________________
श.१: उ.१: सू.४४-४६
४२
भगवई
द्वारा कृत बुज्झइ की व्याख्या विमर्शनीय है। प्रस्तुत प्रकरण में बुज्झइ वृत्तिकार के अनुसार चरम भव के आयुष्य के अन्तिम समय यह देशी धातु होनी चाहिए। इसका अर्थ है-बुझ जाना, शान्त हो में सिद्ध होने वाला जीव अशेष कर्मों को क्षीण कर सब दुःखों का जाना। यह मुक्त होने की दूसरी अवस्था है। इसमें जन्म-मरण की अन्त कर देता है। इसका संवादी पाठ ठाणं में उपलब्ध होता है।' आग बुझ जाती है।'
जयाचार्य ने भगवती की जोड़ में इन पांच पदों के वृत्तिसम्मत अर्थ वृत्तिकार ने मुच्चइ का अर्थ "भवोपनाही कर्मों से प्रति समय । का अनुसरण नहीं किया है। मुक्त होना' किया है। किन्तु यह भी उपर्युक्त तर्क से विमर्शनीय है। मुक्त होना सिद्ध होने से प्रथम समय में ही होता है।
३. बहुत-बहुत वृत्तिकार के अनुसार परिनिवाइ का अर्थ है--'जैसे-जैसे कर्म
वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'पुनः पुनः' किया है। किन्तु प्रसंगवश क्षय होते जाते हैं, वैसे-वैसे आत्मा शीतीभूत, शान्त या परिनिर्वृत हो।
इसका 'बहुत-बहुत' अर्थ संगत है। जाती है।' यह अर्थ भी विमर्शनीय है। 'वा' धातु का एक अर्थ गति भी है (वांक-गतिबन्धनयोः) । इस आधार पर परिनिर्वाण का अर्थ 'गतिरहित' या निःस्पन्द' किया जाना चाहिए। मुक्त होने वाला 'अवदग्ग' अन्तवाचक देशीशब्द है। 'अणवदग्ग' का अर्थ है जीव मुक्तिस्थान में पहुंचकर गति-शून्य हो जाता है।
अनन्त।" असंजयस्स वाणमंतरदेव-पदं असंयतस्य वानमन्तरदेव-पदम् असंयत का वानमंतरदेव-पद
४. अन्तहीन
४८. जीवे णं भंते ! अस्संजए अविरए
अप्पडिहयपचक्खायपावकम्मे इओ चुए पेचा देवे सिया?
जीवः भदन्त ! असंयतः अविरतः अप्रतिहत- ४६.'भन्ते ! असंयत, अविरत और अतीत पापकर्म प्रत्याख्यातपापकर्मा इतः च्युतः प्रेत्य देवः का प्रतिक्रमण तथा अनागत पापकर्म का
प्रत्याख्यान न करने वाला जीव इस तिर्यंच या मनुष्य जन्म से मरकर क्या अगले जन्म में देव
स्यात् ?
होता है?
गोयमा ! अत्थेगइए देवे सिया, अत्येगइए णो देवे सिया॥
गौतम ! अस्त्येककः देवः स्यात्, अस्त्येककः । गौतम ! कोई जीव देव होता है और कोई जीव नो देवः स्यात् ।
देव नहीं होता।
४६. सेकेणडेणं भंते ! एवं बुचइ-जीवेणं तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-जीवः ४६. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा
अस्संजए अविरए अप्पडिहयपच्चक्खायपाव- असंयतः अविरतः अप्रतिहतप्रत्याख्यात- है—असंयत, अविरत और अतीत पापकर्म का कम्मे इओ चुए पेचा अत्थेगइए देवे सिया, पापकर्मा इतः च्युतः प्रेत्य अस्त्येककः देवः प्रतिक्रमण तथा अनागत पापकर्म का प्रत्याख्यान अत्थेगइए नो देवे सिया? स्यात्, अस्येककः नो देवः स्यात् ? न करने वाला कोई जीव इस तिर्यंच या मनुष्य
जन्म से मरकर अगले जन्म में देव होता है और
कोई जीव देव नहीं होता? | गोयमा ! जे इमे जीवा गामागर- गौतम ! ये इमे जीवाः ग्राम-आकर-नगर- गौतम ! ग्राम, आकर, नगर, निगम, राजधानी, नगर-रायहाणि-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह- निगम-राजधानी-खेट-कर्बट-मडम्ब-द्रोणमुख- खेट, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमुख, पत्तन, आश्रम और पट्टणासम-सण्णिवेसेसु अकामतण्हाए, अ- पत्तनाश्रम-सन्निवेशेषु अकामतृष्णया, अकाम- सनिवेश में रहने वाले जो ये जीव निर्जरा की कामछुहाए, अकामबंभचेरखासेणं, अकाम- क्षुधया, अकामब्रह्मचर्यवासेन, अकामशीता- अभिलाषा के बिना प्यास और भूख सहन करते सीतातव-दंस-मसग-अण्हाणग-सेय-जल्ल- तप-दंश-मशक-अनानक-स्वेद-जल्ल' मल- हैं, ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, सर्दी, गर्मी, मल-पंक-परिदाहेणं अप्पतरं वा भुजतरं वा पंक-परिदाहेन अल्पतरं वा भूयस्तरं वा कालंदंश-मशक, अस्नान, स्वेद, रज, मैल, पंक (गीला कालं अप्पाणं परिकिलेसंति, परिकिले- आत्मानं परिक्लेशयन्ति, परिक्लेश्य कालमासे मैल) के परिताप द्वारा थोड़े समय या अधिक
लं किचा अण्णयरेसु कालं कृत्वा अन्यतरेषु देवलोकेषु देवतया समय तक अपने आपको परितप्त करते हैं, अपने वाणमंतरेसु देवलोगेसु देवत्ताए उववत्तारो उपपत्तारो भवंति।
आपको परितप्त कर मृत्यु-काल में मृत्यु का वरण भवंति॥
कर किसी एक वानमंतर देवलोक में देवरूप में उपपन्न होते हैं।
१. भ.वृ.२१५२। २. ठाणं,४१४४–पढमसमयसिद्धस्स णं चत्तारि कम्मंसा जुगवं खिजंति, तं
जहा—वेयणिज्नं, आउयं, णाम, गोतं ।
३. भ.७.११४५-'अवयगं'ति देशी वचनोऽन्तवाचकस्ततस्तनिषेधाद् अण
वयग्गं, अनन्तमित्यर्थः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org