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श. १: उ.१: सू. ३६-४३
और कथञ्चित् अशरीर । "
"भन्ते ! यह कैसे ?"
भगवान् ने कहा - " स्थूल (औदारिक, वैक्रिय और आहारक) शरीर की अपेक्षा से वह अशरीर होती है और सूक्ष्म (तैजस) और सूक्ष्मतर ( कार्मण) शरीर की अपेक्षा से वह सशरीर होती है।' इससे फलित होता है— आत्मा मृत्यु के पश्चात् और नया जन्म लेने से पूर्व स्थूल शरीर से मुक्त रहती है। फिर प्रश्न होता है—स्थूल शरीर नहीं है, तो ज्ञान कहां रहेगा ? इस जिज्ञासा से प्रेरित होकर फिर पूछा - "भन्ते ! आमा इन्द्रिय- सहित अवस्था में जन्म लेती है या अनिन्द्रिय अवस्था में ?"
३८
" गौतम ! कथञ्चित् वह सइंद्रिय होती है और कथञ्चित् अनिन्द्रिय।”
"भन्ते ! यह कैसे ?"
भगवान् ने कहा - "गौतम ! इन्द्रिय-संस्थानों (द्रव्येन्द्रिय) की अपेक्षा से वह अनिन्द्रिय होती है और ज्ञानात्मक इंद्रिय (भावेन्द्रिय) की अपेक्षा से सइंद्रिय । "
इससे फलित होता है कि एक जन्म से दूसरे जन्म के मध्य में ज्ञान सत्तारूप में रहता है, अभिव्यक्त नहीं होता। वह शरीर रचना के पश्चात्, नाड़ी तंत्र की रचना के बाद अभिव्यक्त होता है। उदाहरण के लिए, जाति-स्मृति (पूर्व जन्म की स्मृति) को लिया जा सकता है । इद्रिय और मन से होने वाले ज्ञान का आधारभूत कोश कर्म-शरीर है । स्थूल शरीर के नाड़ी तंत्र या मस्तिष्क में उनके संवादी कोशों की रचना होती है। जिस आत्मा में दो इंद्रियों के विकास की सत्ता है, उसके दो इंद्रियों की रचना होगी। इसी प्रकार तीन, चार और पांच इन्द्रियों की रचना भी सूक्ष्म शरीर के कोशों के आधार पर ही होगी। नाड़ी तंत्र या मस्तिष्क में ज्ञान कोशों की रचना की तरतमता का आधार भी कर्म-शरीरगत कोश ही बनते हैं। इसे सूत्ररूप में इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है-जिस आत्मा ज्ञानावरण कर्म का जितना क्षयोपशम होता है, उसके उतने ही कोश कर्म-शरीर में निर्मित हो जाते हैं और उसके संवादी कोश नाड़ी तंत्र या मस्तिष्क में निर्मित होते हैं।
इस सारे दार्शनिक चिन्तन को ध्यान में रखते हुए भगवान् ने
१. भ. १ ३४२, ३४३ ।
२. वही, १ । ३४०, ३४१ ।
३. भ. वृ. १ । ३६ वर्त्तमानजन्मनि यद्वर्त्तते न तु भवान्तरे तदैहभविकम् । काकुपाठाच्चेह प्रश्नताऽवसेया, तेन किमैहभविकं ज्ञानमुत 'परभविए 'त्ति परभवे - वर्तमानानन्तरभाविन्यनुगामितयां यद्वर्त्तते तत्पारभविकम् । आहोस्वित् 'तदुभयभविए'त्ति तदुभयरूपयोः इहपरलक्षणयोर्भवयोर्यदनुगामितया वर्त्तते तत्तदुभयभविकम्, इदं चैवं न पारभविकाद् भिद्यत इति परतरभवेऽपि यदनुयाति तद् ग्राह्यम् । इहभवव्यतिरिक्तत्वेन परतरभवस्यापि परभवत्वात् । ह्रस्वतानिर्देशश्चेह सर्वत्र प्राकृतत्वादिति प्रश्नः निर्वचनमपि सुगमं । नवरम् 'इहभविए 'त्ति ऐहभविकं यदिहाधीतं नान्तरभवेऽनुयाति, पारभविकं
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भगवई
कहा - " ज्ञान पारभविक भी होता है। "
जैसे हमारे मस्तिष्क में वर्तमान जन्म के स्मृति-कोश होते हैं, वैसे ही पूर्वजन्म के स्मृति-कोश होते हैं या नहीं, यह एक जटिल प्रश्न है। आज के शरीर - शास्त्री और मनोवैज्ञानिक उन कोशों को खोज नहीं पाए हैं, किंतु कर्मशास्त्रीय दृष्टि से जिसमें पूर्वजन्म की स्मृति की संभावना है, उसमें उन कोशों की विद्यमानता की सम्भावना भी की जा सकती है। मस्तिष्क का बहुत बड़ा भाग मौन क्षेत्र (silent area ) या अन्धकार क्षेत्र (dark area) है। हो सकता है, उस क्षेत्र में वे स्मृतिकोश उपलब्ध हो जाएं।
वृत्तिकार के अनुसार ऐहभविक का अर्थ है— केवल वर्तमानभववर्ती । वह भवान्तर में साथ नहीं जाता। पारभविक का अर्थ है— दूसरे जन्म में साथ जाने वाला । तदुभयभविक का शाब्दिक अर्थ होता हैं— जो वर्तमान जन्म में होता है और भावी जन्म में भी साथ जाता है। यह अर्थ पारभविक से भिन्न नहीं होता; इसलिए तदुभयभविक का अर्थ 'जन्म-जन्मान्तर तक साथ जाने वाला' होना चाहिए।
वृत्तिकार ने तदुभयभविक के अन्तर्गत पारभविक का 'परतर भव' अर्थ कर इस विकल्प की सार्थकता बतलाई है, किंतु परतर भव का ग्रहण पारभविक में ही हो सकता है; इसलिए इस तीसरे भंग को केवल भंगरचना का प्रकार ही माना जा सकता है। इसमें कोई नई बात प्रतिपादित की गई है, ऐसा नहीं लगता।
ज्ञान और दर्शन दोनों का अनुगमन होता है; इसलिए इसके तीनों विकल्प सम्मत हैं। यहां दर्शन का अर्थ सम्यक्त्व है। चारित्र, तप और संयम का अनुगमन नहीं होता; इसलिए इनका केवल ऐहभविक विकल्प ही सम्मत है, शेष दो विकल्पों का निषेध किया गया है । वृत्तिकार के अनुसार चारित्र अनुष्ठान रूप होता है और अनुष्ठान शरीर में ही सम्भव है । '
चारित्र, तप और संयम — तीनों आचरण-पक्ष के तत्त्व हैं। सामायिक आदि की आराधना को चारित्र और संयम दोनों कहा गया है। समवाओ में संयम के सतरह प्रकार बतलाए गए हैं । — चारित्र का ही एक प्रकार है।
तप
यदनन्तरभवेऽनुयाति, तदुभयभविकं तु यदिहाधीतं परभवे परतरभवे चानुवर्त्तत इति ।
४. वही, १/४० – दर्शनमिह सम्यक्त्वमवसेयं, मोक्षमार्गाधिकारात् । ५. वही, १ | ४१ – अनुष्ठानरूपत्वात् चारित्रस्य शरीराभावे च तदयोगात् । ६. उत्तर. २८ । ३२,३३ /
७. ठाणं ५ ।१३६ - पंचविधे संजमे पण्णत्ते, तं जहा सामाइयसंजमे, छेदोबावणियसंजमे, परिहारविसुद्धिसंजमे, सुहुमसंपरागसंजमे, अहक्खायचरितसंजमे ।
८. सम. १७।२।
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