. पण्ण.२०१६ २. ओवा.सू.८८.१६०१ ३. भ.वृ.१।११३-असंयता-चरणपरिणामशून्याः भव्याः देवत्वयोग्या अत एव
द्रव्यदेवाः, समासश्चैवं-असंयताश्च ते भव्यद्रव्यदेवाश्चेति असंयतभव्य- द्रव्यदेवाः। ४. भ.१२/१६४।
५. भ.वृ.१।११३–असंयताश्च ते सत्यप्यनुष्ठाने चारित्रपरिणामशून्यत्वात् ।
ननु कथं तेऽभव्या भव्या वा श्रमणगुणधारिणो भवन्ति ? इति, अत्रोच्यते-तेषां हि महामिथ्यादर्शनमोहप्रादुर्भावे सत्यपि. चक्रवर्तिप्रभृत्यनेकभूपतिप्रवरपूजासत्कारसन्मानदानान् साधून समवलोक्य तदर्थं प्रव्रज्याक्रियाकलापानुष्ठानं प्रति श्रद्धा जायते। ततश्च ते यथोक्तक्रियाकारिण इति ।
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