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________________ श.२: उ.५: सू.११०,१११ २७८ भगवई २. दायित्वपूर्ण ३. विशिष्ट दायित्वपूर्ण आउजिया का अर्थ है-अभिमुखीभूत, शुभ प्रवृत्ति में व्याप्त। पलिउजिया का अर्थ है विशिष्ट दायित्वपूर्ण। वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'ज्ञानी' किया है।' १११. तहास्वं णं भंते ! समणं वा माहणं वा तथारूपं भदन्त ! श्रमणं वा माहनं वा १११. 'भन्ते तथारूप श्रमण-माहन की पर्युपासना पजुवासमाणस्स किंफला पञ्जुवासणा ? पर्युपासीनस्य किम्फला पर्युपासना ? करने का क्या फल है ? गोयमा ! सवणफला। गौतम ! श्रवणफला । गौतम ! पर्युपासना का फल है-श्रवण । से णं भंते ! सवणे किंफले? अथ भदन्त ! श्रवणं किम्फलम् ? भन्ते ! श्रवण का क्या फल है ? नाणफले। ज्ञानफलम् । गौतम ! श्रवण का फल ज्ञान है। से णं भंते ! नाणे किंफले? अथ भदन्त ! ज्ञानं किम्फलम् ? भन्ते ! ज्ञान का क्या फल है ? विण्णाणफले। विज्ञानफलम्। गौतम ! ज्ञान का फल विज्ञान है। से णं भंते ! विण्णाणे किंफले? अथ भदन्त ! विज्ञानं किम्फलम् ? भन्ते ! विज्ञान का क्या फल है ? पच्चक्खाणफले। प्रत्याख्यानफलम्। गौतम ! विज्ञान का फल प्रत्याख्यान है। से णं भंते ! पञ्चक्खाणे किंफले? अथ भदन्त ! प्रत्याख्यानं किम्फलम् ? भन्ते ! प्रत्याख्यान का क्या फल है ? संजमफले। संयमफलम। गौतम ! प्रत्याख्यान का फल संयम है। से णं भंते ! संजमे किंफले? अथ भदन्त ! संयमः किम्फलः ? भन्ते ! संयम का क्या फल है ? अणण्हयफले। अनास्त्रवफलः। गौतम ! संयम का फल अनास्त्रव है। से णं भंते ! अणण्हए किंफले। अथ भदन्त ! अनानवः किम्फल: ? भन्ते ! अनानव का क्या फल है ? तवफले। तपःफलः। गौतम ! अनानव का फल तप है। से णं भंते ! तवे किंफले? अथ भदन्त ! तपः किम्फलम् ? भन्ते ! तप का क्या फल है ? वोदाणफले। व्यवदानफलम् । गौतम ! तप का फल व्यवदान है। से णं भंते ! वोदाणे किंफले? अथ भदन्त ! व्यवदानं किम्फलम् ? भन्ते ! व्यवदान का क्या फल है ? अकिरियाफले। अक्रियाफलम् । गौतम ! व्यवदान का फल अक्रिया है। साणं भंते ! अकिरिया किंफला? अथ भदन्त ! अक्रिया किम्फला ? भन्ते ! अक्रिया का क्या फल है ? सिद्धिपज्जवसाणफला-पण्णत्ता गोयमा ! सिद्धिपर्यवसानफला–प्रज्ञप्ता गौतम ! गौतम ! अक्रिया का अन्तिम फल सिद्धि है। संग्रहणी गाथा संगहणी गाहा सवणे नाणे य विण्णाणे, पञ्चक्खाणे य संजमे। अणण्हए तवे चेव, वोदाणे अकिरिया सिद्धी ॥१॥ संग्रहणी गाथा श्रवण, ज्ञान, विज्ञान, प्रत्याख्यान, संयम, अनानव, तप, व्यवदान, अक्रिया और सिद्धि । श्रवणं ज्ञानं च विज्ञानं, प्रत्याख्यानं च संयमः। अनास्त्रवः तपश्चैव, व्यवदानम् अक्रिया सिद्धिः ॥ भाष्य १. सूत्र १११ प्रस्तुत सूत्र में श्रमण-माहन की पर्युपासना से प्राप्त होनेवाली अध्यात्म-विकास की दस भूमिकाओं का उल्लेख किया गया है। सन्तसाहित्य में 'सत्संग' शब्द बहुत प्रचलित है। उससे होनेवाली ऊर्धारोहण की प्रक्रिया का एक बहुत सुन्दर चित्रण यहां उपलब्ध है १. श्रवण धर्म अथवा अध्यात्म का श्रवण । २. ज्ञान–श्रुतज्ञान। ३. विज्ञान हेय और उपादेय का विवेक । ४. प्रत्याख्यान हेय और उपादेय का विवेक होने पर ही मनुष्य हेय का प्रत्याख्यान करता है। ५. संयम इन्द्रिय और मन का संयमन | ६. अनाम्रक नए कर्म का निरोध । ७. तप--विशिष्ट प्रकार की शुभ प्रवृत्ति । ८. व्यवदान पुरातन कर्म की निर्जरा। ६. अक्रिया-मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति का निरोध । २. वही,२१११०–'पलिउज्जिय'त्ति परि-समन्ताद् योगिकाः परिज्ञानिन इत्यर्थः परिजानन्तीति भावः। १. वही,२।११०–'आउज्जिय'त्ति आयोगिकाः उपयोगवन्तो ज्ञानिन इत्यर्थः जानन्तीति भावः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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