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भगवई
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श.२: उ.१: सू.३० हियाए सुहाए खमाए निस्सेयसाए आणु- साय आनुगामिकत्वाय भविष्यति इति कृत्वा भव और इस भव के लिए हित, शुभ, क्षम, निःगामियत्ताए भविस्सइ त्ति कटु बहवे उग्गा बहवः उग्राः उग्रपुत्राः भोजाः भोजपुत्राः एवं श्रेयस और आनुगामिकता के लिए होगा', ऐसा उग्गपुत्ता भोगा भोगपुत्ता एवं दुप्पडो- द्विप्रत्यवतारेण-राजन्याः क्षत्रियाः माहनाः सोचकर अनेक उग्र, उग्रपुत्र, भोज, भोजपुत्रयारेणं-इण्णा खत्तिया माहणा भडा जोहा
भटाः योधाः प्रशास्तारः मल्लवयः, लिच्छ- इस प्रकार द्विपदावतार के रूप में राजन्य, क्षत्रिय, पसत्यारो मल्लई लेच्छई लेच्छईपुत्ता अण्णे य
वयः, लिच्छविपुत्राः अन्ये च बहवः राजेश्वर- माहन, भट, योद्धा, प्रशासक, मल्लवि, लिच्छवि, बहवे राईसर-तलवर-माइंबिय-कोडुंबिय-इब्भ
-तलवर-माडम्बिक-कौटुम्बिक-इभ्य श्रेष्ठि- लिच्छविपुत्र तथा अन्य अनेक राजे, युवराज, सहि-सेणावइ-सत्यवाहप्पमितो जाव महया
सेनापति-सार्थवाहप्रभृतयः यावन् महता। कोटवाल, मडम्बपति, कुटुम्बपति, इभ्य, सेठ, उकि(क?)दुसीहनाय-बोल-कलकल-श्वेणं पक्खुभियमहासमुद्दरवभूयं पिव करेमाणा
उत्कुष्टसिंहनाद-बोल-कलकलरवेण प्रक्षुभित- सेनापति, सार्थवाह आदि हर्षध्वनि, सिंहनाद, सावत्थीए नयरीए मझमझेणं निग्गच्छति ॥ महासमुद्ररवभूतम् इव कुर्वाणाः श्रावस्त्याः अस्पष्ट ध्वनि और कोलाहल ध्वनि से गर्जते हुए नगर्याः मध्यमध्येन निर्गच्छन्ति ।
महासमुद्र की भांति शब्द करते हुए श्रावस्ती नगरी के ठीक मध्य से निकलते हैं।
भाष्य
१. सूत्र ३० शब्द-विमर्श शृंगाटक....पथ
शृंगाटक तीन मार्गों का मध्य भाग। इसका आकार यह होगा-AI
त्रिक-तिराहा-जहां तीन मार्ग मिलते हों। इसका आकार यह होगा ।
___ चतुष्क-चौराहा-चार मार्गी का मध्यभाग। चतुष्कोण भूभाग। इसका आकार यह होगा
चत्वर—चौहटा-जहां चार मार्ग मिलते हों। इसका आकार यह होगा-+ ।
भिन्न-भिन्न व्याख्या-ग्रंथों में 'चत्वर' के अनेक अर्थ मिलते हैं१. सीमाचतुष्क २. त्रिपथभेदी ३. बहुतर रथ्याओं का मिलन-स्थान ४. चार मार्गों का समागम ५. छह मार्गों का समागम ।।
स्थानांगवृत्तिकार ने इसका अर्थ 'आठ रथ्याओं का मध्य' किया है।
चतुर्मुख देवकुल आदि मार्ग। देवकुलों के चारों ओर दरवाजे होते हैं । १. (क) भ.वृ.२१६६–'सिंघाडग' ति शृंगाटकफलाकारं स्थानं, त्रिक---रथ्या
त्रयमीलनस्थानं, चतुष्कं रध्याचतुष्कमीलनस्थानं, चत्वरं-बहुतररथ्यामीलनस्थान, महापथो-राजमार्गः, पन्थाः-रथ्यामात्रम् । (ख) स्था.वृ.प.२८० । ठाणं, पृ.६१५,६१६ |
(ग) अल्पपरिचित शब्दकोष । २. (क) भ.वृ.२।३० जनसम्पर्दः उरोनिष्पेषः ।
(ख) भ.जो.१/३११४१
महापक-राजमार्ग।
पथ-सामान्य मार्ग। जनसम्मर्द.....जनसनिपात
जनसम्मर्द से जनसन्निपात तक ये सात पद हैं ।
जनसम्पर्द-इतनी भीड़ कि जहां जनता खंधे से खंधा मिलाकर चले।
जनव्यूह-चक्राकार जन-समूह । जनबोल जन-समूह । जनकलकल बृहत् जन-समुदाय ।
वृत्तिकार ने 'बोल' का अर्थ अव्यक्त वर्णवाली ध्वनि और 'कलकल' का अर्थ स्पष्ट वचन विभाग वाली ध्वनि किया है। औपपातिक वृत्ति और राजप्रश्नीय वृत्ति में भी यही अर्थ मिलता है।'
यहां पाठ-सम्वन्धी विमर्श आवश्यक है । उसके आधार पर ही अर्थ का विमर्श किया जा सकता है। ओवाइयं', रायपसेणइयं तथा प्रस्तुत आगम के नौवें शतक (सू. १५६-१५६) में जणसम्मद के स्थान पर जणसद्द पाठ है । इस पाठ-परम्परा के अनुसार शब्द, बोल, और कलकल ये तीनों ध्वनि-वाचक हैं । दूसरा शब्द 'व्यूह' समूह-वाचक है और अंतिम तीन पद भी समूह-वाचक हैं । प्रस्तुत सूत्र की पाठ-परम्परा के अनुसार 'सम्मर्द' और 'व्यूह' ये दोनों पद
बहुजन एम वदै माहोमाय, आगल ए संबंध जुड़ाय ।
तिहां जन-संमर्द उरो-निःपेष, उरु सूं उरु अडी सुविशेष ॥ ३. भ.बृ.२।३०–बोलः अव्यक्तवर्णो ध्वनिः कलकलः स एवोपलभ्यमान
वचनविभागः। ४. औप.वृ.पृ.१०८; राज.वृ.पृ.२८४ । ५. ओवा.सू.५२। ६. राय.सू.६८७।
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