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________________ भगवई ४५ श.१: उ.१: सू.४८-५० २. जहां से अनेक प्रकार के भाण्ड निर्यात किए जाते हैं।' ५. राजधानी १. वह बस्ती जहां राजा रहता हो।' २. जहां राजा का अभिषेक हुआ हो।' ३. जनपद का मुख्य नगर । ६. खेट १. जिसके चारों ओर धूलि का प्राकार हो।' ७. कर्बट १. पर्वत की ढलान। २. कुनगर । चूर्णिकार जिनदास ने 'कुनगर' का अर्थ किया है--जहां क्रय-विक्रय न होता हो।' ३. बहुत छोटा सन्निवेश। ४. जिले का प्रमुख नगर।" ५. वह नगर जहां बाजार हो।" ६. जहां माया, कूटसाक्षी आदि अप्रामाणिक या अनैतिक व्यवसाय होता है।" ६. द्रोणमुख १. जहां जल और स्थल दोनों निर्गम और प्रवेश के मार्ग हों।" उत्तराध्ययन के वृत्तिकार ने इसके लिए भृगकच्छ (भरौंच, गुजरात) और ताम्रलिप्ति (तामलुक, बंगाल) का उदाहरण दिया है। २. समुद्र के किनारे बसा हुआ गांव, ऐसा गांव जिसमें जल और स्थल से पहुंचने का मार्ग हो। ३. ४०० गांवों की राजधानी।" १०. पत्तन १. (क) जलपत्तन—जलमध्यवर्ती द्वीप। (ख) स्थलपत्तन-निर्जल भूभाग में होने वाला। उत्तराध्ययन के वृत्तिकार ने जलपत्तन के प्रसंग में काननद्वीप और स्थलपत्तन के प्रसंग में मथुरा का उदाहरण प्रस्तुत किया है।" २. जहां विविध देशों से सामान का आयात- निर्यात होता हो, वह व्यापारिक क्षेत्र ।" (आज की भाषा में जिसे बन्दरगाह कहा जाता है-जैसै बम्बई, कलकत्ता आदि।) ११. आश्रम १. तापसों का निवास स्थान । ८. मडम्ब २. तीर्थस्थान । १. जिसके एक योजन तक कोई दूसरा गांव न हो।" २. जिसके ढाई योजन तक कोई दूसरा गांव न हो।" ३. जिसके चारों ओर आधे योजन तक गांव न हो।" ४. जिसके चारों ओर दूर तक कोई सनिवेश न हो।" १२. सन्निवेश १. यात्रा से आए हुए मनुष्यों के रहने का स्थान।" २. सार्थ (यात्रीदल) और कटक (सेना) का निवास स्थान । १. उत्तरा.बृ.बृ.प. ६०५-निगमयन्ति तस्मिन्ननेकविधभाण्डानीति निगमः । २. नि.चू.भाग ३,पृ.३४६-जत्थ राया वसति सा रायहाणी। ३. स्था.वृ.प.८२,८३-राजधान्यो—यासु राजानोऽभिषिच्यन्ते । ४. उत्तरा.बृ.वृ.प.६०५। ५. (क) भ.वृ. १४६ (ख) नि.चू.भाग३,पृ.३४६-खेडं णाम धूलीपागारपरिक्खितं । ६.A Sanskrit English Dictionary by Sir Monier Williams, p.259. ७. (क) भ.वृ. ११४६। (ख) नि.चू.भाग३, पृ.३४६ कुणगरो कब्बडं। ८. दशवै.जि.चू.पृ.३६०। ६. (क) उत्तरा.बृ.वृ.प. ६०५/ (ख) दशवै.हा.टी.प.२७५ १०. A Sanskrit English Dictionary by Sir Monier Williams, p. 259. ११. दशवैकालिकः एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृ. २२० । १२. दशवै.जि.चू.पृ.३६०,अ.चू.पृ.२५५ । १३. नि.चू.भाग३,पृ.३४६--जोयणमंतरे जस्स गामादी णस्थि तं पडदं । १४. उत्तरा.वृ.वृ.प.६०५। १५. स्था.वृ.प.८३-मडम्बानि सर्वतोऽर्द्धयोजनात परतोऽवस्थितग्रामाणि। १६. भ.वृ.१।४६–सर्वतो दूरवर्ती सन्निवेशान्तरम् । १७. (क) नि.चू.भाग३,पृ.३४६-दोण्णि मुहा जस्स तं दोण्णमुहं जलेण वि भंडमागच्छति। (ख) स्था.वृ.प.८३। (ग) भ.वृ.११४६ १८. उत्तरा.बृ.वृ.प.६०५। १६. कौटिल्य अर्थशास्त्र,२२–चतुःशतग्राम्यो द्रोणमुखम् । २०. (क) नि.चू.भाग ३,पृ. ३४६। (ख) उत्तरा.बृ.वृ.प.६०५। (ग) स्था.वृ.प.८३। २१. उत्तरा.दृ.वृ.प.६०५। २२. भ.वृ.१।४६। २३. (क) नि.चू.भाग३, पृ.३४६ । (ख) उत्तरा.बृ.वृ.प.६०५। (ग) भ.वृ.११४६ २४. स्था.वृ.प.८३। २५. (क) उत्तरा.बृ.वृ.प.६०५। (ख) नि.चू.भाग३,पृ.३४६,३४७। २६. स्था.वृ.प.८३ सार्थकटकादेः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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