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________________ भगवई १. होत्या वृत्तिकार ने विभक्ति - परिवर्तन के द्वारा होत्या का प्रयोग अस्ति के स्थान में माना है।' २. वह निकट आ गया है....... निकट मार्ग पर है। ३४. मंतेत्ति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासी पहू णं भंते! खंदए कच्चायणसगोते देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए ? हंता पभू ॥ ३५. जावं च णं समणे भगवं महावीरे भगवओ गोयमस्स एयम परिकहेइ, तावं च णं से खंद कच्चायणसगोत्ते तं देसं हब्वमागए । ३६. तए णं भगवं गोयमे खंदयं कच्चायणसगोत्तं अदूरागतं जाणित्ता खिप्पामेव अब्भुट्टेति, अब्भुट्टेत्ता खिप्पामेव पच्छुवगच्छs, जेणेव खंदए कच्चायणसगोत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता खंदयं कच्चायणसगोत्तं एवं वयासी हे खंदया ! सागयं खंदया ! सुसागयं खंदया ! अणुराग खंदया ! सागयमणुरागयं खंदया ! से नूणं तुमं खंदया ! सावत्थीए नयरीए पिंगलएणं नियंठेणं वेसालियसावएणं इणमक्खेवं पुच्छिए मागहा ! किं सअंते लोगे ? अणंते लोगे ? एवं तं चेव जाव जेणेव इहं, तेणेव हब्बमागए। से नूणं खंदया ! अट्ठे समट्ठे ? हंता अपि ॥ ३७. तए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते भगवं गोयमं एवं वयासीसे केस णं गोयमा ! तहारूवे नाणी वा तवस्सी वा, जेणं तव एस अट्टे ममताव रहस्सकडे हव्यमक्खाए, जओ तु जाणसि ? २१६ भाष्य Jain Education International भदन्त ! अयि ! भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादीत् ——– प्रभुः भदन्त ! स्कन्दकः कात्यायनसगोत्रः देवानुप्रियाणाम् अन्तिके मुण्डः भूत्वा अगाराद् अनगारतां प्रव्रजितुम् ? हन्त प्रभुः । यावच् च श्रमणः भगवान् महावीरः भगवतः गौतमस्य एतदर्थं परिकथयति तावच् च स स्कन्दकः कात्यायनसगोत्रः तं देशं 'हव्वं' आगतः । गौतम ने पूछा- 'मैं स्कन्दक को कब देखूंगा ?' इसके उत्तर में भगवान् ने कहा--' उसे तू आज ही देखेगा।' इस 'आज' की व्याख्या में ने चार विशेषणों का प्रयोग किया है। सूत्रकार ततः भगवान् गौतमः स्कन्दकं कात्यायनसगोत्रम् अदूरागतं ज्ञात्वा क्षिप्रमेव अभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय क्षिप्रमेव प्रत्युपगच्छति, यत्रैव स्कन्दकः कात्यायनसगोत्रः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य स्कन्दकं कात्यायनसगोत्रम् एवमवादीत् हे स्कन्दक ! स्वागतं स्कन्दक ! सुस्वागतं स्कन्दक ! अन्वागतं स्कन्दक ! स्वागतमन्वागतं स्कन्दक! अथ नूनं त्वं स्कन्दक ! श्रावस्त्यां नगर्यां पिंगलकेन निर्ग्रन्थेन वैशालिक श्रावकेण इममाक्षेपं पृष्टः — मागध ! किं सान्तः लोकः ? अनन्तः लोकः ? एवं तच्चैव यावत् यत्रैव इह, तत्रैव 'हव्वं' आगतः । स नूनं स्कन्दक ! अर्थः हन्त अस्ति । समर्थः ? १. भ. वृ. २ । ३३ – 'होत्य'त्ति विभक्तिपरिणामादस्तीत्यर्थः अथवा कालस्यावसर्पिणीत्वाव्यसिद्धगुणा कालान्तर एवाभवन्नेदानीमिति । ततः सः स्कन्दकः कात्यायनसगोत्रः भगवन्तं गौतमम् एवमवादीत् — स क एष गौतम ! तथारूपः ज्ञानी वा तपस्वी वा येन तव एष अर्थः मम तावत् रहस्यकृतः 'हव्वं' आख्यातः, यतः त्वं जानासि ? २. वही, २ । ३३ ' अदूरागए 'त्ति अदूरे आगतः, स चावधिस्थानापेक्षयाऽपि स्यात् अथवा दूरतरमार्गापेक्षया क्रोशादिकमप्यदूरं स्यादत उच्यते 'बहुसंपत्ते' ईष श. २: उ.१: सू.३३-३७ For Private & Personal Use Only ३४. ' भन्ते' ! इस सम्बोधन से सम्बोधित कर भगवान् गौतम श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन - नमस्कार करते हैं। वन्दन-नमस्कार कर वे इस प्रकार बोले—भन्ते ! कात्यायनसगोत्र स्कन्दक देवानुप्रिय के पास मुण्ड होकर अगार धर्म से अनगार धर्म में प्रव्रजित होने में समर्थ है ? हां, वह समर्थ है। ३५. जितने में श्रमण भगवान् महावीर भगवान् गौतम से यह बात कह रहे हैं, उतने में वह कात्यायनसगोत्र स्कन्दक शीघ्र ही उस स्थान पर पहुंच गया । ३६. भगवान् गौतम कात्यायनसगोत्र स्कन्दक को निकट आया हुआ जानकर शीघ्र ही खड़े होते हैं, खड़े होकर शीघ्र ही सामने जाते हैं, जहां कात्यायनसगोत्र स्कन्दक है, वहां पहुँचते हैं, पहुंचकर उन्होंने कात्यायनसगोत्र स्कन्दक से इस प्रकार कहा—हे स्कन्दक ! स्वागत है स्कन्दक ! सुस्वागत है स्कन्दक ! अन्वागत है स्कन्दक ! स्वागत - अन्वागत है स्कन्दक ! स्कन्दक ! श्रावस्ती नगरी में वैशालिक श्रावक निर्ग्रन्थ पिंगल ने तुमसे यह प्रश्न पूछा— मागध ! क्या लोक सान्त है। अथवा अनन्त है ? इस प्रकार गौतम ने वह सारी बात कही यावत् जहां भगवान् महावीर है, वहां तुम आए हो । स्कन्दक ! क्या यह अर्थ संगत है ? हां, है । ३७. उस कात्यायनसगोत्र स्कन्दक ने भगवान् गौतम से इस प्रकार कहा- गौतम ! वह ऐसा तथारूप ज्ञानी अथवा तपस्वी कौन है जिसने मेरा यह रहस्यपूर्ण अर्थ तुम्हें बताया, जिससे यह तुम जानते हो ? दूनसंप्राप्तो बहुसंप्राप्तः, स च विश्रामादिहेतोरारामादिगतोऽपि स्यादत उच्यते'अद्धाणपडिवत्रे' त्ति मार्गप्रतिपन्नः किमुक्तं भवति ? -- ' अंतरापहे वट्टइत्ति विवक्षितस्थानयोरन्तरालमार्गे वर्तत इति । www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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