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________________ श. २: उ.१: सू. ४३-४५ सोभेमाणं पास, पासित्ता हट्टतुट्ठचित्तमाणंदिए दिए पीइमणे परमसोमस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता बंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता पच्चासन्ने नातिदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणणं पंजलियडे पजुवासइ ॥ सूत्र ४३ शब्द- विमर्श हृष्टतुष्ट —अतितुष्ट; अथवा हृष्ट - विस्मित, तुष्ट — जिसमें चित्त या मन तोष प्राप्त करे । आनन्दित सौम्य आदि भावों से ईषत् समृद्ध मुख-मण्डल । नन्दित सौम्य आदि भावों से समृद्धतरता को प्राप्त । ४४. दयाति ! समणे भगवं महावीरे खंदयं कच्चायणसगोत्तं एवं वयासी— से नूणं तुमं खंदया ! सावत्थीए नयरीए पिंगलएणं नियंठेणं वेसालियसावएणं इणमक्खेवं पुच्छिएमागहा ! १. किं सअंते लोए ? अनंते लोए ? २. सअंते जीवे ? अणंते जीवे ? ३. सअंता सिद्धी ? अनंता सिद्धी ? ४. सअंते सिद्धे ? अते सिद्धे ? ५. केण वा मरणेणं मरमाणे जीवे वड्ढति वा, हायति वा ? एवं तं चैव जाव जेणेव ममं अंतिए तेणेव हव्वमागए । से नूणं खंदया ! अट्टे समट्ठे ? हंता अत्थि ॥ २२२ दृष्ट्वा दृष्टतुष्टचित्तः आनन्दितः नन्दितः प्रीतिमनाः परमसौमनस्थितः हर्षवशविसर्पद्हृदयः यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीरः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिः आदक्षिण-प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा न अत्यासन्नः नातिदूरः शुश्रूषमाणः नमस्यन् अभिमुखः विनयेन कृतप्राञ्जलिः पर्युपास्ते । ४५. जे विय ते खंदया ! अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकष्पे समुपखित्था -- किं सअंते लोए ? अनंते लोए ? – तस्स वि य णं अयमट्टे – एवं Jain Education International भाष्य स्कन्दक ! अयि ! श्रमणः भगवान् महावीरः स्कन्दकं कात्यायनसगोत्रम् एवमवादीत् अथ नूनं त्वं स्कन्दक ! श्रावस्त्यां नगर्यां पिंगलकेन निर्गन्थेन वैशालिक श्रावकेण अयमाक्षेपः पृष्टः — मागध ! १. किं सान्तः लोकः ? अनन्तः लोकः ? २. सान्त जीवः ? अनन्त जीवः ? ३. सान्ता सिद्धि: ? अनन्ता सिद्धि: ? ४ सान्तः सिद्धः ? अनन्तः सिद्धः ? ५. केन वा भरणेन म्रियमाणः जीवः वर्धते वा, हीयते वा ? एवं तच्चैव यावत् यत्रैव मम अन्तिकः तत्रैव 'हव्वं' आगतः । स नूनं स्कन्दक ! अर्थः समर्थः ? हन्त अस्ति । १ . वही, २ । ४३ – तुट्ठचित्तमाणंदिए 'त्ति हृष्टतुष्टमत्यर्थं तुष्टं दृष्टं वा विस्मितं तुष्टं च - तोषवचित्तं मनो यत्र तत्तथा तद् हृष्टतुष्टचित्तं यथा भवति एवम् ‘आनन्दितः' ईषन्मुखसौम्यतादिभावैः समृद्धिमुपगतः, ततश्च 'नंदिए 'त्ति नन्दितस्तैरेव समृद्धतरतामुपगतः, 'पीइमणे 'ति प्रीतिः प्रीणनमाप्यायनं मनसि यस्य प्रीतिमन —- जिसका मन प्रीति से भरा हुआ हो । सोमणस्सिए— वृत्तिकार ने इसके दो संस्कृत रूप दिए हैंसौमनस्थित और सौमनस्थिक— परम सौमनस्य वाला । विसप्पमाण— फैलता हुआ । ' योऽपि च तव स्कन्दक ! अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपादि - किं सान्तः लोकः ? अनन्तः लोकः ? -तस्यापि च अयमर्थः एवं खलु भगवई देखता है, देखकर हृष्ट-तुष्ट चित्त वाला, आनन्दित, नन्दित, प्रीतिपूर्ण मन वाला, परम सौमनस्य-युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाला हो गया। जहां श्रमण भगवान् महावीर हैं, वहां वह आता है, आकर श्रमण भगवान् महावीर को दांई ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा करता है, वन्दननमस्कार करता है, बन्दन - नमस्कार कर न अति निकट, न अति दूर शुश्रूषा और नमस्कार की मुद्रा में उनके सम्मुख सविनय बद्धाञ्जलि होकर पर्युपासना करता है। For Private & Personal Use Only ४४. 'हे स्कन्दक !' इस सम्बोधन से सम्बोधित कर श्रमण भगवान् महावीर ने कात्यायनसगोत्र स्कन्दक से इस प्रकार कहा—स्कन्दक ! श्रावस्ती नगरी में वैशालिक श्रावक पिंगल निर्ग्रन्थ ने तुमसे यह प्रश्न पूछा— मागध ! १. क्या लोक सान्त है अथवा अनन्त हैं ? २. जीव सान्त है अथवा अनन्त है ? ३. सिद्धि सान्त है अथवा अनन्त है ? ४. सिद्ध सान्त है अथवा अनन्त है ? ५. किस मरण से मरता हुआ जीव बढ़ता है अथवा घटता है ? इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर ने वह सारी बातें कहीं यावत् तुम मेरे पास आगए । स्कन्दक ! क्या यह अर्थ संगत है ? हां, है । ४५. 'स्कन्दक ! तुम्हारे मन में जो इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ क्या लोक सान्त है अथवा अनन्त है ? उसका भी यह अर्थ है- स तथा 'परमसोमणस्सिए 'ति परमं सौमनस्यं सुमनस्कता संजातं यस्य स तथा 'परमसौमनस्थितस्तद्वाऽस्यास्तीति परमसौमनस्थिकः 'हरिसवसविसप्पमाहियए' त्ति हर्षवशेनविसर्पद् विस्तारं व्रजद् हृदयं यस्य स तथा । www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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