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भगवई
श.१: उ.१: सू.४५-५०
५०. केरिसा गं मंते ! तेसिं वाणमंतराणं कीदृशाः भदन्त ! तेषां वानमन्तराणां देवानां ५०. भन्ते ! उन वानमंतर देवों के देवलोक किस देवाणं देवलोगा पण्णत्ता ? देवलोकाः प्रज्ञप्ताः ?
प्रकार के प्रज्ञप्त हैं ? गोयमा ! से जहानामए इहं असोगवणे इ गौतम ! यथानामकम् इह अशोकवनं वा, गौतम ! जैसे इस मनुष्य लोक में सदा पुष्पित वा, सत्तवण्णवणे इ वा, चंपयवणे इ वा, सप्तपर्णवनं वा, चम्पकवनं वा, चूतवनं वा, (कुसुमिय), बौराया हुआ (माइय), नए पल्लवों चूयवणे इ वा, तिलगवणे इ वा, लउयवणे तिलकवनं वा, लकुचवनं वा, न्यग्रोधवनं वा, (लवइय) और फूलों के गुच्छों से लदा हुआ इवा, नग्गोहवणे इ वा, छत्तोहवणे इ वा, छत्रौघवनं वा, असनवनं वा, शणवनं वा, (थवइय), शाखाओं से घिरा हुआ (गुलुइय), असणवणे इवा, सणवणे इवा, अयसिवणे अतसीवनं वा, कुसुम्भवनं वा, सिद्धार्थवनं वा, पत्र-गुच्छों से लदा हुआ (गोच्छिय), समश्रेणि में इवा, कुसुंभवणे इ वा, सिद्धत्थवणे इ वा, बन्धुजीवकवनं वा, नित्यं कुसुमित-मयूरित- स्थित वृक्षों वाला (जमलिय), युग्म रूप में स्थित बंधुजीवगवणे इ वा, णिचं कुसुमिय-माइय- लवकित-स्तवकित-गुल्मकित-गुच्छित-यमलि- वृक्षों वाला (जुवलिय), फूलों और फलों के भार लवइय-थवइय-गुलुइय-गोच्छिय-जमलिय- त-युगलित-विनमित-प्रणमित-सुविभक्त से विनत, प्रणत, सुव्यवस्थित लुम्बी (पिण्डी) और जुवलिय-विणमिय-पणमिय-सुविभत्तपिडि- पिण्डीमञ्जर्यवतंसकधरं श्रिया अतीव-अतीव मञ्जरी-रूप मुकुट से युक्त, अशोक-वन, सप्तपर्ण मंजरि-वडेंसगघरे सिरीए अतीव-अतीव उपशोभमानं-उपशोभमानं तिष्ठति । (सतौना)-वन, चम्पक-वन, आम्र-बन, तिलकवन, उक्सोमेमाणे-उवसोभेमाणे चिठ्इ ।
लकुच (वहड़ल)-वन, न्यग्रोध (वट)-वन, छत्रौघवन, असन (बीजक, विजयसार)-बन, शण-वन, अलसी-वन, कुसुम्भ-वन, श्वेत सर्षप का वन और बन्धुजीवक (दुपहरिया के वृक्ष) का वन कान्ति से अतीव-अतीव उपशोभित-उपशोभित रहता
न्ति।
एवामेव तेसिं वाणमंतराणं देवाणं देवलोगा एवमेव तेषां वानमन्तराणां देवानां देवलोकाः इसी प्रकार उन वानमंतर देवों के देवलोक जहण्णेणं दसवाससहस्सद्वितीएहिं, उक्कोसेणं जघन्येन दससहस्रवर्षस्थितिकैः उत्कर्षेण जघन्यतः दस हजार वर्ष की स्थितिवाले और पलिओवमद्वितीएहिं, बहूहि वाणमंतरेहिं पल्योपमस्थितिकैः बहुभिः वानमन्तरैः देवैश्च उत्कर्षतः एक पल्योपम की स्थितिवाले अनेक देवेहि य देवीहि य आइण्णा वितिकिण्णा देवीभिश्च आकीर्णाः व्यतिकीर्णाः उपस्तृताः वानमंतर देवों और देवियों से आकीर्ण, व्यतिउक्त्थडा संथडा फुडा अवगाढा सिरीए संस्तृताः स्पृष्टाः गाढावगाढाः श्रिया अतीव- कीर्ण, उनके ऊपर और नीचे आने से ढके हुए, अतीव-अतीव उवसोभेमाणा-उवसोभेमा- अतीव उपशोभमाना-उपशोभमानाः तिष्ठ- आच्छादित, स्पृष्ट' (आसन, शयन आदि द्वारा णा चिट्ठति।
परिभुक्त) और अत्यधिक अवगाढ़ अतीव-अतीव
उपशोभित-उपशोभित हो रहे हैं। एरिसगा गं गोयमा ! तेसिं वाणमंतराणं ईदृशकाः गौतम ! तेषां वानमन्तराणां देवानां गौतम ! वानमंतर देवों के देवलोक इस प्रकार के देवाणं देवलोगा पण्णता। से तेणद्वेणं देवलोकाः प्रज्ञप्ताः। तत् तेनार्थेन गौतम ! प्रज्ञप्त हैं। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा गोयमा ! एवं बुचइ-जीवे णं अस्संजए एवमुच्यते—जीवः असंयतः अविरतः रहा है-असंयत, अविरत, अतीत पापकर्म का अविरए अप्पडिहयपचक्खायपावकम्मे इओ अप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा इतः च्युतः प्रेत्य प्रतिक्रमण और अनागत पापकर्म का प्रत्याख्यान चुए पेचा अत्थेगइए देवे सिया, अत्यंगइए अस्त्येककः देवः स्यात्, अस्त्येककः नो देवः। न करनेवाला कोई जीव इस तिर्यंच या मनुष्य नो देवे सिया ॥ स्यात्।
जन्म से मरकर अगले जन्म में देव होता है और
कोई जीव देव नहीं होता।
भाष्य १. सूत्र ४८-५०
पुनर्जन्म के सिद्धान्त का एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि मनुष्य ४२५-४२८ में किया गया है। देव गति के नियामक तत्त्व चार मृत्यु के पश्चात् फिर मनुष्य ही नहीं होता, वह नरक, तिर्यञ्च या बतलाए गए हैं-१. सराग संयम २. संयमासंयम ३. बाल तप देव किसी भी गति में उत्पन्न हो सकता है। इन सब गतियों में ४.अकाम निर्जरा।' उत्पन्न होने के कुछ नियामक तत्त्व हैं। उनका निर्देश भगवती,
प्रस्तुत सूत्र अकाम निर्जरा का एक उदाहरण है। एक ऐसा
उयकम्मा सरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं देवाउयकम्मासरीरप्पयोगबंधे।
१. भ.५४४२५-देवाउयकम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं?
गोयमा ! सरागसंजमेणं, संजमासजमेणं, बालतवोकम्मेणं, अकामनिज्जराए देवा
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