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________________ श.१: उ.१: सू.३३-३८ ३४ भगवई संयत मनुष्य का भी अविरति के कारण असंयत में समावेश होता। केवल मायाप्रत्यया क्रिया होती है। प्रमत्तसंयति में छहों लेश्याएं होती हैं। अप्रमत्तसंयति में केवल तीन प्रशस्त लेश्याएं ही होती हैं।' प्रमत्त संयत और अप्रमत्त संयत शुभ-योग और अशुभ योग शरीर, वाणी और मन की प्रवृत्ति आश्रव के पांच प्रकार हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय को योग कहा जाता है। मोहनीय कर्म के उदय से निष्पन्न प्रवृत्तियों और योग। जो संयति प्रमाद आश्रव की विद्यमानता में साधना करता से युक्त होकर वह अशुभ बन जाता है और उससे वियुक्त होकर है, वह प्रमत्तसंयति कहलाता है। इस संयति में अप्रमाद समग्रता से वह शुभ बनता है। नहीं होता, इसलिए वह अशुभ प्रवृत्ति भी कर लेता है। अप्रमत्तसंयति अविरति की साधना सर्वात्मना जागरूकतापूर्ण होती है; इसलिए वह अशुभ जीव के आन्तरिक अध्यवसायों में एक अव्यक्त आकांक्षा प्रवृत्ति नहीं करता। प्रमत्तसंयति के दो क्रियाएं होती हैं---आरम्भिकी विद्यमान रहती है, वह अविरति है। सारी आकांक्षाएं उसी की और मायाप्रत्यया। अप्रमत्तसंयति के आरम्भिकी क्रिया नहीं होती, अभिव्यक्ति हैं। ३५. नेरइया णं भंते ! किं आयारंभा ? परारंभा ? तदभयारंभा? अणारंभा ? गोयमा ! नेरइया आयारंभा वि, परारंभा वि, तदुभयारंभा वि, नो अणारंभा॥ नैरयिकाः भदन्त ! किं आत्मारम्भाः ? ३५. भन्ते ! नैरयिक जीव क्या आत्मारम्भक हैं ? परारम्भाः ? तदुभयारम्भाः ? अनारम्भाः ? परारम्भाः ? तदभयारम्भाः ? अनारम्भाः ? परारम्भक हैं ? उभयारम्भक हैं ? अनारम्भक हैं? परारम्भक हैं गौतम ! नैरयिकाः आत्मारम्भाः अपि, गौतम ! नैरयिक जीव आत्मारम्भक भी हैं, परारम्भाः अपि, तदुभयारम्भाः अपि, नो परारम्भक भी हैं, उभयारम्भक भी हैं, अनारम्भक अनारम्भाः । नहीं है। ३६. से केणटेणं? गोयमा ! अविरतिं पडुच्च। से तेणटेणं गोयमा ! एवं बुचइ–नेरइया आयारंभा वि, परारंभा वि, तभयारंभा वि, नो अणारंभा ॥ तत् केनार्थेन ? गौतम ! अविरतिं प्रतीत्य। तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते नैरयिकाः आत्मारम्भाः अपि, परारम्भाः अपि, तदुभयारम्भाः अपि, नो अनारम्भाः । ३६. यह किस अपेक्षा से है ? गौतम ! अविरति की अपेक्षा से। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है—नैरयिक जीव आत्मारम्भक भी हैं, परारम्भक भी हैं, उभयारम्भक भी हैं, अनारम्भक नहीं हैं। ३७. एवं जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिया। एवं यावत् पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः। ३७. इस प्रकार यावत् पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक मणुस्सा जहा जीवा, नवरं-सिद्धविरहिया मनुष्याः यथा जीवाः, नवरं सिद्धविरहिताः नैरयिक की भांति वक्तव्य हैं। मनुष्य जीव की भाणियबा। वाणमंतरा, जोइसिया, भणितव्याः। वानमन्तराः, ज्योतिषिकाः, भांति वक्तव्य हैं। केवल इतना अन्तर है कि वेमाणिया जहा नेरइया॥ वैमानिकाः यथा नैरयिकाः। मनुष्य के प्रकरण में सिद्ध (असंसारसमापन्न) का सूत्र वक्तव्य नहीं है। वानमंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव नैरयिक की भांति वक्तव्य हैं। ३८. सलेस्सा जहा ओहिया। कण्हलेसस्स, सलेश्याः यथा औधिकाः। कृष्णलेश्यस्य, ३८. लेश्यायुक्त जीव सामान्य जीव' की भांति नीललेसस्स, काउलेसस्स जहा ओहिया नीललेश्यस्य, कापोतलेश्यस्य यथा औधिकाः वक्तव्य हैं। कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतजीवा, नवरं--पमत्ताप्पमत्ता न भाणि- जीवाः, नवरं-प्रमत्ताप्रमत्ताः न भणि- लेश्या से युक्त जीव सामान्य जीव की भांति यवा। तेउलेसस्स, पम्हलेसस्स, सुक्क- तव्याः। तेजोलेश्यस्य, पद्मलेश्यस्य, शुक्ल- वक्तव्य हैं। केवल इतना अन्तर है--(कृष्ण लेसस्स जहा ओहिया जीवा, नवरं-सिद्धा लेश्यस्य यथा औधिकाः जीवाः, नवरं- आदि तीन लेश्याएं अप्रमत्त संयति में नहीं होती, न भाणियवा॥ सिद्धाः न भणितव्याः। इसलिए) यहां प्रमत्त और अप्रमत्त का विभाग वक्तव्य नहीं है। * तेजोलेश्या, पद्यलेश्या और शुक्ललेश्या से युक्त जीव सामान्य जीव की भांति प्रमत्त संजती छठो गुणठाणो, अप्रमत्त सातमां थी जाणो । आत्म, पर, उभयारंभा कहाया, तिर्यंच श्रावक सह इहां आया ।। यां में तो श्रावक नहीं आवै, पंचमे गुण श्रावक पावै । तिम मनुष्य श्रावक में लंभ, अव्रत आश्री आलादि आरंभ । अविरत आश्री असंजती मांय, इणरो जाणै समदृष्टि न्याय ।। अव्रतरी क्रिया देश थी ताहि, अव्रत आश्री असंजती मांहि ।। सर्व संसारी ना सुविचार, दोय भेद किया जगतार । २. भ.१७ तीजो भेद इहां कियो नाही, तिणसूं अविरत आश्री असंजती माहि॥ ३. वही,१।१०१। देखें १।३८ के भाष्य का पा.टि.३ । १. भ.जो.91५२४,२५-- ४. त.सू.६।१–कायवाङ्मनःकर्म योगः। इहां जय जश आखै न्याय, बीसमां दण्डक रै माय । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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