SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवई श.१: उ.२ः सू.१०३-११३ में जितने जीव हैं, उनमें से कुछ निकलकर दूसरी गति में जन्म लेकर फिर वहीं उत्पन्न होते हैं और कुछ वहीं रहते हैं; जब तक कि उनमें से एक जीव भी शेष रहता है, वह कालांश मिश्रकाल कहलाता शून्यकाल किसी भी विवक्षित वर्तमान काल में जिस गति में जितने जीव होते हैं, उनमें से सबके सब वहां से निकल जाते हैं, एक भी शेष नहीं रहता, वह कालांश शून्यकाल कहलाता है।' अशून्य-काल में आदिष्ट गति में जीवों का आगमन और निर्गमन दोनों रुक जाते हैं। यह स्थिति नरक, मनुष्य और देव गति में उत्कृष्टतः बारह मुहूर्त तक रहती है। विकलेन्द्रिय और सम्मूर्छिम तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय में यह स्थिति अन्तर्मुहर्त तक रहती है। मिश्रकाल में आगमन और निगमन दोनों चालू रहते हैं। शून्यकाल में पुरानी अंतकिरिया-पदं अन्तक्रिया-पदम् पीढी समाप्त हो जाती है, नई पीढी जन्म लेती है। अशून्य-काल की अपेक्षा मिश्रकाल को अनंतगुना बतलाया गया है, वह उन जीवों की अपेक्षा से है, जो वर्तमान में नैरयिक हैं और दूसरी गति में जन्म लेने के पश्चात् पुनः नरकगति में उत्पन्न होने वाले हैं। यह प्रतिपादन अगर वर्तमान नरकभव की अपेक्षा से होता तो अशून्यकाल की अपेक्षा मिश्रकाल अनंतगुना नहीं होता। कारण स्पष्ट है कि एक जन्म की आयु असंख्येयकाल से अधिक नहीं होती। नरक आदि गति से निकलने वाला जीव वनस्पति में अनन्त-अनन्त काल तक रह जाता है, इस अपेक्षा से शून्य-काल मिश्रकाल से अनन्तगुना बतलाया गया है। अन्तक्रिया-पद ११२. जीवे णं भंते ! अंतकिरियं करेजा? गोयमा ! अत्येगइए करेजा, अत्येगइए नो करेजा। अंतकिरियापयं नेयव्वं ॥ जीवः भदन्त ! अन्तक्रियां कुर्यात्? गौतम ! अस्त्येककः कुर्यात्, अस्त्येककः नो कुर्यात् । अन्तक्रियापदं ज्ञातव्यम् । ११२. भन्ते ! क्या जीव अन्तक्रिया करता है ? गौतम ! कोई जीव करता है, कोई जीव नहीं करता। यहां पण्णवणा का अंतक्रियापद (पद-२०) ज्ञातव्य है। भाष्य १. अन्तक्रिया ___ अन्तक्रिया सब दःखों के अन्त करने की प्रक्रिया का नाम शरीर से मुक्त हो जाती है। वृत्तिकार के अनुसार कर्म-क्षय की यह अन्तिम क्रिया है।' विशेष जानकारी के लिए देखें-पण्णवणा का जन्म आर मृत्यु का पर्यवसान हा जाता ह। आत्मा तजस आर कामण बीसवां पद तथा ठाणं,४।१ और उसका टिप्पण। असण्णि -आउय-पदं असंज्ञि-आयुष्य-पदम् असंज्ञी-आयु-पद ११३. अह भंते ! असंजयभवियदबदेवाणं, अथ भदन्त ! असंयतभव्यद्रव्यदेवानाम् अवि- ११३. 'भन्ते ! देवत्व प्राप्त करने योग्य असंयमी अविराहियसंजमाणं, विराहियसंजमाणं, राधितसंयमानां, विराधितसंयमानाम्, अविरा- संयम की आराधना करने वाले, संयम की विराअविराहियसंजमासंजमाणं, विराहियसंज- धितसंयमासंयमानां, विराधितसंयमासंयमा- धना करने वाले, संयमासंयम की आराधना करने मासंजमाणं, असण्णीणं, तावसाणं, कंद- नाम्, असंज्ञिनां, तापसानां, कान्दर्पिकानां, वाले, संयमासंयम की विराधना करने वाले असंप्पियाणं, चरग-परिवायगाणं, किबिसिया- चरक-परिव्राजकानां, किल्विषिकानां, तैर- ज्ञी, तापस, कान्दर्पिक, चरकपरिव्राजक, णं, तेरिच्छियाणं, आजीवियाणं, आभि- __श्चिकानाम्, आजीविकानाम्, आभियोगि- किल्चिषिक, तिर्यञ्च, आजीविक," आभिओगियाणं, सलिंगीणं दंसणवावण्णगाणं कानां, स्वलिङ्गिनां, दर्शनव्यापन्नकानाम् १. भ.वृ. ११०६-मिश्रकालस्तु तेषामेव नारकाणां मध्यादेकादय उद्धृत्ताः एकेन्द्रियाणां तूद्वर्तनोपपातविरहाभावेनाशून्यकालाभाव एव, आह चयावदेकोऽपि शेषस्तावन्मिश्रकालः। एगो असंखभागो वट्टइ उब्वट्टणोववामि । २. वही,१।१०६-शून्यकालस्तु यदा त एवादिष्टसामयिका नारकाः साम- एकनिगोए निच्चं एवं सेसेसु वि स एव ॥ स्त्येनोद्वृत्ता भवन्ति, नैकोऽपि तेषां शेषोस्ति स शून्यकाल इति। पृथिव्यादिषु पुनः 'अणुसमयमसंखेज'त्ति वचनाद्विरहाभाव इति । ३. (क) वही,१११०६ चान्तर्मुहूर्तमात्रः अयं च यद्यपि सामान्येन तिरश्चा- (ख) भ.जो.१1८1७३१ । मुक्तस्ताऽपि विकलेन्द्रियसंमूर्छिमानामेवावसेयः, तेषामेवान्तर्मुहूर्तमानस्य विरह- ४. भ.६.१।११२ --अन्त्या च सा पर्यन्तवर्तिनी क्रिया चान्त्यक्रिया, अन्तस्य वा कालस्योक्तत्वात्, यदाह -कर्मान्तस्य क्रिया अन्तक्रिया, तां कृत्स्नकर्मक्षयलक्षणां मोक्षप्राप्तिमित्यर्थः। "भिन्त्रमुहुत्तो विगलिदिएसु सम्मुच्छिमेसुवि स एव ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy