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________________ श.२ः उ.१: सू.३५-४२ २२० भगवई ३८. तए णं से भगवं गोयमे खंदयं कच्चायण- ततः सः भगवान गौतमः स्कन्दकं कात्यायन- ३८. भगवान् गौतम ने कात्यायनसगोत्र स्कन्दक से सगोत्तं एवं वयासी एवं खलु खंदया ! सगोत्रम् एवमवादीद्-एवं खलु स्कन्दक! इस प्रकार कहा—स्कन्दक ! मेरे धर्माचार्य, ममं धम्मायरिए धम्मोवदेसए समणे भगवं मम धर्माचार्यः धर्मोपदेशकः श्रमणः भगवान् धर्मोपदेशक श्रमण भगवान् महावीर हैं। वे उत्पन्न महावीरे उप्पण्णनाणदंसणधरे अरहा जिणे महावीरः उत्पन्नज्ञानदर्शनधरः अर्हत जिनः ज्ञान-दर्शन के धारक', अर्हत, जिन, केवली, केवली तीयपचुप्पत्रमणागयवियाणए सब्ब- केवली अतीतप्रत्युत्पन्नानागतविज्ञायकः सर्व- अतीत, वर्तमान और भविष्य के विज्ञाता, सर्वज्ञ ण्णू सचदरिसी जेणं मम एस अठे तव ज्ञः सर्वदर्शी येन मम एष अर्थः तव तावत् और सर्वदर्शी हैं। उन्होंने मुझे तुम्हारा यह रहस्यताव रहस्सकडे हव्बमक्खाए, जओ णं अहं रहस्यकृतः 'हव्वं' आख्यातः, यतः अहं । पूर्ण अर्थ बताया। स्कन्दक ! जिससे यह मैं जाणामि खंदया! जानामि स्कन्दक! जानता हूँ। भाष्य १. उत्पन्न ज्ञान-दर्शन के धारक देखें, भ.१।२००-२१० का भाष्य । ३६. तए ण से बंदए कच्चायणसगोत्ते भगवं गोयमं एवं वयासी गच्छामो णं गोयमा ! तव धम्मायरियं धम्मोवदेसयं समणं भगवं महावीरं वंदामो नमसामो सकारेमो सम्माणेमो कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पञ्जुवासामो। अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं ॥ ततः सः स्कन्दकः कात्यायनसगोत्रः भगवन्तं ३६. कात्यायनसगोत्र स्कन्दक ने भगवान् गौतम से गौतमम् एवमवादीत् गच्छावः गौतम ! तब इस प्रकार कहा-गौतम ! हम चलें, तुम्हारे धर्माधर्माचार्य धर्मोपदेशकं श्रमणं भगवन्तं महावीरं । चार्य, धर्मोपदेशक श्रमण भगवान् महावीर को वन्दावहे नमस्यावः सत्कारयावः सम्मानयावः वन्दन-नमस्कार करें, सत्कार-सम्मान करें। वे कल्याणं मंगलं दैवतं चैत्यं पर्युपास्वहे । कल्याणकारी, मंगल, देव और प्रशस्तचित्तवाले हैं, उनकी हम पर्युपासना करें। यथासुखं देवानुप्रिय ! मा प्रतिबन्धम् । देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख हो, प्रतिबंध मत करो। ४०. तए णं से भगवं गोयमे बंदएणं कच्चा- ततः सः भगवान् गौतमः स्कन्दकेन कात्या- ४०. भगवान् गौतम ने कात्यायनसगोत्र स्कन्दक के यणसगोत्तेणं सद्धिं जेणेव समणे भगवं महा- यनसगोत्रेण सार्द्धम् यत्रैव श्रमणः भगवान् साथ जहां श्रमण भगवान् महावीर थे, वहां जाने वीरे, तेणेव पहारेत्य गमणाए । महावीरः, तत्रैव प्रादीधरत् गमनाय । का संकल्प किया। ४१. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे वियट्टभोई यावि होत्था ॥ तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणः भगवान् ४१. उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीरः व्यदृभोजी चापि आसीत् । महावीर प्रतिदिनभोजी थे। भाष्य १. प्रतिदिनमोजी वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'व्यावृत्तभोजी' किया है। इसके निरुक्त में उन्होंने लिखा है—'व्यावृत्त-व्यावृत्त (भिन्न-भिन्न) सूर्य में भोजन करने वाला व्यावृत्तभोजी कहलाता है। यहां प्रतिदिन के अर्थ में 'व्यावृत्त' का प्रयोग संगत नहीं लगता। संस्कृत शब्द कोश में 'अट्ट' का एक अर्थ 'निरन्तर' है। इसलिए व्यट्टमोजी का अर्थ निरन्तरभोजी' किया जा सकता है। ४२. तए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स ततः श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य ४२. 'प्रतिदिनभोजी श्रमण भगवान् महावीर का वियट्टभोइस्स सरीरयं ओरालं सिंगारं व्यट्टभोजिनः शरीरकम् 'ओरालं' शृंगारं शरीर प्रधान, शृंगारित (अतिशयशोभित), कल्लाणं सिवं धनं मंगल्लं अणलंकिय- कल्याणं शिवं धन्यं मांगल्यं अनलंकृत- कल्याण, शिव, धन्य, मंगलमय, अलंकृत न होने विभूसियं लक्खण-वंजण-गुणोववेयं सिरीए विभूषितं लक्षण-व्यञ्जन-गुणोपेतं श्रिया पर भी विभूषित, लक्षण, व्यञ्जन, गुणों से युक्त अतीव-अतीव उवसोमेमाणं चिट्ठइ॥ अतीव-अतीव उपशोभमानं तिष्ठति । और श्री से अतीव-अतीव उपशोभमान है। २. आप्टे. अट्ट frequent, constant १. वही,२।४१–'वियट्टभोइ'त्ति व्यावृत्ते व्यावृत्ते सूर्ये भुङ्क्ते इत्येवंशीलो व्यावृत्तभोजी प्रतिदिनभोजीत्यर्थः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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