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________________ भगवई ३३ श.१: उ.१: सू.३३,३४ प्राणातिपात अविरति आत्मारम्भ दुष्प्रवृत्ति मृषावाद अविरति दुष्प्रवृत्ति अदत्तादान मैथुन अविरति दुष्प्रवृत्ति अविरति दुष्प्रवृत्ति अविरति दुष्प्रवृत्ति दुष्प्रवृत्ति परिग्रह व्रती की अनारम्भ विरति सत्प्रवृत्ति फलितार्थ की भाषा में अव्रती जीव अनारम्भ या अहिंसक नहीं हो सकता। व्रती शुभयोग की अवस्था में अनारम्भ हो सकता है। वह अशुभ योग की अवस्था में अनारम्भ नहीं हो सकता। ३४वें सूत्र में आध्यात्मिक दृष्टि से जीवों का वर्गीकरण किया गया है जीव सिद्ध संसारी सयत असंयत प्रमत्त संयत अप्रमत्त संयत इसी शतक के ६७वें सूत्र में मनुष्यों का वर्गीकरण मिलता है। वह इससे कुछ विकसित है मनुष्य सम्यग्दृष्टि मिथ्यादृष्टि सम्यग्मिथ्यादृष्टि संयत असयत संयतासंयत सराग संयत वीतराग संयत प्रमत्त संयत अप्रमत्त संयत उपर्युक्त सूत्र में सम्यग्दृष्टि मनुष्य के तीन प्रकार बतलाए गए हैं-संयत, असंयत और संयतासंयत।' इस आधार पर जयाचार्य ने प्रश्न उपस्थित किया—यहां जीवों के संयत और असंयत दो भेद बतलाए गए हैं। संयतासंयत का समावेश किसमें किया जाए-संयत में या असंयत में ? इसके समाधान में उन्होंने लिखा—यहां संयत के दो भेद किए गए हैं--प्रमत्त संयत और अप्रमत्त संयत। इनमें संयतासंयत का समावेश नहीं हो सकता। उसके अविरति आश्रव विद्यमान है, इस अपेक्षा से उसका समावेश असंयत में किया जा सकता है।' पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च में संयतासंयत भी होते हैं। उन्हें अविरति की अपेक्षा से 'सारम्भ' बतलाया गया है। इसी प्रकार संयता १. भ.१।६७-तत्थ णं जेते सम्मदिट्टी ते तिविहा पण्णत्ता, तं जहा संजया, अस्संजया, संजयासंजया। २. भ.जो.91५1१५१ संसारी ना किया दोय भेद, संजती असंजती सुवेद । संजतासंजती कियो नाह्यो, हिवै श्रावक किण माहे आयो ? || संजती ना वे भेद सुतस्थ, प्रमत्त संजती नै अप्रमत्त। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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