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श.२: उ.१: सू.३१-३३ २१८
भगवई लिए बारह प्रकार के उपकरणों का उल्लेख मिलता है। उनमें चौथा यहां 'पवित्र' का अर्थ जल छानने का वस्त्र, छन्ना है। यहां यही उपकरण पात्र-केसरिका है। इसका अर्थ पात्र को साफ करने का अर्थ प्रासंगिक लगता है। गुणरल ने षड्दर्शनसमुच्चय की टीका में वस्त्रखण्ड है।' भगवती वृत्ति में भी यही अर्थ उपलब्ध है। सांख्य परिव्राजकों के लिए छलनी रखने का उल्लेख किया है। देखें
भ. २०२४ का भाष्य। छण्णालय-त्रिकाष्ठिका, टिकठी।
गणेत्तिया-कलाई का आभरण | अंकुश-इसका प्रयोग वृक्ष के पत्तों को तोड़ने के लिए किया जाता था। औपपातिक वृत्ति के अनुसार देवार्चन के लिए भी इसका
औपपातिक वृत्ति में इसका अर्थ 'हाथ का एक आभरण' किया उपयोग होता था।"
है।" ज्ञाता वृत्ति में इसका अर्थ 'रुद्राक्ष से बना हुआ कलाई का
आभरण' किया है।" देशीनाममाला में 'अक्षमाला' के अर्थ में 'गणेत्ती' पवित्रक छलनी या छन्ना।
का प्रयोग मिलता हैं।" यह आश्चर्य की बात है कि लेटिन में भगवती वृत्ति में इसका अर्थ अंगूठी और औपपातिक वृत्ति में रुद्राक्ष के नाम में 'गणित्रस्' शब्द मिलता है।" तांबे की अंगूठी है। इसका एक अर्थ 'कुश घास की अंगूठी है,
पाउरत्ताओ-वृत्तिकार ने यहां शाटिका का अध्याहार किया जो धार्मिक अवसरों पर चतुर्थ अंगुली में पहनी जाती है। किन्तु
३२. गोयमाइ ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी
दच्छसिणं गोयमा ! पुव्वसंगइयं। के भंते!? बंदयं नाम। से काहे वा ? किह वा ? केविचिरेण वा?
गौतम ! अयि ! श्रमणः भगवान् महावीरः ३२. 'हे गौतम !'इस सम्बोधन से सम्बोधित कर भगवन्तं गौतमम् एवमवादी
भगवान् महावीर ने भगवान् गौतम से इस प्रकार
कहाद्रक्ष्यसि गौतम ! पूर्वसांगतिकम् । गौतम ! तुम अपने पूर्व मित्र को देखोगे। कं भदन्त !?
भन्ते ! किसको? स्कन्दकं नाम।
स्कन्दक को। अथ कदा वा ? कथं वा ? कियचिरेण वा? कब ? कैसे? और कितने समय के पश्चात् ?
भाष्य १. गोयमाइ
वृत्तिकार ने इसके संस्कृत रूप दो किए हैं-गौतम इति, गौतम अयि ।"
३३. एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये ३३. गौतम ! उस काल और उस समय श्रावस्ती
समएणं सावत्यी नामं नगरी होत्या- श्रावस्ती नाम नगरी आसीत्-वर्णकः । तत्र नामक नगरी थी'-नगर-वर्णन | उस श्रावस्ती वण्णओ। तत्थ णं सावत्यीए नयरीए श्रावस्त्यां नगर्यां गर्दभालस्य अन्तेवासी नगरी में गर्दभाल का शिष्य कात्यायनसगोत्र गद्दभालस्स अंतेवासी खंदए नामंकबायण- स्कन्दकः नाम कात्यायनसगोत्रः परिव्राजकः स्कन्दक नामक परिव्राजक रहता है। भगवान् ने सगोत्ते परिव्वायए परिवसइ । तं चेव जाव परिवसति। तचैव यावद् यत्रैव ममान्तिके, वह सारी बात बताई यावत् जहां मैं हूं, उसने जेणेव ममं अंतिए, तेणेव पहारेत्थ तत्रैव प्रादीधरत् गमनाय। सः अदूरागतः वहां आने का संकल्प किया। (अब) वह निकट गमणाए। से अदूरागते बहुसंपत्ते अद्धाण- बहुसंप्राप्तः अध्वप्रतिपन्नः अन्तरा पथे वर्तते। आ गया है, थोडी दूरी पर है, वह मार्ग में चल पडिवण्णे अतंरा पहे वट्टइ। अजेवणं अधैव द्रक्ष्यसि गौतम !
ही रहा है, निकट मार्ग पर है।' गौतम ! तुम दच्छसि गोयमा!
आज ही उसको देखोगे।
१. (क) ओघ. ६६५
पत्तं पत्ताबंधो पायट्ठवणं च पायकेसरिया। (ख) ओघ.वृ.प.२०५–पात्रकेसरिका पात्रकमुखवस्त्रिका । २. भ.वृ.२।३१ केशरिका-प्रमार्जनार्थं चीवरखण्डम् । ३. वही,२।३१-अंकुशकं तरुपल्लवग्रहणार्थमंकुशाकृतिः । ४. औप.वृ.पृ. १०–अंकुशकाः देवार्चनार्थं वृक्षपल्लवाकर्षणार्थ अंकुशकाः। ५. भ.व.२।३१ पवित्रकं अंगुलीयकम् । ६. औप.वृ. पृ. १८०–पवित्रकाणि ताम्रमयान्यंगुलीयकानि । ७. आप्टे,—पवित्रम् -A ring of kusa grass worm on the fourth
finger on certain religious occasions. . आप्टे कृत कोश में 'पवित्रवत्' का अर्थ है -Having a strainer. इससे
पवित्र का अर्थ strainer अर्थात् 'जल छानने का वस्त्र' होता है। ६. भ.वृ.२।३१ गणेत्तिका कलाचिकाऽऽभरणविशेषः । १०. औप.वृ.पृ.१८०-गणेत्तिका हस्ताभरणविशेषः। ११. ज्ञाता.वृ.पृ.२२७-गणेत्रिका रुद्राक्षकृतं कलाचिकाभरणम् । १२. देशीनाममाला,पृ.२१५-....अक्खवले गणेत्ती अ ।। १३. आप्रे.-रुद्राक्ष Eleocarpus Ganitrus. १४. (क) भ.वृ.२१३१ धाउरत्ताओ त्ति शाटिका इति विशेषः।
(ख) औप.तृ.पृ.१८० धाउरत्ताओ यत्ति धातुरक्ता-गैरिकोपरजिता
शाटिका इति गम्यम् । १५. भ.वृ.२।३२--गौतम इति एवमामन्त्र्येति शेषः, अथवाऽयीत्यामन्त्रणार्थ
मेव।
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