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श. १: उ.१: सू. ३३, ३४
जीवा नो आयारंभा, नो परारंभा, नो तदुभयारंभा, अणारंभा ? गोयमा ! जीवा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - संसारसमावण्णगा य असंसारसमा - वण्णगा य । तत्य णं जेते असंसारसमावण्णगा, ते णं सिद्धा । सिद्धा णं नो आयारंभा नो परारंभा, नो तदुभयारंभा, अणारंभा । तत्थ णं जेते संसारसमावण्णगा, ते दुबिहा पण्णत्ता, तं जहा -संजया य असंजया य । तत्थ णं जेते संजया ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - पमत्तसंजया य अप्पमत्तसंजया य । तत्य णं जेते अप्पमत्तसंजया, ते णं नो आयारंभा, नो परारंभा, नो तदुभयारंभा, अणारंभा । तत्थ णं जेते पमत्तसंजया, ते सुहं जोगं पडुच नो आयारंभा, नो परारंभा, नो तदुभयारंभा, अणारंभा । असुभं जोगं पडुच्च आयारंभा वि, परारंभा वि, तदुभयारंभा वि, नो अणारंभा । तत्थ णं जेते असंजया, ते अविरतिं पडुच्च आयारंभा वि परारंभा वि, तदुभयारंभा वि, नो अणारंभा । से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ - अत्येगइया जीवा आयारंभा बि, परारंभा वि, तदुभयारंभा वि, नो अणारंभा । अत्येगइया जीवा नो आयारंभा, नो परारंभा, नो तदुभयारंभा, अणारंभा ॥
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रम्भाः ? अस्त्येकके जीवाः नो आत्मारम्भाः, नो परारम्भाः, न तदुभयारम्भाः, अनारम्भाः ? गौतम ! जीवाः द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा —संसारसमापन्नकाश्च असंसारसमापन्नकाश्च । यत्र ये एते असंसारसमापन्नकाः, ते सिद्धाः । सिद्धाः नो आत्मारम्भाः, नो परारम्भाः, नो तदुभयारम्भाः, अनारम्भाः । तत्र ये एते संसारसमापन्नकाः, ते द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा संयताश्च असंयताश्च । तत्र ये एते संयतास्ते द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा— प्रमत्तसंयताश्च अप्रमत्तसंयताश्च । तत्र ये एते अप्रमत्तसंयताः, ते नो आत्मारम्भाः, नो परारम्भाः, नो तदुभयारम्भाः, अनारम्भाः । तत्र ये एते प्रमत्तसंयताः, ते शुभं योगं प्रतीत्य नो आत्मारम्भाः, नो परारम्भाः, नो तदुभयारम्भाः, अनारम्भाः। अशुभं योगं प्रतीत्य आत्मारम्भाः अपि परारम्भाः अपि, तदुभयारम्भाः अपि नो अनारम्भाः । तत्र ये एते असंयताः, ते अविरतिं प्रतीत्य आत्मारम्भाः अपि परारम्भाः अपि तदुभयारम्भाः अपि, नो अनारम्भाः । तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते—अस्त्येकके जीवाः आत्मारम्भः अपि परारम्भाः अपि तदुभयारम्भाः अपि, नो अनारम्भाः । अस्त्येकके जीवाः नो आत्मारम्भाः, नो परारम्भाः, नो तदुभयारम्भाः,
अनारम्भाः ।
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भाष्य
१. सूत्र ३३, ३४
'आरम्भ' शब्द का सामान्य अर्थ है प्रवृत्ति का प्रारम्भ । शब्दकोष में इसके अनेक अर्थ उपलब्ध होते है— जैसे प्रस्तुति, शुरु, कार्य, प्रयत्न, अभिमान, वध, उत्पत्ति, उपक्रम, तीव्रता आदि । धर्मग्रंथों में इसका अर्थ है— हिंसा । वैदिक काल में 'आलम्भ' का प्रयोग पशुबलि के अर्थ में होता था । 'रलयोरेकत्वम्' इस न्याय के आधार पर उत्तरवर्ती साहित्य में आरम्भ का प्रयोग हिंसा के अर्थ में होने लगा । अभयदेवसूरि ने आरम्भ का अर्थ 'जीवों का उपघात या उपद्रवण' किया है। उनकी दृष्टि में इस शब्द का प्रयोग सामान्यतः
१. भ. वृ. १ । ३३ – आरम्भो जीवोपघातः उपद्रवणमित्यर्थः, सामान्येन वाश्रवद्वारप्रवृत्तिः ।
भगवई
जीवन आत्मारम्भक हैं, न परारम्भक हैं, न उभयारम्भक हैं, अनारम्भक हैं?
गौतम! जीव दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे—संसारसमापन्न और असंसारसमापन्न । जो असंसारसमापन्न हैं, वे सिद्ध हैं। सिद्ध न आत्मारम्भक हैं, न परारम्भक हैं, न उभयारम्भक हैं, अनारम्भक हैं। जो संसारसमापन्न जीव हैं, वे दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे—संयत और असंयत। जो संयत हैं, वे दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे—प्रमत्त संयत और अप्रमत्त संयत । जो अप्रमत्त संयत हैं, वे न आत्मारम्भक हैं, न परारम्भक हैं, न उभयारम्भक हैं, अनारम्भक हैं। जो प्रमत संयत हैं, वे शुभयोग की अपेक्षा न आत्मारम्भक हैं, न परारम्भक हैं, न उभयारम्भक हैं, अनारम्भक हैं। अशुभ योग की अपेक्षा वे आत्मारम्भक भी हैं, परारम्भक भी हैं, उभयारम्भक भी हैं, अनारम्भक नहीं हैं। जो असंयत हैं, वे अविरति की अपेक्षा आत्मारम्भक भी हैं, परारम्भक भी हैं, उभयारम्भक भी हैं, अनारम्भक नहीं हैं। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है कुछ जीव आत्मारम्भक भी हैं, परारम्भक भी हैं, उभयारम्भक भी हैं, अनारम्भक नहीं हैं। कुछ जीवन आत्मारम्भक हैं, न परारम्भक हैं, न उभयारम्भक हैं, अनारम्भक हैं।
प्रत्येक आश्रवद्वार की प्रवृत्ति के लिए किया जा सकता है। '
प्रस्तुत प्रकरण में 'आरम्भ' शब्द का प्रयोग अविरति (अव्रत) और योग आश्रव के संदर्भ में हुआ है - " असुमं जोगं पहुच आयारंभा वि ।” “अविरतिं पडुच्च आयारंभा वि । " तात्पर्य में हिंसा आदि आश्रवों के दो रूप फलित होते हैं— अविरति और अशुभ योग — दुष्प्रवृत्ति । देखें, यन्त्र
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