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श.१: उ.१ः सू.३५-३६
भगवई
प्रस्तुत आगम के पच्चीसवें शतक में बतलाया गया है कि के अनुसार मनुष्य के तीन भेद होते हैं-असंयत, संयतासंयत और 'कषायकुशीलनिग्रंथ' के छहों लेश्याएं होती हैं। इसकी वृत्ति में संयत। संयत के दो भेद-सराग संयत और वीतराग संयत तथा अभयदेवसूरि ने लिखा है कि कषायकुशीलनिग्रंथ सकषाय होने के सराग संयत के प्रमत्त संयत और अप्रमत्त संयत ये दो भेद होते हैं। कारण छहों लेश्याओं में प्राप्त होता है। पण्णवणा में बतलाया गया फिर भी कृष्ण और नील लेश्या में यह पाठ अनुसरणीय नहीं है। है कि कृष्ण लेश्या वाला जीव मनःपर्यवज्ञान को उपलब्ध हो सकता। इसका हेतु यह है कि इन लेश्याओं का उदय होने पर संयम उपलब्ध है। केवल संयत जीव ही मनःपर्यवज्ञानी होता है; इससे संयत में नहीं होता। सराग और वीतराग के प्रकरण में वृत्तिकार ने लिखा कृष्ण लेश्या का अस्तित्व सिद्ध होता है। पण्णवणा के वृत्तिकार है-तेजस् और पद्म लेश्या में वीतरागता उपलब्ध नहीं होती; इसलिए मलयगिरि के अनुसार प्रमत्त संयत में कृष्ण लेश्या के मन्द अनुभाव __ इनमें सराग और वीतराग का विशेषण विवक्षित नहीं है। वाले अध्यवसाय-स्थान होते हैं। इन प्रमाणों के आधार पर जयाचार्य
वृत्तिकार ने सराग और वीतराग के विशेषण के लिए जिस का विमर्श संगत प्रतीत होता है।
युक्ति का प्रयोग किया है, वही युक्ति प्रमत्त और अप्रमत्त के विशेषण सलेश्य के क्रियासूत्र में बतलाया गया है—कृष्ण लेश्या और में घटित होती है। अप्रशस्त लेश्या-त्रिक में अप्रमत्तता प्राप्त नहीं होती; नील लेश्या वाले मनुष्यों में सराग और वीतराग तथा प्रमत्त और । इसलिए कृष्ण आदि तीन लेश्या-संयुक्त संयति में प्रमत्त और अप्रमत्त अप्रमत्त इनका वक्तव्य आवश्यक नहीं है।' वृत्तिकार ने फिर उसी की विवक्षा नहीं की जा सकती। जयाचार्य ने क्रिया-सूत्र के प्रकरण सिद्धांत की पुनरावृत्ति की है। उन्होंने लिखा है कि औधिक दण्डक में फिर अपने पूर्ववर्ती विमर्श का समर्थन किया है।
नाणादीणं भवंतर-संकमण-पदं
ज्ञानादीनां भवान्तर-संक्रमण-पदम्
ज्ञान आदि का भवान्तर-संक्रमण-पद
३६. इहमविए भंते ! नाणे ? परभविए
नाणे? तदुभयभविए नाणे?
इहभविकं भदन्त ! ज्ञानम् ? परभविकं ज्ञानम्? तदुभयभविकं ज्ञानम् ?
३६. 'भन्ते ! क्या (कोई) ज्ञान इस जन्म तक ही सीमित रहता है ? क्या ज्ञान अगले जन्म में साथ जाता है ? क्या ज्ञान वर्तमान जन्म और भावी जन्म दोनों में विद्यमान रहता है ? गौतम ! (कोई) ज्ञान इस जन्म तक भी सीमित रहता है, अगले जन्म में भी साथ जाता है, वर्तमान जन्म और भावी जन्म दोनों में भी विद्यमान रहता
गोयमा ! इहभविए वि नाणे, परभविए वि नाणे, तदुभयभविए वि नाणे॥
गौतम ! इहभविकमपि ज्ञानम्, परभविकमपि ज्ञानम्, तदुभयभविकमपि ज्ञानम् ।।
तिम कृष्णादिक त्रिहुं ना भेद दोय, संजती नै असंजती होय । संजती ना वे भेद न थुणवा, प्रमत्त अप्रमत्त भेद न भणवा ।। प्रमादी में कृष्णादिक पावै, अप्रमादी में ए त्रिहुं नावै । तिण सूं संजती ना बे भेद, नहि भणवा इम कह्यं वेद ।। धुर भेद संजत वयॊ नाहि, तिण सूं कृष्णादि साधु रै मांहि ।
संजत शुभ जोग थी अणारंभ, अशुभ जोग आश्रयी आरंभ । विस्तृत विमर्श के लिए इसी ढाल की ३३-१४६ तक गाथाएं मननीय हैं। १. भ.२५ १३७५,३७६-कसायकुसीले-पुच्छा। गोयमा ! सलेस्से होजा, नो अलेस्से होजा । जइ सलेस्से होजा, से णं भंते ! कतिसु लेस्सासु होजा? गोयमा ! छसु लेस्सासु होजा, तं जहा—कण्हलेस्साए जाव सुक्कलेस्साए। २. भ.बृ. ११३६–कसायकुशीलस्तु षट्ष्वपि सकषायमेव आश्रित्य । ३. पण्ण.१७।११२ कण्हलेस्से णं भंते! जीवे कतिसु णाणेसु होजा? गोयमा ! दोसु वा तिसु वा चउसु वा णाणेसु होजा--दोसु होमाणे आभिणिबोहिय-सुयणाणेसु होज्जा, तिसु होमाणे आभिणिवोहिय-सुयणाण-ओहिणाणेसु होजा, अहवा तिसु होमाणे आभिणिबोहिय-सुयणाण-मणपज्जवणाणेसु होजा, चउसु होमाणे आभिणिबोहियणाण-सुयणाण-ओहिणाण-मणपज्जवणाणेसु
होजा। एवं जाव पम्हलेस्से। ४. प्रज्ञा.वृ.प.३५७-इह लेश्यानां प्रत्येकमसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि
अध्यवसायस्थानानि, तत्र कानिचिन्मंदानुभावान्यध्यवसायस्थानानि, प्रमत्तसंयतस्यापि लभ्यन्ते, अत एव कृष्ण-नील-कापोतलेश्याः प्रमत्तसंयतस्यापि
गीयन्ते। ५. भ.१।१०१। ६. भ.१.१।१०१-मनुष्यपदे क्रियासूत्रे यद्ययौधिक-दण्डके 'तिविहा मणुस्सा पन्नता, तं जहा संजया, असंजया, संजयासंजया। तत्थ णं जेते संजया ते दुविहा पनत्ता, तंजहा-सरागसंजया य वीयरागसंजया य। तत्थ णं जेते सरागसंजया ते दुविहा पत्रता, तं जहा—पमत्तसंजया य अप्पमत्तसंजया यत्ति पठितं, तथाऽपि कृष्णनीललेश्यादण्डकयो ध्येतव्यं, कृष्णनीललेश्योदये संयमस्य निषिद्धत्वात् । ७. वही,१।१०१–केवलमौधिकदण्डके क्रियासूत्रे मनुष्याः सरागवीतरागविशेषणा अधीताः, इह तु तथा न वाच्याः, तेजःपद्मलेश्ययोर्वीतरागत्वासम्भवातू,
शुक्ललेश्यायामेव तत्सम्भवात् । प्रमत्ताप्रमत्तास्तूच्यन्त इति । ८. भ.जो.१।७,१७१-१८० ।
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