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भगवई
कर्म-पुद्गलों की अचलित अथवा जीव- प्रदेशों से संयुक्त अवस्थाएं हैं। जीव- प्रदेशों से विचलित कर्म-प्रदेशों का निर्जरण होता है, इस अपेक्षा निर्जरा विचलित कर्म-पुद्गलों की ही होती है। ठाणं में पुद्गल
जीव- प्रदेशों से अचलित
२. उदय
बन्ध
उदीरणा
वेदना
अपवर्तन
संक्रमण
निधत्ति
निकाचना निर्जरा
३२. एवं ठिई आहारो य भाणियव्वो । ठिती जहा ठितिपदे तहा भाणियब्वा सव्यजीवाणं । आहारो वि जहा पण्णवणाए पढमे आहारुद्देस तहा भाणियब्बो, एत्तो आढत्तो-नेरइया णं भंते ! आहारट्ठी ? जाव दुक्खत्ताए भुजो भुजो परिणमति ॥
आरंभ - अणारंभ-पदं
३३. जीवा णं भंते! किं आयारंभा ? परारंभा ? तदुभयारंभा ? अणारंभा ? गोयमा ! अत्येगइया जीवा आयारंभा वि,
रंभा वि, तदुभारंभा वि, णो अणारंभा । अत्येगइया जीवा नो आया रंभा, नो परारंभा, नो तदुभयारंभा, अणारंभा ॥
३४. से केणद्वेणं भंते! एवं बुधइ – अत्थे - इया जीवा आयारंभा वि, परारंभा वि, तदुभयारंभा वि, णो अणारंभा ? अत्येगइया
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है
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सूत्र-पाठ में 'उदीरण' शब्द का प्रयोग और संग्रहणी गाथा में 'उदय' शब्द का प्रयोग हुआ है। वृत्तिकार के अनुसार 'उदय' शब्द
॥
नहीं
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श. १ : उ.१: सू.२८-३४
के चलित होने के दस कारण बतलाए गए हैं। उनमें निर्जरा के समय पुद्गल के चलित होने का उल्लेख मिलता है। ' देखें यन्त्र
जीव- प्रदेशों से चलित
नहीं
१. भ. वृ. १ । ३१ – निर्जरा तु पुद्गलानां निरनुभावीकृतानामात्मप्रदेशेभ्यः सातनम् । सा च नियमाच्चलितस्य कर्म्मणो नाचलितस्येति ।
२. ठाणं, १० । ६ – दहिं ठाणेहिं अच्छिष्णे पांगले चलेञ्जया...... णिञ्जरिञ्जभाणे
एवं स्थितिः आहारश्च भणितव्यौ । स्थितिः --यथा स्थितिपदे तथा भणितव्या सर्वजीवानाम् । आहारोऽपि यथा प्रज्ञापनायां प्रथमः आहारोद्देशकः तथा भणितव्यः, इतः आरब्धः--नैरयिकाः भदन्त ! आहारार्थिनः ? यावद् दुःखत्वेन भूयो भूयः परिणमन्ति ।
आरम्भ- अनारम्भ-पदम्
जीवाः भदन्त ! किम् आत्मारम्भाः ? परारम्भाः ? तदुभयारम्भाः ? अनारम्भाः ? गौतम ! अस्त्येकके जीवाः आत्मारम्भाः अपि, परारम्भाः अपि तदुभयारम्भाः अपि नो अनारम्भाः । अस्त्येकके जीवाः नो आत्मारम्भाः, नो परारम्भाः नो तदुभयारम्भाः अना
रम्भाः ।
तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यतेअस्त्येकके जीवाः आत्मारम्भाः अपि परारम्भाः अपि तदुभयारम्भाः अपि नो अना
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के द्वारा 'उदीरणा' का ग्रहण अपने आप हो जाता है। '
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३२. इसी प्रकार स्थिति और आहार वक्तव्य हैं। 'स्थिति-पद' में जो स्थिति निर्दिष्ट है, सब जीवों की स्थिति वैसे ही वक्तव्य है। आहार भी प्रज्ञापना के 'आहार पद' के प्रथम उद्देशक की भांति वक्तव्य है-भन्ते ! क्या नैरयिक जीव आहार की इच्छा करते हैं ? यहां से प्रारंभ कर यावत् गृहीत पुद्गलों को दुःख रूप में पुनः-पुनः परिणत करते हैं, यहां तक वक्तव्य है।
आरम्भ- अनारम्भ-पद
३३. ' भन्ते ! जीव क्या आत्मारम्भक हैं ? परारम्भक हैं ? उभयारम्भक हैं ? अनारम्भक हैं ? गौतम ! कुछ जीव आत्मारम्भक भी हैं, परारम्भक भी हैं, उभयारम्भक भी हैं, अनारम्भक नहीं हैं। कुछ जीव न आत्मारंभक हैं, न परारम्भक हैं, न उभयारम्भक हैं, अनारम्भक हैं।
३४. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा हैकुछ जीव आत्मारम्भक भी हैं, परारम्भक भी हैं, उभयारम्भक भी हैं, अनारम्भक नहीं हैं ? कुछ
वा चलेजा ॥
३. भ.वृ. १ । ३१ - उदयशब्देनोदीरणा गृहीतेति ।
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