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भगवई
२२१
श.२: उ.१: सू.४२,४३
भाष्य
१. सूत्र ४२
प्रस्तुत सूत्र में भगवान् महावीर के शरीर के नौ विशेषण बतलाए गए हैं:
१. ओराल यह देशी शब्द है। इसका अर्थ है—प्रधान ।' २. शृंगार—अतिशय शोभावाला । ३. कल्याण श्रेय। ४. शिव–उपद्रवरहित। ५. धन्य स्वस्थ, भाग्यशाली, प्रशंसनीय । ६. मांगल्य हितार्थ की प्राप्ति कराने वाला।
७. अनलंकृतविभूषित मुकुट आदि अलंकारों से अलंकृत और वस्त्र आदि से विभूषित-अलंकृत-विभूषित | भगवान् का शरीर न अलंकार से अलंकृत था और न वस्त्र से विभूषित था। यह वृत्ति-सम्मत अर्थ है। यह वर्णनात्मक है। इससे कोई विशेषता परिलक्षित नहीं होती। विशेषता की दृष्टि से उक्त वाक्य का आश्य यह होना चाहिए कि भगवान् का शरीर अलंकृत न होने पर भी विभूषित था-कान्ति, दीप्ति और चमकयुक्त था।
८. लक्षण, बजन और गुणों से युक्त लक्षण शुभसूचक शरीर के चिन्ह । व्यञ्जन-मष, तिल आदि। इनका वैकल्पिक अर्थ है-जन्म-जात चिह्न 'लक्षण' और
पश्चात् होने वाला चिह्न 'व्यञ्जन'।
गुण सौभाग्य आदि। __वृत्तिकार ने लक्षण का अर्थ मान, उन्मान और प्रमाण किया है। जो पुरुष जल से भरी हुई कुण्डिका में प्रवेश करता है, उसके प्रवेश करने पर एक द्रोण जितना जल निकलता है, वह 'पुरुषमानोपेत' कहलाता है; तराजु पर बैठा हुआ पुरुष अर्धभार' मान होता है तो वह 'उन्मानोपेत' कहलाता है। अपने अंगुल से १०८ अंगुल की ऊंचाई वाला 'प्रमाणोपेत' कहलाता है। वृत्तिकार द्वारा कृत 'लक्षण' की व्याख्या यहां विमर्शनीय है।
अणुओगदाराई के अनुसार उत्तमपुरुष मान, उन्मान और प्रमाण से युक्त तथा लक्षण, व्यञ्जन और गुणों से उपेत होता है। मुख आत्माङ्गुल से बारह अङ्गुल-प्रमाण होता है और जो पुरुष नवमुख-प्रमाण (अर्थात् १०८ अङ्गुल) ऊंचाई वाला होता है वह प्रमाणोपेत, जो पुरुष द्रोणी-प्रमाण है, वह मानयुक्त और जो अर्धभार तुल्य तुलता है, वह उन्मानयुक्त है।
प्रस्तुत आगम में भी लक्षण-व्यञ्जन-गुणोपेत तथा मानोन्मानप्रमाण-प्रतिपूर्ण ये दोनों विशेषण स्वतन्त्र रूप में मिलते हैं। इसलिए यहां लक्षण का अर्थ शरीरगत चिह्न अधिक संगत लगता है। लक्षण और व्यञ्जन का संयुक्त प्रयोग शरीरगत चिह्नों के अर्थ में होता है।
६. श्री-वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं लक्ष्मी और शोभा। यहां 'शोभा' अर्थ प्रासंगिक है।'
४३. तए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते ततः सः स्कन्दकः कात्यायनसगोत्रः श्रमणस्य ४३. 'वह कात्यायनसगोत्र स्कन्दक प्रतिदिन-भोजी
समणस्स भगवओ महावीरस्स वियट्टभो- भगवतः महावीरस्य व्यट्टभोजिनः शरीरकम् श्रमण भगवान् महावीर के प्रधान, शृंगारित, इस्स सरीरयं ओरालं सिंगारं कल्लाणं सिवं 'ओरालं' शृंगारं कल्याणं शिवं धन्यं मांगल्यम् कल्याण, शिव, धन्य, मंगलमय, अलंकृत न होने धनं मंगल्लं अणलंकियविभूसियं लक्खण- अनलंकृतविभूषितं लक्षण-व्यञ्जन-गुणोपेतं पर भी विभूषित, लक्षण, व्यञ्जन, गुणों से युक्त वंजण-गणोववेयं सिरीए अतीव-अतीव उव- श्रिया अतीव-अतीव उपशोभमानं पश्यति, और श्री से अतीव-अतीव उपशोभमान शरीर को
१. भ.वृ.२१४२-'ओरालं'ति प्रधानम् | २. वही,२।४२----अलंकृतं मुकुटादिभिर्विभूषितं—वस्त्रादिभिस्तनिषेधादनलङ्
कृतविभूषितम् । ३. देखें, अणु.सू.३७८/ ४. भ.वृ.२१४२ लक्षणं-मानोन्मानादि, तत्र मान-जलद्रोणमानता, जलभृत
कुण्डिकायां हि मातव्यः पुरुषः प्रवेश्यते तत्प्रवेशे च यज्जलं ततो निस्सरति, तद्यदि द्रोणमानं भवति, तदाऽसौ मानोपेत उच्यते । उन्मानं त्वर्द्धभारमानता, मातव्यः पुरुषो हि तुलारोपितो यद्यर्द्धभारमानो भवति, तदोन्मानोपेतोऽसाबुच्यते । प्रमाणं पुनः स्वाङ्गुलेनाष्टोत्तरशताङ्गुलोच्छ्रयता, यदाह
"जलदोणमद्धभारं समुहाइ समूसिओ उ जो नव उ। माणुम्माणपमाणं तिविहं खलु लक्खणं एवं ॥" व्यञ्जनं–मषतिलकादिकमथवा सहज लक्षणं पश्चाद्भवं व्यञ्जनमिति।
गुणाः सौभाग्यादयो लक्षणव्यञ्जनानां वा ये गुणास्तैरुपपेतं यत्तत्त
था। ५. अणु.३६०, गा.१
माणुम्माणप्यमाणजुत्ता, लक्खणवंजणगुणेहिं उववेया।
उत्तमकुलप्पसूया उत्तमपुरिसा मुणेयव्वा ।। ६. वही, ३६०-जेणं जया मणुस्सा भवंति तेसि णं तया अप्पणो अंगुलेणं
दुवालस अंगुलाई मुहं, नवमुहाई पुरिसे पमाणजुत्ते भवइ । दोणीए पुरिसे माणजुत्ते भवइ, अद्धभारं तुल्लमाणे पुरिसे उम्माणजुत्ते भवइ। ७. भ.११।१३४-लक्खण-वंजण-गुणोववेयं माणुम्माण-प्पमाण-पडिपुण्णसुजाय___ सव्वंगसुंदरंग। ८. भ.वृ.२१४३–'सिरीए'त्ति लक्ष्म्या शोभया वा।
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