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भगवई
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श.२: उ.५: सू.१११-११३ १०. सिद्धि-मोक्ष।'
हैं।' दसवेआलियं में इन भूमिकाओं का विस्तार से निरूपण हुआ ये अध्यात्म-विकास की दस भूमिकाएं ठाणं में भी उपलब्ध
उण्हजलकुंड-पदं
उष्णजलकुण्ड-पदम्
उष्णजलकुण्ड-पद
११२. अत्रउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति, अन्ययूथिकाः भदन्त ! एवमाख्यान्ति, ११२. 'भन्ते ! अन्ययूथिक इस प्रकार आख्यान भासंति, पण्णवेति परुति एवं खलु भाषन्ते, प्रज्ञापयन्ति, प्ररूपयन्ति एवं खलु करते हैं, भाषण करते हैं, प्रज्ञापन करते हैं, रायगिहस्स नयरस्स बहिया वेभारस्स राजगृहस्य नगरस्य बहिः वैभारस्य पर्वतस्य प्ररूपणा करते हैं राजगृह नगर के बाहर वैभार पव्वयस्स अहे, एत्य णं महं एगे हरए अघे अधः, अत्र महान् एकः हृदः अघः प्रज्ञप्तः पर्वत के नीचे अघ नामक एक विशाल द्रह प्रज्ञप्त पण्णते अणेगाई जोयणाई आयाम- -अनेकानि योजनानि आयाम- विष्कम्भेण है। उसकी लंबाई-चौड़ाई अनेक योजन है। विक्खंभेणं, नाणादुमसंडमंडिउद्देसे, सस्सि- नानाद्रुमषण्डमंडितोद्देशः सश्रीकः प्रासादीयः उसका तटभाग नाना द्रुमवनों से मण्डित है। वह रीए पासादीए दरिसणिज्जे अभिरूवे दर्शनीयः अभिरूपः प्रतिरूपः । तत्र बहवः श्रीसम्पन्न, द्रष्टा के चित्त को प्रसन्न करने वाला, पडिरूवे । तत्थ णं बहवे ओराला बलाहया 'ओराला' बलाहकाः संस्वेदन्ते संमूर्च्छन्ति। दर्शनीय, कमनीय और रमणीय है। उसमें बहुत संसेयंति संमुच्छंति वासंति। तब्बइरित्ते य वर्षन्ति। तद्व्यतिरिक्तश्च सदा समितः । प्रधान बलाहक (जलीय स्कन्धों को ऊपर उठाने णं सया समियं उसिणे-उसिणे आउकाए उष्णः-उष्णः अकायः अभिनिःप्रवति । वाला ताप) भाप बनते हैं, बादल बनते हैं और अमिनिस्सवइ।
बरसते हैं। उस जलाशय के भर जाने पर वह सदा सघन रूप में गरम-गरम जल का अभिनिःस्रवण करता है।
भाष्य
१. सूत्र ११२
वृत्तिकार ने हरए अघे के स्थान पर 'अप्पे' इस पाठ का उल्लेख किया है। प्राचीन लिपि में 'घ' और 'प' की लिखावट समान है। 'अप्प' का अर्थ है जल का उद्गम स्थल ।'
शब्द-विमर्श
उद्देश तटभाग। सया समियं देखें,भ.१।३१४-३१६ का भाष्य ।
११३.से कहमेयं भंते ! एवं?
तत् कथमेतत् भदन्त ! एवम् ? गोयमा ! जं णं ते अण्णउत्थिया एव- गौतम ! यत्ते अन्ययूथिकाः एवमाख्यान्ति माइक्खंति जाव जे ते एवमाइक्खंति, मिच्छं यावत् ये एते एवमाख्यान्ति, मिथ्या ते एव- ते एवमाइक्खंति । अहं पुण गोयमा ! एव- माख्यान्ति । अहं पुनः गौतम ! एवमाख्यामि, माइक्खामि, भासामि, पण्णवेमि, परवेमि भाषे, प्रज्ञापयामि, प्ररूपयामि एवं खलु
-एवं खलु रायगिहस्स नयरस्स बहिया राजगृहस्य नगरस्य बहिः वैभारस्य पर्वतस्य वेभारस्स पव्वयस्स अदूरसामंते, एत्य णं अदूरसामन्ते, अत्र महातपोपतीरप्रभवं नाम महातवोवतीरप्पभवे नाम पासवणे पण्णत्ते प्रस्रवणं प्रज्ञप्तं—पञ्च धनुःशतानि आयाम
-पंच घणुसयाई आयाम-विक्खंभेणं, विष्कम्भेण, नानाद्रुमषण्डमण्डितोद्देशं सश्रीकं नाणादुमसंडमंडिउद्देसे सस्सिरीए पासादीए प्रासादीयं दर्शनीयं अभिरूपं प्रतिरूपम् । तत्र दरिसणिजे अभिरूवे पडिरूवे। तत्थ णं बहवः उष्णयोनिकाः जीवाः च पुद्गलाः च बहवे उसिणजोणिया जीवा य पोग्गला य उदकत्वाय अवक्रामन्ति, व्युत्क्रामन्ति, च्यव- उदगत्ताए वक्कमति विउक्कमंति चयंति न्ते, उपपद्यन्ते । तद्व्यतिरिक्तोऽपि च सदा उववजंति । तब्बइरित्ते वि यणं सया समियं समितः उष्णः-उष्णः अप्कायः अभिनिः- उसिणे-उसिणे आउयाए अभिनिस्सवइ। स्रवति ।
११३. 'भन्ते ! यह इस प्रकार कैसे है ? गौतम ! जो अन्ययूथिक इस प्रकार आख्यान करते हैं यावत् जो वे ऐसा आख्यान करते हैं, वे मिथ्या आख्यान करते हैं। गौतम ! मैं इस प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन और प्ररूपणा करता हूं-राजगृह नगर के बाहर वैभार पर्वत के न अतिदूर न अतिनिकट महातपोपतीरप्रभव नामक निर्झर है। उसकी लम्बाई-चौड़ाई पांच सौ धनुष है। उसका तटभाग नाना द्रुमवनों से मण्डित है, वह श्रीसंपन्न, द्रष्टा के चित्त को प्रसन्न करने वाला, दर्शनीय, कमनीय और रमणीय है। वहां अनेक उष्णयोनिक जीव और पुद्गल उदकरूप में उत्पन्न होते हैं और विनष्ट होते हैं, च्युत होते हैं और उत्पन्न होते हैं। उस जलाशय के भर जाने पर उससे सदा सघनरूप में गरम-गरम जल का अभि
१. भ.बृ.२११११। २. ठाणं,३,४१८/ ३. दसवे.४|११-२५॥
४. भ.वृ.२/११२॥ ५. आप्टे.
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