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भगवई
२२३
श.२: उ.१: सू.४५
से अंते।
खलु मए खंदया ! चउबिहे लोए पण्णत्ते, मया स्कन्दक ! चतुर्विधः लोकः प्रज्ञाप्तः, तद् स्कन्दक ! मैंने लोक चार प्रकार का बतलाया है, तं जहा दबओ, खेत्तओ, कालओ, यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतः भावतः। जैसे-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः और भावतः। भावओ। दव्वओ णं एगे लोए सअंते। द्रव्यतः एकः लोकः सान्तः।
द्रव्यतः लोक एक और सान्त है। खेत्तओ णं लोए असंखेजाओ जोयण- क्षेत्रतः लोकः असंख्येया योजनकोटिकोटयः क्षेत्रतः लोक असंख्येय कोटाकोटि योजन लम्बाकोडाकोडीओ आयाम-विक्खंभेणं, असंखे- आयाम-विष्कम्भेण, असंख्येया योजनकोटि- -चौड़ा और असंख्येय कोटाकोटि योजन परिधि जाओ जोयणकोडाकोडीओ परिक्खेवेणं कोटयः परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः, अस्ति पुनः तस्य वाला प्रज्ञप्त है और वह अन्त-सहित है। पण्णत्ते, अत्थि पुण से अंते।
अन्तः । कालओ णं लोए न कयाइ न आसी, न कालतः लोकः न कदापि नासीत्, न कदापि कालतः लोक कभी नहीं था, कभी नहीं है और कयाइ न भवइ, न कयाइ न भविस्सइ न भवति, न कदापि न भविष्यति—अभूत् कभी नहीं होगा, ऐसा नहीं है वह था, है और
-भविंसु य, भवति य, भविस्सइय- च, भवति च, भविष्यति च-ध्रुवः नियतः होगा वह ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, धुवे नियए सासए अक्खए अब्बए अवढिए शाश्वतः अक्षयः अव्ययः अवस्थितः नित्यः, ___अव्यय, अवस्थित, नित्य है और उसका अन्त निचे, नत्थि पुण से अंते। नास्ति पुनः तस्य अन्तः।
नहीं है, वह अनन्त है। भावओ णं लोए अणंता वण्णपजवा, भावतः लोके अनन्ताः वर्णपर्यवाः, अनन्ताः भावतः लोक में अनन्त वर्णपर्यव, अनन्त अणंता गंधपजवा, अणंता रसपजवा, गन्धपर्यवाः, अनन्ताः रसपर्यवाः, अनन्ताः गन्धपर्यव, अनन्त रसपर्यव, अनन्त स्पर्शपर्यव, अणंता फासपजवा, अणंता संठाणपजवा, स्पर्शपर्यवाः, अनन्ताः संस्थानपर्यवाः, अनन्त संस्थानपर्यव, अनन्त गुरुलघुपर्यव, अनन्त अणंता गरुयलहुयपज्जवा, अणंता अगरुय- अनन्ताः गुरुकलघुकपर्यवाः, अनन्ताः अगु- अगुरुलघुपर्यव हैं और उसका अन्त नहीं है, वह लहुयपजवा, नत्थि पुण से अंते। रुकलघुकपर्यवाः, नास्ति पुनः तस्य अन्तः । अनन्त है। सेत्तं खंदगा ! दबओ लोए सअंते, खेत्तओ तदेतत् स्कन्दक ! द्रव्यतः लोकः सान्तः, स्कन्दक ! इसलिए द्रव्यतः लोक सान्त है, क्षेत्रतः लोए सअंते, कालओ लोए अणंते, भावओ क्षेत्रतः लोकः सान्तः, कालतः लोकः अनन्तः, लोक सान्त है, कालतः लोक अनन्त है, भावतः लोए अणंते॥ भावतः लोकः अनन्तः।
लोक अनन्त है।
भाष्य
१. सूत्र ४५ शब्द-विमर्श
द्रव्यतः.......भावतः देखें भ. २।२-७ का भाष्य धुक्-अचल, गतिरहित। नियत-एकस्वरूपता के कारण नियमबद्ध । शाश्वत-प्रतिक्षण अस्तित्व वाला। अक्षय-अविनाशी। अव्यय-जिसके एक अवयव का भी व्यय न हो। अवस्थित–हीयमान और वर्धमान इन दोनों अवस्थाओं से
गन्ध आदि के पर्यवों से किया गया है। पर्यव का अर्थ है-पर्याय । पर्यव, विशेष, धर्म, पर्याय, पर्यय, भेद और भाव-ये सब पर्यायवाची शब्द हैं।' पर्यव दो प्रकार के होते हैं स्वभाव पर्यव और विभाव पर्यव। जीव और पुद्गल में दोनों प्रकार के पर्यव रहते हैं, शेष द्रव्यों में स्वभाव पर्यव होता है।' वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श-ये पुद्गल के स्वभाव पर्यव हैं। एक परमाणु या स्कन्ध एक गुण काले रंग वाला यावत् अनन्त गुण काले रंग वाला हो जाता है। इसी प्रकार गंध, रस और स्पर्श में भी स्वाभाविक परिणमन होता रहता है। गुरुलघु पर्यव पुद्गल और पुद्गल युक्त जीव में होता है। इसका संबंध स्पर्श से है।' अगुरुलघु पर्यव एक विशेष गुण या शक्ति है। इस शक्ति से द्रव्य का द्रव्यत्व बना रहता है। चेतन अचेतन नहीं होता और अचेतन चेतन नहीं होता-इस नियम का आधार अगुरुलघु पर्यव ही है। इसी शक्ति के कारण द्रव्य के गुणों में प्रतिसमय
मुक्त।
नित्य-अवस्थित होने के कारण सदा होने वाला।'
भावतः लोक में लोक शब्द का निरुक्त यह है—जो दिखाई देता है, वह लोक है। इसीलिए भावतः लोक का निरूपण वर्ण,
१. वही,२१४५–'धुवे'त्ति ध्रुवोऽचलत्वात् स चानियतरूपोऽपि स्यादत
आह-णियते'त्ति नियत एकस्वरूपत्वात्, नियतरूपः कादाचित्कोऽपि स्या- टत आह–'सासए'त्ति शाश्वतः प्रतिक्षणं सद्भावात्, स च नियतकाला- पेक्षयाऽपि स्यादित्यत आह-'अक्खए'त्ति अक्षयोऽविनाशित्वात्, अयं च बहुतरप्रदेशापेक्षयाऽपि स्यादित्यत आह–'अव्वए'त्ति अव्ययस्तठप्रदेशानामव्ययत्वात्, अयं च द्रव्यतयाऽपि स्यादित्याह-'अवविए'ति अवस्थितः । पर्यायाणामनन्ततयाऽवस्थितत्वात्, किमुक्तं भवति ? –नित्य इति ।
२. भ.५।२५१-अजीवेहिं लोक्कइ पलोक्कइ, जे लोकइ से लोए। ३. एकार्थक कोश, पृ. ६१—पज्जवो त्ति वा भेदो त्ति वा गुणो त्ति वा एगट्ठा । नयनका
सब्भाव खु विहावं दव्वाणं पजयं जिणुद्दिष्टुं ।
सव्वेसिं च सहावं, विभावं जीवपोग्गलाणं च ॥ ५. देखें, भ.१1३६२४१६ का भाष्य ।
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