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भगवई
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श.१: उ.१: सू.४८-५१
३. आकीर्ण.......स्पृष्ट
आकीर्ण-व्याप्त' (spread)।' व्यतिकीर्ण-मिश्रित, एकीभूत (mixed, united) |
ढके हुए उनके ऊपर और नीचे आने से ढके हुए। संस्कृतइंग्लिश शब्दकोश में 'उपस्तु' का एक अर्थ 'to strew or cover
with' किया गया है।'
आच्छादित ऊपर से फैलाकर ढक देना' (to overspread) |
स्पृट-वृत्तिकार ने इसके दो संस्कृत रूप किए हैं 'स्पृष्ट' और
५१. सेवं भंते ! सेवं मंते ! ति भगवं गोयमे
समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति, वंदित्ता नमंसित्ता संजमेणं तवसा अपाणं भावेमाणे विहरति॥
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरति।
५१. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है। इस प्रकार भगवान् गौतम श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करते हैं, वन्दननमस्कार कर वे संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए विहरण कर रहे हैं।
१. भंते ! वह ऐसा ही है, भंते ! वह ऐसा ही है।
भाष्य
भारतीय संस्कृति विनम्रता की संस्कृति है। उसके आधार पर गुरु और शिष्य के सम्बन्धों की परम्परा स्थापित हुई है। उसमें एक सम्बन्ध है-जिज्ञासा और समाधान। शिष्य जिज्ञासा करता है और गुरु उसका समाधान देता है। समाधान के समय गुरु के मन में शिष्य के ज्ञान-वृद्धि की भावना रहती है। समाधान के पश्चात् शिष्य का मन आनन्द-पुलकित और भाव-विभोर हो उठता है। वह सहज
ही कृतज्ञता के स्वर में बोल उठता है-"भन्ते ! आपने मुझे नया आलोक दिया है, नई दृष्टि दी है। आपने जो कहा वह बिलकुल सही है।" यह कृतज्ञता की अभिव्यक्ति एक नई प्रेरणा को संजीवित करती है। गुरु के मन में शिष्य को और अधिक ज्ञान देने की भावना पल्लवित हो जाती है। इस प्रकार यह अहोभाव ज्ञान की परम्परा के चिरजीवी होने का सूत्र बन जाता है।
शिष्य भावना पल्लवित
होका और अधिक ज्ञान देने की
पुलकित और भाव-विभोर हो
१. भ.वृ.१/५० २. आप्टे. ३. वही।
४. वही। ५. भ.वृ.१।५० तैरेवाक्रीडमानैरन्योन्यस्पर्धया समन्ततश्चरद्भिराच्छादिता इति । ६. आटे.
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