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________________ भगवई ३६ श.१: उ.१: सू.४४-४७ असंवुड-संवुड-अणगार-पदं असंवृत-संवृत-अनगार-पदम् । असंवृत-संवृत-अनगार-पद ४४. असंवडे णं भंते ! अणगारे सिज्झइ, असंवृतः भदन्त ! अनगारः सिद्ध्यति, ४४.'भन्ते ! क्या असंवृत अनगार सिद्ध, प्रशान्त, बुज्झइ, मुच्चइ, परिनिब्वाइ, सबदुक्खाणं 'बुज्झइ', मुञ्चति, परिनिर्वाति, सर्वदुःखा- मुक्त और परिनिर्वृत होता है, सब दुःखों का अन्त अंतं करेइ ? नामन्तं करोति ? करता है ? गोयमा ! णो इणढे समढे॥ गौतम ! नो अयमर्थः समर्थः ? गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। ४५. से केणडेणं भंते ! एवं बुच्चइ-असंवुडे तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-असंवृतः ४५. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है णं अणगारे नो सिज्झइ, नो बुज्झइ, नो अनगारः नो सिद्ध्यति, नो 'बुज्झइ', नो असंवृत अनगार सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त और मुचइ, नो परिनिब्बाइ, नो सब्वदुक्खाणं परिनिर्वाति, नो सर्वदुःखानामन्तं करोति ? परिनिर्वृत नहीं होता, सब दुःखों का अन्त नहीं अंतं करेइ ? करता? गोयमा ! असंखुडे अणगारे आउयवजाओ गौतम ! असंवृतः अनगारः आयुर्वर्जाः सप्त गौतम ! असंवृत अनगार आयुष्य कर्म को छोड़कर सत्त कम्मपगडीओ सिढिलबंधणबद्धाओ कर्मप्रकतीः शिथिलबन्धनबद्धाः 'धणिय'- शेष सात कर्मों की शिथिल बन्धनबद्ध प्रकृतियों धणियबंधणबद्धाओ पकरेइ, हस्सकालठिइ- बंधनबद्धाः प्रकरोति, ह्रस्वकालस्थितिकाः को गाढ बन्धनबद्ध करता है, अल्पकालिक याओ दीहकालठिइयाओ पकरेइ, मंदाणु- दीर्घकालस्थितिकाः प्रकरोति, मन्दानुभावाः स्थितिवाली प्रकृतियों को दीर्घकालिक स्थितिवाली भावाओ तिव्वाणुभावाओ पकरेइ, अप्प तीव्रानुभावाः प्रकरोति, अल्पप्रदेशाग्राः बहु- करता है, मन्द अनुभाव वाली प्रकृतियों को तीव्र पएसग्गाओ बहुप्पएसग्गाओ पकरेइ प्रदेशाग्नाः प्रकरोति, आयुश्च कर्म स्यात् अनुभाव वाली करता है, अल्पप्रदेश-परिमाण आउयं च णं कम्मं सिय बंधइ, सिय नो बनाति, स्यान् नो बध्नाति, असातवेदनीयं वाली प्रकृतियों को बहुप्रदेश-परिमाण वाली करता बंधइ, अस्सायावेयणिज्जं च णं कम्म भुजा- च कर्म भयो-भयः उपचिनोति, अनादिकं च है; आयुष्य कर्म का बन्ध कदाचित् करता है और भुजो उवचिणाइ, अणाइयं च णं अणवदम्गं 'अणवदग्गं' दीर्घाध्वानं चतुरन्तं संसार- कदाचित् नहीं करता, वह असातवेदनीय कर्म का दीहमद्धं चाउरतं संसारकतारं अणु कान्तारम् अनुपर्यटति । तत् तेनार्थेन गौतम! बहुत-बहुत उपचय करता है और आदि-अन्तपरियट्टइ। से तेणटेणं गोयमा ! असवुड असंवतः अनगारः नो सिध्यति, नो हीन दीर्घपथवाले चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार अणगारे नो सिज्झइ, नो बुज्झइ, नो मुचइ, 'बुज्झइ', नो मुञ्चति, नो परिनिर्वाति, नो में पर्यटन करता है। गौतम ! इस अपेक्षा से नो परिनिव्बाइ, नो सम्बदुक्खाणं अंतं सर्वदुःखानामन्तं करोति। असंवृत अनगार सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त और करेइ॥ परिनिर्वृत नहीं होता, सब दुःखों का अन्त नहीं करता। ४६. संवुडे णं भंते ! अणगारे सिज्झइ, बुज्झइ, संवृतः भदन्त ! अनगारः सिद्ध्यति, 'बुज्झ- ४६. भन्ते ! क्या संवृत अनगार सिद्ध, प्रशान्त, मुचइ, परिनिवाइ, सम्बदुक्खाणं अंतं इ', मुञ्चति, परिनिर्वाति, सर्वदुःखानामन्तं मुक्त और परिनिवृत होता है, सब दुःखों का अन्त करेइ? करोति? हंता! सिज्झइ, बुज्झइ, मुचइ, परिनिवाइ, हन्त ! सिद्ध्यति, 'बुज्झइ', मुञ्चति, परि- हां ! वह सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त और परिनिर्वृत सवदुक्खाणं अंतं करेइ ॥ निर्वाति, सर्वदुःखानामन्तं करोति। | होता है, सब दुःखों का अन्त करता है। करता है? ४७. से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचइ-संवुडे णं तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-संवृतः ४७. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-- अणगारे सिज्झइ, बुज्झइ, मुच्चइ, परि- अनगारः सिद्ध्यति, 'बुन्झइ', मुञ्चति, परि- संवृत अनगार सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त और परिनिर्वृत निव्वाइ, सव्वदुक्खाणं अंतं करेइ ? निर्वाति, सर्वदुःखानामन्तं करोति ? होता है, सब दुःखों का अन्त करता है ? गोयमा ! संबडे अणगारे आउयवजाओ सत्त गौतम ! संवृतः अनगारः आयुर्वर्जाः सप्त कर्म- गौतम ! संवृत अनगार आयुष्य कर्म को छोड़कर कम्मपगडीओ धणियबंधणबद्धाओ सिढिल- प्रकृतीः 'धणिय'बन्धनबद्धाः शिथिलबन्धन- शेष सात कर्मों की गाढ बन्धनबद्ध प्रकृतियों को बंधणबद्धाओ पकरेइ, दीहकालविइयाओ __ बद्धाः प्रकरोति, दीर्घकालस्थितिकाः ह्रस्व- शिथिल बन्धनबद्ध करता है, दीर्घकालिक स्थिति हस्सकालविइयाओ पकरेइ, तिवाणु- कालस्थितिकाः प्रकरोति, तीव्रानुभावाः मन्दा- वाली प्रकृतियों को अल्पकालिक स्थिति वाली भावाओ मंदाणुभावाओ पकरेइ, बहुप्पएस- नुभावाः प्रकरोति, बहुप्रदेशाग्राः अल्प- करता है, तीव्र अनुभाव वाली प्रकृतियों को मन्द ग्गाओ अप्पपएसग्गाओ पकरेइ आउयं च प्रदेशाग्राः प्रकरोति; आयुश्च कर्म न बध्नाति, अनुभाव वाली करता है, बहुप्रदेश-परिमाण वाली णं कम्मं न बंधइ, अस्सायावेयणिजं च णं असातवेदनीयं च कर्म न भूयो-भूयः उप- प्रकृतियों को अल्पप्रदेश-परिमाण वाली करता है; कम्मं नो भुजो-भुजो उवचिणाइ, अणादीयं चिनोति, अनादिकं च 'अणवदग्गं' दीर्घाध्वानं वह आयुष्य कर्म का बन्ध नहीं करता, असातच णं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरन्तं संसार- चतुरन्तं संसारकान्तारं व्यतिव्रजति । तत् ते- वेदनीय कर्म का बहुत-बहुत उपचय नहीं करता कंतारं वीईवयइ । से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं नार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-संवृतः अनगारः और आदि-अन्तहीन दीर्घपथवाले चतुर्गत्यात्मक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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