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________________ था। श.२: उ.१: सू.३०,३१ २१६ भगवई कौटुम्बिक-कतिपय कुटुम्बों का स्वामी जो राजसेवक होता तीन प्रयोग मिलते हैं। इनका संस्कृत रूप उत्कृष्टि है। उत्क्रुष्ट का ___एक अर्थ 'हर्ष-ध्वनि' है।' इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति और सार्ववाह-इनकी व्याख्या स्थानांग सिंहनाद सिंहगर्जना। वृत्ति के अनुसार इस प्रकार है बोल अस्पष्ट वचन। इभ्य–धनवान् जिसके पास इतना धन हो कि उसके धन के कलकल स्पष्ट वचन। ढेर में छिपा हुआ हाथी भी न मिले। मलयगिरि ने 'बोल' का अर्थ 'अव्यक्त ध्वनि' और 'कलकल' श्रेष्ठी नगर सेठ। इसके मस्तक पर श्रीदेवी से अंकित सोने __ का अर्थ 'व्यक्त वचन' किया है। जीवाजीवाभिगम वृत्ति में उन्होंने का एक पट्ट बंधा रहता था। 'बोल' का अर्थ 'मुंह के आगे हाथ देकर ऊंचे स्वर से आवाज सेनापति हाथी, अश्व, रथ और पैदल-इन चतुर्विध करना' तथा 'कलकल' का अर्थ 'व्याकूल शब्द-समूह' किया है। सेनाओं का अधिपति । इसकी नियुक्ति राजा करता था अभयदेवसूरि ने औपपातिक वृत्ति में 'बोल' का अर्थ 'अव्यक्त ध्वनि' सार्थवाह—सार्थ (सथवाड़ों) का अधिपति । और 'कलकल' का अर्थ 'व्यक्त वचन' किया है। उत्कृष्ट--यहां भगवती के आदर्शों में पाठ संक्षिप्त है। उक्विड प्रस्तुत सूत्र में 'बोल' और 'कलकल' का प्रयोग दो बार हुआ यह पाठ ओवाइयं से संग्रहीत है। उस के आदर्शों और मुद्रित प्रति है। प्रथम में 'बोल' का अर्थ 'अव्यक्त वर्ण वाली ध्वनि' और में उक्किटु पाठ उपलब्ध है। वृत्ति में व्याख्या से पूर्व जो पाठ उद्धृत 'कलकल' का अर्थ 'स्पष्ट वचन-विभाग वाली ध्वनि' किया गया है।' किया है, उसमें उक्कटि पाठ मिलता है-उद्विसीहनाय-बोल-कलकल द्वितीय प्रयोग में 'बोल' का अर्थ 'अव्यक्त ध्वनि' और 'कलकल' रवेण'ति।' अभयदेवसूरि ने इसकी व्याख्या 'आनन्द महाध्वनि' की का अर्थ 'अव्यक्त वचन' किया है।” इस आधार पर 'कलकल' है। ध्वनि के अर्थ में संस्कृत शब्दकोष में 'उत्कृष्टि' शब्द उपलब्ध का अर्थ 'भीड़ की ध्वनि, कोलाहल' किया जा सकता है। वह व्यक्त नहीं आयानिलिमेंट किलोमीणा और अव्यक्त दोनों प्रकार का हो सकता है। ३१.तएणं तस्स खंदयस्स कच्चायणसगोत्तस्स ततः तस्य स्कन्दस्य कात्यायनसगोत्रस्य ३१. 'अनेक लोगों के पास इस बात को सुनकर, बहजणस्स अंतिए एयमटुं सोचा निसम्म बहुजनस्य अन्तिके एतदर्थं श्रुत्वा निशम्य मन में अवधारण कर उस कात्यायनसगोत्र इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए अयमेतादृकुरूपः आध्यात्मिकः चिन्तितः स्कन्दक के इस प्रकार का आध्यात्मिक, मणोगए संकप्पे समुपजित्था एवं खलु प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपादि-एवं स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, मनोगत संकल्प समणे भगवं महावीरे कयंगलाए नयरीए खलु श्रमणः भगवान् महावीरः कयञ्जलायाः उत्पन्न हुआ श्रमण भगवान् महावीर कयंजला बहिया छत्तपलासए चेइए संजमेणं तवसा नगर्याः बहिः छत्रपलाशके चैत्ये संयमेन तपसा नगरी के बाहर छत्रपलाशक चैत्य में संयम और अप्पाणं भावमाणे विहरइ। तं गच्छामि णं आत्मानं भावयन् विहरति । तत् गच्छामि तप से आत्मा को भावित करते हुए रह रहे हैं, समणं भगवं महावीरं वदामि नमसामि। श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दे नमस्यामि। इसलिए मैं वहां जाऊं और श्रमण भगवान महावीर सेयं खलु मे समणं भगवं महावीरं वंदित्ता श्रेयः खलु मम श्रमणं भगवन्तं महावीरं को बन्दन-नमस्कार करूं । श्रमण भगवान् महावीर नमंसित्ता सकारेत्ता सम्माणेत्ता कल्लाणं वंदित्वा नमस्थित्वा सत्कृत्य सम्मान्य कल्याणं को वन्दन-नमस्कार कर उनका सत्कार-सम्मान कर मंगलं देवयं चेइयं पञ्जुवासित्ता इमाइं च णं मंगलं दैवतं चैत्यं पर्युपास्य इमान् च एतद्- कल्याणकारी, मंगल, देव और प्रशस्त चित्तवाले एयारूवाई अट्ठाई हेऊइं पसिणाई कारणाई रूपान् अर्थान् हेतून् प्रश्नान् कारणानि भगवान् की पर्युपासना कर इन इस प्रकार के वागरणाई पुच्छित्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ, व्याकरणानि प्रष्टुम् इति कृत्वा एवं संप्रेक्षते, अर्थों, हेतुओं, प्रश्नों, कारणों और व्याकरणों को संपेहेत्ता जेणेव परिवायगावसहे तेणेव उवा- संप्रेक्ष्य यत्र परिव्राजकावसथः तत्त्व उपाग- पूछना मेरे लिए श्रेयस्कर होगा, ऐसी संप्रेक्षा करता अर्थवान् स क श्रेष्ठी श्राप ७. जीवा. १. स्था.वृ.प.४३६-इभ्यः-अर्थवान् स च किल यदीयपुजीकृतद्रव्यराश्यन्त- रितो हस्त्यपि नोपलभ्यत इत्येतावताऽर्थेनेति भावः । श्रेष्ठी-श्रीदेवताध्या- सितसौवर्णपट्टभूषितोत्तमाङ्गः पुरज्येष्ठो वणिक् । सेनापतिः-नृपतिनिरूपितो हस्त्यश्वरथपदातिसमुदायलक्षणायाः सेनायाः प्रभुरित्यर्थः। सार्थवाहकः- सार्थनायकः। श्रेष्ठी की विशेष जानकारी के लिए देखें, दसवे. चूलिका, ११५ का टिप्पण। २. औप.पू.पृ.११२। ३. भ.वृ.२।३०–उत्कृष्टिश्च आनन्दमहाध्वनिः । ४. आव.नि.गा.२३१,१७५,२३१॥ (द्रष्टव्य अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्द- कोष)। ५. आप्रे-उकुष्ट-Crying out, exclaiming. ६. राज.वृ.पृ.२८६–बोलश्च वर्णव्यक्तिवर्जितो ध्वनिः, कलकलश्च व्यक्त वचनः । ७. जीवा.वृ.प.३४६,४७-बोलो नाम मुखे हस्तं दत्त्वा महता शब्देन पूत्करणं यच्च कलकलो व्याकुलशब्दसमूहः। ८. औप.वृ.पृ.११२,११३–बोलश्च वर्णव्यक्तिवर्जितो ध्वनिरेव कलकलश्च व्यक्त वचनः स एव तल्लक्षणे यो रवः स तथा तेन । ६.भ.वृ.२॥३०-बोलः--अव्यक्तवर्णो ध्वनिः, कलकलः स एवोपलभ्यमान वचनविभागः। १०. वही.२३०-बोलश्च-वर्णव्यक्तिवर्जितो महाध्वनिः, कलकलश्च अव्यक्तवचनः, स एवैतल्लक्षणो यो रवस्तेन | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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