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________________ भगवई नायाम्म हाओ' और ओवाइयं' में भी यह उल्लेख मिलता है। भगवान् पार्श्व के शिष्य केशी के आगमन पर भी उक्त कुलों के जाने का उल्लेख मिलता है। इन संदर्भों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उग्र, भोज आदि कुलों के लोग प्राचीन काल से श्रमण परम्परा, आर्हत धर्म, निर्ग्रन्थ धर्म या जैन धर्म के अनुयायी रहे हैं । प्रस्तुत आगम के एक सूत्र से इस संभावना की पुष्टि होती है। गौतम के एक प्रश्न के उत्तर में भगवान महावीर ने बताया —ये उग्र, भोज, राजन्य, ईक्ष्वाकु, ज्ञात या नाग और कौरव इस धर्म (निर्ग्रन्थ धर्म) में दीक्षित होते हैं और दीक्षित होकर कुछ मुक्त हो जाते हैं, कुछ स्वर्ग में चले जाते हैं। ' थावच्चापुत्र और सेलक के प्रसंग से भी यह तथ्य उजागर होता है। थावच्चापुत्र भगवान् अरिष्टनेमि के शिष्य थे । राजा सेक ने थावच्चापुत्र से कहा—जैसे उग्र, भोज आदि प्रव्रजित होते हैं वैसे मैं प्रव्रजित होने में समर्थ नहीं हूं। ऐसा ही प्रसंग रायपसेणइयं में मिलता है। इससे यह स्पष्ट है कि उग्र, भोज आदि कुल प्राचीनकाल से ही जैन धर्म के अनुयायी थे। आवश्यकनियुक्ति के अनुसार भगवान् ऋषभ से इन कुलों का संबंध था । शब्द - विमर्श उग्र — भगवान् ऋषभ ने आरक्षक वर्ग के रूप में जिनकी नियुक्त की थी, वे उग्र कहलाए। उनके वंशजों को भी उग्र कहा गया है । भोज— जो गुरुस्थानीय थे, वे तथा उनके वंशज । राजन्य — जो मित्रस्थानीय थे, वे तथा उनके वंशज । क्षत्रिय-क्षत से त्राण देने वाला क्षत्रिय कहलाता है। यह 'क्षत्रिय' शब्द का निरुक्त है। आवश्यकनियुक्ति के अनुसार भगवान् ऋषभ ने चतुर्वर्ग की व्यवस्था की थी १. उग्र — आरक्षक वंश । २. भोज — गुरुवंश । १. नाया. १।१ । ६६ । २. ओवा.सू. ५२ । ३. राय. सू. ६८८/ ४. भ. २० / ७६ –जे इमे भंते! उग्गा, भोगा, राइण्णा, इक्खागा, नाया, कोरव्या - एए णं अस्सिं धम्मे ओगाहंति, ओगाहित्ता अट्ठविहं कम्मरयमलं पवाहेति, पवाहेत्ता तओ पच्छा सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंत करेंति ? हंता गोयमा ! जे इमे उग्गा, भोगा, राइण्णा, इक्खागा, नाया, कोरव्या - एए णं अस्सिं धम्मे ओगाहंति, ओगाहित्ता अट्ठविहं कम्मरयमलं पवाहेति, पवाहेत्ता तओ पच्छा सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति, अत्येगतिया अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ता उववत्तारो भवति । ५. नाया. १।५।४५। ६. राय. सू. ६६५ । ७. आब. नि.गा. १६६ । ८. देखें, दसवे. २८ का टिप्पण | ६. आव. नि.गा. २०२ उग्गा भोगा रायण्ण खत्तिआ संगहो भवे चउहा । आरक्खिगुरुवयंसा सेसा जे खत्तिया ते उ ।। Jain Education International २१५ ३. राजन्य — भगवान् का वयस्य वंश । ४. क्षत्रिय — उक्त तीन वर्गों के अतिरिक्त शेष सवका नाम 'क्षत्रिय' किया गया। १० वृत्तिकार ने तीन शब्दों के अर्थ में आवश्यकनिर्युक्ति का अनुसरण किया है। 'क्षत्रिय' शब्द का अर्थ राजकुलीन किया है। इस विषय में दसवेआलियं ( ६ । २ का टिप्पण) तथा उत्तराध्ययनः एक समीक्षात्मक अध्ययन (पृ. ७७-८६) द्रष्टव्य हैं। माहण-- 'माहण' का प्रयोग समण के साथ भी हुआ है और स्वतंत्र भी हुआ है। 'माहण' मुनि का पर्यायवाची नाम भी है और वह ब्राह्मण का वाचक भी है। यहां राजन्य क्षत्रिय, माहण, भट-इन शब्दों का प्रयोग है। यहां 'माहण' शब्द मुनि का वाचक नहीं है। सूयगडो में अनेक स्थानों पर समण और माहण का प्रयोग जैन मुनि से भिन्न मुनियों के लिए भी हुआ है।" इसलिए 'माहण' का अर्थ प्रकरण या संदर्भ के अनुसार ही किया जा सकता है। श. २ः उ.१: सू.३० भट— शूर १३ यो विशिष्ट पराक्रमी योद्धा । प्रशास्ता — धर्मशास्त्र का पाठक अथवा प्रशासक। मल्ल-ईसापूर्व छठी शताब्दी में लिच्छवी गणतंत्र अस्तित्व में था। वह बहुत शक्तिशाली था । उस गणतंत्र में नौ मल्ल और नौ लिच्छवी राजेश सम्मिलित थे । मल्लों का राज्य काशी में और लिच्छवियों का राज्य कौशल प्रदेश में था। १५ लिच्छवी लिच्छवी और विदेहों के राष्ट्र का नाम 'बाजी' था। बज्जी गणतंत्र की राजधानी वैशाली थी। महावस्तु में लिच्छवियों को वैशालिक कहा गया है। राजा नरेश १६ ईश्वर — युवराज तलवर — कोतवाल १७ माम्बिक मडम्ब का अधिपति । वृत्तिकार ने 'सन्निवेश का नायक' किया है। १८ ११. सू. १ । १ ६४१, ६७ । १२. भ. वृ. २।३० १३. वही, २।३० उग्रा भोगा राजन्याः क्षत्रिया एष चतुर्द्धा भवति संग्रहः, एतेषामेव यथाक्रमं स्वरूपमाह — आरक्षका उग्रदण्डकारित्वादुग्राः, गुरवो — गुरुस्थानीया भगवत आदितीर्थकरस्थ प्रतिपत्तिस्थानीया इति भावः भोगाः, वयस्याः स्वामिनः समवयसो राजन्याः, शेषा उक्तव्यतिरिक्ता ये ते पुनः क्षत्रिया इति । १०. भ.वृ.२ । ३० – 'उग्रा' आदिदेवावस्थापिताऽऽरक्षकवंशजाताः, 'भोगाः' तेनैवावस्थापितगुरुवंशजाताः, 'राजन्याः ' भगवद्वयस्यवंशजाः, 'क्षत्रियाः' राजकुलीनाः । भटाः शौर्यवन्तः । योधाः तेभ्यो विशिष्टतराः । For Private & Personal Use Only इसका अर्थ १४. देखें, सूय. २।१।१४ का टिप्पण | १५. उवंगा (निरया.)१।१२७ – तए णं से चेडए राया इमी से कहाए लद्धट्टे समाणे नवमल्लई नवलेच्छई कासीकोसलगा अट्ठारसवि गणरायाणो सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी । १६. महावस्तु, भा. १,पृ.२५४ — वैशालिकानां लिच्छिवीनां वचनेन । १७. मडम्ब की जानकारी के लिए देखें, भ. १।४६ का भाष्य । १८. भ. वृ. २।३० माडम्विका : ' सन्निवेशविशेषनायकाः । www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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