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________________ श.२: उ.१: सू.३० २१४ भगवई समूहवाची, बोल और कलकल—ये दोनों पद ध्वनिवाची तथा अंतिम ऐसा माना जाता है कि 'नमस्' शब्द के उच्चारणपूर्वक जो प्रणाम तीन पद समूहवाची हैं। इस प्रकार ध्वनि और समूह का मिश्रण किया जाता है, वह नमस्कार है। रचना-शैली का एक व्यवधान बनता है । हमारी दृष्टि में सातों पद शिष्टाचार का चौथा अंग है-'प्रतिप्रच्छन' । इसका अर्थ है समूहवाचक हैं। इसलिए जणसद की अपेक्षा जणसम्मद्द पाठ अधिक शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का प्रश्न करना।" संगत है । 'बोल' का अर्थ समूह भी मिलता हैं।' कलकल का अर्थ भी एक प्रकार का समुदाय होना चाहिए | बोल और कलकल शिष्टाचार का पांचवा अंग है-'पर्युपासना'। इसका अर्थ शब्द ध्वनि के अर्थ में इसी सूत्र में प्रयुक्त हैं-उक्किद्वसीहनाय-बोल- है-सेवा अथवा पास में बैठना। कलकलरवेणं । अर्थ-तत्व या विषय। जनोर्मि-भीड़ अथवा जनता की लहर । चैत्य-वृत्तिकार ने चैत्य का अर्थ 'इष्टदेव की प्रतिमा' किया जनोत्कलिका-लघुतर जनसमुदाय । है।" यहां चैत्य-तुल्य व्यक्तिके लिए चैत्य शब्द का प्रयोग विवक्षित जनसनिपात-भिन्न-भिन्न स्थानों से आए हुए लोगों का सर्गम । है । जयाचार्य ने राजप्रश्नीय वृत्ति को उद्धृत करते हुए इसका अर्थ तथारूप-संगत रूप वाला । 'अत्यन्त प्रशस्त मन का हेतु' किया है।" चैत्य शब्द के अनेक अर्थों की जानकारी के लिए देखें भ.११५ का भाष्य । नाम, गोत्र-नाम और गोत्र दोनों एकार्थक हैं । वृत्तिकार ने इनका विशेष अर्थ बतलाया है । उनके अनुसार यादृच्छिक संज्ञा प्रेत्यभव-जन्मान्तर । को 'नाम' और गुणनिष्पन्न संज्ञा को 'गोत्र' कहा जाता है। हित—जिसका परिणाम अच्छा हो । किमंग पुनः इसका प्रयोग पूर्वोक्त अर्थ की विशिष्टता बतलाने सुख मूलपाठ सुहाए है । इसके संस्कृत रूप दो हो सकते के लिए हुआ हैं । 'अंग' आमत्रंण के अर्थ में प्रयुक्त होता हैं।' हैं-शुभाय और सुखाय । वृत्तिकार ने केवल सुखाय किया है।" ___ अभिगमन....पर्युपासन-यह एक गुच्छक है। इसके द्वारा क्षम–संगतत्व", औचित्य, सामर्थ्य । शिष्टाचार की पद्धति बतलाई गई है। शिष्टाचार का पहला अंग है निःश्रेयस कल्याण । वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'मोक्ष' किया अभिगमन-सामने जाना या निकट जाना । शिष्टाचार का दूसरा अंग है 'वन्दन'–निकट जाकर उनकी आनुगामिकता-भविष्य में उपकारक के रूप में साथ देने विशेषताओं का उल्लेख करना । वदि धातु के दो अर्थ हैं-स्तुति वाला । वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'परम्परा के रूप में शुभ अनुबन्धन और अभिवादन | विशेषताओं का उल्लेख करना स्तुति है । वाला' किया है। वृत्तिकार ने वन्दन का अर्थ स्तुति किया है। मनुस्मृति में अभिवादन की तीन क्रमिक क्रियाएं बतलाई गई हैं उग्र-उग्र आदि प्राचीन भारतीय कुल हैं। ठाणं और पण्णवणा में छह कुलों का उल्लेख मिलता है—१. उग्र २. भोज ३. राजन्य १. प्रत्युत्थान-अपने आसन से उठना । ४. ईक्ष्वाकु ५. ज्ञात या नाग ६. कौरव।" २. पादोपसंग्रह-दोनों पैरों को इकट्ठा करना । आयारचूला में भी उग्र आदि कुलों का उल्लेख मिलता है।" ३. अभिवादन-जिनका अभिवादन किया जाता है उनके भगवान् महावीर जिस नगर में पधारे और उनकी अगवानी में जो नाम और पद का उल्लेख करते हुए फिर अपना नाम बतलाना।" लोग गए उनमें उग्र, भोज आदि का मुख्य उल्लेख है।' शिष्टाचार का तीसरा अंग है 'नमस्यन'-नमस्कार करना।' १. देशी शब्द कोश। २. भ.वृ.२।३०-ऊर्मि-संबाधः कल्लोलाकारो वा जनसमुदायः, उत्कलिका समुदाय एव लघुतरः, जनसन्निपातः-अपरापरस्थानेभ्यो जनानां मीलनम् । ३. वही,२।३०-नाम्नो यादृच्छिकस्याभिधानस्य, गोत्रस्य च गुणनिष्पत्रस्य ।। ४. वही.२।३०-'किमंग पुण'त्ति किंपुनरिति पूर्वोक्तार्थस्य विशेषद्योतनार्थः अनेत्यामन्त्रणे। ५. वही,२।३०-अभिगमनम्-अभिमुखगमनम् । ६. वही, २।३० वंदनम् स्तुतिः। ७. मनुस्मृति,२।१२०१२६। ५. भ.६.२।३०-नमस्यनम् -प्रणमनम् । ६. आप्टे.-नमस्कार-Bowing, Respectfulor Reverentialsaluta tion, Respectful obeisance made by uttering the word नमस्। १०. भ.बृ.२३० प्रतिप्रच्छनम्-शरीरादिवार्ताप्रश्नः। ११. भ.वृ.२१३०-चैत्यम् -इष्टदेवप्रतिमा, चैत्यमिव चैत्यम् । १२. भ.जो.१।३१।६७ चैत्य-अत्यंत प्रशस्त मनो हेतु स्वामी, ए चिहुं पद नो तंत, अर्थ कीधो धामी, कीधो धामी प्रभु हितकामी, वृत्ति रायप्रश्रेणी थी पामी । म्है तो जासां जासां वंदन वीर प्रभू अंतरजामी॥ १३. भ.वृ.२१३०-'सुखाय' शर्मणे। १४. वही,२।३०'क्षमाय' संगतत्वात् । १५. वही,२।३०-'निःश्रेयसाय' मोक्षाय । १६. वही,२।३०–'आनुगामिकत्वाय' परम्पराशुभानुबन्धसुखाय । १७. (क) ठाणं,६।३५ छविहा कुलारिया मणुस्सा पण्णता, तंजहा उग्गा, भोगा, राइण्णा, इक्खागा, णाता, कोरव्वा । (ख) पण्ण.911 १८. आ.चूला १२३ १६. भ.२।३०, ६।२०४,११1१६५/ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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