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________________ श.१: उ.१: सू.४८-५० ४४ भगवई ३. जिसके चारों ओर कांटे की बाड़ हो अथवा मिट्टी का परकोटा जीव जिसके कोई संयम नहीं है, कोई व्रत नहीं है, जिसने पापकर्म का कोई प्रत्याख्यान नहीं किया है, वह जीव भी मृत्यु के पश्चात् देव बन सकता है। इसका हेतु है-अकाम निर्जरा। जो व्यक्ति निर्जरा का अभिलाषी नहीं है, जिसका कर्म-निर्जरण का अभिप्राय भी नहीं है, फिर भी निर्जरा की हेतुभत क्रिया होने पर उसके निर्जरा हो जाती है। उसे अकाम निर्जरा कहा जाता है।' भूख और प्यास सहना, ब्रह्मचारी रहना, सर्दी-गर्मी आदि सहना-ये सब निर्जरा के हेतु हैं। केवल एक ही शर्त है कि इनको सहन करने में परिणाम संक्लिष्ट नहीं होने चाहिए। तत्त्वार्थराजवार्तिक में दीर्घकाल-रोगी आदि का भी उल्लेख किया गया है। यह सूत्र मिथ्यादृष्टि असंयमी के लिए प्रतिपादित है। सम्यग्दृष्टि असंयमी 'व्यन्तर देव' का आयुष्य-बन्ध नहीं करता । वह केवल 'वैमानिक देव' का ही आयुष्य-बन्ध करता ४. कृषक आदि लोगों का निवास स्थान । ५. जनपद का एक हिस्सा। २. आकर १. सोना, लोहे आदि की खान ।' २. खान आदि का समीपवर्ती गांव, मजदूर-बस्ती। " ३. नगर १. जिसमें कर नहीं लगता हो।" यह व्युत्पत्तिपरक अर्थ है। २. जो राजधानी हो।" ३. जो पण्यक्रिया आदि में निपुण चारों वर्गों के लोगों से सहित है, जो अनेक जातियों से सम्बन्ध है, जहां विभिन्न शिल्पवाले लोग रहते हैं और जिसमें सभी देवताओं से सम्बन्धित स्थान होते हैं।" अर्थशास्त्र" में राजधानी के लिए 'नगर' या 'दुर्ग' और साधारण कस्बों के लिए 'ग्राम' शब्द प्रयुक्त हुआ है। प्रस्तुत प्रकरण में नगर और राजधानी दोनों का उल्लेख है। इससे जान पड़ता है कि नगर बड़ी बस्तियों का नाम है, भले फिर वे राजधानी हों या न हों। राजधानी वह होती है, जहां से राज्य का संचालन होता शब्द-विमर्श २. ग्राम.......सनिवेश ग्राम, आकर, नगर, निगम, राजधानी, खेट, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमुख, पत्तन, आश्रम और सनिवेश-ये शब्द बारह बस्ती के प्रकार हैं: १. ग्राम १. जो बुद्धि आदि गुणों को ग्रसित करे। यह व्युत्पत्तिपरक अर्थ है। अथवा जहां १८ प्रकार के कर लगते हों।' २. जहां कर लगते हैं। ४. निगम १. व्यापारियों की बस्ती।" १. भ.वृ.११४९-अकामानां निर्जराधनभिलाषिणां सताम् अकामो वा- ६.(क) वही.१ । ४६ । निरभिप्रायः। (ख) नि.चू.भाग ३, पृ.३४६ सुवण्णादि आगरो। २. त.रा.वा.६।२०-दीर्घकालरोगिणः असंक्लिष्टाः तरुगिरिशिखरपातिनः अन- (ग) स्था.वृ.प.८३-लोहाद्युत्पत्तिभूमयः । शनज्वलनजलप्रवेशनविषभक्षणधर्मबुद्धयः व्यन्तरमानुषतिर्यक्षु । १०. उत्तरा.बृ.वृ.प.६०५। ३. (क) म.३०/१०,११। ११. (क) भ.वृ.११ ४६। (ख) त.रा.वा.६।२१-सम्यक्त्व ञ्च । (ख) स्था.वृ.प.८२–नैतेषु करोऽस्तीति नकराणि। सम्यक्त्वं देवस्यायुष आश्रव इत्यविशेषाभिधानेऽपि सौधर्मादिविशेष- (ग) दशवै.हा.टी,प.१७४---नास्मिन् करो विद्यते इति नकरम् । गतिर्भवति। कुतः पृथक्करणात् यद्यविशेषगतिरेवेष्टा स्यात् पृथक्करणमनर्थक (घ) नि.चू.भाग ३,पृ.३४७–ण करा जत्थ तं णगरं । स्यात् पूर्वसूत्रे एवोच्यते। यद्येवं पूर्वसूत्र उक्त आश्रवविधिः अविशेषेण प्रसक्तः (ङ) उत्तरा.बृ.वृ.प. ६०५। तेन सरागसंयमसंयमासंयमावपि भवनवास्याद्यायुष आश्रवौ प्रसक्तौ ? १२. विनयविजय कृत लोक-प्रकाश, सर्ग ३१, श्लोक ६-नगरे राजधानी न, अतस्तदसिद्धे नैष दोषः। कुतः ? अतस्तत्सिद्धे यत एव सम्यक्त्वं स्यात् । सौधर्मादिष्विति नियम्यते तत एव तयोरपि नियमसिद्धिः, नासति सम्यक्त्वे १३. आप्टे, नगरसरागसंयमसंयमासंयमव्यपदेश इति । पण्यक्रियादिनिपुणैश्चातुर्वर्ण्यजनैर्युतम् । ४. (क) उत्तरा.बृ.वृ.प.६०५ --ग्रसति गुणान् गम्यो वाऽष्टादशानां कराणामिति नेकजातिसम्बद्धं, नैकशिल्पीसमाकुलम् । ग्रामः। सर्वदैवतसम्बद्धं, नगरत्वभिधीयते ॥ (ख) दशवै.हा.टी.प.१७४---प्रसति बुद्ध्यादीन् गुणानिति ग्रामः । १४. उत्तर.३०।१६ का टिप्पण। ५. नि.चू.भाग ३, पृ.३४६-करादियाण गम्मो गामो । १५. (क) भ.बृ.११४६ वणिग्जनप्रधानं स्थानम् । ६. दशवैकालिकः एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृ.२२० । (ख) स्था.वृ.प.८२. निगमाः वणिग्-निवासाः । ७. उत्तरा.बृ.वृ.प.६०५ । (ग) नि.चू.भाग.३,पृ.३४६-वणियवग्गो जत्थ वसति ते णेगमं । ८. भ.वृ.१।४६। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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