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श.१: उ.१: सू.२५-३१
भगवई
है। वृत्तिकार ने काल और समय की शाब्दिक मीमांसा की है। काल का अर्थ है कृष्ण और समय का अर्थ है सिद्धान्त या आचार। काल
और समय का प्रयोग कर सूत्रकार ने यह सूचित किया है कि यहां समय का सम्बन्ध काल से है, सिद्धान्त या आचार से नहीं और काल का सम्बन्ध समय से है, कृष्ण वर्ण से नहीं।'
शब्द-विमर्श
प्रत्युत्पत्र-वर्तमान।
पुरस्कृत-पुरस्कृत का अर्थ है वर्तमान समय का पुरोवर्ती समय। इसका तात्पर्यार्थ है ग्रहीष्यमाण।
२५. नेरइया णं भंते ! जीवाओ किं चलियं कम्मं बंधंति ? अवलियं कम्मं बंधंति?
नैरयिकाः भदन्त ! जीवात् किं चलितं कर्म २६.भन्ते ! नैरयिक जीव क्या जीव-प्रदेशों से बध्नन्ति ? अचलितं कर्म बध्नन्ति ? चलित कर्म का बन्ध करते हैं अथवा अचलित
कर्म का बंध करते हैं ? गौतम ! नो चलितं कर्म बध्नन्ति, अचलितं गौतम ! वे चलित कर्म का बन्ध नहीं करते, कर्म बध्नन्ति।
अचलित कर्म का बन्ध करते हैं।
गोयमा ! नो चलियं कम्मं बंधति, अचलियं कम्मं बंधंति॥
२६. नेरइया णं भंते ! जीवाओ किं चलियं कम्मं उदीरेंति ? अचलियं कम्मं उदीरेंति?
नैरयिकाः भदन्त ! जीवात् किं चलितं कर्म २६. भन्ते ! नैरयिक जीव क्या जीव-प्रदेशों से उदीरयन्ति ? अचलितं कर्म उदीरयन्ति ? चलित कर्म की उदीरणा करते हैं अथवा अचलित
कर्म की उदीरणा करते हैं ? गौतम ! नो चलितं कर्म उदीरयन्ति, अचलितं गौतम ! वे चलित कर्म की उदीरणा नहीं करते, कर्म उदीरयन्ति ।
अचलित कर्म की उदीरणा करते हैं।
गोयमा ! नो चलियं कम्मं उदीरेंति, अचलियं कम्मं उदीरेंति॥
३०. एवं वेदेति, ओयडेति, सं निहत्तेंति, निकाएंति॥
एवं वेदयन्ति, अपवर्तन्ते, संक्रामन्ति, ३०. इसी प्रकार अचलित कर्म का वेदन, अपवर्तन, निधत्तयन्ति, निकाचयन्ति।
संक्रमण, निधत्तन और निकाचन करते हैं।
३१. नेरइया णं भंते ! जीवाओ किं चलियं नैरयिकाः भदन्त ! जीवात् किं चलितं कर्म ३१. भन्ते ! नैरयिक जीव क्या जीव-प्रदेशों से कम्मं निजरेंति? अचलियं कम्मं निजरेंति? निर्जीर्यन्ति ? अचलितं कर्म निर्जीर्यन्ति ? चलित कर्म की निर्जरा करते हैं अथवा अचलित
कर्म की निर्जरा करते हैं ? गोयमा ! चलियं कम्मं निजरेंति, नो गौतम ! चलितं कर्म निर्जीयन्ति, नो अचलितं गौतम ! वे चलित कर्म की निर्जरा करते हैं, अचलियं कम्मं निजरेंति ।। कर्म निर्जीर्यन्ति।
अचलित कर्म की निर्जरा नहीं करते ।
संग्रहणी गाथा
संग्रहणी गाथा
संगहणी गाहा बंधोदयवेदोयट्टसंकमे तह निहत्तणनिकाए। अचलिय-कम्मं तु भवे, चलियं जीवाउ निजरए॥१॥
बन्धोदयवेदापवर्तसंक्रमाः तथा निधत्तननिकाचौ। अचलित-कर्म तु भवेत्, चलितं जीवान् निर्जीर्येत् ॥
बन्ध, उदय, वेदन, अपवर्तन, संक्रमण, निधत्तन
और निकाचन जीव-प्रदेशों से अचलित कर्म का होता है तथा निर्जरा जीव-प्रदेशों से चलित कर्म की होती है।
भाष्य
१. सूत्र २८-३१
यहां 'चलित' और 'अचलित' शब्द का प्रयोग सापेक्ष है। जीव-प्रदेशों के द्वारा गृहीत होकर जो कर्म-पुद्गल स्थित हो जाते हैं, वे अचलित हैं और जो स्थिर अवस्था को छोड़कर प्रकम्पित हो जाते हैं, वे चलित कहलाते हैं।"
जीव कर्म-पुद्गलों का ग्रहण करता है, तब वे चलित ही होते हैं। ग्रहण के पश्चात् जीव-प्रदेशों में स्थित होकर वे अचलित हो जाते हैं। इस अपेक्षा से बन्ध-अवस्था को अचलित कहा गया है। उदीरणा, वेदना, अपवर्तन, संक्रमण, निधत्ति और निकाचना ये सब
१. भ. वृ. ११२५–कालरूपः समयो न तु समाचाररूपः। कालोऽपि समयरूपो
न तु वर्णादिस्वरूप इति परस्परेण विशेषणात् कालसमयः। २. भ. वृ. १।२६ ग्रहणसमयः पुरस्कृतो वर्तमानसमयस्य पुरोवर्ती येषां ते
ग्रहणसमयपुरस्कृताः प्राकृतत्वादेवं निर्देशः, अन्यथा पुरस्कृतग्रहणसमया इति
स्याद्, ग्रहीष्यमाणा इत्यर्थः । ३.वही.१।२८-जीवप्रदेशेभ्यश्चलितं तेष्वनवस्थानशीलं तम्।
तदितरत्त्वचलि
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