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श.२: उ.१: सू.४५,४६ २२४
भगवई 'षट्स्थानपतित हानि और वृद्धि' होती रहती है।' इस शक्ति को जीव गुरुलघु नहीं हैं। यह निषेधपक्ष है। उसका विधिपक्ष है कि सूक्ष्म वाणी से अगोचर, प्रतिक्षण वर्तमान और आगम प्रमाण से वे अगुरुलघु हैं। यह सिद्धों में पाया जाने वाला अगुरुलघु गुरुलघु स्वीकरणीय बतलाया गया है।' अगुरुलघु पर्याय को स्वभाव-पर्याय का अभाव नहीं है, किन्तु यह एक विधायक शक्ति है। इसीलिए
और अर्थपर्याय भी कहा जाता है। अगुरुलघु का दूसरा अर्थ है उसके अनन्त पर्यव होते हैं और इसी शक्ति के द्वारा वे न नीचे भारहीन | नामकर्म की एक प्रकृति का नाम भी अगुरुलघु कर्म है। आते हैं और न इधर-उधर परिभ्रमण करते हैं। यह अगुरुलघुशक्ति उसका संबंध भी भारहीनता से है।
अणु, सूक्ष्म स्कन्ध और अमूर्त द्रव्यों में पाई जाती है। ' संसारी जीव अनादि पारिणामिक अगुरुलघु शक्ति प्रत्येक द्रव्य में होती है। में गुरुलघु और अगुरुलघु दोनों पर्यवों का अस्तित्व होता है। वह यहां विवक्षित नहीं है। अगुरुलघु नामकर्म भी यहां विवक्षित
औदारिक आदि शरीरों के कारण गुरुलघु पर्यवों का अस्तित्व होता नहीं है। यहां गुरुलघु की नियामक शक्ति के रूप में अगुरुलधु
है और कार्मण आदि पुद्गल द्रव्यों की अपेक्षा से तथा जीव की विवक्षित है। यह शक्ति स्वयं भारहीन है, साथ-साथ गुरुलघु की
अपेक्षा से अगुरुलघु पर्यवों का अस्तित्व होता है।' सिद्ध जीव नियामक भी है। यह शक्ति सिद्ध जीवों में पाई जाती है। सिद्ध
अशरीरी होते हैं; इसलिए उनमें केवल अगुरुलघु पर्यव होते हैं।
४६. जे वि य ते खंदया ! अयमेयासवे योऽपि च तव स्कन्दक ! अयमेतद्पः ४६. स्कन्दक ! तुम्हारे मन में जो इस प्रकार का
अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे आध्यात्मिकः चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, मनोगत समुप्पन्जित्थासंकल्पः समुदपादि
संकल्प उत्पन्न हुआकिं सअंते जीवे ? अणंते जीवे ? किं सान्तः जीवः ? अनन्तः जीवः ? क्या जीव सान्त है अथवा अनन्त है ? तस्स वि य णं अयमठे एवं खलु मए तस्यापि च अयमर्थः–एवं खलु मया उसका भी यह अर्थ है-स्कन्दक ! मैंने जीव खंदया ! चउबिहे जीवे पण्णत्ते, तं जहा स्कन्दक ! चतुर्विधः जीवः प्रज्ञप्तः, तद् यथा चार प्रकार का बतलाया है, जैसे—द्रव्यतः, दवओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ। -द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतः भावतः। क्षेत्रतः, कालतः और भावतः। दव्वओ णं एगे जीवे सअंते। द्रव्यतः एकः जीवः सान्तः।
द्रव्यतः जीव एक और सान्त है। खेत्तओ णं जीवे असंखेजपएसिए, असंखे- क्षेत्रतः जीवः असंख्येयप्रदेशिकः, असं- क्षेत्रतः जीव असंख्येयप्रदेशी है, आकाश के अपएसोगाढे, अत्थि पुण से अंते। ख्येयप्रेदेशावगाढः, अस्ति पुनः तस्य अन्तः। असंख्येयप्रेदेशों में अवगाहन किए हुए है और
वह अन्तसहित है। कालओ णं जीवे न कयाइ न आसी, न कालतः जीवः न कदापि नासीत्, न कदापि कालतः जीव कभी नहीं था, कभी नहीं है और कयाइ न भवइ, न कयाइ न भविस्सइ- न भवति, न कदापि न भविष्यति—अभूत् । कभी नहीं होगा, ऐसा नहीं है वह था, है और भविंसु य, भवति य, भविस्सइ य–धुवे च, भवति च, भविष्यति च-ध्रुवः नियतः होगा—वह ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, नियए सासए अक्खए अव्वए अवट्ठिए शाश्वतः अक्षयः अव्ययः अवस्थितः नित्यः, अव्यय, अवस्थित, नित्य है और उसका अन्त निचे, नत्थि पुण से अंते। नास्ति पुनः तस्य अन्तः।
नहीं है, वह अनन्त है। भावओ णं जीवे अणंता नाणपजवा, भावतः जीवे अनन्ताः ज्ञानपर्यवाः, अनन्ताः भावतः जीव में अनन्त ज्ञानपर्यव, अनन्त दर्शनअणंता दंसणपजवा, अणंता चारित्तपजवा, दर्शनपर्यवाः, अनन्ताः चारित्रपर्यवाः, पर्यव, अनन्त चारित्रपर्यव अनन्त गुरुलघुपर्यव, अणंता गरुयलहुयपजवा, अणंता अगरुय- अनन्ताः गुरुकलघुकपर्यवाः, अनन्ताः अगुरु- अनन्त अगुरुलघुपर्यव हैं और उसका अन्त नहीं लहुयपज्जवा, नत्थि पुण से अंते। कलघुकपर्यवाः, नास्ति पुनः तस्य अन्तः।। है, वह अनन्त है। सेतं खंदगा! दबओ जीवे सअंते, खेत्तओ तदेतत् स्कन्दक ! द्रव्यतः जीवः सान्तः, स्कन्दक ! इसलिए द्रव्यतः जीव सान्त है, क्षेत्रतः जीवे सअंते, कालओ जीवे अणंते, भावओ क्षेत्रतः जीवः सान्तः, कालतः जीवः अनन्तः, जीव सान्त है, कालतः जीव अनन्त है, भावतः जीवे अणंते॥ भावतः जीवः अनन्तः।
जीव अनन्त है।
१. आलापपद्धति नयचक्र, परिशिष्ट पृ. २११- अगुरुलघुविकाराः स्वभाव- सूक्ष्मं जिनोदितं तत्त्वं हेतुभिर्नेव हन्यते । पर्यायास्ते द्वादशधा षड्वृद्धिहानिरूपाः। अनन्तभागवृद्धिः, असंख्यातभाग- आज्ञासिद्धं तु तद्ग्राह्यं नान्यथावादिनो जिनाः ॥ ४ ॥ वृद्धिः संख्यातभागवृद्धिः, संख्यातगुणवृद्धिः, असंख्यातगुणवृद्धिः, अनन्त- ३. भ.व.२।४५—'वण्णपज्जवत्ति वर्णविशेषा एकगुणकालत्वादयः, एवमन्येऽपि गुणवृद्धिः इति षड्वृद्धिः। तथा अनन्तभागहानिः, असंख्यातभागहानिः, गुरुलघुपर्यवास्तद्विशेषा बादरस्कन्धानाम्, अगुरुलधुपर्यवा अणूनां सूक्ष्मसंख्यातभागहानिः, संख्यातगुणहानिः, असंख्यातगुणहानिः, अनन्तगुणहानिः,
__ स्कन्धानाममूर्तानां च। इति षड्हानिः । एवं षड्वृद्धिहानिरूपा द्वादश ज्ञेयाः।।
४. भ.व.२।४६–अनंता गुरुलघुपर्यवा औदारिकादिशरीराण्याश्रित्य, इतरे तु २. वही, पृ. २१६-अगुरुलघोर्भावोऽगुरुलघुत्वम् । सूक्ष्मा वागगोचराः प्रतिक्षणं ।
कार्मणादिद्रव्याणि जीवस्वरूपं चाश्रित्येति । वर्तमाना आगमप्रमाणादभ्युपगम्या अगुरुलघुगुणाः।
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