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भगवई
गच्छइ, उवागच्छित्ता तिदंडं च कुंडियं च कंचणियं च करोडियं च मिसियं च केसरियं च छण्णालयं च अंकुसयं च पवित्तयं च गणेत्तियं च छत्तयं च वाहणाओ य पाउयाओ य धाउरत्ताओ य गेण्हइ, गेण्हित्ता परिव्यायागावसहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता तिदंड - कुंडिय-कंचणिय-करोडियमिसिय-केसरिय छण्णालय- अंकुसय-पवित्तयगणेत्तियहत्थगए, छत्तोवाहणसंजुत्ते, घाउरत्तवत्थपरिहिए सावत्थीए नयरीए मज्झमज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव कयंगला नगरी, जेणेव छत्तपलासए चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव पहारेत्य गमणाए ।
१. सूत्र ३१ शब्द-विमर्श
अज्झत्थिय — इसका संस्कृत रूप आध्यात्मिक होता है। इस आधार पर अज्झत्तिए पाठ की परिकल्पना की जा सकती है। किन्तु प्राचीन प्राकृत में प्रायः सर्वत्र द्वित्व तकार के स्थान पर 'त्थ' का प्रयोग मिलता है। इसका अर्थ है 'आन्तरिक, आत्मविषयक' ।
चिन्तित - स्मृत्यात्मक । प्रार्थित —अभिलाषात्मक ।
है ।
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च्छति, उपागम्य त्रिदण्डं च कुण्डिकां च 'कंचणियं' च करोटिकां च वृषिकांच केशरिकां च 'छन्नालय' च अङ्कुशं च पवित्रकं च 'गणेत्तियं' च छत्रकं च उपानही च पादुके च धातुरक्ताः च गृह्णाति, गृहीत्वा परिव्राजकावसथात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिकम्य हस्तगतत्रिदण्ड- कुण्डिका- 'कंचणिय'करोटिका - वृषिका केशरिका- 'छन्नालय' अंकुशक-पवित्रक-‘गणेत्तिय’-छत्रोपानत्संयुक्तः, परिहितधातुरक्तवस्त्रः श्रावस्त्याः नगर्याः मध्यमध्येन निर्गच्छति, निर्गम्य यत्रैव कय'ञ्जला नगरी, यत्रैव छत्रपलाशकं चैत्यं, यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीरः, तत्रैव प्रादीधरत्
गमनाय ।
मनोगत — मन में विद्यमान, वचन के द्वारा अप्रकाशित । संकल्प -- संकल्पना, विकल्प।'
आध्यात्मिक से संकल्प तक एक वाक्य गुच्छक है। इसमें संकल्प की प्रक्रिया निर्दिष्ट है। स्कन्दक ने जनसमूह से सुना कि महावीर कयंजला नगरी में आए हुए हैं, तब उसके मन में एक आन्तरिक स्पन्दन हुआ, उसने स्मृति का रूप ले लिया । स्मृति ने इच्छा को जागृत कर दिया। इच्छा मन के स्तर पर प्रकट हो गई। अंत में संकल्प अभिव्यक्त हो गया।
अर्थ, हेतु, प्रश्न, कारण और व्याकरण—यह भी एक गुच्छक
भाष्य
अर्थ — भाव, पदार्थ का वास्तविक स्वरूप ।
हेतु — साध्य के बिना जिसका न होना निश्चित हो ।
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१. भ. वृ. २ । ३१ --- ' अज्झत्थिए' त्ति आध्यात्मिक आत्मविषयः, 'चिंतिए'त्ति स्मरणरूपः, 'पत्थिए 'त्ति प्रार्थितः - अभिलाषात्मकः, 'मणोगए 'त्ति मनस्येव यो गतो न वहिः वचनेनाप्रकाशनात् स तथा, 'सङ्कल्पः' विकल्पः । २. (क) औप.वृ. पृ. १८० काञ्चनिका रुद्राक्षमयमालिका ।
श. २: उ.१: सू. ३१
है, संप्रेक्षा कर वह जहां परिव्राजकों का मठ है, वहां आता है, आकर त्रिदण्ड, कमण्डलु, रुद्राक्षमाला, मृत्पात्र, आसन, केसरिका (पात्रप्रमार्जन का वस्त्र-खण्ड) टिकठी, अंकुश, छलनी ( छन्ना), कलाई पर पहने जाने वाला रुद्राक्ष- आभरण, छत्र, चर्मनिर्मित पादत्राण और गेरुआ वस्त्र ग्रहण करता है । ग्रहण कर वह परिव्राजक के मठ से बाहर निकलता है, बाहर निकलकर उसने त्रिदण्ड, कमण्डलु, रुद्राक्षमाला, मृत्पात्र, आसन, केसरिका, टिकठी, अंकुश, छलनी, कलाई पर पहने जाने वाला रुद्राक्ष - आभरण को हाथ में लिया, छत्र तथा पादत्राण धारण किए, गेरुआ वस्त्र पहन कर श्रावस्ती नगरी के मध्य से निकलता है, निकल कर जहां कयंजला नगरी है, जहां छत्रपलाशक चैत्य है, जहां श्रमण भगवान् महावीर है, वहां जाने का उसने संकल्प किया।
प्रश्न जिज्ञासा ।
कारण — जिसके बिना कार्य की उत्पत्ति न हो सके और जो निश्चित रूप से कार्य का पूर्ववर्ती हो ।
व्याकरण- विवेचना, विश्लेषण, व्याख्या ।
प्रस्तुत सूत्र २।३१ में सांख्य परिव्राजक के १८ उपकरणों का उल्लेख है, जिनमें निम्नलिखित शब्द विमर्शनीय हैं
त्रिदण्ड – यह बांस के तीन दंडों को एकत्र बांधकर बनाया जाता है। यह वाणी, मन और शरीर के संयमन का प्रतीक माना जाता है।
कुंडिका कमण्डलु । कांच निका— रुद्राक्षमाला' ।
करोटिका-मिट्टी का प्याला ।
वृषिका — उपवेशनपट्टिका, मृर्गचर्म का आसन, कुश-घास का बना हुआ आसन ।
इसका मूल पाठ 'भिसिया' है। इसके संस्कृत रूप अनेक हो सकते हैं—बृशी, वृषी, वृसी, वृषी, वृसी । "
केसरिका — जैन साधना-पद्धति के अनुसार जिनकल्पी मुनि के
(ख) भ. वृ. २।३१ काञ्चनिका— रुद्राक्षकृता ।
३. आप्टे. वृषी, वृसी – The seat of an ascetic or religious student (made of kusa grass).
४. वही (देखें, सभी उल्लिखित शब्द) ।
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