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________________ भगवई श.१: उ.१: सू.४४-४७ वृत्तिकार ने शिथिल बन्धन के तीन अर्थ किए हैं-स्पृष्टता, तीसरी अवस्था है-कर्म-बन्धन से मुक्त होना। बद्धता और निधत्तता। गाढ बन्धन के बद्धावस्था, निधत्तावस्था और चौथी अवस्था है—परिनिर्वृत—निःस्पन्द—गतिरहित हो निकाचितावस्था—ये तीन अर्थ किए हैं, किंतु ये विमर्श मांगते हैं। जाना। पांचवीं अवस्था है-सब दुःखों का अन्त कर देना। 'बन्धन' प्रकृति-बन्ध की एक सामान्य अवस्था है। उसकी वृत्तिकार ने पूर्ववर्ती चार अवस्थाओं के अर्थ भिन्न प्रकार से विशेष अवस्थाएं सात हैं। उनमें निधत्त छठी अवस्था है। उसमें किए हैं। उन्होंने सिज्मइ बुज्झइ मुबइ और परिनिवाइ इन पदों की उद्वर्तन और अपवर्तन हो सकते हैं; संक्रमण, उदीरणा और अन्तिम क्षण से पूर्व की अवस्था मानकर व्याख्या की है। केवल उपशामना-ये करण नहीं होते। निकाचना सातवीं अवस्था है। सब्बदुक्खाणं अंतं करेइ को अन्तिम क्षण की अवस्था माना है।' उसमें उद्वर्तन और अपवर्तन भी नहीं होते, कोई भी करण नहीं होता। इसलिए यदि गाढ बन्धन का अर्थ निकाचना किया जाए, तो वृत्तिकार के अनुसार सिज्झइ का अर्थ है-'चरमशरीरी जीव स्थिति और रस का परिवर्तन नहीं हो सकता।' सिद्धिगमन के योग्य हो जाता है', किन्तु यह अर्थ चिन्तनीय है। सिद्ध-अवस्था शरीर-मुक्ति के पश्चात् प्राप्त होती है। प्रश्न पूछा गयाप्रस्तुत शतक के ३५७ वें सूत्र में 'बद्ध, पुटु, निहत्त, कड, पविय, अभिनिविदु, अभिसमण्णागय, उदिण्ण' इतनी कर्म की अवस्थाएं "कहिं पडिहया सिद्धा, कहिं सिद्धा पइदिया। मिलती हैं। इनमें बद्ध और पुट्ठ (स्पृष्ट) इन दो अवस्थाओं को कहिं बोदिं चइत्ताणं, कत्य गंतूण सिज्झई ?" शिथिल-बद्ध माना जा सकता है और निघत्त को गाढ अवस्था माना "सिद्ध कहां रुकते हैं ? कहां स्थित होते हैं ? कहां शरीर जा सकता है। इस अर्थ को स्वीकार करने पर स्थिति-परिवर्तन, को छोड़ते हैं ? और कहां जाकर सिद्ध होते हैं ?" इसके समाधान रस-परिवर्तन और प्रदेश-परिमाण के परिवर्तन में बाधा नहीं आती। में कहा गयाआयुष्य कर्म का बन्ध एक जन्म में एक बार ही होता है; इसलिए “अलोए पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पइडिया । उसका विकल्प है-उसका बन्ध हो भी सकता है, नहीं भी हो इहं बौदिं चइत्ताणं, तत्य गंतूण सिज्झई ॥" सकता।' "सिद्ध अलोक में रुकते हैं। लोक के अग्रभाग में स्थित होते असातवेदनीय कर्म सप्त कर्म-प्रकृतियों के अन्तर्गत प्राप्त है, हैं। मनुष्य-लोक में शरीर को छोड़ते हैं और लोक के अग्रभाग में फिर उसका पृथक् उल्लेख क्यों ? इसका समाधान यह है कि असंवृत जाकर सिद्ध होते हैं।" अनगार के अशुभ भावधारा के कारण असात वेदनीय का अधिकतम इस आधार पर सिज्झइ का अर्थ वृत्तिगत अर्थ से भिन्न पड़ता बन्ध होता है-ऐसा बतलाने के लिए इसका स्वतन्त्र रूप में निर्देश किया गया है। वृत्तिकार ने बुज्झइ का अर्थ इस प्रकार किया है--सिद्धिगमन २. सिद्ध.......सब दुःखों का अन्त करता है। योग्य जीव जब केवली होकर समस्त जीव आदि पदार्थों को जानता प्रस्तुत आलापक में पांच क्रियापद हैं। इन पांच पदों द्वारा है, उस समय वह बुद्ध कहलाता है। मुक्त होने की पांच अवस्थाओं का प्रतिपादन किया गया है। किन्तु 'मोक्षपद' के अनुसार जो कोई जीव सब दुःखों का पहली अवस्था है-सिद्ध होना। जिसका प्रयोजन सिद्ध हो अन्त करता है, वह पहले उत्पन्न-ज्ञान-दर्शनधर अर्हत, जिन और जाता है, वह सिद्ध अवस्था है। केवली होता है। उसके पश्चात् वह सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त, परिनिर्वृत दूसरी अवस्था है-प्रशान्त होना या बुझ जाना। होता है, सब दुःखों का अन्त करता है। इस दृष्टि से वृत्तिकार १. भ.वृ.१।४५ श्लथबन्धनं स्पृष्टता वा बद्धता वा निधत्तता वा, तेन बद्धाः मिदमित्यदुष्टमिति । -आत्मप्रदेशेषु संबन्धिताः पूर्वावस्थायामशुभतरपरिणामस्य कथञ्चिदभावा- ४. वही,११४४-सिध्यन्ति स्म-निष्ठितार्था भवन्ति स्म । दिति शिथिलबन्धनबद्धाः, एताश्चाशुभा एव द्रष्टव्याः । असंवृतभावस्य निंदा- ५. वही,११४४–'सिज्झइति सिध्यति अवाप्तचरमभवतया सिद्धिगमनयोग्यो प्रस्तावात् ताः किमित्याह-'धणियबंधणबद्धाओ पकरेंतित्ति गाढतरवन्धना भवति । 'बुज्झइत्ति स एव यदा समुत्पन्नकेवलज्ञानतया स्वपरपर्यायोपेताबद्धावस्था वा निधत्तावस्था वा निकाचिता वा 'प्रकरोति'। त्रिखिलान् जीवादिपदार्थान् जानाति तदा बुध्यत इति व्यपदिश्यते। 'मुच्चइत्ति २. वही,१४-आयुः पुनः कर्म स्यात्-कदाचिद् बध्नाति, स्यात् न बध्नाति । स एव संजातकेवलबोधो भवोपग्राहिकर्मभिः प्रतिसमयं विमुच्यमानो मुच्यत यस्मात्रिभागाधवशेषायुषः परभवायुः प्रकुर्वन्ति, तेन यदा विभागादिस्तदा इत्युच्यते । 'परिनिव्वाइ'त्ति स एव तेषां कर्मपुद्गलानामनुसमयं यथा यथा बध्नाति । अन्यदा न बजातीति । क्षयमाप्नोति तथा तथा शीतीभवन् परिनिर्वातीति प्रोच्यते। 'सव्वदुक्खाणमंतं ३. वही,११४५-असातवेदनीयं च-दुःखवेदनीयं कर्म पुनः भूयो भूयः' पुनः करेइत्ति स एव चरमभवायुषोऽन्तिमसमये क्षपिताशेषकर्माशः सर्वदुःखानामन्तं पुनः 'उपचिनोति' उपचितं करोति । ननु कर्मसप्तकान्तर्वर्तित्वादसातवेदनीयस्य करोतीति। पूर्वोक्तविशेषणेभ्यः एव तदुपचयप्रतिपत्तेः किमेतद्ग्रहणेन ? अत्रोच्यते- ६. उत्तर.३६ । ५५,५६। असंवृतोऽत्यन्तदुःखितो भवतीति प्रतिपादनेन भयजननादसंवृतत्वपरिहारार्थ- ७. भ.१४२०८ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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