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________________ भगवई श.१: उ.१: सू.३५-३८ वक्तव्य हैं। केवल इतना अन्तर है लेश्यासूत्र में सिद्ध का सूत्र वक्तव्य नहीं है। भाष्य १,२. यावत्, सामान्य जीव ___यावत्' और 'औधिक' ये दोनों शब्द रचना शैली से सम्बद्ध हैं। जहां जीव-सामान्य का वर्णन होता है, उसका कोई भेद विवक्षित नहीं होता, उसकी सूचना 'औधिक' पद के द्वारा दी गई है। उदाहरणस्वरूप, ३३ वें और ३४ वें सूत्र का वर्णन औधिक है। ३५ ३, ३६ वें सूत्र में नैरयिक का वर्णन है। ३७ वें सूत्र में 'यावत्' पद के द्वारा पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च तक की वर्गणाओं की सूचना दी गई है। प्रस्तुत आगम की रचना-शैली में चौबीस वर्गणाओं का इसी वर्गणा-पद्धति से निरूपण किया गया है। इसीलिए अनेक विषयों का प्रतिपादन नैरयिक से ही प्रारम्भ होता है। इन चौबीस वर्गणाओं का क्रमबद्ध नामोल्लेख ठाणं में मिलता है।' उन्हें दण्डक भी कहा गया है। इस आधार पर दण्डक और वर्गणा एकार्थक बन जाते हैं। संसार के सभी जीव चौवीस वर्गणाओं में वर्गीकृत होते हैं १. नारकीय जीवों की वर्गणा २. असुरकुमार देवों की वर्गणा ३. नागकुमार देवों की वर्गणा ४. सुपर्णकुमार देवों की वर्गणा ५. विद्युत्कुमार देवों की वर्गणा ६. अग्निकुमार देवों की वर्गणा ७. द्वीपकुमार देवों की वर्गणा ८. उदधिकुमार देवों की वर्गणा ६. दिशाकुमार देवों की वर्गणा १०. वायुकुमार देवों की वर्गणा ११. स्तनितकुमार देवों की वर्गणा १२. पृथ्वीकायिक जीवों की वर्गणा १३. अप्कायिक जीवों की वर्गणा १४. तेजस्कायिक जीवों की वर्गणा १५. वायुकायिक जीवों की वर्गणा १६. वनस्पतिकायिक जीवों की वर्गणा १७. द्वीन्द्रिय जीवों की वर्गणा १८. त्रीन्द्रिय जीवों की वर्गणा १६. चतुरिन्द्रिय जीवों की वर्गणा २०. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिक जीवों की वर्गणा २१. मनुष्यों की वर्गणा २२. वानमंतर देवों की वर्गणा २३. ज्योतिष्क देवों की वर्गणा २४. वैमानिक देवों की वर्गणा प्रस्तुत आगम में 'दण्डक' शब्द का प्रयोग अनेक स्थानों में मिलता है, जैसे--- ११५६-"आउएण वि दो दंडगा-एगत्तपोहत्तिया।" १।१२५ ---"एएणं अभिलावेणं दंडओ भाणियबो जाव वेमाणियाणं।" १११२६-"एवं करेंति । एत्य वि दंडओ जाव वेमाणियाणं।" उक्त सूत्रों में दण्डक का प्रयोग समान वाक्य-पद्धति के अर्थ में हुआ है। चौबीस दण्डक का प्रयोग प्रस्तुत आगम में भी मिलता है। ११२७६-२८० तक प्राणातिपात क्रिया का औधिक वर्णन है। २८१२८६ तक उसका चौबीस दण्डक के रूप में वर्णन है-- "चउवीसं दंडगा भाणियब्बा।" ३. प्रमत्त-अप्रमत्त का विभाग वक्तव्य नहीं है लेश्या का अर्थ है-जीव का परिणाम और परिणामधारा में सहयोगी पुद्गल-द्रव्य। उसके छह प्रकार हैं-कृष्ण, नील, कापोत, तेजः, पद्म और शुक्ल । इनमें प्रथम तीन अप्रशस्त हैं और अन्तिम तीन प्रशस्त। प्रथम लेश्या-त्रिक में संयति के प्रमत्त और अप्रमत्त ये दो भेद वक्तव्य नहीं हैं। यह पाठ विमर्शनीय है। वृत्तिकार ने इसका विमर्श किया है। उनके अनुसार अप्रशस्त लेश्या-त्रिक में संयतत्व नहीं होता, इसलिए यहां प्रमत्त और अप्रमत्त विशेषण की वर्जना की गई है।' जयाचार्य ने वृत्तिकार के विमर्श की समीक्षा की है। उनके अनुसार अप्रशस्त लेश्या वाले जीव असंयति और संयति दोनों होते हैं। किन्तु इनमें संयति को प्रमत्त और अप्रमत्त इन दो भागों में विभक्त करने का कोई प्रयोजन नहीं है। इसका हेतु यह है कि अप्रमत्त संयति में अप्रशस्त लेश्या नहीं होती। १. ठाणं,१११४१-१६४। २. वही, १११६०-चउवीसदंडओ;१।२१३ चउवीसदंडया । ३. वहीं, ३।५१७,५१८॥ ४. भ.वृ.१३. कृष्णादिषु हि अप्रशस्तभावलेश्यासु संयतत्वं नास्ति, यचोच्यते -..-'पुब्बपडिवण्णओ पुण अवयरीए उ लेसाए'त्ति, तद्रव्यलेश्यां प्रतीत्येति मन्तव्यं ततस्तासु प्रमत्ताधभावः। ५. भ.जो.१।५।२८-३२ कृष्ण नील कापोत ने जाणो, आधिक ससारी जेम पिछाणो। णवर प्रमत्त अप्रमत्त वे भेद, नहि करिवा न मणवा वेद ।। संसारी ना किया 'भेद दोय, संजती ने असंजती जाय। संजती ना दोय मेद काधा, प्रमादा ने अंप्रमादा साधा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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