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भगवई
श.१: उ.१: सू.३६-४३
४०. इहमविए भंते ! दंसणे ? परमविए दसणे? तदुभयमविए दंसणे?
इहभविकं भदन्त ! दर्शनम् ? परभविकं दर्शनम् ? तदुभयभविकं दर्शनम् ?
४०. भन्ते ! क्या दर्शन (सम्यक्त्व) इस जन्म तक
ही सीमित रहता है ? क्या दर्शन अगले जन्म में साथ जाता है ? क्या दर्शन वर्तमान जन्म और भावी जन्म दोनों में विद्यमान रहता है ? गौतम ! दर्शन इस जन्म तक भी सीमित रहता है, अगले जन्म में भी साथ जाता है, वर्तमान जन्म और भावी जन्म दोनों में भी विद्यमान रहता
गोयमा ! इहमविए वि दंसणे, परमविए वि दंसणे, तदुभयभविए वि दंसणे॥
गौतम ! इहभविकमपि दर्शनम्, परभविकमपि दर्शनम्, तदुभयभविकमपि दर्शनम्।
४१. इहमविए भंते ! चरित्ते ? परमविए
चरिते ? तदुभयमविए चरित्ते ?
इहभविकं भदन्त ! चरित्रम् ? परभविकं चरित्रम् ? तदुभयभविकं चरित्रम् ?
गोयमा ! इहमविए चरित्ते, नो परभविए चरित्ते, नो तदुभयभविए चरित्ते॥
गौतम ! इहभविकं चरित्रम, नो परभविकं चरित्रम्, नो तदुभयभविकं चरित्रम् ।
४१. भन्ते ! क्या चारित्र इस जन्म तक ही सीमित रहता है ? क्या चारित्र अगले जन्म में साथ जाता है ? क्या चारित्र वर्तमान और भावी जन्म दोनों में विद्यमान रहता है? गौतम ! चारित्र इस जन्म तक ही सीमित रहता है, वह अगले जन्म में साथ नहीं जाता, वर्तमान जन्म और भावी जन्म दोनों में विद्यमान नहीं रहता।
४२. इहभविए भंते ! तवे ? परभविए तवे?
तदुभयभविए तवे?
इहभविकं भदन्त ! तपः ? परभविकं तपः? तदुभयभविकं तपः ?
४२. भन्ते ! क्या तपस्या इस जन्म तक ही सीमित रहती है ? क्या तपस्या अगले जन्म में साथ जाती है ? क्या तपस्या वर्तमान जन्म और भावी जन्म दोनों में विद्यमान रहती है ? गौतम ! तपस्या इस जन्म तक ही सीमित रहती है, अगले जन्म में साथ नहीं जाती, वर्तमान जन्म और भावी जन्म दोनों में विद्यमान नहीं रहती।
गोयमा ! इहमविए तवे, नो परभविए तवे, नो तदुभयभविए तवे॥
गौतम ! इहभविकं तपः, नो परभविकं तपः, नो तदुभयभविकं तपः।
४३. इहभविए भंते ! संजमे ? परभविए
संजमे ? तदुभयभविए संजमे?
इहभविकः भदन्त ! संयमः ? परभविकः ४३. भन्ते ! क्या संयम इस जन्म तक ही सीमित संयमः ? तदुभयभविकः संयमः ? रहता है ? क्या संयम अगले जन्म में साथ जाता
है ? क्या संयम वर्तमान जन्म और भावी जन्म
दोनों में विद्यमान रहता है ? गौतम ! इहभविकः संयमः, नो परभविकः गौतम ! संयम इस जन्म तक ही सीमित रहता संयमः, नो तदुभयभविकः संयमः । है, अगले जन्म में साथ नहीं जाता, वर्तमान जन्म
और भावी जन्म दोनों में विद्यमान नहीं रहता।
गोयमा ! इहमविए संजमे, नो परमविए संजमे, नो तदुभयभविए संजमे॥
भाष्य
१. सूत्र ३६-४३
जैन दर्शन ने पुनर्जन्म को केवल स्वीकार ही नहीं किया है, उसकी अनेक समस्याओं को सुलज्ञाने का प्रयल किया है। प्रस्तुत
आगम में पुनर्जन्म की अनेक समस्याओं पर विचार किया गया है। मृत्यु के पश्चात् आत्मा दूसरे जन्म में जाती है, तो वह अकेली ही जाती है या उसके साथ कुछ दूसरे तत्त्व भी जाते हैं ? उसका यात्रा-पथ कितना होता है ? वह कैसे जाती है ? उसका नया जन्म कैसे होता है ?-इन प्रश्नों और इनसे सम्बद्ध अनेक प्रश्नों का समाधान मांगा गया है और भगवान् ने वह दिया है।
प्रस्तुत आलापक में पांच प्रश्न पूछे गए हैं—क्या आत्मा
पुनर्जन्म की यात्रा में ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और संयम को साथ लेकर जाती है या उन्हें यहीं छोड़कर जाती है ? भगवान् ने इन प्रश्नों के उत्तर में बताया-ज्ञान और दर्शन--ये दोनों आत्मा के साथ जाते हैं। चारित्र, तप और संयम-ये तीनों ऐहभविक ही होते हैं, वे आत्मा के साथ नहीं जाते।
इसी प्रकार शरीर के बारे में पूछा गया कि नया जन्म लेते समय आत्मा सशरीर होती है या अशरीर ?
भगवान ने कहा-"गौतम ! वह कथञ्चित् सशरीर होती है
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