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________________ श.१: उ.३: सू.१३३-१३५ ७८ भगवई सीधा होना। उसका वक्र पर्याय में चले जाना अस्तित्व का अस्तित्व में परिणमन है। मिट्टी का नास्तित्व तन्तु में है। तन्तु का मृत्तिका-नास्तित्व-रूप पट में बदलना नास्तित्व का नास्तित्व में परिणमन है। २. सत् का सत् के रूप में परिणमन होना। नास्तित्व अर्थात् अत्यन्ताभाव का अत्यन्ताभाव के रूप में परिणमन होना। ३. अस्तित्व का अस्तित्व में होना-जैसे पट पटत्व में होता है। नास्तित्व का नास्तित्व में होना-जैसे अपट अपटत्व में होता वैनसिक दोनों मानता है। जिस प्रकार उत्पाद-पर्याय प्रायोगिक और वैनसिक दोनों प्रकार का होता है, उसी प्रकार व्यय-पर्याय भी दोनों प्रकार का होता है। पानी की बर्फ जमाई, यह पानी का प्रयत्नजनित विनाश है। ऋतु के प्रभाव से पानी का बर्फ हो जाना पानी का अप्रयत्नजनित विनाश है। अस्तित्व का एक अर्थ है सत या सत्ता। यहां उसका अर्थ उत्पाद-पर्याय है। इसी प्रकार नास्तित्व का अर्थ अभाव नहीं, विनाश-पर्याय है। यह अर्थ 'प्रयोग' और 'विनसा' के आधार पर निष्पन्न होता है। अस्तित्व और नास्तित्व दोनों का परिणमन प्रयोग से हो सकता है और स्वभाव से भी। सत्तात्मक अस्तित्व स्वभाव से परिणत होता है, किसी प्रयोग से नहीं। इसे जैन दर्शन में अनादि पारिणामिक भाव कहा जाता है। छहों द्रव्य अनादि पारिणामिक भाव हैं। वे ईश्वरकृत नहीं हैं। ईश्वरकारणवादी परमाणु और चेतन-द्रव्य को उत्पन्न नहीं मानते। वे केवल अवयवीमात्र को ईश्वरकृत मानते हैं। औपनिषद दर्शन में आकाश को ईश्वरजन्य माना गया है। इस ईश्वरकर्तृत्ववादी धारणा को अस्वीकार करने के साथ-साथ जैन दर्शन ने मूल द्रव्य और पर्याय का विस्तार से विवेचन किया है। उस सारे विस्तार को दो शब्दों में समेटा गया है-अनादि पारिणामिक और सादि पारिणामिक। मूल द्रव्य अनादि पारिणामिक हैं। उनके जो पर्याय हैं वे सादि पारिणामिक हैं। प्रस्तुत आलापक में सादि पारिणामिक की चर्चा की गई है। इसलिए यहां अस्तित्व और नास्तित्व उत्पाद और विनाश-पर्याय से संबद्ध हैं। आचार्य सिद्धसेन और अकलंक ने प्रायोगिक और वैनसिक की सूक्ष्म दृष्टि से चर्चा की है।' अभयदेवसरि ने अस्तित्व और नास्तित्व की व्याख्या तीन विकल्पों के साथ की है१. स्वरूप की अपेक्षा से अस्तित्व-अंगलि का सहज भाव से शब्द-विमर्श २. प्रयोग से (पओगसा) यह मागधी भाषा का प्रयोग है। तृतीया विभक्ति में सकार का प्रयोग मागधी का लक्षण है। वृत्तिकार ने इसे आगमिक प्रयोग माना है। ३. स्वभाव से (वीससा) संस्कृत शब्दकोशों में विलसा का अर्थ बुढापा या व्यय मिलता है। किन्तु यहां इसका प्रयोग स्वभाव के अर्थ में किया गया है।' ४. तुम्हारा (ते) 'ते' पद की वृत्तिकार ने दो दृष्टियों से व्याख्या की है 'ते' अर्थात तुम्हारे मत में अथवा तुम्हारा। पहला प्रश्न प्रमेय के विषय में किया गया है और दूसरा प्रश्न प्रमाता के विषय में किया गया है; इसलिए 'ते' पद का दूसरा अर्थ अधिक संगत लगता १.(क) सम्मति.३१३२३४ उप्पाओ दुवियप्पो पओगजणिओ य वीससा चेव । तत्य उ पओगजणिओ समुदयवायो अपरिसुद्धो॥ साभाविओ वि समुदयकओ ब्व एगतिओ (एगत्तिओ) ब होजाहि । आगासाईआणं तिण्हं परपच्चओऽणियमा ॥ विगमस्स वि एस विही समुदयजणियम्मि सो उ दुवियप्पो । समुदयविभागमेत्तं अत्यंतरभावगमणं च ॥ (ख)त.रा.वा.५।२४। २. भ.पृ.१।१३३-अस्तित्वम्-अगुल्यादेः अशल्यादिभावेन सत्त्वम्, उक्तं नास्तित्वे अगुष्ठादेः पर्यायान्तरेणास्तित्वरूपे परिणमति, यथा मृदो नास्तित्वं तन्वादिरूपं मनास्तित्वरूपे पटे इति । अथवाऽस्तित्वमिति-धर्मधर्मिणोरभेदात् सद्वस्तु अस्तित्वे-सत्त्वे परिणमति, तत्सदेव भवति, नात्यन्तं विनाशि स्याद्, विनाशस्य पर्यायान्तरगमनमात्ररूपत्वाद्, दीपादिविनाशस्यापि तमिस्रादिरूपतया परिणामात्। तथा 'नास्तित्वम्' अत्यन्ताभावरूपं यत् खरविषाणादि तत् 'नास्तित्वे' अत्यन्ताभाव एव वर्तते, नात्यन्तमसतः सत्त्वमस्ति, खरविषाणस्येवेति, उक्तञ्च नासतो जायते भावो, नाभावो जायते सतः। अथवाऽस्तित्वमिति धर्मभेदात् सद् 'अस्तित्वे' सत्त्वे वर्तते, यथा पटः पटत्व एव, नास्तित्वं चासत् 'नास्तित्वे' असत्त्वे वर्तते, यथा अपटोऽपटत्व एवेति। ३. भ.वृ.१।१३४–'पओगस'त्ति सकारस्यागमिकत्वात् । ४. वही,१1१३४-'वीसस'त्ति यद्यपि लोके विश्रसाशब्दो जरापर्यायतया रूढस्त थाऽपीह स्वभावार्थो दृश्यः, इह प्राकृतत्वाद् ‘वीससाए' ति वाच्ये 'वीससा' सर्वमस्ति स्वरूपेण, पररूपेण नास्ति च । अन्यथा सर्वभावानामेकत्वं संप्रसज्यते॥ तोह ऋजुत्वादिपर्यायरूपमवसेयम्, अशल्यादिद्रव्यास्तित्वस्य कथञ्चिदृजुत्वादिपर्याया व्यतिरिक्तत्वाद् अस्तित्वे-अमुल्यादेरेवाङ्गल्यादिभावेन सत्त्वे वक्रत्वादिपर्याये इत्यर्थः । 'परिणमति' तथा भवति, इदमुक्तं भवति-द्रव्यस्य प्रकारान्तरेण सत्ता प्रकारान्तरसत्तायां वर्तते, यथा मृद्रव्यस्य पिण्डप्रकारेण सत्ता घटप्रकारसत्तायामिति। 'नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइति नास्तित्वम् अगुल्यादेरशुष्ठादिभावेनासत्त्वं तचाङ्गुष्ठादिभाव एव । ततश्चाङ्मुल्यादेन स्तित्वमङ्गुष्ठाद्यस्तित्वरूपमङ्गुल्यादे ५. वही, ११३५-'ते' इति तव मतेन अथवा सामान्येनास्तित्वनास्तित्वपरिणामः प्रयोगविश्रसाजन्य उक्तः, सामान्यश्च विधिः क्वचिदतिशयवति वस्तुन्यन्य- . थाऽपि स्याद् अतिशयवांश्च भगवानिति तमाश्रित्य परिणामान्यथा त्वमाशङ्कमान आह-'जहा ते' इत्यादि, 'ते' इति तवं सम्बन्धि अस्तित्वम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003593
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages458
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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