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श.१: उ.१: सू.४४-४७
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भगवई
वुचइ-संवुडे अणगारे सिज्झइ, बुज्झइ, सिद्ध्यति 'बुज्झइ', मुञ्चति, परिनिर्वाति, मुच्चइ, परिनिव्वाइ, सन्दुक्खाणं अंतं सर्वदुःखानामन्तं करोति । करेइ॥
संसार-कान्तार का व्यतिक्रमण करता है। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-संवृत अनगार सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त और परिनिर्वृत होता है, सब दुःखों का अन्त करता है।
भाष्य
१. सूत्र ४४-४७ असंवृत-संवृत
'असंवृत' शब्द का प्रयोग दो अर्थों में मिलता है। इसका एक अर्थ है-मन, वाणी और काय का संवर नहीं करने वाला' अथवा उत्तरगुण में दोष की प्रतिसेवना करने वाला। इसका दूसरा अर्थ है-संयम से च्युत हो जाने वाला।
प्रस्तुत आगम में इन दोनों अर्थों में असंवृत का प्रयोग मिलता है। 'बक्कस निर्ग्रन्थ' के पांच प्रकारों में दो प्रकार हैं-असंवृत बक्कस
और संवृत बक्कस । बक्स निर्ग्रन्थ मूलगुण की विराधना नहीं करता, केवल उत्तरगुण की विराधना करता है। यहां 'असंवृत' का प्रयोग मुनि-धर्म से च्युत होने वाले के लिए किया गया है। इसीलिए उसे अनादि-अनन्त संसार में परिभ्रमण करने वाला बतलाया गया है। वृत्तिकार ने भी इसकी यही व्याख्या की है।
यह विमर्शनीय है कि प्रत्येक संवृत अनगार भी सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त नहीं होता, फिर असंवृत अनगार के लिए यह प्रश्न क्यों उपस्थित किया गया है? इसका समाधान यह है—प्रस्तुत आलापक में चरम कोटि के असंवृत और संवृत को ध्यान में रखकर प्रश्न पूछा गया है; उसी के आधार पर भगवान् ने उसका समाधान दिया है। मध्यम कोटि के असंवृत अनगार अनादि-अनन्त संसार में भ्रमण नहीं करते
और मध्यम कोटि के संवृत अनगार भी सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त नहीं होते।
इसी प्रकार 'संवृत' शब्द का भी दो अर्थों में प्रयोग किया गया है। पहला अर्थ है-अचरम शरीरी संवृत अनगार और दूसरा-चरम शरीरी संवृत अनगार । प्रस्तुत संवृत अनगार का सूत्र चरम शरीरी संवृत अनगार की अपेक्षा से प्रतिपादित है। अचरमशरीरी संवृत अनगार परम्पर रूप में सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त हो सकता है। इस अपेक्षा से उसके लिए भी प्रस्तुत सूत्र घटित हो सकता है। वृत्तिकार ने प्रश्न उपस्थित किया है कि परम्पर रूप में असंवृत का भी सिद्ध,
प्रशांत, मुक्त होना अवश्यंभावी है, फिर दोनों में अन्तर क्या है। उन्होंने समाधान की भाषा में कहा---संवृत परम्पर रूप में अधिकतम सात-आठ भव में मुक्त हो जाता है। असंवृत परम्पर रूप में अधिकतम अपार्ध पुद्गल तक संसार में परिभ्रमण कर सकता है; इसलिए संवृत
और असंवृत की श्रृंखला में अधिक अन्तर है, उन्हें एक कोटि में नहीं गिना जा सकता। कर्म-परिवर्तन का सिद्धांत
जैन दर्शन में कर्म का परिवर्तन मान्य है। कुछ दार्शनिक कर्म के परिवर्तन को मान्य नहीं करते थे। उनके द्वारा कर्म को ईश्वर का स्थान प्राप्त हो चुका था। भगवान् महावीर ने जीव के पारिणामिक भाव को कम से मुक्त बतलाया। उससे जीव को निरन्तर कर्म-मुक्त होने की शक्ति प्राप्त होती रहती है और जीव का पुरुषार्थ कर्म के परिवर्तन में भी सक्षम बना रहता है।
प्रस्तुत आलापक में कर्म-परिवर्तन की जिन चार अवस्थाओं का उल्लेख किया गया है, वे कर्म-बन्ध की इन चार अवस्थाओं से संबन्धित हैं---१. प्रकृति-बंध, २. स्थिति-बन्ध, ३. अनुभाग-बन्ध, ४. प्रदेश बन्ध। अशुभ और शुभ दोनों प्रकार की भावधारा के साथ कर्म की अवस्था में परिवर्तन होता रहता है।
परिवर्तन के ये रूप बनते हैं-१. शिथिल बन्धन गाढ बन्धन में बदल जाता है। २. गाढ बन्धन शिथिल बन्धन में बदल जाता
यह प्रकृति-बन्ध का परिवर्तन है। अशुभ परिणामधारा के कारण अशुभ प्रकृति का शिथिल बन्धन तीद्र बन्धन में बदल जाता है और शुभ परिणामधारा के कारण अशुभ प्रकृति का तात्र बन्धन शिथिल बन्धन बन जाता है।
स्वादपक्षया
बायोपवयः। नन पारणासयत-
बा.
१. दसवे.२०१७ ----
मणवयकायसुसंवुड़े जे स भिक्खु । २ भ.जो ११६।३४ --
असंवुडो चरण-भ्रष्ट, सूत्रे फल विराक लगा
सौ काल उत्कृट, टेसूण आई-मुगल कहा। ३. भ.२५/३०६.३५०१ ४. वहीं, 901991 १. भ.व.१४६---संवृतः अनगार: प्रमताप्रमत्तस्यतादि..सच चरमशरीरः स्याद-
चरमशरीरो चातर यश्वरमशरोरस्तदपेक्षयेद सूत्र, यस्वचरमशरीर
७. सग
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